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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद इतिहास
सकल लोक का तूं भगवान, बिना प्रयोजन बंधु समान । सकल पदारथ भासक भास, तो में बसे अबन्ध विलास |
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जाके हिए कमल जिनदेव, ध्यानाहूत विराजित एव । ताके कौन रह्यौ उपगार, निज आतमनिधि पाई सार । कवि मध्यकालीन संतों की शैली में निर्गुण प्रभु और गुरु की स्तुति बड़े प्रेमभाव से करता है
जामण मरण मिटावो जी, महाराज म्हारो जामण मरण । भ्रमत फिर्यो चहुँगति दुख पायो, सोही चाल छुड़ावो जी । बिनही प्रयोजन दीनबन्धु तुम सोही विरद निबाहो जी । जगजीवन प्रभु तुम सुखदायक, मोकूं सिवसुखद्यावो जी । गुरुवंदना की दो पंक्तियों को उद्धृत करके यह विवरण समाप्त कर रहा हूँ-
बड़ उजाड़ में बैठक जिनकी पलक न एक विडारी, मोह महा अरि जीते पल में लागी अलख सूं तारी ।'
उपरोक्त विवरण एवं उद्धरणों से प्रकट होता है कि जगजीवन जी प्रभावशाली पुरुष, दृढ़ जैन और यशस्वी साहित्यकार थे । वे जैन साहित्य और साहित्यकारों के संरक्षण में लगे रहते थे ।
जनतापी-तापीदास - ( जैनेतर ) आपकी रचना 'अभिमन्यु आख्यान' (सं० १७०८ आसो कृष्ण २ शुक्रवार) का आदि इन पंक्तियों से हुआ है-
विधनहरण विद्यादातार, ते पूज्यनें प्रथम नमस्कार । स्वामी ! छे गिरुउ देव, मनवंछित फल आपो सेव ।
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इस आख्यान की कथा महाभारत के द्रोणपर्व में दी गई अभिमन्यु कथा पर आधारित है । जनतापी ने अपनी रचना का रचनाकाल इस प्रकार बताया है-
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संवत सतर आठज वर्षे, अश्वन मास उत्तम कृष्ण पक्षे । तिथि द्वितीयानि शुक्रवार, स्वाति नक्षत्र ते दिन सार ।
१. डा० प्रेमसागर जैन - हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि पृ० २११-२१४
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