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आगम के अनमोल रत्न
जिस काल में यह विश्व अवनति से उन्नति की ओर जाता है उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। इस काल में संहनन संस्थान, आयु, अवगाहना, उत्थान, बल, वीर्य, कर्म, पुरुषाकार और पराक्रम बढ़ते जाते हैं अतः इस" काल को उत्सर्पिणी काल कहते हैं तथा जिसकाल में जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः हीन होते जाय, आयु और अवगाहना घटते जायें तथा उत्थान कर्म, वीर्य, बल, पुरुषाकार, और पराक्रम का हास होता जाय वह अवसर्पिणी काल है जैसे कृष्ण पक्ष के बाद शुक्ल पक्ष और शुक्ल पक्ष के बाद कृष्ण पक्ष आता है उसी प्रकार उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी और अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणो आता है।
इन दोनों कालों में से प्रत्येक काल के छह-छह मेद हैं-दुषमदुषमा, दुषमा, दुषमसुषमा, सुषमदुषमा, सुषमा और सुषमसुषमा ये छह भेद उत्सर्पिणी काल के हैं, और सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुषमा, दुषमसुषमा, दुषमा, और दुषमदुषमा ये छह भेद' अवसर्पिणी काल के हैं । अवसर्पिणी काल का सुषमा नामक आरा चार कोटाकोटि सागरोपम का, दूसरे आरे का परिमाण तीन कोटाकोटि सागर, तीसरे आरे का दो कोटाकोटि सागर, चौथे भारे का परिमाण बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटकोटि सागर, पांचवे दुषमा
और छठे दुषमदुषमा काल का परिमाण इक्कीस हजार वर्ष है। इस तरह दस कोटाकोटि सागर का अवसर्पिणी काल और दस कोटाकोटि सागर का उत्सर्पिणी काल होता है। दोनों मिलकर एक कल्पकाल होता है जो बीस कोटाकोटि सागर का है। इसे कालचक्र कहते हैं।
कुलकरों की उत्पत्ति
वर्तमान अवसर्पिणी के तीसरे आरे के तीसरे भाग की. समाप्ति में जब पल्योपम का आठवां भाग शेष रह गया, तब लोक व्यवस्था