________________
तीर्थङ्कर चरित्र -
जीवानंद बहुत चतुर वैद्य था। उसने मुनि के शरीर को देखकर जान लिया कि कुपथ्य सेवन सेयह रोग हुआ है । जीवानन्द ने अपने मित्रों से कहा कि इसको मिटाने के लिये लक्षपाक तेल तो मेरे पास है किन्तु गोशीर्ष चन्दन और रत्नकंबल ये दो वस्तुएँ मेरे पास नहीं हैं । यदि ये दोनों वस्तुएँ आप ले भावें तो मुनि की चिकित्सा हो सकती है और इनका शरीर पूर्ण स्वस्थ वन सकता है।
जीवानन्द का उत्तर सुनकर पाँचों मित्र बाजार गये । जिस व्यापारी के पास ये दोनों चीजें मिलती थीं उसके पास जाकर इनकी कीमत पूछी। व्यापारी ने कहा-"इन दोनों बस्तुओं का मूल्य दो लाख सुवर्ण-मुद्रा है। मूल्य चुकाकर भाप उन्हें ले जा सकते हैं, किन्तु प्रथम यह वताइयेगा कि भाप लोग इतनी कीमत की वस्तु ले आकर क्या करेंगे" उन्होंने कहा-एक मुनि की चिकित्सा के लिये इन की भावश्यकता है। युवकों की इस अपूर्व धर्म-भावना और दयालुता को देखकर रत्नकंवल का व्यापारी बड़ा प्रसन्न हुआ । वह बोला-'युवको! तुम्हारी उठती जवानी में इस तरह की धार्मिक भावना को देखकर मैं बहुत प्रभावित हुभा हूँ। मैं गोशीर्ष चन्दन और रत्नकंवल विना मूल्य के ही देता हूँ | भाप इन चीजों से अवश्य ही मुनि की चिकित्सा करें।" वे दोनों चीजें लेकर रवाना हुए। मुनिराज के विषय में चिन्तन करते-करते वृद्ध को वैराग्य उत्पन्न हो गया । उसने घर-वार त्याग कर दीक्षा ले ली और कर्मों का अन्तकर मोक्ष प्राप्त किया ।
पाँची मित्र वस्तुएँ लेकर जीवानाद वैद्य के पास आये । वैद्य ने मौषधोपचार कर मुनि के शरीर में से कीटाणुओं को निकाला और गोशर्षि चन्दन का लेप कर उन्हें पूर्ण निरोग वना दिया ।