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[ पुण्य-पापकी व्याख्या मुखवुद्धि हो ही कैसे। क्योंकि आत्मासे भिन्न अन्य कोई पदार्थ सुखरूप व प्रियरूप हो ही नहीं सकता । इसी लिये श्रुति ने आत्माको 'अस्ति, भाति, प्रियरूप' वर्णन किया है। धन, पुत्र, श्री यावत् संसारके पदार्थ उसी काल तक हमको सुखदाई हैं, जब तक उनमे श्रात्मबुद्धि विद्यमान है। जिस क्षण उनमे से आत्मबुद्धि दूर होती है, उसी क्षण उनमेसे सुखचुद्धि भी कूच कर जाती है। प्रत्येक प्राणी नित्य ही अपने जीवन में इमको अनुभव कर रहा है और श्रुति भी ऐसा ही पुकार-पुकार कर कह रही है।
'नबारे सर्वस्य तु कामाय सर्व प्रियं भवति
श्रात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति' । अर्थ:-सव पदार्थोके लिये सब पदार्थोंकों प्यार नहीं किया जाता, किन्तु अपने ही लिये सब पदार्थोंको प्यार किया जाता है। • इससे सिद्ध हुआ कि जिन पढाथोंमे राग होता है, उनमें आत्मबुद्धिका डेरा पहले ही जमाया जाता है, अर्थात् आत्मबुद्धि करके ही इनमें राग किया जाता है कि यह मेरी आत्मा है। और आत्मवृद्धि ही वेदान्तका प्रतिपाद्य विषय है, इस लिये राग तो पापरूप हो ही कैसे ? रागके द्वारा तो अहंभावका विकास होता है और अपने परिच्छिन्न शरीरसे आगे बढ़कर राग का विषय जो पदार्थ है उसमें भी आत्मबुद्धि अपना श्रासन लगाती है। और यही वेदान्त का लक्ष्य है कि राग यहाँ तक विस्तृत हो कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें ही प्रात्मवुद्धि होने लगे।