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[पाप-पुण्यकी व्याख्या द्वप हमेशा उन पदार्थों में ही होता है, जिनके साथ आत्म-' बुद्धिका लगाव नहीं, अर्थात् जो अपनी हृदयगत ज्योतिसे धन्यो नहीं हुई । इमलिये द्वेप अपने म्वरूपसे तो वेदान्तके लक्ष्यके प्रतिकूल ही है, अपने स्वरूपसे पुण्यरूप हो ही कैमे १ परन्तु ग्वार्थत्याग-मूलक द्वेपको जो पुण्यरूप बतलाया गया है, उसका कारण यह है
वेदान्त कहता है कि हमारे हृदयमे जो रागका म्वाभाविक स्रोत विद्यमान है वह किसी एक व्यक्तिके हृदयकी चीज़ नहीं है, उस स्रोत पर सम्पूर्ण संसारका अधिकार है। देव, ऋपि, पितर, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतग अर्थात् उद्भिज, ग्वेदज, अण्डज, जरायुज चागे खानीके भूतप्राणी सभी हमसे उम रागके पानेके अधिकारी हैं, उस पर सभीका अधिकार है.जितना-जिनना हम उनसे आत्मष्ट्रिसे प्रेम करेंगे, उतना-उतना ही प्रेम हम उनसे पायेंगे। वाह । प्रकृतिका कैमा सुन्दर नियम है, जितना-जितना खर्च किया जायगा उतना-उतना वृद्धिको प्राप्त होगा। जितना-जिनना वीज पृथ्वी रुलादिया जायगा, उससे कई गुणा होकर वह हमको मिलेगा। कैमा मुनाफेका सौदा है ? परन्तु शोक हमने इमको वरतना नहीं सीखा। समुद्रकी तह पर जब एक लहर प्रकट होती है, तब वह पहले स्थूल आकार में प्रकट होती है। परन्तु यह नियम है कि स्थूलरूपमें प्रगट होते ही वह फैलने लगती है और पतली होते-होते यहाँ तक फैलती है कि अपना आकार मिटाकर समुद्ररूप ही हो जाती है, फिर सम्पूर्ण लहरोंमें बही ममाई हुई होती है और मन रूपोंमे डाढ़े मारती है। इसी प्रकार प्राकृतिक नियम चाहता है कि इस रागके स्रोत को जो हमारे हृदयदेशमें उत्पन्न हुआ है, यहाँ तक फैला हैं कि यह फैज्ञते-कैलते सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें व्याप्त होजाय, किर सन्पूर्ण संसारके हम ही स्वामी है और सब हृदयोंमें हमारा ही