Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रेष्ठि देवचन्द्रलालभाई जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ६५ श्रीमहोपाध्यायकीर्तिविजयशिष्य-महोपाध्याय श्रीविनयविजयगण्युपज्ञः
श्रीलोकप्रकाशः। (प्रथमविभाग-एकादशसर्गो द्रव्यलोकप्रकाशः)
मुद्रणकारिका-श्रेष्ठि-देवचन्द्र-लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारसंस्था । प्रसिद्धिकारकः-जीवनचन्द्र-साकरचन्द्रः, अस्याः कार्यवाहकः ।
इदं पुस्तकं मोहमय्यां जीवनचंद-साकरचंद झहेरी इत्यनेन निर्णयसागरयत्रणालये कोलभाटवीथ्यां २६-२८ तमे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम्, __ वीरसम्बत् २४५२ विक्रमसंवत् १९८२
सन १९२६ प्रति १०००] पण्यम् रु.२.
[Rs. 2-0-0
For Private & Personel Use Only
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
All Rights reserved by the Trustees of the Fund. ]
PRINTED BY-Ramchandra Yesu Shedge, at the "Nirnaya Sagar" Press, 26-28, Kolbhat Lane, Bombay. PUBLISHED BY-Jivanchand Sakarchand Javeri, for Seth Devchand Lalbhai Jain Pustakodhara Fund.
No. 114-116 Javeri Bazar, Bombay.
For Private & Personel Use Only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
For Private & Personel Use Only
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रेष्ठी देवचंद लालभाई जहवेरी.
जन्म १९०९ वैक्रमाब्दे निर्याणम् १९६२ वैक्रमाब्द कार्तिकशुक्लैकादश्यां, सूर्यपूरे पौवकृष्णतृतीयायाम , मुम्बय्याम,
The Late Sheth Devchand Lalbhai Javeri.
Died 13th January 1906 A. D. Bombay,
Born 1853 A. D. Surat. 10000-1-21.
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रेष्ठि देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे अद्यावधि मुद्रितग्रन्थानां सूचिः ।
AUGALASSIANISSANCHISEG
अंकः अन्धनाम. मूलकारीकाका रचनाकाल मण
पत्र.
श्लोक. : स्थानं पण्यं ..
विशेषः
विषयः मूल.टीका. कालश्च
'मू. टीका. प्रति. १ वीतरागस्तोत्रं श्रीहेमचंद्रसूरिः प्रभानन्दसूरिः
मू. *२०० प. ८९
वीतरागकी स्तुति (अमय जिनव
टी.२१०० लम. अभय. देव
प्रभशिष्यः) , पञ्जिका
श्रीसोमसुन्दर- १५१२ नि.सा.प्रे. टी. ६२५ प्र.५०० प्रथमादर्शः हर्षचन्द्रीयः शिष्यः विशालराजः
१९११ * यह संख्या अनुमानसें हे.
Jain Educatio
n
al
For Private & Personel Use Only
(A
jainelibrary.org
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ
%
सूची.
अंकः ग्रन्थनाम.
मूलका टीकाकर्ता
रचनाकाल मूल टीका.
स्थान पण्यं श्लोक. पत्र. कालच मू.टीका. प्रति.
विशेषः
विषयः
॥१॥
२ श्रवणप्रतिक्रमणं गणधरः
गुजराती. ॥ प्रे. मुंबई १९११
प.१५ प्र. ५००
साधुव्रतोंके अतिचारका
प्रतिक्रमण
३ स्याद्वादभाषा शुभविजयगणिः शुभविजयगणिः (प्रमाणनयत- (हीरसूरिशिष्यः) स्वप्रकाशिका)
I)
ESSERE SIGARROS
गुजराती- प्रेस मुंबई. १९११
प.१४ श्रीविजयसेनसूरिनिर्दे- तत्वप्रमाणनयविचार प्र. ५०० शात्
गणधरः
४ पाक्षिकसूत्र-
वृत्तिः
वीरगणिश्रीचन्द्र- ११८. नि.सा.प्रे. 11 मू.*३०० प.७८ अणहिलपाटन यशोदेवः
मुंबई टी.२७०० प्र. ५०० १९११
साधुमहाव्रत ओर श्रुत
कीर्तन
॥१
॥
* यह संख्या अनुमानसें हे.
5A5
-
Jain Education
For Private & Personel Use Only
ainelibrary.org
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
नि.सा.प्रे.
मुंबई
) गाथा १८४ प. ११४
दिगम्बरखण्डन
५ अध्यात्ममतप- (हीरसूरि०विजयसेनरीक्षा (पृथग् विजयदेव० बिजयसिंह
काले (कल्याण. लाभ. जीत० नयविजयशिष्यः) श्रीयशोविजयमहोपाध्यायः
६ पोडशकं (पृथक्-मूल)
श्रीहरिभद्रसूरिः यशोभद्रः श्रीयशो
विजयमहोपाध्यायश्च
नि-सा.प्रे.
मुंबई १९११
मू. २५७ प. १०६
प्र. ५००
धर्मपरीक्षा वगेरे
GOGOROSABETH
॥) मू. १२१६ प.६००
७ कल्पसूत्रवृत्तिः भद्रबाहुसुबोधिका
भाचार्याः
विनयविजय- उपाध्यायः (हीरसूरि, विजयसेन, विजयतिलक, विजयानन्दकाले)
१६९१ जैनप्रेस
सुरत. १९११
जिनचरित्र, स्थबिरावली,
सामाचारी
८ वन्दारुवृत्तिः गणधरः (श्रावकानुष्ठानविधिः)
श्रावक के छ आवश्यक
श्रीदेवेन्द्रनि . (तपा० श्रीजगचन्द्रशिष्यः)
नि.सा.प्रे.
मुंबई १९१२
टी.२७२० प. ९६
प्र. ५००
Jain Education
(Manational
Mow.jainelibrary.org
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ
सूची.
अंकः प्रमथनाम. मूलकत्ती
टीकाकर्ता
विशेषः
विषयः
टीकाकर्ता रचनाकाल मुद्रणमूल टीका स्थान पयं लोक पत्र
मूल टीका प्रति
९ दानकल्पद्रुम. देवसुन्दरः सोमसुन्दरशिष्यः
जिनकीर्तिः १० योगफिलॉसॉफी. भगुभाइ
(कारभारी)
१९१२ थामसन, एण्ड को, मद्रास. १९१२
प्र.५०० पृष्ठ. २६४ प्र.१०००
PRASAASAASAASAASAASAASAASAASAASAASA
धनाजीका जीवन
वृत्तान्त अंग्रेजी, अमेरिका चिकागोमें दियाहुना १८९३ में वीरचंद राघवजी गांधीका भाषण। देवसूरिशिष्य माणिक्यसरि ओर शंकराचार्यका कर्तृत्वादि वादविवाद।
" जल्पकल्पलता.सोमसुन्दर-मुनिसुन्दर-जयचंद-मन
शेखरशिष्य रखमण्डनःरत्रशेखर
काले नंदिरवशिष्य.
नि.सा.प्रे.
मुंबई १९१२
)
प. ५०० प्र. २३
२ योगरष्टिसमु. स्वोपज्ञः हरिभद्रसूरिकृतः
टी. २२६ पृष्ठ.९०
प्र.४७५
मैत्रीआदि आठ दृष्टि,
अहमदा- बाद सिटिप्रेस १९१२
॥२॥
Jhin Education
For Private
Personal Use Only
nelibrary.org
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३ कर्मफिलॉसॉफी
१४ आनन्दकाव्यमहोदधिः मौक्तिकं १
33
39
"
"
Jain Educationonal
भगुभाइ कारभारी
शालिभद्ररास, जिन हंसशिष्यः
मतिसारः
कुसुमश्रीरास लावण्य विजयशिष्यनीति विजयशिष्यगंगविजयः
अशोकचंदरोहिणी.
१६७८
१७७० जैन प्रेस - 1) सुरत १९२३
आनन्दविमल० धरमसिंह जय० १७७२ कीर्त्ति० विनय० धीरविमलशिष्यनयविमलजी.
ब्रह्मवादिन 1-2)
मद्रास
१९१३
प्रेमलालण्छी विजयानन्द० मुनिविजय० शिष्यः १६८९ दर्शनविजय
रास.
पृष्ठ. १६६ प्र.१०००
प. ४६२ प्र.१०००
अंग्रेजी, अमेरिका चि कागो में दिया हुआ १८९३ में वीरचंद राघवजी गांधीका
भाषण
विजयदेव०प्रभ० रख० क्षमा०काले, मातर नगरे
विजय प्रभु सम्मति से
ज्ञानविमल आचार्यने सुरतबंदर सैतपुर (सुखसागरने ) लिखा
अबरहानपुरका दलपुरमें.
Adv.jainelibrary.org
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ
सूची
अंकः ग्रन्थनाम. मूलका
विशेषः
विषयः
टीकाकर्ता रचनाकाल मुद्रणमूल टीका स्थान पण्यं लोक पत्र
- मूल टीका प्रति
काल
पुराणों विगेरहकी
परीक्षा
१५ धर्मपरीक्षा. पद्मसागरगणिः (धर्मसागर. वि. १६४५ नि.सा.प्रे. ) मू. १४८४ प. ५८ मलसागरशिष्यः).
मुंबई.
प्र. ५००
१९१३ १६ शास्त्रवा - श्रीहरिभसूरिः श्रीयशोविजयो
धर्माभ्यु० २) *मू.७०० प. ४३१ समुच्चयवृत्ति.
पाध्यायः
बनारस. टी. प्र. ५००
*१२००० 80 कर्मप्रकृतिः शिवशर्मसूरिः मलयगिरिः
नि.सा.प्रे.-१४.मू. ४७५ प. २२० मुंबई.
प्र. ५५० १९१३
नास्तिकादि दर्शनोकी परीक्षा
बन्धनादिक अष्ट करण
१८ कल्पसूत्रमूलं श्रीभद्रबाहुआचार्याः
कालिकाचार्यकथाच * यह संख्या अनुमानसे हे.
नि.सा.प्रे..-८- मू.१२०० प.६९मुंबई. ६५ काव्य ५ . १९१४
जिनचरित्रादि ओर कालिकाचार्य वृत्तान्त
॥
३॥
प्र.१०००
Jain Education
For Private
Personal Use Only
ainelibrary.org
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९ पञ्चप्रतिक्रमणानि गणधरादि
प.३७०
रामचरित्र.
N२० आनन्दकाव्य- विजयऋषि, धर्ममुनि, क्षेमसागर, १६८३ जैन प्रेस ..१०. महोदधि मौक्ति- पद्ममुनि, गुणसागर, केशराज
सुरत. क रामयशो
१९१४ रसायनरास
(२१ आनन्दकाव्य
महोदधि ३
" भरत रास
ऋषभदास, सागणपुत्र.
१६७८
HORARIOS PARA LA ROSA PAG
HIGHOSSZABBITOS RESEORASASHISHG
, जयानन्दकेवली वाणाकवि विजयानन्दराज्ये रास.
१६८६
,, बच्छराजदेव- लावग्यसमय (लक्ष्मीसागरराज्ये)
राजरास
मुनिसुन्दरसूरिका ८००० बाला चरित्रपरसें, कथपुर,
Jain Education
For Private & Personel Use Only
(GOw.jainelibrary.org
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ
अंकः ग्रन्थनाम. मूलक"
रचनाकाल
टीकाकर्ता
॥४॥
पत्र
मूल टीका स्थान पण्यं श्लोक
मुद्रण
- काल
विशेषः
विषयः
मूल टीका प्रति
" सुरसुन्दरीरास. नयसुन्दरजी.
प. ४३९ प्र.१०००
१६४६ अहमदा- ॥
बाद डायमंड जुधि
ली.
, नलदमयन्ती- मेघराज पार्श्वचन्द, समरचंद्र, १६६४ रास
रायचद्र , हरिबलमच्छी- जिनहर्ष (जिनचंद्रराज्ये) १७४६ रास.
२२ उपदेशरत्नाकरःमुनिसुन्दरसूरिः
)
७७५
नि.सा.प्रे.
मुंबई. १९१४
प. २३. प्र. ५००
देव, गुरु, धर्म, और
श्रावकादिका स्वरूप.
Jan Educator
na
For Private & Personel Use Only
A
jainelibrary.org
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३ चतुर्विशतिजि- श्रीविजयसेनकाले आनन्दविजयनानन्दस्तुतिः
शिष्यः
निर्मल ४६१६ ५.३०. प्रि० अह
प्र. ५०० मदाबाद. १९१४
चौवीस तीर्थकरकी स्तुति
२४ षट्पुरुषचरित्रं देवसुन्दरशिष्यः क्षेमकरः
लुहानाने. बडोदा १९१५
प.४१ प्र. ५००
उत्तमोत्तमादि छह पुरुष
२५ स्थूलभद्चरित्रं जयानन्दसूरिः
६९०
शीलकी महत्तामें
४१, .
प.४४ प्र. ७५०
SANSARESERECACANCE
२६ धर्मसंग्रहः विजयानन्द, शान्तिविजयशिष्यः
पूर्वार्द्धः स्वोपज्ञः मानविजयोपाध्यायः
९४२३
नि.सा.प्रे. १ मुंबई. १९१५
प.२५९ प्र. ५००
सामान्य और विशेष
गृहस्थका धर्म
IN२७ संग्रहणी (पृथक् अभयदेव. हेम० श्रीचन्द्रशिष्यः
मूल) श्रीचंद्र देवभदः
" १९१५
) गाथा२७३ प. १३८
३५०० प्र. ५००
देव, नारक, स्थिति भव
अवगाहना वगेरह
JainEducation ints
For Private
Personel Use Only
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ
सूची.
अंकः ग्रन्थनाम. मूलककर्ता
टीकाकर्ता र
मूल टीका
मुद्रणस्थान पण्यं
: काल
श्लोक पत्र मूलटीका प्रति
विशेषः
विषयः
भ
२८ उपदेशशतकं विबुधविमल:
सम्यक्त्वपरीक्षा च
१७९३ मद्रास
ब्रह्मवादी १९१६
प. १३ आनन्द बिमल-विजय- सम्यक्त्व परीक्षा तथा पृ.१९ दान-हीरसूरि-सेन- १२ भावना प्र. ५०० सूरि-विजयदेव-विजय
प्रभ-राज्ये ज्ञान विमलऋद्धि विमल, कीतिविमलशिष्य विबुध
विमलः नौरंगाबाद मू.१५४५ प.११८
नमुत्थुणं विगेरः चैत्य व-15 पंजि. प्र. ५००
न्दन २१५५
२९ ललितविस्तरा हरिभद्रसूरिः पंजिका-मुनिचंद्रः
नि.सा.प्रे. ॥) मुंबई.
३० आनन्दकाव्य
महोदधि मौ.३ शत्रुजय रास.
जिनचंद्र-सोमग- १७५५ सुरत जै..) णि-शान्तिहर्षशिष्यः जिनहर्पः
प.६८० प्र.१०००
BestSRUSAASG
Jain Education Inter
For Private & Personel Use Only
Mainelibrary.org
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१ अनुयोगद्वाराणि गणधरः
(पूर्वाद्ध)
वीरदेव-अभयदेव-हेमचंद्र
नि.सा.प्रे. मुंबई. १९९५
) मू.२२८५ प. २७१ हर्षपुरीये, प्रश्नवाहने, उपक्रम, निक्षेप,
टी.५९०० प्र. ५००
पृ. ४०० खंभात, खुरम पातिशाह
३२ आनन्दकाव्य
महोदधिनौ ५ हीरसूरिरास
प्र.१०००
Portorony
ऋषभदास कवि (सांगणपुत्र) विजयानंदसूरिराज्ये.
१६८५ अहमदा- 1)
बाद सिटी प्रेस. १९१६
विनयपरीपहजय वगेरे
३३ उत्तराध्ययनानि जिन-प्रत्येकबुद्ध-वादिवेतालपहिला भाग. ऋषि-गणधर- शान्तिसूरि.
वगेरह
नि.सा.प्रे. ॥) मू. २०७ प. २२८ मुंबई. नि. १२७ प्र. ५००
३४ मलयासुन्दरी- जयतिलकसूरिः
चरित्र
गुजराती
प्रेस. मुंबई.
२) मू. २४२४ प.९७
प्र. ५००
Jain Educati
For Private & Personel Use Only
Iw.jainelibrary.org
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ
॥६॥
अंकः ग्रन्थनाम मूलकर्त्ता
३५ सम्यत्तत्वसप्ततिः हरिभद्रसूरिः (?) ( तत्त्वकौमुदी ) पृथक् मूलं
३६ उत्तराध्ययन- जिन गणधर सूत्रे भा. २
Jain Educationtional
प्रत्येकबुद्ध वगेर:
टीकाकर्ता
वादि वेतालशान्तिसूरिः
रचनाकाल
मूल टीका
मुद्रणस्थान पण्यं
काल
पत्र
श्लोक मूल टीका प्रति
१४२२ नि. सा. मे. १) टी. ७११
१९१३
प. २३८ अभयदेवजिनवल्लभका श्रद्धादि प्र. ५०० जिनशेखरपद्मचंद्रविनयचंद्र अभयदेवदेवभद्र प्रभानन्द-श्रीचंद्र (विमलचंद्र ) गुणशेखरशिष्यः संघतिलकः, सोमतिलकाचार्यानुजदेवचंद्रवचनात् जिनप्रभ० दिल्यां, महम्मदशाह, सोमकलशयशः कलशी
नि. सा. प्र. १11) मू. २०८ - प. २१९ मुंबई
-५१२
९२० नि. १२८- प्र. ५००
४५७
विशेषः
विषयः
अकामसकाममरणादि,
२१
सूची.
॥६॥
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
4
. अनुयोगद्वार- देखो नं ३:
सूर्य उत्तरार्द्ध
हेमचन्द्र
१६९
देखो नं ३
देखो नि.सा.द. १) नं.३१ मुंबई
१९१६
*३८ गुणस्थानक्रमा- रत्नशेखरसूरिः
रोहः
स्वोपज्ञः
लुहाना प्रे. बडोदा १९१६
) मू. १३५ पृ.७० वज्रसेनसूरि हेमतिलक- चउद गुणस्थानोंका
प्र. ७५० सूरिपट्टप्रतिष्टितः रत- स्वरूप.
शेखरसूरिः
8|३९ धर्मसंग्रहणीपू- हरिभद्रसूरिः
वाई
मलयगिरिः
नि.सा.प्रे.
मुंबई १९१६
॥) मू. ५४५ प.२१०
प्र. ५००
ज्ञान-दर्शन, चारित्र
धर्मनिरूपणं
गुज.प्रे. १) मुंबई १९१७
प.२१७ प्र. ५००
४. धर्मकल्पद्रुमः मुनिसिंह-शील
रन-आनन्दप्रभआनन्दरलकाले मुनिसागरशिष्यः उदयधर्मः,
दान, शील, तप भाव
का स्वरूप
प्र.सा. सूची. २
Jan Education
For Private Personel Use Only
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ
॥७॥
Jain Education Inte
अंकः ग्रन्थनाम
मूलकर्त्ता
टीकाकती
४१ उत्तराध्ययनस्- जिन, गणधर प्र- वादिवेतालशात्येक बुद्ध विगैरः न्तिसूरिः
त्रे भा. ३
४३ आनन्दकाव्यम
दहोदधिः मौक्तिक रूपचंद. रास नलदमयंती रास शत्रु
अय रास
४२ धर्मसंग्रहणी उ - हरिभद्रसूरिः मलयगिरिः तरार्द्ध
रचना- मुद्रणकालः मूल स्थान टीका काल
पण्यं
नि. सा. प्र. १ मुंबई
१९१७
श्लोक पत्र मूल टीका प्रति
भानुमेरुशिष्य न मू. १६३७ अहमदा- 1) यसुंदरः बाद डाय मंजुबिली १९१८
नि. सा. प्र. 1) ५४६ से. प. २११ मुंबई १३९६ से. ४५१
१९१८
प्र. ५००
) नि. ४५८ प. ५१३ धारापगच्छ ५६२ से. ७१४
मू. ९२१ प्र. ५०० १६४० सूत्र. ८८
विशेषः
प. ४४९ चैत्रगच्छादि पट्टावलि ।
प्र.१०००
विषयः
अष्ट प्रवचन माता, यज्ञ, सामाचारी विगैरः
ज्ञान, दर्शन, चारित्र धर्मनिरूपण
सूची.
॥ ७ ॥
nelibrary.org
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४ पिंडनिर्युक्तिः
४५ धर्म्म संग्रह उत्तराई
श्रीभद्रबाहुः
४६ उपमितिभवप्र सिद्धर्षिः पंचा कथा पूर्वां
४७ दशवेकालिकं
४८ अर्थदीपिका
Jain Educationational
विजयानन्द-शा न्तिविजय शिष्य. मान विजयो
पाध्याय.
शय्यंभवः
सोमसुंदर भुवन (श्राद्धप्रतिक्रम- सुंदर शिष्यः रत्नणसूत्रवृत्तिः) शेखरः
मलयगिरिः
हरिभद्रसूरिः नि० भद्रबाहुः
गु.प्रे. मुंबई
१९१८
नि. सा. प्र. मुंबई
१) नि. ६७२ प. १७९
भा. ३७ प्र.१००० टी. ७०००
१1) मू. १५९ प. १८९ टी.
प्र. ५००
१४६०२
मू. ९६२ नि. सा. प्र. २) मुंबई
नि. सा. प्र. २॥ नि. ३७३
मुंबई.
१९१८
प. ४६८
प्र. ५००
प. २८६ गाथा सूत्र. प्र.१०००
५१५ गद्य
सूत्र. २१
मू. १४९६. नि. सा. प्र. २) टी. ६६४४ प. २०४
मुंबई.
प्र.१०००
१९१९
उद्गमादि आहारदोषोंका निरूपण.
स्थविरकल्प और जिनकरूप अधिकार.
आश्रवकषायविपाकादि
आहारशुद्धि, साधुपना विगैरः
आवकव्रतोंका अतिचार
144
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ
सली
अंकः ग्रन्थ नाम मूलका
रचना- मुद्रणटीकाकर्ता कालः मूल स्थान पण्यं ..
श्लोक पत्र टीका काल मूल टीका प्रति
विशेषः
विषयः
॥८
॥
S४९ उपमितिभव- देल्लमहत्तरगर्गपि
प्रपंचकथा उत्त. सिद्धर्षि. सिद्धर्षिः
नि.सा.प्रे. २) संपूर्ण प. ४६९ निर्वृतिकुले भष्टदेशे
मुंबई १ ६००० से.७७६ भिल्लमाले १९२०
प्र.५००
इन्द्रियकषायविपाकादि,
५. जीवा जीवाभि- स्थविराः | गमः
मलयगिरिः
जीवाजीव विगैरः
नि.सा.प्रे. ३० मू. सू. प. ४६७
मुंबई ४५० टी. प्र.१००० १९१९१४०००
SHIRAISHOISIRIAMOSASHES
साधु वगेरेहके प्रश्नोत्तर
मुं. वैभव
प्रेस. १९१९
प.१२४ प्र.१०००
५. सेनप्रश्न हीरसूरि-विजय(प्रश्नरत्नाकर.) सेनराज्ये शुभ
विजयः ५२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः स्थविराः विजयदानहीरपूर्वाद्ध (प्रमेय
सूरिराज्ये, सकरनमंजूषा.)
लचंद्रशिष्यः शान्तिचन्द्रः
नि.सा.प्रे. ४)
मुंबई १९२०
प.३८२ प्र.१०००
जम्बूद्वीप ओर ज्योतिषका अधिकार
॥
८
॥
Jain Education Le
ona
For Private & Personel Use Only
(Harjainelibrary.org
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Education Inter
५३ आवश्यक टि. अभय देव शिष्यः
प्पनं
हेमचंद्रः
५४ जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिः स्थविरा: उत्तरार्द्ध
५५ देवसीराइ
५६ श्रीपालचरित्रं ज्ञानविमलसूरि,
अपरनाम
नयविमल.
५७ सूक्तमुक्तावली प्राचीन
33
१९२०
१।। ४६०० प ११८
प्र. १०००
नि. सा. प्र. २) मुंबई
१९२०
जैन विजय ६)
सु. १९२१
सू. १७४५ मुंबई वैभवप्रेस
१९२१
नि. सा. प्र. २) मुंबई
१९२२
प. ३८३ पट्टावलिका विस्तार से. ५४६
प्र. १०००
प्र. १०००
15] मू. १८००प. ४४
आवश्यक हरिभद्रसूरि
जीकी टीकापर खुलासा
विजयप्रभ, विजयरत वि नवपद्वाराधनका प्र.१००० नयविमल, धीरविमल, फलमें नयविमल, उन्नतनगरे
प. १२६ प्र.१०००
जम्बूवृक्ष ओर ज्योतिपका अधिकार
धर्मोपदेश वगैरः १२७ विषयें
helibrary.org
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ.
॥९॥
Jain Education Int
*%*
अंकः ग्रन्थनाम मूलकर्त्ता
५८ प्रवचनसारो द्वार पूर्वार्द्ध ( तवज्ञानवि जयसेनयशोकाशिनी ) देवयोर्मध्यमः)
५९ तन्दुलवेयालियं वीरहस्तदीक्षितः विजयदानआन
न्दुविमलशिष्यः विजयविमलः
चउसरणं
वीरभद्रः
६० विंशतिस्थान- जयचंद्रसूरिशिकचरितं.
यः जिनहर्षः
33
टीकाकर्त्ता
नेमिचंद्र (आम्र - देवभद्रशिष्यः देव शिष्य, वि सिद्धसेनः
रचना कालः मूल टीका
मुद्रणस्थान पण्यं
काल
नि. सा. प्रे. ३) मू. २०००प. २२४
मुंबई
टी.
प्र. १०००
१९२२
१६००० १०३ द्वा.
द्वाराणि
"
33
लोक पत्र मूल टीका प्रति
39
१॥ सूत्र. १९ प. ५७
गाथा १३९. १०००
६३ गाथा. प. ५८-७८
प्र. १०००
विशेषः
33
मू. १५०२ बहादुर १) मू. २८०० प. ९५ वीरमपुर सिंहप्रेस
प्र. ७५०
पालीटा
ना. १९२३
विषयः
चैत्यचन्दन, गुरुवन्दन,
• पञ्चकखाण विगैरः २७६ विषयें.
दशदशा विगैरः
अरिहंत, "सिद्ध आदिका वर्णन
अरिहंतादिक वीशस्थानकोंका आराधनके फलकी कथायें.
15%
सूची.
॥९॥
nelibrary.org
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१ कल्पसूत्र सुबो धिका (आवृत्ति दुसरी )
अंक ७ मुजब
६२ सुबोधा सामा- शीलभद्र धनेश्वरचारी. श्रीचंद्रः
६३ सिरिसिरिवाल- वज्रसेन- हेमतिकहा सटीकं.
लकशिष्यः रत्नशेखरः
६४ प्रवचनसारो
नेमिचंद्र (आम्र देवभद्रशिष्यः द्वारः उत्तरभागः देवशिष्यः वि सिद्धसेनः पृथग् मूलादि जयसेनयशोदेवयोर्मध्यमः)
Jain Educationtional
६५ लोकप्रकाशः प्र. श्रीविनयविजयथमभागे द्रव्य- गणिः
लोकः
नि. सा. प्र. २) मुंबई
१९२३
मुं. वैभव ॥ प्रेस मुंबई
१९२४
१९२३
नि.सा. प्रेस ४) १०८ सें मुंबई
१९२६
मू. १४२८ भावनगर १1) मू. १३४२प. १५१ आनन्द गा. प्र. १०००
प्रिं. प्रेस
नि. सा. प्रे. २) मुंबई
१९२६
प. १९६
प्र. १०००
प. ५०
प्र. १०००
प.
२७६ द्वारों प्र.
प.
प्र.
सम्यक्त्व व्रतारोपणादिक २६ विषयें.
अर्हदादि नवपद आराधना
चैत्यवन्दन, गुरुवन्दन, पञ्चक्खाण विगैरः २१६ विषयो.
रज पल्योपम जीवाजीवनिरूपण.
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ
॥ १० ॥
अंक
ग्रन्थनाम मूलकर्त्ता
६६ आनंदकाव्य
Jain Education Internal
महोदधि मौक्तिकं ७
" ढोलामारवणी
रास माधवाबळ
धवळ रास शकुनचोपाई स्तंभन पार्श्व स्तवन. चार प्रत्येक बुद्ध चोपाई.
६७ तत्त्वार्थाधिगम
सूत्रम् ५ अध्यायी
प्रथमो भागः (पूर्णा)
टीकाकती
श्री कुशललाभ, समयसुन्दरजी.
श्रीमदुमास्वा तिजी. श्रीदेवगुप्तः
श्रीसिद
रचनाकाल
मूल टीका
मुद्रण स्थान
काल
जशवंतसिंह प्रेस लिंबडी
१९२६
कर्नाटक प्रे. मुंबई
१९२६
पण्य
श्लोक मूल टीका
पत्र प्रति
प.
प्र. १०००
प.
प्र.
विशेष
विषय
सूची.
॥ ४० ॥
anelibrary.org
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
छो.प्र. १
Jain Education
॥ श्रीजिनाय नमः ॥
श्रेष्ठिदेवचन्द्रलाल भाइ - जैनपुस्तकोद्धारग्रन्थाङ्केश्रीमदुपाध्यायविनयविजयगण्युपज्ञे
॥ श्रीलोकप्रकाशे द्रव्यलोकप्रकाशे ॥
॥ प्रथमः सर्गः ॥
ॐ नमः परमानन्द - निधानाय महखिने । शङ्खेश्वरपुरोत्तंस - पार्श्वनाथाय तायिने ॥ १ ॥ पिपर्ति सर्वदा सर्व-कामितानि स्मृतोऽपि यः । स कल्पद्रुमजित्पार्श्वो, भूयात्प्राणिप्रियङ्करः ॥ २ ॥ पार्श्वक्रमनखाः पान्तु, दीप्रदीपाङ्कुरश्रियः । हृष्टप्रत्यूहशलभाः, सर्वभावावभासिनः ॥ ३ ॥ जयन्ति व्यञ्जिताशेष- वस्तवोऽन्तस्तमोदुहः । गिरः सुधाकिरस्तीर्थ-कृतामद्भुतदीपिकाः ॥ ४ ॥ कृपाकटाक्षनिक्षेप - निपुणीकृत सेवका । भक्तव्यक्तसवित्री सा, जयति श्रुतदेवता ॥ ५ ॥ जीयाज्जगद्गुरुर्विश्व-जीवातुवचनामृतः । श्रीहीरविजयः सूरि-मंदीयस्य गुरोर्गुरुः ॥ ६ ॥ श्रीकीर्त्तिविजयान् सूते, श्रीकीर्त्तिविजयाभिधः । शतकृत्वोऽनुभूतोऽयं, मन्त्रः स्तादिष्ट१] जीवातुर्जीवमौषधम् । २ लक्ष्मीपशोविजयेत्येतत्रयम् ।
tional
ဆာ
म
jainelibrary.org
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य १ सर्गः
॥१॥
१५
सिद्धिदः॥७॥ अस्ति लोकखरूपं य-द्विप्रकीर्ण श्रुताम्बुधौ । परोपकारिभिः पूर्वपण्डितैः पिण्ड्यते स तत् प्रयोजन ॥८॥ ततः संक्षिप्य निक्षिप्त-मानायैः करणादिभिः । संग्रहण्यादिसूत्रेषु, भूयिष्ठार्थ मिताक्षरम् ॥९॥ अङ्गुलमान साम्प्रतं च क्रमात्मायः, प्राणिनो मन्दमेधसः । असुबोधमतस्तैस्तत्, कवित्वमिव बालकैः॥१०॥ ततस्तदुपकृत्यै तत्, मया किञ्चिद्वितन्यते । करणोत्यादिकाठिन्य-मपाकृत्य यथामति ॥ ११॥ अयि! प्रसन्नास्ते सन्तु, सन्तः सर्वोपकारिणः । मयि प्रवृत्ते पुण्यार्थ-मविमृश्य स्वशक्यताम् ॥ १२॥ शिशुक्रीडागृहमाया, ममेयं वचसां कला। निवेशनीयास्तत्रामी, कथमा द्विपोपमाः? ॥१३॥ श्रीगुरूणां प्रसन्नाना-मचिन्त्यो महिमाऽथवा । तेज:प्रभावादादर्श, किं न मान्ति धराधराः? ॥१४॥ संक्षिप्ताः संग्रहा: प्राच्या, यथा ते सुपठा मुखे । तथा सविस्तरत्वेन, सुबोधो भवतादयम् ॥१५॥ लोकप्रकाशनामानं, ग्रन्थमेनं विचक्षणाः । आद्रियध्वं जिनप्रोक्त-विश्वरूपनिरूपकम् ॥१६॥ प्राप्यानुशासनमिदं समुपक्रमेऽह-मैदंयुगीन विहरदगुरुगौतमस्य । श्रीमत्तपागणपतेर्विजयादिदेव-सूरीशितुर्विजयसिंहमुनीशितुश्च ॥ १७॥ मानैरङ्गुलयोजनरज्जूनां सागरस्य पल्यस्य । संख्याऽसंख्यानन्तरुपयोगोऽस्तीह यद् भूयान् ॥ १८॥ आर्या । ततः प्रथमतस्तेषां, स्वरूपं किञ्चिदुच्यते । तत्राप्यादावमुलानां, मानं वक्ष्ये त्रिधा च तत् ॥ १९॥ उत्सेधाख्यं प्रमाणाख्य-मात्माख्यं चेति तत्र च । उत्सेधाक्रमतो वृद्धे-र्जातमुत्सेधमङ्गुलम् ॥ २० ॥ तथाहि-द्विविधः परमाणुः स्यात्, सूक्ष्मश्च व्यावहारिकः । अनन्तैरणुभिः सूक्ष्म-रकोऽणुावहारिकः ॥२१॥ सोऽपि तीव्रण शस्त्रेण, द्विधा कर्तुं न शक्यते । एनं सर्वप्रमा
Jain Education international
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुणैव निणीता
अष्टोर्ध्वरेणुनिष्पन्न असताटनं हरिवर्ष-रम्यकक्षेत्र
णाना-मादिमाहुर्मुनीश्वराः॥२२॥ व्यवहारनयेनैव, परमाणुरयं भवेत् । स्कन्धोऽनन्ताणुको जात-सूक्ष्मत्वो। प्रयोजन निश्चयात्पुनः ॥ २३ ॥ अनन्तव्यवहाराणु-निष्पन्नोच्छूक्षणश्लक्षिणका । निष्पद्यते पुनः श्लक्ष्ण-श्लक्षिणका
अङ्गुलमान ताभिरष्टभिः॥ २४ ॥ अयं भगवत्याद्यभिप्रायो, जीवसमाससूत्रे च-परमाणू य अणंता सहिया ओसहसहिया एका । साऽणंतगुणा संती ससहिया सोऽणु ववहारी॥१॥आगमे चेयं पूर्वस्याः सकाशादनेकस्थानेष्वष्टगुणैव निर्णीता, अनेन त्वनन्तगुणा कुतोऽपि लिखितेति केवलिन एव वेत्तार इति तवृत्तौ।ताभिरष्टाभिरेकः स्या-दूर्ध्वरेणुर्जिनोदितः। अष्टोवरेणुनिष्पन्न-स्त्रसरेणुरुदीरितः ॥२५॥ त्रसरेणुभिरष्टाभि-रेकः स्याद्रथरेणुकः। | अष्टभिस्तैर्भवेदेकं, केशाग्रं कुरुयुग्मिनाम् ॥२६॥ ततोऽष्टघ्नं हरिवर्ष-रम्यकक्षेत्रभूस्पृशाम् । ततोऽष्टप्नं हैमवत| हैरण्यवतयुग्मिनाम्॥२७॥तस्मादष्टगुणस्थूलं, वालस्याग्रमुदीरितम्। पूर्वापरविदेहेषु, नृणां क्षेत्रानुभावतः ॥२८॥ स्थूलमष्टगुणं चास्मा-द्भरतैरावताङ्गिनाम् । अष्टभिस्तैश्च वालाग्रै-र्लिक्षामानं भवेदिह ॥२९॥ अयं तावत्संग्रहणीबृहद्वृत्तिप्रवचनसारोद्धारवृत्त्याद्यभिप्रायः, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्त्यादिषु तु अष्टभिः पूर्वापरविदेहनरकेशाग्रैरेव लिक्षामानमुक्तमिति ज्ञेयं । लिक्षाष्टकमिता यूका, भवेयूकाभिरष्टभिः। यवमध्यं ततोऽष्टाभि-स्तैः स्यादीत्सेधमङ्गुलम् ॥ ३०॥ चत्वार्युत्सेधाङ्गुलानां, शतान्यायामतो मतम् । तत्सा व्यङ्गुलव्यासं, प्रमाणाङ्गुल-18 मिष्यते ॥ ३१॥ प्रमाणं भरतश्चक्री, युगादौ वाऽऽदिमो जिनः । तदङ्गुलमिदं यत्तत्, प्रमाणाङ्गुलमुच्यते ॥३२॥ यदुत्सेधाजुलैः पञ्च-धनुःशतसमुच्छ्रितः। आत्माङ्गुलेन चाद्योऽर्हन् , विंशाङ्गुलशतोन्मितः ॥ ३३ ॥
मनाम् ॥२६॥ ततोऽदीरितः ॥२६॥ प्रताप इति तद्वृत्ताशानेकस्थानेष्वष्टलहनापत्तिप्रवचनसाराधररावताङ्गिनाम् अटवालस्याग्रसुदीरितम्बर्ष-रम्यकक्षेवभूस्टशाम रेकः स्याद्रथरणकरः
02020006303082290020
१४
Jain Eduen
emanal
For Private & Personel Use Only
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. १ सर्गः
प्रयोजन अङ्गुलमानं
॥२॥
ततः षण्णवतिनेषु, धनुःशतेषु पश्चसु । (अंगु० ४८०००) शतेन विंशत्याख्येन, भक्तेष्वाप्ता चतुःशती॥३४॥ यञ्च काप्युक्तमोत्सेधा-सहस्रगुणमेव तत् । तदेकाङ्गुलविष्कम्भ-दीर्घश्रेणिविवक्षया ॥ ३५॥ यच्चतुःशतदी- Cयाः, सार्द्धयङ्गुलविस्तृतेः । स्यादेकाङ्गुलविस्तारा, सहस्राङ्गुलदीर्घता ॥ ३६॥ दृष्टान्तश्चात्र-चतुरङ्गुलदीर्घायाः, सार्द्धयङ्गुलविस्तृतेः। पट्या यथाङ्गुलव्यास-श्वीरो दैर्ये दशाङ्गुलः ॥ ३७॥ वस्तुतः पुनरौत्सेधासार्द्धद्विगुणविस्तृतम् । चतुःशतगुणं दैये, प्रमाणाङ्गुलमास्थितम् ॥ ३८॥ एतच्च भरतादीना-मात्माङ्गुलतया मतम् । अन्यकाले त्वनियत-मानमात्माङ्गुलं भवेत् ॥ ३९॥ यस्मिन् काले पुमांसो ये, खकीयाङ्गुलमानतः। अष्टोत्तरशतोत्तुङ्गा, आत्माङ्गलं तदङ्गलम् ॥४०॥ एतत्प्रमाणतो न्यूना-धिकानां तु यदङ्गुलम् । तत्स्यादात्माजुलाभासं, न पुनः पारमार्थिकम् ॥ ४१॥ यदाहुः प्रवचनसारोद्धारे-"जे जंमि जुगे पुरिसा, अट्ठसयंगुलसमुच्छिआ हुंति । तेसिं जं निअमंगुल-मायंगुलमित्थ तं होइ ॥१॥ जे पुण एअपमाणा, ऊणा अहिगा य तेसिमेअंतु।आयंगुलं न भण्णइ, किंतु तदाभासमेवत्ति ॥२॥" प्रज्ञापनावृत्तौ तु-"जेणं जया मणूसा, तेसिं जं होइ माणरूवं तु । तं भणिअमिहायंगुल-मणिअयमाणं पुण इमं तु ॥१॥" इत्येवंरूपमात्माङ्गुलं।-पर-16 माणू तसरेणू, रहरेणू अग्गयं च वालस्स । लिक्खा जूया य जवो, अठ्ठगुणविवडिया कमसो ॥२॥ इत्यादिरूपमुच्छ्याङ्गुलं । उस्सेहंगुलमेगं, हवइ पमाणंगुलं सहस्सगुणं । तं चेव दुगुणियं खलु, वीरस्सायंगुलं भणियं ॥३॥ इत्येवंरूपं प्रमाणाङ्गुलमिति ज्ञेयं ॥ उत्सेधाङ्गुलमानेन, ज्ञेयं सर्वाङ्गिनां वपुः। प्रमाणाङ्गुलमा
desectice
Jain Education
a
l
For Private Personal use only
IAlainelibrary.org
-
---
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Educat
पुण
नेन, नगपृथ्व्यादिशाश्वतम् ॥ ४२ ॥ तत्रापि तस्याङ्गुलस्य दैर्येण, मीयते वसुधादिकम् । इत्याहुः केचिदन्ये च, तत्क्षेत्रगुणितेन वै ॥ ४३ ॥ तद्विष्कम्भेण केऽप्यन्ये, पक्षेष्वेतेषु च त्रिषु । ईष्टे प्रामाणिकं पक्षं, निश्चेतुं जगदीश्वरः ॥ ४४ ॥ अत्र प्रथमपक्षे एकस्मिन् योजने उत्सेधाङ्गुलनिष्पन्नानि चत्वारि योजनशतानि भवन्ति, द्वितीयपक्षे सहस्रं, तृतीये दश क्रोशा भवन्ति परं श्रीअनुयोगद्वार चूर्णो तृतीय एव पक्ष आहतो दृश्यते, तथा च तद्ग्रन्थः- “जे य पमाणंगुलाओ पुढवाइप्पमाणा आणिनंति ते अ पमाणंगुलविक्खंभेणं आणेयवा, ण पुण सूइअंगुलेणं" ति ॥ श्रीमुनिचन्द्रसूरिकृताङ्गुलसप्ततिकायामप्युक्तं - " एयं च खित्तगुणिएण केइ एयस्स जं मिति । अन्ने उ सूइअंगुल -माणेण न सुत्तभणियं तं ॥ १ ॥ अत्र चर्चादिविस्तरः अङ्गुलसप्ततिकातोऽवसेयः ॥ वापीकूपतडागादि - पुरदुर्गगृहादिकम् । वस्त्रपात्रविभूषादि, शय्याशस्त्रादि कृत्रिमम् ॥ ४५ ॥ इन्द्रियाणां च विषयाः, सर्व मेयमिदं किल । आत्माङ्गुलैर्यथामान-मुचितैः खखवारके ॥ ४६ ॥ आत्मोत्सेधप्रमाणाख्यं, त्रैधमप्यङ्गुलं त्रिधा । सूच्यङ्गुलं च प्रतरा-हुलं चापि घनाङ्गुलम् ॥ ४७ ॥ एकप्रदेशबाहल्यव्यासैकाङ्गुलदैर्घ्ययुक् । नभः प्रदेशश्रेणिर्या, सा सूच्यङ्गुलमुच्यते ॥ ४८ ॥ वस्तुतस्तदसंख्येय- प्रदेशमपि कल्प्यते । प्रदेशत्रय निष्पन्नं, सुखावगतये नृणाम् ॥ ४९ ॥ सूची सूच्यैव गुणिता, भवति प्रतराङ्गुलम् । नवप्रादेशिकं कल्प्यं, तद्दैर्घ्यव्यासयोः समम् ॥ ५० ॥ प्रतरे सूचीगुणिते, सप्तविंशतिखाशकम् । दैर्ध्य विष्कम्भबाहल्यैः समानं स्याद् घनाङ्गुलम् ॥ ५१ ॥ उपर्युपरिप्रतरत्रये स्थापिते स्थापना ॥
national
प्रयोजनं अङ्गुलमानं
१०
१४
w.jainelibrary.org
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. १ सर्गः
प्रयोजन अङ्गुलमान
॥३॥
तत्र गुणनविधिश्चैवम्-अङ्कोऽन्तिमो गुणराशे-गुण्यो गुणकराशिना । पुनरुत्सारितेनोपा-त्यादयोऽप्येवमेव च ॥५२॥ उपर्यधश्चादिमान्त्यौ, राश्योर्गुणकगुण्ययोः। कपाटसन्धिवत्स्थाप्यौ, विधिरेवमनेकधा ॥५३॥ स्थानाधिक्येन संस्थाप्यं, गुणितेऽङ्के फलं च यत् । यथास्थानकमङ्कानां, कार्या संकलना ततः॥५४॥ अङ्कस्थानानि चैवम्-एक दशशतसहस्रा-युतलक्षप्रयुतकोटयः क्रमतः । अर्बुदमजं खर्व निखर्वमहापद्मशङ्कवस्तस्मात् ॥ ५५ ॥ जलधिश्चान्त्यं मध्यं पराय॑मिति दशगुणोत्तरं संज्ञाः॥ इति ॥ अत्रोदाहरणं-पश्चत्र्येकमितो राशि-18 दिवाकरगुणीकृतः। स्याईिशा षोडशशती,क्रमोऽङ्कानां च वामतः॥५६॥ अथ प्रसङ्गादुपयोगित्वाच भागहा-| रविधिरुच्यते-यद्गुणो भाजकः शुद्ध्ये-दन्त्यादेर्भाज्यराशितः। तत्फलं भागहारे स्यात् , भागाप्राप्तौ च खं फलम् ॥ ५७ ॥ अग्रे यथाऽऽप्यते भागः, पूर्वमङ्घ तथा भजेत् । षडिर्भागे यथा षष्टेः, प्राप्यन्ते केवलं दश ॥५८॥-अथ प्रकृतम्-पादः स्यादङ्गलैः षडिर्वितस्तिः पादयोर्द्वयम् । वितस्तिद्वितयं हस्तो, द्वौ हस्तौ कुक्षिरुच्यते ॥५९॥ कुक्षिद्वयन दण्डः स्या-त्तावन्मानं धनुर्भवेत् । युगं वा मुसलं वापि, नालिका वासमाः समे ॥३०॥18 अङ्गुलैः षण्णवत्यैव, सर्वेऽपि प्रमिता अमी । सहस्रद्वितयेनाथ, क्रोशः स्याद्धनुषामिह ॥ ६१ ॥ चतुष्टयेन क्रोशानां, योजनं तत्पुनस्त्रिधा । उत्सेधात्मप्रमाणाख्य-रङ्गुलैर्जायते पृथक् ॥ ६२॥ एवं पादादिमानानां, सर्वेषां त्रिप्रकारताम् । विभाव्य विनियुञ्जीत, खखश्याने यथायथम् ॥ ६३ ॥ प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्न-योजनानां प्रमाणतः । असंख्यकोटाकोटीभि-रेका रज्जुः प्रकीर्तिता ॥ ६४॥ स्वयम्भूरमणाब्धेर्ये, पूर्वपश्चिमवेदिके।
॥३॥
सर्वेषां विप्रकाशन तत्पुनस्त्रिधा । उत्सधा सहस्रद्वितयेनाथ, कोशापि, नालिका वा समाः समक्ष
TAG29
२८
Jain Education
%
na
For Private Personal Use Only
ainelibrary.org
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
तयोः परान्तान्तरालं, रज्जुमानमिदं भवेत् ॥६५॥ लोकैश्च-यवोदरैरङ्गुलमष्टसंख्य-हस्तोऽङ्गुलैः षड्गुणितैश्च- पन्योपतुर्भिः।हस्तैश्चतुर्भिर्भवतीह दण्डः, क्रोशः सहस्रद्वितयेन तेषाम् ॥६६॥ स्यायोजनं क्रोशचतुष्टयेन, तथा रामसागरोकराणां दशकेन वंशः । निवर्तनं विंशतिवंशसंख्यैः, क्षेत्रं चतुर्भिश्च भुजैर्निबद्धम् ॥ ६७॥ इत्याद्यभिधीयते ॥
मानं पल्योपमस्याथ, तत्सागरोपमस्य च । वक्ष्ये विस्तरतः किञ्चित् , श्रुत्वा श्रीगुरुसन्निधौ ॥६८|आद्यमुद्धारपल्यं स्या-दद्धापल्यं द्वितीयकम् । तृतीयं क्षेत्रपल्यं स्या-दिति पल्योपमं त्रिधा ॥ ६९॥ एकैकं द्विप्रकारं स्यात् , सूक्ष्मबादरभेदतः। त्रैधस्यैवं सागरस्या-प्येवं ज्ञेया द्विभेदता ॥७॥ उत्सेधाङ्गलसिद्धैक-योजनप्रमितोऽवटः । उण्डत्वायामविष्कम्भ-रेष पल्य इति स्मृतः ॥७॥ परिधिस्तस्य वृत्तस्य, योजनत्रितयं भवेत् । एकस्य योजनस्योन-षष्ठभागेन संयुतम् ॥७२॥ संपूर्य उत्तरकुरु-नृणां शिरसि मुण्डिते । दिनैरेकादिससान्तै, रूढकेशाग्रराशिभिः॥७३॥ क्षेत्रसमासवृहद्वृत्तिजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्त्यभिप्रायोऽयं, प्रवचनसारोद्धारवृत्तिसंग्रहणीबृहवृत्त्योस्तुमुण्डिते शिरसि एकेनाहा द्वाभ्यामहोभ्यां यावदुत्कर्षतः सप्तभिरहोभिः प्ररूढानि वालाग्राणीत्यादि सामान्यतः कथनादुत्तरकुरुनरवालाग्राणि नोक्तानीति ज्ञेयं । 'वीरंजयसेहर क्षेत्रविचारसत्कखोपज्ञवृत्ती तु देवकुरूत्तरकुरूद्भवसप्तदिनजातोरणस्योत्सेधाङ्गुलप्रमाणं रोम सप्तकृत्वोऽष्टखण्डीकरणेन विंशतिलक्षसप्तनवतिसहस्रकशतद्वापञ्चाशत्प्रमितखण्डभावं प्राप्यते, तादृशै रोमखण्डैरेष पल्यो भ्रियत इत्यादिरर्थतः संप्रदायो दृश्यत इति ज्ञेयं ॥ एतानि चाङ्गुलसत्कानि रोमखण्डानि चतुर्विंशतिगुणानि हस्ते, तानि चतुर्गुणानि धनुषि,
Jan Educ
a
tional
For Private
Personal Use Only
V
ww.jainelibrary.org
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
पल्योपमसागरोपमखरूप
लोक द्रव्य.. तानि द्विसहस्रगुणानि क्रोशे, एवं क्रमेण समवृत्तघनयोजनपल्यगतो रोमखण्डराशिर्भवति, स चाङ्कतो यथा- १ सगे: IS त्रयस्त्रिंशत्कोटयः स्युः, सप्त लक्षाणि चोपरि । द्वाषष्टिश्च सहस्राणि, शतं च चतुरुत्तरम् ॥ ७४ ॥ एता.
वत्यः कोटिकोटि-कोटाकोव्यः स्मृता अथ । चतुर्विशतिर्लक्षाणि, पञ्चषष्टिः सहस्रकाः ॥७५॥ पंचविंशाः शताः षट् च, स्युः कोटाकोटिकोटयः। कोटाकोटीनां च लक्षा, द्विचत्वारिंशदित्यथ ॥ ७६॥ एकोनविं. शतिरपि, सहस्राणि शता नव । षष्टिश्चोपरिकोटीनां, मानमेवं निरूपितम् ॥ ७७॥ लक्षाणि सप्तनवतिस्त्रिपञ्चाशत्सहस्रकाः। षट् शतानि च पल्येऽस्मिन्, स्युः सर्वे रोमखण्डकाः॥७८॥ त्रित्रिखाश्वरसाक्ष्याशावादर्थक्ष्यब्धिरसेन्द्रियाः। षद्विपञ्चचतुर्थेका-काङ्कषट्खाङ्कवाजिनः ॥७९॥ पञ्च त्रीणि च षट् किंच, नव खानि ततः परम् । आदितः पल्यरोमांश-राशिसंख्याङ्कसंग्रहः॥८॥ अत्रोक्तशेषो विस्तरस्तु उपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिकृतश्रीजंबुद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्तेरवसेयः॥ । तथा निबिडमाकण्ठ, भियते स यथा हि तत् । नाग्निदहति वालाग्रं, सलिलं च न कोथयेत् ॥ ८१॥ तथा च चक्रिसैन्येन, तमाक्रम्य प्रसप्र्पता। न मनाक क्रियते नीचै-रेवं निबिडतां गतात् ॥ ८२॥ समये समये तस्मा-द्वालखंडे समुद्धृते । कालेन यावता पल्या, स भवेनिष्ठितोऽखिलः ॥ ८३ ॥ कालस्य तावतः संज्ञा, पल्योपममिति स्मृता । तत्राप्युद्धारमुख्यत्वा-दिदमुद्धारसंज्ञितम् ॥ ८४ ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) इदं बादरमुद्धार-पल्योपममुदीरितम् । प्रमाणमस्य संख्याताः, समयाः कथिता जिनैः॥ ८५ ॥ अस्मिन्निरूपिते सूक्ष्म,
Hol
ना
Jain Education
Jainelibrary.org
a
For Private Personal Use Only
l
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुबोधमबुधैरपि । अतो निरूपितं नान्य-त्किञ्चिदस्य प्रजोजनम् ॥८६॥ एतेषामथ पल्यानां, दशभिः पस्योपकोटिकोटिभिः। भवेद्वादरमुद्धार-संज्ञक सागरोपमम् ॥ ८७॥ अथैकैकस्य पूर्वोक्त-वालाग्रस्य मनीषया ।। मसागरोअसंख्ययानि खण्डानि, कल्पनीयानि धीधनैः ॥८८॥ यत्सूक्ष्म पुद्गलद्रव्यं, छद्मस्थश्चक्षुषेक्षते । तदसंख्या-1 पमस्वरूप शमानानि, तानि स्युर्द्रव्यमानतः ॥८९॥ सूक्ष्मपनकजीवाङ्गा-वगाढक्षेत्रतोऽधिके । असंख्येयगुणे क्षेत्रे|ऽवगाहन्त इमानि च ॥९॥ व्याचक्षतेऽथ वृद्धास्तु, मानमेषां बहुश्रुताः । पर्याप्सवादरक्षोणी-कायिकाङ्गेन। संमितम् ॥९१॥ समानान्येव सर्वाणि, तानि च स्युः परस्परम् । अनन्तप्रदेशिकानि, प्रत्येकमखिलान्यपि ॥९२॥ ततस्तैः पूर्यते प्राग्वत्, पल्यः पूर्वोक्तमानकः । समये समये चैकं, खण्डमुद्भियते ततः॥९३ ॥ निःशेषं निष्ठिते चास्मिन् , सूक्ष्ममुद्धारपल्यकम् । संख्येयवर्षकोटीभिर्मितमेतदुहाहृतम्॥९४ ॥ सुसूक्ष्मोद्धारपल्यानां, दशभिः कोटिकोटिभिः। सूक्ष्म भवति चोद्धारा-भिधानं सागरोपमम् ॥९॥ आभ्यां सागरपल्याभ्यां, मीयन्ते द्वीपसागराः । अस्याः सार्द्धद्विसागर्याः, समयैः प्रमिता हि ते ॥ ९६ ॥ यद्वैतासु पल्यकोटा-कोटीषु पञ्चविंशती । यावन्ति वालखण्डानि । तावन्तो द्वीपसागराः॥९७ ॥ एकादिसप्तान्तदिनो-द्तैः केशाग्रराशिभिः। भृतादुक्तप्रकारेण, पल्यात्पूर्वोक्तमानतः ॥९८॥ प्रतिवर्षशतं खण्ड-मेकमेकं समुद्धरेत् । निःशेष निष्ठिते चास्मि-न्नद्धापल्यं हि बादरम् ॥ ९९ ॥ एतेषामथ पल्यानां, दशभिः कोटिकोटिभिः। भवेद्वादरमद्धाख्यं, जिनोक्तं सागरोपमम् ॥१०॥ पूर्वरीत्याऽथ वालाः, खण्डीभूतैरसंख्यशः। पूर्णात्पल्यात्तथा खण्डं,
Jain Educa
t ional
For Private & Personel Use Only
S
N
.jainelibrary.org
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ सगे:
प्रतिवर्षशतं हरेत् ॥१॥ कालेन यावता पल्यः, स्यान्निले पोऽखिलोऽपि सः। तावान् कालो भवेत्सूक्ष्म-मद्धा
पल्योप|पल्योपमं किल ॥२॥ एतेषामथ पल्यानां, दशभिः कोटिकोटिभिः। सूक्ष्ममद्धाभिधं ज्ञान-सागराः सागरं मसागरोजगुः॥३॥ सूक्ष्माद्धापल्यवार्द्धिभ्या-माभ्यां मीयन्त आर्हतः। आयूंषि नारकादीनां, कर्मकायस्थिती तथा पमखरूपं ॥४॥ एतेषामेव वार्धानां, दशभिः कोटिकोटिभिः। उत्सर्पिणी भवेदेका, तावत्येवावसर्पिणी ॥५॥ एकादिससान्तघन-रूढकेशाग्रराशिभिः । भृतादुक्तप्रकारेण, पल्यात्पूर्वोक्तमानतः॥६॥ तत्तद्वालाग्रसंपृष्ट-खप्रदेशापकर्षणे । समये समये तस्मिन् , प्राप्ते निःशेषतां तथा ॥७॥ कालचक्रैरसंख्याते-र्मितं तत्क्षेत्रनामकम् । बादरं जायते पल्यो-पममेवं जिनैर्मतम् ॥ ८॥ कोटिकोट्यो दशैषां च, बादरं क्षेत्रसागरम् । सुबोधतायै सूक्ष्मस्य, कृतमेतन्निरूपणम् ॥९॥ छिन्नरसंख्यशः प्राग्वत्, केशाग्रैः पल्यतो भृतात् । समये समये चैकः, खप्रदे-18| शोऽपकयते ॥१०॥ एवं केशांशसंस्पृष्टा-संस्पृष्टाभ्रांशकर्षणात् । तस्मिन्निःशेषिते सूक्ष्म, क्षेत्रपल्योपमं भवेत् ॥११॥ यद्यप्यत्र वालाग्रखण्डस्पृष्टास्पृष्टनभःप्रदेशकर्षणेऽधिकृते एकैकस्य वालाग्रस्यासंख्यभागकरणं नोपयुक्तं, उभयथाऽप्यविशेषात् , तथाऽपि प्रवचनसारोद्धारवृत्त्यादिषु पूर्वग्रन्थेषु तथा दर्शनादत्रापि तथोक्तमिति ज्ञेयं ।
१ आह-यदि स्पृष्टा अस्पृष्टाश्च नभःप्रदेशा गृह्यन्ते, तर्हि वालाप्रैः किं प्रयोजनम् ?, यथोक्तपल्यान्तर्गतनभःप्रदेशापहारमात्रतः सामान्येनैव ॥५ वक्तुमुचितं स्यात् , सत्यं, किन्तु प्रस्तुतपस्योपमेन दृष्टिवादे द्रव्याणि मीयन्ते, तानि कानिचिद्यथोक्तवालाग्रस्पृष्टैरेव नभःप्रदेशैर्मीयन्ते, कानिचिदस्पृष्टैरित्यतो दृष्टिवादोक्तद्रव्यमानोपयोगित्वाद् वालाग्रप्ररूपणाऽत्र प्रयोजनवतीति ( अनुयोगद्वारवृत्तौ )
Jain Educa
t
ional
ww.jainelibrary.org
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
नन्वेवं निचिते पल्ये, वालाग्रैः संभवन्ति किम् ? । नभःप्रदेशा अस्पृष्टा-स्तदुद्धारो यदीरितः॥१२॥ संख्यातादि उच्यते संभवन्त्येवास्पृष्टास्ते सूक्ष्मभावतः । नभोऽशकानां वालाग्र-खण्डौघात्तादृशादपि ॥१३॥ यथा कुष्माण्डभरिते, मातुलिङ्गानि मञ्चके । मान्ति तैश्च भृते धात्री-फलानि बदराण्यपि ॥१४॥ तत्रापि मान्ति चणका-दयः सूक्ष्मा यथाक्रमम् । एवं वालाग्रपूर्णेऽपि, तत्रास्पृष्टा नभोऽशकाः ॥१५॥ यद्वा-यतो घनेऽपि स्तम्भादौ, शतशो मान्ति कीलकाः । ज्ञायतेऽस्पृष्टखांशानां, ततस्तत्रापि संभवः ॥१६॥ एवं वालाग्र खण्डौघे-रत्यन्तनिचितेऽपि हि । युक्तैव पल्ये खांशाना-मस्पृष्टानां निरूपणा ॥ १७॥ एतेषामथ पल्यानां, दशभिः कोटिकोटिभिः । सूक्ष्म सूक्ष्मेक्षिभिः क्षेत्र-सागरोपममीक्षितम् ॥ १८॥ बादरक्षेत्रपल्याम्भो-निधिभ्यां सूक्ष्मके इमे । असंख्यगुणमाने स्तः, कालतः पल्यसागरे ॥ १९ ॥ क्षेत्रसागरपल्याभ्या-माभ्यां प्रायः प्रयोजनम् । द्रव्यप्रमाणचिन्तायां, दृष्टिवादे कचिद्भवेत्॥२०॥पल्यं पल्योपमं चापि, ऋषिभिः परिभाषितम्। सारं वारिधिपर्यायं, सागरं सागरोपमम् ॥२१॥
अथ संख्यातादिकानां,वरूपंकिञ्चिदुच्यते।श्रोतव्यं तत्सावधान-र्जनैस्तत्त्वबुभुत्सुभिः॥२२॥ त्रिधा संख्यातं जघन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदतः। असंख्यातानन्तयोस्तु, भेदा नव नवोदिताः ॥२३॥ परीतासंख्यातमाचं, युक्तासंख्यातकं परम् । तार्तीयीकमसंख्याता संख्यातं परिकीर्तितम् ॥२४॥ परीतानन्तमाद्यं स्या-चुक्तानन्तं द्वितीयकम् । अनन्तानन्तकं ताती-यीकंच गदितं जिनैः॥२५॥षडप्येते स्युर्जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदतः। अष्टादशाथ
en Educa
For Private
Personel Use Only
T
ww.jainelibrary.org
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य.
१ सर्ग:
॥
६
॥
संख्याते-त्रिभिः सहकविंशतिः॥२६॥द्वावेव लघु संख्यातं, व्यादिकं मध्यमं ततः।अर्वागुत्कृष्टसंख्यातात्,
नैसंख्यातादि कस्तु गणनां भजेत् ॥२७॥ यत्तु संख्यातमुत्कृष्टं, तत्तु ज्ञेयं विवेकिभिः । चतुष्पल्याधुपायेन, सर्षपोत्करमानतः |॥२८॥ जम्बूद्वीपसमायाम-विष्कम्भपरिवेषकाः । सहस्रयोजनोद्वेधाः, पल्याश्चत्वार ईरिताः ॥ २९॥ उच्चया योजनान्यष्टौ, जगत्या ते विराजिताः। जगत्युपरि च क्रोश-दूयोचवेदिकाञ्चिताः॥३०॥दिदृक्षवो द्वीपवा(न्, स्वीकृतोद्ग्रीविका इव । ध्यायन्तो ज्येष्ठसंख्यातं, योगपभृतोऽथवा ॥ ३१ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ आद्योऽनवस्थिताख्यः स्या-च्छलाकाख्यो द्वितीयकः । तृतीयः प्रतिशलाक-स्तुर्यो महाशलाककः ॥३२॥ आवेदिकान्तं सशिख-स्तत्र पल्योऽनवस्थितः। मायादेकोऽपि न यथा, सर्षपैर्भियते तथा ॥३३॥ असत्कल्पनया कश्चि-द्देवस्तमनवस्थितम् । कृत्वा वामकरे तस्मा-त्सर्षपं परपाणिना ॥ ३४ ॥ जम्बूद्वीपे क्षिपेदेकं, द्वितीय लवणोदधौ । तृतीयं धातकीखण्डे, तुर्य कालोवारिधी ॥ ३५॥ एवंद्वीपे समुद्रे वा, स पल्यो यत्र निष्ठितः। तत्समायामविष्कम्भ-परिधिः कल्प्यते पुनः॥ ३६॥ उद्वेधोत्सेधतः प्राग्व-द्भियते सर्षपैश्च सः।क्रमाद द्वीपे समुद्रे च, पूर्ववन्यस्यते कणः॥ ३७॥ एवं द्वितीयवारं च, रिक्तीभूतेऽनवस्थिते । मुच्यते सर्षषः साक्षी, शलाकाभिधपल्यके ॥ ३८ ॥ पूर्यमाणै रिच्यमानै-रेवं भूयोऽनवस्थितैः। शलाकाख्योऽपि सशिखं, पूर्यते । साक्षिसर्षपैः॥१३९॥ अत्रेदं ज्ञेयं-आयेऽनवस्थिते रिक्ती-भूते साक्षी न मुच्यते । सर्वैः पल्यैः समानत्वानानवस्थितताऽस्य यत् ॥ ४०॥ याऽस्यानवस्थितेत्याह्वा, ज्ञेया योग्यतया तु सा । घृतयोग्यो घटो यद्वदू, घृत
220292029292020OPORO200900202012
९८
Jain EducationAttiona
For Private Personal Use Only
Jainelibrary.org
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुंभोऽभिधीयते ॥४१॥ साक्षी च सर्षपकणो, मुच्यते यः शलाकके । अनवस्थितसत्कं तं, जगुरेके परे अनवस्थि|परम् ॥ ४२ ॥ पूर्णीभूते शलाकेऽथ, स्थाप्यस्तत्रानवस्थितः । क्रमागतद्वीपवार्द्धि-समानः सर्षपैर्भूतः ॥४३॥तादिपल्याअथोत्पाट्य शलाकाख्यं, प्राग्वत्तस्य कणान् क्षिपेत् । अनवस्थान्तिमकणा-क्रान्तद्वीपाम्बुधेः पुरः॥४४॥
NRI धिकार रिक्तीभूते शलाकेऽथ, पल्ये प्रतिशलाकके । क्षिप्यते सर्षपस्तस्य, साक्षीभूतस्तृतीयके ॥४५॥ अथ तत्र स्थितं पूर्ण, तं गृहीत्वाऽनवस्थितम् । शलाकान्त्यकणाक्रान्ता-दने प्राग्वत्कणान् क्षिपेत् ॥ ४६॥ पूर्यमाणे रिच्यमान-भूयो भूयोऽनवस्थितैः । पुनः शलाको भ्रियते, प्राग्वत्तथाऽनवस्थितः॥४७॥ प्राग्वच्छलाकमपाट्य, परतो द्वीपवार्धिषु । रिक्तीकृत्य च तत्साक्षी, स्थाप्यः प्रतिशलाकके ॥ ४८॥ एवं प्रतिशलाकेऽपि, सशिखं संभृते. सति । अनवस्थशलाकाख्यौ, स्वयमेव भृतौ स्थितौ ॥४९॥ शलाकसाक्षिणः स्थानाऽभा वा-16 त्स रिच्यते कथम् ? | आद्यस्यापि तदभावात् , कथं सोऽपि हि रिच्यते ? ॥५०॥ ततः प्रतिशलाकाख्यमुत्पाट्य तस्य सर्षपान् । क्षिपेत्पूर्वोक्तया रीत्या, परतो द्वीपवार्धिषु ॥५१॥ एवं प्रतिशलाकेऽपि, निखिल निष्ठिते सति । साक्षीभूतं कणमेकं, क्षिपेन्महाशलाकके ॥५२॥ ततः शलाकमुत्पाव्य, द्वीपाधिषु तदग्रतः। सर्षपाश्यस्य तत्साक्षी, स्थाप्यः प्रतिशलाकके ॥५३॥ ततः क्रमाद्बर्द्धमान-विस्तारमनवस्थितम् । उत्पाट्य परतो द्वीप-पाथोधिषु कणान् क्षिपेत् ॥५४॥ प्राग्वदेतत्साक्षिकणैः, शलाकाख्यः प्रपूर्यते । तमप्यनेकशः प्राग्वत्, संरिच्यतस्य साक्षिभिः॥५५॥ तृतीयः परिपूर्येताऽसकृदेतस्य साक्षिभिः। पल्यो महाशलाको:
PO3929/2008-090720000
Jain Educational
For Private
Personal Use Only
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
परीतासं
ख्यातादि १५
लोक द्रव्य.पि, सशिखं पूर्यते ततः॥५६॥ यथोत्तरमथो साक्षि-स्थानाभावादिमे समे। भृताः स्थिता दिक्कनीनां, क्रीडा-1 १ सर्गः समुद्गका इव ॥ ५७॥ यत्रान्तिमायां वेलायां, रिक्तीभूतोऽनवस्थितः । तावन्मानस्तदाऽस्त्येष, त्रयस्त्वन्ये
यथोदिताः॥५८॥ अथैतांश्चतुरः पल्यान् , सावकाशे स्थले कचित् । उद्वम्य तत्सर्षपाणां, निचयं रचयेद्धिया ॥ ५९॥ ततश्च जम्बूद्वीपादि-द्वीपवार्धिषु सर्षपान् । उच्चित्य पूर्वनिक्षिप्तां-स्तत्रैव निचये क्षिपेत् ॥३०॥ एकसर्षपरूपेण, न्यूनोऽयं निचयोऽखिलः। भवेदुत्कृष्टसंख्यात-मानमित्युदितं जिनैः॥ ६१॥ एतदुत्कृष्टसंख्यात-मेकरूपेण संयुतम् । भवेत्परीतासंख्यातं, जघन्यमिति तद्विदः ॥ ६२॥ ज्येष्ठात्परीतासंख्यातादवांग जघन्यतः परम् । मध्यं परीताऽसंख्यातं, भवेदिति जिनैः स्मृतम् ॥ ६३ ॥ जघन्ययुक्तासंख्यात-मेकरूपविवर्जितम् । भवेत्परीतासंख्यात-मुत्कृष्टमिति तद्विदः ॥ ६४ ॥ जघन्ययुक्तासंख्यप्रकारश्चायम्-यावत्प्रमाणो यो राशिर्भवेत्स्वरूपसंख्यया । स न्यस्य तावतो वारान्, गुणितोऽभ्यास उच्यते॥६५॥ यथा पश्चात्मको राशिः, पञ्च वारान् प्रतिष्ठितः । मिथः संगुणितो जातः, प्रथमं पञ्चविंशतिः॥६६॥ शतं सपादं |संजातो, गुणितः सोऽपि पञ्चभिः । पुनः संगुणितः पञ्च-विंशानि स्युः शतानि षट् ॥ ६७॥ जातश्चतुर्थवेलाया-मेकत्रिंशच्छतानि सः। पञ्चविंशत्युपचिता-न्यभ्यासगुणितं ह्यदः ॥ ६८॥ ततश्च-प्रागुक्ते सार्षपे पुळे, यावन्तः किल सर्षपाः । तत्संख्यान मुख्यनिचय-तुल्यान् राशीन् पृथक् पृथक् ॥ ६९॥ कृत्वा मिथस्तद्गुणने, यो राशिर्जायतेऽन्तिमः। जघन्ययुक्तासंख्यं तदावलीसमयैः समम् ॥७०॥ इयमत्र भावना
॥७॥
1 २८
.
Jain Educatorianosa
For Private & Personel Use Only
Yadainelibrary.org
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Educa
स सर्वपाणां निकरः, कल्प्यते चेद्दशात्मकः । प्राग्वद्भ्यासगुणितः, सहस्रकोटिको भवेत् ॥ ७१ ॥ गरिष्टयुक्तासंख्यातादवग् जघन्यतः परम् । मध्यमं जायते युक्तासंख्यातमिति तद्विदः ॥ ७२ ॥ जघन्ययुक्तासंख्यातं प्राग्वदभ्यासताडितम् । हीनमेकेन रूपेण युक्तासंख्यातकं गुरु ॥ ७३ ॥ एतदेव रूपयुक्तमसंख्यासंख्यकं लघु । मध्यासंख्यातासंख्यात-मस्मादुत्कृष्टकावधि ॥ ७४ ॥ जघन्यासंख्यासंख्यातं, भवेदभ्यासताडितम् । एकरूपोनितं ज्येष्ठासंख्या संख्यातकं स्फुटम् ॥ ७५ ॥ अनेकरूपक्षेपे च परीतानन्तकं लघु । मध्यं चास्मात्समुत्कृष्टपरीतानन्तकावधि ॥ ७६ ॥ हखं परीत्ताऽनन्तं च प्राग्वदभ्याससंगुणम् । परीतानन्तकं ज्येष्ठमेकरूपोनितं भवेत् ॥ ७७ ॥ सैकरूपं तज्जघन्ययुक्तानन्तकमीरितम् । परमस्मात्परा चार्वाग, युक्तानन्तं हि मध्यमम् ॥ ७८ ॥ युक्तानन्तं तज्जघन्यमभ्यासपरिताडितम् । निरेकरूपमुत्कृष्टयुक्तानन्तकमाहितम् ॥ ७९ ॥ अत्रैकरूपक्षेपे स्यादनन्तानन्तकं लघु । अस्माद्यदधिकं मध्यानन्तानन्तं च तत्समम् ॥ ८० ॥ उत्कृष्टानन्तानन्तं तु नास्ति सिद्धान्तिनां मते । अनुयोगद्वारसूत्रे, यदुक्तं गणधारिभिः ॥ ८१ ॥ एवमुक्कोसयं अनंताणंतयं नत्थिन्ति । अभिप्रायः समग्रोऽयं, प्रोक्तः सूत्रानुसारतः । अथ कार्मग्रन्थिकानां, मतमत्र प्रपश्यते ॥ ८२ ॥ समद्विघातो वर्गः स्यादिति वर्गस्य लक्षणम् । पञ्चानां वर्गकरणे, यथा स्युः पञ्चविंशतिः ॥ ८३ ॥ जघन्ययुक्तासङ्ख्यातावधि तुल्यं मतद्वये । अतः परं विशेषोऽस्ति स चायं परिभाव्यते ॥ ८४ ॥ १ से किं तं अनंतानंतर ?, अणन्तानंतर दुबिहे पण्णत्ते, तंजहा जहणए अजद्दण्णमणुको सए ( इति अनुयोगद्वारे ५६० )
mational
युक्तासंख्यातादि
५
१०
१४
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. १ सर्गः
112 11
।
जघन्ययुक्ता सङ्ख्यातादारभ्योत्कृष्टकावधि । मध्यमं युक्तासङ्ख्यातं स्यादुत्कृष्टमथोच्यते ॥ ८५ ॥ जघन्ययुक्तासङ्ख्यातं, वर्गितं रूपवर्जितम् । उत्कृष्टयुक्तासङ्ख्यातं प्राप्तरूपैः प्ररूपितम् ॥ ८६ ॥ एकरूपेण युक्तं तदसंख्यासंख्यकं लघु । अर्वागुत्कृष्टतो मध्यमथोत्कृष्टं निरूप्यते ॥ ८७ ॥ जघन्यासंख्या संख्यातं यत्नतो वर्गितं त्रिशः । अमीभिर्दशभिः क्षेपैर्वक्ष्यमाणैर्विमिश्रितम् ॥ ८८ ॥ तचैवं - त्रिंशत्कोटिकोटिसारा, ज्ञानावरणकर्मणः । स्थितिरुत्कर्षतो ज्ञेया, जघन्याऽऽन्तर्मुहर्त्तिकी ॥ ८९ ॥ अनयोरन्तराले च, मध्यमाः स्युरसंख्यशः । आसां बन्धहेतुभूताऽध्यवसाया असङ्ख्यशः ॥ ९० ॥ एवमेवाध्यवसाया, अपरेष्वपि कर्मसु । स्युरसङ्ख्येयलोकाभ्रप्रदेशप्रमिता इमे ॥ ९१ ॥ जघन्यादिभेदवन्तोऽनुभागाः कर्मणां रसाः । तेऽप्यसङ्ख्येयलोकाभ्र- प्रदेशप्रमिताः किल ॥ ९२ ॥ ततश्च - लोकाभ्र १ धर्मा २ धर्मै ३ कजीवानां ४ ये प्रदेशकाः । अध्यवसायस्थानानि, स्थितिबन्धानुभागयोः ५-६ ॥ ९३ ॥ मनोवचः काययोगविभागा निर्विभागकाः ७ | कालचक्रस्य समया ८ स्तथा प्रत्येकजन्तवः ९ ॥ ९४ ॥ अनन्ताङ्गिदेहरूपा, निगोदाश्च १० दशाप्यमून् । त्रिवर्गिते लघ्वसङ्ख्यासज्येऽसङ्ख्यान्नियोजयेत् ॥ ९५ ॥ त्रिशः पुनर्वर्गयेच, भवेदेवं कृते सति । असङ्ख्या सङ्ख्य मुत्कृष्टमेकरूपविनाकृतम् ॥ ९६ ॥ तत्रैकरूपप्रक्षेपे, परीतानन्तकं लघु । परीतानन्तकाज्ज्येष्ठायदवक् तच्च मध्यमम् ॥ ९७ ॥ अभ्यासगुणिते प्राग्वत्परीतानन्तके लघौ । परीतानन्तमुत्कृष्टमेकरूपोज्झितं भवेत् ॥ ९८ ॥ सैकरूपे पुनस्तस्मिन् युक्तानन्तं जघ न्यकम् । अभव्यजीवैस्तुलितं, मध्यं तृत्कृष्टकावधि ॥ ९९ ॥ जघन्ययुक्तानन्ते च वर्गिते रूपवर्जिते । स्याद्य
Jain Educabo national
उत्कृष्ट नन्तान
ताधि.
२०
२५
112 11
२८
w.jainelibrary.org
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
असंख्यातादिप्रयोजनं
क्तानन्तमुत्कृष्टमित्युक्तं पूर्वसूरिभिः ॥२०॥ अत्रैकरूपप्रक्षेपादनन्तानन्तकं लघु । प्राग्वदेतदपि ज्ञेयं, मध्यमुत्कृष्टकावधि ॥१॥ जघन्यानन्तानन्तं तत्, वर्गयित्वा त्रिशस्ततः।क्षेपानमूननन्तान् षट्, वक्ष्यमाणान्नियोजयेत् ॥२॥ ते चामी-वनस्पती १ निगोदानां, जीवान २ सिद्धांश्च ३ पुद्गलान् ४। सर्वकालस्य समयान्, ५ सर्वालोकनभोऽशकान् ६॥३॥ पुनस्त्रिवर्गिते जातराशौ तस्मिन् विनिक्षिपेत् । पर्यायान् केवल ज्ञानदर्शनानामनन्तकान् ॥ ४॥ अनन्तानन्तमुत्कृष्टं, भवेदेवं कृते सति । मेयाभावादस्य मध्ये, नैव व्यवहतिः पुनः ॥५॥ एवं च नवधाऽनन्तं, कर्मग्रन्थमते भवेत् । भवत्यष्टविधं किंच, सिद्धान्ताश्रयिणां मते ॥ २०६॥ सर्वेषां रूपमेकैकमेषां ज्येष्ठकनीयसाम् । मध्यमानां तु रूपाणि, भवन्ति बहुधा किल ॥ २०७॥ सङ्ख्यातभेदं सङ्ख्यातमसङ्ख्यातविधं पुनः। असलयातमनन्तं चानन्तभेदं प्रकीर्तितम् ॥ २०८॥ प्रयोजनं त्वेतेषां-अभ-1 विअ चउत्थणते, पंचमि सम्माइ परिवडिअ सिद्धा । सेसा अट्ठमणते, पजथूलवणाइ बावीसं ॥ २०९ ॥ ते चामी-बायरपज्जत्तवणा १, बायरपज २ अपजबायरवणा ३ य । बायरअपज्ज ४ बायर ५, सुहुमापज्जवण ६ सुहुमअप्पज्जा ७॥ १०॥ मुहुमवणा पजत्ता ८, पजसुहमा ९ सुहुम १० भवय ११ निगोया १२॥ वण १३ एगिदिय १४ तिरिया १५, मिच्छद्दिट्टी १६ अविरया १७ य ॥ ११॥ सकसाइणो १८ य छउमा १९ सजोगि २० संसारि २१ सघजीवा २२ य । जहसंभवमन्भहिया, बावीसं अट्ठमेऽणंते ॥१२॥ इत्यादि यथास्थानं १ दृष्टिवादभृदाचार्यप्रणीतकर्मप्रकृत्यादिशास्त्राणामप्रामाण्यमापादयितुमशक्यत्वात् । अप्रतःसंख्याऽभावात् पूर्वानन्तप्रक्षेपेऽनवस्थानात् ।।
92000000000002020129202
१०
Jain Education N
ona
For Private & Personel Use Only
ainelibrary.org
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. १ सर्गः
॥९॥
Jain Educatio
ज्ञेयं ॥ इत्यङ्गुलादि प्रकृतोपयोगिमानं मयाऽऽप्सोक्तिमपेक्ष्य दृब्धम् । अथो यथास्थानमिदं नियोज्यं, कोशस्थितं द्रव्य मिवागमज्ञैः ॥ १३ ॥ विश्वाश्चर्यदकीर्त्तिकीर्तिविजयश्रीवाचकेन्द्रान्ति षद्राजश्रीतनयो तनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्वप्रदीपोपमे, सर्गों निर्गलितार्थसार्थसुभगः पूर्णः सुखेनादिमः ॥ २४ ॥
॥ इति लोकप्रकाशे प्रथमः सर्गः समाप्तः ॥
अथ द्वितीयः सर्गः प्रारभ्यते
स्तुमः शङ्खेश्वरं पार्श्व, मध्यलोके प्रतिष्ठितम् । देहलीदीपकन्यायाद्, भुवनत्रयदीपकम् ॥ १ ॥ प्रस्तूयतेऽथ प्रकृतं खरूपं लोकगोचरम् । द्रव्यतः क्षेत्रतः कालभावतस्तचतुर्विधम् ॥ २ ॥ एकः पञ्चास्तिकायात्मा, द्रव्यतो लोक इष्यते । योजनानामसङ्ख्येयाः, कोटयः क्षेत्रतोऽभितः ॥ ३ ॥ कालतोऽभूच्च भाव्यस्ति, भावतोऽनन्तपर्यवः । लोकशब्दप्ररूप्यास्तिकायस्थगुणपर्यवैः ॥ ४ ॥ अथवा- जीवाजीवखरूपाणि, नित्यानित्यत्ववन्ति च । द्रव्याणि षट् प्रतीतानि, द्रव्यलोकः स उच्यते ॥ ५ ॥ तथोक्तं स्थानाङ्गवृत्तौ - जीवमजीवे रूवमरूवि सपएसमप्पएसे अ । जाणाहि दबलोगं, निचमनिचं च जं दवं ॥ ६ ॥ ये संस्थानविशेषेण, तिर्यगूर्ध्वमधः स्थिताः । आकाशस्य प्रदेशास्तं, क्षेत्रलोकं जिना जगुः ॥ ७ ॥ समयावलिकादिश्च, काललोको जिनैः
tional
द्रव्यादिलोकनिरूपण
२०
॥ ९॥ २५
ainelibrary.org
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्मृतः । भावलोकस्तु विज्ञेयो, भावा औयिकादयः ॥ ८ ॥ यदाहुः-ओदइए उवसमिए, खइए अ तहा खओवसमिए अ । परिणाम सन्निवाए, छव्विहो भावलोओत्ति ॥ ९ ॥ इति स्थानाङ्गवृत्तौ -तत्र प्रथमतो द्रव्यलोकः किंञ्चिद्वितन्यते । मया श्रीकीर्त्तिविजयप्रसाद प्राप्तबुद्धिना ॥ १० ॥ धर्मास्तिकाया १ धर्मास्ति-काया २वाकाश ३ एव च । जीव ४ पुद्गल ५ काला ६ च षट् द्रव्याणि जिनागमे ॥ ११ ॥ धर्माधर्मा जीवाख्याः, पुद्गलेन समन्विताः । पञ्चामी अस्तिकायाः स्युः, प्रदेशप्रकरात्मकाः ॥ १२ ॥ अनागतस्यानुत्पत्तेरुत्पन्नस्य च नाशतः । प्रदेशप्रचयाभावात् काले नैवास्तिकायता ॥ १३ ॥ विना जीवेन पञ्चामी, अजीवाः कथिताः श्रुते । पुद्गलेन विना चामी, जिनैरुक्ता अरूपिणः ॥ १४ ॥ धर्मास्तिकायं तत्राह, पञ्चधा परमेश्वरः । द्रव्यतः क्षेत्रतः कालभावाभ्यां गुणतस्तथा ॥ १५ ॥ द्रव्यतो द्रव्यमेकं स्यात्, क्षेत्रतो लोकसम्मितः । कालतः शाश्वतो यस्मादभूद्भाव्यस्ति चानिशम् ॥ १६ ॥ वर्णरूपरसैर्गन्धस्पर्शैः शून्यश्च भावतः । गत्युपष्टम्भधर्मश्च, गुणतः स प्रकीर्त्तितः ॥ १७ ॥ स्वभावतः संचरतां, लोकेऽस्मिन् पुद्गलात्मनाम् । पानीयभिव मीनानां, साहाय्यं कुरुते ह्यसौ ॥ १८ ॥ जीवानामेष चेष्टासु, गमनागमनादिषु । भाषामनोवचः काययोगादिष्वेति हेतुताम् ॥ १९ ॥ अस्यासत्वादलोके हि, नात्मपुद्गलयोर्गतिः । लोकालोकव्यवस्थाऽपि, नाभावेऽस्योपपद्यते ॥ २० ॥ द्रव्यक्षेत्रकालभावैर्धर्मभ्रातेव युग्मजः । स्यादधर्मास्तिकायोऽपि गुणतः किंतु भिद्यते १ समयादिसमूहस्य । २ स्वभावः ।
Jain Educato national
धर्मादेःपंचभेदता
१०
१४
jainelibrary.org
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
शमहत्ता
लोक.द्रव्य. ॥ २१॥ स्थित्युपष्टम्भका हि, जीवपुद्गलयोरयम् । मीनानां स्थलवोनालोके नासौ न तत्स्थितिः ॥ २२ ॥ २ सगे: अयं निषदनस्थानशयनालम्बनादिषु । प्रयाति हेतुतां चित्तस्थैर्यादिस्थिरतासु च ॥ २३ ॥ इदमर्थतो भग
श०१३ ॥ गतिस्थितिपरिणामे, सत्येवैतौ सहायकौ । जीवादीनां न चेत्तेषां, प्रसज्येते सदाऽपि ते ॥२४॥ भवेदभ्रास्तिकायस्तु, लोकालोकभिदा द्विधा । लोकाकाशास्तिकायः स्यात्तत्रासङ्ख्यप्रदेशका ॥ २५॥ स भात्यलोकाकाशेन, परीतोऽतिगरीयसा । गोलकं मध्यशुषिरं, महान्तमनुकुर्वता ॥ २६॥ तथोक्तं भगवतीशतक०११ उ०११ “अलोए णं भंते ! किंसंठिए पं०?, गो. झुसिरगोलगसंठिए पं०” इत्यादि । असौ च धर्माधर्माभ्यां, खतुल्याभ्यां सदाऽन्वितः। भूपाल इव मन्त्रिभ्यां, बिभर्ति सकलं जगत् ॥ २७ ॥ अलोकाभ्रं तु धर्माद्यैर्भावैः पञ्चभिरुज्झितम् । अनेनैव विशेषेण, लोकाभ्रात्पृथगीरितम् ॥ २८ ॥ अनन्तस्याप्यस्य पूज्यैमहत्तायां निदर्शनम् । असद्भावस्थापनया, पश्चमाङ्गे प्रकीर्तितम् ॥ २९॥ तथाहि-सुदर्शनं सुरगिरि, परितो निर्जरा दश । केपि कौतुकिनः सन्ति, स्थिता दिक्षु दशस्वपि ॥३०॥ मानुषोत्तरपर्यन्तेऽष्टासु दिक्षु बहिर्मुखाः। बलिपिण्डान् दिक्कुमार्यः, किरन्त्यष्टौ खदिक्ष्वथ ॥ ३१॥ विकीर्णान् युगपत्ताभिस्तान् पिण्डानगतान् क्षितिम् । यया गत्या सुरस्तेषामेकः कोऽप्याहरेद्रयात् ॥ ३२॥ तया गत्याऽथ ते देवा, अलोकान्तदिदृक्षया । गन्तुं प्रवृत्ता युगपद्यदा दिक्षु दशखपि ॥ ३३ ॥ तदा च वर्षलक्षायुः, पुत्रोऽभूत्कोऽपि कस्यचित् । तस्यापि तादृशः पुत्रः, पुनस्तस्यापि तादृशः ॥ ३४ ॥ कालेन तादृशाः सप्त, पुरुषाः प्रलयं गताः ।
02020009828200000000000000
॥१०॥
Jain Educa
t ional
For Private & Personel Use Only
S
ainelibrary.org
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
eeeee
अनेकद्र
ततस्तदस्थिमज्जादि, तन्नामापि गतं क्रमात् ॥ ३५॥ अस्मिंश्च समये कश्चित्सर्वज्ञं यदि पृच्छति । खामिस्तेषां किमगतं, क्षेत्रं किंवा गतं बहु ? ॥ ३६॥ तदा वदति सर्वज्ञो, गतमल्पं परं बहु । अगतस्यानन्ततमो, भागो व्यावगागतमिहोह्यताम् ॥ ३७॥ स्थित्वा सुरोऽपि लोकान्ते, नालोके खकरादिकम् । ईष्टे लम्बयितुं गत्यभावा-SI
हसिद्धिः त्पुद्गलजीवयोः॥ ३८ ॥ तदुक्तम्-"देवे णं भंते ! महिड्डिए जाव महेसक्खे लोगंसि हत्थं वा पायं वा जाव ऊरं वा आउंटावित्तए वा पसारित्तए वा?, णो इणढे सम?" ॥ इति भग० शतक १६ उद्दे०८॥ वस्तुतस्तु ५ नभोद्रव्यमेकमेवास्ति सर्वगम् । धर्मादिसाहचर्येण, द्विधा जातमुपाधिना ॥ ३९ ॥ लोकालोकप्रमाणत्वात्, क्षेत्रतोऽनन्तमेव तत् । असङ्ख्येयप्रमाणं च, परं लोकविवक्षया ॥४०॥कालतः शाश्वतं वणोंदिभिर्मुक्तं च भावतः। अवगाहगुणं तच्च, गुणतो गदितं जिनैः ॥ ४१ ॥ अवकाशे पदार्थानां, सर्वेषां हेतुतां दधत् । शर्कराणां दुग्धमिव, वह्वेर्लोहादिगोलवत् ॥ ४२ ॥ युग्मं ॥ यतः-परमाण्वादिना द्रव्येणैकेनापि प्रपू. यते । खप्रदेशस्तथा द्वाभ्यामपि ताभ्यां तथा त्रिभिः ॥४३॥ अपि द्रव्यशतं मायात्तत्रैवैकप्रदेशके । मायाकोटिशतं मायादपि कोटिसहस्रकम् ॥ ४४ ॥ अवगाहखभावत्वादन्तरिक्षस्य तत्समम् । चित्रत्वाच|| पुद्गलानां, परिणामस्य युक्तिमत् ॥ ४५॥ द्वयोरपि क्रमाद् दृष्टान्तौ-दीप्रदीपप्रकाशेन, यथाऽपवरकोदरम् । एकेनापि पूर्यते तच्छतमप्यत्र माति च ॥ ४६॥ तथा-विशत्यौषधसामर्थ्यात्पारदस्यैककर्षके । सुवर्णस्य
१ लोकान्ते. (लोगसि ठिच्चा पभू अलोगंसि हत्थं वा० भग० ७७७ )
१४
Jain Education
Kaw.jainelibrary.org
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य.
सगे:
कर्षशतं, तौल्ये कर्षाधिकं न तत् ॥४७॥ पुनरौषधसामर्थ्यात्तदद्वयं जायते पृथक् । सुवर्णस्य कर्षशतं, पार- धर्मादेर्भेदाः दस्यैककर्षकः॥४८॥ इत्यर्थतो भगवतीशतक १३ उ०४ वृत्तौ ॥ किंच-धर्मास्तिकायस्तदेशस्तत्प्रदेश इति त्रयम् । एवं त्रयं त्रयं ज्ञेयमधर्माभ्रास्तिकाययोः॥४२॥ तत्रास्तिकायः सकलखप्रदेशात्मको भवेत् । कियन्मात्रांशरूपाश्च, तस्य देशाः प्रकीर्तिताः॥५०॥ स्कन्दन्ति-शुष्यन्ति पुद्गलविचटनेन, धीयन्ते च-पुष्यन्ते पुद्गलचटनेनेति स्कन्धाः 'पृषोदरादयः (३-२-१५५) इति रूपनिष्पत्तिः, इति प्रज्ञापनावृत्ती व्युत्पादितत्वा-ISH देते स्कन्धव्यपदेशं नाहन्ति, अत एव सूत्रे प्रायः 'धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे' इत्याद्येव श्रूयते ॥ नवतत्त्वावचूरी तु चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके सकलोऽपि यो धर्मास्तिकायः स सर्वः स्कन्धः कथ्यते इत्युक्तमितिज्ञेयं । निर्विभागा विभागाच, प्रदेशा इत्युदाहृताः । ते चानन्तास्तृतीयस्यासंख्येया आद्ययोद्धयोः ॥५१॥ अनन्तश्चागुरुलघुपर्यायैः संश्रिता इमे । त्रयोऽपि यदमूर्तेषु, संभवन्त्येत एव हि ॥५२॥ अथ जीवास्तिकायस्य, खरूपं वच्मि तस्य च । चेतनालक्षणो जीव इति सामान्यलक्षणम् ॥ ५३॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलान्यपि । मत्यज्ञानं श्रुताज्ञान, विभङ्गज्ञानमित्यपि ॥५४॥ अचक्षुश्चक्षुरवधिकेवलदर्शनानि च । द्वादशामी उपयोगा, विशेषाजीवलक्षणम् ॥५५॥ उपयोगं विना कोऽपि, जीवो नास्ति जगत्- ॥११॥
१ उत्तराध्ययनबृहद्वृत्तौ धर्मास्तिकायादीनां स्कन्धता स्पष्टैव ( संयोगपदनिर्युक्तौ॰) । प्रज्ञापनीया स्कन्धव्युत्पत्तिः पुद्गलस्कन्धप्रकरणगता, अनुयोगे तत्त्वार्थे च जीवराशेरपि स्कन्धतोता । अन्यथा कायशब्दोऽपि चिन्त्य एव ।
NIRMIRELIERHITA
WAIME
Inn Educa
t
ional
jainelibrary.org
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
9990
त्रये । अक्षरानन्तभागो यद्व्यक्तो निगोदिनामपि ॥५६॥ तं चाक्षरानन्तभागमपि त्रैलोक्यवर्तिनः।न शक्नुवन्त्यावरितुं, पुद्गलाः कर्मतां गताः ॥५७॥ एषोऽप्यात्रियते चेत्तत्, स्थाजीवाजीवयोन भित् । अक्षरंभागोडाटा विह साकारतरोपयोगलक्षणम् ॥ ५८॥रवेर्यथाऽतिसान्द्राभ्रच्छन्नस्यापि भवेत्प्रभा । कियत्यनावृता रात्रिदिनाभेदोऽन्यथा भवेत् ॥५९॥ इयं चाल्पीयसी ज्ञानमात्राऽऽद्यसमये भवेत् । अपर्याप्त निगोदानां, सूक्ष्मांणां
मतस्ततः॥६०॥ शेषैकाक्षद्वित्रिचतुष्पञ्चाक्षादिषु मात्रया । वर्धमानेन्द्रिययोगलब्धिवृद्धिव्यपेक्षया ॥३१॥ क्षयोपशमवैचित्र्यानानारूपाणि बिभ्रती । सर्वज्ञेयग्राहिणी स्याद्, घातिकर्मक्षयेण सा ॥ ६२॥ नन्वेवमात्मनो ज्ञानं, यदि लक्षणमुच्यते । अभेदः स्यात्तदनयोः, सालावृषभयोरिव ॥६३॥ एवं चास्य सदा ज्ञानमिष्यतेऽखिलवस्तुगम् । ज्ञानरूपो न जानातीत्येतद्युक्तिसहं न यत् ॥ ६४॥ कथं च ज्ञानरूपस्यात्मनः स्युः संशयस्तथा । अव्यक्तबोधाबोधौ च, किश्चिद्वोधविपर्ययाः१॥६५॥ अत्रोच्यते-सत्यप्यस्य चिदात्मत्वे, नोपयोगो निरन्तरम् । भवत्यावरणीयानां, कर्मणां वशतः खलु ॥६६॥ तथाहि-आत्मा सर्वप्रदेशेषु, त्यक्त्वांशानष्टमध्यगान् । प्रक्वथ्यमानोदकवत्सदा विपरिवर्त्तते ॥ ६७ ॥ ततः स चिरमेकस्मिन्न वस्तुन्युपयुज्यते ।
अर्थान्तरोपयुक्तः स्याचपलः कृकलासवत् ॥ ६८ ॥ उत्कर्षेणोपयोगस्य, कालोऽप्यान्तर्मुहर्तिकः । उपKI १ सुयकेवलक्खराणं ( ४९६ वि० ) तस्स उ अणंतभागो (४९१ वि०)।२ लब्ध्या। ३ जघन्ययोगिनां । ४ अंशेन । ५ ज्ञानात्मनोः
६ कम्बल ७ नाविर्भावेन. ८ केवलिनामप्यात्मप्रदेशानां चलत्वाञ्चिन्त्यमेतत् ।
Jain Educ
tional
a HOM
For Private
Personal Use Only
Tww.jainelibrary.org
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य २ सर्गः
॥१२॥
योगान्तरं याति, खभावात्तदनन्तरम् ॥ ६९॥ न सर्वमपि वेत्त्येष, प्राणी कर्मावृतो यथा । नार्कस्याभ्रा-1 भिभूतस्य, प्रसरन्त्यभितः प्रभाः ॥ ७० ॥ संशयाव्यक्तबोधाद्या, अप्यस्य कर्मणां वशात् । कुर्वतां ज्ञानवैचित्र्यं, क्षयोपशमभेदतः॥ ७१॥ किंच-आभोगानाभोगोद्भववीर्यवतो यदा क्षयोपशमः । लब्धिकरणानुरूपं तदाऽऽत्मनो ज्ञानमुद्भवति ॥७२॥ वीर्यापगमे च पुनस्तं देव कर्मावृणोत्यपाकीर्णम् । शैवलजालमिवाम्भो दर्पणमिव विमलितं पङ्कः॥७३॥ अथ प्रकृतं-द्विधा भवन्ति ते जीवाः, सिद्धसंसारिभेदतः। सिद्धाः पञ्चदशविधास्तीर्थातीर्थादिभेदतः ॥७४॥ यदाहु:-जिण १ अजिण २ तित्थ ३ तित्था ४ गिहि ५
अन्न ६ सलिंग ७ थी ८ नर ९ नपुंसा १० । पत्तेय ११ सयंबुडा १२ बुद्धबोहिक्कणिका य १३ १४ १५ ॥१॥ & जीवन्तीति स्मृता जीवा, जीवनं प्राणधारणम् । ते च प्राणा द्विधा प्रोक्ता, द्रव्यभावविभेदतः ॥ ७॥ सिद्धानामिंद्रियोच्छासादयः प्राणा न यद्यपि । ज्ञानादिभावप्राणानां, योगाजीवास्तथाप्यमी ॥ ७६ ॥
वीर्य द्विधा-लब्धेः करणाञ्च २ ज्ञानं ३ कर्मरहितं ४ धर्माधर्मान्तरिक्षाणामिव जीवस्य नाभिगाः । अष्टौ मध्यप्रदेशाः स्युः, कौशैस्ते त्वनावृताः ॥ ७२ ॥ तथोक्तं-"तदनेन पञ्चदशविधेनापि योगेनात्माऽष्टौ प्रदेशान् विहाय तप्तभाजनोदकवद् उद्वर्त्तमानैः सर्वैरात्मप्रदेशैरात्मप्रदेशावष्टब्धाकाशप्रदेशस्थं कार्मणशरीरयोग्य कर्मदलिकं यद्बध्नाति तत्प्रयोगकर्मेत्युच्यते इत्याचारांगे द्वितीयस्य लोकया विजयाध्ययनस्यादी नियुक्तिवृत्ती, अयमेवार्थों भगवत्यां श. २५ उ.४ । श. ८ उ. ९ अपि । तत्वार्थभाष्यवृत्ती द्वितीयाध्यायप्रारंभे, ज्ञानदीपिकायां च इति प्र. अधिकं ।
Receoceeeeeeeratee
॥१
Join Educa
ional
For Private
Personal Use Only
RU
Ra.ainelibrary.org
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिद्धय गुणागतिश्च
अलोकस्खलिताः सिद्धा, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिताः । इह संत्यज्य देहादि, स्थितास्तत्रैव शाश्वताः ॥ ७७॥ते ज्ञानावरणीयाद्यैर्मुक्ताः कर्मभिरष्टभिः । ज्ञानदर्शनचारित्राद्यनन्ताष्टकसंयुताः ॥७८॥ तथोक्तं गुणस्थान- क्रमारोहे-अनन्तं केवलज्ञानं, ज्ञानावरणसंक्षयात् । अनन्तं दर्शनं चापि, दर्शनावरणक्षयात् ॥ ७९ ॥ क्षायिके शुद्धसम्यक्त्व-चारित्रे मोह निग्रहात् । अनन्ते सुखवीर्ये च, वेद्यविनक्षयात् क्रमात् ॥ ८॥ आयुषः क्षीणभावत्वात्, सिद्धानामक्षया स्थितिः । नामगोत्रक्षयादेवा-मूतानन्ताऽवगाहना ॥८१॥ रोगमृत्युजराचर्ति-हीना अपुनरुद्भवाः । अभावात्कर्महेतूनां, दग्धे बीजे हि नाङ्करः ।। ८२॥ यावन्मानं नरक्षेत्रं, तावन्मानं शिवास्पदम् । यो यत्र म्रियते तत्रै-
वोवं गत्वा स सिद्ध्यति ॥ ८३ ॥ उत्पत्योर्ध्वं समश्रेण्या, लोकान्तस्तैरलङ्कतः। यत्रैकस्तत्र तेऽनंता, निर्वाधाः सुखमासते ॥ ८४॥ तथोक्तं तत्त्वार्थभाष्ये-कृत्लकर्मक्षयादूदुर्व, निर्वाणमधिगच्छति । यथा दग्धेन्धनो वहि-निरुपादानसंततिः ॥ ८५ ॥ तदनन्तरमेवोर्द्धमालोकान्तात्स गच्छति । पूर्वप्रयोगाऽसङ्गत्वबंधच्छेदोद्धगौरवैः॥ ८६ ॥ कुलालचके दोलाया-मिषौ चापि यथेष्यते । पूर्वप्रयोगात्कर्मेह, तथा सिद्धगतिः स्मृता ।। ८७ ॥ मृल्लेपसङ्गनिर्मोक्षा-यथा दृष्टाऽप्खलाम्बुनः । कर्मसङ्गविनिर्मोक्षा-त्तथा सिद्धगतिः स्मृता ॥८८॥ एरण्डयन्त्रपेडासु, बन्धच्छेदाद्यथा गतिः। कर्मबन्धनविच्छेदात्, सिद्धस्यापि तथेष्यते ॥८९॥ व्याघ्रपादबीजबन्धनच्छेदाद्यनवन्धनच्छेदात्पेडायन्धनच्छेदाच गतिदृष्टा मिञाकाष्टपेडापुटानामेवं कर्मबन्धविच्छेदात्सिद्धस्य गतिरिति भावः ॥-ऊर्द्धगौरवधर्माणो,
299232328020902
को.प्र.३
Jain Educatio
n
al
airbrany
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५
लोक द्रव्य. जीवा इति जिनोत्तमैः । अधोगौरवधर्माणः, पुद्गला इति चोदितम् ॥९०॥ ऊर्द्धगमन एव गौरवं धर्म:- सागनि२ सर्गःखभावो जीवानां, पुदलास्त्वधोगमनधर्माण इति सर्वज्ञवचन मिति भावः । यथाऽधस्तिर्यगूई च, लोष्टवा
र्याणं अस्पृ. बग्निवीचयः। स्वभावतः प्रवर्तन्ते, तथोर्द्धगतिरात्मनः ॥११॥ अतस्तु गतिवैकृत्य-मेषां यदुपलभ्यते । कर्मणः
शद्गतिः ॥१३॥
प्रतिघाताच, प्रयोगाच तदिष्यते॥९२॥अधस्तिर्यगथोर्द्ध च, जीवानां कर्मजा गतिः । ऊर्द्धमेव तु तद्धर्मा, भवति क्षीणकर्मणाम्॥९शातत्रापि गच्छतः सिद्धिं, संयतस्य महात्मनः। सर्वैरङ्गैर्विनियति, चेतनस्तनुपञ्जरात् ॥१४॥ तदुक्तं स्थानाङ्गपञ्चमस्थानके-"पंचविहे जीवस्स णिजाणमग्गे पं०, तं०-पाएहिं १, उरूहिं २, उरेणं ३, सिरेणं ४, सवंगेहिं ५, पाएहिं निजायमाणे निरयगामी भवति, उरूहिं निजायमाणे तिरियगामी भवति, उरेणं निजायमाणे मणुयगामी भवति, सिरेणं निजायमाणे देवगामी भवति, सवंगेहिं णिज्जायमाणे सिद्धिगतिपज्जवसाणे पण्णत्ते" भवोपग्राहिकर्मान्त-क्षण एव स सिद्ध्यति। उद्गच्छन्नस्पृशद्गत्या, ह्यचिन्त्या शक्तिरात्मनः ॥९५॥ अत्र च अस्पृशन्ती सिद्ध्यन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्य सोऽस्पृशद्गतिः, अन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन । समयेन सिद्धिः, इष्यते च तत्रैक एव समयः, अतोऽन्तराले समयान्तरस्याभावादन्तरालप्रदेशानामसंस्पर्शनमित्यौपपातिकवृत्तौ । अवगाढप्रदेशभ्योऽपराकाशप्रदेशांस्त्वस्पृशन् गच्छतीति महाभाष्यवृत्तौ ॥१३॥
१ सामान्येन जीवानां शरीरिणां परप्रयुक्तजीवानाम् २ अवगाहनापेक्षया पूर्वे गमनापेक्षया उत्तरे वाऽन्तःपात्यसौ, स्पर्शवदभावात् ,
Jain Education interational
For Private Personal Use Only
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
यावत्खाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावत एव प्रदेशानूर्द्धमप्यवगाहमानो गच्छतीति पञ्चसंग्रहवृत्तौ। तदन्त्र ऊर्बलोकातत्त्वं केवलिंगम्यम् । एकस्मिन्समये चोर्द्ध-लोके चत्वार एव ते । सिद्ध्यन्त्युत्कर्षतो दृष्ट-मधोलोके 81 |दौ सिद्धमतत्रयम् ॥ ९६॥ विंशतिर्द्वाविंशतिश्च, चत्वारिंशदिति स्फुटम् । उत्तराध्ययने संग्र-हण्यां च सिद्धप्राभृते
संख्या ॥९७ ॥ 'वीस अहे तहेवेति' उत्तराध्ययने जीवाजीवविभक्त्यध्ययने । 'उड्डहोतिरियलोए चउबावीसहसयं' इति संग्रहण्यां। वीसपुहुत्तं अहोलोए' इति सिद्धप्राभृते, तट्टीकायां विंशतिपृथक्त्वं-द्वे विंशती इति ॥ अष्टोत्तरशतं तिर्यग्-लोके च द्वौ पयोनिधौ । नदीनदादिके शेष-जले चोत्कर्षतस्त्रयः ॥९८॥ विंशतिश्चैकविजये, चत्वारो नन्दने वने । पण्डके द्वावष्टशतं, प्रत्येकं कर्मभूमिषु ॥ ९९ ॥ प्रत्येक संहरणतो, दशाकर्ममहीष्वपि । पञ्च चापशतोचौ द्वौ, चत्वारो द्विकराङ्गकाः ॥१००॥ जघन्योत्कृष्टदेहानां, मानमेतन्निरूपितम् । मध्याङ्गास्त्वेकसमये, सिद्ध्यन्त्यष्टोत्तरं शतम् ॥१.१॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो-स्ताीयीकतुरीययोः। अरयोरष्टसहितं, सिध्यन्त्युत्कर्षतः शतम् ॥२॥ यत्त्वस्या अवसर्पिण्यास्तृतीयारकप्रान्ते श्रीऋषभदेवेन सहाष्टोत्तरं शतं सिद्धास्तदाश्चर्यमध्येऽन्तर्भवतीति समाधेयं ।-विंशतिश्चावसर्पिण्या:, सिद्धयन्ति पञ्चमेऽरके। उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः, शेषेषु दश संहृताः॥२॥ पुंवेदेभ्यः सुरादिभ्य-श्च्युत्वा जन्मन्यनन्तरे । भवन्ति पुरुषाः केचित्, स्त्रियः केचिन्नपुंसकाः॥३॥ स्त्रीभ्योऽपि देव्यादिभ्यः स्यु-रेवं त्रेधा महीस्पृशः । क्लीवेभ्यो नारकादि१ दोवीसन्ति पाठे मतत्रयी २ उत्कृष्टावगाहनास्ते यतः, उत्कृष्टावगाहनापेक्षयैवाश्चर्यरूपत्वात् , मध्याङ्गानां त्वष्टशतस्य सिद्धिः स्यादेव,
02020
Jain Educatiemational
For Private & Personel Use Only
Cvw.jainelibrary.org
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य २ सर्गः
॥ १४ ॥
Jain Educati
भ्योऽप्येवं स्युर्मनुजास्त्रिधा ॥ ४॥ नवखेतेषु भङ्गेषु, पुम्भ्यः स्युः पुरुषा हि ये । सिद्धधन्त्यष्टोत्तरशतं तेऽन्ये दश दशाखिलाः॥५॥ दशान्यभिक्षु नेपथ्या - चत्वारो गृहिवेषकाः । सिद्धयन्त्यष्टोत्तरशतं मुनिनेपथ्यधारिणः ॥ ६॥ विंशतिर्योषितः किंच, पुमांसोऽष्टोत्तरं शतम् । एकस्मिन्समये क्लीवाः, सिद्ध्यन्ति दश नाधिकाः ॥ ७ ॥ एकसमये अष्टोत्तरशतसिद्धियोग्यता संग्रहश्चैवं तिर्यगलोके क्षपितकलुषाः कर्मभूमिस्थलेषु जाता वैमानिकपुरुषतो मध्यमाङ्गप्रमाणाः । सिद्ध्यन्त्यष्टाधिकमपि शतं साधुवेषाः पुमांस-स्तात्तयीके नियतमरके चिन्त्यतां वा तुरीये ॥ ८ ॥ यत्रैको निर्वृतः सिद्ध-स्तत्रान्ये परिनिर्वृताः । अनन्ता नियमाल्लोक - पर्यन्तस्पर्शिनः समे ॥ ९ ॥ अयमर्थः - संपूर्ण मेकसिद्धस्यावगाह क्षेत्रमाश्रिताः । अनन्ताः पुनरन्ये च तस्यैकैकं प्रदेशकम् ॥ १० ॥ समाक्रम्यावगाढाः स्युः, प्रत्येकं तेऽप्यनन्तकाः । एवं परे द्वित्रिचतुःपञ्चाशाभिवृद्धितः ॥ ११ ॥ तथा-सिद्धावगाहक्षेत्रस्य, तस्यैकैकं प्रदेशकम् । त्यक्त्वा स्थितास्तेऽप्यनन्ता, एवं द्व्यादिप्रदेशकान् ॥ १२ ॥ एवं च- प्रदेशवृद्धिहानिभ्यां येऽवगाढा अनन्तकाः । पूर्णक्षेत्रावगाढेभ्यः, स्युस्तेऽसङ्ख्यगुणाधिकाः ॥ १३ ॥ ततश्च - एकः सिद्धः प्रदेशः खैः समग्रैरतिनिर्मलैः । सिद्धाननन्तान् स्पृशति, व्यवगाढैः परस्परम् ॥ १४ ॥ तेभ्योऽसङ्ख्यगुणान् देश-प्रदेशैः स्पृशति ध्रुवम् । क्षेत्रावगाहनाभेदै - रन्यान्यैः पूर्वदर्शितैः ॥ ११५ ॥ तथोक्तं प्रज्ञापनायामोपपातिके आवश्यके च-फुसइ अणते सिद्धे, सङ्घपएसेहिं नियमसो सिद्धो । तेवि असंखिज्जगुणा, देसपएसेहिं जे पुट्ठा ॥ १ ॥ अशरीरा जीवघना, ज्ञानदर्शनशालिनः । साकारेण निराकारे
ational
सिद्धानां देश प्रदेशस्पर्शना
२०
२५
॥ १४ ॥
८२
jainelibrary.org
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
णोपयोगेन लक्षिताः॥ १६ ॥ ज्ञानेन केवलेनैते, कलयन्ति जगत्त्रयीम् । दर्शनेन च पश्यन्ति, केवलेनैव
सिद्धानां केवलाम् ॥१७॥ पूर्वभवाकारस्या-न्यथाव्यवस्थापनाच्छुषिरपूर्त्या । संस्थानमनित्थंस्थं, स्यादेषामनियता- संस्थान कारम् ॥ १८ ॥ केनचिदलौकिकेन, स्थितं प्रकारेण निगदितुमशक्यम् । अत एव व्यपदेशो, नैषां दीर्घादिगुणवचनैः॥ १९॥ तथाहु:-से नदीहे, से न हस्से, न वट्टे'इत्यादि । संस्थानं ह्याकारः, स कथममूर्तस्य भवति सिद्धस्य ? । (अत्रोच्यते) परिणामवत्यमूर्तेऽप्यसो भवेत्कुम्भनभसीव ॥ २०॥ पूर्वभवभाविदेहाकारमपेक्ष्यैव सिद्धजीवस्य । संस्थानं स्यादौपा-धिकमेव न वास्तवं किश्चित् ॥ २१॥ तथाहुरावश्यकनियुक्तिकृतः-ओगाहणाइ सिद्धा, भवत्तिभागेण हुँति परिहीणा । संठाणमणित्थंथं, जरामरणविप्पमुक्काणं ॥१॥ उत्ताणओ व पासिल्लओ व अहवा निसन्नओ चेव । जो जह करेइ कालं, सो तह उववजए सिद्धो॥२॥ इहभवभिन्नागारो, कम्मवसाओ भवंतरे होइ । न य तं सिद्धस्स तओ, तंमि ठितो से तयागारो ॥३॥ जं: संठाणं तु इहं, भवं चयंतस्स चरमसमयंमि । आसी अपएसघणं, तं संठाणं तहिं तस्स ॥४॥ शतानि त्रीणि धनुषा, त्रयस्त्रिंशद्धनूंषि च । धनुस्त्रिभागश्च परा, सिद्धानामवगाहना ॥ २२ ॥ जघन्याऽष्टाङ्गुलोपेत-- हस्तमाना प्ररूपिता । जघन्योत्कृष्टयोरन्तराले मध्या त्वनेकधा ॥ २३ ॥ षोडशाङ्गुलयुक्ता या, मध्या करच
१ संपूर्णी २ यथा तत्र घट उपाधिरेवमत्र अन्त्यभवशरीरं, तन्नाशानन्तरं च संस्थानपरावर्त्तकारणाभावात् , तदैवात्र त्रिभागोनाकारेण । भवति ३ सिद्धतया भवति ४ कर्म
Join Educat
i onal
C
ainelibrary.org
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. २ सर्गः ॥ १५ ॥
तुष्टयी । आगमे गीयते सर्व - मध्यानां सोपलक्षणम् ॥ २४ ॥ प्राच्ये जन्मनि जीवानां, या भवेदवगाहना: । तृतीयभागन्यूना सा, सिद्धानामवगाहना ॥ २५ ॥ उत्कृष्टा च भवे प्राच्ये, धनुःपञ्चशती मिता । मध्यमा च बहुविधा, जघन्या हस्तयोर्द्वयम् ॥ २६ ॥ जघन्या सप्तहस्तैव, जिनेन्द्राणामपेक्षया । त्र्यंशोनत्वे किलैतासां ताः स्युः सिद्धावगाहनाः ॥ २७ ॥ एतदभिप्रेत्यैवोपपातिकोपाने उक्तं - "जीवा णं भंते! सिज्झमाणा कयरंमि उचत्ते सिज्झति ?, गोयमा ! जहण्णेणं सत्तरयणीय, उक्कोसेणं पंचधणुसइए सिज्झति" । मरुदेवा कथं सिद्धा, नन्वेवं जननी विभोः ? | साग्रपञ्चचापशतो- तुङ्गा नाभिसमोच्छ्रया ॥ २८ ॥ 'संघयणं संठाणं, उच्चत्तं चैव कुलगरेहिं समं' इतिवचनात्, अत्रोच्यते- स्त्रियो युत्तमसंस्थानाः पुंसः कालाई संस्थितेः । किञ्चिदूनप्रमाणाः स्युर्नाभेरूनोच्छ्रयेति सा ॥ २९ ॥ गजस्कन्धाधिरूढत्वान्मना क्रू संकुचितेति वा । पञ्चचापशतोच्चैव, सेति किञ्चिन्न दूषणम् ॥ ३० ॥ अयं च भाष्यकृदभिप्रायः । संग्रहणीवृत्त्यभिप्रायस्त्वयं-पदिदमागमे पञ्चधनुःशतान्युत्कृष्टं मानमुक्तं तद्वाहुल्यात्, अन्यथैतद् धनुःपृथक्त्वैरधिकमपि स्यात्, तच्च पञ्चविंशत्यधिकपञ्चधनुः शतरूपं बोद्धव्यं, सिद्धप्राभृतेऽप्युक्तं - "ओगाहणा जहण्णा, रयणिदुगं अह पुणाइ उक्कोसा। पंचेव धणुसयाई, धणुअपुहुत्तेण अहियाइति ॥ १ ॥ एतद्वृत्तिश्च पृथत्तवशब्दोऽत्र बहुत्ववाची,
१ तीर्थकरानाश्रित्य सा, यतो जघन्यतस्ते सप्तकरा एव २ अवगाहनानां ३ पूर्वोक्ताः ४ भाष्यं मरुदेवाश्रितं एतत्तु ऊर्ध्वबाहूत्कृष्टतनोः
Jain Educationtional
सिद्धानामवगाहनाः
२०
॥ १५ ॥ २४
Mainelibrary.org
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तरमबहुत्वं
सुखं च
बहुत्वं चेह पञ्चविंशतिरूपं द्रष्टव्यमिति" आद्यसंहनना एव, सिद्ध्यन्ति न पुनः परे । संस्थानानां त्वनियमस्तेषु षट्खपि निवृतिः ॥ ३१॥ पूर्वकोट्यायुरुत्कर्षात्, सिद्ध्येन्नाधिकजीवितः । जघन्यान्नववर्षायुः, सिद्ध्येन्न न्यूनजीवितः॥ ३२॥ द्वात्रिंशदन्ता एकाद्या-श्चेत्सिद्धयन्ति निरन्तरम् । तदाऽष्ट समयान याव-नवमे त्वन्तरं ध्रुवम् ॥ ३३ ॥ अष्टचत्वारिंशदन्ता-स्त्रयस्त्रिंशन्मुखा यदि । सिद्धयन्ति समयान् सप्त, ध्रुवमन्तरमष्टमे ॥३४॥ एकोनपञ्चाशदाद्याः, षष्ट्यन्ता यदि देहिनः । सिद्ध्यन्ति समयान् षट् बै, सप्तमे त्वन्तरं भवेत् ॥ ३५॥ एकषष्टिप्रभृतयो, यावद् द्वासप्ततिप्रमाः। सिद्ध्यन्ति समयान् पञ्च, षष्ठे त्ववश्यमन्तरम् ॥ ३६॥ त्रिसप्त|तिप्रभृतयश्चतुरशीतिसीमकाः । चतुर: समयान् यावत्, सिद्धयन्त्यग्रेतनेऽन्तरम् ॥ ३७॥ पश्चाशीत्याद्याः क्षणांस्त्रीन् , यान्त्याषण्णवतिं शिवम् । क्षणी सप्तनवत्याद्या, द्वौ च द्वयात्यशतावधि ॥ ३८॥ त्रयाधिकशताद्याश्चे-द्यावदष्टोत्तरं शतम् । सिद्ध्यन्ति चैकसमयं, द्वितीयेऽवश्यमन्तरम् ॥ ३९ ॥ जघन्यमन्तरं त्वेक-समयं परमं पुनः । षण्मासान् नास्ति सिद्धानां, च्यवनं शाश्वता हि ते ॥४०॥ सर्वस्तोकाः क्लीबसिद्धास्तेभ्यः सङ्ख्यगुणाधिकाः। स्त्रीसिद्धाः पुनरेभ्यः पुं-सिद्धाः सङ्ख्यगुणाधिकाः ॥४१॥ सर्वस्तोका दक्षिणस्यामुदीच्यां च मिथः समाः। प्राच्यां संख्यगुणाः पश्चि-मायां विशेषतोऽधिकाः ॥४२॥ न तत्सुखं मनुष्याणां, देवानामपि नैव तत् । यत्सुखं सिद्धजीवानां, प्राप्तानां पदमव्ययम् ॥४३ ॥ त्रैकालिकानुत्तरान्तनिर्जराणां त्रिकालजम् । भुक्तं भोग्यं भुज्यमान-मनन्तं नाम यत्सुखम् ॥४४॥ पिण्डीकृतं तदेकत्रानन्तैवगैश्च वर्गितम् ।
ॐPOROTOS2018 Season970
Jain Educ
e rational
For Private Personal use only
ww.jainelibrary.org
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. २ सर्गः
॥ १६ ॥
शिवसौख्यस्य समतां लभते न कदाचन ॥ ४५ ॥ सर्वाद्धापिण्डितः सिद्ध-सुखराशिर्विकल्पतः । अनन्तवभक्तोऽपि न मायाद् भुवनत्रये ॥४६॥ वर्गविभागश्चैवं स्युः षोडश चतुर्भक्ताश्चत्वारो वर्गभागतः । द्वावेव परिशिष्येते, चत्वारोऽपि द्विभाजिताः ॥ ४७ ॥ सुखस्य तस्य माधुर्यं, कलयन्नपि केवली । वक्तुं शक्नोति नो जग्धगुडादेर्मूक देहिवत् ॥ ४८ ॥ यथेप्सितान्नपानादि-भोजनानन्तरं पुमान् । तृप्तः सन् मन्यते सौख्यं, तृप्तास्ते सर्वदा तथा ॥ ४९ ॥ एवमापातमात्रेण, दर्श्यते तन्निदर्शनम् । वस्तुतस्तु तदाह्लादोपमानं नास्ति विष्टपे ॥ ५० ॥ औपम्यस्याप्यविषयस्ततः सिद्धसुखं खलु । यथा पुरसुखं जज्ञे, म्लेच्छवाचामगोचरः ॥ ५१ ॥ तथा चाहुः -
म्लेच्छः कोऽपि महारण्ये, वसति स्म निराकुलः । अन्यदा तव भूपालो, दुष्टाश्वेन प्रवेशिनः ॥ ५२ ॥ म्लेच्छेनासौ नृपो दृष्टः, सत्कृतश्च यथोचितम् । प्रापितश्च निजं देशं, सोऽपि राज्ञा निजं पुरम् ॥ ५३ ॥ ममायमुपकारीति, कृतो राज्ञाऽतिगौरवात् । विशिष्टभोगभूतीनां भाजनं जनपूजितः ॥ ५४ ॥ तुङ्गप्रासादशृङ्गेषु रम्येषु काननेषु च । वृतो विलासिनीवृन्दै - र्भुङ्क्ते भोगसुखान्यसौ ॥ ५५ ॥ अन्यदा प्रावृषः प्राप्तौ मेघाडम्बरमम्बरे । दृष्ट्वा मृदङ्गमधुरै गर्जितैः केकिनर्त्तनम् ॥ ५६ ॥ जातोत्कण्ठो दृढं जातोऽरण्यवास गमं प्रति । विसर्जितश्च राज्ञाऽपि प्राप्तोऽरण्यमसौ ततः ॥ ५७ ॥ पृच्छन्त्यरण्यवासास्तं नगरं तात ! कीदृशम् परं नगरवस्तूनामुपमाया अभावतः ॥ ५८ ॥ न शशाकतमां तेषां गदितुं स कृतोद्यमः । एवमतोपमाभावात्, वक्तुं शक्यं न तत्सुखम् ॥ ५९ ॥ सिद्धा बुद्धा गताः पारं परं पारङ्गता अपि । सर्वामनागतामद्वां,
Jain Educationonal
सिद्धसुखवर्णनं
२०
२५
॥ १६ ॥
२८
ainelibrary.org
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
भेदादीनि द्वाराणि
द्वार
तिष्ठन्ति सुखलीलया ॥ ६॥ अरूपा अपि प्राप्तरूपप्रकृष्टा, अनङ्गाः खयं ये त्वनङ्गद्रुहोऽपि । अनन्ताक्षराश्चोज्झिताशेषवर्णाः, स्तुमस्तान् वचोऽगोचरान् सिद्धजीवान् ॥ ११॥ इति सिद्धाः ॥ विश्वाश्चर्यदकीर्तिकीर्तिविजयश्रीवाचकेन्द्रान्तिष-द्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्वप्रदीपोपमे, स! निर्गलितार्थसार्थसुभगः पूर्णी द्वितीयः सुखम् ॥ ६२॥
॥इति लोकप्रकाशे द्वितीयः सर्गः समाप्तः ॥ (ग्रन्था २०२-१०)
॥ तृतीयः सर्गः प्रारभ्यते ॥ अथ संसारिजीवानां, खरूपं वर्णयाम्यहम् । द्वारैः सप्तत्रिंशता ता-न्यमूनि स्युर्यथाक्रमम् ॥१॥भेदाः १ स्थानानि २ पर्याप्तिः ३, सङ्ख्ये योनिकुलाश्रिते ४-५। योनीनां संवृतत्वादि, ६, स्थिती च भवकाययोः ८॥२॥ देहसंस्थानाङ्गमान-समुद्घाता ९-१०-११-१२ गतागती १३-१४ । अनन्तराप्तिः१५ समये, सिद्धिर्लेश्या १७ दिगाहृतौ १८॥३॥ संहननानि १९ कषायाः २० संज्ञेन्द्रियसंज्ञितास्तथा २३ वेदाः २४ । दृष्टिानं २६ दर्शनमुपयोगाहारगुणयोगाः ३१ ॥४॥ मानं ३२ लघ्वल्पबहुता ३३, सैवाऽन्या दिगपेक्षया ३४ । अन्तरं ३५ भवसंवेधो ३६, महाल्पबहुताऽपि ३७ च ॥५॥ भेदा इह प्रकाराः स्युर्जीवानां स्वखजातिषु १ । समुद्रात
Inin Educ
tional
For Private
Personal Use Only
vw.jainelibrary.org
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य ३ सर्गः
पवाप्तिस्वरूप
0000000000000000000000
निजस्थानो-पपातैः स्थानकं त्रिधा २॥६॥ पर्याप्ता व्यपदिश्यन्ते, याभिः पर्याप्तयस्तु ताः। पर्याप्तापर्यातभेदा-दत एव द्विधाऽगिनः॥७॥ पर्याप्तयः खयोग्या यैः, सकलाः साधिताः सुखम् । पर्याप्सनामकर्मानुभावात्पर्याप्तकास्तु ते ॥८॥ द्विधाऽमी लब्धिकरण-भेदात्तत्रादिमास्तु ये । समाप्य वाहपर्याप्तीप्रिंयन्ते नान्यथा ध्रुवम् ॥९॥ करणानि शरीराक्षा-दीनि निर्वतितानि यैः । ते स्युः करणपर्याप्साः, करणानां समर्थनात् ॥ १०॥ अपर्याप्ता द्विधा प्रोक्ता, लब्ध्या च करणेन च । द्वयोर्विशेषं शृणुत, भाषितं गणधारिभिः ॥११॥ असमाप्य खपर्याप्ती-म्रियन्ते येऽल्पजीविताः । लब्ध्या ते स्युरपर्याप्ता, यथा निःखमनोरथाः॥१२॥ निर्वतितानि नायापि, प्राणिभिः करणानि यैः। देहाक्षादीनि करणाऽपर्याप्सास्ते प्रकीर्तिताः॥१३॥ म्रियन्तेऽल्पायुषो लब्ध्य-पर्याप्ता इह येऽङ्गिनः । तेऽपि भूत्वैव करण-पर्याप्ता नान्यथा पुनः ॥१४॥ याऽऽहारादिपुद्गलानामादानपरिणामयोः । जन्तोः पर्याप्तिनामोत्था, शक्तिः पर्याप्तिरत्र सा ॥ १५॥ पुद्गलोपचयादेव, भवेत्सा सा च षड़िधा । आहाराङ्गेन्द्रियश्वासोच्छासभाषामनोऽभिधाः ॥१६॥ तत्रैषाऽऽहारपर्याप्तिर्ययाऽऽदाय निजोचितम् । पृथक्खलरसत्वेनाहारं परिणतिं नयेत् ॥ १७॥ वैक्रियाहारकौदारि-काङ्गयोग्यं यथोचितम् । तं रसीभूतमाहारं, यया शक्त्या पुनर्भवी ॥१८॥ रसामुग्मांसमेदोऽस्थि-मजशुक्रादिधातु
१ विहिते शरीराक्षाख्ये, करणे यैस्तु जन्तुभिः इति सम्यक्, करणापर्याप्तानामायुषोऽबन्धात् २ मरिष्यन्त्यल्पजीविता: ३ विरोधग्रस्त | आदिशब्दः ४ जोएण कम्मएणं आहारेइ अणंतरं जीवो।
॥१७॥
Jain Education
na
For Private & Personel Use Only
awejainelibrary.org
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
इति ज्ञेयं । ययोच्याम-कर्मभ्यामेव सिध्याच्या परिणतिदेह ताः ॥ २५ ॥ एवमुच्चासलाध
3900000000292989929899299
ताम् । नयेद्यथासंभवं सा, देहपर्याप्तिरुच्यते ॥ १९॥ युग्मम् ॥ धातुत्वेन परिणतादाहारादिन्द्रियोचितात् । आदाय पुद्गलास्तानि, यथाखं प्रविधाय च ॥२०॥ इष्टे तद्विषयज्ञप्ती, यया शक्त्या शरीरवान् । पर्याप्तिः सेन्द्रियाहाना, दर्शिता सर्वदर्शिभिः ॥ २१ ॥ इति संग्रहणीवृत्त्यभिप्रायः। प्रज्ञापनाजीवाभिगमप्रवचनसारोद्धारवृत्त्यादिषु तु-यया धातुतया परिणमितमाहारमिन्द्रियतया परिणमयति सेन्द्रियपर्याप्तिरित्येतावदे-1 व दृश्यते इति ज्ञेयं । ययोच्छासाहमादाय, दलं परिणमय्य च । तत्तयाऽऽलम्ब्य मुश्चेत्सोच्छासपर्याप्तिरुच्यते ॥२२॥ ननु देहोच्छ्रासनाम-कर्मभ्यामेव सिध्यतः। देहोच्छासौ किमेताभ्यां, पर्याप्तिभ्यां प्रयोजनम् ? |॥२३॥ अत्रोच्यते पुद्गलानां, गृहीतानामिहात्मना । साध्या परिणतिर्देह-तया तन्नामकर्मणा ॥२४॥ आरब्धाइसमाप्तिस्तु, तत्पर्याप्त्या प्रसाध्यते । एवं भेदः साध्यभेदा-देहपर्याप्तिकर्मणोः॥ २५॥ एवमुच्छ्रासलब्धिः स्यात्साध्या तन्नामकर्मणः । साध्यमुच्छ्वासपर्याप्तेस्तस्या व्यापारणं पुनः ॥ २६ ॥ सतीमप्युच्छासलब्धिमुच्छासनामकर्मजाम् । व्यापारयितुमीशः स्या-त्तत्पर्याप्त्यैव नान्यथा ॥ २७॥ सतीमपि शरक्षेप-शक्तिं नैव भटोऽपि हि । विना चापादानशक्तिं, सफलीकर्तुमीश्वरः ॥२८॥ भाषाह दलमादाय, गीस्त्वं नीत्वाऽवलम्ब्य च । यया शक्त्या त्यजेत्प्राणी, भाषापर्याप्तिरित्यसौ ॥ २९ ॥ दलं लात्वा मनोयोग्यं, तत्तां नीत्वाऽवलम्ब्य च । यया मननशक्तः स्यान्मन:पर्याप्तिरत्र सा ॥ ३०॥ म्रियन्ते येऽप्यपर्याप्ताः, पर्याप्तित्रयमादि
१ करोतीन्द्रियनिवृत्ति, रचनायाः फलं ज्ञानं, सामर्थज्ञापनायेदं,
29202999999990204020202000
Jain Educ
tional
a MIT
For Private 3. Personal Use Only
Lww.jainelibrary.org
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ १८ ॥
Jain Education
मम् । पूर्णीकृत्यैव न पुनरन्यथा संभवेन्मृतिः ॥ ३१ ॥ तथाहि पर्यासित्रययुक्तोऽन्त - मुहर्त्तेनायुरग्रिमम् । बद्ध्वा ततोऽन्तर्मुहूर्तमबाधां तस्य जीवति ॥ ३२ ॥ ततो निबद्धायुर्योग्यां याति तां गतिमन्यथा । अबद्धायुरनापूर्णतदाबाधो व्रजेत्क सः १ ॥ ३३ ॥ तथोक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ - “यस्मादागामिभवायुर्वद्ध्वा म्रियन्ते सर्वदेहिनो नावदूध्वा, तच्च शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यां पर्याप्तानां बन्धमायाति, नापर्याप्तानां" समयेभ्यो नवभ्यः स्यात्प्रभृत्यन्तर्मुहूर्त्त - कम् । समयोनमुहूर्तान्त-मसंख्यातविधं यतः ॥ ३४ ॥ ततः सूक्ष्मक्षमादीना - मन्तर्मुहूर्त्तजीविनाम् । अन्तमुहर्त्ता नेकत्व - मिदं संगतिमङ्गति ॥ ३५ ॥ युग्मम् ॥ उत्पत्तिक्षण एवैताः, खा खा युगपदात्मना । आरभ्यन्ते संविधातुं समाप्यन्ते त्वनुक्रमात् ॥३६॥ तद्यथा-आदावा हारपर्याप्तिस्ततः शरीरसंज्ञिता । तत इन्द्रियपर्याप्तिरेवं सवा अपि क्रमात् ॥ ३७ ॥ तत्रैकाऽऽहारपर्याप्तिः समाप्येतादिमे क्षणे । शेषा असंख्यसमय- प्रमाणान्त मुहूर्त्ततः ॥ ३८ ॥ अनुक्रमोऽयं विज्ञेय, औदारिकशरीरिणाम् । वैक्रियाहारकवतां, ज्ञातव्योऽयं पुनः क्रमः ॥ ३९ ॥ एका शरीरपर्याप्ति-जीयतेऽन्तर्मुहूर्त्ततः । एकैकक्षणवृद्ध्यातः समाप्यन्तेः पराः पुनः ॥ ४० ॥ निष्पत्तिकालः सर्वासां पुनरान्तर्मुहू र्त्तिकः । आरम्भसमयायान्ति, निष्ठां ह्यन्तर्मुहूर्त्ततः ॥ ४१ ॥ आहारपर्याप्तिस्त्वत्रापि प्राग्वत् । मनोवचः कायवला- न्यक्षाणि पञ्च जीवितम् । श्वासश्चेति दश प्राणा, द्वारेऽस्मिन्नेव वक्ष्यते। ॥ ४२ ॥ इति पर्याप्तिखरूपं ३ । तैजसकार्मणवन्तो, युज्यन्ते यत्र जन्तवः स्कन्धैः । औदारिकादियोग्यैः १ सङ्गतिमङ्गति बहुवचनम्, तेन वक्ष्यन्ते द्वारि प्रस्तुते इति युक्तम् ।
tional
पर्याप्ति
स्वरूपं
२०
२५ ॥ १८ ॥
ainelibrary.org
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
लो.प्र. ४
Jain Education
स्थानं तद्योनिरित्याहुः ॥ ४३ ॥ तथा च-व्यक्तितोऽसङ्ख्य भेदास्ताः, संख्या नैव यद्यपि । तथाऽपि समवर्णादिजातिभिर्गणनां गताः ॥४४॥ तथोक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ - "केवलमेव विशिष्टवर्णादियुक्ताः संख्यातीताः स्वस्थाने व्यक्तिभेदेन योनयो जातिं अधिकृत्य एकैव योनिर्गण्यते" । लक्षाश्चतुरशीतिश्च सामान्येन भवन्ति ताः । विशेषान्तु यथास्थानं, वक्ष्यन्ते खामिभावतः ॥ ४५ ॥ किंच-संवृता विवृता चैव, योनिर्विवृतसंवृता । दिव्यशय्यादिवदस्त्राद्यावृता तत्र संवृता ॥ ४६ ॥ तथा विस्पष्टमनुपलक्ष्यमाणाऽपि संवृता । विवृता तु स्पष्टमुपलक्ष्या जलाशयादिवत् ॥ ४७ ॥ उक्तोभयस्वभावा तु, योनिर्विवृतसंवृता । बहिर्डश्याऽदृश्यमध्या, नारीगर्भाशयादिवत् ॥ ४८ ॥ तृतीययोनिजाः स्तोकास्ततो द्वितीययोनयः । असंख्यन्नास्ततोऽनन्तगुणिताः स्युरयोनयः ॥ ४९ ॥ तेभ्योऽप्यनन्तगुणिताः ख्याताः प्रथमयोनयः । एवं शीतस चित्तादिष्वप्यल्पबहुतोद्यताम् ॥ ५० ॥ शीता चोष्णा च शीतोष्णा, तत्तत्स्पर्शान्वयात्रिधा । सचित्ताऽचित्तमिश्रेति, भेदतोऽपि त्रिधा भवेत् ॥ ५१ ॥ जीव प्रदेशैरन्योऽन्यानुगमेनोररीकृता । जीवद्देहादिः सचित्ता, शुष्ककाष्ठादिवत्परा ॥ ५२ ॥ अत एवाङ्गिभिः सूक्ष्मैस्त्रैलोक्ये निचितेऽपि हि । न तत्प्रदेशैयनीनामचित्तानां सचित्तता ॥ ५३ ॥ सचित्ताचित्तरूपा तु, मिश्रा योनिः प्रकीर्त्तिता । नृतिरश्चां यथा योनौ, शुक्रशोणितपुद्गलाः ॥ ५४ ॥ आत्मसाद्विहिता ये स्युस्ते सचित्ताः परेऽन्यथा । सचित्ताचित्तयोगे तद्योनेर्मिश्रत्वमाहितम् ॥ ५५ ॥ “ योषितां किल नाभेरधस्ताच्छिराद्वयं पुष्पमालावैकक्ष्यकाकारमस्ति, तस्याधस्तादधोमुख संस्थित को शाकारा योनिः, तस्याश्च बहिश्रूतकलि
tional
१०
१४
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक, द्रव्य. ३ सर्गः
॥ १९ ॥
Jain Educatio
I
काकृतयो मांसमञ्जर्यो जायन्ते, ताः किलासृकस्यन्दित्वात् ऋतौ स्रवन्ति तत्र केचिदसृजो लवाः कोशाकारकां योनिमनुप्रविश्य संतिष्ठन्ते, पश्चाच्छुक्रसंमिश्रांस्तानाहारयन् जीवस्तत्रोत्पद्यते, तत्र ये योन्याऽऽत्मसात्कृतास्ते सचित्ताः कदाचिन्मिश्रा इति, ये तु न खरूपतामापादितास्तेऽचित्ताः । अपरे वर्णयन्ति - असृक् सचेतनं शुक्रमचेतनमिति । अन्ये ब्रुवते - शुक्रशोणितमचित्तं योनिप्रदेशाः सचित्ता इत्यतो मिश्रति तु तत्वार्थवृत्तौ द्वितीयेऽध्याये । योनिस्त्रिधा मनुष्याणां शङ्खावर्त्तादिभेदतः । यत्यां शङ्ख इवावर्त्तः शङ्खावर्त्ता तु तत्र सा ॥ ५६ ॥ कूर्मोन्नता भवेयोनिः कूर्मपृष्ठमिवोन्नता । वंशीपत्रा तु संयुक्त (त्राभिधाना तु) वंशीपत्रद्वयाकृतिः ॥ ५७॥ स्त्रीरत्नस्य भवेच्छखाssवर्त्ता सा गर्भवर्जिता । व्युत्क्रामन्ति तत्र गर्भा, निष्पद्यन्ते न ते यतः ॥ ५८ ॥ अतिप्रबलकामाग्नेर्विलीयन्ते हि ते यथा । कुरुमत्या करस्पृष्टोऽप्यद्रवल्लोहपुत्रकः ॥ ५९॥ तथाच प्रज्ञापनायां"संखावत्ता णं जोणी इत्थीरयणस्स" । अर्हच्चक्रिविष्णुबलदेवाम्बानां द्वितीयका । तृतीया पुनरन्यासां स्त्रीणां योनिः प्रकीर्त्तिता ॥ ६० ॥ इदं च योनीनां त्रिधा त्रैविध्यं स्थानाङ्गतृतीयस्थाने, आचाराङ्गवृत्तौ तु शुभाशुभ भेदेन योनीनामनेकत्वमेवं गाथाभिः प्रदर्शितं - सीआदी जोणीओ, चउरासीती अ सयसहस्सेहिं । असुहाओ य सुहाओ, तत्थ सुहाओ इमा जाण ॥ ६१ ॥ अस्संखाउ मणुस्सा, राईसर संखमादिआऊणं । तित्थयर नामगोअं, सङ्घसुहं होइ नायचं ॥ ६२॥ तत्थविय जाइसंपन्नयाइ सेसाओ होंति असुहाओ । देवेसु किबिसाइ, सेसाओ होंति उ सुहाओ ॥ ६३॥ पंचेंदियतिरिएस हयगयरयणा हवंति उ सुहाओ । सेसाओ असुहाओ सुहवन्नेगिंदियादीया
योन्य•
धिकारः
२०
२५
॥ १९ ॥
२८
ainelibrary.org
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥३४॥ देविंदचकवहित्तणाई मोत्तुं च तित्थयरभावं । अणगारभावियाविय, सेसाओ अणंतसो पत्ता ॥३५॥ इतियोनिखरूपं । कुलानि योनिप्रभवान्याहुस्तानि बहून्यपि । भवन्ति योनावेकस्यां, नानाजाती यदेहिनाम् ॥६६॥ कृमिवृश्चिककीटादिनानाक्षुद्राङ्गिनां यथा । एकगोमयपिण्डान्तः, कुलानि स्युरनेकशः ॥३७॥ कोट्येका ससनवतिर्लक्षाः सार्धा भवन्ति हि । सामान्यात्कुलकोटीन, विशेषो वक्ष्यतेऽग्रतः ॥ ६८॥ इति योनिकुलस्वरूपं ४-५ तत्संवृतत्वादि च ६॥
भवस्थितिस्तद्भवायुर्द्विविधं तच्च कीर्तितम् । सोपक्रमं स्यात्तत्राद्यं, द्वितीयं निरुपक्रमम् ॥ ६९॥ कालेन बहुना वेद्यमप्यायुर्यत्तु भुज्यते । अल्पेनाध्यवसानाद्यैरागमोक्तैरुपक्रमैः ॥७॥ आयुः सोपक्रमं तत्स्या-1 दन्यद्वा कर्म तादृशम् । यद्वन्धसमये बद्धं, श्लथं शक्यापवर्तनम् ॥७१॥ युग्मम् । दत्ताग्निरेकतो रज्जुर्यथा दीीकृता क्रमात् । दह्यते संपिण्डिता तु, सा झटित्येकहेलया ॥७२॥ यत्पुनर्बन्धसमये, बद्धं गाढनिकाचनात् । क्रमवेद्यफलं तद्धि, न शक्यमपवर्तितुम् ॥७३॥ क्षीयतेऽध्यवसानाद्यैः खोत्थैः खस्य जीवितम् ।। परैश्च विषशस्त्राय॑स्ते स्युः सर्वेऽप्युपक्रमाः ॥ ७४ यदाहु:-"अज्झवसाण निमित्त आहारे वेयणा पराघाए । फासे आणपाणू, सत्तविहं जिज्झए आउं॥७५॥" त्रिधा तत्राध्यवसानं, रागस्नेहभयोद्भवम् । व्यापादयन्ति | रागाद्या, अप्यत्यन्तविकल्पिताः॥७६ ॥ यथा प्रपापालिकाया, युवानमनुरागतः। पश्यन्त्याः क्षीणमायुर्यकामस्यान्त्या दशा मृतिः ॥७७॥ यतः-"चिंतेइ १ दहमिच्छह २ दीहं नीससइ ३ तह जरे ४ दाहे ५॥
१४
Jain Educ
a
tional
For Private & Personel Use Only
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक.द्रव्य.शभत्तअरोयण ६मुच्छा ७ उम्माय ८ न याणई ९ मरणं १० ॥७॥” कस्याश्चित्सार्थवाद्याश्च, विदेशादागते प्रिये। मित्रः लेहपरीक्षार्थ, विपन्ने कथितेऽथ सा ॥७९॥ सार्थवाही विपन्नैव, सार्थवाहोऽपि तां मृताम् । श्रुत्वा तत्संग
क्रमा: मायेव, तूर्ण स्नेहायपद्यत ॥८०॥ युग्मम् । भयाद्यथा वासुदेवदर्शनात्सोमिलो विजः। हत्वा गजसुकुमार, ॥२०॥ नगरीमाविशन्मृतः॥८॥निमित्ताद्विषशस्त्रादेराहाराहहुतोऽल्पतः।स्निग्धतश्चास्निग्धतश्च, विकृतादहितावहात्
८२॥ शूलादेर्वेदनायाश्च, गर्ताप्रपतनादिकात् । पराघातात्स्पर्शतश्च, त्वग्विषादिसमुद्भवात् ॥८॥ श्वासोच्छ्वासाच विकृतत्वेनात्यन्तं प्रसर्पतः। निरुद्धाद्वा म्रियेतागी, तस्मादेते उपक्रमाः ॥८४॥ स्युः केषाश्चिद्यद
२० प्यतेऽनुपक्रमायुषामपि । स्कन्दकाचार्यशिष्याणामिव यन्त्रनिपीलना ॥ ८५ ॥ तथापि कष्टदास्तेषां, न त्वायु:क्षयहेतवः। सोपक्रमायुष इव, भासन्ते तेऽपि तैर्मृताः॥८६॥ अथ प्रकृतं-सोपक्रमायुषः केऽप्यनुपक्रमायुषः परे । इति स्युर्द्विविधा जीवास्तत्र सोपक्रमायुषः।। ८७ ॥ तृतीये नवमे सप्तविंशे भागे निजायुषः । बन्नन्ति परजन्मायुरन्त्ये वाऽन्तर्मुहूर्त्तके॥८८॥ यदाहुःश्यामाचार्या:-'सिय तिभागे, सिय तिभागतिभागे,सिय तिभाग-18 तिभागतिभागे इति' । केचित्तु सप्तविंशादप्यूवं विकल्पयन्ति वै । विभागकल्पनां यावदन्त्यमन्तमुहर्तकम्
Toll २५ K८९॥ असंख्यायुर्नतिर्यश्चश्चरमाङ्गाश्च नारकाः । सुराः शलाकापुमांसोऽनुपक्रमायुषः स्मृताः ॥९॥
अपरे वर्णयन्ति-तीर्थकरौपपातिकानां नोपक्रमतो मृत्युः, शेषाणामुभयथा इति तत्त्वार्थवृत्ती, कर्मप्रकृतिवृत्तावपि 'अहाजोगुक्कोसं' इति गाथाव्याख्याने भोगभूमिजेषु तिर्यक्षु मनुष्येषु च त्रिपल्योपमस्थितिपू.
129202020020299999999202
.॥
२८
Inin Educa
t
ional
D
ainelibrary.org
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
2002020rnorace
त्पन्नः पश्चादाशु सर्वाल्पजीवितमन्तर्मुहर्त्त विहाय शेषमायुस्विपल्योपमस्थितिकमपवर्त्तयत्यन्तच्हौनमिति । सुरनैरयिकासंख्यजीवितिर्यमनुष्यकाः । बध्नन्ति षण्मासशेषायुषोऽयभवजीवितम् ॥ ११ ॥ मतान्तरेणोत्कर्षतः षण्मासावशेषे जघन्यतश्चान्तमुहर्तशेषे नारकाः परभवायुर्वघ्नन्तीति भग० शत०१४ उ०१। निजायुषस्तृतीयेशे, शेषेऽनुपक्रमायुषः । नियमादन्यजन्मायुर्निबध्नन्ति परे पुनः ॥ ९२ ॥ यावत्यायुष्यवशिष्टे, परजन्मायुरय॑ते । कालस्तावानबाधाख्यस्ततः परमुदेति तत् ॥९३॥ इति भवस्थितिः ७॥ कायस्थितिस्तु पृथिवीकायिकादिशरीरिणाम् । तत्रैव कायेऽवस्थानं, विपद्योत्पद्य चासकृत् ॥ ९४ ॥ इति कायस्थितिखरूपं ८। औदारिक वैक्रियं च, देहमाहारकं तथा। तैजसं कार्मणं चेति, देहाः पञ्चोदिता जिनैः ॥१५॥ उदारैः पुद्गलैर्जातं, जिनदेहाद्यपेक्षया । उदारं सर्वतस्तुङ्गमिति चौदारिकं भवेत् ॥९६॥ क्रिया विशिष्टा नाना वा, विक्रिया तत्र संभवम् । स्वाभाविकं लब्धिजं च, द्विविधं वैक्रियं भवेत् ॥९७॥ यत्तदेकमनेक वा, दीर्घ इस्वं महल्लघु । भवेद् दृश्यमदृश्यं वा, भूचरं वापि खेचरम् ॥९८॥ आकाशस्फटिकस्वच्छं, श्रुतकेवलिना कृतम् । अनुत्तरामरेभ्योऽपि, कान्तमाहारकं भवेत् ॥ ९९ ॥ श्रुतावगाहाप्तामौषध्यावृद्धिः करोत्यदः । मनोज्ञानी चारणो वोत्पन्नाहारकलब्धिकः ॥ १००॥ तैजसं चोष्णतालिङ्गं, तेजोलेश्यादिसाधनम् । I १ चिन्त्यमिदं, यतो मनःपर्यवज्ञानिपृष्टप्रत्युत्तराय मनःपरिणतिर्द्रव्यतस्तीर्थकृतामित्यभियुक्तोक्तिः, एवं चारणेष्वपि गमनसामर्थ्यात्, अश्रुतत्वाच तेषां तस्य, ऋद्धिदर्शनप्राणियार्थमेव परं तस्य संभवः
OAD202002020
@
ainelibrary.org
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ २१ ॥
कार्मणानुगमाहारपरिपाकसमर्थकम् ॥ १ ॥ अस्मात्तपोविशेषोत्थलब्धियुक्तस्य भूस्पृशः । तेजोलेश्यानिर्गमः स्यादुत्पन्ने हि प्रयोजने ॥ २ ॥ तथोक्तं जीवाभिगमवृत्तौ - "संवस्स उम्हसिद्धं, रसाइआहारपागजणगं च । ते अगलद्धिनिमित्तं च तेअगं होइ नाय || ३ ||" अस्मादेव भवत्येव, शीतलेश्याविनिर्गमः । स्यातां च रोषतोषाभ्यां निग्रहानुग्रहावितः ॥ ४ ॥ तथोक्तं तत्त्वार्थवृत्तौ “यदोत्तरगुणप्रत्यया लब्धिरुत्पन्ना भवति तदा परं प्रति दाहाय विसृजति रोषविषाध्मातो, गोशालादिवत् प्रसन्नस्तु शीततेजसाऽनुगृह्णातीति । क्षीरनीरवदन्योऽन्यं, श्लिष्टा जीवप्रदेशकैः । कर्मप्रदेशा येऽनन्ताः, कार्मणं स्यात्तदात्मकम् ॥ ५ ॥ सर्वेषामपि देहानां हेतुभूतमिदं भवेत् । भवान्तरगतौ जीवसहायं च सतैजसम् ॥ ६ ॥ नन्वेताभ्यां शरीराभ्यां सहात्माऽऽयाति याति चेत् । प्रविशन्निरयन्वाऽपि कुतोऽसौ तर्हि नेक्ष्यते ? ॥ ७ ॥ अत्रोच्यते-न चक्षुर्गोचरः सूक्ष्मतया तैजसकार्मणे । ततो नोत्पद्यमानोऽपि, म्रियमाणोऽप्यसौ स्फुटः ॥८॥ तथोक्तं " अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते । निष्क्रामन् प्रविशन्वाऽपि नाभावोऽनीक्षणादपि” ॥ ९ ॥ स्वरूपमेवं पञ्चानां देहानां प्रतिपादितम् । कारणादिकृतांस्तेषां विशेषान् दर्शयाम्यथ ॥ १० ॥ संजातं पुलैः स्थूलैर्देहमौदारिकं भवेत् । सूक्ष्मपुद्गलजातानि ततोऽन्यानि यथोत्तरम् ॥ ११ ॥ इति कारणकृतो विशेषः । यथोत्तरं प्रदेशैः स्युरसंख्येयगुणानि च । आतृतीयं ततोऽनन्तगुणे तैजसकार्मणे ॥ १२ ॥ इति
शरीरस्वरूपं
१५
२०
॥ २१ ॥
२५
jainelibrary.org
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रदेशसंख्याकृतो विशेषः । आद्यं तिर्यग्मनुष्याणां देवनारकयोः परम् । केषाञ्चिलब्धिमद्वायुसंज्ञितिर्यगनृणामपि ॥ १३ ॥ आहारकं सलब्धीनां, स्याच्चतुर्दशपूर्विणाम् । सर्वसंसारिजीवानां, ध्रुवे तैजसकार्मणे ॥ १४ ॥ तत्वार्थभाष्ये तूक्तं- "एके त्वाचार्या नयवादापेक्षं व्याचक्षते - कार्मणमेवैकमना दिसंबन्धं, तेनैवैकेन जीवस्या - नादिः संबन्धो भवतीति, तैजसं तु लब्ध्यपेक्षं भवति, सा च तैजसलब्धिर्न सर्वस्य, कस्यचिदेव भवति, एतट्टीकालेशोऽपि - एवमेकीयमतेन प्रत्याख्यातमेव तैजसमनादिसंबन्धतया, सर्वस्य चेति, या पुनरभ्यवहृताहारं प्रति पाचनशक्तिः विनाऽपि लब्ध्या सा तु कार्मणस्यैव भविष्यति, कर्मोष्णत्वात्, कार्मणं हीदं शरीरमनेकशक्तिगर्भत्वादनुकरोति विश्वकर्मणः, तदेव हि तथासमासादितपरिणति व्यपदिश्यते यदि तैजसशरीरतया ततो न कश्चिद्दोष इति" । अत्र भूयान् विस्तरोऽस्ति, स तु तत्त्वार्थवृत्तेरवसेय इति । युगपञ्चैकजीवस्य द्वयं त्रयं चतुष्टयम् । स्याद्देहानां न तु पञ्च, नाप्येकं भववर्त्तिनः ॥ १५ ॥ वैक्रियस्याहारकस्यासत्त्वा | देकस्य चैकदा । न पञ्च स्युः सदा सत्वादन्त्ययोर्नैकमप्यदः ॥ १६ ॥ स्यादेकमपि पूर्वोक्तमतान्तरव्यपेक्षया । भवान्तरं गच्छतस्तन्मते स्यात्कार्मणं परम् ॥ १७ ॥ इति स्वामिकृतो विशेषः । आद्यस्य तिर्यगुत्कृष्टा, गति -
१ उष्मादिलिङ्गकारणाहारपाकजनकतया पराभिमतकार्योत्पादकतयेत्यर्थः तथाच न पार्थक्यं तन्मते । समुद्घातहेतुर्न सर्वस्येति तत्त्वं ।
Jain Educaemational
११
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ २२ ॥
Jain Educatio
रारुचकाचलम् । जङ्घाचारणनिर्ग्रन्थानाश्रित्य कलयन्तु ताम् ॥ १८॥ आ नन्दीश्वरमाश्रित्य, विद्याचारणखेचरान् । शरीरस्वरूपं ऊर्द्ध चापण्डकवनं तत्त्रयापेक्षया भवेत् ॥ १९ ॥ विषयो वैक्रियाङ्गस्यासंख्येया द्वीपवार्धयः । महाविदेहा विषयो, ज्ञेय आहारकस्य च ॥ २० ॥ लोकः सर्वोऽपि विषयस्तुर्यपञ्चमयोर्भवेत् । भवाद्भवान्तरं येन, गच्छतामनुगे इमे ॥ २१ ॥ इति विषयकृतो भेदः । धर्माधर्मार्जनं सौख्यदुःखानुभव एव च । केवलज्ञानमुत्त्यादिप्राप्तिरायप्रयोजनम् ॥ २२ ॥ एकानेकत्व सूक्ष्मत्वस्थूलत्वादि नभोगतिः । संघसाहाय्यमित्यादि, वैक्रियस्य प्रयोजनम् ॥ २३ ॥ सूक्ष्मार्थसंशयच्छेदो, जिनेन्द्रद्विविलोकनम् । ज्ञेयमाहारकस्यापि, प्रयोजनमनेकधा ॥ २४ ॥ यदाहु:- “तित्थयररिद्धिदंसणसुहुमपयत्थावगा हेडं वा । संसयवोच्छेयत्थं, गमणं जिणपायमूलंमि ॥ २६ ॥ " शापानुग्रहयोः शक्तिमुक्तिपाकः प्रयोजनम् । तैजसस्य कार्मणस्य, पुनरन्यभवे गतिः ॥ २६ ॥ इति प्रयोजनकृतो विशेषः । उत्कर्षतः सातिरेकसहस्रयोजनप्रमम् । औदारिकं वैक्रियं साधिकैकलक्षयोजनम् ॥ २७ ॥ आहारकं हस्तमानं, लोकाकाशमिते उभे । समुद्घाते केवलिनः स्यातां तैजसकार्मणे ॥ २८ ॥ अवगाढं प्रदेशेषु, स्वल्पेष्वाहारकं किल । ततः संख्यगुणांशस्थमुत्कृष्टौदारिकं स्मृतम् ॥ २९ ॥ ततोऽपि संख्यगुणितदेशस्थं गुरु वैक्रियम् । समुद्घातेतोऽन्त्ये द्वे, सर्वलोकावगाहके ॥ ३० ॥ दीर्घे मृत्युसमुद्घाते, तूत्पत्तिस्थानकावधिं । अन्यदा तु यथास्थानं, १ चारित्रलक्षधर्ममहारम्भादिकाधर्मापेक्षयेदम् २ चतुर्दशपूर्विप्रभृति विकुर्वणाद्यपेक्ष्य ३ अन्यमतापेक्षम् उपलक्षणात् केवलिसमुद्घाते ४ उत्तरवै क्रियस्य अपेक्ष्यावगाहनामिदम् ५ पूर्वापरे दक्षिणोत्तरे वा लोका
१५
Jainelibrary.org
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Educatio
स्वस्वदेहावगाहिनी ॥ ३१ ॥ मरणान्तसमुद्घातं गतानां देहिनां भवेत् । यावत्य केन्द्रियादीनां तैजसस्यावगाहना ॥ ३२ ॥ ब्रवीमि तां जिनप्रोक्तस्वरूपां सोपपत्तिकम् । भाग्यैवं कार्मणस्यापि सोभयोः साहचर्यतः ॥ ३३ ॥ युग्मम् । खखदेहमिता व्यासस्थौल्याभ्यां सर्वदेहिनाम् । मरणान्तसमुद्घाते, स्यात्तैजसावगाहना ॥ ३४ ॥ आयामतो विशिष्येत तत्रैकेन्द्रियदेहिनाम् । अङ्गुला संख्येय भागप्रमाणा सा जघन्यतः ॥ ३५ ॥ उत्कर्षतश्च लोकान्ताल्लोकान्तं यावदाहिता । एकेन्द्रियाणां जीवानामेवमुत्पत्तिसंभवात् ॥ ३६ ॥ सामान्यतोऽपि जीवानां, विभाव्यैतदपेक्षया । लोकान्तावधि लोकान्तात्तेजसस्यावगाहना ॥ ३७ ॥ अङ्गुलासंख्यभागेन, प्रमिताऽथ जघन्यतः । निर्दिष्टा विकलाक्षाणां तैजसस्यावगाहना ॥ ३८ ॥ तिर्यग्लोकाच्च लोकान्तावधि तेषां गरीयसी । संभवो विकलाक्षाणां, यत्तिर्यग्लोक एव हि ।। ३९ ।। अधोलोकेऽप्यधोलोकग्रामेषु दीर्घिकादिषु । ऊर्द्ध च पाण्डवन वर्त्तिवापीहदादिषु ॥ ४० ॥ संभवो विकलाक्षाणां यद्यप्यस्ति तथापि हि । सूत्रे स्वस्थानमाश्रित्य, तिर्यग्लोको निरूपितः ॥ ४१ ॥ तत उक्ताऽतिरिक्ताऽपि, विकलानां भवत्यसौ । अधोग्रामात्पाण्डकाच्च, लोकाग्रान्ता गरीयसी ॥ ४२ ॥ सातिरेकं योजनानां सहस्रं स्याज्जघन्यतः । नार| काणां तैजसावगाहना साऽथ भाव्यते ॥ ४३ ॥ संति पातालकलशाश्चत्वारोऽन्धौ चतुर्दिशम् । अधो लक्षं योजनानामवगाढा इह क्षितौ ॥ ४४ ॥ सहस्रयोजनस्थूलकुड्यास्तेषां च निश्चिते । अधस्तने तृतीयांशे, वायुवर्वति केवलम् ॥ ४५ ॥ मध्यमे च तृतीयांशे, मिश्रितौ सलिलानिलौ । तथोपरितने भागे, तृतीये केवलं
ational
१०
१४
w.jainelibrary.org
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ २३ ॥
Jain Education
जलम् ॥ ४६ ॥ ततश्च सीमन्तकादिनरकवत्त कश्चन नारकः । पातालकलशासन्नो, मरणान्तसमुद्धतः ॥ ४७ ॥ कुड्यं पातालकुम्भानां, विभिद्योत्पद्यते यतः । मत्स्यत्वेन तृतीयांशे, मध्यमे चरमेऽपि वा ॥ ४८ ॥ तस्मादर्वाक् तु नैवास्ति तिर्यगमनुजसंभवः । उत्पत्तिर्नारकाणां च न तिर्यगमनुजौ विना ॥ ४९ ॥ उत्कर्षतस्त्वधो यावत्सप्तमीं नरकावनीम् । नारकाणामेतदन्तं, स्वस्थानस्थितिसंभवात् ॥ ५० ॥ तिर्यक्वयम्भूरमणसमुद्रावधि सा भवेत् । नारकाणां तत्र मत्स्यादित्वेनोत्पत्तिसंभवात् ॥ ५१ ॥ ऊर्ध्वं च पण्डकवन स्थायि तोयाश्रयावधि । अत ऊर्ध्वं तु कुत्रापि नृतिर्यक् संभवोऽस्ति न ॥ ५२ ॥ पञ्चेन्द्रियतिरश्चां च, जघन्या परमाsपि च । विकलेन्द्रियवज्ज्ञेया, तेजसस्यावगाहना ॥ ५३ ॥ अङ्गुला संख्येयभागमात्रा नृणां जघन्यतः । उत्कर्षतश्च क्षेत्राल्लोकान्तावधि कीर्त्तिता ॥ ५४ ॥ भवनव्यन्तरज्योतिष्काद्य द्विवर्गना किनाम् । अङ्गुलासंख्येयभागमाना ज्ञेया जघन्यतः ॥ ५५ ॥ ममत्वाभिनिविष्टानां स्वरत्नाभरणादिषु । पृथिव्यादितया तेषां, तत्रैवोत्पत्तिसंभवात् ॥ ५६ ॥ उत्कर्षतस्त्वधः शैलानरकक्ष्मातलावधि । गतानां तत्र केषाञ्चित्तेषां मरणसंभवात् ॥ ५७ ॥ तिर्यक् स्वयम्भूरमणापरांतवेदिकावधि । ऊर्ध्वं तथेषत्प्राग्भारापृथिव्यूर्ध्वतलावधि ॥ ५८ ॥ एतावदन्तं पृथिवीकायत्वेन समुद्भवात् । ततः परं च पृथिवीकायादीनामसंभवात् ॥ ५९ ॥ सनत्कुमारकल्पादि देवानां स्याज्जघन्यतः । अङ्गुला संख्येयभागमाना सैवं विभाव्यते ॥ ६० ॥ देवाः सनत्कुमाराद्या, | उत्पद्यन्ते स्वभावतः । गर्भजेषु नृतिर्यक्षु, ध्रुवं नैकेन्द्रियादिषु ॥ ६१ ॥ यदा सनत्कुमारादिसुधाभुग्मंदरादिषु ।
शरीर स्वरूपं
२०
२५
॥ २३ ॥
२८
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
दीर्घिकादौ जलक्रीडां, कुर्वाणः स्वायुषःक्षयात् ॥६२॥ उत्पद्यते मत्स्यतया, स्वात्यासन्नप्रदेशके । तदा जघन्या स्थादस्य, यद्वैवं संभवत्यसौ ॥ ६३ ॥ पूर्वसंवन्धिनीं नारीमुपभुक्तां महीस्पृशा । कश्चित्सनत्कुमारादिदेवः प्रेमवशीकृतः ॥ ६४ ॥ तदवाच्यप्रदेशे स्वमवाच्यांशं विनिक्षिपन् । परिष्वज्य मृतस्तस्या, एवं गर्भे समु-18 द्भवेत् ॥६५॥ उत्कर्षतस्त्वधो यावत्पातालकलशाश्रितम् । मध्यमीयं तृतीयांशं, तत्र मत्स्यादिसंभवात् ॥६६॥ तिर्यक् स्वयम्भूरमणपर्यन्तावधि सा भवेत् । अच्युतस्वर्गपर्यन्तमूर्ध्व सा चेति भाव्यते ॥६॥ कश्चिदच्युतनाकस्थसुहृद्देवस्य निश्रया । देवः सनत्कुमारादिर्गतस्तत्र म्रियेत यत् ॥ ६८॥ सहस्रारान्तदेवानां, भावनीयाऽनया दिशा । कनिष्ठा च गरिष्ठा च, तैजसस्थावगाहना ॥ ६९ ॥ आनताद्यच्युतान्तानां, देवानां स्याजघन्यतः। अङ्गुलासंख्येयभागपरिमाणाऽवगाहना ॥ ७० ॥ उत्पद्यते नरेष्वेव, देवा नन्वान तादयः । नराश्च नृक्षेत्र एव, तदियं घटते कथम् ? ॥७१॥ अत्रोच्यते-उपभुक्तां मनुष्यण,मानुषी पूर्ववल्लभाम् । उपलभ्यावधिज्ञानात्प्रेमपाशनियन्त्रितः ॥७२॥ इहाऽऽगत्याऽऽसन्नमृत्युतया बुद्धिविपर्ययात् । मलिनत्वाच कामानां, वैचित्र्यात्कर्ममर्मणाम् ॥७३॥ गाढानुरागादालिङ्गय, तदवाच्यप्रदेशके । परिक्षिप्य निजावाच्यं, म्रियते स्वायुषः क्षयात् ॥ ७४ ॥ गर्भेऽस्या एव मृत्वाऽयं, यद्युत्पद्येत निर्जरः । आनतादिक्रतुभुजस्तदेयमुपपद्यते ॥७॥ त्रिभिर्विशेषकं । आनतादिक्रतुभुजां, मनोविषयसेविनाम् । कायनास्पृशतां देवीमपि क्षीणमनोभुवाम् ॥७६॥ मनुष्यस्त्रियमाश्रित्य, यद्येवं स्याद्विडम्बना । तर्हि को नाम दुर्वारं, कन्दर्प जेतुमीश्वरः
909009000000000000000000020700
Jain Educ
a
tion
For Private Personal Use Only
w
.jainelibrary.org
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य.
अधो यावदधोग्रामास्तिर्यग नृक्षेत्रमेव च । ततः परं मनुष्याणामुत्पत्तिस्थित्यसंभवात्॥७८॥ ऊर्ध्वमच्यु-शरीरस्वरूपं ३ सर्गःतनाकान्तं, गतानां मित्रनिश्रया। आनतादिक्रतुभुजामच्युते मृत्युसम्भवात् ॥७९॥ ऊर्ध्वमच्युतजानां तु,
स्वविमानशिरोऽवधि । स्वैरं तत्र गतानां यत्, केषाश्चित्संभवेन्मृतिः ॥ ८॥ ग्रैवेयकानुत्तरस्थसुराणां ॥२४॥
साऽवगाहना । यावद्विद्याधरश्रेणीमास्वस्थानाजघन्यतः ॥ ८१॥ खेचरश्रेणिपरतो, मनुष्याणामसंभवात् ।। ग्रैवेयकादिदेवानामप्यत्रागत्यसंभवात् ॥ ८२॥ अधो यावदधोग्रामानूढुं च स्वाश्रयावधि । तिर्यक् पुनर्नरक्षेत्रपर्यन्तं सा प्रकीर्तिता ॥ ८३ ॥ यावन्नन्दीश्वरं खेटाः, सस्त्रीका यान्ति यद्यपि । संभोगमपि कुर्वन्ति, २० तत्र कामेषुनिर्जिताः ॥ ८४ ॥ परं नोत्पद्यते गर्भे, नरो नृक्षेत्रतो बहिः। तत उत्कर्षतस्तिर्यग , नृक्षेत्रावधि सोदिता ॥८५॥ इत्यर्थतः प्रज्ञापनकविंशतितमपदे । इति प्रमाणावगाहकृतो विशेषः। स्थितिरौदारिकस्यान्तर्मुहूर्त स्थाजघन्यतः। उत्कृष्टा त्रीणि पल्यानि, सा तु युग्मिव्यपेक्षया ॥८६॥ दश वर्षसहस्राणि, जघन्या जन्मवैक्रिये । त्रयस्त्रिंशत्सागराणि, स्थितिरुत्कर्षतः पुनः॥ ८७ ॥ वैक्रियस्य कृतस्यापि, जघन्याऽऽन्तर्मुहर्तिकी । ज्येष्ठा तु जीवाभिगमे, गदिता गाथयाऽनया ॥८८॥ "अंतमुहुत्तं नरएसु होइ चत्तारि ॥२४॥ तिरियमणुएसुं। देवेसु अद्धमासो, उक्कोस विउच्चणाकालो ॥ ८९॥ पञ्चमाणे तु वायूनां, संज्ञितिर्यग्नृणामपि ।
१ कायस्पर्शादिप्रविचारणापेक्षया, अन्यथा मनःप्रविचारणा त्वस्येव तेषां, अवेयकानुत्तरालया एवेदृशाः , Tel२ भवधारणीयेतिदर्शनाय
Jain Educat
ion
For Private
Personal Use Only
jainelibrary.org
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्यते एतन्नरकेवितः पर्वतः, तत्र प्रभूत कालं हन्यन्त ज्ञेयं, तत्त्वं तु जिना मध्यानां, सिद्धताऽल्प, यत्क
ज्येष्ठाऽप्येकाऽन्तर्मुहर्ता, प्रोक्ता वैकुर्विकस्थितिः॥९०॥ श्रीसूत्रकृताङ्गे तु-"वेयालिए नाम महभियावे, एगायए पवतमंतलिक्खे । हम्मति तत्था बहुकूरकम्मा, परं सहस्सा उ मुहत्तयाणं ॥९१॥ नामेति संभावने, संभाव्यते एतन्नरकेषु यथाऽन्तरिक्षे 'महामितापे' महादुःखे, एकशिलाघटितो दीर्घः, वेयालिएत्ति वैक्रियः परमाधार्मिकनिष्पादितः पर्वतः, तत्र हस्तस्पर्शिकया समारुहन्तो नारका बहुक्रूरकर्माणो 'हन्यन्ते' पीड्यन्ते, सहस्रसंख्यानां पर' मुहर्तानां प्रकृष्टं प्रभूतं कालं हन्यन्ते, इत्यर्थः” । अत्र परमाधार्मिकदेवविकुर्वितस्य(त) (तजातदुःखस्य) पर्वतस्य अर्धमासाधिकाऽपि स्थितिरुक्तेति ज्ञेयं, तत्त्वं तु जिनो जानीते । अन्तर्मुहूर्त द्वेधाऽपि,
स्थितिराहारकस्य च। अनादिके प्रवाहेण, सर्वतैजसकार्मणे ॥९॥ सावसाने तु भव्यानां, सिद्धत्वे तदभावतः। । अभव्यानां निरन्ते च, पङ्गनां मुक्तिवर्मनि ॥९३ ॥ इति स्थितिकृतो विशेषः । आहारकं सर्वतोऽल्पं, यत्क
दाचिद्भवेदिदम् । भवेद्यदि तदाऽप्येतदेकं द्वे वा जघन्यतः॥९४॥ सहस्राणि नवोत्कर्षादसत्ताऽस्य जघन्यतः। एक समयमुत्कृष्टा, षण्मासावधि विष्टपे ॥ ९५ ॥ उक्तं च-"आहारगाइं लोगे, छम्मासा जा न होतिवि कयाइ । उक्कोसेणं नियमा, एकं समयं जहन्नेणं ॥ ९६॥"-आहारकादसंख्येयगुणानि वैक्रियाणि च । तत्स्वामिनामसंख्यत्वान्नारकाङ्गिसुपर्वणाम् ॥ ९७ ॥ अप्यौदारिकदेहाः स्युस्तदसंख्यगुणाधिकाः। आनन्त्येऽपि तदीशानामसंख्या एव ते यतः॥९८॥प्रत्यङ्गं प्राणिनो यत्स्युः, साधारणवनस्पती । अनन्तास्तानि चासंख्या-1 न्येवाङ्गानि भवन्ति हि ॥ ९९ ॥ तेभ्योऽनन्तगुणास्तुल्या, मिथस्तैजसकार्मणाः । यत्प्रत्येकमिमे स्यातां, दे
POS999999-ase
For Private & Personel Use Only
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ २५ ॥
देहे सर्वदेहिनाम् ॥ २०० ॥ इत्यल्पबहुत्वकृतो विशेषः । एकजीवापेक्षया स्याज्ज्येष्ठमादारिकान्तरम् । अन्तमुहूर्त्ताभ्यधिकास्त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः ॥ १ ॥ तथोक्तं जीवाभिगमवृत्तौ - "उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि अन्तमुहूर्त्ताभ्यधिकानि तानि चैवं कश्चिचारित्री वैक्रियशरीरं कृत्वाऽन्तर्मुहूर्तं जीवित्वा स्थितिक्षयादविग्रहेणानुउत्तरसुरेषु जायत इति” । वैक्रियस्यान्तरं कायस्थितिकालो वनस्पतेः । अर्धश्च पुद्गल परावर्त्त आहारकान्तरम् ॥२॥ | लघु चायस्य समयोऽन्तर्मुहूर्त्त तदन्ययोः । न संभवत्यन्तरं च, देहयोरुक्तशेषयोः ॥३॥ इत्यन्तरकृतो विशेषः । | इति देहखरूपं ९ । सदसलक्षणोपेतप्रतीकसन्निवेशजम् । शुभाशुभाकाररूपं, षोढा संस्थानमङ्गिनाम् ॥ ४ ॥ समचतुरस्रं न्यग्रोधसादिवामनककुज्जहुण्डानि । संस्थानान्यङ्गे स्युः प्राक्कर्मविपाकतोऽसुमताम् ॥ ५ ॥ तत्र चाद्यं चतुरस्रं, संस्थानं सर्वतः शुभम् । न्यग्रोधमूर्ध्वं नाभेः सत्, सादि नाभेरधः शुभम् ||६|| इदं साचीति | केऽप्याहुः, साचीति शाल्मलीतरुः । मूले स्याद् वृत्तपुष्टोऽसौ न च शाखासु तादृशः ॥ ७ ॥ तथोक्तं पञ्चसंग्रहवृत्तौ - " अपरे तु साचीति पठन्ति, तत्र साचीति प्रवचनवेदिनः शाल्मलीतरुमाचक्षते, ततः साचीव | यत्संस्थानं तत्साचीति,” एवं च न्यग्रोधसाचिनोरन्वितार्थता भवतीति ज्ञेयं । मौलिग्रीवापाणिपादे, कमनीयं च वामनम् । लक्षितं लक्षणैर्दुष्टैः शेषेष्ववयवेषु च ॥८॥ रम्यं शेषप्रतीकेषु, कुब्जं संस्थानमिष्यते । दुष्टं किंतु शिरोग्रीवापाणिपादे भवेदिदम् ॥ ९ ॥ हुण्डं तु सर्वतोदुष्टं, केचिद्वामन कुब्जयोः । विपर्यासमामनन्ति, लक्षणे कृतलक्षणः ॥ १० ॥ इति संस्थानस्वरूप १० । अङ्गमानं तु तुङ्गत्वमानमङ्गस्य देहिनाम् । स्थूलतापृथुताद्यं तु,
शरीरेषु स्थित्यल्पबहुत्वांतराणि संस्था
नानि
२०
२५
॥ १५ ॥
२८
lainelibrary.org
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
32020203020202
Aile, सप्तमः सर्ववासीयप्रदेशकान् । वामतः क्षेत्रं, च्याप्प
ज्ञेयमौचित्यतः स्वयम् ॥११॥ इत्यंगमानखरूपं ११।समित्येकीभावयोगाद्वेदनादिभिरात्मनःउत्प्राबल्येन कर्माशघातो यः स तथोच्यते॥१२॥ यतः-समुद्घातगतो जीवः, प्रसह्य कर्मपुद्गलान् । कालान्तरानुभवाऱ्यानपि क्षपयति द्रुतम् ॥१३॥ तचैवं-कालान्तरवेद्यानयमाकृष्योदीरणेन कर्माशान् । उदयावलिकायां च प्रवेश्य परिभुज्य शातयति॥१४॥ते चैवं-वेदनोत्थः कषायोत्थो, मारणान्तिकवैक्रियौ । आहारकस्तैजसश्च, च्छद्मस्थानां षडप्यमी ॥ १५ ॥ स्यात्केवलिसमुद्रातः, सप्तमः सर्ववेदिनाम् । अष्टसामायिकश्चाय-मान्तर्मुहर्तिकाः परे ॥ १६ ॥ तथाहि-करालितो वेदनाभिरात्मा स्वीयप्रदेशकान् । विक्षिप्यानन्तकर्माणुवेष्टितान् देहतो बहिः ॥१७॥ आपूर्यासाद्यन्तराणि, मुखादिशुषिराणि च । विस्तारायामतः क्षेत्रं, व्याप्य देहप्रमाणकम् ॥ १८॥ तिष्ठेदन्तर्मुहर्त च, तत्र चान्तर्मुहूर्त्तके । असातवेदनीयांशान् , शातयत्येष भूरिशः ॥१९॥ इति वेदनासमुद्घातः । समाकुलः कषायेन, जीवः स्वीयप्रदेशकैः । मुखादिरन्ध्राण्यापूर्य, तान् विक्षिप्य च पूर्ववत् ॥ २०॥ विस्तारायामतः क्षेत्रं, व्याप्य देहप्रमाणकम् । कषायमोहनीयाख्यकर्माशान् शातयेहूहून् ॥ २१ ॥ शातयंश्चापरान् भूरीन , समादत्ते खहेतुभिः । ज्ञेयं सर्वत्र नैवं चेदस्मान्मुक्तिः
प्रसज्यते ॥ २२॥ कषायस्य समुद्घातश्चतुर्दाऽयं प्रकीर्तितः । क्रोधमानमायालोभैहेतुभिः परमार्थतः। 1॥२३॥ इति कषायसमुद्घातः । अन्तर्मुहूर्तशेषायुर्मरणान्तकरालितः । मुखादिरन्ध्राण्यापूर्य, शरीरी
खप्रदेशकैः ॥ २४ ॥ स्वाङ्गविष्कम्भवाहल्यं, खशरीरातिरकतः । जघन्यतोऽङ्गलासंख्येयांशमुत्कर्षतः पुनः
Jain Educa
t ional
Ovw.jainelibrary.org
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ॥२५॥ असंख्ययोजनान्यकदिश्युत्पत्तिस्थलावधि । आयामतोऽभिव्याप्यान्तर्मुह म्रियते ततः ॥ २६ ॥ वेदनादिस३ सर्गः मरणान्तसमुदघातं, गतो जीवश्च शातयेत् । आयुषः पुद्गलान् भूरीनादत्ते च नवान्न तान् ॥ २७॥ अत्राय मुद्वाताः
विशेषः-कश्चिज्जीव एकेनैव मारणान्तिकसमुद्घातेन नरकादिपुत्पद्यते, तत्राहारं करोति, शरीरं च बध्नाति, ॥२६॥
कश्चित्तु समुद्घातानिवृत्त्य स्वशरीरमागत्य पुनः समुद्घातं कृत्वा तत्रोत्पद्यते, अयमों भगवतीषष्टशतकषष्टोद्देशके नरकादिष्वनुत्तरान्तेषु सर्वस्थानेषु भावितोऽस्तीति ज्ञेयं । इति मारणान्तिकः समुद्रातः । वैकुर्विकसमुघातं, प्रासो वैक्रियशक्तिमान् । कर्मावृतानामात्मीयप्रदेशानां तनोबहिः ॥२८॥ निसृज्य दण्डं विष्कम्भवाहल्याभ्यां तनुप्रमम् । आयामतस्तु संख्यातयोजनप्रमितं ततः ॥ २९ ॥ वैक्रियाङ्गाभिधनामकाशान् पूर्वमर्जितान् । शातयन् वैक्रियाङ्गाहान, स्कन्धाँल्लात्वा करोति तत् ॥ ३० ॥ त्रिभिर्विशेषकम् । इति वैक्रियसमुद्घातः । समुद्धतस्तैजसेन, तेजोलेश्याख्यशक्तिमान् । कर्मावृतात्मप्र
देशराशेक्रियवद्वहिः ॥ ३१॥ देहविस्तारवाहल्यं, संख्येययोजनायतम् । निसृज्य दण्डं प्राग्बद्धान्, Iशातयेत्तैजसाणुकान् ॥ ३२॥ युग्मम् । अन्यानादाय तद्योग्यान् , तेजोलेश्यां विमुश्चति । तैजसोऽयं ॥ समुद्घातः, प्रज्ञप्तस्तत्त्वपारगैः ॥ ३३ ॥ इति तैजससमुद्घातः । चतुर्दशानां पूर्वाणां, धाऽऽहारकल
॥२६॥ ब्धिमान् । जिनर्द्धिदर्शनादीनां, मध्ये केनापि हेतुना ॥ ३४॥ आहारकसमुद्घातं, कुर्वन्नात्मप्रदेशकैः । दण्डं खाङ्गपृथुस्थूलं, संख्येययोजनायतम् ॥ ३५ ॥ निसृज्य पुद्गलानाहारकनाम्नः पुरातनान् । विकी
Jain Education Hot
For Private
Personel Use Only
SUITainelibrary.org
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
र्यादाय तद्योग्यान्, देहमाहारकं सृजेत् ॥ ३६॥ त्रिभिर्विशेषकम् । इत्याहारकसमुद्रातः । यस्यायुषोऽतिरिक्तानि, कर्माणि सर्ववेदिनः । वेद्याख्यनामगोत्राणि, समुद्घातं करोति सः॥ ३७॥ आन्तर्मुहर्ति पूर्वमावर्जीकरणं सृजेत् । अन्तमुहर्तशेषायुः, समुद्रातं ततो ब्रजेत् ॥ ३८ ॥ आवर्जीकरणं शस्तयोगव्यापारणं मतम् । इदं त्ववश्यं कर्त्तव्यं, सर्वेषां मुक्तिगामिनाम् ॥ ३९॥ आत्मप्रदेशैर्लोकान्तस्पृशमूध्वर्मधोऽपि च । कुर्यादाद्यक्षणे दण्डं, खदेहस्थूलविस्तृतम् ॥४०॥ द्वितीये समये तस्य, कुर्यात्पूर्वापरायतम् । कपाटं पाटवोपेतः, समयेऽथ तृतीयके ॥४१॥ ततो विस्तार्य प्रदेशानुदीचीदक्षिणायतम् । मन्थानं कुरुते तुर्ये, ततोऽन्तराणि पूरयेत् ॥४२॥ खप्रदेशैस्तदा सर्वान् , लोकाकाशप्रदेशकान् । स व्यामोति समा येते, लोकाकाशैकजीवयोः॥४३॥ संहरेत्पञ्चमे चासो, समयेऽन्तरपूरणम् । षष्ठे संहृत्य मन्थानं, संहरेत्सप्तमेररिम् ॥४४॥ संहरेदष्टमे दण्डं, शरीरस्थस्ततो भवेत् । अन्तर्मुहर्त जीवित्वा, योगरोधाच्छिवं व्रजेत् ॥ ४५ ॥ यदाहु:-“यस्य पुनः केवलिनः कर्म भवत्यायुषोऽतिरिक्ततरम् । स समुद्घातं भगवानुपगच्छति तत्समीकर्तुम् ॥ २४६॥ दण्डं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमथ तृतीये विश्वव्यापी चतुर्थे तु ॥४७॥ संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः षष्ठे । सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥४८॥ औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्तासप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥४९॥कार्मणशरीरयोक्ता, चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् , भवत्यनाहा
20090878002007
Jain Educat
i onal
For Private & Personel Use Only
W
w
.jainelibrary.org
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
रको नियमात् ॥५०॥" किंच-समुद्घातान्निवृत्त्यासौ, त्रिधा योगान् युनत्यपि । सत्यासत्यामृषाभिख्यौ, केवलिसायोगी मानसवाचिकौ ॥५१॥ पृष्टेषु मनसाऽर्थेषु, तत्रानुत्तरनाकिभिः। दातुं तदुत्तरं चेतोयोगयुग्मं युनक्ति सः द्घातः ॥५२॥ तथा मनुष्यादिना च, पृष्टोऽपृष्टोऽपि स प्रभुः। प्रयोजनविशेषेण, युनक्त्येतौ च वाचिकौ ॥५३॥ काय-९ योगं प्रयुञ्जानो, गमनागमनादिषु। चेष्टते पीठपाद्यमर्पयेत्प्रातिहारिकम् ॥५४॥ एवं च-कैश्चिदित्युच्यते यत्तु, शेषषण्मासजीवितः । जिनः कुर्यात्समुद्घातं, तदसद् यत्तथासति ॥५५॥ प्रातिहारिकपीठादेरादानमपि संभवेत् । श्रुते तु केवलं प्रोक्तं, तत्प्रत्यर्पणमेव हि ॥५६॥ इत्यादि । अधिकं प्रज्ञापनान्तिमपदवृत्सितोऽवसेयं । ततश्च-पर्याप्तसंज्ञिपश्चाक्ष-मनोयोगाजघन्यतः। असंख्यगुणहीनं तं, निरुन्धानः क्षणे क्षणे ॥५७॥ असंख्येयःक्षणैरेवं, साकल्येन रुणद्धि तम् । ततः पर्याप्तकयक्षवचोयोगाजघन्यतः॥५८॥ असंख्यगुणहीनं तं, निरुन्धानःक्षणे क्षणे। एवं क्षणैरसंख्येयः, साकल्येन रुणद्धि सः॥१९॥ त्रिभिर्विशेषकं । ततः पर्याप्तसूक्ष्मस्य, काययोगाजघन्यतः। असंख्यगुणहीनं तं, निरन्धानःक्षणे क्षणे ॥३०॥ असंख्यैः समयैरेवं, साकल्येन रुणद्धि सः।योगान् रुन्धंश्च स ध्यायेत्, शुक्लध्यानं तृतीयकम् ॥३१॥ युग्मम् । एतेन स उपायेन, सर्वयोगनिरोधतः। २५ अयोगतां समासाद्य, शैलेशी प्रतिपद्यते ॥ ६२॥ पञ्चानां हखवर्णानामुच्चारप्रमितां च ताम् । प्राप्तः शैले-18
॥२७॥ शनिष्कम्पः, खीकृतोत्कृष्टसंवरः॥६३ ॥ शुक्लध्यानं चतुर्थ च, ध्यायन् युगपदासा । वेद्यायुनोमगोत्राणि, क्षपयित्वा स सिद्ध्यति ॥ ६४॥ अगत्वाऽपि समुद्रातमनन्ता निवृता जिनाः । अवाप्यापि समुद्घात
Jain Educati
on
(Owainelibrary.org
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनन्ता निर्वृता जिनाः ॥६५॥ अत्रायं विशेष:-यः षण्मासाधिकायुको, लभते केवलोद्गमम् । करोत्यसौ समुद्घातमन्ये कुर्वन्ति वा न वा ॥१॥ इति गुणस्थानक्रमारोहे । छम्मासाऊ सेसे उप्पण्णं जेसि केवलं नाणं । ते नियमा समुघाइय सेसा समुघाय भइयवा ॥२॥ इत्यस्य वृत्ती, इति केवलिसमुद्घातः। आद्याः पञ्च समुद्घाताः, सर्वेषामपि देहिनाम् । अनुभूता अनन्ताः स्युर्यथाखं सर्वजातिषु ॥६६॥ भाविनस्तु न सन्त्येव, केषाञ्चिल्लघुकर्मणाम् । केषाञ्चित्त्वङ्गिनामेकद्रयादयः स्युरनेकशः ॥ ६॥ यावद्गण्या अगण्या वा, स्युः केषाश्चिदनन्तकाः । यथाखं सर्वजातित्वे, विज्ञेया बहुकर्मणाम् ॥ ६८ ॥ नवरं-सूक्ष्मादिनिगोदैस्तु, निगोदे त्रय एव ते । अनुभूता अनन्ताः स्यु विनस्ते तु सर्ववत् ॥ ६९॥ आहारका नरान्येषां, केषाञ्चिन्द्रभवे त्रयः । अतीताः स्युर्भाविनस्तु, ते चत्वारो न चाधिकाः ॥ ७॥ संभवेयुश्चत्वारोऽनुभूता नृभवे नृणाम् । भविष्यन्तोऽपि विज्ञेयास्तावन्तो नृभवे नृणाम् ॥ ७१॥ चत्वारोऽपि व्यतीतास्तु, नान्येषांनृन् विना यतः। आहारकं तुर्यवारं, कृत्वा सिध्यति तद्भवे ॥७२॥ तथोक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ-"इह यश्चतुर्थवेलमाहारकं करोति स नियमात्तद्भव एव मुक्तिमासादय ति, न गत्यन्तरमिति” । सप्तमस्तु न कस्यापि, स्यादतीतो नरं विना। भाव्यप्येकोऽन्यजन्तूनां, केषाश्चिन्नृत्व एव सः ॥७३॥ समुद्घातोत्तीर्णजिनं, प्रतीत्यैको निषेवितः । मनुष्यस्य मनुष्यत्वेऽनागतोऽप्येक एव सः ॥ ७४ ॥ असद्वेद्याश्रित
१ आहारकसमुद्घाताः। २ नरान्विहाय परेषाम् । ३ सिध्यन्तीति पा० ।
आहारकं तुर्यवारं, कृत्वा मुक्तिमासादयति, न गवसः ॥७३॥ सम
Jain Educa
t ional
For Private Personal use only
K
ainelibrary.org
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
Ge
लोक.द्रव्य.
३ सर्गः ॥२८॥
वाद्यो, मोहनीयाश्रितः परः । अन्तर्मुहर्तशेषायुः संश्रितः स्यात्तृतीयकः ॥ ७५ ॥ तुर्यपञ्चमषष्टाच, अजीवसमुनामकर्मसमाश्रिताः। नामगोत्रवेद्यकर्मसंश्रितः सप्तमो भवेत् ॥ ७६॥ इति जीवसमुद्घाताः । योऽप्य- | धातः गचित्तमहास्कन्धसमुद्घातोऽस्त्यजीवजः । अष्टसामयिकः सोऽपि, ज्ञेयः सप्तमवत्सदा ॥ ७७॥ पुद्गलानां त्यादीनि च परीणामा-द्विश्रसोत्थात्स जायते । अष्टभिः समयैजोतसमाप्तो जिनसत्कवत् ॥ ७८॥ इति समुदघाताः १२ । विवक्षितभवादन्यभवे गमनयोग्यता । या भवेद्देहिनां साऽत्र, गतिर्गतं च कथ्यते ॥ ७९ ॥ १३ ॥ इतिगतिखरूपं १३ । विवक्षिते भवेऽन्येभ्यो, भवेभ्यो या च देहिनाम् । उत्पत्ती योग्यता साऽत्रागतिरित्युपदर्शिता ॥ ८॥ एकसामयिकी संख्या, मृत्यूत्पत्त्योस्तथाऽन्तरम् । द्वारेऽस्मिन्नेव वक्ष्यन्ते, तद्वाराणि पृथङ्: न तत् ॥ ८१ ॥ इत्यागतिस्वरूपं १४ । विवक्षितभवान्मृत्वोत्पद्य चानन्तरे भवे । यत्सम्यक्त्वा-श द्यश्नुतेऽङ्गी, सानन्तराप्तिरुच्यते ॥ ८२॥ इत्यनन्तरावाप्तिखरूपं १५ । लब्ध्वा नृत्वादिसामग्री, यावन्तोऽधिकृतानिनः । सिद्ध्यन्त्येकक्षणे सैकसमये सिद्धिरुच्यते ॥८३ ॥ १६॥ कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य आत्मनः। स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥ ८४॥ द्रव्याण्येतानि योगान्तर्गतानीति विचित्यताम् । सयोगत्वेन लेश्यानामन्वयव्यतिरेकतः ॥८॥ यावत्कषायसद्भावस्तावत्तेषामपि स्फुटम् । अमून्युपबृंहकाणि, स्युः साहायककृत्तया ॥८६॥ दृष्टं योगान्तर्गतेषु, द्रव्येषु च परेष्वपि । उपबृंहणसामध्य,
॥२८॥ कषायोदयगोचरम् ॥ ८७॥ यथा योगान्तर्गतस्य, पित्तद्रव्यस्य लक्ष्यते । क्रोधोदयोद्दीपकत्वं, स्याद्यच्चण्डोऽतिपित्तकः ।। ८८ ॥ द्रव्येषु बाह्येष्वप्येवं, कर्मणामुदयादिषु । सामर्थ्य दृश्यते तत्किं, न योगान्तर्गतेषु तत् । २८
Jain Educatio
n
al
For Private Personel Use Only
Mainelibrary.org
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ८९॥ सुरादध्यादिकं ज्ञानदर्शनावरणोदये । तत्क्षयोपशमे हेतुर्भवेद्ब्राह्मीवचादिकम् ॥९०॥ एवं च-IN कषायोद्दीपकत्वेऽपि, लेश्यानां न तदात्मता । तथात्वे ह्यकषायाणां, लेश्याऽभावः प्रसज्यते ॥ ९१ ॥ लेश्याः स्युः कर्मनिस्यन्द इति यत्कैश्चिदुच्यते । तदप्यसारं निस्यन्दो, यदि तत्कस्य कर्मणः? ॥१२॥ चेद्यथायोगमष्टानामप्यसौ कर्मणामिति । तच्चतुष्कर्मणामेताः, प्रसज्यन्तेऽप्ययोगिनाम् ॥९३ ॥ न यद्ययोगिनामेता, घातिकर्मक्षयान्मताः। तत एव तदा न स्युर्योगिकेवलिनामपि ॥१४॥ ननु च-योगस्य परिणामत्वे, लेश्यानां हेतुता भवेत् । प्रदेशबन्धं प्रत्येव, न पुनः कर्मणां स्थितौ ॥९५॥ 'जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणई' इति वचनात् , अत्रोच्यते,न कर्मस्थितिहेतुत्वं, लेश्यानां कोऽपि मन्यते। कषाया एव निर्दिष्टा, यत्कर्मस्थितिहेतवः ॥९६॥ लेश्याः पुनः कषायान्तर्गतास्तत्पुष्टिकृत्तया । तत्स्वरूपा एव सत्योऽनुभागं प्रति हेतवः ॥९७॥ एतेन यत्क्वचिल्लेश्यानामनुभागहेतुत्वमुच्यते, शिवशर्माचार्यकृतशतकग्रन्थे च कषायाणामनुभागहेतुत्वमुक्तं तदुभयमप्युपपन्नं, कषायोदयोपबृंहिकाणां लेश्यानामपि उपचारनयेन कषायखरूपत्वादित्याद्यधिकं प्रज्ञापनालेश्यापदवृत्तितोऽवसेयं । सा च षोढा कृष्णनीलकापोतसंज्ञितास्तथा । तेजो| लेश्या पद्मलेश्या, शुक्ललेश्यति नामतः ॥९८॥ खञ्जनाञ्जनजीमूतभ्रमभ्रमरसन्निभा। कोकिलाकलभीकल्पा, कृष्णलेश्या खवर्णतः॥ ९९ ॥ पिच्छतः शुकचाषाणां, केकिकापोतकण्ठतः। नीलाम्जवनतो नीला, नील१ तत्र प्रदेशबन्धो योगात्तदनुभवनं कषायवशात् । स्थितिपाकविशेषस्तस्य भवति लेश्या विशेषेण ॥ ३७॥ इतिप्रेशमरतो.
lain Education
nelibrary.org
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ २९ ॥
लेश्या खवर्णतः ॥ ३०० ॥ जैत्रा खदिरसाराणामतसीपुष्प सोदरा । कापोतलेश्या वर्णेन, वृन्ताककुसुमौघजित् ॥ १ ॥ पद्मरागनवादित्यसन्ध्यागुञ्जार्धतोऽधिका । तेजोलेश्या खवर्णेन, विद्रुमाङ्कुरजित्वरी ॥ २ ॥ सुवर्णयूथिका स्वर्णकर्णिकारौघचम्पकान् । पराभवन्ती वर्णेन, पद्मलेश्या प्रकीर्त्तिता ॥ ३ ॥ गोक्षीरदधिडिण्डीरपिण्डादधिकपाण्डुरा । वर्णतः शरदभ्राणां, शुक्ललेश्याऽभिभाविनी ॥ ४ ॥ किराततिक्तत्रपुषी कटुतुम्बीफलानि च । त्वचः फलानि निम्बानां, कृष्णलेश्या रसैर्जयेत् ॥ ५ ॥ पिप्पलीशृङ्गवेराणि, मरीचानि च | राजिकाम् । हस्तिपिप्पलिकां जेतुं, नीललेश्या रसैः प्रभुः ॥ ६ ॥ आमानि मातुलिङ्गानि, कपित्थवदराणि च । फणसामलकानीष्टे, रसैर्जेतुं तृतीयिका ॥ ७ ॥ वर्णगन्धरसापन्नपक्काम्रादिसमुद्भवान् । रसानधिकमापयोगी है धुर्या, तुर्याऽधिकुरुते रसैः ॥ ८ ॥ द्राक्षाखर्जूरमाध्वीक वारुणीनामनेकधा । चन्द्रप्रभादिसाधूनां जयिनी पञ्चमी रसैः ॥ ९ ॥ शर्करा गुडमत्स्यण्डीखण्डाखण्डादिकानि च । माधुर्यधुर्य वस्तूनि, शुक्ला विजयते रसैः ॥ १० ॥ आद्यास्तिस्रोऽतिदुर्गन्धा, अप्रशस्ता मलीमसाः । स्पर्शतः शीतख्क्षाश्च, संक्लिष्टा दुर्गतिप्रदाः ॥ ११ ॥ अन्त्यास्तिस्रोऽतिसौगन्ध्याः, प्रशस्ता अतिनिर्मलाः । स्निग्धोष्णाः स्पर्शगुणतोऽसंक्लिष्टाः सुगतिप्रदाः ||१२|| परस्परमिमाः प्राप्य, यान्ति तद्रूपतामपि । वैडूर्यरक्तपदयोर्ज्ञेये तत्र निदर्शने ॥ १३ ॥ तत्रापि देवनारकलेश्यासु, वैडूर्यस्य निदर्शनम्। तिर्यग्मनुजलेश्यासु, रक्तवस्त्रनिदर्शनम् ॥ १४ ॥ तथाहि - देवनारकयोर्लेश्या, भवान्तमवस्थिताः । नानाकृतिं यान्ति किंतु, द्रव्यान्तरोपधानतः ॥ १५ ॥ न तु सर्वात्मना स्वीयं, स्वरूपं
Jain Education
लेश्या स्वरूपं
= 3541535
२०
२५
॥ २९ ॥ २७
ainelibrary.org
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
संत्यजन्ति ताः । सद्वैडूर्यमणिर्यद्वन्नाना सूत्रप्रयोगतः ॥ १६ ॥ जपापुष्पादिसान्निध्याद्यथा वाऽऽदेशमण्डलम् ॥ नानावर्णान् दधदपि, स्वरूपं नोज्झति स्वकम् ॥ १७ ॥ अत एव भावपरावृत्त्या नारकनाकिनोः । भवन्ति लेश्याः षडपि, तदुक्तं पूर्वसूरिभिः ॥ १८ ॥ " सुरनारयाण ताओ, दबलेसा अवट्टिया भणिया । भावपरावतीए पुण एसुं हुंति छल्लेसा ॥१९॥” दुष्टलेश्यावतां नारकाणामप्यत एव च । सम्यक्त्वलाभो घटते, तेजोलेश्यादिसंभवी ॥ २० ॥ यदाहु:- "सम्मत्तस्स य तिसु उवरिमासु पडिवज्रमाणओ होइ । पुचपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेसाए ||१||” तथैव तेजोलेश्याट्ये, घटते संगमामरे । वीरोपसर्गकर्तृत्वं, कृष्णलेश्यादिसंभवि ॥ २१ ॥ स्वरूपत्यागतः सर्वात्मना तिर्यग्मनुष्ययोः । लेश्यास्तद्रूपतां यान्ति, रामक्षिप्तपटादिवत् ॥ २२ ॥ अत एवोत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तमवस्थिताः । तिर्यगनृणां परावर्त्त, यान्ति लेश्यास्ततः परम् ॥ २३ ॥ बहुधाऽऽसां परीणामस्त्रिधा वा नवधा भवेत् । सप्तविंशतिधा चैकाशीतिधा त्रिगुणस्तथा ॥ २४ ॥ जघन्य मध्यमोत्कृष्टभेदतस्त्रिविधो भवेत् । प्रत्येकमेषां स्वस्थानतारतम्यविचिन्तया ॥ २५ ॥ भवेन्नवविधस्तेषामपि भेदविवक्षया । सप्तविंशतिधा मुख्योऽप्येवं भेदैस्त्रिभिस्त्रिभिः ॥ २६ ॥ तथाहुः प्रज्ञापनायां - " कण्हलेसा णं भंते ! कतिविहं परिणामं परिणमति ?, गोयमा ! तिविहं वा, णवविहं वा, सत्ताविसतिविहं वा, एक्कासीतिविहं वा तेआलदुसयविहं वा, बहुं वा बहुविहं वा परिणामं परिणमति" । लेश्यापरिणामस्याऽऽदिमान्त्ययोर्ना - ङ्गिनां मृतिः क्षणयोः । अन्तर्मुहूर्तकेऽन्त्ये शेषे वाऽऽद्ये गते सा स्यात् ॥ २७॥ आर्या । तत्राप्यन्तर्मुहूर्त्तेऽन्त्ये, शेषे
Jain Educatmational
१०
१४
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
लेश्या
लोक.द्रव्य.
३ सगे:
स्थिति
॥३०॥
नारकनाकिनः । नियन्ते नरतिर्यञ्चश्चाद्येऽतीत इति स्थितिः ॥२८॥ कृष्णायाः स्थितिरुत्कृष्टा, त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः। प्राच्याय्यभवसंबन्ध्यन्तर्मुहूर्तद्वयाधिका ॥२९॥ पल्यासंख्येयभागाढ्या, नीलायाः सा दशाब्धयः। पल्यासंख्यांशसंयुक्ताः, कापोत्यास्तु त्रयोऽब्धयः ॥ ३० ॥ प्राच्याय्यभवसत्कान्तर्मुहूर्त्तद्वयमेतयोः । पल्यासंख्यांश एवान्तर्भूतं नेत्युच्यते पृथक् ॥३१॥ एवं तैजस्यामपि भाव्यं । तैजस्या द्वौ पयोराशी, पल्यासंख्यलवा|धिको । द्धन्तर्मुहर्ताभ्यधिकाः, पद्माया दश वार्धयः ॥ ३२॥ व्यन्तमुहर्ताः शुक्लायास्त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः । अन्तर्मुतहत सर्वासां, जघन्यतः स्थितिर्भवेत् ॥३॥ आद्यात्र सप्तममहीगरिष्ठस्थित्यपेक्षया। धूमप्रभाद्यपतरोत्कृष्टायुश्चिन्तया परा ॥ ३४ ॥ शैलाद्यप्रतरे ज्येष्टमपेक्ष्यायुस्तृतीयिका । तुर्या चैशानदेवानामुत्कृष्टस्थित्यपेक्षया ॥३५॥ पञ्चमी ब्रह्मलोकस्य, गरिष्ठायुरपेक्षया । षष्ठी चानुत्तरसुरपरमायुरपेक्षया ॥ ३६॥ अत्र यद्यपि पङ्कप्रभाशैलाद्यप्रस्तटयोः पूर्वोक्तादधिकापि स्थितिरस्ति परं प्रस्तुतलेश्यावतामियमेवोत्कृष्टा स्थितिरिति ज्ञेयं, यत्तु प्रज्ञापनोत्तराध्ययनसूत्रादौ कृष्णादीनामन्तर्मुहर्ताभ्यधिकत्वमुच्यते तत्प्राच्याग्यभवसत्कान्तर्मुहर्तयोरेकस्मिन्नन्तर्मुहर्ते समावेशात्, इत्थं चैतद अन्तर्मुहर्तस्यासंख्यातभेदत्वादुपपद्यते इत्यादिप्रज्ञापनावृत्तौ । इति सामान्यतो लेश्यास्थितिः । स्थिति वक्ष्येऽथ लेश्यानां, नारकखर्गिणोर्नृणाम् । तिरश्चां च जघन्येनोत्कर्षेण च यथागमम् ॥ ३५॥ दश वर्षसहस्राणि, कापोत्याः स्याल्लघुः स्थितिः। उत्कृष्टा त्रीण्यतराणि, पल्यासंख्यलवस्तथा ॥ ३६ ॥ जघन्या तत्र धर्माद्यप्रस्तटापेक्षया भवेत् ।
३०॥
२८
Jain Education Loonal
For Private Personal Use Only
H
ainelibrary.org
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
माघवतीवर्तिज्येष्ठायुकम्॥४१॥ दश वर्षसहस्राका नीलास्थितिल
उत्कृष्टा च तृतीयाद्यप्रस्तटापेक्षयोदिता ॥ ३७ ॥ नीलाया लघुरेषैवोत्कृष्टा च दश वार्धयः । पल्यासंख्येयभागाड्या, कृष्णायाः स्यादसौ लघुः ॥ ३८॥ स्थितिर्जघन्या नीलायाः, शैलाद्यप्रस्तटे भवेत् । रिष्ठाद्यप्रस्तटे त्वस्या, ज्येष्ठा कृष्णास्थितिलघुः ॥ ३९ ॥ कृष्णायाः पुनरुत्कृष्टा, त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः । इयं माघवतीवर्तिज्येष्ठायुष्कव्यपेक्षया ॥४०॥ इत्थं नारकलेश्यानां, स्थितिः प्रकटिता मया । अथ निर्जरलेश्यानां, स्थितिं वक्ष्ये यथाश्रुतम् ॥ ४१॥ दश वर्षसहस्राणि, कृष्णायाः स्याल्लघुः स्थितिः। एतस्याः पुनरुत्कृष्टा, पल्यासंख्यांशसंमिता ॥४२॥ इयमेवैकसमयाधिका नीलास्थितिलघुः । पल्यासंख्येयभागश्च, नीलोत्कृष्टस्थितिर्भवेत् ॥४३॥ पल्यासंख्येयभागोऽयं, पूर्वोक्तासंख्यभागतः। बृहत्तरो भवेदेवं, ज्ञेयमग्रेऽपि
धीधनैः ॥४४॥ या नीलायाः स्थितियेष्ठा, समयाभ्यधिका च सा । कापोत्या लघुरस्याः स्यात्, पल्यासंIM ख्यलवो गुरुः ॥४५॥ लेश्यानां तिसृणामासां, स्थितिर्याऽदर्शि सा भवेत्। भवनेशव्यन्तरेषु, नान्येषु तदसं
भवात् ॥ ४६॥ एवं वक्ष्यमाणतेजोलेश्याया अप्यसौ स्थितिः। भवनव्यन्तरज्योतिराद्यकल्पदयावधि ॥४७॥ पद्मायाश्च स्थितिब्रह्मावधीशानादनन्तरम् । लान्तकात्परतः शुक्ललेश्याया भाव्यतामिति ॥४८॥ अथ प्रकृतं-16 दश वर्षसहस्राणि, तेजोलेश्यालघुस्थितिः। भवनेशव्यन्तराणां, प्रज्ञप्ता ज्ञानभानुभिः॥४९॥ उत्कृष्टा भव-18 नेशानां, साधिकं सागरोपमम् । व्यन्तराणां समुत्कृष्टा, पल्योपममुदीरिता ॥५०॥ स्यात्पल्यस्याष्टमो भागो, ज्योतिषां सा लघीयसी । उत्कृष्टा वर्षलक्षणाधिकं पल्योपमं भवेत् ॥५१॥ सा लघुर्वैमानिकानामेकं पल्यो
2029082290002902
लो.प्र.६
१४
en Education International
For Private Personal use only
www.ainelibrary.org.
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ३१ ॥
Jain Education
पमं मता । उत्कृष्टा द्वौ पयोराशी, पल्यासंख्यलवाधिकौ ॥ ५२ ॥ समयाभ्यधिकेषैव, पद्मायाः स्याल्लघुः स्थितिः । उत्कृष्टा पुनरेतस्याः स्थितिर्देश पयोधयः ॥ ५३ ॥ इयमेव च शुक्लायाः स्थितिर्लध्वी क्षणाधिका । उत्कृष्टा पुनरेतस्यास्त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः ॥ ५४ ॥ इत्थं नारकदेवानां लेश्यास्थितिरुदीरिता । अथ तिर्यग्मनुष्याणां लेश्यास्थितिरुदीर्यते ॥ ५५ ॥ या या लेश्या येषु येषु, नृषु तिर्यक्षु वक्ष्यते । अन्तर्मुहूर्तिकी सासा, शुक्ललेश्यां विना नृषु ॥ ५६ ॥ शुक्ललेश्यास्थितिर्नृणां जघन्याऽऽन्तर्मुहूर्तिकी । उत्कृष्ट्रा नववर्षोना, पूर्वकोटी प्रकीर्त्तिता ॥५७॥ यद्यप्यष्टवर्षवयाः, कश्चिद्दीक्षामवाप्नुयात् । तथापि तादृग्वयसः, पर्यायं वार्षिकं विना ॥ ५८ ॥ नोदेति केवलज्ञानमतो युक्तमुदीरिता । पूर्वकोटी नवान्दोना, शुक्ललेश्यागुरुस्थितिः ॥ ५९ ॥ युग्मम् । इत्युत्त राध्ययन सूत्रवृत्तिप्रज्ञापनावृत्त्यभिप्रायः । तथैव संग्रहण्यामप्युक्तं- 'चरमा नराण पुण नववासूणा पुछकोडीवि' इति, संग्रहणीवृत्तौ प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ च नराणां पुनश्वरमा शुक्ललेश्या उत्कर्षतः किञ्चिन्यूननववर्षोन पूर्वकोटिप्रमाणापि, इयं च पूर्वकोटेरूद्र्ध्वं संयमावातेरभावात्पूर्वकोट्यायुषः किञ्चित्समधिकवर्षाष्टकादूर्ध्वमुत्पादित केवलज्ञानस्य केवलिनोऽवसेया इत्युक्तं, अत्र च पूर्वकोव्या नववर्षोनत्वं किञ्चिन्यूननववर्षो न त्वं किश्चित्समधिकाष्टवर्षोनत्वमिति त्र्यं मिथो यथा न विरुध्यते तथा बहुश्रुतेभ्यो भावनीयं । प्रत्येकं सर्वलेश्याना - मनन्ता वर्गणाः स्मृताः । प्रत्येकं निखिला लेश्यास्तथाऽनन्तप्रदेशिकाः ॥ ६० ॥ असंख्यात प्रदेशावगाढाः सर्वा १ आद्यः परमशुकुलेश्यां केवलित्वभावनीमाश्रित्य इतरौ तु केवलकारणभूतशुकुलेश्यामाश्रित्य नवरमन्ये विशेषेणाप्रमत्तताया आश्रयणम् ।
लेश्याधिकारः १७
२०
२५ ॥ ३१ ॥
२७
Inelibrary.org
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदाहृताः । स्थानान्यध्यवसायस्य, तासां संख्यातिगानि च ॥६१॥क्षेत्रतस्तान्यसंख्येयलोकाभ्रांशसमानि वै ।। कालतोऽसंख्येयकालचक्रक्षणमितानि च ॥६२॥ यदुक्तं-"असंखेजाण उस्सप्पिणीण ओसप्पिणीण जे समया। संखाईया लोगा, लेस्साणं हंति ठाणाई॥१॥" अभिप्रायो यादृशः स्यात् , सतीष्वेतासुदेहिनाम् ।समया समयोक्ताभ्यां, दृष्टान्ताभ्यां प्रदर्यते॥६॥द्वयोरपि दृष्टान्तयोः स्थापना-यथा पथः परिभ्रष्टाः, पुरुषाः षण् महाटवीम् । प्राप्ताः समन्तादैक्षन्त, भक्ष्यं दिक्षु बुभुक्षिताः॥६४॥ जम्बूवृक्षं कचित्तत्र, ददृशुः फलभङ्गुरम् । आयन्तमिवाध्वन्यान् , मरुचपलपल्लवैः॥६५॥ एकस्तत्राह वृक्षोऽयं, मूलादुन्मूल्यते ततः। सुखासीनाः फलाखादं, कुर्मःश्रमविवर्जिताः ॥६६॥ अन्यः प्राह किमेतावान्, पात्यते प्रौढपादपः । शाखा महत्यश्छिद्यन्ते, सन्ति तासु फलानि यत्॥३७॥ तृतीयोऽथावदत् शाखा, भविष्यन्ति कदेदृशः। प्रशाखा एव पात्यन्ते, यत एताः फलैभृताः ॥६८॥ उवाच वाचं तुर्योऽथ, तिष्ठन्त्वेता वराकिकाः। यथेच्छं गुच्छसंदोहं, छिंझो येषु फलोद्गमः ॥६९॥ न नः प्रयोजनं गुच्छः, फलैः किंतु प्रयोजनम् । तान्येव भुवि कीर्यन्ते, पञ्चमः प्रोचिवानिति ॥ ७० ॥ षष्ठेन शिष्टमतिना, समादिष्टमिदं ततः । पतितानि फलान्यद्मो, मा भूत्पातनपातकम् ॥ ७१॥ भाव्याः षण्णामप्यमीषां, लेश्याः कृष्णादिकाः क्रमात् । दयतेऽन्योऽपि दृष्टान्तो, दृष्टः श्रीश्रुतसागरे ॥७२॥ केचन ग्रामघाताय, चौराः क्रूरपराक्रमाः । क्रामन्तो मार्गमन्योऽन्यं, विचारमिति चक्रिरे ॥७३॥ एकस्तत्राह दुष्टात्मा, यः18
Jan Educational
For Private Personal use only
How.jainelibrary.org
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक.द्रव्य.
३ सर्गः ॥३२॥
आसान शः १८
परद्रव्यापहरणमेकं पापमयगिर्हतैः किं नः फलं भवन प्रयोजनम् । घा
कश्चिद् दृष्टिमेति नः। हन्तव्यः सोऽद्य सर्वोऽपि, द्विपदो वा चतुष्पदः॥७४ ॥ अन्यः प्राह चतुष्पद्भिरपराद्धं न किञ्चन । मनुष्या एव हन्तव्या, विरोधो यैः सहात्मनाम् ॥ ७५ ॥ तृतीयः प्राह न स्त्रीणां, हत्या कार्याऽतिनिन्दिता । पुरुषा एव हन्तव्या, यतस्ते क्रूरचेतसः ॥७६॥ निरायुधैर्वराकैस्तैहतैः किं नः प्रयोजनम् ? । घात्याः सशस्त्रा एवेति, तुर्यश्चातुर्यवान् जगौ ॥७७॥ सशस्त्रैरपि नश्यद्भिर्हतैः किं नः फलं भवेत् ? सायुधो युध्यते यः स, वध्य इत्याह पञ्चमः ॥७८॥ परद्रव्यापहरणमेकं पापमिदं महत्। प्राणापहरणं चान्यच्चेत्कुर्मस्तर्हि का गतिः ? ॥ ७९ ॥ धनमेव तदादेयं, मारणीयो न कश्चन । षष्ठः स्पष्टमभाषिष्ट, प्राग्वदत्रापि भावना ॥८॥ सर्वस्तोकाः शुक्ललेश्या, जीवास्तेभ्यो यथोत्तरम् । पद्मलेश्यास्तेजोलेश्या, असंख्येयगुणाः क्रमात् ॥ ८१॥ अनन्तनास्ततोऽलेश्याः, कापोत्याख्यास्ततस्तथा। तेभ्यो नीलकृष्णलेश्याः, क्रमाद्विशेषतोऽधिकाः॥२॥ इति लेश्यास्वरूपं१७॥
निर्व्याघातं प्रतीत्य स्यादाहारः षड्दिगुद्भवः । व्याघाते त्वेष जीवानां, त्रिचतुष्पश्चदिग्भवः॥ ८३ ॥ अलोकवियताऽऽहारद्रव्याणां स्खलनं हि यत् । स व्याघातस्तदभावो, नियाघातमिहोच्यते ॥८४॥ भावना त्वेवंसर्वाधस्तादधोलोकनिष्कुटस्याग्निकोणके। स्थितो भवेद्यदैकाक्षस्तदाऽसौ त्रिदिगुद्भवः॥८५॥ पूर्वस्यां च दक्षिणस्थामधस्तादिति दिकूत्रये । संस्थितत्वादलोकस्य, ततो नाहारसंभवः॥८६॥ अपरस्या उत्तरस्या, ऊर्द्धतश्चेति | दिक्त्रयात् । पुद्गलानाहरत्येवं, सूक्ष्माः पञ्चानिलोऽनणुः॥८७॥ तथोक्तं-"इह लोकचरमान्ते यादरपृथिवीकायिकाप्कायिकतेजोवनस्पतयो न सन्ति, सूक्ष्मास्तु पश्चापि सन्ति, बादरा वायुकायिकाश्चेति पर्याप्तापर्याप्तकभे-४
20/2002020208292008
॥३२॥
Jain Educat
i onal
For Private Personal Use Only
Y
ujainelibrary.org
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
देन द्वादशस्थानान्यनुसर्त्तव्यानीति भगवती श० ३४ उ० १ वृत्तौ । द्वयोर्दिशोस्तथैकस्या, अलोकव्याहतौ बुधैः । चतुष्पञ्चदिगुत्पन्नोऽप्येषामेव विभाव्यताम् ॥ ८८ ॥ तथाहि - सर्वाधस्तादधोलोक, एव चेत्पश्चिमां दिशम् । स्थितोऽनुसृत्यैकाक्षः स्यात्प्राच्यां न व्याहतिस्तदा ॥ ८९ ॥ अधस्तनी दक्षिणा च द्वे एव व्याहते इति । दिग्भ्योऽन्याभ्यश्चतसृभ्यः पुद्गलानाहरत्यसौ ॥ ९० ॥ द्वितीयादिप्रतरेषु यदोर्ध्वं पश्चिमां दिशम् । स्थितोऽनुसृत्यैकाक्षः स्यान्न व्याहतिरधोऽपि तत् ॥ ९१ ॥ व्याहता दक्षिणैवैका, ततः पञ्चदिगागतान् । पुगलानाहरत्येष, एवं सर्वत्र भावना ॥ ९२ ॥ द्रव्यतश्च स आहारः स्यादनन्तप्रदेशकः । संख्या संख्पप्रदेशौ हि, नात्मग्रहणगोचरः ॥ ९३ ॥ असंख्याभ्रप्रदेशानां, क्षेत्रतः सोऽवगाहकः । जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितिकः कालतः पुनः ॥ ९४ ॥ भावतः पञ्चधा वर्णरसैर्गन्धैर्द्विधाऽष्टधा । स्पर्शेरकगुणत्वादिभेदैः पुनरनेकधा ॥ ९५ ॥ किंच- अनन्तरावगाढानि, खगोचरगतानि च । द्रव्याण्यभ्यवहार्याण्यणूनि वा बादराणि वा ॥ ९६ ॥ आहरन्ति वर्णगन्धरसस्पर्शान्पुरातनान् । विनाश्यान्यांस्तथोत्पाद्यापूर्वान् जीवाः खभावतः ॥ ९७ ॥ इत्याहारादिक्प्रसंगात् किञ्चिदाहारखरूपम् ॥ १८ ॥ अस्थिसंबन्धरूपाणि, तत्र संहननानि तु । षोढा खलु विभिद्यन्ते, दार्व्यादितारतम्यतः ॥ ९८ ॥ तथाहु:- " वज्ज रिसहनारायं, पढमं बीयं च रिसहनारायं । नारायमद्धनाराय, कीलिया तहय छेव ॥ १ ॥” कीलिका वज्रमृषभः, पट्टोऽस्थिद्वयवेष्टकः । अस्थ्नोमर्कटबन्धो यः, स नाराच इति स्मृतः ॥ ९९ ॥ ततश्च-बद्धे मर्कटबन्धेन, सन्धौ सन्धौ यदस्थिनी । अस्थमा
Jain Educatic mational
- पश्चिमा ?
५
१०
१४
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ३३ ॥
च पट्टाकृतिना, भवतः परिवेष्टिते ॥ ४०० ॥ तदस्थित्रयमाविद्ध्य स्थितेनास्थ्ना दृढीकृतम् । कीलिकाकृतिना वज्रर्षभनाराचकं हि तत् ॥ १ ॥ युग्मम् । अन्यदृषभनाराचं, कीलिकारहितं च तत् । केचित्तु वज्रनाराचं, पहोज्झितमिदं जगुः ॥ २ ॥ अस्थ्नोर्मर्कटबन्धेन, केवलेन दृढीकृतम् । आहुः संहननं पूज्या, नाराचाख्यं तृतीयकम् ॥ ३ ॥ बद्धं मर्कटबन्धेन, यद्भवेदेकपार्श्वतः । अन्यतः कीलिकानद्धमूर्धनाराचकं हि तत् ॥ ४ ॥ तत्की लिकाख्यं यत्रास्थनां केवलं कीलिकाबलम् । अस्थनां पर्यन्तसंबन्धरूपं सेवार्त्तमुच्यते ॥ ५ ॥ सेवयाऽभ्यङ्गाद्यया वा, ऋतं व्याप्तं ततस्तथा । छेदैः खण्डैर्मिथः स्पृष्टं, छेदस्पृष्टमतोऽथवा ॥ ६॥ यद्यपि स्युरनंस्थीनामेतान्यस्थ्यात्मकानि न । तद्गतः शक्तिविशेषस्तथाप्येषूपचर्यते ॥ ७ ॥ एकेन्द्रियाणां सेवा, तमपेक्ष्यैव कथ्यते । जीवाभिगमानुसृतैः, कैचिचाद्यं सुधाभुजाम् ॥ ८ ॥ संग्रहणीकारैस्तु छ गन्भतिरिनराणं, समुच्छिपणिदिविगल छेवहं । सुरनेरइया एगिंदिया य सवे असंघयणा ॥ १॥ इत्युक्तं । इतिसंहननानि १९ । कर्षं संसारकान्तारमयन्ते यान्ति यैर्जनाः । ते कषायाः क्रोधमानमायालोभा इति श्रुताः ॥ ९ ॥ क्रोधोऽप्रीत्यात्मको मानोऽन्येयस्त्रोत्कर्षलक्षणः । मायाऽन्यवचनारूपा, लोभस्तृष्णाभिगृधुता ॥ १० ॥ चत्वारोऽन्तर्भवन्त्येते, उभयोद्वेषरागयोः । आदिमौ द्वौ भवेद् द्वेषो, रागः स्यादन्तिमौ च तौ ॥११॥ खपक्षपातरूपत्वान्मानोऽपि राग एव यत् । ततस्त्रयात्मको रागो, द्वेषः क्रोधस्तु केवलम् ॥ १२ ॥ चत्वारोऽपि चतुर्भेदाः, स्युस्तेऽनन्तानुबन्धिनः । अप्रत्याख्यानकाः प्रत्याख्यानाः संज्वलना १ तत्संबन्धिन्यसंबन्धिनि वा टादौ स्वरे परे अन् ( इति हैमश० ) ।
संहननानि १९
२०
२५
॥ ३३ ॥
२७
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
इति ॥१३॥ एतल्लक्षणानि च श्रीहेमचन्द्रसूरिभिरित्थमूचिरे-“ पक्ष संज्वलनः प्रत्याख्यानो मासचतुष्टयम् । अप्रत्याख्यानको वर्ष, जन्मानन्तानुबन्धिकः॥१४॥ वीतरागयतिश्राद्धसम्यग्दृष्टित्वघातकाः। ते देवत्वमनुष्यत्वतिर्यक्त्वनरकप्रदाः॥१५॥ प्रज्ञापनावृत्तौ च "अनन्तान्यनुबध्नन्ति, यतो जन्मानि भूलये । तेनानन्तानुबन्ध्याख्या, क्रोधायेषु नियोजिता ॥१६॥" एषां 'संयोजना' इति द्वितीयमपि नाम । संयोजयन्ति यन्नरमनतसंख्यैर्भवैः कषायास्ते । संयोजनताऽनन्तानुबन्धिता वाऽप्यतस्तेषाम् ॥ १७॥ नाल्पमप्युल्लसेदेषां, प्रत्याख्यानमिहोदयात् । अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो, द्वितीयेषु निवेशिता ॥१८॥ सर्वसावद्यविरतिः, प्रत्याख्यानमिहोदितम् । तदावरणतः संज्ञा, सा तृतीयेषु योजिता ॥ १९॥ संज्वलयन्ति यतिं यत्संविग्नं सर्वपापविरतमपि । तस्मासंज्वलना इत्यप्रशमकरा निरुच्यन्ते ॥२०॥ अन्यत्राप्युक्तं-"शब्दादीन् विषयान् प्राप्य, संज्वलन्ति यतो मुहुः । ततः संज्वलनाहानं, चतुर्थानामिहोच्यते ॥२१॥" स्युः प्रत्येकं चतुर्भेदा, भेदाः संज्वलनादयः । एवं षोडशधैकैकश्चतुःषष्टिविधा इति ॥२२॥ यथा कदाचिच्छिष्टोऽपि, क्रोधायोति दुष्टताम् । एवं संज्वलनोऽप्येति, काप्यनन्तानुबन्धिताम् ॥२३॥ एवं सर्वेष्वपि भाव्यं । तत एवोपपद्येतानन्तानुबन्धिभाविनी । कृष्णादेवुर्गतिनं ,क्षीणानन्तानुबन्धिनः ॥२४॥ एवं च-वर्षावस्थायिमानस्य, श्रीबाहुबलिनो मुनेः। कैवल्यहेतुश्चारित्रं,ज्ञेयं संज्वलनो
१ यावज्जीवादिः कालो नरकादिका गतिश्चानन्तानुबन्ध्यादोनां फरुसवयणेणेत्यादिवब्यवहारात्, तेन न बाहुबलिनो मानेऽन्येषां चाकर्षादौ मिथ्यात्विना अवयकोत्पादे च क्षतिरिति देवेन्द्रसूरिपादाः ।
Jain Educ
a
tional
For Private Personal Use Only
O
ww.jainelibrary.org
SI
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ३४ ॥
Jain Education
चितम् ॥ २५ ॥ कर्मग्रन्थकारैश्च सदृष्टान्ता एवमेते जगदिरे - जलरेणुपुढविपचय राईसरिसो चउधिहो कोहो । तिणिसलयाकट्ट द्विय से लत्थं भोवमो माणो ||२६|| मायावलेहिगोमुत्तिमिंढर्सिंगघणवं सिमूलसमा । लोहो हलिद्द खंजणकद्दमकिमरागसारित्थो ||२७|| तथा प्रज्ञापनायां प्रज्ञप्ताः खान्योभयप्रतिष्ठिताः । अप्रतिष्ठितकाश्चैवं, चत्वारोऽपि चतुर्विधाः॥ २८॥ तथाहि - खदुश्चेष्टिततः कश्चित् प्रत्यपायमवेक्ष्य यत् । कुर्यादात्मोपरि क्रोधं, स एष स्वप्रतिष्ठितः ।। २९ । उदीरयेद्यदा क्रोधं, परः संतर्जनादिभिः । तदा तद्विषयः क्रोधो, भवेदन्यप्रतिष्ठितः ॥ ३० ॥ एतच नैगमनयदर्शनं चिन्त्यतां यतः । स तद्विषयतामात्रात्, मन्यते तत्प्रतिष्ठितम् ॥३१ ॥ यश्चात्मपरयोस्तादृगपराधकृतो भवेत् । क्रोधः परस्मिन् स्वस्मिंश्च स स्यादुभयसंश्रितः ॥ ३२ ॥ विना पराक्रोशनादि, विना च खकुचेष्टितम् । निरालम्बन एव स्यात्, केवलं क्रोधमोहतः ॥ ३३ ॥ स चाप्रतिष्ठितः क्रोधो, दृश्यतेऽयं च कस्यचित् । क्रोधमोहोदयात्क्रोधः, कर्हिचित्कारणं विना ॥ ३४ ॥ अत एवोक्तं पूर्वमहर्षिभिः - सापेक्षाणि च निरपेक्षाणि च कर्माणि फलविपाकेषु । सोपक्रमं च निरुपक्रमं च दृष्टं यथाऽऽयुष्कम् ॥ ३५ ॥ इत्याद्यर्थतः प्रज्ञा० तृ० पदे । एव मन्येऽपि त्रयः कषाया भाव्या इति । चतुर्भिः कारणैरेते, प्रायः प्रादुर्भवन्ति च । क्षेत्रं वास्तु शरीरं च प्रती| त्योपधिमङ्गिनाम् ॥३६॥ सर्वस्तोका निष्कषाया, मानिनोऽनन्तकास्ततः । क्रुद्धमायाविलुब्धाश्च, स्युर्विशेषाधिकाः क्रमात् ||३७|| एकेन्द्रियाणां चत्वारोऽप्यनाभोगाद्भवन्त्यमी । अदर्शितवहिर्देहविकारा अस्फुटात्मकाः ||३८|| सर्वदा सहचारित्वात् कषायाऽव्यभिचारिणः । नोकषाया नव प्रोक्ता, नवनीयक्रमाम्बुजैः ॥ ३९ ॥ तदुक्तं प्रज्ञापना
कषायाः२०
१५
२०
॥ ३४ ॥ २५
Jainelibrary.org
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृत्तौ-"कषायसहवर्तित्वात् , कषायप्रेरणादपि । हास्यादिनवकस्योक्ता, नोकषायकषायता ॥४०॥ हासो रत्यरति तिर्जुगुप्सा शोक एव च । पुंस्त्रीक्लीवाभिधा वेदाः,नोकषाया अमी मताः॥४१॥ इति कषायाः २०॥संज्ञा स्याद् ज्ञानरूपैका, द्वितीयाऽनुभवात्मिका। तत्राद्या पञ्चधा ज्ञानमन्या च स्यात्वरूपतः॥४२॥ असातवेदनीयादिकर्मोदयसमुद्भवा । आहारादिपरीणामभेदात्सा च चतुर्विधा ॥४३॥ तथाहु:-"चत्तारि सण्णाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-आहारसण्णा, भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा इति स्थानाङ्गे। आहारे योऽभिलाषः स्याजन्तोः क्षुबेदनीयतः। आहारसंज्ञासा ज्ञेया,शेषाः स्युर्मोहनीयजाः॥४४॥ भयसंज्ञा भयं त्रासरूपं यदनुभूयते । मैथुनेच्छात्मिका वेदोदयजा मैथुनाभिधा॥४॥स्यात्परिग्रहसंज्ञा च, लोभोदयसमुद्भवा । अनाभोगाऽव्यक्तरूपा, एता-1 श्चैकेन्द्रियाङ्गिनाम् ॥४६॥ भगवतीसप्तमशतकाष्टमोद्देशके तु-आहारभयपरिग्गहमेहुण तह कोह माण माया य।। लोभोलोगो ओहो,सन्ना दस सवजीवाणं॥४७॥एताश्च वृक्षोपलक्षणेन सर्वैकेन्द्रियाणां साक्षादेवं दर्शिता, तद्यथारुक्खाण जलाहारो, संकोअणिआ भएण संकुयइ । निअतंतुएहिं वेढइ, वल्ली रुक्खे परिगहेण ॥४८॥ इत्थिपरिरंभणेणं,कुरुबगतरुणो फलंति मेहुणे (पणे)।तह कोकनदस्स कंदे, हुंकारे मुअइ कोहेणं॥४९॥माणे झरइ रुअंती, छायद वल्ली फलाई मायाए । लोभे बिल्लपलासा,खिवंति मूले निहाणुवरि ॥५०॥ रयणीए संकोओ, कमलाणं होइ लोगसन्नाए । ओहे चइत्तु मग्गं, चडंति रुक्खेसु वल्लीओ॥५१॥ अन्यैरपि वृक्षाणां मैथुनसंज्ञाऽभिधीयते, तथोक्तं शृंगारतिलके-सुभग ! कुरुबकस्त्वं नो किमालिङ्गनोत्कः,किमु मुखमदिरेच्छुः केसरो नो हृदिस्थः । त्वयि
JainEducatane
For Private
Personal Use Only
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक.द्रव्य. ३ सगे
॥३५॥
नियतमशोके युज्यते पादघातः,प्रियमितिपरिहासात्पेशलं काचिदूचे॥५२॥तथा पारदोऽपि स्फारशृङ्गारया स्त्रिया-18 संज्ञाः २१ ऽवलोकित: कूपादुल्ललतीति लोके श्रूयते इति॥स्तोकामैथुनसंज्ञोपयुक्ता नैरयिकाः क्रमात् । संख्येयना जग्धिपरि-181 ग्रहनासोपयुक्तकाः॥५३॥स्युः परिग्रहसंज्ञाख्यास्तिर्यञ्चोऽल्पास्ततः मात्।ते मैथुनभयाहारसंज्ञाःसंख्यगुणा. धिकाः॥५४॥ भयसंज्ञान्विताः स्तोका, मनुष्याः स्युर्यथाक्रमम् । संख्येयन्ना भुक्तिपरिग्रहमैथुनसंज्ञकाः ॥५५॥ आहारसंज्ञा स्युः स्तोका,देवाः संख्यगुणाधिकाः।संत्रासमैथुनपरिग्रहसंज्ञा यथाक्रमम् ॥५६॥प्रवचनसारोद्धारवृ-शी त्तौतु एवं लिखितं, तथा मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमात् शब्दार्थगोचरा सामान्यावबोधक्रिया ओघसंज्ञा, तद्विशेषावबोधक्रिया लोकसंज्ञा, एवं चेदमापतितं-दर्शनोपयोग ओघसंज्ञा, ज्ञानोपयोगो लोकसंज्ञा, एष स्थाना-18 इटीकाभिप्रायः, आचाराङ्गटीकायां पुनरभिहितं-ओघसंज्ञा तु अव्यक्तोपयोगरूपा वल्लीवितानारोहणादिसंज्ञा, लोकसंज्ञा खच्छन्दघटितविकल्परूपा लोकोपचरिता, यथा-न सन्त्यनपत्यस्य लोकाः, श्वानो यक्षा, विप्रा देवाः, काकाः पितामहाः, बर्हिणां पक्षवातेन गर्भ इत्यादिका इति । आचाराने तु-मोहधर्मसुखदुःखजुगुप्साशोकनामभिःदश ताः षडिरेताभिः, सह षोडश वर्णिताः॥५७॥अथवा त्रिविधाः संज्ञाः, प्रथमा दीर्घकालिक || २५ द्वितीया हेतुवादाख्या, दृष्टिवादाभिधा परा ॥५८॥ सुदीर्घमप्यतीतार्थ, स्मरत्यथ विचिन्तयेत् । कथं नु नाम |2||॥ ३५ ॥
१ आहार० । २ संज्ञिनः प्र०। ३ स्पर्शाद्यव्यक्तज्ञानापेक्षया स्यातामेते सर्वेषां । ४ संज्ञाषोडशकापेक्षयोक्तत्वात् न सर्वेषां सद्भावोऽनयोः ।
secticewereceicestoectacle
Jain EducationLODonal
For Private
Personel Use Only
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्त्तव्यमित्यागामिनमाचया ॥ ५९॥ तथा विचिन्त्येष्टानिष्टच्छायातपादिवस्तुषु । द्वितीयया खसौख्यार्थं स्यात्प्रवृत्तिनिवृत्तिमान् ॥ ६० ॥ भवेत्सम्यग्दृशामेव, दृष्टिवादोपदेशिकी । एतामपेक्ष्य सर्वेऽपि, मिथ्यादृशो ह्यसंज्ञिनः ॥ ६१ ॥ सुरनारकगर्भोत्थजीवानां दीर्घकालिकी । संमूर्तिमान्तद्वयक्षादिजी वानां हेतुवादिकी ॥ ६२ ॥ छद्मस्थसम्यग्दृष्टीनां श्रुतज्ञानात्मिकाऽन्तिमा । मतिव्यापार निर्मुक्ताः, संज्ञातीता जिना: समे ॥ ६३ ॥ इति संज्ञा ॥ २१ ॥ इदुः स्यात्परमैश्वर्ये, धातोरस्य प्रयोगतः । इन्दनात्परमैश्वर्यादिन्द्र आत्माऽभिधीयते ॥ ६४ ॥ तस्य लिङ्गं तेन सृष्टमितीन्द्रियमुदीर्यते । श्रोत्रादि पञ्चधा तच्च तथाह्युवाच भाष्यकृत् ॥ ६५ ॥ इन्दो जीवो सवोवलद्धिभोगपरमेसरतणओ । सोत्ताइ भेयमिंदियमिहू तल्लिंगाहभावाओ ॥ ६६ ॥ श्रोत्राक्षिघाणरसनस्पर्शनानीति पञ्चधा । तान्येकैकं द्विभेदं तद्, द्रव्यभावविभेदतः ॥ ६७ ॥ तत्र निर्वृत्तिरूपं स्यात्तथोपकरणात्मकम् । द्रव्येन्द्रियमिति द्वेधा, तत्र निर्वृत्तिराकृतिः ॥ ६८ ॥ साऽपि बाह्यान्तरङ्गा च, बाह्या तु स्फुटमीक्ष्यते । प्रतिजाति पृथग्रूपा, श्रोत्रपर्पटिकादिका ॥ ६९ ॥ नानात्वान्नोपदेष्टुं सा, शक्या नियतरूपतः । नानाकृतीनीन्द्रियाणि यतो वाजिनरादिषु ॥७०॥ अभ्यन्तरा तु निर्वृत्तिः, समाना सर्वजातिषु । उक्तं संस्थान नैयत्यमेनामेवाधिकृत्य च ॥ ७१ ॥ तथाहिश्रोत्रं कदम्बपुष्पाभमांसैकगोलकात्मकम्। मसूरधान्यतुल्या स्याच्चक्षुषोऽन्तर्गताकृतिः॥७२॥ अतिमुक्तकपुष्पाभं, १ दृष्टिर्दर्शनं - सम्यक्त्वादि वदनं वादः दृष्टीनां वादो दृष्टिवादस्तदुपदेशेन तदपेक्षयेत्यर्थः, संज्ञा सम्यग्ज्ञानं तदस्यास्तीति संज्ञी सम्यग्दृष्टिस्तस्य यत् श्रुतं तत्सम्यग्दृष्टिश्रुतं सम्यक् श्रुतमिति भावार्थ : ( इति मलयगिरिपादाः ) । २ सर्वे ।
Jain Educational
१०
१२
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः ॥ ३६ ॥ ४
घ्राणं च काहलाकृति । जिह्वा क्षुरप्राकारा स्यात्, स्पर्शनं विविधाकृति ॥७३॥ स्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तौ बाह्याभ्यन्त|रयोर्न भित् । तथैव प्रतिपत्तव्यमुक्तत्वात्पूर्वसूरिभिः ॥ ७४ ॥ बाह्यनिर्वृत्तीन्द्रियस्य, खगेनोपमितस्य या । धारोपमान्तर्निर्वृत्तिरत्यच्छपुद्गलात्मिका ॥ ७५ ॥ तस्याः शक्तिविशेषो यः खीयखीयार्थबोधकः । उक्तं तदेवोपकरणेन्द्रियं तीर्थपार्थिवैः ॥ ७६ ॥ युग्मं । तदुक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ - उपकरणं - खड्ग स्थानीयाया बाह्यनिर्वृत्तेर्या खड्गधारासमाना स्वच्छतरपुद्गलसमूहात्मिका अभ्यन्तरा निर्वृत्तिस्तस्याः शक्तिविशेष इति । आचारांगवृत्तौ तु निर्वर्त्यत इति निर्वृत्तिः, केन निर्वर्त्यते ?, कर्मणाः तत्रोत्सेधाङ्गुला संख्येय भागप्रमितानां शुद्धानामात्मप्रदेशानां प्रतिनियतचक्षुरादीन्द्रिय संस्थानेनावस्थितानां या वृत्तिरभ्यन्तरा निर्वृत्तिस्तेष्वेवात्मप्रदेशेष्विन्द्रियव्यपदेशभाग यः प्रतिनियत संस्थानो निर्माणनाम्ना पुद्गलविपाकिना वर्द्धकी संस्थानी येनारचितः कर्णशष्कुल्यादिविशेषः, अङ्गोपाङ्गनाम्ना तु निष्पादित इति बाह्यनिर्वृत्तिः, तस्या एव निर्वृत्तेर्द्विरूपाया येनोपकारः क्रियते तदुपकरणं, तचेन्द्रिय कार्य, सत्यामपि निर्वृत्तावनुपहतायामपि मसूराद्याकृतिरूपायां निर्वृत्तौ तस्योपघातान्न पश्यति, तदपि निर्वृत्तिवद् द्विधेति । एवं च प्रज्ञापनावृत्त्यभिप्रायेण खच्छतरपुद्गलात्मिका अभ्यन्तर निर्वृत्तिः, प्रथमाङ्गवृत्त्यभिप्रायेण तु
१ अङ्गुलासंख्यभागमानत्वेन सर्वत्वग्गत्वेन च भेदस्या लक्ष्यत्वमिति । २ खड्गधारयोरिवाभेदापत्तिरभ्यन्तर बहिर्निर्वृत्योरेवं न च द्वैविध्यमुपकरणस्य । ३ रचितुमारब्धः । ४ समापितः ।
Jain Education national
इन्द्रियाणि
२२
१५
२०
२३
॥ ३६ ॥
jainelibrary.org
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धात्मप्रदेशरूपा अभ्यन्तरनिर्वृत्तिरिति ध्येयं । इदमान्तरनिर्वृत्ते-नतूपकरणेन्द्रियम् । अर्थान्तरं शक्तिशक्तिमतो दात्कथञ्चन ॥ ७७॥ कथञ्चिद्भेदश्व-तस्यामान्तरनिवृत्ती, सत्यामपि पराहते । द्रव्यादिनोपकरणेन्द्रियेऽर्थाज्ञानदर्शनात् ।। ७८॥ इति द्रव्येन्द्रियं । द्विधा भावेन्द्रियमपि, लब्धितश्चोपयोगतः । यथाश्रुतमथो वच्मि, खरूपमुभयोरपि ॥ ७९ ॥ जन्तोः श्रोत्रादिविषयस्तत्तदावरणस्य यः । स्यात्क्षयोपशमो लब्धिरूपं भावेन्द्रियं हि तत् ॥ ८० ॥ स्वस्खलब्ध्यनुसारेण, विषयेषु य आत्मनः । व्यापार उपयोगाख्यं, भवेद्भावेन्द्रियं । च तत् ॥ ८१॥ उपयोगेन्द्रियं चैकमेकदा नाधिकं भवेत् । एकदा झुपयोगः स्यादेक एव यदङ्गिनाम् ॥८२॥ तथाहि-इन्द्रियेणेह येनैव, मनः संयुज्यतेऽङ्गिनः । तदेवैकं खविषयग्रहणाय प्रवर्तते ॥ ८३॥ सशब्दां सुरभि मृवीं, खादतो दीर्घशष्कुलीम् । पञ्चानामुपयोगानां, योगपद्यस्य यो भ्रमः॥८४॥ स चेन्द्रियेषु सर्वेषु, मनसः शीघ्रयोगतः। संभवेद्युगपत्पत्रशतवेधाभिमानवत् ॥ ८५॥ युग्मम् । अन्यथा तूपयोगी द्वी, युगपनाहेतोऽपि चेत् । छद्मस्थानां पञ्च तर्हि, संभवेयुः कथं सह?॥८६॥ तदुक्तं प्रथमावृत्ती-आत्मा सहेति| मनसा मन इन्द्रियेण, स्वार्थेन चेन्द्रियमिति क्रम एष शीघ्रः। योगोऽयमेव मनसः किमगम्यमस्ति, यस्मि
निर्वृत्तिरङ्गोपाङ्गनामनिर्वर्णितानीन्द्रियद्वाराणि कर्मविशेषसंस्कृताः शरीरप्रदेशा:-निर्माणनामाङ्गोपाङ्गप्रत्यया मूलगुणनिवर्त्तनेत्यर्थः । उपकरणं बाह्यमभ्यन्तरं च निर्वर्तितस्यानुपघातानुग्रहाभ्यामुपकारीति (तत्त्वार्थभाष्यं अ०२- सू०१७) । २ कर्मनिर्वर्तितत्वाभिधाना|चिन्त्यमिदं, शरीरावयवात्मप्रदेशानामभेदापेक्षया स्यात्समीचीनता । ३ स विन्द्रियेषु प्र०।।
202929202929092023296O7990
JainEducation
For Private
Personal Use Only
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य.
'३ सगे:
न्मनो ब्रजति तत्र गतोऽयमात्मा ॥८७॥ किंच-एकाक्षादिव्यवहारो, भवेद द्रव्येन्द्रियैः किल । अन्यथा
इन्द्रियाधिबकुलः पञ्चाक्षः स्यात्पञ्चोयोगतः॥८७॥ यदुक्तं-"पश्चिंदिओ उ बउलो, नरोव सबोवलद्धिभावाओ। तहवि
कार: २२ न भण्णइ पश्चिंदिओत्ति दविंदियाऽभावा ॥८८॥" रणन्नूपुरशृङ्गारचारुलोलेक्षणामुखात् । निर्यत्सुगन्धिमदिरागण्डूषादेष पुष्प्यति ॥ ८९॥ ततः पश्चाप्युपयोगा भाव्या इति । अङ्गुलासंख्येयभागबाहल्यानि जिनेश्वराः। ऊचुः पश्चापीन्द्रियाणि, बाहल्यं स्थूलता किल ॥९०॥ नन्वङ्गलासंख्यभागबहले स्पर्शनेन्द्रिये । खगादिघाते देहान्तर्वेदनानुभवः कथम् ? ॥९१ ॥ अत्रोच्यते-त्वगिन्द्रियस्य विषयः, स्पर्शाः शीतादयो। यथा । चक्षुषो रूपमेवं तु, विषयो नास्य वेदना ॥ ९२ ॥ दुःखानुभवरूपा सा, तां त्वात्माऽनुभवत्ययम् । सकलेनापि देहेन, ज्वरादिवेदनामिव ॥ ९३ ॥ अथ शीतलपानीयपानेऽन्तर्वेद्यते कथम् ? । शीतस्पर्शोऽन्तरा कौत-1 स्कृतं स्यात्स्पर्शनेन्द्रियम् ? ॥ ९४ ॥ अत्रोच्यते-सर्वत्राङ्गप्रदेशान्तर्वति त्वगिन्द्रियं किल। भवेदेवेति मन्तव्यं, पूर्वर्षिसंप्रदायतः॥९५॥ यदाह प्रज्ञापनामूलटीकाकार:-"सर्वप्रदेशपर्यन्तवर्तित्वात्ततोऽभ्यन्तरतोऽपि शुषि-13 रस्योपरि त्वगिन्द्रियस्य भावादुपपद्यतेऽन्तरेऽपि शीतस्पर्शवेदनानुभव” इति । ततोऽन्तरेऽपि शुषिरपर्यन्तेऽस्ति || | त्वगिन्द्रियम् । अतः संवेद्यते शैल्यं, कर्णादिशुषिरेष्विव ॥ ९६॥ पृथुत्वमङ्गलासंख्यभागोऽतीन्द्रियवेदिभिः ।। १ तत्तज्जातिनाम्नेति देवेन्द्रसूर्याद्याः, छिन्ननासान्धादीनां तेन न काचित्क्षतिः । २ भवितव्यमत्र अन्तशब्देन । ३ उदरादिषु, गर्भा
सी . ॥३७॥ शयादौ तु न।
२३
Jain Educati
onal
For Private & Personel Use Only
dainelibrary.org
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्रयाणामपि निर्दिष्टः, श्रवणघ्राणचक्षुषाम् ॥९७॥ अङ्गुलानां पृथक्त्वं च, पृथुत्वं रसनेन्द्रिये । खखदेहप्रमाणं च, भवति स्पर्शनेन्द्रियम् ॥९८॥ त्वगिन्द्रियं विनाऽन्येषां, चतुर्णा पृथुता भवेत् । आत्माङ्गुलेन सोत्सेधामुलेन स्पर्शनस्य तु ॥ ९९॥ ननूत्सेधाङ्गुलेनैव, मितो देहो भवेत्ततः। मातुं तेनैव युज्यन्ते, तद्गतानीन्द्रिया|ण्यपि ॥ ५००॥ आत्माङ्गुलेन चत्वार्यात्सेधिकेनैकमिन्द्रियम् । तानीत्थं मीयमानानि, कथमौचित्यमियूति ॥१॥ अत्रोच्यते-जिहादीनां पृथुलत्वे, औत्सेधेनोररीकृते । त्रिगव्यूतनरादीनां, न स्याद्विषयवेदिता ॥२॥ तथाहि-त्रिगव्यूतादिमनुजाः, षड्गव्यूतादिकुञ्जराः । खखदेहानुसारात्स्युर्विस्तीर्णरसनेन्द्रियाः ॥ ३ ॥ तेषामान्तरनिवृत्तिरूपं चेद्रसनेन्द्रियम् । उत्सेधाङ्गुलपृथक्त्वमितं स्यादल्पकं हि तत् ॥ ४॥न व्याप्नयात्सर्वजिह्वां, ततोऽतिविदितोऽनया । सर्वात्मना रसज्ञानव्यवहारो न सिद्ध्यति ॥५॥ गन्धादिव्यवहारोऽपि, भावनीयो दिशाऽनया। तत आत्माङ्गुलेनैव, पृथुत्वं रसनादिषु ॥६॥ जघन्यतोऽक्षिवर्जाण्यङ्गुलासंख्येयभागतः। गृह्णन्ति विषयं चक्षुस्त्वङ्गुलसङ्ख्यभागतः ॥७॥ अयं भावः-प्राप्यार्थावच्छेदकत्वात्, श्रवणादीनि जानते। | अङ्गुलासङ्ख्येयभागादपि शब्दादिमागतम् ॥ ८॥ चतुर्णामत एवैषां, व्यञ्जनावग्रहो भवेत् । दृष्टान्तान्नव्यमत्पात्रशयितोद्वोधनात्मकात् ॥९॥ यथा शरावकं नव्यं, नैवैकेनोदबिन्दुना । क्लिद्यते किंतु भूयोभिः, पतद्भि-16 स्तैर्निरन्तरम् ॥१०॥ एवं सुप्तोऽपि नैकेन, शब्देन प्रतिबुध्यते । किंतु तैः पञ्चषैः कर्णे, शब्दद्रव्य ते सति | १ रसनेन्द्रियं । २ प्रसिद्धः । ३ गृहते प्र०। ४ व्यञ्जनावग्रहस्य प्राणापानपृथक्त्वमानत्वात् उत्कर्षतः चिन्त्यमिदम् ।
नया । सर्वात्मना रसा
||६॥ जघन्यताविणादीनि जान
SadSODOASAJASO200000202000
Inn Ed
m
ational
For Private Personel Use Only
Jwww.jaine crary.org
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ॥११॥ एवं व्यञ्जनावग्रहभावना नन्दीसूत्रे । चक्षुस्त्वप्राप्यकारित्वादङ्गुलसङ्ख्यभागतः । अर्थ जघन्याद् ३ सर्गः गृह्णाति, ततोऽप्यक्तिरं नतु ॥ १२ ॥ तत एवातिपार्श्वस्थं, नैवाञ्जनमलादिकम् । चक्षुः परिच्छिनत्तीति,
इन्द्रियाधि
कार: २२ ॥३८॥
प्रतीतं सर्वदेहिनाम् ॥ १३ ॥ तथा-श्रुतिर्द्वादशयोजन्याः, शृणोति शब्दमागतम् । रूपं पश्यति चक्षुः साधिकयोजनलक्षतः॥ १४ ॥ आगतं नवयोजन्याः, शेषाणि त्रीणि गृह्णते । गन्धं रसमथ स्पर्शमुत्कृष्टो विषयो। ह्ययम् ॥ १५॥ ननु च प्राप्यकारीणि, श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि चेत् । परतोऽप्यागतान् शब्दादीन् गृह्णन्ति कथं
न तत् ?॥१६॥ द्वादशयोजनादियों, नियमः सोऽपि निष्फलः । गृह्णाति प्राप्तसंबन्धं, सर्वमित्येव यौक्तिकम् । IST॥१७॥ अत्रोच्यते-शब्दादीनां पुद्गला ये, परतः स्युः समागताः। तथा मन्दपरीणामास्ते जायन्ते खभावतः
॥१८॥ यथा खविषयं ज्ञानं, नोत्पादयितुमीशते । खभावान्नास्ति शक्तिश्चेन्द्रियाणामपि तद्ग्रहे ॥ १९ ॥ ततो विषयनियमो, युक्तोऽयं दर्शितः श्रुते । प्राप्यकारित्वे चतुर्णामिन्द्रियाणां स्थितेऽपि हि ॥२०॥ किंचनास्ति शक्तिश्चक्षुषोऽपि, विषयात्परतः स्थितम् । परिच्छेत्तुं द्रव्यजातं, युक्तस्तस्याप्यसौ ततः॥२१॥ जिह्वाघ्राणस्पर्शनानि, त्रीण्यप्येतानि गृह्णते । बद्धस्पृष्टं द्रव्यजातं, स्पृष्टमेव परं श्रुतिः ॥२२॥ यदुक्तं-"पुढे सुणेइ सइं, रूवं पुण पासई अपुढे तु । गन्धं रसं च फासंच, बहपुढे वियागरे ॥२३॥" बद्धं तत्रात्मप्रदेशैरात्मीकृतमिहो
IN २५ च्यते । स्पृष्टमालिडितमात्र, ज्ञेयं वपुषि रेणुवत् ॥ २४ ॥ “बद्धमप्पीकयं पएसेहि, पुढे रणुं व तणुंमि" इतिवच
॥३८॥ १ संबन्धे प्र० । २ विषयनियमः ।
2029202020129298202920000000000
Jnin Educa
t ional
For Private
Personal Use Only
IO
jainelibrary.org
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
नात् ॥ समेऽपि प्राप्यकारित्वे, चतुर्णामपि नन्वयम् । को विशेषः स्पृष्टबद्धस्पृष्टार्थग्रहणात्मकः ॥२५॥ अत्रोच्यते-स्पर्शगन्धरसद्रव्यौघानां शब्दव्यपेक्षया । अल्पत्वाद्वादरत्वाचाभावुकत्वाच सत्वरम् ॥ २६ ॥ स्पर्शनघ्राणजिह्वानां, मन्दशक्तितयाऽपि च । बद्धस्पृष्टं वस्तुजातं, गृह्णन्त्येतानि निश्चितम् ॥ २७॥ स्पर्शादिद्रव्यसंघातापेक्षया शब्दसंहतिः । बह्वी सूक्ष्माऽऽसन्नशब्दयोग्यद्रव्याभिवासिका ॥ २८॥ तन्निवृत्तीन्द्रियस्यान्तर्गत्वोपकरणेन्द्रियम् । स्पृष्ट्वाऽपि सद्यः कुरुतेऽभिव्यक्तिं सा खगोचराम् ॥ २९॥ अन्येन्द्रियापेक्षया च, श्रवणं पटुशक्तिकम् । ततः स्पृष्टानेव शब्दान्, गृह्णातीत्युचितं जगुः ॥ ३० ॥ स्पृष्टार्थग्राहकत्वं यत, परैरक्ष्णोऽपि कथ्यते । तदयुक्तं तथात्वे हि, दाहः स्यादन्ह्यवेक्षणात् ॥ ३१॥ तथा-काचपात्राद्यन्तरस्थं, दूरादेवेक्ष्यते जलम् । तद्भित्त्वान्तःप्रवेशे तु, जलश्रावः प्रसज्यते ॥ ३२॥ इत्याधिकं रत्नाकरावतारिकादिभ्योऽवसेयं, विस्तरभयान्नेह प्रतन्यते, यच्च सिद्धांते 'चक्खुप्फासं हवमागच्छई' इति श्रूयते, तत्र स्पर्शशब्देन इन्द्रियार्थसन्निकर्ष उच्यते, तथाहु:-'सूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छई' इत्येतज्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिप्रतीकवृत्ती-"अत्र च स्पर्शशब्द इन्द्रियार्थसन्निकर्षपरश्चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वेन तदसंभवा"दिति । मेया आत्माङ्गुलैरव, प्रागुक्तेन्द्रियगोचराः । प्रमाणाङ्गुलमाने स्युर्महीयांसोऽधुना हि ते ॥ ३३ ॥ उत्सेधाङ्गुलमाने तु, कथं भरतचक्रिणः।
१ शब्दसंहतिः । २ श्रुतेर्यत्प्राप्यकारित्वे, बौद्धोक्तं स्पर्शदूषणम् । चण्डालशब्दश्रवणादिष्वयौक्तिकमेव तत् ॥ १॥ स्पृश्यास्पृश्यविचारो हि, स्याल्लोकव्यवहारतः । नेन्द्रियाणां च विषयेष्वसौ कस्यापि संमतः ॥ २॥ प्र० । ३ योग्यदेशावस्थितिः यतो ग्रहणम् ।
992292020908820320030308
Jain Educa
t
ional
N
ainelibrary.org
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
1138 11
पुर्यादौ खाङ्गुलमितनबद्वादशयोजने ॥ ३४ ॥ एकत्र वादिता भम्भा, सर्वत्र श्रूयते जनैः । तस्मादात्माङ्गुलोन्मेया, विषया इति युक्तिमत् ॥ ३५॥ युग्मम् । आह - प्रमाणाङ्गुलजाने कलक्षयोजन सम्मिते । खर्विमाने कथं घण्टा, सर्वत्र श्रूयते सुरैः १ ॥ ३६ ॥ त्रैधैरप्यङ्गुलैर्नैष, विषयो घटते श्रुतेः । द्वितीयोपाङ्गटीकायामस्योत्तरमवेक्ष्यतां ॥ ३७ ॥ तथाहि - तस्यां मेघौघर सितगम्भीरमधुरशब्दायां योजनपरिमण्डलायां सुखराभिधानायां घण्टायां त्रिस्ताडितायां सत्यां यत्सूर्याभं विमानं तत्प्रासादनिष्कुटेषु ये आपतिताः शब्दवर्गणापुद्गलास्तेभ्यः समुच्छलितानि यानि घण्टाप्रतिश्रुतिशतसहस्राणि-घण्टा प्रतिशब्दलक्षास्तैः संकुलमपि जातमभूत्, किमुक्तं भवति ?घण्टायां महता प्रयत्नेन ताडितायां ये विनिर्गताः शब्दपुद्गलास्तत्प्रतिघाततः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च दिव्यानुभावतः समुच्छ लितैः प्रतिशब्दैः सकलमपि विमानमनेकयोजनलक्षमानमपि बधिरितमुपजायते इति एतेन द्वादशभ्यो योजनेभ्यः समागतः शब्दः श्रोत्रग्राह्यो भवति, न परतः, ततः कथमेकत्र ताडितायां घण्टायां सर्वत्र तच्छन्दश्रुतिरुपजायते इति यदुच्यते तदपाकृतमवसेयं, सर्वत्र दिव्यानुभावतस्तथारूपप्रतिशब्दोच्छलने यथोक्तदोषासंभवात् । अपरं च - इगवीसं खलु लक्खा, चडतीसं चेव तह सहस्साईं । तह पंच सया भणिया, सत्तत्तीसा य अइरित्ता ॥ १ ॥ २१३४५३७ ॥ इति नयणविसयमाणं, पुक्खरदीवडवासिम आणं । पुत्रेण य अवरेण य, पिहं पिहं होइ नायवं ॥ ३८ ॥ एवं च स प्रागुक्तोऽक्षिविषयो, न विसंवदते कथम् ? | अत्रैतत्सूत्रतात्पर्य, व्याचचक्षे बुधैरिदम् ॥ ३९ ॥ लक्षयोजनमानो हविषयः परमस्तु यः । अभाखरं पर्व -
Jain Education national
इन्द्रियाधि
कारः २२
१५
२०
॥ ३९ ॥ २५
ainelibrary.org
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
तादि, वस्त्वपेक्ष्य स निश्चितः॥४०॥ स्याद्भाखरं तु सूर्यादि, वस्त्वपेक्ष्याधिकोऽपि सः। व्याख्यानतो विशेपार्थप्रतिपत्तिरियं किल ॥४१॥ इदं विशेषावश्यकेऽर्थतः ॥ अनन्ताणूद्भवान्यतानीन्द्रियाण्यखिलान्यपि । असङ्ख्येयप्रदेशावगाढानि निखिलानि च ॥४२॥ स्तोकावगाहा दृक श्रोत्रघ्राणे सङ्ख्यगुणे क्रमात् । ततोऽसयगुणा जिह्वा, सङ्ख्यन्नं स्पर्शनं ततः॥४३॥ स्तोकप्रदेशं नयनं, श्रोत्रं सङ्ख्यगुणाधिकम् । ततोऽसंख्यगुणं घ्राणं, जिह्वाऽसङ्ख्यगुणा ततः॥४४॥ ततोऽप्यसयगुणितप्रदेशं स्पर्शनेन्द्रियम् । इत्यल्पबहुतैषां स्यादवगाहप्रदेशयोः॥४५॥ तुर्योपाङ्गे तु-श्रोत्राक्षिनासिकं द्वे द्वे, जिकैका स्पर्शनं तथा । एवं द्रव्येन्द्रियाण्यष्टौ, भावेन्द्रियाणि पंच तु॥४६॥ सर्वेषां सर्वजातित्वे, द्रव्यतो भावतोऽपि च ।अतीतानीन्द्रियाणि स्युरनन्तान्येव देहिनाम् ॥४७॥ विनाऽनादिनिगोदेभ्यो, ज्ञेयमेतत्तु कोविदैः। खजातावेव तेषां तु, तान्यतीतान्यनन्तशः॥४८॥ किंच-येषामनन्तः कालोऽभून्निर्गतानां निगोदतः । तेषामपेक्षया ज्ञेयमेतत् श्रुतविशारदैः॥४९॥ एवमन्यत्रापि यथासम्भवं भाव्यं ॥ एकादीनि सन्ति पञ्चान्तानि भावेन्द्रियाणि च । एकद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियाणां स्युर्यथाक्रमम् ॥५०॥ भावीनि नैव केषाञ्चिद्वर्तन्ते मुक्तियायिनाम् । केषाञ्चित्पञ्च षट् सप्त, सङ्ख्यासङ्ख्यान्यनन्तशः ॥५१॥ सिध्यतां भाविनि भवे, नरनारकनाकिनाम् । पञ्चाक्षतिर्यक्पृथ्व्यम्बुद्रूणां पञ्च जघन्यतः ॥५२॥ पृथ्व्यादिजन्मान्तरितमुक्तीनां तु मनीषिभिः। षट्सप्तप्रमुखाण्येवं, भाव्यानि प्रोक्तदेहिनाम् ॥५३॥ १ तद० प्र० । २ च प्र० । ३ लब्धीन्द्रियापेक्षया । ४ गोदिभ्यो प्र० ।
HAMपच तू ॥४६॥ सर्वेषानासिकं दे द्वे, शिनन्द्रियम् । इत्यल्पयततोऽसं
Jain Educa
t
iona
S
ww.jainelibrary.org
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
इन्द्रियाधिकार: २२
॥४०॥
सङ्ख्येयानि च तानि स्युः, सङ्ख्यातभवकारिणाम् । असङ्ख्येयान्यनन्तान्यसङ्ख्येयानन्तजन्मनाम् ॥५४॥ रिष्ठामघामाघवतीनारकाणां च युग्मिनाम् । नृणां तिरश्चां भावीनि, दश तानि जघन्यतः ॥५५॥ पञ्चाक्षेभ्योऽन्यत्र नैषामुत्पत्ति प्यनन्तरे । भवे मुक्तिस्तत एषां, दशोक्तानि जघन्यतः ॥५६॥ वाय्वग्निविकलाक्षाणां, जघन्यतो भवन्ति षट् । क्ष्मादिजन्मान्तरितैषां, मुक्तिर्नानन्तरं यतः ॥ ५७॥ एकद्वित्रिचतुष्पश्चेन्द्रियाणां स्युरनुक्रमात् । द्रव्येंद्रियाणि सन्त्येकं, द्वे चत्वारि षडष्ट च ॥५८॥ भविष्यन्ति न केषाञ्चित्केषाश्चिदष्ट वा नव । दश षोडश केषाश्चित्सङ्ख्यासङ्ख्यान्यनन्तशः ॥ ५९॥ भावना प्राग्वत् ॥ नारकस्य नारकत्वे, भावतो द्रव्यतोऽपि च । तान्यतीतान्यनन्तानि, सन्ति पश्चाष्ट च स्फुटम् ॥६०॥ भविष्यन्ति न केषाञ्चित्केषाञ्चित्पञ्च चाष्ट च । ज्ञेयानि तान्येकवारं, नरकं यास्यतोऽगिनः॥१॥ सङ्ख्येयान्येतानि सङ्ख्यवारं नरकयायिनः । असङ्ख्येयान्यप्यनन्तान्येवं भाव्यानि धीधनैः ॥ ६२ ॥ अतिक्रान्तान्यनन्तानि, सुरत्वे नारकस्य च। वर्तमानानि नैव स्युर्भावीनि पुनरुक्तवत् ।। ६३॥ विजयादिविमानित्वे, यदि स्यु रकाङ्गिनाम् । नातीतानि भविष्यन्ति, पश्चाष्ट दश षोडश ॥ ६४ ॥ एवं सर्वगतित्वेन, सर्वेषामपि देहिनाम् । भावनीयान्यतीतानि, सन्ति भावीनि च स्वयम् ॥६५॥ नृत्वे नृणामतीतान्यनन्तान्यष्ट च पञ्च च । सन्ति तद्भवमुक्तीनां, तानि भावीनि नैव च ॥६६॥ अन्येषां तु मनुष्यत्वे, भावीनि पञ्च चाष्ट च । जघन्यतोऽपि स्युर्मुक्तिर्यन्न मानुष्यमन्तरा ॥ ६७॥ अनुत्तरामराणां च, स्वत्वे सन्त्यष्ट पञ्च च । यदि स्युर्भूतभावीनि, तावन्त्येव तदा खलु ॥१८॥
Jain Education
anal
For Private & Personel Use Only
rainelibrary.org
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
विजयादिविमानेषु, द्विरुत्पन्नो ह्यनन्तरे । भवे विमुक्तिमानोति, ततो युक्तं यथोदितम् ॥ ६९॥ अन्यजातित्वे त्वनन्तान्यतीतान्यथ सन्ति न । भावी नि संख्यान्येवैषां, नृत्ववैमानिकत्वयोः॥७॥ तथोक्तं प्रज्ञापनावृत्ती"इह विजयादिषु चतुएं गतो जीवो नियमात्तत उद्धृतो न जातुचिदपि नैरयिकादिषु पञ्चेन्द्रियतिर्यकपर्यवसानेषु तथा व्यन्तरेषु ज्योतिष्केषु च मध्ये समागमिष्यति, मनुष्येषु सौधर्मादिषु वा गमिष्यतीति । सर्वार्थसिद्धदेवत्वे, सर्वार्थसिद्धनाकिनाम् । न स्युर्भूतभविष्यन्ति, सन्ति पश्चाष्ट च स्फुटम् ॥ ७१ ॥ तेषामन्यगतित्वे चातीतानि स्युरनन्तशः। नैव सन्ति भविष्यन्ति, नृगतावष्ट पञ्च च ॥ ७२ ॥ संज्ञिपश्चेन्द्रियाणां यत्, स्मृत्यादिज्ञानसाधनम् । मनोनोइन्द्रियं तच, द्विविधं द्रव्यभावतः॥७३ ॥ तत्र च-मन:पर्याप्स्यभिधाननामकर्मोदयादिह । मनोयोग्यवर्गणानामादाय दलिकान्यलम् ॥ ७४ ॥ मनस्त्वेनापादितानि, जन्तुना द्रव्यमानसम् । जिनैरूचे तथा चाह, नन्द्यध्ययनचूर्णिकृत् ॥ ७५ ॥ "मणपज्जत्तिनामकम्मोदयतो जोग्गे मणोदवे घेत्तुं मणत्तेण परिणामिया दवा दवमणो भन्नई" इति। मनोद्रव्यावलम्बन, मन:परिणतिस्तु या । जन्तोभावमनस्तत्स्यात्तथोक्तं पूर्वसूरिभिः ॥७६॥ "जीवो पुण मणपरिणामकिरियावंतो भावमणो, किं भणियं होइ ?, मणदवालंबणो जीवस्स मणणवावारो भावमणो भन्नई” इति नन्द्यध्ययनचूर्णी । अत एव च-द्रव्यचित्तं विना भावचित्तं न स्यादसंज्ञिवत् । विनापि भावचित्तं तु, द्रव्यतो जिनवद्भवेत् ॥ ७७ ॥ तथोक्तं१ शतके तूत्कृष्टबन्धान्तरदर्शनप्रसङ्गे विजयाइसु इति जलहिसयं इति च गाथावृत्तौ अधिका भवाः, तिरिनिरयेतिवृत्तौ बन्धश्चान्यगतीनां
Jain Educati
o
nal
For Private & Personel Use Only
Sijainelibrary.org
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
॥४१॥
१५
"भावमनो विनापि च द्रव्यमनो भवति, यथा भवस्थकेवलिनः,” इति प्रज्ञापनावृत्तौ ॥ स्तोका मनस्विनोऽसङ्ख्य-संजाधिकागुणाः श्रोत्रान्वितास्ततः । चक्षुर्घाणरसज्ञाख्याः, स्युः क्रमेणाधिकाधिकाः ॥ ७८ ॥ अनिन्द्रियाश्च निर्दिष्टा, | २:२३ एभ्योऽनन्तगुणाधिकाः । स्पर्शनेन्द्रियवन्तस्तु, तेभ्योऽनन्तगुणाधिकाः ॥ ७९ ॥ लोकैश्च-चक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनत्वमनोवाक्पाणिपायूपस्थलक्षणान्येकादशेन्द्रियाणि सुश्रुतादौ उक्तानि, नाममालायामपि 'बुद्धीन्द्रियं स्पर्शनादि, पाण्यादि तु क्रियेन्द्रियं' इत्यभिहितं, ॥ इतीन्द्रियाणि २२॥ संज्ञा येषां सन्ति ते स्युः, संज्ञिनोऽन्ये त्वसंज्ञिनः । संज्ञिनस्ते च पञ्चाक्षा, मनःपर्याप्तिशालिनः॥ ७९ ॥ ननु संमूर्छिमपञ्चाक्षान्तेष्वेकेन्द्रियादिषु ।। आहाराद्याः सन्ति संज्ञास्ततस्ते किं न संज्ञिनः ॥ ८॥ अत्रोच्यते-ओघरूपा दशाप्यतास्तीव्रमोहोदयेन च । अशोभना अव्यक्ताश्च, तन्नाभिः संज्ञिता मता ॥ ८१॥ निद्राव्याप्तोऽसुमान् कण्डूयनादि कुरुते यथा । मोहाच्छादितचैतन्यास्तथाऽऽहाराद्यमी अपि ॥ ८२ ॥ ततश्च-संज्ञासंबन्धमात्रेण, न संज्ञित्वमुरीकृतम् । नो-1 केनैव निष्केण, धनवानुच्यते जनः॥८३ ॥ अतादृग्रूपयुक्तोऽपि, रूपवान्नाभिधीयते । धनी किंतु बहुद्रव्य, रूपवान् रम्यरूपतः॥ ८४॥ महत्या व्यक्तया कर्मक्षयोपशमजातया । संज्ञया शस्तयैवाङ्गी, लभते संज्ञितां तथा ॥ ८५॥ इदमर्थतो विशेषावश्यके ॥ ततश्च-येषामाहारादिसंज्ञा, व्यक्तचैतन्यलक्षणाः । कर्मक्षयोपश- २५ मजाः, संज्ञिनस्तेऽपरेऽन्यथा ॥८६॥ दीर्घकालिक्यादिका वा, संज्ञा येषां भवन्ति ते । संज्ञिनः स्युर्यथायो- ॥४१॥ १ सामान्यरूपाः । २ संप्रधारणसंज्ञापेक्षयैव ।
M
ainelibrary.org
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
गमसंज्ञिनस्तदुज्झिताः ॥ ८७ ॥ इति संज्ञितादि २३॥ वेदस्त्रिधा स्यात्पुंवेदः, स्त्रीवेदश्च तथा परः । क्लीववेदश्च | तेषां स्युलक्षणानि यथाक्रमम् ॥ ८८ ॥ पुंसां यतो योषिदिच्छा, स पुंवेदोऽभिधीयते । पुरुषेच्छा यतः स्त्रीणां, स स्त्रीवेद इति स्मृतः॥८९॥ यतो द्वयाभिलाषः स्यात्, क्लीयवेदः स उच्यते । तृणफुम्फुमकद्रङ्गज्वलनोपमिता इमे॥१०॥ पुरुषादिलक्षणानि चैवं प्रज्ञापनावृत्तौ स्थानांगवृत्तौ च-“योनिर्मुदुत्वमस्थैर्य, मुग्धता क्लीयता स्तनौ । पुंस्कामितेति लिङ्गानि, सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ॥ ९१॥ मेहनं खरता दाय, शौण्डीर्य श्मश्रु धृष्टता। स्त्रीकामितेति लिङ्गानि, सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥९२॥ स्तनादि श्मश्रुकेशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधाः। प्राहर्मोहानलसुदीपितम् ॥ ९३ ॥ अभिलाषात्मकं देहाकारात्मकमथापरम् । नेपथ्यात्मकमेकैकमिति लिई त्रिधा विदुः॥ ९४ ॥ पुमांसोऽल्पाः स्त्रियः संख्यगुणाः क्रमादनन्तकाः । अवेदाः क्लीववेदाश्च,सवेदा अधिकास्ततः॥९५॥ (पुंस्त्वसंज्ञित्वयोः कायस्थितिरान्तमुहर्तिकी। लध्वी गुर्वी चाब्धिशतपृथक्त्वं किश्चनाधिकम् ॥१॥ स्त्रीत्वकायस्थितिः प्रज्ञापनायां समयो लघुः । उक्ताऽथास्यां गरीयस्यामादेशाः पञ्च दर्शिताः ॥२॥ चतुर्द-1 शाष्टादश वा, शतं वाथ दशोत्तरम् । पूर्ण शतं वा पल्यानि, पल्यानां वा पृथक्त्वकम् ॥ ३॥ पूर्वकोटिपृथक्त्वाख्याः, पश्चाप्येते विकल्पकाः । पञ्चसंग्रहवृत्त्यादेर्शेयैतेषां च विस्तृतिः॥४॥ आये द्वितीये स्वर्गे द्विः, पूर्वकोव्यायुषः स्त्रियाः। सभर्तृकान्यदेवीत्वेनोत्पत्त्यैषांच भावना ॥५॥) इति वेदः॥२४॥ जिनोक्कादविपर्यस्ता, सम्यग्दृष्टिर्निगद्यते । सम्यक्त्वशालिनां सा स्यात्तचैवं जायतेऽङ्गिनाम् ॥ ९६ ॥ चतुर्गतिकसंसारे, पर्यटन्ति
JainEducaVIE
For Private
Personel Use Only
w.jainelibrary.org
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
वेदाधिकार २४ दृष्ट्यधिकारा२५
॥४२॥
शरीरिणः । वशीकृता विपाकेन, गुरुस्थितिककर्मणाम् ॥९७॥ अथैतेष कश्चिदगी, कर्माणि निखिलान्यपि कुर्याद्यथाप्रवृत्ताख्यकरणेन स्वभावतः॥९८॥ पल्यासंख्यलवोनैककोट्यब्धिस्थितिकानि वै। परिणामविशेषोऽत्र, करणं प्राणिनां मतम् ॥ १९॥ युग्मम् । तत्रिधा तत्र चाद्यं स्याद्यथाप्रवृत्तनामकम् । अपूर्वकरणं नामानिवृत्तिकरणं तथा ॥६००॥ वक्ष्यमाणग्रन्थिदेशावधि प्रथममीरितम् । द्वितीयं विद्यमानेऽस्मिन् , भिन्ने ग्रंथौ तृतीयकम् ॥१॥त्रीण्यप्यमूनि भव्यानां, करणानि यथोचितम् । संभवन्त्येकमवाद्यमभव्यानां तु संभवेत् ॥ २॥ आद्येन करणेनागी, करोति कर्मलाघवम् । धान्यपल्यगिरिसरिददृषदादिनिदर्शनैः ॥३॥ यथा धान्यं भूरि भूरि, कश्चिद् गृह्णाति पल्यतः । क्षिपत्यत्राल्पमल्पं च, कालेन कियताऽप्यथ ॥ ४॥ धान्यपल्यः सोऽल्पधान्यशेष एवावतिष्ठते । एवं बहूनि कर्माणि, जरयन्नसुमानपि ॥५॥ बन्नंश्चाल्पाल्पानि तानि, कालेन कियताऽपि हि । स्यादल्पकर्माऽनाभोगात्मकाद्यकरणेन सः॥ ६॥ यथाप्रवृत्तकरणं, नन्वनाभोगरूपकम् । भवत्यनाभोगतश्च, कथं कर्मक्षयोऽङ्गिनाम् ॥ ७॥ अत्रोच्यते-यथा मिथो घर्षणेन, ग्रावाणोऽद्रिनदीगताः । स्युश्चित्राकृतयो ज्ञानशून्या अपि स्वभावतः॥८॥तथा यथाप्रवृत्तात्स्युरप्यनाभोगलक्षणात् । लघुस्थितिककर्माणो, जन्तवोऽत्रान्तरेऽथ च ॥९॥ रागद्वेषपरीणामरूपोऽस्ति ग्रन्थिरुत्कटः । दुर्भेदो दृढकाष्ठादिग्रन्धिवद्गाढचि- कणः ॥१०॥ मिथ्यात्वं नोकषायाश्च, कषायाश्चेति कीर्तितः। जिनैश्चतुर्दशविधोऽभ्यन्तरग्रन्थिरागमे ॥११॥ प्रागुक्तरूपस्थितिककर्माणः केऽपि देहिनः। यथाप्रवृत्तकरणाद्, ग्रन्थेरभ्यर्णमियूति ॥ १२॥ एतावच प्राप्तपूर्वा,
बाल्पमल्पं च सरिषदादिमियानां तु संभोवतीय
बाल्पाल्पानाभोगरूपका । युधि-
SSSOORDABADOS
२५
२५ ॥
॥४२॥
२८
Jain Education
GHARitional
For Private & Personel Use Only
Olainelibrary.org
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
aaor2020020201209002020
अभव्या अप्यनन्तशः । नत्वीशन्ते ग्रन्धिमेनमेते भेत्तुं कदापि हि ॥१३॥ श्रतसामायिकस्य स्याल्लाभः केषाश्चिदत्र च । शेषाणां सामायिकानां, लाभस्त्वेषां न संभवेत्॥१४॥ तथोक्तं-"तित्थंकराहपूअं, दणऽपणेण वावि कजेणं । सुअसामाइयलाभो, होइ अभवस्स गंठिमि" ॥ १५॥ अहंदादिबिभतिमतिशयवतीं दृष्ट्वा धमोदेवंविधः सत्कारो देवत्वराज्यादयो वा प्राप्यन्ते इत्येवमुत्पन्नबुद्धेरभव्यस्यापि ग्रन्धिस्थान प्राप्तस्य तद्विभूति|निमित्समिति शेषः, देवत्वनरेन्द्रत्वसौभाग्यबलादिलक्षणेनान्येन वा प्रयोजनेन सर्वथा निर्वाणश्रद्धानरहितस्याभव्यस्यापि कष्टानुष्ठानं किञ्चिदगीकुर्वतोऽज्ञानरूपस्य श्रुतसामायिकमात्रस्य लाभो भवेत, तस्याप्यकादशाङ्गपाठानुज्ञानादिति विशेषावश्यकसूत्रवृत्ती । भव्या अपि वलन्तेऽवागत्य रागादिभिर्जिताः । कचित्क
आणि बन्नन्ति, प्राग्वद्दीस्थितीनि ते॥१६॥ केचित्तत्रैव तिष्ठन्ति, तत्परीणामशालिनःन स्थितीः कर्मणा | मेते, बर्द्धयन्त्यल्पयन्ति वा ॥ १७॥ चतुर्गतिभवा भव्याः, संज्ञिपर्याप्तपञ्चखाः । अपार्द्धपुद्गलपरावत्तान्तमा विमुक्तयः॥१८॥ तीव्रधारपर्शकल्पाऽपूर्वाख्यकरणेन हि । आविष्कृत्य परं वीर्य, ग्रन्थि मिन्दान्त क ॥ १९॥ यथा जनालय केऽपि, महापुरं यियासवः। प्राप्ताः कचन कान्तारे, स्थानं चौरभयङ्कर ।। २० ॥ तत्र द्रुतं द्रुतं यान्तो, ददृशुस्तस्करद्वयम् । तद् दृष्ट्वा त्वरितं पश्चादेको भीतः पलायितः ॥२१॥ गृहीतश्चापरस्ताभ्यामन्यस्त्ववगणय्य तौ। भयस्थानमतिक्रम्य, पुरं प्राप पराक्रमी ॥ २२॥ दृष्टान्तोपनयश्चात्र, जन जीवा भवोटवी । पन्थाः कर्मस्थितिग्रन्थिदेशस्त्विह भयास्पदम् ॥२३॥ रागद्वेषौ तस्करों द्वा, त
000000000RSa909920
को.प्र.
Jain Educat
For Private
Personel Use Only
16ONainelibrary.org
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक.द्रव्य.
३ सगे:
॥४३॥
वलितस्तु सः । ग्रन्धि प्राप्यापि दुर्भावाद्, यो ज्येष्ठस्थितिबन्धकः ॥ २४ ॥ चौररुद्धस्तु स ज्ञेयस्ताहगरागादि- सम्यक्त्वोबाधितः । ग्रन्थि भिनत्ति यो नैव, न चापि वलते ततः ॥ २५॥ स त्वभीष्टपुरं प्राप्तो, योऽपूर्वकरणाद् ।
त्पाद: द्रुतम् । रागद्वेषावपाकृत्य, सम्यगदर्शनमाप्तवान् ॥२६॥ सम्यक्त्वमौपशमिकं, ग्रन्थि भित्त्वाऽश्नुतेऽसुमान् । महानन्दं भट इव, जितदुर्जयशात्रयः ॥ २७ ॥ तच्चैवं-अथानिवृत्तिकरणेनातिखच्छाशयात्मना । करोत्यन्तरकरणमन्तर्मुहूर्त्तसंमितम् ॥२८॥ कृते च तस्मिन्मिथ्यात्वमोहस्थितिबिधा भवेत् । तत्राद्यान्तरकरणादधस्तन्यपरोवंगा ॥ २९ ॥ तत्राद्यायां स्थितौ मिथ्यादृक् स तद्दलवेदनात् । अतीतायामथैतस्यां, स्थितावन्तर्मुहूर्त्ततः ॥ ३० ॥ प्रामोत्यन्तरकरणं, तस्याद्यक्षण एव सः । सम्यक्त्वमौपशमिकमपौगलिकमाप्नुयात् ॥ ३१॥ यथा वनवो दग्धेन्धनः प्राप्यातृणं स्थलम् । स्वयं विध्यायति तथा, मिथ्यात्वोग्रदवानलः ॥३२॥ अवाप्यान्तरकरणं, क्षिप्रं विध्यायति स्वयम् । तदोपशमिकं नाम, सम्यक्त्वं लभतेऽसुमान् ॥ ३३॥ अत्रायमौपशमिकसम्यक्त्वेन सहानुयात् । देशतो विरतिं सर्वविरतिं वाऽपि कश्चन ॥३४॥ तथोक्तं शतकचूर्णी"-उवसमसम्मद्दिट्टी अंतरकरणे ठिओ कोई देसविरइंपि लभइ, कोई पमत्तापमत्तभावंपि; सासायणो पुण किंपि न लभइत्ति" इति, अर्थतः कर्मप्रकृतिवृत्तावपि । किंच-बद्ध्यते त्यक्त- ॥४३॥ सम्यक्त्वैरुत्कृष्टा कर्मणां स्थितिः। भिन्नग्रन्थिभिरप्युग्रो, नानुभागस्तु तादृशः ॥१॥ इदं कार्मग्रन्थिकमतं । भवेद्भिन्नग्रन्थिकस्य, मिथ्यादृष्टेरपि स्फुटम् । सैद्धान्तिकमते ज्येष्ठः, स्थितिवन्धो न कर्मणाम् ॥२॥
52029202992929
M
Jain Education tomational
ainelibrary.org
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ प्रकृतम्-इदं चोपशमश्रेण्यामपि दर्शनसप्तके । उपशान्ते भवेच्छ्रेणिपर्यन्तावधि देहिनाम् ॥ ३४॥ तथा-यथौषधिविशेषेण, जनैर्मदनक्रोद्रवाः । त्रिधा क्रियन्ते शुद्धार्धविशुद्धाशुद्धभेदतः ॥ ३५॥ तथाऽनेनौपशमिकसम्यक्त्वेन पटीयसा । विशोध्य क्रियते त्रेधा, मिथ्यात्वमोहनीयकम् ॥ ३६॥ तत्राशुद्धस्य पुञ्जस्योदये मिथ्यात्ववान् भवेत् । पुञ्जस्याधविशुद्धस्योदये भवति मिश्रहम् ॥ ३७॥ उदये शुद्धपुञ्जस्य, क्षायोपशमिकं भवेत् । मिथ्यात्वस्योदितस्यान्तादन्यस्योपशमाच तत् ॥ ३८॥ आरब्धक्षपकणेः, प्रक्षीणे सप्तके भवेत् । क्षायिकं तद्भवसिद्धेस्त्रिचतुर्जन्मनोऽथवा ॥ ३९॥ तत्त्वार्थभाष्ये चैतेषां खरूपमेवमुक्तम्क्षयादि त्रिविधं सम्यग्दर्शनं, तदावरणीयस्य कर्मणो दर्शनमोहस्य च क्षयादिभ्य इति, अस्य वृत्तिः-मत्याद्यावरणीयदर्शनमोहसप्तकक्षयादुपजातं क्षयसम्यग्दर्शनमभिधीयते, तेषामेवोपशमाज्जातमुपशमसम्यग्दर्शनमुच्यते, तेषामेव क्षयोपशमाभ्यां जातं क्षयोपशमसम्यग्दर्शनमभिदधति प्रवचनाभिज्ञा इति तत्वार्थप्रथमाध्याये । ननु च-तत्त्वश्रद्धानजनक, क्षायोपशमिकं यदि । सम्यक्त्वस्य क्षायिकस्य, कथमावारकं तदा ॥४०॥ यदि मिथ्यात्वजातीयतया तदपवारकम् । तदात्मधर्मः श्रद्धानं, कथमस्मात्प्रवर्तते? ॥४१॥ अत्रोच्यतेयथा श्लक्ष्णाभ्रकान्तःस्था, दीपादेयोतते द्युतिः । तस्मिन् दूरीकृते सर्वात्मना संजृम्भतेऽधिकम् ॥४२॥ यथा वा मलिनं वस्त्रं , भवत्यावारकं मणे । निर्णिणज्योज्ज्वलिते तस्मिन् , भाति काचन तत्प्रभा ॥४३॥ मूलादू दूरीकृते चास्मिन, सा स्फुटा स्यात्वरूपतः । मिथ्यात्वपुद्गलेष्वेवं, रसापवर्तनादिभिः ॥४४॥
B002020/29/200909200002002020rae
Join Educe
mational
For Private & Personel Use Only
Oww.jainelibrary.org
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ४४ ॥
Jain Educatio
क्षायोपशमिकत्वं द्राक, प्राप्तेषु प्रकटीभवेत् । आत्मधर्मात्मकं तत्वश्रद्धानं किञ्चिदस्फुटम् ॥ ४५ ॥ क्षायोपशमिके क्षीणे, स्फुटं सर्वात्मना भवेत् । आत्मस्वरूपं सम्यक्त्वं तच्च क्षायिकमुच्यते ॥ ४६ ॥ एवं चतत्त्वश्रद्धानजनकसम्यक्त्वपुद्गलक्षये । कथं श्रद्धा भवेत्तत्त्वे, शषाऽपि निराकृता ॥ ४७ ॥ तथाहु र्भाष्यकारा:सो तस्स विसुद्धयरो, जायइ सम्मत्तपोग्गलक्खयओ । दिट्टिव सण्हसुद्धभपडलविंगमे मणूसस्स ॥ ४८ ॥ इदं कर्मग्रन्थमतं, सिद्धान्तस्य मते पुनः । अपूर्वकरणेनैव, मिथात्वं कुरुते त्रिधा ॥ ४९ ॥ सम्यक्त्वावारकर सं, | क्षपयित्वा विशोधिताः । मिथ्यात्वपुद्गलास्ते स्युः, सम्यक्त्वमुपचारतः ॥ ५० ॥ अर्धशुद्धा अशुद्धाश्च, मिश्रमि थ्यात्वसंज्ञकाः । एवं कोद्रवदृष्टान्तात्, त्रिषु पुत्रेषु सत्स्वपि ॥ ५१ ॥ यदाऽनिवृत्तिकरणात्, सम्यक्त्वमेव गच्छति । मिश्रमिध्यात्वपुञ्ज तु, तदा जीवो न गच्छति ॥ ५२ ॥ पुनः पतितसम्यक्त्वो, यदा सम्यक्त्वम्श्रुते । तदाप्यपूर्वकरणेनैव पुञ्जत्रयं सृजन् ॥ ५३ ॥ करणेनानिवृत्त्याख्येनैव प्राप्नोति पूर्ववत् । नन्वत्रापूर्वकरणे, प्रालब्धेऽन्वर्थता कथम् ? ॥ ५४ ॥ अत्रोच्यते - अपूर्ववदपूर्वं स्यात्, स्तोकवारोपलम्भतः । अपूर्वत्वव्यपदेशो भवेल्लोकेऽपि दुर्लभे ।। ५५ ।। इदमर्थतो विशेषावश्यकवृत्तौ । सम्यग्दृष्टिव्यपदेशनिबन्धनमितीतम् । सम्यक्त्वं त्रिविधं शुद्धश्रद्धारूपं मनीषिभिः ॥५६॥ यदिवैकद्वित्रिचतुःपञ्चभेदं भवेदिदम् । जिनोक्ततत्त्वश्रद्धानरूपमेकविधं भवेत् ॥ ५७ ॥ द्विधा नैसर्गिकं चौपदेशिकं चेतिभेदतः । भवेन्नैश्चयिकं व्यावहारिकं | चेति वा द्विधा ॥ ५८ ॥ द्रव्यतो भावतश्चेति, द्विधा वा परिकीर्त्तितम् । तत्र नैसर्गिकं स्वाभाविकमन्यद्
tional
सम्यक्त्वोत्पादः
१५
२०
२५
॥ ४४ ॥
२८
jainelibrary.org
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
HIगुरोगिरा ॥ ५९॥ यथा पथश्च्युतः कश्चिदुपदेशं विना भ्रमन् । मार्ग प्राप्नोति कश्चितु, मार्गविज्ञोपदेशतः
॥६०॥ यथा वा कोद्रवाः केचित्, स्युः कालपरिपाकतः । खयं निर्मदनाः केचिद्गोमयादिप्रयत्नतः ॥६१।। कश्चिज्ज्वरो यथा दोषपरिपाका व्रजेत्खयम् । कश्चित्पुनर्भेषजादिप्रयत्नेनोपशाम्यति ॥१२॥ स्वभावादथवोपायाद्यथा शुद्धं भवेत्पयः। यथोज्ज्वलं स्याद्वखं वा, खभावाद्यनतोऽपि च ॥६३॥ सम्यक्त्वमेवं केषाश्चि-४ दगिनां स्यान्निसर्गतः। गुरूणामुपदेशेन, केषाश्चित्तु भवेदिदम् ॥३४॥ नैश्चयिक सम्यक्त्वं ज्ञानादिमयात्मशु- ५
परिणामः । स्थायावहारिकं तद्धेतुसमुत्थं च सम्यक्त्वम् ॥६६॥ आर्या । जिनवचनं तत्त्वमितिश्रद्दधतोऽकलयतश्च परमार्थम् । तद्रव्यतो भवेद्भावतस्तु परमार्थविज्ञस्य ॥ ६६ ॥ आर्या । क्षायोपशमिकमुत पौद्गलिकतया । द्रव्यतस्तदुपदिष्टम् । आत्मपरिणामरूपे च भावतः क्षायिकोपशमिके ते ॥३७॥ गीतिः॥कारकरोचकदीपकभेदादेतत्रिधाऽथवा त्रिविधम् । ख्यातं क्षायोपशमिकमुपशम क्षायिकं चेति ॥ ६८॥ आर्या । जिनप्रणीता-19 चारस्य, करणे कारकं भवेत् । रुचिमात्रकरं तस्य, रोचकं परिकीर्तितम् ॥ ६९॥ स्वयं मिथ्यादृष्टिरपि, परस्य देशनादिभिः। यः सम्यक्त्वं दीपयति, सम्यक्त्वं तस्य दीपकम् ॥ ७० ॥क्षायोपशमिकादीनां, खरूपं तूदित पुरा । साखादनयुते तस्मिंस्त्रये तत्स्थाचतुर्विधम् ॥७९॥ बेदकेनान्विते तस्मिंश्चतुष्के पञ्चधाऽपि तत्। सास्वादन च स्थादीपशमिक वमतोऽङ्गिनः॥७२॥ त्रयाणामुक्तपुञ्जाना, मध्ये प्रक्षीणयोईयोः। शुद्धस्य पुञ्जस्यान्त्याणुवेदने । वेदकं भवेत् ॥ ७३ ॥ षट्षष्टिः साधिकाऽब्धीनां, क्षायोपशमिकस्थितिः। उत्कृष्टा सा जघन्या चान्तर्मुहूर्त-18 १४
COceceeeeeeeeeeeeeee
Jain Education A
nal
Aljainelibrary.org
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ४५ ॥
Jain Educatio
lal!
मिता मता ॥ ७४ ॥ ज्येष्ठाऽन्या चौपशमिकस्थितिरान्तर्मुहूतिकी । क्षायिकस्य स्थितिः सादिरनन्ता वस्तुतः स्मृता ॥ ७५ ॥ साधिकाः स्युर्भवस्थत्वे, सा त्रयस्त्रिंशदब्धयः । उत्कर्षतो जघन्या च सा स्यादान्तर्मुहूर्तिकी ॥ ७६ ॥ साखादनस्यावल्यः षट्, ज्येष्ठा लघ्वी क्षणात्मिका । एकः क्षणो वेदकस्योत्कर्षाज्जघन्यतोऽपि च ॥ ७७ ॥ उत्कर्षादोपशमिकं, साखादनं च पञ्चशः । वेदकं क्षायिकं चैकवारं जीवस्य संभवेत् ॥ ७८ ॥ वारान् भवत्यसंख्येयान्, क्षायोपशमिकं पुनः । अथैतेषां गुणस्थाननियमः प्रतिपाद्यते ॥ ७९ ॥ साखादनं स्यात्सम्यक्त्वं, गुणस्थाने द्वितीयके । तुर्यादिषु चतुर्व्वेषु, क्षायोपशमिकं भवेत् ॥८०॥ अष्टासु तुर्यादिवोपशमिकं परिकीर्त्तितम् । तुर्यादिष्वेकादशसु, सम्यक्त्वं क्षायिकं भवेत् ॥ ८१ ॥ तुर्यादिषु चतुर्वेषु, वेदकं कीर्त्तितं जिनैः । गुणस्थानप्रकरणाद्विशेषः शेष उद्यताम् ॥ ८२ ॥ सम्यक्त्वं लभते जीवो, यावत्यां कर्मणां स्थितौ । क्षपितायां ततः पल्यपृथक्त्वप्रमितस्थितौ ॥ ८३ ॥ लभेत देशविरतिं, क्षपितेषु ततोऽपि च । संख्येयेषु सागरेषु, चारित्रं लभतेऽसुमान् ॥ ८४॥ एवं चोपशमश्रेणिं, क्षपकश्रेणिमप्यथ । क्रमात्संख्येयपाथोधिस्थितिह्रासादवाप्नुयात् ॥ ८५ ॥ एतानभ्रष्टसम्यक्त्वोऽन्यान्यदेवनृजन्मसु । लभेतान्यतरश्रेणिवर्जान् कोऽप्येकजन्मनि | ॥ ८६ ॥ श्रेणिद्वयं चैकभवे सिद्धान्ताभिप्रायेण न स्यादेव, आहुश्च सम्मत्तमि उ लद्धे, पलिअपुहुत्तेण सावओ हुम्ला । चरणोवसमखयाणं, सागरसंखंतरा हुंति ॥ १ ॥ एवं अप्परिवडिए, सम्मन्ते देवमणुअजन्मे । अन्नयरसेढिवजं, एगभवेणं च सवाई ॥ ८७ ॥ इति महाभाष्यसूत्रवृत्त्यादिषु । सम्यक्त्वं च श्रुतं चेति, देशतः
सम्यक्त्वभेदाः
१५
२०
२५
॥ ४५ ॥
२८
jainelibrary.org
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वतोऽपि च । विरती इति निर्दिष्टं, सामायिकचतुष्टयम् ॥ १ ॥ चारित्रस्याष्ट समयान्, प्रतिपत्तिर्निरन्तरम् । शेषत्रयस्य चावल्यसंख्येयांशमितान् क्षणान् ॥ २ ॥ उत्कर्षेण प्रतिपत्तिकाल एष निरन्तरः । जघन्यतो द्वौ समयौ, चतुर्णामपि कीर्त्तितः ॥ ३ ॥ द्वादशपञ्चदशाहोरात्रास्तृतीयतुर्ययोः । आथयोः सप्त विरहो, ज्येष्ठोऽन्यश्च क्षणत्रयम् ॥ ४ ॥ सम्यक्त्वं देशविरतिं चाप्नोत्युत्कर्षतोऽसुमान् । क्षेत्रपल्योपमासंख्य भागक्षणमितान् भवान् ॥ ५ ॥ चारित्रं च भवानष्टौ श्रुतसामायिकं पुनः । भवाननन्तान् सर्वाणि, भवमेकं जघन्यतः ॥६॥ आकर्षाणां खलु शतपृथक्त्वं सर्वसंवरे । स्यात्सहस्रपृथक्त्वं च, त्रयाणामेकजन्मनि ||७|| नानाभवेषु चाकर्षा, | असंख्येयाः सहस्रकाः । आद्यत्रये तुरीये च स्यात्सहस्रपृथक्त्वकम् ॥ ८ ॥ यत्रयाणां प्रतिभवं, स्युः सहस्रपृथतवकम् | असंख्येया भवाश्चेति, युक्तास्तेऽमी यथोदिताः ॥९॥ चारित्रे यत्प्रतिभवं तेषां शतपृथक्त्वकम् । भवाश्चाष्टौ ततो युक्तं, तत्सहस्रपृथक्त्वकम् ॥१०॥ आकर्षः प्रथमतया ग्रहणं मुक्तस्य वा ग्रहणमिति, इदमर्थत आवश्यक सूत्रवृत्त्यादिषु । मिथ्यादृष्टिर्विपर्यस्ता, जिनोक्ताद्वस्तुतत्त्वतः । सा स्यान्मिथ्यात्विनां तच्च, मिथ्यात्वं पञ्चधा मतम् ॥ ८८ ॥ आभिग्रहिकमाद्यं स्यादनाभिग्रहिकं परम् । तृतीयं किल मिथ्यात्वमुक्तमाभिनिवेशिकम् ॥ ८९ ॥ तुर्यं सांशयिकाख्यं स्यादनाभोगिकमन्तिमम् । अभिग्रहेण निर्वृत्तं, तत्राभिग्रहिकं स्मृतम् ॥ ९० ॥ नानाकुदर्शनेष्वेकमस्मात्प्राणी कुदर्शनम् । इदमेव शुभं नान्यदित्येवं प्रतिपद्यते ॥ ९१ ॥ मन्यतेऽऽङ्गी दर्शनानि, यद्वशादखिलान्यपि । शुभानि माध्यस्थ्यहेतुरनाभिग्रहिकं हि तत् ॥ ९२ ॥
Jain Educat emational
५
१०
१४
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ४६ ॥
Jain Educat
यतो गोष्ठामाहिलादिवदात्मीयकुदर्शने । भवत्यभिनिवेश स्तत्प्रोक्तमाभिनिवेशिकम् ॥ ९३ ॥ यतो जिनप्रणीतेषु, देशतः सर्वतोऽपि वा । पदार्थेषु संशयः स्यात्तत्सांशयिक मीरितम् ॥ ९४ ॥ अनाभोगेन निर्वृत्तमनाभोगिकसंज्ञकम् । यत्स्यादेकेन्द्रियादीनां मिथ्यात्वं पञ्चमं तु तत् ॥ ९५ ॥ यस्यां जिनोक्ततत्त्वेषु, न रागो नापि मत्सरः । सम्यग्मिथ्यात्वसंज्ञा सा, मिश्रदृष्टिः प्रकीर्त्तिता ॥ ९६ ॥ धान्येष्विव नरा नालिकेरद्वीपनिवासिनः । जिनोकेषु मिश्रदृशो न द्विष्टा नापि रागिणः ॥ ९७ ॥ यदाहुः कर्मग्रन्थकाराः-जिअ अजिअपुण्णपावासव संवरबंधमुक्खनिज्जरणा । जेणं सद्दह्इ तयं सम्मं खहगाइ बहुभेयं ॥ ९८ ॥ मीसा न रागदोसो, जिणधम्मे अंतमुहु जहा अन्ने । नालीअरदीवमणुणो, मिच्छं जिणधम्मविवरीयं ॥ ९९ ॥ गुणस्थानक्रमारोहे त्वेवमुक्तम् - " जात्यन्तरसमुद्भूतिर्वडवाखरयोर्यथा । गुडदनोः समायोगे, रसभेदान्तरं यथा ॥ १ ॥ तथा धर्मद्वये श्रद्धा, जायते समबुद्धितः । मिश्रोऽसौ जायते तस्माद्भावो जात्यन्तरात्मकः ॥ २ ॥ सम्यग्मिथ्यादृशः स्तोका स्तेभ्योऽनन्तगुणाधिकाः । सम्यग्दृशस्ततो मिथ्यादृशोऽनन्तगुणाधिकाः ॥७०० ॥ इति दृष्टिः २५ ॥ मतिश्रुतावधिमनः पर्यायाण्यथ केवलम् । ज्ञानानि पञ्च तत्राद्यमष्टाविंशतिधा स्मृतम् ॥ ७०१ ॥ तथाहिअवग्रहेहावायाख्या, धारणा चेति तीर्थपैः । मतिज्ञानस्य चत्वारो, मूलभेदाः प्रकीर्त्तिताः ॥ २ ॥ शब्दादीनां पदार्थानां प्रथमग्रहणं हि यत् । अवग्रहः स्यात्स द्वेधा, व्यञ्जनार्थविभेदतः ॥ ३ ॥ व्यज्यन्ते येन सद्भावा, दीपेनेव घटादयः । व्यञ्जनं ज्ञानजनकं, तचोपकरणेन्द्रियम् ॥ ४ ॥ शब्दादिभावमापन्नी, द्रव्यसंघात एव
national
चतुःसामायिकान्तरं मिथ्यात्व -
भेदाः मिश्रख.
१५
२०
२५
॥ ४६ ॥
२८
w.jainelibrary.org
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
वा । व्यज्यते यद् व्यञ्जनं तदितिव्युत्पत्त्यपेक्षया ॥५॥ ततश्च-व्यञ्जनैर्व्यञ्जनानां यः, संबन्धः प्रथमः स हि। व्यञ्जनावग्रहोऽस्पष्टतरावबोधलक्षणः॥६॥ अस्य च स्वरूपमेवं तत्त्वार्थवृत्तौ-यदोपकरणेन्द्रियस्य स्पर्शनादिपुद्गलैः। स्पर्शायाकारपरिणतः संबन्ध उपजातो भवति न च किमप्येतदिति गृह्णाति, किंवव्यक्तज्ञानोऽसौ सुप्तमत्तादिसूक्ष्मावबोधसहितपुरुषवदिति, तदा तैः स्पर्शाद्युपकरणेन्द्रियसंश्लिष्टैा चयावती च विज्ञानशक्तिराविरस्ति सैवंविधा ज्ञानशक्तिरवग्रहाख्या, तस्य स्पर्शनाद्युपकरणेन्द्रियसंश्लिष्टस्पर्शायाकारपरिणतपुद्गलराशेर्व्यञ्जनाख्यस्य ग्राहिकाऽवग्रह इति भण्यते, तेनैतदुक्तं भवति-स्पर्शनाद्युपकरणेन्द्रियसंश्लिष्टाः स्पर्शाद्याकारपरिणताः पुद्गला भण्यन्ते व्यञ्जनं, विशिष्टार्थावग्रहकारित्वात्, तस्य व्यञ्जनस्य परिच्छेदकोऽव्यक्तोऽवग्रहो भण्यते, अपरोऽपि तस्मान्मनाम् निश्चिततरः किमप्येतदित्येवंविधसामान्यपरिच्छेदोऽवग्रहो भण्यते, ततः परमीहादयः प्रवर्तन्ते इति ॥ रत्नाकरावतारिकायां चावग्रहलक्षणमेवमुक्तम्-विषयविषयिसन्निपातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनाजातमाद्यमवान्तरसामान्याकारविशिष्टवस्तुग्रहणमवग्रह इति । विषयः-सामान्य-| विशेषात्मकोऽर्थो विषयी-चक्षुरादिस्तयोः समीचीनो-भ्रान्त्याद्यजनकत्वेनानुकूलो निपातो-योग्यदेशाद्यवस्थानं तस्मादनन्तरं समुदभूतम्-उत्पन्नं यत्सत्तामात्रगोचरं-निःशेषविशेषवैमुख्येन सन्मात्रविषयं दर्शनंनिराकारो बोधस्तस्माजातम् आथं सत्त्वसामान्यावान्तरः सामान्याकारैः-मनुष्यत्वादिभिर्जातिविशेषैर्वि
।
Join Educat
For Private Personel Use Only
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः ॥ ४७ ॥
शिष्टस्य वस्तुनो यद् ग्रहणं - ज्ञानं तदवग्रह इति नाम्नाऽभिधीयत इति ॥ अत्र च प्राच्यमते दर्शनस्यावकाशं न पश्यामो, द्वितीयमते च व्यञ्जनावग्रहावकोशं न पश्यामः, तत्र तत्त्वं बहुश्रुतेभ्योऽवसेयं वक्ष्यमाणो वा महाभाष्याभिमतो व्यञ्जनावग्रहादीनां दर्शनस्य चाभेदोऽनुसरणीय इत्यलं प्रसङ्गेन । आवल्यसंख्येयभागो. व्यञ्जनावग्रहे भवेत् । कालमानं लघु ज्येष्ठमानं प्राणपृथक्त्वकम् ॥ ७ ॥ स चतुर्धा श्रोत्रजिह्वाघ्राणस्पर्शनिसंभवः । अप्राप्यकारिभावात्स्यान्न चक्षुर्मनसोरसौ ॥ ८ ॥ शब्दादेर्यः परिच्छेदो, मनाक् स्पष्टतरो भवेत् । किञ्चिदित्यात्मकः सोऽयमर्थावग्रह उच्यते ॥ ९ ॥ कालतोऽर्थावग्रहस्तु, स्यादेकसमयात्मकः । निश्चयाद्व्यवहाराचे, | स स्यादान्तर्मुहर्त्तिकः ॥ १० ॥ तस्यैवावगृहीतस्य, धर्मान्वेषणरूपिका । ईहा भवेत्कालमानमस्या अंतर्मुहर्त्तकम् ॥ ११॥ अथेहितस्य तस्येदमिदमेवेति निश्चयः । अवायो मानमस्यापि स्मृतमन्तर्मुहूर्त्तकम् ॥१२॥ निर्णीतार्थस्य मनसा, धरणं धारणा स्मृता । कालः संख्य उतासंख्यस्तस्या मानमवस्थितेः ॥ १३ ॥ बाल्ये दृष्टं स्मरत्येव, पर्यन्तेऽसंख्य जीवितः । ततः स्याद्धारणामानमसंख्यकालसम्मितम् ॥ १४ ॥ यथा हि सृज्यते पूर्व, श्रोत्रेण शब्दसंहतिः । ततश्च किञ्चिदश्रौषमित्यर्थावग्रहो भवेत् ॥ १५ ॥ ततः स्त्र्यादिशब्दनिष्ठं, माधुर्यादि विचिन्तयेत् । इयमीहा ततोऽवायो, निश्चयात्मा धृतिस्ततः ॥ १६ ॥ एवं गन्धरसस्पर्शेष्वपि भाव्या मनीषिभिः । घ्राणजिह्रास्पर्शनानां व्यञ्जनावग्रहादयः ॥ १७ ॥ व्यञ्जनावग्रहाभावाच्चक्षुर्मानसयोः पुनः । चत्वारोऽर्थाव१ न ह्यवर्णनमात्रादनवकाशो भवति, व्यञ्जनाख्यशक्तिमहादर्वागविशिष्टग्रहणे दर्शनता २ वैशिष्टयग्रहात्प्राक् व्यपदेशः। ३ तद्भवापेक्षया निर्णीतिः ।
व्यञ्जनावग्रहादि
स्वरूपं
१५
२०
२५ 1180 11
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Educa
ग्रहाद्या, धारणान्ता भवन्ति हि ॥ १८ ॥ यथा प्रथमतो वृक्षे, चक्षुर्गोचरमागते । किञ्चिदेतदिति ज्ञानं, स्यादवग्रहो ह्ययम् ॥ १९ ॥ ततस्तद्गतधर्माणां समीक्षेहा प्रजायते । निश्चयस्तरुरेवायमित्यवायस्ततो भवेत् ॥ २० ॥ ततस्तथा निश्चितस्य, धरणं धारणा भवेत् । भाव्यते मनसोऽप्येवमथार्थावग्रहादयः ॥ २१ ॥ यथा हि विस्मृतं वस्तु, पूर्व किञ्चिदिति स्मरेत् । ततश्च तद्गता धर्माः स्मर्यन्ते लीनचेतसा ॥ २२ ॥ ततश्च तत्तद्धर्माणां स्मरणात्तद्विनिश्चयः । ततः स्मृत्या निश्चितस्य, पुनस्तस्यैव धारणम् ॥ २३ ॥ अनिन्द्रियनिमित्तं च, मतिज्ञानमिदं भवेत् । अत एव त्रिधैतत्स्यादाद्यमिन्द्रियहेतुकम् ॥ २४ ॥ अनिन्द्रियसमुत्थं चेन्द्रियानिन्द्रियहेतुकम् । तत्राद्यमेकाक्षादीनां मनोविरहिणां हि यत् ॥ २५ ॥ केवलं हीन्द्रियनिमित्तकमेव भवेदिदम् । अभावान्मनसो नास्ति, व्यापारोऽत्र मनागपि ॥ २६ ॥ अनिन्द्रियनिमित्तं च, स्मृतिज्ञानं निरूपितम् । व्यापाराभावतोऽक्षाणां तदक्षनिरपेक्षकम् ॥ २७ ॥ अघज्ञानमविभक्तरूपं यदपि लक्ष्यते । वल्ल्यादीनां वृतिनीब्राद्यभिसर्पणलक्षणम् ॥ २८ ॥ तदप्यनिन्द्रियनिमित्तकमेव प्रकीर्त्यते । हेतुभावं भजन्तीह, नाक्षाणि न मनोऽपि यत् ॥ २९ ॥ मत्यज्ञानावरणीयक्षयोपशम एव हि । केवलं हेतुतामोघज्ञानेऽस्मिन्ननुते च यत् ॥ ३० ॥ यत्तु जाग्रदवस्थायामुपयुक्तस्य चेतसा । स्पर्शादिज्ञानमेतच्चेन्द्रियानिन्द्रियहेतुकम् ॥३१॥ इदमर्थतस्तत्त्वार्थवृत्तौ । अथ प्रकृतं - एवमर्थावग्रहेहा, अवायधारणा इह । स्युचतुर्विंशतिः षड्डि-र्हता इन्द्रियमानसैः ॥ ३२ ॥ व्यञ्जनावग्रहैः पूर्वोदितैश्चतुर्भिरन्विताः । स्युस्तेऽष्टाविंशतिर्भेदा, मतिज्ञानस्य निश्चिताः ॥ ३३ ॥ भगवतीवृत्तौ
mational
५
१०
१४
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
तु षोढा श्रोत्रादिभेदेनावायश्च धारणापि च । इत्येवं द्वादशविधं, मतिज्ञानमुदाहृतम् ॥ ३४ ॥ द्वादशेहावग्रहयोश्चत्वारो व्यञ्जनस्य च । उक्ता भेदाः षोडशैते, दर्शने चक्षुरादिके ॥ ३५ ॥ यदाह भाष्यकारः - "नाणमवायधिईओ, दंसणमिद्धं जहोग्गहेहाओ” । नन्वष्टाविंशतिविधं, मतिज्ञानं यदागमे । जेगीयते तन्न कथ ॥ ४८ ॥ मेवमुक्ते विरुध्यते ? ॥ ३६ ॥ अत्रोच्यते- मतिज्ञानचक्षुरादिदर्शनानां मिथो भिदम् । अविवक्षित्वैव मतिमष्टाविंशतिधा विदुः ॥ ३७ ॥ किंच- एकैकश्च प्रकारोऽयं, द्वादशधा विभिद्यते । ज्ञानस्यास्य ततो भेदाः स्युः षट्त्रिंशं शतत्रयम् ॥ ३८ ॥ तथोक्तं तत्त्वार्थ भाष्ये - एवमेतन्मतिज्ञानं द्विविधं चतुर्विधमष्टाविंशतिविधमष्टषष्ट्युत्तरशतविधं षटूत्रिंशत्रिशतविधं च भवतीति । ते चैवं- बबहुबहु विधान्यक्षिप्राक्षिप्राख्यनिश्रिततदन्याः । संदिरधासंदिग्धध्रुवाभ्रुवाख्या मतेर्भेदाः ॥३९॥ तथाहि - आस्फालिते सूर्यवृन्दे, कश्चिद्यथैकहेलया । भेरीशब्दा इयन्तोऽत्रैतावन्तः शङ्खनिःखनाः ॥ ४० ॥ इत्थं पृथक पृथक गृह्णन्, बहुग्राही भवेदर्थं । ओघतोऽन्यस्तूर्यशब्द, गृह्णन्न बहुविद्भवेत् ॥४१॥ माधुर्यादिविविधबहुधर्मयुक्तं वेत्ति यः स बहुविधवित् । अबहुविधवित्तु शब्द, वेत्येकद्व्यादिधर्मयुतम् ॥ ४२ ॥ वेत्ति कश्चिदचिरेण चिरेणान्यो विमृश्य च । क्षिप्राक्षिप्रग्राहिणी तौ, निर्दिष्टव्यौ यथाक्रमम् ॥ ४३ ॥ लिङ्गापेक्षं वेत्ति कश्चिद् ध्वजेनेव सुरालयम् । स भवेन्निश्रितग्राही, परो लिङ्गानपेक्षया ॥ ४४॥ निःसंशयं यस्तु वेत्ति, सोऽसंदिग्धविदाहितः । ससंशयं यस्तु वेत्ति, संदिग्धग्राहको हि सः ॥ ४५ ॥ ज्ञाते १ अबहुविधमहः २ भवेदसौ प्र०
लोक. द्रव्य.
३ सर्गः
Jain Education
बहुबहु विधादिभेदा'
१५
२०
२५
1182 11
२७
jainelibrary.org
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
य एकदा भूयो, नोपदेशमपेक्षते । ध्रुवग्राही भवेदेष, तदन्योऽध्रुवविद्भवेत् ॥४६॥ नन्वेकसमयस्थायी, प्रोक्तः प्राच्यैरवग्रहः। संभवन्ति कथं तत्र, प्रकारा बहुतादयः? ॥४७॥ सत्यमेतन्मतः किंतु, द्विविधोऽवग्रहः श्रुते । निश्चयात्क्षणिको व्यावहारिकश्वामितक्षणः ॥४८॥ अपेक्ष्यावग्रहं भाव्यास्ततश्च व्यावहारिकम् । भेदा यथोक्ता बहुतायो नैश्चयिके तु न ॥४९॥ तथोक्तं तत्त्वार्थवृत्तौ-ननु चावग्रह एकसामयिकः शास्त्रे निरूपितो, न चैकस्मिन् समये चैवैकोऽवग्रह एवंविधो युक्तोऽल्पकालत्वादिति, उच्यते, सत्यमेवमेतत्, किंतु अवग्रहो द्विधानैश्चयिको व्यावहारिकश्च, तत्र नैश्चयिको नाम सामान्यपरिच्छेदः, स चैकसामयिकः शास्त्रेऽभिहितस्ततो नैश्चयिकादनन्तरमीहैवमात्मिका प्रवर्तते-किमेष स्पर्श! उतास्पर्श इति, ततश्चानन्तरोऽपाय:स्पर्शोऽयमिति, अयं चापायोऽवग्रह इत्युपचर्यते, आगामिनो भेदानङ्गीकृत्य यस्मादेतेन सामान्यमवच्छिद्यते, यतः पुनरेतस्मादीहा प्रवर्तिष्यते कस्यायं स्पर्शस्ततश्चापायो भविष्यत्यस्यायमिति, अयमपि चापायः पुनरवग्रह इत्युपचयंते, अतोऽनन्तरवर्तिनीमीहामपायं चाश्रित्य, एवं यावदस्यान्ते निश्चय उपजातो भवति, यत्रापरं विशेषं नाकाङ्क
तीत्यर्थः, अपाय एव भवति, न तत्रोपचार इति, अतो य एष औपचारिकोऽवग्रहस्तमङ्गीकृत्य बहु अवIN गृहातीत्येतदुच्यते, नत्वेकसमयवतिनं नैश्चयिकमित्येवं सर्वत्रौपचारिकाश्रयणायाख्येयमिति ॥ SM औत्पत्तिकी वैनयिकी, कार्मिकी पारिणामिकी । आभिः सहामी भेदाः स्युश्चत्वारिंशं शतत्रयम् ॥४९॥
न दृष्टो न श्रुतश्च प्राग, मनसाऽपि न चिन्तितः। यथार्थस्तत्क्षणादेव, यथार्थो गृह्यते धिया ॥५०॥ लोक-1|| १४
Jain Education
For Private
Personal Use Only
dinelibrary.org
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य,
३ सर्ग: ॥४९॥
२
द्वयाविरुद्धा सा, फलेनाव्यभिचारिणी। बुद्धिरौत्पत्तिकीनाम, निर्दिष्टा रोहकादिवत् ॥५१॥ गुरूणां विनया- अवग्रहे भेत्याप्ता, फलदाऽत्र परत्र च । धर्मार्थकामशास्त्रार्थपटुनयिकी मतिः॥५२॥ नैमित्तिकस्य शिष्येण, विनीतेनादसिद्धिः यथोदितः । स्थविराया घटध्वंसे, सद्यः सुतसमागमः॥५३॥ शिल्पमाचार्योपदेशाल्लब्धं स्यात्कर्म च स्वतः। बुद्धिचतुनित्यव्यापारश्च शिल्पं, कादाचित्कं तु कर्म वा ॥ ५४॥ या कर्माभिनिवेशोत्थलब्धतत्परमार्थिका । कर्माभ्यासविचाराभ्यां, विस्तीर्णा तद्यशःफला ॥५५॥ तत्तत्कर्मविशेषेषु, समर्था कार्मिकी मतिः। केषुचिद दृश्यते सा च, चित्रकारादिकारपुं ॥५६॥ सुदीर्घकालं यः पूर्वापरालोचनादिजः। आत्मधर्मः सोऽत्र परीणामस्तत्प्रभवा तु या ॥ ५७॥ अनुमानहेतुमात्रदृष्टान्तैः साध्यसाधिका । वयोविपाकेन पुष्टीभूताऽभ्युदयमोक्षदा ॥ ५८॥ अभयादेरिव ज्ञेया, तुर्या सा पारिणामिकी। आभ्योऽधिका पञ्चमी तु, नाहताऽप्युपलभ्यते ॥ ५९॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ यद् वेधैव मतिर्लोके, प्रथमा श्रुतनिश्रिता । शास्त्रसंस्कृतबुद्धेस्सा, शास्त्रार्थालोचनोद्भवा ॥६०॥ सर्वथा शास्त्रसंस्पर्शरहितस्य तथाविधात् । क्षयोपशमतो जाता, भवेदश्रुतनिश्रिता ॥११॥ सर्वाप्यन्तर्भवत्यस्मिन्, मतिरश्रुतनिश्रिता । यथोक्तधीचतुष्केऽतः, पश्चम्या नास्ति संभवः ॥१२॥ इदमर्थतो नन्दीसूत्रवृत्तिस्थानाङ्गसूत्रवृत्यादिषु । जातिस्मृतिरप्यतीतसंख्यातंभवबोधिका । मतिज्ञानस्यैव भेदः, स्मृति- ॥४९॥ रूपतया किल ॥ ६३ ॥ यदाहाचाराङ्गटीका-जातिस्मरणं त्वाभिनिबोधिकविशेष इति ॥ इति मतिज्ञानं I १ शिल्पिषु २ षट्षष्टिसागरोपमस्थितिस्तु सम्यग्ज्ञानापेक्षिका यद्वा अन्तराऽन्तरा स्मरणादिना कालपूर्तिः।
२७
Jain Educa
t
ional
For Private & Personel Use Only
Iomw.jainelibrary.org
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रूयते तत् श्रुतं शब्दः, स श्रुतज्ञानमुच्यते । भावश्रुतस्य हेतुत्वाद्धेतौ कार्योपचारतः ॥ ६४॥ श्रुताच्छब्दादुत ज्ञानं, श्रुतज्ञानं तदुच्यते।श्रुतग्रन्थानुसारी यो, बोधाश्रोत्रमनःकृतः॥६५॥ ननु श्रुतज्ञानमपि श्रोत्रेन्द्रियनिमित्तकम् । तन्मतिज्ञानतः कोऽस्य, भेदो? यत्कथ्यते पृथक् ॥६६॥ अत्रोच्यते-वर्तमानार्थविषयं, मतिज्ञानं परं ततः। गरीयोविषयं त्रैकालिकार्थविषयं श्रुतम् ॥६७॥ विशुद्धं च व्यवहितानेकसूक्ष्मार्थदर्शनात् । छद्मस्थोऽपि श्रुतबलादुच्यते श्रुतकेवली ॥१८॥ तदुक्तं-"न य णं अणाइसेसी, वियाणइ एस छउमत्थो"त्ति ॥ जीवस्य ज्ञवभावत्वान्मतिज्ञानं हि शाश्वतम् । संसारे भ्रमतोऽनादौ, पतितं न कदापि यत् ॥६९॥ अक्षरस्थानन्तभागो, नित्योद्घाटित एव हि । निगोदिनामपि भवेदित्येतत्पारिणामिकम् ॥ ७॥ यदागमः"सचजीवाणं पिअ णं अक्खरस्स अणंतभागो निचुग्घाडिओ चिट्ठइ, जइ सोवि आवरेज्जा ता जीवो अजीवत्तणं पावेजा” इति ॥ श्रुतज्ञानं पुर्नेनैवं, भवेज्जीवस्य सर्वदा । आप्तोपदेशापेक्षं यत्, स्यादेतन्मतिपूर्वकम् ॥७॥ मतिज्ञानं स्पर्शनादीन्द्रियानिन्द्रियहेतुकम् । श्रुतं तु स्याल्लन्धितोऽपि, पदानुसारिणामिवे ॥७२॥ इत्यायधिकं तत्त्वार्थवृत्त्यादिभ्योऽवसेयं । चतुर्दशविधं तच, यद्वा विंशतिधा भवेत् । चतुर्दशविधत्वं तु, तत्रैवं परिभाव्यते ॥७३॥ अक्षरश्रुतमित्येकं, स्याद् द्वितीयमनक्षरम् । तातीयीकं संज्ञिश्रुतं, तुर्य श्रुतमसंज्ञिन:
१ यत इत्याध्यहार्यम्. २ अवधिज्ञानादिविकल: ३ श्रुतज्ञानरूपस्य केवलस्योभयस्य वा ४ श्रुताक्षरस्यानन्तभागसत्वेऽपि औपदेशिकश्रुतभावापेक्षया. ५ औत्पत्तिक्यादौ अनिश्रितादौ च मतिभेदे एवं भावः, परचित्तज्ञानाद्यपि तत्र लब्धिभूतं ।
3000209999999999
१०
Jain Educa
t ional
For Private Personal Use Only
M.jainelibrary.org
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ५० ॥
Jain Educatio
॥ ७४ ॥ सम्यक् श्रुतं पञ्चमं स्यात्, षष्ठं मिध्याश्रुतं भवेत् । सादिश्रुतं सप्तमं स्यादनादिश्रुतमष्टमम् ॥ ७५ ॥ सान्तश्रुतं तु नवममनन्तं दशमं श्रुतम् । एकादशं गमरूपमगमं द्वादशं पुनः ॥ ७६ ॥ त्रयोदशं त्वङ्गरूपमङ्गबाह्यं चतुर्द्दशम् । प्रायो व्यक्ता अमी भेदास्तथापि किञ्चिदुच्यते ॥ ७७ ॥ तत्राक्षरं त्रिधा संज्ञाव्यञ्जनलब्धिभेदतः । तत्र संज्ञाक्षरमेता लिपयोऽष्टादशोदिताः ॥ ७८ ॥ तथाहि - हंसलिवी १ भूअलिबी २ जक्खा ३ तह रक्खसी ४ य बोद्धव्वा । उड्डी ५ जवणि ६ तुरक्की ७ कीरा ८ दविडी ९ य सिंघविआ १० ॥ १ ॥ मालविणी ११ नडि १२ नागरि, १३ लाडलिवी १४ पारसी १५ य बोद्धवा । तह अनिमित्ती अलिवी १६, चाणक्की १७ मूलदेवी १८ य ॥ २ ॥ अकारादिहकारान्तं भवति व्यञ्जनाक्षरम् । अज्ञानात्मकमप्येतद् द्वयं स्यात् श्रुतकारणम् ॥ ७९ ॥ ततः श्रुतज्ञानतया, प्रज्ञप्तं परमर्षिभिः । लब्ध्यक्षरं त्वक्षरोपलब्धिरर्थावबोधिका ॥ ८० ॥ तच्च लब्ध्यक्षरं षोढा, यत् श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैः । बोधोऽक्षरानुविद्धः स्याच्छन्दार्थालोचनात्मकः ॥ ८१ ॥ यथा शब्दश्रवणतो, रूपदर्शनतोऽथवा । देवदत्तोऽयमित्येवंरूपो बोधो भवेदिहं ॥ ८२ ॥ एवं शेषेन्द्रियभावना कार्या ॥ तैरक्षरैरभिलाप्यभावानां प्रतिपादकम् | अक्षरश्रुतमुद्दिष्टमनक्षरश्रुतं परम् ॥ ८३ ॥ तथोक्तम् - ऊससिअं नीससिअं, निच्छूढं खासिअं च छीअं च । निस्संधिअमणुसारं अणक्खरं छेलियाईयं ॥ ८४ ॥ अयं भावः - कासितक्ष्वेडितायं यन्मामाह्वयति वक्ति वा । इत्याद्यन्याशय - १ स्वातन्त्र्येण लक्षितमिदं, संज्ञाव्यञ्जनाक्षरोत्पन्नमपि तथा २ बालक्रीडापनशब्दादि
ional
श्रुतभेदाः
१५
२०
॥ ५० ॥ २५
inelibrary.org
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्राहि, तत्स्यात् श्रुतमनक्षरम् ॥ ८५॥ इह च शिर कम्पनादिचेष्टानां पराभिप्रायज्ञानहेतुत्वे सत्यपि श्रवणाभावान्न श्रुतत्वं, तदुक्तं विशेषावश्यकसूत्रवृत्तौ "रुढीइ तं सुअं सुबइत्ति चेट्टा न सुबह कयावि"त्ति । उक्तन्यायेन श्रुतत्वप्राप्तौ समानीतायामपि तदेवोच्चसितादि श्रुतं न शिरोधूननकरचालनादिचेष्टा, यतः शास्त्रज्ञलोकप्रसिद्धा रूढिरियमिति । कर्मग्रन्थवृत्तौ तु शिरःकम्पनादीनामप्यनक्षरश्रुतत्वमुक्तं, तथा च तद्ग्रन्थ:-अन-1 क्षरश्रुतं श्वेडितशिर कम्पनादिनिमित्तं मामाह्वयति वारयति वेत्यादिरूपमभिप्रायपरिज्ञानमिति । स्याद्दीर्घकालिकी संज्ञा, येषां ते संज्ञिनो मताः। श्रुतं संज्ञिश्रुतं तेषां, परं त्वसंज्ञिकश्रुतम् ॥८६॥ सम्यक्श्रुतं जिनप्रोक्तं, भवेदावश्यकादिकम् । तथा मिथ्याश्रुतमपि, स्यात्सम्यग्हकपरिग्रहात् ॥ ८७॥ आवश्यकं तदपर|मिति सम्यक श्रुतं द्विधा । षोढा चावश्यकं तत्र, सामायिकादिभेदतः॥८८॥ तथाहि-सामाइयं चउवीसत्थओ वंदणयं पडिक्कमणं काउसग्गो पचकखाणं इति । आवश्यकेतरचाङ्गानगात्मकतया द्विधा । अङ्गान्येकादश दृष्टिवादश्चाङ्गात्मकं भवेत् ॥ ८९॥ आचाराङ्गं सूत्रकृतं, स्थानाङ्गं समवाययुग । पञ्चमं भगवत्यङ्गं, ज्ञाताधर्मकथापि च ॥९०॥ उपासकान्तकृदनुत्तरोपपातिकाद्दशाः । प्रश्नव्याकरणं चैव, विपाकश्रुतमेव च ॥९१ ॥ परिकर्म १ सूत्र २ पूर्वानुयोग ३ पूर्वगत ४ चूलिकाः ५ पञ्च । स्युर्दृष्टिवादभेदाः, पूर्वाणि चतुर्दशापि पूर्वगते ॥ ९२ ॥ गीतिः। तानि चैवम्-उत्पादपूर्वमग्रायणीयमथ वीर्यतः प्रवादं स्यात् । अस्तानात्सत्त्वात्तदा| १ संज्ञाव्यञ्जनाक्षरोपयोगाभावेऽपि विवक्षारूपभावश्रुतज्ञानोत्पत्तेः, श्रवणरूढेस्तु व्युत्पत्त्यङ्गतयैवोपयोगात्
Jain Educa
t ional
RAMjainelibrary.org
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
॥५१॥
त्मनः कर्मणश्च परम् ॥ ९३ ॥ प्रत्याख्यानं विद्याप्रवादकल्याणनामधेये च । प्राणावायं च क्रियाविशालमथ
अक्षराया लोकबिन्दुसारमिति ॥९४॥ गीतिः। दृष्टिवादः पञ्चधाज्यमङ्गं द्वादशमुच्यते । उपाङ्गमूलसूत्रादि, स्यादनङ्गात्मकं भेदा: च तत् ॥९५॥ एवं च-यदुक्तमर्थतोऽर्हद्भिः, संहब्धं सूत्रतश्च यत् । महाधीभिर्गणधरैस्तत्स्यादङ्गात्मकं श्रुतम् || ॥ ९६ ॥ ततो गणधराणां यत्पारम्पर्याप्तवाङ्मयैः। शिष्यप्रशिष्यैराचार्यः, प्राज्यवाङ्मतिशक्तिभिः॥९७॥ कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तिधीस्पृशाम् । अनुग्रहाय संदृब्धं, तदनात्मकं श्रुतं ॥९८॥ सृष्टान्यज्ञोपकराय, तेभ्योऽप्यक्तिनर्षिभिः । शास्त्रैकदेशसंबद्धान्येवं प्रकरणान्यपि ॥ ९९॥ एतल्लक्षणं चैवम्-शास्त्रैकदेशसंबद्धं, शास्त्रकार्यान्तरे स्थितम् । आहुः प्रकरणं नाम, ग्रन्थभेदं विपश्चितः॥ ८००॥ एवं च वक्तृवैशिष्ट्यादस्य दैविध्यमीरितम् । वस्तुतोऽहत्प्रणीतार्थमेकमेवाखिलं श्रुतम् ॥१॥ तथोक्तं तत्वार्थभाष्ये-'वक्तृविशेषाद् द्वैविध्यमिति' किंच-व्याकरणच्छन्दोऽलङ्कतिकाव्यनाव्यतर्कगणितादि । सम्यग्दृष्टिपरिग्रहपूतं सम्यक्श्रुतं जयति ॥ २५॥ मिथ्याश्रुतं तु मिथ्यात्विलोकैः स्वमतिकल्पितम् । रामायणभारतादि, वेदवेदाङ्गकादि च॥३॥ उक्तं च भाष्यकृता-सदसदविसेसणाओ, भवहेउजहिच्छिओवलंभाओ । नाणफलाभावाओ मिच्छद्दि-1 हिस्स अन्नाणं ॥१॥ पूर्वान्तर्गतेयं गाथा । ऋग्यजुःसामाथर्वाणो, वेदा अङ्गानि षट् पुनः। शिक्षाकल्पो व्याक- २५ रणं, छन्दोज्योतिर्निरुक्तयः ॥ ४॥ ततश्च-षडङ्गी वेदाश्चत्वारो, मीमांसाऽऽन्वीक्षिकी तथा । धर्मशास्त्रं || पुराणं च, विद्या एताश्चतुर्दश ॥५॥ तथा-आयुर्वेदो धनुर्वेदो, गान्धर्व चार्थशास्त्रकम् । चतुर्भिरतैः संयुक्ताः, २७
उक्त च भाष्य। पूर्वान्तर्गतेयं । ततश्च-षडङ्गी धनुर्वेदो, गान्धर्व
|॥५१॥
ReReKER
Jain EducatalAnational
For Private & Personel Use Only
Harjainelibrary.org
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्यरष्टादश ताः पुनः॥६॥ अपूर्णदशपूर्वान्तमपि सम्यक् श्रुतं भवेत् । मिथ्यात्विभिः संगृहीतं, मिथ्या-15 श्रुतं विपर्ययात् ॥७॥ द्रव्यक्षेत्रकालभावैः, साद्यन्तं भवति श्रुतम् । अनाद्यपर्यवसितमपि ज्ञेयं तथैव च ॥ एकं पुरुषमाश्रित्य, साद्यन्तं भवति श्रुतं । अनाद्यपर्यवसितं, भूयसस्तान प्रतीत्य च ॥९॥ भवान्तरं गतस्याशु, पुंसो यन्नश्यति श्रुतम् । कस्यचित्तद्भव एच, मिथ्यात्वगमनादिभिः ॥१०॥ तदुक्तं विशेषावश्यके"चउदसपुवी मणुओ, देवत्ते तं न संभरइ सबं । देसंमि होइ भयणा, सहाणभवेवि भयणा उ॥१॥"देशे पुनरेकादशाङ्गलक्षणे इति कल्पचूर्णिः । स्वस्थानभव इति मनुष्यभवेऽपि तिष्ठतो भजना ॥ तत्र श्रुतज्ञाननाशकारणान्यमूनि-मिच्छभवंतरकेवलगेलन्नपमायमाइणा नासोत्ति' षष्ठाङ्गचतुर्दशाध्ययने तु तेतलिमन्त्रिणः पूर्वाधीतचतुर्दशपूर्वस्मरणमुक्तमस्तीति ज्ञेयम् । साद्यन्तं क्षेत्रतो ज्ञेयं, भरतैरवताश्रयात् । अनाद्यपर्यवसितं, विदेहापेक्षया पुनः ॥११॥ कालतश्चावसर्पिण्युत्सर्पिण्योः सादिसान्तकम् । महाविदेहकालस्यापेक्षयाद्यन्तवर्जितम् ॥ १२॥ भवसिद्धिकमाश्रित्य, साद्यन्तं भावतो भवेत् । छाझस्थिकज्ञाननाशो, यदस्य केवलक्षणे ॥१३॥'नटुंमि य छाउमथिए नाणे' इति वचनात् । अनाद्यनन्तं चाभव्यमाश्रित्य श्रुतमुच्यते । श्रुतज्ञानश्रुताज्ञानभेदस्यानाविवक्षणात् ॥ १४॥क्षायोपशमिकभावे, यद्वाऽनाद्यन्तमीरितम् । एवं साद्यानादि-ISH सान्तमनन्तं श्रुतमूह्यताम् ॥ १५॥ गमाः सदृशपाठाः स्युर्यत्र तद्गमिकं श्रुतम् । तत्प्रायो दृष्टिवादे स्यादन्य
१ देवत्त्वे पूर्वाणामस्मरणमिति चूर्णिवचसस्तत्त्वं, तेतली तु नरः, तस्य जातिस्मृत्या पूर्वज्ञाने का हानिः ? ।
W
Jain Educati
o nal
For Private Personel Use Only
INw.jainelibrary.org
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
टटटट
लोक द्रव्य.
३ सगे: ॥५२॥
विंशतिः श्रुतमेदा:
१५
चागमिकं भवेत् ॥ १६॥ अङ्गाविष्टं द्वादशाङ्गान्यन्यदावश्यकादिकम् । इत्थं प्ररूपिताः प्राज्ञैः, श्रुतभेदाश्चतुर्दश ॥ १७॥ ये भेदा विंशतिस्तेऽपि, कथ्यन्ते लेशमात्रतः। न ग्रन्थविस्तरभयादिह सम्यक् प्रपञ्चिताः॥१८॥ तथाहु:-पजय अक्खर पयसंघाया पडिवत्ति तह य अणुओगो। पाहुडपाहुड पाहुड वत्थू पुवा य ससमासा ॥ १९॥ तत्र च-अविभागः परिच्छेदो, यो ज्ञानस्य प्रकल्पितः। स पर्यायो व्यादयस्ते, स्यात्पर्यायसमासक्रः ॥२०॥ लब्ध्यपर्याप्तस्य सुक्ष्म निगोदस्थशरीरिणः। यदाद्यक्षणजातस्य, श्रुतं सर्वजघन्यतः ॥ २१॥ तस्मादन्यत्र यो जीवान्तरे ज्ञानस्य वर्द्धते । अविभागपरिच्छेदः, स पर्याय इति स्मृतः ॥२२॥ येविभागपरिच्छेदा, द्यादयोऽन्येषु देहिषु । वृद्धिं गतास्ते पर्यायसमास इति कीर्तिताः॥२३॥ तथोक्तमाचाराङ्गवृत्तौ-"सर्वनिकृष्टो जीवस्य, दृष्ट उपयोग एष वीरेण । सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानां स च भवति विज्ञेयः ॥२४॥ तस्मात्प्रभृतिनिविवृद्धिदृष्टा जिनेन जीवानाम् । लब्धिनिमित्तैः करणैः कायेन्द्रियवाङ्मनोहग्भिः ॥२५॥" मध्ये लब्ध्यक्षराणां स्याद्यदन्यतरदक्षरम् । तदक्षरं तत्संदोहोऽक्षरसमास इष्यते ॥ २६॥ पदानां यादृशानां स्थादाचाराङ्गादिषु ध्रुवम् । अष्टादशसहस्रादिप्रमाणं तत्पदं भवेत् ॥ २७॥ यादीनि तत्समासः स्यादेवं सर्वत्र भाव्यताम् । संघातप्रतिपत्त्यादौ, समासो ह्यनया दिशा ॥ २८॥ गतीन्द्रियादिद्वाराणां, द्वाषष्टेरेकदेशकः । गत्यादिरकदेशोऽस्याः, स्वर्गतिस्तत्र मार्गणा ॥ २९॥ जीवादेः क्रियते सोऽयं, संघात इति कीर्त्यते । गत्यादिव्याद्यवयव१ एकस्मिन्पदे ५१०८८६८४० श्लोकाः अष्टाविंशतिश्चाक्षराणीत्यनुयोगद्वारवृत्ताविति सेनप्रश्वे ।
करणैः कार्यान्द्रका
पदानां या
सर्वत्र भाव्यत
२५
॥५२॥
Se
Jain Education
a
nal
For Private & Personel Use Only
ainelibrary.org
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Educatio
मार्गणा तत्समासकः ॥ ३० ॥ संपूर्णगत्यादिद्वारे, जीवादेर्मार्गणा तु या । प्रतिपत्तिरियं जीवाभिगमे दृश्यतेऽधुना ॥ ३१ ॥ सत्पदप्ररूपणाद्यनुयोगद्वारमुच्यते । प्राभृतान्तःस्थोऽधिकारः, प्राभृतप्राभृतं भवेत् ॥ ३२ ॥ वस्त्वन्तर्वर्त्त्यधिकारः, प्राभृतं परिकीर्त्तितम् । पूर्वान्तर्वर्त्यधिकारो, वस्तुनाम्ना प्रचक्षते ॥ ३३॥ पूर्वमुत्पादपूर्वादि, ससमासाः समेऽप्यमी । श्रुतस्य विंशतिर्भेदा । इत्थं संक्षेपतः स्मृताः ॥ ३४ ॥ इति श्रुतज्ञानम् ॥
अवधानं स्यादवधिः, साक्षादर्धविनिश्चयः । अवशब्दोऽव्ययं यद्वा सोऽधः शब्दार्थवाचकः ॥ ३५ ॥ अधोऽधो विस्तृतं वस्तु, धीयते परिबुध्यते । अनेनेत्यवधिर्यद्वा, मर्यादावाचकोऽवधिः ॥ ३६ ॥ मर्यादा रूपिद्रव्येषु, प्रवृ| तिर्न स्वरूपिषु । तयोपलक्षितं ज्ञानमवधिज्ञानमुच्यते ॥ ३७ ॥ अनुगाम्यननुगामी, वर्धमानस्तथा क्षयी । प्रतिपात्यप्रतिपातीत्यवधिः षड्विधो भवेत् ॥ ३८ ॥ यद्धि देशान्तरगतमप्यन्वेति खधारिणम् । अनुगाम्यवधिज्ञानं, तद्विज्ञेयं खनेत्रवत् ॥ ३९ ॥ यत्र क्षेत्रे समुत्पन्नं, यत्तत्रैवावबोधकृत् । द्वितीयमवधिज्ञानं, तच्छृङ्खलितदीपवत् ॥ ४० ॥ यदङ्गुलस्या संख्येयभागादिविषयं पुरा । समुत्पद्यानु विषयविस्तारेण विवर्धते ॥ ४१ ॥ अलोके लोकमात्राणि, यावत्खण्डान्यसंख्यशः । स्यात्प्रकाशयितुं शक्तं, वर्द्धमानं तदीरितम् ॥ ४२ ॥ अप्रशस्ताध्यवसायात्, हीयते यत्प्रतिक्षणम् । आहुस्तदवधिज्ञानं, हीयमानं मुनीश्वराः ॥ ४३ ॥ स्याद्वर्द्धमानं शुष्कोपचीयमानेन्धनाग्निवत् । हीयमानं परिमितातादृगिन्धनवह्निवत् ॥ ४४ ॥ योजनानां सहस्राणि संख्येयान्यप्य१ अपिना तद्व्यादिपरिग्रहः २अलोके रूपिद्रव्याभावाद् दृश्याभावेऽपि लोके द्रव्यादिकस्य साक्ष्म्येण ज्ञानवृद्धिसाफल्यम्, स्वभावादेव नामतः
tional
१०
१३
ainelibrary.org
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवधि
भेदा:
S
लोक द्रव्य.
संख्यशः।यावल्लोकमपि दृष्ट्वा, पतति प्रतिपाति तत् ॥४५॥ प्रमादेन पतत्येतद्भवान्तराश्रयेण वा । यथा३ सर्गः
श्रुतं खरूपं च, वक्ष्येऽथाप्रतिपातिनः ॥४६॥ यत्प्रदेशमलोकस्य, द्रष्टुमेकमपि क्षमम् । तत्स्यादप्रतिपात्येव, ९ केवलं तदनन्तरम् ॥४७॥ हीयमानप्रतिपातिनोश्चायं विशेष:-प्रतिपाति हि निर्मूलं, विध्यायत्येकहेलया।
हीयमानं पुनर्वासमुपयाति शनैः शनैः ॥४८॥ इदं कर्मग्रन्थवृत्त्यभिप्रायेण, तत्त्वार्थभाष्ये तु-अनवस्थितावस्थिताख्ययोरन्त्यभेदयोरेवं स्वरूपमुक्तम्-अनवस्थितं हीयते वर्द्धते च वर्द्धते हीयते च प्रतिपतति चोत्पद्यते साचेति पुन: पुनरुम्मिवत्, अवस्थितं यावति क्षेत्र उत्पन्नं भवति ततो न प्रतिपतति आकेवलप्राप्तेरवतिष्ठते,
आभवक्षयादा जात्यन्तरस्थायि वा भवति, लिङ्गवत्, यथा लिङ्ग-पुरुषादिवेदमिह जन्मन्युपादाय जन्मान्तरं याति जन्तुस्तथाऽवधिज्ञानमपीति भावः ॥ नृतिरश्चामयं षोढा, क्षायोपशमिकोऽवधिः । भवेद्भवप्रत्ययश्च, देवनारकयोरिह ॥१॥ तदुक्तं-द्विविधोऽवधिर्भवप्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तश्चेति तत्त्वार्थसूत्रे । स्याद्भवप्रत्ययोऽप्येष, न क्षयोपशमं विना । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां, हेतुत्वादस्य किन्त्विह ॥२॥ स्यात्क्षयोपशमे हेतु/वोऽयं तदसौ तथा । उपचाराद्धेतुहेतुरपि हेतुरिहोदितः ॥३॥ इत्यवधिज्ञानम् ॥
मनस्त्वेन परिणतद्रव्याणां यस्तु पर्यवः। परिच्छेदस्स हि मनःपर्यवज्ञानमुच्यते ॥४९॥ यद्वा-मनोद्रव्यस्य पर्याया, नानावस्थात्मका हिये । तेषां ज्ञानं खलु मनःपर्यायज्ञानमुच्यते ॥५०॥ स्यादृजुधीविपुलधीलक्षणखा
१ अलोकस्यैकप्रदेशेऽपि दृष्टे नैव प्रतिपातीत्येवमुक्तं । २ एतावान् सूत्रपाठः (१-२१)। ३ भवादिर्भाष्यपाठः ।
in Educatan
For Private & Personel Use Only
Magainelibrary.org
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
eeeeeeeeeeeee
मिभेदतः। तद् द्विभेदं संयतस्याप्रमत्तस्यर्द्धिशालिनः॥५१॥ अनेन चिन्तितः कुम्भ, इति सामान्यग्रा| हिणी । मनोद्रव्यपरिच्छित्तिर्यस्यासावृजुधीः श्रुतः॥५२॥ अनेन चिन्तितः कुम्भा, स सौवर्णः स माथुर
इयत्प्रमाणोऽद्यतन:, पीतवर्णः सदाकृतिः॥५३॥ एवं विशेषविज्ञाने, मतिर्यस्य पटीयसी। ज्ञेयोऽयं विपुलसामतिर्मनःपर्यायलब्धिमान् ॥५४॥ युग्मम् । ननु च-अवधिश्च मन:पर्यवश्चोभे अप्यतीन्द्रिये । रूपिद्रव्यविषये च, साभेदस्तदिह कोऽनयोः?॥५५॥ अत्रोच्यतेऽवधिज्ञानमुत्कर्षात्सर्वलोकवित् । संयतासंयतनरतिर्यक्वामिक
मीरितम् ॥५६॥ अन्यद्विशदमेतस्माद्वहुपर्यायवेदनात् । अप्रमत्तसंयतैकलभ्यं नृक्षेत्रगोचरम् ॥ ५७ ॥ उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये-विशुद्धिक्षेत्रवामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यवयोर्विशेष इति'। सामान्यग्राहि ननु यन्मनःपर्यायमादिमम् । तदस्य दर्शनं किं न, सामान्यग्रहणात्मकम् ॥५८॥ अत्रोच्यते-विशेषमेकं द्वौ बीन्वा, गृह्णात्यजुमतिः किल । ईष्टे बहून् विशेषांश्च, परिच्छेत्तुमयं न यत् ॥ ५९॥ सामान्यग्राह्यसौ तस्मात्, स्तोकग्राहितया भवेत् । सामान्यशब्दः स्तोकार्थो, नत्वत्र दर्शनार्थकः ॥६०॥ कर्मक्षयोपशमजोत्कर्षाद्विपुलधीः पुनः। बहून् विशेषान् वेत्त्यत्र, बह्वथों विपुलध्वनिः ॥६१॥ नचाभ्यधायि सिद्धान्ते, कुत्राप्येतस्य दर्शनम् । दर्शनात्मकसामान्यग्राहिता नैतयोस्ततः ॥ ६२॥ विशेषरूपग्राहित्वे, प्राप्त नन्वेवमेतयोः । द्वयोर्मनोविषययोदैविध्ये किं निबन्धनम् ? ॥ ६३॥ अत्रोच्यते-अल्पपर्यायवेद्याचं, घटादिवस्तुगोचरम् । नानाविधविशेषाव
१ एतावान् सूत्रभागः (१-२६) २' विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां विशेष इति तद्विशेषः (१-२५) इत्यतोऽनुवृत्तं ३ जातिसूचकः,
9.99298990000000
Jain Educatiferational
For Private & Personel Use Only
ww.jainelibrary.org
ION
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ५४ ॥ ।
Jain Educatio
च्छेदि शुद्धतरं परम् ॥ ६४॥ कस्यचिन्न पतत्याद्यं, कस्यचिच्च पतत्यपि । अत्यं चाकेवलप्रासेर्न पतत्येव तिष्ठति ॥ ६५ ॥ तथोक्तं तस्वार्थवृत्तौ यस्य पुनर्विपुलमतिर्मनः पर्यायज्ञानं समजनि तस्य न पतत्या केवलप्राप्तेरिति । एतत्सूत्रेऽपि 'विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः' (१-२५) इति ॥ योगशास्त्रप्रथमप्रकाशवृत्तावपि - "ऋजुश्च विपुलश्चेति, स्यान्मनः पर्यवो द्विधा । विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां विपुलस्तु विशिष्यते ॥ १ ॥” इति मनःपर्यायज्ञानम् ॥ केवलं यन्मतिज्ञानाद्यन्यज्ञानानपेक्षणात् । ज्ञेयानन्त्यादनन्तं वा, शुद्धं चावरणक्षयात् ॥ ६६ ॥ सकलं वाऽऽदिल एव, निःशेषावरणक्षयात् । अनन्यसदृशत्वेनाथवाऽसाधारणं भवेत् ॥ ६७ ॥ भूतभाविभवद्भावस्वरूपोद्दीपकं स्वतः । तद् ज्ञानं केवलज्ञानं, केवलज्ञानिभिर्मतम् ॥ ६८ ॥ इति केवलज्ञानम् ॥
कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं, कुत्सार्थस्य नञोऽन्वयात् । कुत्सितत्वं तु मिथ्यात्वयोगात् तत्रिविधं पुनः॥ ६९ ॥ मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं, विभङ्गज्ञानमित्यपि । अथ खरूपमेतेषां दर्शयामि यथाश्रुतम् ॥ ७० ॥ मतिज्ञानश्रुतज्ञाने, एव मिथ्यास्वयोगतः । अज्ञानसंज्ञां भजतो, नीचसङ्गादिवोत्तमः ॥ ७१ ॥ तथोक्तम् - " अविसेसिया मइ चिय, समद्दिट्ठिस्स सा महन्नाणं । महअन्नाणं मिच्छादिट्ठिस्स सुअंपि एमेव” ॥१॥ भंगा विकल्पा विरुद्धाः, स्युस्तेऽत्रेति विभङ्गकम् । विरूपो वाऽवधेर्भङ्गो, भेदोऽयं तद्विभङ्गकम् ॥ ७२ ॥ एतच्च ग्रामनगरसन्निवेशादिसंस्थितम् । समुद्रद्वीपवृक्षादि| नानासंस्थान संस्थितम् ॥ ७३ ॥ अष्टानामप्यथैतेषां विषयान् वर्णयाम्यहम् । द्रव्यक्षेत्र कालभावैर्द्रव्यतस्तत्र कथ्यते ॥ ७४ ॥ सामान्यतो मतिज्ञानी, सर्वद्रव्याणि बुध्यते । विशेषतोऽपि देशादि भेदैस्तानवगच्छति ॥ ७५ ॥
stional
चतुर्थ
पञ्चमज्ञाने
१५
&&
॥ ५४ ॥
२५ २६
gainelibrary.org
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
किंतु तद्गतनिःशेषविशेषापेक्षयाऽस्फुटान् । एष धर्मास्तिकायादीन, पश्येत्सर्वात्मना तु न ॥ ७६॥ योग्यदेशस्थितान् शब्दादींस्तु जानाति पश्यति । श्रुतभांवितया बुद्ध्या, सर्वद्रव्याणि वेत्ति वा ॥ ७७॥ लोकालोको क्षेत्रतश्च, कालतस्त्रिविधं च तम् । सर्वाद्धां वा भावतस्तु,भावानौदयिकादिकान् ॥ ७८॥ आह च भाष्यकार:"आएसोत्ति पगारो, ओघादेसेण सव्वदचाई। धम्मत्थिकाइयाई, जाणइ न उ सबभावेणं ॥ ७९ (१)॥खेत्तं || लोगालोगं, कालं सबद्धमहव तिविहंपि । पंचोदइयाईए, भावे जन्नेयमेवइयं ॥१(२)॥ आएसोत्ति व सुत्तं, सुओवलद्धेसु तस्स मइनाणं। पसरइ तब्भावणया, विणावि सुत्ताणुसारणं॥८०(३)॥"तत्त्वार्थवृत्तावप्युक्तं-"मतिज्ञानी तावत् श्रुतज्ञानोपलब्धष्वर्थेषु यदाऽक्षरपरिपाटीमन्तरेण स्वभ्यस्तविद्यो द्रव्याणि ध्यायति तदा मतिज्ञानविषयः सर्वद्रव्याणि, न तु सर्वान् पर्यायान् अल्पकालविषयत्वान्मनसश्चासक्ते"रिति । इति मतिज्ञानविषयः॥
भावश्रुतोपयुक्तः सन्, जानाति श्रुतकेवली । दशपूर्वादिभृद् द्रव्याण्यभिलाप्यानि केवलम् ॥ ८१॥ यद्यप्यभिलाप्यार्थानंतांशोऽस्ति श्रुते तथाप्यते । सर्वे स्युः श्रुतविषयः, प्रसङ्गतोऽनुप्रसङ्गाच ॥८२ ॥ यथाहुःपन्नवणिजा भावा, अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं । पन्नवणिजाणं पुण, अणंतभागो सुअनिबद्धो ॥१॥ तथा-श्रुतानुवर्तिमनसा, ह्यचक्षुर्दर्शनात्मना । दशपूर्वादिभृद् द्रव्याण्यभिलाप्यानि पश्यति ॥ ८३ ॥ तदारतस्तु भजना, विज्ञेया धीविशेषतः। वृद्धस्तु पश्यतीत्यत्र, तत्त्वमेतन्निरूपितम् ॥ ८४ ॥ सर्वात्मनाऽदर्शनेऽपि,४|| १ ओघार्थके आदेशशब्दे । २ श्रुतमर्थो यदा आदेशशब्दस्य । ३ चतुर्दशपूर्वविदः श्रुतकेवलिनः ।
20299999999998OD
लो.प्र.१०
S
Jain Education Interational
For Private & Personel Use Only
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
॥८५॥नो चेत्स्यात्सर्वथाऽदृष्टस्या
श्रुतस्यावधेश्व विषयः १५
दयिकादीनवासानपश्यत्ताऽपि प्ररूपिता ॥ ६
पश्यत्येव कथञ्चन । अवेयकानुत्तरादिविमानालेख्यनिर्मितेः॥८५॥नो चेत्स्यात्सर्वथाऽदृष्टस्यालेख्यकरणं कुतः तुर्योपाङ्गे श्रुतज्ञानपश्यत्ताऽपि प्ररूपिता ॥८६॥ क्षेत्रतः कालतोऽप्येवं, भावतो वेत्ति सश्रुतः। भावानौदयिकादीन था, पर्यायान्वाऽभिलाप्यगान् ॥ ८७॥ इति श्रुतज्ञानविषयः॥
व्यतोऽयावधिज्ञानी, रूपिद्रव्याणि पश्यति । भाषातैजसयोरन्तःस्थानि तानि जघन्यनः॥८८॥ उत्कर्षतस्त सर्वाणि, सूक्ष्माणि बादराणि च । विशेषाकारतो वेत्ति, ज्ञानस्वादस्य निश्चितम् ॥ ८९॥ क्षेत्रतोऽथावधिज्ञानी, जघन्याद्वेत्ति पश्यति । असंख्येयतमं भागमङ्गलस्योपयोगतः॥९॥ विशेषश्चात्र-"जावइया तिसमयाहारगस्स सुहुमस्स पणगजीवस्स । ओगाहणा जहण्णा, ओहिकिखत्तं जहन्नं तु॥९१॥” इतिनन्दीसूत्रादिषु । नन्दीवृत्तौ च-योजनसहस्रमानो, मत्स्यो मृत्वा स्वकायदेशे यः। उत्पद्यते हि पनका, सूक्ष्मत्वेनेह स प्रायः॥९२ ॥ संहृत्य चाचसमये, स ह्यायामं करोति च प्रतरम् । संख्यातीताख्याङ्गुलविभागवाहल्यमानं तु ॥ ९३ ॥ स्वतनूपृथुखमात्रं, दीर्घत्वेनापि जीवसामर्थ्यात् । तमपि द्वितीयसमये, संहृत्य करोत्यसौ सूचिम् ॥९४ ॥ संख्यातीताख्याङ्गुलविभागविष्कम्भमाननिर्दिष्टम् । निजतनुपृथुत्वदीर्घ, तृतीयसमये तु संहृत्य ॥९५॥ उत्पद्यते च पनकः, खदेहदेशे सुसूक्ष्मपरिणामः । समयत्रयेण तस्यावगाहना यावती भवति ॥ ९६ ॥ तावजघन्यमवधेरालम्बनवस्तुभाजनं क्षेत्रम् । इदमित्वमेव मुनिगणसुसंप्रदायात्समवसयम् ॥ ९७ ॥ तथा- १ परिणाहलक्षणम् ।
२६
Jain Education Intematonal
For Private & Personel Use Only
hinelibrary.org
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
"मच्छो महल्लकाओ, संखित्तो जो उ तीहि समएहिं । स किर पयत्तविसेसेण, सण्हमोगाहणं कुणइ ॥१॥ सण्हयरा सण्हयरो, सुहुमो पणओ जहन्नदेहो य । स बहुविसेसविसिहो, सण्हयरो सबदेहेसु ॥९८॥ पढमवितीय(तीएइ)सण्हो, जायइथूलो चउत्थयाईसुतिइयसमयंमि जुग्गो, गहिओ तो तिसमयाहारो॥१९॥" अलोके लोकमात्राणि, पश्यत्खण्डान्यसंख्यशः। उत्कृष्टतोऽवधिज्ञानविषयः शस्यपेक्षया ॥९००॥ असंख्यभागमावल्या, जघन्यादेष पश्यति । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य, उत्कर्षेण वसंख्यकाः॥१॥ अतीता अपितावत्यस्तावत्योऽनागता अपि । तावत्काले भूतभाविरूपिद्रव्यावबोधतः ॥२॥ पर्यायान् भावतोऽनन्तानेष वेत्ति जघन्यतः। आधारद्रव्यानन्त्येन, प्रतिद्रव्यं तु नो यतः॥३॥ उत्कर्षतोऽपि पर्यायाननन्तान् वेत्ति पश्यति । सर्वेषां पर्यवाणां चानन्तेऽशे तेऽपि पर्यवाः॥४॥ अथावधैर्विषययोर्नियमः क्षेत्रकालयोः। मिथो विभाव्यते वृद्धिमाश्रत्य श्रुतवर्णितः॥५॥ अङ्गुलस्यासंख्यभागं, क्षेत्रतो यो निरीक्षते । आवल्यसंख्येयभागं, कालतः स निरीक्षते ॥६॥ प्रमाणाङ्गुलमत्राहुः, केचित्क्षेत्राधिकारतः। अवधेरधिकाराच्च, केचनात्रोच्छ्रयाङ्गलम् ॥७॥ यश्चाङ्गुलस्य संख्येयं, क्षेत्रतो भागमीक्षते । आवल्या अपि संख्येयं, कालतोऽशंस वीक्षते ॥८॥ संपूर्णमङ्गुलं यस्तु, क्षेत्रतो वीक्षते जनः । पश्येदावलिकान्तः स, कालतोऽवधिचक्षुषा ॥९॥ पश्यन्नावलिका पश्येदङ्गलानां पृथक्त्वकम् । क्षेत्रतो हस्तदर्शी च, मुहर्त्तान्तः प्रपश्यति ॥१०॥ कालतो भिन्नदिनहग , गव्यूतं क्षेत्रमीक्षते । योजनक्षेत्रदर्शी च, भवेदिनपृथक्त्वहक॥ ११ ॥ कालतो भिन्नपक्षी, पंचविंशतियो
Jain Educa
t ional
For Private & Personel Use Only
Knw.jainelibrary.org
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
॥५६॥
१५
जनीमाक्षेत्रतो वेत्ति भरतदर्शी पक्षमनूनकम् ॥ १२॥ जानाति जम्बूद्वीपं च, कालतोऽधिकमासवित् । अवधेः क्षेकालतो वर्षवेदी स्यात् , क्षेत्रतो नरलोकवित् ॥ १३ ॥ रुचकद्वीपदी च, पश्येद्वर्षपृथक्त्वकम् । संख्येयका- त्रकाललदर्शी च, संख्येयान् द्वीपवारिधीन् ॥ १४ ॥ सामान्यतोऽत्र प्रोक्तोऽपि, काल: संख्येयसंज्ञक विज्ञेयः ।
निबन्धः परतो वर्षसहस्रादिह धीधनैः ॥ १५॥ असंख्यकालविषयेऽवधौ च दीपवार्धयः। भजनीया असंख्येयाः, संख्यया अपि कुत्रचित् ॥ १६ ॥ विज्ञेया भजना चैवं, महान्तो द्वीपवार्धयः । संख्येया एव किंचैकोऽप्येकदेशोऽपि संभवेत् ॥१७॥ तत्र स्वयम्भूरमणतिरश्चोऽसंख्यकालिके। अवधौ विषयस्तस्याम्भोधेः स्यादेकदेशकः ॥ १८॥ योजनापेक्षयाऽसंख्यमेव क्षेत्रं भवेदिह । असंख्यकालविषयेऽवधाविति तु भाव्यताम् ॥ १९॥ कालवृद्धौ द्रव्यभावक्षेत्रवृद्धिरसंशयम् । क्षेत्रवृद्धौ तु कालस्य, भजना क्षेत्रसौक्षम्यतः ॥२०॥ द्रव्यपर्याययोवृद्धिरवश्यं क्षेत्रवृद्धितः। अत्र शेषो विशेषश्च, ज्ञेय आवश्यकादितः॥२१॥ अवध्यविषयत्वेनामूर्तयोः क्षेत्रकालयोः । उक्तक्षेत्रकालवर्तिद्रव्ये कार्याऽत्र लक्षणां ॥ २२॥ इत्यवधिज्ञानविषयः॥ स्कन्धाननन्तानृजुधीरुपयुक्तो हि पश्यति । नुक्षेत्रे संज्ञिपर्याप्तैर्मनस्त्वेनोररीकृतान् ॥ २३ ॥ मनोज्ञानस्य नितरां, २५ क्षयोपशमपाटवात् । विशेषयुक्तमेवासी, वेत्ति वस्तु घटादिकम् ॥ २४॥ स्कन्धान जानाति विपुलधीश्च ॥५६॥ तानेव साधिकान् । अपेक्ष्य द्रव्यपयोंयान, तथा स्पष्टतरानपि ॥२५॥ द्विधा मन:पर्यवस्य, द्रव्यतो विषयो । १ आधेयदर्शनादाधारदर्शनकथनात् खारीमुद्रा इतिवत् ।
२७
Jain Educa
t ional
For Private
Personal Use Only
V
ainelibrary.org
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
ह्ययम् । विषयं क्षेत्रतोऽधास्य ब्रवीमि ऋजुधीरिह ॥ २६ ॥ अधस्तिर्यग्लोकमध्याद्वेत्ति रत्नप्रभाक्षितौ । ऋजुधीयजनसहस्रान्तं संज्ञिमनांस्यसौ ॥ २७ ॥ ज्योतिश्चक्रोपरितलं, यावदूर्द्धं स वीक्षते । तिर्यक्क्षेत्रं द्विपाथोधसार्घद्वीपद्वयात्मकम् ॥ २८ ॥ उक्तं क्षेत्रं विपुलधीर्निर्मलं वीक्षते तथा । विष्कम्भायामबाहल्यैः, सार्द्धद्रयङ्गुलसाधिकम् ॥ २९ ॥ अयं भगवतीसुतवृत्तिराजप्रश्नीयवृत्तिनन्दी सूत्र नन्दी मलयगिरी यवृत्तिविशेषावश्यकवृत्तिकर्मग्रन्थवृत्त्याद्यभिप्रायः । सामान्यं घटादिवस्तुमात्र चिन्तन परिणामग्राहि किञ्चिदविशुद्धतरमर्धतृतीयाङ्गुलहीन मनुष्यक्षेत्रविषयं ज्ञानं ऋजुमतिलब्धिः, संपूर्ण मनुष्य क्षेत्र विषयं विपुलमतिलब्धिरिति तु प्रवचनसारोद्धारवृत्त्योपपातिकवृत्त्योर्लिखितं, अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रेष्वर्ध तृतीयाङ्गुलहीनेषु संज्ञिमनांसि ऋजुमतिर्जानाति, विपुलमतिरर्घतृतीयैरङ्गुलैरभ्यधिकेष्विति चार्थतः श्रीज्ञानसागरसूरिकृतावश्यकावचूर्णौ । ऋजुधीः कालतः पल्यासंख्य भागं जघन्यतः । अतीतानागतं जानात्युत्कर्षादपि तन्मितम् ||३०|| तावत्कालभूतभाविमनः पर्यायबोधतः । तावन्तमेव विपुलधीस्तु पश्यति निर्मलम् ॥ ३१ ॥ सर्वभावानन्तभागवर्तिनोऽनन्तपर्यवान् । ऋजुधीर्भावतो वेत्ति, विपुलस्तांश्च निर्मलान् ॥ ३२ ॥ इति मनःपर्यायविषयः ॥
heat द्रव्यतः सर्वं द्रव्यं मूर्त्तममूर्त्तकम् । क्षेत्रतः सकलं क्षेत्रं, सर्वं कालं च कालतः ॥ ३३॥ भावतः सर्वपर्यायान् प्रतिद्रव्यमनन्तकान् । भावतो भाविनो भूतान्, सम्यग् जानाति पश्यति ॥ ३४ ॥ विहायः कालयोः सर्वद्रव्येषु संगतावपि । पृथगुक्तिः पुनः क्षेत्रकालज्येति चिन्त्यताम् ॥ ३५ ॥ इति केवलज्ञानविषयः ।
५
१०
१४
ainelibrary.org
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्ग:
दिलं च वैत्यसो । मत्मज्ञान, वेत्ति प्रज्ञापयत्यपिया" से शिवराजपिनिरूपितान् । संविहा
॥५७॥
मत्यज्ञानी तु मिथ्यात्वमिश्रेणावग्रहादिना। औत्पत्तिक्यादिना यदा, पदार्थान् विषयीकृतान् ॥ ३६॥ वैश्य- मनःपर्यापायादिना तांश्च, पश्यत्यवग्रहादिना। मत्यज्ञानेन विशेषसामान्यावगमात्मना ॥ ३७॥ मत्यज्ञानपरिगतं,
यस्य केवक्षेत्रं कालं च वेत्त्यसौ । मत्यज्ञानपरिगतान्, स वेत्ति पर्यवानपि ॥ ३८॥ श्रुताज्ञानी पुनर्मिथ्याश्रुतसंदर्भ-15
लस्य च
विषयः गर्भितान् । द्रव्यक्षेत्रकालभावान्, वेत्ति प्रज्ञापयत्यपि ॥३९॥ एवं विभङ्गानुगतान, विभङ्गज्ञानवानपि । द्रव्यक्षेत्रकालभावान्, कथश्चिदेत्ति पश्यति ॥४०॥ यथा स शिवराजर्षिर्दिशाप्रोक्षकतापसः । विमङ्गज्ञा-18 नतोऽपश्यत्सप्त द्वीपपयोनिधीन ॥४१॥ निशम्य तानसंख्ययान्, जगद्गुरुनिरूपितान् । संदिहानो वीरपाचे, प्रव्रज्य स ययौ शिवम् ॥४२॥ इदं पञ्चविधं ज्ञानं, जिनैर्यत्परिकीर्तितम् । तद् द्वे प्रमाणे भवतः, प्रत्यक्षं च परोक्षकम् ॥ ४३ ॥ खस्य ज्ञानवरूपस्य, घटादेयत्परस्य च । निश्चायकं ज्ञानमिह, तत्प्रमाणमिति स्मृतम् ॥४४॥ यदाह:-"खपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाण"मिति।तत्रेन्द्रियानपेक्षं यज्जीवस्यैवोपजायते । तत्प्रत्यक्षं प्रमाणं स्यादन्त्यज्ञानत्रयात्मकम् ॥४५॥ इन्द्रियैर्हेतुभिर्ज्ञान, यदात्मन्युपजायते । तत्परोक्षमिति ज्ञेयमाद्यज्ञानयात्मकम् ॥ ४६ ।। प्रत्यक्षे च परोक्षे चापायांशो निश्चयात्मकः । यः स एवात्र साकारः, प्रमाणव्यपदेशभाक २५ ॥४७॥ यथाभिहितम्-"साकारः प्रत्ययः सर्वो, विमुक्तः संशयादिना । साकारार्थपरिच्छेदात्प्रमाणं तन्म- ॥५७॥ नीषिणाम् ॥४८॥" सामान्यैकगोचरस्य, दर्शनस्यात एव च । न प्रामाण्यं संशयादेरप्येवं न प्रमाणता ॥४९॥ १ प्रत्यक्षेऽपायांशकथनं विचारणीयम् ।
in Education
a
l
For Private
Personel Use Only
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
अत एव मतिज्ञाने, सम्यक्त्वदलिकान्वितः । योऽपायांशः स प्रमाणं, स्यात्पौद्गलिकसदृशाम् ॥५०॥ प्रक्षीणसप्तकानां चापायांश एव केवल । प्रमाणमप्रमाणं चावग्रहाद्या अनिर्णयात् ॥५१॥ अयं च तत्त्वार्थवृत्त्याद्यभिप्रायो, रत्नाकरावतारिकादौ च मतिज्ञानस्य तद्भेदानां अवग्रहादीनां च सांव्यावहारिकप्रत्यक्षप्रमाणत्वमुक्तं, तथा च तद्वन्थ:-"अवग्रहश्चेहा चावायश्च धारणा च ताभिर्भेदो-विशेषस्तस्मात्प्रत्येकमिन्द्रियानिन्द्रियनिबन्धनं प्रत्यक्षं चतुर्भेदमिति" श्रुतज्ञानेऽप्यपायांशा, प्रमाणमनया दिशा । निमित्तापेक्षणादेते, परोक्षे इति कीर्तिते ॥५२॥ परोक्षं बनलज्ञानं, धूमज्ञाननिमित्तकम् । लोके तद्वदिमे ज्ञेये, इन्द्रियादिनिमित्तके ॥५३॥ इदं च निश्चयनयापेक्षया व्यपदिश्यते । प्रत्यक्षव्यपदेशोऽपि, व्यवहारान्मतोऽनयोः॥५४॥ तथोक्तंनन्द्यां-"तं समासओ दुविहंपण्णत्तं, तं०-इंदियपच्चक्खं च नोइंदियपच्चक्खं च इत्यादि", ननु च-प्रत्यक्षमनुमानं चागमश्चेति त्रयं विदुः। प्रमाणं कापिला आक्षपादास्तत्रोपमानकम् ॥५५॥ मीमांसकाः षडापत्यभावाभ्यां सहोचिरे । द्वे त्रीणि वा काणभुजा, द्वे बौद्धा आदितो विदुः ॥५६॥ एक च लोकायतिकाः, प्रमाणानीत्यनेकधा । परैरुक्तानि किं तानि, प्रमाणान्यथवाऽन्यथा ? ॥५७॥ अत्रोच्यते-एतान्यायज्ञानयुग्मेऽन्तर्भूनान्यखिलान्यपि । इन्द्रियार्थसंन्निकर्षनिमित्तकतया किल ॥५८॥ अप्रमाणानि वाऽमूनि, मिथ्यादर्शनयोगतः । असद्बोधव्यापृतेश्चोन्मत्तवाक्यप्रयोगवत् ॥ ५९ ॥ पश्चानामप्यथैतेषां, सहभावो विचार्यते । एक द्वे वीणि चत्वारि, स्युः सहकत्र देहिनि ॥६०॥ तथाहि-प्राप्तं निसर्गसम्यक्त्वं, येन स्यात्तस्य केवलम् ।
१४
Jan Ed S
emana
For Private
Personal use only
Doww.jainelibrary.org
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
प्रामाण्यविचार:
१५
॥५८॥
मतिज्ञानमनवाप्तश्रुतस्यापि शरीरिणः ॥६१॥ अत एव मतियंत्र, श्रुतं तत्र न निश्चितम् । श्रुतं यत्र मतिज्ञान तत्र निश्चितमेव हि ॥३२॥ अयं तत्त्वार्थवृत्याद्यभिप्रायः, नन्दीसूत्रादौ तु-'जत्थ मइनाणं तत्थ सुअनाणं, जत्थ सुअनाणं तत्थ मइनाणं' इत्युक्तं, अत एवैकेन्द्रियाणामपि श्रुतज्ञानं स्वीकृतं श्रुते, यथा-"जह मुहुम भाविंदियनाणं दविंदियावरोहेऽवि । दवसुआभामिवि भावसुअं पत्थिवाईणं ॥१॥" भावेन्द्रियोपयोगश्च बकुलादिवदेकेन्द्रियाणां सर्वेषां भाव्या, तथा मलयगिरिपूज्या अप्याहुः नन्दीवृत्तौ-यद्यपि तेषामेकेन्द्रियादीनां परोपदेशश्रवणा संभवस्तथापि तेषां तथाविधक्षयोपशमभावतः कश्चिदव्यक्तोऽक्षरलाभो भवति यदशादक्षरानुषक्तं श्रुतज्ञानमुपजायते, इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यं, तेषामप्याहाराद्यभिलाष उपजायते, अभिलाषश्च प्रार्थना, सा च यदीदमहं प्रामोमि तदा भव्यं भवतीत्याद्यक्षरानुविद्वैव, ततस्तेषामपि काचिद्व्यक्ताक्षरोपलब्धिरवश्यं प्रतिपत्तव्ये"ति । मतिज्ञानश्रुतज्ञानरूपे हे भवतः सह । त्रीणि ते सावधिज्ञाने, समनःपर्यवे तु वा ॥६३ ॥ चतुर्णा सहभावोऽपि, च्छद्मस्थश्रमणे भवेत् । पञ्चानां सहभावे तु, मतद्वितयमुच्यते ॥६४॥ केचिदूचुन नश्यन्ति, यथाऽर्केऽभ्युदिते सति । महांसि चन्द्रनक्षत्रदीपादीन्यखिलान्यपि ॥६५॥ भवन्त्यकिश्चित्कराणि, किंतु प्रकाशनं प्रति । छाद्मस्थिकानि ज्ञानानि, प्रोद्भते केवले तथा ॥६६॥ ततो न केवलेनैषां, सहभावो विरुध्यते । अव्यापारान्निष्फलानामप्यक्षाणामिवाहति ॥ ७॥ अन्ये त्वाहुन सन्त्येव, केवलज्ञानशालिनि । छाद्मस्थिकानि ज्ञानानि, युक्तिस्तत्राभिधीयते ॥ १८॥ अपायसव्याभावान्मतिज्ञानं न
५
।
२८
JainEducation
For Private
Personel Use Only
Jainelibrary.org
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Education
संभवेत् । न श्रुतज्ञानमपि यत्तन्मतिज्ञानपूर्वकम् ॥ ६९ ॥ रूपिद्रव्यैकविषये, न तृतीयतुरीयके । लोकालोकविषयकज्ञानस्य सर्ववेदिनः ॥ ७० ॥ क्षयोपशमजान्यन्यान्यन्त्यं च क्षायिकं मतम् । सहभावस्तदेतेषां पश्चानामेति नौचितीम् ॥ ७१ ॥ कटे सत्युपकल्प्यन्ते, जालकान्यन्तराऽन्तरा । मूलतः कटनाशे तु, तेषां व्यवहृतिः कुतः ॥ ७२ ॥ किंच - ज्ञानदर्शनयोरेवोपयोगौ स्तो यथाक्रमम् । अशेषपर्यायद्रव्यबोधिनोः सर्ववेदिनः ॥ ७३ ॥ एकस्मिन् समये ज्ञानं, दर्शनं चापरक्षणे । सर्वज्ञस्योपयोगौ द्वौ, समयान्तरितौ सदा ॥ ७४ ॥ तथाहु:- "नामि दंसणंमि य, एतो एकतरयंमि उवउत्ता । सङ्घस्स केवलिस्सवि, जुगवं दो नत्थि उगओगा ॥ ७५ ॥" इदं सैद्धान्तिक मतं, तार्किकाः केचनोचिरे । स्यातामेवोपयोगौ द्वावेकस्मिन् समयेऽर्हतः ॥ ७६ ॥ अन्यथा कर्मण इव, स्यादावारकता मिथः । एकैकस्योपयोगस्यान्योपयोगोदयद्रुहः ॥ ७७ ॥ यचैतयोः साद्यनन्ता, स्थितिरुक्तोपयोगयोः । व्यर्था स्यात्साऽप्यनुदयादेकैकसमयान्तरे ॥ ७८ ॥ अन्ये च केचन प्राहुर्ज्ञानदर्शनयोरिह । नास्ति केवलिनो भेदो, निःशेषावरणक्षयात् ॥ ७९ ॥ ज्ञानैकदेशः सामान्यमात्रज्ञानं हि दर्शनम् । तत्कथं देशतो ज्ञानं, संभवेत्सर्ववेदिनः १ ॥ ८० ॥ इत्यादि, उक्तं च- "केई भांति जुगवं जाणइ पासइ य | केवली नियमा । अन्ने एगंतरियं, इच्छन्ति सुअवएसेणं ॥ १ ॥ अन्ने न चेव वीसुं, दंसणमिच्छति जिणवरिंदस्स । जं चिय केवलनाणं, तं चिय से दंसणं बिंति ॥ ८१ ॥” अत्र च भूयान् युक्तिसंदर्भोऽस्ति स तु नन्दीवृत्तिसम्मत्यादिभ्योऽवसेयः । अथ प्रकृतं विनैताभ्यां परः कश्चिन्नोपयोगोऽर्हतां मतः । ततः कथं भवेत्तेषां मत्या
१०
१४
v.jainelibrary.org
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ५९ ॥
दिज्ञानसंभवः ॥ ८२ ॥ इत्यादि प्रायोऽर्थतस्तत्त्वार्थ भाष्यवृत्तिगतं । अथ ज्ञानस्थितिद्वेधा, प्रज्ञप्ता परमेश्वरैः । साधनन्ता सादिसान्ता, तत्राद्या केवलस्थितिः ॥ ८३ ॥ शेषज्ञानानां द्वितीया, तत्राद्यज्ञानयोर्लघुः । अन्तमुहूर्त्तमुत्कृष्टा, षट्षष्टिः सागराणि च ॥ ८४ ॥ इयं चैवं वयस्त्रिंशद्वार्द्धिमानौ, भवौ द्वौ विजयादिषु । द्वाविंशत्यब्धिमानान् वा, भवांस्त्रीनच्युतादिषु ॥ ८५ ॥ कृत्वोत्कर्षाच्छिवं यायात्, सम्यक्त्वमथवा त्यजेत् । सातिरेका नरभवैः, षट्षष्टिर्वार्द्धयस्तदा ॥ ८६ ॥ यदाहु:- "दो वारे विजयाइसु गयस्स तिन्नचुए अहव ताई । अइरेगं नरभवियं, नाणाजीवाण सङ्घद्धं ॥ ८७ ॥ अथोत्कृष्टावधिज्ञानस्थितिरेषैव वर्णिता । जघन्या चैकसमयं, सा त्वेवं परिभाव्यते ॥ ८८ ॥ यदा विभङ्गकज्ञानी, सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते । तदा विभङ्गसमये, तस्मिन्नेवा | वधिर्भवेत् ॥ ८९ ॥ क्षणे द्वितीये तद् ज्ञानं, चेत्पतेन्मरणादिना । तदा जघन्या विज्ञेयाऽवधिज्ञानस्थितिर्बुधैः ॥९०॥ संयतस्याप्रमत्तत्वे, वर्त्तमानस्य कस्यचित् । मनोज्ञानं समुत्पद्य, द्वितीयसमये पतेत् ॥ ९९ ॥ एवं मनः पर्यवस्य, स्थितिर्लघ्वी क्षणात्मिका । देशोना पूर्वकोटी तु महती साऽपि भाव्यते ॥ ९२ ॥ पूर्वकोट्यायुषो दीक्षाप्रतिपत्तेरनन्तरम् । मनोज्ञाने समुत्पन्ने, यावज्जीवं स्थिते च सा ॥ ९३ ॥ तत्र च — स्थितिर्लघ्वी ऋजुमतिमनोज्ञानव्यपेक्षया । अन्यत्वप्रतिपातित्वादाकैवल्यं हि तिष्ठति ॥ ९४ ॥ केवलिस्थितिरुक्तैव, साद्यनन्तेत्यनन्तरम् । |मत्यज्ञानश्रुताज्ञानस्थितिस्त्रेधा भवेदथ ॥ ९५ ॥ अनाद्यनन्ताऽभव्यानां, भव्यानां द्विविधा पुनः । अनादिसान्ता साद्यन्ता, तत्राद्या ज्ञानसंभवे ॥ ९६ ॥ सादिसान्ता पुनर्द्वैधा, जघन्योत्कृष्टभेदतः । जघन्याऽन्तर्मुहूर्त्तं स्यात्,
ज्ञानानां सहभावः
ज्ञानस्थितिथ
१५
२०
२५
॥ ५९ ॥
२८
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
सा चैवं परिभाव्यते ॥९७ ॥ जन्तोर्धष्टस्य सम्यक्त्वात्, पुनरन्तर्मुहूर्ततः । सम्यक्त्वलब्धौ लध्वी स्यादज्ञानद्वितयस्थितिः॥९८॥ अनन्तकालचक्राणि, कालतः परमा स्थितिः । देशोनं पुद्गलपरावर्ती क्षेत्रतस्तु सा ॥ ९९ ॥ भावना-सम्यक्त्वतः परिभ्रश्य, वनस्पत्यादिषु भ्रमन् । सम्यत्तवं लभतेऽवश्यं, कालेनैतावता] पुनः॥ १०॥ जघन्या स्वेकसमयं, विभङ्गस्य स्थितिः किल । उत्पद्य समयं स्थित्वा, भ्रश्यतः सा पुनर्भवेत् | ॥१॥ त्रयस्त्रिंशत्सागराणि, विभङ्गावस्थितिगुरुः । देशोनया पूर्वकोव्याऽधिकानि तत्र भावना ॥२॥ देशोनपूर्वकोव्यायुः, कश्चिदङ्गी विभङ्गवान् । ज्येष्ठायुरप्रतिष्ठाने, तिष्ठेद्विभङ्गसंयुतः॥३॥ इति ज्ञानस्थितिः। अथान्तरं-मत्यादिज्ञानतो भ्रष्टः, पुनः कालेन यावता । ज्ञानमामोति मत्यादिज्ञानानामन्तरं हि तत् ॥४॥ अनन्तकालचक्राणि, कालदः स्यान्मतिश्रुते। देशोनं पुद्गलपरावर्तार्द्ध क्षेत्रतोऽन्तरम् ॥५॥ एवमेवावधिमनःपर्यायज्ञानयोः परम् । अन्तर्मुहर्तमानं च, सर्वेष्वेष्वन्तरं लघु ॥६॥ केवलस्यान्तरं नास्ति, साद्यनन्ता हि तत्स्थितिः। अनाद्यन्तानादिसान्तेऽज्ञानदयेऽपि नान्तरम् ॥७॥ सादिसान्ते पुनस्तत्राधिकाः षट्षष्टिसागरा। इयमुत्कृष्टसम्यक्त्वस्थितिरेव तदन्तरम् ॥८॥ अन्तरं स्थाद्विभङ्गस्य, ज्येष्ठं कालो वनस्पतेः । अन्तर्मुहूर्तमेतेषु, त्रिषु ज्ञेयं जघन्यतः॥९॥ स्तोका मनोज्ञा अवधिमन्तोऽसंख्यगुणास्ततः। मतिश्रुतज्ञानवन्तो, मिथस्तुल्यास्ततोऽधिकाः॥१०॥ असंख्येयगुणास्तेभ्यो, विभङ्गज्ञानशालिनः। केवलज्ञानिनोऽनन्तगुणास्तेभ्यः प्रकी|र्तिताः॥११॥ तदनन्तगुणास्तुल्या, मिथो यज्ञानवर्तिनः अप्यष्टखेषु पर्याया, अनन्ताः कीर्त्तिता जिनः ॥१२॥
Jain Education
a
l
For Private
Personel Use Only
nelibrary.org
LON
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ६० ॥
Jain Education
सर्वेषां पर्यवा द्वेधा, स्वकीयापर भेदतः । स्वधर्मरूपास्तव खे, परधर्मात्मकाः परे ॥ १३ ॥ क्षयोपशमवैचित्र्या| न्मतेरवग्रहादयः । अनन्तभेदाः षट्स्थानपतितत्वाद्भवन्ति हि ॥ १४ ॥ षट्स्थानानि चैवं संख्येया संख्येयानन्तभागैर्वृद्धिर्यथाक्रमम् । संख्येया संख्येयानन्तगुणैर्वृद्धिरितीह षट् ॥ १५ ॥ अनन्तासंख्य संख्यानामनन्तासंख्यसंख्यकाः । भेदाः स्युरित्यनन्तास्ते, मतिज्ञानस्य पर्यवाः ॥ १६ ॥ निर्विभागैः परिच्छेदैछिन्नं कल्पनयाथवा । अनन्तखण्डं भवतीत्यनन्ता मतिपर्यवाः ॥ १७ ॥ खेभ्योऽनन्तगुणा ये च सन्त्यर्थान्तरर्पयवाः । यतस्तेऽत्रोपयुज्यन्ते, ततस्तेऽप्यस्य पर्यवाः ॥ १८ ॥ यद्यप्यस्मिन्नसंबद्धास्तथाप्यस्योपयोगतः । तेऽदसीया असं| बद्धखोपयोगिधनादिवत् ॥ १९ ॥ आह च - "जइ ते परपज्जाया, न तस्स अह तस्स न परपज्जाया । आचार्यः प्राह-जं तंमि असंबद्धा, तो परपज्जायववदेसो ॥ २० ॥ चाय सपज्जाय विसेसणाइणा तस्स जमुवजुजंति । सघणमिवासंबद्धं, हवंति तो पज्जवा तस्स ॥ २१ ॥ चाय'त्ति त्यागेन खपर्याय विशेषणादिना च परपर्याया घटादिपर्याया येन कारणेन तस्य ज्ञानस्योपयुज्यन्ते - उपयोगं यान्ति यतो घटादिसकलवस्तुपर्यायपरित्याग एव | ज्ञानादिरर्थः सुज्ञातो भवतीति सर्वे पर्यायाः परित्यागमुखेनोपयुज्यन्ते, तथा परपर्यायसद्भाव एव एते खप यया इति विशेषयितुं शक्या इति खपर्यायविशेषणेन परपर्याया उपयुज्यन्त इतितात्पर्यं ॥
श्रुतेऽप्यनन्ताः पर्यायाः प्रोक्ताः खपरभेदतः । खीयास्तत्र च निर्दिष्टास्तेऽक्षरानक्षरादयः ॥ २२ ॥ क्षयोपशमवैचित्र्याद्विषयानन्त्यतश्च ते । श्रुतानुसारिबोधानामानन्त्यात्स्युरनन्तकाः ॥ २३ ॥ अविभागपरिच्छेदैर
अन्तरं ज्ञानपर्याय
ल्पबहुत्वं च १५
88
२५
॥ ६० ॥
२८
jainelibrary.org
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
mrate
नन्ता वा भवन्ति ते । अनन्ताः परपर्याया, अभ्यस्मिंस्ते तु पूर्ववत् ॥ २४ ॥ अथवा स्यात् श्रुतज्ञानं, श्रुतम-16) न्थानुसारतः। श्रुतग्रन्थश्चाक्षरात्मा, तान्यकारादिकानि च ॥ २५ ॥ तच्चैकैकमुदात्तानुदात्तस्वस्तिभेदतः। अल्पानल्पप्रयत्नानुनासिकात्यविशेषतः ॥ २६ ॥ संयुक्तासंयुक्तयोगद्व्यादिसंयोगभेदतः । आनन्त्याचाभिधेयानां, भिद्यमानमनन्तधा ॥ २७॥ केवलो लभतेऽकारः, शेषवर्णयुतश्च यान् । ते सर्वेऽस्य स्वपर्यायास्तदन्ये परपर्यवाः॥२८॥ एवं-च अनन्तखान्यपर्यायमेकैकमक्षरं श्रुते। पर्यायास्तेऽखिलद्रव्यपर्यायराशिसम्मिताः॥२९॥ आह च-"एकेकमक्खरं पुण सपरपज्जायभेयओ भिन्नं । तं सबदवपज्जायरासिमाणं मुणेयत्वं ॥३०॥ जे लहहाहा केवलो से सवण्णसहिओ अ पनवेगारो।ते तस्स सपज्जाया सेसा परपज्जवा लस्स ॥३१॥" अयं भावा-यान्पायान केवलोऽकारः शेषवर्णसहितश्च लभते ते तस्य स्खपर्यायाः, शेषाः-शेषवर्णसंबन्धिनो घटाद्यपरपदार्थसंकन्धिनश्च परपर्यायास्तस्य-अकारस्येति । एवंविधानेकवर्णपर्यायौधैः समन्वितम् । ततश्चानन्तपर्यायं, श्रुतज्ञानं श्रुतं श्रुते ॥ ३२ ॥ अथावधेः स्वपर्याया, विविधा या भिदोऽवधेः। क्षायोपशमिकभवप्रत्ययादिविभेदतः ॥ ३३ ॥ तिर्यगनैरयिकखर्गिनरादिखामिभेदतः। अनन्तभित्स्वविषयद्रव्यपर्यायभेदतः ॥ ३४॥ असंख्यभित्स्वविषयक्षेत्राद्धाभेदतोऽपि च । निर्विभागैर्विभागैश्च, ते चैवं स्युरनन्तकाः ॥३५॥ एवं मनःपर्यवस्य, केवलस्य च पर्यवाः। निर्विभागैर्विभागैः स्वैः, खाम्यादिभेदतोऽपि च ॥३६॥ अनन्तद्रव्यपर्यायज्ञानाच स्युरनन्तकाः। अज्ञानत्रितयेऽ
लो.प्र.११
Jain Educati Ganational
For Private & Personel Use Only
lowrjainelibrary.org
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्ग:
ज्ञानादिपर्यवाः १५
प्येवं, ज्ञेया अनंतपर्यवाः॥३७॥ परंपर्यवास्तु सर्वत्र प्राग्वत् । अष्टाप्येतानि तुल्यानि, व्यपेक्ष्य स्वान्यपर्यवान् । यद्धक्ष्येऽल्पबहुत्वं तदपेक्ष्य स्खीयपर्यवान् ॥ ३८॥ तत्र स्युः सर्वतः स्तोका, मनःपर्यायपर्यवाः। मनोद्रव्यैकविषयमिदं ज्ञानं भवेद्यतः॥ ३९॥ एभ्योऽनन्तगुणाः किं च, विभङ्गज्ञानपर्यवाः । मनोज्ञानापेक्षया यद्विभङ्गविषयो महान् ॥४०॥ आरभ्य नवमग्रैवेयकादासप्तमक्षितिम् । ऊर्ध्वाधः क्षेत्रके तिर्यक, चासंख्यद्वीपवार्द्धिगे ॥४१॥ रूपिद्रव्याणि कतिचित्तत्पर्यायांश्च वेत्ति सः। अनन्तनास्ते च मनोज्ञानज्ञेयव्यपेक्षया ॥ ४२ ॥ समस्तरूपि. द्रव्याणि, प्रतिद्रव्यमसंख्यकान् । भावान्वेत्तीत्यनन्तना, विभङ्गापेक्षयाऽवधौ ॥४३॥ अनन्तगुणितास्तेभ्यः, श्रुताज्ञान इदं यतः । सर्वमूर्त्तामूलद्रव्यसर्वपर्यायगोचरम् ॥ ४४ ॥ श्रुताज्ञानाविषयाणां, केषाञ्चिद्विषयत्वतः। स्पष्टत्वाच श्रुतज्ञाने, तेभ्यो विशेषतोऽधिकाः॥४५॥ अभिलाप्यानभिलाप्यविषयेऽनन्तसंगुणाः। मत्यज्ञाने श्रुतज्ञानादभिलाप्यैकगोचरात् ॥ ४६ ॥ मतिज्ञानपर्यवाश्च, ततो विशेषतोऽधिकाः। मत्यज्ञानाविषयाणां, विषयत्वात् स्फुटत्वतः॥४७ ॥ तेभ्योऽप्यनन्तगुणिताः, केवलज्ञानपर्यवाः । सर्वाद्धाभाविनिखिलद्रव्यपर्यायभासनात् ॥४८॥ इति ज्ञानम् २६ ॥ द्विरूपं हि भवेद्वस्तु, सामान्यतो विशेषतः । तत्र सामान्यबोधो यस्तदर्शनमिहोदितम् ॥ ४९॥ यथा प्रथमतो दृष्टो, घटोऽयमिति बुध्यते । तद्दर्शनं तद्विशेष- बोधो ज्ञानं भवेत्ततः ॥५०॥ उपचारनयेनेदं, दर्शनं परिकीर्तितम् । विशुद्धनयतस्तच्चानाकारज्ञानलक्षणम् ॥५१॥ इदं साकारबोधात्मागवश्यमभ्युपेयते । अन्यथेदं किञ्चिदिति, स्यात्कुतोऽव्यक्तबोधनम् ? ॥५२॥ अनेन
२५
२७
in Education
a
al
For Private & Personel Use Only
lugainelibrary.org
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Educa
च विनापि स्याद्बोधः साकार एवं चेत् । तदैकसमयेनैव स्यादू घटादिविशेषचित् ॥ ५३ ॥ तथोक्तं तत्त्वार्थवृत्तौ - "औपचारिकनयश्च ज्ञानप्रकारमेव दर्शनमिच्छति, शुद्धनयः पुनरनाकारमेव संगिरते दर्शनं, आकारवच विज्ञानं, आकारश्च विशेषनिर्देशो भावस्य पर्यायतः प्रोक्तः, स च दर्शनसमनन्तरमेव संपद्यते, अन्तर्मुहूर्त्तकाल - भावित्वात्, आकारपरिज्ञानाच प्रागालोचनमवश्यमभ्युपेयम्, अन्यथा प्रथमत एव पश्यतः किमपीदमिति कुतोऽव्यक्तबोधनं स्यात् ?, यदि चालोचनमन्तरेणाकार परिज्ञानोत्पाद एवं पुंसः स्यात् तथा सत्येकसमयमात्रेण स्तम्भकुम्भादीन् विशेषान् गृह्णीयात् " इति ॥ सामान्येनावबोधो यश्चक्षुषा जायतेऽङ्गिनाम् । तचक्षुर्दर्शनं प्राहुस्तत्स्यादाचतुरिन्द्रियात् ॥ ५४ ॥ यः सामान्यावबोधः स्याच्चक्षुर्वर्जापरेन्द्रियैः । अचक्षुर्दर्शनं तत्स्यात्, सर्वेषामपि देहिनाम् ॥५५॥ तथोक्तं तत्त्वार्थवृत्तौ "चक्षुर्दर्शनमित्यादि, चक्षुषा दर्शनम् - उपलब्धिस्सामान्यार्थग्रहणं, स्कन्धावारोपयोग वत्तदहर्जातबालदार कनयनोपलब्धिवद्वा व्युत्पन्नस्यापि, अचक्षुर्द्दर्शनं-शेषेन्द्रियैः श्रोत्रा - दिभिः सामान्यार्थग्रहण" मिति ॥ येनावधेरुपयोगे, सामान्यमवबुध्यते । अवधिज्ञानिनामेव, तत्स्यादवधि| दर्शनम् ॥ ५६ ॥ यथैवमवधिज्ञाने, भवत्यवधिदर्शनम् । एवं विभङ्गेऽप्यवधिदर्शनं कथितं श्रुते ॥ ५७ ॥ अयं भावः- सम्यगहगवधिज्ञाने, सामान्यावगमात्मकम् । यथैतत्स्यात्तथा मिध्यादृग्विभङ्गेऽपि तद्भवेत् ॥ ५८ ॥ नाम्ना च कथितं प्राज्ञैस्तदप्यवधिदर्शनम् । अनाकारत्वाविशेषाद्वि भङ्ग दर्शनं न तत् ॥ ५९ ॥ अयं सूत्राभिप्रायः ॥ आहुः कार्मग्रन्धिकास्तु, यद्यपि स्तः पृथक् पृथक् । साकारेतरभेदेन विभङ्गावधिदर्शने ॥ ६०॥ तथापि
mational
१०
१४
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
॥६२॥
| मिथ्यारूपत्वान्न सम्यग्वस्तुनिश्चयः । विभङ्गानापनाकारत्वेनास्यावधिदर्शनात् ॥११॥ ततोऽमेन दर्शनेम, पृथ-दर्शनवरूग्विवक्षितेन किम् । तत्कार्मग्रन्धिकै स्य, पृथगेतद्विवक्षितम् ॥६२॥ तथोक्तं-"सुत्ते अविभंगस्स य परूवियं
ओहिदसणं बहुसो।कीस पुणो पडिसिद्ध, कम्मपगडीपगरणमि १ ॥६३॥” इत्याधिक विशेषणवत्याः प्रज्ञाप-पक्षा नाष्टादशपदवृत्तितश्चावसेयं, तत्त्वार्थवृत्तिकृतापिविभङ्गज्ञानेऽवधिदर्शनं नाङ्गीकृतं,तथा च तमन्ध:-"अवधि-18 गावरणक्षयोपशमाद्विशेषग्रहणविमुखोऽवधिदर्शनमित्युच्यते, नियमतस्तु तत्सम्यग्दृष्टिखामिक"मिति । सर्वर भूतभवद्भाविवस्तुसामान्यभावतः। बुध्यते केवलज्ञानादनु केवलदर्शनात् ॥ ६४ ॥ आदौ दर्शनमन्येषां, ज्ञान तदनु जायते । केवलज्ञानिनामादी, ज्ञानं तदनु दर्शनम् ॥६५॥ अत एव 'सबन्नूणं सबदरिसीण'मिति पयते। प्रज्ञप्ताः सर्वतः स्तोका, जन्तवोऽवधिदर्शनाः । असंख्यगुणितास्तेभ्यश्चक्षुर्दर्शमिनो मताः ॥६६॥ अनन्तगुमितास्तेभ्यो, मताः केवलदर्शनाः। अचक्षुर्दर्शनास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणिताधिकाः॥ ६७॥ कालश्चक्षुर्दर्शनस्य, जघन्योऽन्तर्मुहर्तकम् । सातिरेकं पयोराशिसहस्रं परमः पुनः॥६८॥ अचक्षुर्दर्शनस्यासाचभव्यापेक्षया भवेत् । भनायन्तोऽनादिसान्तो, भव्यानां सिद्धियायिनाम् ॥ ६९ ॥ जघन्येनैकसमयः, स्यात्कालोऽवधिदर्शने । उत्कर्षतो।। द्विः षट्पष्टिाधयः साधिका मताः॥७॥ ज्येष्ठो नन्ववधिज्ञामकाल: षट्पष्टिवार्धयःअवधेर्दर्शने तर्हि, पथोक्तो घटते कथम् ? ॥७१॥ अत्रोच्यते-अवधौ च विभङ्गे चावधिदर्शनमास्थितम्।ततोद्वाभ्यांसहभागायुक्तः सोऽवधिदर्शने ॥७२॥ अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु प्रज्ञापनाष्टादशपदवृत्तितोऽक्सेयंकालः सादिनन्तश्च भवेल्केवलदर्शने। एषु
२५
६२॥
Jain Education
a
l
arjainelibrary.org
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
कस्याप्यनादिवं, नाचक्षुदर्शनं विना ॥७३॥ इति दर्शनं २७॥ चतुष्टयी दर्शनानां, घज्ञानी ज्ञानपञ्चकम् ।। अमी द्वादश निर्दिष्टा, उपयोगा बहुश्रुतैः॥ ७४ ॥ ज्ञानपञ्चकमज्ञानत्रयं साकारका अमी। उक्ताः शेषास्त्वनाकाराश्चतुर्दर्शनलक्षणाः ॥७५ ॥ इत्युपयोगाः २८। __ आहारकाः स्युश्छमस्थाः, सर्वे चक्रगति विना । त्रिचतु:समयान्ता स्यात्तत्रानाहारितापि च ॥७६॥ गतिर्द्विधा हि जन्तूनां, प्रस्थितानां परं भवम् । सरला कुटिला चापि, तकसमयाऽऽदिमा ॥ ७७॥ उत्पत्ति-1 देशो यत्र स्यात्समश्रेणिव्यवस्थितः। तत्रैकसमयेनैच, ऋजुगत्याऽसुमान् व्रजेत् ॥७८॥ परजन्मायुराहाली, क्षणेऽस्मिन्नेव सोऽनुते । तुल्यमेतहजुगती, निश्चयव्यवहारयोः॥७९॥ द्वितीयसमयेऽनृज्या, व्यवहारजया-18 श्रयात् । उदेति परजन्मायुरिदं तात्पर्यमत्र च ॥ ८॥ प्राग्भवान्त्यक्षणो वक्रपरिणामाभिमुख्यतः। कैश्चिद्वक्रादिसमयो, गण्यते व्यवहारतः॥ ८१॥ ततश्च-भवान्तरायसमये, गतेस्त्वस्मिन् द्वितीयके । समये परजन्मायुरुदेति खलु तन्मले ॥ ८२॥ यदाहु:-"उज्जुगइपढमसमए परभवियं आउअंतहाऽऽहारो । वकाइ बीअसमए परभविआउं उदयमेह ॥ ८३॥" निश्चयनयाश्रयाच्च-संमुखोऽङ्गी गतर्यद्यप्यन्त्यक्ष तथापि हि । सत्वात्पाग्भवसंबन्धिसंघातपरिशाटयोः ॥ ८४॥ समयः प्राग्भवस्यैष, संभवेन्न पुनर्गतेः । प्राच्याङ्गसर्वशाटोऽयभवाद्यक्षण एव यत् ॥ ८५॥ 'परभवपढमे साडोत्ति आगमवचनात् ॥ उदेति समयेऽत्रैव, गतिः सह तदायुषा । ततोऽन्यजन्मायुर्वक्रगतावप्यादिमक्षणे ॥८६॥ त्रिभिर्विशेषकं । तत्र संघातपरिशाटस्वरूपं चैवमा
alihinelibrary.org
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सगे।
२९ आहारे ऋजुवक
गती
॥६३॥
गमे-संघातः परिशाटश्च, तौ द्वौ समुदिताविति । औदारिकादिदेहानां, प्रज्ञप्तं करणत्रयम् ॥ ८७॥ सर्वात्मना पुद्गलानामाचे हि ग्रहणं क्षणे । चरमे सर्वथा त्यागो, द्वितीयादिषु चोभयम् ॥८८॥ यथा तप्ततापिकायां, सस्नेहायामपूपकः । गृह्णाति प्रथमं लेहं, सर्वात्मना न तु त्यजेत् ॥ ८९॥ ततश्च किञ्चिद् गृह्णाति, स्नेहं किञ्चित्पुनस्त्यजेत् । संघातभेदरूपत्वात्पुद्गलानां खभावतः॥९०॥ तथैव प्रथमोत्पन्न:, प्राणभृत्प्रथमक्षणे। सर्वात्मनोत्पत्तिदेशस्थितान् गृह्णाति पुद्गलान् ॥ ९१ ॥ ततश्चाभवपर्यन्तं, द्वितीयादिक्षणेषु तु । गृहंस्त्यजंश्च तान् कुर्यात्, संघातपरिशाटनम् ॥ ९२॥ तत आयु समाप्तौ च, भाव्यायुम्प्रथमक्षणे । स्याच्छाट एव प्राग्देहपुद्गलानां न तु ग्रहः ॥९३ ॥ औदारिकवैक्रियाहारकेषु स्युस्त्रयोऽप्यमी । संघातपरिशाटः स्यात्तैजसे कार्मणे सदा ॥९४ ॥ अनादित्वाद्भवेन्नैव, संघातः केवलोऽनयोः । केवलः परिशाटश्च, संभवेन्मुक्तियायिनाम् ॥१५॥ अत्र च भूयान् विस्तरोऽस्ति स चावश्यकवृत्त्यादिभ्योऽवसेयः । अथ प्रकृतं-वक्रा गतिश्चतुर्धा स्यादरेकादिशभिर्युता । तत्राद्या द्विक्षणैकैकक्षणवृद्ध्या क्रमात्पराः ॥ ९६ ॥ तथाहि-यदो+लोकपूर्वस्या, अधः अयति ||
पश्चिमाम् । एकवक्रा द्विसमया, ज्ञेया वक्रा गतिस्तदा ॥९७॥ समणिगतित्वेन, जन्तुरेकेन यात्यधः । द्वितीयसमये तिर्यगुत्पत्तिदेशमाश्रयेत् ॥९८॥ पूर्वदक्षिणोर्ध्वदेशादधश्चेदपरोत्तराम् । व्रजेत्तदा द्विकुटिला, गतिस्त्रिसमयात्मिका ॥ ९९॥ एकेनाधस्समश्रेण्या, तिर्यगन्येन पश्चिमाम् । तिर्यगेव तृतीयेन, वायव्यां दिशि याति सः॥१०॥त्रसानामेतदन्तैव, वक्रा स्यान्नाधिका पुनः । स्थावराणां चतुःपञ्चसमयान्तापि सा भवेत्
॥६३॥
For Private Personal Use Only
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ १ ॥ तत्र चतुःसमया त्वेवं-त्रसनाच्या बहिरधोलोकस्य विदिशो दिशम् । यात्येकेन द्वितीयेन, त्रसनाड्यन्तरे विशेत् ॥ २ ॥ ऊर्ध्वत तृतीयेन, चतुर्थे समये पुनः । त्रसनाड्या विनिर्गत्य दिश्यं स्वस्थानमाश्रयेत् ॥ ३ ॥ दिशो विदिशि याने तु, नाडीमाद्ये द्वितीयके । ऊर्ध्वं चाधस्तृतीये तु बहिर्विदिशि तुर्यके ॥ ४ ॥ यदोक्तरीत्या विदिशो, जायते विदिशि कचित् । तदा तत्समयाधिक्यात् स्यात्पञ्चसमया गतिः ॥ ५ ॥ उक्तं च- "विदिसाउ दिसं पढमे बीए पइसरह नाडिमज्झमि । उड्डुं तइए तुरिए उ नीइ विदिसं तु पंचमए ॥ ६ ॥” इति भगवतीवृत्तौ शतक १४ प्रथमोदेशके । भगवतीसप्तमशतकप्रथमोद्देशके तु पञ्चसामयिकीं विग्रहगतिमाश्रित्येत्थमुक्तं दृश्यते - इदं च सूत्रे न दर्शितं प्रायेणेत्थमनुत्पत्तेरिति । व्यवहारापेक्षया च भवेदाहारकोऽसुमान् । गतौ किलैकवक्रायां, समयद्वितयेऽपि हि ॥ ७ ॥ तथाहि समये पूर्वे, शरीरमेष उत्सृजेत् । तस्मिन्पुनस्तच्छरीरयोग्याः केचन पुद्गलाः ॥ ८ ॥ लोमाहारेण संबन्धमायान्ति जीवयोगतः । औदारिका दि पुद्गलादानं चाहार उच्यते ॥ ९ ॥ एवमत्राद्यसमये, आहारः परिभावितः । सर्वत्रैव द्विवक्रादावप्याचक्षण आहृतिः ॥ १० ॥ द्वितीयसमये चासावुत्पत्तिदेशमापतेत् । तदा तद्भवयोग्याणून यथासंभवमाहरेत् ॥ ११ ॥ द्विवा तु त्रिसमया, मध्यस्तत्र निराहृतिः । आद्यन्तयोः समययोराहारः पुनरुक्तवत् ॥ १२ ॥ एवं च त्रिचतुर्वक्रे, चतुःपञ्चक्षणात्मके । मध्यास्तयोर्निराहाराः, साहारावादिमान्तिमौ ॥ १३ ॥ यदाहु:-" इगदुतिचवक्कासुं दुगाइसमएस परभवाहारो । दुगवक्काइस समया इग दो तिन्नि उ अणाहारा ॥ १४ ॥ " निश्चय
Jain Educamational
१०
१४
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
णोत्कर्षतः समया आहारका असंख्येयाः ॥२०॥ तत्रायं देहमुतायात पुद्गलान् । औदारिकालान्त |
पाच
या कुदिलयाऽथवा।मलो
लोक द्रव्य.|| नये तु-भवस्य भाविनः पूर्वे, क्षणे प्राग्वपुषा सह । असंबन्धादनाप्त्या च, भाविनोऽङ्गस्य नाहतिः ॥१५॥
पञ्चसमय३ सगे: द्वितीयसमये तु स्वं, स्थानं प्राप्याहरेत्ततः। समयः स्यादनाहारः, एकबक्रागतावपि ॥१६॥ अन्यस्यां द्वाव-1
वक्रा नाहारी, तृतीयस्यां त्रयस्तथा । चतुर्थ्यामपि चत्वारः, साहारोऽन्त्योऽखिलासु यत् ॥ १७॥ ततश्च व्यव- ओज आ॥ ६४ ॥
हारेणोत्कर्षतः समयास्त्रयः। निश्चयेन तु चत्वारो, निराहाराः प्रकीर्तिताः॥१८॥ सामान्यात्सर्वतः स्तोकापा आहारनिराहाराः शरीरिणः। आहारका असंख्येयगुणास्तेभ्यः प्रकीर्तिताः॥१९॥ त्रिविधश्च स आहारः, ओजआहार आदिमःलोमाहारो द्वितीयश्च, प्रक्षेपास्यस्तृतीयकः ॥२०॥ तत्राचं देहमुत्सृज्य, ऋज्व्या कुटिलयाऽथवा मखोत्पत्तिस्थानमाप्य, प्रथमे समयेऽसुमान् ॥ २१॥ तैजसकार्मणयोगेनाहारयति पुगलान् । औदारिकाद्यालयो ग्यान्, द्वितीयादिक्षणेष्वथ ॥ २२ ॥ औदारिकादिमिश्रेणारब्धत्वादपुषस्ततः । यावच्छरीरनिष्पत्तिरम्ल - हतकालिकी ॥ २३ ॥ युग्मं ॥ यदाहु:-"तेएण कम्मरणं आहारेह अणंतरं जीवो । तेण परं मीसेणं लाव सरीरस्स मिप्फत्ती ॥ २४॥" स सर्वोऽप्योजआहार, ओजी देहाईपुङ्गलाः। ओजो वा तैजसः कायस्तहपस्तन या कृतः॥२५॥ शरीरोपष्टम्भकानां, पुगलानां समाहृतिः। स्वगिन्द्रियादिस्पर्शन, लोमाहारः स उच्यते २५ ॥ २६ ॥ मुखे कवलनिक्षेपादसौ कावलिकाभिधः। एकेन्द्रियाणां देवानां, नारकाणां च न खसी ॥२७॥ ॥४॥ जीवाः सर्वेऽप्यपर्याप्ता, ओजआहारिणो मताः। देहपर्याप्तिपर्याप्ता, लोमाहास: समेशिनः ॥ २८॥ ओजसोनाभोग एव, लोमस्त्वाभोगजोऽपि च । एकेन्द्रियाणां लोमोऽपि, स्यादनाभोग एव हि ॥ २१ ॥ सथोकं |
वथ ॥ २२ ॥ औदायितजसकार्मणयोगेनाहारयात
Jain Educati
o
nal
For Private & Personal use only
Amjainelibrary.org
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
संग्रहणीवृत्ती--" एकेन्द्रियाणामतिस्तोकापटुमनोद्रव्यलब्धीनामा भोगमान्याद्वस्तुतोऽना भोगनिवर्त्तित एव, यदागमः - "एगेंदियाणां नो आभोगनिवत्तिए, अणाभोगनिवत्तिए” इति । द्विक्षणोनो भवः क्षुल्लो, जघन्या कायसंस्थितिः । आहारित्वे गरिष्ठा च, कालचक्राण्यसंख्यशः ॥ ३० ॥ इत्याहारः २९ ॥ गुणा नाम गुणस्थानान्यमूनि च चतुर्द्दश । वच्मि स्वरूपमेतेषामन्वर्थव्यक्तिपूर्वकम् ॥ ३१ ॥ तथाहु: - "मिच्छे सासंण मीसें अविर देते पमते अपमन्ते । नियही अनियही मुहुर्मुदसमें खीर्ण सजोगिं अजोगिं गुणा ॥ ३२ ॥ " गुणा ज्ञानादयस्तेषां स्थानं नाम खरूपभित् । शुद्ध्य शुद्धिप्रकर्षापकर्षोत्थाऽत्र प्रकीर्त्त्यते ॥ ३३ ॥ तत्र मिथ्या विपयस्ता, जिनप्रणीतवस्तुषु । दृष्टिर्यस्य प्रतिपत्तिः, स मिथ्यादृष्टिरुच्यते ॥ ३४ ॥ यत्तु तस्य गुणस्थानं, सम्यग्धष्टिमबिभ्रतः । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं, तदुक्तं पूर्वसूरिभिः ॥ ३५ ॥ ननु मिथ्यादृशां दृष्टेर्विपर्यासात्कुतो भवेत् ? । ज्ञानादिगुणसद्भावो, यद् गुणस्थानतोच्यते ॥ ३६ ॥ अत्र ब्रूमः - भवेद्यद्यपि मिथ्यात्ववतामसुमतामिह । प्रतिपत्तिर्विपर्यस्ता, जिनप्रणीतवस्तुषु ॥ ३७ ॥ तथापि काचिन्मनुजपश्वादिवस्तुगोचरा । तेषामप्यविपर्यस्ता, प्रतिपत्तिर्भवेद् ध्रुवम् ॥ ३८ ॥ आस्तामन्ये मनुष्याचा, निगोददेहिनामपि । अस्त्यव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्तिर्यथास्थिता ॥ ३९ ॥ यथा घनघनच्छन्नेऽर्केऽपि स्यात्काऽपि तत्प्रभा । अनावृत्ता न चेद्रात्रिदिनाभेदः प्रसज्यते । ॥ ४० ॥ इति प्रथमगुणस्थानं । आयमोपशमिकाख्यं, सम्यक्त्वस्यात्र सादयेत् । योऽनन्तानुबन्धिकषायोदयः | साऽऽयसादनः ॥ ४१ ॥ उत्कर्षादावलीषट्कात्, सम्यक्त्वमपगच्छति । अनन्तानुबन्ध्युदये, जघन्यात्समयेन
Jain Education therational
१०
१४
jainelibrary.org
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्ग:
मिमाणि
यत् ॥४२॥ पृषोदरादित्वाल्लोपे, यकारस्य भवेत्पदम् । आसादनमित्यनन्तानुबन्ध्युदयवाचकम् ॥४३॥ ३० गुणततश्च-आसादनेन युक्तो यः, स सासादन उच्यते । स चासौ सम्यग्दृष्टिस्तद्, गुणस्थानं द्वितीयकम् ॥४४॥ स्थाने मितच्चैवं-प्रागुक्तस्यौपशमिकसम्यक्त्वस्य जघन्यतः। शेषे क्षणे षट्सु शेषासूत्कर्षादावलीष्वथ ॥४५॥ महाविभी-थ्याष्टि|षिकोत्थानकल्पः केनापि हेतुना । कस्याप्यनन्तानुबन्धिकषायाभ्युदयो भवेत् ॥४६॥ अथैतस्मिन्ननन्तानुब-18
सासादनन्धिनामुदये सति। सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं स्पृशत्यसौ ॥४७॥ यदिवोपशमश्रेण्याः, स्यादिदं पततोऽङ्गिनः। सम्यक्त्वस्यौपशमिकस्यान्ते कस्यापि पूर्ववत् ॥४८॥ तत ऊर्ध्वं च मिथ्यात्वमवश्यमेव गच्छति । पतन् द्वितीयसोपानादाद्यमेव हि गच्छति ॥४९॥ नाना सास्वादनसम्यग्हरगुणस्थानमयदः । उच्यते तत्र चान्वर्थो, मतिमद्भिरयं स्मृतः॥५०॥ उद्बम्यमानसम्यक्त्वाखादनेन सहास्ति यः। स हि सास्वादनसम्यगह|ष्टिरित्यभिधीयते ॥५१॥ यथा हि भुक्तं क्षीरानमुद्वमन्मक्षिकादिना। किश्चिदाखादयत्येव, तसं व्यग्रमा| नसः ॥५२॥ तथाऽयमपि मिथ्यात्वाभिमुखो भ्रान्तमानसः । सम्यक्त्वमुद्वमन्नाखादयेत्किञ्चन तद्रसम् ॥५३॥ इति द्वितीयं । पूर्वोक्तपुञ्जत्रितये, स यद्यर्धविशुद्धकः । समुदेति तदा तस्योदयेन स्याच्छरीरिणः ॥५४॥श्रद्धा | २५ जिनोक्ततत्त्वेर्धविशुद्धाऽसौतदोच्यते। सम्यगमिथ्यादृष्टिरिति, गुणस्थानं च तस्य तत्॥५५॥युग्मम् । अन्तर्मुहूते ॥६५॥ कालोऽस्य, तत ऊवं स देहभृत् । अवश्यं याति मिथ्यात्वं, सम्यक्त्वमथवाऽऽप्नुयात् ॥५६॥ इति तृतीयं । सावद्ययोगाविरतो, यः स्यात्सम्यक्त्ववानपि । गुणस्थानमविरतसम्यग्दृष्ट्याख्यमस्य तत् ॥५७॥ पूर्वोक्तमौ
Jain Educaton Internationa
For Private & Personel Use Only
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
पशमिक, शुद्धपुञ्जोदयेन वा। क्षायोपशमिकाभिख्य, सम्यक्त्वं प्राप्तवानपि ॥५८॥ सम्यक्त्वं क्षायिक वाऽऽप्तः, क्षीणदर्शनसप्तकः । कलयन्नपि सावद्यविरतिं मुक्तिदायिनीम् ॥ ५९॥ नैवाप्रत्याख्याननामकषायोदयविघ्नतः। स देशतोऽपि विरतिं, कत्तुं पालयितुं क्षमः॥६०॥ इति चतुर्थ । स्थूलसावधविरमाद्यो देशविरतिं श्रयेत् । स देशविरतस्तस्य, गुणस्थानं तदुच्यते ॥ ६१॥ सर्वसावद्यविरतिं, जानतोऽप्यस्य मुक्तिदाम् । तदादृतौ प्रत्याख्यानावरणा यान्ति विघ्नताम् ॥ ३२॥ इति पञ्चमं । संयतस्सर्वसावद्ययोगेभ्यो विरतोऽपि यः। कषायनिद्राविकथादिप्रमादैः प्रमाद्यति ॥ ६३ ॥ स प्रमत्तः संयतोऽस्य, प्रमत्तसंयताभिधम् । गुणस्थानं प्राक्तनेभ्यः, स्याद्विशुद्धिप्रकर्षभृत् ॥ ६४ ॥ वक्ष्यमाणेभ्यश्च तेभ्यः, स्याद्विशुद्ध्यपकर्षभृत् । शुद्धिप्रकर्षापकर्षावेवं भाव्यौ परेष्वपि ॥६५॥ इति षष्ठं । यश्च निद्राकषायादिप्रमादरहितो यतिः । गुणस्थानं भवेत्तस्याप्रमत्तसंयताभिधम् ॥६६॥ इति ससमं । स्थितिघातो रसघातो, गुणश्रेणिस्तथा परा । गुणानां संक्रमश्चैव, बन्धो भवति पञ्चमः॥ ६७॥ एषां पञ्चानामपूर्व, करणं प्रागपेक्षया । भवेद्यस्यासावपूर्वकरणो नाम कीर्तितः ॥६८॥ गरीयस्याः स्थितेर्ज्ञानावरणीयादिकर्मणाम् । योऽपवर्तनया घातो, स्थितिघातः स उच्यते ॥ १९॥ कर्मद्रव्यस्थकटुकवादिकस्य रसस्य हि । योऽपवर्तनया घातो, रसघातः स कीर्त्यते॥७०॥ एतौ पूर्वगुणस्थानेष्वल्पा-IS
वेव करोति सः। विशुद्ध्यल्पतयाऽस्मिंस्तु, महान्तौ शुद्धिवृद्धितः॥७१॥ यत्प्रागाश्रित्य दलिकरचनां तां पालघीयसीम् । चकार कालतो द्राधीयसी शुद्ध्यपकर्षतः॥७२॥ अस्मिंस्त्वाश्रित्य दलिकरचनां तां प्रथीयसीम् ।
समं । स्थितिघातकरणं प्रागपेक्षयात, स्थिति
१४
Jain Educat
ional
For Private Personel Use Only
Sraw.jainelibrary.org
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ६६ ॥
Jain Education
करोति कालतोऽल्पां तदपूर्वा प्रागपेक्षया ॥ ७३ ॥ तथा बध्यमानशुभप्रकृ तिष्वशुभात्मनाम् । तासामवध्यमानानां दलिकस्य प्रतिक्षणे ॥ ७४ ॥ असंख्यगुणवृद्ध्या यः क्षेपः स गुणसंक्रमः । तमप्यपूर्वं कुर्वीत, सोऽत्र शुद्धिमकर्षतः ॥ ७५ ॥ स्थितिं द्राघीयसीं पूर्वगुणस्थानेषु बद्धवान् । अशुद्धत्वादिह पुनस्तामपूर्वं विशुद्धितः ॥ ७६ ॥ पल्यासंख्येयभागेन, हीनहीनतरां सृजेत् । तद् गुणस्थानमस्य स्यादपूर्वकरणाभिधम् ॥७७॥ अष्टभिः | कुलकं ॥ क्षपकश्चोपशमकश्चेत्यसौ भवति द्विधा । क्षपणोपशमार्हत्वादेवायं प्रोच्यते तथा ॥ ७८ ॥ न यद्यपि | क्षपयति, न चोपशमयत्ययम् । तथाप्युक्तस्तथा राज्यार्हः कुमारो यथा नृषः ॥ ७१ ॥ अन्तर्मुहूर्त्तमानाया, अपूर्वकरणस्थितेः । आय एवं क्षण एतद्गुणस्थानं प्रपन्नकान् ॥ ८० ॥ त्रैकालिकाङ्गिनोऽपेक्ष्य, जघन्यादीन्यसंख्यशः । स्थानान्यध्यवसायस्योत्कृष्टान्तानि भवन्ति हि ॥ ८१ ॥ असंख्यलोकाकाशांशमितानि स्युरमूनि च । ततोऽधिकाधिकानि स्युर्द्वितीयादिक्षणेषु तु ॥ ८२ ॥ आये क्षणे यजघन्यं, ततोऽनन्तगुणोज्ज्वलम् । भवेद:| यक्षणोत्कृष्टं ततोऽनन्तगुणाधिकम् ॥ ८३ ॥ क्षणे द्वितीये जघन्यमेवमन्त्यक्षणावधि । मिथः षट्स्थान पतितान्येकक्षणभवानि तु ॥ ८४ ॥ समकालं प्रपन्नानां, गुणस्थानमिदं खलु । बहूनां भव्यजीवानां वर्त्तते यत्परस्परम् ॥ ८५ ॥ उक्तरूपाध्यवसायस्थानव्यावृत्तिलक्षणा । निवृत्तिस्तन्निवृत्त्याख्यमप्येतत्कीर्त्त्यते बुधैः ॥ ८६ ॥ इत्यष्टमं । तथा-परस्पराध्यवसायस्थानव्यावृत्तिलक्षणा । निवृत्तिर्यस्य नास्त्येषोऽनिवृत्त्याख्योऽसुमान् भवेत् ॥ ८७ ॥ तथा किटीकृतसूक्ष्मसंपरायव्यपेक्षया । स्थूलो यस्यास्त्यसौ स स्याद्वादर संपरायकः ॥ ८८ ॥ ततः
national
३० गुण
स्थाने ४-५६-७गुण.
अपूर्वकर
णं च
२५
॥ ६६ ॥
२८
v.jainelibrary.org
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्तिावन्त्येवाध्यवसायस्थानानः ॥ ९२ ॥ अनन्तगुणाभवति द्विधा । क्षपयेतोय यस्य सूक्ष्मसंपरायः सह
पदद्वयस्यास्य, विहिते कर्मधारये । स्यात्सोऽनिवृत्तिवादरसंपरायाभिधस्ततः॥ ८९ ॥ तस्यानिवृत्तियादरसंपरायस्य कीर्तितम् । गुणस्थानमनिवृत्तिबादरसंपरायकम् ॥ ९॥ अन्तर्मुहूर्त्तमानस्य, यावन्तोऽस्य क्षणाः खलु । तावन्त्येवाध्यवसायस्थानान्याहुर्जिनेश्वराः॥९१ ॥ अस्मिन् यदेकसमये, प्राप्तानां भूयसामपि । एकमेवाध्यवसायस्थानकं कीर्तितं जिनैः॥९२॥ अनन्तगुणशुद्धं च, प्रतिक्षणं यथोत्तरम् । स्थानमध्यवसायस्य, गुणस्थानेऽत्र कीर्तितम् ॥९३ ॥क्षपकश्चोपशमकश्चेत्यसो भवति द्विधा ।क्षपयेद्वोपशमयेद्वाऽसौ यन्मोहनीयकम् ॥ ९४ ॥ इति नवमं ९। सूक्ष्मः कीहीकृतो लोभकषायोदयलक्षणः । संपरायो यस्य सूक्ष्मसंपरायः स उच्यते ॥९५॥क्षपकचोपशमकश्चेति स्यात्सोऽपि हि द्विधा । गुणस्थानं तस्य सूक्ष्मसंपरायाभिधं स्मृतम् ॥ ९६ ॥ इति दशमं १०। येनोपशमिता विद्यमाना अपि कषायकाः। नीता विपाकप्रदेशोदयादीनामयोग्यताम् || ॥९७ ॥ उपशान्तकषायस्य, वीतरागस्य तस्य यत् । छद्मस्थस्य गुणस्थानं, तदाख्यातं तदाख्यया ॥९८॥ असौ युपशमश्रेण्यारम्भेऽनन्तानुबन्धिनः। कषायान् द्रागविरतो, देशेन विरतोऽथवा ॥ ९९॥ प्रमत्तो वाऽप्रमत्तः सन् , शमयित्वा ततः परम् । दर्शनमोहत्रितयं, शमयेदय शुद्धधीः॥ १२००॥ कर्मग्रन्थावचूरी तु इहोपशमश्रेणिकृदप्रमत्तयतिरेव, केचिदाचार्या अविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तयतीनामन्यतम इत्याहुरिति दृश्यते । श्रयन्त्युपशमश्रेणिमायं संहननत्रयम् । दधाना नार्धनाराचादिके संहननत्रये ॥१॥ तथोक्तं| "उपशमश्रेणिस्तु प्रथमसंहननत्रयेणारुह्यते” इतिकर्मस्तववृत्ती । परिवृत्तिशतान् कृत्वाऽसौ प्रमत्ताप्रमत्तयोग
829202090809200202929202
छो.प्र.१२
Join Educ
a
tion
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य.
गत्वा चापूर्वकरणगुणस्थानं ततः परम् ॥ २॥ क्लीबस्त्रीवेदी हास्यादिषट्क पुंवेदमप्यथ । क्रमात्प्रत्याख्यानाप्र-1 ३० गुण३ सर्ग:
त्याख्यानसंज्वलनाः क्रुधः॥३॥ तथैव त्रिविधं मानं, मायां च त्रिविधां तथा। द्वितीयतृतीयौ लोभौ, स्थानकानि
विंशतिं प्रकृतीरिमाः॥४॥ शमयित्वा गुणस्थाने, नवमे दशमे ततः। शमी संज्वलनं लोभ, शमयत्यतिदुर्जयम् ॥६७॥
18॥५॥उपशमश्रेणिस्थापना॥ एकंक्षणं जघन्येनोत्कर्षणान्तर्मुहूर्त्तकम् । उपशान्तकषायः स्यादृर्द्व च नियमात्ततः |॥६॥ अद्धाक्षयाद्भवान्ताद्वा, पतत्यद्धाक्षयात्पुनः। पतन पश्चानुपूाऽसौ, याति यावत्प्रमत्तकम् ॥७॥ गुणस्थानद्वयं याति, कश्चित्ततोऽप्यधस्तनम् । कश्चित्सासादनभावं, प्राप्य मिथ्यात्वमप्यहो॥८॥ पतितश्च भवे नास्मिन् , सिद्धयेदुत्कर्षतो वसेत् । देशोनपुद्गल परावर्द्धि कोऽपि संमृतौ॥९॥ तथोक्तं महाभाष्ये-"जइ उवसंतकसाओ, लहइ अणंतं पुणोवि पडिवायं । न हु मे वीससियवं, थोवेवि कसायसेसंमि ॥१॥" भवक्षयाद्यः पतति, आद्य एव क्षणे स तु । सर्वाण्यपि बन्धनादिकरणानि प्रवर्त्तयेत् ॥१०॥ बद्धायुरायुःक्षयतो, म्रियते श्रेणिगो यदि । अनुत्तरसुरेष्वेष, नियमेन तदोद्भवेत् ॥११॥ तथोक्तं भाष्यवृत्ती-“यदि बद्धायुरुपशमश्रेणिं || प्रतिपन्नः श्रेणिमध्यगतगुणस्थानवी वा उपशान्तमोहो वा भूत्वा कालं करोति तदा नियमेनानुत्तरसुरेष्वे
वोत्पद्यते” इति । गुणस्थानस्यास्य प्रोक्ता, स्थितिरेक क्षणं लघुः । अनुत्तरेषु व्रजतः, सा ज्ञेया जीवितक्षयात् ॥४॥ १२॥ कुर्यादुपशमश्रेणिमुत्कर्षादेकजन्मनि । द्वौ वारौ चतुरो वारांश्चाङ्गी संसारमावसन् ॥ १३ ॥ श्रेणिरेकै- ॥६७॥
वैकभवे, भवेत्सिद्धान्तिनां मते । क्षपकोपशमश्रेण्योः, कर्मग्रन्थमते पुनः॥१४ ॥ कृतैकोपशमश्रेणिः, क्षपक-18/ २८
For Private & Personel Use Only
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रेणिमाश्रयेत् । भवे तत्र द्विः कृतोपशमश्रेणिस्तु नैव ताम् ॥ १६॥ इति कर्मग्रन्थलघुवृत्तौ । इत्येकादशं ११ | क्षीणाः कषाया यस्य स्युः, स स्यात् क्षीणकषायकः । वीतरागच्छद्मस्थश्च, गुणस्थानं यदस्य तत् ॥ १६ ॥ क्षीणकषा यच्छद्मस्थवीतरागाह्वयं भवेत् । गुणस्थानं केवलित्वङ्गाधिगमगोपुरम् ॥ १७ ॥ तत्र च - श्रेष्ठसंहननो वर्षाष्टकाधिकवया नरः। सद्ध्यानः क्षपकश्रेणिमप्रमादः प्रपद्यते ॥ १८ ॥ तथोक्तं कर्मग्रन्थलघुवृत्ती - " क्षपकश्रेणिप्रतिपन्नो मनुष्यो वर्षाष्टको परिवर्ती अविरतादीनामन्यतमोऽत्यन्तशुद्धपरिणाम उत्तमसंहननः, तत्र पूर्वविदप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽपि केचन धर्मध्यानोपगत इत्याहुः । विशेषावश्यक वृत्तौ च” पूर्वधरोऽप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽप्येतां प्रतिपद्यते, शेषास्त्वविरतादयो धर्मध्यानोपगता इति निर्णयः । तत्क्रमश्चायं स तुर्यादिगुणस्थानचतुकान्यतरेऽन्तयेत् । अन्तर्मुहूर्त्ताद्युपगत्, प्रागनन्तानुबन्धिनः ॥ १९॥ ततः क्रमेण मिथ्यात्वं, मिश्रं सम्यक्त्वमन्तयेत् । उच्यते कृतकरणः, क्षीणेऽस्मिन् सप्तके च सः ॥ २० ॥ बद्धायुः क्षपकश्रेण्यारम्भकश्चेन्निवर्त्तते । अनन्तानुबन्धिनाशानन्तरं जीवितक्षयात् ॥ २१ ॥ तदा मिथ्यात्वोदयेन, भूयोऽनन्तानुबन्धिनः । बध्नाति मिथ्यात्वरूपतद्वीजस्याविनाशतः ॥ २२ ॥ क्षीणे मिथ्यात्वबीजे तु भूयोऽनन्तानुबन्धिनाम् । न बन्धोऽस्ति क्षिति-रुहो, बीजे दग्धे हि नाङ्करः || २३ || सुरेषूत्पद्यतेऽवश्यं, बद्धायुः क्षीणसप्तकः । चेत्तदानीमपतितपरिणामो म्रियेत सः ||२४|| निपतत्परिणामस्तु, बद्धायुम्रियते यदि । गतिमन्यतमां याति, स विशुद्ध्यनुसारतः ॥ २५ ॥ बद्धायुष्कोऽथाक्षतायुः क्षपको म्रियते न चेत् । नियमात्सप्तके क्षीणे, विश्राम्यति तथाऽप्यसौ ॥ २६ ॥
Jain Educatinational
१०
१४
ww.jainelibrary.org
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
॥६८॥
सकलक्षपकश्चाथ. विधाय सप्तकक्षयम् । क्षयं नयेत्वनरकतिर्यगायूंष्यतः परम् ॥ २७ ॥ प्रत्याख्यानाप्रत्या
३०-गुणख्यानाकमन्तयेद गुणे नवमे । तस्मिन्न क्षपिते क्षपयेदिति षोडश प्रकृतीः ॥ २८॥ तिर्यगनरकस्थावरयगला-स्थानकानि न्युद्योतमातपं चैव । स्त्यानर्द्धित्रयसाधारणविकलैकाक्षजातीश्च ॥ २९॥ अत्र तिर्यगयुगलं-तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीरूपं, नरकयुगलं-नरकगतिनरकानुपूर्वीरूपं, स्थावरयुगलं-स्थावरसूक्ष्माख्यमिति ज्ञेयं । अर्धदग्धेन्धनो वह्निदेहेत्प्राप्यन्धनान्तरम् । क्षपकोऽपि तथाऽत्रान्तः, क्षपयेत्प्रकृतीः पराः ॥ ३०॥ कषायाष्टकशेषं च, क्षपयित्वाऽन्तयेत् क्रमात् । क्लीषस्त्रीवेदहास्यादिषट्कपूरुषवेदकान् ॥ ३१॥ एष सूत्रादेशः, अन्ये पुनराहु:षोडश कर्माण्येव पूर्व क्षपयितुमारभते, केवलमपान्तरालेऽष्टौ कषायान् क्षपयति, पश्चात्षोडश कर्माणीति कर्मग्रन्थवृत्तौ । क्रमः पुंस्यारम्भकेऽयं, स्त्री तु क्षपयति क्रमात् । क्लीवपुंवेदहास्यादिषट्क स्त्रीवेदमेव च ॥ ३२॥ क्लीवस्त्वारम्भको नूनं, स्त्रीवेदं प्रथम क्षिपेत् । पुंवेदं हास्यषट्कं च, नपुंवेदं ततः क्रमात् ॥ ३३ ॥ ततः संज्वलनक्रोधमानमायाश्च सोऽन्तयेत् । ततः संज्वलनं लोभ, क्षपयेदशमे गुणे ॥ ३४ ॥ लोभे च मूलतः क्षीणे, निस्तीर्णो मोहसागरम् । विश्राम्यति स तत्रान्तर्मुहूर्त क्षपको मुनिः॥ ३५॥ तथोक्तं भाष्ये-"खीणे खवगनियंठो वीसमए मोहसागरं तरि । अंतोमुहुत्तमुदहि, तरि थाहे जहा पुरिसो॥३६॥" गतोऽथ द्वादशे क्षीणकषायाख्ये गुणेऽसुमान् । निद्रां च प्रचलां चास्यान्तयेदन्त्यादिमक्षणे ॥ ३७॥ पञ्च ज्ञाना-18 वरणानि, चतस्रो दर्शनावृतीः । पञ्च विघ्नांश्च क्षणेऽन्त्ये, क्षपयित्वा जिनो भवेत् ॥ ३८॥ एवं च-अष्टचत्वारि
२८
जटिटटटटटटटcaceaeroese
For Private Personel Use Only
inelibrary.org
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
शदाचं, शतं प्रकृतयोऽत्र याः। सत्तायामभवंस्तासु, षट्चत्वारिंशतः क्षयात् ॥ ३९॥ व्याचं शतं प्रकृतयोऽवशिष्टा दशमे गुणे । क्षीणमोहद्विचरमक्षणावध्येकयुक् शतम् ॥ ४०॥ सत्तायां नवनवतिः, क्षीणमोहान्तिमक्षणे । चतुर्दशक्षयादत्र, पश्चाशीतिः सयोगिनि ॥४१॥ ततोऽयोगिद्विचरमक्षणे द्वासप्ततिक्षयः। अयोगिनः क्षणेऽन्त्ये च, शेषत्रयोदशक्षयः॥४२॥ अत्र भाष्यं-"आवरणक्खयसमए, निच्छइयनयस्स केवलुप्पत्ती। तत्तोऽणंतरसमए, ववहारो केवलं भणइ॥४३॥"क्षपकश्रेणिस्थापना। योगोनामात्मनो वीर्य,तत्स्याल्लब्धिविशेषतः। वीर्यान्तरायक्षपणक्षयोपशमसंभवात् ॥४४॥योगो द्विधा सकरणोऽकरणश्चेति कीर्तितः। तत्र केवलिनोज्ञेयदृश्येष्वखिलवस्तुषु ॥४५॥ उपयुञानस्य किल, केवले ज्ञानदर्शने ।योऽसावप्रतिघो वीर्यविशेषोऽकरणः स तु॥४६॥ युग्मम् । अयं च नानाधिकृतो, योगः सकरणस्तु यः।मनोवाकायकरणहेतुकोऽधिकृतोऽत्र सः॥४७॥ केवल्युपेतस्तैोगैः, सयोगी केवली भवेत् । सयोगिकेवल्याख्यं स्याद, गुणस्थानं च तस्य यत् ॥४८॥ मनोवाकायजाश्चैवं, योगाः केवलिनोऽपि हि । भवन्ति कायिकस्तत्र, गमनागमनादिषु ॥४९॥ वाचिको यतमानानां, जिनानां देशनादिषु । भवत्येवं मनोयोगोऽप्येषां विश्वोपकारिणाम् ॥५०॥ मनःपर्यायवद्भिर्वा, देवैर्वा-1 ऽनुत्तरादिभिः। पृष्टस्य मनसाऽर्थस्य, कुर्वतां मनसोत्तरम् ॥५१॥ द्विचत्वारिंशतः कर्मप्रकृतीनामिहोदयः। जिनेन्द्रस्यापरस्यैकचत्वारिंशत एव च ॥५२॥ औदारिकाङ्गोपाङ्गेच, शुभान्यखगतिद्वयम् । अस्थिरं चाशुभं चेति, प्रत्येकं च स्थिरं शुभम् ॥५३॥ संस्थानषट्कमगुरुलघूपघातमेव च । पराघातोच्छासवर्णगन्धस्पर्शरसा इति
920209200002028armoOT2O90
Jain Educat
i onal
ainelibrary.org
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ६९ ॥
Jain Educatio
॥ ५४ ॥ निर्माणाद्यसंहनने, देहे तैजसकार्मणे । असातसातान्यतरत् तथा सुखदुःखरे ॥ ५५ ॥ एतासां त्रिंशतः कर्मप्रकृतीनां त्रयोदशे । गुणस्थाने व्यवच्छेद, उदयापेक्षया भवेत् ॥ ५६ ॥ भाषापुद्गलसंघातविपा | कित्वादयोगिनि । नोदयो दुःखरनामसुखरनामकर्मणोः ॥ ५७ ॥ शरीरपुद्गलदलविपाकित्वादयोगिनि । शेषा न स्युः काययोगाभावात्प्रकृतयस्त्विमाः ॥ ५८ ॥ ततश्च यशः सुभगमादेयं, पर्याप्तं त्रसबादरे । पञ्चाक्षजातिमनुजायुर्गत्यौ (ती) जिननाम् च ॥५९॥ उच्चैर्गोत्रं तथा सातासातान्यतरदेव च । अन्त्यक्षणावध्युदया, द्वादशैता अयोगिनः ॥ ६० ॥ नास्ति योगोऽस्येत्ययोगी, तादृशो यश्च केवली । गुणस्थानं भवेत्तस्यायो गिकेवलिनामकम् ॥ ६१ ॥ तच्चैवं - अन्तर्मुहूर्त्तशेषायुः, सयोगी केवली किल । लेइयातीतं प्रतिपित्सुर्ध्यानं योगान् रुणद्धि सः ॥ ६२ ॥ तत्र पूर्व बादरेण, काययोगेन बादरौ । रुणद्धि वाग्मनोयोगी, काययोगं ततश्च तम् ॥ ६३ ॥ सूक्ष्मक्रियं चानिवृत्तिशुक्लध्यानं विभावयन् । रुन्ध्यात्सूक्ष्माङ्गयोगेन, सूक्ष्मौ मानसवाचिकौ ॥ ६४ ॥ रुद्ध्यथो काययोगं, स्वात्मनैव च सूक्ष्मकम् । स स्यात्तदा त्रिभागोनदेहव्यापिप्रदेशकः ॥ ६५ ॥ शुक्लध्यानं समुच्छिन्नक्रि| यमप्रतिपाति च । ध्यायन् पञ्चहस्त्रवर्णोच्चारमानं स कालतः ॥ ६६ ॥ शैलेशीकरणं याति, तच्च प्राप्तो भवत्यसौ । योगव्यापाररहितोऽयोगी सिद्ध्यत्यसौ ततः ॥ ६७ ॥ गत्यानुपूयों देवस्य शुभान्यखगतिद्वयम् । द्वौ गन्धावष्ट च स्पर्शा, रसवर्णाङ्गपञ्चकम् ॥ ६८ ॥ तथा पञ्च बंधनानि पञ्च संघातनान्यपि । निर्माणं षट् संहननान्यस्थिरं वा शुभं तथा ॥ ६९ ॥ दुर्भगं च दुःखरं चानादेयमयशोऽपि च । संस्थानषट्कमगु
३० गुणस्थानकानि
२०
२५
॥ ६९ ॥
२८
ainelibrary.org
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
रुलघूपघातमेव च ॥७॥ पराघातमथोच्छासमपर्याप्ताभिधं तथा । असातसातयोरेक, प्रत्येकं च स्थिरं।
शुभम् ॥ ७१ ॥ उपाङ्गत्रितयं नीचैर्गोत्रं सुखरमेव च । अयोग्युपान्त्यसमये, इति द्वाससतेः क्षयः &॥७२॥ मनुजस्य गतिश्चायुश्चानुपूर्वीति च त्रयम् । त्रसवादरपर्याप्तयशांसीति चतुष्टयम् ॥७३ ॥ उच्चैर्गो
त्रमथादेयं, सुभगं जिननाम च । असातसातयोरेक, जातिः पञ्चेन्द्रियस्य च ॥ ७४ ॥ त्रयोदशैताः प्रकृतीः, क्षपयित्वाऽन्तिमे क्षणे । अयोगिकेवली सिद्धयेन्निर्मूलगतकल्मषः ॥ ७५ ॥ मतान्तरेऽत्रानुपूर्वी क्षिपत्युपान्तिमक्षणे । ततस्त्रिसप्ततिं तत्र, द्वादशान्त्ये क्षणे क्षिपेत् ॥७६॥ चतुर्दशं १४ ॥ आद्यं द्वितीयं तुर्य च, गुणस्थानान्यमूनि वै ।गच्छन्तमनुगच्छन्ति, परलोके शरीरिणम् ॥७७॥ मिश्रदेशविरत्यादीन्येकादश पराणि च । सर्वथाऽत्र परित्यज्य, जीवा यान्ति परं भवम् ॥ ७८ ॥ तत्र मिश्रे स्थितः प्राणी, मृतिं नैवाधिगच्छति । स्युर्दे-18 शविरतादीनि, यावज्जीवावधीनि च ॥ ७९ ॥ यत्तृतीयं गुणस्थानं, द्वादशं च त्रयोदशम् । विनाऽन्येष्वेकादशसु, गुणेषु म्रियतेऽसुमान् ॥ ८॥ स्तोका एकादशगुणस्थिता उत्कर्षतोऽपि यत् । चतुपञ्चाशदेवामी, युग-18 पत्संभवन्ति हि ॥ ८१॥ तेभ्यः संख्यगुणाःक्षीणमोहास्ते ह्यष्टयुक शतम् । युगपत्स्युरष्टमादित्रिगुणस्थास्त-1 तोऽधिकाः॥ ८२॥ मिथस्तुल्याश्च यच्छेणिद्वयस्था अपि संगताः । स्यु षष्ट्युत्तरशतं, प्रत्येकं त्रिषु तेषु ते ॥८३॥ योग्यप्रमत्तप्रमत्तास्तेभ्यः संख्यगुणाः क्रमात् । यत्ते मिताः कोटिकोटिशतकोटिसहस्रकैः॥८४॥ पञ्चमस्था द्वितीयस्था, मिश्राश्चाविरताःक्रमात् । प्रत्येकं स्युरसंख्येयगुणास्तेभ्यस्त्वयोगिनः ॥ ८५॥ स्युरनन्त
Jain Educa
t ional
For Private & Personel Use Only
X
w.jainelibrary.org
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य.
३ सर्गः
३० गुणस्थानकानि
॥ ७० ॥
गुणा मिथ्याशस्तेभ्योऽप्यनन्तकाः । इदमल्पबहुत्वं स्यात्,सर्वत्रोत्कर्षसंभवे ॥८६॥ विपर्ययोऽप्यन्यथा स्यात, स्तोकाः स्युर्जातुचिद्यथा । उत्कृष्टशान्तमोहेभ्यो, जघन्याःक्षीणमोहकाः॥८७॥ एवं सास्वादनादिष्वपि भाव्यं॥
मिथ्यात्वं कालतोऽनादि, सान्तं स्यात्सादिसान्तकम् । अनाद्यनन्तं च न तत्साधनन्तं तु संभवेत् ॥ ८८ ॥ स्यादाचं तत्र भव्यानामनाप्तपूर्वसदृशाम् । द्वितीयं प्राप्य सम्यक्त्वं, पुनर्मिथ्यात्वमीयुषाम् ॥ ८९ ॥ स्यात्तृतीयमभव्यानां, सदा मिथ्यात्ववर्तिनाम् । आनंत्यासंभवात्सादेस्तुर्य युक्तमसंभवि ॥९०॥ सासादनं चोक्तमेव, षडावलिमितं पुरा । तुर्य मितं समधिकत्रयस्त्रिंशत्पयोधिभिः ॥९१ ॥ सर्वार्थसिद्धदेवत्वे, त्रयस्त्रिंशत्पयोनिधीन् । धृत्वाऽविरतसम्यक्त्वं, ततोऽत्राप्यागतोऽसकौ ॥ ९२॥ यावदद्यापि विरतिं, नाप्नोति तावदेष यत् । तुर्यमेव गुणस्थानमुररीकृत्य वर्तते ॥ ९३ ॥ किश्चिन्यूननवान्दोनपूर्वकोटिमिते मते । त्रयोदशं पञ्चमं च, गुणस्थाने उभे अपि ॥ ९४ ॥ अन्तिमं ङञणनमत्येवंरूपैः किलाक्षरैः। अविलम्बात्वरतयोचारितैः प्रमितं भवेत् ॥ ९५॥ आन्तर्मुहूर्तिकानि स्युः, शेषाण्यष्टाप्यमूनि च । केचिदूचुन्यूनपूर्वकोटिके षष्ठसप्तमे ॥९६॥ तथोक्तं भगवतीसूत्रे-“पमत्तसंजयस्स णं पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सवाविणं पमत्तद्धा कालओ केवचिरं होइ ?, मंडिआ ! एणं जीवं पडुच जह० एगं समयं उक्कोसं देसूणा पुवकोडी, णाणाजीवे पडुच्च सबद्धा, अस्य वृत्तिः-जह. एकं समयंतिकथं ?, उच्यते, प्रमत्तसंयतप्रतिपत्तिसमयसमन. न्तरमेव मरणात्, 'देसूणा पुवकोडि'त्ति, फिल प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तप्रमाणे व प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थाने, ते च पर्या.
RO
lain Educatio
n
al
For Private & Personel Use Only
Orainelibrary.org
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
येण जायमाने देशोनपूर्वकोटिं यावदुत्कर्षेण भवतः, महांति चाप्रमत्तापेक्षया प्रमत्तान्तमुहर्तानि कल्प्यन्ते,
एवं चान्तर्मुहूर्तप्रमाणानां प्रमत्ताद्धानां सर्वासां मिलने देशोनपूर्वकोटीकालमानं भवति, अन्ये त्वाहु:-अष्टववर्षानां पूर्वकोटिं यावदुत्कर्षतः प्रमत्तता स्यात्, एवमप्रमत्तसूत्रमपि । नवरं, 'जह अंतोमुहुत्तं'ति, किलाप्रमत्ता
द्धायां वर्तमानस्यान्तमुहर्तमध्ये मृत्युनं भवतीति, चूर्णिकारमतं तु प्रमत्तसंयतवर्ज: सर्वोऽपि सर्वविरतोऽप्रमत्त उच्यते, प्रमादाभावात् , स चोपशमश्रेणिं प्रतिपद्यमानो मुहर्ताभ्यन्तरे कालं कुर्वन् जघन्यकालो लभ्यते इति, देशोनपूर्वकोटी तु केवलिनमाश्रित्येति ॥ यनिर्दिष्टं जिनाधीशैरेकजीवव्यपेक्षया । त्यक्त्वा पुन: प्राप्तिरू. पमथैषामुच्यतेऽन्तरम् ॥९६॥ जघन्यं सासादनस्य, पल्यासंख्यांशसंमितम् । शेषेषु च दशानां स्यादन्तर्मुहर्त्तमन्तरम् ॥ ९७॥ मिथ्यात्वस्य तदुत्कृष्टं, द्विषट्षष्टिः पयोधयः । साधिकाः कथितास्तत्र, श्रूयतां भावना त्वियम् ॥ ९८॥ अनुभूय स्थिति कश्चित् , सम्यक्त्वस्य गरीयसीम् । मिश्रं ततोऽन्तर्मुहूत्र्तमनुभूय ततः पुनः ॥ ९९ ।। षट्षष्ट्यम्भोनिधिमितां, सम्यक्त्वस्य गुरुस्थितिम् । समाप्य कोऽपि मिथ्यात्वं, जातु याति तदा हि तत् ॥ १३०० ॥ देशोनपुद्गलपरावर्द्धिप्रमितं मतम् । द्वितीयादीनां दशानां, गुणानां ज्येष्ठमन्तरम् ॥१॥ क्षपकस्यान्तरं जातु, न स्यात्रिष्वष्टमादिषु । सकृत्प्राप्तेः क्षीणमोहादित्रयेऽप्यन्तरं न हि ॥२॥ इति गुणाः३०॥
दशपश्चाधिका योगा, सप्त स्युस्तत्र कायिकाः । चत्वारो मानसोभूतास्तावन्त एव वाचिकाः ॥३॥ औदारिकस्तन्मिश्रः स्याद्वैक्रियस्तेन मिश्रितः। आहारकस्तन्मिश्रः सप्तमस्तैजसकार्मणः॥४॥ पर्याप्तानां ऋतिरश्चा
अनुभूयतां सम्ममित माक्षी
Jain Educa
t ional
For Private & Personel Use Only
(
jainelibrary.org
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
कामणम् ॥ १०॥ ततश्चातायावस्थितत्वेन सर्वदा । सरकसंवन्धि, किं वाऽपरशरारतदीदारिकमिश्रत्वव्य
लोक द्रव्य.
मौदारिकाभिधो भवेत्। स्यात्तन्मिश्रस्तु पर्याप्तापर्याप्तानां तथोच्यते ॥५॥ कार्मणेन वैक्रियेणाहारकेणेति च त्रिधा।३१ योगा: ३ सगे:
औदारिकमिश्रकाययोगं योगीश्वरा जगुः॥६॥ औदारिकाङ्गनामादिताहकर्मनियोगतः। उत्पत्तिदेशं प्रासन,
तिरश्चा मनुजेन वा ॥७॥ यदौदारिकमारब्धं, न च पूर्णीकृतं भवेत्। तावदौदारिकमिश्रः, कार्मणेन सह ध्रुवम् ॥८॥ ॥७१॥
तथा चोक्तं नियुक्तिकारेण शस्त्र (आहार) परिज्ञाध्ययने-"तेएण कम्मएणं, आहारेई अणंतरं जीवो। तेण परं मिस्सेणं, जाव सरीरस्स निप्फत्ती॥९॥" ननु मिश्रत्वमुभयनिष्ठमौदारिकं यथा। मिश्रं भवेत्कार्मणेन, तथा तेनापि
कार्मणम् ॥ १०॥ ततश्चौदारिकमिश्रमेवेदं कथमुच्यते? । अस्य कार्मणमित्वमपि किं नाभिधीयते ॥११॥ 18 अत्राहुः-आसंसारं कार्मणस्यावस्थितत्वेन सर्वदा । सकलेष्वपि देहेषु, संभवेदस्य मिश्रता ॥१२॥ ततश्च
कार्मणमिश्रमित्युक्ते, निर्णेतुं नैव शक्यते । किमौदारिकसंबन्धि, किं वाऽपरशरीरजम् ॥१३॥ औदारिकस्य चोत्पत्तिं, समाश्रित्य प्रधानता । कादाचित्कतया चास्य, प्रतिपत्तिरसंशया ॥ १४॥ तदौदारिकमिश्रत्यव्यपदेशोऽस्य यौक्तिकः । न तु कार्मणमिश्रत्वव्यपदेशस्तथाविधः ॥१५॥ यदाप्यौदारिकदेहधरो वैक्रियलब्धिमान् । पञ्चाक्षतिर्य मर्त्यश्च, पर्यासो बादरानिलः॥१६॥ वैक्रियाङ्गमारभते, न च पूर्णीकृतं भवेत् । तदौ- २५ दारिकमिश्रः स्याद्वैक्रियेण सह ध्रुवम् ॥ १७॥ एवमाहारकारम्भकाले तल्लब्धिशालिनः । सहाहारकदेहेन, ॥१॥ मिश्र औदारिको भवेत् ॥ १८॥ यद्यप्यत्रोभयत्रापि, मिथस्तुल्यैव मिश्रता । तथाप्यारम्भकत्वेनौदारिकस्य प्रधानता ॥१९॥ तत औदारिकेणैव, व्यपदेशो द्वयोरपि । न वैक्रियाहारकाभ्यां, व्यपदेशो जिनैः कृतः ॥२०॥
२८
Jain Education
For Private & Personel Use Only
Minelibrary.org
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
मतं सिद्धान्तिनामेतत्, कर्मग्रन्थविदः पुनः । वैक्रियाहारकमिश्रे, एव प्राहुरिमे क्रमात् ॥ २१ ॥ यदारम्भे वैक्रियस्य, परित्यागेऽपि तस्य ते । वदन्ति वैक्रियं मिश्रमेवमाहारकेऽपि च ॥ २२॥ वैक्रियदेहपर्यास्या, पर्यासस्य शरीरिणः । वैक्रियः काययोगः स्यात्तन्मिश्रस्तु द्विधा भवेत् ॥ २३ ॥ योऽपर्याप्तदशायां स्यान्मिश्रो नारकनाकिनाम् । योगः समं कार्मणेन, स स्थाद्वैक्रियमिश्रकः ॥ २४ ॥ तथा यदा मनुष्यो वा, तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियोऽथवा । वायुर्वा वैक्रियं कृत्वा, कृतकार्योऽथ तत्त्यजन् ॥ २५ ॥ औदारिकशरीरान्तः,प्रवेष्टुं यतते तदा। योगो वैक्रियमिश्रः स्यात्सममौदारिकेण च ॥ २६॥ मिश्रीभावो यदप्यत्रोभयनिष्ठस्तथाप्यसौ । प्राधान्या
द्वैक्रियेणैव, ख्यातो नौदारिकेण तु ॥ २७ ॥ प्राधान्यं तु वैक्रियस्य, प्राज्ञैर्निरूपितं ततः। औदारिके त प्रवेश || एतस्यैव बलेन यत् ॥ २८ ॥ आहारकाङ्गपर्यास्या, पर्याप्तानां शरीरिणाम् । आहारकः काययोगः, स्याचतुई-18
शपूर्विणाम् ॥ २९ ॥ आहारकवपुः कृत्वा, कृतकार्यस्य तत्पुनः । त्यक्त्वा खाङ्गे प्रविशतः, स्यादाहारकमिश्रकः॥३०॥ द्वयोः समेऽपि मिश्रत्वे, बलेनाहारकस्य यत् । औदारिकेऽनुप्रवेशस्तेनेत्थं व्यपदिश्यते ॥३१॥ तैजसं कार्मणं चेति, द्वे सदा सहचारिणी। ततो विवक्षितःसैको, योगस्तैजसकार्मणः॥३२॥ जन्तूनां विग्रहगतावयं केवलिनां पुन:। समुद्घाते समयेषु, स्यात्तृतीयादिषु त्रिषु ॥ ३३ ॥ एवं निरूपिताः सप्त, योगाः कायसमुद्भवाः । अथ चित्तवचोजातांश्चतुरश्चतुरो ब्रुवे ॥ ३४ ॥ सत्यो मृषा सत्यमृषा, न सत्यो न मृषापि च । मनोयोगश्चतुर्धेवं, वाग्योगोऽप्येवमेव च ॥३५॥ तत्र च-सन्त इत्यभिधीयन्ते, पदार्था मुनयोऽथवा । तेषु साधु हितं
१
Jain Eddi
emational
For Private & Personel Use Only
ww.jainelibrary.org
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ७२ ॥
Jain Educatio
| सत्यमसत्यं च ततोऽन्यथा ॥ ३६ ॥ पदार्थानां हितं तत्र, यथावस्थितचिन्तनात् । मुनीनां च हितं यस्मान्मोक्ष| मार्गैकसाधनम् ॥ ३७ ॥ खतो विप्रतिपत्तौ वा, वस्तु स्थापयितुं किल । सर्वज्ञोक्तानुसारेण, चिन्तनं सत्यमुच्यते ॥ ३८ ॥ यथाऽस्ति जीवः सदसद्रूपो व्याप्य स्थितस्तनुम् । भोक्ता स्वकर्मणां सत्यमित्यादि परिचिन्तनम् ॥ ३९ ॥ प्रश्ने विप्रतिपत्तौ वा स्वभावादुत वस्तुषु । विकल्प्यते जैनमतोत्तीर्णं यत्तदसत्यकम् ॥ ४० ॥ नास्ति | जीवो यथैकान्तनित्योऽनित्यो महानणुः । अकर्त्ता निर्गुणोऽसत्यमित्यादिपरिचिन्तनम् ॥ ४१ ॥ किञ्चित्सत्यमसत्यं वा, यत्स्यादुभयधर्मयुक् । स्यात्तत्सत्यमृषाभिख्यं, व्यवहारनयाश्रयात् ॥ ४२ ॥ यथाऽन्यवृक्ष मिश्रे षु, बहुष्वशोकशाखिषु । अशोकवनमेवेदमित्यादिपरिचिन्तनम् ॥ ४३ ॥ सत्वात्कतिपय शोकतरूणामंत्र सत्यता । अन्येषामपि सद्भावाद्भवेदसत्यतापि च ॥ ४४ ॥ भवेदसत्यमेवेदं निश्वयापेक्षया पुनः । विकल्पितस्वरू|पस्था सद्भावादिह वस्तुनः ॥ ४५ ॥ विनार्थप्रतितिष्ठासां, खरूपमात्र चिन्तनम् । उक्ततल्लक्षणायोगान्न सत्यं न मृषा च तत् ॥ ४६ ॥ यथा चैत्रायाचनीया, गौरानेयो घटस्ततः । पर्यालोचनमित्यादि, स्यादसत्यामृषाभिधम् ॥४७॥ व्यवहरापेक्षयैव, पृथगेतदुदीर्यते । निश्चयापेक्षया सत्येऽसत्ये वाऽन्तर्भवेदिदम् ॥ ४८ ॥ तथाहि - गौर्याच्येत्यादिसंकल्पं, दम्भेन विदधीत चेत् । अन्तर्भवेत्तदाऽसत्ये, सत्ये पुनः स्वभावतः ॥ ४९ ॥ सर्वमेतद्भावनीयं, वाग्येोगेऽप्यविशेषतः । भाविताश्चिन्तने भेदा, भाव्यास्तेऽत्र तु जल्पने ॥ ५० ॥ एवं मनोवचोयोगाः, स्युः प्रत्येकं चतुर्विधाः । ततो योगाः पञ्चदश, व्यवहारनयाश्रयात् ॥ ५१ ॥ किमु कश्चिद्विशेषोऽस्ति,
ational
३१ योगाः
상
२५
॥ ७२ ॥
२८
jainelibrary.org
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
लो. प्र. १३
भाषावाग्यो गयोर्ननु । भाषाधिकारो यत्प्रोक्तः, सूत्रे वाग्योगतः पृथक् ॥ ५२ ॥ अत्रोच्यते - युज्यते इति योगः स्यादितिव्युत्पत्तियोगतः । भाषाप्रवर्त्तको जन्तुयत्नो वाग्योग उच्यते ॥ ५३ ॥ भाषात्वेनापादिता या, भाषाई द्रव्यसंततिः । सा भाषा स्यादतो भेदो, भाषावाग्योगयोः स्फुटः ॥ ५४ ॥ तथोक्तमावश्यकबृहद्वृत्तौ - "गिण्हह य काइएणं, निसिरइ तह वाइएण जोगेणं"ति । अत्र कश्चिदाह-तत्र कायिकेन गृह्णातीत्येतद्युक्तं, तस्यात्मव्यापाररूपत्वात्, निस्सृजति तु कथं वाचिकेन ?, कोऽयं वाग्योग ? इति, किं वागेव व्यापारापन्ना आहोश्चित्तद्विसर्गहेतुः कायसंरंभ इति ?, यदि पूर्वी विकल्पः स खल्वयुक्तः, तस्या योगत्वानुपपत्तेः, तथा च न वाक् केवला जीवव्यापारः, तस्याः पुद्गलमात्र परिणामरूपत्वात्, रसादिवत्, योगश्चात्मनः शरीरवतो व्यापार इति, न च तया भाषा निस्सृज्यते, किंतु सैव निस्सृज्यत इत्युक्तं, अथ द्वितीयः पक्षः ततः स कायव्यापार एवेति कृत्वा कायिकेनैव निसृजतीत्यापन्नम्, अनिष्टं चैतद्, अत्रोच्यते, न अभिप्रायापरिज्ञानादू, इह तनुयोगविशेष एव वाग्योगो मनोयोगश्चेति, कायव्यापारशून्यस्य सिद्धवत् तद्भावात् ततश्चात्मनः शरीरव्यापारे सति येन शब्दद्रव्योपादानं करोति स कायिकः, येन तु कायसंरंभेण तान्येव मुञ्चति स वाचिक इति, तथा येन मनोद्रव्याणि मन्यते स मानस इति, कायव्यापार एवायं व्यवहारार्थं त्रिधा विभक्त इत्यतोऽदोषः ॥ अथ प्रसङ्गो भाषारूपं वच्मि साऽपि हि । चतुर्विधोक्तन्यायेन, सत्यासत्यादिभेदतः ॥ ५४ ॥ सन्तो जीवादयो भावाः, सन्तो वा मुनयोऽथवा । मूलोत्तरगुणास्तेभ्यो, हिता सत्याऽभिधीयते ॥ ५५ ॥ अयं भावः -
Jain Education Intational
१०
१४
www.ainelibrary.org
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
॥ ७३ ॥
Jain Education
मुक्तिमार्गाराधनी या, सा गीः सत्योच्यते हिता । सा तं सत्याऽप्यसत्यैव, याऽन्येषामहितावहा ॥ ५६ ॥ असत्या तु भवेद्भाषा, मुक्तिमार्गविराधनी । द्विखभावा तृतीयाऽन्त्या, नाराधनविराधनी ॥ ५७ ॥ उक्तं च"सच्चा हिया सयामिह संतो मुणयो गुणा पयत्था वा । तद्विवरीया मोसा मीसा जा तदुभयसहावा ॥ ५८ ॥ अणहिगया जा तीसुवि सद्दो चिय केवलो असचमुसा" इति, तत्र सत्या दशविधा, प्रज्ञप्ता परमर्षिभिः । एभिः प्रकारैर्दशभिर्वदन्न स्याद्विराधकः ॥ ५९ ॥ तथाऽऽहु: - " जणवय १ सम्मय २ ठवणा ३ नामे ४ रूवे ५ पचसच्चे ६ अ ॥ ववहार ७ भाव ८ जोगे ९ दुसमे ओवम्मसचे १० अ ॥ १ ॥” तस्मिंस्तस्मिन् जनपदे, बच्चोऽर्थप्रतिपत्तिकृत् । सत्यं जानपदं पिचं, कोङ्कणादौ यथा पयः ॥ ६० ॥ भवेत्संमतसत्यं तद्, यत्सर्वजनसंमतम् । यथाऽन्येषां पङ्कजत्वेऽप्यरविन्दं हि पङ्कजम् ॥ ६१ ॥ तद्भवेत्स्थापनासत्यं स्थापितं तत्प्रतीतिकृत् । यथैककः पुरो बिन्दुद्वययुक्तः शतं भवेत् ॥ ६२ ॥ अर्हदादिविकल्पेन, कर्म लेप्यादिकं हि यत् । स्थाप्यते तदपि प्राज्ञैः, स्थापनासत्यमीरितम् ॥ ६३ ॥ यद्यस्य निर्मितं नाम, नामसत्यं तु तद्भवेत् । अवर्धयन्नपि कुलं, यथा स्यात्कुलवर्द्धनः ॥ ६४ ॥ तत्तद्वेषाद्युपादानाद्रूपसत्यं भवेदिह । यथाऽऽत्तमुनिनेपथ्यो, दाम्भिकोऽप्युच्यते मुनिः ॥ ६५ ॥ वस्त्वन्तरं प्रतीत्य स्याद्दीर्घताहखतादिकम् । यदेकत्र तत्प्रतीत्यसत्यमुक्तं जिनेश्वरैः ॥ ६६ ॥ दैर्ध्य यथाऽऽनामिकाया, अधिकृत्य कनिष्ठिकाम् । तस्या एव च हखत्वं, मध्यमामधिकृत्य तु ॥ ६७ ॥ यथा चैत्रस्य पुत्रत्वं, स्यात्तत्पितुरपेक्षया । पितृत्वमपि तस्यैव, खपुत्रस्य व्यपेक्षया ॥ ६८ ॥ विवक्षया यल्लोकानां तत्सत्यं व्यव
३१ योगद्वारे भाषायाः स्वरूपम् भेदाव
२०
२५
॥ ७३ ॥
२८
www.Janelibrary.org
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
हारतः। गलत्यमत्रं शिखरी, दह्यतेऽनुदरा कनी ॥६९॥ भूभृत्तत्स्थतृणादीनाममत्रोदकयोरपि । अविभेदं विवक्षित्वा, लोको ब्रूते तथाविधम् ॥ ७० ॥ संभोगबीजप्रभवोदराभावे वदन्ति च । कन्यामनुदरां सत्यमित्यादि व्यवहारतः॥ ७१॥ भावो वर्णादिकस्तेन, सत्यं तु भावतो यथा । नैकवर्णोऽपि नीलस्य, प्रबलत्वाच्छुको हरित् ॥७२॥ स्थूलस्कन्धेषु सर्वेषु, सर्वे वर्णरसादयः। निश्चयाव्यवहारस्तु, प्रबलेन प्रवर्तते ॥ ७३ ॥ योगो|ऽन्यवस्तुसंबन्धो, योगसत्यं ततो भवेत् । छत्रयोगाद्यथा छत्री, छत्राभावेऽपि कर्हि चित् ॥ ७४ ॥ हृद्यं साध
य॑मौपम्यं, तेन सत्यं तु भूयसा । काव्येषु विदितं यद्वत्तटाकोऽयं पयोधिवत् ॥ ७५॥ मृषाभाषाऽपि दशधा, क्रोध १ मानविनिःसृता २ । माया ३ लोभ ४ प्रेम ५ हास्य ६ भय ७ द्वेषविनिःसृताः८॥ ७६ ॥ आख्यायिकानिःसृता तु, कथावसत्यवादिनः९। चौर्यादिनाऽभ्याख्यातोऽन्य, उपघातविनिःसृता १०॥७७॥ तथाऽऽहु:|"कोहे माणे माया लोभे पेजे तहेव दोसे य । हासे भय अक्खाइय उवघाइयणिस्सिया दसमा ॥ ७८॥" सत्यामृषापि दशधा, प्रथमोत्पन्नमिश्रिता १ । विगतमिश्रिता २ चान्योत्पन्नविगतमिश्रिता ३॥७९॥ जीवाजीवमिश्रिते द्वे ५, स्याज्जीवाजीवमिश्रिता ६ । प्रत्येकमिश्रिता ७ऽनन्तमिश्रिता ८ ऽद्धाविमिश्रिता ९ ॥ ८॥ अद्धाद्धामिश्रिते १० त्यत्र, प्रथमोत्पन्नमिश्रिता । उत्पन्नानामनिश्चित्य, संख्यानं वदतो भवेत् ॥८१॥ यथाऽत्र नगरे जाता, नूनं दशाद्यदारकाः। मृतास्तान् वदतोऽप्वेवं, भवेद्विगतमिश्रिता ॥८२॥ एवं चउत्पन्नांश्च विपन्नांश्च, युगपद्वदतो भवेत् । उत्पन्नविगतमिश्राढयो भेदस्तृतीयकः ॥८३ ॥ शडशजानकादीनां,
O930290HOTASO90000002028
Jain Educat
i
onal
Mainelibrary.org
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ३ सर्गः
३१ योगेषु भाषाभेदाः
॥७४॥
राशी तान् जीवतो बहून् । दृष्ट्वाऽल्पांश्च मृतान् जीवराश्युक्ती जीवमिश्रिता ॥ ८४॥ तत्रैव च मृतान् भूरीन् , दृष्ट्वा स्वल्पांश्च जीवतः। अजीवराशिरित्येवं, वदतोऽजीवमिश्रिता ॥ ८५॥ एतावन्तोऽत्र जीवन्त, एतावन्तो मृता इति । तत्रानिश्चित्य वदतो, जीवाजीवविमिश्रिता ॥८६॥ अनन्तकायनिकर, दृष्ट्वा प्रत्येकमिश्रितम् । अनन्तकायं तं सर्व, वदतोऽनन्तमिश्रिता ॥ ८७॥ एवं प्रत्येकनिकरमनन्तकायमिश्रितम् । प्रत्येकं वदतः सर्व, भवेत्प्रत्येकमिश्रिता ॥ ८८॥ अद्धा कालः स च दिनं, रात्रिर्वा परिगृह्यते । यस्यांशमिश्रिता साऽद्धामिश्रिता जायते यथा ॥ ८९॥ कञ्चन त्वरयन् कश्चिद्वद्वेदुत्तिष्ठ भो लघु । रात्रिर्जातेति दिवसे, रात्रौ च रविरुद्गतः ॥९०॥ अद्धाद्धा त्वेकदेशः स्याद्रात्रेर्वा दिवसस्य वा । सा मिश्रिता ययाऽद्धाद्धामिश्रिता सा भवेदिह ॥ ९१॥ कश्चिद्यथाऽऽद्य पौरुष्यां, कञ्चन त्वरयन् वदेत् । त्वरख जातो मध्यान्ह, एवमेव निशाखपि ॥ ९२॥ या त्वसत्यामृषाभिख्या, भाषा साऽपि जिनेश्वरैः । प्रज्ञप्ता द्वादशविधा, विविधातिशयान्वितैः॥ ९३ ॥ आमन्त्रण्या१ऽऽज्ञापनी २ च, याचनी ३ प्रच्छनी ४ तथा । प्रज्ञापनी ५ प्रत्याख्यानी ६, भाषा चेच्छाऽनुकूलिका ७॥४४॥ अनभिग्रहीता ८ भाषाऽभिगृहीता ९ तथा परा । संदेहकारिणी भाषा १०, व्याकृता ११ ऽव्याकृता १२ तथा ॥९५॥ हे देवेत्यादि तत्राद्या, द्वितीया त्वमिदं कुरु । तृतीयेदं ददखेति, तुर्याऽज्ञातार्थनोदनम् ॥९६॥ पञ्चमी तु विनीतस्य, विनेयस्योपदेशनम् । यथा हिंसाया निवृत्ता, जन्तवः स्युश्चिरायुषः॥९७ ॥ उक्तं च-"पाणिवहाओ नियत्ता हवंति दीहाउया अरोगा य । एमाई पन्नत्ता पन्नवणी वीयरायहि ॥९८॥" षष्ठीतु याचमानस्य,
200020200090020902020120
॥७४॥
२८
Jain Educatio
nal
For Private & Personel Use Only
NOMjainelibrary.org
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतिषेधात्मिका भवेत् । सप्तमी पृच्छतः कार्य, स्वीयानुमतिदानतः॥९९ ॥ कार्य यथाऽऽरभमाणः, कश्चित्कचन पृच्छति । स प्राहेदं कुरु लघु, ममाप्येतन्मतं सखे !॥१४००॥ उपस्थितेषु बहुषु, कार्येषु युगपद्यदि । किमिदानी करोमीति, कश्चित्कश्चन पृच्छति ॥१॥ स प्राह सुन्दरं यत्ते, प्रतिभाति विधेहि तत् । भाषाऽनभिगृहीताख्या, सा प्रज्ञप्ता जिनेश्वरैः ॥२॥ अभिगृहीता तत्रैव, नियतार्थावधारणम् । यथाऽधुनेदं कर्त्तव्यं, न कर्त्तव्यमिदं पुनः॥३॥ अनेकार्थवादिनी तु, भाषा संशयकारिणी । संशयः सिंधवस्योक्तौ, यथा लवण-18 वाजिनोः॥४॥ व्याकृता तु भवेद्भाषा, प्रकटार्थाभिधायिनी । अव्याकृता गभीरार्थाऽथवाऽव्यक्ताक्षराश्चिता, ॥५॥ आद्यास्तिस्रो दशविधास्तुर्या द्वादशधा पुनः। द्विचत्वारिंशदित्येवं, भाषाभेदा जिनैः स्मृताः॥६॥ स्तोकाः सत्यगिरः शेषास्त्रयोऽसङ्ख्यगुणाः क्रमात् । अभाषकाश्चतुर्योऽपि, स्युरनन्तगुणाधिकाः ॥७॥ इति योगा: ३१॥ के के जीवाः कियन्तः स्युरितिदृष्टान्तपूर्वकम् । निरूपणं यत्तन्मानमित्यत्र परिकीतितम् ॥८॥३२॥ परस्परं कतिपयसजातीयव्यपेक्षया । वक्ष्यते याऽल्पबहुता, साऽत्र ज्ञेया कनीयसी ॥९॥३३। भूयांसो दिशि कस्यां के, जीवाः कस्यां च केऽल्पकाः। एवंरूपाऽल्पबहुता, विज्ञेया दिगपेक्षया ॥१०॥३४॥ प्राप्य पृथ्व्यादित्वमङ्गी, जघन्योत्कर्षतः पुनः। कालेन यावताऽऽनोति, तद्भावं स्यात्तदन्तरम् ॥११॥३५॥ विवक्षितभवात्तुल्येऽतुल्ये |च यद्भवान्तरे । गत्वा भूयोऽपि तत्रैव, यथासंभवमागतिः॥१२॥ जघन्यादुत्कर्षतश्च, वारानेताबतो भवेत् । इत्यादि यत्रोच्यतेऽसौ, भवसंवेध उच्यते॥१३॥३६। सर्वजातीयजीवानां, परस्परव्यपेक्षया । वक्ष्यते याऽल्पब
98288900982985288282009
नयावतालपबहतासात्र शेयोमानमित्यत्रणाधिकाः
Jain Educati
o
na
For Private & Personel Use Only
Mainelibrary.org
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य.
४ सर्ग: ॥७५॥
हुता, महाल्पबहुताऽत्र सा॥१४॥३७॥ भवतु सुगमं द्वाररेभिः सदागमशोभननगरमिव सश्रीकं जीवास्तिकाय
जीवे मेदा: निरूपणम् । विमलमनसां चेतांसीह प्रविश्य परां मुदं, दधतु विविधैरथैर्व्यक्तीकृतैश्च पदे पदे ॥ १५॥ हरिणी। विश्वाश्चर्यदकीर्तिकीर्तिविजयश्रीवाचकेन्द्रातिषद्राजश्रीतनयोऽतनिष्टविनय:श्रीतेजपालात्मजः।काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्त्वप्रदीपोपमे, सर्गों निर्गलितार्थसार्थसुभगः पूर्णस्तृतीयः सुखम् ॥१६॥ ॥ इति श्रीलोकप्रकाशे तृतीयः सर्गः समाप्तः ॥ ग्रन्थाग्रं १७३० अक्षराणि १०॥
॥अथः चतुर्थः सर्गः प्रारभ्यते ॥ द्वाराण्येवं वर्णितानि, सप्तत्रिंशदिति क्रमात् । निर्दिश्यन्तेऽथ संसारिजीवेष्वमूनि तत्र च ॥१॥ ओघतो भाव्यते संसारिषु द्वारकदम्बकम् । आदौ ततो विशेषेण, प्रत्येकं भावयिष्यते ॥२॥ द्विधा संसारिणो जीवा-10 स्त्रसस्थावरभेदतः। त्रिविधाः स्युस्त्रिभिर्वेदैर्गतिभेदैश्चतुर्विधाः॥३॥ एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया इति च पश्चधा। षोढा कायप्रकारैः स्युर्भवन्त्येवं च सप्तधा ॥४॥ एकाक्षा बादराः सूक्ष्माः, पञ्चाक्षाः संश्यसंज्ञिनः । चत्वा-16 रोऽमी विकलाक्षस्त्रिभिः सह समन्विताः॥५॥ चतुर्धकेन्द्रियाः सूक्ष्मान्यपर्याप्सान्यभेदतः । पञ्चाक्षा विक-18 लाक्षाच, भवन्तीत्येवमष्टधा॥६॥अण्डजादिभेदतोऽष्टौ, सास्तत्राण्डजाः किल । पक्षिसाचा रसोत्था, मद्य- ७५॥ कीटायोऽङ्गिनः॥७॥ जरायुजा नृगवाद्या, यूकाद्याः खेदजा मताः । संमूछेजा जलूकाद्याः, पोतजाः
२५
२७
Jain Education HAM
For Private Personel Use Only
writinelibrary.org
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुञ्जरादयः॥८॥ उद्भेदजाः खञ्जनाद्याः, देवाद्याश्चौपपातिकाः । स्थावरेणैकेन युक्ता, नवधेत्यङ्गिनो मताःR 18|॥९॥ अथवा-नवधा स्थावराः पञ्च, पञ्चाक्षविकलैर्युताः । दशधा विकलै मायैः, पश्चाक्षैः संश्यसंज्ञिभिः
॥१०॥ स्थावरैर्विकलैः पञ्चेन्द्रियैश्च वेदतस्त्रिभिः । एकादश द्वादश स्युः, कायैः पर्याप्सकापरैः॥ ११॥ पर्यासापर्याप्तकैश्च, स्थावरैस्त्रिविधैस्त्रसैः । वेदभेदाद्भवन्त्येवं, त्रयोदशविधाः किल ॥१२॥ प्रागुक्ताः सप्तधा| पर्याप्तकापर्याप्तभेदतः । चतुर्दशविधा जीवाः, स्युः पञ्चदशधाप्यमी ॥ १३ ॥ पञ्चाक्षा नरतियश्चस्त्रिविधा वेद-1 भेदतः । देवा द्विधा नारकाश्चेत्येवं पञ्चेन्द्रिया नव ॥१४॥ द्विविधा बादरैकाक्षाः, पर्याप्तापरभेदतः। सूक्ष्मैकाक्षा विकलाक्षाः, स्युः पञ्चदशसंयुताः॥१५॥ तिर्यश्चः पञ्चधैकाक्षादिकाः पञ्चाक्षसीमकाः।नदेवनारकाचाष्टाप्यते पर्यासकापराः॥१६॥ इति षोडश भेदाः॥ प्रागुक्ता नवधा पञ्चेन्द्रियाश्च पश्चधैकखाः । त्रिविधा विकला एवं, स्युः सप्तदशधाऽङ्गिनः॥१७॥ प्रागुक्ता नवधा जीवाः, पर्याप्तापरभेदतः। भवन्त्यष्टादशविधा, जीवा एवं विवक्षिताः ॥ १८॥ पश्चाक्षा नवधा प्राग्वद्दशधा च परेऽगिनः । पर्याप्तान्याः स्थूलसूक्ष्मैकाक्षाः सविकलेन्द्रियाः॥१९॥ एकोनविंशतिविधा, भवन्त्येवं शरीरिणः । प्रागुक्ता दशधा पर्याप्सान्ये विंशतिधेति च ॥२०॥ स्थावरा विंशतिः सूक्ष्मान्यपर्याप्सान्यभेदतः। त्रसेन च समायुक्ता, एकविंशतिधाऽगिनः॥२१॥ पूर्वोदिताः प्रकारा ये, एकादश शरीरिणाम् । द्वाविंशतिविधाः पर्याप्सान्यभेदाद् द्विधाकृताः॥२२॥ एवं विवक्षावशतो, जीवा भवन्त्यनेकधा। जीवानामोघतः स्थानं, लोकः सर्वोऽप्युदीरितः ॥ २३ ॥ द्वाराणि पर्याप्त्यादीनि, सर्वाण्यप्यविशेषतः ।।
Jain Educa
ional
For Private
Personel Use Only
Nurjainelibrary.org
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य.
४ सगे: ॥७६॥
सूक्ष्मथ्यादिखरूपम्
संभवन्त्योघतो जीवे, विज्ञेयानि यथाऽऽगमम् ॥ २४ ॥ इति सामान्यतः संसारिजीवनिरूपणम् ॥ संसारिणो द्विधोक्ताः प्राक, बसस्थावरभेदतः। स्थावरास्तत्र पृथ्व्यंबुतेजोवायुमहीरुहः॥ २५॥ पञ्चामी स्थावराः स्थावराख्यकर्मोदयात्किल । हुताशमरुतौ तत्र, जिनैरुक्तौ गतित्रसौ ॥ २६ ॥ इति जीवाभिगमाभिप्रायेण, आचाराङ्गनियुक्तिवृत्त्यभिप्रायेण तु 'दुविहे'त्यादि, असा एव जीवास्त्रसजीवाः, लब्धित्रसाः गतित्रसाश्च, लब्ध्या तेजोवायू सौ इति, अन्ये च नारकादयो गतित्रसा इति तात्पर्य ॥ वनस्पतिश्च प्रत्येकः, साधारण इति द्विधा । सर्वेऽमी बादराः सूक्ष्मा, विना प्रत्येकभूरुहम् ॥ २७ ॥ एकादशैकेन्द्रियाः स्युरेवं प्रत्येकसंयुताः। अपर्याप्ताश्च पर्याप्ता, एवं द्वाविंशतिः कृताः ॥२८॥ तत्र क्षमाम्भोऽग्निपवनाः, साधारण-18 वनस्पतिः । एतेऽपर्याप्तपर्याप्ता, दशैवं सूक्ष्मदेहिनः ॥२९॥ सूक्ष्मनामकर्मयोगाद्ये प्राप्ताः सूक्ष्मतामिह । चर्मचक्षुरगम्यास्ते, सूक्ष्माः पृथ्व्यादयः स्मृताः॥ ३० ॥ सूक्ष्माः साधारणवनस्पतयो येऽत्र शंसिताः । ते |च सूक्ष्मनिगोदा इत्युच्यन्ते श्रुतकोविदैः ॥३१॥ अनन्तानामसुमतामेकसूक्ष्मनिगोदिनाम् । साधारणं |शरीरं यत्, स निगोद इति स्मृतः॥ ३२॥ तच्चैकं सर्वतद्वासिसंबंधि स्तिबुकाकृति । औदारिकं स्यात्प्रत्येकं, त्वेषां तैजसकार्मणे ॥३३॥ ते सहोच्छासनिःश्वासाः, समं चाहारकारिणः । अनन्ता अतिसूक्ष्मेऽङ्गे, सहन्ते हन्त यातनाम् ॥ ३४ ॥ तथोक्तं-"जं नरए नेरइया दुक्खं पावंति गोअमा ! तिक्खं । तं पुण निगोअजीवा अणन्तगुणियं वियाणाहि ॥ ३५॥" सूक्ष्मा अनन्तजीवात्मका निगोदा भवन्ति भुवनेऽस्मिन् । पृथ्व्यादिसर्व
॥७६॥
२८
Jain Education
al
For Private & Personel Use Only
ainelibrary.org
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्र संपूर्णगोलकः । मिनाकावरणेन यः॥ ४० ॥ कुत्रापि, संस्थिता वा अन्योऽन्यानुप्रवेश
नगा अन्येऽपि तत्रासंख्येयास्त जीवप्रदेशकैः । विवक्षणीयमुटानितः ॥ ४५ ॥ विवक्षित
जीवासंख्येयकसंमिता असंख्येयाः॥ ३६॥ गीतिः ॥ भगवतीवृत्तौ ॥ एभिः सूक्ष्मनिगोदैश्च, निचितोऽस्त्यखिलोऽपि हि । लोकोऽञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गवत्समन्ततः॥३७॥ जीवाभिगमवृत्तौ । असंख्येयैर्निगोदैश्च, स्यादेकः |किल गोलकः।गोलकास्तेऽप्यसंख्येया,भवन्ति भुवनत्रये॥३८॥गोलकप्ररूपणा चैवं-षदिशं यत्र लोकः स्यात्तत्र संपूर्णगोलकः । निष्पद्यते तन्मध्ये च, स्यादुत्कृष्टपदं खलु ॥३९॥ भित्त्यासन्नापवरककोणान्तिमप्रदेशकम् । देशोऽनुकुर्यात्रिदिशमलोकावरणेन यः॥४०॥ तत्र खण्डस्य गोलस्य, निष्पत्तिः सकलस्य न । स्याजघन्यपदं तस्मिन् , स्पष्टमल्पैनिगोदकैः॥४१॥ लोकान्तर्यत्र कुत्रापि, संस्थितः स्यान्निगोदकः। एकोऽङ्गुलासंख्यभागमितक्षेत्रावगाहनः॥४२॥ अन्येऽपि तत्रासंख्येयास्तावन्मात्रावगाहनाः । अन्योऽन्यानुप्रवेशेन, स्थितास्सन्ति निगोदकाः॥ ४३ ॥ तत्रान्यापेक्षया प्राज्यैः, स्पष्टं जीवप्रदेशकैः। विवक्षणीयमुत्कृष्टपदमेकप्रदेशकम् ॥४४॥ तस्यामेव निगोदावगाहनायां समन्ततः । अन्ये निगोदास्तिष्ठन्ति, प्रदेशवृद्धिहानितः॥४५॥ विवक्षितनिगोदस्य, मुक्त्वा कांश्चित्प्रदेशकान् । आक्रम्य चापरानेतैरवस्थितैर्निगोदकैः ॥४६॥ विवक्षितममुश्चद्भिस्तदुत्कृष्टपदं किल । एको निष्पाद्यते गोलो, ह्यसंख्येयनिगोदकः॥४७॥ तथोक्तं-"उक्कोसपयममोत्तुं निगोअओगाहणाएँ सत्वत्तो। निफाइजइ गोलो पएसपरिवुडिहाणीहिं ॥४८॥" अथ गोलकमाश्रित्यैतमेव प्रोक्तलक्ष-18 णम् । अन्यो निष्पद्यते गोलो, मुक्त्वोत्कृष्टपदं हि तत् ॥४९॥ निरुक्तगोलकोत्कृष्टपदास्पर्शिनिगोदके। परि१वनस्पतेरुपादानमापः, ताश्च स्तिबुकसंस्थाना इति निगोदा अपि तथा, यद्वा षट्स्वपि दिक्षु मध्यबिन्दोः समावगाहात् गोलकनिष्पत्तिः
2920220002025220002020202020
in Educu
For Private Personel Use Only
S
ainelibrary.org
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ४ सर्गः
॥ ७७ ॥
| कल्प्योत्कृष्टपदमन्यगोलककल्पनात् ॥ ५० ॥ इत्येकैकनिगोदावगाहनाप्रमिते किल । क्षेत्रे भवति निष्पत्तिरेककगोलकस्य वै ॥ ५१ ॥ विवक्षितनिगोदावगाहनायास्तु येऽधिकाः । निगोदांशास्तत्प्रदेशहा निस्थित्या व्यवस्थिताः ॥ ५२ ॥ विवक्षणीयास्ते गोलकान्तरानुप्रविष्टकाः । एवं गुरूपदेशेन, ज्ञेया गोलकपद्धतिः ॥ ५३ ॥ उक्तं हि - "तत्तोचिय गोलाओ उक्कोसपयं मुहत्तु जो अण्णो । होइ निगोओ तम्मिवि अन्नो निष्फज्जह गोलो ॥५४॥ एवं निगोयमित्ते खेत्ते गोलस्स होइ निष्पत्ती । एवं निष्फज्जते लोगे गोला असं खिज्जा ॥ ५५ ॥” स्थापना, | इत्याद्यर्थतो भगवतीशतक ११ उद्देशके १० ॥" निगोदा निचिताश्चैतेऽनन्तानन्ताङ्गिभिस्तथा । निर्गच्छद्भिर्यथा नित्यं, न कोऽपि स हीयते ॥ ५६ ॥ यद्व्यावहारिकाङ्गिभ्यो, यावन्तो यान्ति निर्वृतिम् । निर्यान्ति तावन्तोऽनादिनिगोदेभ्यः शरीरिणः ॥ ५७ ॥ तथोक्तं- "सिज्झति जन्तिया किर इह संववहाररासिमज्झाओ । इंति अणाइवणस्सइमज्झाओ तत्तिआ तंमि ॥ ५८ ॥" इत्यादि प्रज्ञापनावृत्तौ ॥ अनन्तेनापि कालेन, यावन्तः स्युः शिवं गताः । सर्वेऽप्येकनिगोदैकानन्तभागमिता हि ते ।। ५९ ।। कालेन भाविनाऽप्येवमनन्ता मुक्तिगामिनः । चिन्त्यन्ते तैः समुदितास्तथापि नाधिकास्ततः ॥ ६०॥ एवं च न तादृग् भविता कालः, सिद्धाः सोपचया अपि । यत्राधिका भवन्त्येकनिगोदानन्तभागतः ॥ ६१ ॥ तथाऽऽहुः - "जइया य होइ पुच्छा जिणाण मग्गंमि उत्तरं तइया । इक्कस्स निगोअस्स य अनंतभागो उ सिद्धिगओ ॥ ६२ ॥ " निगोदेऽपि द्विधा जीवास्तत्रैके व्यावहारिकाः । व्यवहारादतीतत्वात्परे चाव्यवहारिकाः ॥ ६३ ॥ सूक्ष्मान्निगोदतोऽनादेर्निर्गता एकशोऽपि ये ।
व्यवहार्यव्यहारिणः
२०
२५
॥ ७७ ॥ २७
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृथ्व्यादिव्यवहारंच, प्राप्तास्ते व्यावहारिकाः॥६४॥ सूक्ष्मानादिनिगोदेषु, यान्ति यद्यपि ते पुनः। ते प्राप्तव्यवहारत्वात्तथापि व्यहारिणः॥६५॥ कदापि ये न निर्याता, बहिः सूक्ष्मनिगोदतः। अव्यावहारिकास्ते स्युर्दरीजातमृता इव ॥६६॥ तदुक्तं विशेषणवत्यां-"अस्थि अणंता जीवा जेहिं न पत्तो तसाइपरिणामो। तेवि अणंताणता निगोअवासं अणुहवंति ॥६७॥” इति सूक्ष्माणां भेदाः१॥ एभिर्लोकोऽखिलो व्याप्त:, कजलेनेव कुम्पिका । कापि प्रदेशो नास्त्येभिर्विहीनः पुद्गलैरिव ॥ ६८॥ इति स्थानम् २। आद्याश्चतस्रस्तिस्रः स्युरेषां पर्याप्तयः क्रमात् । पर्याप्तान्येषामथायुः,श्वासः कायबलं तथा ॥६९॥ त्वगिन्द्रियं चेत्यमीषां, प्राणाश्चत्वार ईरिताः।३-४।संख्या योनिकुलानां तु पृथगेषां न लक्ष्यते ॥७॥ ततश्च-संख्या योनिकुलानां या, बादराणां प्रवक्ष्यते । एतेषामपि सैवामी, सर्वे संवृतयोनयः॥७१॥ इति पर्यास्यादिद्वारचतुष्टयम् ५-६। अन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टा, भवत्येषां भवस्थितिः। जघन्या क्षुल्लकभवरूपमन्तर्मुहूर्त्तकम् ॥७२॥ तथोक्तम्-"दससहससमा सुरनारयाण सेसाण खुडभवों" इति भवस्थितिः । सूक्ष्मनिगोदजीवानां, त्रिधा कायस्थितिर्भवेत् । अनाद्यन्ताऽना|दिसान्ता, साचन्ता चेतिभेदतः ॥ ७४ ॥ सूक्ष्मान्निगोदतोऽनादेर्निर्गता न कदापि ये । नैवापि निर्गमिष्यन्ति, तेषामाद्या स्थितिर्भवेत् ॥ ७५॥ अनन्तपुद्गलपरावर्त्तमाना भवेदियम् । सन्ति चैवंविधा जीवा, येषामेषा स्थितिर्भवेत् ॥७६॥ यदुक्तं-"सामग्गिअभावाओ ववहारियरासिअप्पवेसाओ। भवावि ते अणंता जे सिद्धिसुहं न पावंति ॥ ७७॥" निगोदात्सूक्ष्मतो ये च, निर्गता न कदाचन । निर्यास्यन्ति पुन
JainE
.
.
For Private
Personal Use Only
W
ejainelibrary.org
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
focreer
लोकदध्य.शर्जातु, स्थितिस्तेषां द्वितीयिका ॥७८॥ अनन्तपुद्गलपरावर्तमाना वसावपि । गतस्य कालस्यानन्त्यास्के- निगोदाना ४ सर्गः षांचिद्भाविनोऽपि च ॥ ७९ ॥ अनादिस्थितिका न स्युर्यद्यनन्ता निगोदिनः। तदा वक्ष्यमाणवनस्पति- 5 स्थितिः
कायस्थितिक्षये ॥ ८॥ कृते कायपरावर्ते, निखिलैर्वनकायिकैः । वनस्पतीनां निर्लेपोऽनभीष्टोऽपि प्रसज्यते ॥८१॥ अनारतं किंच मुक्ति, गच्छद्भिर्भव्यदेहिभिः। अचिरादेव जगति, भव्याभाव: प्रसज्यते ॥ ८२॥ मुक्तिमार्गव्यवच्छेदोऽप्येतच नेष्यते बुधैः । सन्तीति प्रतिपत्तव्यं, ततोऽनादिनिगोदिनः ॥ ८३ ॥ इत्याद्यधिकं प्रज्ञापनाष्टादशपदवृत्तितोऽवसेयं ॥ पुनः प्रासा निगोदं येऽनुभूय व्यवहारिताम्।कायस्थिति स्यात्साद्य
न्ता, तेषांतां वच्मि मानतः॥८४॥ उत्सपिण्यवसर्पिण्या, संख्यातीताः प्रकीर्तिताः।कालतः क्षेत्रतश्चास्या, सास्थितेर्मानमथ ब्रुवे ॥ ८५ ॥ लोकाकाशमितासंख्यखखण्डानां प्रदेशकाः । एकैकस्यापहारेण, ह्रियमाणाः
क्षणे क्षणे ॥८६॥ यावद्भिः कालचक्रः स्युनिर्लेपा मूलतोऽपि हि। तावन्ति तानि स्यात्कायस्थिनिरेषां तृतीयिका ॥ ८७ ॥ कालचक्राण्यसंख्यानि, भवन्त्येतानि संख्यया । कालतो हि सूक्ष्मतरं, क्षेत्रमाहुर्जिनेश्वराः
८८॥ यतोऽङ्गुलमिताकाशश्रेण्या अध्रप्रदेशकाः । गण्यमानाः समानाः स्युरसंख्योत्सपिणीक्षणैः ॥ ८९॥ | १ सर्वेषां मूलस्थानं निगोदो, जघन्यतमचैतन्यशक्तेस्तत्रैव सत्त्वात् , न च तच्चेतनातोऽल्पा चेतनाऽन्यत्र कुत्रापि, अवसानं चान्यमत्र, ७८॥
उत्कृष्टोऽन्तः सिद्धत्वे, स च प्रयत्नातिरेकसाध्यः, निगोदीयजघन्यता तु स्वभावसिद्धा, किंच-नान्यत् स्थानमनन्तानामसुमतां संसारे, ततोप्यनादिनिगोदसत्ता ।
eescoveeटष्टास्टर
Jain Educati onal
MO
jainelibrary.org
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
यदाहु:-"सुहुमो य होइ कालो तत्तो सुहमयरं हवइ खित्तं । अङ्गुलसेढीमित्ते ओसप्पिणिओ असंखिजा ॥९॥" सूक्ष्मक्ष्माम्भोऽग्निमरुतां, कालतः क्षेत्रतोऽपि च । स्यात्कायस्थितिरेषैव, सूक्ष्मत्वेऽपि तथौघतः ॥९१ ॥ एकेन्द्रियत्वतिर्यक्त्वासंज्ञित्वेषु प्रसङ्गतः । वनस्पतित्वे क्लीबत्वे, कायस्थितिमथ ब्रुवे ॥ ९२॥ आव|ल्यसंख्यभागस्य, यावन्तः समयाः खलु । स्युः पुद्गलपरावर्त्तास्तावन्तः कायसंस्थितिः॥९३ ॥ सर्वेषामियमु-11 त्कृष्टा, कायस्थितिरुदाहृता । जघन्या तु भवेदन्तमुहर्तमविशेषतः॥९४॥ इति कायस्थितिः ८॥ तैजसं कार्मणं चौदारिकं चेति वपुत्रयम् । पृथ्व्यादिसूक्ष्मजीवानां, प्रज्ञप्तं परमेष्ठिभिः॥९५॥ निगोदानां त्वनन्तानामेकमौदारिकं वपुः। सर्वसाधारणं हे चापरे प्रत्येकमीरिते ॥९६॥ इति देहाः ९॥ एकेन्द्रियाणां संस्थानं, सर्वेषां हुण्डमीरितम् । तत्राप्येष विशेषस्तु, दृष्टो दृष्टजगत्रयैः॥९७॥ मसूरचन्द्रसंस्थाना, सूक्ष्मा क्षोणी द्विधापि हिर सूक्ष्माः स्तिबुकसंस्थाना, आपः पापहरैः स्मृताः॥९८॥ सूचीकलापसंस्थानं, तेजो वायुर्वजाकृतिः। सूक्ष्मो निगोदोऽनियतसंस्थानः परिकीर्तितः॥ ९९॥ इति जीवाभिगेमाभिप्रायः॥ संग्रहणीवृत्तौ च निगोदौदारिक
१ यद्यप्यतीन्द्रियार्थवेदिज्ञानवेद्यानि सूक्ष्मबादराङ्गिनां प्रत्येकानां संस्थानानि तथापि चतुरस्रादिसर्वसंस्थानानां पृथ्व्यां सत्तादर्शनात् सुखावगम्यता । २ अनेकानामप्यप्कायानां बिन्दुसंस्थानोपलब्धेः.३ बादरतेजसः प्रत्यक्षेण सूक्ष्मानत्वं दृश्यते, तथाऽन्यस्यापि. ४ अत एवं वालुकास्वाकारो वायुजन्यः, ऊर्श्वभागाधोभागेऽपि वायोरागमश्च. ५ व्यवहार्याभावान्नैकतमत् संस्थानं, संपण्यादी जलसंस्थानमनुश्रित्य तन्मूलत्वाइनस्पतेः।
202090800202010029202
को. प्र.१४
Jain Education
a
l
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
ece:
लोक द्रव्य.
४ सर्ग:
॥७९॥
Seeeeeeeeeeeeeese
देहं स्तिबुकाकारमुक्तमिति ज्ञेयं ॥ इति संस्थानं १०॥ अङ्गलासंख्यांशमानं, सूक्ष्मैकेन्द्रियदेहिनाम् । सामान्यतःसूक्ष्मेषु, शरीरं स्थाद्विशेषतस्तु वक्ष्यते ॥१०॥ इतिदेहमानं ११॥ कषायाणां वेदनाया, मृत्योश्चेति जिनैस्त्रयः। निरूपि-II
देहमानादि ताः समुद्घाताः, सूक्ष्मैकाक्षशरीरिणाम् ॥१०॥ इतिसमुदघाता:१२॥ एकेन्द्रियेषु सर्वेषु, विकलेन्द्रियकेषु च।। संख्येयायुर्गभेजेषु, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेष्वपि ॥१०२॥ तादृशेष्वेव मयेषु, तेषु संमूछिमेषु च । एते विपद्योत्पद्यन्ते, सूक्ष्मा दशविधा अपि ॥३॥ तेजोऽनिलौ तु नवरं, नोत्पद्यते खभावतः । मनुष्येष्विति गच्छन्ति, ते पूर्वो-|
| १५ तेषु तान् विना ॥४॥ इतिगतिः १३॥ उत्पद्यन्ते च पूर्वोक्ताः, सूक्ष्मैकाक्षेषु तेऽखिलाः । खखकर्मानुभावेन, गरिछेन वशीकृताः॥५॥ नारका निर्जरास्तिर्यगनराश्चासंख्यजीविनः । नैषां सूक्ष्मेषु गमनं, न चाप्यागमनं ततः। ॥६॥ गतिष्वेवं चतसृषु, संक्षेपात्ते विवक्षिताः। द्विगतयो व्यागतयो, भवन्ति सूक्ष्मदेहिनः ॥७॥ तेजो|ऽनिलो तु नृभवे, नोत्पद्यते खभावतः। ततस्त एकगतयः, प्रोक्ता व्यागतयोऽपि च ॥८॥ सूक्ष्मेषु पृथ्वीसलिलतेजोऽनिलेषु जन्तवः। उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च, असंख्येया निरन्तरम् ॥९॥ वनस्पती वनन्तानामुत्पत्तिविलयो सदा । स्वस्थानतः परस्थानात्वसंख्यानां गमागमौ ॥१०॥ एकस्यापि निगोदस्यासंख्यांशोऽनन्तजीवकः । जायते म्रियते शश्वत्, किं पुनः सर्वमीलने?॥११॥ तथाहि-विवक्षितनिगोदस्य, विवक्षितक्षणं यथा। असंख्येयतमो भाग, एक उद्वर्तते ध्रुवम् ॥१२॥ उत्पद्यतेऽन्यस्तथैव, द्वितीयसमयेऽपि हि । एक उद्धततेऽसंख्यभाग उत्पद्यतेऽपरः॥ १३ ॥ उद्वर्तनोपपातावित्येवं स्यातां प्रतिक्षणम् । यथैकस्य निगोदस्यासं-||
9300292989222
| २४
Alhinelibrary.org
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Educa
ख्यभागस्य सर्वदा ॥ १४ ॥ तथैवान्यनिगोदानामपि त्रैलोक्यवर्त्तिनाम् । उद्वर्त्तनोपपातौ स्तो संख्यांशस्य पृथक पृथक् ॥ १५ ॥ उद्वर्त्तनोपपाताभ्यां भवद्भ्यामित्यनुक्षणम् । परावर्त्तन्ते निगोदा, अन्तर्मुहूर्त्तमात्रतः ॥ १६ ॥ जायमानैम्रियमाणैरन्तर्मुहूर्त्तजीविभिः । निगोदिभिर्नवनवैः स्युः शून्यास्तु मनागू न ते ॥ १७ ॥ तथोक्तं - " एगो असंखभागो वहह उहहणोववायंमि । एगनिगोए निचं एवं सेसेसुवि स एव ॥१॥ अंतोमुहतमित्ता टिई निगोआण जं विनिधिट्ठा। पल्लहंति निगोआ तम्हा अंतोमुहुत्तेणं ॥१८॥ एषामुत्पत्तिमरणे, विरहस्तु न विद्यते । यज्जायन्ते म्रियन्ते चासंख्यानन्ता (व्यन्तेऽसंख्यांशोऽनन्ता) निरन्तरम् ॥१९॥ इत्यागतिः १४ || अनन्तराप्तिः समये, सिद्धिर्बादरवद् बुधैः । ज्ञेयैषां प्राच्यशास्त्रेषु, विभागेनाविवक्षणात् ॥ २० ॥ इति द्वारद्वयं १५-१६ ॥ कृष्णा नीला च कापोती, लेश्यात्रयमिदं भवेत् । सर्वेषां सूक्ष्मजीवानामित्युक्तं सूक्ष्मदर्शिभिः ॥ २१ ॥ इतिलेश्याः १७ ॥ निर्व्याघातं प्रतीत्यैषामाहारः षड् दिगुद्भवः । भवेद्व्याघातमाश्रित्य, त्रिचतुष्पञ्च दिग्भवः ॥२२॥ इत्याहारदिक् १८ ॥ न संहननमेतेषां संभवत्यस्थ्यभावतः । मतान्तरेण चैतेषां, सेवार्त्त तदुरीकृतम् ॥ २३॥ इति संहननानि १९ ॥ सर्वे कषायाः संज्ञास्तु, स्युश्च तस्रोऽथवा दश । इद्रियं चैकमाख्यातमेतेषां स्पर्शनेन्द्रियम् ||२४|| इति द्वारत्रयं २०-२१-२२ ॥ भूतभाविभवद्भावस्वभावालोचनात्मिका । संज्ञा नैकेन्द्रियाणां स्यात्तदेतेऽसंज्ञिनः स्मृताः ॥ २५ ॥ इति संज्ञिता २३|| अमी जिनेश्वरैः क्लीववेदा एव प्रकीर्त्तिताः । वेदस्त्वव्यक्तरूपः स्यादेषां संज्ञाकषायवत् | ॥ २६ ॥ इति वेदः २४ || संक्लिष्टपरिणामत्वात्सवै केन्द्रियदेहिनाम् । मिथ्यादृष्टय एवामी, निर्दिष्टाः परमेष्ठिभिः
mational
१०
१४
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
ISI॥ २७॥ इति दृष्टिः २५॥ मत्यज्ञानश्रुताजाने, सूक्ष्मैकेन्द्रियदेहिनाम् । ते अप्यन्त्यतमल्पिष्टे, शेषजीवव्यपे-JI
सूक्ष्मेषु ४ सर्गः क्षया ॥ २८ ॥ इति ज्ञानं २६ ॥ चतुर्यु दर्शनेष्वेषामचक्षुदर्शनं भवेत् । उपयोगास्त्रयोऽज्ञानद्वयमेकं च दर्शनम
दर्शनादि KRI|२९॥ निराकारोपयोगाः स्युरचक्षुर्दर्शनाश्रयात् । दूधज्ञानतस्तु साकारोपयोगाः सूक्ष्मदेहिनः॥३०॥ इतिद्वारद्वयं
२७-२८॥आहारकाः सदाप्येते,स्युर्विग्रहगति विना। तस्यां त्वनाहारका अप्येते त्रिचतुरान्क्षणान्॥३१॥एषामुत्पनमात्राणामोजआहार ईरितः । लोमाहारस्ततो द्वेधाप्यनाभोगज एव च ॥३२॥ सचित्तः स्यादचित्तः स्यादुभयात्मापि कर्हि चित् । आहारे चान्तरं नास्ति, सदाहारार्थिनो ह्यमी ॥ ३३ ॥ तथोक्तं प्रज्ञापनायां-"पुढवीकाइयस्स णं भंते ! केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पजइ ?, गो! अणुसमयं अविरहिए, एवं जाव वणस्सइकाइया"इलि, इत्याहारकत्वं २९। आयमेव गुणस्थानमेकं सूक्ष्मशरीरिणाम् । अनाभोगिकमिथ्यात्ववतामेषां निरूपितम् ॥३४॥ इति गुणाः३०॥ दशानामपि सूक्ष्माणां, त्रयो योगाः प्रकीर्तिताः। औदारिकस्तन्मिश्रश्च, कार्मणश्चापि विग्रहे ॥ ३५॥ इति योगाः३१॥ असंख्येयलोकमाननभःखण्डप्रदेशकैः । तुल्याः सूक्ष्माग्निपृथ्व्यम्बुमरुतः किंतु तत्र च॥ ३६॥ लोकाकाशमिताः खण्डा, असंख्येया अपि क्रमात् । अन्यादिषु भूरिभूरितरभूरितमा मताः॥३७॥
"ला २५ पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मवादरानन्तकायिकाः । चत्वारोऽपि स्युरनन्तलोकाकाशांशसंमिताः ॥ ३८॥ अयं भाव:
॥८ ॥ लोकाकाशप्रदेशेषु, निगोदसत्कजन्तुषु । प्रत्येकं स्थाप्यमानेषु, पूर्यतेऽसावनन्तशः॥३९॥ तत्रापि-यादरसाधारणेभ्यः, पर्याप्तेभ्यो भवन्ति हि । अपर्याप्ता बादरा ये, तेऽसंख्येपगुणाधिकाः॥४०॥ बादापर्याप्तकेभ्यः,
20/2020202808993e202020
२
Jain Education memo
For Private
Personel Use Only
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूक्ष्मापर्याप्तका इमे । असंख्येयगुणास्तेभ्यः, सूक्ष्मपर्याप्तकास्तथा (असंख्यनाः सूक्ष्मपर्याप्तकाः संख्यगुणास्ततः) ॥४१॥ इति मानं ३२॥ सूक्ष्मास्तेजस्कायिकाः स्युः, सर्वस्तोकास्ततः क्रमात् । सूक्ष्मक्षमाम्बुमरुतो, विशेषाभ्यधिकाः स्मृताः॥४२॥ असंख्येयलोकमाननभःखण्डप्रदेशकः । तुल्याः सर्वेऽप्यमी किंतु, यथोत्तराधिकाधिकाः॥४३ ॥ असंख्येयगुणाः सूक्ष्मवायुभ्यः स्युर्निगोदकाः। असंख्येयप्रमाणत्वादेतेषां प्रतिगोलकम् ॥४४॥ तेभ्योऽनन्तगुणाः सूक्ष्माः, स्युर्वनस्पतिकायिकाः। तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्मा, विशेषाभ्यधिकाः स्मृताः ॥४५॥ स्वस्वजातिष्वपर्याप्तकेभ्योऽसंख्यगुणा मताः । पर्याप्तका यदेतेऽन्यापेक्षयाधिकजीविनः ॥४६॥ उत्पद्यन्ते तथैकैकापर्याप्तकस्य निश्रया। पर्याप्तका असंख्येयास्ततोऽमी बहवो मताः॥४७॥ तथोक्तमाचाराङ्गवृत्तौ"सूक्ष्मा अपि पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन द्विधा एव, किंत्वपर्याप्तकनिश्रया पर्याप्तकाः समुत्पद्यन्ते, यत्र चैकोऽपर्याप्तकस्तत्र नियमादसंख्ययाः पर्याप्ताः स्यु"रित्युक्तमितिज्ञेयं । अत एवैकेन्द्रियाः स्युः, सामान्यतो विवक्षिताः। पर्याप्ता एव भूयांसो,जीवाअप्योघतस्तथा॥४८॥ इति लघ्व्यल्पबहुता ३३॥ दिशामपेक्षयाऽत्यल्पबहुतैषां न संभवेत् । अमी प्रायः सर्वलोकापन्नाः सर्वत्र यत्समाः॥४९॥ तथोक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ-"इदं ह्यल्पबहुत्वं बाद-18 रानधिकृत्य द्रष्टव्यं, न सूक्ष्मान् , सूक्ष्माणां सर्वलोकापन्नानां प्रायः सर्वत्र समत्वात्" इति दिगपेक्षयाऽल्पबहुता, ३४। ओघतः सूक्ष्मजीवानामन्तरं यदि चिन्त्यते । अन्तर्मुहूत्तै सूक्ष्मत्वे, जघन्यं कथितं जिनैः॥५०॥ यदु-| त्पद्य बादरेषु, सूक्ष्मः संत्यज्य सूक्ष्मताम् । स्थित्वा तत्रान्तर्मुहूर्त, पुनः सूक्ष्मत्वमाप्नुयात् ॥५१॥ उत्कर्षतः कालच-
१४
Jain Education Harbona
For Private & Personel Use Only
(O
hinelibrary.org
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ४ सर्गः
॥ ८१ ॥
काण्यसंख्येयानि तानि च । निष्पाद्यान्यङ्गुला संख्यांशस्थखांशमितैः क्षणैः ॥५२॥ अयं भावः - एकस्मिन्नङ्गुलासंख्यभागे येऽभ्रप्रदेशकाः । यावन्ति कालचक्राणि, हृतैस्तैः स्युः प्रतिक्षणम् ॥ ५३ ॥ उत्कर्षतो बादरत्वे, तावती | वर्णिता स्थितिः । तां समाप्य पुनः सौक्ष्म्यप्राप्तौ युक्तमदोऽन्तरम् ॥ ५४ ॥ सूक्ष्मक्ष्माम्भोऽग्निमरुतामिह प्रत्येकमन्तरम् । लघु स्यादन्तर्मुहूर्त्तमनन्ताद्धामितं गुरु ॥ ६५ ॥ तच्च सूक्ष्मक्ष्मादिजन्तोः, सूक्ष्मस्थूलवनस्पती । गत्वा स्थित्वाऽनन्तकालं, सूक्ष्मक्ष्मादित्वमीयुषः ॥ ५६ ॥ वनस्पतेश्च सूक्ष्मस्यान्तरमुत्कर्षतो भवेत् । कालच ऋाण्यसंख्येयलोकमानानि पूर्ववत् ॥ ५७ ॥ तच्च सूक्ष्मक्ष्मादितयोत्पय सूक्ष्मवनस्पतेः । स्थित्वोक्तकालं पुनरप्युत्पन्नस्य वनस्पती ॥ ५८ ॥ न संभवति चैतेषामनन्तकालमन्तरम् । विना वनस्पतीन् कुत्राप्यनन्तस्थित्यभावतः ॥ ५९ ॥ जघन्यमन्तरं त्वेषामन्तर्मुहूर्त्तमीरितम् । क्ष्मादिष्वन्तर्मुहूर्त्त तत् स्थित्वोत्पत्तौ भवेदिह ॥ ६०॥ इत्यन्तरं ३५ ॥ प्रायो भवसंवेधो महाल्पबहुता त्वनेकजीवानाम् । वक्तव्ये इत्युभयं वक्ष्ये जीवप्रकरणान्ते ॥ ६१ ॥ वर्णिताः किमपि सूक्ष्मदेहिनः, सूक्ष्मदर्शिवचनानुसारतः । यत्तु नेह कथितं विशेषतस्तद्बहुश्रुतगिराऽवसीयताम् ॥ ६२ ॥ विश्वाश्चर्यदकीर्त्तिकीर्त्तिविजयश्रीवा च केन्द्रान्तिषद्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजग त्तत्त्वप्रदीपोपमे, सर्गों निर्गलितार्थसार्थ सुभगः पूर्णचतुर्थः सुखम् ॥ ॥ इति श्रीलोकप्रकाशे चतुर्थः सर्गः समाप्तः ग्रन्थाग्रं १८४ अ० १६ ॥
Jain Education national
सूक्ष्मेषु
अल्प
बहुत्वादि
२०
२५
॥ ८१ ॥
२७
jainelibrary.org
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ पञ्चमः सर्गः प्रारभ्यते ॥ वर्ण्यन्तेऽथ क्रमप्राप्ता, बादरैकेन्द्रियाङ्गिनः। ते च षोढा पृथिव्यम्बुतेजोऽनिलास्तथा द्रुमाः॥१॥ प्रत्येकाः साधारणाश्च, षडप्यते द्विधा मताः। पर्याप्तापर्याप्तभेदादेवं द्वादश बादराः॥२॥ बादराख्यनामकर्मोदया ये स्थूलतां गताः । चर्मचक्षुदृश्यमाना, बादरास्ते प्रकीर्तिताः ॥३॥ तत्र च-अपर्याप्तास्त्वविस्पष्टवर्णाद्या अल्पजीवनात् । पर्याप्तानां च वर्णादिभेदैर्भेदाः सहस्रशः॥४॥ बादरा पृथिवी द्वेधा, मृदुरेका खराऽपरा । भेदाः सप्त मृदस्तत्र, वर्णभेदविशेषजाः॥५॥ कृष्णा नीलाऽरुणा पीता, शुक्लेति पश्च मृद्भिदः । षष्ठी देशविशेषोत्था, मृत्स्ना पाण्डुरिति श्रुता ॥ ६॥ नद्यादिपूरापगमे, देशे तत्रातिपिच्छिले । मृदुलक्षणा पङ्करूपा, सप्तमी पनकाभिधा ॥७॥ इत्यर्थतः प्रज्ञापनावृत्ती ।। उत्तराध्ययनवृत्तौ तु-"पांडु'त्ति पाण्ड:-पाण्डुरा, ईषच्छुक्लत्ववतीत्यर्थः, इति वर्णभेदेन षड्विधत्वमुक्तं, इह च पाण्डुरग्रहणं कृष्णादिभेदानामपि स्वस्थाने भेदान्त|रसंभवसूचकं, पनकोऽत्यन्तसूक्ष्मरजोरूपः स एव मृत्तिका पनकमृत्तिका, पनकस्य च नभसि विवर्तमानस्य लोके पृथ्वीवेन रूढत्वाद्भेदेनोपादान"मित्याधुक्तं । चत्वारिंशत्खरायाश्च, भेदाः प्रज्ञापिताः क्षितेः। अष्टादश मणीभेदास्तथा द्वाविंशतिः परे ॥८॥ गोमेद्यकाङ्कस्फटिकलोहिताक्षा हरिन्मणिः । षष्ठो मसारगल्लः स्यात्ससमो भुजमोचकः ॥९॥ इन्द्रनीलश्चन्दनश्च, गैरिको हंसगर्भकः। सौगन्धिकश्च पुलकस्ततश्चन्द्रप्रभाभिधः ॥१०॥ वैडूर्य जलकान्तश्च, रुचकार्कोपलाविति । खरक्ष्माया एव भेदानन्यान् द्वाविंशतिं ब्रुवे ॥ ११॥ भून
Jain Educa
t ional
For Private & Personel Use Only
jainelibrary.org
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
TA
लोक. द्रव्य.दीतटभित्त्यादेः, शर्करोपलकर्कराः । सिकताः सूक्ष्मकणिकाः, उपला लघवोऽश्मकाः ॥ १२॥ शिला महान्ती
बादर५ सर्गः क्षारा भूरूषो लवणमब्धिजम् । सुवर्णरूप्यताम्रायन पुसीसकधातवः ॥ १३ ॥ वजं च हरितालश्च, हिङ्गलश्च |
व्यादिमनःशिला । प्रवालं पारदश्चापि, सौवीराभिधमञ्जनम् ॥१४॥ पटलं पुनरभ्राणां, तथा तन्मिश्रवालुका भेदाः ॥८२ ॥
अन्येऽप्येवंविधा ग्राह्या, जेयावण्णेतिवाक्यतः ॥१५॥ इत्यर्थतः प्रज्ञापनावृत्तौ ॥ इति पृथ्वीकायभेदाः॥ जल-18 भेदा जलं शुद्धं, शीतमुष्णं खभावतः । क्षारमीषदतिक्षारमम्लमीषत्तथाधिकम् ॥ १६ ॥ हिमावश्यायकरका, धूमरी क्ष्मान्तरिक्षजम् । श्मामुद्भिद्य तृणाग्रस्थं, नाम्ना हरतनूदकम् ॥ १७॥ घृतेक्षुवारुणीदुग्धोदकं तत्तद्रसा-12 ङ्कितम् । घनोदध्यादयश्चास्य, भेदा येऽन्येऽपि तादृशाः ॥ १८॥ इत्यप्कायभेदाः ॥ शुद्धाग्निरशनिवाला, स्फुलिङ्गाङ्गारविद्युतः। अलातोल्का मुर्मुराख्या, निर्घातकणकाभिधाः॥१९॥ काष्ठसंघर्षसंभूतः, सूर्यकान्तादिसंभवः । वह्निभेदा अमी ग्राह्या, ये चान्येऽपि तथाविधाः ॥ २०॥ इत्यग्निभेदाः॥प्राच्योदीच्यप्रतीचीनदाक्षिणात्या विदिग्भवाः। ऊोधासंभवा वाता, उभ्रामोत्कलिकानिलाः ॥ २१॥ गुंजा झंझाख्यः संवत्तों, वातो मण्डलिकाभिधः । घनवातस्तनुवातस्तत्रोद्धामोऽनवस्थितः ॥ २२ ॥ लहर्य इव पाथोधेर्वातस्योत्कलिकास्तु याः । रेणुकासु स्फुटव्यंग्यास्तद्वानुत्कलिकानिलः ॥ २३ ॥ गुञ्जन् सशब्दं यो वाति, स गुञ्जावात | ॥८२॥ उच्यते । झंझानिलो वृष्टियुक्तः, स्याद्वा योऽत्यन्तनिष्ठुरः॥ २४ ॥ आवर्तकस्तृणादीनां, वायुः संवर्तकाभिधः। मंडलाकृतिरामूलात्, मंडलीवात उच्यते ॥ २५ ॥ घनो घनपरीणामो, धराद्याधार ईरितः। विरल: KI २८
Jain Education
a
l
For Private sPersonal use,only
N
ainelibrary.org
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिणामेन, तनुवातस्ततोऽप्यधः ॥ २६॥ मन्दं मन्दं च यो वाति, शीतः स्पर्शसुखावहः। स उच्यते शुद्धवात, इत्याद्याः स्युर्मरुद्भिदः ॥२७॥ इति वायुकायभेदाः॥ क्रमप्राप्ता निरूप्यन्ते, भेदा अथ वनस्पतेः। साधारणस्य प्रत्येकवपुषश्च यथाक्रमम् ॥ २८॥ स्थावराणां सात्मकत्वमनङ्गीकुर्वतः प्रति। आदी वनस्पतिद्वारा, स्पष्टं| तदुपपाद्यते ॥ २९ ॥ पृथव्यादीनां सात्मकत्वे, युक्तियुक्तेऽपि युक्तयः । वनस्पतेः सात्मकत्वे, गम्याः स्थूलदृशामपि ॥ ३०॥ दिग्मात्रेणात्र ता एव, दर्यन्ते व्यक्तिपूर्वकम् । ततस्तदनुसारेण, ज्ञेयाऽन्येष्वपि चेतना ॥ ३१॥ मूले सिक्तेषु वृक्षेषु, फलादिषु रसः स्फुटः। स चोच्छासमन्तरेण, कथमूर्ख प्रसर्पति ? ॥ ३२॥ रसप्रसर्पणं स्पष्टं, सत्युच्छासेऽस्मदादिषु । तदभावे तदभावो, दृष्टश्च मृतकादिषु ॥ ३३ ॥ अन्वयव्यतिरे-1|| काभ्यां, ततो रसप्रसर्पणम् । उच्छ्रासमाक्षिपति यत्, व्याप्यं न व्यापकं विना ॥ ३४ ॥ उच्छासश्चात्मनो| धर्मो, निर्विवादमिदं खलु । धर्मश्च धर्मिणं ब्रूते, स्वाविनाभावतः स्फुटम् ॥ ३५॥ किश्च-दृश्यते दोहदोत्पत्तिर्दूणामपि नृणामिव । यत्तत्प्राप्य फलन्त्येते, हृष्टाः शुष्यन्ति चान्यथा ॥ ३६ ॥ दोहदश्चात्मनो धर्मः, कथं नात्मानमाक्षिपेत् । इच्छारूपो दोहदो हि, नेच्छावन्तं विना भवेत् ॥ ३७॥ संज्ञा नियतसंकोचविकाशप्रमुखा अपि । संज्ञिनं कथमात्मानं, न ज्ञापयन्ति युक्तिभिः ॥ ३८ ॥ यद्वा तारतम्यमेवं, द्वमेष्वपि नरेष्विव ।
१ परिणामान्तरसद्भावे सतीतिविशेष्यं, तेन न जलाकर्षकवनादिना व्यभिचारः २ विद्युच्छत्योस्तु संयोगः न तु दोहदः | ३ विचित्रकर्मवेदका वनस्पतयः जीववत्त्वे सति विचित्राकारधारित्वात् वामनेतरनरादिवत्
Jain Educational
For Private Personel Use Only
INrainelibrary.org
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य
५सर्गः
॥८३॥
केऽप्येरण्डादिवन्नीचाः, केऽप्याम्रादिवदुत्तमाः ॥ ३९ ॥ उत्कटाः कण्टकैः केचित्, केचिदत्यन्तकोमलाः । वनस्पते कुटिलाः केऽपि सरलाः, कुना दीर्घाश्च केचन ॥४०॥ हृद्यवर्णगन्धरसस्पर्शाः केचित्ततोऽन्यथा । सविषाशा सजीवत्वं निर्विषाः केपि, सफलाः निष्फलाः परे ॥४१॥जाताः केचिदवकरे, सूद्यानादौ च केचन । केचिच्चिरायुषः शस्त्रायैः केचित्क्षिप्रमृत्यवः॥४२॥ विना कर्माणि नानात्वमिदं युक्तिसहं कथम् । विना कारणनानात्वं, कार्ये तद्धि न संभवेत् ॥४३॥ कर्माणि च कार्यतयाऽऽत्मानं कारमेव हि । आक्षिपन्त्यविनाभूताः, कुलालं कलशा इव ॥४४॥ वनस्पतेः सात्मकत्वं, स्फुटमेव प्रतीयते । जन्यादिधर्मोपेतत्वान्मनुष्यादिशरीरवत् ॥४५॥अनुमानं पुरस्कृत्य, साधयत्यागमोऽपि च । वनस्पतेः सचैतन्यमाचाराने यथोदितम् ॥ ४६॥ "इमंपि जाइधम्मयं एयंपि जाइधम्मयं, इमंपि बुड्डिधम्मयं एयंपि वुड्डिधम्मयं, इमंपि चित्तमंतयं एयंपि चित्तमंतयं, इमंपि छिन्नं मिलायह एयंपि छिन्नं मिलायइ, इमंपि आहारगं एयपि आहारगं, इमंपि अणिच्चयं एयंपि अणिचयं, इमंपि असासयं एयपि असासयं, इमंपि चओवचइयं एयपि चओवचइयं इमंपि विपरिणामधम्मयं एयंपि विपरिणामधम्मय”. मित्यादि, अत्रैकं इदंशब्दवाच्यं मनुष्यशरीरं द्वितीयं चैतच्छन्दवाच्यं वनस्पतिशरीरमित्यनयोईष्टान्तदाी-| न्तिकयोजना । वनस्पतेः सचैतन्यमेवं सिद्धं नराङ्गवत् । ततोऽस्य योनिजातत्वमपि सिद्धं तदुच्यते ॥ ४७ ॥ तथाहि-बीजस्य द्विविधाऽवस्था, योन्यवस्था तथाऽपरा । तन्मध्ये योन्यवस्था या, सा चैवं परिभाव्यते ॥४८॥ | २५ जन्तूत्पत्तिक्षणे पूर्वजन्तुना स्याद्यदुज्झितम् । अस्यक्तयोन्यवस्थं च, तद्बीजं योनिभूतकम् ॥ ४९ ॥ तत्र च-1||
Pao2029990000000000
हा २०
२६
Jain Education n
ational
For Private & Personel Use Only
C
hinelibrary.org
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
kिetsekseeketstoticestoerce
जन्तुज्झितं निश्चयेनाधुना ज्ञातुं न शक्यते । ततोऽनतिशयी बीजं, सचेतनमुतेतरत् ॥५०॥ योनिमंत व्यवहरेद्यावद्ध्वस्तयोनिकम् । ध्वस्तयोनित्वजीवत्वादयोनीभूतमेव हि ॥५१॥ यन्नष्टेऽपि सजीवत्वे, योनिस्वं जातुचिद्भवेत् । परिभ्रष्टे तु योनित्वे, सजीवत्वं न संभवेत् ॥५२॥ एवं च-उत्पत्तिस्थानकं जन्तोर्यदविध्वस्तशक्तिकम् । सा योनिस्तत्र शक्तिस्तु, जन्तूत्पादनयोग्यता॥५३॥ तथोक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ-"अथ योनिरिति किमभिधीयते ?, उच्यते, जन्तोरुत्पत्तिस्थानमविध्वस्तशक्तिकं, तत्रस्थजीवपरिणामनशक्तिसंपन्नमिति भावः" अत एव श्रुतेऽपि-यवा यवयवाश्चापि, गोधूमव्रीहिशालयः । धान्यानां श्रीजिनैरेषामुक्ता योनिस्त्रि| वार्षिकी ॥५४ ॥ कलादमाषचपलतिलमुद्गमसूरकाः । तुलस्थतुवरीवृत्तचणका वल्लकास्तथा । प्रज्ञसा योनिरे-18| तेषां, श्रीजिनैः पञ्चवार्षिकी । षट्पदी॥५५॥ लहातसीशणकङ्घकोरदूषककोद्रवाः। बीजानि मूलकानां सर्षपावरहरालकाः । प्रज्ञप्ता योनिरेतेषामागमे सप्तवार्षिकी ॥ षट्पदी ॥५६॥ इयमत्र भावना-कोष्ठकादिषु निक्षिप्यतेषां पिधानशालिनाम् । लिप्सानां मुद्रितानां चोत्कृष्टषा योनिसंस्थितिः ॥ ५७॥ तदनु क्षीयते योनिरङ्करोत्पत्तिकारणम् । भवेद्वीजमबीजं तन्नोप्तमङ्कुरितं भवेत् ॥ ५८॥ अन्तर्मुहत्तं सर्वेषामेषां योनिर्जघन्यतायत्केषांचिदचित्तत्वं, जायतेऽन्तर्मुहूर्ततः॥५९॥ परंतत्सर्वविद्वेद्यं,व्यवहारपथेतुन । व्यवहारातु पूर्वोक्तः, कालमानैरचित्तता ॥ ६०॥ इदमर्थतः पञ्चमाङ्गे प्रवचनसारोद्धारे च ॥ ततश्च-बीजे योनिभूते व्युत्क्रामति सैव जन्तुरपरो वा । मूलस्य यश्च कर्त्ता स एव तत्प्रथमपत्रस्य ॥ ६१॥ आर्या । इयमत्र भावना-बीजस्य निर्वत
SainEducatihan
For Private
Personal use only
du.jainelibrary.org
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ५ सर्गः
॥ ८४ ॥
केन, जीवेन खायुषः क्षयात् । यद् बीजं स्यात्परित्यक्तमथ बीजस्य तस्य च ॥ ६२ ॥ अम्बुका लक्ष्मादिरूपसामग्रीसंभवे सति । स एव जातु बीजाङ्गी, बद्धतादृशकर्मकः ॥ ६३ ॥ उत्पद्यते तत्र बीजेऽन्यो वा भूकायिकादिकः । निबद्धमूलादिनामगोत्रकर्मात्र जायते ॥ ६४ ॥ स एव निर्वर्त्तयति, मूलं पत्रं तथाऽऽदिमम् । मूलप्रथमपत्रे च तत एवैककर्तृके ॥ ६५ ॥ यदागमः - "जोऽविय मूले जीवो सोविय पत्ते पढमयाए "त्ति, अत्राह परः - नन्वेवमादिमदले, मूलजीवकृते सति । उद्गच्छत्किशलेऽनन्तकायिकत्वं विरुध्यते ॥ ६६ ॥ यदागमः" सवोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अनंतओ भणिओ"त्ति, अत्रोच्यते-बीजे मूलतयोत्पद्य, बीजजी - वोऽथवापरः । करोत्युत्सूनतावस्थां ततोऽनन्तरभाविनीम् ॥६७॥ ध्रुवं किशलयावस्थां सृजन्त्यनन्तजन्तवः । ततञ्च तेषु जीवेषु, विनष्टेषु स्थितिक्षयात् ॥ ६८ ॥ स एव मूलजीवस्तां, तनुमनन्तदेहिनाम् । समाप्यायखांगतया, तावद्वर्द्धयते किल ॥ ६९ ॥ यावत्प्रथमपत्रं स्यात्ततश्च न विरुध्यते । किश लेऽनन्त कायित्वमेककर्तृकतापि च ॥ ७० ॥ चतुर्भिः कलापकं । अन्ये तु व्याचक्षते - इह बीजसमुत्सूनावस्थैव प्रतिपाद्यते । प्रथमपत्रशब्देन, तस्याः प्रथममुद्भवात् ॥ ७१ ॥ ततश्च मूलं बीजसमुत्सूनावस्था चेत्येककर्तृके । अनेन चैवं नियमो, लभ्यते सूत्र - सूचितः ॥ ७२ ॥ एकजीवकृते एव, मूलं चोत्सूनतादशा । नावश्यं मूलजीवोत्थं, शेषं किशलयादिकम् ॥ ७३ ॥ ततश्चोभयमप्यविरुद्धं - जोऽविय मूले जीवो सोऽविय पत्ते पढमयाएत्ति ॥ सवोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अनंतओ भणिओ ॥ ७४ ॥ इति च एतच्चार्थतः प्रज्ञापनावृत्तौ, आचाराङ्गवृत्तावपि तथैव
Jain Educatinational
मूलप्रथमपत्रक कर्तृ
कता
२५
॥ ८४ ॥
२८
jainelibrary.org
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
यदक्तं-"यश्च मूलतया जीव: परिणमते स एव प्रथमपत्रतयापी"ति, एकजीवकर्तृके मूलप्रथमपत्रे ॥ इतियावत्, प्रथमपत्रकं च यासौ बीजस्य समुत्सूनावस्था भूजलकालापेक्षा सैवोच्यते इति नियमप्र
दर्शनमेतत्, शेषं तु किशलयादि सकलं न मूलजीवपरिणामाविर्भावितमेवेत्यवगंतव्यम् । उद्गच्छन् प्रथमाङ्करः, सर्वः साधारणो भवेत् । वर्धमानो यथायोगं, स्यात्प्रत्येकोऽथवाऽपरः ॥७४॥ तत्र साधारणलक्षणं सामान्यत एवं-शरीरोच्चासनिःश्वासाहाराः साधारणाः खलु । येषामनन्तजीवानां, ते स्युः साधारणाङ्गिनः ॥७९॥ विशेषतस्तल्लक्षणं चैवं-मूलादिदशकस्येह, यस्य भङ्गः समो भवेत् । अनन्तजीवं तदु ज्ञेयं, मूलादिदशके खलु ॥ ७६ ॥ वनस्पतिसप्ततौ समभङ्गलक्षणमेवमुक्तं-"खडिआइचुन्ननिफाइयाइ वत्तीइ जारिसो भङ्गो । सवत्थ समसरूवो केआरतरीइ तुल्लो वा ॥१॥ इत्थ पुण विसेसोऽयं सम-18 भङ्गा हुंति जे सया कालं । ते चिय अणंतकाया न उणो जे कोमलत्तेणं ॥२॥" मूलादिदशकं वेवं-मूले | कंदे खंधे तया य साले पवाल पत्ते य । पुप्फे फल बीएविय पत्तेयं जीवठाणाई ॥७७ ॥ मूलादेर्यस्य भग्नस्य, मध्ये हीरो न दृश्यते । अनन्तजीवं तद् ज्ञेयं, यदन्यदपि तादृशम् ॥ ७८ ॥ हीरो नाम विषमः छेद उद्दन्तुरो वा । यत्र स्कन्धकन्दमूलशाखासु खलु वीक्ष्यते । त्वचा स्थूलतरा काष्ठात्, सा त्वचाऽनन्तजीविका ॥ ७९ ॥ येषां मूलकन्दपत्रफलपुष्पत्वचां भवेत् । चक्राकारः समश्छेदो, भङ्गेऽनन्तात्मकं हि तत् ॥८॥ ग्रन्थिः पर्वात्मिका भङ्गस्थानं सामान्यतोऽथवा। रजसाऽऽच्छुरितं यस्य, भङ्गेऽनन्तात्मकं हि तत् ॥८१॥ केदारशुष्क
वाइयाइ वत्ती जारिताला ते चिय अणंतकायालबाएविय पत्तेयं जीवठाणाहारी नाम विषमः छेद जEMIRI
१०
वीक्ष्यते त्वदपि तादृशम् ठाणाई ॥ ७७ ॥ मलाशकं त्वेवं मूला
१४
Join Education 12
Linelibrary.org
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक.द्रव्य. ५सर्ग:
त्यैकमेदार
॥८५॥
तरिकापुटवद्भिद्यते च यत् । प्रागुक्तलक्षणाभावेऽप्यनन्तकायिकं हि तत् ॥ ८२॥ यदागमः-"चकागं भन्नमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे । पुढवीसरिसभेएण, अणन्तजीवं वियाणाहि ॥८३॥” सक्षीरं वापि निःक्षीरं, पत्रं गूढशिरं च यत् । अलक्ष्यमाणपत्रार्धव्यसन्धि च यद्भवेत् ॥ ८४॥ अनन्तजीवं तत्सर्व, ज्ञेयमित्यादिलक्षणैः । बहुश्रुतेभ्यो ज्ञेयानि, लक्षणान्यपराण्यपि ॥८५॥ अयोगोलो यथाऽऽध्मातो, जातस्तप्तसुवर्णरुक। सर्वोऽप्यग्निपरिणतो, निगोदोऽपि तथाऽङ्गिभिः॥८६॥ तत्रापि बादरानन्तकायिकाः स्युरनेकधा । मूलकशृंगवेराद्याः, प्रत्यक्षा जनचक्षुषाम् ॥ ८७॥ तथाहि-सवा उ कंदजाई सूरणकंदो य वजकंदो य । अल्लह लिद्दा य तहा अल्लं तह अल्लकचूरो॥८८॥ सत्तावरी विराली कुँआरि तह थोहरी गलोई अ। लसणं वंसकरिल्ला गजर तह लूणओ लोढो ॥८९॥ गिरिकन्नि किसलपत्ता खरिंसुआ थेग अल्लमोत्था य । तह लूणरुक्खछल्ली खिल्लहडो अमयवल्ली य ॥९०॥ मूला तह भूमिरुहा विरुहा तह टक्कवत्थुलो पढमो। सूअरवल्लो अतहा पल्लंको कोमलंबिलिया ॥९१॥ आलू तह पिंडालू हवंति एए अणन्तनामहिं । अन्नमणन्तं नेयं लक्खणजुत्तीइ समयाओ॥९२॥ अन्येऽपि स्नुहीप्रभृतयोऽनन्तकायिकाः 'अवए पणए' इत्यादिप्रज्ञापनोक्तवाक्यप्रवन्धतो ज्ञेयाः॥ इति साधारणवनस्पतिभेदाः॥ प्रत्येकलक्षणं चैवं-यत्र मूलादिदशके प्रत्यङ्गं जन्तवः पृथक् । प्रत्येकनामकर्माख्यास्तत्प्रत्येकमिहोच्यते ॥९३॥ तथा चाहुर्जीवविचारे-"एगसरीरे एगो जीवो जेसिं तु ते उ पत्तेया । फलफुल्लछल्लिकट्ठा मूलग पत्ताणि बीआणि ॥ ९४॥" किश्च-मूलादेर्यस्य भग्नस्य, मध्ये हीरः प्रदृश्यते । प्रत्येकजीवं तद्वि
य तहा आलं तह आला गिरिकन्नि किसलपत्ता लटकवत्थुलो पदमो। सूअरवल्लाजुत्तीइ समयाओ
॥
Jain Educational
For Private 3 Personal Use Only
hinelibrary.org
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्याचदन्यदपि तादृशम् ॥ ९५॥ यत्र मूलस्कन्धकन्दशाखासु दृश्यते स्फुटम् । त्वचा तनीयसी काष्ठात्, सा त्वक् प्रत्येकजीविका ॥ ९६ ॥ तस्य द्वादश भेदाः स्युः, प्रत्येकस्य वनस्पतेः । यथाप्रसिद्धि तान् कांश्चिदर्शयामि समासतः ॥ ९७॥ वृक्षा गुच्छा गुल्मा लताश्च वयश्च पर्वगाश्चैव । तृणवलयहरीतकौषधिजलरुहकुहणाश्च विज्ञेयाः॥९८॥ आर्या ॥ वृक्षास्तत्र द्विभेदाः स्युः, फलोद्यद्वीजभेदतः। एकबीजफलाः केचिद्, भूरिबीजफलाः परे ॥ ९९ ॥ अंकोठजम्बूनिम्बाम्राः, प्रियालसालपीलवः । सल्लकीशैलुबकुलभिल्लातकबिभीतकाः॥१०॥ हरीतकीपुत्रजीवाः, करजारिष्टर्किशुकाः । अशोकनागपुन्नागप्रमुखा एकबीजकाः ॥१॥ कपित्थतिन्दुकप्लक्षधवन्यग्रोधदाडिमाः । कदम्यकुटजा लोध्रः, फणसश्चन्दनार्जुनाः॥२॥ काकोदुम्बरिका मातुलिङ्गस्तिलकसंज्ञकः। सप्तपर्णदधिपर्णप्रमुखा बहुबीजकाः॥३॥ प्रत्येकमेषां वृक्षाणां, प्रत्येकासंख्यजीवकाः । मूलकन्दस्कन्धशाखात्वक्प्रवाला उदीरिताः ॥४॥ पुष्पाण्यनेकजीवानि, एकैकोऽङ्गी दले दले । प्रत्येकमेकजीवानि, बीजानि च फलानि च ॥५॥ एकः पूर्णतरुस्कंधव्यापी भवति चेतनः। मूलादयो दशाप्यस्य, भवन्त्यवयवाः किल ॥६॥ तथोक्तं सूत्रकृताङ्गवृत्तौ श्रुतस्कन्ध०२ अध्या०३-"आहावर"मित्याद्यालापकस्यार्थःअथापरमेतदाख्यातं, यदाख्यातं तद्दर्शयति-इह-अस्मिन् जगत्येके न तु सर्वे, तथाकर्मोदयवर्तिनो वृक्षयोनिकाः सत्त्वा भवन्ति, तदवयवाश्रिताश्चापरे वनस्पतिरूपा एव प्राणिनो भवति, तथाहि-यो टेको वनस्पतिजीवः सर्ववृक्षावयवव्यापी भवति, तस्य चापरे तदद्वयवेषु मूलकन्दस्कन्धत्वक्शाखाप्रवालपुष्पपत्रफलबीजभूतेषु दशसु
Checcceleteletoeineecretstreeeeee
कजीवानिलकन्दस्कन्धशाखात्वभवालामूखा बहुबीजकाः ॥ मयन्दनार्जुनाः॥२॥ काको
। तथोक्तं सूत्रका एकः पूर्णतरुण्यनेकजीवानि, पद
Jain Educat
i onal
For Private & Personel Use Only
Surjainelibrary.org
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ५ सर्गः
॥ ८६ ॥
स्थानेषु जीवाः समुत्पद्यन्ते, ते च तत्रोत्पद्यमाना वृक्षयोनिका वृक्षव्युत्क्रमाश्चोत्पद्यन्ते” मूलं स्याद्भूमिसंबद्धं, तत्र कन्दः समाश्रितः । तत्र स्कन्ध इति मिथो, बीजान्ताः स्युर्युताः समे ॥ ७ ॥ अतः पृथ्वीगतरसमाहरन्ति समेऽ| प्यमी । यावत्फलानि पुष्पस्थं, बीजानि फलसंगतम् ॥८॥ श्रावणादिचतुर्मास्यां प्रावृड्वर्षासु भूरुहः । सर्वतो बहुलाहारा, अपां बाहुल्यतः स्मृताः॥९॥ ततः शरदि हेमन्ते, क्रमादल्पाल्प भोजिनः । यावद्वसन्तेऽल्पाहारा, ग्रीष्मेऽत्यन्तमिताशनाः ॥ १० ॥ यत्तु ग्रीष्मेऽपि द्रुमाः स्युर्दलपुष्पफलाद्भुताः । तदुष्णयोनिजीवानामुत्पादात्तत्र भूयसाम् ॥ ११ ॥ इति भग० शत० ७ ० ३ ॥ ननु च - मूलादयो दशाप्येवं, यदि प्रत्येकदेहिभिः । जाता अनेकैस्तत्तस्मिन्नेक मूलादिधीः कथम् ? ॥ १२ ॥ अत्रोच्यते-श्लेषणद्रव्यसंमिश्रैर्घटितानेकसर्षपैः । भूरिसर्षपरूपाऽपि, | वर्त्तिरेकैव भासते ॥ १३ ॥ यथा ते सर्षपाः सर्वे, खखमानाः पृथक पृथक् । वर्त्तेर्बुद्धिं सृजन्तोऽपि स्थिताः खस्वावगाहनाः ॥ १४ ॥ तथा प्रत्येकजीवास्ते, पृथक स्वस्ववपुर्भूतः । सृजत्येकत्र मिलिता, एकमूलादिवासनाम् ॥ १५ ॥ युग्मम् । इह यद् द्वेषरागाभ्यां संचितं पूर्वजन्मनि । हेतुरेकत्र संबन्धे, तत्कर्म श्लेषणोपमम् ॥ १६ ॥ कृतैवंविधकर्माणो, जीवास्ते सर्षपोपमाः । मूलादि वर्त्तिस्थानीयमितिदृष्टान्तयोजना ॥ १७ ॥ तिलशष्कुलिका पिष्टमयी तिलविमिश्रिता । अनेकतिलजातापि, यथैका प्रतिभासते ॥ १८ ॥ इहापि दृष्टान्तयोजना प्राग्वत् ॥ अथ गुच्छादयः - वृन्ताकी बदरी नीली, तुलसीकरमर्द्दिकाः । यावासाघाडनिर्गुड्य, इत्याद्या गुच्छजातयः ॥ १९ ॥ मल्लिकाकुन्दकोरिण्टयूथिकानवमल्लिकाः । मुद्गरः कणवीरश्च, जात्याद्या गुल्मजातयः ॥ २० ॥ अशो
Jain Educational
वृक्षगुच्छा. दिभेदाः
२०
२५
॥ ८६ ॥
२८
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Educat
कचम्पकलता, नागपद्मलता अपि । अतिमुक्तकवासन्तीप्रमुखाः स्युर्लता इमाः ॥ २१ ॥ एकैव शाखा यत्स्कन्धे, महत्यूर्द्ध विनिर्गता । नैवान्यास्तादृशः स स्याल्लताख्यश्वम्पकादिकः ॥ २२ ॥ कूष्माण्डी त्रपुषी तुम्बी, कालिङ्गी चिर्भटी तथा । गोस्तनी कारवेल्ली च, वल्लयः कर्कोटकादिकाः ॥ २३ ॥ इक्षुवंशो वीरणानि, इक्कड: शर इत्यपि । वेत्रो नडश्च काशश्च पर्वगा एवमादयः ॥ २४ ॥ दूर्वादर्भार्जुनैरण्डाः कुरुविन्दकरोहिषाः । सुकल्यास्यं क्षीरबिसमित्याद्यास्तृणजातयः ॥ २५ ॥ पूगखर्जूरसरला, नालिकेर्यश्च केतकाः । तमालनालकन्दल्य, इत्याद्या वलयाभिधाः ॥ २६ ॥ आर्यकदमनकमरुबकमण्डूकी सर्षपाभिधौ शाकौ । अपि तण्डुलीयवास्तुकमित्याद्या हरितका ज्ञेयाः ॥ २७ ॥ आर्या ॥ औषध्यः फलपाकान्तास्ताः स्फुटा धान्यजातयः । चतुर्विंशतिरुक्तानि, तानि प्राधान्यतः किल ॥ २८ ॥ तथाहि - "धन्नाइं चउवीसं जव गोहुम सालि वीहि सहिका । कोदव अणुया कंगू रालयतिलमुग्गमासा य ॥ २९ ॥ अयसि हरिमंध तिउडग निष्फाव सिलंध रायमासा य । उक्खू मसूर तुबरी कुलत्थ तह घन्नय कलाया ॥ ३० ॥ " इति । रुहन्ति जलमध्ये ये, ते स्युर्जलरुहा इमे । कदम्यशैवलकशेरुकाः पद्मभिदो मताः ॥ ३२ ॥ कुहणा अपि बोद्धव्या, नामान्तर तिरोहिताः । स्फुटा देशविशेषेषु, चतुथपांगदर्शिताः ॥ ३३ ॥ तद्यथा - " से किं तं कुहणा १, कुहणा अणेगविहा पण्णत्ता, तं०-आए काए कुहणे कुण्णके देवहलिया सप्पाए सज्जाए सत्ताए वंसीणहिया कुरुए, जे यावण्णे तहपगारा सेत्तं कुहणा" इत्यादि । गुच्छादीनां च मूलाया, अपि षट् संख्यजीवकाः । सूत्रे हि वृक्षमूलादेरेवोक्ताऽसंख्यजीवता ॥ ३४ ॥ तथोक्तं
ational
५
१०
१४
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. वनस्पतिसप्ततौ-"रुक्खाणमसंखजिआ मूला कंदा तया य खंधा य । साला तहा पवाला पुढो पुढो हुँति नायबा औषधिकुह५ सर्ग: ॥ ३५॥ गुच्छाईणं पुण संखजीवया नजए इमं पायं । रुक्खाणं चिय जमसंखजीवभावो सुए भणिओगा : संख्य
जीवत्वादि ॥८७॥
॥ ३६॥” अनायं विशेष:-तालश्च नालिकेरी च, सरलश्च वनस्पतिः। एकजीवस्कन्ध एषां, पत्रपुष्पादि सर्वयत् ॥ ३७॥ तथा-पञ्चमाङ्गे त्रिधा वृक्षाः, प्रज्ञप्ता गणधारिभिः । अनन्तासंख्यसंख्यातजीवकास्ते क्रमादिमे || ॥ ३८ ॥ तत्राद्याः शृङ्गबेराद्याः, कपित्थाम्रादिकाः परे । संख्यातजीवका ये च, ज्ञेया गाथादयेन ते ॥ ३९॥४ तच्चेदं-"ताले तमाले तकलि तेतलि साले य सालकल्लाणे । सरले जावइ केयइ कंदलि तह चम्मरुक्खे य| ॥ ४०॥ चुअरुक्ख हिंगुरुक्खे लवंगुरुक्खे य होइ बोधे । पूयफली खजरी बोधवा नालिएरीय ॥४१॥" तथा प्रज्ञापनावृत्तावपि-"तालसरलनालिकेरीग्रहणं उपलक्षणं, तेनान्येषामपि यथाऽऽगमं एकजीवाधिष्ठितत्वं स्कन्धस्य प्रतिपत्तव्य"मिति । शृङ्गाटकस्य गुच्छः स्यादनेकजीवकः किल । पत्राण्येकैकजीवानि, द्वौ द्वौ जीवो फलं प्रति ॥ ४२ ॥ पुष्पाणां त्वयं विशेषः-जलस्थलोद्भूततया, द्विधा सुमनसः स्मृताः। नालबद्धा वृन्तबद्धाः, प्रत्येकं द्विविधास्तु ताः॥४३॥ याः काश्चिन्नालिकाबद्धास्ताः स्युः संख्येयजीवकाः । अनन्तजीवका ज्ञेयाः, स्नुही-12 प्रभृतिजाः पुनः ॥४४॥ किंच-पद्मोत्पलनलिनानां सौगन्धिकसुभगकोकनदकानाम् । अरविन्दानां च तथा||॥८७ ॥ शतपत्रसहस्रपत्राणाम् ॥४५॥आर्या॥ वृन्तं बाह्यदलानि च सकेसराणि स्युरेकजीवस्य । पृथगेकैकजीवान्यन्तईल-10 केसराणि बीजानि ॥४६॥ गीतिः॥पर्वगाणां तृणानां च अयं विशेष:-इक्कडीक्षुनलादीनां, सर्ववंशभिदा
92920299999999000000
For Private Personal use only
Marw.jainelibrary.org
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
तथा। भवन्त्येकस्य जीवस्य, पर्वाक्षिपरिमोटकाः॥४७॥ तत्राक्षि प्रोच्यते ग्रन्थिः, प्रतीतं पर्व सर्वतः। चक्राकार पर्वपरिवेष्टनं परिमोटकः ॥४८॥ पत्राणि प्रत्येकमेषामेकजीवाश्रितानि वै । पुष्पाण्यनेकजीवानि, प्रोक्तानि 8 परमर्षिभिः॥४९॥ फलेषु चैषामयं विशेषः-पुष्पफलं कालिङ्गं तुम्बं चिर्भटमथ त्रपुषसंज्ञम् । घोषातकं | पटोलं तिन्दूकं चैव तेन्दूषम् ॥ ५० ॥ आर्या ॥ एतेषां च-वृन्तगर्भकटाहानामेको जीवः समर्थकः । पृथग्जीवानि पत्राणि, बीजानि केसराण्यपि ॥५१॥ एतच सर्वमर्थतः कचित्पाठतश्च प्रायः प्रज्ञापनागतमेव, श्रीहेमचन्द्रसूरिभिश्चाभिधानचिंतामणावित्युक्तं-"कुरण्टाद्या अग्रवीजा, मूलजास्तूत्पलादयः। पर्वयोनय इक्ष्वाद्याः, स्कन्धजाः सल्लकीमुखाः॥५२॥ शाल्यादयो बीजरूहाः संमूर्छजास्तृणादयः । स्युर्वनस्पतिकायस्य, षडेता मूलजातयः॥५३॥” इमर्थतः प्रथमाङ्गेऽपि दशवैकालिकेऽपि, तथा जीवाभिगमे तु-चतस्रो मुख्य-18 वयः स्युस्तावच्छताश्च तद्भिदः । ख्याता मुख्यलता अष्टौ, तावच्छताश्च तद्भिदः॥५४॥ नामग्राहं तु ता नोक्ताः, प्राक्तनैरपि पण्डितैः । ततो न तत्र दोषो नस्तत्पदव्यनुसारिणाम् ॥५५॥ त्रयो हरितकायाः स्युर्जलस्थलोभयोद्भवाः । भेदाः शतानि तावन्ति, तद्वान्तरभेदजाः॥५६॥ सहस्रं वृन्तबद्धानि, वृन्ताकादिफलान्यथ । सहस्रं नालबद्धानि, हरितेष्वेव तान्यपि ॥५७॥ किंच-मूलत्वकाष्ठनिर्यासपत्रपुष्पफलान्यपि । गन्धा
भेदाः सप्तामी, जिनैरुक्ता वनस्पती ॥ ५८॥ मूलमौशीरवालादित्वप्रसिद्धा तजादिका । काष्ठं च काकतु॥ण्डादि, निर्यासो घनसारवत् ॥ ५९॥ पत्रं तमालपत्रादि, प्रियडूग्वादिसुमान्यपि । ककोलैलालवङ्गादि, फले
हवाः । भेदाः शतानि तावात, पि॥७॥ किंच-मूलत्वकाष्ठानाजादिका । काष्ठं च काकतु-
१४
Jain Educa
t ional
ANw.jainelibrary.org
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. १५ सर्गः
11 66 11
Jain Education
जातिफलाद्यपि ॥ ६० ॥ मूलादयस्ते सप्तापि, नानावर्णा भवन्त्यतः । गुणिताः पञ्चभिर्वर्णैः, पञ्चत्रिंशद्भवन्ति हि ॥ ६१ ॥ दुर्गन्धाभावतः श्रेष्ठगन्धेनैकेन ताडिताः । ते पञ्चत्रिंशदेव स्युरेकेन गुणितं हि तत् ॥ ६२ ॥ नानारसाश्च ते सर्वे, ततः पञ्चरसाहताः । संजातः शतमेकं ते, पञ्चसप्ततिसंयुतम् ॥ ६३ ॥ स्पर्शास्तु यद्यप्यष्टापि, संभवन्त्येव वस्तुतः । तथाप्येषां प्रशस्तत्वाद्गृह्यन्ते तेऽपि तादृशाः ॥ ६४॥ तलघूष्णमृदुस्निग्धैः, स्पर्शेरते। चतुर्गुणाः । शतानि सप्त जातानि गन्धाङ्गानां दिशाऽनया ॥ ६५ ॥ उक्तं च जीवाभिगमवृत्तौ - "मूलतयकट्ठनिज्जासपत्तपुप्फफलमाइ गन्धंगा । वण्णादुत्तरभेया गन्धंग सया मुणेयवा ।। ६६ ।। " सूत्रालापश्च - “कति णं भंते ! गंधंगा प० १, गो० 1 सत्त गंधंगा सत्त गंधंगसया प०" इत्यादि । एवं वह्नयादिसूत्रालापा अपि वाच्याः । लोकैश्च शून्य सप्तांकहस्ताश्वसूर्यैदुवसुबह्रयः । एतत्संख्याङ्कनिर्दिष्टो वनभारः प्रकीर्त्तितः | ( ३८११७२९७० ) ॥ ६७ ॥ पाठान्तरे च- रामो वसवश्चन्द्रः सूर्यो भूमिस्तथैव च । मुनिः शून्यं समादिष्टं, भारसंख्या निगद्यते ( ३८१११७० ) ॥ ६८ ॥ एकैकजातेरेकैकपत्रप्रचयतो भवेत् । प्रोक्तसंख्यैर्मणैर्भारस्ते त्वष्टादश भूरुहाम् ॥ ६९ ॥ तथा चत्वारोऽपुष्पका भारा, अष्टौ च फलपुष्पिताः । स्युर्वल्लीनां च षड् भाराः, शेषनागेन भाषितम् ॥ ७० ॥ इत्याद्युच्यते । इति बादराणां भेदाः ॥ प्रसिद्धाः सप्त याः पृथ्व्यः, वसुमत्य|ष्टमी पुनः । ईषत्प्राग्भाराभिधा स्यात्तासु स्वस्थानतोऽष्टसु ॥ ७१ ॥ अधोलोके च पातालकलशावलिभित्तिषु । भवनेष्वसुरादीनां नारकावसथेषु च ॥ ७२ ॥ ऊर्द्ध लोके विमानेषु विमानप्रस्तटेषु च । तिर्यग्लोके च कूटा
मूलस्कन्धादिमेदाः भारमानं च
२०
२५
11 66 11
२८
Jainelibrary.org
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रिप्राग्भारविजयादिषु ।। ७३ ॥ वक्षस्कारवर्षशैलजगतीवेदिकादिषु । द्वारद्वीपसमुद्रेषु, पृथिवीकायिकोद्भवः ॥७४॥ चतुर्भिः कलापकं ॥ इति पृथ्वीकायस्थानानि ॥ खस्थानतोऽम्बुकायानां, स्थानान्युक्तानि सूरिभिः। घनोदधिवलयेषु, घनोदधिषु सप्तसु ॥७५ ॥ अधः पातालकुम्भेषु, भवनेष्वासुरेषु च । ऊर्द्धलोके विमानेषु, खर्गपुष्करणीषु च ॥७६॥ तिर्यग्लोके च कूपेषु, नदीनदसरस्सु च । निझरोज्झरवापीषु, गर्ताकेदारपंक्तिषु ॥ ७७॥ जलाशयेषु सर्वेषु, शाश्वताशाश्वतेषु च। द्वीपेषु च समुद्रेषु, बादराप्कायसंभवः ॥ ७८ ॥ चतुर्भिः कलापकं ॥ इत्यप्कायस्थानानि ॥ स्वस्थानतोऽग्निकायानां, स्थानमाहुर्जिनेश्वराःनरक्षेत्रं द्विपाथोधिसार्धद्वीपदयात्मकम्॥७९॥ तत्रापि-काले युगलिनाम (नांना) निः, काले च बिलवासिनाम् । विदेहेष्वेव सर्वासु (स्व) कर्मभूषु ततोऽन्यदा ॥८०॥ किंच-ऊद्धोधोलोकयो यं, तिर्यग्लोकेऽप्यसो भवेत् । सदा विदेहे भरतैरवतेषु ।। ||च कहिंचित् ॥ ८१॥ पाकदाहादिसंतापं, तनुते नरकेषु यः । स नाग्निः किंतु तत्तुल्यास्ते विकुन्ति पुद्गलान् ॥८२॥ या चोष्णवेदना तेषु, श्रूयतेऽत्यन्तदारुणा । पृथिव्यादिपुद्गलानां, परिणामः स तादृशः॥८३ ॥ तथोक्तं-"ननु सप्तस्वपि पृथ्वीषु तेजस्कायिकवर्जपृथ्वीकायिकादिस्पर्शो नारकाणां युक्तः,तेषां तासु विद्यमानत्वात्, तेजस्कायस्पर्शस्तु कथं १, बादरतेजसां समयक्षेत्र एव सद्भावात्, सूक्ष्मतेजसां पुनस्तत्र सद्भावेऽपि स्पर्शनेन्द्रियाविषयत्वादिति, अत्रोच्यते, इह तेजस्कायिकस्येव परमाधार्मिकनिर्मितज्वलनसहशवस्तुनः स्पर्श-1 स्तेजस्कायिकस्पर्श इति व्याख्येयं, न तु साक्षात्तेजस्कायिकस्यैव, अथवा भवान्तरानुभूततेजस्कायिकपर्या
Jain Educa
t ional
For Private & Personel Use Only
IYw.jainelibrary.org
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
नानि
यपृथिवीकायिकस्पर्शापेक्षया व्याख्येयं” इति भग० शतक १३ उद्देश ४ वृत्तौ ॥ स्वर्गादौ धूपघव्यादि, श्रूयते 18 पृथ्वीका५ सर्गः1 यत्किलागमे । तत्तुल्याः पुद्गलास्तेऽपि, कृत्रिमाकृत्रिमात्मकाः॥ ८४ ॥ एतचार्थतः प्रायस्तृतीयतुर्योपाङ्गयो-यादिस्था
रेव, ग्रन्थान्तरेऽपि-"पंचिंदिय एगिदिय उड्डे य अहे य तिरियलोए य । विगलिंदियजीवा पुण तिरियलोए मुणेयवा ॥ ८९॥
10॥८५॥ पुढवी आउ वणस्सइ बारसकप्पेसु सत्तपुढवीसु । पुढवी जा सिद्धिसिला तेऊ नरखित्ततिरिलोए ४॥८६॥ सुरलोअवाविमज्झे मच्छाई नत्थि जलयरा जीवा । गेविज्जे नहु वावी वाविअभावे जलं नत्थि 8॥ ८७॥” इत्यग्निकायस्थानं ॥ घनानिलवलयेषु, घनानिलेषु सप्तसु । तनुवातवलयेषु, तनुवातेषु सप्तसु an८८॥ अधोलोके च पातालकुम्भेषु भवनेषु च । छिद्रेषु निष्कुटेष्वेवं, स्वस्थानं वायुकायिनाम् ॥ ८९॥
ऊर्द्धलोके च कल्पेषु, विमानेषु तदालिषु । विमानप्रस्तटच्छिद्रनिष्कुटेषु तदुद्भवः ॥९॥ तिर्यग्लोके दिक्षु विदिश्वधश्चोर्द्ध च तज्जनिः। जगत्यादिगवाक्षेषु, लोकनिष्कुटकेषु च ॥ ९१॥ इति वायुकायस्थानं ॥ प्रत्येकः साधारणश्च, द्विविधोऽपि वनस्पतिः। प्रायोऽप्कायसमः स्थानर्जलाभावे ह्यसौ कुतः१॥९२॥ इति वनस्पतिस्थानं ॥ उपपातसमुद्घातनिजस्थानैर्भवन्ति हि । लोकासंख्यातमे भागे, पर्याप्ता बादरा इमे ॥ ९३ ॥ तत्र वायोस्त्वयं विशेषः पञ्चसंग्रहसूत्रवृत्ती-'बायरपवणा असंखेसुत्ति लोकस्य यत्किमपि शुषिरंतत्र सर्वत्र पर्याप्तबादरवायवः प्रसर्पन्ति, यत्पुनरतिनिबिडनिचिततया शुषिरहीनं कनकगिरिमध्यादि तत्र न, तच लोकस्या- ॥८९॥ संख्येयभागमात्रं, तत एकमसंख्येयभागं मुक्त्वा शेषेषु सर्वेष्वप्यसंख्येयेषु भागेषु वायवो वर्तन्ते” इति ।
| २५
२८
Jain Educat
i onal
For Private Personal Use Only
Mainelibrary.org
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्यासबादरवनस्पतय उपपातसमुद्घाताभ्यां सर्वलोकव्यापिनः स्वस्थानतो लोकासंख्येयभागे इति प्रज्ञापनावृत्तौ ॥ अपर्याप्तास्तु सर्वे स्वस्थानैः पर्याप्तसन्निभाः । उपपातसमुद्घातैस्त्वशेषलोकवर्त्तिनः ॥९४॥ नवरं वह्निकायस्त्व पर्याप्त स्तिर्यग्लोकस्य तट्टके । उपपातेन निर्दिष्टो द्वयोर्लोककपाटयोः ।। ९५ ।। तच्चैवं - आलोकान्तं दीर्घे सार्धदीपाम्बुधिद्वय विशाले । अधऊर्द्धलोकान्तस्पृशी कपाटे उभे कल्प्ये ॥ ९६३ ॥ आर्या । तयोः कपादयोस्तिर्यगलोकेऽन्त्याम्भोधिसीमनि । योजनाष्टादशशतबाहल्ये सर्वतोऽपि हि ॥ ९७ ॥ अपर्याप्तवादराने, स्थानं स्यादुपपाततः । तिर्यग्लोकं कपाटस्थमेव केऽप्यत्र मन्वते ॥ ९८ ॥ त्रिधाऽवादरपर्याप्तास्तेजस्कायिकदेहिनः । स्युरेकभविका बद्धायुषश्चाभ्युदितायुषः ॥ ९९ ॥ तत्र येऽनन्तरभवे, उत्पत्स्यन्तेऽग्निकायिषु । अपर्याप्तवादरेषु, त एकभविकाः स्मृताः ॥ २०० ॥ ये तु पूर्वभवसत्कतृतीयांशादिषु ध्रुवम् । बद्धस्थूलापर्यासाध्यायुष्का बद्धायुपञ्च ते ॥ १ ॥ ये तु पूर्वभवं त्यक्त्वा, साक्षादनुभवन्ति वै । स्थूलापर्याप्तवथायुस्ते भवन्त्युदितायुषः ॥ २ ॥ तत्रैकभविका बद्धायुषञ्च द्रव्यतः किल । स्थूला पर्याप्तान्यायुषः स्युर्भावतस्तूदितायुषः ॥ ३ ॥ अत्र च - द्रव्यतो बादरापर्याप्ताग्निभिर्न प्रयोजनम् । स्थूलापर्याप्ताग्नयो ये, भावतस्तैः प्रयोजनम् ॥ ४ ॥ ततश्च यद्यप्युक्तकपाटाभ्यां तिर्यग्लोकाच्च ये बहिः । उदितबादरापर्यासान्यायुष्का भवन्ति हि ॥ ५ ॥ तेऽप्युच्यन्ते तथात्वेन, ऋजुसूत्रनयाश्रयात् । तथापि व्यवहारस्य, नयस्याश्रयणादिह ॥ ६ ॥ ये स्वस्थान समश्रेणिकपाटद्वयसंस्थिताः । स्वस्थानानुगते ये च, तिर्यग्लोके प्रविष्टकाः ॥ ७ ॥ त एव व्यपदिश्यन्तेऽपर्याप्तवादानयः । शेषाः
Jain Educatiomational
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ५सर्ग: ॥९ ॥
कपाटान्तरालस्थिता नैव तथोदिताः ॥८॥ ये नाद्याप्यागतास्तिर्यगलोकेऽथवा कपाटयो। ते प्राक्तनभ-पर्याप्तापर्यावावस्था. एव गण्या मनीषिभिः॥९॥ उक्तं च प्रज्ञापनावृत्ती-"पणयाललकखपिहला दुन्नि कवाडा य सानिस्थानम् छहिसिं पट्टा।लोगंते तेसिंतो जे तेऊते उ घिप्पंति ॥१०॥" तत उक्तं-"उववाएणं दोसु कवाडेसु तिरियलोअतट्टे य" । स्थापना ॥ पृथ्व्यादिषु चतुर्वेकपर्याप्तनिश्रया मताः । असंख्येया अपर्याप्ता, जीवा वनस्पतेः पुनः ॥११॥ पर्याप्तस्यैकैकस्यापर्याप्ता निश्रया स्मृताः । असंख्येयाश्च संख्येया, अनन्ता अपि कुत्रचित् ॥१२॥ तत्र च-संख्यासंख्यास्तु पर्याप्सप्रत्येकतरुनिश्रया । अनन्ता एव पर्याप्ससाधारणवनाश्रिताः॥१३॥ इति बादराणां स्थानानि ॥ पर्याप्तयस्त्रिचतुरा, अपर्याप्तान्यभेदतः। प्राणाश्चत्वारोऽङ्गबलश्वासायूंषि त्वगिन्द्रियम् ॥१४॥ इति पर्याप्सिः॥ पृथ्व्यम्बुवहिमरुतां, प्रत्येकं परिकीर्तिताः। योनिलक्षाः सप्त सप्त, सप्तसप्तिसमप्रभः ॥१५॥ योनीनां दश लक्षाणि, स्युः प्रत्येकमहीरुहाम् । साधारणतरूणां च, योनिलक्षाश्चतुर्दश ॥१६॥ इति योनिः॥द्वादश सप्त त्रीणि च ससाष्टाविंशतिश्च लक्षाणि ।कुलकोटीनां पृथ्वीजलाग्न्यनिलभूरुहां क्रमतः॥१७॥आर्या। एवं च सप्तपञ्चाशल्लक्षाणि कुलकोटयः। एकेन्द्रियाणां जीवानां, संग्रहण्यनुसारतः॥१८॥आचाराङ्गवृत्तौ तु-"कुलकोडिसयसहस्सा बत्तीस नव य पणवीसा। एगिन्दियबितिइन्दियचउरिन्दियहरियकायाणं ॥ १९॥ अद्धत्तेरस बारस दस दस नव चेव कोडिलकखाई। जलयरपक्खिचउप्पयउरभुअपरिसप्पजीवाणं ॥२०॥ पणवीसं छबीसं च सयसहस्साई नारयसुराणं । बारस य सयसहस्सा कुलकोडीणं मणुस्साणं ॥२१॥” एवं बीन्द्रियादिष्व- २८
२५
VI
Jain Educatio
n
al
For Private & Personel Use Only
JOrainelibrary.org
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
Sacc000000000202000
पि संग्रहण्यभिप्रायेण वक्ष्यमाणासु कुलकोटिसंख्यासु मतान्तरं अत एवाभ्यूह्यं ॥ तथा-लक्षाणि कुलकोटीनां, षोडशोक्तानि तात्त्विकैः। केवलं पुष्पजातीनां, तृतीयोपाङ्गदेशिभिः॥२२॥ तानि चैवं-चतस्रो लक्षकोव्योऽम्भोरुहाणां जातिभेदतः। कोरिण्टकादिजातीनां, चतस्रः स्थलजन्मनाम् ॥ २३ ॥ चतस्रो गुल्मजातीनां, जात्यादीनां विशेषतः । मधूकादिमहावृक्षजानां तत्संख्यकोटयः॥ २४ ॥ इति कुलानि ॥ मिश्रा सचित्ताऽचित्ता च, योनिरेषां भवेत्रिधा । उष्णा शीतोष्णा शीताऽग्नीन् , विना ते धुष्णयोनयः ॥२५॥ पञ्चा
प्येते विनिर्दिष्टा, जिनैः संवृतयोनयः। उत्पत्तिस्थानमेतेषां, स्पष्टं यन्नोपलभ्यते ॥ २६ ॥ इति योनिसंवृतशत्वादि ॥ द्वाविंशतिः सहस्राणि, वर्षाणामोघतो भवेत् । पृथ्वीकायस्थितियेष्ठा, विशेषस्तत्र दर्यते ॥२७॥ एकं
वर्षसहस्रं स्यात्, स्थितिज्येष्ठा मृदुक्षितेः । द्वादशाब्दसहस्राणि, कुमारमृत्तिकास्थितिः ॥ २८ ॥ चतुर्दश सहस्राणि, सिकतायास्तु जीवितम् । मनःशिलायाश्चोत्कृष्टं, षोडशाब्दसहस्रकाः॥ २९ ॥ अष्टादश सह-18 स्राणि, शर्कराणां गुरुस्थितिः। द्वाविंशतिः सहस्राणि, स्यात्साऽइमादिखरक्षितेः॥३०॥ सप्त वर्षेसहस्राणि, ज्येष्ठा स्यादम्भसां स्थितिः। त्रयो वर्षसहस्राश्च, मरुतां परमा स्थितिः ॥ ३१॥ अहोरात्रास्त्रयोऽग्नीनां, दश। वर्षसहस्रकाः। प्रत्येकभूरुहामन्येषां तु साऽन्तर्मुहूर्त्तकम् ॥३२॥ ऊनितेऽन्तर्मुहूर्ते च, खखोत्कृष्टस्थितेः खलु। पञ्चानामप्यमीषां स्याज्येष्ठा पर्याप्ततास्थितिः॥ ३३ ॥ अन्तर्मुहर्त सर्वेषां, यतोऽपर्याप्ततास्थितिः। अन्तमु. इलें क्षिसेऽस्मिन् , स्थितयस्ताः स्युरोघतः॥ ३४॥ पञ्चानामप्यथैतेषां, जघन्यतो भवस्थितिः। अन्तर्मुहूत्त- १४
0202029202920292992032002010 Ora
को.प्र.१६
Jain Education Intational
wilm.jainelibrary.org
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुलयोनि भवकायस्थितयः
लाक द्रव्य.0 मानव, दृष्टा दृष्टजगत्रयः॥३५॥ अपर्याप्तानां पञ्चानामप्येषां स्याद्भवस्थितिः। अन्तर्मुहर्तप्रमिता, जघन्या .५ सर्ग: परमाऽपि च ॥ ३६॥ इति भवस्थितिः॥ स्थूलक्ष्मादीनां चतुणी, स्थूलद्वैधवनस्य च । सप्ततिः कोटिकोव्यो
ऽम्भोधीनां कायस्थितिः पृथक् ॥ ३७॥ ओघतो बादरत्वे सा, बादरे च वनस्पती । उत्सर्पिण्यवसपिण्यो, ॥९१॥
यावत्यस्ता ब्रवीम्यथ ॥३८॥ अङ्गुलासंख्यांशमाननभःस्थाभ्रप्रदेशकैः। प्रतिक्षणं हृताः स्युस्तावतीस्ता विचिन्तय ॥ ३९॥ निगोदे त्वोघतः सूक्ष्मवादरत्वाविवक्षया । द्वौ पुद्गलपरावत्तौं, सार्की कायस्थितिर्भवेत् ॥४०॥ पर्याप्तत्वे क्षमादीनां, प्रत्येकं कायसंस्थितिः । संख्येयाब्दसहस्रात्मा, वहः संख्यदिनात्मिका ॥ ४१ ॥ विशेषश्चात्र-पर्याप्तले बादरायाः, क्षितेः कायस्थितिर्भवेत् । वत्सराणां लक्षमेकं, षट्सप्ततिसहस्रयुक॥४२॥ तथाहि-भवेदष्ट भवान् यावत्, ज्येष्ठायुःक्षितिकायिकः। ज्येष्ठायुष्कक्षितित्वेनोत्पद्यमानः पुनः पुनः॥४३॥ यदुक्तं भगवत्यां-"भवादेसेणं जहण्णणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई," इति । स्थितिरुत्क
तश्चैकभवे प्रोक्ता क्षमाऽङ्गिनाम् । द्वाविंशतिसहस्राब्दलक्षणा परमर्षिभिः॥४४॥ अष्टभिर्गुणने चास्या, | भवत्येव यथोदितम् । षट्सप्ततिवर्षसहस्राधिकं वर्षलक्षकम् ॥ ४५ ॥ षट्पञ्चाशद्वर्षसहस्राण्येव जलकायिनाम् । स्युश्चतुविशती रानिन्दिवानि वहिकायिनाम् ॥ ४६॥ स्युश्चतुर्विशतिवर्षसहस्राण्यनिलांगिनाम् । अशीतिश्च सहस्राणि, वर्षाणां वनकायिनाम् ॥४७॥ एषु सर्वेषु परमा, लब्ध्यपर्याप्ततास्थितिः । अन्तर्मुहूर्तप्रमिता, | वच्मि तत्रापि भावनाम् ॥४८॥ क्षमाद्यन्यतरत्वेनोत्पद्य यद्यल्पजीवितः । असकृत्कोऽप्यपर्याप्त एव, याति
26/20090878002
॥ ९१॥
ન્દ્ર
Jain Education
For Private & Personel Use Only
Jainelibrary.org
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
भवान्तरम् ॥४९॥ भवांश्च तादृशान् कांश्चित् , कुर्यादन्तर्मुहूर्त्तकान् । तैलध्वन्तर्मुहूत्तैश्च, स्याद् गुर्वन्तर्मुहूर्तकम् ॥५०॥ अन्तर्मुहूर्त्तमानाच, सर्वा एता जघन्यतः। प्ररूपिताः श्रुते कायस्थितयः पुरुषोत्तमैः॥५१॥ इति कायस्थितिः॥ स्थापना ॥ औदारिकं सतैजसकामणमेतद्वपुस्त्रयं ह्येषाम् । मरुतां च वैक्रियाद्यं चतुष्टयं संभवेद्धपुषाम् ॥५२॥ आर्या । इति देहाः॥मसूरचन्द्रसंस्थानं, बादराणां भुवां वपुः। जलानां स्तिबुकाकारं, सूच्योघाकृति तेजसाम् ॥५३॥ मरुतां तद् ध्वजाकारं, दैधानामपि भूरुहाम् । स्युः शरीराण्यनियतसंस्थानानीति तद्विदः ॥५४॥ इति संस्थानं । असंख्येयोऽङ्गलस्यांशः, क्षमादीनां देहसंमितिः।जघन्यादुत्कर्षतश्च, स एव हि महान् भवेत् ॥५५॥ जघन्यादुत्कर्षतश्च, वायोर्यटैक्रियं वपुः । स्यात्तदप्यमुलासंख्यभागमात्रावगाहनम् ।। ५६॥ अङ्गलासंख्यांशमानं, प्रत्येकद्रोर्जघन्यतः। उत्कर्षतो योजनानां, सहस्रं साधिकं वपुः॥ ५७ ॥ उत्सेधाङ्गुलनिष्पन्नसहस्रयोजनोन्मिते । जलाशये यथोक्ताङ्गाः, स्युर्लताकमलादयः ॥५८॥ प्रमाणाङ्गुलमानेषु, यानि वार्धिहृदादिषु । भौमान्येवाजानि तानि, विरोधः स्यान्मियोऽन्यथा ॥ ५९॥ तद्यथा-उद्वेधः क समुद्राणां, प्रमाणाङ्गुलजो महान् ?। क लघून्यजनालानि, मितान्योत्सेधिकाङ्गुलैः ॥ ६०॥ किंच-शाल्यादिधान्यजातीनां, स्यान्मूलादिषु सप्तसु । धनुःपृथक्त्वप्रमिता, गरीयस्यवगाहना ॥ ६१॥ उत्कृष्टैषां बीजपुष्पफलेषु त्वगवगाहना । पृथक्त्वमङ्गुलानां यत्, प्रोक्तं पूर्वमहर्षिभिः॥६२॥ "मूले कंदे खंधे तया य साले पवाल पत्ते य । सत्तसुवि धणुपुहुतं, अङ्गुलमो पुप्फफलबीए ॥६३॥” इति भगवत्येकविंशशनवृत्तौ, तत्सूत्रेऽपि
720020201002802020-2020009
Jain Educa
t
ional
For Private & Personel Use Only
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
लप सर्गः ॥णयोऽमी सर्वेऽन्दोति उद्देसा ॥३
बहुधीयगा कशलेषु च पृथक्त्वका
)। स्कन्धशाखान मूलादिपञ्चकत्याला नव वर्षाणि
लोक द्रव्य.ला"सालि कल अयसि वंसे उक्खे दब्भे अ अन्भ तुलसी य । अद्वैते दसवग्गा असीति पुण होंति उद्देसा॥
देहसंस्थान॥६४॥" एकैकस्मिन् वर्ग मूलादयो दश दशोद्देशका इत्यर्थः, ॥ सर्वेऽमी शालिवज्येष्ठामिहापेक्ष्यावगाहनाम् ।।
देहमानानि शाल्यादयोऽमी सर्वेऽब्दपृथक्त्वपरमायुषः ॥६५॥ किंच-"तालेगट्ठिय बहुवीयगा य गुच्छा य गुम्म बल्ली यार ॥९२॥
छद्दसवग्गा एए सर्टि पुण होंति उद्देसा ॥६६॥"तालादीनां ज्येष्ठावगाहना भूलकन्दकिशलेषु । चापपृथक्त्वं पत्रे|ऽप्येवं कुसुमे तु करपृथक्त्वं सा ॥ ६७॥ (गीतिः)। स्कन्धशाखात्वचासु स्यात्, गव्यूतानां पृथक्त्वकम् ।। अङ्गुलानां पृथक्त्वं च, सा भवेत्फलबीजयोः ॥ ६८॥ तालादीनां च मूलादिपञ्चकस्य स्थितिगुरुः । दश वर्षसहस्राणि, लघ्वी चान्तर्मुहूर्तिकी ॥ ६९ ॥ प्रवालादिपञ्चकस्य, त्वेषामुत्कर्षतः स्थितिः। नव वर्षाणि लध्वी तु, प्राग्वदान्तमुहर्तिकी ॥ ७॥ तालादयश्च 'ताले तमाले' इत्यादिगाथायुग्मतो ज्ञेयाः। एकास्थिकबहुबीजकवृक्षाणामासदाडिमादीनाम् । मूलादेर्दशकस्यावगाहना तालवत्स्थितिश्चापि ॥७१॥ (गीतिः) | गुच्छानां गुल्मानां स्थितिरुत्कृष्टावगाहना चापि । शाल्यादिवदवसेया वल्लीनां स्थितिरपि तथैव ॥७२॥8 वल्लीनां च फलस्यावगाहना स्यात्पृथक्त्वमिह धनुषाम् । शेषेषु नवसु मूलादिषु तालप्रभृतिवद् ज्ञेया ॥७३॥ २५ (आर्ये)॥ एवं च-अङ्गुलासंख्यांशमानमेकाक्षाणां जघन्यतः। उत्कर्षतोऽङ्गमधिकं, योजनानां सहस्रकम् ॥७॥
॥९२॥ तत्रापि-देहः सूक्ष्मनिगोदानामङ्गलासंख्यभागकः । सूक्ष्मानिलाम्यम्बुभुवामसंख्येयगुणः क्रमात् ॥ ७ ॥ वारवादीनां बादराणां, ततोऽसंख्यगुणः क्रमात् । बादराणां निगोदानामसंख्ययगुणस्ततः ॥७६॥ खख
पि-देहः अङ्गलासंख्याध्यक्त्वमिह -
Jain Educati
onal
For Private Personal use only
Maljainelibrary.org
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थाने तु सर्वेषामङ्गुलासंख्यभागता । अङ्गुलासंख्यभागस्य, वैचित्र्यादुपपद्यते ॥ ७७ ॥ पर्याप्तानां बादराणां, मरुतां यत्तु वैक्रियम् । जघन्यादुत्कर्षतश्च, तदप्येतावदेव हि ॥ ७८॥ विशेषतश्च-निगोदपवनाम्यम्बुभुवः पञ्चाप्यमी द्विधा । सूक्ष्माश्च बादरास्तेऽपि, पर्याप्तान्याभिधा द्विधा ॥ ७९ ॥ एवं विंशतिरप्येते, जघन्योत्कृटभूघनाः। जाताश्चत्वारिंशदेवमथ प्रत्येकभूरुहः॥ ८॥ पर्याप्तापर्याप्तहीनोत्कृष्टभूधनभेदतः। चतुधैवं चतु-18 श्चत्वारिंशदेकेन्द्रियाङ्गिनः ॥८१ ॥ अथावगाहनाखेषां, तारतम्यमितीरितम् । पञ्चमाङ्गैकोनविंशशतोद्देशे तृतीयके ॥ ८२ ॥ अपर्याप्त निगोदस्य, स्यात्सूक्ष्मस्याबगाहना। सर्वस्तोका ततोऽष्टानामसंख्येयगुणाः क्रमात्
८३ ॥ अपर्याप्तानिलाम्यम्बुभुवां सूक्ष्मगरीयसाम् । ततोऽपर्याप्तयोः स्थूलानन्तप्रत्येकभूरुहोः ॥ ८४ ॥ असंख्येयगुणे तुल्ये, मिथोऽवगाहने लघू । ततः सूक्ष्मनिगोदस्य, पर्याप्तस्यावगाहना ॥ ८५॥ असंख्येयगुणा लघ्वी, क्रमात्ततोऽधिकाधिके । अपर्याप्तपर्याप्तस्योत्कृष्ट तस्यावगाहने ॥८६॥ ततः सूक्ष्मवायुवयम्भोभुवां स्युर्यथाक्रमम् । पर्याप्तानां जघन्याऽपर्याप्सानां च गरीयसी ॥८७॥ पर्याप्तानां तथोत्कृष्टा, क्रमेणासंख्यसंगुणा । विशेषाभ्यधिका चैव, विशेषाभ्यधिका पुनः॥८८॥ एवं स्थूलानिलाम्यम्भःपृथ्वीनिगोदिनामपि । प्रत्येकं त्रितयी भाव्याऽवगाहनाभिदा क्रमात् ॥ ८९ ॥ इत्येकचत्वारिंशत्स्युः, किलावगाहनाभिदः । पर्याप्तस्थूलनिगोदज्येष्ठावगाहनावधि ॥९० ॥ पर्याप्त प्रत्येकतरोलव्यसंख्यगुणा ततः। तस्यापर्याप्तस्य गुर्वी, स्यादसङ्ख्यगुणा ततः ॥९१॥ ततोऽसंख्यगुणा तस्य, पर्याप्तस्यावगाहना । सातिरेकं योजनानां, सहस्रं सा यतो
200202012900000202000mmraan
पुनः ॥ ८॥ त्वारिंशत्स्युः, किलायापर्याप्तस्य गुवी, यतो
Jain Education
a
l
For Private
Personel Use Only
&
ainelibrary.org
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ५ सर्गः
॥ ९३ ॥
भवेत् ॥९२॥ यत्तु श्रीजिनवल्लभसूरिभिः खकृतदेहास्पबहुत्वोद्धारे अपर्याप्तप्रत्येक तरुत्कृष्टावगाहनातः पर्यासतरुत्कृष्टावगाहना विशेषाभ्यधिकोक्ता, तञ्चित्यं अङ्गुलासंख्येयभागमाना पर्याप्त प्रत्येकतरुत्कृष्टावगाहनातः सातिरेकयोजन सहस्रमानायाः पर्याप्तप्रत्येकतरुत्कृष्टायमानाया विशेषाधिकत्वस्यासंगतत्वात्, भगवती सूत्रेण सह विरोधाच, तथा च तद्ग्रन्थः -- " पत्तेअसरीरबादरवणस्स इकाइयस्स पज्जत्तगस्स जहण्णिआ ओगाहणा असंखेज्जगुणा, तस्स चेव अपज्जत्तगस्स उक्कोसिआ ओगाहणा असंखिजगुणा, तस्स चेव पज्जन्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा असंखिज्जगुणा" इति भगवतीशतक १९ तृतीयोदशके, भावार्थस्तु यन्त्रकाद् ज्ञेयः । अत्र जीवभेदाश्चतुश्चत्वारिंशत्, अवगाहनाभेदाश्च त्रिचत्वारिंशदेव, अपर्याप्तबादर निगोदजघन्यावगाहनाया अपर्याप्तप्रत्येक वनस्पतिजघन्यावगाहनायाश्च मिथस्तुल्यत्वात्, अत एव कोष्ठकाश्चतुश्चत्वारिंशत् अङ्कास्त्रिचत्वारिंशदेव, पञ्चमैकचत्वारिंशयोः कोष्ठयोदशकस्यैव सद्भावादिति ध्येयं, इत्यङ्गमानम् ।
एषां त्रयः समुद्घाता, आद्याः स्युर्वेदनादयः । क्ष्मादीनां तेऽनिलानां तु चत्वारः स्युः सवैक्रियाः ॥ ९२ ॥ इति समुद्घातः ॥ बादरक्षितिनीराणि, प्रत्येकान्यद्रुमा अपि । मृत्योत्पद्यन्तेऽखिलेषु, तिर्यक्ष्ये केन्द्रियादिषु ॥ ९३ ॥ पञ्चाक्षेष्वपि तिर्यक्षु, गर्भसंमूर्च्छजन्मसु । नरेष्वपि द्विभेदेषु, संख्येयायुष्कशालिषु ॥ ९४ ॥ युग्मम् । गच्छतो वह्निवायू तु सर्वेष्वेषु नरान्विना । ततः पूर्वे दिगतयोऽम् त्वेकगतिको स्मृतौ ॥ ९५ ॥ इति गतिः । एकद्वित्रिचतुरक्षाः, पञ्चाक्षाः संख्यजीविनः । तिर्यञ्चो मनुजाश्चैव गर्भसंमूर्च्छनोद्भवाः ॥ ९६ ॥ अपर्याप्ताञ्च
एकेन्द्रिया • वगाहना भेदाः समुद्वातादि
२०
२५
॥ ९३ ॥
२८
jainelibrary.org
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर्याप्ताः, सर्वेऽप्येते सुरास्तथा । भवनव्यन्तरज्योतिष्काद्यकल्पद्वयोद्भवाः ॥९७ ॥ मृत्वा प्रत्येकविटपिवादरक्षितिवारिषु । आयान्ति तेषु देवास्तु, पर्याप्तेष्वपरेषु न ॥ ९८ ॥ अपर्याप्तेषु विष्वेषु, निगोदाम्यनिलेषु च। उत्पद्यन्ते च पूर्वोक्ताः, प्राणिनो निर्जरान् विना ॥ ९९ ॥ निर्जरोत्पत्तियोग्यानामुक्तः प्रत्येकभूरुहाम् । विशेषः पञ्चमाङ्गस्यैकर्विशादिशतद्वये ॥ ३०॥ शाल्यादिधान्यजातीनां, पुष्पे बीजे फलेषु च । देव उत्पद्यतेऽन्येषु, न मूलादिषु सप्तसु ॥१॥ कोरण्टकादिगुल्मानां, देवः पुष्पादिषु त्रिषु । उत्पद्यते न मूलादिसप्तके किल शालिवत् ॥२॥ इक्षुवाटिकमुख्यानां, मूलादिनवके सुरः । उत्पद्यते नैव किंतु, स्कन्धे उत्पद्यते परम् ॥३॥ इक्षुवाटिकादयस्त्वमी पश्चमाङ्गे प्रायो रूढिगम्याः पर्वकविशेषाः "अह भंते ! उकखुवाडिय वीरण इक्कड भामास संवत्त सत्तवन्न तिमिर सेसय चोरग तलाण एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति एवं जहेव वंसवग्गे तहेव एत्थावि मूलादीया दस उद्देसगा, नवरं खंधुद्देसए देवो उववजए चत्तारि लेसाओ" तालप्रभृतिवृक्षाणां, तथैकास्थिकभूरुहाम् । तथैव बहुबीजानां, वल्लीनामप्यनेकधा ॥ ४३ ॥ उत्पद्यते प्रवालादिष्वेव पञ्चसु निर्जरः। न मूलादिपञ्चकेऽथ, नोक्तशेषवनस्पती॥५॥ तथोक्तम्-"पत्त पवाले पुप्फे फले य बीए य होइ उववाओ। रुखेसु सुरगणाणं पसत्थरसवण्णगंधेसु॥१॥” इति भगवतीद्वाविंशशतवृत्तौ । एकसामयिकी संख्योत्पत्तौ च मरणेऽपि च । विज्ञेया सूक्ष्मवन्नास्ति, विरहोत्रापि सूक्ष्मवत् ॥६॥ इत्यागतिः॥ विपद्यानन्तरभवे, तिर्यक्पश्चाक्षतां गताः। सम्यक्त्वं देशविरतिं, लभन्ते भूदकद्रुमाः॥७॥ विपद्यानन्तरभवे, प्राप्य
meroercereoccccERESELekseeeeeeseses
Jain Educati
o nal
For Private
Personel Use Only
wjainelibrary.org
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
गत्यागतिसिद्धिलेश्यादि
लोक. द्रव्यगर्भजमयंताम् । सम्यक्त्वं विरतिं मोक्षमप्याप्नुवन्ति केचन ॥ ८॥ विपद्यानन्तरभवे, न लभन्तेऽग्निवायवः।।
सम्यक्त्वमपि दुष्कर्मतिमिरावृतलोचनाः॥९॥ इत्यनन्तराप्तिः । पृथ्व्यम्बुकायिका मुक्तिं, यान्त्यनन्तरज॥९४॥
न्मनि । चत्वार एकसमये, षड् वनस्पतिकायिकाः ॥१०॥ इति समये सिद्धिः। पृथ्व्यम्बुप्रत्येकतरुष्वाचं लेण्याचतुष्टयम् । आद्यं लेश्यात्रयं साधारणद्रुमाग्निवायुषु ॥ ११॥ चतुर्थलेश्यासंभवस्त्वेवं-तेजोलेश्यावता येषु, नाकिनां गतिसंभवः। आद्यमन्तमुहूत्तं स्यात्तेजोलेश्याऽपि तेषु वै ॥१२॥ इति लेश्या । एषां स्थूलक्षमा. दीनामाहारः षड्दिगुद्भवः। स्थूलानिलस्य त्रिचतुःपञ्चदिकसंभवोऽप्यसौ ॥१३॥ इत्याहारदिक । एकोनविं.
शतितमादीन्येकादश सूक्ष्मवत् । द्वाराणि स्थूलपृथ्व्यादिजीवानां जगुरीश्वरः॥ १४ ॥ आद्यं गुणस्थानमेषु, शामतं सिद्धान्तिनां मते । कर्मग्रन्थिमते त्वाद्यं, तवयं भूजलद्रुषु ॥ १५॥ स्युस्तथा स्थूलमरुतां, योगाः पञ्च यतोऽधिको । एषां वैक्रियतन्मिश्री, त्रयोऽन्येषां च पूर्ववत् ॥१६॥ एवं दाराणि । अङ्गुलासंख्यांशमाना, यावंतोंऽशा भवन्ति हि । एकस्मिन् प्रतरे सूचीरूपा लोके घनीकृते ॥ १७॥ तावन्तः पर्यासा निगोदप्रत्येकतरुधराश्चापः । स्युः किश्चिन्यूनावलिघनसमयमितास्त्वनलजीवाः॥१८॥ (आर्या-युग्मम् ) अत्र च-यद्यपि पूर्वार्धोक्ताश्चत्वारस्तुल्यमानकाः प्रोक्ताः। तदपि यथोत्तरमधिकाः प्रत्येतव्या असंख्यगुणाः॥१९॥ (आर्या) उक्तोऽङ्गुलासंख्यभागो, यः सूचीखण्डकल्पने । तस्यासंख्येयभेदत्वात्, घटते सर्वमप्यदः ॥२०॥ घनीकृतस्य लोकस्यासंख्येयभागवर्तिषु । असंख्यप्रतरेषु स्युर्यावन्तोऽध्रप्रदेशकाः॥ २१ ॥ तावन्तो बादराः पर्याप्सकाः
Jain Education Restora
For Private & Personel Use Only
Prainelibrary.org
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
IS स्युर्वायुकायिकाः । इदं प्रज्ञापनावृत्तावाद्याङ्गविवृत्तौ विदं ॥ २२॥ सुसंवर्तितलोकैकप्रतरासंख्यभागकैः ।।
प्रदेशैः प्रमिताः स्थूलापर्याप्तक्ष्माम्बुवायवः ॥ २३ ॥ क्षेत्रपल्योपमासंख्यभागप्रदेशसंमिताः। पर्याप्ता बादरहविर्भुजः प्रोक्ताः पुरातनः ॥२४॥ संवर्तितचतुरस्रीकृतलोकश्रेण्यसंख्यभागगतः। वियदंशैः पर्याप्तास्तुल्याः प्रत्येकतरुजीवाः ॥ २५ ॥ संवर्तितचतुरस्रीकृतस्य लोकस्य यः प्रतर एकः। तदसंख्यभागखांशप्रमिताः पर्यासवादरनिगोदाः ॥२६॥ (आर्ये)। अतःपरं तु ग्रन्थदयेऽपि तुल्यमेव ॥ बादराः स्थावराः सर्वेऽप्येते पर्याप्तकाः पुनः । स्युः प्रत्येकमसंख्येयलोकाभ्रांशमिताः खलु ॥ २७ ॥ लोकमानाभ्रखण्डानामनन्तानां प्रदेशकैः। तुल्याः स्थूलानन्तकायजीवाः प्रोक्ता जिनेश्वरैः ॥ २८॥ इति मानं ॥ पर्याप्ताः बादराः सर्वस्तोकाः पावककायिकाः। असंख्येयगुणास्तेभ्यः, प्रत्येकधरणीरुहः॥२९॥ असंख्येयगुणास्तेभ्यः, स्युर्यादरनिगोदकाः। तेभ्यो भूकायिकास्तेभ्यश्चापस्तेभ्यश्च वायवः ॥ ३०॥ तेभ्योऽनन्तगुणाः स्थूलाः, स्युर्वनस्पतिकायिकाः । सामान्यतो बादराश्चाधिकाः पर्याप्तकास्ततः॥ ३१॥ खखजातीयपर्याप्तकेभ्योऽसंख्यगुणाधिकाः । अपर्याप्ताः खजातीयदेहिनः परिकीर्तिताः ॥३२॥ यद्वादरस्य पर्याप्तकस्यैकैकस्य निश्रया । असंख्यया अपर्याप्तास्तज्जातीया भवन्ति हि ॥३३॥ तथोक्तं प्रज्ञापनायां-"पजत्तगनिस्साए अपज्जतगा वकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेजा" इत्यल्पबहुत्वं ॥ सर्वस्तोका दक्षिणस्यां, भूकाया दिगपेक्षया । उदक प्राक् च ततः प्रत्यक्, क्रमाविशेषतोऽधिकाः॥ ३४॥ उपपत्तिश्चात्र-यस्यां दिशि घनं तस्यां, बहवः क्षितिकायिकाः। यस्यां च शुषिरं
220002020009290
TO
Jain Education
For Private Personel Use Only
hinelibrary.org
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
लाक द्रव्य.
TUR
तस्यां, स्तोका एव भवन्त्यमी ॥ ३५॥ दक्षिणस्यां च नरकनिवासा भवनानि च । भूयांसि भवनेशानां,
पृथव्यादीप्राचुर्य शुषिरस्य तत् ।। ३६॥ अल्पा उदीच्यां नरका, भवनानीति तत्र ते । घनाप्राचुर्यतोऽनल्पाः, स्युर्या- नामल्पब॥९५॥
म्यदिगपेक्षया ॥ ३७ ॥ प्राच्यां रविशशिद्वीपसद्भावाद् घनभूरितः। उत्तरापेक्षया तत्र, बहवः क्षितिकायिकाः हुत्वम् 18॥ ३८ ॥ प्राक्प्रतीच्यो रविशशिद्वीपसाम्येऽपि गौतमः । द्वीपोऽधिकः प्रतीच्यां स्यात्ततस्तेऽत्राधिकाः स्मृताः 8!॥ ३९॥ ननु प्रतीच्यामधिको, द्वीपो यथाऽस्ति गौतमः। तथाऽत्र सन्त्यधोग्रामाः, सहस्रयोजनोण्डताः॥४०॥
तत्खातपूरितन्यायात्, घनस्य शुषिरस्य च । साम्यात्पृथ्वीकायिकानां, प्रत्यक्प्रचुरता कथम् ? ॥४१॥ अनोच्यते-यथा प्रत्यगधोग्रामास्तथा प्राच्यामपि ध्रुवम् । गादिसंभवोऽस्त्येव, किंच द्वीपोऽपि गौतमः॥४२॥ वक्ष्यमाणोच्छ्यायामव्यासः प्रक्षिप्यते धिया। यद्यधोग्रामशुषिरे, तदप्येषोऽतिरिच्यते ॥४३॥ एवं च धनबाहुल्यात् , प्रतीच्यां प्रागपेक्षया । पृथ्वीकायिकबाहुल्यं, युक्तमेव यथोदितम् ॥४४॥ भवन्त्यप्कायिकाः |स्तोकाः, पश्चिमायां ततः क्रमात् । प्राच्यां याम्यामुदीच्यां च, विशेषेणाधिकाधिकाः॥४५॥ उपपत्तिश्चात्रप्रतीच्यां गौतमद्वीपस्थाने वारामभावतः । सर्वस्तोका जिनरुक्ता, युक्तमेवाम्बुकायिकाः ॥४६॥ पूर्वस्या २५ गौतमद्वीपाभावाद्विशेषतोऽधिकाः । दक्षिणस्यां चन्द्रसूर्यद्वीपाभावात्ततोऽधिकाः॥४७॥ उदीच्यां मानस-II॥ ९५॥ सर सद्भावात्सर्वतोऽधिकाः । अस्ति ह्यस्यां तदसङ्ख्ययोजनायतविस्तृतम् ॥४८॥ याम्युदीच्योर्वहिकायाः, २८ स्तोकाः प्रायो मिथः समाः। अग्यारम्भकबाहुल्यात्, प्राच्यां सङ्ख्यगुणाधिकाः॥४९॥ ततः प्रतीच्यामधिका,
lain Education international
For Private & Personel Use Only
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
वयाद्यारम्भकारिणाम् । ग्रामेष्वधोलौकिकेषु, बाहुल्याद्धरणीस्पृशाम् ॥ ५० ॥ पूर्वस्यां मरुतः स्तोकास्ततोऽधिकाधिका मताः । प्रतीच्यामुत्तरस्यां च दक्षिणस्यां यथाक्रमम् ॥ ५१ ॥ यस्यां स्याच्छुषिरं भूरि, तस्यां स्युर्भूरयोऽनिलाः । घनप्राचुर्ये च तेऽल्पास्तच प्रागेव भावितम् ॥ ५२ ॥ स्युर्यदपि खातपूरितयुक्त्या प्रत्यग्ध| राधिका तदपि । प्रत्यगधोग्रामभुवां निम्नत्वाद्वास्तवी शुषिरबहुता ॥ ५३ ॥ ( गीतिः ) । वनानामल्पबहुत्ता, | भाव्याऽष्कायिकवद्बुधैः । तरुणां ह्यल्पबहुता, जलाल्पबहुतानुगा ॥ ५४ ॥ सामान्यतोऽपि जीवानामल्पता बहुतापि च । वनाल्पबहुतापेक्षा, ह्यनन्ता एत् एव यत् ।। ५५ ।। इति दिगपेक्षयाऽल्पबहुता । कार्यस्थितिर्या सूक्ष्माणां प्रागुक्ता तन्मितं मतम् । सामान्यतो बादराणां, बादूरत्वे किलान्तरम् ॥ ५६ ॥ स्थूलक्ष्माम्भोऽग्निपवनप्रत्येकद्रुषु चान्तरम् । अनन्तकालो ज्येष्ठं स्यालघु चान्तर्मुहूर्त्तकम् ॥ ५७ ॥ कालं निगोदेषु यत्तेऽनन्तं चान्तर्मुहूर्त्तकम् । स्थित्वा स्थूलक्ष्मादिभावं पुनः केचिदवानुयुः ॥ ५८ ॥ बादरस्य निगोदस्यान्तरमुत्कर्षतो भवेत् । कालोऽसङ्ख्यः पृथिव्यादिकायस्थितिमितश्च सः ॥ ५९ ॥ सामान्यतः स्थूलवनकायत्वेऽप्येतदन्तरम् । जघन्यतस्तु सर्वेषामन्तर्मुहूर्त्तमेव तत् ॥ ६० ॥ स्वरूपमेकेन्द्रियदेहिनां मया, धियाऽल्पया किञ्चिदिदं समुद्धृतम् । श्रुतादगाधादिव दुग्धवारिधेर्जलं स्वचश्वा शिशुना पतत्रिणा ॥ ६१ ॥ (वंशस्थं) विश्वाश्चर्यदकीर्त्तिकीर्त्तिविजयश्री वाचकेन्द्रान्तिषद्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगन्तवप्रदीपोपमे, सर्गों निर्गलितार्थसार्थसुभगः पूर्णः सुखं पश्चमः ॥ ६२ ॥ इति पञ्चमः सर्गः समाप्तः ॥
Jain Educationational
१०
१४
jainelibrary.org
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ६ सगेः
॥ ९६ ॥
Jain Education
॥ अथ षष्ठः सर्गः प्रारभ्यते ॥
विकलान्यसमग्राणि, स्युर्येषामिन्द्रियाणि वै । विकलेन्द्रियसंज्ञास्ते, स्युर्द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः ॥ १ ॥ तत्र प्रथमं भेदाः - अन्तर्जाः कृमयो देधा, कुक्षिपायुसमुद्भवाः । विष्ठाद्यमेधजाः कीटाः, काष्ठकीटा घुणाभिधाः | ॥ २ ॥ ( गण्डोला अलसा वंशीमुखा मातृवहा अपि । जलौकसः पूतरका, मेहरा जातका अपि ॥ ) नानाशङ्खाः शङ्खनकाः, कपर्दशुक्तिचन्दनाः । इत्याया द्वीन्द्रियाः पर्याप्तापर्यासतया द्विधा ॥ ३ ॥ इति द्वीन्द्रिय| भेदाः ॥ पिपीलिका बहुविधा, घृतेल्यश्चोपदेहिकाः । लिक्षा मर्कोटका थूका, गर्दभा मत्कुणादयः ॥ ४ ॥ इन्द्रगोपालिका सावा, गुल्मी गोमय कीटकाः । चौरकीटाः धान्यकीटाः, पञ्चवर्णाश्च कुन्थवः ॥ ५ ॥ तृणकाष्ठफलाहाराः, पत्रवृताशना अपि । इत्याद्या स्त्रीन्द्रियाः पर्याप्तापर्याप्ततया द्विधा ॥ ६ ॥ इति त्रीन्द्रियभेदाः ॥ वृश्चिका ऊर्णनाभाश्च, भ्रमर्यो भ्रमरा अपि । कंसार्यो मशकास्तिड्डा, मक्षिका मधुमक्षिकाः ॥७॥ पतङ्गा झिल्लिका दंशाः, खद्योता ढिङ्कणा अपि । रक्तपीतहरिकृष्ण चित्रपक्षाश्च कीटकाः ||८|| नन्द्यावर्त्ताश्च कपिल डोलायाश्चतुरि न्द्रियाः । भवन्ति तेऽपि द्विविधाः, पर्याप्तान्यतयाऽखिलाः ॥ ९ ॥ इति चतुरिन्द्रियाः ॥ ऊर्द्धाधोलोकयोरेकदेशभागे भवन्ति ते । तिर्यग्लोके नदीकूपतटाकदीर्घिकादिषु ॥ १० ॥ द्वीपाम्भोधिषु सर्वेषु, तथा नीराश्रयेषु च। षोढापि विकलाक्षाणां स्थानान्युक्तानि तात्त्विकैः ॥ ११ ॥ उपपातात्समुद्घातान्निजस्थानादपि स्फुटम् । असंख्येयतमे भागे, ते लोकस्य प्रकीर्त्तिताः ॥ १२ ॥ आहाराङ्गेद्रियोच्छ्वासभापाख्या एषु पञ्च च । पर्याप्त
tional
एकेन्द्रियभेदानां अन्तरम्
२०
२५
॥ ९६ ॥
२८
lainelibrary.org
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
लो. प्र. १७
Jain Educatio
यस्तथा प्राणाः, षट् सप्ताष्टौ यथाक्रमम् ॥ १३ ॥ चत्वारः स्थावरोक्तास्ते, जिह्वावाग्बलवृद्धितः । षड् द्वीन्द्रि येष्वथैके केन्द्रियवृद्धिस्ततो द्वयोः ॥ १४॥ इति पर्याप्तयः प्राणाश्च ॥ लक्षद्वयं च योनीनामेषु प्रत्येकमिष्यते । लक्षाणि कुलकोटीनां, सप्ताष्ट नव च क्रमात् ॥ १५ ॥ इति योनिकुलसंख्या ॥ विवृता योनिरेतेषां त्रिविधा सा प्रकीर्त्तिता । सचित्ताऽचित्तमिश्राख्या, भावना तत्र दर्श्यते ॥ १६ ॥ जीवद्गवादिदेहोत्थकृम्यादीनां सचित्तका । अचित्तकाष्ठाद्युत्पन्नघूणादीनामचित्तका ॥ १७ ॥ सचित्ताचित्तकाष्ठादिसंजातानां तु मिश्रका । उष्णा शीता च शीतोष्णेत्यपि सा त्रिविधा मता ॥ १८ ॥ इति योनिवरूपं । द्व्यक्षाणां द्वादशाब्दानि भवेज्येष्ठा भवस्थितिः । यक्षाणां पुनरेकोनपञ्चाशदेव वासराः ॥ १९ ॥ पण्मासाचतुरक्षाणां जघन्याऽन्तर्मुहर्त्तकम् । साऽन्तर्मुहूतना त्वेषां स्वात्पर्याप्ततया स्थितिः ॥ २० ॥ इति भवस्थितिः ॥ ओघतो विकलाक्षेषु, कायस्थितिरुरीकृता । सङ्ख्येयान्दसहस्राणि प्रत्येकं च तथा त्रिषु ॥ २१ ॥ पर्याप्तत्वे तु नवरं द्व्यक्षकाय स्थितिर्मता । सोयान्येव वर्षाणि श्रूयतां तत्र भावना ॥ २२ ॥ भवस्थितिद्वन्द्रियाणामुत्कृष्टा द्वादशाब्दिकी । तादृग निरन्तरकियद्भवादानादसौ भवेत् ॥ २३ ॥ एवमग्रेऽपि — सङ्ख्येयदिनरूपा च पर्याप्तत्रीन्द्रियाङ्गिनाम् । पर्याप्तचतुरक्षाणां सङ्ख्येयमासरूपिका ॥ २४ ॥ इति कार्यस्थितिः ॥ कार्मणं तैजसं चौदारिकमेतत्तनुत्रयम् । इति देहाः ॥ केवलं हुण्डसंस्थानमेतेषां परिकीर्तितम् ॥ २५ ॥ इति संस्थानं ॥ योजनानि द्वादशेषां, त्रिगव्यूत्येकयोजनम् । क्रमाज्येष्ठा तनुर्लध्ध्यङ्गुलासयलवोन्मिता ॥ २६ ॥ आहुश्च - " बारसजोअण संखो
ational
१०
१४
w.jainelibrary.org
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ६ सर्गः
॥९७॥
११॥ उत्पद्यन्ते विपद्यन्त चतच्यवनयोर्विरहो द्वीन्द्रियादिषु । अन्य च । एषां गमागमौ
तिकोस गुम्मी य जोअणं भमरो” इति । इत्यङ्गमानं । वेदनोत्थः कषायोत्थो, मारणान्तिक इत्यपि । विकले-II विकलेषु न्द्रियजीवानां, समुद्घाता अमी त्रयः ॥२७॥ इति समुद्घाताः॥ पृथ्व्याद्याः स्थावराः पञ्च, द्वीन्द्रिया-वासा
द्वाराणि द्यास्त्रयः पुनः । सङ्ख्येयजीविनः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्नरा अपि ॥२८॥ स्थानकेषु दशखेषु, गच्छन्ति विकलेन्द्रियाः। दशभ्य एवैतेभ्यश्चोत्पद्यन्ते विकलेन्द्रियाः॥२९॥ न देवनारकासयजीवितिर्यग्नरेषु च । एषां गमागमौ तस्माद, द्विगता व्यागता इति ॥ ३०॥ उपपातच्यवनयोविरहो द्वीन्द्रियादिषु । अन्तमुहर्तमुत्कृष्टो, जघन्यः समयावधिः॥३१॥ उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते, चैकेन समयेन ते। एको द्वौ वा त्रयः सत्या, असङ्ख्या विकलेन्द्रियाः॥ ३२॥ इति गतागती ॥ लब्ध्वा नृत्वादिसामग्री, केचिदासादयन्त्यमी । यावद्दीक्षा भवे गम्ये, न तु मोक्षं स्वभावतः॥ ३३ ॥ इत्यनन्तराप्तिः ॥ एकस्मिन्समये सिद्धिर्विकलानां न संभवेत् । ग्रामो नास्ति कुतः। सीमा?, मोक्षो नास्तीति सा कुतः १ ॥ ३४ ॥ इत्येकसमयसिद्धिः ॥ कृष्णा नीला च कापोतीत्येषां लेश्यात्रयं ९ स्मृतम् । इति लेश्या ॥ त्रसनाड्यन्तरे सत्वादाहारः षड्दिगुद्भवः ॥ ३५॥ इत्याहारदिक । एषां संहननं चैक, सेवा परिकीर्तितम् । इति संहननं ॥ मानमायाक्रोधलोभाः, कषाया एषु वर्णिताः॥ ३६॥ आहारप्रमुखाः संज्ञाश्चतस्र एषु दर्शिताः। इति संज्ञाः॥ यक्षाणां स्पर्शनं जिह्वेत्याख्यातमिन्द्रियद्वयम् ॥ ३७॥ तत् यक्षचतुरक्षाणां, क्रमाद् घाणेक्षणाधिकम् । इतीन्द्रियं ॥ असत्त्वाद्व्यक्तसंज्ञानां, ते निर्दिष्टा असंज्ञिनः ॥ ३८॥ ॥९७॥ यद्वा-न दीर्घकालिकी नापि, दृष्टिवादोपदेशिकी। स्याद्धेतुवादिकी ह्येषां, न तया संज्ञिता पुनः ॥ ३९॥
Jan Education Intemanona
For Private
Personel Use Only
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिनः नः ॥ ४५ ॥ निश्चयातु द्विस पर्याप्तभावान्तमुहूर्तमुत्त द्वितीयमपि जाणवार एवमा पृथक् ॥ १२ ॥
द्वति मजिता ॥ केवलं क्लीववेदाश्च । इति वेदः॥ मिथ्यादृष्टय एव ते । सम्यग्दृशो ह्यल्पकालं, विद्युज्योतिनिदर्शनात् ॥४०॥ सास्वादनाख्यसम्यक्त्वे, किश्चित्शेषे मृतिं गताः। विकलाक्षेषु जायन्ते, ये केचित्तदपेक्षया ॥४१॥ अपर्याप्तदशायां स्युः, सम्यग्दृशोऽपि केचन । पर्याप्तत्वे तु सर्वेऽपि, मिथ्यादृष्टय एव ते ॥४२॥ यग्मं ॥ इति दृष्टिः॥ मतिश्रुताभिधं ज्ञानद्वयं सम्यग्दृशां भवेत् । मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने, तेषां मिथ्यात्विना पुनः॥४३॥ इति ज्ञानं ॥ अचक्षुदर्शनोपेता, द्विश्यक्षाश्चतुरिन्द्रियाः । सचक्षुर्दर्शनाचक्षुद्दर्शनाः कथिता जिनः॥४४॥ इति दर्शनं ॥ स्युः साकारोपयोगास्ते, ज्ञानाज्ञानव्यपेक्षया । निराकारोपयोगास्ते, दर्शनापेक्षया पुनः॥४५॥ इत्युपयोगाः॥ द्विवक्रस्त्रिक्षणान्तश्च, संभवत्येषु विग्रहः । ततस्तत्रैकसमयं, व्यवहाराद-|| नाहृतिः ॥४६॥ निश्चयात्तु द्विसमया, स्यादनाहारिता किल । विग्रहे विकलाक्षाणामाहारकत्वमन्यदा ॥४७॥ एते प्रागोजआहारास्ततः पर्याप्तभावतः । लोमाहाराः कावलिकाहारा अपि भवन्त्यमी ॥४८॥ सचित्ताचित्तमिश्राख्य, एषामाहार इष्यते । अन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टमाहारस्यान्तरं मतम् ॥ ४९॥ इत्याहारः॥ पर्याप्तानां गुणस्थानमेतेषामुक्तमादिमम् । अपर्याप्सानां तदाद्यं, द्वितीयमपि जातुचित् ॥५०॥ इति गुणाः॥ औदारिक: काययोगस्तन्मिश्रः कार्मणस्तथा । वागसत्यामृषा चेति, योगाश्चत्वार एवमी ॥५१॥ इति
योगाः॥ एकस्मिन्प्रतरे सूच्योऽङ्गुलसङ्ख्यांशका यति । तावन्तो द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः पर्याप्तकाः पृथक् ॥५२॥ 18 एकस्मिन्प्रतरे सूच्योऽङ्गुलासङ्ख्यांशका यति । अपर्याप्सा द्वित्रिचतुरक्षास्तावन्त ईरिताः॥५३॥ उक्तं च
SO900AGAOROSSO900
ययोगस्तमिश्रमादिमम् । अपर्यासान्तमुहर्तमुत्कृष्टमाहालकाहारा अपिाहारकत्वमन्यदा
Jain Educa
t ional
For Private & Personel Use Only
SOnew.jainelibrary.org
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ६ सर्गः
॥ ९८ ॥
Jain Educat
पञ्चेन्द्रिय
"पजत्तापजत्ता बितिच असन्निणो अवहरति । अङ्गुलसङ्खासङ्घप्पएसभइयं पुढो पयरं ॥ ५४॥” इति मानं ॥ सर्वस्तोकाश्चतुरक्षाः, पर्याप्ताः परिकीर्त्तिताः । पर्याप्तद्वीन्द्रियास्तेभ्योऽधिकास्तेभ्यस्त्रिखास्तथा ॥ ५५ ॥ अस-भेदादि येयगुणास्तेभ्योऽपर्याप्तचतुरिन्द्रियाः । त्रिद्वीन्द्रिया अपर्याप्तास्ततोऽधिकाधिकाः क्रमात् ॥५६॥ इत्यल्पबहुत्वं । | इमे प्रतीच्यामयल्पाः, प्राच्यां विशेषतोऽधिकाः । दक्षिणस्यामुत्तरस्यामेभ्योऽधिकाधिकाः क्रमात् ॥ ५७ ॥ अल्पतां बहुतां चानुसरन्त्येतेऽम्बुकायिनाम् । प्रायो जलाशयेष्वेषां भूम्नोत्पत्तिः प्रतीयते ॥ ५८ ॥ द्व्यक्षाः पूतरशङ्खाद्याः, स्युः प्रायो बहवो जले । शेवालादौ च कुन्थ्वाया, भृङ्गाद्याश्चाम्बुजादिषु ॥ ५९ ॥ इति दिग पेक्षयाऽल्पबहुत्वं ॥ अल्पमन्तर्मुहूर्त्तं स्यात्, कालोऽनन्तोऽन्तरं महत् । वनस्पत्यादिषु स्थित्वा, पुनर्विकलताजुषाम् ॥ ६० ॥ इत्यन्तरं ॥
1
तिर्यञ्चो मनुजा देवा, नारकाचेति तात्त्विकैः । स्मृताः पञ्चेन्द्रिया जीवाश्चतुर्द्धा गणधारिभिः ॥ ६१ ॥ त्रिधा पञ्चाक्षतिर्यञ्चो, जलस्थलखचारिणः । अनेकधा भवन्येते, प्रतिभेदविवक्षया ॥ ६२ ॥ दृष्टा जलचरास्तत्र, पञ्चधा तीर्थपार्थिवैः । मत्स्याश्च कच्छपा ग्राहा, मकरा शिशुमारकाः ॥ ६३ ॥ तत्रानेकविधा मत्स्याः, श्लक्ष्णास्तिमितिमिङ्गिलाः । नास्तण्डुलमत्स्याश्च, रोहिताः कणिकाभिधाः ॥ ६४ ॥ पीठपाठीनशकुलाः, सहस्रं दंष्ट्रसंज्ञकाः । नलमीना उलूपी च, प्रोष्ठी च मद्गुरा अपि ॥ ६५ ॥ चटाचटकराचापि, पताकातिपताकिकाः । सर्वे ते मत्स्यजातीया, ये चान्येऽपि तथाविधाः ॥ ६६ ॥ कच्छपा द्विविधा अस्थिकच्छपा मांसक
ational
२०
२५
ܕ܀
॥ ९८ ॥
२८
w.jainelibrary.org
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Education
च्छपाः । ज्ञेया संज्ञाभिरेताभिग्रहाः पञ्चविधाः पुनः ॥ ६७ ॥ दिली वेढला सुद्धला पुलगा सीसागारा इति । द्विविधा मकराः शोण्डा, मट्टा इति विभेदतः । एकाकाराः शिशुमाराः, सर्वेऽमी जलचारिणः ॥ ६८ ॥ इति जलचराः ॥ चतुष्पदाः परिसर्पा, इति स्थलचरा द्विधा । चतुष्पदाश्चतुर्भेदास्तत्र प्रोक्ता विशारदैः ॥ ६९ ॥ केचिदेकखुराः केचिद्, द्विखुरा अपरे पुनः । गण्डीपदाच सनखपदा अन्ये प्रकीर्त्तिताः ॥ ७० ॥ अभिन्नाः स्युः खुरा येषां ते स्युरेकखुराभिधाः । गर्दभाश्वादयस्ते तु, रोमन्थं रचयन्ति न ॥ ७१ ॥ भिन्ना येषां खुरास्ते स्युखुरा बहुजातयः । महिषा गवया उष्ट्रा, वराहच्छगलैडकाः ॥ ७२ ॥ रुरवः शरभाश्चापि चमरा रोहिषा मृगाः । गोकर्णाद्या अमी सर्वे, रोमन्थं रचयन्ति वै ॥ ७३ ॥ स्यात्पद्मकर्णिका गण्डी, तद्वद्येषां पदाश्च ते । हस्तिगण्डकखङ्गाद्या, गण्डीपदाः प्रकीर्त्तिताः ॥ ७४ ॥ इत्युत्तराध्ययनवृत्तौ ॥ प्रज्ञापनावृत्तौ तु - " गण्डी सुवर्णकाराधिकरणस्थान" मिति ॥ येषां पदा नखेदधैः, संयुताः स्युः शुनामिव । तीर्थङ्करैस्ते सनखपदा इति निरूपिताः ॥ ७५ ॥ सिंहा व्याघ्रा द्वीपिनश्च, तरक्षा ऋक्षका अपि । शृगालाः शशकाश्चित्राः, श्वानश्चान्ये तथाविधाः ॥ ७६ ॥ इति चतुष्पदाः ॥ भुजोरः परिसर्पत्वात्, परिसर्पा अपि द्विधा । तत्रोरः परिसर्पाश्च, चतुर्धा दर्शिता जिनैः ॥ ७७ ॥ अहयोऽजगरा आसालिका महोरगा इति । अहयो द्विविधा दवकरा मुकुलिनस्तथा ॥ ७८ ॥ दर्वीकराः फणभृतो, या देहावयवाकृतिः । फणाभावोचिता सा स्थान, मुकुलं तद्युताः परे ॥ ७९ ॥ दर्वी करा बहुविधा, दृष्टा दृष्टजगत्रयैः । आशीविषा दृष्टिविषा, उग्र भोगविषा अपि ॥८०॥ लालाविषा
tional
१४
ainelibrary.org
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. ६ सर्ग:
भेदादि
॥९९॥
स्त्वग्विषाश्च, श्वासोच्छ्वासविषा अपि । कृष्णसर्पाः खेदसः, काकोदरायोऽपि च ॥ ८१॥ तत्र च-आशी- पञ्चेन्द्रियदंष्ट्रा विषं तस्यां, येषामाशीविषा हि ते । जम्बूद्वीपमितं देहं, विषसात्कषुमीश्वराः॥ ८२॥ शक्तेविषय एवायं, भूतं भवति भावि नो । तादृक्शरीरासंपत्त्या, पश्चमाङ्गेऽर्थतो ह्यदः ॥ ८३॥ घोणसाद्या मुकुलिन, इत्येवमहयो द्विधा । एकाकारा अजगरा, आसालिकानथ ब्रुवे ॥ ८४ ॥ अन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य, केवलं कर्मभूमिषु । काले पुनर्युगलिनां, विदेहेष्वेव पञ्चसु॥८५॥ चयर्धचक्रिरामाणां, महानृपमहीभृताम् । स्कन्धावारनिवेशानां, विनाशे समुपस्थिते ॥८६॥ एवं च-नगरग्रामनिगमखेटादीनामुपस्थिते । विनाशे तदधः संमूर्च्छन्त्यासालिकसंज्ञकाः॥ ८७॥ अङ्गुलासयभागागा, प्रथमोत्पन्नका अमी । वर्धमानशरीराश्चोत्कर्षाद द्वादशयोजनाः॥८८॥ बाहल्यपृथुलत्वाभ्यां, ज्ञेयास्तदनुसारतः । अज्ञानिनोऽसंज्ञिनश्च, ते मिथ्यादृष्टयो मताः॥ ८९॥ उत्पन्ना एव ते नश्यन्त्यन्तर्मुहर्तजीविताः। नष्टेषु तेषु तत्स्थाने, गर्त्ता पतति तावती ॥९॥ भयङ्कराऽथ सा गा, राक्षसीव बुभुक्षिताः । क्षिप्रं असति तत्सर्व, स्कन्धावारपुरादिकम् ॥ ९१॥ उक्तं जीवसमासे तु, स्युरेते द्वीन्द्रिया इति । शरीरोत्कर्षसाधाद्वेद तत्त्वं तु केवली ॥९२॥ महोरगा बहुविधाः, २५ केचिदङ्गुलदेहकाः। तत्पृथक्त्वाङ्गकाः केचिद्वितस्तितनवः परे ॥ ९३ ॥ एवं रनिकुक्षिचार्योजनैस्तच्छतैरपि ॥ ९९ ॥ पृथक्त्ववृद्ध्या यावत्ते, सहस्रयोजनाङ्गकाः ॥ ९४ ॥ स्थले जलेऽपि विचरन्त्येते स्थलोद्भवा अपि । नरक्षेत्रे न सन्त्येते, बाह्यद्वीपसमुद्रगाः॥१५॥ इत्युर परिसः॥ वक्ष्ये भुजपरिसास्ते त्वनेकविधाः स्मृताः। नकुलाः
Sekskskseeeeeeeeeeeeeeeeeeee
Jain Education G
oa
For Private & Personel Use Only
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Educat
सरदा गोधा, ब्राह्मणी गृहगोलिका ॥ ९३ ॥ छुच्छुन्दरी मूषकाच, हालिनी जाहकादयः । एवं स्थलचरा उक्ता, उच्यन्ते खचरा अथ ॥ ९७ ॥ ते चतुर्धा लोमचर्मसमुद्गविततच्छदाः । तत्र हंसाः कलहंसाः, कपोत के किवायसाः ॥ ९८ ॥ ढङ्काः कङ्काश्चक्रवाकाश्च कोर क्रौञ्चसारसाः । कपिञ्जला: कुर्कुटाश्च, शुकतित्तिरलावकाः॥९९॥ हारीताः कोकिलाश्चाषा, बकचातकखञ्जनाः । शकुनिश्चटका गृद्धाः, सुगृहश्येनसारिकाः ॥ १०० ॥ शतपत्रभरद्वाजा:, कुम्भकाराश्च टिट्टिभाः । दुर्गकौशिकदात्यूहप्रमुखा लोमपक्षिणः ॥ १ ॥ वल्गुली चर्मचटिका, आटिर्भारुण्डपक्षिणः । समुद्रवायसा जीवजीवाद्याश्चर्मपक्षिणः ॥ २ ॥ समुद्वत्संघटितौ, येषामुडुयनेऽपि हि । पक्षौ स्यातां ते समुद्रपक्षिणः परिकीर्त्तिताः ॥ ३ ॥ अवस्थानेऽपि यत्पक्षौ, ततौ ते विततच्छदाः । इमौ स्तः पक्षिणां भेदौ द्वौ बाह्यद्वीपवार्धिषु ॥ ४ ॥ संमूच्छिमा गर्भजाश्चेत्यमी स्युर्द्विविधाः समे । विना ये गर्भसामग्री, जाताः संमूच्छिमाश्च ते ॥ ५ ॥ तथा गर्भादिसामग्र्या, ये जातास्ते हि गर्भजाः । आसालिकान्विना संमूच्छिमा एव हि ते ध्रुवम् ॥ ६ ॥ यत्तु सूत्रकृताङ्गे आहारपरिज्ञाध्ययने आसालिका गर्भजतयोक्तास्ते तत्सदृशनामानो विजातीया एव संभाव्यन्ते, अन्यथा प्रज्ञापनादिभिः सह विरोधापत्तेः ॥ अपर्याप्ताश्च पर्याप्ताः, प्रत्येकं द्विविधा इमे । एवं पञ्चाक्षतिर्यञ्चः सर्वेऽपि स्युश्चतुर्विधाः ॥ ७ ॥ इति भेदाः ॥ विकलाक्षवदुक्तानि, स्थानान्येषां जिनेश्वरैः । तत्तत्स्थानविशेषस्तु, स्वयं भाव्यो विवेकिभिः ॥ ८ ॥ इति स्थानानि ॥ पञ्च पर्याप्तयोऽमीषां, पर्याप्तिं मानसीं विना । संमूर्छिमानामन्येषां पुनरेता भवन्ति षट् ॥ ९ ॥ असंज्ञिनोऽमनस्का
emational
१४
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ६ सर्गः
॥१००॥
Jain Educatio
यत्प्रवर्त्तन्तेऽशनादिषु । आहारसंज्ञा सा ज्ञेया, पर्याप्तिर्न तु मानसी ॥ ११० ॥ अथवाऽल्पं मनोद्रव्यं, वर्त्ततेसंज्ञिनामपि । प्रवर्त्तन्ते निवर्त्तन्ते, तेऽपीष्टानिष्टयोस्ततः ॥ ११ ॥ मूच्छिमानां प्राणाः स्युर्नवान्येषां च ते दश । इति पर्याप्तयः प्राणाश्च ॥ लक्षाश्चतस्रो योनीनामेषां सामान्यतः स्मृताः ॥१२॥ इति योनिसंख्या ॥ एवं संमूर्चिछमगर्भोद्भव भेदाविवक्षया । लक्षाणि कुलकोटीना मेषामित्याहुरीश्वराः ॥ १३ ॥ अध्यर्धानि द्वादशैव, भवन्ति जलचारिणाम् । खचराणां द्वादशाथ, चतुष्पदाङ्गिनां दश ॥ १४ ॥ दशैवोरगजीवानां भुजगानां नवेति च । एषां सार्धा त्रिपञ्चाशल्लक्षाणि कुलकोटयः ॥ १५ ॥ इति कुलसंख्या ॥ विवृता योनिरेतेषां संमूच्छिमशरीरिणाम् । गर्भजानां भवत्येषां योनिर्विवृतसंवृता ॥ १६ ॥ संमूच्छिमानां त्रैधेयं, सचित्ताचित्तमि श्रका | गर्भजानां तु मिश्रैव, यदेषां गर्भसंभवे ॥ १७ ॥ जीवात्मसात्कृतत्वेन, सचित्ते शुक्रशोणिते । तत्रोपयुज्यमानाः स्युरचित्ताः पुद्गलाः परे ॥ १८ ॥ संमूच्छिमानां त्रिविधा, शीतोष्णमिश्रभेदतः । गर्भजानां तिरश्चां तु भवेन्मित्रैव केवलम् ॥ १९ ॥ इति योनिसंवृतत्वादि || पूर्वकोटिमितोत्कृष्टा, स्थितिः स्याज्जलचारिणाम् । चतुष्पदानां चतुरशीतिवर्षसहस्रकाः ॥ २० ॥ वत्सराणां त्रिपञ्चाशत्, सहस्राण्युरगाङ्गिनाम् । भुजगानां द्विचत्वारिंशत्सहस्राः स्थितिर्मता ॥ २१ ॥ खचराणां सहस्राणि, द्वासप्ततिः स्थितिर्गुरुः । संमूच्छिमानां सर्वेषामित्युत्कृष्टा स्थितिर्भवेत् ॥ २२ ॥ गर्भजानां पूर्वकोटिरुत्कृष्टा जलचारिणाम् । चतुष्पदानामुत्कृष्टा, स्थितिः पल्योपमत्रयम् ॥ २३ ॥ भुजोरः परिसर्पाणां पूर्वकोटिः स्थितिर्गुरुः । खचराणां च पल्यस्या
tional
स्थानपर्या
त्यादि
싱
२५
11800 11
२८
jainelibrary.org
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
सङ्ख्येयांशो गुरुः स्थितिः ॥ २४ ॥ गर्भजानां तिरश्चां स्यादोघेनोत्कर्षतः स्थितिः । पल्यत्रयं समेषामप्यवराअन्तर्मुहूर्त्तकम् ॥ २५ ॥ इति भवस्थितिः ॥ संमूर्च्छिमानां पंचाक्षतिरश्चां कायसंस्थितिः । सप्तकं पूर्वकोटीनां, तदेवं परिभाव्यते ॥ २६ ॥ मृत्वा मृत्वाऽसकृत्संमूच्छिमस्तिर्यग भवेद्यदि । तदा सप्त भवान् यावत्, पूर्वकोटीमितस्थितीन् ॥२७॥ यद्यष्टमे भवेऽप्येष तिर्यग्भवमवाप्नुयात् । तदाऽसङ्ख्यायुष्क तिर्यगगर्भजः स्यात्ततः सुरः ॥ २८ ॥ कोटयः सप्त पूर्वाणां, पल्योपमत्रयान्विताः । कायस्थितिर्गर्भजानां, तिरश्चां तत्र भावना ॥ २९ ॥ सङ्ख्यायुर्गर्भजेषु, तिर्यक्षूत्पद्यतेऽसुमान् । उत्कर्षेण सप्त वारान् पूर्वैककोटिजीविषु ॥ ३० ॥ अष्टम्यां यदि वेलायां, तिर्यग्भवमवाप्नुयात् । असङ्ख्यायुस्तदा स्यात्तत्स्थितिः पत्यत्रयं गुरुः ॥ ३१ ॥ अत एव श्रुतेऽप्युक्तं“पंचिंदियकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे । सत्तट्ट भवग्गहणे समयं गोयम ! मा पमायए ॥ ३२ ॥” अत्र सङ्ख्यातायुर्भवापेक्षया सप्त, उभयापेक्षया त्वष्टाविति || पूर्वकोट्यधिकायुस्तु, तिर्यक सोऽसंख्यजीवितः । तस्य देवगतित्वेन, मृत्वा तिर्यक्षु नोद्भवः ॥ ३३ ॥ अष्टसंवत्सरोत्कृष्टा, जघन्याऽन्तर्मुहूर्त्तकी । गर्भस्थितिस्तिरश्चां स्यात्, प्रसवो वा ततो मृतिः ॥ ३४ ॥ संख्यातान्दाधिकं वार्षिसहस्रमोघतो भवेत् । पञ्चेन्द्रियतया कार्यस्थितिरुत्कर्षतः किल ॥ ३५ ॥ पर्याप्तपञ्चाक्षतया, कायस्थितिर्गरीयसी । शतपृथक्त्वमन्धीनां, जघन्याऽन्तर्मुहर्त्तकम् ॥ ३६ ॥ इति कार्यस्थितिः ॥ देहास्त्र यस्तैजसञ्च, कार्मणौदा रिकाविति । सांमूर्च्छानां युग्मिनां च, तेऽन्येषां वैक्रियाञ्चिताः ॥ ३७ ॥ इति देहाः ॥ संमूच्छिमानां संस्थानं, हुण्डमेकं प्रकीर्त्तितम् । गर्भजानां
Jain Education national
५
१०
१४
ainelibrary.org
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ६ सर्गः
॥ १०१ ॥
Jain Education
यथायोगं भवन्ति निखिलान्यपि ॥ ३८ ॥ इति संस्थानं ॥ संमूच्छिमानामुत्कृष्टं, शरीरं जलचारिणाम् । सहस्रं योजनान्येतन्मत्स्यादीनामपेक्षया ॥ ३९॥ चतुष्पदानां गव्यूतपृथक्त्वं परिकीर्त्तितम् । भुजगानां खगानां च, कोदण्डानां पृथक्त्वकम् ॥ ४० ॥ योजनानां पृथक्त्वं चोरगाणां स्याद्वपुर्गुरु । गर्भजानां वाश्वराणां संमूच्छि माम्बुचारिवत् ॥ ४१ ॥ चतुष्पदानां गव्यूतषट्कं भुजगदेहिनाम् । गव्यूतानां पृथक्त्वं स्यादुत्कृष्टं खलु भूघनम् ॥ ४२ ॥ तथोरः परिसर्पाणां सहस्रयोजनं वपुः । यतोऽनेकविधा उक्ता, एतज्जातौ महोरगाः ॥ ४३ ॥ अङ्गुलेन मिताः केचित्तत्पृथक्त्वाङ्गकाः परे । केचित्क्रमादूर्धमानाः सहस्रयोजनोन्मिताः ॥ ४४ ॥ गर्भजानां खचराणां धनुः पृथक्त्वमेव तत् । अङ्गुलासङ्ख्यांशमानं सर्वेषां तज्जघन्यतः ॥ ४५ ॥ वैक्रियं योजनशतपृथक्वप्रमितं गुरु । आरम्भेऽङ्गुलसङ्ख्यांशमानं तत्स्याज्जघन्यतः ॥ ४६ ॥ इत्यङ्गमानं ॥ आद्यास्त्रयः समुद्घाताः, संमूच्छिमशरीरिणाम् । गर्भजानां तु पश्चैते, केवल्याहारको विना ॥४७॥ इति समुद्घाताः ॥ यान्ति संमूच्छिमा नूनं, सर्वाखपि गतिष्वमी । तत्रापि नरके यान्तो, यान्त्याद्यनरकावधि ॥ ४८ ॥ एकेन्द्रियेषु सर्वेषु, तथैव विकलेष्वपि । सङ्ख्यासङ्ख्यायुर्युतेषु, तिर्यक्षु मनुजेषु च ॥ ४९ ॥ असङ्ख्यायुर्नृतिर्यक्षूत्पद्यमानास्त्वसंज्ञिनः उत्कर्षाद्यान्ति तिर्यञ्चः, पल्यासंख्यांशजीविषु ॥ ५० ॥ असंज्ञिनो हि तिर्यश्वः, पल्या संख्यांशलक्षणम् । आयुश्चतुर्विधमपि बघ्नन्त्युत्कर्षतः खलु ॥ ५१ ॥ अन्तर्मुहर्त्तमानं च नृतिरश्चोर्जघन्यतः । देवनारकयोर्वर्षसहस्रदशकोन्मितम् ॥ ५२ ॥ तत्रापि देवायुर्हखपल्या संख्यांशसंमितम् । नृतिर्यग्नारकायूंष्य सङ्ख्य मानि
।
भवस्थित्याद्वाराणि
२०
२५
॥ १०१ ॥
२८
Ainelibrary.org
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
यथाक्रमम् ॥५३॥ इदमर्थतो भगवतीशतक १ द्वितीयोद्देशके ॥ देवेषूत्पद्यमानाः स्युर्भवनव्यन्तरावधि । एतद्योग्यायुषोऽभावान्न ज्योतिष्कादिनाकिषु ॥५४॥ यान्ति गर्भजतिर्यञ्चोऽप्येवं गतिचतुष्टये । विशेषस्तत्र नरकगतावेष निरूपितः॥ ५५॥ ससखपि क्षमासु यान्ति, मत्स्याद्या जलचारिणः। रौद्रध्यानार्जितमहापाप्मानो हिंसका मिथः ॥५६॥ चतुष्पदाश्च सिंहाद्याश्चतसृष्वाद्यभूमिषु । पञ्चसूरःपरिसस्तिसृष्वाद्यासु पक्षिणः॥ ५७॥ भुजप्रस गच्छन्ति, प्रथमद्विक्षमावधि । देवेषु गच्छतामेषां, सर्वेषां समता गतौ ॥ ५८॥ भवनेशव्यन्तरेषु, ज्योतिष्केषु च यान्त्यमी । वैमानिकेषु चोत्कर्षादष्टमत्रिदिवावधि ॥ ५९॥ सुरेषु यान्ति सर्वेऽपि, तिर्यश्चोऽसंख्यजीविनः । निजायुःसमहीनेषु, नाधिकस्थितिषु कचित् ॥६०॥ असंख्यजीविखचरा, अन्तरद्वीपजा अपि । तिर्यग्पञ्चेन्द्रिया यान्ति, भवनव्यन्तरावधि ॥ ६१॥ ततः परं यतो नास्ति, पल्यासंख्यांशिका स्थितिः। न चैवमीशानादग्रे, यान्ति केऽप्यमितायुषः ॥ ६२ ॥ इति गतिः ॥ एकाक्षा विकलाक्षाश्च, तियश्चः संश्यसंज्ञिनः । संमूछिमेषु तिर्यवायान्ति नो देवनारकाः॥ ६३ ॥ एकद्वित्रिचतु| रक्षा, पञ्चाक्षाः संज्यसंज्ञिनः । भवनव्यन्तरज्योतिःसहस्रारान्तनिर्जराः ॥ ६४ ॥ संमूछिमा गर्भजाश्च, मनुष्याः सर्वनारकाः। गर्भोद्भवेषु तिर्यक्षु, जायन्ते कर्मयश्रिताः॥६५॥ अन्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टमुत्पत्तिमरणान्तरम् । सामूीनां गर्भजाना, द्वादशान्तर्मुहर्तकाः॥६६॥ समयप्रमितं ज्ञेयं, जघन्यं तद् द्वयोरपि । एकसामयिकी संख्या, ज्ञेयैषां विकलाक्षवत् ॥ ६७ ॥ इत्यागतिः॥ लभन्तेऽनन्तरभवे, सम्यक्रवादि शिवावधि।
Jain Educat
i onal
For Private & Personel Use Only
Xww.jainelibrary.org
Cl
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
गत्यागत्यादिद्वाराणि
२०
लोक.द्रव्या
ते चैकस्मिन् क्षणे मुक्तिं, यान्तो यान्ति दशैव हि ॥ ६८॥ इत्यनन्तराप्तिः, समये सिद्धिश्च ॥ लेश्यात्रितय६ सर्गःशमाद्यं स्यात्, संमूछिमशरीरिणाम् । गर्भजानां यथायोगं, लेश्याः षडपि कीर्तिताः॥ ६९ ॥ इति लेश्याः॥
षडप्याहारककुभो, द्वयानामन्त्यमेव च । सामूर्छानां संहननमन्येषामखिलान्यपि ॥ ७० ॥ अत्र च श्रीजीवा॥१०२॥ भिगमाभिप्रायेण संमृच्छिमपञ्चाक्षतिरश्चामेवैकं संहननं संस्थानं च स्यात्, षष्ठकर्मग्रन्थाभिप्रायेण तु षडपि
तानि स्युः इत्यर्थतः संग्रहणीबृहवृत्तौ ॥ इत्याहारदिक, संहननं च ॥ सर्वे कषायाः संज्ञाश्च, निखिलानीन्द्रियाणि च । द्वयानां संमूच्छिमाः स्युरसंज्ञिनः परेऽन्यथा ॥ ७१॥ इति कषायसंज्ञेन्द्रियसंज्ञिताः । संमूञ्छिमेषु तिर्यक्षु, स्त्री पुमांश्च न संभवेत् । केवलं क्लीबवेदास्ते, केवलज्ञानिभिर्मताः ॥७२॥ स्त्रियः पुमांसःक्लीवाश्च, तिर्यञ्चो गर्भजास्त्रिधा । पुम्भ्यः स्त्रियस्त्रिभी रूपैरधिकास्त्रिगुणास्तथा ॥७३ ॥ इति वेदाः॥ विकलेन्द्रियवद् दृष्टिद्वयं संमूच्छिमाङ्गिनाम् । तिस्रोऽपि दृष्टयोऽन्येषां, तत्र सम्यग्दृशो द्विधा ॥ ७४ ॥ केचिद्देशेन विरताः, परे त्वविरताश्रयाः । अभावः सर्वविरतस्तेषां भवस्वभावतः ॥ ७९ ॥ इति दृष्टिः॥ संमूछिमाः स्युदर्थज्ञाना, द्विज्ञाना अपि केचन । द्वित्राज्ञाना गर्भजा द्वित्रज्ञाना अपि केचन ॥ ७६ ॥ इति ज्ञानं ॥ दर्शनद्वयमाद्यं स्यादुभयेषामपि स्फुटम् । अवधिज्ञानभाजां तु, गर्भजानां त्रिदर्शनम् ॥ ७७॥ इति दर्शनं ॥ संमूर्छिमानां चत्वार, उपयोगाः प्रकीर्तिताः । गर्भजानां तु चत्वारः, षट् पञ्चौघान्नवापि ते ॥ ७८॥ यदेषां केवलज्ञानं, मुक्त्वा केवलदर्शनम् । ज्ञानं मन:पर्यवं च, सर्वेऽन्ये संभवन्ति ते ॥ ७९ ॥ इत्युपयोगाः ॥ स्यादनाहारिता
Jain Educatie Roll
For Private & Personal use only
Alainelibrary.org
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
लो. प्र. १८
Jain Educat
त्वेषामेकद्विसमयावधि । ओजआदिस्त्रिधाऽऽहारः, सचित्तादिरपि त्रिधा ॥ ८० ॥ प्रथमं त्वोजआहारो, लोमकावलिकौ ततः । अन्तरं द्वौ दिनौ ज्येष्ठं, लघु चान्तर्मुहूर्त्तकम् ॥ ८१ ॥ ज्येष्ठं चैतत्कावलिकाहारस्य स्मृतमन्तरम् । खाभाविकं त्रिपल्यायुर्युक्त तिर्यगपेक्षया ॥ ८२ ॥ इत्याहारः ॥ गुणस्थानद्वयं संमूच्छिमानां विकलाक्षवत् । गर्भजानां पञ्च तानि, प्रथमानि भवन्ति हि ॥ ८३ ॥ इति गुणाः ॥ संमूच्छिमानां चत्वारो, योगाः स्युर्वि कलाक्षवत् । आहारकद्वयं मुक्त्वा, गर्भजानां त्रयोदश ॥ ८४ ॥ इति योगाः ॥ प्रतरासङ्ख्यभागस्थाऽसङ्ख्येयणिवर्त्तिभिः । नभः प्रदेशैः प्रमितास्तिर्यञ्चः खचराः स्मृताः ॥ ८५ ॥ एवमेव स्थलचरास्तथा जलचरा अपि । भवन्ति किंतु सङ्ख्येयगुणाधिकाः क्रमादिमे ॥ ८६ ॥ यदसौ प्रतरासङ्ख्य भागः प्रागुदितः खलु । यथाक्रमं श्रुते प्रोक्तो, वृहत्तरवृहत्तमः ॥ ८७ ॥ षट्पञ्चाशाङ्गुलशतद्वयमानानि निश्चितम् । यावन्ति सूचिखण्डानि, स्युरेकप्रतरे स्फुटम् ॥ ८८ ॥ तावज्योतिष्कदेवेभ्यः, स्युः सङ्ख्येयगुणाः क्रमात् । तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाः षण्ढा, नभःस्थलाम्बुचारिणः ॥ ८९ ॥ एतत्संमूच्छिमगर्भोत्थानां समुदितं खलु । क्लीवानां मानमाभाव्यं श्रुते पृथगनुक्तितः ॥ ९० ॥ इति मानं ॥ एष्वरूपाः खचरास्तेभ्यः संख्यन्नाः खचरस्त्रियः । ताभ्यः स्थलचरास्तेभ्यः, संख्याः स्युस्तदङ्गनाः ॥ ९१ ॥ ताभ्यो जलचरास्तेभ्यो, जलचर्यस्ततः क्रमात् । नपुंसकाः सङ्ख्यगुणाः, नभः| स्थलाम्बुचारिणः ॥ ९२ ॥ एते च संमूच्छिमयुक्ता इति ज्ञेयं ॥ इति लव्यत्पबहुता ॥ स्तोकाः पश्चाक्षतिर्यचः, प्रतीच्यां स्युस्ततः क्रमात् । प्राच्यां याम्यामुदीच्यां च विशेषतोऽधिकाधिकाः ॥ ९३ ॥ इति दिगपेक्षया -
ational
१०
१४
w.jainelibrary.org
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक.द्रव्य.
७ सर्ग: ॥१०३॥
ऽल्पबहुता॥ तिर्यपश्चेन्द्रियाणां स्यादन्तमुहर्तसंमितम् । जघन्यमन्तरं ज्येष्ठं, त्वनन्तकालसंमितम् ॥९४ ॥
मनुष्यएतद्वनस्पतेः कायस्थितिं भुक्त्वा गरीयसीम् । पुनः पञ्चाक्षतिर्यक्त्वं, लभमानस्य संभवेत् ॥९५॥ यक्षादि
खरूपम् तिर्यक्तनुभृत्वरूपमेवं मयोक्तं किल लेशमात्रम् । विशेषविस्ताररसार्थिना तु, सिद्धान्तवारान्निधयोऽवगाद्याः ॥९६॥(उपजातिः)विश्वाश्चर्यदकीर्तिकीर्तिविजयश्रीवाचकेन्द्रान्तिषद्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनय:श्रीतेजपालात्मजः।काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्वप्रदीपोपमे, सर्गो निर्गलितार्थसार्थसुभगः षष्टःसमाप्तःसुखम् ॥९॥
॥ इति श्रीलोकप्रकाशे षष्ठः सर्गः समाप्तः ॥
॥ सप्तमः सर्गः प्रारभ्यते ॥ संमूर्च्छिमा गर्भजाश्च, द्विविधा मनुजा अपि । वक्ष्ये संक्षेपतस्तत्र, प्रथमं प्रथमानिह ॥ १॥ अन्तर्वीपेषु षट्पञ्चाशत्यथो कर्मभूमिषु । पञ्चाधिकासु दशसु, त्रिंशत्यकर्मभूमिषु ॥२॥ पुरीषे च प्रश्रवणे, श्लेष्म सिङ्घाणयोरपि । वान्ते पित्ते शोणिते च, शुक्रे मृतकलेवरे ॥३॥ पूये स्त्रीपुंससंयोगे, शुक्रपुद्गलविच्युतौ । पुरनिर्द्धमने सर्वेष्वपवित्रस्थलेषु च ॥४॥ स्युर्गर्भजमनुष्याणां, संबन्धिष्वेषु वस्तुषु । संमूछिमनराः सैकं, शतं ते क्षेत्रभेदतः॥५॥ इति भेदाः ॥ स्थानमेषां द्विपाथोधिसार्धद्वीपद्धयावधि । स्थानोत्पादसमुद्घातैलॊकासङ्ख्यांश शगा अमी ॥६॥ इति स्थानं ॥ आरभ्य पञ्च पर्याप्तीस्ते म्रियन्तेऽसमाप्य ताः। प्राणा भवन्ति सप्ताष्टावेषां ॥१०॥ वाङ्मनसे विना ॥७॥ नव प्राणा इति तु संग्रहण्यवचूर्णी ॥ इति पर्याप्तिः॥ सङ्ख्या योनिकुलानां च, नैषां।
Jain Education
anal
For Private
Personel Use Only
wwjainelibrary.org
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
गावस्थितिः । पृथक्त्वं च मुद्द्त्तनियाशमितः पूर्वे, समुद्घातास्त्रात नरवतः ॥ ११ ।
गर्भजतः पृथक् । योनिस्वरूपं त्वेतेषां, विज्ञेयं विकलाक्षवत् ॥ ८॥ इति द्वारत्रयं ॥ जघन्योत्कर्षयोरन्तर्मुहत स्याद्भवस्थितिः। पृथक्त्वं च मुहूर्तानामेषां कायस्थितिमता ॥९॥ इति भवस्थितिकायस्थिती ॥ वाया त्रिदेही। संस्थानं, हुण्डं देहोऽङ्गुलस्य च । असङ्ख्यांशमितः पूर्वे, समुद्घातास्त्रयो मताः ॥ १०॥ इति द्वारचतुष्टयं ॥151 एषां गतिर्विकलवत्तथैवागतिरप्यहो। किंवमी वहिवायुभ्यां, नागच्छन्ति नरत्वतः॥११॥ अष्टचत्वारिंशदेषां, नाड्यो जन्मात्ययान्तरम् । एकसामयिकी संख्या, विज्ञेया विकलाक्षवत् ॥ १२॥ इति गत्यागती॥ अनन्तराप्तिः समये, सिद्ध्यतां गणनाऽपि च । पृथगन लक्ष्यते ह्येषां, साविज्ञेया बहुश्रुतात्॥१३॥ इति द्वारद्वयम्॥ द्वाराणि लेश्यादीन्यष्टावेतेषां विकलाक्षवत् । उक्तानि किंत्विन्द्रियाणि, पश्चैतेषां श्रुतानुगैः॥ १४॥ मिथ्यादृशोऽमी एतेषामाद्याज्ञानद्वयं तथा । आधे दे दर्शने तस्मादुपयोगचतुष्टयम् ॥ १५॥ साकारान्योपयोगाश्चाज्ञानदर्शनवत्तया । विकलाक्षवदाहारकृतः कावलिकं विना ॥ १६॥ आy गुणस्थानमेषामिदं योगत्रयं पुनः औदारिकस्तन्मिश्रश्च, कार्मणश्चेति कीर्त्तितम् ॥ १७॥ अङ्गुलप्रमितक्षेत्रप्रदेशराशिवर्तिनि । तृतीयवर्गमूलने, वर्गमूले किलादिमे ॥ १८॥ यावान् प्रदेशराशिः स्यात्, खण्डास्तावत्प्रदेशकाः । यावन्त एकस्यामेकप्रादेशिक्यां स्युरावलौ ॥१९॥ तावन्तः संमूञ्छिमा हि, मनुजा मनुजोत्तमैः । निर्दिष्टा दृष्टविस्पष्टसचराचरविष्टपैः। ४॥२०॥ इति मानं ॥ द्वाराण्यथोक्तशेषाणि, पञ्चैतेषां मनीषिभिः । भाव्यानीह वक्ष्यमाणगर्भोद्भवमनुष्यवत् १ गर्भजनराणां सदा सत्त्वेऽपि तदुत्पादकारणानामुच्चारादीनां च सद्भावेऽपि तथाविधतीव्रतापशैयादिना नैतदुत्पत्तिः कालमिमन्तमिति ।
गावापामा
~
Y
Jain Educa
t
ional
For Private & Personel Use Only
Sww.jainelibrary.org
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ७ सर्गः
॥१०४॥
॥ २१ ॥ कमोकर्मधरान्तद्वीपभवा गर्भजा नरास्त्रिविधाः । स्युः पञ्चदशत्रिंशत् षट्पञ्चाशद्विधाः क्रमतः ॥ २२ ॥ ( आर्या ) । म्लेच्छा आर्या इति द्वेधा, मनुजाः कर्मभूमिजाः । म्लेच्छाः स्युः शकयवनमुण्डशवरादयः ॥ २३ ॥ आर्याः पुनर्द्विधा प्रोक्ता, ऋद्धिप्रातास्तथापरे । ऋद्धिप्राप्तास्तत्र पोढा, प्रज्ञप्ताः परमेश्वरैः ॥ २४ ॥ अर्हन्तः सार्वभौमाश्च महैश्वर्यमनोहराः । बलदेवा वासुदेवाः, स्युर्विद्याधरचारणाः ॥ २५ ॥ अन्टद्धयो नवविधाः, क्षेत्रजातिकुलार्यकाः । कर्मशिल्पज्ञानभाषाचारित्रदर्शनार्यकाः ॥ २३ ॥ तत्र च - क्षेत्रार्या आर्यदेशोत्थास्ते साध पञ्चविंशतिः । अङ्गा वङ्गा कलिङ्गाश्च, मगधाः कुरुकोशलाः ॥ २७ ॥ काश्यः कुशार्त्ताः पञ्चाला, विदेहा मलयास्तथा । वत्साः सुराष्ट्राः शाण्डिल्या, वराटा वरणास्तथा ॥ २८ ॥ दशार्णा जङ्गला चेद्यः, सिन्धुसौवीरका अपि । भङ्गयो वृत्ताः सूरसेनाः, कुणाला लाटसंज्ञकाः ॥ २९ ॥ केकयार्द्धमिमे सार्द्धपञ्चविंशतिरीरिताः । नामानि राजधानीनां ब्रवीम्येषु क्रमादध ॥ ३० ॥ चम्पा तथा ताम्रलिप्सी, स्यात्काञ्चनपुरं पुरम् । राजगृहं गजपुरं, साकेतं च वराणसी ॥ ३१ ॥ शौर्यपुरं च काम्पिल्यं, मिथिला भद्दिलं पुरम् । कौशाम्बी च द्वारवती, नन्दिवच्छाभिधे पुरे ॥ ३२ ॥ अच्छापुरं मृत्तिकावत्यहिच्छत्राभिधा पुरी । शुक्तिमती वीतभयं पापा माषपुरं पुरम् ॥ ३३ ॥ मथुरानगरी चैव, श्रावस्तीनगरी वरा । कोटीवर्ष श्वेतबिका, राजधान्यः क्रमादिमाः ॥ ३४ ॥ एष्वेवाईचक्रिराम वासुदेवोद्भवो भवेत् । आर्यास्तत इमेऽन्ये च तदभावादनार्थकाः ॥ ३५ ॥ सूत्रकृताङ्गवृत्तौ चानार्यलक्षणमेवमुक्तं – “धम्मोति अकखराई जेसुषि सुमिणे न सुवंति" विज्ञेयास्तत्र जात्यार्या, ये प्रशस्ते
Jain Educationational
आर्यानायें
मनुष्याः
१५
२०
jainelibrary.org
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
भ्यजातयः । उग्रभोगादिकुलजाः, कुलार्या स्ते प्रकीर्तिताः ॥ ३६ ॥ कर्मार्या वास्त्रिकाः सौत्रिकाद्याः कार्पासिकादयः । शिल्पार्यास्तु तुन्नकारास्तंतुवायाद्योऽपि च ॥ ३७ ॥ भाषार्या येऽर्द्धमागध्या, भाषन्ते भाषयाऽत्र ते । ज्ञानदर्शनचारित्रार्यास्तु ज्ञानादिभिर्युताः ॥ ३८ ॥ अत्र भूयान् विस्तरोऽस्ति स तु प्रज्ञापनादितः । विज्ञेयो विबुधैर्नेह, प्रोच्यते विस्तृतेर्भयात् ॥ ३९ ॥ इति भेदाः ॥ एषां तिर्यग्नरक्षेत्रावधि जन्मात्ययादिकम् । योजनानां दशशतीमधो न परतः पुनः ॥ ४० ॥ इति स्थानं ॥ एषां पर्याप्तयः सर्वाः, पर्याप्तानां प्रकीर्त्तिताः । यथासंभवमन्येषां प्राणाश्च निखिला अपि ॥ ४१ ॥ इति पर्याप्तयः ॥ चतुर्दश योनिलक्षा, एषां संमूच्छिमैः सह । द्वादश स्युः कुलकोट्यो, योनिर्विवृतसंवृता ॥ ४२ ॥ मिश्रा सचित्ताचित्तत्वात् शीतोष्णत्वाच्च सा भवेत् । वंशीपत्रा तथा शङ्खावर्त्ता कूर्मोनताऽपि च ॥ ४३ ॥ पल्योपमानां त्रितयमुत्कृष्टैषां भवस्थितिः । सा युग्मिनां परेषां तु, पूर्वकोटिः प्रकीर्तिता ॥ ४४ ॥ जघन्या नरगर्भस्य, स्थितिरान्तर्मुहूर्तिकी । उत्कृष्टा द्वादशाब्दानि, विज्ञेया मध्यमाऽपरा ॥ ४५ ॥ पित्तादिदूषितः पापी, कार्मणादिवशोऽथवा । द्वादशाब्दानि गर्भान्तस्तिष्ठेत् सिद्धपादिवत् ॥ ४६ ॥ चतुवैिशतिवर्षा च, गर्भकायस्थितिर्नृणाम् । उत्कृष्टस्थितिगर्भस्य, मृत्वोत्पन्नस्य तत्र सा ॥ ४७ ॥ स्थित्वा द्वादश वर्षाणि, गर्भे कश्चिन्महाऽघवान् । विपद्योत्पद्य तत्रैव, तावतिष्ठत्यसौ घतः ॥ ४८ ॥ इति भवस्थितिः ॥ इत्यर्थतो भगवतीशतक २ पञ्चमोद्देशके ॥ पूर्वाणां कोटयः सप्त, तथा पल्योपमन्त्रयम् । भाव्या गर्भजतिर्थग्वदेषां कार्यस्थितिर्गुरुः ॥ ४९ ॥ इति काय -
Jain Educaticnational
१०
१४
w.jainelibrary.org
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
७ सर्ग:
॥१०५॥
स्थितिः॥ संख्येयजीविनां देहाः, पञ्चासंख्येयजीविनाम् । भवेद्देहत्रयमेव, विनाऽऽहारकवैक्रिये ॥५०॥ इति
मनुष्याणां देहाः ॥ संख्येयजीविनां नृणां, संस्थानान्यखिलान्यपि । चतुरस्रं भवेदेतदसयेयायुषां पुनः ॥५१॥ इति
स्थानादि संस्थानं ॥ शतानि पञ्च धनुषां, वपुः सङ्ख्येयजीविनाम् । गव्यूतत्रयमन्येषामुत्कर्षेण प्रकीर्तितम् ॥५२॥ जघ-18 न्यतोऽङ्गुलासङ्ख्यभागमानमिदं भवेत् । उभयेषां तदारम्भकाल एवास्य संभवः ॥५३॥ संख्यायुषां वैक्रियं साधिकैकलक्षयोजनम् । उत्कर्षेण जघन्याचाङ्गुलसङ्ख्यांशसंमितम् ॥ ५४॥ आहारकशरीरं यत्, स्यादेषां लब्धिशालिनाम् । श्रुतकेवलिनां तत्तु, मानतो हस्तसंमितम् ॥ ५५॥ इत्यङ्गमानं ॥ स्युः सप्तापि समुद्घाता, नृणां सङ्ख्ययजीविनाम् । असङ्ख्येयायुषामाद्यास्त्रय एव भवन्ति ते॥५६॥ इति समुद्घाताः॥ यान्ति सर्वे सुरेष्वेव, नरा असङ्ख्यजीविनः । निजायुःसमहीनेषु, नाधिकस्थितिषु कचित् ॥ ५७॥ ततोऽन्तीपजातास्ते, भवनव्यन्तरावधि । यान्तीशानदिवं यावत्, हरिवर्षादिजास्तु ते॥५८॥ सौधर्मान्तं हैमवतहरण्यवतजा इमे । जघन्यापि यदीशानेऽधिकपल्योपमा स्थितिः॥ ५९॥ सर्वसंसारिगतिषु, नराः सङ्ख्येयजीविनः । गच्छ-11 न्ति कर्मविगमादेति मुक्तिगतावपि ॥६०॥ तत्र च-तीबरोषास्तपोमत्तास्तथा बालतपखिनः। द्वैपायनादिबद्वैरपरा यान्त्यसुरेष्वमी ॥६१॥ जलाग्निझम्पासंपातगलपाशविषाशनैः । तृक्षुदाद्यैर्मृतास्ते स्युयन्तराः
॥१०५॥ शुभभावतः ॥ १२॥ अविराद्धचरित्राणां, जघन्यादाद्यताविषः । उत्कर्षेण च सर्वार्थसिद्धः स्याद्विषयो गतेः ॥६३ ॥ विराद्धसंयमानां तु, भवनेशाद्यताविषौ । क्रमाजघन्योत्कर्षाभ्यामेवमग्रेऽपि भाव्यताम् ॥ ६४॥ २८
तीशानापस्योपमा स्थितिःच-तीबरोषास्तपोशनः । तदनदासद्धः स्थाद्विष
Jain Education Internationa
For Private & Personel Use Only
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
आराद्धदेशविरतेः, सौधर्माच्युतताविषौ । विराद्ध देश विरते भवनज्योतिरालयौ ॥ ६५ ॥ तापसानामपि तथा, तावेव गतिगोचरौ । कान्दर्पिकाणां भवनाधिपसौधर्मताविषौ ॥ ६६ ॥ चरकाणां परिव्राजां, भवन ब्रह्मताविषौ । सौधर्मलान्तको कल्पौ ख्यातौ किल्बिषिकाङ्गिनाम् ॥ ६७ ॥ विमानेषूत्पद्यमानापेक्षयेदं यतोऽन्यथा । सन्ति किल्बिषिका देवा, भवनाधिपतिष्वपि ॥ ६८ ॥ आजीविकाभियोगानां भवनाच्युतताविषौ । निहिवानां च भवनेशान्त्यग्रैवेयकौ किल ॥ ६९ ॥ भव्यानामप्यभव्यानां साधुवेषगुणस्पृशाम् । अपि मिथ्याशामेष, विषयः सत्क्रियाबलात् ॥ ७० ॥ निर्ग्रन्थगुणवत्त्वेऽपि ते स्युर्मिथ्यादृशो यतः । अश्रद्दधत्पदमपि, मिथ्यात्वी सूत्रभाषितम् ॥ ७१ ॥ सूत्रलक्षणं चैवमाहुः - "सुत्तं गणहररइयं तहेव पत्ते अबुद्धरइअं च । सुअकेवलिणा रद्दअं अभिन्नसपुचिणा रइअं ॥ ७२ ॥” देवेषु गच्छतामेषां, स्यादुक्तो गतिगोचरः । नत्वेषां गति| रेषैवेत्याशङ्कयं मतिशालिभिः ॥ ७३ ॥ कान्दर्पिकादिलक्षणं चैवं - कन्दर्पः परिहासोऽस्ति, यस्य कान्दर्पिकञ्च सः। कन्दर्पविकाशंसी, तत्प्रशंसोपदेशकृत् ॥ ७४ ॥ नानाहासकलाः कुर्वन्, मुखतुर्याङ्गचेष्टितैः । अहसन् हासयंश्चान्यान्नानाजी व रुतादिभिः ॥ ७५ ॥ युग्मम् ॥ किल्बिषं पापमस्यास्ति, स किल्बिषिक उच्यते । मायावी ज्ञानसद्धर्माचार्यसाध्वादिनिन्दकः ॥ ७६ ॥ वर्त्तयेद् यस्तु नटवत्, वेषमाजीविकाकृते । बाह्योपचारचतुरः, स आजीविक उच्यते ॥७७॥ अभियोगः कार्मणादिस्तत्प्रयोक्ताऽऽभियोगिकः । द्रव्याभियोगमन्त्रादिः, सद्विधा द्रव्यभावतः ||१८|| तथोक्तं - "दुविहो खलु अभियोगो दवे भावे य होइ नायवो । दबंमि होन्ति
Jain Educatiemational
१०
१४
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक.द्रव्य. ७सगे:
मनुष्यविशेषाणां गतिः
॥१०६॥
जोगा। विजा मंता य भावंमि ॥७९॥” इति भग० वृ० प्रथमशतद्वितीयोद्देशके ॥ व्यवहारेण चारित्रवन्तोऽप्येतेऽचरित्रिणः। लभन्त ईदृशीः संज्ञा, दोषैरतैर्यथोदितैः॥ ८०॥प्रयान्ति नरकेष्वेव, नियमादर्धचक्रिणः। तथैव च गतिज्ञेया, प्रत्यर्धचक्रिणामपि ॥ ८१॥ चक्रिणो येऽत्यक्तराज्याः, प्रयान्ति नरकेषु ते । सप्तस्वपि यथाकर्मोत्कृष्टायुष्कतया परम् ॥ ८२॥ तथोक्तं भगवती शतक १२ नवमोद्देशकवृत्तौ चक्रवर्तित्वान्तरनिरूपणाधिकारे-"जहण्णेणं सातिरेगं सागरोवम"ति, कथम् ?, अपरित्यक्तसङ्गाश्चक्रवर्तिनो नरकथिवीपूत्पद्यन्ते, तासु च यथाखमुत्कृष्टस्थितयो भवन्ति, ततश्च नरदेवो मृतः प्रथमपृथिव्यामुत्पन्नस्तत्र चोत्कृष्टां स्थिति सागरोपमप्रमाणामनुभूय नरदेवो जायत इत्येवं सागरोपमं, सातिरेकत्वं च नरदेवभवे चक्ररत्नोत्पत्तेराचीनकालेन द्रष्टव्यमिति । श्रीहरिभद्रसूरिकृतदशवकालिकवृत्तौ हैमवीरचरित्रे नवपदप्रकरणवृत्तौ च |चक्रिणः सप्तम्यामेवात्यक्तराज्या यान्तीत्युक्तमिति ज्ञेयं ॥ त्यक्तराज्यास्तु ये सार्वभौमास्ते यान्ति ताविषम् । मुक्तिं वाऽथ सीरिणोऽपि, ध्रुवं वर्मुक्तिगामिनः॥ ८३ ॥ इति गतिः॥ असङ्ख्यायुतिरश्चः, सप्तमक्षितिनारकान् । वाय्यग्नी च विना सर्वेऽप्युत्पद्यन्ते नृजन्मसु ॥८४॥ अर्हन्तो वासुदेवाश्च, बलदेवाश्च चक्रिणः। सुरनैरयिकेभ्यः स्युर्तृतिर्यग्भ्यो न कर्हिचित् ॥८५॥ तत्रापि-प्रथमादेव नरकाज्जायन्ते चक्रवर्तिनः। द्वाभ्यामेव हरिबलास्त्रिभ्य एव च तीर्थपाः॥८६॥ चतुर्विधाः सुराशयुत्वा, भवन्ति बलचक्रिणः। जिना
१ कोणिकाख्यानकापेक्षं हि तत् , तथा तस्य तथाविधामवस्थामवलोक्य जिनेनोक्तं, ततो न नियामकं वच एतत् ।
॥१०
२७
Jain Educatele latina
For Private Personel Use Only
S
ujainelibrary.org
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैमानिका एव, हरयोऽप्यननुत्तराः ॥८७॥ एवं मनुष्यरत्नानि यानि स्युः पञ्च चक्रिणाम् । तान्यागत्या विभाव्यानि, सामान्येन मनुष्यवत् ॥ ८८ ॥ वैमानिकेभ्यश्च यदि, भवन्ति तानि तर्हि व । अनुत्तरसुरान्मुक्त्वान्येभ्यः स्युर्वासुदेववत् ॥ ८९ ॥ मुहर्त्ता द्वादशोत्कृष्टं, समयो लघु चान्तरम्। तिर्यग्वदेकसमयसङ्ख्या संमूच्छिमैः सह ॥ ९० ॥ नानाङ्गिनामपर्यासदत्वेनोत्पत्तिरीरिता । उत्कर्षतोऽविच्छेदेन, पल्यासंख्यलवावधि ॥ १ ॥ अपर्याप्सन रत्वेनोत्पत्तिरेकस्य चाङ्गिनः । उत्कर्षतो जघन्याचान्तर्मुहूर्त्त निरन्तरम् ॥ २ ॥ इत्यर्थतः पञ्चसंग्रहे ॥ इत्यागतिः ॥ सम्यक्त्वं देशविरतिं, चारित्रं मुक्तिमप्यमी । लभन्तेऽनन्तरभवे, लढा नरभवादिकम् ॥ ९१ ॥ अनन्तरभवे चैते, न लभन्ते कदाचन । अर्हखं चक्रवर्त्तित्वं, बलत्वं वासुदेवताम् ॥९२॥ लब्धिष्वष्टाविंशतौ या, | येषामिह नृजन्मनि । संभवन्ति प्रसङ्गेन, दइर्यन्ते ता यथागमम् ॥९३॥ कफविपुण्मलामर्शसर्वोषधिमहर्द्धयः । संभिन्नश्रोतोलन्धिश्च विपुलर्जुधियावपि ॥ ९४ ॥ चारणाशीविषावधिसार्वश्यगणधारिताः । चक्रित्वाहत्त्वबलताविष्णुत्वं पूर्वधारिता ॥ ९५ ॥ क्षीरमध्वाज्याश्रवाश्च, वीजकोष्ठधियौ तथा । पदानुसारिता तेजोलेश्याssहारकवैक्रिये ॥ ९६ ॥ शीतलेश्याऽक्षीणमहानसी पुलाकसंज्ञिता । इत्यष्टाविंशतिर्भव्य पुंसां सल्लब्धयो मताः ॥ ९७ ॥ चत्रर्हद्विष्णुबलसंभिन्नश्रोतस्त्वपूर्विताः । गणभृत्वं चारणत्वं, पुलाकाहारके अपि ॥ ९८ ॥ विना दिशामूः स्त्रीष्वन्याः, स्युरष्टादश लब्धयः । आखार्हन्त्यं कदाचिद्यत्तत्त्वाश्चर्यतयोदितम् ॥ ९९ ॥ दशैताः केवलित्वं च विपुलर्जुधियावपि । अभव्यपुंसां नैवैताः संभवन्ति त्रयोदश ॥ १०० ॥ अभव्ययोषितामेताः,
Jain Educational
५
१०
१४
(5)inelibrary.org
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक द्रव्य. शक्षीराद्याश्रवसंयुताः। न स्युश्चतुर्दशैतासां, ततो ज्ञेयाश्चतुर्दश ॥१॥ इत्यनन्तराप्तिः ॥ अनन्तरभवे चैते, मनुष्याणां ७सगे:
प्राप्य मानुष्यकादिकम् । सिद्ध्यन्त्येकत्र समये, विंशतिर्नाधिकाः पुनः॥१॥ तत्रापि पुंमनुष्येभ्यो, जाताःलब्ध्यादि ॥१०७॥
सिद्ध्यन्ति ते दश । नारीभ्योऽनन्तरं जाताः, क्षणे ह्यकत्र विंशतिः॥१॥ इति समयसिद्धिः ॥ लेश्याहारदिशासर्वा, एषां संहननान्यपि। सर्वे कषायाः स्युः संज्ञाश्चेन्द्रियाण्यखिलान्यपि ॥२॥ लेश्याश्चतस्रः कृष्णाद्या, भवन्त्यसङ्ख्य जीविनाम् । एषामाचं संहननमेकमेव प्रकीर्तितम् ॥३॥ इति द्वारषट्कं॥ सद्भावाद्यक्तसंज्ञानामेते संज्ञितया मताः। दीर्घकालिक्यादिकानामपि सत्त्वात्तथैव ते ॥४॥ इति संज्ञिता ॥ एतेषु भवतः पुंस्त्रीवेदावसङ्ख्यजीविषु । पुंभिस्तुल्याः स्त्रियश्चैषु, स्युर्युग्मित्वेन सर्वदा ॥५॥ पुंस्त्रीक्लीवास्त्रिधाऽन्ये स्युस्तत्र पुभ्यः स्त्रियो मताः । सप्तविंशत्यतिरिक्ताः, सप्तविंशतिसंगुणाः॥६॥ गर्भजाः क्लीवास्तु पुमाकारभाजः पुंसु ख्याकारभाजस्तु स्त्रीषु गण्यन्ते इति वृद्धवादः ॥ इति वेदः॥ तिस्रो दृशो ज्ञानाज्ञानदर्शनान्यखिलान्यपि । द्वादशेत्युपयोगाः स्युस्त्रिधौजःप्रमुखाहृतिः॥७॥ आहारस्य कावलिकस्यान्तरं स्यात्वभावजम् । ज्येष्ठं दिन-10 वयं प्राग्वदनाहारकतापि च ॥ ८॥ द्विक्षणा विग्रहगतो, समुद्घाते तु सप्तमे । भवत्यनाहारकता, तृतीयादि-16 क्षणत्रये ॥९॥ अयोगित्वे पुनः सा स्यादसयसमयात्मिका । गुणस्थानानि निखिलान्येषु योगास्तथाखिला:
॥१०७॥ ॥१०॥ इति द्वारसप्तकं ॥ गर्भजानां मनुष्याणामथ मानं निरूप्यते । एकोनत्रिंशताऽद्देस्ते, मिता जघन्यतोऽपि हि ॥ ११॥ ते चामी-"छतिति ख पण नव तिग चउ पण तिग नव पंच सग तिग चउरो । छ दु चउ इग
२५
Jan Educator
For Private Personal use only
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
पण दु छ इग अड दुदु नव सग जहन्न नरा॥१२॥इति पर्यन्तवर्सिनोऽस्थानादारभ्याङ्कस्थानसंग्रहः॥७९२२-1 S८१६२६१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६॥ एक दस सयं सहस्सं दससहस्सं लक्खं दहलक्खं, कोडिं दहकोडिं
कोडिसयं कोडिसहस्सं दसकोडिसहस्सं कोडिलक्खं, दहकोडिलक्खं कोडाकोडी दहकोडाकोडि कोडाको-IN डिसयं कोडाकोडिसहस्सं दहकोडाकोडिसहस्सं कोडाकोडिलक्खं दहकोडाकोडिलक्खं, कोडाकोडिकोडी दहकोडाकोडिकोडी कोडाकोडिकोडिसयं कोडाकोडिकोडिसहस्सं दहकोडाकोडिकोडिसहस्सं कोडाकोडिकोडिलक्खं, दहकोडाकोडिकोडिलक्खं कोडाकोडिकोडिकोडि इत्याद्यङ्कवाचनप्रकारः॥ एतेषामेव एकोनत्रिंशतो|ऽङ्कस्थानानां पूर्वपुरुषैः पूर्वपूर्वाङ्गैः परिसङ्ख्यानं कृतं तदुपदश्यते, तत्र चतुरशीतिर्लक्षाणि पूर्वाङ्ग, चतुरशीति लक्षाश्चतुरशीतिलःगुण्यन्ते ततः पूर्व भवति, तस्य परिमाणं-सप्ततिः कोटिलक्षाणि षट्पञ्चाशत्कोटीसहस्राणि (७०५६००००००००००) एतेन पूर्वोक्ताङ्कराशेर्भागो हियते, तत इदमागतं-"मणुआण जहन्नपदे एकारस पुवकोडिकोडिओ। बावीस कोडिलक्खा कोडिसहस्सा य चुलसीई ॥१॥ अट्ठेव य कोडिसया । पुवाण दसुत्तरा तओ हुंति । एक्कासीई लक्खा पंचाणउई सहस्सा य ॥२॥ छप्पन्ना तिन्नि सया पुवाणं पुत्ववण्णिआ अण्णे । एत्तो पुवंगाई इमाई अहियाई अण्णाइं॥३॥ लक्खाई एगवीसं पुवंगाण सयरीसहस्साई।। छच्चेवेगूणहा पुवंगाणं सया होंति ॥४॥ तेसीइ सयसहस्सा पण्णासं खलु भवे सहस्सा य । तिन्नि सया|
ORDOGSPOOOOOOOZ002RRORE
M
Jain Educa
t ional
For Private Personal use only
w
.jainelibrary.org
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोक. द्रव्य. ७ सर्गः
॥ १०८ ॥
Jain Education
छत्तीसा । एवइया अविगला मणुया ॥ ५ ॥” उत्कर्षेण समुदिता, गर्भसंमूर्च्छजा नराः । असङ्ख्येयकालचक्रसमयैः प्रमिता मताः ॥ ६ ॥ मनुष्या छुत्कृष्टपदेऽपि श्रेण्यसङ्ख्येय भागगत प्रदेशराशिप्रमाणा लभ्यन्ते इति तु प्रज्ञापनावृत्तौ ॥ इति मानं ॥ गर्भजाः पुरुषाः स्तोकास्ततः सङ्ख्यगुणाः स्त्रियः । ततोऽसङ्ख्यगुणाः षण्ढनराः संमूच्छिमैर्युताः ॥ १३ ॥ इति लछ्यल्पबहुता ॥ दक्षिणोत्तरयोः स्तोकाः स्युर्मनुष्या मिथः समाः । प्राच्यां ततः सङ्ख्यगुणाः, प्रतीच्यां च ततोऽधिकाः ॥ १४ ॥ भरतैरावतादीनि क्षेत्राण्यल्पान्यपागुदम् । ततः सङ्ख्यगुणानि स्युः, पूर्वपश्चिमयोर्दिशोः ॥ १५ ॥ किन्त्वधोलौकिक ग्रामेष्वनल्पाः स्युर्नरा यतः । ततः प्रतीच्याम धिका, मनुष्याः प्राच्यपेक्षया ॥ १६ ॥ इति दिगपेक्षयाऽल्पबहुता ॥ अन्तर्मुहूर्त्तमल्पिष्टं, मनुष्याणां महान्तरम् । कालोऽनन्तः स चोत्कृष्टा, कायस्थितिर्वनस्पतेः ॥ १७ ॥ चक्रित्वे चान्तरं प्रोक्तं, साधिकाब्धिमितं लघु । ज्येष्ठं च पुद्गलपरावत्तार्धं पञ्चमाङ्गके ॥ १८ ॥ नृणामिति व्यतिकरा विवृता मयैवं, सम्यग् विविच्य समयात्खगुरुमसत्या । पूर्णापणादिव कणाः किल मौक्तिकानां, दीपत्विषाऽऽसवणिजा मणिजातिवेन्ना ॥ १९॥ (वसन्ततिलका) विश्वाश्चर्यदकीर्त्तिकीर्त्तिविजयश्रीचाच केन्द्रा तिषद्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्त्वप्रदीपोपमे, सर्गों निर्गलितार्थसार्थसुभगः पूर्णः सुखं सप्तमः ॥ २० ॥
॥ इति श्रीलोकप्रकाशे मनुष्याधिकाररूपः सप्तमः सर्गः समाप्तः ॥ ग्रन्थाग्रम् १५७ ॥
tional
मनुष्याणां संख्यादि
१५
२०
॥ १०८ ॥
२५
२६
jainelibrary.org
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
9-20200202000
॥ अष्टमः सर्गः प्रारभ्यते । सुराश्चतुर्धा भवनव्यन्तरज्योतिषा अपि । वैमानिका इति प्रोक्तास्तान् प्रभेदैरथ ब्रुवे ॥१॥ दशधा भवनेशाश्चासुरनागसुपर्णकाः। विद्युदग्निद्वीपवार्द्धि दिग्वायुस्तनिता इति ॥२॥ एते च सर्वे कुमारोपपदा इति ज्ञेयं ॥ परमाधार्मिकाः पञ्चदशधा परिकीर्तिताः । यथार्थे मभिः ख्याता, अम्बप्रभृतयश्च ते ॥ ३ ॥ अम्बाम्बरीषशवलश्यामरौद्रोपरुद्रकाः। असिपत्रधनु:कुम्भाः , महाकालश्च कालकः॥४॥ वैतरणी वालुकश्च, महाघोषः खरखरः। एतेऽसुरनिकायान्तर्गताः पञ्चदशोदिताः॥५॥ नीत्वोज़ पातयत्याद्यो, नारकान् खण्डशः परः । करोति भ्राष्ट्रपाकाहा॑न् , तृतीयोऽब्रहृदादिभित् ॥ ६॥ शातनादिकरस्तेषां, तुरीयः पञ्चमः पुनः । कुन्तादौ प्रोतकस्तेषां, षष्ठोऽङ्गोपाङ्गभङ्गकृत् ॥७॥ अस्याकारपत्रयुक्तं, वनं सृजति सप्तमः। धनुर्मुक्तार्धचन्द्रादिबाणैर्विद्ध्यति चाष्टमः ॥ ८॥ नवमः पाककृत्तेषां, कुम्भादौ दशमः पुनः । खण्डयित्वाऽसकृत् श्लक्ष्णमांसखण्डानि खादति ॥९॥ तान् कण्ड्वादौ पचत्येकादशश्च द्वादशः सृजेत् । नदी वैतरणी तप्तरक्तपूयादिपुरिताम् ॥ १०॥ कदम्बपुष्पाद्याकारवालुकासु पचेत्परः । नश्यतस्तान् महाशब्दो, निरुणद्धि चतुर्दशः॥ ११ ॥ आरोप्य शाल्मलीवृक्षं, वज्रकण्टकभीषणम् । खरखरः पञ्चदशः, समाकर्षति नारकान् ॥ १२॥ परमाधार्मिकास्ते च, संचितानन्तपातकाः। मृत्वाऽण्डगोलिकतयोत्पद्यन्तेऽत्यन्तदुःखिताः ॥१३॥ यत्र सिन्धुः प्रविशति,
20900ams02004000
Jain Education
national
For Private
Personal Use Only
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे ८ देवसर्गः
॥१०९॥
Jain Education
नदी लवणवारिधिम् । योजनैर्दिशि याम्यायां, पञ्चपञ्चाशता ततः ॥ १४ ॥ अस्ति स्थलं वेदिकान्तः, प्रतिसंतापदायकम् । प्रमाणतो योजनानि, सार्धानि द्वादशैव तत् ॥ १५ ॥ योजनानि त्रीणि सार्धान्युदेवोऽत्र महो दधेः । सप्तचत्वारिंशदल, गुहाः सन्त्यतितामसाः ॥ १६ ॥ आद्यसंहननास्तासु, वसन्त्युरुपराक्रमाः । नरा जलचरा मद्यमांस स्त्री भोगलोलुपाः ॥ १७॥ दुर्वर्णाः कठिनस्पर्शाः, भीषणा घोरदृष्टयः । अह्यर्घद्वादशकरदेहाः संख्येयजीविताः ॥ १८ ॥ तत्र रत्नद्वीपमस्ति, स्थलात्संतापदायकात् । वारिधौ योजनैरेकविंशता भूरिभानवम् ॥ १९ ॥ घरहान् वात्रिकांस्तेऽथ, मनुष्यास्तन्निवासिनः । लिम्पन्ति मद्यैर्मासैश्च तेषु तानि क्षिपन्ति च ॥ २० ॥ मद्यमांसालाबुपात्रैः, प्रपूर्य वहनानि ते । गच्छन्ति जलधौ मद्यमांसैस्तान् लोभयन्ति च ॥ २१ ॥ मद्यमांसास्वा दलुब्धास्ततस्तदनुपातिनः । निपपन्ति घरद्वेषु, क्रमात्ते जलमानुषाः ॥ २२ ॥ मांसानि वह्निपक्वानि, जीर्णमधानि ते नराः । यावद्दिनानि द्वित्राणि, भुञ्जानाः सुखमासते ॥ २३ ॥ तावद्भटाः सुसन्नद्धा, रत्नद्वीपनिवासिनः । संयोजितान् घरहांस्तान, वेष्टयन्ति समन्ततः ॥ २४ ॥ वर्षे यावद्वाहयन्ति, घरहानतिदुःसहान् । तथापि तेषामस्थीनि, न स्फुटन्ति मनागपि ॥ २५ ॥ ते दारुणानि दुःखानि, सहमाना दुराशयाः । प्रपीड्य - माना वर्षेण, त्रियन्तेऽत्यन्तदुर्मराः ॥ २६ ॥ अथाण्डगोल कांस्तेषां जनास्ते रत्नकांक्षिणः । चमरीपुच्छवालाग्रैर्गु| फित्वा कर्णयोर्द्वयोः ॥२७॥ निवद्धय प्रविशन्त्यन्धौ, तानन्ये जलचारिणः । कुलीरतन्तुमीनायाः, प्रभवन्ति न बाधितुम् ॥ २८॥ युग्मम् । इति महानिशीथचतुर्थाध्ययनेऽर्धतः ॥ पिशाचा भूतयक्षाश्च, राक्षसाः किन्नरा अपि ।
परमाधार्मिकाः
१५
२०
२५
॥१०९॥ २७
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
किम्पुरुषा महोरगा, गन्धर्वा व्यन्तरा इमे ॥ २९॥ पिशाचास्तत्र सहजसुरूपाः सौम्यदर्शनाः। रत्नाभरणवदनीवाहस्ताः षोडशधा मताः ॥ ३० ॥ कूष्माण्डाः पटका जोषाः, अहिकाः कालेका अपि । चोक्षाऽचोक्षमहाँकालास्तथा वनपिशाचकाः॥३१॥ तूष्णीकास्तालमुखरपिशाचा देहसंज्ञकाः। विदेहाश्च महादेहास्तथाऽधस्तारका इति ॥ ३२॥ सुरूपप्रतिरूपातिरूपा भूतोत्तमा इति । स्कन्दिकाक्षा महावेगा, महास्कन्दिकसंज्ञकाः॥ ३३ ॥ आकाशकाः प्रतिच्छन्ना, भूता नवविधा अमी। सौम्याननाः सुरूपाश्च, नानाभक्तिविलेपनाः ॥३४॥ मानोन्मानप्रमाणोपपन्नदेहा विशेषतः। रक्तपाणिपादतलतालुजिह्वौष्ठपाणिजाः॥ ३५॥ किरीटधारिणो & नानारत्नात्मकविभूषणाः। यक्षास्त्रयोदशविधा, गम्भीराः प्रियदर्शनाः ॥३६॥ पूर्णमाणिश्वेतहरिसुमनो व्यतिपार्कतः। भद्राः स्युः सर्वतोभंद्राः, सुभद्रा अष्टमाः स्मृताः ॥३७॥ यक्षोत्तमा रूपयक्षी, धनाहारा धनीधिपाः। मनुष्ययक्षा इत्येवं, सर्वेऽप्येते त्रयोदश ॥ ३८॥ करालरक्तलम्बौष्ठास्तपनीयविभूषणाः । राक्षसाः सप्तधा प्रोक्तास्तेऽमी भीषणदर्शनाः॥३९॥ विघ्नां भीममहाभीमास्तथा राक्षसराक्षसाः। परे विनायकाः ब्रह्मराक्षसा जलराक्षसाः ॥ ४० ॥ मुखेष्वधिकरूपाढ्याः, किन्नरा दीप्रमौलयः । दशधाः किन्नरा। रूपशालिनो हृदयंगमाः॥४१॥ रतिप्रिया रतिश्रेष्ठाः, किंपुरुषा मनोरमाः । अनिन्दिताः किंपुरुषोत्तमाश्च ॥ किन्नरोत्तमाः॥४२॥ मुखोरुबाहूद्यद्रूपाश्चित्रनगनुलेपनाः। दश किंपुरुषास्ते सत्पुरुषा पुरुषोत्तमाः॥४३॥ यशस्वन्तो महादेवा, मरुन्मेरुप्रभा इति । महातिपुरुषाः किंच, पुरुषोः पुरुषर्षभाः॥४४ ॥ महोरगा दश
O
For Private
Jain Educat
jalnelibrary.org
Personal Use Only
i onal
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे ८ देवसर्गः
॥११०॥
Jain Educat!
विधा, भुजंगा भोगंशालिनः । महाकाया अर्तिकाया, भास्वन्तः स्कन्धंशालिनः ॥ ४५ ॥ महेश्वंक्षा मेरुकान्ता, महोवेगा मनोरंमाः । सर्वेऽप्यमी महावेगा, महाङ्गाचित्रभूषणाः ॥ ४६ ॥ गन्धर्वा द्वादशविधाः, सुस्वराः प्रियदर्शनाः । सुरूपा मौलिमुकुटधरा हारविभूषणाः ॥ ४७ ॥ हाहहहेतुम्बैरवो, नारेंदा ऋषिवादिकाः । भूतदिककादम्याँ, महाकादम्बरैवैताः ॥ ४८ ॥ विश्ववसुगीत रतिसद्गीतयशसस्तथा । सप्ताशीतिरिमे सर्वे, तृतीयाङ्गेऽष्ट ते त्वमी ॥ ४९ ॥ " अणपन्नी पणपन्नी इसिवाई भूअवाइए चेव । कंदी य महाकंदी कोहंडे चेव पयए य ॥ ५० ॥ तथा-अन्नपानवस्त्र वेश्मशय्यापुष्पफलोभये । येऽल्पानल्पत्वसरसविरसत्वादिकारकाः ॥५१॥ अन्नादिजृम्भकास्तेऽष्टौ स्युर्विद्याजृम्भकाः परे । ये त्वन्नाद्यविभागेन, जृम्भन्तेऽव्यक्तजृम्भकाः ॥ ५२॥ युग्मम् ॥ विचित्रचित्रयमक वैताढ्यकाञ्चनादिषु । वसन्ति शैलेषु दशाप्यमी पल्योपमायुषः ॥ ५३ ॥ नित्यं प्रमुदिताः क्रीडापराः सुरतसेविनः । खच्छन्दचारित्वादेते, जृम्भन्त इति जृम्भकाः ॥ ५४ ॥ क्रुद्धानेतांश्च यः पश्येत्, सोऽयशोऽनर्धमाप्नुयात् । तुष्टान् पश्यन् यशोविद्या, विन्ते वज्रमुनीन्द्रवत् ॥ ५५ ॥ शापानुग्रहशीलत्वमेषां शक्तिश्च तादृशी । अयमर्थः पञ्चमाङ्गे, शते प्रोक्तश्चतुद्दशे ॥ ५६ ॥ शतं पञ्चोत्तरं भेदप्रभेदैर्व्यन्तरामराः । भवन्ति नानाक्रीडाभिः क्रीडन्तः काननादिषु ॥ ५७ ॥ ज्योतिष्काः पञ्च चन्द्रार्कग्रहनक्षत्रतारकाः । द्विधा स्थिराश्वराश्चेति, दश भेदा भवन्ति ते ॥ ५८ ॥ वैमानिका द्विधा कल्पातीतकल्पोपपन्नकाः । कल्पोत्पन्ना द्वादशधा, ते त्वमी देवलोकजाः ॥ ५९ ॥ सौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलान्तकजाः । शुक्रसहस्रारानत
ational
सभेदा: पिशाचाद्याः
२०
२५
॥११०॥ २८
v.jainelibrary.org
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०५व्यन्तराः
प्राणतजा आरणाच्युतजाः॥६०॥(आर्या) आद्यकल्पद्वयाधःस्थास्तृतीयाधस्तना अपि। लान्तकत्रिदिवाधस्थास्त्रिधा किल्बिषिका अमी ॥६१॥ कल्पातीता द्विधा ग्रैवेयकानुत्तरसंभवाः । स्वामिसेवकभावादिकल्पेन रहिता इमे ॥ ६२॥ अधस्तनाधस्तनं च, स्याधस्तनमध्यमम् । अधस्तनोपरितनं, मध्यमाधस्तनं ततः॥६॥ भवेन्मध्यममध्यं च, मध्योपरितनं ततः। उपरिस्थाधस्तनं चोपरिस्थमध्यमं पुनः ॥ ६४ ॥ उपरिस्थोपरितनं, १० असुराद्याःतजा ग्रैवेयकाः सुराः। विजयादिविमानोत्थाः, पञ्चधाऽनुत्तरामराः॥६५॥ सारखतादित्य१५ परमाधार्मिकाः वहिवरुणा गईतोयकाः। तुषिताऽव्यावाधाग्नेयरिष्ठा लोकान्तिका अमी ॥६६॥ पर्याप्तापर
भेदेन, सर्वेऽपि द्विविधा अमी । जाताः षट्पञ्चाशमेवं, सुरभेदाः शतत्रयम् ॥ ६७॥पञ्चमाझे १. ज्योतिष्काः
तु-द्रव्यदेवा नरदेवा, धर्मदेवास्तथा परे। देवाधिदेवा ये भावदेवास्ते पञ्चमा मताः॥ ६८॥ ३ किल्विषाः तत्र च-पञ्चेन्द्रियो नरस्तिर्यक, संपादितशुभायतिः । उत्पत्स्यते यो देवत्वे, द्रव्यदेवः स | ९ गैवेयकाः
उच्यते॥६॥नरदेवाः सार्वभौमा, धर्मदेवास्तु साधवः । देवाधिदेवा अर्हन्तो, भावदेवाः सुरा ५ अनुत्तराः ९ लोकान्तिकाः इमे ॥ ७० ॥ इह भावदेवैरधिकारः॥ इति भेदाः॥त्रैलोक्येऽपि स्थानमेषां, क्षेत्रलोके प्रवक्ष्यते। १७८+२=३५६ _ स्थानोत्पादसमुद्घातैलोकासंख्यांशगा अमी ॥७१ ॥ इति स्थानं ॥ पर्याप्तयः षडप्यषां, पश्चाप्येकविवक्षया । वाक्चेतसोर्दश प्राणा, एतेषां परिकीर्तिताः॥७२॥ इति पर्याप्ति।चतस्रो योनिलक्षाः स्युः, लक्षाश्च कुलकोटिजाः। द्वादशैषामचित्ता स्याद्योनिः शीतोष्णसंवृता ॥७३ ॥ इति द्वारत्रयं ॥ पयोध-
920202920282889790/aarae/a020
१२ कल्पाः
न्द्रियो नरस्दिवास्तथा परे। देवाशमेवं, सुरभेदाः
१४
Jain Educ
a
tional
vw.jainelibrary.org
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे ८ देवसर्गः
॥१११॥
Jain Education
यस्त्रयस्त्रिंशदुत्कर्षेण भवस्थितिः । सहस्राणि दशाब्दानां स्यादेषां सा जघन्यतः ॥ ७४ ॥ इति भवस्थितिः ॥ कायस्थितिस्त्वेषां भवस्थितिरेव ॥ देहास्त्रयस्तैजसं च, कार्मणं वैक्रियं तथा । संस्थानं चतुरस्रं स्याद्रम्यं पुण्यानुसारतः ॥ ७५ ॥ इति द्वारद्वयं ॥ उत्कर्षतः सप्त हस्ता, वपुर्जघन्यमः पुनः । अङ्गुलासंख्य भागः स्यादादौ स्वाभाविकं ह्यदः ॥ ७६ ॥ तत्कृत्रिमं वैक्रियं साधिकैकलक्षयोजनम् । ज्येष्ठमङ्गुल संख्यांशमानमादौ च तल्लघु ॥ ७७ ॥ इत्यङ्गमानं ॥ आयाः पञ्च समुद्घाताः, पञ्चखेतेषु यान्त्यमी । पर्याप्तगर्भजनरतिर्यक्षु संख्यजीविषु ॥ ७८ ॥ पर्याप्तवादरक्ष्माम्बुप्रत्येकक्षितिजेषु च । गर्भजा मनुजाः पञ्चेन्द्रियास्तिर्यच एव च ॥ ७९ ॥ संमूर्छिमा गर्भजाञ्चागच्छन्त्यमृतभोजिषु । विशेषस्त्वत्रोदितः प्राकू, क्षेत्रलोकेऽपि वक्ष्यते ॥ ८० ॥ मुहूर्त्तानि द्वादशैषामुत्पत्तिच्यवनान्तरम् । सामान्यतः स्यादुत्कृष्टं जघन्यं समयावधि ॥ ८१ ॥ उत्पद्यन्ते च्यवन्तेऽमी, एकस्मिन्समये पुनः । एको द्वित्राश्च संख्येया, असंख्येयाश्च कर्हिचित् ॥ ८२ ॥ इति द्वारत्रयं ॥ सम्यक्त्वं देशविरतिं, चारित्रं मुक्तिमप्यमी । लभन्ते लघुकर्माणो, विपद्यानन्तरे भवे ॥ ८३ ॥ इत्यनन्तराप्तिः ॥ सिद्ध्यन्त्यनन्तरभवे, एकस्मिन्समये त्वमी । उत्कर्षतः साष्टशतं, विशेषस्त्वेष तत्र च ॥ ८४ ॥ भवनेशा व्यन्तराश्च सर्वे दश दशैव हि । तद्देव्यः पञ्च पञ्चैव, दश ज्योतिष्कनिर्जराः ॥ ८५ ॥ ज्योतिष्कदेव्यश्चैकस्मिन् क्षणे सिद्ध्यन्ति विंशतिः । वैमानिकाः साष्टशतं, तद्देव्यो विंशतिः पुनः ॥ ८६ ॥ इति समयेसिद्धिः ॥ लेश्याहारदिशां षट्कं, न संहननसंभवः । कषाय संज्ञेन्द्रियाणि, सर्वाण्येषां भवन्ति च ॥ ८७ ॥
"
देवानां
भेदादि
२०
२५
॥१११॥
२८
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
इति द्वारषट्कं ॥ सर्वेऽप्येते संज्ञिनः स्युः पुंस्त्रीवेदयुजः परम् । देव्यः सुरेभ्यो द्वात्रिंशद्गुणा द्वात्रिंशताऽधिकाः ॥ ८८ ॥ इति द्वारद्वयं ॥ एषां स्युर्दृष्टयस्तिस्र, आयं ज्ञानत्रयं भवेत् । सम्यग्दृशां परेषां तु स्यादज्ञानत्रयं ध्रुवं ॥ ८९ ॥ इति द्वारद्वयं ॥ दर्शनत्रयमाद्यं स्यादेषां सम्यक्त्वशालिनाम् । दर्शनद्वयमन्येषामुपयोगो द्विधा ततः ॥ ९० ॥ उपयोगाः षडेतेषां ज्ञानदर्शनयोस्त्रयम् । सम्यग्दृशां परेषां तु, त्र्यज्ञानी द्वे च दर्शने ॥ ९१ ॥ एतेषामोजआहारो, लोमाहारोऽपि संभवेत् । न स्यात्कावलिकः स्यात्तु, मनोभक्षणलक्षणः ॥९२॥ अन्तरं पुनरेतस्य चतुर्थभक्त संमितम् । जघन्यमन्यत्वव्दानां त्रयस्त्रिंशत्सहस्रकाः ॥९३॥ इतिद्वारम् ॥ गुणस्थानानि चत्वारि, योगाचैकादशोदिताः । औदारिकाहारकाख्यतन्मित्रांश्च विनाऽखिलाः ॥ ९४ ॥ इतिद्वारद्वयं ॥ प्रतरासंख्यभागस्थासंख्येयश्रे निवर्त्तिभिः । नभः प्रदेशैः प्रमिताः प्रोक्ताः सामान्यतः सुराः ॥ ९५ ॥ क्षेत्रपल्योपमासंख्यभागस्था भ्रांशसंमिताः । देवा अनुत्तरोत्पन्नाः, संख्येयास्तत्र पञ्चमे ॥ ९६ ॥ बृहत्तरक्षेत्रपल्यासंख्यांशाभ्रांशसंमिताः । भवन्त्यथोपरितन ग्रैवेयकत्रिकामराः ॥ ९७ ॥ मध्यमेऽधस्तनेऽप्येवं, त्रिके कल्पेऽच्युतेऽपि च । आरणे प्राणते चैवानतेऽपीयन्त एव ते ॥ ९८ ॥ किंतु पल्यासंख्यभागो, बृहत्तरो यथोत्तरम् । एकमान मितेष्वेवं, | स्यात्परेष्वपि भावना ॥९९॥ सहस्रार महाशुक्रलान्तक ब्रह्मवासिनः। माहेन्द्रसनत्कुमारदेवाः प्रत्येकमीरिताः ॥ १०० ॥ घनीकृतस्य लोकस्य, श्रेण्यसंख्यांशवर्त्तिभिः । नभःप्रदेशैः प्रमिता, विशेषोऽत्रापि पूर्ववत् ॥ १ ॥ अङ्गुलप्रमितक्षेत्र प्रदेशरा शिसंगते । तृतीयवर्गमूलघ्ने, द्वितीयवर्गमूलके ॥२॥ यावान् प्रदेशराशिः स्यादेकप्रादेशिकीष्वथ ।
Jain Educatinational
५
१०
१४
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे ८ देवसर्गः
॥११२॥
श्रेणीषु तावन्मानासु, लोकस्यास्य घनात्मनः॥शानभःप्रदेशा यावन्तस्तावानीशाननाकगा देवदेवीसमुदायो, देवानां निर्दिष्टःश्रुतपारगैः॥४॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।त्रयस्त्रिंशत्तमोऽशोऽस्य,किञ्चिदूनश्च योभवेत् । ईशानदेवास्तावन्तः, मानम् केवलाः कथिताः श्रुते ॥५॥ एवं च-सौधर्मभवनाधीशव्यन्तरज्योतिषामपि ।भाव्या खखसमुदयत्रयस्त्रिंशांशमानता ॥६॥ केवलं देवदेवीसमुदाय एव वक्ष्यते। ईशानतश्च सौधर्म, स्यात्संख्येयगुणाधिकः।देवदेवीसमुदायो, भवनेशानथ ब्रुवे ॥७॥ अङ्गुलप्रमितक्षेत्रप्रदेशराशिवर्तिनि । द्वितीयवर्गमूलने, वर्गमूले किलादिमे ॥८॥ यावान् प्रदेशराशिः स्यात्तावन्मानासु पंक्तिषु । घनीकृतस्य लोकस्याथैकप्रादेशिकीषु वै ॥ ९ ॥ नभःप्रदेशा यावन्तस्तावान् पुरुषपुंगवैः । देवदेवीसमुदायः, ख्यातो भवनवासिनाम् ॥ १०॥ त्रिभिर्विशेषकम् । यावन्ति संख्ययोजनकोटीमानानि दैर्ध्यतः। सूचिरूपाणि खण्डानि, स्युरेकप्रतरे किल ॥११॥ व्यन्तराणां देवदेवीसमुदायोभवेदियान्।ज्योतिष्कदेवदेवीनां, प्रमाणमथ कीर्त्यते॥१२॥ षट्पञ्चाशांगुलशतद्वयमाना हि दैयतः। यावन्त एकप्रतरे, सूचिरूपाः स्युरंशकाः ॥१३ ॥ ज्योतिष्कदेवदेवीनां, तावान् समुदयो भवेत् । उक्तं प्रमाणमित्येवमथाल्पबहुतां ब्रुवे ॥ १४ ॥ युग्मम् । इति मानं ॥ स्तोकाः सर्वार्थसिद्धस्था, असंख्येयगुणास्ततः । शेषा अनुत्तरा देवास्ततः संख्यगुणाः क्रमात् ॥ १५ ॥ ऊर्ध्वमध्याधःस्थिते स्युप्रैवे-1॥११२॥ | यकत्रिकत्रये । अच्युते चारणे चैव, प्राणते चानतेऽपि च ॥ १६ ॥ अधोऽधोत्रैवेयकादावनुत्तराद्यपेक्षया । भाव्या विमानवाहुल्याद्देवाः संख्यगुणाः क्रमात् ॥ १७ ॥ समश्रेणिस्थयोर्यद्यप्यारणाच्यु
TOTROPO20090882829002020272
२८
Jain Educat
onal
For Private Personel Use Only
Dainelibrary.org
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
202002020129
तकल्पयो। विमानसंख्या तुल्यैव, तथापि कृष्णपाक्षिकाः॥१८॥ उत्पद्यन्ते स्वभावेन, दक्षिणस्यां हि भूरयः। शुक्लपाक्षिकजीवेभ्यो, बहवश्च भवन्ति ते ॥१९॥ ततोऽच्युतापेक्षया स्युनिर्जरा आरणेऽधिकाः। समश्रेणिस्थितावेवमन्येष्वपि विभाव्यताम् ॥ २०॥ शुक्लपाक्षिककृष्णपाक्षिकलक्षणं चैवं-बहुपापोदया: क्रूरकर्माणः कृष्णपाक्षिकाः । स्युर्दीर्घतरसंसारा, भूयांसोऽन्यव्यपेक्षया ॥२१॥ तथाखभावात्ते भव्या, अपि प्रायः सुरादिषु । उत्पद्यन्ते दक्षिणस्यां, प्राचुर्येणान्यदिक्षु न ॥ २२॥ तथा:-"पायमिह कूरकम्मा भवसिद्धीयावि दाहिजिल्लेसु । नेरइयतिरियमणुआसुराइठाणेसु गच्छति ॥२३॥ जेसिमवड्डो पुग्गलपरियट्टो सेसओ उ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिए पुण कण्हपक्खीओ ॥ २४ ॥” इति प्रज्ञापनावृत्तौ ॥ आनतेभ्योऽसंख्यगुणाः, सहस्रारसुराः स्मृताः। महाशुक्रे लान्तके च, ब्रह्ममाहेन्द्रयोः क्रमात् ॥ २५॥ सनत्कुमार ईशानेऽप्यसंख्यन्ना यथोत्तरम् । ऐशानेभ्यश्च सौधर्मदेवाः संख्यगुणाधिकाः ॥ २६ ॥ ननु-कृष्णपाक्षिकबाहुल्याद्यथा माहेन्द्रनाकिनः। असंख्येयगुणाः प्रोक्ताः, सनत्कुमारनाकिनः॥ २७॥ विमानानां कृष्णपाक्षिकाणां चाधिक्यतस्तथा। ते सौधर्मेऽप्यसंख्यनाः, कथं नेशाननाकिनः ? ॥२८॥ अत्रोच्यते हि वचनप्रामाण्यादुच्यते तथा । विचारगोचरो नास्मादृशामाप्सोदितं वचः॥ २९ ॥ तथोक्तं प्रज्ञापनावृत्ती-"नन्वियं युक्तिर्माहेन्द्रसनत्कुमारयोरपि उक्ता, परं तत्र माहेन्द्रकल्पापेक्षया सनत्कुमारकल्पे देवा असंख्येयगुणा उक्ताः, इह तु सौधर्मे कल्पे संख्येयगुणा उक्तास्तदेतत्कथं ?, उच्यते, वचनप्रामाण्यात् , न चात्र पाठनमो, यतोऽन्यत्राप्युक्तं-"ईसाणे सवत्थवि |
0
0202012028/20
Join Educati
onal
For Private
Personal Use Only
iainelibrary.org
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे ८ देवसर्गः
॥ ११३ ॥
बत्तीसगुणाउ होंति देवीओ। संखेज्जा सोहम्मे तओ असंखा भवणवासी ॥ ॥ इति । असंख्यघ्नाश्च सौधर्मदेवेभ्यो भवनाधिपाः । भवन्ति भवनेशेभ्योऽसंख्यन्ना व्यन्तराः सुराः ॥ ३० ॥ ज्योतिष्काणां देवदेवीवृन्दः संख्यगुणस्ततः । खखदेवेभ्यश्च देव्यः सर्वाः संख्यगुणाः स्मृताः ॥ ३१॥ इति लच्यल्पबहुता ॥ पूर्वस्यां च प्रतीच्यां च, स्तोका भवनवासिनः । उत्तरस्यां दक्षिणस्यामसंख्येयगुणाः क्रमात् ॥ ३२ ॥ प्राक्प्रतीच्योर्हि भवनात्पत्वातस्तोका अमी किल । दक्षिणोत्तरयोस्तेषां क्रमाधिक्यादिमेऽधिकाः ॥ ३३ ॥ पूर्वस्यां व्यन्तराः स्तोका, विशेषेणाधिकाधिकाः । अपरस्यामुत्तरस्यां दक्षिणस्यां यथाक्रमम् ॥ ३४ ॥ व्यन्तराः शुषिरे भूम्ना, प्रचरन्ति ततोऽधिकाः । साधोग्रामायां प्रतीच्याममी स्युः प्राच्यपेक्षया ॥ ३५ ॥ उदीच्यां दक्षिणस्यां च युक्तमेवाधिकाधिकाः । स्वस्थाननगरावासबाहुल्यतो यथाक्रमम् ॥ ३६ ॥ पूर्वस्यां पश्चिमायां च स्तोका ज्योतिष्कनाकिनः । दक्षिणस्यामुदीच्यां च स्युः क्रमेणाधिकाधिकाः ॥ ३७ ॥ प्राक्प्रतीच्योश्चन्द्र सूर्य द्वीपेषूद्यानदेशवत् । क्रीडास्पदेषु ज्योतिष्काः, स्वल्पाः प्रायेण सत्तया ॥ ३८ ॥ तेभ्योऽधिका दक्षिणस्यां, विमानानां बहुत्वतः । तथा कृष्णपाक्षिकाणां बाहुल्येनोपपाततः ॥ ३९ ॥ उदीच्यां मानससरस्येते क्रीडापरायणाः । आसते नित्यमेवं स्युर्दक्षिणापेक्षयाधिकाः ॥ १४० ॥ किंच - मानसाख्ये सरस्यस्मिन्, मत्स्याद्या येऽम्बुचारिणः । ते समीपस्थितज्योतिर्विमानादिनिरीक्षणात् ॥ ४१ ॥ उत्पन्नजातिस्मरणाः, किंञ्चिदाचर्य च व्रतम् । विहितानशनाः कृत्वा, निदानं सुख लिप्सया ॥ ४२ ॥ मृत्वा ज्योतिर्विमानेषूत्पद्यन्तेऽन्तिकवर्त्तिषु । ततः स्युर्दाक्षिणा
देवानां
मानम्
२०
२५
॥ ११३॥
२८
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Educatio
त्येभ्य, उत्तराहा इमेऽधिकाः ॥ ४३ ॥ स्युः सौधर्मप्रभृतिषु, ताविषेषु चतुर्ष्वपि । पूर्वस्यां पश्चिमायां च स्तोका एव सुधाभुजः ॥ ४४ ॥ ततश्चासंख्येयगुणा, उत्तरस्यां ततोऽधिकाः । दक्षिणस्याममी प्रोक्ताः श्रूयतां तत्र भावना ॥ ४५ ॥ तुल्या दिक्षु चतसृषु, विमानाः पङ्क्तिवर्त्तिनः । असंख्य योजनतताः, पुष्पावकीर्णकाः पुनः ॥४६॥ याम्योदीच्योरेव भूना, स्युः पूर्वापरयोस्तु न । उदक् ततोऽसंख्यगुणाः, प्राचीप्रतीच्यपेक्षया ॥ ४७ ॥ भूम्ना कृष्णपाक्षिकाणां दक्षिणस्यां समुद्भवान् । दक्षिणस्यां समधिका, उत्तरापेक्षया ततः ॥ ४८ ॥ तथाहुः प्रज्ञापनायां - "दिसाणुवाएणं सवत्थोवा देवा सोहम्मे कप्पे पुरच्छिमपच्चच्छिमेणं, उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं विसेस हिया " अत्र यद्यपि 'विविहा पुष्पवकिन्ना तयंतरे मुत्तु पुवदिसिं' इति वचनात् प्राच्यां पुष्पावकीर्णकाभावात्प्रतीच्यां च तन्निषेधाभावात्प्राच्यपेक्षया प्रतीच्यां देवा अधिका वक्तव्याः स्युस्तथाप्यत्र सूत्रे पूर्व - | पश्चिमावल्योरुभयतः सर्वापि दक्षिणोत्तरतयैव दिग्विवक्षितेति संभाव्यत इति वृद्धाः, यथा दक्षिणोत्तरार्धलोकाधिपती सौधर्मेशानेन्द्रौ इत्यत पूर्वपश्चिमे अपि दक्षिणोत्तरतयैव विवक्षिते इति ॥ पूर्वोत्तरपश्चिमासु, ब्रह्मलोकेऽल्पकाः सुराः । ततश्चासंख्येयगुणा, दक्षिणस्यां दिशि स्मृताः ॥ ४९ ॥ याम्यां हि बहवः प्रायस्तिर्यञ्चः कृष्णपाक्षिकाः । उत्पद्यन्तेऽन्यासु शुक्लपाक्षिकास्ते किलाल्पकाः ॥ ५० ॥ एवं च लान्तके शुक्रे, सहखारेऽपि नाकिनः । भूयांसो दक्षिणस्यां स्युस्तिसृष्वन्यासु चाल्पकाः ॥ ५१ ॥ आनतादिषु कल्पेषु ततश्चानुउत्तरावधि । प्रायश्चतुर्द्दिशमपि, समाना एवं नाकिनः ॥ ५२ ॥ तथाहुः प्रज्ञापनायां - "तेण परं बहुसमोववण्णगा
rational
१०
१४
w.jainelibrary.org
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे ९ ना. सर्गः
॥११४॥
Jain Education
| समणाउसो ! इति ॥ इति दिगपेक्षयाल्पबहुता ॥ जघन्यतोऽन्तर्मुहर्त्त, कालोऽनन्तोऽन्तरं गुरु । ज्येष्टकायस्थितिरूपः, स च कालो वनस्पतेः ॥ ५३॥ इत्यन्तरं ॥ इति यदिह मयोक्तं निर्जराणां स्वरूपं, तदुरुसमयवाचां वर्णिकामात्रमेव । तदुपहितविशेषान् को ह्यशेषान् विवेक्तुं प्रभुरिव नृपकोष्ठागारजाग्रत्कणौघान् ॥५४॥ (मालिनी) विश्वाश्चर्यदकीर्त्तिकीर्त्तिविजयश्री वाचकेन्द्रान्तिषद्राजश्रीतनयोऽनिष्टविनयः श्रीतेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्वप्रदीपोपमे, सर्गे निर्गलितार्थसार्थसुभगः सौख्येन पूर्णोऽष्टमः ॥ ५५ ॥ इति | श्रीलोकप्रकाशे देवाधिकाररूपोऽष्टमः सर्गः समाप्तः ॥ ग्रन्थानं १४४ अक्षराणि १० ॥ नवमः सर्गः प्रारभ्यते ॥
अथ नारकाः - रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमःप्रभाः । महातमः प्रभैतज्जाः, सप्तधा नारका मताः ॥ १ ॥ पर्याप्ता परभेदेन, चतुर्द्दश भवन्ति ते । स्थानोत्पातसमुद्घातैर्लोका संख्यांशवर्त्तिनः ॥ २ ॥ स्वस्थानतस्त्वधोलोकस्यैकदेशे भवन्त्यमी । विशेषस्थानयोगस्तु, क्षेत्रलोके प्रवक्ष्यते ॥ ३ ॥ इति भेदाः स्थानानि च ॥ पर्याप्तयः षडप्येषां चतस्रो योनिलक्षकाः । लक्षाणि कुलकोटीनामुक्तानि पञ्चविंशतिः ॥ ४ ॥ इति द्वारत्रयं ॥ स्युः शीतयोनयः केचित् केचित्तथोष्णयोनयः । जिनैरुक्ता नैरयिकाः, संवृताचित्तयोनयः ॥ ५ ॥ इति योनिसंवृत| त्वादि ॥ दश वर्षसहस्राणि, जघन्यैषां भवस्थितिः । उत्कृष्टा तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमसंमिता ॥ ६ ॥ इति भवस्थितिः ॥ कायस्थितिस्त्वेषां भवस्थितिरेव ॥ कार्यस्थितिस्त्रसत्वे स्याज्जघन्याऽन्तर्मुहूर्त्तिकी । द्वौ सागरस
JAIL
ional
नारक
भेदादि
२५
॥ ११४ ॥
२८
ainelibrary.org
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
लो. प्र. २०
हस्रौ च कियद्वर्षाधिको गुरुः ॥ ७ ॥ देहास्त्रयस्तैजसं च, कार्मणं वैक्रियं तथा । खाभाविककृतिमयोहुण्डं संस्थानमङ्गयोः ॥ ८ ॥ इति देहाः संस्थानं च । शतानि पञ्च धनुषां ज्येष्ठा खाभाविकी तनुः । लध्व्यङ्गुलासंख्य भागमानाऽऽरम्भक्षणे मता ॥९॥ खखखाभाविकतनोर्द्विगुणोत्तर वैक्रिया । गुर्वी लध्यङ्गुलसंख्य भागमाना भवेदसौ ॥ १० ॥ इत्यङ्गमानं । स्युश्चत्वारः समुद्घाता, आद्या एषां गतिः पुनः । पर्याप्तगर्भजनरतिरश्वोः | संख्यजीविनः ॥ ११ ॥ इति गतिः । नरपश्चाक्षतिर्यश्चः, पर्याप्ताः संख्यजीविनः । नारकेषु यान्ति संख्या, सामयिक्येषु देववत् ॥ १२ ॥ एषूत्पत्तिच्यवनयोर्मुहर्त्ता द्वादशान्तरम् । उत्कर्षतो जघन्याच्च, प्रज्ञप्तं समया त्मकम् ॥ १३॥ इत्यागतिः ॥ सामान्यतो नैरयिका, लभन्तेऽनन्तरे भवे । सम्यक्त्वं देशविरतिं, चारित्रं मुक्तिमध्यमी ॥ १४ ॥ विशेषतस्तु क्षेत्रलोके वक्ष्यते ॥ इत्यन. नराप्तिः ॥ उद्धृत्यौघान्नारकेभ्यो, लब्ध्वा नरभवादिकम् । यद्येकसमये यान्ति, शिवं तर्हि दश ध्रुवम् ॥ १५ ॥ प्रत्येकमाद्यनरकश्योद्धृता अभी पुन: । सिद्धिं यान्ति दश दश, तुर्योद्धृतास्तु पश्ञ्च ते ॥ १६ ॥ इति समये सिद्धिः ॥ लेश्यास्तिस्रो भवन्त्याद्याः, षडाहारदिशोऽपि चिन संहननसद्भावः, कषाया निखिला अपि ॥ १७ ॥ संज्ञाः सर्वाश्चेन्द्रियाणि सर्वाण्येषां च संज्ञिता । दीर्घकालिक्यादिमत्त्वाद्व्यक्तसंज्ञतयाऽपि च ॥ १८ ॥ एषां वेदः क्लीव एव, दृष्टिर्ज्ञानं च दर्शनम् । उपयोगा इति द्वारचतुष्कं सुरवन्मतम् ॥ १९ ॥ ओजोलोमाभिधावेषामाहारावशुभौ भृशम् । गुणस्थानानि योगाश्च, भवन्त्यमृतभोजिवत् ॥ २० ॥ लोमाहारो द्विधाऽऽभोगादना भोगाच्च तत्र च । स्यादादिमोऽन्तर्मुहर्त्ताद्, द्वितीयश्च
Jain Educat amational
9
१०
१४
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतिक्षणम् ॥ २१ ॥ इति लेश्यादीनि योगान्तानि पञ्चदश द्वाराणि ॥ अङ्गुलप्रमितक्षेत्रप्रदेशराशिवर्तिनि । लोकप्रकाशे
नारकाणां तृतीये वर्गमूलने, प्रथमे वर्गमूलके ॥ २२॥ यावान् प्रदेशराशिः स्यात्तावतीषु च पनिषु । एकप्रादेशिकीषु ९ना.सर्ग:
देहादि पास्युयोंवन्तःखप्रदेशकाः॥ २३ ॥तावन्तो नारका प्रोक्ताः, सामान्येन जिनेश्वरैः। विशेषतो मानमेषामथ किञ्चि-||2 ॥११५॥
द्वितन्यते॥२४॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ अङ्गलप्रमितक्षेत्रप्रदेशराशिसंगते। तृतीयवर्गमूलने, प्रथमे वर्गमूलके ॥२५॥ यावान् प्रदेशनिकरस्तत्प्रमाणासु पङ्किषु । एकप्रादेशिकीषु स्युर्यावन्तः खप्रदेशकाः॥२६॥तावन्तो मानतः प्रोक्ता, नारकाः प्रथमक्षितौ । शेषासु षट्सु च क्ष्मासु, ख्याता नैरयिकाङ्गिनः॥ २७॥ घनीकृतस्य लोकस्य, श्रेण्यसंख्यांशवर्तिभिः। नभ प्रदेशः प्रमिता, विशेष एष तत्र च ॥२८॥आरभ्य सप्तमक्ष्माया, द्वितीयवसुधावधि । असंख्येयगुणवेन, यथोत्तराधिकाधिकाः॥२९॥सप्तमिःकुलकं । इति मानं ॥सर्वाल्पाः सप्तमक्ष्मायामसंख्येयगुणास्ततः । भवन्ति नारकाःक्ष्मासु, षष्ट्यादिषु यथाक्रमम् ॥३०॥संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यगमनुष्याः सप्तमक्षितौ। सर्वोत्कृष्टपापकृत, उत्पद्यन्तेऽल्पकाश्च ते ॥ ३१॥ किञ्चिद्धीनहीनतरपाप्मानः प्रोद्भवन्ति च । षष्ठ्यादिषु ते
च भूरिभूरयः स्युर्यथोत्तरम् ॥ ३२॥ इति लघव्यल्पबहुता ॥ सर्वासु नारकाः स्तोकाः, पूर्वोत्तरापरोद्भवाः । पण असंख्येयगुणास्तेभ्यो, दक्षिणाशासमुद्भवाः ॥ ३३ ॥ पुष्पावकीर्णनरकावासा ह्यल्पा दिशां त्रये । ये सन्ति | तेऽपि प्रायेण, संख्ययोजनविस्तृताः॥३४॥ दक्षिणस्यां च पुष्पावकीर्णका बहवः स्मृताः। प्रायस्ते सन्त्यसंख्ये
॥११५॥ पाययोजनायतविस्तृताः ॥३५॥ किंच-भूना कृष्णपाक्षिकाणां, दक्षिणस्यां यदुद्भवः। दिक्त्रयापेक्षयेतस्या,
२५
Jain Education
Donal
For Private Personel Use Only
Vijainelibrary.org
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
329820200
भूयांसो नारकास्ततः ॥ ३६॥ इति दिगपेक्षयाऽल्पबहुता ॥ वनस्पतिज्येष्ठकायस्थितिमानं किलान्तरम् । एषां गरीयो विज्ञेयं, लघु चान्तमुहर्तकम् ॥ ३७॥ इत्यन्तरं ॥ नारकलोकनिरूपणमेवं, कृप्तमशेषविशेषविमुक्तम् । शेषमधोजगदुत्त्यधिकारे, किञ्चिदिहैव विशिष्य च वक्ष्ये ॥ ३८॥ विश्वाश्चर्यदकीर्तिकीर्ति विजयश्रीवाचकेन्द्रान्तिषद्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्त्वप्रदीपोपमे. |संपूर्णोऽनवमः सुखेन नवमः सर्गो निसर्गाज्ज्वलः ॥ ३९ ॥ ग्रन्थानम् ॥ ४५ ॥
॥ इति श्रीलोकप्रकाशे नवमः सर्गः समाप्तः॥ .
॥ दशमः सर्गः प्रारभ्यते ॥ इदानीं भवसंवेधः, प्रागुद्दिष्टो निरूप्यते । तत्र ज्येष्ठकनिष्ठायुश्चतुर्भङ्गी प्रपश्यते ॥१॥ आद्यः प्राच्यायभवयोज्येष्ठमायुर्यदा भवेत् । भङ्गोऽन्यः प्राग्भवे ज्येष्ठमल्पिष्टं स्यात्परे भवे ॥२॥ तृतीयः प्राग्भवेडल्पीयो, ज्येष्ठमायुर्भवे परे । आयुर्लघु द्वयोस्तुर्यो, भङ्गेष्वेषु चतुर्वथ ॥३॥ संज्ञी नरोऽथवा तिर्यक, षष्ठ्याद्यनरकेषु वै । पृथक पृथम् भवानष्टावुत्कर्षेण प्रपूरयेत् ॥४॥ यथा संज्ञी नरस्तिर्यगुत्पन्नो नरके कचित् । ततो मृतो मनुष्ये वा, तिरश्चि वा ततः पुनः॥५॥ तत्रैव नरके भूयो, मर्ये तिरश्वि वेति सः । भवानष्टो. समापूर्य, नवमे च भवे ततः ॥ ६॥ अवश्यमन्यपर्यायं, नरस्तिर्यगवाप्नुयात् । वक्ष्यमाणेष्वपि बुधैः, कायदा १३
fecrera
Jain Educat
onal
For Private Personal use only
Yonjainelibrary.org
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे १० भवसंवे.
॥११६॥
Jain Education
भावना स्वयम् ॥ ७ ॥ तथैव भवनेशेषु, ज्योतिष्कव्यन्तरेष्वपि । तिर्यनरौ किलाष्टासु, सौधर्मप्रभृतिषु ॥ ८ ॥ भवानष्टौ पूरयतो भवौ द्वौ च जघन्यतः । इमौ पूरयतः प्रोक्तनारकेषु सुरेषु च ॥ ९ ॥ जघन्यायुटया माघवत्यामुत्पद्यमानकाः । तिर्यग् ज्येष्ठायुरन्यो वा भवान् सप्तैव पूरयेत् ॥ १० ॥ तथाहिसंज्ञी पञ्चेन्द्रियस्तिर्यक्, पूर्व कोट्यायुरन्वितः । जघन्यायुष्टयोत्पन्नः संप्तम्यां नरकावनौ ॥ ११ ॥ ततश्चोद्धृत्य तिर्यक्षु, सप्तम्यां च ततः पुनः । तिर्यक्षु च ततः क्ष्मायां सप्तम्यां च ततः पुनः ॥ १२ ॥ तिर्यक्ष्वेव ततश्वासौ, नोद्भवेत्सप्तमक्षितौ । एवं सप्त भवान् कृत्वाऽष्टमेऽन्यं भवमाप्नुयात् ॥ १३ ॥ तिर्यग् ज्येष्ठायुर्जघन्यायुष्कोऽथोत्कृष्टजीविताम् । अवाशुवन्माघवत्यां भवान् पञ्चैव पूरयेत् ॥ १४ ॥ उत्पद्यते द्विर्नरके, तत्र तिर्यक्षु च त्रिशः । ततञ्चासौ पष्ठभवे, नोद्भवेत्सतमक्षितौ ॥ १५ ॥ उत्कृष्टायुष्टयाऽल्पायुष्टया वा सप्तमक्षितौ । तिर्यग् ज्येष्ठायुरन्यो वा, त्रिभवः स्याज्जघन्यतः ॥ १६ ॥ तत्र तिर्यग्भवौ तु द्वावेकः स्यात्सप्तमक्षितौ । माघवत्या नारकाणां तिर्यक्ष्वेव गतिर्यतः ॥ १७ ॥ चतुर्भङ्गया नरः संज्ञी, सप्तमं नरकं व्रजन् । जघन्यादुत्कर्षतोऽपि, संपूरयेद्भवद्वयम् ॥ १८ ॥ आनतादिचतुष्कल्प्यां, सर्वत्रैवेयकेषु च । चतुर्भयोवन मर्त्यः, सप्तोत्कर्षाद्भवान् सृजेत् ॥ १९ ॥ त्रिर्देवेषु चतुस्तत्र, समुत्पद्य नरेष्वसौ । अवश्यमन्य पर्यायमवामोत्यष्टमे भवे ॥ २० ॥ विजयादिचतुष्के च, भवान् पञ्चैव पूरयेत् । त्रीन् भवान्नृषु मध्यौ च द्वौ भवौ विजयादिषु ॥ २१ ॥ जघन्यतस्त्वानतादिष्वेतेषु निखिलेष्वपि । भवांस्त्रीन्मनुजः संज्ञी, समर्थयेत्समुद्भवन् ॥ २२ ॥ यद्वानतादिदेवानां नृभ्य एवातजन्मनाम् ।
उत्कृष्टायुरादेः संवेधः
२०
२५
॥ ११६ ॥
२७
inelibrary.org
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
५
नरेष्वेवोत्पत्तिरिति, जघन्येन भवास्त्रयः॥२३॥ जघन्याचोत्कर्षतोऽपि, पञ्चमेऽनुत्तरे नरः। त्रीन् भवान् पूरयेन्मोक्षमवश्यं यात्यसो ततः॥ २४ ॥ भवनव्यन्तरज्योतिष्काद्यकल्पद्वयावधि । युग्मिनो नरतियञ्चः, पूरयन्ति । भवद्वयम् ॥ २५॥ जघन्यादुत्कर्षतोऽपि, युग्मिनां यत्सुधाशिषु । उत्पन्नानां पुनरपि, स्यादुत्पत्तिर्न युग्मिषु ॥ २६॥ रत्नप्रभायां भवनाधिपतिव्यन्तरेष्वपि । असंज्ञी पर्याप्ततिर्यग, भवयुग्मं समर्थयेत् ॥ २७॥ यदस्य । नरके स्वर्गे, चोत्पन्नस्य ततः पुनः। असंज्ञितिर्यक्षुत्पत्तिर्भवे नानन्तरे भवेत् ॥ २८ ॥ भवनव्यन्तरज्योतिःसह- सारान्तनाकिनः। आद्यषड्नरकोत्पन्ननारकाश्च समेऽप्यमी॥२९॥उत्पद्यमानाः पर्याप्तसंज्ञितिर्यग्नरेषु वै । पूरयन्ति भवानष्ट, प्रत्येकं तत्र भावना ॥ ३०॥ कश्चिद्भवनपत्यादिश्च्युत्वैकान्तरमुद्भवन् । चतुर्वारं हि पर्याप्तसंज्ञी तिर्यग्नरो भवेत् ॥ ३१॥ ततः स तिर्यग्मों वा, नाप्नुयान्नबमे भवे । पूर्वोक्तभवनेशादिभावं. तादृकू-10 स्वभावतः ॥ ३२॥ संज्ञिपर्याप्ततिर्यक्षु, सप्तमक्षितिनारकाः। पूरयन्ति भवान् षड् येऽनुत्कृष्टस्थितिशालिन ॥ ३३ ॥ उत्कृष्टस्थितियुक्तास्तु, सप्तमक्षितिनारकाः। तेषूत्कर्षाजायमानाः, स्युश्चतुर्भवपूरकाः॥३४॥ आनता-18 दिखश्चतुष्कसर्वप्रैवेयकामराः । उत्पद्यमाना उत्कर्षानृषु षड्भवपूरकाः ॥ ३५ ॥ मनुष्येषूत्पद्यमाना, विजयादिविमानगाः। भवांश्चतुर उत्कर्षात्, पूरयन्ति निरन्तरम् । ॥ ३६ ॥ जघन्यतस्त्वानतादिदेवा विभवपूरकाः। यतश्युतानामेतेषां, नोत्पत्तिर्मनुजान्विना ॥ ३७॥ उत्कर्षतो जघन्याच, सुराः सर्वार्थसिद्धिजाः । मनुष्येषु समुत्पद्य, पूरयन्ति भवद्वयम् ॥३८॥ भवनव्यन्तरज्योतिःसौधर्मशाननाकिनः पृथिव्यप्तरुपूत्पद्यमाना द्विभ-IN
Jain Educa
t ional
Mr.jainelibrary.org
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे १०भवसंवे.
॥११७॥
वपूरकाः ॥ ३९॥ जघन्यादुत्कर्षतोऽपि, भूयोऽप्युत्पत्त्यसंभवात् । तेषां निर्गत्य पृथ्व्यादिर्भवनेशादिनाकिषु उत्कृष्टायु॥४०॥ वायुतेजःकाययोस्तु, देवानां गत्यसंभवात् । तदीयो भवसंवेधो, नात्र प्रोक्तो जिनेश्वरैः ॥४१॥राद असंज्ञिसंज्ञितिर्यञ्चो, नराः संज्ञिन एव च । असंख्यायुतियश्च, पूरयन्ति भवद्वयम् ॥४२॥ युग्मिनां नृतिरश्चां यद्विपद्यानन्तरे भवे । गतिर्देवगतावेव, भगवद्भिर्निरूपिता ॥४३॥ भूकायिकोऽम्भोऽग्निवायुष्वेकान्तरे। परिभ्रमन् । भवानसंख्यान प्रत्येकमनुत्कृष्टस्थितिः सृजेत् ॥ ४४ ॥ एवमम्बुकायिकोऽपि, प्रत्येकं माग्निवायुषु । उत्पद्यमानोऽसंख्ययान्, भवानुत्कर्षतः सृजेत् ॥ ४५ ॥ वहिकायोऽपि पृथ्व्यम्बुकायिष्वेकान्तरं भवान् । कुर्यादसंख्यान निलोऽप्येवं पृथव्यम्बुवहिषु ॥४६॥ तथा क्षमाम्भोऽग्निमरुतः, प्रत्येकं च वनस्पती । भवानसंख्यान कुर्वन्ति, जायमाना निरन्तरम् ॥ ४७॥ एवं वनस्पतिरपि, पृथिव्यादिचतुष्टये । प्रत्येकमुत्पद्यमान:, कुर्यादसंख्यकान् भवान् ॥४८॥ वनस्पतिकायिकेषूत्पद्यमानो वनस्पतिः। भवाननन्तान् कुर्वीत, निरन्तरं परिभ्रमन् ॥४९॥ प्रत्येकमुत्पद्यमानाः, पृथिव्यादिषु पञ्चसु । भवानसंख्यान् विदधति, प्रत्येकं विकलेन्द्रियाः ॥५०॥ प्रत्येक विकलेष्वेवं, पञ्च भूकायिकादयः। प्रत्येकमुत्पद्यमानाः, संख्येयभवपूरकाः ॥५१॥ विकलाक्षेषु संख्येयान्, सर्वेऽपि विकलेन्द्रियाः। भवान् विदध्युः प्रत्येकं, जायमानाः परस्परम् ॥५२॥ पूर्वोक्तायुश्चतुर्भङ्गयां, ॥११७॥ ज्येष्ठायुरुपलक्षिते । भङ्गनये भवानष्टौ, कुर्युः सर्वे क्षमादयः ॥ ५३॥ तथाहि-पृथ्वीकायिक उत्कृष्टायुष्क| उत्कृष्टजीविषु । अप्कायिकेषूत्कर्षेणोद्भवे द्वारचतुष्टयम् ॥५४॥ एवमेकान्तरं वारानुत्पद्य चतुरस्ततः। अवश्य-16
Jain Education
For Private & Personel Use Only
finelibrary.org
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
Jain Educato
मन्यपर्यायं लभते नवमे भवे ॥ ५५ ॥ उत्कृष्टायुर्भूमिकायोऽनुत्कृष्टायुष्कवारिषु । उत्पद्यमानोऽप्युत्कर्षाद्भवानहैव पूरयेत् ॥ ५६ ॥ एवं भूकायिकोऽनुत्कृष्टायुरुत्कृष्टजीविषु । उद्भवन्नम्बुषूत्कर्षात् स्यादष्टभवपूरकः ॥ ५७ ॥ अष्कायादीनामपीत्थं, विकलानां च भाव्यताम् । भवाष्टकात्मा संवेधो, ज्येष्ठायुर्भङ्गकन्त्रये ॥ ५८ ॥ अनुत्कृटायुषां त्वेषां स्यादनुत्कृष्टजीविषु । संवेधः प्रागुक्त एवासंख्य संख्यभवात्मकः ॥ ५९ ॥ पृथ्व्यादीनामसंख्यभवात्मको विकलानां संख्यभवात्मक इति ॥ क्ष्मादयो विकलाक्षाच, जघन्यतो भवद्वयम् । कुर्युर्ज्येष्ठकनिष्ठायूरूपे भङ्गचतुष्टये ॥ ६० ॥ युग्मवर्जाश्च मनुजास्तिर्यश्चः संज्ञयसंज्ञिनः । प्रत्येकं जायमानाः स्युर्मिथोऽष्टभवपूरकाः ॥ ६१ ॥ जघन्योत्कृष्टायुरुत्थचतुर्भङ्गयामपि स्फुटम् । भवान् कृत्वाऽष्ट नवमे, तेऽन्यं पर्यायमाप्नुयुः ॥ ६२ ॥ तथैत एव पृथ्व्यादिपञ्चके विकलत्रये । जायमानाश्चतुर्भङ्गयां कुर्युः प्रत्येकमष्ट तान् ॥ ६३ ॥ तथा क्ष्माद्याः सविकलास्तिर्यक्षु संज्ञयसंज्ञिषु । नृष्वयुग्मिषु चोत्पद्यमाना भङ्गचतुष्टये ॥ ६४ ॥ पूरयन्ति भवानष्टौ, स च पृथ्व्यादिकोऽसुमान् । नरतिर्यग्भवात्तस्मान्न पृथ्व्यादित्वमाप्नुयात् ॥ ६५ ॥ जघन्यादुत्कर्षतोऽपि, मनुष्याः पवनाग्निषु । उत्पद्यमाना द्वावेव, पूरयन्ति भवौ खलु ॥ ६६ ॥ यतो हि पवनाग्निभ्य, उद्धृतानां शरीरिणाम् । अनन्तरभवे नैव, नरेषूत्पत्तिसंभवः ॥ ६७ ॥ यथोक्तानामथ भवसंवेधानां यथागमम् । कालमानं विनिश्चेतुमान्नायोऽयं वितन्यते ॥ ६८ ॥ जघन्यादन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षात्पूर्व कोटिकाम् । स्थितिं विभ्रद्याति तिर्यङ्, नरकेष्वखिलेष्वपि ॥ ६९ ॥ तावदायुर्युतेष्वेति तेभ्यो मृत्वाऽपि नारकः । सहस्रारान्तदेवेष्वप्यसौ तादृकस्थि
ational
१०
१४
wjainelibrary.org
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे १०भव संवे.
॥११८॥
Jain Education
तिर्व्रजेत् ॥ ७० ॥ देवास्तेऽपीदृशा युष्केष्वेष्वायान्ति ततश्च्युताः । असंख्यजीवी तिर्यक्तु, यातीशानान्तनाकिषु ॥ ७१ ॥ नरो मासपृथक्त्वायुर्धम याति जघन्यतः | वंशादिषु क्ष्मासु षट्सु वर्षपृथक्त्वजीवितः ॥७२॥ उत्कर्षात्पूर्व कोट्यात्यसौ क्ष्मासु सप्तसु । आयान्त्युक्तस्थितिष्वेव नृषूक्तनारका अपि ॥ ७३ ॥ ना जघन्यान्मासपृथक्त्वायुरा खयं व्रजेत् । ऊर्ध्वं त्वब्दपृथक्त्वायुर्याति यावदनुत्तरान् ||७४ | उत्कर्षात्तु त्रिपल्या युः, खर्द्वयं यावदेति सः । ऊर्ध्वं ततः पूर्वकोट्यायुष्क एवं स गच्छति ॥ ७२ ॥ तिर्यक् युग्मिन्नृतिर्यक्षु, त्वन्तर्मुहूर्त्तजीवितः । गच्छेज्जघन्यतो मासपृथक्त्वायुर्नरः पुनः ॥ ७६ ॥ उत्कर्षतः पूर्वकोटिमानायुष्कावुभा वपि । असंख्यायुर्नृतिर्यक्षूत्पद्येते नाधिकायुषौ ॥ ७७ ॥ उक्तशेषाणां तु पूर्वापरयोर्भवयोः स्थितिः । गुरुर्लघुश्च ज्ञेया तज्ज्येष्ठान्यायुरपेक्षया ॥ ७८ ॥ एवं च - विवक्षित भवप्राप्यभावयोः परमां स्थितिम् । लध्वीं वा भवसंख्यां च, जघन्यां वा गरीयसीम् ॥ ७९ ॥ खयं विभाव्य निष्टङ्कयं विवक्षितशरीरिणाम् । भवसंवेधकालस्य, मानं ज्येष्ठमथावरम् ॥ ८० ॥ यथा गरिष्ठायुष्कस्य, मनुष्यस्यादिमक्षितौ । उत्कृष्टायुर्नारकत्वं, लभमानस्य चासकृत् ॥ ८१ ॥ उत्कृष्टो भवसंवेधकालः संकलितो भवेत् । चतुष्पूर्वकोटियुक्तचतुः सागरसंमितः ॥ ८२ ॥ द्वयोरुत्कृष्टायुषोस्तु, संवेधः स्याज्जघन्यतः । पूर्वकोटिसमधिकसागरोपमसंमितः ॥ ८३ ॥ उत्कृष्टायुर्नरलघुस्थि तिनारकयोर्गुरुः । सोऽब्दायुतचतुष्कान्यं, पूर्वकोटिचतुष्टयम् ॥ ८४ ॥ उत्कृष्टायुर्न र लघुस्थितिनारकयोर्लघुः । संवेधोऽब्दातयुतपूर्व कोटिमितो मतः ॥ ८५॥ जघन्यायुर्नरोत्कृष्टस्थितिनारकयोर्गुरुः । चतुर्मासपृथक्त्वान्यं, स
उत्कृष्टायुरादेः संवेधः
२०
२५
॥ ११८ ॥
२८
ainelibrary.org
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थाद्वार्धिचतुष्टयम् ॥ ८६ ॥ जघन्यायुनरोत्कृष्टजीविनारकयोलघुः । एकमासपृथक्त्वान्यवार्द्धिमानो भवत्यसो ॥ ८७॥ उत्कृष्टो भवसंवेधो, जघन्यजीविनोईयोः । चतुर्मासपृथक्त्वाख्यं, वर्षायुतचतुष्टयम् ॥ ८८ ॥ जघन्यो भवसंवेधो, जघन्यजीविनोईयो। एकमासपृथक्त्वाख्या, दशवर्षसहस्रकाः॥८९॥ स्थापना। यथा वा-ज्येष्ठायुषस्तिरश्वः प्रोद्भवतः सप्तमक्षितौ । जघन्यायुष्टयोत्कृष्टा, भवसंवेधसंस्थितिः॥ ९॥ चतुष्पूर्वकोटियुक्ताः, स्युः। षट्षष्टिः पयोधयः । अल्पायुषोऽन्तमुहर्तचतुष्टययजोऽथ ते ॥९१॥ यथा वा-ज्येष्ठायुषां नृणां ज्येष्ठायुष्टया सप्तमक्षितौ । ज्येष्ठः कालः पूर्वकोट्याख्यास्त्रयस्त्रिंशदब्धयः ॥९२ ॥ जघन्यायुनुगामल्पायुष्टया सप्तमक्षितौ ।। जघन्योऽब्दपृथक्त्वाख्या, द्वाविंशतिपयोधयः॥ ९३ ॥ एवं सर्वेषु भङ्गेषु, सर्वेषामपि देहिनाम् । विभाव्यो भवसंवेधकालो गुरुर्लघुः स्वयम् ॥ ९४ ॥ स्याद् भूयान् विस्तर इति, नेह व्यक्त्या विविच्यते । पञ्चमाङ्गे चतुविशशतं भाव्यं तदर्थिभिः॥९॥ अथाष्टानवतेजीवभेदानामुच्यते क्रमात् । क्रमप्राप्ताऽल्पबहुता, महाल्पबहुताभिधा ॥ ९६ ॥ गर्भजा मनुजाः स्तोका, नार्यः संख्यगुणास्ततः । ताभ्यश्च स्थूलपर्याप्ताग्नयोऽनुत्तरना|किनः॥९७॥ क्रमादसंख्यनास्तेभ्यश्चोर्ध्वग्रैवेयकत्रये । मध्यत्रयेऽधस्त्रये चाच्युते चैवारणेऽपि च ॥९८॥ प्राणतेऽथानते खर्गे, समुत्पन्न: सुधाशिनः । क्रमेण संख्येयगुणाः, सप्ताप्येते निरूपिताः॥ ९९ ॥ ततो माघवतीजाता, मघाजाताश्च नारकाः । सहस्रारसुरास्तेभ्यो, महाशुक्रसुरास्ततः ॥१०॥ तेभ्योऽरिष्ठा नैरयिकास्तेभ्यो लान्तकनाकिनः । तेभ्योऽञ्जना नारकाच, ब्रह्मलोकसुरास्ततः॥१॥तेभ्यः शैला नैरयिका, माहेन्द्रत्रि-18| १४
Jnin Educat
i on
For Private & Personal use only
Mrjainelibrary.org
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वजीवानामल्प
बहुता
लोकप्रकाश
दशास्ततः। तेभ्यः सनत्कुमारस्था, वंशानैरयिकास्ततः ॥२॥ तेभ्यः संमृच्छिमनरास्तेभ्यश्चेशाननाकिनः। १०भवर्सवे. क्रमादसंख्येयगुणाश्चतुर्दशाप्यमी स्मृताः ॥ ३ ॥ ईशानस्थसुरेभ्यस्तद्देव्यः संख्यगुणास्ततः । सौधर्म
देवास्तद्देव्यस्तेभ्यः संख्यगुणाः स्मृताः ॥ ४ ॥ असंख्येयगुणास्तेभ्यो, भवनाधिपनाकिनः । भवनाधिपदेव्यश्च, तेभ्यः संख्यगुणाधिकाः॥५॥ताभ्योऽसंख्यगुणाः प्रोक्ताः, प्रथमक्षितिनारकाः। तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः, पुमांसः पक्षिणः स्मृताः॥६॥ पक्षिण्योऽथ स्थलचरास्तस्त्रियोऽम्बुचरा अपि । अम्बुचर्यो व्यन्तराश्च, व्यन्तर्यो ज्योतिषामराः॥७॥ज्योतिष्कदेव्यः खचरक्लीवाः स्थलपयश्चराः। नपुंसका एव ततः, पर्याप्ताश्चतुरिन्द्रियाः॥८॥ क्रमेण संख्येयगुणाः, पक्षिण्याद्यास्त्रयोदश । ततः पर्याप्तपश्चाक्षा, अधिकाः संश्यसंज्ञिनः॥९॥ तेभ्यः पर्याप्तका यक्षाः, पर्याप्तास्त्रीन्द्रियास्ततः । क्रमाद्विशेषाभ्यधिकाः, प्रज्ञप्ताः परमेश्वरैः॥१०॥ तेभ्योऽपर्याप्तपश्चाक्षा, असंख्येयगुणास्ततः । अपर्याप्ताश्चतुस्त्रिद्वीन्द्रियाः स्युरधिकाधिकाः॥१॥ तेभ्यः प्रत्येकपर्याप्सा, द्रुमाः पर्याप्तकास्ततः। निगोदा बादराःस्थूलपृथ्व्यम्बुमरुतोऽपि च ॥१२॥स्थूलापर्याप्तका अग्निप्रत्येकदुनिगोदकाः। पृथ्वीवहिवायवश्च, सूक्ष्माऽपर्याप्तवयः॥१३॥पर्याप्तप्रत्येकद्रुमादयोद्वादशाप्यसंख्यगुणाः।क्रमतस्ततश्च सूक्ष्माः पर्याप्ताःक्ष्माम्बुवायवोऽभ्यधिकाः॥१४॥ (गीतिः) ततश्च संख्येयगुणाः, पर्याप्तसूक्ष्मवयः। ततः पर्याप्तसूमक्ष्माम्भोऽनिला अधिकाधिकाः॥१५॥ असंख्यन्नास्ततोऽपर्याप्तकसूक्ष्मनिगोदकाः। ततः संख्यगुणाः पर्याप्तकाः सूक्ष्मनिगोदकाः॥१६॥क्रमात्ततोऽनन्तगुणाश्चत्वारोऽमी अभव्यकाः।भ्रष्टसम्यक्त्वाश्च सिद्धाः, स्थूलपर्याप्तभूरुहः
॥११९॥
॥ २८
Jain Educa
t
ion
For Private & Personel Use Only
SIMw.jainelibrary.org
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ १७ ॥ तेभ्यश्च बादराः पर्याप्तकाः स्युरोघतोऽधिकाः । स्थूला पर्याप्ततरवस्ततोऽसंख्यगुणाः स्मृताः ॥१८॥ अपर्याप्ता बादराः स्युस्तेभ्यो विशेषतोऽधिकाः । सामान्यतो बादराश्च, विशेषाभ्यधिकास्ततः॥ १९॥ असंख्येयगुणास्तेभ्यः, सूक्ष्मापर्याप्तभूरुहः । ततः सामान्यतः सूक्ष्मापर्याप्तकाः किलाधिकाः ॥२०॥ स्युः संख्येयगुणास्तेभ्यः, सूक्ष्मपर्याप्तभूरुहः । इतोऽधिकाधिका ज्ञेया, वक्ष्यमाणाश्चतुर्दश ॥२१॥ सूक्ष्माः पर्याप्तका ओघात, सूक्ष्माः सामान्यतोऽपि च । भव्या निगोदिनश्चौघादोघाच वनकायिकाः॥२२॥ ओघादेकेन्द्रिया ओघात्तिर्यञ्चश्च ततः पुनः । मिथ्यादृशश्चाविरताः, सकषायास्ततोऽपि च ॥२३॥ छद्मस्थाश्च सयोगाश्च, संसारिणस्तचौघतः। सर्वजीवाश्चेति सार्वैर्महाल्पबहुतोदिता ॥ २४॥ एवं जीवास्तिकायो यो, द्वारैः प्रोक्तः पुरोदितः। द्रव्यक्षेत्रकालभावगुणैः स पञ्चधा भवेत् ॥ २५ ॥ अनन्तजीवद्रव्यात्मा, द्रव्यतोऽसावुदीरितः। क्षेत्रतो लोकमात्रोऽसौ, सत्त्वात्तेषां जगत्रये ॥ २६ ॥ कालतः शाश्वतो वर्णादिभिः शून्यश्च भावतः। उपयोगगुणश्चासौ, गुणतः परिकीर्तितः॥२७॥ निरन्तरं बध्यमानः, स च कर्मकदम्बकैः । विसंस्थुलो भवाम्भोधौ, बहुधा चेष्टतेऽङ्गभाक ॥२८॥ पुद्गलैर्निचिते लोकेऽञ्जनपूर्णसमुद्गवत् । मिथ्यात्वप्रमुखैभूरिहेतुभिः कर्मपुद्गलान् ॥ २९॥ करोति जीवः संबद्धान्, खेन क्षीरेण नीरवत् । लोहेन वहिवद्वा यत्, तत्कर्मत्युच्यते जिनैः ॥ ३०॥ तच्च कर्म पौगलिकं, शुभाशुभरसाञ्चितम् । नत्वन्यतीर्थिकाभीष्टादृष्टादिवढमूर्त्तकम् ॥ ३१॥ व्योमादिवदमूर्त्तवे त्वस्य | विश्वाङ्गिसाक्षिकौ । नैतस्कृतानुग्रहोपघातौ संभवतः खलु ॥ ३२॥ हेतवः कर्मबन्धे च, चत्वारो मूलभेदतः।
SO9289292e970700303083
Jain Educ
a
tional
For Private Personal Use Only
raww.jainelibrary.org
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे १०भवसंवे.
॥१२०॥
सप्तपञ्चाशदेते च, स्युस्तदुत्तरभेदतः॥ ३३ ॥ मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगसंज्ञाश्च मूलभेदाः स्युः । तत्र चा बन्धहेतपञ्चविधं स्यान्मिथ्यात्वं तच्च कथितं प्राक् ॥३४॥ (गीतिः) असंयतात्मनां स्याद्, द्वादशधाऽविरतिः खलु । षटकायारम्भपञ्चाक्षचित्तासंवरलक्षणा ॥ ३५॥ कषाया नोकषायाश्च, प्राक् षोडश नवोदिताः। योगास्तथा पश्चदश,सप्तपञ्चाशदित्यमी॥३६॥ कर्मबन्धः प्रकृत्यात्मा, स्थितिरूपो रसात्मकः । प्रदेशबन्ध इत्येवं, चतुर्भेदः प्रकीर्तितः ॥३७॥ प्रकृतिस्तु खभावः स्यादू, ज्ञानावृत्यादिकर्मणाम् । यथा ज्ञानाच्छादनादिः,स्थितिः कालविनिश्चयः |॥ ३८ ॥ बद्धं विवक्षितं कर्म, कर्मत्वेन हि तिष्ठति । यावत्कालं स्थितिः सा स्यात्, त्यजेत्तत्तां ततः परम् ॥ ३९॥ रसो मधुरकट्वादिः, सदसत्कर्मणां मतः। भवेत्प्रदेशबन्धस्तु, दलिकोपचयात्मकः ॥४०॥ यथा हि मोदकः कश्चित्, प्रकृत्या वातहृद्भवेत् । शुण्ठ्यादिजन्मा कश्चित्तु, पित्तनुज्जीरकादिजः ॥४१॥ कश्चित्पक्षस्थितिः कश्चिन्माप्तप्रभृतिकस्थितिः। स्यात्कश्चिन्मधुरः कश्चित्तिक्तःकश्चित्कटुस्तथा ॥४२॥ कश्चित्सेरदलः कश्चिद्, व्यादिसेरदलात्मकः।कार्यवं भावना विज्ञः,प्रकृत्यादिषु कर्मणाम् ॥४३॥ मूलप्रकृतिभेदेन, तच कर्माष्टधा मतम् । स्याद | ज्ञानावरणीयाख्यं, दर्शनावरणीयकम् ॥४४॥ वेदनीयं मोहनीयमायुर्गोत्रं च नाम च । अन्तरायं चेत्यथैषामुत्तर-SI प्रकृतीब्रुवे ॥४५॥ ज्ञानानि पञ्चोक्तानि प्राक, यच्च तेषां खभावतः। आच्छादकं पट इव, दृशां तत्पश्चधा मतम् ॥१२०॥ ॥ ४६॥ मतिश्रुतावधिज्ञानावरणानि पृथक् पृथक् । मनःपर्यायावरणं, केवलावरणं तथा ॥४७॥ आवृतिश्चक्षु-10 रादीनां, दर्शनानां चतुर्विधा । निद्राः पञ्चेति नवधा, दर्शनावरणं मतम् ॥४८॥ सुखप्रबोधा निद्रा स्थात्,| २८
२५
Jain Educator
O
riainelibrary.org
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
20000290SSROO202029292020
सा च दुःखप्रबोधका । निद्रानिद्रा प्रचला च, स्थितस्योर्द्धस्थितस्य वा ॥४९॥ गच्छतोऽपि जनस्य स्यात्प्रचलाप्रचलाभिधा । स्त्यानर्द्धिर्वासुदेवार्धबलाऽहश्चिन्तितार्थकृत् ॥५०॥ "स्त्याना-संघातीभूता गृद्धिः-दिनचिन्तितार्थविषयाऽभिकाङ्क्षा यस्यां सा स्त्यानगृद्धि"रिति तु कर्मग्रन्थावचूर्णौ । आयसंहननापेक्षमिदमस्या बलं मतम् । अन्यथा तु वर्तमानयुवभ्योऽष्टगुणं भवेत् ॥५१॥ अयं कर्मग्रन्थवृत्त्याद्यभिप्रायः, जीतकल्पवृत्तौ तु “यदुदयेऽतिसंक्लिष्टपरिणामाद्दिनदृष्टमर्थमुत्थाय प्रसाधयति केशवार्धबलश्च जायते, तदनुदयेऽपि च स शेषपुरुषेभ्यस्त्रिचतुर्गुणबलो भवति, इयं च प्रथमसंहननिन एव भवतीति ज्ञेयं । दर्शनानां हन्ति लब्धि, मूलादायं चतुष्टयम् । लब्धां दर्शनलब्धि द्राग, निद्रा निघ्नंति पञ्च च ॥५२॥ वेदनीयं द्विधा सातासातरूपं प्रकीर्तितम् । स्यादिदं मधुदिग्धासिधारालेहनसंनिभम् ॥५३॥ यद्धेद्यते प्रियतया स्रगादियोगाद्भवेत्तदिह सातम् । यत्कण्टकादितोऽप्रियरूपतया वेद्यते त्वसातं तत् ॥५४॥ (गीतिः) यन्मद्यवन्मोहयति, जीवं तन्मोहनीयकम् ।। द्विधा दर्शनचारित्रमोहभेदात्तदीरितम् ॥५५॥ मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वभेदात्तत्रादिमं त्रिधा । चारित्रमोहनीयं तु, पञ्चविंशतिधा भवेत् ॥५६॥ कषायाः षोडश नव, नोकषायाः पुरोदिताः । इत्यष्टाविंशतिविधं, मोहनीयमुदीरितम् ॥ ५७॥ एति गत्यन्तरं जीवो, येनायुस्तच्चतुर्विधम् । देवायुश्च नरायुश्च, तिर्यनैरयिकायुषी॥५८॥ इदं निगडतुल्यं स्यादसमाप्येदमङ्गभाक् । जीवः परभवं गन्तुं, न शक्नोति कदापि यत् ॥ ५९॥ गूयते शब्द्यते शब्दैर्यस्मादुच्चावचैर्जनः। तद्गोत्रकर्म स्यादेतद्, द्विधोचनीचभेदतः ॥६०॥ इदं कुलाल तुल्यं
१४
Jan Educa Ho Donal
For Private
Personal Use Only
aw.jainelibrary.org
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्मभेदाः
लोकप्रकाशे स्थात्, कुलालो हि तथा सृजेत् । किञ्चित्कुम्भादिभाण्डं तत्, यथा लोकः प्रशस्यते ॥६१॥ किञ्चिच्च कुत्सि१०भवसंवे. ताकारं, तथा कुर्यादसौ यथा । अक्षिप्तमद्याद्यपि तत्, भाण्डं लोकेन निन्द्यते ॥ ६२॥ कर्मणाऽपि तथाऽनेन,
धनरूपोज्झितोऽपि हि । उच्चैर्गोत्रतया कश्चित्, प्रशस्यः क्रियतेऽसुमान् ॥ १३॥ कश्चिच्च नीचैर्गोत्रत्वात्, ॥१२॥
धनरूपादिमानपि । क्रियते कर्मणाऽनेन, निन्द्यो नन्दनृपादिवत् ॥६४॥ गतिजात्यादिपर्यायानुभवं प्रति देहिनः । नमयति प्रह्वयति, यत्तन्नामेति कीर्तितम् ॥ ६५॥ चित्रकृत्सदृशं चैतत्, विचित्राणि सृजेद्यथा। चित्राण्येष मिथोऽतुल्यान्येवं नामापि देहिनः ॥६६॥ द्विचत्वारिंशद्विधं तत्, स्थूलभेदविवक्षया । स्याद्वा |त्रिनवतिविधं, त्रियुकशतविधं तु वा ॥ ३७॥ सप्तषष्टिविधं वा स्याद्यथाक्रममथोच्यते । विकल्पानां चतुर्णामप्येषां विस्तृतिरागमात् ॥ १८॥ गतिर्जातिवपुश्चैवोपाङ्गं बन्धनमेव च । संघातनं संहननं, संस्थानं वर्ण एव
च ॥ ६९ ॥ गन्धो रसश्च स्पर्शश्चानुपूर्वी च नभोगतिः। चतुर्दशैता निर्दिष्टाः, पिण्डप्रकृतयो जिनैः॥७॥ इस्युः प्रत्येकप्रकृतयोऽष्टाविंशतिरिमाः पुनः । त्रसस्थावरदशके, पराघातादि चाष्टकम् ॥ ७१॥ त्रसबादरपयो
सप्रत्येकस्थिरशुभानि सुभगं च । सुखरमादेययशोनानी चेत्याद्यदशकं स्यात् ॥७२॥ स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तकानि साधारणास्थिरे अशुभम् । दुःस्वरदुभंगनाम्नी भवत्यनादेयमयशश्च ॥ ७३ ॥ (आय) द्वितीयं दशक चैतत्, पराघाताष्टकं त्विदम् । पराघातं तथोच्छ्रासातपोद्योताभिधानि च ॥ ७४ ॥ भवत्यगुरुलघ्वाख्यं, तीर्थकृन्नामकर्म च । निर्माणमुपघातं च, द्विचत्वारिंशदित्यमी ॥७५ ॥ चतुर्दशोक्ता गत्याद्याः, पिण्डप्रकृतयोऽत्र
॥१२१॥
Jain Education
V
For Private & Personel Use Only
ainelibrary.org
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
याः। पञ्चषष्टिः स्युरेवं ताः, प्रतिभेदविवक्षया ॥७६॥ गतिश्चतुर्धा नरकतिर्यनरसुरा इति। एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाः पञ्चेति जातयः॥७७॥ देहान्यौदारिकादीनि, पञ्च प्रागुदितानि वै । त्रिधाऽङ्गोपाङ्गानि तेषां, विना तैजसकार्मणे ॥ ७८॥ तत्राङ्गानि वाहपृष्ठोस्रोमूर्धादिकानि वै । अङ्गुल्यादीन्युपाङ्गानि, भेदोऽङ्गोपाङ्गयोरयम् ॥ ७९ ॥ नखाङ्गुलीपर्वरेखाप्रमुखाण्यपराणि च । अङ्गोपाङ्गानि निर्दिष्टान्युत्कृष्टज्ञानशालिभिः ॥८॥ औदारिकाद्यङ्गसत्कपुद्गलानां परस्परम् । निबद्धबध्यमानानां, संबन्धघटकं हि यत् ॥८१॥ तद् बन्धनं स्वखदेहतुल्याख्यं पञ्चधोदितम् । दार्वादिसंधिघटकजवादिसदृशं ह्यदः ॥ ८२॥ औदारिकाद्यङ्गयोग्यान्, संघातयति पुद्गलान् । यत्तत्संघातनं पञ्चविधं बन्धनवद्भवेत् ॥ ८३ ॥ यद्वा पञ्चदशविधमेवं भवति बन्धनम्। औदारिकौदारिकाख्यं, बन्धनं प्रथमं भवेत् ॥८४॥ औदारिकतैजसाख्यं, तथौदारिककार्मणम् । स्याद्वैक्रियवैक्रियाख्यं, तथा वैक्रियतैजसम् ।। ८५ ॥ वैक्रियकार्मणाख्यं चाहारकाहारकं तथा । आहारकतैजसं च, तथाऽऽहारककामणम् ॥८६॥ औदारिकतैजसकार्मणं बन्धनमीरितम् । वैक्रियतैजसकार्मणबन्धनमथावरम् ।। ८७॥ आहारकतैजसकामणबन्धनमेव च । तैजसतैजसबन्धनं च तैजसकार्मणम् ॥ ८८॥ कार्मणकार्मणं चेति, स्युः पञ्चदश तानि हि।तत्र पूर्वसंगृहीतैर्यदौदारिकपुद्गलः॥८॥गृह्यमाणौदारिकापुद्गलानां परस्परम् । संबन्धकृत्तदौदारिकौदारिकाख्यवन्धनम् ॥९०॥ (युग्मम् ) एवंच-औदारिकपुद्गलानां, सह तैजसपुद्गलैः । संबन्धघटकं त्वौदारिकतैजसबन्धनम् ॥ ९१॥ औदारिकपुद्गलानां, सह कार्मणपुद्गलैः। संबन्धकृद्भवत्यौदारिककार्मणबन्ध
मम् ) एवंच माणीदारिकाङ्गपुङ्गला कामेणकार्मणं चेति ॥ आहार
in Educ
a
tional
For Private Personel Use Only
Taldaw.jainelibrary.org
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे १० भवसंवे.
॥१२२॥
Jain Educatio
नम् ||१२|| भावनैवं वैक्रियवैक्रियादिबन्धनेष्वपि । स्वयं विचक्षणैः कार्या दिङ्मात्रं तु प्रदर्शितम् ॥ ९३ ॥ षट्कं संहननानां संस्थानानां षट्कमेव च । वर्णाः पञ्च रसाः पञ्चाष्टौ स्पर्शा गन्धयोर्द्वयम् ॥ ९४ ॥ तत्र वर्णो नीलकृष्णौ, कटुतिक्ताभिधौ रसौ । गुरुः खरो रुक्षशीताविति स्पर्शचतुष्टयम् ॥ ९५ ॥ दुर्गंधचेति नवकमशुभं परिकीर्तितम् । वर्णगन्धरसस्पर्शाः, शेषास्त्वेकादशोत्तमाः ॥ ९६ ॥ आनुपूर्व्यश्चतस्रः स्युश्चतुर्गतिसमाभिधाः । द्विधा विहायोगतिः स्यात्प्रशस्तेतर भेदतः ॥ ९७ ॥ एवं भेदाः पञ्चषष्टिः, पिण्डप्रकृतिजाः स्मृताः । पञ्चानामौदारिकादिबन्धनानां विवक्षया ॥ ९८ ॥ सा पञ्चषष्टिरष्टाविंशत्या प्रकृतिभिः पुरोक्ताभिः प्रत्येकाभिर्युक्ताः स्युर्नानस्त्रिनवतिर्भेदाः ॥ ९९ ॥ ( आर्या ) बन्धनानां पञ्चदशभेदत्वे च विवक्षिते । स्युर्नामकर्मणो भेदास्त्रिभिः समधिकं शतम् ॥ २००॥ बन्धनसंघातननाम्नामिह पञ्चदशपञ्चसंख्यानाम् । सह बन्ध सजातीयत्वाभ्यां न खाङ्गतः पृथग्गणनम् ॥ १॥ गीतिः ॥ कृष्णादिभेदभिन्नाया, वर्णादिविंशतेः पदे । सामान्येनैव वर्णादिचतुष्कमिह गृह्यते ॥ २ ॥ पूर्वोक्तत्रयुत्तरशतादेषां षट्त्रिंशतस्ततः । कृतेऽपसारणे सप्तषष्टिर्भेदा भवन्ति ते ॥ ३ ॥ बन्धे तथोदये नाम्नः, सप्तषष्टिरियं मता । षडूविंशतिश्च मोहस्य, बन्धे प्रकृतयः स्मृताः ॥ ४ ॥ सम्यक्त्वमिश्रमोहौ यज्ज्ञातु नो बन्धमर्हतः । एतौ हि शुद्धाशुद्धमिध्यात्वपुद्गलात्मकौ ॥ ५ ॥ त्रिपञ्चाशत्प्रकृतयस्तदेवं शेषकर्मणाम् । नाम्नश्च सप्तषष्टिः स्युः, शतं विंशं च मीलिताः ॥ ६ ॥ अधिक्रियन्ते बन्धे ता, उदयोदीरणे पुनः । सम्यक्त्वमिश्रसहितास्ता द्वाविंशं शतं खलु ॥ ७ ॥ नाम्नख्याढ्यं शतं पञ्चपञ्चाशत् शेष
tional
नाम्नो भेदे विविधता
२०
jainelibrary.org
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम स्याही संहताना बन्यो मिथाणां संहननातिहेतवः ।
कर्मणाम् । सत्तायामष्टपश्चात्यमेवं प्रकृतयः शतम् ॥ ८ ॥ चेद्वन्धनानि पश्चैव, विवक्ष्यन्ते तदा पुनः । अष्टचत्वारिंशशतं, सत्तायां कर्मणां भिदः ॥९॥ नामकर्मप्रकृतीनामथैतासां निरूप्यते । प्रयोजनं गुरूपान्ते, समीक्ष्य समयोदधिम् ॥१०॥ चतुभ्यों गतिनामभ्यः, प्राप्तिः खवगर्भवेत् । पञ्चभ्यो जातिनामभ्योऽप्येकह्याद्यक्षता भवेत् ॥ ११ ॥ पश्चानां वपुषां हेतुः, स्याद्वपुर्नाम पञ्चधा । औदारिकवैक्रियाहारकाङ्गोपाङ्गसाधनम् ॥ १२॥ त्रिधाऽङ्गोपाङ्गनाम स्याइन्धनानि च पञ्चधा । स्युः पञ्चदश वाऽङ्गानां, मिथः संबन्धहेतवः॥ १३ ॥ असत्सु बन्धनेष्वेषु, संघातनामकर्मणा । संहतानां पुद्गलानां, बन्धो न घटते मिथः ॥१४॥ सक्तूनां संगृहीतानां, यथा पत्रकरादिना । घृतादि श्लेषणद्रव्यं, विना बन्धो मिथो न हि ॥१५॥ औदारिकादियोग्यानां, स्यात्संघातननाम तु । संग्राहकं पुद्गलानां, दन्तालीव तृणावलेः॥१६॥ षण्णां संहननानां च, संस्थानानां च तावताम् । तत्तद्विशेषकारीणि, स्युर्नामानि तदाख्यया ॥ १७॥ तत्तद्वर्णगन्धरसस्पर्शनिष्पत्तिहेतवः । वर्णादिनामकर्माणि, विंशतिः स्युः शरीरिणाम् ॥ १८॥ द्वित्रिचतुःसमयेन प्रसर्पतां विग्रहेण परलोकम् । कर्पूरलाङ्गलगोमूत्रिकादिवद्गमनरूपायाम् ॥ १९॥ स्यादुद्य आनुपूर्त्या वक्रगती वृषभरजुकल्पायाः । स्वस्वगतिसमाभिख्याश्चतुर्विधास्ताश्च गतिभेदात् ॥ २० ॥ (आयें) गतिवृषभवच्छ्रष्टा, सद्विहायोगतिभवेत् । खरादिबत्सा दुष्टा स्यादसत्खगतिनामतः॥ २१ ॥सा द्वित्रिचतुष्पश्चेन्द्रियाः स्युनसनामतः। स्युर्बादरा बादराख्यात्, स्थूलपृथ्व्यादयोऽऽङ्गिनः॥ २२॥ लब्धिकरणपर्याप्ताः, पर्याप्सनामकर्मतः । प्रत्येकतनवो जीवाः, स्युः
1288888888888SPOORDAR
१४
Jain Educat
i onal
For Private & Personel Use Only
Oww.jainelibrary.org
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे १० भवसंवे.
॥१२३॥
Jain Education
प्रत्येकाख्यकर्मणा ॥ २३ ॥ स्थिरनामोदयाद्दन्तास्थ्यादि स्यात् स्थिरमङ्गिनाम् । नाभेरूर्द्ध च मूर्द्धादि, शुभना मोदयाच्छुभम् ॥ २४ ॥ स्पृष्टो मूर्द्धादिना धन्यः, शुभत्वादेव मोदते । अशुभत्वादेव परः स्पृष्टः क्रुध्येत्पदादिना ॥ २५ ॥ स्यात्प्रियोऽनुपकर्त्ताऽपि, लोकानां सुभगोयात् । मनोरमस्वरः प्राणी, भवेत्सुस्वरनामतः ॥ २६ ॥ अयुक्तवाद्यप्यादेयवाक् स्यादादेयनामतः । यशोनाम्नो यशः कीर्त्तिर्व्याप्रोति भुवि देहिनाम् ॥ २७ ॥ तत्र च - पराक्रमतपस्त्यागाद्युद्भूतयशसा हि यत् । कीर्त्तनं श्लाघनं ज्ञेया, सा यशः कीर्त्तिरुत्तमैः ॥ २८ ॥ यद्वा दानादिजा कीर्त्तिः, पराक्रमकृतं यशः । एकदिग्गामिनी कीर्त्तिः, सर्व दिग्गामुकं यशः ॥ २९ ॥ स्थावरः स्यात्स्थावराख्यात्, सूक्ष्मः स्यात्सूक्ष्मनामतः । अपर्याप्तोऽङ्गी म्रियेतापर्याप्तनामकर्मतः ॥ ३० ॥ साधारणाङ्गः स्यात्साधारणाख्यनामकर्मतः । अस्थिरास्थिदन्तजिह्वा कर्णादिरस्थिरोदयात् ॥ ३१ ॥ नाभेरधोऽशुभं पादादिकं चाशुभनामतः । उपकर्त्ताऽप्यनिष्टः स्याल्लोकानां दुर्भगोदयात् ॥ ३२ ॥ उक्तं च प्रज्ञापनावृत्तौ - " अणुवकएडवि बहूणं जो हु पिओ तस्स सुभगनामुदओ । उवगारकारगोऽविहु न रुच्चई दुग्भगस्सुद ॥ ३३ ॥ सुभगुद एवि हु कोई कंची आसज्ज दुग्भगो जवि । जायइ तद्दोसाओ जहा अभवाण तित्थयरो ॥ ३४ ॥ " दुष्टानिष्टस्वरो जन्तुर्भवेदुः स्वरनामतः । युक्तवाद्यप्यनादेयवाक्योऽनादेयनामतः ॥ ३५ ॥ अयशोऽकीर्त्तिभाग जीवोऽयशोनामोदयाद्भवेत् । सस्थावरदशके, एवमुक्ते स्वरूपतः ॥ ३६ ॥ पराघातोदयात्प्राणी, परेषां बलिनामपि । स्यादू दुर्द्धर्षः सदुच्छ्वासलब्धिश्वोच्छ्वासनामतः ॥ ३७ ॥ यतः स्वयमनुष्णोऽपि भवत्युष्णप्रकाशकृत् । तदा
नामभेदाः
२०
२५
॥ १२३॥
२८
ainelibrary.org
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
तपनामकर्म, रविबिम्बाङ्गिनामिव ॥ ३८॥ उष्णस्पर्शोदयादुष्णस्याग्नेर्या तु प्रकाशिता । न ह्यातपात्सा किं तु स्यात्तादृग्लोहितवर्णतः॥ ३९॥ तदुद्योतनामकर्म, यतोऽनुष्णप्रकाशकृत् । भवति प्राणिनामङ्गं, खद्योतज्योतिरादिवत् ॥४०॥ रत्नौषध्यादयोऽप्येवमुद्योतनामकर्मणा । द्योतन्ते मुनिदेवाश्च, विहितोत्तरवैक्रियाः ॥४१॥ यतो वपुर्नातिगुरु, नातिलध्वगिनां भवेत् । नामकर्मागुरुलघु, तदुक्तं युक्तिकोविदः ॥४२॥ तद्भवेतीर्थकृन्नाम, यतस्त्रिजगतोऽपि हि । अर्चनीयो भवत्यङ्गी, प्रातिहार्याद्यलङ्कतः॥४३॥ तद्विंशतः स्थानकानामाराधनान्निकाच्यते । भवे तृतीये नृगतावेव सम्यक्त्वशालिना ॥४४॥ उदयश्च भवत्यस्य, केवलोत्पत्त्यनन्तरम् । वेद्यते चैतद्ग्लान्या, धर्मोपदेशनादिभिः॥४५॥ यथास्थाने नियमनं, कुर्यान्निर्माणनाम तु । अङ्गोपाङ्गानां गृहादिकाष्ठानामिव वाकिः॥४६॥ प्रतिजिह्वादिना स्वीयावयवेनोपहन्यते । यतः शरीरी तदुपघातनाम प्रकीर्तितम् ॥४७॥ भवेदानलाभभोगोपभोगवीर्यविघ्नकृत् । अन्तरायं पञ्चविधं, कोशाध्यक्षसमं ह्यदः॥४८॥ यथा दित्सावपि नृपे, न प्राप्नोति धनं जनः। प्रातिकूल्यं गते कोशाध्यक्ष केनापि हेतुना ॥४९॥ अपि जानन दानफलं, वित्ते पात्रे च सत्यपि । तथा दातुं न शक्नोति, दानान्तरायविनितः ॥ ५० ॥ तथै-18 वोपायविज्ञोऽपि, कृतयत्नोऽपि नासुमान् । हेतोः कुतोऽपि प्राप्नोति, लाभं लाभान्तरायतः॥५१॥ भोगोप-12 भोगौ प्राप्तावप्यङ्गी भोक्तुं न शक्नुयात् । भोगोपभोगान्तरायविनितो मम्मणादिवत् ॥५२॥ इष्टानिष्टवस्तुलब्धिपरिहारादिषूद्यमम् । शक्तोऽपि कर्नु तं का, नेष्टे वीर्यान्तरायतः॥५३॥ज्ञानानां च ज्ञानिनां च,
१४
Jain Educ
tional INT
For Private
Personal Use Only
Diww.jainelibrary.org
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे १० भवसंवे.
॥१२४॥
Jain Education
गुर्वादीनां तथैव च । ज्ञानोपकरणानां चाशातनाद्वेषमत्सरैः ||२४|| निन्दोपघातान्तरायैः, प्रत्यनीकत्व निह्नवैः । बनात्यावरणं कर्म, ज्ञानदर्शनयोर्भवी ॥ ५५ ॥ युग्मम् । गुर्वादिभक्तिकरुणाकषायविजयादिभिः । बध्नाति कर्म साताख्यं दाता सद्धर्मदायुक् ॥ ५६ ॥ गुर्वादिभक्तिविकलः, कषायकलुषाशयः । असातावेदनीयं च, वनाति कृपणोऽसुमान् ॥५७॥ उन्मार्गदेशको मार्गापलापी साधुनिन्दकः । बध्नाति दर्शनमोहं, देवादिद्रव्य भक्षकः॥ ५८ ॥ कषाय हास्यविषयादिभिर्वभाति देहभृत् । कषायनोकषायाख्यं, कर्म चारित्रमोहकम् ॥ ५९ ॥ निबध्नाति नारकायुर्महारम्भपरिग्रहः । तिर्यगायुः शल्ययुक्तो, धूर्त्तश्च जनवञ्चकः ॥ ६० ॥ नरायुर्मध्यमगुणः, प्रकृत्याऽल्पकपायकः । दानादौ रुचिमान् जीवो, बध्नाति सरलाशयः ॥ ६१ ॥ चतुर्थादिगुणस्थान वर्त्तिनोऽकामनिर्जराः । जीवा बनन्ति देवायुस्तथा बालतपखिनः ॥ ६२ ॥ गुणप्रेक्षी व्यक्तमदोऽध्ययनाध्यापनोद्यतः । उच्चं गोत्रमईदादिभक्तो नीचमतोऽन्यथा ॥ ६३ ॥ अगौरवश्च सरलः, शुभं नामान्यथाऽशुभम् । बध्नाति हिंसको विघ्नमर्हत्पू जादिविघ्नकृत् ||६४|| स्थितिरुत्कर्षतो ज्ञानदर्शनावरणीययोः । वेदनीयस्य च त्रिंशदम्भोधिकोटिकोटयः ॥ ६५ ॥ मोहनीयस्य चान्धीनां, सप्ततिः कोटिकोटयः । आयुषः स्थितिरुत्कर्षात्रयस्त्रिंशत्पयोधयः ॥ ६६ ॥ अबाधाकालरहिता, प्रोक्तेषाऽऽयुर्गुरुस्थितिः । तद्युक्तेयं पूर्वकोटीतार्त्तीयीकलवाधिका ॥ ६७ ॥ गोत्रनाम्नोः साऽम्बुधीनां, विंशतिः कोटिकोटयः । स्थितिर्ज्येष्ठाऽन्तरायस्य, स्याद् ज्ञानावरणीयवत् ॥ ६८ ॥ स्थितिर्जघन्यतो ज्ञानदर्शनावरणीययोः । अन्तर्मुहूर्त्तप्रमिता, तत्त्वविद्भिर्निरूपिता ॥ ६९ ॥ कषायप्रत्ययं बन्धमाश्रित्याल्पीयसी स्थितिः ।
कर्मणां हेतवः स्थितयश्च
२०
२५
॥ १२४॥
२८
w.jainelibrary.org
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्याद् द्वादशमुहूर्तात्मा, वेदनीयस्य कर्मणः ॥७०॥ उपशांतक्षीणमोहादिकानां स्वकषायिणाम् । योगैकहेतुव | दस्य, वेद्यस्य द्वौ क्षणौ स्थितिः ॥७१॥ स्थितिलघ्व्यन्तर्मुहूर्त, मोहनीयस्य कर्मणः । आयुषः क्षुल्लकभवप्रमिता सा प्रकीर्तिता ॥७२॥ अष्टाष्टौ च मुहूर्तानि, गोत्रनाम्नोलघुः स्थितिः । अन्तर्मुहूर्तप्रमिता, साऽन्तरायस्य कर्मणः॥७३॥ यावत्कालमनुदयो, बद्धस्य यस्य कर्मणः। तावानबाधाकालोऽस्य, स जघन्येतरो द्विधा ॥७४॥ अवाधाकाल उत्कृष्टस्त्रयोऽब्दानां सहस्रकाः। आद्यकर्मत्रये सुष्ठ, निर्दिष्टो दृष्टविष्टपैः॥७५॥ सप्त वर्षसहस्राणि, मोहनीयस्य कर्मणः । पूर्वकोव्यास्तृतीयोऽशः, स भवत्यायुषो गुरुः ॥७६ ॥ गोत्रनाम्रोः कर्मणोस्तु, द्वे हे सोऽन्दसहस्रके । त्रीण्येवाब्दसहस्राणि, सोऽन्तरायस्य कर्मणः॥७७॥ जघन्यतस्त्वबाधाद्धा, सर्वेषामपि कर्मणाम् । अन्तर्मुहूर्तप्रमिता, कथिता तत्त्ववेदिभिः॥७८ ॥ अबाधाकालहीनायां, यथावकर्मणां स्थिती। भवेत्कर्मनिषेकस्तत्, परिभोगाय देहिनाम् ॥७९॥ कर्मणां दलिकं यत्र, प्रथमे समये बहु। द्वितीयसमये हीनं, ततो हीनतरं क्रमात् ॥ ८०॥ एवं या कर्मदलिकरचना क्रियतेऽङ्गिभिः । वेदनार्थमसौ कर्मनिषेक इति कीर्त्यते ॥ ८१॥ कर्माण्यमूनि प्रत्येकं, प्राणिनामखिलान्यपि । भवेऽनादौ तिष्ठतां स्युरनादीनि प्रवाहतः ॥ ८२॥ स्वभावतोऽकर्मकाणां, जीवानां प्रथमं यदि । संयोगः कर्मणामङ्गीक्रियते समये कचित् ॥ ८३ ॥ तदा कर्मक्षयं कृत्वा, सिद्धानामपि देहिनाम् । पुनः कदाचित्समये, कर्मयोगः प्रसज्यते ॥ ८४ ॥ विश्लेषस्तु भवेजीवादनादित्वेऽपि कर्मणाम् । ज्ञानादिभिः पावकाद्यैरुपलस्येव काश्चनात् ॥ ८५॥ नन्वेवमन्तरायाणां, पञ्चानां
१४
Jan Educati
o nal
For Private
Personel Use Only
mineraryong
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे १०भवसंवे.
॥१२५॥
मूलतः क्षये । संजाते किं ददात्यहन् ?, सततं लभते च किम् ? ॥८६॥ भुङ्क्ते किमुपभुङ्क्ते वा ?, वीर्य किं वा
पुण्यपापप्रवर्तयेत् । न चेत्किञ्चित्तदा तेषां, विघ्नानां किं क्षये फलम् ? ॥ ८७॥ अत्रोच्यतेऽर्हतः क्षीणनिःशेषघा-II
प्रकृतयः |तिकर्मणः । गुणः प्रादुर्भवत्येषोऽन्तरायाणां क्षये यतः॥८८॥ ददतो लभमानस्य, भुञ्जतो वोपभुञ्जतः । वीर्य प्रयुञ्जतो वाऽस्य, नान्तरायो भवेत् कचित् ॥ ८९॥ दानलाभादिकं त्वस्य, न संभवति सर्वदा । तत् तत्कारणसामग्यां, सत्यां भवति नान्यथा ॥९०॥ नृदेवगत्यानुपूयों, जातिः पञ्चेन्द्रियस्य च । उच्चैर्गोत्रं सात-IST वेद्यं, देहाः पञ्च पुरोदिताः॥९१॥ अङ्गोपाङ्गत्रयं संहननं संस्थानमादिमम् । वर्णगन्धरसस्पर्शाः, श्रेष्ठा अगु-18 रुलध्वपि ॥ ९२ ॥ पराघातमथोच्छासमातपोद्योतनामनी । नृदेवतिर्यगायूंषि, निर्माणं सन्नभोगतिः॥९३॥ तथैव त्रसदशकं, तीर्थकृन्नामकर्म च । द्विचत्वारिंशदित्येवं, पुण्यप्रकृतयो मताः ॥ ९४ ॥ भेदाः पञ्च नव ज्ञानदर्शनावरणीययोः । नीचैर्गोत्रं च मिथ्यात्वमसातवेदनीयकम् ॥ ९५ ॥ नरकस्यानुपूर्वी च, गतिरायुरिति त्रयम् । तिर्यग्गत्यानुपूयौँ च, कषायाः पञ्चविंशतिः॥९६॥ एकद्वित्रिचतुरक्षजातयोऽसन्नभोगतिः । अप्रशस्ताश्च वर्णायास्तथोपघातनाम च ॥९७ ॥ अनाद्यानि पश्च संस्थानानि संहननानि च । तथा स्थावरदशकमन्तरायाणि पञ्च च ॥९८॥उक्ताव्यशीतिरित्येताः, पापप्रकृतयो जिनः। न भूयान् विस्तरश्चात्र, क्रियते विस्तृ
॥१२५॥ तेर्मिया ॥ ९९॥ एतेषु कर्मखष्टासु, भवत्याद्यं चतुष्टयम् । घातिसंज्ञं जीवसत्कज्ञानादिगुणघातकृत् ॥३०॥ अन्त्यं चतुष्टयं च स्याद्भवोपनाहिसंज्ञकम् । छद्मस्थानां तथा सर्वविदामप्येतदाभवम् ॥ ३०१॥ पारावारानु- २८
कन्नामकर्म च । विनोयोतनामनी । नदेवतियामम् । वर्णगन्धरसस्पीचर्गोत्रं सात
JainEducation
For Private Personel Use Only
Mainelibrary.org
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवाचकेन्द्रा दशमः सुधारसमा सर्गः संपूर्णः ।।
O900999999999
कारादितिजिनसमयाद भूरिसारादपारादुचित्योचित्य मुक्ता इव नवसुषमा युक्तिपकीरनेकाः। तृप्ता जीवखरूपप्रकरणरचना योरुमुक्तावलीव, सोत्कण्ठं कण्ठपीठे कुरुत कृतधियस्तां चिदुद्बोधसिद्ध्यै ॥१॥ (स्रग्धरा) विश्वाश्चर्यदकीर्तिकीर्तिविजयश्रीवाचकेन्द्रान्तिषद्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्त्वप्रदीपोपमे, सर्गोऽयं दशमः सुधारससमः पूर्णः सुखेनासमः॥१॥ ग्रन्थाग्रम् ३१०अ०८
॥ इति श्रीलोकप्रकाशे दशमः सर्गः संपूर्णः॥
॥ एकादशः सर्गःप्रारभ्यते ॥ पुद्गलानामस्तिकायमथ किश्चित्तनोम्यहम् । गुरुश्रीकीर्तिविजयप्रसादप्राप्तधीधनः ॥१॥ द्रव्यक्षेत्रकालभावगुणैरेषोऽपि पञ्चधा । अनन्तद्र्व्यरूपोऽसौ, द्रव्यतस्तत्र वर्णितः ॥२॥ लोक एवास्य सद्भावात्, क्षेत्रतो लोकसंमितः । कालतः शाश्वतो वर्णादिभिर्युक्तश्च भावतः॥ ३ ॥ गुणतो ग्रहणगुणो, यतो द्रव्येषु षट्स्वपि । भवेद् ग्रहणमस्यैव, न परेषां कदाचन ॥४॥ भेदाश्चत्वार एतेषां, प्रज्ञप्ताः परमेश्वरैः । स्कन्धा देशाः प्रदेशाच, परमाणव एव च ॥५॥ अनन्तभेदाः स्कन्धाः स्युः, केचन द्विप्रदेशकाः। त्रिप्रदेशादयः| सङ्ख्यासङ्ख्यानन्तप्रदेशकाः॥६॥ सूक्ष्मस्थूलपरीणामाः, स्युः प्रत्येकमनन्तकाः । एकक्षणाद्यसयेयकालान्तस्थितिशालिनः॥७॥ द्विप्रदेशादिकोऽनन्तप्रदेशान्तो विवक्षितः। स्कन्धसंबद्धो विभागः, स भवेद्देशसंज्ञकः ॥८॥ निर्विभाज्यो विभागो यः, स्कन्धसंबद्ध एव हि । परमाणुप्रमाणोऽसौ, प्रदेश इति कीर्तितः
09-
9808093E
१
१४
Jain Educat
i onal
For Private & Personel Use Only
IXww.jainelibrary.org
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे ११ पुद्गलस. ॥१२६ ॥
Jain Educatio
॥ ९ ॥ कार्यकारणरूपाः स्युर्द्विप्रदेशादयो यथा । द्विप्रदेशो द्वयोरण्योः, कार्य व्यणुककारणम् ॥ १० ॥ परमाणुस्त्वप्रदेशः, प्रत्यक्षो ज्ञानचक्षुषाम् । कार्यानुमेयोऽकार्यश्च भवेत्कारणमेव सः ॥ ११ ॥ यदाहुः - "कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ १२ ॥” ( आर्या ) तत्रापि - शीतोष्णस्निग्धरूक्षेषु, द्वौ चतुर्ष्वविरोधिनौ । स्पर्शो स्यातां परमाणुष्वपरे न कथञ्चन ॥ १३ ॥ तथाहु: - "परमाण्वादीनामसङ्ख्यातप्रदेशकस्कन्धपर्यन्तानां केषाञ्चिदनन्तप्रादेशिकानामपि स्कन्धानां, तथा एकप्रदेशावगाढानां यावत्सङ्ख्यातप्रदेशावगाढानां शीतोष्णस्निग्धरूक्षरूपाश्चत्वार एव स्पर्शा" इति प्रज्ञापनावृत्तौ । द्रव्यक्षेत्रकालभावैः, परमाणुश्चतुर्विधः । द्रव्यतोऽणुः पुद्गलाणुश्चतुर्लक्षण एव सः ॥ १४ ॥ अदाह्यो| ग्राह्य एवासावभेद्योऽच्छेद्य एव च । क्षेत्राणुस्त्वभ्रप्रदेशश्चतुर्लक्षण एव सः ॥ १५ ॥ अप्रदेशोऽविभागश्चामध्योऽनर्ध इति स्मृतः । कालाणुः समयाख्यः स्याच्चतुर्लक्षण एव सः ॥ १६ ॥ वर्णगन्धरसस्पर्शे, रहितश्चाथ भावतः । द्रव्याणुरेव वर्णादिभावप्राधान्यतो मतः ॥ १७ ॥ भावाणुरथवा सर्वजघन्यश्यामतादिकम् । इह प्रयोजनं द्रव्यपरमाणुभिरेव हि ॥ १८ ॥ इति भग० श० २० उ० ५ ॥ स नित्यानित्यरूपः स्यात्, द्रव्यपर्या| यभेदतः । तत्र च द्रव्यतो नित्यः, परमाणोरनाशतः ॥ १९ ॥ पर्यायतस्त्वनित्योऽसौ यतो वर्णादिपर्यवाः । नश्यन्त्येके भवत्यन्ये, विस्रसादिप्रभावतः ||२०|| अस्य शाश्वतभावेन, केचित्पर्यवनित्यताम् । मन्यन्ते तदसद् यस्मात् पञ्चमाङ्गे स्फुटं श्रुतम् ॥ २१ ॥ " परमाणुपुग्गले णं भंते ! सासए असासए ?, गो० ! सिअ सासए,
lational
परमाणुखरूपम्
२०
२५
॥ १२६ ॥
२८
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिअ असासए । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति ?, गो० ! दवट्टयाए सासए, पज्जवट्ठयाए असासए” इति । पुद्गलानां दशविधः, परिणामोऽथ कथ्यते । बन्धनाख्यो गतिनामा, संस्थानाख्यस्तथाऽपरः ॥ २२॥ भेदाख्यः परिणामः स्यादु, वर्णगन्धरसाभिधाः । स्पर्शोऽगुरुलघुः शब्दः, परिणामा दशेत्यमी ॥ २३ ॥ स्याद्विस्रसाप्रयोगाभ्यां, बन्धः पौगलिको द्विधा । तत्र यो विस्रसाबन्धः, सोऽपि विविध इष्यते ॥ २४ ॥ बन्धनप्रत्ययः। पात्रप्रत्ययः परिणामजः।बन्धनप्रत्ययस्तत्र, स्कन्धेषु ट्यणुकादिषु॥२५॥भवेद्धि व्यणुकादीनां, विमात्रस्नग्ध्यरौक्ष्यतः। मिथो बन्धोऽसङ्ख्यकालमुत्कर्षात्समयोऽन्यथा ॥२६॥ यदाहु:-"समनिद्धयाए बंधो न होइ समलुकखयाएवि न होइ । वेमायनिद्धलुखत्तणेण बंधोउ खंधाणं ॥२७॥" विषममात्रानिरूपणार्थं चोच्यते-"निद्धस्स निद्धेण दुयाहिएण, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । निद्धस्स लुक्खेण उवेति बंधो, जहन्नवज्जो विसमो समो। वा ॥२८॥" जीर्णमद्यगुडादीनां, भाजने स्त्यानता तु यास पात्रप्रत्ययः सङ्ख्यकालो वाऽऽन्तमुहर्तिकः ॥२९॥ परिणामप्रत्ययस्तु, सोऽभ्रादीनामनेकधा । जघन्यश्चैकसमयं, षण्मासान् परमः पुनः॥ ३०॥ इति विस्रसाबन्धः॥ अथ प्रयोगबन्धो यः, स चैषां स्याच्चतुर्विधः । आलापनश्चालीनश्च, शरीरतत्प्रयोगको ॥ ३१॥ तृणका-| ष्टादिभाराणां, रज्जुवेत्रलतादिभिः । सयकालान्तर्मुहत्तों, बन्ध आलापनाभिधः ॥ ३२ ॥ चतुर्धाऽऽलीनवन्धस्तु, प्रथमः श्लेषणाभिधः । समुच्चयोचयो बन्धौ, तुर्यः संहननाभिधः ॥ ३३ ॥ यः कुज्यकुहिमस्तम्भघटकाष्ठादिवस्तुषु । सुधामृत्पङ्कलाक्षाद्यैर्वन्धः स श्लेषणाभिधः ॥ ३४ ॥ तटाकदीर्घिकावप्रस्तूपदव-16
raemoradabasa9290 %
AS
जो. प्र. २२
ल लल
Jain Educatio
n
For Private & Personel Use Only
Miww.jainelibrary.org
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
2
लोकप्रकारे ११पुद्गलस.
॥१२७॥
कुलादिषु । बन्धः सुधादिभिर्यः स्यात्, बहूनां स समुच्चयः॥ ३५ ॥ तृणावकरकाष्ठानां, तुषगामयभस्मनाम् । दशविधपुउच्चत्वेन च यो बन्धः, स स्यादुच्चयसंज्ञकः ॥ ३६॥ द्विधा संहननाख्यस्तु, देशसर्वविभेदतः। तत्राद्यः शक- द्गलपरिटाङ्गादौ, परः क्षीरोदकादिषु ॥ ३७॥ आरभ्यालापनादेषां, जघन्योत्कर्षतः स्थितिः । अन्तर्मुहर्तसंख्यात
णामः कालो ज्ञेया विचक्षणैः ॥ ३८॥ द्विधा शरीरबन्धः स्यादेकः पूर्वप्रयोगजः। प्रत्युत्पन्नप्रयोगोत्थः, परः सोऽभूतपूर्वकः॥३९॥ तत्राद्योऽन्त्यसमुद्घाते, क्षिप्तानां देहतो बहिः । तैजसकार्मणाणूनां, पुनः संकोचने भवेत् ॥४०॥ समुद्घातानिवृत्तस्य, परः केवलिनोऽष्टसु । स्यात्पश्चमे क्षणे तेजाकार्मणाणुसमाहृतौ॥४१॥ आत्मप्रदेशविस्तारे, तेजाकार्मणयोरपि । विस्तारः संहतो तेषां, संघातः स्यात्तयोरपि ॥४२॥ देहप्रयोगबन्धस्तु, बहुधौदारिकादिकः । स पञ्चमाङ्गे शतकेऽष्टमे ज्ञेयः सविस्तरः ॥४३॥ इति बन्धपरिणामः॥ गतेः परिणतिइंधा, संस्पृशन्त्यस्पृशन्त्यपि । द्वयोरयं विशेषस्तु, वर्णितस्तत्त्वपारगैः॥४४॥ पुद्गलस्यान्तरा वस्त्वन्तरं संस्पृशतो गतिः। याऽसौ भवेत्संस्पृशन्ती, द्वितीया स्यात्ततोऽन्यथा ॥४५॥ अथवा-द्विधा गतिपरीणामो, दीर्घान्यगतिभेदतः। दीर्घदेशान्तरप्राप्तिहेतुराद्योऽन्यथा परः॥४६॥ एकेन समयेनैव, पुद्गलः किल गच्छति ।
॥१२७॥ लोकान्तादन्यलोकान्तं, गतेः परिणतेबलात् ॥४७॥ तथाहु:-"परमाणुपुग्गलेणं भंते ! लोगस्स पुरथिमि-15 ल्लातो चरिमंताओ पञ्चथिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ? दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ उत्तरिल्लं चरि-ISI मंतं उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ दाहिणिल्लं चरिमंतं उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेडिल्लं चरिमंतं हेहिल्लाओ चरि
9999992989929
२५
Jain Education
H
Talkijainelibrary.org
a
For Private & Personal use only
l
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
मंताओ उवरिल्लं चरिमंतं एगेणं समएणं गच्छति ? हंता गोयमा ! जाव गच्छति ॥ इति भगवतीसूत्रे शत०१६ उ०८॥ इति गतिपरिणामः॥ परिमण्डलं च वृत्तं, यस्रं च चतुरस्रकम् । आयतं च रूप्यजीवसंस्थानं पञ्चधा मतम् ॥४८॥ मण्डलावस्थिताण्वोघं, बहिः शुषिरमन्तरे । वलयस्येव तज्ज्ञेयं, संस्थानं परिमण्डलम् ॥४९॥ अन्तःपूर्ण तदेव स्यादृत्तं कुलालचक्रवत् । व्यत्रंशृङ्गाटवत्कुम्भिकादिवच्चतुरस्रकम् ॥५०॥ आयतं दण्डबद्दीर्घ, घनप्रतरभेदतः। चत्वारि स्युर्द्विधा संस्थानानि प्रत्येकमादितः॥५१॥ आयतं तु त्रिधा श्रेणिघनमत-18 रभेदतः। ओजयुग्मप्रदेशानि, द्वेधाऽमूनि विनाऽऽदिमम् ॥५२॥ ओजःप्रदेशं प्रतरवृत्तं पश्चाणुसंभवम् । पञ्चाकाशप्रदेशावगाढं च परिकीर्तितम् ॥ ५३ ॥ यत्र प्रदेशाश्चत्वारश्चतुर्दिशं प्रतिष्ठिताः। एकः प्रदेशोऽन्तर्वृत्तप्रतरं तद् यथोदितम् ॥५४॥ युग्मप्रदेशं प्रतरवृत्तं च द्वादशाणुकम् । तावदभ्रांशावगाढं, तच्चैवमिह जायते॥५॥ चतुर्वभ्रप्रदेशेषु, चत्वारोऽशा निरन्तरम् । स्थाप्यन्ते रुचकाकारास्तत्परिक्षेपतस्ततः॥५६॥ द्वौ द्वौ चतुर्दिशं स्थाप्यौ, प्रदेशौ जायते ततः । युग्मप्रदेशं प्रतरवृत्तमुक्तं पुरातनैः ॥५७॥ सप्ताणुकं सप्तखांशावगाढं च भवेदिह । ओजःप्रदेशनिष्पन्नं, घनवृत्तं हि तद्यथा ॥५८॥ पञ्चप्रदेशे प्रतरवृत्ते किल पुरोदिते । अध ऊर्द्ध च मध्याणोरेकैकोऽणुर्निवेश्यते ॥ ५९॥ द्वात्रिंशदणुसंपन्नं, तावत्खांशावगाढकम् । युग्मप्रदेशं हि घनवृत्तं भवति तद्यथा ॥ ६० ॥ उक्तप्रतरवृत्तस्य, द्वादशांशात्मकस्य वै । उपरिष्टाद् द्वादशान्ये, स्थाप्यन्ते परमाणवः ॥ ६१॥ ततः पुनर्मध्यमाणुचतुष्कस्याप्युपर्यधः । स्थाप्यन्ते किल चत्वारश्चत्वारः परमाणवः ॥६२ ॥ ओज-18| १४
Jain Educat
onal
For Private Personal Use Only
OMw.jainelibrary.org
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे ११पुगलस.
॥१२८॥
प्रदेशं प्रतरत्र्यनं तु त्रिप्रदेशकम् । त्रिप्रदेशावगाढंच, तदेवं जायते यथा ॥ ६३ ॥ स्थाप्येते दावणू पत्तया, परिणाम एकस्याधस्ततः परम् । एकोऽणुः स्थाप्यत इति, निर्दिष्टं शिष्टदृष्टिभिः ॥ ६४॥ युग्मप्रदेशं प्रतरत्र्यनं तु षट्- वृत्तादीनि प्रदेशकम् । षट्प्रदेशावगाढं च, तदेवं किल जायते ॥६५॥ त्रयः प्रदेशाःस्थाप्यन्ते, पत्त्याऽणुद्वितयं ततः। आद्यस्याधो द्वितीयस्य, त्वध एको निवेश्यते ॥६६॥ ओजाणुकं घनत्र्या, पञ्चत्रिंशत्प्रदेशकम् । पञ्चत्रिंशत्खप्रदेशावगाढं च भवेद्यथा ॥ ३७॥ तिर्यङ् निरन्तराः पञ्च, स्थाप्यन्ते परमाणवः। तानधोऽधः क्रमेणैवं, स्थाप्यन्ते परमाणवः ॥ ६८॥ तिर्यगेव हि चत्वारस्त्रयो द्वावेक एव च । जातोऽयं प्रतरः पञ्चदशांशः पञ्चपडिकः॥ ६९॥ ततश्चास्योपरि सर्वपकिष्वन्त्यान्त्यमंशकम् । विमुच्यांशा दश स्थाप्यास्तस्याप्युपरि षट् तथा ॥७॥ इत्थमेव तदुपरि, त्रय एकस्ततः पुनः। उपर्यस्यापीति पञ्चत्रिंशत्स्युः परमाणवः ॥७१॥ युग्मप्रदेश तु घनत्र्यस्रं चतुष्पदेशकम् । चतुोमांशावगाढं, तदप्येवं भवेदिह ॥७२॥ पूर्वोक्ते प्रतरत्र्यो, त्रिप्रदेशात्मके किल । अणोरेकस्योद्धुमेकः, स्थाप्यते परमाणुकः॥७३॥ ओजःप्रदेशं प्रतरचतुरस्त्रं नवांशकम् । नवा-1 काशांशावगाढमित्थं तदपि जायते ॥ ७४ ॥ तिर्यग निरन्तरं तिस्रः, पतयस्त्रिप्रदेशिकाः । स्थाप्यन्ते तहि ।। २५ जायेत, चतुरस्रमयुग्मजम् ॥ ७५ ॥ युग्मप्रदेशं प्रतरचतुरस्रं तु तद्भवेत् । चतुरभ्रांशावगाढं, चतुःप्रदेशसंभवम् ॥१२॥ |॥ ७६ ॥ द्विद्धिप्रदेशे द्वे पती, स्थाप्यते तत्र जायते । युग्मप्रदेशं प्रतरचतुरस्रं यथोदितम् ॥ ७७ ॥ सप्तविंशत्यणुजातं, तावदभ्रांशसंस्थितम् । ओजःप्रदेशं हि धनचतुरस्रं भवेदिह ॥ ७८॥ नवप्रदेशप्रतरचतुरस्रस्य तस्य
Jain Educationahational
For Private & Personel Use Only
IONw.jainelibrary.org
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
वै। उपर्यधो नव नव, स्थाप्यन्ते परमाणवः॥७९॥ अष्टव्योमांशावगाढं, स्पष्टमष्टप्रदेशकम् । युग्मप्रदेशं तु घनचतुरस्रं भवेद्यथा ॥८॥ चतुष्पदेशप्रतरचतुरस्रस्य चोपरि।चतुष्पादेशिकोऽन्योऽपि, प्रतरः स्थाप्यते किल ॥ ८१॥ ओजःप्रदेशजं श्रेण्यायतं स्यात्रिप्रदेशजम् । त्र्यंशावगाढमणुषु, त्रिषु न्यस्तेषु संततम् ॥ ८२॥ निरन्तरं स्थापिताभ्यामणुभ्यां द्विप्रदेशजम् । युग्मप्रदेशज श्रेण्यायतं यभ्रांशसंस्थितम् ॥ ८३ ॥ ओजःप्रदेशं प्रतरायतं पञ्चदशांशकम् । तावव्योमांशावगाढमित्थं तदपि जायते ॥ ८४ ॥ पङ्कित्रयेऽपि स्थाप्यन्ते, पञ्च पञ्चाणवस्तदा । ओजःप्रदेशजनितं, भवति प्रतरायतम् ॥ ८५ ॥ षट्खांशस्थं षट्प्रदेशं, स्याद्युग्मप्रतरायतम् । त्रिषु त्रिषु द्वयोः पङ्क्तयोय॑स्तेषु परमाणुषु ॥८६॥ पञ्चचत्वारिंशदंशमोजाणुकं घनायतम् । पञ्चचत्वारिंशदभ्रप्रदेशेषु प्रतिष्ठितम् ॥ ८७॥ तत्र च-पूर्वमुक्ते पञ्चदशप्रदेशप्रतरायते । पञ्चदश पञ्चदशाणवः स्थाप्या उपर्यधः ॥८८॥ द्वादशांशं द्वादशाभ्रांशावगाढं घनायतम् । युग्मप्रदेशजं ज्ञेयमित्थं तदपि जायते| ॥ ८९॥ षडंशस्य च प्रतरायतस्योपरि विन्यसेत् । षट् प्रदेशांस्ततो युग्मप्रदेशं स्याद् घनायतम् ॥ ९०॥ विंशत्यभ्रांशावगाढं, विंशत्यंशात्मकं भवेत् । युग्मप्रदेशं प्रतरपरिमण्डलनामकम् ॥९१॥ चतुर्दिशं तु चत्वा-18 रश्चत्वारः परमाणवः।विदिक्षु स्थाप्य एकैको, भवेदेवं कृते सति॥९२॥अणूनां विंशतेरेषामुपयेणुषु विंशती। स्थापितेषु युग्मजातं, स्याद घनं परिमण्डलम् ॥९३॥ एतचत्वारिंशदंश, तावत्खांशप्रतिष्ठितम् । ओजःप्रदेशजनिती, त्वत्र भेदी न संमतौ ॥९४ ॥ उक्त प्रदेशन्यूनत्वे, संभवंति न निश्चितम् । संस्थानानि यथोक्तानि,
JainEducatasthional
For Private
Personel Use Only
INow.jainelibrary.org
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________ वृत्तादीनि संस्थानानि लोकप्रकाशेतत इत्थं प्ररूपणा // 95 // यथा पूर्वोक्ततः पञ्चाणुकप्रतरवृत्ततः। एकत्रांशे कर्षिते स्यात्, समाशं चतुरस्रक ११पुद्गलस. // 96 // एतान्यतीन्द्रियत्वेन, नैवातिशयवर्जितैः / ज्ञेयान्यतः स्थापनाभिः, प्रदर्श्यन्ते इमास्तु ताः॥९७॥ स्थापना-॥ जघन्यानि किलैतानि, सर्वाण्युत्कर्षतः पुनः। अनन्ताणुखरूपाणि, मध्यमान्यपराणि तु // 98 // // 129 // तथोक्तमुत्तराध्ययननियुक्ती-"परिमंडले य वट्टे, तंसे चउरंस आयए चेव / घणपयरपढमवजं, ओजपएसे य जुम्मे य // 99 // पंचग बारसगं खलु सत्तग बत्तीसगं च वसृमि / तिअ छक्कग पणतीसा चत्तारि य होंति तंसंमि // 10 // नव चेव तहा चउरो सत्तावीसा य अट्ट चउरंसे / तिग दुग पन्नरसेव य छच्चेव य आयए होति // 1 // पणयाला बारसगं तह चेव य आययंमि संठाणे / वीसा चत्तालीसा परिमंडलए य संठाणे // 2 // " पञ्चमानें त्वनित्थंस्थं, षष्ठं संस्थानमीरितम् / पञ्चभ्योऽपि व्यतिरिक्तं, द्वयादिसंयोगसंभवम् // 3 // |संस्थानयोईयोर्यद्यप्येकद्रव्ये न संभवः। तथापि भिन्नभिन्नांशे, ते स्यातां दर्विकादिवत् // 4 // एषु चाल्पाल्पप्रदेशावगाहीनि स्वभावतः। भूयांस्यल्पानि भूयिष्ठखांशस्थायीनि तानि च // 5 // संस्थानमायतं षोढा, द्विविधं परिमण्डलम् / चतुर्विधानि शेषाणि, संस्थानानीति विंशतिः॥६॥भेदाख्यः पुद्गलपरीणामो भवति पञ्चधा / खण्डप्रतरभेदी द्वौ, चूर्णिकाभेद इत्यपि // 7 // भेदोऽनुतटिकाभिख्यो, भेद उत्करिकाभिधः / स्वरू| पमप्यथैतेषां, यथाश्रुतमथोच्यते // 8 // लोहखण्डादिवत्खण्डभेदो भवति निश्चितम् / भूर्जपत्राभ्रपटलादिवत्प्रतरसंज्ञितः॥९॥ स भवेचूर्णिकाभेदः, क्षिप्तमृत्पिण्डवत्किल / इक्षुत्वगादिवदनुतटिकाभेद इष्यते // 10 // // 129 // For Private Personal Use Only Jain Education iminational wjainelibrary.org
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
उत्कीर्यमाणे प्रस्थादौ, स स्यादुत्करिकाभिधः। तटाकावटवाप्यादिष्वप्येवं भाव्यतामयम् ॥११॥ द्रव्याणि भिद्यमानानि, स्तोकान्युत्करिकाभिदा। पश्चानुपूा शेषाणि, स्युरनन्तगुणानि च ॥ १२॥ वर्णैः परिणतानां तु, भेदाः पञ्च प्ररूपिताः । कृष्णनीलारुणपीतशुक्ला इति विभेदतः॥१३॥ स्युः कजलादिवत्कृष्णा, नीला नील्यादिवन्मताः । स्युर्हिगुलादिवद्रक्ताः, पीताश्च काश्चनादिवत् ॥ १४ ॥ शुक्लाः शङ्खादिवद्गन्धपरिणत्या तु ते 8 द्विधा । पुष्पादिवत्सुरभयो, दुर्गन्धा लशुनादिवत् ॥१५॥ रसैः परिणतास्ते तु, प्रकारैः पञ्चभिर्मताः। तिक्तकटुकषायाम्लमधुरा इति भेदतः॥१६॥ कोशातक्यादिवत्तिक्ताः, कटवो नागरादिवत् । प्रोक्ता आमकपि| त्यादिवत्कषायरसाचिताः ॥१७॥ अम्लिकादिवदम्लाः स्युर्मधुराः शर्करादिवत् । स्पर्शः परिणता येऽपि, तेषामष्टौ विधाः पुनः ॥ १८ ॥ उष्णशीती मृदुखरौ, लिग्धरूक्षी गुरुर्लघुः । उष्णस्पर्शास्तत्र वयादिवत् शीता हिमादिवत् ॥ १९॥ बोदिवच्च मृदवः, खराश्च प्रस्तरादिवत् । स्निग्धा घृतादिवद् ज्ञेया, रूक्षा भस्मादिवन्मताः॥२०॥ गुरुस्पर्शपरिणता, वज्रादिवत्प्रकीर्तिताः । लघुस्पर्शपरिणता, अर्कतूलादिवन्मताः ॥२१॥ अगुरुलघुपरिणामव्यवस्था चैवं-धूमो लघुरूपलो गुरुरूधिोगमनशीलतो ज्ञेयौ। गुरुलघुरनिलस्तिर्यग्गमनादाकाशमगुरुलघु ॥ २२ ॥ व्यवहारतश्चतुर्धा भवन्ति वस्तूनि बादराण्येव । निश्चयतश्चागुरुलघु गुरुलघु चेति । विभेद्येव ॥ २३ ॥ तत्रापि-बादरमष्टस्पर्श द्रव्यं रूप्येव भवति गुरुलघुकम् । अगुरुलघु चतुःस्पर्श सूक्ष्म वियदायमूर्तमपि ॥ २४॥ वैक्रियमौदारिकमपि तैजसमाहारकं च गुरुलघुकम् । कार्मणमनोवचांसि च सोच्छ्र
Jain Educa
t
ional
For Private & Personel Use Only
Ho
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकप्रकाशे ११पुद्गलस. ॥१३०॥
भेदः अगुरुलघुतादि
सान्यगुरुलघुकानि ॥२५॥ (आर्याः) तथोक्तं-"निच्छयओ सवगुरुं सबलहुं वा न विजए दवं । ववहारओ उ जुजइ बायरखंधेसु नऽण्णेसु ॥ २६ ॥ अगुरुलहू चउफासा अरूविदवा य होंति नायवा। सेसा उ अट्टफासा गुरुलहुआ निच्छयनयस्स ॥ २७ ॥ ओरालिय वेउविय आहारग तेय गुरुलहू दवा । कम्मगमणभासाई एयाइं अगुरुलहुआई ॥२८॥” इति भगवतीवृत्तौ ॥ वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानैर्मुख्यभावतः । प्रत्येक चिन्तितैर्भेदाः, स्युर्भूयांसोऽत्र ते त्वमी ॥ २९ ॥ एकस्योज्वलवर्णस्य, द्वौ भेदो गन्धभेदतः। संस्थानैश्च रसैश्चापि, पञ्च पञ्च भिदो मताः ॥ ३०॥ स्पर्शस्तथाऽष्ट भेदाः स्युरेवमेकस्य विंशतिः । इतीह पञ्चभिर्वर्णभैदानां शतमाप्यते ॥ ३१॥ संस्थानानां रसानां च, प्राधान्येनैवमिष्यते । शतं शतं विभेदानां, ततो जातं शतत्रयम् ॥ ३२ ॥ सुगन्धीनां पञ्च पञ्च, भेदा वर्णं रसैस्तथा । संस्थानैश्चाष्ट तु स्पर्शः, स्युस्त्रयोविंशतिस्ततः ॥ ३३ ॥ दुर्गन्धानामपीत्थं स्युस्त्रयोविंशतिरेव हि । षट्चत्वारिंशदुभययोगे स्युर्गन्धजा इति ॥ ३४ ॥ शीतस्पर्शस्यापि भेदौ, द्वौ मतो गन्धभेदतः। संस्थानरसवर्णैश्च, पञ्च पञ्च भिदस्तथा ॥ ३५ ॥ शीतस्याधिकृतत्वेन, तत्रोष्णस्य त्वसंभवात् । भिदोऽस्य शेषैः स्पर्शः षट्, स्युस्त्रयोविंशतिस्ततः ॥३६॥ स्पर्शानामेवमष्टानां, प्रत्येकं गन्धयोरपि । त्रयोविंशतिभेदत्वाद्, द्विशती त्रिंशदुत्तरा ॥ ३७॥ एवमेते पुद्गलानां, भेदाः सर्वे प्रकी-1 र्तिताः। शतानि पञ्च सत्रिंशान्येवमजीवरूपिणाम् ॥ ३८॥ योऽसौ शब्दपरीणामो, द्विधा सोऽपि शुभोऽ- शुभः । पुद्गलानां परीणामा, दशाप्येवं निरूपिताः ॥३९॥ गन्धद्रव्यादिवढातानुकूल्येन प्रसर्पणात् । ताह
॥१३०॥
Jain Education Wo
onal
For Private & Personel Use Only
Mirjainelibrary.org
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
शद्रव्यवच्छोत्रोपघातकतयापि च ॥४०॥ ध्वनेः पौद्गलिकत्वं स्याद्यौक्तिकं यत्तु केचन । मन्यन्ते व्योमगुणतां, तस्य तन्नोपयुज्यते ॥४१॥ अस्य व्योमगुणत्वे तु, दरासन्नस्थशब्दयोः श्रवणे न विशेषः स्यात्,सर्वगं खलु यन्नभः॥४२॥ यथा शब्दस्तथा छायातपोद्योततमांस्यपि । सन्ति पौद्गलिकान्येवेत्याहुः श्रीजगदीश्वराः ॥४३॥ यदादर्शादौ मुखादेः, प्रतिबिम्ब निरीक्ष्यते । सोऽपि छायापुद्गलानां, परिणामो न तुभ्रमः॥४४॥भ्रमो ज्ञानान्तरवाध्यः, स्यान्नैतत्तु तथेक्ष्यते । न च भ्रमः स्यात्सर्वेषां, युगपत्पटुचक्षुषाम् ॥४५॥ सर्वस्थूलपदार्थानां, ते छायापुद्गलाः पुनःसाक्षादेव प्रतीयन्ते, छायादर्शनतः स्फुटाः॥४६॥ सर्वबैन्द्रियकं वस्तु, चयापचयधर्मकम् । रश्मिवच रश्मयस्तु, छायापुद्गलसंहतिः॥४७॥ तथोक्तं प्रज्ञापनावृत्ती-"सर्वमैन्द्रियकं वस्तु स्थूलं चयापचयधर्मकं रश्मिवच्चे"ति॥अवाप्य ताइक्सामग्री, ते छायापुद्गलाःपुनः। विचित्रपरिणामाः स्युः, खभावेन तथोच्यते ॥४८॥ यदातपादियुक्ते ते, गता वस्तुन्यभाखरे । तदा स्वसंबन्धिवस्त्वाकाराः स्युः श्यामरूपकाः॥४९॥ दृश्यते ह्यातपज्योत्स्लादीपालोकादियोगतः। स्थूलद्रव्याकृतिश्छाया, भूम्यादी श्यामरूपिका ॥ ५० ॥ यदा तु खड्डादर्शादिभाखरद्रव्यसंगताः। तदा स्युस्ते स्वसंबन्धिद्रव्यवर्णाकृतिस्पृशः॥५१॥ आदर्शादौ प्रतिछाया, यत्प्रत्यक्षेण दृश्यते । मूलवस्तुसदृग्वर्णाकारादिभिः समन्विता ॥५२॥ एषां स्वरूपवैचित्र्यं, न चैतनोपपद्यते। सामग्रीसहकारेण, नानावस्था हि पुदलाः॥५३॥ यथा दीपादिसामग्र्या, तामसा अपि पुद्गलाः। प्रकाशरूपाः स्युर्दीपापगमे तादृशाः पुनः ॥५४॥ आतपोचतयोः पौगलिकत्वं तु निर्विवादं ॥ पुद्गलत्वं तु
Jain Educat
i
onal
For Private & Personel Use Only
ISvww.jainelibrary.org
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
হন্তাयादीनां पौगलिकता
लोकप्रकाशे | तमसां, शीतस्पर्शतया स्फुटम् । नीलं चलत्यन्धकारमित्यादिप्रत्ययादपि ॥५५ ।। याश्चाप्रतीघातिताद्याः, ११पुद्गलस. परोक्ताः प्रतियुक्तयः । तास्तु दीपप्रकाशादिप्रतिबन्दिपराहताः॥५६॥ इत्युपरम्यते विस्तरात्, तदर्थिना ॥ १३१॥
रत्नावतारिकादयो विलोक्याः॥इति पुद्गलतत्वमागमे, गदितं यत् किल तत्त्वदर्शिभिः । तदनूदितमत्र मद्गिरा, गुहयेव प्रतिशब्दितस्पृशा ॥७॥(वैतालीयं) विश्वाश्चर्यदकीर्तिकीर्तिविजयश्रीवाचकेन्द्रान्तिषद्राजश्रीतनयो:तनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्त्वप्रदीपोपमे, सर्गो निर्गलितार्थसार्थसुभगः पूर्णोऽयमेकादशः॥ ५८॥ इति श्रीलोकप्रकाशे एकादशः सर्गः संपूर्णः ॥ ग्रन्थाग्रं १७७
SSPO9009000000000000
इति महोपाध्यायश्रीविनयविजयगणिविरचिते लोकप्रकाशे
एकादशः सर्गः समाप्तः, समाप्तो द्रव्यलोकः॥
॥१३१॥
Jain Educatio
jainelibrary.org
n
al
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________ VIODP hd SCH इति श्रीमहोपाध्यायकीर्तिविजयशिष्यमहोपाध्याय-श्रीमद्विनय विजयगणिविरचिते लोकप्रकाशे-द्रव्यलोकः समाप्तः। इति श्रेष्ठिदेवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः 65 HERE For Private & Personel Use Only