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(श्रीधर) केशव ऋषि
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अंत में लिखा है - ___ 'रूपसिंह व्रतिवर शिष्य श्रीधर (केशव) कहइ जयकार जयकरु ।' इससे लगता है कि इनका नाम केशव और श्रीधर दोनों था। मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने एक केशव का उल्लेख १७वीं शती में भी किया है और साधुवंदना नामक रचना का विवरण दिया है।' इनकी दूसरी रचना 'लोकाशाह नो सलोको' का भी वर्णन किया गया है। १८वीं शती में भी केशव (श्रीधर) के साथ साधुवन्दना का उल्लेख किया गया है। यह सब शंकास्पद है। आपकी एक अन्य रचना 'चउवीस जिन स्तव' के अंत में भी कवि ने अपना नाम केशव ही दिया है, यथा
जिनराज वीरो जयकरू रे, नित्यप्रति यह नाम,
गणिकेशव कहइ तेहनइ रे, नित्यप्रति सुखनो धाम ।। .. प्राप्त उद्धरणों में इसका रचनाकाल न होने से यह पता नहीं चलता कि ये १७वीं शती के कवि हैं । साधुवन्दना का आदि-अन्त आगे दिया जा रहा हैआदि--पढमनाह सिरी रिसहदेव, पह केरा पाय ।
सुरनर इंदि नरंद नमी, सेवय सुहदाय । अजिय अमिय कंदप्प जेण जीतो बलवंत ।
सुहकर सामी वंदीयइ, ओ संभव गुणवंत। अंत इम साधुवंदन करी आणंद दुख निकंदन सुखकरु ।
मल भविकरंजन असुखभंजन,पापगंजन सुखकरु ।' इसकी भाषा कृत्रिम रूप से प्राचीन प्राकृताभास शैली की गढ़ी गई है। इसलिए भाषा के आधार पर कवि का कालक्रम निश्चित करना अवैज्ञानिक है। प्रतीत होता है कि एक केशव (श्रीधर) हैं एक लोकागच्छीय केशवऋषि हैं। परन्तु दोनों का समय क्या है यह भी निश्चित नहीं हो पाता है ।
१. मोहनलाल दली चन्द देसाई---जैन गुर्जर कवियो भाग ३ पृ० १०९४
(प्र० सं०)। २. वही भाग ३ पृ० १५२३ (प्र० सं०)। ३. वही भाग ३ पृ० १५२२
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