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आगम के अनमोल रत्न
लेश मात्र भी दोष न लगने देते एवं निदान हीन तपश्चरण करते, गुरु, ग्लान तपस्वी और नवदीक्षित मुनि की ग्लानि रहित सेवा करने में सकोच नहीं करते । शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिवया की दिनोदिन वृद्धि की, प्रवचन की विनय भक्ति की और जिन शासन की महिमा का विस्तार किया। ये सब स्थान तीर्थकर गोत्र को उपाजन करने के साधन हैं । इन स्थानों की उत्कृष्ट आराधना कर वज्रनाभ मुनि ने तीर्थङ्कर गोत्र का उपार्जन किया ।
बाहुमुनि को वृद्ध, रोगी और तपस्वी साधुओं की सेवा में अनुपम आनन्द का अनुभव होता था । आहार, पानी, औषिध और हितकारी निर्दोष पथ्य पदार्थ लाकर मुनियों को देते थे । निस्वार्थ भाव से सेवा करने से उनको भी महान प्रकृति का बंध हुआ। उन्होंने चक्रवर्ती ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी होने योग्य पुण्यकर्म का बन्धन किया । । . सुंबाहुमुनि भी अत्यन्त सेवाभावी थे । वे बुद्ध, ग्लान, तपस्वी रोगी एवं बाल साधुओं के लिए विश्राम-स्थल थे। अपने शरीर की परवाह किये बिना वे निरन्तर साधुसेवा में निमग्न रहते थे। उन्होंने वृद्ध तपस्वी रोगी आदि असमर्थ मुनियों की सेवा में अपने शरीर को अर्पण कर दिया था । इस विशुद्ध और नि.स्पृह सेवावृत्ति के फलस्वरूप उन्होंने उच्चतर पुण्यप्रवृत्ति का बन्ध किया । चक्रवर्ती अतिशय बलवान होते हैं किन्तु सुवाहु मुनि ने चक्रवर्ती से भी अधिक बलवंत होने योग्य पुण्यमय प्रकृति का उपार्जन किया । - पीठ और महापीठ मुनि भी निरन्तर ज्ञान-ध्यान में तल्लीन रहते थे । किन्तु गुरु के मुख से बाहु-सुबाहु मुनि की प्रशंसा सुनकर ईर्षा करते थे। इन मुनियों की प्रशंसा सुनकर उनके मन में मलिन-मात्सर्य भाव उत्पन्न होता था। उन्होंने प्रकट में गुरु पर विश्वास और भन्तरण में अविश्वास रक्खा। इस प्रकार वे कपट का