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कनकमूर्ति
कनकमूर्ति--ये गजानन्द के शिष्य थे। इन्होंने 'एकादशी चौपइ की रचना सं० १७६५ में की थी।
कनकविजय -आप वृद्धिविजय के शिष्य थे। आपने सं० १७३२ में 'रत्नाकार पंचविंशति स्तव भावार्थ, शाहपुर में लिखा । लेखक की स्वलिखित प्रति सं० १७३२ शाहपुर में श्राविका पुजी के पठनार्थ माघ शुक्ल दशमी की लिखित प्राप्त है।'
कमकविलास-ये खरतरगच्छीय क्षेमशाखा के कनककुमार के शिष्य थे। इन्होंने (वैशाख) माधवमास, सं० १७३८ जैसलमेर में देवराज वच्छराज चौपई ४६ ढालों में पूर्ण की।
कनककुमार की गुरु परंपरा मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने गुणविजय>मतिकीर्ति> सुमति सिंधुर के क्रम से बताई है। इसका आदि निम्नवत् है :
प्रहसमि प्रणमुं प्रम धरि, पास जिणेसर पाय,
गोड़ी मंडण गुण भणी, तारण त्रिभुवन ताय । रचनाकाल-सिद्धि इसरदृग भूधर पृथ्वी, संवत संख्या कहवी बे,
माधव मासनी उज्वलतीथे, लायक मे यश लीजे बे। जेसलमेरु नगर जयदाई, खरतरसंघ सदाई बे । युग प्रधान श्री जिनचंद यतीसर, श्री जिनसिंह सूरीसर बे। श्री जिनराज सूरि राजेसर, श्री जिनरतन मुनिसर बे। वरतमान वरते तसू पाटे, श्री जिनचंद यश खाटे बे,
चोपड़ा वंश सरहंस सरीखो, पुण्ये अह सरीखो बे। इसके पश्चात् गुणविनय से लेकर कनककुमार तक के गुरुओं की वंदना की गई है। वाणी की वंदना करता हुआ कवि पारस से उसकी उपमा देता हुआ कहता है
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो भाग ३ पृ० १६३०
(प्र० सं०) भाग ५ पृ० ३ (न० सं०) । २. अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० १०६ ।
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