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जगतराम (जगतराय) स्पष्ट रूप से लिखा है- 'इति श्रीमनु महाराज श्री जगतराय जी विरचितायां सम्यक्त्व कौमुदी कथायां अष्टम् कथानकम् सम्पूर्णम् ।' इससे तो जगतराम ही इसके कर्ता प्रमाणित होते हैं। यह सम्भावना है कि सं० १७२१ में जगतराय ने यह रचना की हो और सं० १७२२ में कवि काशीदास ने इसकी प्रतिलिपि की हो। इसमें अनेक जिनभक्तों की कथाए हैं। सम्यक्त्व कौमुदी कथा भाषा का रचनाकाल डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने सं० १७७२ माघ शुक्ल १३ बताया है।' अन्य रचनाओंसे इसका रचनाकाल मेल नहीं खाता, इसलिए शंकास्पद है। पद्मनन्दी पंचविंशतिका के रचनाकार पूण्यहर्ष और अभयकुशल थे। सं० १७२२ में उन लोगों ने इसकी रचना जगतराय के लिए की थी। प्रशस्ति में लिखा है 'कीना भाषा एह जगतराय जिहि विधि भाषी।' हो सकता है कि जगतराय ने लिखाया हो और उन दोनों ने इसे लिखा हो । आगरा निवासी नवाब हिम्मतखान के कथनानुसार जगतराय ने छन्दरत्नावली की रचना सं० १७३० कार्तिक शुक्ल पक्ष में आगरा में पूर्ण की थी। यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें छन्दों का विवेचन किया गया है। इसमें सात अध्याय हैं जिनमें से छठे अध्याय में फारसी छन्दों का और सातवें अध्याय में तुकों के भेदोपभेद वर्णित हैं। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के खोज विवरण से उनकी एक कृति 'जैन पदावली' का भी पता चलता है जिसमें २३३ पद हैं। उसके एक पद की दो पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं
प्रभु बिन कौन हमारौ सहाई।
और सबै स्वारथ के साथी, तुम परमारथ भाई। तुलसी के इस दोहे से इसका कितना भावसाम्य है
हरे चरहिं तापहि बरे फरे पसारहिं हाथ, - तुलसी स्वारथ मीत सब परमारथ रघुनाथ ।
वे बहुपठित विद्वान् थे। उनके पदों में कई आध्यात्मिक फागु हैं जिनमें नाना रूपक बाँधे गए हैं, यथा
सुध बुध गोरी संग लेय कर, सुरुचि गुलाल लगा रे तेरे । .: समताजल पिचकारी, करुणा केसर गुण छिरकाय रे तेरे । १. सम्पादक डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल और अनूपचन्द---राजस्थान के जैन ... शास्त्र भंडारों की ग्रन्थ सूची भाग ४ पृ० २५२। २. डॉ० प्रेमसागर जैन--हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि पृ० २५१-५८
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