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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्री तपगण गगनांगण दिनमणि यः परास्त कुमति तिमिरो भरा, श्री अकबर नृप पूजिता हीर विजय सूरयोऽभूत ।
इससे हीरविजय के पश्चात् विजयसेन, विजयतिलक, विजयाणंद, विजयराज, देवविजय और शांतिविजय आदि आचार्यों की गुरु परपंरा बताई गई है। रचनाकाल-वर्षेमुनि गगन गिरि क्षमा मिते (१७०७) राधमास सितपक्षे
गुरु पुष्प राजिषष्द्या महमदाबाद वर नगरे' कहकर बताया गया है ।' गद्य का नमूना नहीं है।
क्षेमहर्ष-आप खरतरगच्छीय सागरचन्द्र शाखान्तर्गत विशालकीर्ति के शिष्य थे। इनकी रचना चन्दनमलयागिरि चौपई' (१३ ढाल सं० १७०४ मसकोट) प्रकाशित हो चुकी है। इसका प्रकाशन सवाई भाई रायचन्द, अहमदाबाद ने किया है । इसके प्रारम्भ में चौबीस जिनवरों और माँ शारदा की स्तुति है, यथा
जिणवर चउवीसें नमी, वली विशेष जिनवीर । वर्तमान शासनधणी, प्रणमुं साहस धीर । सरसवचन रस बरसती वीणां पुस्तक धार ।
भक्त प्रणमुं भारती, हंसगमनि हितकार । यह रचना शील का माहात्म्य प्रकट करती है -
शील अधिक संसार मां, जिणवर भाखे अम, अवर भणे हुति अधिक, मेरु तणे परे जेम ।
तिणे हवे शील सराहसु, चंदन नी परे चंग । सतियां मांहे शिरोमणी, मलयागिरि मनरंग। किणे दीपे पुरवर किणे, किसी परें संबंध अहवु,
थयो थिकी हवे मूल थी, मांदीने कहीये तेह । अंत - बारमी ढाल मां ओ कही जी, पूरव भव तणी बात ।
क्षेमहर्ष कहे हवे सुणो जी, संयम लीधे जेणे भांत ।' १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ५९०, और
भाग ३ पृ० १६२३ (प्र० सं०) भाग ४ पृ० १६२-१६३ (न० सं०)। २. वही, भाग ३ पृ० १२३-१२४, ११४० (प्र० सं०) और भाग ४ पृ०
१४३-१४४ न० सं० ।
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