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चतर या चतुर
१२५ रचनाकाल १७०१ और नाहटा ने १७७१ और १७० । दोनों तथा देसाई ने १७७१ बताया है । यह भ्रम रचनाकाल में आये शब्द 'इकोत्तरइ' के कारण है जिसका दोनों अर्थ लगाया जा सकता है। नाहटा' और देसाई' रचना स्थान राखीनगर बताते हैं जबकि कस्तूरचन्द कासलीवाल ने ग्रंथ सची में विक्रमपुर बताया है । रचनाकाल के बाद कवि ने राखी नगर का उल्लेख किया है -
राषी नगर सुहावणो जी, वसइ तिहां श्रावक लोक,
देवगुरानां रागीया जी, लाभइ सघला थोक । इसके मंगलाचरण के दो पाठांतर मिले(i) स्वस्ति श्री विक्रमपुरे, प्रणमौं श्री जगदीश,
तन मन जीवन सुखकरण पूरत जगत जगीस। ( ii ) गोयम गणधर पय नमी, लबधितणो भंडार;
जसु प्रणमइं सवि पाइयइ, स्वर्ग मोक्ष पद सार । दोनों पाठों में ये पंक्तियाँ समान रूप से उपस्थित हैं
कहां चंदन कहां मलयागिरी, कहां सायर कहां नीर । लेकिन अगली पंक्ति भिन्न है। एक जगह है--
कहिये वाकी वारता, सुणो सबै वर वीर और दूसरी जगह है--
जिउं जिउं पडई अवच्छडी, तिउं तिउं सहइ शरीर। कस्तूरचन्द कासलीवाल ने इसकी अन्तिम पंक्तियाँ इस प्रकार
दी है
दुख जु मन में सुख भयो, भागौ विरह विजोग, आनन्द सौं च्यारौ मिले, भयो अपूरब जोग । कच्छवि चन्दन छाया, कच्छव मलयागिर तेव,
कच्छ जोहि पुण्य बल होइ, दिढ़ता संयोगो हवइ एव । इसी के आसपास क्षेमहर्ष ने भी चंदनमलयागिरि चौपाई की रचना की है। १. अगरचन्द नाहटा--परंपरा पृ० ११४ । २, मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ५१५-५१६
(प्र० सं०) और भाग ५ पृ० २८०-२८१ (न० सं०)।
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