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चम्पाराम
१२९ चंपाराम-आपने भद्रबाहुचरित्र नामक काव्य की रचना ढूढाण प्रदेश (राजस्थान) में शताब्दी के अंतिम वर्ष सं० १८०० श्रावण शुक्ल १५ को १३२५ छंदों में पूर्ण की । इसका प्रारंभ निम्न दोहे से हुआ है
जैवंतो वरनौ सदा, चौबीसूं जिनराज ।
तिन वंदत वंदक लहै, निश्चय थल सुखदाय । आगे यह चौपाई है
ऋषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमति पद्म सुपारिस चंद्र ।
पुष्पदंत शीतल जिनराय, जिन श्रीहांस नमू सिरनाय ।... यह रचना रत्ननंदि विरचित भद्रबाहु चरित ( संस्कृत ) की वचनिका है। इसके अन्त में लिखा है--'इति श्री आचार्य रत्ननंदि विरचित भद्रबाहु चरित संस्कृत ग्रन्थ ताकी बाल बोध वचन का विषै स्वेतांबर मत उत्पत्ति ... .. 'लुकामत की उत्पत्ति नाम वर्णनों नाम चतुर्थ अधिकार पूर्ण भया । इति ।" इससे लगता है कि इसमें जैन संप्रदायों की उत्पत्ति का सांप्रदायिक दष्टि से वर्णन किया गया है । स्त्री मोक्ष के संबंध में वे लिखते हैं--
"अथानंतर जे जीव तिस ही भव विषै स्त्री कू मोक्षगमन कहै है, ते जीव आग्रह रूप ग्रह करि ग्रस्त हैं अथवा तिनकू वाय लगी है। कदाचि स्त्री परयाय धारि अर दुर्द्धर घोर वीर तप करै, तथापि स्त्री • तद्भव मोक्ष नाही।"
इससे दुख होता है कि इतना प्रगतिसोची जैनधर्म कभी स्त्री मुक्ति के सम्बन्ध में बड़ा कठोर रुख रखता था। रचनाकाल में प्रदेश ढढ़ाण पर राजा जगत सिंह का शासन था--
देश ढंडाहड मध्य पुरमाधव सुअरस्थान,
जगतसंध ता नगरपति पालन राज महान । देखिये व्यंजनलोप के लोभ से 'सुधर स्थान' 'सुअर स्थान' में बदल गया पर रूढ़ि नहीं छूटी। कवि ने आगे अपना परिचय दिया है--
तहां बस इक वैश्य शुभ हीरालाल सुजान,
श्रांति श्रावग न्याति मैं खंडेलवाल शुभ जानि । कवि चम्पाराम ढं ढाड़ प्रदेशान्तर्गत माधवपुर निवासी खंडेलवाल वैश्य हीरालाल के पुत्र थे और वही यह रचना हुई थी। रचनाकाल इस प्रकार बतलाया है
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