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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास .. चतुरसागर --तपागच्छीय धर्मसागर 7 पद्मसागर>कुशलसागर> उत्तमसागर के शिष्य थे। इनकी रचना 'मदनकुमार रास' (२१ ढाल) सं० १७७२ मागसर शुक्ल ३, मंगलवार को सीउरी में पूर्ण हुई थी। आदि -- नामें नवनिधि संपजे, मरुदेवी मात मल्हार ।
प्रणम् तेह भावे सदा, तुं वल्लभ जुग आधार । इसमें शील का महत्व बताया गया है, यथा.. शील थकी जो सुष लह्यो; मदनकुमार जयसुंदरी नार ।
तेहनो जस जग विस्तर्यो, कीरति वाध्यो अपार । रचनाकाल ---संवत सत्तर बहोत्तरा वरषे,
मृगसिर शुदि त्रीज भृगुवार छाया। तपागच्छे श्री विजयप्रभ पाटे,
श्री विजयरत्न सूरि सवाया रे। कवि ने धर्मसागर पाठक की 'कल्पकिरणावली' का उल्लेख किया है जिसे पाठक ने हरिविजय के आदेश पर लिखा था। उन्होंने पद्मसागर के विरुद में कहा है कि उन्होंने दिगम्बरवादी को पराजित किया था। रचनास्थान का उल्लेख निम्न पंक्ति में मिलता है--
पाटणवारें बहुला गांम ज तो, पिण मुख्य छे सीउरी सवाई,
भटेसरीआ जिहां राज्य करे, तिहां धर्मी श्रावक सुखदाई रे । इसी सीउरी के श्रावकों के आग्रह पर कवि ने यह रचना की थी, यथा
कवी चतुरसागर इणि परिपे, ढाल एकबीस करी कहवाई, भणि गणि सांभले जे नर कहस्ये,
तस घर नवनिधि ऋद्धि थाई रे।'
चंद्रविजय-१८वीं शती में ही इस नाम के कम से कम तीन कवियों का पता लगता है। जिनका क्रमशः वर्णन किया जा रहा है जिनमें से दो चंद्रविजयों की रचनायें सं० १७३४ की ही रची हुई हैं।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ.० १४३४-३६
(प्र० सं०) और भाग ५ पृ० २८८-२९० (न० सं०)।
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