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यह ज्ञान तभी प्राप्त होता है जब ध्यानशक्ति प्राप्त हो और ध्यान शक्ति पंचमीतप से सिद्ध होती है । वरदत्त गुणमंजरी ने पंचमी तप द्वारा सब कुछ प्राप्त किया था, इसलिए इस तप का महत्व समझाने के लिए उनका चरित्र दृष्टांत रूप से प्रस्तुत किया गया है-
ऋषभदास
वरदत्त गुणमंजरी पंचमि आराधी जिण भांति ते दृष्टांत कहस्युं इहां धरी मन खांति ।
पंचमीपंच ग्यानने आपइ, पंच सुमति सम्मपंजइ जी, पंच महाव्रत पंचमी थी हुवै, पंचम अनुस अं बैं जी । ' इसमें तपागच्छ की ऊपर दी गई गुरुपरंपरा बताई गई है । वरदत्त गुणमंजरी का रचनाकाल इस प्रकार कहा गया हैमित्रभाव जुगभाव मदरपति, ससि तइ संवच्छर धारैं जी, ऋषभ आगरे चरित रच्यो ओ, काति सित सरतिथिससिवाजी ।
मदरपति का अर्थ ( मदर = स्वर्ग = ७ सात ) हो सकता है और मित्र शब्द से यदि सूर्य का संकेत हो तो १ या १२ संख्या भी हो सकती है इसप्रकार संकेताक्षरों का अर्थ अस्पष्ट और अनिश्चित होना रचना - काल के निश्चय में बाधा है । इसकी रचना विजयरत्न के सूरिकाल में हुई थी इसलिए सं० १७३२ से ७३ के बीच अर्थात् १८ वीं शती में ही हुई होगी । इनके साथ भाग २ ( जैन गुर्जर कवियो ) में श्री देसाई ने विद्याविलास रास का भी उल्लेख पृ० ३४० ३८३ पर किया था पर सं० १८४० में रचित कोई कृति इनकी नहीं हो सकती, इसके कर्त्ता कोई अन्य ऋषभदास हो सकते हैं जो छानबीन के पश्चात् निश्चित हो सकता है अतः उसे छोड़ा जा रहा है ।
ऋषिदीप - ये वर्द्धमान के शिष्य थे । सं० १७५७ में 'गुणकरंड गुणावली चौपs, के बाद सुदर्शन सेठ छप्पय तथा पंचमी चौपइ की इन्होंने रचना की है । इसमें से सुदर्शन चरित्र छप्पय, छप्पय छंदों में पद्यबद्ध अच्छी रचना है । यह प्रकाशित भी है ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो भाग ३ पृ० १३३९ ( प्र० सं० ) और भाग ५ पृ० ६१-६३ ( न० सं० ) 1
२. वही, भाग ५ पृ० ६१-६३ ( न० सं० ) |
३. अगरचन्द नाहटा - परम्परा पृ ११४ ।
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