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तीर्थङ्कर चरित्र
___ महाराज वज्रसेन तीर्थंकर थे इसलिये लोकान्तिक देवों ने उनसे तीर्थ प्रवर्ताने की प्रार्थना की । समय आनेपर उन्होंने वर्षीदान देकर प्रव्रज्या ग्रहण की और केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थ प्रवर्तन किया ।
पिता के दोक्षित होने पर राज्य को वज्रनाभ ने सम्हाला । इसकी आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई। चक्ररत्न की सहायता से वज्रनाभ ने भरत के छहों खंड पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया । वह चौदह रत्न और नौ निधि का स्वामी बना । वज्रनाभ के चक्रवर्ती बनने के बाद अन्य चार राजकुमार मांडलिक राजा बने । सुयशा चक्रवर्ती का सारथी बना ।।
कुछ समय के बाद चक्रवर्ती वज्रनाभ को तीर्थकर वज्रसेन का उनदेश सुनकर वैराग्य उत्पन्न हो गया । उन्होंने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर भगवान वज्रसेन के समीप प्रत्रज्या ग्रहण की । साथ में वाहु, सुबाहु, पीठ, महापीठ और सुयशा ने भी प्रवज्या ग्रहण की। ये छहों दीक्षा ग्रहण कर कठोर तप करने लगे । कठोर तपस्या के कारण वज्रनाम मुनि को अनेक लब्धियों की प्राप्ति हुई । उन्हें .अनेक चमत्कारपूर्ण लब्धियाँ प्राप्त होने पर भी वे उनका प्रयोग नहीं करते थे। वे निरन्तर संयम के गुणों की उत्तरोत्तर वृद्धि में ही लगे रहते थे।
मुनि वज्रनाभ ने अरिहंत, सिद्ध, आचार्य स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वी और प्रवचन का गुगानुवाद करके एवं इनपर प्रगाढ़ भक्ति-भाव रखकर अपने परिणामों में विशिष्ट उज्ज्वलता प्राप्त की। आप स्वयं निरन्तर ज्ञानोपार्जन में और जिज्ञासु जनों को जानदान में संलग्न रहते, विशुद्ध श्रद्धा का पालन करते, गुणवृद्धों के प्रति विनययुक्त व्यवहार करते, प्रातःसायं उभयकाल विधिपूर्वक षडावश्यक क्रियाओं का अनुष्ठान करते, विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करते, परिषह एवं उपसर्य भाने पर भी धर्म में अटल रहते, ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा में