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आगम के अनमोल रत्न
कुछ काल के वाद छहों मित्रों को वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने एक साथ प्रवज्या ग्रहण की। अनेक प्रकार की तपश्चर्या करते हुए वे संयम की साधना करने लगे । अन्तिम समय में अनशन कर समाधिपूर्वक देह का त्याग किया और मर कर वे अच्युत देवलोक में इन्द्र के सामानिक देव बने । दसवाँ, ग्यारहवाँ एवं बारहवाँ भव--
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह स्थित पुष्कलावती विजय में लवण समुद्र के पास पुण्डरीकिणी नाम की नगरी थी। वहां वज्रसेन नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम धारिणी था । अच्युत देवलोक से जीवानन्द वैद्य का जीव चवकर महारानी धारिणी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । गर्भ के प्रभाव से महारानी ने चौदह महास्वप्न देखे। स्वप्न देखकर महारानी जागृत हुई। उसने पति के पास जाकर स्वप्नों का फल पूछा । उत्तर में महाराज वज्रसेन ने कहा "प्रिये ! तुम चक्रवर्ती पुत्र को जन्म दोगी ।" महारानी यह सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई । वह गर्भ का विधिवत् पालन करने लगी।
गर्भकाल के पूर्ण होने पर महारानी ने पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम वज्रनाभ रक्खा गया । जीवानंद के शेष चार मित्र देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर रानी धारिणी की कुक्षि से उत्पन्न- हुए। वे वज्रनाभ के छोटे भाई हुए। उनके क्रमशः नाम ये थे-बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ ।
इनके सिवाय केशव का जीव 'सुयशा' के नाम से दूसरे राजा का पुत्र हुआ । यह सुयशा बाल्यकाल से ही वज्रनाभ के यहां रहने लगा । ये छहों राजपुत्र साथ ही में रहते थे। पूर्व जन्म के स्नेहवश इन में अगाध मित्रता थी। इन छहों ने कलाचार्य के पास रहकर शिक्षा प्राप्त की और राजनीति में निपुण बने ।