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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अवश्य है, जब तक अन्यथा सिद्ध न हो जाय तब तक इसे केसर कुशल की कृति मानकर इसका आदि और अंत नमूने के तौर पर दिया जा रहा है -- आदि - सीमंधर जिनराज सुहंकर, लागा तुम सुं नेहा वो,
सलोने साई दिल सौं दरसन देह । . . . . . . तुमही हमारे मन के मोहन, प्यारे परम सनेहा वो,
सलोने...........।" अंत भाग भोग जिनराज प्रभु की, भगति मुगति मनभाई।
केसर कुशल सदा सुखसंपदा, दिनदिन अति अधिकाई।'
केसर कुशल (I) तपागच्छीय विजयप्रभसूरि के प्रशिष्य और ये हर्षकूशल के शिष्य थे। चूंकि इनकी गुरु परम्परा अलग है इसलिए भिन्न व्यक्ति और कवि होंगे । इनकी एक ही रचना का पता है : वह है '१८ पापस्थानक स्वाध्याय' (१९ ढाल सं० १७३० शुचिमास १५, गुरु) कवि ने रचनाकाल बताते हुए लिखा है----
गगन तत्व मुनि इंदु संवच्छर, सूची शुद्ध पूनिम सारी जी। गुरुवारइ श्री गुरु सुपसाई, स्यापो होरइ जयकारी जी। गुरु परम्परा का उल्लेख स्वयं कवि ने इस प्रकार किया हैतपगच्छपति गुरु गुण रयणायर श्री विजयप्रभ सूरिंदा जी। आगमाकारी विविध पटधारी, हरषकुशल मुनिंदा जी। हितकारी श्री गुरु उपगारी ज्ञानदृष्टि दातार जी। लही उपदेश केसर मुनि भाषइ भणी जे अधिकार जी। इसका आदि इस तरह हुआ है --
श्री जिनवर जिणेसरुजी, भाख्यं भविजन काज । दोष अठारह आकरा जी, समझी कीजइ त्याग ।
भविकजन ! भावे निजमन भाव । मंगलमाला पामीइ जी जीवदया अधिकार ।
हरषकुसल गुरु वादंता जी, केसी गुरु नी वाणि ।' १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० १२०४,
१२०८ (प्र० सं०) और भाग ५ पृ० १९६-१९७ (न० सं०)। २. वही, भाग ३ पृ० १२७५-७६ (प्र० सं०) और भाग ४ पृ० ४३४,
४३५ (न० सं०)।।
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