Book Title: Jambuswami Charitram
Author(s): Rajmalla Pandit, Jagdishchandra Shastri
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचन्द्र- दि०-जैनग्रन्थमालायाः पञ्चत्रिंशतितमो ग्रन्थः पण्डितराजमल्लविरचितम् जम्बूस्वामचरितम् अध्यात् HSTRAPATAN CITY. H संशोधकः श्रीजगदीशचन्द्रशास्त्री एम० ए० प्रकाशिका मा०-दि० - जैनग्रन्थमाला-समितिः आश्विन, १९९३ वि० पत्नी भक्त सिटी. SAZASTATI मूल्यं सार्द्धरूप्यकम् NY BHAV Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक, नाथूराम प्रेमी मंत्री, मा० दि० जैनग्रंथमाला हरिबाग, बम्बई. 色 मुद्रक, रघुनाथ दिपाजी देसाई, न्यू भारत प्रिंटिंग प्रेस, ६ केळेवाडी, गिरगांव, बंबई ४. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणी-भक्त लाला मुसद्दीलालजी बल्द उम्मेदसिंहजी [आपने इस ग्रन्थमालाके स्थायी फण्डमें इकमुश्त १००१) २० दिये हैं और इसके समस्त ग्रन्थोंका सबसे अधिक प्रचार किया है।] जन्मतिथि-३० जुलाई सन् १८५८ ई० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HLIONYLYOYER IN YHIFSHI प्रस्तावना कवि राजमल्ल दिगम्बर-परम्परामें राजमल्ल अथवा रायमल्ल नामके कई विद्वान् हो गये हैं। प्रस्तुत विद्वान् पंडित राजमल्ल अथवा कवि राजमल्लके नामसे प्रख्यात थे । आप अपने नामके साथ ' स्याद्वादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारद विशेषणका प्रयोग करते हैं । कविराजमल्लकी रचनाओंके ऊपरसे मालूम होता है कि आप जैनागमके बड़े भारी वेत्ता एक अनुभवी विद्वान् थे । आपने जैन वाङ्मयमें पारंगत होनेके लिये कुन्दकुन्द समंतभद्र, नेमिचन्द्र, अमृतचन्द्र आदि विद्वानोंके ग्रन्थोंका विशाल तथा सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन और आलोडन किया था। पं० राजमल्ल केवल आचार-शास्त्रके ही पण्डित न थे, बल्कि आपने अध्यात्म, काव्य और न्यायमें भी कुशलता प्राप्त की थी, यह आपकी विविध रचनाओंसे स्पष्ट मालूम होता है। पं० राजमल्ल स्वयं अपने विषयमें कोई परिचय नहीं देते । इसलिये आप कहाँके रहनेवाले थे, आपके गुरुका क्या नाम था इत्यादि बातोंकी जानकारीसे हमें सर्वथा वंचित ही रहना पड़ता है । लाटीसंहिताकी प्रशस्तिमें एक स्थानपर आप अपनेको हेमचन्द्रकी आनायका विद्वान् कहकर उल्लेख करते हैं। इससे केवल इतना ही ज्ञात Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) होता है कि आप हेमचन्द्रकी आम्नायके थे । पर ये हेमचन्द्र कौन थे इसका कुछ पता नहीं चलती। राजमल्लकी कृतियाँ आजसे अनेक वर्ष पूर्व जब स्व० पं० गोपालदासजी बरैयाकी कृपासे जैन विद्वानोंमें पंचाध्यायी नामक ग्रन्थके पठन-पाठनका प्रचार हुआ, उस समय लोगोंकी यह मान्यता हो गई कि यह ग्रन्थ अमृतचन्द्रसूरिकी रचना है । परन्तु लाटीसंहिताके प्रकाशमें आनेपर यह धारणा सर्वथा निर्मूल सिद्ध हुई। और अब तो यह और भी निश्चयपूर्वर्क कहा जा सकता है कि पंचाध्यायी, लाटीसंहिता, जम्बूस्वामिचरित और अध्यात्मकमलमार्त्तण्ड ये चारों ही कृतियाँ एक ही विद्वान् पं० राजमल्लके हाथकी हैं। पंचाध्यायी के मंगलाचरणमें ग्रन्थकार पंचाध्यायीको 'ग्रन्थराज ' के नामसे उल्लेख करते हैं और इसे स्वात्मवश लिखने में प्रेरित होते हैं। इस ग्रंथको पाँच अध्यायोंमें लिखनेकी प्रतिज्ञा की गई है । दुर्भाग्यसे १ पं० जुगलकिशोरजीका कहना है कि " यहाँ जिन हेमचन्द्रका उल्लेख है, के ही काष्ठासंघी भट्टारक हेमचन्द्र जान पढ़ते हैं, जो माथुर गच्छ और पुष्कर गणान्वयी भट्टारक कुमारसेन के पट्टशिष्य तथा पद्मनन्दि भट्टारकके पहगुरु थे, और जिनकी कविने लाटी -संहिताके प्रथम सर्गमें बहुत प्रशंसा की है । ....... . इन्हीं भट्टारक हेमचन्द्रकी आम्नायमें 'ताल्हू' विद्वान्‌को भी सूचित किया है। इस विषय में कोई सन्देह नहीं रहता कि कवि राजमल एक काष्ठासंघी विद्वान् थे । आपने अपनेको हेमचन्द्रका शिष्य या प्रशिष्य न लिखकर आन्नायी लिखा है, और 'फामन के दान, मान, आसन आदिसे प्रसन्न होकर लाटी-संहिता के लिखनेको सूचित किया है। इससे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि आप मुनि नहीं थे, बहुत संभव है कि आप गृहस्थाचार्य हों या ब्रह्मचारी आदिके पदपर प्रतिष्ठित हो । लाटीसंहिताकी भूमिका ( माणिकचन्द ग्रन्थमाला ) पृ० २३. 2 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह समस्त ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। जितना उपलब्ध है उसमें केवल दो प्रकरण मिलते हैं:-एक द्रव्यसामान्यनिरूपण जिसमें ७७० श्लोक हैं, और दूसरा द्रव्यविशेषनिरूपण जिसमें ११४५ श्लोक हैं । दूसरा प्रकरण अधूरा है । इन दोनोंको मिलाकर लगभग पौने दो अध्याय कहा जा सकता है । पंचाध्यायी कविकी सर्वोत्तम प्रौढ़ रचना प्रतीत होती है । जीवोंको सुगम उक्तिसे धर्मका बोध करनेके लिये ही कवि इस ग्रन्थकी रचना करनेमें प्रेरित हुए हैं। इसमें प्रतिपाद्य विषयको शंका-समाधानके रूपमें उपस्थित करके विषयको बहुत ही सुन्दर और सरलरूपमें रक्खा गया है । द्रव्य, गुण, पर्याय, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, प्रमाण, नय आदिसंबंधी द्रव्यानुयोगकी चर्चाको ग्रन्थकारने अनेक दृष्टांत आदि देकर तार्किक दृष्टि से खूब ही प्रस्फुटित किया है । विशेष करके कविका व्यवहार और निश्चयनयका समन्वय करना, श्रद्धा आदि गुणोंसे स्वात्मानुभूतिकी उत्कृष्टताका प्रतिपौदन करना आदि, कविकी मौलिक प्रतिभा, समर्थता और अनुभवबृद्धताको बोतित करता है । निस्सन्देह पंचाध्यायी अपने ढंगकी एक अनोखी ही रचना है। कविकी दूसरी रचना लाटीसंहिता है । यह आचार-शास्त्रका १ अध्यात्मकमलमार्तण्डमें भी द्रव्यसामान्य और द्रव्यविशेषके निरूपणके लिये दो अलग अलग परिच्छेद रचे गये हैं। इसी तरह पंचाध्यायीमें भी द्रव्यसामान्य और द्रव्यविशेषनिरूपणको अलग अलग अध्याय समझा जा सकता है। २ सर्वोऽपि जीवलोकः श्रोतुंकामो वृष हि सुगमोक्त्या। विज्ञप्तौ तस्य कृते तत्रायमुपक्रमः श्रेयान् । १-६। ३ खानुभूतिसनाधाश्च(च)त् सन्ति श्रद्धादयो गुणाः । खानुभूति विनाभासा नार्थाच्छूद्धादयो गुणाः २-४१७ । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) ग्रन्थ है । कविने इस रचनाको अनुच्छिष्ट और नवीन कहकर सूचित किया है। इसमें सात सर्ग हैं। इसकी पद्य-संख्या लगभग १६०० के है । यह ग्रन्थ अग्रवाल- वंशावतंस मंगलगोत्री साहु दूदाके पुत्र संघके अधिपति 'फामन नामके धनिकके लिये बनाया गया था। कविने फामनके वंशका विस्तृत वर्णन करते हुए, फामन के पूर्वजोंका मूल निवासस्थान 'डौकनि ' नगरी बताया है । इन फामनने स्वयं ही वैराट नगरके 'ताल्हू' नामक विद्वानकी कृपासे धर्म-लाभ किया था । कविने इसी वैराट नगरके जिनालय में रहकर लाटी-संहिताकी रचना की है। लाटी-संहितामें कविने वैराट नगरका और इस नगरके स्वामी अकबर बादशाहका विस्तृत वर्णन किया है। यह सब ऐतिहासिक वर्णन लाटी-संहिताके कथामुख- वर्णन नामके प्रथम सर्गमें उपलब्ध होता है । अन्य छह सर्गों में ग्रन्थकारने आठ मूलगुण, सात व्यसन, सम्यग्दर्शन और श्रावकके बारह व्रतोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । ग्रन्थमें सम्यग्दर्शनके वर्णन करनेके लिये दो सर्ग और अहिंसाशुत्रतके लिये एक स्वतंत्र सर्गकी रचना की गई है । ग्रन्थमें अनेक उद्धरण 'उक्तं च के रूपमें पाये जाते हैं; जो विशेष करके कविके गोम्मटसार-सटीक आदि सिद्धान्त-प्रन्थोंके और कुन्दकुन्द आचार्यके अध्यात्म-प्रन्थों के विशाल विस्तृत वाचनको सूचित करते हैं । कवि राजमलने लाटी Se 'यह बैराट' नगर वहीं जान पड़ता है जिसे 'बैराट ' भी कहते हैं और जो जयपुरसे करीब ४० मीलके फासलेपर है। किसी समय यह विराट अथवा मत्स्य देशकी राजधानी थी, और यहॉपर पांडवोंका गुप्त वेशमें रहना कहा जाता है "। लाटीसंहिताकी भूमिका पृ० १९. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) संहिताको वि० सं० १६४१ में आश्विन शुक्ला दशमी रविवारके दिन समाप्त किया था। कवि राजमल्लकी तीसरी रचना जम्बूस्वामिचरित है । यह ग्रन्थ वि० सं० १६३२ में चैत्र वदी ८ के दिन पुनर्वसु नक्षत्रमें बनाकर समाप्त किया गया था । अर्थात् यह काव्य लाटी-संहितासे नौ वर्ष पूर्व बन चुका था । उस समय अर्गलपुर ( आगरे ) में अकबर बादशाहका राज्य था । इसमें भी कविने चगत्ता (चगताई) जातिके शिरोमणि बाबर और हुमायूँ बादशाहका वर्णन करते हुए बादशाह अकबरका सविस्तर वर्णन दिया है, और अकबरके ' जेजिया ' कर और मद्यकी बन्दी करानेका उल्लेख किया है । ग्रन्थकारने इस काव्यको अग्रवाल जातिमें उत्पन्न गर्गगोत्री साधु ( साहु) टोडरके लिये बनाया था। ये साहु टोडर महाउदारता, परोपकारिता, दानशीलता, विनयसंपन्नता आदि सर्व गुणोंसे सम्पन्न थे। ये भटानियाँ ( कोल ) नगरके रहनेवाले, काष्ठासंघी कुमारसेनकी आम्नायके थे । कविने लाटी - संहिताकी तरह यहाँ भी साहु टोडरके वंश आदिका विस्तृत वर्णन किया है । साहु टोडरको कविने वैष्णवमतानुयायी गढमल्ल साहु और अरजानी- पुत्र ठाकुर कृष्णमंगल चौधरीका प्रियपात्र, तथा टकसालके काम में बहुत दक्ष बताया है । एक बारकी बात है कि ये साहु टोडर सिद्धक्षेत्रकी यात्रा करने मथुरामें आये । वहाँपर बीचमें जम्बूस्वामीका स्तूप ( निः सहीस्थान ) बना हुआ था, और उनके चरणोंमें विद्युच्चर मुनिका स्तूप था । । O कोल' अलीगढ़का पुराना नाम है। भटानिया अलीगढ़ के पास कोई यान मालूम होता है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसपास अन्य मोक्ष जानेवाले अनेक मुनियोंके स्तूप भी मौजूद थे । इन मुनियोंके स्तूप कहीं पाँच, कहीं आठ, कहीं दस और कहीं बीस इस तरह बने हुए थे । साहु टोडरको इन स्तूपोंको जीर्ण-शीर्ण अवस्थामें देखकर इनका जीर्णोद्धार करनेकी प्रबल भावना जागृत हुई । फलतः टोडरने शुभ दिन और शुभ लग्न देखकर अत्यन्त उत्साहपूर्वक इस पवित्र कार्यका समारंभ कर दिया । साहु टोडरने इस पुनीत कार्यमें बहुत-सा धन व्यय करके ५०१ स्तूपोंका एक समूह और १३ स्तूपोंका दूसरा समूह, इस तरह कुल ५१४ स्तूपोंका निर्माण कराया । तथा इन स्तूपोंके पास ही १२ द्वारपाल आदिकी भी स्थापना की । यह प्रतिष्ठाका कार्य वि० सं०१६३० में ज्येष्ठ शुक्ला १२ को बुधवारके दिन नौ घड़ी व्यतीत होनेपर सूरिमंत्रपूर्वक निर्विघ्न सानन्द समाप्त हुआ । साहु टोडरने चतुर्विध संघको आमंत्रित किया । सबने परम आनन्दित होकर टोडरको आशीर्वाद दिया और गुरुने उसके मस्तकपर पुष्प-वृष्टि की । तत्पश्चात् साहु टोडरने सभामें खड़े होकर शास्त्रज्ञ कवि राजमल्लसे प्रार्थना की कि मुझे जम्बूस्वामि-पुराणके सुननेकी बड़ी उत्कण्ठा है, सो आप कृपा करके इस कथाको विस्तारसे कहिये । इस प्रार्थनासे प्रेरित होकर कवि राजमल्लने जम्बूस्वामिचरितकी रचना की । इस काव्यमें कुल १३ सर्ग हैं, जिनकी पद्य-संख्या सब मिलाकर लगभग २४०० के है । जान पड़ता है कि कविने जम्बूस्वामिचरितको आगरेमें रहकर ही बनाया था। कविने कथामुख-वर्णन नामक सर्गमें आगरेके बाजारों आदिका वर्णन भी दिया है । काव्यमें वैराग्यकी प्रधानता है । कहींपर युद्धका वर्णन करते समय वीररस Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) भी आ गया है। बीच बीचमें धर्मशास्त्र, और कहीं कहीं नीति भी आती है । जम्बूकुमारके साथ जो उनकी स्त्रियों और विद्युच्चर के संवाद हुए हैं, वे बहुत रोचक हैं, और ऐतिहासिक दृष्टिसे भी महत्त्वके हैं । कवि राजमल्लकी चौथी कृति अध्यात्मकमलमार्त्तण्ड है । इस ग्रन्थमें चार परिच्छेद हैं, जिनमें सब मिलाकर २५० श्लोक संख्या है। पहिले परिच्छेद में मोक्ष और मोक्षमार्गका लक्षण, दूसरेमें द्रव्यसामान्य, तीसरे में द्रव्यविशेष और चौथे परिच्छेद में सात तत्त्व और नौ पदाथका वर्णन है । कविने इस ग्रन्थका 'काव्य' कहकर उल्लेख किया है, और इसके पठन करनेसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना बताया है। अमृतचन्द्रसूरिके आत्मख्याति समयसारकी तरह यहाँ भी ग्रन्थके आदिमें चिदात्मभावको नमस्कार करके, संसार-तापकी शान्तिके लिये कविने अपने ही मोहनीय कर्मके नाश करनेके लिये इस शास्त्रकी रचना की है । ग्रन्थकारने ग्रन्थ में कुन्दकुन्द आचार्य और १ कविने वीरोंको जोश देते हुए लिखा है: - कमोऽयं क्षात्रधर्मस्य सन्मुखत्वं यदाहवे । वरं प्राणात्ययस्तत्र नान्यथा जीवनं वरं ॥ ये दृष्ट्वारिबलं पूर्ण तूर्णं भन्नास्तदाहवे । पलायंति विना युद्धं धिक् तानास्यमलीमसान् ॥ जम्बूखामिचरित ६-३०, ३२ । २ उदाहरण के लिये मधु-बिन्दुबाले दृष्टांतकी कथा महाभारत स्त्रीपर्व में, बौद्धांके अवदान साहित्यम और क्रिश्चियन-सहित्यमें पाई जाती है, इसलिये यह संसार के सर्वमान्य कथा-साहित्य की दृष्टिसे बहुत महत्त्वको है । शृगाल और धनुषकी कथा भी हितोपदेशमें आती है। इसी तरह अन्य कथाओंके भी तुलनात्मक अध्ययन करनेसे इस विषयकी विशेष खोज हो सकती है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) अमृतचन्द्रसूरिको स्मरण किया है । कविने इस छोटेसे ग्रन्थमें आत्मख्याति समयसारके ढंगपर अनेक छन्द, अलंकार आदिसे सुसज्जित अध्यात्मशास्त्रकी एक अति सुन्दर रचना करके सचमुच जैन साहि त्यके गौरवको वृद्धिंगत किया है । कवि राजमल्लकी इन चार कृतियोंमें, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, जम्बूस्वामिचरितकी रचना वि० सं० १६३२ और लाटीसंहिताकी रचना वि० सं० १६४१ में हुई है। शेष दो ग्रन्थोंके समय के विषय में ग्रन्थकारने स्वयं कुछ भी उल्लेख नहीं किया । परन्तु मालूम होता है। कविकी सर्वप्रथम रचना जम्बूस्वामिचरित है, और इसी रचनाके ऊपरसे इन्होंने 'कवि' की प्रख्याति प्राप्त की। इसके बाद किसी कारणसे कविको आगरेसे वैराट नगरमें जाना पड़ा, और वहाँ जाकर इन्होंने जम्बूस्वामिचरितके नौ वर्ष बाद लाटीसंहिताका निर्माण किया । जम्बूस्वामिचरित के कई पद्य भी लाटीसंहिता में अक्षरशः अथवा कुछ परिवर्तन के साथ उपलब्ध होते हैं। पंचाध्यायी और अध्यात्मकमलमार्त्तण्ड कविकी इन रचनाओंके बादकी ही कृतियाँ जान पड़ती हैं। मालूम होता है जैसे जैसे कवि राजमल्ल अवस्था और विचारोंमें प्रौढ़ होते गये, वैसे वैसे उनकी रुचि अध्यात्म की ओर बढ़ती गई । फलतः उन्होंने अपने आत्म-कल्याणके लिये इन दोनों प्रन्थोंका निर्माण किया । अब इन दोनोंमें संभव है कि पंचाध्यायी पहिले बनी हो, और उसके संक्षिप्त सारको लेकर १ पं० जुगलकिशोरजीने लाटीसंहिता और पंचाध्यायीमें ४३८ समान पद्योंके पाये जानेका उल्लेख अपनी उक्त भूमिकामें किया है। इन पद्ययका लाटीसंहितामसे ही उठाकर पंचाध्यायीमें रक्खा जाना अधिक संभव जान पड़ता है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) अध्यात्मकमळकी रचना की हो, अथवा यह भी संभव है कि पहिले अध्यात्मकमळकी रचना हो चुकी हो तथा कविने पंचाध्यायीका निर्माण आरंभ कर दिया हो और असमयमें ही वे काल-धर्मको प्राप्त हो गये हों । इन चार कृतियोंके अतिरिक्त संभव जान पड़ता है कि कविने और भी रचनाओंका निर्माण किया है और उन रचनाओं में किसी एक गद्यकी कृतिके होनेका भी अनुमान है। जैन- साहित्य में जम्बूखामीका स्थान दिगम्बर और श्वेताम्बर- परम्परामें जम्बूस्वामीका नाम बहुत महत्त्वके साथ लिया जाता है। महावीर स्वामीके निर्वाणके पश्चात् गौतम, सुधर्मा और जम्बूस्वामी इन तीन केवलियोंका होना दोनों ही आम्नायोंको मान्य है । इसके बाद ही दोनों सम्प्रदायोंकी परम्परामें भेद पाया जाता है । दिगम्बर- परम्परामें जम्बूस्वामीके पश्चात् विष्णु, नन्दी, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु, तथा श्वेताम्बर - परम्परामें प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, आर्यसंभूतविजय और भद्रबाहु इन पाँच श्रुतकेवलियोंके नाम आते हैं। जो कुछ भी हो, संप्रदायोंमें अन्तिम केवली स्वीकार किये गये हैं और इसी कारण दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों विद्वान् इनका जीवनचरित लिखने में प्रवृत्त हुए हैं। श्वेताम्बर वाङ्मय में सर्वप्रथम पयन्ना (प्रकीर्णक) साहित्यमें जम्बूपयन्नाका नाम आता है। श्वेताम्बर जैन कान्फरेन्सद्वारा प्रकाशित जैन ग्रंथावलिसे विदित होता है कि जम्बूपयन्नाकी यह प्रति डेक्कन कालेज पूनाके भंडार ( भांडारकर इन्स्टिट्यूट) में मौजूद है । इसके कर्त्ताका नाम अविदित है । लोकके कॉलम में 'पत्र ४५ लाइन ५ जम्बूस्वामी दोनों Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा हुआ है। इसके पश्चात् अन्य श्वेताम्बर विद्वानोंने भी जम्बूस्वामिचरितका निर्माण किया है, परन्तु इनमें कलिकाल-सर्वज्ञ हेमचन्द्र आचार्य और जयशेखरसूरिका नाम विशेष महत्त्वका है । हेमचन्द्र १२ वीं शतब्दिके प्रसिद्ध आचार्य हो गये हैं। इन्होंने अपने परिशिष्ट पर्वके आदिके चार अध्यायोंमें जम्बूस्वामीका चरित लिखा है । जयशेखरसूरिका समय वि० सं० १४३६ है। ये कवि-चक्रवतीके नामसे प्रसिद्ध हो गये हैं। इन्होंने ६ प्रकरणोंमें ७२६ श्लोक-प्रमाण जम्बूस्वामिचरित नामक काव्यकी रचना की है। दिगम्बर-साहित्यमें भी प्राकृत और संस्कृत भाषामें कई जम्बूस्वामि-चरित होनेका अनुमान किया जाता है । उक्त जैनग्रन्थावलिमें प्राकृत संस्कृत और गद्यमें लिखे हुए नौ जम्बूस्वामिचरित और कथानकोंका उल्लेख किया गया है और उनमें पाँच प्रन्थकर्ताओंके तो नाम भी दिये हैं। ये नाम निम्न प्रकारसे हैंपं० सागरदत्त, मुवनकीर्ति, पद्मसुन्दर, सकलहर्ष और मानसिंह । इन सब ग्रन्थकर्ताओंका विशेष परिचय नहीं दिया गया है । भुवनकीतिके विषयमें लिखा है- 'भुवनकीर्ति सकलचन्द्रके शिष्य थे' । यद्यपि भुवनकीर्ति श्वेताम्बर आम्नायमें भी हो गये हैं, परन्तु प्रस्तुत भुवनकीर्ति दिगम्बर-परम्पराके ही मालूम होते हैं। प्रो० बेबर (Waber) ने सकलचन्द्रका समय १५२० वि० सं० लिखा है। संभवत: भुवनकीर्तिने इस काव्यको विक्रमकी सोलहवीं शताब्दिमें लिखा है। यह प्रति राधनपुरमें मौजूद है । दिगम्बर आम्नायमें कवि राजमल्लके अतिरिक्त जिनदासने भी हिन्दीमें छन्दोबद्ध जम्बूस्वामिचरितकी रचना की है। संभवतः ये जिनदास वहीं ब्रह्मचारी जिनदास हैं जो सकलकीर्तिके Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) शिष्य थे । इस पुस्तकको जिनदासने किसी संस्कृत काव्यके आधारसे रचा है। इसमें और पं० राजमल्लके जम्बूस्वामीके कथानकमें कुछ अंतर्कथामें भेद भी पाया जाता है। जम्बूस्खामीकी कथा जम्बूद्वीप-भरतक्षेत्रमें मगध नामक देश है । उसमें श्रेणिक नामका राजा राज्य करता था। एक दिन राजा श्रेणिक सभामें बैठे हुए थे। वनपालने आकर विपुलाचल पर्वतपर वर्धमान स्वामीके समवशरणके आनेका समाचार दिया। श्रेणिक सुनकर परम आनन्दित हुए और उन्होंने अपने सैन्य, कुटुम्ब आदिके साथ भगवान्का दर्शन करनेके लिये प्रयाण कियो । श्रेणिक वर्धमान स्वामीको नमस्कार करके बैठ गये और उन्होंने तत्त्वोपदेश सुननेकी अभिलाषा प्रकट की। श्रेणिकने तत्त्वोपदेशका श्रवण किया। इतनेमें कोई तेजोमय देव आकाशमार्गसे अवतरित होता हुआ दृष्टिगोचर हुआ। श्रेणिक राजाके द्वारा इस देवके विषयमें पूछे जानेपर गौतम स्वामीने उत्तर दिया कि इसका नाम विद्युन्माली है और यह अपनी चार देवांगनाओंके साथ यहाँ १ इस पुस्तकको मुन्शी नाथूराम लमेचूने सन् १९०२ में लखनऊमें छपाया था। इसीके आधारसे मास्टर दीपचंदजीने इसे हिन्दी गद्यमें किया है, जो सूरतमें छपा है। ____२ हेमचन्द्र आचार्यकी कथानुसार महावीरकी बन्दना करनेके लिये जाते हुए दो सैनिक मार्ग में तपश्चरण करते हुए प्रसन्नचन्द्र मुनिको देखकर उसके तपके विषयमें कुछ चर्चा करते हैं । बादमें उसी मार्गसे जाते हुए श्रोणिक राजा उस मुनिको बन्दना करके समवशरणमें पहुंचकर गौतम खामीसे उक्त मुनिके विषयमें प्रश्न करते हैं । गौतम खामी इस प्रश्नके उत्तरमें पोतनपुरके राजा सोमचन्द्र तथा उनके प्रसन्नचन्द्र और वल्कलचीरी नामके दो पुत्रोंकी कथाको विस्तारसे कहते हैं। यह कथा बहुत रोचक है । इसके लिये पाठकोंको परिशिष्टपर्व देखना चाहिये। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) वन्दना करनेके लिये आया है। यह आजसे सातवें दिन स्वर्गसे चयकर मध्य लोकमें उत्पन्न होकर उसी भवसे मोक्ष प्राप्त करेगा। श्रोणिकने इस देवके विषयमें विशेष जाननेकी अभिलाषा प्रगट की। गौतम स्वामी कहने लगे:-" इसी देशमें वर्धमान 'नामक एक नगर है। उसमें आयेवसु नामका एक ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्रीका नाम सोमशर्मा था। इस दंपतिके भावंदेव और भवदेव नामके दो पुत्र हुए। इन दोनोंने विद्यामें अति निपुणता प्राप्त की । कुछ समय बाद आर्यबसु कुष्ठ रोगसे पीड़ित हुआ और परलोक सिधार गया । सोमशर्माने भी पतिके वियोगसे अत्यन्त दुःखी होकर चितामें प्रवेश करके अपने प्राणोंका त्याग किया । कुछ दिन बीतनेके पश्चात् उस नगरमें सौधर्म नामके मुनिका आगमन हुआ। मुनिने धर्मका उपदेश दिया । भावदेवने भी इस धर्मका श्रवण किया और सुनकर मुनिसे दीक्षा लेनेकी अभिलाषा प्रकट की। भावदेव दीक्षित होकर तपस्या करने लगे। कुछ समय बीतनेपर एक दिन सौधर्म मुनि संघसहित वर्धमान नगरमें पधारे । भावदेवको अपने कनिष्ठ भ्राताके ऊपर करुणा उत्पन्न हुई। वे गुरुकी आज्ञा लेकर भवदेवको बोध देनेके लिये चले । उस समय भवदेव अपने विवाह के उत्सवमें संलग्न थे। भवदेवने अपने ज्येष्ठ भ्राताको मुनिके वेषमें देखकर उसका बहुत आदर किया। भवदेवने धर्म-श्रवण करनेके पश्चात् मुनिको आहार दिया । जब मुनि विहार करने लगे, उस समय और लोगोंके साथ भवदेव भी उनके पीछे पीछे चले। थोड़े १ जयशेखरसूरिके जम्बूस्वामिचरितमें यहींसे कथाका आरंभ होता है। इसके पूर्वका भाग उसमें नहीं पाया जाता। हेमचन्द्र और जयशेखर दोनोंके अनुसार भावदेवकी जगह बड़े भाईका नाम भवदत्त आता है। तथा ये सुग्राम नगरके रहनेवाले थे, और इनके पिताका नाम आर्यवान तथा माताका नाम रेवती था। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) 1 समयमें दोनों जने गुरुके पास पहुँच गये। यह देखकर सब मुनि भावदेवकी प्रशंसा करने लगे। भवदेवको उपायान्तर न होनेसे दीक्षा लेनेके लिये बाध्य होना पड़ा। कुछ दिनों पश्चात् सौधर्म मुनि फिर वर्धमान नगर में आये । भवदेव अपनी स्त्रीका विचार करके वहाँ एक जिनालय में पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक अर्जिकाको देखा । उससे उन्होंने अपनी स्त्रीके संबंधकी कुशल-वार्ता पूँछी । अर्जिकाने मुनिके चित्तको चलायमान देखकर उन्हें धर्ममें स्थिर किया और कहा कि वह आपकी स्त्री मैं ही हूँ । भवदेव छेदोपस्थापनापूर्वक चारित्रमें फिरसे तत्पर हुए। अन्तमें दोनों भाई मरकर सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुए। भावदेव स्वर्गसे च्युत होकर पुंडरीकिणी नगरीमें वज्रदन्त नृपतिके घर सागरचन्द्र नामका, और भवदेव वीतशोका नगरीम महापद्म चक्रवर्ती के घर शिवकुमार नामका पुत्र हुआ। ये दोनों युवा होकर भोगोंके भोगने में मग्न हो गये। एक बार पुण्डरीकिणीमें कोई मुनि पधारे। सागरचन्द्रने मुनिका उपदेश श्रवण किया । पश्चात् मुनिने उन दोनों भाईयोंके पूर्वभवोंका वर्णन किया। सागरचन्द्रने संसारके भोगोंसे विरक्त होकर जिनदीक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात् अपने भाईको बोध करनेके लिये सागरचन्द्र वीतशोका नगरीमें गये, और १ इस कथा- भाग में भी श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्परामें कुछ भेद पाया जाता है । उक्त श्वेताम्बर विद्वानोंके अनुसार जिस समय भवदत्त (भावदेव ) अपने लघु भ्राताको बोध देनेके लिये आये, उस समय वहाँके वातावरणको देखकर स्वयं भवदत्तका ही महाव्रत जर्जरित हो जाता है । वे वापिस लौट आते हैं, और दूसरे साथी मुनि इसपर भवदत्तका उपहास करते हैं । भवदत्त फिरसे भवदेवको दीक्षित करनेकी प्रतिज्ञा करके उसके पास जाते हैं, और उसे किसी तरह गुरुके पास लाकर दीक्षित करते हैं। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हें देखकर शिवकुमारको जातिस्मरण हो आया। शिवकुमारने अपने माता पितासे दीक्षा लेनेकी अनुमति माँगी, परन्तु उन्होंने दीक्षाकी अनुमति न दी। शिवकुमार ६४००० वर्षतक घरमें तपश्चया करते हुए रहने लगे। अन्तमें सागरचन्द्र और शिवकुमार दोनोंके जीव ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें गये। शिवकुमार तपश्चरणके प्रभावसे विद्युन्माली नामका यह देव हुआ है।" तत्पश्चात् श्रेणिक राजाने विद्युन्मालीकी चार देवियों के विषयमें विशेष जाननेकी जिज्ञासा प्रकट की। गौतम स्वामीने कहा कि चंपापुरी नामकी नगरीमें सूरसेन नामक कोई सेठ रहता था। इसके चार स्त्रियाँ थीं। पापोदयसे सेठका शरीर रोगग्रस्त हो गया। वह अपनी स्त्रियोंको मारने पीटने लगा और उन्हें नाना प्रकारके कुत्सित वचन बोलने लगा। स्त्रियोंने अति दुःखित होकर अर्जिकाके व्रत ग्रहण किये। ये देत्रियाँ मरकर इसी स्वर्गमें विद्युन्मालीकी देवियाँ हुई हैं। श्रेणिक राजाके विद्युचरके विषयमें प्रश्न करनेपर गौतम स्वामीने कहा कि हस्तिनापुरके संवर नामके राजाके विधुच्चर नामका पुत्र हुआ। विद्युच्चरने सब विद्याओंमें कुशलता प्राप्त की थी। एक चौर्यविद्या ही ऐसी रह गई थी जो उसने नहीं सीखी थी। राजाने विद्युचरको बहुत समझाया, पर उसने चोरी करना न छोड़ा। विद्युच्चर राजगृह नगरमें जाकर कामलता वेश्याके साथ रमण करते हुए समय व्यतीत करने लगा। गौतम स्वामीने कहा कि यह विद्युन्माली देव राजगृह नगरीमें अर्हद्दास नामक सेठके पुत्र होगा, और उसी भवसे मोक्ष जावेगा। यह कथन हो ही रहा था कि इतनेमें एक यक्ष वहाँ आकर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्य करने लगा । श्रेणिकके इसके नाचनेका कारण पूछा तो गौतम स्वामीने उत्तर दिया कि यह यक्ष अर्हद्दासका लघु भ्राता था । यह सप्त व्यसनमें आसक्त था । एक बार यह जूएमें द्रव्य हार गया और इस द्रव्यको न दे सकनेके कारण दूसरे जुआरीने इसे मार मारकर अधमरा कर दिया । अर्हदासने इसे अन्त समय नमस्कार-मंत्र सुनाया, जिसके प्रभावसे वह मरकर यक्ष हुआ है। यक्ष यह सुनकर हर्षसे नृत्य कर रहा है कि उसके भ्राता अईहासके अंतिम केवलीका जन्म होगा। _यहाँसे, पाँचवें पर्वसे, असली जम्बूस्वामीका चरित आरंभ होता है। अर्हद्दासके घर जम्बूकुमारका जन्म हुआ। जम्बूकुमार युवा हुए। उनकी श्रीमंत सेठोंकी चार कन्याओंके साथ सगाई हो गई। उन्होंने मदोन्मत्त हाधीको वशमें करके अपनी वीरता प्रकट की। जम्बूकुमारने एक बार रत्नचूल नामके विद्याधरको पराजित करके मृगांक विद्याधरकी सहायता की, जिससे मृगांकने अपनी पुत्रीका श्रेणिक राजाके साथ विवाह किया। तत्पश्चात् जम्बूकुमार सौधर्म नामक मुनिसे, जो भवदेवका जीव था, भवान्तर सुनकर वैराग्यको प्राप्त हुए। जम्बूकुमारने माता पितासे प्रव्रज्या लेनेकी अनुमति माँगी । माता पिताने बहुत समझाया, पर जम्बूकुमार न माने । अन्तमें पिताकी आज्ञाको शिरोधार्य करके उन्होंने विवाह करनेके एक दिन बाद दीक्षा ले लेनेका निश्चय किया। खूब ठाठ-बाटसे जम्बूकुमारका विवाह हो गया । चारों त्रियोंने अनेक हाव-भावोंसे जम्बुकुमारको विषय-मोग भोगनेके लिये आकर्षित किया, पर वे मेरुके समान अडोल और दृढ़ रहे | बादमें वहाँ विद्युच्चर चोर भी पहुँच गया। चारों नव-विवाहिता वधुओं और Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधुच्चर तथा जम्बूकुमारका बहुत रोचक संवाद हुआ । अन्तमें जम्बूखामीकी विजय हुई। उन्होंने जिन-दीक्षा ग्रहण की । साथमें विधुचरको भी उपदेश लगा। वह भी अनेक लोगोंके साथ दीक्षित हुआ। अन्तमें ये दोनों अनेक मुनियोंके साथ विपुलाचल पर्वतपर निर्वाणको पधारे। मूल प्रतियाँ अन्तमें कुछ शब्द मूल प्रतियोंके विषयमें भी लिख देना उचित है । जम्बूस्वामिचरित देहलीके सेठके कूचेवाले जैनमंदिरकी प्रतिके ऊपरसे संपादित किया गया है। इसके लिये इसके प्रेषक बाबू पन्नालालजी अग्रवालको अनेक धन्यवाद हैं। इस प्रतिके ऊपर कोई संवत् नहीं है। फिर भी यह प्रति प्राचीन मालूम होती है। यह बीचमेंसे कई स्थलोंपर त्रुटित भी है । बहुत प्रयत्न करनपर भी इस पुस्तककी दूसरी कोई प्रति न मिलनेसे, इसी एक और सो भी अशुद्ध प्रतिके आधारसे ग्रन्थका सम्पादन करना पड़ा है। मूल प्रातके जो पाठ अशुद्ध जान पड़े, उन्हें मूल पाठमें रखकर कोष्ठकमें शुद्ध पाठ दिया १ हेमचन्द्र और जयशेखरके कथानकमें जम्बूकुमारके पिताका नाम ऋषभदास और माताका नाम धारिणी आता है । तथा जम्बूकुमारका बार कन्याओंकी जगह आठ कन्याओंके साथ विवाह होता है। इन कथानकोंमें विद्युच्चरकी जगह प्रभवचोरका नाम आता है । (पं० राजमारके जम्बूखामिचरितमें भी-'प्रभवादिसुसंज्ञकाः प्रभवका नाम आता है, पर ये कौन थे, इसका इसमें कुछ जिकर नहीं आता)। इसके अतिरिक्त जम्बूकुमार और उनकी स्त्रियों तथा प्रभवके बीच में जो संवाद हुए उनमें कुबेरदत्त, महेश्वरदत्त, अंगारकारक, शंखधमक, विद्युन्माली, बुद्धिसिद्धि, अश्व, ललितांग आदिकी कथायें आती हैं, जो पं० राजमलके जम्बूस्वामिचरितमें नहीं पाई जातीं। हेमचन्द्र और जयशेखरसूरिकी अंतकथाओंमें भी कुछ सामान्य हेर फेर पाया जाता है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है। इसकी और अध्यात्मकमलमार्तंडकी प्रेस-कापी नातेपुते ( शोलापुर ) के अध्यापक पं० फूलचन्द्रजी शास्त्रीके द्वारा तैयार कराई गई थी। अध्यात्मकमलमार्तण्डकी दो ही प्रतियाँ उपलब्ध हो सकी । एक सरस्वती-भवन बम्बईकी और दूसरी प्रति पं० नाथूराम प्रेमीजीके पास की। सरस्वती-भवनकी प्रतिके लेखकने उसकी भांडारकर इन्स्टिट्यूटकी सं० १६६३ वैशाख सुदी १३ शनिवारके दिन लिखी हुई प्रतिके आधारसे नकल की है । मालूम नहीं मूल प्रतिके इतनी प्राचीन होनेपर भी यह प्रति इतनी अशुद्ध क्यों है ? संभव है नकल करनेमें लेखक महाशयकी कृपा हुई हो । दूसरी प्रति सं० १८४४ श्रावण कृष्णा षष्ठीके दिनकी लिखी हुई है। इस प्रतिके ऊपर रबरकी मोहर मारी हुई है, जिसपर ' भट्टारक श्री महेश्वरकीरतीजी, सवाई जयपुर संवत् १९३९ ' खुदा हुआ है । दुर्भाग्यसे यह प्रति भी शुद्ध नहीं है। इस प्रतिके लेखक सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारक हैं । यह जिनदास पंडितकी अशुद्ध प्रतिके आधारसे शीघ्रतामें, सर्वसुख नामके छात्रके लिये, जिस समय वृन्दावती नगरी में व्यसनहरि (8) नृपका राज्य था, पार्श्वनाथके मन्दिरमें लिखी गई है । इस प्रतिमें लगभग दो परिच्छेदोंके ऊपर टिप्पणी भी है । मालूम नहीं यह अधूरी टिप्पणी स्वयं पं० राजमल्लकी है अथवा किसी दूसरे विद्वान्की । इन दोनों प्रतियोंके खास खास पाठांतरोंको फुटनोटमें दे दिया गया है । जुबिलीबाग, तारदेव जगदीशचन्द्र ९।१०।३६ बम्बई Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमः श्रीवीतरागाय पण्डितराजमल्लविरचितं जम्बूस्वामिचरितम् उद्दीपी (प्ती ?) कृतपरमानंदाद्यात्मचतुष्टयं च बुधाः । निगदति यस्य गर्भाद्युत्सवमिह तं स्तुवे वीरेम् ॥ १ ॥ बहिरंतरंगमंग संगच्छद्भिः स्वभावपर्यायैः । परिणममानः शुद्धः सिद्धसमूहोऽपि वो श्रियं दिशतु ॥ २ ॥ चरित्रमोहारिविनिर्जयाद्यतिर्विरज्य शय्याशयनाशनादपि । व्रतं तपःशीलगुणांव धारयंत्रयीव जीयाद्यदि वा मुनित्रयी ॥३॥ रवेः करालीव विधुन्वती तमो यदांतरं स्यात्पदवादिभारती । पदार्थसार्थी पदवीं ददर्श या मनोम्बुजे मे पदमातनोतु सा ||४|| अथास्ति दिल्लीपतिरद्भुतोदयो दयान्वितो बब्बरनंदनंदनः । अकव्वरः श्रीपदशोभितोऽभितो न केवलं नामतयार्थतोऽपि यः ५ अस्ति स्म चाद्यापि विभाति जातिः परा चगत्ताभिधया पृथिव्याम् परंपराभूरिव भूपतीनां महान्वयानामपि माननीया ॥ ६ ॥ १ ज्ञानानन्दात्मानं नमामि तीर्थंकर महावीरम् । यश्चिति विश्वमशेषं व्यदीपि नक्षत्रमेकमिव नभसि ॥ लाटीसंहितायाम् १-२ | २ त्रयीं नमस्यां जिनलिङ्गधारिणां सतां मुनीनामुभयोपयोगिनाम् । पदत्रयं धारयतां विशेषसात् पदं मुनेरद्विनयादिहार्थतः ॥ लाटीसंहितायाम् १-४ | Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ जम्बूस्वामिचरिते तदत्र जातावपि जातजन्मनः समेकछत्रीकृतदिग्वधूवरान् । प्रकाशितुं नालमिहानुभूभुजः कवीन्द्रवृंदो लसदिंदुकीर्तिः ॥ ७ ॥ अतः कुतश्चित् कृतसाहिसंज्ञकः स माननीयो विधिवद्विपश्चिताम् । यथा कथा बावरवंशमाश्रिता प्रकाश्यते सद्भिरथो निरंतरम् ||८|| सुश्रीवरपातिसाहिरभवन्निर्जित्य शत्रून्वलादिल्लीशोऽपि समुद्रवारिवसनां क्षोणीं कलत्रायताम् । कुर्वनेकवल दिगंगजमलं क्रीडन यथेच्छं विभुः स्याद्भूपालकपालमौलिशिखरस्थायीव सग्यद्यशः ॥ ९ ॥ तत्पुत्रोऽजनि भानुमानिव गिरेराक्रम्य भूमंडलं भूपेभ्यः करमाहरन्नपि धनं यच्छन् जनेभ्योऽधिकम् । उद्गच्छत्स्वकरप्रतापतरसा मात्सर्यमब्धेरधः प्रज्ञापालतया जडत्वमहरन्नाम्ना हुमाऊनृपः ॥ १० ॥ तत्सूनुः श्रियमुद्वहन् भुजवलादेकातपत्रो भुवि श्रीमत्साहिरकब्बरो वरमतिः साम्राज्यराजद्वपुः । तेजःपुंजमयो ज्वलज्ज्वलन जज्वालाकरालानलः सर्वान् दहति स्म निर्दयमना उन्मूल्य मूलादपि ॥ ११ ॥ शशीव दीप्तः किल शैशवेऽपि यः कलाकलापैर्ववृधे समुज्ज्वलैः । १ आसीदुसमप्रवेशविदिता या स्वर्धुनीवामला नानाभूपतिरत्नभूरिव परा जातिश्वगत्ताभिधा । तस्यां बाबरपातिसाह्रिरभवन्निर्जित्य शत्रून् बला दिल्लीमण्डलमण्डितात्मयशसा पूर्णप्रतापानलः ॥ लाटीसंहितायाम् १-५९ । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथामुखवर्णनम् तदापि नम्रीकृतभूमिपालकः कपालमालामभिर्भिद्य विद्विषाम् ।। १२ ।। ततः क्रमाद्यौवनमाश्रितो वय स्तदा द्रवन् संगरसंगतः क्षणात् । स्त्रियोऽपि कंदर्पमपत्र पारते द्विषश्च वह्नाविव तापसंज्ञके ॥ १३ ॥ गजाश्वपादातिरथादिकेषु यो मंत्रासिदुर्गद्रविणेषु कोटिषु । लिलेख लेखां भवितव्यताश्रितो वलं स्वसाद्विक्रममात्रसंभवम् ॥ १४ ॥ लब्धावकाशादथवा प्रसंगाद्यतो हता दुर्जनकिंकराकराः । तदत्र नामापि न गृह्यते मया लघुप्राणौ ननु पौरुषं कियत् ।। १५ ।। अथास्ति किंचिद्यदि चित्रकूटकमुत्ख्यातिलेखीकृतचित्रकूटकम् । अतोरणस्तंभमवाप हेलया m किमद्भुतं तत्र समानमानतः ।। १६ ।। जगज्ज (जे) गाजी गुजरातमध्यगो मृगाधिपादप्यधिकः प्रभावतः । मदच्युतो वैरिगजस्तदानीमितस्ततो याति पलायमानः ॥ १७ ॥ १ शत्रणाम् । २ अकव्बरः । ३ द्रव्येषु । ४ स्वाधीनं कृतवान् । इति हस्तलिखित पुस्तक टिप्पण्याम् । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते ततोऽपि धृत्वा गिरिगहरादितः श्रिता वधं केचन बंधनं क्षणात् । महायो मंत्रबलादिवाहताः प्रपेतुरापन्निधिसंनिधानके ॥१८॥ न केवलं दिग्विजयेऽस्य भूभृतां सहस्रखंडैरिह भावितं भृशम् । भुवोऽपि निन्नोन्नतमानयानया चलच्चमभारभरातिमात्रतः।।१९।। अपि क्रमात्मरतिसंज्ञको गिरेरपांनिधेः संनिधितः समत्सरः। कदापि केनापि न खंडितो यतस्ततोऽस्ति दुर्गो बलिनां हि दुर्जयः अनेन सोऽपि क्षणमात्रवेगादनेकखंडैः कृतजर्जरो जितः। विलंध्य वादि रघुनाथवत्तया परं विशेषः कलिकौतुकादिव ।।२१।। अवापुः के(चितरिपवः पयोनिधेः परं तट कोटिभटा नटतः । ततोऽस्य मन्ये न कुतोऽप्यपूर्यत प्रचंडदोर्विक्रममक्रमोद्भवम् ॥२२॥ शिते कृपाणेऽस्य विदारितारितः (णः?) पलाशनात्कुर्वति पानमब्धितः । ततोऽधिकं क्षारतया बुभुक्षितेः जगत्त्रयं त्रासमगादनेहसः ॥२३॥ तथाविधोऽप्युद्धतवीरकर्मणि दयालुता चास्य निसर्गताऽभवत् । क्रमेण युगपन्नवधा रसाः स्फुटमचिन्त्यचित्रा महतां हि शक्तयः२४ प्रपालयामास प्रजाः प्रजापतिरखंडदंडं यदखंडमंडलम् । अखंडलश्चंडवपुः मुरालयं श्रितामरानेव स बंधुवुद्धितः ।।२५।। करं न मेने जगतोऽतिदुष्करं परंतुकलौ यदि योषितां मृदम् । मदं न जग्राह कुतोऽपि कारणादपि द्विपेन्द्रानिह तद्वतोऽथवा २६ मुमोच शुल्कं त्वथ जेजियाभिधं स यावदंभोधरभूधराधरम् । धराश्च नघः सरितांपतेः पयः यशःशशीश्रीमदकब्बरस्य च २७ वधेनमेतद्वचनं तदास्यतो न निर्गत कापि निसर्गतं श्वि(तश्चिः)तिः। अनेन तद्यूतमुदस्तमनसः सुधर्मराजः किल वर्ततेऽधुना ॥२८॥ १ तीक्ष्णे । २ कालः । ३ मदवतः । ४ धरास्पदं यः इति वा पाठः । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथामुखवर्णनम् प्रमादमादाय जनः प्रवर्तते कुधर्मवर्गेषु यतः प्रमत्तधीः । ततोऽपि मद्यं तदवयकारणं निवारयामास विदांवरः स हि ||२९|| अशेषतः स्तोतुमलं न मादृशो समानदानादिगुणान संख्यतः । ततोऽस्य दिग्मात्रतयाशितुं क्षमे पयोधितो वा जलमंजलिस्थितम् चिरं चिरंजीव चिरायुरायती प्रजाशिषः संतसमग्रिमा ग्रिमम् । यथाभिनंदुर्वसुधासुधाधिपं कलाभिरेनं परया मुदा मुदे ॥ ३१ ॥ अथाधिपानामिव राजपत्तनं महानिहास्ति नगराधिपाधिपः । येनाधिछत्रं मनुते स्म भूपतिः समस्तवस्त्वाकर आगराख्यया ३२ यदीयशालः सुविशालतामयो दिवं दिदृक्षुः सुरनिम्नगामिव । शिलोच्चयोदुंबरमंबरं नयन् वपुस्तदुच्चैः पदमारुरोहयत् ॥ ३३ ॥ यदभ्रमभ्रंलिहसौधमंडलीशिरःस्खलद्वारहयादहपतिः । पदं चकारोत्तरदक्षिणायने सभीतभीतोऽत्र यतस्तिरोवति ||३४|| नानाभनसमाकीर्ण सरितां सलिलैरिव । सघोषैरतिगंभीरैरुद्गर्जतमिवोम्मिभिः ।। ३५ । महद्भिश्व महाभागै रत्ना लोकैर्महर्धितम् । गजाश्वादिधनाघातैर्यादोभिरिव दुर्घटम् ।। ३६ ।। पंकजाननसंचारैर्दतं कमलाकृतिम् । तन्नूपुररणत्कार हंसैरारचितं कचित् ।। ३७ ।। तद्धासादिविलासाद्यैवक्षितैरमृतास्पदम् । भनाकारकरोद्भूतप्रज्वलद्वाडवानलम् || ३८ ॥ सांयांत्रिकवणिक्पुत्रैः पोतस्थैरिव संस्थितम् । महामौल्यानि वस्तूनि नीत्वा गच्छद्भिरात्मनः ॥ ३९ ॥ १ मत्स्यैरिव । २ सम्यक् यात्रायें अलं इति सांयान्त्रिकः । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते भिन्ननामानि गृहंतमापणानि बहूनि वै। अंतरीपाणि तानीव सवस्तूनि पृथूनि च ॥४०॥ सौधस्थितमहोत्तुंगकेतुमालाभिराप्लुतम् । पतंत्रिभिः समुड्डीनं बद्धपंक्त्येव शोभितम् ।। ४१ ॥ राजनीतिमहामार्गादुत्पथापथगामिनाम् । निग्रहात्साधुवर्गाणां संग्रहात्सारसंग्रहम् ॥ ४२ ॥ चतुर्दिक्षु महावीथ्योऽप्यंतर्वीथ्यस्ततोऽपराः । इति कश्चिद्भवेद् भ्रांतो भ्रमावर्तमिव श्रितम् ॥ ४३ ।। राज्ञो यशः शशांकेन वर्द्धमानं दिनं दिनम् । वर्णयामि कथं चैनं नगरेशं महार्णवम् ॥४४॥ परं कश्चिद्विशेषोऽत्र नीचत्वं जलतात्मता । तावदुचैःपदारूढं कनकादिमिवोन्नतम् ।। ४५॥ . जात्यजाम्बूनदाकारं सौधोऽग्राणैः सचूलिकम् । गायन्तीकिन्नरीभिश्च निषेव्यं विबुधाधिपैः ॥ ४६॥ द्रुमैः पर्यन्तभूभागभूषणैभूषितं कचित् । रम्यैः फलाट्यसच्छायैनन्दनादिवनैरिख ।। ४७।। गजदंतसमाकारैर्दन्तिदंतैः मुविस्तृतम् । पंचवर्णमयै रत्नैः कचिकिम्मीरितं भृशम् ॥ ४८॥ चतुर्दिगंगभागेषु मध्यगं वलयाकृतिम् । ज्योतिर्देवविमानश्च सुभटैरिव सेवितम् ।। ४९॥ जिनचैत्यगृहैः सांगैः शुद्धैरिव समन्वितम् । तत्रस्थैजिनविम्वैश्च पूतं रत्नमयः स्वतः ॥५०॥ १ वारिणोऽन्तमध्ये यत् तटं तत् । २ पक्षिभिः । ३ चित्रितम् । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथामुखवर्णनम् जन्माभिषेकमादाय जिनाचादिमहोत्सवे । गंधादैरिव राजतं शैलमूर्ध्नि यथामरैः ॥ ५१ ॥ कालिंदी सरिदभांसि नेतुं संबद्धपंक्तिभिः । नाकिनाथैरिवाहूतं कैश्चिच्छांतिककर्मणि ॥ ५२ ॥ जयनादमहाघोषैरित्यादिस्तुतिभिः सदा । श्रयमाणं महाभागैः श्रावकैर्यतिभिः समम् ।। ५३ । कैश्चिद्गच्छद्भिरात्मानमुपादेयमतः परम् । हेयं सर्वमहारूढं धर्मध्यानावलंविभिः ॥ ५४ ॥ इत्यादिभिर्विशेषैश्च ज्ञातुमक्षमकैर्मया । सर्वैरशेषतः पूर्ण निरवशेषतया दधे ।। ५५ ।। (कुलकम् ) तत्र (?) टक्कुरसंज्ञकश्च अरजानीपुत्र इत्याख्यया कृष्णामंगलचौधरीति विदितः क्षात्रः स्ववंश्या (शा) धिपः । श्रीमत्साहिजलालदीननिकटः सर्वाधिकारक्षमः सार्वः सर्वमयः प्रतापनिकरः श्रीमान् सदास्ते ध्रुवम् ॥ ५६ ॥ येनाकारि महारिमानदमनं वित्तं बृहच्चार्जितम् कालिंदीसरिदंबुभिः सविधिना स्नात्वाथ विश्रांतिके । तामारुह्य तुलामतुल्यमहिमां सौवर्ण्यशाभामयीमैन्द्रश्रीपदमात्मसात्कृतवता संराजितं भूतले ।। ५७ ।। तस्याग्रे गढमल्लसाहुमहती साधुक्तिरन्वर्थतो यस्मात्स्वामिपरं बलेशमपि तं गृह्णाति न काप्ययम् । श्रीमद्वैष्णवधर्मकर्मनिरतो गंगादितीर्थे रतः श्रीमानेष परोपकारकरणे लभ्याच्छ्रियं शाश्वतीम् ॥ ५८ ॥ १ कलिंदादौ भवा कालिंदी यमुना २ गृहणीयम् । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते तयोर्द्वयोः प्रीतिरसामृतात्मकः स भाति नाना- टकसार-दक्षकः । कथं कथायां श्रवणोत्सुकः स्यादुपासकः कश्च तदन्वयं वदे ।। ५९ ।। श्रीमति काष्ठासंघे माथुरगच्छेऽथ पुष्करे च गणे । लोहाचार्यप्रभृतौ समन्वये वर्त्तमानेऽथ ।। ६० ।। तत्पट्टे परममलयकीर्तिदेवास्ततः परं चापि । श्रीगुणभद्रः सूरिर्भट्टारकसंज्ञकश्चाभूत् ।। ६१ ।। तत्पट्टमुच्चमुदयाद्रिमिवानुभानुः श्रीभानुकीर्तिरिह भाति हतांधकारः । उद्द्योतयन्निखिलसूक्ष्मपदार्थसार्थान् भट्टारको भुवनपालकपद्मवन्धुः ।। ६२ ।। तत्पट्टमब्धिमभिवर्द्धन हेतुरिन्दुः सौम्यः सदोदयमयी लसदंशुजालैः । ब्रह्मव्रताचरणनिर्जितमारसेनो भट्टारको विजयतेऽथ कुमारसेनः ।। ६३ ।। उग्राग्रोतकवंशजो वरमतिर्गौत्रे च गर्गोऽभवत् काष्ठासंघ भद्यानियां (१) च नगरे कोलेति नाम्ना वरात् । श्री साधुर्मदनाख्यया तदनुजो भ्राता स आसू सुधीस्तत्पुत्रो जिनधर्मशर्मनिरतः श्रीरूपचंद्राह्वयः ॥ ६४॥ तत्पुत्रः पुनरद्भुतोदयगुणग्रामैकचूडामणिः श्रीपासांवरसाधुसाधुगदितः सर्वैः समं साधुभिः । रेखा यस्य विराजते धुरि तदारंभे महौजस्विनां धर्मश्रीसुखदानमानयशसां जैनेऽथ धर्मे रतः ।। ६५ ।। ८ १ अयं श्लोकः लाटसंहितायामपि उपलभ्यते । २ ' अलीगढ़ ' इति प्रसिद्धः । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथामुखवर्णनम् तत्पुत्रोऽस्त्यत्र विख्यातः श्रीसाधुटोडरः सुधीः। महोदारो महाभागो महिम्ना कुलदीपकः ॥ ६६ ॥ श्लाघ्यः साधुसभामध्ये क्रियावान् धर्मतत्परः। देवशास्त्रगुरूणां च वत्सलो चिनयान्वितः ॥ ६७ ॥ परेषां चोपकाराय शक्तिस्त्यागे च यस्य धीः । वित्तं च धर्मकार्येषु चित्तमर्हद्गुणादिषु ॥ ६८॥ रागी धर्मफले धर्मे कुधर्मे तद्विपर्ययः । विमुखः परदारासु सन्मुखो दानसंगरे ॥ ६९ ।। सद्गुणांशेऽपि वा वालो मृको दोषशतेष्वपि । नात्मोत्कर्षविधौ वाग्मी स्वप्नेऽपि न दुराशयः ॥ ७० ॥ किमत्र बहुनोक्तेन सर्वकार्यविधी क्षमः। वित्तपुत्रादिसंपूर्णबैकोऽपि लक्षायते ॥ ७१ ।। कृपालुः सर्वजीवेषु सर्वशास्त्रेषु बुद्धिमान् । दक्षः सर्वावधानेषु श्रावकेषु महत्तरः ॥ ७२ ॥ तस्य भार्या यथा नाम्ना कौसुभी शोभनानना । साध्वी पतिव्रता चेयं भतुश्छंदानुगामिनी ।। ७३॥ तयोः पुत्रास्त्रयः संति प्राच्या भानोरिवांशवः । उग्राश्चापि सदोषेषु निषेिधूपकारिणः ।। ७४ ॥ ऋषिदासश्चिरं जीयात्तत्र ज्यायान् गुणैरपि । स्वतश्चाप्युनते वंशे दिदीप धिरु(स्थिर तेजसा ।। ७५ ।। मोहनाख्यश्चिरायुः स्याद्वितीयोऽप्यद्वितीयकः। कणोऽप्यग्नेर्यथा दाजु भस्मसात्कुरुते रिपून् ।। ७६ ।। १ सर्वकार्येषु । २ श्रेष्ठः । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जम्बूस्वामिचरिते वर्द्धतां मातुरंकस्थस्तृतीयो रुपमांगदः । शिशुरप्यंशुमालाभिर्महानेव मणिर्यथा ॥ ७७ ॥ एतेषां बन्धुवर्गाणां मध्ये श्रीसाधुटोडरः । व्यावर्णितोऽपि यः पूर्व संवन्धः सूच्यतेऽधुना ॥ ७८ ।। अथैकदा महापुर्या मथुरायां कृतोद्यमः । यात्रायै सिद्धक्षेत्रस्थचैत्यानामगमत्सुखम् ।। ७९ ।। तस्याः पर्यन्तभूभागे दृष्टा स्थानं मनोहरम् । महर्षिभिः समासीनं पूर्त सिद्धास्पदोपमम् ॥ ८॥ तत्रापश्यत्स धर्मात्मा निःसहीस्थानमुत्तमम् । अंत्यकेवलिनो जम्बूस्वामिनो मध्यमांदियम् ।। ८१ ।। ततो विद्युञ्चरो नाम्ना मुनिः स्यात्तदनुग्रहात् ।। अतस्तस्यैव पादान्ते स्थापितः पूर्वमूरिभिः ।। ८२ ।। ततः केपि महासत्वाः दुःखसंसारभीरवः । सन्निधानं तयोः प्राप्य पदसाम्यं समं दधुः ॥ ८३ ॥ उक्तं च“कालाई लद्धिणियडा जह जह संभवइ भव्यपुरिसस्स । तह तह जायइ नूनं सुसब्बसामग्गिमोक्खई ।। ८४॥" ततो धृतमहामोहा अखंडव्रतधारिणः । स्वायुरंते यथास्थानं जग्मुस्तेभ्यो नमो नमः ॥ ८५ ॥ ततः स्थानानि तेषां हि तयोः पार्वे मुयुक्तितः। स्थापितानि यथाम्नायं प्रमाणनयकोविदैः ।। ८६ ॥ १ 'नशियों ' इति । २ 'मध्यमादिकं ' इति वा पाठः । ३ काललब्धिनियता यथा यथा संभवति भव्यपुरुषस्य । तथा तथा जायते नूनं सुसर्वसामग्रीमोक्षार्थम् ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथामुखवर्णनम् कचित्पंच कचिच्चाष्टौ कचिद्दश ततः परम् । कचिदिशतिरेव स्यात्स्तूपानां च यथायथम् ॥ ८७ ॥ तत्रापि चिरकालत्वे द्रव्याणां परिणामतः । स्तूपानां कृतकत्वाच जीर्णता स्यादवाधिता ।। ८८॥ तां दृष्ट्वा स धर्मात्मा नव्यमुद्धर्तुमुत्सुकः । स्याद्यथा जीर्णपत्राणि वसंतःसमयो (वसंतसमये) नवम् ।।८।। मनो व्यापारयामास धर्मकार्य स बुद्धिमान् । तावद्धर्मफलास्तिक्यं श्रद्दधानोऽवधानवान् ।। ९० ॥ अस्त्यात्मानादिवद्धश्च तत्क्षयान्मोक्षभाग्भवेत् । तत्रानंतसुखावाप्तिर्भवेत्क्लेशपरिक्षयात् ।। ९१ ॥ स यावता भवेल्लाभो भूतपूर्वः सुदुष्करः। काललब्ध्यादिसामयां सुसाध्योऽपि महात्मनाम् ।। ९२ ।। तावदावश्यमेवैतद्धर्म कार्य मनीषिभिः । सत्यां सम्यक्त्वसंप्राप्तौ भाविप्राप्तावयं क्रमः ॥ ९३ ।। येषां सा तु भवेन्नात्र न भूता न भविष्यति । तेषां निंद्यात्मनां चात्र का कथा नित्यदुःखिनाम् ।। ९४ ।। तथापि धर्ममाहात्म्याक्रियामात्रानुरंजनात् । आस्कंदति महाभोगान् तेऽपि ग्रेवेयकं मुखम् ॥ ९५॥ स्वायुरंते ततश्च्युत्वा तिर्यगादिगतिष्वमी। वराकास्तीबदुःखाताः पर्यटन्ति यतस्ततः ॥ ९६ ॥ तन्नमोऽस्तु सुधर्माय यतः सौख्यं निरंतरम् । धिक्तत्पापापरं नाम मिथ्यात्वं कमशमभित् ।। ९७ ॥ १ निकटवान् । २ कर्माविष्ट आत्मा भव्यः कालेऽर्द्धपुद्गलपरिवर्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिक । इति इयमेका काललब्धिः । ३ अनुरागात् । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते यस्योदयाद्दया जंतोरदया स्यात्कथंचन । यदभावे दयाभावो घटते चिवेऽपि च ॥ ९८ ॥ तदलं व्याख्यया चास्य वाचा वक्तुमशक्यया । एकं मूलमनर्थानां यावतां (१) तत्परंपरा ।। ९९ ।। तन्मिथ्यात्वं परित्यज्यमादौ धर्ममभीप्सभिः । सम्यक्त्वं प्रागुपादेयं मूलं धर्मतरोरिह ।। १०० ॥ स धर्मः कथितो द्वेधा निश्चयाद्वयवहारतः । तत्र स्वात्माश्रितश्चाद्यः स्याद्वितीयः पराश्रितः ।। १०१ ।। आत्मा चैतन्यमेकार्थस्तच्च वाचामगोचरः । स्वानुभूत्यैकगम्यत्वात्स धर्मः पारमार्थिकः ।। १०२ ।। स एवाँतार्द्ध शुद्धात्मा स एव परमं तपः । . स एव दर्शनं ज्ञानं चारित्रं मुखमच्युतम् ॥ १०३ ॥ स एव संवरः प्रोक्तः निर्जरा चाष्टकर्मणाम् ॥ किमत्र विस्तरेणापि तत्फलं मुक्तिरात्मनः ।। १०४ ॥ अथ तत्रासमर्थः सन् कश्चिन्मोहोदयावृतः । व्यावहारिकधर्मेषु स्यान्निरीहोऽपि वर्तते ।। १०५ ।। माऽकार्षीत्संशयं कश्चिदत्र हेतोर्विनिश्चयात् । पिपासुर्जलदूरस्थोऽप्याचक्षाणोऽस्ति तद्गुणात् ।। १०६ ।। तथा स्पृहालुः सद्द्दष्टिः स्वात्मोत्पन्नमुखामृते । तत्मुखाप्तेषु संभीतिः परतन्त्रेषु जायते ।। १०७ ॥ तत्र रागाद्विकल्पात्मा तद्गुणग्रामचिंतनात् ॥ व्यावहारिकधर्मे स्यादारूढो व्रतवाचिनि ।। १०८ ।। १ इच्छारहितः । १२ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथामुखवर्णनम् कषायादिषु दुर्थ्यानवंचनार्थ तदर्थवान् । अर्हत्पूजादिकं चेच्छेदाहानादिविधेः क्रमात् ॥ १०९ ॥ एकाक्ष्यादिषु पंचाख्यपर्यन्तेषु च जंतुषु । समता स्यात्स्वतस्तस्य यः स्वयं दुःखभीरुकः ॥११० ॥ हिंसादेविरतिः प्रोक्तं व्रतं तद्विविधं मतम् । देशतः सर्वतो धत्ते श्रावकोऽणु यतिमहत् ॥ १११ ॥ तल्लक्षणं तु संक्षेपाक्ष्यमाणं यथागमम् । नात्र विस्तरतः प्रोक्तं हेतोः संबन्धमात्रतः ॥११२ ॥ यत्फलं चास्य धर्मस्य महेन्द्रादिमहोदयः। सर्व पलालवल्लभ्यं धान्यार्थिनः कुटुंबिनः॥११३ ॥ ज्ञातधर्मफलः सोऽयं स्तूपान्यभिनवत्वतः। कारयामास पुण्यार्थ यशः केन निवार्यते ।। ११४ ॥ यशःकृते धनं तेनः केचिद्धर्मकृतेऽर्थतः । तद्द्यार्थमसौ दधे यथा स्वादु महौषधम् ॥११५ ॥ शीघ्रं शुभदिने लग्ने मंगलद्रव्यपूर्वकम् । सोत्साहः स समारंभं कृतवान् पुण्यवानिह ।। ११६ ॥ ततोऽप्येकाग्रचित्तेन सावधानतयानिशम् । महोदारतया शश्वन्निन्ये पूर्णानि पुण्यभाक् ॥ ११७ ॥ शतानां पंच चापैकं शुद्धं चाधित्रयोदश । स्तूपानां तत्समीपे च द्वादश द्वारिकादिकम् ।। ११८ ॥ संवत्सरे गताब्दानां शतानां षोडशं क्रमात् । शुद्धस्त्रिंशद्भिरब्दैश्च साधिकं दधति स्फुटम् ॥ ११९ ॥ १ धान्यस्य तुषः । २ टोडरः । ३ विस्तारयामासुः । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते शुभे ज्येष्ठे महामासे शुक्ल पक्षे महोदये । द्वादश्यां बुधवारे स्याद् घटीनां च नवोपरि ॥ १२० ।। परमाश्चर्यपदं पूतं स्थानं तीर्थसमप्रभम् । श्वभ्रं रुक्मगिरेः साक्षात्कूटं लक्षमिवोच्छ्रितम् ।। १२१ ॥ पूजया च यथाशक्ति मूरिमंत्रैः प्रतिष्ठितम् । चतुर्विधमहासंघं समाहूयात्र धीमता ॥ १२२ ।। ततोऽप्याशीर्वचः पूर्व परमानंदशालिनाम् । गुरुणा स्वेन दत्तानि दधौ कुसुमानि मस्तके ॥ १२३ ॥ ततोऽधिवर्द्धयामास धोत्साहः सुदर्शनात् । यथेन्दुदर्शनाद्वार्द्धिर्वर्धते पयसाधिकम् ।। १२४ ॥ अथ मध्येसभं स्थित्वा कुड्मलीकृतकरद्वयम् । पृच्छति स्म स शुश्रूषुः सर्वमेतत्कथानकम् ॥ १२५ ॥ यूयं परोपकाराय बद्धकक्षा महाधियः। उत्तीर्णाश्च परं तीरं कृपावारिमहोदधेः॥१२६ ।। ततोऽनुग्रहमाधाय बोधयध्वं तु मे मनः । जम्बूस्वामिपुराणस्य शुश्रूषा हृदि वर्तते ॥ १२७ ॥ कथं श्रेयोऽर्जितं तेन कथं प्राप्तं भवांतरम् । कथं केवलमुत्पाद्य मुलब्धं मुखमव्ययम् ॥ १२८ ॥ कथं विद्युञ्चरो नाम्ना तन्निमित्तादभून्मुनिः। तेन सार्द्ध मुनीनां स्याच्छतं पंच जितेन्द्रियम् ॥१२९ ॥ दैवं महोपसर्ग हि समाधाय सहिष्णवः। बभूवुस्ते महात्मानो न स्खलेयुः समाधितः॥१३० ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथामुखवर्णनम् कथं चैतत्कथावृत्तं कथयध्वमाविस्तरात् । यथा बालेरपि प्रायो वाच्यं स्याल्लघुमक्तितः ॥ १३१ ॥ इत्युक्त्वा युक्तितोऽभिज्ञः स्थितो वाचंयमीच सः। साध साधुभिराम्नातं साधो मूक्तिमिदं त्वया ॥ १३२॥ ततः शीघ्रमुपज्ञज्ञो मल्लः प्रोवाच मिष्टवाक् । मध्येसभं गुरूणां वा कृपया लालितो यतः॥ १३३ ।। सर्वेभ्योपि लघायांश्च केवलं न क्रमादिह । वयसोऽपि लघुर्बुद्धो गुणैानादिभिस्तथा ।। १३४ ।। गुरोरनुग्रहं ज्ञात्वा सवैरादशितस्त्वयम् । अन्यथा तादृशो रंकः कथं वाचालतां दधौ ॥ १३५ ।। मृगारिरिति नाम्ना स्यादुत्कर्षो न गजद्विषाम् । अत्र दोषावतारेऽपि महत्त्वं महतां कियत् ॥ १३६ ।। किं तत्र प्रश्रयेनेह ये निसर्गाच्च सज्जनाः। धाराधरायते येषां कृपाम्बुशिशिरं वचः॥ १३७॥. पवित्रीकुरुते विश्वं निर्वापयति तत्तपः। पुण्यसस्यादिकं सूते तदास्तां हृदि मेनिशम् ।। १३८ ॥ दुर्जनोऽप्यधमो वा तद्विक्रियायै स दृष्टधीः । यतोऽप्यनुद्धते नम्र वक्रः सन्मानितोऽपि च ।। १३९ ॥ भवेत्साधुरसाधुवो कृतं चिंतनयानया। स्वेष्टं सुखावहं कार्य सर्वः स्वार्थ समीहताम् ॥ १४० ।। यदि संति गुणा वाण्यामत्रौदार्यादयाः क्रमात् । साधवः साधु मन्यन्ते का भीतिः शठविद्विषाम् ।। १४१॥ १ शास्त्रज्ञः । २ शीतलं करोति । ३ अलम् । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते अथ साधूनसाधूश्च प्रतिविज्ञापयाम्यहम् । अत्र भ्रान्तेः प्रमादावा क्षमध्वं स्खलिते मयि ॥ १४२ ॥ मृदृक्त्या कथितं किंचिद्यन्मयाप्यल्पमेधसा । स्वानुभूत्यादि तत्सर्वं परीक्ष्योद्धर्तुमर्हथ ॥ १४३ ॥ इत्याराधितसाधूक्तिहदि पंचगुरून् नयन् । जम्बूस्वामिकथाव्याजादात्मानं तु पुनाम्यहम् ॥ १४४ ॥ सोऽहमात्मा विशुद्धात्मा चिद्रूपो रूपवर्जितः। अतः परं य(च) का संज्ञा सा मदीया न सर्वतः ।। १४५ ।। यज्जानाति न तन्नाम यन्नामापि न बोधवत् । इति भेदात्तयो म कथं कर्तृ नियुज्यते ।। १४६ ।। अथासंख्यातदेशित्वाच्चैकोऽहं द्रव्यनिश्चयात् । नाम्ना पर्यायमात्रत्वादनंतत्वेऽपि किं वदे ।। १४७ ।। धन्यास्ते परमात्मतत्वममलं प्रत्यक्षमत्यक्षतः साक्षात्स्वानुभवैकगम्यमहसां विदंति ये साधवः । सांद्र सज्जतया न मज्जनतया प्रक्षालितांतर्मलास्तत्रानंतमुखामृताम्बुसरसीहंसाश्च तेभ्यो नमः ।। १४८ ।। इतिश्रीजम्बूस्वामिचरिते भगवच्छ्रीपश्चिमतीर्थकरोपदेशानुसरितस्वाहादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारदपण्डितराजमल्लविरचिते साधुपासात्मजसाधुटोडरसमभ्यर्थिते कथाऽमुखवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयः सर्गः सम्यक्त्वरत्नं भवताद्भवाब्धौ पोतायमानं निपतज्जनानाम् श्रीसाधुसाधोर्भुवि टोडरस्य पासात्मजस्याखिलशर्मणे वै ॥१॥ इत्याशीर्वादः। श्रीनाभेयं जिनं वंदे वृषतीर्थप्रवर्तकम् । अजितं निर्जिताशेषकर्माणं च जगद्गुरुम् ॥१॥ नौनांतरीपनिकरैः परितः परीतः स्वर्णाचलच्छलधृतातपवारणोऽसौ । गंगौघचामरसुवीजित एष जंबूद्वीपोऽधिराज इव राजति मध्यवर्ती ॥ २ ॥ तत्राद्धेदसमाकारं क्षेत्रं स्याद्भरताहयम् । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योर्घटीयंत्रमिवास्पदम् ॥३॥ गंगासिंधुनदीभ्यां च षट्वंडीकृतविग्रहम् । विजयाई गं भित्वा गताभ्यां लवणांबुधौ ॥४॥ द्विरुक्ता सुषमाद्या स्याद्वितीया सुषमा मता। सुषमा दुःषमान्तान्या सुषमाता च दुःषमा ॥५॥ १ द्वीपान्तरीपनिकरैः परितः परीतः स्वर्णाचलच्छलघृतातपवारणोऽसौ । गंगौघचामरविराजित एष जम्बूद्वीपोधिराज इव राजति मध्यवर्ती ॥ लाटीसंहितायां १-७। २ सर्वत्र । ३ व्याप्तः। ४ पर्वतं । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जम्बूस्वामिचरिते पंचमी दुःषमा ज्ञेया समा पष्टयतिदुःषमा । भेदा इमेऽवसर्पिण्या उत्सर्पिण्या विपर्ययः ॥ ६ ॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ कालो सांतर्भिदाविमौ । स्थित्युत्सवसभ्यां लब्धान्वर्थाभिधानकौ ॥ ७ ॥ कालचक्रपरिभ्रांत्या षट्समाः परिवर्त्तनैः । तावुभौ परिवर्त्तते तामिस्त्रेत रपेक्षवत् ॥ ८ ॥ पुरा स्यामवसर्पिण्यां क्षेत्रेऽस्मिन् भरताहये । मध्यमं खंडमाश्रित्य प्रथते प्रथमा सम ॥ ९ ॥ सागरोपमकोटीनां कोटी स्याच्चतुराहता । तस्य कालस्य परिमा तदा स्थितिरियं मता ॥ १० ॥ देवोत्तरकुरुक्ष्मासु या स्थितिः समवस्थिता । सा स्थितिभरते वर्षे युगारंभे स्म जायते ।। ११ ॥ तदा स्थितिर्मनुष्याणां त्रिपल्योपमसंमिता । षट्सहस्राणि चापानामुधी वपुषः स्मृतः ॥ १२ ॥ वज्रास्थिबंधनाः सौम्याः सुंदराकारचारवः । निष्टप्तकनकच्छाया दीव्यन्ते ते नरोत्तमाः ॥ १३ ॥ मुकुटं कुण्डलं हारी मेखला कटकांगदौ । केयूरं ब्रह्मसूत्रं च तेषां शश्वद्विभूषणम् ॥ १४ ॥ एते पुण्योदयोद्भूतरूपलावण्यसंपदः । ररम्यंत चिरं स्त्रीभिः सुरा इव सुरालये ।। १५ ।। महासत्त्वा महाधैर्या महोरस्का महौजसः । महानुभावास्ते सर्वे महीयंत महोदयाः ।। १६ । १ सार्थकाभिधानौ । २ वर्षाणि । ३ कृष्णशुक्लपक्षौ । ४ संज्ञा । ५ निरंतरं । ६ महास्कंधाः । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकमहाराजसमवसरणगमनवर्णनम् तेषामाहारसंप्रीतिर्जायते दिवसैत्रिभिः। कवलीफलमात्रं च दिव्यानं विष्वणंति ते ॥१७॥ निर्व्यायामा निरातका निर्बीहारा निरामयाः। निःस्वेदास्ते निरावाचं जीवंति पुरुषायुषं ॥१८॥ स्त्रियोऽपि तावदायुष्कास्तावदुत्सेधवृत्तयः। कल्पद्रुमेषु संसक्ताः कल्पवल्ल्य इवोज्वलाः॥१९ ॥ पुरुषेष्वनुरक्तास्तास्ते च तास्वनुरागिणः । यावज्जीवमसंश्लिष्टा भुंजते भोगसंपदः ॥ २० ॥ स्वभावसुंदरं रूपं स्वभावमधुरं वचः। स्वभावचतुरा चेष्टा तेषां स्वर्गायुषामिव ॥ २१ ॥ रुच्याहारगृहातोद्यमाल्यभूषाम्बरादिकम् । भोगसाधनमेतेषां सर्वकल्पतरूद्भवम् ॥ २२ ॥ मंदगंधवहाधृतचलदंशुकपल्लवाः। नित्यालोका विराजते कल्पोपपदपादपाः ॥ २३॥ कालानुभावसंभूतक्षेत्रसामर्थ्यबृंहिताः । कल्पद्रुमास्तदा तेषां कल्पतेऽभीष्टसिद्धये ॥ २४ ॥ मनोभिरुचितान् भोगान् यस्मात्पुण्यकृतां नृणाम् । कल्पयंति ततस्तज्ज्ञैर्निरुक्ताः कल्पपादपाः॥२५॥ मद्यत्तूर्यविभूषास्रज्योतिर्दीपगृहांगकाः । भोजनामत्रवस्त्रांगा दशधा कल्पशाखिनः ॥२६॥ १ बर' इति देशीभाषायां । २ भक्षयति । ३ मलरहिताः । ४ विरहरहिताः। ५. देवानामिव । ६ वादित्रं । ७ लेपनं । ८ पवनः । ९ कल्पवृक्षाः । १० वर्द्धिताः । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते इति स्वनामनिर्दिष्टां कुर्वतोऽर्थक्रियाममी । संज्ञाभिरेव विस्पष्टास्ततो नातिप्रतन्यते ॥ २७॥ तथा भुक्त्वा चिरं भोगान् स्वपुण्यपरिपाकजान् । स्वायुरंते विलीयते ते घना इव शारदाः ।। २८ ।। जंभिकारंभमात्रेण तत्कालोत्थक्षुतने वा । जीवितांते तनुं त्यक्त्वा ते दिवं यांत्यनेनंसः ॥ २९ ॥ इत्याद्यकालभेदोऽवसर्पिण्या वर्णितो मनाक् । लसत्कुरुसमः शेषो विधिरत्रावधार्यताम् ॥ ३० ॥ ततो यथाक्रम तस्मिन् काले गलति मंदताम् । यातासु वृक्षवृत्तायुःशरीरोत्सेधवृत्तिषु ॥ ३१ ।। सुषमालक्षणः कालो द्वितीयः समवर्त्ततां । सागरोपमकोटीनां तिस्रः कोव्योऽस्य संमितिः ॥ ३२ ॥ तदास्य (तदास्मिन्) भारते वर्षे मध्यभोगभुवां स्थितिः। जायते स्म परां भूतिं तन्वाना कल्पपादपैः ॥ ३३ ॥ तदा मां हि मामा द्विपल्योपमजीविनः। चतुःसहस्रचापोचविग्रहाः शुभचेष्टिताः॥ ३४॥ कलाधरकलास्पर्धिदेहज्योत्स्नास्मितोज्वलाः। दिनयेन तेऽश्नति वामिन्धोक्षमात्रकम् ॥ ३५ ॥ शेषो विधिस्तु निःशेषो हरिवर्षसमो मतः । ततः क्रमेण कालेऽस्मिन्नवसर्पत्यनुक्रमात् ।। ३६ ॥ महीणाब्दाक्षवीर्यादिविशेषाः प्राक्तना यदा । जघन्यभोगभूमीनां मर्यादाविरेंभूत्तदा ॥ ३७॥ १छिकया।२ निष्पापाः । ३ चन्द्रः । ४ विभीतकप्रमाणं । ५ प्रकटीजाता। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकमहाराजसमवसरणगमनवर्णनम् यथावसरं संप्राप्तस्तृतीयः कालपर्ययः । प्रवर्तते सुराजेव स्वां मर्यादामलंघयन् ॥ ३८ ॥ सागरोपमकोटीनां कोट्यौ द्वौ लब्धसंस्थितौ । कालेऽस्मिन् भारते वर्षे मर्त्याः पल्योपमायुषः ॥ ३९ ॥ गव्यूतिप्रमितोच्छ्रायाः प्रियंगुश्यामविग्रहाः । दिनान्तरेण संप्राप्ता धात्रीफलमिताशनाः ॥ ४० ॥ ततस्तृतीयकालेऽस्मिन् व्यतिक्रामत्यनुक्रमात् । पल्योपमाष्टभागस्तु यदास्मिन् परिशिष्यते ॥ ४१ ॥ तदा कुलकरा नाम्ना प्रतिश्रुत्यादयः क्रमात् । चतुर्दश भवन्त्येव कर्म्मभूपूर्व भूपवत् ॥ ४२ ॥ तदा कर्मभुवां सर्वो व्यवहारः प्रवर्त्तते । प्रत्यग्रभूपतेराज्ञामनुलंघ्य प्रजा इव ॥ ४३ ॥ काले प्रत्यस्य चार्यस्य मेघवृष्ट्यादयः क्रमात् । जायन्तेऽथ यथा नाभिराज्ञः कुलकरस्य वै ॥ ४४ ॥ तस्यैव काले जलदाः कालिका कर्बुरत्विषः । प्रादुरासन्नभोभागे सांद्राः सेन्द्रशरासनाः ।। ४५ ।। नभोनीरन्ध्रमारुन्धञ्जज्जृम्भेऽम्भोमुचां चयः । कालादुद्भूतसामयैरारब्धः सूक्ष्मपुद्गलैः ॥ ४६ ॥ विद्युतो महाध्वाना वर्षतो रेजिरे घनाः । समकक्षा मदिना नागा इव सबृंहिताः ॥ ४७ ॥ २.१ १ आमलकी । २ प्रथमभूपतेः । ३ विद्युत् । ४ चित्रं किमीरकल्माषशबलैताश्चं कर्बुरे इत्यमरः । ५ प्रकटीभवत् । ६ स्वर्णशंखलान्वितः । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते घनाघनघनध्वानैः प्रहता गिरिभित्तयः । प्रत्याक्रोशमिवातेनुः प्रतुष्टाः प्रतिशब्दकैः ॥ ४८ ॥ वव च वाततान्कुर्वन् कलापौघान् कलापिनाम् । घनाघनालिमुक्तांभः कणवाही समीरणः ॥ ४९ ॥ चातका मधुरं रेणुरभिनंद्य घनागमम् । अकस्मात्तांडवारंभमातेने शिखिनां कुलम् ॥ ५० ॥ अभिषेक्तुमिवारब्धा गिरीनंभोमुचां चयाः । मुक्तधारं प्रवर्षतः प्रक्षरद्वारिनिर्झरात् ।। ५१ ।। ध्वनंतो ववृषुर्मुक्तस्थूलधाराः पयोधराः । रुदंत इव शोकार्ताः कल्पवृक्षपरिक्षये ॥ ५२ ॥ विद्युन्नटी नभोरंगे विचित्राकारधारिणी । प्रतिक्षणविवृत्तांगी नृत्यारंभमिवातनोत् ॥ ५३ ॥ तडित्कलत्रसंसक्तैः कलापेक्षैर्महाजलैः । कृषिप्रवर्त्तकै मेधैर्व्यक्तं पामरेकायितम् ॥ ५४ ॥ तदा जलधरोन्मुक्ताः मुक्ताफलरुचश्छटाः । महीं निर्वापयामासुर्दवाकरकरोष्मतः ।। ५५ ।। गुणानाश्रित्य सामग्री प्राप्य द्रव्यादिलक्षणम् । संरूढात्यंकुरावस्थाप्रभृत्या कणिशाशितः ।। ५६ । शनैः शनैर्विवृद्धानि क्षेत्रेषु विरलं तदा । सस्यान्यकृष्टपच्यानि नानाभेदानि सर्वतः ॥ ५७ ॥ प्रजानां पूर्वसुकृतात्कालादपि च तादृशान् । सुपकानि यथाकालं फलदायीनि य (ज) ज्ञिरे ।। ५८ । १ मयूरपिच्छसमूहान् । २ प्राग्भरकायितं इति वा पाठ: । २२ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक महाराजसमवसरणगमनवर्णनम् नातिवृष्टिरवृष्टिर्वा तदासीत्किन्तु मध्यमा । वृष्टिस्तत्सर्वधान्यानां फलावाप्तिरविप्लुता ।। ५९ ।। । षष्ठिकाकलमव्रीहियवगोधूमकङ्गवः श्यामाककोद्रवोदारनीवारवरकास्तथा ॥ ६० ॥ तिलातैस्यौ मसूराश्च सर्षपो धान्यजीरकौ । मुद्गमाषाढकीराजमाषनिष्पावकाश्चणाः ।। ६१ ॥ कुलत्थत्रिपुटौ चेति धान्यभेदास्त्विमे मताः । सकुसुम्भाः सकार्पासाः प्रजाजीवनहेतवः ॥ ६२ ॥ उपभोगेषु धान्येषु सत्स्वप्येषु तदा प्रजाः । तदुपायमजानानाः स्वतो मूर्च्छर्मुहुर्मुहुः ॥ ६३ ॥ कल्पद्रुमेषु कार्त्स्न्येन मलीनेषु निराश्रयाः । युगस्य परिवर्त्तेऽस्मिन्नभूवनाकुलाकुलाः ।। ६४ ।। तीव्रायामशनास (या) यामुदीर्णाहारसंज्ञया । जीवनोपायसंशीतिव्याकुलीकृतचेतसः ।। ६५ ॥ युगमुख्यमुपासीनाँ नाभिमनुमपश्चिमम् । ते तं विज्ञापयामासुरिति दीनगिरो नराः ॥ ६६ ॥ जीवामः कथमेवाय नाथानाथा विना दुमैः । कल्पदायिभिराकल्पमविस्मायैरपुण्यकैः ।। ६७ ।। इमे केचिदितो देव तरुभेदाः समुत्थिताः । शाखाभिः फलनम्राभिराहयन्तीव नोऽधुना ।। ६८ ।। २३ शिव FIVAVIDE १ नाशरहिता । २ ' साठी ३ अलसी ४ 'धनिया' । ५ विचारयामासुः । ६ बुभुक्षायाम् । ७ प्राप्ता । Epines Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते किमिमे परिहर्त्तव्याः किं वा भोग्यफला इमे । फलेग्रहीनिमेऽस्मान्वा निगृण्हन्त्यनुपान्ति वा ॥ ६९ ॥ अमीषामुपशल्येषु केऽप्यमी तृणगुल्मकाः । फलनम्रशिखा भांति विश्वदिक्षु मितोऽमुतः ॥ ७० ॥ एतेषामुपयोगः स्याद्विनियोज्यः कथं नु वा । किमिमे स्वैरसंग्राह्या न वेतीदं वदाद्य नः ॥ ७१ ॥ त्वमेव सर्वमप्येतद्वेत्सि नाभेऽनभिज्ञकाः । पृच्छामो वयमद्यातस्ततो ब्रूहि प्रसीद नः ॥ ७२ ॥ इति कर्तव्यतामूढानतिभ्रांतांस्तदायकान् । नाभे (भि)र्न भेयमित्युक्त्वा व्याजहार पुनः सतान् । ७३ । इमे कल्पतरूच्छेदे द्रुमाः पक्वफलानताः । युष्मानद्यानुगृण्हंति पुरा कल्पद्रुमा यथा ॥ ७४ ॥ भद्रकास्तदमे योग्याः कार्या न भ्रान्तिरत्र वः । अमी च परिहर्तव्या दूरतो विषवृक्षकाः ॥ ७५ ॥ इमाव काश्चनौषध्यः स्तंबकार्यादयो मताः । एताः संभोज्यमन्नाद्यं व्यंजनाद्यैः सुसंस्कृतम् ॥ ७६ ।। स्वभावमधुराश्चैते दीर्घाः पुंड्रेक्षुदण्डकाः । रसीकृत्य प्रपातव्या दन्तैर्यन्त्रैश्च पीडिताः ॥ ७७ ॥ गजकुम्भस्थले तेन मृदा निर्वर्त्तितानि च । पात्राणि विविधान्येषां स्थाल्यादीनि दयालुना ॥ ७८ ॥ इत्याद्युपायकथनैः प्रीत्या सत्कृत्य तं मनुम् । भेजे (जु) स्तद्दर्शितां वृत्तिं प्रजाः कालोचितां तदा ॥ ७९ ॥ १ समीपेषु । २ धान्यं व्रीहिः स्तम्बकरिः इत्यमरः । २४ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकमहाराजसमवसरणगमनवर्णनम् २५ प्रजानां हितकृद्भूत्वा भोगभूमिस्थितिच्युतौ । नाभिराजस्ततोद्भूतो भेजे कल्पतरूस्थितिम् ॥ ८ ॥ तस्योद्वाहकल्याणं मरुदेव्या समं तदा । यथाविधि सुराश्चक्रुः पाकशासनशासनात् ॥ ८१ ॥ ततश्चापि महादेशानयोध्यांश्च पुरी व्यधु: ग्रामपत्तनसीमादि संवे चक्रुः सुरास्तदा ।। ८२ ॥ ततम्प्रभृति क्षेत्रेऽस्मिन् वर्तते कर्मभूरिति । अवस्थांतरमेव स्यात्कालचक्रपरिभ्रमात ॥८३ ॥ सागरोपमकोटीनां कोटिः स्याचदवस्थितिः। तुर्यपंचमषष्ठाश्च भेदास्तत्राप्यमी क्रमात ।। ८४॥ तत्रोक्तसंख्यकस्तुर्यो कालः स्याकिचिदनकः । द्वाचत्वारिंशदब्दानां सहस्राणि विनैव सः॥ ८५॥ तत्रादौ तुर्यकालस्य वृषभस्तीर्थकुद्भवेत् । ततःप्रभृति मोक्षस्य मार्गश्च प्रकटोऽभवत् ।। ८६ ॥ ततोत्सेधः शरीरस्य धनुः पंचशतं मतम् । उत्कर्षेण मनुष्याणां पंचविंशतिसाधिकम् ॥ ८७ ॥ आयु प्रमाणमाम्नातं पूर्वाणां कोटिरुत्तमम् । मध्यमं च निकृष्टं च विज्ञेयं परमागमात् ।। ८८ ॥ तत्र तीर्थकराः सर्वे चतुर्विशतिसंख्यया। जायन्ते पंचकल्याणप्राप्तपूजर्द्धिवेभवाः ॥ ८९॥ तत्र केचिन्महात्मानः काललब्धिवलादिह । प्राप्तातीन्द्रियसौख्यास्ते निर्वास्तिान्नुमो वयम् ॥ ९॥ १ पाकं तन्नामासुरं शास्ति इति पाकशासनः इन्द्रः । २ वर्षाणां । ३ कथितं । ४ निर्वाणं गताः। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते केचित्सम्यक्त्वपूर्वाणि व्रतानि पाल्य महाधियः । सर्वार्थसिद्धिपर्यंतं भुंजंति सुखमंगिनः ॥ ९१ ॥ परे व्रतानि संप्राप्य सम्यक्त्वेन विना भुवि । कुदृशोऽपि क्रियायोगाद् ग्रैवेयकसुखं ययुः ॥ ९२ ॥ केचित्सम्यक्त्वरिक्ताश्च व्रतेनापि परिच्युताः । भद्रा दानरतिं प्राप्य भोगभूमौ प्रयांति हि ॥ ९३ ॥ परे पूर्व हि बद्धायुः पश्चादुत्पन्नदर्शनाः । सत्पात्रदानतो नूनमवापुर्भोगभूसुखम् ।। ९४ ।। केचिद्भोगेषु संसक्ताः प्राणिवर्गेषु निर्दया: । धर्मात्पराङ्मुखा दुष्टाः दुःखं श्वभ्रे पतंत्यमी ।। ९५ । हा दुस्त्याज्यं सुदुष्कर्म दुल्लंघ्यं प्राणिनां महत् येन धर्मस्य सामग्री सर्वापि विफलीकृता ॥ ९६ ॥ इतीत्थं तुर्यकालोऽसौ पंथाः स्याद्वंधमोक्षयोः । तस्मान्निगद्यते सद्भिः कर्मभूरितिनामतः ।। ९७ ।। अपि चास्मिन् महाभागाश्चक्रिणो द्वादश स्मृताः । केशवास्तद्विषश्चैव बलाश्चापि नव स्मृताः ॥ ९८ ॥ त्रिपष्ठिलक्षणाश्चैते महापुरुषगोचराः । जायंते यत्र निर्विघ्नाः सोऽयं कालश्चतुर्थकः ॥ ९९ ॥ सर्वत्र मुनयः शश्वत्संति सद्व्रतधारिणः । देशव्रतधराः केचित्संति ते गृहमेधिनः ॥ १०० ॥ 79 २६ १ नरके । २ नारायणाः । ३ प्रतिनारायणाः । श THE Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकमहाराजसमवसरणगमनवर्णनम् गृहस्थाश्च सदाचाराः पूजादानादितत्पराः। एकादिकं यथाशक्ति प्रतिमाख्यं व्रतं दधुः।।१०१॥ किंत्वैकादशसंज्ञात्मव्रतवानिह कश्चन । त्यक्तागारः सनिर्विण्णस्तिष्ठते मुनिवत्तथा ।। १०२॥ आगोपालमथावालं सर्वो जैनः प्रजाजनः । कदाचिद्भवो न स्याद्वयक्तं पाखंडिनामिह ॥ १०३ ॥ किन्तु हुंडावसर्पिण्यां कालदोषादिह कचित् । प्रादुर्भवंति पाखंडास्तथापि च वृषक्षतिः ॥ १०४॥ गतायामवसर्पिण्यामुत्सर्पिण्यां तथैव च । असंख्यकोटिवारं स्यादेका हुंडावसर्पिणी ॥ १०५ ॥ अवश्यं भाविनी सेयं भूत्वा चापि गता पुरा । अनंतानंतशश्चापि वत्सरे मलमासवत् ॥ १०६॥ तदा भवत्यनर्थानां प्रादुर्भावो बलादिह । सीमानं कालचक्रस्य भेत्तुं शक्यो न कश्चन ॥१०७॥ यथा स्वयं स्वभावाद्वै वर्षान्ते शरदिष्यते । तथा कालपरिभ्रांत्या द्रव्याणां च व्यवस्थितिः ॥१०८॥ तद्यथा तत्र हुंडावसर्पिण्यां वा यथागमम् । तीर्थेशामुपसर्गो हि महानर्थो महात्मनाम् ।। १०९॥ मानभंगश्च चक्रेशं जायते जातपूर्वकः। इत्यादि बहवोऽनाः संति वाचामगोचराः ॥११॥ हिंसा प्राणिवधश्चेयं दुष्कर्मार्जनकारणम् । यागार्थ श्रेयसे हिंसा मन्यते दुधियो द्विजाः ॥ १११ ॥ GG Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जम्बूस्वामिचरितेएकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति कश्चन । संति वेदांतिनः केचिद्ब्रह्माद्वैतप्रवादिनः॥ ११२ ॥ तन्मतं यथा"विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतः पात् संबाहुभ्यां धमति संपतत्रैर्यावाभूमी जनयन् देव एक एव" ॥१॥ सर्वथानित्यमेवैतत्तत्त्वं केचिज्जगुर्यथा । आकाशं च तथात्मादि सर्वमेकान्तवादिनः॥ ११३ ॥ यत्सत्तक्षणिकं सर्वं यथा शब्दश्च वारिदः। इति बौद्धादयः केचित् क्षणिकैकान्तवादिनः ॥ ११४ ।। पंचभूतात्मकं तत्वं जीवो नास्तीह कश्चन । ततो बंधो न मोक्षोऽस्ति जगुः कापालिका इति ॥ ११५ ॥ ज्ञानानां यदि धर्माणां संतानोच्छेदनात्मकः । मोक्षो वाच्यः स जीवस्य मन्यते दुईशः परे ।। ११६ ॥ इत्यादि बहवो प्रोक्तास्तेषामंतर्भिदात्मकाः। ते च हुंडावसर्पिण्यां जायंते नान्यदा कचित् ॥ ११७ ॥ स्यावादगर्भिणी जीयाज्जैनी सिद्धान्तपद्धतिः । ययेव वज्रसारेण खंडिताः कुमताद्रयः॥ ११८ ॥ निग्रहस्थानमेतेषां पुरस्ताद्वक्ष्यते कविः । मुख्यो विवक्षितो वाच्यस्तत्र दिग्मात्रतोऽपरः ॥११९ ॥ १ सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन । आरामं तस्य पश्यन्ति न तत् पश्यति कश्चन ॥ इति छान्दोग्य-उपनिषदि ३-१४ ॥ २ शुक्लयजुर्वेदसंहितायां १७-१९। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकमहाराजसमवसरणगमनवर्णनम् अपि चैषां कुलिंगानि नानारूपाणि सर्वशः। त्रिशूलादिजटाभस्मैर्विकृतानि भवंत्यहो ।। १२० ।। एकदंडी द्विदंडी च त्रिदंडी चापि कश्चन । हंसः परमहंसोऽपि महारण्ये पशूपमाः॥१२१ ॥ इतिप्रभृति यावंति कुलिंगानि कुलिंगिनाम् । नाममात्रतया तानि क्षमो वक्तुं न कश्चन ॥ १२२ ॥ अलं वर्णनया चास्य यत्र पापाः समक्षतः। दृश्यंते यवना भूपाः साधवो व्याधिपीडिताः॥ १२३॥ इदमत्र समाकृतं विज्ञेयं परमार्थिभिः। जैनो धर्मः क्षणं यावद्विस्मार्यों न महात्मभिः ॥ १२४ ॥ यथाघमातोऽपि सौवर्ण्य जात्यजांबूनदः स्वतः न जहाति तथा साधुः क्षुद्रैः क्षुब्धोऽपि धर्मवत् (ताम्) ॥१२५।। १ ते व द्विजा एव भगवन्नामधेयाश्चतुर्विधाभिधीयन्ते कुटीचर-बहूदक-हंसपरमहंसभेदात् । तत्र त्रिदण्डी सशिखो ब्रह्मसूत्री गृहत्यागी यजमानपरिग्रही सकृत्पुत्रगृहेऽश्नन् कुट्यां निवसन् कुटीचर उच्यते। कुटीचरतुल्यवेषो विप्रगेहनैराश्यभिक्षाशनो विष्णुजापपरो नदीतीरस्नायी बहूदकः कथ्यते । ब्रह्मसूत्रशिखाभ्यां रहितः काषायाम्बरदण्डधारी प्रामे चैकरात्रं नगरे च त्रिरात्रं निवसन् विधमेषु विगताग्निषु विप्रगेहेषु भिक्षा मुजानस्तपःशोषितविग्रहो देशेषु भ्रमन् हंसः समुच्यते । हंस एवोत्पन्नज्ञानश्चातुर्वर्ण्यगेहभोजी स्वेच्छया दण्डधार ईशानी दिशं गच्छन् शक्तिहीनतायामनशनग्राही वेदान्तैकघ्यायी परमहंसः समाख्यायते । एषु चतुर्पु परः परोऽधिकः । एते च चत्वारोऽपि केवलब्रह्माद्वैतवादसाधनकव्यसनिनः शब्दार्थयोनिरासायानेकाः युक्तीः स्फोरयन्तोऽनिर्वाच्यतत्त्वे यथा व्यवतिष्ठन्ते तथा खण्डनतर्कादभियुक्तैरवसेयम् । गुणरत्नकृतायां हरिभद्रकृतषड्दर्शनसमुञ्चयटीकायां पृ० ११५ । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते उक्तं च"एष लोक बहुभावभावितः स्वार्जितेन विविधेन कर्मणा । पश्यतस्तद्विकृती डात्मनः क्षोभमेति हृदयं न योगिनः" ॥१॥ इति व्यावर्णितः सोऽयं तुर्यः कालो महानिह । शेषो विधिस्तु सर्वोऽपि विज्ञेयः परमागमात् ।। १२६ ॥ यदा चतुर्थकालस्य शेषमात्रोऽवतिष्ठते । तदा स्यात्तीर्थनाथस्य यथा वीरस्य निर्वृतिः ॥ १२७ ।। तदा केवलबोधस्य प्रादुर्भूतिस्तथैव हि । यथात्र वर्द्धमानस्य पश्चान्मोक्षं गतास्त्रयः ॥ १२८ ।। सधर्मा च सुधर्मा च जम्बूनामांत्यकेवली । यावद्द्वाषष्ठिः वर्ष स्याद्भगवनिवृतेः परम् ॥ १२९ ॥ ततो यथाक्रमं विष्णु दिमित्रोऽपराजितः । गोवर्द्धनो भद्रबाहुरित्याचार्या महाधियः॥१३० ॥ चतुर्दशमहाविद्यास्थानानां पारगा इमे। कालप्रमाणमेतेषा कायेन शरद शतम् ॥ १३१ ।। विशाखपौष्ठिलाचार्यों क्षत्रियो जयसाहयः। नागसेनश्च सिद्धार्थो धृतिषेणस्तथैव च ॥ १३२ ॥ विजयो बुद्धिमानंगदेवो धर्मादिशब्दतः । सेनश्च दशपूर्वाणां धारकाः स्युर्यथाक्रमम् ।। १३३ ।। अशीतं शतममब्दानामेतेषां कालसंग्रहः। तदाप्यात्मादितत्त्वानां पूर्णोपदेश एव हि ॥ १३४ ॥ १ श्वेताम्बरपरम्परायां जम्बूस्वामिनः पश्चात् प्रभवशय्यंभवयशोभद्रसम्भूतविजयभद्रबाहु इति पंचश्रुतकेवलिन स्वीक्रियन्ते । २ शतवर्षम् । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकमहाराजसमवसरणगमन वर्णनम् ३१ ततो नक्षत्रनामा च जयपाले (लो) महातपाः । पांडव ध्रुवसेनश्च कंसाचार्य इति क्रमात् ।। १३५ | एकादशांगविद्यानां पारगाः स्युर्मुनीश्वराः । विंशद्विशतमब्दानामेतेषां कालसंग्रहः ।। १३६ ।। तदा तत्त्वोपदेशस्य भागांशै र्हानिरिष्यति । करस्थनीरवन्न्यायात्प्रोक्तं विश्वविशारदैः ॥ १३७ ॥ सुभद्रश्व यशोभद्रो भद्रबाहुर्महायशाः । लोहार्यश्चेत्यमी ज्ञेयाः प्रथमांगाब्धिपारगाः ।। १३८ ॥ समानां शतमेषां स्यात्कालोऽष्टादशभिर्युतः । तदा तत्त्वोपदेशश्च भागांशेनावशिष्यते ॥ १३९ ॥ ततोऽपि हीयमानोऽसौ शेषमात्रोऽवतिष्ठते । दोषात्पंचमकालस्य हीयंते बुद्धयो नृणाम् ।। १४० ॥ तत्र दुःषमकालेऽस्मिन् प्रमाणं जिनदेशितम् । शुद्धवर्षसहस्राणामेकविंशतिसंख्यया ।। १४१ ॥ ततः श्रेण्योरभावः स्यान्मनः पर्ययबोधयोः । देशावधिं विना परमसर्वावधिबोधयोः ॥ १४२ ॥ ऋद्धीणां चापि सर्वासामभावस्तपसः क्षेतेः । नापि देवागमस्तत्र कल्याणानामभावतः ॥ १४३ ॥ कदाचित्कुत्रचित्केचित्क्षुद्रदेवाः कथंचन । आगच्छंति पुनस्तत्र सद्भिः प्रोक्तं जिनागमे ।। १४४ ॥ तत्रोत्कृष्टं मनुष्याणामायुर्वर्षशतं मतम् । विंशत्यधिकमेवेदं धनुरेकं वपुः स्मृतम् ॥ १४५ ॥ १ नाशात् । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जम्बूस्वामिचरिते क्रमादायुःशरीराणां हानिः स्याच प्रतिक्षणम् । धर्मस्यापि च कस्मिंश्चिद्देशे सत्वं च देशतः॥१४६॥ तत्राप्यस्ति निराबाधं सम्यक्त्वद्वयमादितः। क्षायिकं च भवेत्तत्र यत्र केवलिनो जिनाः ॥१४७॥ उक्तं च-- "पढेमं पढमे णियदं पढमं विदियं च सव्वकालेसु खाइयसम्मत्तो पुण जत्थ जिणो केवली तम्हि"॥१॥ महाव्रतानि संत्यस्मिन् देशतोऽणुव्रतानि च । दुर्लभानीह केषांचिदागुणस्थानसप्तकम् ॥१४८॥ किं चापि भद्रकाः केचिद्दयादानादितत्पराः। शीलोपवाससंपूर्णाः स्वर्गे गच्छंत्यनारतम् ॥ १४९ ॥ इत्यादीनि च कार्याणि विद्यते यत्र चांगिनाम् । आप्तोपदेशतः सोऽयं कालो दुःषमसंज्ञकः ।। १५०॥ पर्यन्ते चास्य यत्किंचिद् वृत्तातं तन्निगद्यते । लेशतोऽप्यल्पबुद्धीनां बुद्धिसंमर्षणक्षमम् ।। १५१ ॥ यायिनि दुःषमकालेऽस्मिन् शीघ्रमेष्यति चापरे । षष्ठे दुःपमदुःपाख्ये वक्ष्यमाणक्रमस्त्वयम् ॥ १५२ ॥ कुत्रचित्सर्वविदृष्टे देशे भूपोऽपि धर्महा । स्यात्कलंकीति विख्यातो हालाहलविषोपमः ॥१५३ ।। १ प्रथमं प्रथमे नियतं प्रथमं द्वितीयं च सर्वकालेषु । क्षायिकसम्यक्त्वः पुनः यत्र जिनः केवली तस्मिन् ॥ इयं गाथा लाटीसंहितायामपि उक्तं चेति रूपेण उद्धृता । २ निरंतरं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक महाराजसमवसरणगमनवर्णनम् तस्य क्रियाः समस्तास्ताः प्रजापीडाकराः स्मृताः । तासामुद्देशमात्रेऽपि न क्षमो ज्ञोऽपि के वयम् ।। १५४ ॥ तावता धातवः सर्वे विलीयंते लयं यथा । सांकचर्ममयः सर्वः स्यात्क्रयो विक्रयोऽथवा ।। १५५ ।। वधबंधेनमेनं च वचो जल्पति दुष्टधीः । मन्ये प्राणिविनाशाय केवलं कालनोदितः ।। १५६ ।। अथ तत्रापि वृषः साक्षादव्युच्छिन्नमवाहतः । यस्मादेको मुनिजैनो विद्यते भावलिंगवान् ।। १५७ ।। एका चाप्यार्यिका तत्र यथोक्तव्रतधारिका । सजानिः श्रावकश्चैको जैनधर्मपरायणः ।। १५८ ॥ अथान्येद्युः कलंकात्मा ध्यायत्येवं स पापधीः । न को ऽप्यत्र मदाज्ञायाः परो नास्ति कराहतः ।। १५९ ।। एवं श्रुत्वाधमाः केचिज्जगुर्निष्ठुरया गिरा । मुनिमुद्दिश्य देवोऽयं स्यादेकः करवर्जितः ॥ १६० ॥ उक्तं च ३३ " रोज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापाः समे समाः । लोकास्तदनुवर्तते यथा राजा तथा प्रजाः । " ।। १६२ ॥ इत्याकर्ण्य स पापात्मा वाचः प्रोवाच निर्दयाम् । यथाकथंचिदयं दंड्यः स्यात्तथाद्य विधीयताम् ॥ १६२ ॥ श्लोकोऽयं सोमदेवकृतयशस्तिलकचम्पूकाव्येऽपि १ भार्यासहितः । उक्तं चेति रूपेण उद्धृतोऽस्ति । 3 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते ततो भूपाज्ञया केचिचेलुः पश्चान्मुनेस्तदा । यदेर्यापथसंशुद्धचा भिक्षार्थमयति स्म सः ॥ १६३ ॥ क्रमात्प्राप्तो विशुद्धात्मा तत्रीपासकसद्मनि ॥ स्वामिन्नमोऽस्तु तिष्टात्र श्रावकेनापि सत्कृतः ॥ १६४ ॥ यथान्नायं विधानज्ञो प्रसारितकरद्वयः । भोक्तुकामः स भोज्यस्य ग्रासं जग्राह शुद्धधीः ।। १६५ ।। यावद्भुक्तं स तावद्वै वारितो भूपकिंकरैः । मा मा भुंक्ष्वेति दुःशब्दैर्वज्राघातायतैरिव ।। १६६ ।। अयं च प्रथमो ग्रासो भागधेयोचितस्त्वया । देयः प्रतिदिनं तावद्यावद्राज्ञोऽभिशंसनम् ॥ १६७ ॥ उक्तमात्रे दुराचारैर्मुनिरागमकोविदः । सर्वे विज्ञापयामास कालावस्थांतरादिकम् ।। १६८ ।। नूनमेतत्समापन्नं दुष्टकालावचेष्टितम् । अन्यथानर्थसंमृतिरियं पापक्रिया कथम् ।। १६९ ॥ इति निश्चित्य शास्त्रज्ञो जीवनाशापरिच्युतः । त्यक्त्वा पाणिपुटाहारं सावधानो भवेन्मुनिः ॥ १७० ॥ यावज्जीवं चतुर्थापि मनोवाक्काययोगतः । त्यक्त्वा (क्त) माहारकं सर्वं मुनिना भवभीरुणा ॥ १७१ ॥ ततोऽप्यार्थिकया साक्षान्मुक्तं खाद्यादिकं स्वतः । सल्लेखनाविधौ चित्तं सावधानतया धृतम् ॥ १७२ ॥ सस्त्रीकः श्रावकश्चापि चक्रे सल्लेखनाविधिम् । मुनिवद्भवभोगेभ्यो विरक्तः स्वशरीरके ।। १७३ ।। ३४ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक महाराजसमवसरणगमनवर्णनम् चत्वारोऽपि महात्मानो लब्धसम्यक्त्व भूमिकाः । क्रमाच्यक्तशरीरास्ते दिवि' यास्यत्यसंशयम् ।। १७४ ।। तदात्वेऽनंतरं तत्र मूर्ध्नि राज्ञोऽपतत्पविः । ततोऽप्यनंतरं नश्येद्विद्दि (१) शय्यागृहादिकम् ।। १७५ ।। दधिदुग्धघृताद्याश्च सर्वे गोरसपर्ययाः । क्षणादेव विलीयते पापांशादिव संपदः ।। १७६ ।। ततो दुःषमदुःषमाख्यः षष्ठः कालः प्रवर्तते । विनष्टभोगसंपत्को दुष्टश्चान्वर्थसंज्ञकः ।। १७७ ॥ तत्र पोडशवर्षाणां परमायुर्जिनोदितम् । हस्तकं वपुरुत्सेधमुत्कर्षेण नृणां मतम् ॥ १७८ ॥ मध्यं तथा जघन्यं च विज्ञेयं परमागमात् । तद्वदायुः शरीरेषु तिरश्चामपि तत्त्रयम् ।। १७९ ।। यथा दुःखातुराः सर्वे तिर्यचश्च तथा नराः । फलाद्याहारभोक्तारो भूरंध्रेषु निवासिनः ।। १८० ।। नरा वल्कलवखाढ्या मिथस्ते च विरोधिनः । तिर्येचोऽपि महाक्रूरा युद्धं कुर्वन्त्यहर्निशम् ।। १८१ ॥ हत्वा परस्परं पापाः फलं खादति निर्दयाः । धर्मबुद्धेरभावाच्च दुष्टकालप्रभावतः ।। १८२ ।। मेघाः कचित्कदाचिच्च तत्र वर्षति वर्षतः । तेषां नैसर्गिकी तृष्णा प्रशमं याति न कचित् ॥ १८३ ॥ इत्थं वर्षसहस्राणामेकविंशतिसंख्यकः । कालो गच्छति जंतूनां दुःखं दुष्कर्मपाकतः ॥ १८४ ॥ १ स्वर्गे । २ वज्रम् । ३ भूमिविलेषु । ३५ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जम्बूस्वामिचरिते तदंते प्रलयोऽवश्यं भावी कालस्वभावतः । वर्षेति सप्तसप्ताहं कारीषाग्न्यादयः क्रमात् ।। १८५ ।। इत्थमेकोनपंचाशद्दिनं यावदुपद्रवः । महादुःखाकरो भीमो रुद्रकर्मात्मको भवेत् ।। १८६ ॥ द्वासप्ततिजीवानां दंपतीमिथुनं तदा । तत्राधिकारिभिर्देवैनयिते गह्वरादिषु ।। १८७ ।। शेषमत्रार्यखंडेऽस्मिन् कृत्रिमं भस्मसाद्भवेत् । अकृत्रिमं तु केनापि कर्तुं शक्यं न वान्यथा ।। १८८ ॥ ततश्चित्रावनिर्नित्या शेपमात्रावतिष्ठते । भूतपूर्वी लयः सोऽयमित्थमित्थमनंतशः ।। १८९ ॥ एवं पट् समया यत्र वर्तते पारिणामिकाः । अनुलोमविलोमैश्च तत्क्षेत्रं भरताद्वयम् ।। १९० ।। तत्राधि(स्ति) मगध देशो विख्यातो भुवि सारवत् । नित्यप्रमुदिता यत्र प्रजा भोगैः कृतोत्सवाः ।। १९१ ॥ बलाकालीपताकाढ्या स्तंनिता यत्र बृंहिता । जीमूता यत्र वर्षतो भांति मत्ता इव द्विपाः ।। १९२ ।। न स्पृशंति करावाधां यत्र राजन्वतीः प्रजाः । सदा सुकालसांनिध्यानेतयो नाप्यनीतयः ।। १९३ ॥ यस्य सीमाविभागेषु शाल्यादिक्षेत्र संपदः । सदैव फलशालिन्यो भांति धर्म्या इव क्रियाः ॥ १९४ ॥ यत्र शालिवनोपांते खात्पतंती शुकावली । शालिगोप्यो ऽनुमन्यते दधती तोरणश्रियम् ।। १९५ ।। १ गर्जना । २ मेघाः । ३ गोपांगनाः । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकमहाराजसमवसरणगमनवर्णनम् मंदगंधवहा धृताः शालिवप्राः फलानताः । कृतसंराविणो यत्र छोत्कुर्वतीय पक्षिणः ॥ १९६॥ यत्र पुंड्रेक्षुचाटेषु यत्र चीत्कारहारिषु । पिचंति पथिकाः स्वैरं रसं सुरसमैक्षवम् ।। १९७ ॥ यत्र कूपतटाकाद्याः कामं संति जलाशयाः। तथापि जनतातापं हरति रसवत्तया ॥१९८ ॥ जनतापच्छिदो यत्र वाप्यः स्वच्छांबुसंभृताः । भांति तीरतरुच्छाया निरुद्धोष्णा बहुप्रपाः ॥ १९९ ।। विपंका ग्राहेवंत्यश्च स्वच्छाः कुटिलवृत्तयः। अलंध्याः सर्वभोग्याश्च विचित्रा यत्र निन्नगाः ।। २००॥ सरसां तीरेषु देशेषु रुतं हंसा विकुर्वते । यत्र कंठविलालनमृणालशकलाकुलाः ।। २०१॥ वनेषु वनमातंगा मदामालितलोचनाः। भ्रमंत्यविरतं यस्मिन्नाहातुमिव दिग्गजान् । २०२॥ यत्र शृंगाग्रसंलग्नकदमा दुर्दमा भृशम् । उत्खनंति वृषा दृष्ट्वा स्थलेषु स्थलपद्मिनीम् ॥ २०३ ॥ स्वर्गावाससमाः पुर्यो निगमाः कुरुसंनिभाः। विमानस्पर्खिनो गेहाः प्रजा यत्र सुरोपमाः ।। २०४॥ यत्र भंगस्तरंगेषु गजेषु मदविक्रिया। दंडपारुष्यमब्जेषु सरःसु जलसंग्रहः ।। २०५।। गवां गणा यथाकालमाप्तगभोः कृतस्वनाः। पोषयंति पयोभिः स्वर्जनं यत्र घनैः समाः॥२०६॥ १ मच्छाः । २ शब्दं । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते निसर्गसुभगा नार्यो निसर्गचतुरा नराः। निसर्गललितालापा बाला यत्र गृहे गृहे ॥२०७ ॥ यत्र सत्पात्रदानेषु प्रीतिः पूजासु चाहताम् । शक्तिरात्यंतिकी शीले प्रोषधे च रतिनृणाम् ॥ २०८ ॥ देशस्यास्यैकदेशेऽस्मिन्नाम्ना राजगृहं पुरम् । यत्र राजन्यकं शश्वद्राजते दिविराडिव ।। २०९ ॥ यत्राभ्रंलिहसौधाग्रकलशैः शातकुंभजैः। सदा संभाव्यते पौरैः शतचन्द्रं नभस्तलम् ।। २१० ॥ जिनप्रासादशिखरं दंडोत्तंभितकेतैनैः। किं किलाकाशगंगायाः प्रवाहः शतधा भवेत् ॥ २११ ॥ गृहवातायनस्थानां नारीणां मुखमंडनैः । उइंडपुंडरीकानां सरसां श्रियमावहन् ।। २१२ ।। यत्सुंदरीणां सौंदर्य दर्श दर्श सुरस्त्रियः । प्रत्यूहचकिता मन्ये तस्थुरुन्मेषितेक्षणाः ।। २१३ ॥ यत्र तौर्यत्रिकैवानेधूपधुमविवर्तनैः । सदैव दुर्दिनीत्या केको तन्वंति केकिनः ॥ २१४ ॥ तत्र राजाधिराजोऽयं राजते श्रेणिकः सुधीः । निर्जिताशषभूपालरावितपदद्वयः ॥ २१५ ।। सर्वतोऽस्य सुलक्ष्माणि नालं वर्णयितुं कविः । तस्मादिग्मात्रमेवात्र लक्ष्ये सामुद्रिकं यथा ॥ २१६॥ १ तपनीयं शातकुंभ इत्यमरः । २ पताकाभिः। ३ तौर्यत्रिक नृत्यगीतवाद्यं नाटयमिदं त्रयम् इत्यमरः । ४ मेघभ्रान्त्या। ५ केका वाणी मयूरस्य । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक महाराजसमवसरणगमनवर्णनम् शिरस्यस्य बभ्रुर्नीला मूर्द्धजाः कुंचितायताः । कामकृष्णभुजंगस्य शिशवो नु विजृंभिताः ।। २१७ ।। नेत्रभृंगे मुखाब्जे सस्मितांशुत्करकेसरे । धत्ते स्म मधुरां वाणीं मकरंद सोपमाम् ।। २९८ ॥ नेत्रयोर्द्वितयं रेजे संसक्तं तस्य कर्णयोः । सुश्रुती ताविवाश्रित्य शिक्षितुं सूक्ष्मदर्शिताम् ।। २१९ ।। उपकंठमसौ दधे हारं नीहारसच्छविम् । तारानिकरमास्येन्दोरिव सेवार्थमागतम् ॥ २२० ॥ वक्षःस्थलेन पृथुना सोऽधाच्चंदन चर्चिताम् । मेरोर्निजतालग्नां शारदीमित्र चंद्रिकाम् ।। २२१ ॥ मुकुटोद्भासिने। मेरुमन्यंस्य शिरसोन्तिके । चाहृतस्यायतौ नीलनिषधाविव रेजतुः ।। २२२ ।। सरिदावर्त्तगंभीरा नाभिमध्येऽस्य निर्वभौ । नारीहक्करिणीरोधे वारिखातेव हृद्भुव ।। २२३ ।। रसनावेष्टितं तस्य कटिमंडलमाबभौ । हेमवेदी परिक्षिप्तमिव जम्बूद्रुमस्थलम् ॥ २२४ ॥ ऊरुद्वयमभास्त स्म स्थिरं वृत्तं सुसंहतम् । रामामनोगजालौनस्तंभलीलां समुद्वहन् ।। २२५ ॥ चरणद्वितयं सोऽधादारक्तं म्रदिमान्वितम् । श्रितं श्रियानपायिन्या संचारीव स्थलाम्बुजम् ॥ २२६ ॥ ३९ १ मकरंद: पुष्परसः इत्यमरः । २ मेस्तुल्यस्य । ३ कामेन । ४ मिलितं । ५ बन्धनाधारस्तंभः । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते रूपसंपदमुख्यैषा भूषिता श्रुतसंपदा । शरच्चन्द्रिकयेवेन्दोमूर्तिरानंदिनी दृशाम् ॥ २२७ ॥ पदवाक्यप्रमाणेषु परं प्रावीण्यमागता। तस्य धीः सर्वशास्रेषु दीपकेच व्यदीप्यत ।। २२८ ।। सकलः सकलो विद्वान् विनीतात्मा जितेन्द्रियः । राज्यलक्ष्मीकटाक्षाणां लक्ष्यतामगमत्कृती ।। २२९ ।। अनुरागं सरस्वत्यां की| प्रणयनिघ्नताम् ।। लक्ष्म्यां चालभ्यमातन्वन्विदुषां मूर्ध्नि सोऽभवत् ।। २३० ।। यस्य ज्वलत्प्रतापाग्नौ सदपरिपत्रः क्षणात् । भवेयुभस्मसात्सर्वे दववह्नौ तृणा इव ॥ २३१ ।। यस्य पादद्वयं शश्वत्प्रणमंति महीश्वराः। यशोगंधैरिवाकृष्टो भ्रमरा इव कुशेशयम् ॥ २३२ ॥ सोऽयमज्ञानतः पूर्व मुनेश्चाप्युपसर्गतः । तीव्रसंक्लेशभावैश्च बद्धायुर्नरकस्य च ॥ २३३ ॥ पश्चाद्भावैविशुद्धः सन् काललब्धिप्रसादतः । लब्धसद्दर्शनः सोऽयमासीत्कर्मातकृत्सुधीः ॥ २३४ ॥ तद्यथावृत्तकं तस्य विज्ञेयं तत्कथानकात् । अत्र संक्षेपमात्रत्वानोक्तं विस्तरतो मया ।। २३५ ॥ तस्य पत्नी तु नाम्नाऽऽसीचलनेति पतिव्रता । व्रतशीलमुधर्माढ्या सम्यग्दर्शनशालिनी ।। २३६ संत्यंतःपुरवासिन्यःप्रियाः शतसहस्रशः। कलत्रवंतमात्मानं तयैव मनुते स्म सः ॥ २३७ ॥ १ कुशे जले शेते इति कुशेशयं कमलम् । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक महाराजसमवसरणगमनवर्णनम् रूपयौवन लावण्यगुणवारितरंगिणी । साभूत्सरिदिवांभोधेर्भर्तुश्छन्दानुगामिनी ।। २३८ ।। अजस्रं तत्समीपं सा विभर्ति स्म स्मरातुरा । तदासीत्कल्पवल्लीव संसक्ता रतकर्मणि ।। २३९ । अथान्येद्युर्महास्थानमासीनं हरिविष्टैरे । नमत्कोटिकिरीटाग्रैर्नृपैरासेवितं भृशम् ॥ २४० ॥ निर्झरन्नीरसंकाशचलच्चामरराजिभिः । वीज्यमानं सभामध्ये गिरीन्द्रमिव निश्चलम् || २४१ ॥ इंदुबिम्बसमाकारसितछत्रीपलक्षितम् । श्रेणिकं तं महाराजं ददर्श वनपालकः ॥ २४२ ॥ तं हाथ प्रणम्यादावुवाच विनयान्वितः । देवाश्चर्यपदं किंचिद् दृष्टं प्रत्यक्षतो मया ॥ २४३ ॥ तत्सर्वं लेशतोऽपीह वक्तुं शक्यो न कश्चन । तथाप्युल्लेखतोऽवश्यं वाच्यं वच्मि नराधिप ।। २४४ ॥ श्रीवर्द्धमानतीर्थस्य महतत्रिजगद्गुरोः । समवसृतिसंस्थासीद्विपुलाचलमस्तके ।। २४५ ।। वर्णयामि किमत्राहं शोभातिशयशालिनी । यत्र संभूय नाकेशाः किंकरा इव कर्मठाः ।। २४६ ॥ तत्र प्रक्षुभितांभोधेर्वेलाध्वानानुकारिणी । घंटा मुखरयामास जगत्कल्पामरेशिनाम् || २४७ ॥ ज्योतिर्लोके महान् सिंहमणादोऽभूत्समुत्थितः । येनाशु विमदीभावमवाप सुरवारणः ।। २४८ ॥ १ सिंहासने । २ देवाः । ४१ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जम्बूस्वामिचरिते दध्वान ध्वनदंभोदध्वनितानि तिरोदधन् । वैयंतरेषु गेहेषु महानानकनिःस्वनः ॥ २४९।। संखः संखरवैः (१) सार्धं यूयमेव जिघृक्षवः । इतीव घोषयन्नुच्चैः फणीन्द्रभवने ध्वनन् ॥ २५० ॥ विष्टरान्यमरेशानामासनः प्रचकंपिरे । अक्षमाणीव तद्र्व सोडुं जिनजयोत्सवे ।। २५१ ।। पुष्पांजलिमिवातेनुः समंतात्सुरभूरुहः । चलच्छाखाकरैर्दीप्तैविगलत्कुसुमोत्करैः ।। २५२ ।। दिशः प्रसत्तिमासे दुर्व्यभ्राजे व्यभ्रमंवरम् । विरजीकृतभूलोकः शिशिरो मरुदावभौ ।। २५३॥ इति प्रमोदमातन्वन्नकस्माद्भवनोदरे। केवलज्ञानपूर्णेन्दुर्जगदब्धिमवीवृधन् ॥ २५४ ।। तमैरावणमारूढः सहस्राक्षोऽद्युतत्तराम् । पद्माकर इवोत्फुल्लपंकजो गिरिमस्तके ।। २५५ ।। द्वात्रिंशद्वदनान्यस्य प्रत्यास्यं च रदाष्टकम् । सरः प्रति रदं तस्मिन्नब्जिन्येका सरः प्रति ॥ २५६ ।। द्वात्रिंशत्मसवास्तस्यास्तावत्पमितपत्रिकाः। तेष्वायतेषु देवानां नर्तक्यस्तत्समाः पृथक् ॥ २५७ ।। नृत्यंति सलयस्मेरवक्त्राजा ललितभ्रवः । पश्यच्चित्तद्रुमेषूच्चैनश्यंतः (१) प्रमदांकुरान् ।। २५८ ॥ तासां सहासशृंगाररसभावलयान्वितम् । पश्यतः कीमुदीमायं नृत्य पियिर सुराः॥२५९ ॥ १ कल्पवृक्षः । २ ऐरावतहस्तिनं । ३ संतोषं प्राप्ताः । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकमहाराजसमवसरणगमनवर्णनम् ४३ प्रयाणे सुरराजस्य नेदुरप्सरसः पुरः। रक्तकंठाश्च किंनो जगुर्जिनपतेर्जयम् ।। २६० ।। ततो द्वात्रिंशदिंद्राणां पृतना बहुकेतनाः। प्रसस्रुर्विलसच्छत्रचामराः प्रततामराः ॥ २६१ ।। अप्सर कुंकुमारक्तकुचचक्राहयुग्मके। तद्वक्त्रपंकजच्छन्ने लसंतनयनोत्पले ॥ २६२ ।। नभःसरसि हारांशुस्वच्छवारिणि हारिणि । चलंतश्चामरास्तत्र हंसायन्त स्म नाकिनाम् ।। २६३ ।। इंद्रनीलमयाहार्यरुचिभिः कचिदाततम् । स्वामाभांति बिभरामास धौतासिनिभमंबरम् (१) ॥ २६४॥ पद्मरागरुचा व्याप्तं कचियोमतलं बभौ। सांध्यरागमिवावभ्रदनुरंजितदिङ्मुखम् ।। २६५ ॥ कचिन्मरकतच्छायासमाक्रांतमभानमः। सशैवलमिवांभोधेर्जलपर्यतसंस्थितम् ।। २६६ ॥ तन्व्यः सुरुचिराकारा लसदंशुकभूषणाः । तत्रामरस्त्रियो रेजुः कल्पवल्ल्य इवांवरे ।। २६७॥ तासां स्मेराणि वक्त्राणि पद्मबुद्धयानुधावताम् । रेजे मधुलिहां माला धनुर्येव मनोभुवः ॥ २६८ ॥ सुरानकमहाध्वानः पूजावेलापरां दधन् । प्रचलोल्लोलकल्लोलो बभौ देवागमांबुधिः ।। २६९ ॥ तत्र दिव्यांगनारूपैयहस्त्यादिवाहनः। उच्चावचैनभावम॑ भेजे चित्रपटश्रियम् ॥ २७०॥ १ सेना । २ कृशाङ्ग्यः । ३ हास्ययुक्तानि । ४ हयः अश्वः । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते सुरैर्दूरादथालोक्य विभोरास्थानमंडलम् । सुरशिल्पिभिरारख्धपरार्द्धिरवनाशतम् ( १ ) ।। २७१ ॥ ४४ एकयोजनविस्तारमभूदास्थानमीशितुः । हरिनीलमहारत्नघटितं विलसत्तलम् ।। २७२ ।। सुरेन्द्रनीलनिर्माणं समवृत्तं तदा बभौ । त्रिजगत्स्त्रीमुखा लोकमंगलादर्शविभ्रमम् ।। २७३ ।। संस्थानमण्डलस्यास्य संस्थानं को तु वर्णयेत् । सुत्रमा सूत्रधारोऽभूनिर्माण यस्य कर्मठः ॥ २७४ ॥ तथाप्यनृद्यते किंचिदस्य शोभासमुच्चयः । श्रुतेन येन संप्रीतिं भेजे भव्यात्मनां मनः ।। २७५ ।। पंचवर्णमयोद्भासिरत्नपांशुभिराचितः । तस्य पर्यंतभूभागे धूलीशालः परिष्कृतः ।। २७६ ।। चतसृष्वपि दिवस्य हेमस्तंभाग्रलंबिताः । तोरणानां करस्पर्शिरत्नमाला विरेजिरे ।। २७७ ॥ ततोऽतरांतरं किंचिद्गत्वा हाटकनिर्मिताः । रेजे मध्येषु वीथीनां मानस्तंभाः समुच्छ्रिताः ॥ २७८ ॥ अधिष्ठिता विरेजुस्ते मानस्तंभा मनोलिहः । ये दूराद्वीक्षिता मानं स्तंभयंत्याशु दुर्दशाम् || २७९ ॥ उक्तं च “मानस्तंभाः सरांसि प्रविमलजलमत्खातिका पुष्पवाटी । प्राकारो नाट्यशाला द्वितयमुपवनं वेदिकांतर्ध्वजाद्याः । १ समवशरणम् । २ इन्द्राः । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकमहाराजसमवसरणगमनवर्णनम् शालः कल्पद्रुमाणां सुपरिवृतवनं स्तूप हर्म्यावली च । प्राकारः स्फाटिकोंऽतर्नृसुरमुनिसभा पीठिकाग्रे स्वयंभूः ॥२८० तत्र त्रिमेखलस्यास्य मूर्ध्नि पीठस्य विस्तृतौ । स्फुरन्मणिविभाजालरचितामरकार्मुके ॥ २८१ ॥ चलच्चामरसंघातप्रतिबिंबनिभागतैः । हंसैरिवासरो बुद्धया सेव्यमाने तले पृथौ ।। २८२ ।। मार्तण्डमंडलच्छाया प्रस्पर्द्धिनि महर्द्धिके । स्वर्धुनीफेननीकाशैः स्फटिकैर्घटिते कचित् ॥ २८३ ॥ शुचौ स्निग्धे मृदुस्पर्शे जिनांधिस्पर्शपावने । पर्यंतरचितानेक मंगलद्रव्यसंपदि ॥ २८४ ॥ त्रिमलांकिते पीठे सैपा गंधकुटी बभौ । यत्र त्रैलोक्यनाथस्य संस्था सर्वातिशायिनी ॥ २८५ ॥ यथा सर्वार्थसिद्धिर्वा स्थिता त्रिदिवमूर्धनि । तथा गंधकुटी दीप्ता पीठस्याधितलं बभौ ॥ २८६ ॥ सुगंधधूपनिःश्वासासुमनोमालभारिणी । नानाभरणदीप्तांगी या वधूरिव दिद्युते ।। २८७ ॥ तस्या मध्ये हेमं पीठं नानारत्नवृत्ताकीर्णम् । मेरोः शृंगं न्यष्कुर्वाणं चक्रे शक्रोदेशाद्वित्तेद् ।। २८८ ॥ विष्टरं तदलंचक्रे भगवानंततीर्थकृत् । चतुर्भिरंगुलैः स्वेन महिना पृष्ठतत्तलम् ॥ २८९ ॥ तत्रासीनं तमिंद्राद्याः परिचेरुर्महेज्यया । पुष्पवृष्टिं वर्षतो नभोमार्गे घना इव ॥ २९० ॥ १ स्वर्गगंगा । २ तिरस्कुर्वाणं । ३ धनदः । ४५ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते तत्राशोकतरू रेंज पर्यंते त्रिजगत्पतेः । रुधन्मार्ग दिवेशानां धुन्वन् शाखाः स वायुभिः २९१ ॥ छत्रं धवलं रुचिमत्क्रांत्या चांद्रीमजयद्रुचिरां लक्ष्मीम् । त्रेधा रुरुचे शशभृन्नूनं सेवां विदधज्जगतां पत्युः ।। २९२ ।। पयः पयोधेरिव वीचिमाला प्रकीर्णकानां समितिः समंतात् । जिनेन्द्रपर्यंत निषेवियक्षः करोत्करैराविरभूद्विधृता ।। २९३ ॥ जैनी किमंगद्युतिरुद्भवंती किमिदुभासां ततिरापत्ती । इति स्म शंकां तनुते पतंती सा चामराली शरदिंदुशुभ्रा ।। २९४ || सुरदुंदुभयो मधुरध्वनयो निनदंति तदा स्म नभोविवरे । जलदागमशकिभिरुन्मदिभिः शिखिभिः परवीक्षितपद्धतयः २९५ प्रभया परितो जिनदेहभुवा जगती सकला समवाविस्तृतेः (१) । रुरुचे स चराचरमर्त्यजनाः किमथाद्भुतमीदृशि धानि विभोः२९६ दिव्यमहाध्वनिरस्य मुखाब्जान्मेघरवानुकृतिं निरगच्छत् । भव्यमनोगत मोहतमोऽघ्नन्नद्युतदेष यथैव तमोऽरिः ।। २९७ ।। इत्यष्टाभिः प्रतीहारैरन्विता भूर्जिनंशिनः । विपुलाद्रौ स्थिता देव देवदेवैरधिष्ठिता ।। २९८ ।। अपि तत्र विमुंचति मिथो वैरं परस्परम् । जन्मसंतानसंस्काराबद्धक्रोधा विरोधिनः ।। २९९ ॥ केचित्तत्कालपर्यायस्वभावत्वाद्विरोधिनः । नापि ते विक्रियां भेजुस्तत्सांनिध्यप्रभावतः ॥ ३०० ॥ तद्यथा करिणी दुग्धं दोग्धीव हरिशावकः । मातृबुद्धया तथा सिंहीमामनंति मृगार्भकः ।। ३०१ ।। १ समीपे । २ सूर्याणां । ३ मृगशावकाः । ४६ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक महाराजसमवसरणगमनवर्णनम् यत्र दर्दुरका नागफणायां च कृतासनाः । आश्रयंतीह छायायै पांथाः सान्द्रद्रुमेष्विव ॥ ३०२ ॥ द्रमाः सर्वेऽपि सर्वर्तुफलदा दलशालिनः । आनंदादिव नृत्यंति चलच्छाखाकरायताः ॥ ३०३ ॥ श्रीहयः फलसंपन्नाः स्वादुपकारच सांप्रतम् । विद्यते सर्वभूपृष्ठे सुकृतानामिवांकुराः ।। ३०४ ।। सर्वोषध्यो महावीर्याः सर्व्वमयविनाशकाः । दीप्यतेऽतितरामद्य प्रजानां सुखहेतवे ॥ ३०५ ॥ दुर्भिक्षादीतयो नाशं यांति मूलादपि क्षणात् । पुण्यसूर्योदयादेव तमो नैशं यथा विभोः ॥ ३०६ ॥ इत्याद्यतिशयाः सर्वे संति युगपज्जिनेशिनः । तांस्तानुल्लेखतो वक्तुं नाहं शक्नोमि सांप्रति ॥ ३०७ ॥ इति श्रुत्वा वचो भूपो वनपालमुखादिह । आनंदामृतसंसिक्तदेहोऽभूद्भक्तिनिर्भरः ॥ ३०८ ॥ अथोत्थाय नृपस्तूर्णमासनात्संमुखं विभोः । गत्वा सप्तपदं यावत्रिधा चक्रे नमस्क्रियाम् ॥ ३०९ ॥ सानुजन्मासमेतोन्तःपुरपौरपुरोगमैः । प्राज्यामिज्यां पुरोधाय ससज्जोऽभूद्गमं प्रति ।। ३१० ॥ गुरोर्भक्तिं परां तन्वन्कुर्वन्धर्मप्रभावनाम् । स भूत्या परयोत्तस्थे भगवद्वंदनाविधौ ।। ३११ ॥ अथ सेनांबुधेः क्षोभमातन्वन्नब्धिनिःस्वनः । आनंदपटहो मंदं दध्वान ध्वनयन् दिशः ॥ ३१२ ॥ ४७ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते प्रतस्थेऽथ महाभागो वंदारुः श्रेणिको नृपः । महाहस्त्यश्वपादातिरथंकट्या वृतोऽभितः ॥ ३१३ ॥ रेजे प्रचलिता सेना ततानकपृथुध्वनिः । वेलेव वारिधेः प्रेङ्खदसंख्यध्वजवीचिकाः ॥ ३१४ ।। तया परिवृतः प्रापत्स जिना स्थान मंडपम् । प्रसत्प्रभया दिक्षु जितमार्तडमण्डलम् ॥ ३२५ ॥ परीत्य पूजयन्मानस्तंभान्सोम्यैः ततः परम् । खातां लतां वनं शालं वनानां च चतुष्टयम् ।। ३१६ ।। द्वितीयशालमुत्क्रम्य ध्वजान् कल्पद्रुमावलीम् । स्तूपान् प्रासादमालाथ पश्यन्विस्मयमाप सः ॥ ३१७ ॥ ततो द्वारिकैदेवैः संभ्राम्यद्भिः प्रवेशितः । श्रीमंडपस्य वैदग्धीं सोऽपश्यत्स्वर्गजित्वरीम् ॥ ३१८ ॥ ततः प्रदक्षिणीकुर्वन् धर्मचक्रचतुष्टयम् । ४८ लक्ष्मीं वा पूजयामास प्राप्य प्रथमपीठिकाम् ।। ३१९ ॥ ततो द्वितीयपीठस्थान् विभोरष्टौ महाध्वजान् । सोऽर्चयामास संप्रीतः पूतैर्गधादिवस्तुभिः ।। ३२० ॥ मध्ये गंधकुटी द्विद्विपारार्द्ध हरिविष्टरे । उदयाचलमूर्द्धस्थमिवार्क जिनमैक्षत ।। ३२१ ॥ चलच्चामरसंघातवीज्यमानं महातनुम् । प्रपतन्निर्झरं मेरुमिव चामीकरच्छविम् ।। ३२२ ॥ इत्याद्यष्टप्रतीहारैर्विभ्राजतं जिनेश्वरम् । स त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य भगवंतं जगद्गुरुम् ।। ३२३ ।। १ रथानां समूहः इति रथकटया । २ सूर्य । ३ शोभां । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिकमहाराजसमवसरणगमनवर्णनम् इयाय याययुकानां ज्यायान्प्राज्येष्टया प्रभुम् । पूजान्ते प्राणिपत्येशं महानिहितजान्वसौ ॥ ३२४ ॥ नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं महात्मने । वच प्रसूनमालाभिरित्यानर्च गिरांपतिम् ॥ ३२५ ।। त्वं जिनः कामजिज्जेता त्वमहनारहारुहः। धर्मध्वजो धर्मपतिः कारातिनिशुंभनः ।। ३२६ ॥ तव यांसनं भाति विश्वभतुर्भवद्भरम् । कृतयत्नेरिवोद्वोढं न्यगूढोऽयं मृगाधिपैः ॥ ३२७॥ तवायं प्रचलच्छाखस्तुंगोऽशोकमहाधिपः । स्वच्छायासंश्रितान्पाति स्वतः शिष्यानिवाश्रितान् ॥ ३२८ ॥ तवामी चामरवाता यक्षरुत्क्षिप्य वीजिताः। निर्धनंतीव निर्व्याजमागो वै सागसां नृणाम् ॥ ३२९ ॥ त्वामामनंति परितः सुमनोञ्जलयो दिवः । तुष्टया स्वर्गलक्ष्म्यैव मुक्ता हर्षाश्रुविंदवः ।। ३३०॥ देवदुंदुभयश्चामी निनदंति नभास्थिनाः । घोषयति जयोत्साहं निर्जिताखिलकर्मणः ॥ ३३१ ।। ज्ञानदर्शनवीर्याणि विरतिः शुद्धदर्शनम् । दानादिलब्धयश्चेति क्षायिक्यस्तव शुद्धयः ।। ३३२ ।। छत्रत्रितयमाभाति सुवृत्तं जिन तावकम् । मुक्तालंबनविभ्राजि लक्ष्म्याः क्रीडास्थलायितम् ॥ ३३३ ॥ तव देहप्रभोत्सपैरिदमाक्रम्यते सदः। पुण्याभिषेकसभारं लंबयद्भिरिवाभितः ।। ३३४ ॥ तव वाक्मसरो दिव्यः पुनाति जगतां मनः । मोहांधतमसो धुन्वंस्त्वज्ज्ञानाशिकोपमः ।। ३३५॥ १ पूजकानां । २ संसत् । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते ज्ञानमप्रतिघं विश्व पर्यवेत्सीत्तवाक्रमात । यथा ज्ञानं तथैवाभूत्क्षायिकं तव दर्शनम् ।। ३३६ ॥ वश्वं प्रजानतोऽपीश यत्तेनास्तां श्रमक्लमो। अनंतवीर्यताशक्तेस्तन्माहात्म्यं परिस्फुटम् ।। ३३७ ॥ रागादिचित्तकालुष्यव्यपायादुदिता तव । विरतिः सुखमात्मोत्थं व्यनस्यात्यंतिक विभो ॥३३८॥ प्रशांतकलुषं तोयं यथेह स्वच्छतां ब्रजेत् । मिथ्यात्वकर्दमापायाद् दृकशुद्धिस्ते यथार्थताम् ॥ ३३९ ॥ संत्योऽपिलब्धयः शेषास्त्वयि नार्थक्रियाकृतः । कृतकृत्ये वहिदिव्यसंवन्धो हि निरर्थकम् ।। ३४०॥ एवं प्राया गुणा नाथ भवतोऽनंतधा मताः । तानहं लेशतोऽपीश न स्तोतुमलमल्पधीः ।। ३४१ ।। भगवंतमाभिष्टुत्य विष्टपातिगवैभवम् । भर्तुः श्रीमंडपारंभे स्वकोष्ठेऽवीविशन्नृपः ॥ ३४२॥ जम्बूद्वीपेऽत्र वर्षे समयमधिगते भारत तत्र देशे। नाम्ना विख्यातकीर्ताविह भुवि मगधेगाथसंपन्निधाने । तत्रापि श्रीगिरा राजगृह इति महाराजधानी पुरेऽस्मिन् । भूपः श्रीश्रेणिकोऽगाद्विपुलगिरिगिरी वर्द्धमानस्य भूमौ ॥३४३॥ इति श्रीजम्बूस्वामिचरिते भगवच्छ्रीपश्चिमतीर्थकरोपदेशानुसरितस्याद्वादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारदपण्डितराजमल्लसाधुपासात्मजसाधुटोडरसमभ्यथिते श्रेणिकमहाराजसमवसरणगमनवर्णनो नाम द्वितीयोऽधिकारः। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीयोऽध्यायः जीयात्स टोडरः साधुः साधुपासांगजः कृती। दानबुद्धिस्तु यस्योच्चैः श्रेयांसनोपमीयते ॥ इत्याशीर्वादः ॥ संभवं भवदुःखानां हतारं तीर्थनायकम् । अभिनंदनं च वंदामो वंदितं त्रिदशेश्वरैः ॥१॥ ततो निभृतमासीने प्रवद्धकरकुइमले। सदःपद्माकरे भर्तुः प्रबोधमाभलाषुके ॥ २॥ भक्त्या श्रेणिकभूपेन विनयानतमौलिना। विज्ञापनमकारीत्यं तत्त्वं जिज्ञासुना गुरोः ॥३॥ भगवन् बोटुमिच्छामि कीदृशस्तत्त्वविस्तरः। मार्गों मार्गफलं चापि कीहक तत्त्वं विदांवर ॥४॥ तत्पश्नावसितावित्थं भगवानंततीर्थकृत । तत्वं प्रपंचयामास गंभीरतरया गिरा ॥ ५॥ प्रवक्तुरस्य वक्त्राब्जे विकृति व काप्यभूत् । दर्पणे किमु भावानां विक्रियाऽस्ति प्रकाशते ॥६॥ ताल्वोष्ठमपरिस्थंदि सर्वांगेषु समुद्भवाः । अस्पृष्टकरणा वणों मुखादस्य विनियेयुः ॥ ७॥ स्फुरदिगारगुहोद्भुतप्रतिध्वनितसंनिभः। प्रस्पष्टार्थको निरगाद ध्वनिः स्वायंभुवात् मुखात् ॥ ८॥ १ यत्सर्वात्महितं न वर्णसहितं न स्पन्दितौष्ठद्वयं नो वाञ्छाकलितं न दोषमलिनं न श्वासरुद्धक्रमम् । शान्तामर्षविषैः समं पशुगणैराकर्णितं कर्णिभिस्तनः सर्वविदः प्रणष्टविपदः पायादपूर्व वचः ॥ इति संग्रहश्लोकः । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते विवक्षामंतरेणापि विविक्ताऽसीत् सरस्वती । महीयसामचिन्त्या हि योगजाः शक्तिसंपदः ॥९॥ शृणु श्रेणिक तत्त्वार्थान् वक्ष्यमाणाननुक्रमात् । जीवादीन् कालपर्यतान् गौतमश्चाब्रवीत्तदा ॥१०॥ जीवाजीवावाश्रवबन्धौ किल संवरश्च निर्जरणम् । मोक्षस्तत्त्वं सम्यग्दर्शनसद्धोधविषयमखिलं स्यात् ॥ ११॥ आश्रवबन्धवपुरिदं पुण्यं पापं स्वभावतो न पृथक् । तस्मान्नो दिष्टं खलु तत्त्वदशा मरिणा सम्यक् ॥ १२ ॥ पोढा द्रव्योपदेशः स्याद् द्रव्यलक्षणयोगतः। द्रव्यत्वं नाम किंचेत्स्याद्गुणपर्ययवचतः ॥१३॥ तल्लक्षणस्वभावत्वाज्जीवः स्याद् द्रव्यसंज्ञकः । पुद्गलश्चापि तद्योगाद् द्रव्यमित्यभिलप्यते ॥१४॥ धर्माधर्माविहाकाशं कालश्चापि तथाविधः। चत्वारोऽपि च सत्त्वात्ते द्रव्यसज्ञात्मकाः पृथक् ॥ १५ ॥ अस्तिकायस्वभावत्वात्संति पंचास्तिकायिकाः। प्रदेशपचयाभावात्कालस्य नास्ति कायता ॥१६॥ जीवादीनां पदार्थानां याथात्म्यं तत्त्वमिष्यते । सम्यग्ज्ञानं हि तज्ज्ञानं श्रद्धानं दर्शनं मतम् ॥ १७॥ कर्मादाननिदानानां भावानां च निरोधतः । चारित्रं तत्त्रयं विद्धि मुक्त्यंगं कर्मशातनात् ॥ १८ ॥ १ महापुरुषाणां। २ जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं रूपं आत्मनः तत् तु । दुरभिनिवेशविमुक्तं ज्ञानं सम्यक् खलु भवति सति यस्मिन् । द्रव्यसंग्रहे ४१। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवसानत्कुमारनामस्वर्गगमनवर्णनम् सम्यग्दर्शनमादौ स्याद्वाच्यं ज्ञप्तिरतः परम् । यस्माच्छ्रद्धानशून्यस्य ज्ञानस्याज्ञानता मता ॥ १९ ॥ उक्तं च"जीवादीसदहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु । दुरभिणिवेसविमुक्कं गाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि" ॥२०॥ द्वाभ्यां पूर्व हि (पश्चाद्धि) चारित्रं प्रोक्तं चार्थक्रियाकरम् । क्रियमाणं तु तत्छ्न्यं स्यादचारित्रवद्यतः ॥२१॥ तत्त्वज्ञानार्थमेतेषां वाच्यं लक्ष्म यथागमम् । अस्तित्वादिव सामान्याज्ज्ञानादित्वं विशेषतः॥२२॥ तद्यथा तत्र जीवोऽस्ति स चानाधावसानकः। नित्यः स्वतश्च सिद्धत्वात्तच्च कायाद्यभावतः ॥ २३ ॥ स चासंख्यातदेशी स्यादनंतगुणवानपि । स्यातां तस्य व्ययोत्पादौ कथंचिदितिपर्ययैः ॥२४॥ चेतनालक्षणो जीवो विशेषाल्लक्षणादिह । ज्ञाता द्रष्टा च कर्ता च भोक्ता देहप्रमाणकः ॥२५॥ गुणवान् कर्म निर्मुक्तावर्द्धवज्यास्वभावकः। परिणतोपसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥२६॥ जीवः पाणी च जंतुश्च क्षेत्रज्ञः पुरुषस्तथा। पुमानात्माऽतरात्मा च ज्ञो ज्ञानी तस्य पर्ययाः॥ २७॥ १ सम्यक्त्वे सति ज्ञानं सम्यग्भवतीति यदुकं तस्य विवरणं क्रियते । तथाहि । गौतमाग्निभूतिवायुभूतिनामानो विप्राः पंचपंचशतब्राह्मणोपाध्याया वेदचतुष्टयं ज्योतिष्कव्याकरणषडङ्गानि मनुस्मृत्याद्ययादशस्मृतिशास्त्राणि यद्यपि जानन्ति तथापि तेषां हि ज्ञानं सम्यक्त्वं विना मिथ्याज्ञानमेव । ब्रह्मदेवकृतद्रव्यसंग्रहवृत्तौ ४२। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जम्बूस्वामिचरिते annoncernanamannarimaaaaanaanaanaanandsamn. यतो जीवत्यजीवच्च जीविष्यति च जन्मसु । ततो जीवोऽयमानातः सिद्धः स्याद्भुतपूर्वकः ॥ २८ ॥ भव्याभव्यौ तथा मुक्त इति जीवस्त्रिधोदितः । भविष्यत्सिद्धको भव्यः सुवर्णोपलसंनिभः ॥ २९ ।। अभव्यस्तु विपक्षः स्यादधपाषाणसंनिभः । मुक्तिकारणसामग्री न तस्यास्ति कदाचन ॥ ३० ॥ कर्मबंधननिर्मुक्तस्त्रिलोकशिखरालयः। सिद्धो निरंजनः प्रोक्तः प्राप्तानंतमुखोदयः ॥ ३१ ॥ इति जीवपदार्थस्ते संक्षेपेण निरूपितः । अजीवतत्वमप्येवमवधानतया शृणु ॥ ३२ ॥ अजीवलक्षणं तत्वं पंचधैव प्रपंच्यते । धर्माधर्मों च साकाशं कालः पुद्गल इत्यपि ॥ ३३ ।। जीवपुद्गलयोऽर्थः स्याद्गत्युपग्रहकारणम् । धर्मद्रव्यं तदुद्दिष्टमधर्मः स्थित्युपग्रहः ॥ ३४ ॥ यथा मत्स्यस्य गमनं विना नैवभिसा भवेत् । न चांभः प्रेरयत्येनं तथा धर्मोऽस्त्यनुग्रहः ॥ ३५ ॥ तरुच्छाया यथा मत्यै स्थापयत्यर्थिनं खतः। न त्वेषा प्रेरयत्येनमथ च स्थितिकारणम् ॥ ३६॥ १ स्यादेतदनंतकालेनापि यो न सेत्स्यत्यसावभव्यतुल्यत्वादभव्य एव । अथ सेत्स्यति सर्वो भव्यस्तत उत्तरकालं भव्यशून्यं जगत् स्यादिति ? तन्न, किं कारण ? भव्यराश्यंतभावात् । यथा योऽनंतेनापि कालन कनकपाषाणो न कनको भविष्यति न तस्यांधपाषाणत्वं कनकपाषाणशक्तियोगात्। यथा वागामिकालो योऽनंतेनापि कालेन नागमिष्यति न तस्यागामित्वं हीयत । तथा भव्यस्यापि स्वशक्तियोगादसत्यामपि व्यक्ती न भव्यत्वहानिः । त. राजवार्तिक २-७-९ । पृ.७७ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवसानत्कुमारनामस्वर्गगमनवर्णनम् तथैवाधर्मकायोऽपि जीवपुद्गलयोयोः । निवर्तयत्युदासीनो न त्वयं प्रेरकः स्थितेः ॥ ३७॥ जीवादीनां पदार्थानामवगाहनलक्षणम् । यत्तदाकाशमस्पर्शममृत व्यापि निष्क्रियम् ।। ३८॥ वर्तनौलक्षणः कालो वर्त्तना च पराश्रया । यथा स्वगुणपर्यायैः परिणतृत्वयोजना ॥ ३९ ॥ यथा कुलालचक्रस्य भ्रमणेऽधः शिला स्वयम् । धत्ते निमित्ततामेवं कालोऽपि कलितो बुधैः ॥ ४०॥ व्यवहारात्मकात्कालान्मुख्यकालविनिर्णयः ।। मुख्ये सत्येव गोणस्य वाहीकादेः प्रतीतितः ॥४१॥ सकालो लोकमात्रैः खैरणुभिर्निचितः स्थितेः। ज्ञेयोऽन्योन्यमसंकीर्णे रत्नानामिव राशिभिः ॥ ४२ ॥ प्रदेशपचयायोगादकायोऽयं प्रकीर्तितः । शेषाः पंचास्तिकायाः स्युः प्रदेशोपचितात्मकाः ।। ४३ ।। धर्माधर्मवियत्कालपदार्था मूर्तिवर्जिताः। मूर्तिमत्पुद्गलद्रव्यं तस्य भेदानितः शृणु ॥४४॥ १ धर्माधमौं पुनर्गतिस्थितिक्रियाविशिष्टानां द्रव्याणामुपकारकावेव न पुनर्बलागतिस्थितिनिर्वतको । यथा च सरित्तटाकहदसमुद्रेषु वेगवाहित्वे सति मत्स्यस्य खयमेव संजातजिगमिषस्योपग्राहकं जलं निमित्ततयोपकरोति, दण्डादिवत्कुंभकारे कतरि मृदः परिणामिन्याः, नभोवद्वा नभश्चरतां नभश्चराणामपेक्षाकारण, न पुनस्तजलं गतेः कारणभावं बिभ्राणमगच्छन्तमपि मत्स्यबलात्प्रेयं गमयति, क्षितिवी स्वयमेव तिष्ठतो द्रव्यस्य स्थानभूयमापनीपद्यते, न पुनरतिष्ठव्यं बलादवनिरस्थापयति । षड्दर्शनसमुच्चयटीका पृ. ६८।। २ प्रतिद्रव्यपर्यायमंतनीतैकसमया खसत्तानुभूतिर्वर्तना। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते वर्णगंधरसस्पर्शयोगिनः पुद्गला मताः। पूरणाद्गलनाच्चैव संप्राप्तान्वर्थनामकाः॥४५॥ स्कंधाणुभेदतो द्वेधा पुद्गलस्य व्यवस्थितिः । स्निग्धरूक्षात्मकाणूनां संघातः स्कंध इष्यते ॥ ४६॥ द्वयणुकादिमहास्कंधपयतं तस्य विस्तरः। छायातपतमोज्योत्स्नापयोदादिप्रभेदभाक् ॥ ४७ ॥ सूक्ष्मसूक्ष्मास्तथा सूक्ष्माः सूक्ष्मस्थूलात्मकाः परे । स्थूलसूक्ष्मकाः स्थूलाः स्थूलस्थूलाश्च पुद्गलाः ॥ ४८ ॥ सूक्ष्ममूक्ष्मोऽणुरेकः स्याददृश्यो दृश्य एव च । सूक्ष्मास्ते कार्मणस्कंधाः प्रदेशानंतयोगतः॥ ४९ ॥ शब्दः स्पर्शो रसो गंधः मूक्ष्मस्थूलो निगद्यते । अचाक्षुषत्वे सत्येषामिन्द्रियग्राह्यतेक्षणात् ॥ ५० ॥ स्थूलसूक्ष्माः पुनर्जेयाश्छायाज्योत्स्नातपादयः। चाक्षुषत्वेऽपि संहार्यरूपत्वादविघातकाः॥५१॥ द्रवद्रव्यं जलादि स्यात्स्थूलभेदनिदर्शनम् । स्थूलस्थूलः पृथिव्यादिर्भेद्यं स्कंधः प्रकीर्तितः ॥ ५२ ।। आश्रवोऽपि द्विधा प्रोक्तो भावद्रव्यविभेदतः। आयो जीवात्मको भावः स चागुद्धः परत्वतः ॥५३॥ १ पृथ्वीरूपपुद्गलद्रव्यं बादरबादरं । छेत्तु भेत्तुं अन्यत्र नेतुं शक्यं तद्बादरबादरमित्यर्थः । जलं बादरं । यच्छेत्तुं भेत्तुमशक्य अन्यत्र नेतुं शक्य तदादरमित्यर्थः । छाया बादरसूक्ष्मं । यच्छेत्तुं भेत्तुमन्यत्र नेतुमशक्यं तद्वादरसूक्ष्ममित्यर्थः । यः चक्षुर्वजिंतचतुरिन्द्रियविषयो बाह्यार्थः तत्सूक्ष्मस्थूलं । कर्म सूक्ष्मं । यदद्रव्यं देशावधिपरमावधिविषयं तत्सूक्ष्ममित्यर्थः । परमाणुः सूक्ष्मसूक्ष्मं । यत्सविधिविषयं तत्सूक्ष्मसूक्ष्ममित्यर्थः । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवसानत्कुमारनामस्वर्गगमनवर्णनम् मिथ्यात्वं च कषायाश्च योगोऽविरतिरेव च । भावाश्रवस्य विज्ञेया भेदाश्चामी यथागमात् ॥ ५४ ॥ सत्सु भावाश्रवेष्वाशु योग्याः कार्माणवर्गणाः । गच्छति कर्मपर्यायैः स च द्रव्याश्रवः स्मृतः ।। ५५ ।। आश्रवपूर्वको बन्धो द्विविधः सोऽपि पूर्ववत् । आश्रितानां यतो बन्धः प्रकृत्यादिप्रभेदतः ॥ ५६ ॥ आश्रवस्य निरोधो यः स संवर उदाहृतः । तत्राद्यो भावशुद्धिः स्यात्परः कार्माणरोधतः ॥ ५७ ॥ निर्जरा च द्विधा प्रोक्ता सविपाकाविपाकतः । अत्र संवरपूर्वा या निर्जरा सोऽच्यते बुधैः ॥ ५८ ॥ भावद्रव्यात्मिका द्वेधा निर्जरा तत्त्ववेदिनाम् । तत्राद्या शुद्धभावः स्यात्कर्मनिर्जरणं परा ।। ५९ ॥ पुंसोऽवस्थांतरं मोक्षः कृत्स्नकर्मक्षये सति । ज्ञानानंदादिधर्माणामाविर्भावात्मकः स्वतः ।। ६० ।। शुभ भावो हि पुण्यस्य पापस्याशुभ एव च । पूर्वो व्रतादिरूपात्मा तद्विपक्षः परः स्मृतः ॥ ६१ ॥ वदत्येवं जिनेशाने तत्त्वानि श्रेणिकं प्रति । उत्तीर्णमंवरात्किंचित्साक्षात्तेजोमयं तदा ।। ६२ ॥ बिम्बं खेर्द्विधा भूत्वा किमागच्छच्च भूतले । द्रष्टुं लक्ष्मी विरागस्य जिनस्यानतवैभवम् ॥ ६३ ॥ १ अशुद्धावस्थात्यागः शुद्धावस्थाग्रहणं । ५७ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते दृष्ट्वाकस्मान्नराधीशो धीमान् विस्मयतां गतः । पप्रच्छ स्वामिनं भूयः किमिदं दृश्यतेऽधुना ॥ ६४ ॥ पृष्टः प्रत्याह धर्मेो राजानं श्रेणिकं प्रति । विद्युन्मालीति विख्यातो देवोऽयं स्यान्महर्द्धिकः ॥ ६५ ॥ चतसृभिर्नाभिः स समं धर्मानुरागतः । भगवद्वंदना सोडलं शीघ्रं तत्रागतस्तदा ॥ ६६ ॥ किंत्वितः सप्तमे चाह्नि दिवश्च्युत्वा भवांतकः । भुवमेष्यति भव्यात्मा चरमांगी भविष्यति ॥ ६७ ॥ श्रत्वेति तद्वचो भूपो भूयो भक्तिपरायणः । प्रीतो विज्ञापयामास भगवंतं जगद्गुरुम् || ६८ ॥ ॥ कृपासागर भो स्व मिन् यत्त्वयोक्तं सुयुक्तितः । षण्मासमायुषः शेषो यदा स्पात्त्रिदिवौकसाम् ॥ ६९ ॥ तदा मंदारमाला स्यान्माना कंठावलंबिनी । देहकांतिर्भवेत्तच्छा मंदायंते सुरद्रुमाः ॥ ७० ॥ तेजोव्यातं दिशां वक्त्रमस्य कांतिमयं वपुः । दृश्यतेऽध्यक्षतोऽपीश तत्कथं चित्रकारणम् ॥ ७१ ॥ इत्यदः संशयध्वांतं निराकुर्वन् जिनोंऽशुमान् । उवाच विष्टविष्टो गंभीरतरया गिरा ।। ७२ । राजन्नस्य कथावृत्तं सर्व चित्रास्पदं शृणु ॥ संवेगवर्द्धने हेतुर्निर्वेदजननक्षमम् ।। ७३ ।। तद्यथा मगधे देशे रम्येऽत्रैव प्रसिद्धके । धनधान्यहिरण्यादिपूर्ण प्रागेव वर्णिते ॥ ७४ ॥ ५८ १ चरमशरीरी तद्भवमोक्षगामीति । २ देवानां । ३ मंदारपुष्पैः गुम्फिता माला । ४ सिंहासने उपविष्टः । ५ आश्चर्यकारकं । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवसानत्कुमारनामस्वर्गगमनवर्णनम् तत्रैकदेशांशव्याप्तं वर्द्धमानाभिधं पुरम् । वनोपवनराजीभिः राजितं परिखादिभिः ॥ ७५ ।। चतुर्गोपुरसंयुक्तं विशालं शालवोष्टितम् । सुंदरीभिः समाकर्णि दिव्यभूषांबरादिभिः ।। ७६॥ तत्र विना वसंत्येव वेदमार्गानुरागिणः । याज्ञिकाः श्रेयसे हिंसां कुर्वतीहाधमाधमाः॥ ७७॥ हन्यते पशवस्तत्र गोगजाजानरादयः । मिथ्यांधकारसंछन्नहम्भिर्दुष्पथगामिभिः ॥ ७८ ।। अथ तत्र वसेकश्चिद्विमो वेदविदांवरः।। स्वधर्मकर्मनिष्णातो नान्नार्यावमुरीरितः ॥ ७९ ॥ तस्य भार्या सती नान्ना सोमशमा पतिव्रता । सीतेवैकपतिः साध्वी भर्तुश्छन्दानुगामिनी ॥ ८॥ तयोः पुत्रावभूतां द्वौ पुष्पदंतांविवोद्यतो । नाम्नाद्यो भावदेवश्च द्वितीयो भवदेवकः ॥ ८१ ।। क्रमादधीतिनी शास्त्रवेदव्याकरणादिषु । निदानादिचिकित्सांते वैद्ये तर्के च छन्दसि ।। ८२॥ ज्योतिःसंगीतगानेषु काव्यालंकरणेषु च । किमत्र बहुनोक्तेन विद्याब्धेः पारगाविध ॥ ८३ ॥ वावदूको सुवादेषु ज्ञानविज्ञानकोविदी। अपि चात्यंतस्नेहा मिथो पुण्यसुखाविव ।। ८४ ।। इत्थं सुखं सुवर्द्धन्तौ यावद्द्वौ निरुपद्रवम् । ज्येष्ठो द्वादशवर्षीयो लघुादशवर्षक: ।। ८५।। १ चन्द्रसूर्यो इव । २ वावदूकोऽतिवक्तरि इत्यमरः । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जम्बूस्वामिचरिते अत्रांतरे पुरा दुष्टकर्मोपार्जितपाकतः । जातस्तातस्तयोः कुष्ठी महाव्याधिप्रपीडितः ॥ ८६ ॥ कुष्टव्याप्तशरीरः स गलत्कर्णाक्षनासिकः । शीर्णोपांगश्च सर्वांगे यातनाव्याकुलीकृतः ॥ ८७ ॥ अज्ञानेनार्यते कर्म तद्विपाको हि दुस्तरः । स्वादु संभोज्यते पथ्यं तत्पाके दुःखवानिव ॥ ८८ ॥ मत्वेति धीमता त्याज्या विषया विषसंनिभाः । धर्मामृतं च पानीयं निर्विकारपदप्रदम् ।। ८९ ।। अत्यंत दुःखितो विप्रो जीवनाशापरिच्युतः । प्रविष्टो ज्वलिते वह्नौ चितानानि पैतंगवत् ॥ ९० ॥ तद्वियोगात्तु शोकार्ता सोमशमपि तत्प्रिया । वेगात्तत्र चितायां वै तेन सार्धमवीविशत् ।। ९१ ॥ मृतयोर्मातृपित्रोश्च जातौ तौ दुःखभाजनौ । शोकसंतापसंतप्तौ संलपत्करुणारवौ ।। ९२ ॥ ततो बन्धुभिरात्मीयैः साचैव प्रतिबोधितौ । तदा शोकं विमुच्याशु कृतवन्तौ पितुः क्रियाम् ॥ ९३ ॥ संतर्पणं यथाम्नायं सर्वे कृत्वा विमत्सरौ । पूर्ववत्सद्मकार्येषु सोद्यतौ भवतस्तदा ॥ ९४ ॥ इत्थं दिनगणैः कैश्चिद्गतेऽथ मुनिपुंगवः । आगतस्तत्र सौधर्मो नाम्ना धर्मवपुः शमी ।। ९५ ॥ सर्वसंगविमुक्तात्मा बाह्याभ्यंतरभेदतः । यथजातस्वरूपोऽपि सज्जो गुप्तश्च गुप्तिभिः ॥ ९६ ॥ १ पूर्वकर्मोदयेन । २ तीव्रवेदना । ३ पतन् सन् गच्छति इति पतंगः शलभः । ४ नमोऽपि । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवसानत्कुमारनामस्वर्गगमनवर्णनम् निःशंको जिनसूत्रार्थे सशंको व्रतपरिच्युतौ । दयालुः सर्वजीवेषु निर्दयः कर्मशांतने ॥ ९७ ॥ . स्याद्वादी कुमतध्वान्ते तेजस्वी भानुमानिव । सौम्यः शशीव सर्वांगे धीरो मेरुरिवोन्नतः ।। ९८॥ भवदावाग्नितप्तानां स्याज्जैनो जलदोपमः । धर्मोपदेशनीरेण पोषिता भव्यचातकाः ॥ ९९॥ सर्वसंघाष्टकोपेतोऽतंद्रितो विजितेन्द्रियः। ज्ञानविज्ञानसंपन्नो गणी गुणनिधिः शमी ॥१०॥ समः शत्रौ च मित्रे च जीविते मरणे समः। समो लाभे सुलाभे च समो मानापमानयोः ॥ १०१॥ रत्नत्रयधरो धीरो तपसालंकृतविग्रहः । अजस्रं सावधानश्च संयमप्रतिपालने ॥१०२॥ उपेक्षावानपि प्रायः करुणारसपूरितः । । मुनिरुद्देशयामास जैन धर्म दयामयम् ॥ १०३ ॥ भो भो भव्यजना यूयं शृणुध्वं धर्ममुत्तमम् । स्वर्गापवर्गयोजिं त्रैलोक्यशरणं शुभम् ।। १०४ ॥ संसारेऽत्र सुखं न स्यादासर्वत्रिदिवौकसाम् । कर्माधीनतया दभ्रं तदुदयवशवर्तिनाम् । ॥ १०५॥ तथापि मोहमाहात्म्यात्मत्यस्तमितलोचनः । संसारी मनुते सौख्यं संसक्तो विपयेष्वधीः ॥ १०६॥ १ विनाशने । २ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि इति रत्नत्रयं । ३ जडः । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते अनित्येषु शरीरेषु पुत्रपौत्रादिकेषु च । संपत्सद्मकलत्रेषु नित्यत्वं मनुते कुदृक् ।। १०७॥ दुःखबीजेषु भोगेषु रमते स्वमुखाशया । तद्वियोगे च दुःखार्तः सीदत्येव पशुर्यथा ॥ १०८ ॥ क्षणं कामी क्षणं लोभी क्षणं तृष्णापरायणः । क्षणं भोगी क्षणं रोगी भूताविष्ट इवाचरेत् ।। १०९ ॥ रागद्वेषमयीभूय भूयस्तत्र जडात्मकः । दुहेच्यं कर्म बनाति येन तदुर्गतिं व्रजेत् ॥ ११ ॥ कदाचिन्नारको भूत्वा तत्र दुष्कर्मपाकतः । असधैर्यातनादुःखैस्ताड्यते सागरावधिः ।। १११ ॥ कापि तिर्यग्गति प्राध्य जन्मनीचैःकुलेऽथवा । दुःखानां च सहस्रैश्च पीडितोऽयं भ्रमत्यहो । ११२ ॥ ततो नाभूस्थिरः क्वापि मध्येगतिचतुष्टयम् । विना सम्यग्दग्बोधवृत्तै तुरनंतशः ॥ ११३ ॥ अतः सुखार्थिनानेन प्राणिना धर्मसंग्रहः । कर्तव्योऽवश्यमेवायमजस्रं जिनभाषितः ॥११४॥ इमां निरुपमा वाचं प्रशांबुगी सुनेः। श्रुत्वास्य भावदेवस्य कंपितं हृदयं तदा ।। ११५ ॥ ततो निर्विष्णचित्तेन तेन संसारभीरुणा। विज्ञप्तो गुरुरेवासौ मुनिः सौधर्मसंज्ञकः ॥११६॥ स्वामिन् त्रायस्व मामद्य निमज्जंतं भवाम्बुधौ। यथाकथंचिदात्मीयं लभेय सुखमव्ययम् ॥ ११७ ॥ १ मिथ्यादृष्टिः। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवसानत्कुमारनामस्वर्गगमनवर्णनम् ६३ ततो नाथ कृपां कृत्वा दीक्षां मे देहि निर्मलाम् । सर्वसंगपरित्यागलक्षणां भवनाशिनीम् ।। ११८॥ श्रत्वैतद्भावदेवस्य बाष्पांभोगर्भितं वचः। उवाच वाचं सौधर्मो मुनिस्तत्पीणनक्षमाम् ॥ ११९ ।। निर्विण्णोऽसि यदा वत्स मत्वा भोगांश्च रोगवत । तदा दीक्षा गृहाणाशु रागिभिदुद्धरामिमाम् ।। १२० ।। गुरूपदेशतो नूनं धैर्यमालम्ब्य शुद्धधीः। निःशल्यो भावदेवोऽसौ प्रवद्राज द्विजोत्तमः ॥ १२१ ॥ ततःप्रभृति योगीशः साक्षाद्वाचंयमी यथा । स्वसंयमाविरोधेन विजहर्ष महीतले ।। १२२ ॥ गुणैर्गुरुणा गुरुणा साद्ध गच्छन्नकल्मषः । घोरमुग्रं तपः कुर्वन् स समः सुखदुःखयोः ॥ १२३ ॥ स्वाध्यायध्यानमैकाम्यं ध्यायनिह निरंतरम् । शब्दब्रह्ममयं तत्त्वमभ्यसन् विनयानतः ॥ १२४ ॥ धन्योऽस्म्यहं कृतार्थोऽस्मि यन्मया प्राप्तमुत्तमम् । जैन धर्ममिति प्राज्ञो मन्यमानः कृतार्थताम् ॥ १२५ ॥ अथान्येयुः स सौधर्मः सरिः संघसमन्वितः । विहरन्नागतो भूयो वर्द्धमानाभिधे पुरे ॥ १२६ ॥ भावदेवो मुनिस्तत्र स संस्मार विशुद्धधीः । वर्तते मेऽनुजो भ्राता पुरेऽस्मिन्निति चिंतयन् ॥ १२७॥ भवदेव इति ख्यातो विप्रः स्याद्विषयांधधीः। खात्महितमजानानो दुःश्रुतिग्रस्तचेतसः ॥ १२८ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते एकशो बोधयाम्येनं परमोपेक्षवानपि । स्वतो गत्वापि तद्वेहे विद्यते मे मनोरथः ॥ १२९ ॥ अर्हद्धर्मोपदेशैश्चेत् प्रतिबुद्धः कथंचन । विरक्तो भवभोगेभ्यो निश्चितं स भवेन्मुनिः ॥ १३० ॥ चितयित्वेति चित्ते स्वे भावदेवी मुनिस्तदा । अशिश्रियद्गुरोः पार्श्वमाज्ञामादातुकाम्यया ।। १३१ ॥ दीयतां भगवन्नाज्ञा मह्यं भ्रातृविबोधने । बद्धकक्षाय कारुण्यात्त्वत्प्रसादैकभूमये ।। १३२ ।। एवं प्रसादयित्वा स्वगुरुं नत्वागमन्मुनिः । भवदेवगृहे रम्ये कृतेर्य्यापथशुद्धिभाक् ।। १३३ ।। अनंतरं ददर्शासौ भ्रातृगेहं सविस्मितः । मंडपाडंवराद्यं हि तोरणश्रीविराजितम् ॥ १३४ ॥ मंगलात धनादैश्च बधिरीकृतदिक्चयम् । चित्रोल्लेखैः समाकीर्ण मरुदां ( तां ) दोलितध्वजम् ॥ १३५ ॥ तारुण्यपूर्णनारीभिः कृतगानमहोत्सवम् । बंदिभिः स्तूयमानं च वेदवाक्यैरलंकृतम् ।। १३६ ॥ जाती कुंदादिपुष्पैश्च वासितं गंधशालिभिः । सत्कर्पूरविमित्रैश्च श्रीखंडैश्चर्चितं भृशम् ॥ १३७ ॥ मुनिनापि युतः सार्थे भावदेवः सुसंयतः । अविलंबतया प्राप्तस्तत्र भ्रातृगृहांगणे ।। १३८ ॥ ततो दृष्ट्वा समुत्थाय तूर्णमभ्युद्गमे विधिम् । प्रश्रयात्कारयामास भवदेवो नतानतः ।। १३९ ॥ १ आ समन्तात् तुद्यते इति आतोद्यं चतुर्विधं वाद्यं । २ विनयात् । ६४ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवभवदेवसानत्कुमारस्वर्गगमनवर्णनम् उच्चैःस्थाने निवेश्याशु नमस्कृत्य पुनः पुनः । शरण्ये शरणे तत्रोपविष्टो गुरुसंनिधौ ॥ १४० ॥ योगिना भ्रातृमन्येन धर्मवृद्धयादिदानतः । संभावितः पुनः प्राह भवदेव इतरितः ॥ १४१ ॥ विद्यते कुशलं भ्रातः संयमे तपसां चये । एकाग्रचिंतने ध्याने ज्ञाने स्वात्मसमुद्भवे ।। १४२ ॥ मुनिः प्राह महाप्राज्ञः साचैव भ्रातरं प्रति । समाधानपरा वत्स प्रष्टुकामा वयं त्विदम् ।। १४३ ॥ किमेतस्मिन् गृहे भावि भूतं वा वर्ततेऽधुना । दृश्यते मंडपारंभी भ्रातस्त्वद्वतौ यतः ॥ १४४ ॥ यत्तवालंकृतं सौम्यं वपुः परमसुन्दरम् । करे कंकणमेतत्ते दृश्यते चोत्सवावहम् || १४५ ॥ - आकण्येदं गुरोर्वाक्यं भवदेवी नताननः । ईषत्स्मितं स्खलद्वाचमुवाच वीडया युतः ।। १४६ ॥ स्वामिन्नत्र वसद्विशे नाम्ना दुर्मर्षणः स्मृतः । नागदेवी च भार्यास्य कुलशीलगुणांकिता ।। १४७ ॥ तयोर्नागवसुपुत्री महाद्य विवाहिता । आज्ञामादाय बंधूनां वेदवाक्यसमक्षकम् ।। १४८ ॥ मुनिः प्राह ततः श्रुत्वा युक्तिसंगर्भितां गिरम् । भ्रातर्धर्माज्जगत्यस्मिन् दुर्लभं न किमप्यहो ।। १४९ ॥ धर्मदैन्द्रं पदं नृणां सर्वसंपत्समन्वितम् । चक्रित्वं वार्द्धचक्रित्वं नृपत्वं च विशेषतः ।। १५० ॥ १ शरणे साधुः शरण्यस्तस्मिन् । २ गृहे । ६५ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते सर्वप्राणिदयालक्ष्मी गृहस्थशमिनोर्द्विधा । रत्नत्रयमयो धर्मः स त्रिधा जिनदेशितः ।। १५१ ॥ नरत्वं प्राप्य दुष्प्राप्यं यो न धर्म समाचरेत् । नूनं मन्ये वृथा तस्य जन्म प्राप्तमपि स्फुटम् ॥ १५२ ॥ पीत्वा वाक्यामृतं पूतं प्राप्तं मुनिमहोदधेः । भवदेवो व्रतान्युच्चैः श्रावकस्यागृहीत्तदा ।। १५३ । संग्रहीतव्रतेनाशु विज्ञप्तो मुनिनायकः । स्वामिन्नत्र गृहे मेऽद्य त्वया भोज्यं कृपापर ।। १५४ ।। विज्ञप्तेरनुजस्यैव भ्रातृधर्मानुरागतः । मुनिः स शुद्धमाहारं निःसावद्यं जघास सः ॥ १५५ ॥ ततश्चेर्यापथं पश्यंश्चचाल मुनिपुंगवः । तिष्ठते यत्र सौधर्मो यतिवृंदसमन्वितः ॥ १५६ ॥ ततः पौरजनाः केचिद्विनाप्यनुमतिं मुनेः । चेलुस्तमनुगच्छंतं प्रश्रयस्य कृतेऽर्थतः ।। १५७ ।। तत्सार्थत्वमिवादाय कियद्दूरं यथायथम् । गत्वा पुनर्नमस्कृत्य व्यावृत्य गृहमाययुः || १५८ ॥ भवदेवोऽनुजो भ्राता तेन सार्धमजीगमत् । गृहे गच्छ गुरोराज्ञां प्रतीच्छन्निति गौरवात् ।। १५९ ॥ मुनिनाभाणि न तद्वाक्यमहिंसाव्रतघातकम् । धर्मध्वंसभिया शश्वद्रक्षता संयमादिकान् ।। १६० ॥ एवमेव गतो दूरे दूराद्दूरतरेऽपि च । मुमुक्षुः कंकणग्रंथी व्याकुलीभूतचेतसः ॥ १६९ ॥ ६६ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवभवदेवसानत्कुमारस्वर्गगमनवर्णनम् स्मारं स्मारं पुनश्चित्ते नागवसुमुखांबुजम् । मूर्च्छन्निव पदं धत्ते प्रस्खलद्गतिविभ्रमम् ।। १६२ ।। किंचित्सोपायमालोच्य व्याजादूचे मुहुर्मुहुः । गृहं जिगमिषया भावदेवं प्रति सहोदरः ।। १६३ ॥ स्वामिन् स्मरस्ययं वृक्षो गव्येतिप्रमितः पुरः । क्रीडार्थं त्वमहं चास्तां प्रत्यहं यत्र सार्थतः ॥ १६४ ॥ इतः पश्य तडागं भी पंकजालीविराजितम् । श्रोतुं रुतं मरालस्य यत्रावां तस्थतुः पुरा ।। १६५ ॥ कृत्रिमं काननं पश्य नानानोक संहतम् । पुष्पावचयायावां च यत्राजग्मतुरादरात् ।। १६६ ॥ सेयं स्थली कृपानाथ चन्द्ररश्मिरिवोज्ज्वला ! यत्र कंदुकखेलायै तस्थुः सर्वेऽस्मदादयः ।। १६७ । इत्यादिविविधालापैरात्माकूतं वदन्नपि । भवदेवो न शशाकोच्चैर्मोहितुं तन्मनो मनाक् ।। १६८ ।। नापि पश्यति नेत्राभ्यां नो किंचिच्चितयेन्मुनिः । वचसापि न हुंकारं वदेद्वा बाहुसंज्ञया ॥ १६९ ॥ क्रमादेवं सुगच्छन्तौ प्रापतुर्गुरुसंनिधौ । धुरं धर्मरथस्यैतौ वोढारौ वृषभाविव ।। १७० ॥ ततस्तं मुनिमुद्दिश्य शंसुः सर्वेऽपि संयताः । धन्योऽसि त्वं महाभाग येनानीतोऽनुजः क्षणात् ॥ १७१ ॥ ततो भक्त्या प्रणम्याशु गुरुं सौधर्मसंज्ञकम् । उपविष्टो यथास्थाने भावदेवो मुनिस्तदा ।। १७२ ॥ १ क्रोशयुगं। २ कमलपंक्तिभिः । ३ अनोकहः वृक्षः । ४ अभिप्रायं । ५ वाहकौ । ६७ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते इतिकर्तव्यतामूढः पर्याकुलितचेतसः । चिंतयामास चित्ते स्त्रे भवदेवो नवोद्देहः ।। १७३ ॥ निवृत्त्याथ गृहं यामि किं वा गृहामि संयमम् । इति संशयदोलायां क्षणं नास्थायि तन्मनः ।। १७४ ॥ उद्वाहस्यावशिष्टं यत्कार्यं कृत्वानया समम् । कांतया दुर्लभान् भोगान् भुंजामीति यथेप्सितान् ॥ १७५ ॥ इदमाकूतं तु मे चित्ते वर्तते स्वमनीषितम् । कस्याग्रे कथयाम्यत्र व्रीड्यावृतमानसः ।। १७६ ।। वेदं पदं मुनीशानां दुर्द्धरं महतामपि । अस्मादृशा वराकाः क दष्टाः कामभुजंगकैः ।। १७७ ॥ अथ चेन्न करोम्यत्र गुरुवाक्यमसूक्षणात् । ६८ अयं ज्येष्ठो मम भ्राता माभूलज्जापरायणः । १७८ ॥ विमृश्योभयपक्षेऽपि कृत्याकृत्यविशेषतः । सशल्यः कृतधैर्योऽसौ दीक्षामादातुमुद्यतः ।। १७९ ।। चिंतितं तेन चित्ते स्वे सशल्येन विमृश्यता । गमिष्यामि पुनर्गेहं यथाकालमतः परम् ।। १८० ॥ विमृश्यैतत्सछद्मः स भवदेवो नताननः । अवादीन्मुनिमुद्दिश्य यथा धूर्तविचेष्टितम् ॥ १८९ ॥ मुने परोपकाराय बद्धकक्ष महातप । मयि दीने कृपां कृत्वा देहि दीक्षां त्वमाहतीम् ।। १८२ ॥ विज्ञातो मुनिना तूर्ण सावधिज्ञानचक्षुषा । गोपयन्नपि दुर्लक्ष्यं स्वाभिप्रायं द्विजोत्तमः ॥ १८३ ॥ १ नवविवाहितः । २ अनादरात् । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवभवदेवसानत्कुमारस्वर्गगमनवर्णनम् दीक्षामादातुकामोऽपि विद्यते साभिलाषवान् । विरागो भवितेत्यस्मै दीक्षां ददौ महामुनिः।।१८४॥ अथादायापि नंग्रेथीं दीक्षां सर्वसमक्षतः। दग्धः स्मरानलेनेति हृदि शल्यमधारयत् ॥ १८५ ।। मुग्धां संपूर्णतारुण्यां पूर्णचंद्रनिभाननाम् । द्रक्ष्याम्यहं कदा दीनां मृगाक्षी तां मुसस्मराम् ॥ १८६ ।। घनस्तनभरानम्रां कोमलां पल्लवाधराम् । मामृते विरहव्याप्तां चिंतयंती मुहुर्मुहुः ॥ १८७ ॥ एवं चिंतयतस्तस्याजसमच्छिन्नधारया । स्वाध्यायं ध्यानमप्येतज्ज्ञानमासीत्तपो व्रतम् ॥ १८८ ॥ अथैकदा स सौधर्मो गणी संघसमन्वितः । विहरन्नागतो भूयो वर्द्धमानाभिधे पुरे ॥ १८९ ।। बाह्योद्यानप्रदेशेषु स्थिताः सर्वेऽपि संयताः। कायोत्सर्गेण चैकाग्यं शुद्धात्मध्यानसिद्धये ॥ १९० ॥ पारणस्य कृते व्याजादनुग्रामं चचाल सः। भवदेवश्चलञ्चित्तो भायाँ द्रष्टुं समुत्सुकः ॥ १९१॥ पर्यटन्पथि पांथः संश्चितति स्म स सस्मरः । अद्य मुंजामि कांतां तां सालंकारां सकौतुकाम् ॥ १९२॥ तारुण्यजलधेर्वेलां कम्री कामयामिव । मत्स्यीमिव विना तोयं मामृते विरहातुराम् ॥ १९३ ॥ चिंतयन्निति मार्गेषु क्रमाद् ग्राममवीविशत् । सांध्यरागारुणो भानु: प्रतीची च दिगंगनाम् ।। १९४ ॥ १ कामुकी। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते प्रविष्टः स ददर्शोच्चैर्जिन चैत्यगृहं शुभम् । उत्तुंगतोरणोपेतं ध्वजमालाभिराततम् ।। १९५ ।। मणिमुक्तामयैर्वाढं' भूषितं भूषणैः शुभैः । यातायातांगनाभिश्च कृतगानमहोत्सवम् ।। १९६ ॥ त्रिः परीत्याथ भक्त्या तां वंदित्वा प्रतिमां विभोः । उपविष्टो यथास्थाने भवदेवो नाना मुनिः ॥ १९७ ॥ तत्र चैत्यालये ख्याता सायिंका या व्रतान्विता । चर्मास्थिशेषसर्वागी मुनिं दृष्ट्रा ववंद तम् ।। १९८ ॥ समाधानं मुने तेऽद्य संयमे तपसि व्रते । ध्याने ज्ञाने च स्वाध्याये तथा कच्चिदितीरितम् ॥ १९९ ॥ मुनिनापि यथायोग्यं पृष्टा तत्कुशलं तदा । सानैव तां समुद्दिश्य प्रोक्तमंतःस्पृहालुना ॥ २०० ॥ आर्ये पूर्वमभूतां द्वौ विद्वांसौ ललिताकृती । द्विजस्यार्यवसोः पुत्रौ विख्यातौ सर्वसम्मतौ ।। २०१ ॥ तत्र ज्यायानजेयोऽन्यैर्भावदेव इति स्मृतः । भवदेवो लघीयांश्च वाग्मी वेदविदांवरः ॥ २०२ ॥ पावने चेद्विजानासि ब्रूहि मे संशयच्छिदे । क कथं तिष्ठतस्तौ द्वौ का कथा चाधुना तयोः ॥ २०३ ॥ सोचे तद्वाक्यमाकर्ण्य निर्विकारा सुचेष्टिता । धन्यौ तौ मुनिनाथौ द्वौ जातौ कालादिलब्धितः ॥ २०४ ॥ श्रुत्वेतद्भवदेवोऽसायुक्तवानसमंजसम् । उद्गिरन्निव गूढार्थमात्माकृतं तदातुरः ॥ २०५ ॥ १ अतिशयेन । २ कञ्चित् कामप्रवेदने इत्यमरः । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवभवदेवसानत्कुमारस्वर्गगमनवर्णनम् ७१ amannermoremananews आर्ये वद किमप्यन्यत्पृच्छामीह महादरात् । न संदेशवचो दृष्यं महतामपि संमतम् ।। २०६॥ नाम्ना नागवम् यासीद्भवदेवविवाहिता। सा विना पतिना बाला यावदद्याभवत्कथम् ॥ २०७॥ इति वाचा विकारैः स ज्ञातो भर्तृचरस्तया । पश्चात्तापं मुकुर्वत्या भिया कंपितयेव वा ॥ २०८ ॥ नूनं मुनिपदं त्यक्तमयमिच्छति मूढधीः । त्यक्तधैर्यातिकामांधो दुःसहस्मरपीडितः ॥ २०९ ॥ अतो धर्मानुरागाद्धि बोद्धव्योऽयं मयाधुना । यथाकथंचित्सद्वाक्यर्जिनोक्तैरमृतोपमैः ।। २१० ॥ अथ चेत्सस्मरश्चायं भोगानिच्छति सर्वतः । दृढव्रतं च मे भूयात्प्राणांतेऽपि गरीयसि ॥ २११ ॥ विचिंत्येति क्रियाक्रांता सोचे साक्षादृढव्रता। विनयेनानता मूर्ध्नि भारतीव प्रियंवदा ॥ २१२ ॥ स्वामिन्नीड्य महाप्राज्ञ धन्योऽसि त्वं जगत्त्रये । चारित्रं यत्त्वया प्राप्तं दुष्पाप्यं महतामपि ॥ २१३ ।। त्वं पूज्यास्त्रिदिवेशानां मुनिः परमपावनः। सर्वसंपन्निधानस्त्वं मोक्षलक्ष्मीस्वयंवरः ॥ २१४ ॥ तारुण्येऽपि महाभोगान्कश्चैतांस्त्यक्तुमर्हति । भवतोऽन्यत्र भो सौम्य सुरलोकेऽपि दुर्लभान् ॥ २१५ ॥ प्रारंभे मधुराभासा विपाके कटुकाः स्फुटम् । हालाहलनिभा भोगाः सद्य प्राणापहारिणः ॥ २१६॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते कश्चामृतं परित्यज्य विषमिच्छति मूढधीः । कश्चाश्मानं समादत्ते त्यक्त्वा जाम्बूनदं शठः ।। २१७ ।। स्वर्गापवर्गयोः शमं मुक्त्वा को नरकं व्रजेत् । त्यक्त्वा जैनेश्वरी दीक्षां भोगान् कामयतेऽधमः ॥ २९८ ॥ इत्यादिविविधैर्वाक्यैः प्रतिबोधविधायकैः । बोधितः स तया वेगाल्लज्जया भूद्धोमुखः ॥ २१९ ॥ पृष्टा नागवसू यात्र त्वया किंचित्स्पृहालुना ! मामेवाध्यक्षतः पश्य तामभोगोचितां मुनेः ॥ २२० ॥ वपुस्तस्याः कृमिस्थानं श्रवद्वारमपावनम् । मुखं लालाविलं पूति कालिंगसदृशं शिरः ।। २२१ ॥ स्खलद्वाक्यमसंबन्धं वीभत्सो घर्घरः स्वनः । गर्ताकारौ कपोलौ द्वौ सुकूपाविव चक्षुषी ।। २२२ ॥ किंवा बहुतरालापैः सैवैपाहं समक्षतः । शुष्कमांसौ भुजौ तस्याः पतितौ च पयोधरौ ।। २२३ ॥ स्वाधिकारात्प्रमत्तौ द्वौ नराविव कुसेवया । चर्मास्थिभूत सर्वांगी निष्कामा व्रततत्परा ॥ २२४ ॥ धिरदुदैवमिदं यन्मां स्मारं स्मारं पुनः पुनः । सशल्येन त्वया धीर कालोऽयं गमितो वृथा ।। २२५ ।। सुंदरं न किमप्यस्ति नूनं योषित्कुटीर के । अतश्चेतो विरज्याशु निःशल्यं तत्तपः कुरु ।। २२६ ।। तपसा येन प्राप्यते स्वर्गमोक्षसुखानि च । किं वृथा विषयैरेभिः सौख्याभासनिबन्धनैः ॥ २२७ ॥ ७२ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेव भवदेवसानत्कुमारस्वर्गगमनवर्णनम् कामिन्यादिमहाभोगा मुक्तोच्छिष्टा नंतशः । यतस्तत्रानुरागेन किं मुने दुःखदायिना ।। २२८ ॥ श्रुत्वा मुनिरिमां वाचं निर्गतां कामिनीमुखात् । धिक्कुर्वन्निवात्मानमीषलज्जापरोऽभवत् ।। २२९ ॥ तस्याः प्रशंसनं चक्रे प्रतिबुद्धमना मुनिः । भवदेवोऽग्निसंयोगादिव कार्तस्वरोऽमलः ॥ २३० ॥ धन्य त्वमय नौकासीद्भवान्ध्युत्तरणे मम । निमज्जतः शतावर्ते मोहागाधतले भृशम् ।। २३१ ।। इत्युक्त्वाथ गतो वेगान्निः शल्यो मुनिसन्निधौ । मुक्तपात्रों भ्रमावर्ते संग्रहीतश्चिरादिव || २३२ ॥ नत्वाथ मुनिनाथं तमुपविश्य यथासने । यथावृत्तं स्ववृत्तान्तं तस्मै सर्वमचीकथत् ।। २३३ ।। छेदोपस्थापनं कृत्वा ततश्वेतः स संयमी । जातः साक्षान्मुनिर्जेता कर्मणां भावशुद्धितः ।। २३४ ॥ आत्मध्यानरतोऽप्यासीद्रागद्वेषविवर्जितः । तपः कुर्वन्नजस्रं स भ्रात्रा सार्धमतिष्ठत् ।। २३५ ॥ निस्पृहः स्वशरीरेऽपि सस्पृहो मुक्तिसंगमे । सहिष्णुः श्रुत्पिपासादिदुःखानां समभावतः ।। २३६ ।। अरिमित्रतृणस्वर्णलाभालाभसमः शमी । निंदास्तुतिसमो धीमान् जीविते मरणे समः ॥ २३७ ॥ १ प्रमादकृतानर्थप्रबन्धविलोपे सम्यक्प्रतिक्रिया छेदोपस्थापना । ७३ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जम्बूस्वामिचरिते अंते समाधिना मृत्यु संप्राप्य विमलाचले । पण्डितं मरणं प्राप्तं द्वाभ्यां च शुभयोगतः ॥ २३८॥ ततस्तृतीये स्वर्गे द्वौ सनत्कुमारसंज्ञके । अभूतां दिविजो राजन् सप्तसागरजीवितौ ।। २३९ ॥ तत्र दिव्याप्सरोभोगान् भुंजानौ मुखमासतुः। द्वावपि व्रतमाहात्म्यात्पुत्रावार्यवसोनृप ॥ २४० ॥ यस्य धर्मस्य माहात्म्यात्तौ जातावमरेश्वरौ । स धमः शर्मसंसिद्धचै सेव्यः सद्भिर्निरन्तरम् ।। २४१ ॥ इतिश्रीजम्बूस्वामिचरिते भगवच्छ्रीपश्चिमतीर्थकरोपदेशानुसरितस्याद्वादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारदपण्डितराजमल्लविरचिते साधुपासात्मजसाधुटोडरसमभ्यार्थते भावदेवभवदेवसानत्कुमारस्वर्गगमनवर्णनो नाम तृतीयः परिच्छेदः । १ मरणं त्रिविधं बालमरणं बालपण्डितमरणं पण्डितमरणं च । असंयतसम्यग्दृष्टीना मरणं बालमरणं । संयतासंयतानां मरणं बालपण्डितमरणं । केवलिनां मरणं पण्डितमरणं। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्थपरिच्छेदः उग्राग्रोतकवंशोत्थः श्रीपासातनयः कृती । वर्द्धतां टोडरः साधू रसिकोऽत्र कथामृते ।। इत्याशीर्वादः । सुमतिं सुमतिं वंदे कुमतध्वांतशांतये । पद्मप्रभं त्रिधा नौमि पद्माभं पद्मबांधवम् ।। १ ।। अथ ताभ्यां सुखाम्भोधिमनाभ्यां मगधाधिप । निर्वाहितो निजः कालः सप्ताध्यायुष्यसंमितः ॥ २ ॥ एकदाथ तयोरासन् भूषासंबन्धिनोऽमलाः । मणयस्तेजसा मंदा निशापाये प्रदीपवत् || ३ | माला चाप्यभवन्म्लाना महोरुस्थलगामिनी । शुचैव तत्स्वसंवन्धिलक्ष्मीविश्लेषभीरुका ॥ ४ ॥ प्रचकं तदा वाससंबंधी कल्पपादपः । तद्वियोगमहावातधृतः साध्वसमादधत् ।। ५ ।। वपुः कांतिस्तयोरासीत्सद्यो मंदायिता तदा । पुण्यातपत्रविश्लेषे तच्छाया कावतिष्ठते ।। ६ ।। तावालोक्य तदाध्वस्तकांती विच्छायतां गतौ । द्रष्टुमक्षमकाः सर्वे सनत्कुमारकल्पजाः ॥ ७ ॥ तयोर्दैन्यात्परिप्राप्ता दैन्यं तत्परिचारकाः । तरौ चलति शाखाद्या विशेषान्न चलति किम् ॥ ८ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते आजन्मतो यदाभ्यां हि संप्राप्त मुखमामरम् । तत्तदा पिंडितं सर्व दुःखीभूयमिवागमत् ॥ ९॥ अथ संबंधिनो देवास्तावुपेत्य यथोचितम् । तयोर्विषादनाशाय पुष्कलं वचनं जगुः ॥ १० ॥ भो धीरौ धीरतामेव कुर्वीताथां शुचात्र किम् । जन्ममृत्युजरातंकभयानां को न गोचरः ॥ ११ ॥ साधारणी भवत्येषा सर्वेषां प्रच्युतिर्दिवः। चौरायुषि परिक्षीणे न वोढुं क्षमते क्षणम् ।। १२ ।। नित्यालोकोऽप्यनालोको द्विलोकः प्रतिभासते । विरामात्पुण्यदीपस्य समंतादंधकारितः॥ १३ ॥ यथा रतिरभूत्स्वर्गे पुण्योपायादनारतम् । तथैवात्रारतिभूयः क्षीणपुण्यस्य जायते ॥ १४ ॥ न केवलं परिम्लानिर्मालायाः सहजन्मनः । पापातप तपत्यंते जंतोानिस्तनोरपि ॥ १५ ॥ कंपते हृदयं पूर्व चरमं कल्पपादपः । गलति श्रीः पुरा पश्चात्तनुच्छाया समं हियाः॥१६॥ प्रत्यासन्नच्युतेरेव यद्दौःस्थ्यं त्रिदिवौकसाम् । न. तत्स्यान्नारकस्यापि प्रत्यग्रं युवयोः स्थितम् ।। १७॥ यथोदितस्य सूर्यस्य निश्चितोऽस्तमयः परः। तथा पातोन्मुखः स्वर्गे जंतोरभ्युदयोऽप्ययम् ॥१८॥ तस्मान्न गच्छतः शोकं कुयोन्यावर्तपातिनम् । कुर्यातां च मतिं धर्मे युवामार्यो वृषार्जने ॥ १९ ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवभवदेवब्रह्मोत्तरस्वर्गगमनवर्णनम् इत्थं तत्प्रतिबोधाद्धि धैर्यमालम्ब्य धीधनौ।। कारयामासतुर्धर्मे मतिं जने सुखप्रदे ॥ २० ॥ निरुद्धेन्द्रियरूपाणि व्रतान्यादातुमक्षमी। तत्पर्यायस्वभावत्वान्नेच्छारोधो दिवौकसाम् ।। २१ ॥ ततः केवलमिज्याहौँ चक्रतुर्जिनश्मनाम् । पूजां तत्रत्यविम्बानामपि भावविशुद्धये ।। २२ ।। | तच्चैत्यद्रुममूलस्थौ स्वायुरते समाहितौ । प्रतिमाध्यानयोगेन ध्यानकारयावलंबिनो ॥ २३ ॥ नमस्कारंपदान्युच्चैः स्मरंती निर्भयाविह । मुकुलीकृत्य करौ साक्षात्क्षणाददृश्यतां गतौ ॥ २४ ॥ जम्बूद्वीपे महामेरौ विदेहे पूर्व दिग्गते । उत्सपिण्यवसपिण्योः कालभेदविवर्जिते ॥ २५॥ द्विरुक्तसुषमादीनां दुःखांतानामनास्पदे । सदा तीर्थंकरोत्पत्तौ तत्पदस्पर्शपावने ॥२६॥ विष्णूनां प्रतिविष्णूनां चक्रेशानां तथैव च । उत्पत्तिस्थानके रम्ये लांगुलायुधशालिनाम् ॥ २७॥ कर्मभूमिरिति ख्याते धनधान्यसमन्विते । नीवृत संपद्यते तत्र नाम्ना च पुष्कलावती ॥ २८॥ यत्र ग्रामाः समासन्नाः कुक्कुटोड्डीनमात्रकाः। पदे पदे समासीना दृश्यंते सस्यसंपदः। ॥ २९ ॥ सरांसि यत्र राजते पद्माक्षीणीव सज्जलम् । दृष्टा तत्रत्यनारीणां चचूंषि साश्रुतां ययुः ॥ ३० ॥ १ नमस्कारमन्त्र । २ देशः । ३ कुक्कुटैस्ताम्रचूडैः उड्डीय सम्यक् प्राप्यन्ते इति । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते अपि यत्र महामानमानसा रेमिरे भृशम् । कलहंसरवैस्तूर्ण गायंतीव हि तद्यशः ॥ ३१ ॥ समपाः कूपका यत्र वाप्यो वारिजलोचनाः । घनं वनानि मार्गेषु निधानानि पदे पदे ।। ३२ ॥ ग्रामा यत्र विराजते पुरंदरपुरोपमाः । नराः सुंदरभूषाद्या नार्य्यश्चाप्यतिसुंदराः ॥ ३३ ॥ किमत्र वर्णयेद्विद्वान् यत्र सौख्यं निरंतरम् । दिदृक्षया तीर्थेशानां दिवःखण्डमिवागतम् || ३४ ॥ तत्रास्ति महती नाना रम्या पूः पुण्डरीकिणी । द्वादशयोजनायामा नवयोजनविस्तृता ।। ३५ ।। यत्रोपवनराजीभी राजते भूमिरुत्तमा । खातिका यत्र पातालं शालश्चाप्यंवरं स्पृशेत् ॥ ३६ ॥ जैनधर्मरता यत्र श्रावका मुनयस्तथा । रमंते व्रततीर्थेषु मराला मानसेष्विव ॥ ३७ ॥ तपः कुर्वेति घोरोग्रमुग्रा यत्र तपोधनाः । वाह्योद्यानेषु निर्भीकाः सर्वसंगविवर्जिताः ॥ ३८ ॥ यत्र कर्मक्षयं कृत्वा केवलोद्भूतिरक्षया । जायते प्राणिनां शश्वत्केपांचिद्भव्यसंज्ञिनाम् ॥ ३९ ॥ केषांचित्सम्यक्त्वोत्पत्तौ रत्नगर्भावनिर्यथा । साभूत्स्वर्गादि सौख्यानां प्राप्तौ निःश्रेणिकेव च ॥ ४० ॥ तत्र भूपोऽस्ति नाम्नापि वज्रदंतो बलान्वितः । केवलं न रदास्तद्वत्सर्व वज्रमयं वपुः ॥ ४१ ॥ ७८ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवभवदेवब्रह्मोत्तरस्वर्गगमनवर्णनम् ज्वलत्यस्य प्रतापाग्नी सोदुमक्षमकाः परे । क्षणादेव पलायंते दूराद्दर्शनमात्रतः ॥ ४२ ॥ तस्य पत्नी तु नाम्ना स्यात्पबद्धा यशोधना। मन्मथस्य धनुयष्टिरिव सौंदर्यराजिता ।। ४३॥ भावदेवचरः सोऽयं देवोऽभूत्तृतीये दिवि । ततश्च्युत्वा तयोः पुत्रः संजातः स्वायुषः क्षये ॥४४॥ ततो बन्धुभिराम्नातः परमानंदवर्द्धनात् । नाम्ना सागरचंद्रोऽसाविन्दुवद्वद्धते क्रमात् ।। ४५॥ अपि तत्रैव देशेऽस्ति वीतशोका पुरी वरा । चंद्राश्मघटिता यत्र भित्तयो भांति कांतिभिः॥४६॥ यंत्र नार्यः समालोक्य भित्तौ स्वप्रतिविम्बकम् । सपत्नीभ्रांतितो यांति विमुखा रतकर्माण ॥ ४७ ॥ यत्र क्रीडाचलेषूचैः खेलति नवयौवनाः। क्रीडाथै पतिभिः सार्द्ध कचिच्चापि लतागृहे ॥४८॥ १ हाङ्गणेषु खचितस्फटिकोपलेषु काचिच बालवनितानुपति नवोढा । दृष्टात्मन: प्रतिनिधि किल शंकितासी दक्तेक्षणा क्षणममर्षधिया सपत्न्याः ॥ लाटीसंहितायां १-२९ । चन्द्रप्रमचरितेऽपि एतत्समानार्थकः श्लोकः निपातयन्ती तरले विलोचने सजीवचित्रासु निवासभित्तिषु । नवा वधूयंत्र जनाभिशंकया न गाढमालिंगति जीवितेश्वरम् ॥ १-२७ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते कदाचिजलकेलौ ता रमन्ते रमणैः सह । यत्रोपवनवीथीषु कामुक्यः पर्यटति च ।। ४२ ॥ तत्रास्ति बलवांश्चक्री महापद्मोऽभिधानतः । यस्य तेजोमयी कीर्तिविस्तृता भुवनत्रये ॥ ५० ॥ निधनां च नवानां स्यादधीशः सर्वसंपदाम् । चतुर्दशप्रमितानां रत्नानामधिपः स्मृतः ।। ५१ ।। षट्खण्डवसुधायाश्च पतिश्चैकोऽद्वितीयकः । द्वात्रिंशत्कसहस्राणां भूपानां सेवितक्रमः ।। ५२ ।। पण्णवतिसहस्राणां योषितां वल्लभः स्मृतः। अब्जिनीनां समुत्साहे सहस्रांशुरिवोदितः ॥ ५३॥ तत्र काचिन्महादेवी वनमाला नाम्ना मता। रतकर्मविधौ सासीदिव्यौषधवञ्चक्रिणः ॥ ५४॥ तद्गर्भेऽवततारासो भवदेवचरोऽपरः । क्रमाच्छुभे दिने लग्ने पुमानजनि भूतले ॥ ५५ ॥ ततो जन्मोत्सवस्तस्य कृतो मुदितचक्रिणा। याचकेभ्यो यथाकामं दत्तं स्वर्णादिकं बहु ।। ५६ ।। तूर्याणां निनदेस्तत्र बधिरीकृतदिक्चयम् । गायतीमंगलोद्गीतिं नृत्यंति स्म परस्त्रियः ।। ५७॥ १ महापद्मश्च पद्मश्च शो मकरकच्छपौ। मुकुन्दकुन्दनीलाश्च खर्वश्च निधयो नव ॥ २ सेनापतिगृहपतिपुरोहितगजहयसूत्रधारस्त्रीचक्रछत्रचर्ममणिकाकिनीखगदंडेति चतुर्दशनरत्नानि । ३ वेश्याः Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवभवदेवब्रह्मोत्तरस्वर्गगमनवर्णनम् पेठुश्चारणवृंदाश्च गद्यपद्यादिसंस्तुतिम् । नराः कुसुमसंमिश्रचंदनद्रवचर्चिताः ॥ ५८ ॥ अथ पुत्राननं चक्री निरीक्ष्य मुदमाययौ । धातुवादी यथानंदं लभेत्प्राप्य रसायनम् ।। ५९ ।। ततश्चक्रेऽथ चक्रेशो बन्धुवर्गसमाहितः । नाम्ना शिवकुमारं तं लब्धान्वर्थाभिधानकम् ॥ ६॥ स्तनंधयः पयःपानवृद्धिमाप दिने दिने । यथा बालशशी नूनं कलाभिर्वर्धतेऽनिशम् ॥ ६१ ।। शैशवे मातुरंकस्थः केवलं न तदा भवेत् । किंतु यावत्क्षणं हस्तैलालितः स्वजनैरपि ।। ६२ ।। क्रमाज्जातकुमारोऽसावष्टवर्षप्रमान्वितः। पपाठ शब्दशास्त्राणि तदर्थानुगतानि वै ॥ ६३ ॥ अधीती शस्त्रविद्यायां संगीतेऽथापि नाटके । युद्धे वीरगुणोपेतो भूभारोद्धरणक्षमः ॥ ६४ ॥ उद्वाहितोऽथ कन्याभिः समं तच्छतपंचभिः। चक्रिणानंदयुक्तेन परमोत्सवकारिणा ।। ६५ ॥ राजते स्म कुमागेऽसौ समं सामंतमंत्रिभिः। निर्जिताशेषनक्षत्रकांतिरिन्दुरिवैककः ॥६६॥ कदाचिद्गीतगोष्ठीभिः रमते स्म शुभाननः। क्वचिदातोधनादेन प्रीतिवांश्चक्रिनंदनः ॥ ६७ ॥ कचिद्रादेषु वैद्यानां भट्टानां च ज्योतिष्मताम् । कौतुकी तर्कवादेषु परस्परविरोधिषु ।। ६८॥ १ स्तनं धयति इति स्तनधय अतिशिशुः ।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जम्बूस्वामिचरिते कचित्कवित्वगोष्ठीषु कचिन्नाव्यरसेषु च । कचित्क्रीडाद्रिखेलायां चिक्रीड सह यौवनैः ॥ ६९ ॥ वनोपवनवीथीषु सरितां पुलिनेषु च । सरम्सु जलक्रीडायै कांताभिरगमन्मुदम् ।। ७० ।। आलिंगनं ददौ स्त्रीणां कदाचिद्रतकर्मणि ।। तासां स्मितकटाक्षैश्च रंजमानो मुहुर्मुहुः ॥ ७१ ।। कदाचिन्मानिनी मुग्धां कोपनां प्रणयात्मिकाम् । नयति स्म यथोपायमनुनयं नयात्मकः ॥ ७२ ।। कचिच्चैत्यालये गत्वा जिनविम्बानपूजयत । वारिगंधादिसामग्या भावशुद्धया च पावनः ।। ७३ ।। कचिद्धमे शृणोति स्म गुरुभ्यः सुखकारकम् । इत्थं शिवकुमारोऽसौ योवनेऽप्यगमन्मुदम् ।। ७४ ॥ अंतरे पुंडरीकिण्यामस्ति सागरचन्द्रमाः। भावदेवचरः सोऽयं भोगसागरमध्यगः ।। ७५ ॥ अथान्येयुः समायातस्त्रिगुप्तिमुनिसत्तमः । प्रतिभाति जगत्सर्वं यस्य ज्ञानचतुष्टये ॥ ७६ ॥ सर्वपौरजनास्तत्र वंदनार्थ वने ययुः। वीक्ष्य सागरचंद्रोऽपि जगाम मुनिसंनिधौ ॥ ७७ ॥ ततो नागरिका धर्म पप्रच्छुर्विनयान्विताः। स्वीयं सागरचंद्रस्तु पृच्छति स्म भवांतरम् ॥ ७८ ॥ ततोऽवादीन्मुनिस्तत्र विमृश्यावधिचक्षुषा । शृणु वत्स महाभाग वृत्तं पूर्वभवोद्भवम् ॥ ७९ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवभवदेवत्रह्मोत्तरस्वर्गगमनवर्णनम् जम्बूद्वीपेऽथ क्षेत्रेऽस्मिन् भारते भरतान्विते । देशेऽत्र मगधे रम्ये वर्धमानाभिधे पुरे ।। ८० ।। युवां द्विजपुत्रौ स्यातां वेदविद्यौ विदांवरौ । प्रथमो भावदेवाख्यो द्वितीयो भवदेवकः ।। ८१ ॥ अथैकदा स सौधर्ममुनिना प्रतिबोधितः । भावदेवस्तपः शीघ्रमग्रहीगृहभीरुकः ।। ८२ ।। भवदेवो लघुभ्रीता ततस्तिष्ठति सद्मनि । इत्थं गतः कियान्कालः स्वाधिकाराप्रमत्ततः ॥ ८३ ॥ धर्मानुरागतः सोऽयं भावदेवा मुनिस्तदा । भ्रातरं बोधितुं तत्र व्याजगाम पुनः शमी ॥ ८४ ॥ ततो धर्मोपदेशैश्च नीयमानोऽप्यवक्रताम् । सशल्योऽपि च लज्जावान् दीक्षां जग्राह शुद्धधीः ।। ८५ ।। ततः कुतश्चिद्धेतोश्च निःशल्यो व्रततत्परः । बभूव मुनिसांनिध्याचारित्रैकनिधिः पुनः ।। ८६ । क्रमाच्चिरतरं कालं चारित्रं चरतो युवाम् । अंते समाधिमरणं प्रापतुः पूर्णपुण्यतः ॥ ८७ ॥ ततः सनत्कुमाराख्ये तृतीये दिवि जग्मतुः । तत्रोपपोदशय्यायां जातौ पूर्णशरीरकौ ॥ ८८ ॥ तत्रस्थौ दिव्यभोगांश्च भुंक्तो निःप्रत्यनीकतः । मनोभिलषितान् रम्यान् यावत्सागरसप्तकम् ॥ ८९ ॥ ८३ १ शुकशोणितयोः मिश्रणं विनैव देवाः नारकाश्च उपपादशय्यायां युवान एव उत्पद्यते । उपेत्योत्पद्यते अस्मिन् इति उपपादः । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते स्वायुरते ततश्च्युत्वा वज्रदंतनृपालये। जातस्त्वं भावदेवो यः स त्वं सागरचंद्रमाः ।। ९०।। भवदेवचरस्तत्र चक्रवर्तिगृहेऽजनि । नाम्ना शिवकुमारोऽसावोजस्वी भानुमानिव ।। ९१॥ भवदर्शनमात्रेण प्राप्य स्वीयां भवस्मृतिम् । वपुःसंसारभोगेषु विरक्तः स भविष्यति ॥ ९२ ॥ आकर्येदं कुमारोऽसो मुनिवाक्याद्भवांतरम् । संसारासारतां मत्वा जातो धर्मपरायणः ।। ९३ ॥ अहो जगदिदं कृत्स्नं जन्ममृत्युजरास्पदम् । अत्र सारः किमस्तीति चिंतयामास सत्तमः ॥ ९४ ।। सारोऽस्त्यत्र दयाधर्मो जैनो मुक्तिमुखपदः । स चेन्द्रियकरायाणां दुर्मदे दमनक्षमः ॥९५ ॥ कार्यः स एव जीवन स्वात्मनः मुखमिच्छता । इति सागरचन्द्रोऽसौ निश्चिकाय विदांवरः ॥ १६ ॥ ततस्तस्य मुनेः पार्श्व दीक्षां जग्राह कोविदः । सार्ध कैश्चिच्च भूपालेनिःशल्यः सर्वजन्तुषु ।। ९७ ॥ ततः समसुखदुःखोऽसौ रिपुमित्रसमः शमी। समः पितवने सौंधे जीविते मरणे समः ॥ ९८॥ वाद्याभ्यंतरतो ट्रेधा तपश्चोग्रं चकार सः। परीषहोपसगैश्च न चचाल समाधितः ॥ ९९ ॥ १३मशाने । २ अनशनावमोदयवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशम्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः । प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्लगध्यानान्युत्तरम् । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवभवदेवब्रह्मोत्तरस्वर्गगमनवर्णनम् क्रमात कुर्वन् विहारं स चारणद्धिविराजितः । संप्राप्तः श्रुतसंपूर्णो वीतशोकां पुरी वराम् ।। १००॥ तत्र मध्याह्नकालेऽसौ कृतेर्यापयशुद्धिभाक् । पारणार्थमनौद्धत्या (त्यं) विजहर्ष यथाविधि ।। १०१॥ राजसौधसमीपस्थे कस्यचिच्छेष्टिनो गृहे । नवकोटिविशुद्धः स ग्रासं जग्राह शुद्धधीः ।। १०२।। मुनिदानस्य माहात्म्यारत्नवृष्टिरभूत्तदा । नभोमार्गात्सुधाराभिर्दातुः पुण्यगृहांगणे ।। १०३ ।। अवलोक्य जनाः सर्वे वावदूकाः परस्परम् । जजल्पुः किमिदं तूर्ण जातं चित्रास्पदं महत् ।। १०४ ॥ परस्परविवादाद्वै तत्र कोलाहलोऽजनि । ततः शिवकुमारोऽपि श्रुतवानितिवृत्तकम् ॥ १०५ ।। आनंदात्कौतुकाचापि सोधस्थोऽपि निरीक्ष्य तम् । मुनीशं विस्मयं पाप किंचिचित्तेऽप्यचिंतयत् ॥ १०६ ॥ अहो क्वापि मया दृष्टो मुनीशोऽयं भवांतरे। स्नेहाई मे मनोऽल्हादि संस्कारात्पूर्वजन्मनः ॥ १०७॥ पृच्छाम्येनं मुनिं गत्वा संशयध्वांतशांतये। इति चित्ते चिंतयामास तावज्जाता भवस्मृतिः ।। १०८ ॥ तया सर्व तदाज्ञायि वृत्तं पूर्वभवोत्थितम् । नूनं मम ज्येष्ठो भ्राता तपःस्थोऽयं महामुनिः ॥१०९ ।। अनेनैव तदा धर्मे स्थापितोऽहमनुग्रहात् । येन पुण्योदयेनैव प्राप्ता सौख्यपरंपरा ॥ ११०॥ १ ध्वान्तं तमित्रं तिमिरं तमः इत्यमरः । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते भुक्त्वा सनत्कुमारोत्थान् महाभोगाननंतरम् । प्राप्तं चक्रिगृहे जन्म चास्पदे सर्वसंपदाम् ।। १११ ।। इहामुत्र मम भ्राता गतिश्चायं कृपापरः। स्मरन् भवांतरं प्राज्ञस्तत्समीपेऽगमतदा।। ११२ ।। स्नेहााक्षपुटः सोऽयं दृष्ट्रा तं मुनिकुंजरम् । मुमूर्छ मुनिपार्श्वस्थः प्रेमोद्गारगदादिव ॥ ११३ ।। चक्रवर्ती तु तच्छ्रत्वा वेगात्तत्रागतः क्षणात् । मोहादुद्रिस्थि)तवाष्पांभो विललाप महीपतिः ॥ ११४ ॥ अहो पुत्र किमेतद्धि त्वयाकारि विरूपकम् । किमत्र कारणं वत्स वद वाक्यमभीतिदम् ॥ ११५॥ काचित्कांतातिस्नेहाा कंपमाना ससाध्वसात् । श्वासोच्छासमहावातैः प्रचकंपे लता यथा ।। ११६ ।। काचिन्मुग्धापि प्रेमाच्या विभीता नवसंगमे । साश्रुपातप्रवाहैश्च व्यक्तं रोदिति केवलम् ।। ११७ ।। काचिन्मध्यातितारुण्यावद्धा कामरसे स्फुटम् । तद्वियोगभयाात्र ज्वलति स्म स्मरातुरा ॥ ११८ ॥ काचित्प्रौढा रसज्ञा च तदालाप सुधोपमे । स्मारं स्मार गुणांस्तस्य स्थिता चित्रार्पितेव सा ॥ ११९ ।। सर्वे पौरजनाश्चापि व्याकुलीभूतचेतसः। क्षणं यावदसौस्थित्यादन्नं पानं च नाददुः ।। १२० ।। एवं तत्र महान् शोको दुःसहोऽजनि भूतले । हानी पुण्यपदार्थस्य भीतिः केषां न जायते ।। १२१ ।। १अभयप्रदम् । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवभवदेवब्रह्मोत्तरस्वर्गगमनवर्णनम् ततो यथाकथंचिद्वै यनैनीतोऽवधानंताम् । कुमारः प्रतिबुद्धोऽभूत्सहस्रांशुरिवाहनि ॥ १२२ ।। पृष्टः सर्वैः कुमारोऽसौ कथं मूभिवत्तव । कथयाशु यथार्थत्वं शर्मदं वाक्यमुत्तमम् ।। १२३ ॥ ततोऽबादीद्विमृश्यासौ गुह्यमाकूतमात्मनः। मुहृदे मंत्रिपुत्राय नाम्ना दृढवर्मणेऽनिशम् ।। १२४ ।। चिंतागृढगदार्तानां मित्रं स्यात्परमौषधम् । यतो युक्तमयुक्तं वा सर्व तत्र निवेद्यते ॥ १२५ ।। मित्राहं भवभोगेभ्यः संत्रस्तोऽस्मि भवाब्धितः । नानायोनिशतावत्तैर्दुःखभीमैर्दुरुत्तरात् ।। १२६ ॥ तदाकूतं समादाय कर्तुमिच्छत्ययं तपः। सर्व चक्रधरस्याग्रे कथितं दृढवर्मणा ॥ १२७ ॥ स्वामिन्नसो समासन्नभव्यजीवो विशुद्धदृक् । विद्यते मन्यमानः सन्साम्राज्यं तृणवचितः ।। १२८ ।। सर्वथाद्य विरक्तात्मा सर्वभोगेषु निस्पृहः । न चास्य लेशतोऽपीश मूर्छा स्याज्जीवने धने ॥ १२९ ॥ अयं स्वात्मस्वरूपज्ञस्तत्त्ववेदी विदांवरः । सर्व हेयमुपादेयं वेत्ति जैनो यतियथा ॥ १३० ।। न केनाप्यन्यथाकर्तुं शक्यते दृढबुद्धिमान् । रागवाक्यमहावातैरचलोऽचलवद्रवम् ।। १३१ ।। सांप्रतं प्राप्तवैराग्यः संस्कारात्पूर्वजन्मनः । निःशल्यः सर्वजीवेषु प्राब्राजिपुरसंशयम् ।। १३२ ।। १ चेतनतां । २ मोहः । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते आकर्येदं वचश्चक्री निष्ठुरं वज्रघातवत् । व्यग्रं चेतश्चमत्कारं न चकारोत्तरपदम् ।। १३३ ॥ क्षणं वेपथुरस्यासीदि व्यामोहशालिनि । स्रवदश्रुसमाच्छन्नचक्षुःपक्षमावली बलात् ॥ १३४ ।। गद्गदं च वचो जल्पन्ननल्पकरुणास्वनः । चिललाप महीपालो हा विग्धिग्देवचेष्टितम् ।। १३५ ।। अन्यथा चिंतितं कार्य देवात्संपद्यतेऽन्यथा । यथा वारिजमध्यस्थः षट्पदः करिणा इतः ॥ १३६ ।। रुद( दि)त्येवं ससंतापं चक्रवर्तिन्यनल्पशः । अंतःपुरजनैः सार्ध वनमाला गता तदा ॥ १३७ ॥ पुत्र केनापि दुष्टेन पाठितस्त्वं स्तनंधयः । अप्रगल्भा मतिश्चेयं विद्यते तव संप्रति॥१३८ ।। बाल्यावस्था क्व ते वत्स क्य प्रवज्यापदं महत् । इदं कार्यमसंभावि घटते न कदाचन ॥ १३९ ।। ततो अ॒क्ष्व महाभोगान् दिव्यानमरदुर्लभान् । आनमत्सर्वभूपालसाम्राज्यपदसंस्थितः ॥ १४० ।। इत्यादिकं पितुर्वाक्यं शृण्वन्नांगीचकार सः। कुमारः प्रतिवाक्यं च ददौ कोमलया गिरा ॥ १४१ ।। तात कर्मवशान्नूनं वंभ्रम्यते च जंतुभिः। चतुतिभवावर्ते स्थितं क्वापि न निश्चलम् ।। १४२ ।। कदाचिन्नारको भूत्वा भवति तिर्यग्वा नरः। ततः स्वायुःक्षये मृत्वा स्यादेवोऽथ तदन्यकः ॥ १४३ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवभवदेवब्रह्मोत्तरस्वर्गगमनवर्णनम् पुत्रः कोऽपि न कस्यापि पिता वा न सुतस्य वै । उन्मज्जति निमज्जति जीवा जलतरंगवत् ।। १४४ ॥ नेयं लक्ष्मी पितः साध्वी सद्भिर्युक्त्वोज्झिता यतः। एकं त्यक्त्वा श्रितान्यत्र पण्यदारेव चंचला ॥ १४५ ॥ कर्तव्यो नात्र विश्वासः क्षणं वाऽनवधानतः । ठकाभिसारिका तुल्या कारणं दुःखसंकटे ॥१४६ ॥ भोगा भुजंगभोगाभाः सद्यःमाणापहारिणः । स्वग्नेन्द्रजालवत्तात तारुण्यं विषयास्पदम् ॥ १४७ ।। इदं प्रत्यक्षतो ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानकारणम् । स्यात्साध्वी यदि राज्यश्रीः कथं त्यक्ता महर्षिभिः ।। १४८।। श्रूयतेऽद्य पुरावृत्तं श्रीमंती ज्ञानलोचनाः । त्यक्त्वा सर्वांगसाम्राज्यं तपश्चक्रुर्विमुक्तये ॥ १४९ ।। कुरु तात समाधानमलं भोग्यैरभोग्यकैः। आपाते मधुरै रम्यविपाके कटुकैरिह ॥ १५० ।। सं धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्पदं यत्र नापदः । तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं तत्सुखं यत्र नामुखम् ।। १५१ ।। श्रुत्वा पुत्रवचश्चक्री शब्दसंदर्भगर्भितम् । निश्चिकाय ततः प्राज्ञः सुतस्यापि मनीषितम् ।। १५२ ।। १ गणिका । २ 'टगिनी' दूतो। ३ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये सप्तमाश्वासे लोकोऽयं निम्नरूपेणोपलभ्यते। सधों यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखं । तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं सा गतियत्र नागतिः ।। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० जम्बूस्वामिचरिते नूनं स्वात्महितायासौ निर्विण्णो भवभीरुकः । उग्रं तपः समादाय गंतातः परमां गतिम् ।। १५३ ॥ जानन्नपि महामोहादुवाच धरणीपतिः । सुनो विधेहि कारुण्यं मयि यथान्यशरीरिषु ।। १५४ ॥ चातुर्यैकनिधे सौम्य पर्यालोचय सांप्रतम् । तथा ते तपसः सिद्धिर्मम भावत्कदर्शनम् ।। १५५ ॥ ततः संप्रस्थितो भूत्वा कुरु पुत्र यथेप्सितम् । उग्रं तपोत्रतादीनि यथाशक्ति समाचर ।। १५६ ॥ रागद्वेषौ न विद्यते यद्यात्मज वनेन किम् || स्यातां चेदथ संक्लेशात्तदानेन वनेन किम् ॥ १५७ ॥ इत्यादिकं पितुर्वाक्यं श्रुत्वासी करुणास्पदः । क्षणं वाचंयमी तस्थौ निस्तरंगसमुद्रवत् ।। १५८ ।। ततो मृदुगिरोवाच कुमारः करुणार्दितः । एवमस्तु करिष्येऽहं यथा तात मनीषितम् ।। १५९ ॥ कुमारस्तद्दिनान्नूनं सर्वसंगपराङ्मुखः । ब्रह्मास्त्रोऽपि मुनिवत्तिष्ठते गृहे ।। १६० ॥ अकामी कामिनां मध्ये स्थितो वारिजपत्रवत् । अहो ज्ञानस्य माहात्म्यं दुर्लभ्यं महतामपि ।। १६१ ॥ कचिदेकांतरे भुंक्ते दूयन्तरेऽथ कदाचन । पक्षान्तरेऽथ मासान्ते स्वच्छं सजलमोदनम् ॥ १६२ ॥ प्राशुकं शुद्धमाहारं कृतकारितवर्जितम् । आदत्ते भिक्षयानीतं मित्रेण दृढवर्म्मणा ।। १६३ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावदेवभवदेवब्रह्मोत्तरस्वर्गगमनवर्णनम् तत्र तीव्रतपोवही दह्यमानं विलोक्य वै । मारक्रोधादयो नष्टाः प्रादुरासन्न ते पुनः॥ १६४॥ एवं वर्षचतुःषष्टिसहस्राणि तपस्यता । नीतानि पापभीतेन कुमारेण महात्मना ॥ १६५ ॥ स्वायुरते ततो जातो यथाजातो महामुनिः।। त्यक्त्वा चतुर्विधाहारं प्रांत्यविधी जितेन्द्रियः ।। १६६ ।। ततस्तपःफलान्नूनमणिमादिगुणान्वितः। ब्रह्मोत्तरे सुरेन्द्रोऽभूद्विद्युन्माली तदाख्यया ।। १६७॥ आयुःप्रमाणमस्यासीदशसागरसंख्यकम् । यहादेव्योऽपि विद्यन्ते चतस्रः प्राणवल्लभाः ॥ १६८ ॥ सोऽयं प्रत्यक्षतो राजन् राजते दिवि देवराट् । नास्य कांतिरभूत्तुच्छा सम्यक्त्वस्यातिशायितः ॥ १६९ ।। अथ सागरचन्द्राही यो मुनिव्रततत्परः। संन्यासेन वपुस्त्यक्त्वा प्रतीन्द्रस्तत्र सोऽभवत् ।। १७० ।। सोऽपि नानाविधं सौख्यं भुक्ते पंचाक्षसंभवम् । मनोभिलषितं रम्यं निर्विघ्नं च यथेप्सितम् ॥१७१ ।। धर्मात्सुखं कुलं शीलं धर्मात्सर्वा हि संपदः । इति मत्वा सदा सेव्यो धर्मवृक्षः प्रयत्नतः॥ १७२ ।। इतिश्री जम्बूस्वामीचरित्रे भगवच्छ्रीपश्चिमतीर्थकरोपदशानुसरितस्थाद्वादानवद्यगद्यविशारदपण्डितराजमल्लविरचिते साधुपासातनयश्रीसाधुटोडरसमभ्यर्थिते भावदेवभवदेवब्रह्मोत्तरस्वर्गगमनवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पंचमः सर्गः कुर्वन्तु मंगलं नित्यं चतुवैिशजिनाधिपाः । श्री साधुटोडरस्यास्य साधुपासात्मजस्य वै ।। १ ।। इत्याशीर्वादः । सुपार्श्व पार्श्वरोचिष्णुं वंदे विघ्नौघशान्तये । चन्द्रमभमहं नौमि चन्द्ररोचिर्यशश्चयम् ॥ १ ॥ अथातः श्रेणिको नम्रः पृच्छति स्म गणाधिपम् ! इमा देव्यश्वतस्रोऽपि कुतः पुण्यादिहागताः ॥ २ ॥ आसां भवांतराणीश वद संशयविच्छिदे । ततोवाच गणेशानो विनयग्राह्या हि योगिनः ॥ ३ ॥ शृणु श्रेणिक देशेऽस्मिन्नगरी स्याच्चंपापुरी | तत्राद्यः मूरसेनोऽस्ति श्रीमतामग्रतो वरः ॥ ४ ॥ तस्य भार्याश्चतस्रः स्युस्तासां नामान्यथ शृणु । जयभद्रा सुभद्रा च धारिणी च यशोमती ॥ ५ ॥ आभिर्भोगान् भुनक्ति स्म चिरं यावच्छुभोदयः । पुनश्चादीरितः पापस्तीत्रसंक्लेशसंभवः ।। ६ ।। ततः पापोदयादेव स्यादामयमयं वपुः । युगपत्सर्वरोगाणां सन्निपातमिवाभवत् ॥ ७ ॥ कासः श्वासः क्षयश्चैव जलोदरभगंदरौ । संधिभेदी महावायुरसद्यस्तस्य चाभवत् ॥ ८ ॥ १ रोगयुक्तं । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिजातकर्मोत्सवशैशवविनोदवर्णनम् व्याधिव्याप्तशरीरत्वाद्धातवः स्युर्विपर्ययाः । तस्य तीव्राभिलाषी स्याच्छ्रेष्ठी कुत्सितवस्तुनि ॥ ९ ॥ रोगित्वादस्य बोधोऽपि सद्यो मंदायितो यतः । यष्टिमुष्टिप्रहारैश्च ताडयेत्ताश्च योषितः ।। १० ।। अकस्माद्धांतितो दुष्टमसद्वाक्यं वदेत्कुधीः । विटेः कश्चिन्नरो रंडे भवतीनां पार्श्वे स्थितः ॥ ११ ॥ पुनः कंचिन्नरं पार्श्वे द्रक्ष्याम्यत्र कदाचन । छेत्स्ये नासादिकं रंडे प्राणान् हंतास्मि वः स्फुटम् ।। १२ ।। इत्यादिकं वचस्तीक्ष्णं कर्णशूलकरं वदन् । पापजातः स वीभत्सी रौद्रध्यानपरायणः ॥ १३ ॥ दर्श दर्शमदृश्यं तं जातास्ता दुःखपीडिताः । धिग्जीवनं वरं मृत्युरतश्चैव योगतः ।। १४ ।। चिंतयंत्यांऽतिभीतास्ता यात्रार्थ निर्ययुर्गृहात् । यत्रारण्ये महानस्ति वासुपूज्यजिनालयः ।। १५ । आलोक्य चैत्यविम्बानि चतस्रोऽप्यगमन्मुदम् । अस्माकं सफलं जन्म जातमद्य कृतार्थताम् ॥ १६ ॥ ततो मुनिमुखात्ताभिर्धर्माख्यानं श्रुतं महत् । ज्ञातधर्मफलाभिस्तु संग्रहीतं गृहितम् ।। १७ ।। व्रतमादाय ताभिस्तु स्थितं सद्मनि यावता । सूरसेनो महापापो यावताऽगाद्यमालयम् ॥ १८ ॥ ततः परं तत्सर्वस्वं गृहीत्वाशु जिनालयः । तुंगः कारापितस्ताभिः केवलं धर्मबुद्धितः ॥ १९ ॥ १ जारः । २ युष्माकं । ९३ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते चतस्रोऽपि ततस्तूर्ण निर्विण्णा भवभीतितः । आर्यिकाव्रतमादाय निर्ययुः सद्मबन्धनात् ॥ २० ॥ यथागमं तपस्तीव्रं संतपुस्ताः शुभाशयाः । संन्यासे मरणं कृत्वा देव्यो ब्रह्मोत्तरेऽभवन् ॥ २१ ॥ विद्युन्मालिमुरस्यास्य संजातास्ता इमा नृप । भार्याः प्राणसमा रम्या नानासौख्याब्धिमध्यगाः ।। २२ ।। ।। श्रुत्वा धर्मकथामेनां श्रेणिको मुदमादधौ । मनो व्यापारयामास पुनः प्रसमीहितम् ॥ २३ ॥ स्वामिन्नद्य त्वया प्रोक्तं विद्युन्मालिसुरस्य यत् । विसमं विचरेणासौ तपस्तीत्रं ग्रहीष्यति ।। २४ ॥ कोऽस्ति विद्युच्च नाना कुत्रत्यो किंकुलो महान् । कथं चौरत्वमापन्नो भविष्यति कथं मुनिः ॥ २५ ॥ एतद्वृत्तं कृपां कृत्वा ब्रूहि प्रश्नविदां वरः । सव्यासं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो धर्मफलाप्तये ।। २६ ॥ ततोऽवादीज्जिनेशानो कृपावारिपयोनिधिः । शृणु श्रेणिक धर्मस्य माहात्म्यं परमाद्भुतम् ॥ २७ ॥ अथात्र मगधे देशे विद्यते नगरं महत् । हस्तिनागपुरं नाम्ना स्वर्लोकैकपुरोपमम् ।। २८ ।। तत्रास्ति संवरो नाना भूपो दोर्देडमंडितः । तस्य भार्यास्ति श्रीषेणा कामयष्टिः प्रियंवदा ॥ २९ ॥ तयोः सूनुरभून्नान्ना विद्वान् विद्युच्चरो नृप । शिक्षिताः सकला विद्या वर्द्धमानकुमारतः ॥ ३० ॥ ९४ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिजातकर्मोत्सवशैशवविनोदवर्णनम् यद्यदृष्टश्रुतं वाथ ज्ञानं विज्ञानमेकशः । तच्छिक्षितं क्षणादेव ज्ञातं पूर्वमिवामुना ।। ३१ ।। शस्त्रशास्त्रादिविद्यासु दुष्करं नास्य किंचन । दृष्टश्रुतानुभूतत्वादभ्यासं कुर्वतोऽनिशम् ।। ३२ ।। अन्येद्युश्चितयामास दुर्दैवाद्दुष्टबुद्धिमान् । शिक्षितं न मया चौर्यमेकं सर्वगुणास्पदम् ॥ ३३ ॥ निधायेति स्वचित्तेऽसौ रात्रौ गत्वा पितुर्गृहे । शनैः शनैः प्रविश्याशु तत्र तस्करवत्क्रियः ॥ ३४ ॥ ततश्चादाय रत्नानि महार्घानि मनीषया । गच्छन् दृष्टः स केनापि रत्नोदद्योतैरनल्पकैः ।। ३५ ।। प्रातस्तेनेह तत्सर्वे भूपस्याग्रे निवेदितम् । श्रुत्वा भूपस्ततोऽवादीद्वेगादानीयतां स हि ।। ३६ ॥ इत्याकर्ण्य स्वधावद्भिरानीतोऽपि निजालयात् । धैर्यवान् वीरकर्मासी सन्मुखं स्थितवानितः ॥ ३७ ॥ नीतो बोधयितुं राज्ञा सान्नैव सौम्यया गिरा । पुत्र चौर्यमिदं निंद्यं कृतं कस्य कृते त्वया ॥ ३८ ॥ भोगान् भोक्तुं सकामोऽसि यदि त्वं मम का क्षतिः । यथोप्सितान् भोगान् मुक्ष्व योषिदकंदनादिवान (कवकैः) ३९ । यत्किंचिद्दुर्लभं लोके तत्सुलभं ममालये । यत्किचिद्रोचते तुभ्यं तद्गृहाण समक्षतः ॥ ४० ॥ इदं चौर्य महानिद्यमिहामुत्र च दुःखदम् । मा कुरुष्व महाप्राज्ञ सर्वसंतापकारणम् । ४१ ।। १ पूर्व ज्ञातमिव । ९५ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते श्रुत्वापीदं वचस्तथ्यं नासावुपशमं ययौ। शर्करादि यथा पथ्यं सज्वराय न रोचते ॥ ४२ ॥ ततः प्रत्युत्तरं वाक्यं ददौ चौर्यरतः शठः । अहो चौर्यस्य राजस्य भेदोऽस्त्यत्र महानिति ॥४३॥ राज्यस्य प्रमिता लक्ष्मीः चौर्यस्याप्रमिता च सा। तुल्यता न तयोरासीत्ततो ग्राह्यो गुणस्त्वयं ॥४४॥ अवधीय पितुः मुक्ति कृत्याकृत्यासमीक्षकः। अगात्पराङ्मुखो दुष्टो नाम्ना राजगृहं पुरम् ।। ४५॥ तत्रास्ति सस्मरस्मेरा वेश्या कामलताख्यया । आसक्तोऽसौ तया साध भोगान् भुंक्ते मनीषितान् ॥४६॥ चौर्येणार्जितं द्रव्यमनायासादहर्निशम् । यथाकामं स वेश्याये ददाति स्म स्मरातुरः॥४७॥ इति प्रश्नोत्तरं प्राप्य निर्गतं भगवन्मुखात । तुतोष श्रेणिको भूपा भूयः प्रश्नोद्यतोऽभवत् ॥४८॥ भगवन् यच्चया मोक्तं विद्युन्मालिकथानकम् । सप्तमे वासरे स्वर्गादयमेष्यति भूतले ॥४९॥ कस्य पुण्यवतः सम जन्मना भूषयिष्यति । पृष्टः कुर्वन् समाधानं जगाद जगतांपतिः ॥ ५० ॥ अत्र राजगृहे राजन राजते श्रीसमान्वतः। अहंदासाभिधः श्रेष्ठी जैनधर्मकतत्परः ॥५१॥ तस्य भायो मुरूपाचा नाम्ना जिनमती स्मृता । धर्ममृतिमहासाध्वी सद्विद्येव सुखावहा ॥ ५२॥ १ असत्कृत्य। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिजातकर्मोत्सवशैशवबिनोदवर्णनम् तस्या गर्भे महापूते पुण्यादवतरिष्यति । सम्यग्दर्शनपूतात्मा मुक्तिभर्ता भविष्यति ॥ ५३॥ अथ कश्चिन्महायक्षो ननानंदनिर्भरः। जिनवाक्यसुधापूरैः परिप्लावितसत्तनुः ।। ५४ ॥ जय नाथ जय स्वामिन् जय केवललोचन । त्वत्प्रसादात्कृतार्थोऽस्मि प्राप्तं पुण्यफलं मया ॥ ५५॥ धन्यमेतत्कुलं इलाध्यं यत्रोत्पत्स्यति केवली । भानुमानिव भात्यस्मिन् केवलज्ञानभानुभिः ॥५६॥ स एव पावनो देशस्तदेव नगरं शुभम् । तत्कुलं तगृहं पूतं यत्र धर्मपरंपरा ॥ ५७॥ नर्तयित्वाथ यक्षोऽसौ स्वासने स्थितवान् मुदा । श्रेणिकः पृच्छति स्मैतकिमिदं ब्रूहि भो विभो ।। ५८ ॥ व्याजहार गणाधीशो राजानं श्रेणिकं प्रति । नगरेऽत्रैव भो राजन्नासीद्वणिक्सुतो वरः ।। ५९ ।। धनदत्तो नाम्ना सौम्यो लक्ष्म्या श्रीधनदोपमः। तस्य भायो समाख्याता नाम्ना गोत्रमती शुभा ॥ ६०॥ सहायाक्ष्या (दक्ष)सौख्यस्य केवलं श्रेयसोऽपि च । ज्येष्ठः पुत्रस्तयोरासीदर्हद्दासोऽतिबुद्धिमान् ॥ ६१ ॥ ततः स्याञ्चलधीमांश्च जिनदास इतीरितः। ........... ॥ ६२॥ तयोर्मध्ये कनिष्ठो यो जिनदासः समाख्यया। दुर्दैवयोगतो नूनं स्यात्सर्वव्यसनातुरः ॥ ६३॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते पलेमत्ति पिवेन्मद्यं सेवते गणिकां कुधीः । द्यूतं क्रीडति पापात्मा निंद्यकर्म करोति च ॥ ६४ ॥ कुर्याच्चौर्यादिकं सर्वमिहामुत्र च दुःखदम् । किमत्र बहुनोक्तेन स स्यात्सर्वक्रियामयः ।। ६५ ।। अहो प्रसिद्धिलोकेऽस्मिन् द्यूताद्धर्मसुतादयः । एकस्माद्व्यसनान्नष्टाः प्राप्ता दुःखपरंपराम् ॥ ६६ ॥ अयं सर्वैः समग्रैस्तु व्यसनैर्लोलमानसः । अद्य श्वो वा परश्वश्च ध्रुवं दुःखे पतिष्यति ॥ ६७ ॥ एवं पौरजनाः सर्वे जानन्तीह परस्परम् । दुर्वचनं वदंति ज्ञास्तस्य शिक्षादिहेतवे ॥ ६८ ॥ अथान्येद्युर्दिने तेन क्रीडता द्यूतमंजसा । हारितं कांचनं तावद्यावन्नास्ति स्वसद्मनि ॥ ६९ ॥ ततस्तेन गृहीतोऽसौ द्यूतकारेण शत्रुणा । त्वरितं देहि मे द्रव्यं यत्त्वयाद्य पराजितम् ॥ ७० ॥ ततोऽसौ निष्ठुरालापैराकुलोऽभूत्पराजितः । वाक्यमुत्तरमात्रं स उक्तवानसमंजसम् ॥ ७१ ॥ इहाद्य कांचनं न स्यात्प्राणान्तेऽपि च सर्वथा । वधबन्धादिकं सर्वमनिष्टं कुरु सर्वशः ॥ ७२ ॥ शृण्वन् जिनदासेनोक्तं क्षत्रियः कुपितोऽभवत् । गृह्णामीह महत्स्वर्ण प्राणानथ ते तत्कृते ॥ ७३ ॥ ९८ १ मांसं । २ द्यूतं क्रीडति इति द्यूतकारः । ३ हारितं । ४ असमीक्षितं । ५ तदर्थं । स्वर्णार्थमित्यर्थः । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • जम्बूस्वामिजातकर्मोत्सव शैशवविनोदवर्णनम् नान्या गतिर्भवित्रीह जानीहि त्वं सुनिश्चितम् । परस्परं विवादाद्वै जातः कोलाहलो महान् ॥ ७४ ॥ दुष्टेन तेन रुष्टेन क्षत्रियेण प्रकोपतः । तस्य पापोदयाच्चैव जिनदासोऽसिना हतः ॥ ७५ ॥ मूच्छितं तं समालोक्य सापराधात्पलायितः । ततः पौरजनाः सर्वे द्रष्टुं तत्रागताः क्षणात् ॥ ७६ ॥ अर्हदासोऽपि तत्रैत्य दृष्ट्वा तं भ्रातरं निजम् । क्षणादाकुलचित्तोऽपि निन्ये यत्नात्स्वसद्मनि ॥ ७७ ॥ आनीतः शस्त्रवैद्योऽपि तच्चिकित्सादिहेतवे । तथापि न समाधानं भवेदस्य दुरात्मनः ॥ ७८ ॥ उदिते दुष्टकर्मारौ प्रतीकारो वृथाखिलः । निसर्गत: खले पुंसि कृताप्युपकृतिर्यथा ।। ७९ ।। तं प्रतिबोधमानेतुं धर्मवाक्पद्धतिं वदन् । अर्हदासश्च तत्प्रीत्या जैनसूत्रमवीवदत् ॥ ८० ॥ भ्रातथास्मिन् भवावर्ते जीवो मिथ्यामतिः शठः । बंभ्रमीति महादुःखं परावर्तेरनंतशः ॥ ८१ ॥ मिथ्यात्वं विषया योगाः कषाया बन्धहेतवः । तत्र द्यूतादिकं कर्म लोकद्वयेऽपि गर्हितम् ॥ ८२ ॥ द्यूतादिव्यसनार्त्तानां नूनं स्याद्वधबंधनम् । इहामुत्र महातीत्रं कर्मासातं समाश्रयेत् ॥ ८३ ॥ तत्त्वयाध्यक्षतो भ्रातः प्राप्तं द्यूतफलं महत् । नूनं विद्धि परत्रापि तीव्रदुःखं करिष्यति ॥ ८४ ॥ ९९ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जम्बूस्वामिचरिते अर्हदासोपदेशं हि श्रुत्वा भूद्भवभीरुकः । रुरुचे धर्मपीयूषं जिनदासो गदातुरः ।। ८५ ।। अर्हद्दासं समुद्दिश्य जिनदासेनोक्तं वचः । नूनं यदनिष्टं कर्म तत्सर्वं मामकात् कृतम् ॥ ८६ ॥ गतोऽयं मे वृथा कालो मग्नस्य व्यसनार्णवे । अद्य मां कृपया भ्रातः सापराधं समुद्धर । ८७ ॥ इह जन्मनि बन्धुस्त्वं यथा सद्धितकारकः । परलोकेऽपि धर्मात्मन् सहायो भव तद्यथा ॥ ८८ ॥ अहर्दासोऽप्यदः श्रुत्वा तद्वचः करुणास्पदम् । साधने धर्मकार्यस्य मतिं धत्ते स्म शुद्धधीः ॥ ८९ ॥ अणुव्रतानि तस्यातो ग्राहितानि मनीषिणा । संन्यासेन ततो मृत्वा यक्षोऽभूत्पुण्यपाकतः ॥ ९० ॥ नर्त्तति स्म ततश्चासौ निशम्यास्मद्वचो नृप । अंत्य केवलिनो जन्म मशे तद्भविष्यति ॥ ९१ ॥ अद्दासगृहे पुत्रो निःसंदेहं भविष्यति । विद्युन्मालिचरः सोऽयं जम्बूनामांऽत्यकेवली ॥ ९२ ॥ ततश्चापि परं भूप जम्बूस्वामिकथानकम् । कथयिष्यंति बुद्धीन्द्राः सत्पुण्यार्जनहेतवे ।। ९३ । श्रुत्वा श्रीभगवद्वाक्यं मुदितः श्रेणिको नृपः । पप्रच्छाभीप्सितं सर्व यल्लोकेऽस्मिन् चराचरम् ।। ९४ ॥ स्वालयं गंतुकामोऽसौ प्रारब्धं स्तवनं ततः । गद्यपद्यादिसद्वाक्यैर्जगावर्हगुणानपि ।। ९५ ।। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • जम्बूस्वामिजातकर्मोत्सवशैशवविनोदवर्णनम् १०१ जय देव महादेव केवलज्ञानलोचन । कृपावारिनिधे नंद सर्वभूतहितंकर ।। ९६ ॥ जय देवाधिदेव त्वं घातिकर्मविनाशकृत् । मोहमल्लोपमल्लस्त्वं धर्मतीर्थप्रवर्तकः ॥ ९७।। यथा त्वं शरणं स्वामिन्नस्ति त्रिजगतामपि । तथा मे शरणं भूयाद्यावत्स्यां त्वत्समो विभो ।। ९८॥ इति स्तुत्वा जगामासौ श्रेणिको नगरं प्रति । कुर्वन् जिनोदितं धर्म कर्ममर्मनिवर्हणम् ।। ९९ ॥ राज्यं कुर्वति भूपाले स्थिते कालोऽगमत्कियान् । अर्हदासाभिधः श्रेष्ठी राज्यकार्यधुरंधरः ॥१०॥ भार्या जिनमती तस्य सीतेव शीलशालिनी । परं नालंकृता रूपैगुणैरपि विभूषिता ।।१०१।। तौ दंपती मिथः स्यातां स्नेहा सुखसंस्थितौ । भोगाब्धिमध्यगौ चापि जैनधर्मपरायणौ ॥१०२॥ अथान्येयुः सुखं मुप्ता सार्हदासस्य भामिनी । निशायाः पश्चिमे भागे संददर्श स्वमावलीम् ॥ १०३॥ पश्यति स्म शुभं पूर्व जम्बूफलकदम्बकम् । भ्रमरालीसमालीढं संशोभि नयनप्रियम् ॥ १०४॥ निधूमां ज्वलनज्वालां शालिक्षेत्रं च शाडलम् । सारविंदं सरो पश्यन् सवेलं च पयोनिधिम् ॥१०५॥ यथाद्राक्षीनिशि स्वमान्धातो भत्रे न्यवेदयत् । आकर्ण्य श्रीमतीप्रोक्तमहदासोऽभिनंदत ॥१०६॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते यथानंदरवः केकी नंदति स्म धनागमे । अयं तूर्ण समुत्थाय नमस्कुर्वन् पुनः पुनः ॥ १०७ ॥ प्रष्टुं स्वप्नफलं चासौ प्रविष्टो जिनमंदिरे । सकलत्री जिनेशादीनर्चयित्वा विशुद्धधीः ।। १०८ ॥ प्रणम्य च मुनीशानं पृच्छति स्म विशांपतिः । स्वामिन्नद्य निशाभागे पश्चिमे मम भार्यया ।। १०९ ॥ अनया सुखसाद्दृष्टा काचित्स्वभावली शुभा । तस्याः फलं यथाम्नायं ब्रूहि सज्ज्ञानलोचन ॥ ११० ॥ अथोवाच मुनिः स्वप्न फलान्यस्मान्ययथच्छिदे (१) । .............।। १११ ॥ कामदेवसमः सूनुः स्याज्जम्बूफलदर्शनात् । स चालोकात्प्रदीपाग्नेः संधुक्ष्यति कर्मेन्धनम् ॥ ११२ शालिवप्रेक्षणाच्चासौ भविष्यति लक्ष्मीपतिः । स्यात्कमलाकरालोकाद्भव्यपापौघदावहा ।। ११३ ॥ पाथोधिदर्शनाच्छ्रेष्ठिन् भवाब्धिमुत्तरिष्यति । भव्यानां मुखसंप्राप्त्यै वर्षिष्यति धर्मामृतम् ॥ ११४ ॥ श्रुत्वा धर्मफलान्युच्चैर्भूत्वा सानन्दमानसः । मुनिवृन्दं त्रिधा नत्वा श्रेष्ठी स्वगृहमागतः ।। ११५ ।। अनंतरं दिवश्च्युत्वा विद्युन्माली सुरोत्तमः । गर्भाधाने स संक्रान्तः श्रीमत्याः पूर्वपुण्यतः ।। ११६ ॥ ततस्तद्दिनमारभ्य सासीज्जिनमती तदा । सालसांगी च मृदूंगी सस्वेदा नीलचूचुका ॥ ११७ ॥ १ चूचुकं तु कुचाग्रं स्यात् इत्यमरः । १०२ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिजातकर्मोत्सवशैशवविनोदवर्णनम् १०३ आपांडस्तनगंडेषु शैथिल्यान्मृदुभाषिणी ॥ तथापि शुशुभेऽत्यर्थ रत्नगर्भावनिर्यथा ॥ ११८ ॥ त्रिवली भंगमायाता तस्या गर्ने स्थिते शिशौ । चरमांगिनि संबाधावर्जितायास्तदोदरे ।। ११९ ॥ अथास्या दोहदो जातः शुभः सर्वोऽपि शर्मदः। देवशास्त्रगुरूणां हि पूजायां प्रीतिरुत्तमा ॥ १२० ॥ जिनविम्वप्रतिष्ठायां निष्ठायां पुण्यकर्मणः। जीर्णचैत्यालयोद्धारे दाने चैव चतुर्विधे ॥ १२१ ॥ तं सर्व पूरयामास श्रेष्ठी मुदितमानसः । कृतोत्साहः स लक्ष्मीवान् स्पृहालुः पुत्रदर्शने ॥ १२२॥ नवमासानतिक्रम्य सुखं सा सुषुवे सुतम् । तेजस्विनं महापूतं यथा प्राची तमोरिपुम् ।। १२३ ।। उत्तमे फाल्गुने मासे सितपक्षे शुभे दिने । रोहिणीसंस्थिते चन्द्रे तथोषसि विनिर्मले ॥१२४ ॥ जन्मोत्सवः कृतस्तेन श्रेष्ठिनानंदशालिना। बन्धुर्वर्गरशेषैश्च तथा पौरजनैः सह ॥ १२५ ॥ नेदुटुंदुभयः स्वर्गे पुष्पाष्टरभूत्तदा । ववुर्वाताः सुशीताश्च सुगंधाः पुष्परेणुभिः ॥ १२६ ।। सर्वत्रापि चतुर्दिक्षु जयकारमहाध्वनिः। श्रूयते परमानंदकारणं करणप्रियः ॥ १२७ ॥ जगुर्गीतं सुगीतज्ञाः कामिन्यो ललितभ्रवः । होनृत्यं प्रकुर्वन्ति कुंकुमारुणसाटकाः।। १२८ ।। १ कपोलेषु । २ सूर्यम् । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जम्बूस्वामिचरिते दुकूलैर्मणिमाणिक्यैर्यच्छुशुभे गृहांगणम् । तत्केन वर्णितुं शक्यं कविनापि महौजसा ॥ १२९ ।। दानं प्रयच्छतस्तस्य श्रेष्ठिनो न धनक्षयः । दरिद्रो न च लक्ष्भ्यां तत्परं पात्रे दरिद्रता ॥ १३० ॥ इति कल्याणमालाभिलालितः सत्कृतः शुभः। जम्बूस्वामीति नाम्नापि ख्यातं पित्रा सबन्धुना ॥ १३१ ॥ धात्र्यो नियोजितास्तस्य श्रेष्ठिना वृद्धिहेतवे । मज्जने मण्डने चास्य संस्कारे क्रीडनेऽपि च ॥१३२ ॥ ततोऽसौ स्मितमातन्वन्संस्पर्शन् मणिभूमिषु । पित्रोर्मुदं ततानाद्ये यस्याद्भुतविचेष्टितः ॥ १३३ ॥ जगदानंदि नेत्राणामुत्सवं पदमूर्जितम् । कलोज्ज्वलं तदस्यासीच्छैशवं शशिनो यथा ।। १३४॥ मुग्धस्मितमभूदस्य मुखेन्दौ चंद्रिकामलम् । तेन पित्रोर्मनस्तोषजलधिर्वधतेतराम् ॥ १३५ ।। पीठबन्धः सरस्वत्या लक्ष्म्या हसितविभ्रमः। कीर्तिवल्ल्या विकासोऽस्य मुखे मुग्धास्मयोऽभवत् ॥ १३६ ॥ स्खलत्पदं शनैरिन्द्रनीलभूमिषु संचरन् । स रेजे वसुधां रक्तैरब्जैरुपहरन्निव ॥ १३७ ॥ रत्नपांशुषु चिक्रीड स वयोनिकर समम् । पित्रोर्मनसि संतोषमातन्वन् ललिताकृतिः ॥ १३८ ॥ प्रजानां दधदानन्दं गुणैराहादिभिर्निः । कीर्तिज्योत्स्नापरीतांगः स वभौ बालचंद्रमाः ॥ १३९ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिजातकर्मोत्सवशैशवविनोदवर्णनम् १०५ बालावस्थामतीतस्य तस्याभूद्रुचिरं वयः। कौमारं देवनाथानामर्चितस्य महौजसः॥१४॥ वपुः कांतं प्रिया वाणी मधुरं तस्य वीक्षितम् । जगतः प्रीतिमातेनुः सस्मितं च प्रजल्पितम् ।। १४१ ॥वा कलाश्च सकलास्तस्य वृद्धौ वृद्धिमुपाययुः। इंदोरिव जगञ्चेतो नंदनस्य जगत्पतेः ॥ १४२ ॥ विश्वविश्वेश्वरस्यास्य विद्याः परिणताः स्वयम् । ननु जन्मान्तराभ्यासः स्मृतिं पुष्णाति पुष्कलाम् ॥ १४३॥ कलासु कौशलं श्लाघ्य विश्वविद्यासु पाटवम् । क्रियासु कर्मठत्वं च स भेजे शिक्षया विना ॥१४४॥ वाङ्मयं सकलं तस्य प्रत्यक्ष वा प्रभोरभूत् । येन विश्वस्य लोकस्य वाचस्पत्यादभूद्गुरुः ।। १४५॥ यथा यथास्य वंधते गुणांशा वपुषा समम् । तथा तथास्य ज(य)ततो बंधुता चागमन्मुदम् ।। १४६॥ परमायुरथास्याभूचरमं बिभ्रतो वपुः । आरोग्यं तत्र सौभाग्यं सौंदर्य च विशेषतः ॥१४७॥ कदाचिल्लिपिसंख्यानं गंधर्वादिकलागमम् । अभ्यस्तपूर्वमभ्यस्य स्वयमभ्यासयन् परान् ॥ १४८॥ छंदोविचित्यलंकारप्रस्तारादिविवेचनैः। कदाचिद्भावयन् गोष्ठी चित्राद्यैश्च कलागमैः ॥१४९ ॥ कदाचित्पदगोष्ठीभिः काव्यगोष्ठीभिरन्यदा। वावदूकः समं कैश्चिजल्पगोष्ठीभिरन्यदा ॥ १५०॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरितेकहिँचिद्गीतगोष्ठाभिनृत्यगोष्ठीभिरेकदा । कदाचिद्वाद्यगोष्ठीभिर्वीणागोष्ठीभिरन्यदा ॥१५१ ।। कर्हिचिदर्हिरूपेण नटतो नटचेटकान् । नाटयन् करतालेन लयमार्गानुयायिनः ॥ १५२॥ कदाचित्फुल्लकुन्देन्दुमन्दाकिन्याश्छटामयम् । गंधवैश्च समुद्गीतं स्वं समाकर्णयन् यशः ॥१५३॥ कदाचिद्दीर्घिकांभासु समं वयाकुमारकैः । जलक्रीडाविनोदेन रममाणः ससंपदम् ॥ १५४ ॥ सारवं जलमासाद्य सारवं जलकूजितः। तारवैयंत्रकैः क्रीडन् जलास्फालकृतारवैः ॥१५५ ॥ कदाचिनंदनस्पर्द्धितरुशोभाचिते बने। वनक्रीडां समातन्वन् वयस्यैरन्वितः शिशुः॥१५६ ॥ इति कालोचितान् क्रीडा विनोदांश्च स निर्विशन् । सुखं स्यादष्टवर्षीयो जम्बूस्वामी कुमारकः ॥१५७।। इति भुवनपतीनामर्चनीयोऽभिगम्यः सकलगुणमणीनामाकरः पूर्णमृतिः सह नृपतिकुमारनिर्विशन्कामभोगानरमत चिरमस्मिन्पुण्यगेहे स देवः ॥१५८ ॥ तारालीतरलां दधन् सुरुचिरां वक्षस्थलासंगिनीम् लक्ष्म्या दोलनवल्लरीमिव ततां तां हारयष्टिं पृथु । ज्योत्स्नामन्यमांशुकं परिदधकांचीकलापान्वितम् रेजेऽसौ नृपदारकैरुडुसमैः क्रीडन् यथेन्दुः शिशुः ॥१५९ ॥ १ दासान् । २ गंगायाः । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिजातकर्मोसवशैशवविनोदवर्णनम् १०७ यस्मात्पुण्यविपाकतो दिवि सुरा मुंजन्ति सौख्यं परं यस्माचात्र महीतले नरवरास्तीर्थकराश्चक्रिणः । जायन्ते बलभद्रकेशवमुखास्तद्वैरिणो विष्णवः सेव्यो धर्ममहातरुः सुकृतिभिर्यत्नाकिमन्यैः परैः ॥ १६०॥ इतिश्री जम्बूस्वामिचरित्रे भगवच्छोपश्चिमतीर्थकरोपदशानुसरितस्याद्वादानवद्यगद्यविशारदपण्डितराजमल्लविरचिते साधुपासातनयश्रीसाधुटोडरसमभ्यर्थिते जम्बूस्वामिजातकर्मोत्सवशैशवविनोदवर्णनो नाम पंचमः सर्गः। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ षष्ठः सर्गः जीयात्स टोडरः साधुर्यस्य कीर्तिः समुज्ज्वला। विस्तृता भुवि पूर्णेन्दोरिव ज्योत्स्ना मुशारदी ॥१॥ इत्याशीर्वादः। सुविधि सुविधातारं धर्मतीर्थस्य नायकम् । शीतलं तमहं वंदे यस्य वाचः सुशीतलाः ।।१।। अथास्य यौवने पूर्णे वपुरासीन्मनोहरम् । प्रकृत्येव शशी........किं पुनः शरदागमे ॥२॥ निष्टप्लकनकच्छायं कामरूपं निरामयम् । क्षीरोत्थक्षतजं दिव्यं....................॥३॥ .........परां कोटि दधानं सौरभस्य च । अष्टोत्तरसहस्रेण लक्षणानामले........ ॥४॥ ........... ............द्यत्वं भेजे रुक्मादिसच्छविम् ॥ ५॥ यत्र वज्र............. .....हननमीशितु ...............॥ ६॥ त्रिदोषजमहातका नास्य देहेन्य................ ...........मरुरगोचरः ॥७॥ तदस्य रुरुचे गात्रं परमोदारिकाहयम् । महाम्युदयनिःश्रेय.......मूलकारणम् ॥ ८॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिवसंत के लिहस्तिवशवर्णनम् मानोन्मानप्रमाणानामन्यूनाधिकतां श्रितम् । संस्थानमाद्यमस्यासीच्चतुरस्रं समंततः ।। ९ ।। तदीयरूपलावण्ययौवनादिगुणोद्गमैः । आकृष्टा जनतानेत्रभृंगा नान्यत्र रेमिरे ।। १० । आलोक्य तस्य सौंदर्य सर्वाः पौरजनस्त्रियः । विद्धा मन्मथकाण्डेन वभूवुः स्मरपीडिताः ॥ ११ ॥ काचित्तद्वदनं द्रष्टुं वीक्ष्यमाणा मुहुर्मुहुः । १०९ व्रीडयाकुलचित्ता स्यान्मुग्धा कामातुरा सती ।। १२ ।। मुग्धावस्थापि तारुण्यान्नवयौवनशालिनी । काचित्कामाशिना दग्धा निःश्वसंती रिरंसयो ॥ १३ ॥ काचित्मौढा रसज्ञा च पण्डिता शास्त्रदर्शने । स्मरती तद्गुणानेव स्थिता चित्रार्पितेव च ॥ १४ ॥ काचिद्वातायने स्थित्वा गृहकार्यपराङ्मुखा । प्राप्तुं तद्दर्शनं नूनं साभिलाषानुलक्षिता ।। १५ । काचित्किचिच्छलं नीत्वा निःसरन्ती स्वसद्मनः । अटति स्म महावीथ्यां यत्र तस्य गमागमः ॥ १६ ॥ काचित्तद्दर्शनायालं सोत्तालापि विलम्बिता । कार्यध्वंसभयदेव चिंतति स्मोत्तरं पथि ।। १७ ।। काचिज्जन्मांतरेऽपीह भर्तारं तत्समं परम् । इच्छति स्म निदानेन सकामक्रिययानया ॥ १८ ॥ इत्यादिकास्तदालोकाद्विरहव्याकुलीकृताः । ताः सर्वा नामतोऽप्यत्र वर्णितुं न क्षमः कविः ॥ १९ ॥ १ रंतुं इच्छा रिरंसा तया । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जम्बूस्वामिचरिते सुर्पुत्री हि वरं चैको यः स्यात्स्वकुलदीपकः । न च भद्रं कुपुत्राणां सहस्राणि कुलद्विषाम् ॥ २० ॥ केचित्तत्र विशांनीथाः श्रुत्वा तद्गुणसंपदः । दातुकामाः स्वसात्मीयां कन्यां सोत्कंठिताः स्वयम् ॥ २१ ॥ एकस्तत्र विशांनाथो वसेच्छ्रीजिनभाक्तिकः । श्रेष्ठी सागरदत्तोऽस्य भार्या पद्मावती शुभा ॥ २२ ॥ दुहिता स्यात्तयोर्नाम्ना पद्मश्रीश्च पद्मानना । दिव्य सौंदर्यवर्यास्ति नवतारुण्यशालिनी ॥ २३ ॥ धनदत्तोऽपरस्तत्र वर्तते च वणिग्वरः ॥ भार्याकनकमालाख्या तस्यासीच्छोभनानना ॥ २४ ॥ नाम्ना कनकश्रीः पुत्री तयोरासीत्कलस्वना । तप्तसौवर्णवर्णाभा साकर्णायतचक्षुषी ।। २५ ।। आढ्यो वैश्रवणः श्रेष्ठी तत्रासीद्वणिजां पतिः । कांता विनयमालास्य लब्धान्वर्थाभिधानका ॥ २६ ॥ आत्मजासीत्तयोर्नाम्ना विनयश्रीरितीरिता । कामध्वजेव तन्वंगी सर्वलक्ष्मविभूषिता ।। २७ ।। तुर्यस्तत्र वणिग्दत्तो विद्यते श्रीसमन्वितः ॥ स्याद्विनयमती तस्य भार्या साध्वी पतिव्रता ॥ २८ ॥ रूपश्रीरिति विख्याता तयोरासीत्सुता वरा । पक्वविम्बाधरा तन्वी पृथुपीनपयोधरा ।। २९॥ अपि ताः स्युश्चतस्रोऽपि तरुण्यो नवयौवनाः । मन्यमाना इवाज्ञां प्रागिष्यतः स्मरभूपतेः ॥ ३० ॥ २ वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि । इति हितोपदेशे । २ नृपतयः । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिवसंतकलिहास्तवशवर्णनम् ततोऽपि चिंतितं तैश्च वणिग्वयरहोनिशि । इत्थमेवोचितं कार्य कर्तव्यमथ सर्वथा ॥ ३१ ॥ चत्वारोऽपि परामृश्य ततः शीघ्र समागताः। तद्गहे दातुकामास्त कन्यास्ता जम्बुस्वामिने ॥ ३२॥ अथैकत्रोपविश्याशु विज्ञप्तं तैः समक्षतः। अहंदास अहो श्रेष्ठिन् धन्योऽसि त्वं जगत्त्रये ॥ ३३ ॥ यत्वद्गृहे महापूतः पुत्रोऽभूद्विश्वपावनः।। जम्बस्वामीति विख्यातस्त्रैलोक्यैकशिखामणिः ॥३४॥ अथास्मत्प्रार्थनां सार्थी ह्यमोघां कुरु सर्वतः । यत्त्वन्नन्दनयोग्या सु(स्यु)रस्मन्हे कुमारिकाः ॥ ३५॥ दत्तास्ताः श्रेयसेऽस्माभिः कन्याः स्युस्तद्वरोचिताः। जम्बूस्वामीति तद्भर्ता वर्धतां प्रीतिरुत्तमा ॥ ३६॥ युष्माभिः सममस्माकं मैत्रीभावः परस्परम् । यथा भृत्याः ऋयक्रीता वयमाज्ञापरायणाः ॥ ३७॥ सप्रश्रयं वचस्तेषां श्रुत्वा श्रेष्ठी मुदं दधन् । सस्मितोऽन्तःपुरे गत्वा मतं जिनमती प्रति ॥ ३८॥ आननंद ततो हर्षान्मंत्रायामंत्रिता सती । प्रायः पुत्रोत्सवे नार्यः साभिलाषाः स्वभावतः ॥ ३९ ॥ तद्वचोऽपि ततो नीत्वा श्रेष्ठी तानवदत्सुधीः । अहो यथेप्सितं कार्य कुर्वीध्वं यमुत्तमम् ॥ ४०॥ अथाक्षयतृतीयायां निश्चित्योद्वहमंजसा । ससत्कारपुरस्कारा जग्मुस्ते खालयं प्रति ॥४१॥ १ पूर्ण । २ कथितं । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जम्बूस्वामिचरिते Hairconiuousum अथ मंगलगीतिः स्यात्पंचानामपि समसु । एकत्रीक्रियते नित्यं सामग्री तत्र प्रत्यहम् ॥ ४२ ।। धनधान्यसुवर्णादिवस्त्रालंकरणानि च । नीयन्तेऽथ महामौल्यं दत्वा तैः सावधानकैः ॥४३॥ सद्ममंडनचित्रादि सर्व निष्पाद्यते भृशम् । परस्परं समाहूतो बन्धुवर्गो यतस्ततः ॥४४॥ इत्युद्वाहसमारंभे चत्वारोऽपि वणिग्वराः। सोत्साहाः सर्वकार्येषु जाताश्चानन्दशालिनः ॥ ४५ ॥ अथ प्रत्यग्रराजेव वसंतः समुपस्थितः । छिंदन जीर्णानि पत्राणि चिन्वन्नभिनवानि च ॥ ४६॥ आतपत्रं दधानोऽसौ प्रफुल्लेन्दीवरच्छलात् । प्रसनः स्वयशोमालां न्यधान्मृनि समाधवः ॥४७॥ कोकिलालापवाचालं वनं यत्र विराजते । आम्रकोरकवाणैश्च हन्तुं वा कामिनां कुलम् ।। ४८॥ प्रससार परागोऽपि दिक्षु सर्वासु यत्र वै । मन्ये कामठकेनेव क्षिप्तश्चों विमोहितुम् ॥४९॥ पुष्पगंधैरिवाकृष्टा पंक्त्या यत्रालिमालिका । वने भ्रमति बढेव शृंखला स्मरदंतिनः ॥५०॥ मंदानिलो ववौ यत्र सुगन्धश्च मुशीतलः । येन मानधनो नूनं माननीभिः पराजितम् ॥ ५१ ॥ यत्राशोकतरू रेजे युतश्चंपकवृक्षकैः । स्फुटितस्य हृदो मांसं पिंडो नूनं वियोगिनाम् ॥ ५२ ।। १ वसंतः। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिवसंत के लिहस्तिवशवर्णनम् रेजुः किंशुकपुष्पाणि यत्रारक्तच्छवीनि च । दग्धुं हद्विरहार्तानां चिताः प्रज्वलिता इव ।। ५४ ।। एवंविधे मधौ रेमे कुमारः सह दारकैः । रम्यासु वनवीथीषु मधुः कोऽपि (प्य) परस्त्वयम् ।। ५५ ।। तत्र पौरजनाश्चापि रमंते सकलत्रकाः । कृत्योपवनवीथीषु क्रीडामारभथेप्सितम् ।। ५६ ।। पश्चात्स्नानार्थमाजग्मुः सर्वे तत्र जलाशये । स्नात्वाथ गंतुकामास्ते बभूवुः स्वालयं प्रति ।। ५७ ।। संहतिस्तत्र संजाता मिथःसंलापभाषणैः । अश्वं गजमथो यानं वेगादानाय चेतिरे ।। ५८ ।। तत्र तूर्यत्रिकध्वानैर्महान्कलकलोऽजनि । नददुंदुभिनादैश्व श्रोत्रानंदविधायिभिः ।। ५९ ।। श्रुत्वा कोलाहलध्वानं विभ्यति स्म महागजः । विषमसंग्राम सूराख्यः पट्टेभो राजसंमतः ॥ ६० ॥ भित्वासौ श्रृंखलाबंधमभ्रमत्तत्र क्रोधवान् । स्त्रवद्दंडमदाविष्टभ्रमरालीविराजितः ।। ६१ । दुरासदो महामत्तो स बभूव निषादिनाम् । भीमश्चीत्कारनादैश्च त्रासितः स्वगणाग्रणी ॥ ६२ ॥ अंजनाद्रिसमो दंती चलत्कर्णप्रभंजनः । स्थूलकायः कृतांता भी नवाषाढपयोदवत् ॥ ६३ ॥ दंतावलोऽथ दंतायैरुत्खनन् पृथिवीतलम् । शुंडादंडेन तत्रोच्चैरुद्भिरन् वारिसंचयम् ॥ ६४ ॥ १ काल इव । ११३ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरितेउच्चखान वनं सर्वं रौद्रश्चातिविभीषणः । उच्छिन्दन् तरुमूलानि मूलोन्मूलमितस्ततः ॥ ६५ ॥ आम्रजम्बूसुजंबीरनारंगनिकरांकितम् । तमालतालकंकोलिकदंबालीविराजितम् ॥ ६६ ॥ सल्लकीशालमालाभिः पिचुमैन्दैरिहाततम् । द्राक्षारुचकखर्जूरदाडिमीफलसंभृतम् ॥ ६७ ॥ जातीचंपककुंदैश्च मुचकुन्दैः सुगंधिभिः । पाटलारामवल्लीभिः रमणीयं मनोरमम् ॥ ६८॥ नागवल्लीमहावल्लीबिल्वबकुलपल्लवैः । पल्लवितं नभोमार्गे श्रीखंडादिदलैरपि ॥ ६९ ॥ एलालवंगजातीनां फलैः पुष्पैरलंकृतम् । राजादनीनालिकेरपूगीफलसमन्वितम् ।। ७० ।। केकिकेकारवाकीर्ण कोकिलाकलनिस्वनः । किमत्र बहुनोक्तेन इलाध्यं यत्रिदशैरपि ॥ ७१ ॥ तत्सर्व हेलया दन्ती बभञ्जभपतिः क्षणात् । यथा पुण्यतरं लोभैविषयमलिनं मनः ॥ ७२ ॥ यतस्ततः पलायंतस्तत्र केचिद्भयातुराः। कातरत्वं समादाय न पुनः सन्मुखं ययुः॥७३॥ केचिद्रामापरित्राणे पर्याकुलितचेतसः। यन्नधेिये समालम्ब्य सावधानाः पदं दधुः ।। ७४॥ भाव्यमद्य किमत्राहो चिंतयन्तो भटा अपि । न क्षमाः सन्मुखं गन्तुं बन्धनायाशु दंतिनः ॥७५॥ १ निम्बैः । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिवसंत के लिहस्तिवशवर्णनम् गौरमास्यं सुयोद्धारः पश्यंति स्म परं परम् । विमनस्का वस्तत्र निरुत्साहा निरुद्यमाः ॥ ७६ ॥ श्रेणिकस्तत्र भूपालो विद्यते वै समक्षतः । न शशाक ग्रहीतुं तं सोऽपि मंदाक्षतां गतः ॥ ७७ ॥ जम्बूस्वामि कुमारोऽसौ महावीर्यो महाबलः । तस्थौ तत्र यथास्थाने न चचाल ततो मनाक् ।। ७८ ।। तृणाय मन्यमानः सन् तं तथा मत्तदंतिनम् । निर्भीको धारयामास पुच्छमाकृष्य धीरधीः ॥ ७९ ॥ वज्रास्थिबंधनः सोऽयं वज्रकीलश्व वज्रवत् । वज्रेणापि न हन्येत का कथा कीटहस्तिनः ॥ ८० ॥ यावत्स पौरुषः स्वीयः कृतः सर्वोऽपि दंतिना । भेत्तुं तस्य न रोमांशः शक्यो वज्रतनोस्तदा ।। ८१ ॥ अलं वज्रशरीरस्य दंतिनो विजयेन किम् । अनुषंगादिहाख्यातं नातिमात्रं किमप्यहो ॥ ८२ ॥ उन्मदं विमदीकृत्य हस्तिनं क्षणमात्रतः । आरुरोह ततस्तूर्ण दत्वा पादौ च दंतयोः ॥ ८३ ॥ इतस्ततो महानागं चालयामास दर्पहा । जम्बूस्वामिकुमारोऽसौ सत्कृतः सर्वभूमिपैः ॥ ८४ ॥ अहो वलं कुमारस्य दृश्यतामद्भुतास्पदम् । रौद्रोऽपि हेलया दन्ती स चानेन वशीकृतः ॥ ८५ ॥ अहो पुण्यस्य माहात्म्यं महनीयं महात्मभिः । येन हस्तगतं सर्व यशः सौख्यमथो जयः ॥ ८६ ॥ ११५ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जम्बूस्वामिचरिते दृष्ट्वा वीर्य कुमारस्य भूपो विस्मयतां गतः । स्वासनस्यार्धभागे तं नीतवानथ नीतिवित् ॥ ८७ ॥ सुप्रसन्नमनाश्चार्यश्लाघां कुर्वन्पुनः पुनः । पुष्पौधैरिव सद्रत्नैः पूजयामास भक्तितः ॥ ८८ ॥ धन्योऽसि त्वं महाभाग त्वया नागो वशीकृतः । साध्वी जिनमती धन्या यद्गर्भे त्वत्समोऽजनि ॥ ८९ ॥ अथ दुंदभिनादैस्तं सार्द्धं नृपशतैर्वृतैः । पुरे प्रवेशयामास दंतिनः शिरसि स्थितम् ।। ९० ॥ अत्यादरात्ततश्चापि ताभ्यां नीतः स्वसद्मनि । पितृभ्यामर्चितः साक्षात्सन्मंगलपुरस्सरम् ।। ९१ ॥ सिंहासने निवेश्याशु विनयानतमस्तकौ । पितरौ पृच्छतो भद्रं तत्स्नेहातिचक्षुषौ ।। ९२ ।। कुशलं ते तनौ वत्स निघ्नतो गजयूथपम् । इति केचित्कुमारं तं स्पृशंतो मृदुपाणिना ।। ९३ ॥ क ते पुत्र वपुः सौम्यं कदलीदलसन्निभम् । क गिरीन्द्रसमो नागो निर्जितस्तु कथं त्वया ॥ ९४ ॥ विस्मयस्य परां कोटिं संदधानौ स्वसद्मनि । तस्थतुद्र सुखं यावत्पश्यंतौ तौ सुताननम् ।। ९५ ।। यस्मात् पुण्यविपाकाद्वै जम्बूस्वामिकुमारकः । मान्यो राजसभामध्ये तत्पुण्यं क्रियतां बुधैः ॥ ९६॥ इति श्रीजम्बूस्वामिचरित्रे भगवच्छ्रीपश्चिमतीर्थकरोपदेशानुसरित स्याद्वादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारदपण्डितराजमल्लविरचिते साधुपासासुतसाधुटोडरसमभ्यर्थिते जम्बूस्वामिवसंत के लिहस्तिवशवर्णनो नाम षष्ठः पर्वः । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सप्तमः पर्वः । भवंतु श्रेयसे वाचः श्रीसर्वज्ञमुखोद्भवाः । श्रीसाधोः टोडरस्यास्य साधुपासांगजस्य वै || १ || इत्याशीर्वादः । श्रेयांसं तीर्थकर्त्तारं हर्त्तारं दुःखसंततेः । वासुपूज्यं च वन्देऽहं सर्वविघ्नौघशान्तये ॥ १ ॥ अथैकदा सभामध्ये स्थिते राज्ञि सुविष्टरे । आनमन्मौलिभूपालनिषेव्यचरणांबुजे ॥ २ ॥ पतन्निर्झर संकाशचामरालीविराजिते । महामात्यादिराजीवराजन्यकसमन्विते ॥ ३ ॥ लीलया तत्समीपे च जम्बूस्वामिनि संस्थिते । निर्जिते तद्वपुः कान्त्या भूपानां तेजसां चये ॥ ४ ॥ तत्राकस्मान्नभोमार्गादागतः खचराधिपः । एकोऽप्यात्माभितेजोभिर्दिशाचक्रं विभूषयन् ॥ ५ ॥ दिव्यं विमानमारुढो रणदुर्घटाद्यलंकृतम् । व्योममार्गे ततः स्थाप्य समुत्तीर्णः क्षणादिह ॥ ६ ॥ स्थित्वावादीत्ततोऽध्येक्षं राजानं श्रेणिकं प्रति । प्रश्रयानुद्धतं वाक्यं नमस्कारपुरस्सरम् ॥ ७ ॥ नाना सहस्रशृंगोऽत्र राजते गिरिरुत्तमः । राजन् तत्र वसंत्येव महाविद्याधरा नराः ॥ ८ ॥ १ प्रत्यक्षं । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जम्बूस्वामिचरिते भूधरे तत्र तिष्ठामि सकलत्रश्चिरात्मुखम् । नाम्ना व्योमगतिश्चाहम सहायपराक्रमः ॥ ९॥ निश्चिताद्य मया वार्ता या चित्रास्पदकारिणी । श्रोतव्या सा त्वया भूप कथ्यमाना मयाधुना ॥ १० ॥ अस्त्यन्यतो गिरीशानो नाम्ना वै मलयाचलः । अस्य दक्षिणदिग्भागे केरला पूरिहाख्यया ॥। ११ ॥ मृगांकस्तत्र भूपोऽस्ति यशस्वी च कलानिधिः । भामिनी तस्य नाम्नापि विद्यते मालती लता ।। १२ ।। सा स्वसा मम भो राजन् स्याच्छीलगुणमंडिता । कांचनाभा सुतन्वंगी रोमराजीविराजिता ।। १३ ॥ या विशालवती नाम्ना सुता स्यादनयोः शुभा । कंदकविलासा सा निर्मिता विधिनाधुना ॥ १४ ॥ आकर्णीतविशालाक्षी पृथुपीनपयोधरा । संतप्तकनकच्छाया कांत्या कांतेः स्पृहावती ॥ १५ ॥ अथान्येद्युर्मृगांकाख्यः सोत्को विद्याधराधिपः । पृच्छति स्म मुनीशानं प्रश्रयो मूर्तिमानिव ॥ १६ ॥ कृपावारिनिधे स्वामिन् ब्रूहि मे संशयच्छिदे । अस्मत्पुत्र्याः पतिर्भावी भविता कोऽत्र भूतले ॥ १७ ॥ आकर्ण्यदं वचस्तथ्यमुवाच मुनिनायकः । क्षालयन्निव दिक्चक्रं प्रसरद्दशनांशुभिः ॥ १८ ॥ पुरे राजगृहे रम्ये श्रेणिकोऽस्ति महीपतिः । विशालवत्यास्त्वत्पुत्र्याः परिणेता भविष्यति ॥ १९ ॥ १ सोत्कण्ठः । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविजयवर्णनम् ११९ श्रुत्वा मुनिवचः पथ्यं मृगांको रुरुचे भृशम् । ततस्तामन्यस्मै दातुं स तूपेक्षापरोऽभवत् ॥ २०॥ प्रमाण अथो विद्याधिनाथोऽस्ति रत्नचूलः समाख्यया । हंसद्वीपमलंकुर्वन् स्वमहिम्ना महौजसा ॥ २१ ॥ प्रार्थयामास सोऽत्यर्थ कन्यां तां कमलाननाम् । | मृगांको न ददौ तस्मै मुनिवाक्यमलंघयन् ॥ २२ ॥ ततस्तेनातिरुष्टेन बद्धवैरेण कोपिना। स्वावज्ञं मन्यमानेन कृतं तस्य विरूपकम् ॥ २३ ॥ कृत्वा सैन्यं धनुःसज्जं विध्वस्तं तस्य पत्तनं । तेन पापात्मना तत्र वैत्य सानि निन्नता ।। २४ ।। सर्वोऽप्युद्वासितो देशस्तस्य यावान् समृद्धियुक् । धनधान्यसमाकीर्णग्रामश्रेणिविराजितः ॥ २५ ॥ उच्छिन्नानि बनान्यस्य दुर्गाश्चापि विदारिताः। आलकोलाहलेनालं सर्वस्वं भस्मसात्कृतं ॥ २६ ॥ त्रस्तस्तत्त्रासतः सोऽपि मृगांकः क्लीवतां श्रितः । अधिदुर्ग समासीनः प्राणान् रक्षति यत्नतः ।। २७ ॥ वृत्तांत सर्वमेवैतत्तत्रत्यं विद्यतेऽधुना । ज्ञानादन्यत्र को वेत्ति पुरस्ताकि भविष्यति ॥ २८ ॥ अथ तत्र मृगांकोऽपि सावधानश्च संयति । विधास्यति स संग्रामं श्वो दिने हि यथावलं ॥ २९ ॥ क्रमोऽयं क्षात्रधर्मस्य सन्मुखत्वं यदाहवे । वरं प्राणात्ययस्तत्र नान्यथा जीवनं वरं ।। ३०॥ १ नगरम् । २ मिथ्या कोलाहलेन । ३ युद्धे । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जम्बूस्वामिचरिते महतां न धनं प्राणाः किंतु मानधनं महत् । माणत्यागे यशस्तिष्ठेत मानत्यागे कुतो यशः ॥ ३१ ।। ये दृष्ट्वारिबलं पूर्ण तूर्ण भग्नास्तदाहवे। पलायंति विना युद्धं धिक् तानास्यमलीमसान् ॥ ३२॥ ये तु धैर्य विधायाशु युद्धं कुर्वति धीधनाः। मृतास्तत्रैव नो भग्ना धन्यास्ते हि यशस्विनः ॥ ३३ ॥ राजन् कृतवचौबंधस्तत्राहं गंतुमुद्यमी । आवश्यकमिदं कार्य विलंबोऽनुचितो मम ॥ ३४ ॥ तथाप्यालोक्य भावत्कं दर्शनं स्थानमुत्तमम् । वृत्तांतं गदितुं चापि स्थितोऽहं क्षणमात्रतः ॥ ३५ ॥ अतः स्थातुं क्षमं यावदतिमात्रं न मे मनः। राजन्नाज्ञापयत्वाशु यथा गच्छामि वेगतः ॥ ३६ ।। इत्युक्त्वा स नभोगामी त्वरितं प्रस्थातुमुद्यतः। जंबूस्वामीत्यथोवाच बचो विद्याधरं प्रति ॥ ३७॥ तिष्ठ तिष्ठ क्षणं यावद्भवेत्सज्जो नराधिपः । श्रेणिकोऽयं महासत्त्वो निर्जिताखिलशात्रवः ॥ ३८ ॥ चतुरंगबलोपेतो महाधैर्यो महामतिः। सप्तांगराज्यपूर्णागस्तेजस्वी यशसां चयः॥ ३९ ॥ श्रुत्वा वचः कुमारोक्तं खगो विस्मितमानसः। अवादीत्तं समाधाय युक्तिपूर्व वचोखिलं ॥ ४० ॥ युक्तमुक्तं त्वया बाल क्षात्रधर्मोचितं हि यत् । परत्वेदमसंभावि युक्त्याभासनिबंधनं ॥४१॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविजयवर्णनम् ययोजनशतं दूरे तत्स्थानं तिष्ठतेऽधुना । तत्र गंतुं न शक्येत का कथा वीरकर्मणः ॥ ४२ ॥ अपि भूगोचरा यूयं ते भटा व्योमचारिणः । कथं साम्यं भवेद्योद्धुं युष्माकं सह तैरहो || ४३ ॥ यथार्थकः करस्फालैर्ग्रहीतुं जलसंस्थितं । प्रतीच्छतीन्दुर्विवं हि तथा युष्मत्प्रजल्पितम् ॥ ४४ ॥ अथवा (अथ ) हास्यास्पदं चैतदुद्धाहुर्वामनो यथा । प्रांशु वृक्षफलं भोक्तुं तथा स्याद्भवदुद्यमः ।। ४५ ।। यदि कश्विदविद्योपादारुह्येत् कनकाचलं (?) । तथेयं घटते नूनं युष्मदीया समुद्धतिः ॥ ४६ ॥ विना नावा पयोनाथं यथा कश्चित्तितीर्षति । रत्नचूलं तथा जेतुं युष्मदीयो मनोरथः ॥ ४७ ॥ दर्शितेत्यादिका भूमिर्दृष्टान्तानां सहस्रशः । तेन विद्याधरेणोच्चैर्यथात्मप्रतिभावलं ॥ ४८ ॥ मोघीकृताथ सर्वापि कुमारेण यशस्विना । वावदूकैर्यथा जल्पे प्रतिदृष्टान्तकोविदैः ।। ४९ ।। मा वद विद्यापते वाचमित्थमज्ञातपूर्विकां । ऋते केवलबोधाद्वा को वेच्यन्यो बलाबलं ।। ५० ॥ क्षणान्निरुत्तरो जातः खगो व्योमगतिस्तदा । मूकीभूत इवातस्थौ दर्शितुं तत्पराक्रमम् ॥ ५१ ॥ श्रेणिकस्तद्वचः श्रुत्वा साहंकारोऽभवन्नृपः । वीक्ष्येदं दुर्घटं कृत्यं किंचिदाकुलमानसः ।। ५२ ।। १२१ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जम्बूस्वामिचरिते भूयोभूयः परामृश्य खेदमाप धरापतिः। किंचित्कर्तुं न शक्येत दुर्घटे तत्र कर्मणि ॥ ५३ ॥ नापि तत्र गमस्तूर्ण न क्षमो दातुमुत्तरम् । युग्मकाष्ठाधिरूढं वा राज्ञो दोलायते मनः ॥ ५४॥ तदत्रावसरे धीरो जम्बूस्वामिकुमारकः । ऊचे साम्नैव सानंदं गंभीरतरया गिरा ॥ ५५ ॥ स्वामिन्नेतत्कियत्कार्य त्वत्प्रसादात् प्रसिद्धयति । आस्तां दूरे सहस्रांशुस्तदंशोऽपि तमोपहः ॥५६॥ कार्यस्य साधनायालं मादृशोऽपि भविष्यति । किं पुनयुष्मदीया सा सज्जिता सर्वतश्चमः ॥ ५७ ।। उक्तं जम्बूकुमारेण श्रुत्वानंदमवीविशत् । श्रेणिकः श्रद्दधाति स्म प्रोक्तं तत्त्वं सष्टिवत् ।। ५८॥ ततश्वोचे भराद्भद्रं सानंदो मगधाधिपः । एवं चेत्क्षात्रधर्मस्य मर्यादा स्यादविप्लुता ॥ ५९ ॥ आत्मजन्म पुनर्जातमिव मन्यामहे वयं । कन्यालाभः पदार्थेषु क्षत्रियेषु यशश्चयः ॥६॥ ज्ञात्वेमां च त्वया धीर फलानां हि परंपरां। गंतव्यं त्वरितं तत्र नाद्य श्रेयो विलंबनं ॥ ६१। आदेशितः कुमारोऽसौ नृपेनानंदशालिना। असहायबलश्चैको निर्भीको गंतुमुद्यतः ॥ ६२ ॥ अथोवाच खगाधीशं नाम्ना व्योमगति प्रति । जम्बूस्वामिकुमारोऽसावुत्सुको वीरकर्मणि ॥६३॥ १ नाशरहिता। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविजयवर्णनम् १२३ भो खगेन्द्र विमानेऽस्मिन्नात्मीये मां निवेशय । इतो नयस्व तत्राशु यत्रास्ते रत्नचूलकः ॥ ६४॥ श्रत्वा चित्रास्पदं वाक्यमिदमाह खगाधिपः। गतेनापि त्वया तत्र कर्त्तव्यं किमथार्भक ॥६५॥ तावद्धत्ते स्वसद्मस्थश्चापल्यं मृगशावकः । यावच्चाभिमुखं गर्जन् क्रुद्धो नायाति केशरी ॥६६॥ तावद्वपुः परं सौम्यं लसन्सौदर्यराजितं । यावदंष्ट्राकरालोऽसौ कृतांतो नातुमिच्छति ॥ ६७॥ तावत्तणगणाः सर्वे सन्त्वरण्येषु शाहलाः। यावन्न स्याज्ज्वलज्ज्वालः प्रचंडो दावपावकः ॥ ६८॥ तावदाडंबरं धत्ते सर्वोऽप्यभ्रगणोऽम्बरे । यावच्चंडानिलः कोऽपि न वायादतिदुर्द्धरः ॥ ६९ ॥ तावदायुः स्वमारोग्यं यशः संपद्धनं जयः। यावल्लेशो न पापस्य नोदेत्यत्र गरीयसः ॥ ७० ॥ ताबद्ब्रह्मव्रतं साक्षान्निर्मलं जैनधर्मवत् । यावद्योषित्कटाक्षाणां नापतैिर्जर्जरं मनः ॥ ७१ ॥ तावन्मूलगुणाः सर्वे संति श्रेयोविधायिनः । यावद्ध्वंसी न रोषाग्निर्भस्मसात्कुरुते क्षणात् ।। ७२ ॥ गौरवं तावदेवास्तु प्राणिनः कनकाद्रिवत् । यावन्न भाषते दैन्यादेहीति द्वौ दुरक्षरौ ॥ ७३॥ तद्वत्ते वल्गनं तावत्सुंदरं बाललालितः। रत्नचूलस्य बाणैस्त्वं यावन्नो जर्जरीकृतः ॥ ७४ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जम्बूस्वामिचरिते इति कोपपरं वाक्यं शृण्वन् भूयो जगाद सः । अंतःसंधुक्षितो वह्निर्यथाग्रे प्रज्वलिष्यति ।। ७५ ।। भो भो व्योमगते प्राज्ञ यावदे (दि) त्थं कदाचन । यत्करिष्यामि बालोऽहं तत्त्वं द्रक्ष्यसि सांप्रतं ॥ ७६ ॥ कुर्वेति न वदत्येव कुर्वेति च वदंति च । क्रमादुत्तममध्यास्तेऽधमोऽकुर्वन् वदन्नपि ।। ७७ ।। सूक्तमुक्तं कुमारेण श्रुत्वेदं मगधाधिपः । अवोचत्प्रति विद्येशं ज्ञाततत्पौरुषस्तदा ।। ७८ ॥ यदुक्तं भवता व्योमचारिन्नत्र समक्षतः । एकाकी तत्र नीतोऽपि बालोऽयं किं करिष्यति ।। ७९ ।। स ते पक्षः सपक्षोऽपि प्रतिपक्षैर्दूषितोऽखिलः । मृगेन ना (न) हतः सिंहो हतश्चाष्टापदेन सः ॥ ८० ॥ हृतं येन जगत्सर्वं हतः सोऽपि जिनैर्यमः । जलदेनोपशमं नीतो प्रचंडो दवपावकः ॥ ८१ ॥ वायुः प्रचालयत्यभं न गिरीन्द्रं महोन्नतं । मिथ्याज्ञाने भवेदेवं रजन्यां चांधकारवत् ।। ८२ ॥ न च स्वात्मपरिज्ञाने यथा सूर्योदये तमः । अथ योषित्कटाक्षैश्च हता मन्मथशालिनः ॥ ८३ ॥ यो न क्रोधाग्निना दग्धः सर्वः कर्मोदयावृतः । कैश्वित्क्रोधानलः सोऽपि नीतः शांति क्षमांसा ॥ ८४ ॥ दीक्षामादाय तीर्थेशः सर्वसत्वहितंकरां । भिक्षया भुंजमानोऽपि पूज्यः स्यात्सुरनायकैः ॥ ८५ ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविजयवर्णनम् अथैकोऽप्यंबरस्थायी प्रकृतस्तेजसां चयः। तमस्तोमं विधुन्वानो नोदेति किमु भानुमान् ॥ ८६ ॥ मुक्तं च वृद्धवाक्येषु यत्परीक्षाक्षम वचः । यः कार्यसाधनायालमेकोऽपि च लक्षायते ॥ ८७ ।। इत्यादिकां वचोमालां रचितां श्रेणिकेन । धारयामास वा मूर्ध्नि सादरात्तत्र व्योमगः ॥ ८८ ॥ आज्ञया स्थापयामास खगो दिव्ये विमानके। जम्बूस्वामिकुमारं तमनौपम्यबलान्वितं ।। ८९ ।। व्योममागों तदा यानं गच्छति स्म त्वरान्वितं । शीघ्रमापेप्सितं स्थानं यथा वेगात्मनो जवः ॥ ९ ॥ अथार्नु तं स भूपोऽपि प्रतस्थे श्रेणिकस्तदा । चतुरंगवलोपेतः सार्ध सर्वैर्भटोद्भटैः ॥९१ ॥ भेर्यः प्रस्थानशंसिन्यो नेदुरामंद्रनिःस्वनाः । अकालस्तनिताशंकामातन्वानाः शिखंडिनां ।। ९२ ॥ चलतां रथचक्राणां चीत्कारैर्हयहषितैः । बृंहितैश्च गजेन्द्राणां शब्दाद्वैतं तदाभवत् ॥ ९३ ॥ षडंगबलसामग्या संपन्नः पार्थिवरमा । प्रतस्थे श्रेणिको भूपो रत्नचूलजिगीषया ।। ९४ ॥ महान् गजघटाबंधो रेजे स जयकेतनः । गिरीणामिव संघातः संचारी सहयातिभिः ॥९५ ॥ इच्योतन्मदजलासारसिक्तभूभिमदद्विपैः । प्रतस्थे रुद्धदिक्चक्रः शैलैरिव सनिझरैः ॥९६॥ १ पश्चात् । २ सह । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जम्बूस्वामिचरिते जयस्तंवेरमा रेजुस्तुंगाः श्रृंगारितांगकाः । सांद्रसांध्यात पात्रांताश्चलंत इव भूधराः ॥ ९७ ॥ चमूमतंगजा रेजुः सज्जाः सज्जयकेतनाः । कुलशैला इवायाताः प्रभोः स्ववलदर्शने ।। ९८ ।। गजस्कंधगता रेजुर्दुर्गता विवृतांकुशाः । प्रदीपोद्भटनेपथ्या दर्पाः संदीपिता इव ।। ९९ ॥ कौक्षेय कैर्निशातोग्रधाराग्रैः सादिनौ बभ्रुः । मूर्तीभूय भुजोपाग्रलग्नैर्वा स्वैः पराक्रमैः ॥ १०० ॥ धन्विनः सुरनाराचसंभृतेषुध्यो वभुः । वनक्ष्माया महाशाखाकोटरस्थैरिवाहिभिः ।। १०१ ॥ रथिनो रथकव्यासु संभृतोचितहेतयः । संग्रामवार्धितरणे प्रस्थिता नाविका इव ।। १०२ ॥ भटा हस्त्युरसं भेजुः सशिरस्रतनुत्रकाः । समुत्खातनिशातासिपाणयः पदरक्षणैः ॥ १०३ ॥ प्रस्फुरत् स्फुरदस्त्रौघा भटाः संदर्शिताः परे । औत्पातिका इवानीला सोल्का मेघाः समुत्थिता ॥ १०४ ॥ करवालं करालाग्रं करे कृत्वाऽभयोऽपरः । पश्यन् मुखरसं तस्मिन् स्वसौंदर्य परिजज्ञिवान् ।। १०५ ।। कराग्रं विधृतं खङ्गं तुलयत्कोऽप्यभाद्भटः । प्रमिमित्सुरिवानेन स्वामीसत्कारगौरवं ।। १०६ ॥ महामुकुटवद्धानां साधनानि प्रतस्थिरे । पादातिहास्तिकाश्वीयरथकट्यापरिच्छिदैः ॥ १०७ ॥ १ जयहस्ती । २ खन्नै । ३ अश्वारूढाः । ४ तूणीराः । ५ शस्त्राणि । ६ शिरस्वायते इति शिरस्त्रम्; तनुत्रकाः कवचाः । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविजयवर्णनम् १२७ बभुर्मुकुटबद्धास्ते रत्नांशूदग्रमौलयः । सलील लोकपालानामंशा भुवमिवागताः ।।१०८॥ परिचच नैरंतये पार्थिवाः पृथिवीश्वरं । दुरात्स्वबलसामग्री दर्शयंतो यथायथम् ॥१०९॥ भूरेणवस्तदाश्वीयखुरोद्भूताः खलंधिनः। क्षणविनितसंप्रेक्षा प्रचलत्कुमरांगणाः ॥११० ॥ समुद्भटरसपायर्भटालार्महीश्वराः। प्रयाणका धृति प्रापुर्जनजल्पैरपीदृशैः॥१११ ॥ विरूपकमिदं युद्धमारब्धं मगधेशिना । ऐश्वर्यमददुर्वाराः स्वैरिणः प्रभवो यथा ॥११२ ॥ पुरः पादातमश्वीयं रथकव्याद्यहास्तिकं । क्रमानिरीयुरावेष्टय सपताकं रथं प्रभोः ॥११३॥ शनैः शनैर्जनैर्मुक्ता विरेजुः पुरथियः । कल्लोलैरिव वेलोत्थैर्महाब्धेस्तीरभूमयः ॥ ११४ ।। पुरांगनाभिरुन्मुक्ताः सुमनोऽञ्जलयोऽपतन् । सौधवातायनस्थायिदृष्टिपातैः समं प्रभोः ॥ ११५ ॥ पुरो बहिः पुरो पश्चात्समं च विधिनाधुना ॥ ददृशे दृष्टिपर्यंतमसंख्यमिव तद्भलम् ॥ ११६॥ किमिदं प्रलयक्षोभाक्षुभिंतं वारिधेर्जलं । किमुत त्रिजगत्सर्गः प्रत्ययो विभते ॥ ११७॥ कचिल्लतागृहांतस्थचंद्रकांतिशिलाश्रितान् । स्वयशोगानसंसक्तान् किन्नरान् प्रभुरेक्षत ॥ ११८॥ १ आच्छादितनेत्राः। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जम्बूस्वामिचरिते क्वचिल्लताप्रसूनेषु विलीनमधुपावली । विलोक्य स्रस्तकेशीनां सस्मार प्रिययोषितां ॥ ११९ ।। यच्छायात्सफलांस्तुंगान् सर्वसंभोग्यसंपदः। मार्गदुमान् समद्राक्षीत्स नृपाननुकुर्वतः ॥ १२० ॥ सरस्तीरभुवोऽपश्यत् सरोजरजसा तताः। सुवर्णकुट्टिमाशंका मधुःसुहृदि तन्वतीः (2)॥१२१॥ बलरेणुभिरारब्धे दोषा मन्ये नभस्यसो । करुणां रुदंती वीक्ष्य चक्रे चक्राहकामिनीं ॥ १२२ ।। गवांगणानथापश्यद्गोष्पदारण्यचारिणः । क्षीरमेघानियाजस्रं क्षरत्क्षीरप्लुतांकितान् ॥ १२३ ॥ सौरभेयान् सशृंगाग्रसमुत्खातस्थलांबुजान् । मृणालानि यशांसीव किरणान्पश्य दुर्मदान् ॥ १२४ ॥ वात्सकं क्षीरसंतोषादिव निर्मलविग्रहम् । सोऽपश्यच्चापलस्येव परां कोटिं कृतोत्प्लुतां ॥१२५॥ वांते भुवमाघ्रातुमिवोत्पलमिवानतान् । सुपक्वकणिसाननं कलमक्षेत्रमैक्षत ॥ १२६ ॥ नौद्धत्यं फलयोगीति नृणां वक्तुमिवोचत । पश्यति स्म स भूपालो राजन्यकपरिवृतः ।। १२७ ॥ सावतंसितनीलाब्जाः कंजरेणुश्रितस्तनीः । इक्षुदंडभृतो पश्यत् स्थलीस्थो कुर्वतीः स्त्रियः ॥१२८ ॥ हारिगीतस्वनाकृष्टेष्टिता हंसमंडलैः । शालिगोप्यो दृशोरस्य मुदं तेनुर्वधूटिकाः॥ १२९ ।। १ सैन्यरजोभिः । २ वृषभान् । ३ फलेन योक्तुं शीलमस्यास्तीति तत्तथाभूतं । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविजयवर्णनम् १२९ सुगंधिमुखनिःश्वासाद्धमरैराकुलीकृताः। मनोऽस्य जहुः शालीनां पालिकाः कुलबालिकाः ।। १३०॥ मध्यस्थोऽपि तदा तीव्र तताप तरणिर्भुवं । ननं तीव्रप्रतापानां माध्यस्थ्यमपि तापकं ।। १३१॥ नृपांगनामुखाब्जानि धर्मबिंदुभिरावभुः। मुक्ताफलैद्रवीभूतेरिवालकविभूषणैः ॥ १३२ ॥ महाजवयुषो वक्त्रादुद्वमंत खुरानिव । महोरस्काः स्फुरत्योथा द्रुतं जग्मुर्महायाः॥ १३३ ॥ अभूतपूर्वमुद्भूतप्रतिध्वानबलध्वनिम् । श्रुत्वा बलवदुत्रेमुस्तियेची वनगोचराः ॥१३४॥ बलक्षोभादिभो निर्यलक्षोभावनांतरात । सुरेभः सुविभक्तांगः सुरेभ इच कर्षणः ।। १३५॥ प्रबोधनँभनादास्यं व्योददौ किल केशरी । न मेऽस्त्यंतर्भयं किंचित्पश्यतेऽतीव दर्शयन् ॥ १३६ ॥ सरभो रभसादृर्ध्वमुत्पत्योत्तानितः पतन् । ख स्व एव पदैः पृष्टैरभूनिर्मातृकौशलात् ॥ १३७ ॥ पाषाणे लिखितस्कंधो रुषिताताम्रितेक्षणः। खुरो खातावनिः सैन्येददृशे माहिषो विभीः॥ १३८ ॥ चमूरश्र (थर) वोद्भूतसाध्वसाः क्षुद्रका मृगाः। वित्रस्ता वेपमानांगा महारण्यं तुरा(?)श्रयन् ॥ १३९ ॥ वराहाररति मुक्त्वा वराहा मुक्तपल्वलाः । विनेशुर्विस्फुरथाश्चमूक्षोभादितोऽमुतः॥१४० ॥ १प्रससार । २ भययुक्ताः। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जम्बूस्वामिचरिते इति मत्वा वनस्येव प्राणाः प्रचलिता भृशम् । प्रत्यासत्तिं चिरादीयुः सैन्यक्षोभे प्रसेमुखि ॥ १४१॥ ततोऽपि दूरमुल्लंघ्य सोऽध्वगं पृतनावृतः। रेवासरित्तटे धीरो विश्राममकरोत्कृती ॥ १४२ ॥ ततस्तां च समुत्तीर्य प्रतस्थे केरलां प्रति। विशश्राम कियत्कालं नाम्ना कुरलभूधरे ॥१४३ ॥ पूजयामास भूमीशस्तत्र विंबं जिनेशिनः।। मुनीनपि महाभक्त्या ततः प्रस्थातुमुद्यतः ॥ १४४ ॥ कियद्रे ततो गत्वाऽतिष्ठच्छ्रीमगधाधिपः । अध्वश्रमापरोधाय सेनासामंतसंयुतः॥ १४५॥ अथ तावद्भुतं प्राप केरलां नगरी प्रति । जम्बूस्वामिकुमारोऽसौ नीतो विद्याधरेण यः॥१४६॥ किमिदं भो खगाधीश महाकोलाहलाकुलम् । साक्षात्कारी त्वमेवासि ब्रूहि नः संशयच्छिदे ॥ १४७॥ ततोऽवादीनभोगामी कुमारं प्रति प्रश्रयात् । सेयं सेना स्थिता बाल रत्नचूलस्य तद्विषः॥ १४८॥ यो मयाऽभाणि विद्याभूत् पूज्ये सर्वारिनाशकृत् ।। कन्यायाच्आमहामानभंगंमन्योऽस्ति रोषवान् ॥ १४९ ॥ उद्वासितस्तु येनायं देशः सर्वोऽपि कोपतः । मृगांको यद्भयाद्भीतो दुर्गमाश्रित्य तिष्ठति ॥ १५० ॥ अजय्यो निर्जिताशेषशात्रवोऽयं खगेश्वरः। विद्याधराधिनाथैस्तैः संसेव्यचरणांबुजः ॥१५१ ॥ १ सेना। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविजयवर्णनम् १३१ खगादेतद्वचः श्रुत्वा कुमारो ज्वलितोऽभवत् । यथा प्रज्वालितं तेलं जज्वाल जलयोगतः ॥ १५२ ॥ रक्ष रक्ष विमानं भो तावद्व्योमगते क्षणात् । यावता रत्नचूलस्य द्रक्ष्यामि बलमुद्धतम् ॥ १५३ ॥ ततो विमानमुत्सृज्य शत्रुसेनामवीविशत् । पश्यन्नितस्ततः सैन्यं कौतुकेन कुतूहली ।। १५४ ॥ दर्श दर्श कुमारं तं सुंदरं मारसंनिभम् । जजल्पुश्चकितं किंचिन् मिथस्तत्सैनिका भटाः॥ १५५ ।। अहो देवाधिनाथोऽयमायातो लीलया स्वतः । दानवोऽप्यहिनाथो वा कामदेवोऽथवागतः ॥१५६॥ द्रष्टुं वा सैन्यमस्माकमाजगाम शचीपतिः । अथ कश्चिन्महाभागो लक्ष्मीवान् किं वणिक्पतिः॥१५७॥ सेवितुं रत्नचूलस्य पदद्वंद्वं खगोऽथवा । साध्वसात्परचक्रस्य सत्सहायधिया किमु ॥१५८॥ अथ कश्चिन्महीपालो दंडं दातुमिवागतः ।, जीवनस्य कृते व्याजादाधातुं स्नेहमुत्तमम् ॥ १५९ ॥ अथ कश्चिच्छलान्वेषी धूर्ती वेषधरो नरः। वावदूकश्च वाचालः पाटवाञ्चित्तरंजकः ॥ १६०॥ एवं तत्सैन्यलोकेषु नानावाक्यं वदत्स्वपि । जम्बूस्वामिकुमारोऽसौ गतस्तद्वारितः क्षणात् ॥ १६१ ॥ अथोवाचत्स निर्भीको रे रे द्वाःपालकाहय । संदिष्टं मम नीत्वाशु खगस्याग्रे निवेदय ॥ १६२॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जम्बूस्वामिचरिते अहं दूतो मृगांकन पाठयित्वाथ प्रेषितः। तत्सर्व वक्तुमिच्छामि तत्त्वं साम्यकरं वचः॥१६३ ।। श्रुत्वा दंडधरो द्वाःस्थस्तस्यास्थाने गतो जवात् । प्रभुं नत्वोत्तमांगेन प्रावोचत्स विचक्षणः ॥ १६४ ॥ देव कश्चिन्नरो वाग्मी त्ववारि स्थितवानिह । वक्तुमिच्छति साम्नैव युष्मत्संदर्शनोत्सुकः ॥ १६५ ।। श्रुत्वा रत्नशिखश्चापि तद्वचः श्रुतिपेशलं । मंच प्रवेशय खे (१) नमित्यूचे मत्सरी खगः।। १६६ ।। आज्ञामादाय द्वाःस्थेन तत्समीपे प्रवेशितः। जंबूस्वामिकुमाराख्यो ज्वलत्कांत्या वपुच्छविः ॥ १६७ ॥ प्रविष्टः स दिदीपे वा तिग्मांशुरिव भूतले । सर्व तेजः खगेशानां तिरस्कुर्वन् स्वकांतिभिः॥१६८॥ दृष्ट्वा तं रत्नचूलोऽथ क्षणं विस्मयमाप सः। कथं संभावि दूतत्वमस्य कांतिमतः स्वतः॥ १६९ ॥ यत्किंचिदुचितं चात्र नमस्कारक्रियादिकम् । न कृतं चाटु वाक्यं वा स्थीयते तेन स्तंभवत् ।। १७० ॥ नूनं कश्चिदपूर्वोऽयं देवो वा मानवोऽथवा । परीक्षां कर्तुमायातो मदलस्यापि गौरवात् ।। १७१ ॥ चिंतयन्निति पप्रच्छ रत्नचूलः कुमारकम् । आगतस्त्वं कुतो देशाकिमर्थ मम सन्निधौ ।। १७२ ॥ श्रुत्वाऽवोचत्कुमारश्च रत्नचूलं वगं प्रति । नीतिमार्ग समाश्रित्य त्वां विबोधयितुं जवात् ॥१७३॥ १ शीघ्र। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविजयवर्णनम् त्वं जहीहि दुराग्राहमिहामुत्र च दुःखदम् । अयशस्करं खगाधीश महादुर्गतिकारणं ॥ १७४ ॥ संति योषित्सहस्राणि सुलभानि पदे पदे। तवानयैव किं साध्यं नेति विद्मोऽधुना वयं ॥ १७५ ।।। अथ चेदलसामर्थ्यान्मात्सर्य वहसि ध्रुवं । इदमज्ञविलासोत्थं दृश्यतेऽद्वैतवादवत् ।। १७६ ॥ यतश्चास्मिन् भवावर्ते जंतवः कर्मशालिनः । विद्यते बहवोऽजस्रं पर्यटति यथायथम् ॥ १७७ ॥ कर्म नानाविधं तच विचित्ररसपाकतः। तत्स्वरूपमजानाना जीवा दुर्दृष्टयः स्मृताः ॥ १७८ ॥ उक्तं च" अलंध्यशक्तिर्भवितव्यताया हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिंगा । अनीश्वरोजंतुरहं क्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः"॥१॥ "बिभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो नित्यं शिवं वांछति नास्य लाभः। तथापि बालो भयकामवश्यो वृथा स्वयं तप्यत इत्यवादीः"॥२॥ अलं मल्लोऽपि मल्लाय तस्मै चापल्यमन्यकः। तस्माचपलमन्योऽस्ति संसारस्येशी स्थितिः॥ १७९ ॥ न कोऽपि विजयीभूत्वा निष्प्रत्यूहविजूंभितः । संसृतावत्र जीवानां प्रत्यक्ष यमभक्षणात् ।। १८० ।। रत्नचूल खगाधीश सद्विचारपरो भव। बलिनोऽप्युत्पथारूढाः क्षणान्नष्टाः प्रमादिनः॥१८१ ॥ १ समंतभद्रविरचिते बृहत्स्वयंभूस्तोत्रे । २ संसारे । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जम्बूस्वामिचरिते यथा दर्पलवावेशाच्छ्रयंते रावणादयः । भूत्वा चात्रायशः पात्रो मृत्वा वा दुर्गतिं ययुः ॥ १८२ ॥ इयं कन्या ददावादौ श्रेणिकाय महीभृते । भवतेऽय कथं दातुं सोऽचिता दुर्यशोभयात् ॥ १८३ ॥ न वायं क्षात्रधर्मोऽस्ति संगराद्यत्पलायनम् । जीवनस्य कृते धीमान् कः पिवेदुर्यशोविषम् ॥ १८४ ॥ तत्प्रसीद खगाधीश ममादं मा विधेहि भो । गर्हितं तदिदं वाक्यं वक्तव्यं न त्वया कचित् ॥। १८५ ।। इति सूक्तिवचः पुष्पैर्गुफितां चातिशीतलाम् । मालामुष्णतरों मेने विरहीव खगस्तदा ।। १८६ ॥ ततस्ताम्रेक्षणः क्षोभात्किचित्प्रस्फुरिताधरः । ज्वलत्क्रोधानलज्वालां खगो वाचमुदीरयत् ॥ १८७ ।। दूतमन्योऽसि रे बाल यस्त्वमभ्यागतो गृहे । अवध्योऽसि ततो नान्या गतिस्त्वादृक शठस्य वै ।। १८८ ।। प्रस्तावेऽनुचितं वाक्यं विरुद्धं वैरवर्धनम् । वदन्न लज्जसे दूत स्वामिकार्यविनाशकृत् ॥ १८९ ॥ वाच्यावाच्यं न वेत्सि त्वं न वेत्सि च बलाबलम् । केवलं वावदूकोऽसि धाष्टर्ये (वै.) नाटयभिव ॥ १९० ॥ भानुमुद्वासितुं नालं यथा धृष्टोऽपि कौशिकः । वाचालत्वं तथा दूत नालं वक्तुमिदं वचः ॥ १९१ ॥ जीरकः किमु हेमाद्रिं भेत्तुमुत्सहते शठः । मृगांकः श्रेणिको नालं मामाराधयितुं युधि । १९२ ॥ १ दूतसदृशः । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविजयवर्णनम् १३५ वयं विद्याधरा दूत श्रेणिको भूमिगोचरः। आवयोर्बलसामर्थ्य तुल्यता न कदाचन ॥१९३॥ आलकोलाहलेनालं तवं वाचंयमी भव । मया सार्ध युधित्सुर्यः स सर्वोऽप्यायातु वेगतः ॥ १९४ ॥ इत्युक्त्वा रत्नचूलः स स्थितो निभृतमानसः। समुद्र इव गंभीरो निस्तरंगोऽप्यनाकुलः ॥ १९५ ॥ अथ निर्घोषवद्वाक्यमूचे जम्बृकुमारकः । वज्रसंहननोपेतश्चंडो दोदेडविक्रमः॥ १९६ ॥ रत्नचूल खगाधीश यत्त्वयोक्तं समत्सरात् । . दोभावमहं मन्ये तत्सर्व हेतुबाधितम् ॥ १९७ ॥ यद्दशास्योऽपि विद्याभृद्धतो भूगोचरेण सः। राघवेण बलादेव युद्धता सह सैन्यकैः ।। १९८॥ वायसस्यापि विद्येत वियद्गामित्वमंजसा । सोऽपि जरितो बाणेदृष्टो भूमौ पतनिह ।। १९९ ॥ आकयेदं वचस्तस्य जातकोपेन तेन वै। प्रेरितास्तद्विघातार्थमुत्खातासिलता भटाः ॥ २०॥ ततस्तैहतुमारब्धो जम्बूस्वामी बलान्वितः । मूढेरज्ञाततद्वीजैः शस्त्रैः कुंतादिभिः शितैः ।। २०१॥ यावद्धंतुं कृतोद्योगा भटाश्चाष्टसहस्रकाः। दोभ्या॑मूर्द्ध कुमारेण नीतास्ते यममंदिरम् ।। २०२॥ ततःप्रभृति युद्धस्य प्रारंभः स्यान्महत्तरः। एकतोऽयं कुमारः स्यात्परतो भटकोटयः॥ २०३ ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते कियत्कालं कुमारेण योद्धारो बलशालिनः। आतिथ्यं यमगेहस्य नीता दोर्दडविक्रमैः ॥ २०४ ॥ पौरुषं चेकिमत्रास्त्रैराहोखिद्भारकारकैः। अथ चेन्न किमप्यस्वैर्मृतस्याभरणैरिव ॥ २०५ ॥ अथ व्योमगतित्विा द्वौ मिथो योदुमुद्यतो। कुमारस्यार्पयामास कृपाणं निशितं स्वतः ॥२०६ ॥ अथावोचत्कुमारं स नान्नाकाशगतिस्तदा । अधिरुह्य विमानं मे घातयारिकुलं महत् ।। २०७॥ श्रुतं तेन कुमारेण वाचा शस्त्रेण खंडितम् । न स्थितं श्रुतिरंध्रस्य वाक्यं चापि खगोदितम् ॥ २०८ ।। मुहृदत्र स्थितेनापि किं किल प्राणरक्षया । भटानामाहवे नूनमस्ति चेत्तृणवद्वपुः॥२०९ ॥ उक्तं हि"ब्रह्मचारी(?) तृणं नारी शूरस्य मरणं तृणम् । दातुश्चापि तृणं लक्ष्मी निस्पृहस्य तृणं जगत् " ॥ २१० ॥ दिदीपेऽतितरां तस्य हस्ते खड्गलता तदा। दारितारिपलेर्लिप्ता यमजिहेव जित्वरी ॥ २११ ॥ यत्र कुर्यात्महारं स खड्गपाणिः कुमारकः । तत्रारिमस्तकस्तोमो न्यपतद्भुवि वेगतः ॥ २१२ ॥ असिकुंतशराघातं कुर्वन्तोऽनुकुमारकम् । सर्वे निरर्थका जाता रत्नचूलस्य सैनिकाः ।। २१३ ॥ १ युद्धे । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविजयवर्णनम् वज्रकायस्य तस्यात्र रोमांशोऽपि न भिद्यते । निर्जितस्मरसैन्येषु किमपांगपातैरपि ॥ २१४ ॥ युद्धं कुर्वति तत्रास्मिन् सावधानतयाहवे । स्थातुं तत्पुरतः कोऽपि न शशाक भटोत्तमः ॥ २१५ ॥ यथा तिग्मकरको हंति संतमसं जवात् । सप्रतापस्तथा सोऽपि जघान रिपुसंहतिम् ॥ २१६ ॥ अथात्रावसरे दैवात्केनचित्तत्र चारिणा । १३७ ।। मृगांकस्य चरेणशु गत्वा तत्र निवेदितम् ॥ २१७ ॥ देव कश्चित्समायातो भवत्पुण्यविपाकतः । शत्रुसैन्यमहारण्ये ज्वलद्दावानलोपमः || २१८ || अधुना युद्धं करोत्येष निभृतं संयति स्थितः । हंत सूनस्ति (स्तनति) नारीणां दुर्जयोऽवध्यविग्रहः ॥ २१९ ॥ स बंधुस्तावकीयोऽथ मित्रो वा पूर्वजन्मनः । अलमुपमाशतेनापि त्वद्वृषो(१) मूर्तिमानिव ॥ २२० ॥ अथवा श्रेणिकस्यायं कश्विद्वीराग्रणीर्भटः । तस्यादेशवशादत्र योद्धुं वीरैः समागमत् ।। २२१ ।। वचस्युक्ते चरेणेत्थं कर्णगोचरतां गते । रोमा॑चितो मृगांकोऽभूदमृतैरिव सिञ्चितः ॥ २२२ ॥ ततस्तूर्ण स सज्जोऽभूद्गर्जइंतिदलैः समम् । पादाताश्वरथव्रातैर्युद्धोद्धतैः खगैरपि ।। २२३ ।। नेदुः संग्रामभेर्यश्च शासनान्मृगलक्ष्मणः । कृते युद्धस्य तत्सैन्यं निर्जगाम पुराद्बहिः || २२४ ॥ १ गुप्तचरेण । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जम्बूस्वामिचरिते ततो दुंदुभिनिर्योपै रत्नचूलोऽप्यनिद्रितः । ज्वलितः क्रोधाग्निना योद्धं कृतांतः कोपितः किमु । अथ द्वाभ्यां च सेनाभ्यामारब्धं युद्धमुल्वणम् । हाहाकारकरं रौद्रं कृतभीषणनिःस्वनम् ॥ २२६ ॥ दंतिनो दंतिभिः सार्धमश्वैरश्वा रथै रथाः । यथाखं युयुधः सर्वे खगाश्चापि खगैः समम् ॥ २२७ ।। यावान्सर्वोऽपि संग्रामो यादृग्जातस्तदानयोः । आस्तां तद्वर्णनं तावन्नाप्युद्देष्टुं क्षमा वयम् ।। २२८ ॥ केचित्तितीर्षवो यत्र गलच्छोणितवारिधिः । हृदयोद्भेदसंभिन्ना नाचकर्ष रिपून वहन् ।। २२९ ॥ यत्रोत्थिते खुरोत्खातादंबरे रजसि स्थिते । धनुष्टंकारनादेन ज्ञातः प्रतिभटैर्भटः ।। २३०॥ सैनिकावखुरोक्षुण्णधूलीभिश्च्छादितेऽम्बरे। दिन रात्रीयते स्माथ गगनं वसुधायते ॥ २३१ ॥ ज्ञायते स्म भटो यत्र मिथस्तन्नामदेशनात् । रथो रथांगचीत्कारैर्घटाटंकारितैर्गजः ॥ २३२ ।। कचिद्गजानां चीत्कारो हुंकारोऽथ धनुष्मताम् । भटप्रचारे रेकारशब्दः पावर्तते कचित् ।। २३३ ॥ कश्चिद्भटैः परभटा भग्ना निर्जित्य संगरे । गजैर्गजा रथैर्भग्ना रथाः पद्वैश्च पत्तयः ॥ २३४ ॥ १ पदैर्गच्छति इति पगः । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविजयवर्णनम् सैन्यकैः परमूराणां मुखं भग्न शितैः शरैः। ततः कृपाणैः कुंतेश्च मुद्गरैरथ पट्टिशैः ।। २३५ ॥ केचिच्छिन्नाः परे भिन्ना नेशु वार्थिनः परे । कटमर्दहताः केचिदंगैः केऽपि कर्थिताः॥२३६ ॥ यत्राच्छन्ने नभोमार्गे बाणवातैरितोऽमुतः। खड्गविद्युच्चमत्कारैर्दुर्दिनं ज्ञायते भटैः ।। २३७॥ अलं वर्णनया चास्य जातश्चैकार्णवो महान् । स्वीयोऽयं परकीयोऽयं भेदः कर्तुं न शक्यते ॥ २३८ ॥ केचिदंत्राणि संवीक्ष्य निर्गतान्युदरादगुः। मृ भूमिलुठत्केशा भटा दुष्कृतपाकतः ॥ २३९ ।। कश्चित्केशान् समाकृष्य लुलावारिशिरस्तदा। मारयामीत्यमु शत्रु मत्वा धावति कश्चन ॥ २४ ॥ युद्धं चक्रुः कबंधानि भीषणे यत्र संगरे। का कथा सशिरस्त्राणां तनुत्रैरपि संयुषाम् ।। २४१॥ वायुमार्गेऽथ कुर्वतो युद्धमुद्धतमुल्बणम् । कुमाररत्नचूलौ द्वौ ददर्श मृगलांछनः ।। २४२ ॥ लीलया तच्छरासारं चिच्छेद निजसायकैः । अर्धचन्द्रमुखैर्जम्बूस्वामी तत्केतनं पुनः ।। २४३ ॥ रत्नचूलस्य यद्यानं विमानं हतवान् रणे । अधिरोहुँ समीहेत यावद् भूमिगतः खगः ॥ २४४ ।। १ पटिशो लोहदंडो यस्तीक्ष्णधारः क्षुरोपमः । इति वैजयन्ती । २ पलायनं चक्रुः । ३ अपमूर्ध नर्तनक्रियायुक्तं यत्कलेवरं तत् कबन्धम् । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते तावन्मुद्गरघातेन शिरस्येनमताडयत् । जम्बूस्वामी महाबाहुः पिनद्धः समरांगणे ॥ २४५ ॥ वज्रसंहननोपेतो दुर्जयो वीरकर्मणि अथापृच्छन्मृगांकः स हास्तिपं स्वीयमादरात्। २४६ ॥ कोऽयमापतितो भूमौ वेगात्केन पराजितः । 1 | अब्रवीत्सस्मितः सोऽयं न त्वं वेत्सि कथं प्रभो ॥ २४७ ॥ विद्याधीशो भवद्वेष्यो रत्नचूलोऽयमात्महा । जम्बूस्वामिकुमारेण वाणैर्जर्जरितो भृशम् । विमानामिमानीतो बद्धः स्वभुजपंजरे ॥ २४८ ॥ गाढं स निगृहीतस्तु दौर्मनस्यं गतो भृशम् । बद्धेऽस्मिन् सैनिकास्तस्य नेशुः सर्वे दिशोदिशम् ।। २४९ ।। ततस्ते त्वद्भटै रुद्धा आनीताः स्वामिनोऽन्तिके । सर्वे गलितमानाश्रास्तस्थुरेत्य हतौजसः ॥ २५० ॥ तुष्टो मृगांकविद्याभृच्चक्रे जयजयारवम् । सर्वे विद्याधरास्तत्र शंसुर्जकुमारकम् ॥ २५९ ॥ धन्योऽसि त्वं महाप्राज्ञ रूपनिर्जितमन्मथ । क्षात्रधर्मस्य चौन्नत्यमद्य जातं त्वया कृतम् ॥ २५२ ॥ नेदुरानंदतूर्याणि गर्जितानीव वारिधेः । मृदंगपटहादीनि सैन्ये केरलभूपतेः ॥ २५३ ॥ बंदिवृंदजयारावं चक्रुरानंदशालिनः । वर्णयंतो महावीर्ये कुमारस्य जयावहम् ।। २५४ ।। १ परिहितकञ्चुकादिः । १४० Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविजयवर्णनम् १४१ व्योमगतिश्च सानंदात्कारयामास तत्क्षणे । प्रीतिवर्धनमत्यंतं जंबूस्वामिमृगांकयोः ॥ २५५ ॥ जयो लब्धः कुमारेण जानुलंवितबाहुना । सहस्राष्टमितान् हत्वा लीलया खचराधिपान् ॥ २५६ ॥ एक एव सदा सेव्यो धर्मो सौख्यमभीप्सुभिः। यद्विपाकात्कुमारेण जयश्रीः किंकरीकृता ॥ २५७ ॥ इति श्रीजम्बूस्वामिचरित्रे भगवच्छ्रीपश्चिमतीर्थकरोपदेशानुसरितस्याद्वादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारदपण्डितराजमल्लविरचिते साधुपासात्मजसाधुटोडरसमभ्यर्थिते निर्जितरत्नचूलविद्याधरप्रतिबद्धलब्धजम्बूस्वामिविजयवर्णनं नाम सप्तमः सर्गः ॥८॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथाष्टमः सर्गः विजयस्वेति सद्वाक्यं पठितं स्वपुरोधा । मालामिव विधेहि त्वं मूर्ध्नि श्रीसाधुटोडरः ॥१॥ इत्याशीर्वादः। विमलं विमलज्ञानं संस्तुवे चिमलाशयः। छन्दोभंगः अनंतं चानंतवीर्याढ्यं (नान्तवीर्याव्य) वंदेऽनंतगुणाप्तये अथापश्यत्कुमारः स बीभत्सामाहवावनिम् । भावयामास कारुण्यादनित्यां संसृतिस्थितिम् ॥२॥ अहो चेद्वह्निसंयोगादुष्णीभूतं जलं कचित् । तत्कि द्रव्यं गुणापेक्ष शीतलं न स्वभावतः ॥३॥ उच्छिष्टां ज्ञानवद्भिश्च धिगिमा संसृतिस्थितिम् । अमी दुर्बोधमानांधा मृत्वा वा दुर्गतिं ययुः॥ ४ ॥ हृषीकविषयासक्ताः केवलं मृतिमगुस्ततः। स्वयमेत्य पतंगश्च यथागाद्वहिरोचिपि ॥ ५ ॥ अहो कथंचित्संप्राप्त....काश्चापि न शांत....। (प्रत्यु) त तृष्णावृद्धये ते जायन्ते विषयाः स्वतः॥६॥ आपाके कटुकं यस्य किंपाकस्य तरोः फलम् । त................स्वादु बीजं भवितुमर्हति ॥ ७॥ अथ चेद्विषयातनां संप्राप्ता च सुखं स्वतः । न्यायात्कथं कृ............श्रेयस्कराः स्मृताः॥८॥ १ पुरोहितेन । २ युद्धभूमि । १ इन्द्रियाणि । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिश्रेणिकमहाराजराजगृहप्रवेशवर्णनम् १४३ mwwwwwwwwwwwww इदमत्रोचितं किंचिद्यत्तज्ज्ञातं निसर्गतः। आदानसदृशं काये............दुःखवत् ॥९॥ परं किंतु महच्चित्रं यदमी ज्ञानशालिनः। केचित्तानपि सेवते परलोकजि........॥१०॥ अहो कोपि ग्रहो मोहो दुस्त्याज्यो महतामपि । यस्यानुभावतो जंतुरात्मीयं मनुते परम् ॥ ११ ॥ (मृगा) मरीचिकां पातुं धावत्याशु जलाशया । तथा तथा समज्ञानादीहेत विषयात्सुखम् ॥ १२ ॥ यथा पश्य........कं कंबुकं काचकामली । तथायं विषयात्सौख्यं मिथ्यांधतमसा ततेः॥१३॥ यथा वा वह्निशांत्यर्थमिंधनं क्षिपति द्रुतम् । तथा तृष्णोपशांत्यर्थमज्ञः स्याद्विषयोन्मुखः ॥१४॥ अथवालमलं तेन पाटवेन वृथार्थतः ।। कुर्वतापि परादेशं निघ्नता खात्मनो हितम् ।। १५ ।। दृष्ट्वापि पतता गर्ने वृथा किं तेन चक्षुषा । गृह्णता विषयादींश्च तरिक ज्ञानेन मादृशाम् ॥ १६॥ जानतापि मयाकारि हिंसाकर्म महत्तरम् । तत्केवलं प्रमादाद्वा यद्वेच्छता यशश्चयम् ॥ १८ ॥ प्राणान्तेऽपि न हंतव्यः प्राणी कश्चिदिति श्रुतिः। मया चाष्टसहस्रास्ते हता निर्दयचेतसा ॥ १९ ॥ आफलोदयमेवैतत्कृतं कर्म शुभाशुभम् । शक्यते नान्यथा कर्तुमातीर्थाधिपतीनपि ॥ २० ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जम्बूस्वामिचरिते यत्स्फाटिको मणिः खच्छः स्वभावादिति भावतः । सोऽप्युपाधिवलादेव रक्तपीतादिकां व्रजेत् ॥ २१ ।। तथायं चित्स्वभावोऽपि जीवोऽतीन्द्रियसौख्यवान् । धत्ते मानादिनानात्वमुदयादिह कर्मणाम् ॥ २२ ॥ कुर्वन्नालोचनामित्थमास्ते यावत्कुमारकः। संसक्तस्तावदुच्चैस्तै रत्नचूलादिभिर्नृपः ।। २३ ॥ अहो द्रव्याश्रयत्वाच गुणा निर्गुणलक्षणाः। अस्त्यनिर्वचनीयोऽयं गुणवांश्च गुणस्त्वयि ॥ २४ ॥ यत्परे परसाहाय्याज्जयांशेऽपि मदोद्धताः । असहायबलत्वावं निर्विष्णो विजयीभवन् ॥ २५ ॥ विना च्यूतद्रुमं कोऽत्र फलितो याति नम्रताम् । ऋते भवादृशः सौम्य को विजित्य शमं व्रजेत् ।। २६॥ इत्यालापे मिथस्तेषां स्वामी रत्नशिखाद्विषाम् । ऊचे गगनगत्याख्यो खगश्चाकस्मिकं स्वतः ॥ २७ ॥ स्वामिन् जम्बूकुमार त्वं यावयुद्धेसि वीरहा। अनेनापि मृगांकन कृतं तावत्स्वपोरुपम् ॥ २८ ॥ तत्केन वर्णितुं स्वामिन् शक्यते त्वत्पुरोऽधुना। परं वीरपि श्लाघ्यं श्रुतमध्यक्षतो मया ॥ २९ ॥ श्रुत्वा तज्जातकोपः स रत्नचूलोऽवदत् क्रुधः। असहिष्णुरतिक्रांतो मिथ्यावादातिभारतः ॥ ३० ॥ न तत्पराजयान्नूनं दुःखमाप खगाधिपः। यन्मृषाहंकृतेस्तत्र मृगांकवलशंसनात् ॥ ३१ ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिश्रेणिकमहाराजराजगृहप्रवेशवर्णनम् १४५ उक्तञ्च"नागुणी गुणिनं वेत्ति गुणी गुणिषु मत्सरी । गुणी च गुणिरागी च विरलः कोऽप्यहो महान् ॥ ३२॥" अहो व्योमगते धीमन् वक्तव्यं न मृषा वचः। खपुष्पे रचितं बंध्यासुतशेखरसन्निभम् ॥ ३३॥ स्वामिजम्बूकुमारेण केवलं निर्जितो बलः। अजय्येऽपि मदीयोऽयं प्रचंडभुजविक्रमात ॥ ३४ ॥ नाभविष्यदयं वीरश्चैकः संग्रामसंकटे । यदकरिष्याम्यहं नूनं तद्रक्ष्यस्त्वमंजसा ॥ ३५॥ कृतं शस्त्रैरुदफ़ैश्च विद्याराधनसाधनैः। पदातयोऽप्यलं हंतुं त्वादृशो मामका अमी ॥ ३६ । बलवानबले सज्जो यथागादुपहास्यताम् । बलिनापि हतो दीनो विलक्षो न तथापरः॥ ३७॥ यथा वारिशिरश्च्छेदी सायको निहते शिवे । लाघवं पाप लग्नोऽपि मृतोऽपि न तथा शिवः ॥ ३८ ॥ गौरवं किंच चेदस्ति युष्मदादिषु सांप्रतम् । नष्टं न किंचिदद्यापि विद्यमानतयावयोः॥ ३९ ॥ तावत्तिष्ठेत्कुमारोऽसौ मध्यस्थः कौतुकी यथा । साक्षात्कारीव युष्माभियुद्धमद्य विधीयताम् ॥ ४०॥ वाक्यं रत्नशिखः भृण्वन् मुगांकरचुकुपे ध्रुवम् । मथितोऽपीन्धनस्तूर्ण सूते धमध्वजं न किम् ॥ ४१ ।। १ ग । २ आग्ने। १० Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते अस्त्वस्तु प्रमाणं यद्रत्नचूल त्वयोदितम् । हेनो (म्नः संल्ल) लक्ष्यते ह्यग्नो विशुद्धिः श्यामिकापि वा ।।४२॥ अधुनैव महायुद्धमावयोरुचितं पुनः। विलंब मा कांक्षी (कार्षीः) क्षोभारिपनद्धो भवसंगरे ॥४३॥ कातराणां विधिश्चैष स्वीकृतः सार्वसाक्षिकः। महतां हि प्रतिज्ञैव नियमो यावज्जीवनम् ॥ ४४ ॥ इति मिथो वाचसंदर्भात्स्यातां योद्धं समुद्यतौ । कुमारस्तु यथास्थाने तस्थौ वाचंयमीच सः॥ ४५ ॥ चिंतितं तत्कुमारेण किमत्र क्रियतेऽधुना । भूयायोयथाभाव्यं माध्यस्थ्यं मम सुंदरम् ॥ ४६॥ वारयामि मृगांक चेत्तद्वलस्यापि लाघवम् । स्याद्यतस्तद्विपक्षोऽस्मि विपक्षो रत्नचूलकः ।। ४७॥ रत्नचूले निषिद्धेऽस्मिन्नवश्यं स्यात्त (त्तु गौ)गौरवम् । स्वात्मोत्कर्ष हि पुष्णाति विज्ञत्याराधितो रिपुः॥४८॥ अथानम्य कुमारं तं मन्यमानो यथा गुरुम् । रत्नचूलमृगांको द्वौ संसज्जौ भवतो रणे ॥४९॥ नेदुः संग्रामभेर्यश्च सन्मुखं दलयोयोः । सन्नद्धास्ते भटाः सर्वे सावधाना रणे पुनः॥५०॥ पूर्ववत्तुमुलं युद्धं चक्रुर्भूयोऽपि सैनिकाः। दृष्ट्वा तं रौरवाकारं केचिन्मूछी गताः क्षणात् ॥ ५१ ॥ केचिद्धैर्य समालम्ब्य कुर्वति स्म महाहवम् । शितैः शस्त्रैरुदफ़ैश्च घातयंतोऽरिमंडलम् ॥ ५२॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिश्रेणिकमहाराजराजगृहप्रवेशवर्णनम् १४७ नांगैस्तत्र हता नागा अश्ववारैर्निषादिनः। असिकुंतशराघातैः पद्मैश्वापि पदातिकाः ॥ ५३ ॥ कारयामासतुर्युद्धं साहंकारौ परस्परम् । रत्नचूलमृगांको द्वाविव रावणराघवौ ।। ५४ ॥ शरासारैस्तदा युद्धं द्वाभ्यां कृतमिवोल्वणम् । न कोऽप्यत्र द्वयोमध्ये जितो वाथ पराजितः॥ ५५ ॥ तत्क्रुद्धो रत्नचूलोऽसौ मायाशुद्धमचीकरत् । माकस्तक्रियायोगे सावधानोऽभवत्तदा ॥ ५६ ॥ पांशुभिः सकलं सैन्यं स चक्रे व्याकुलं तदा । वायव्यास्त्रेण मृगांकोऽसौ शशाम क्षणतो रजः॥ ५७ ॥ अथ रत्नशिखेनोच्चैस्तदा वानलकीलया। प्रज्वालितं मृगांकस्य सैन्यं सर्व क्षणादपि ।। ५८ ॥ मृगांको जलवृष्टया तन्निर्वापयदितस्ततः । इत्यादि मुचिरं सोऽपि वैरिणा युयुधे भृशम् ।। ५९ ॥ नागपाशैस्ततो बवा मृगांकं बलवत्तरः । रत्नचूलः खगेशानो संतुष्टहृदयोऽभवत् ।। ६०॥ ततोऽसौ विजयीभूत्वा बद्वा तं दृढबंधनैः। कुशलं गंतुकामोऽपि वारितः खामिना भृशम् ।। ६१॥ रे रे मूढ क यासि त्वं नीत्वेनं मृगलांछनम् । मयि विद्यति भूपीठे को हि द्रष्टुमतिक्षमः ॥ २ ॥ कः क्षमः शेषमूर्द्धस्थमादातुं मणिमुत्तमम् । कालवक्त्रादिहात्मानं को वा त्रातुं समीहते ॥ ६३ ।। १ अर्चिषा। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जम्बूस्वामिचरिते पाणिना वा महामेरुं कचालयितुमिच्छति । स्वप्त्वा वा सिंहशय्यायां कश्चोल्लाघः सुखं व्रजेत् ॥ ६४॥ तथा त्वं मामतिक्रम्य भद्रं यास्यसि सद्मनि । इदमेव महच्चित्रं बीडया नावृतो यतः ॥६५॥ वदत्येवं कुमारेऽस्मिन् जम्बूस्वामिनि संगरे । सन्मुखीभूय सन्तस्थौ योद्धं रत्नशिखस्तदा ॥६६॥ अथोवाच कुमारोऽसौ रत्नचूलं खगं प्रति। आवाभ्यां केवलं युद्धं विधेयं किमथापरैः॥ ६७॥ ततः सर्वान्समुत्सार्य सैनिकांश्च महाभटान् । द्वावेव तस्थतुः सज्जौ कर्तु संग्राममुद्यतौ ॥ ६८ ॥ ततो युद्धमभूद्धोरं द्वयोः शस्त्रैश्च दारुणैः। नानाविधैर्महातीक्ष्णैरन्योन्यं जयकांक्षिणोः ॥ ६९ ॥ मुमोच रत्नचूलोऽसौ नागास्त्रं स्वामिनं प्रति । न्यक्कृतं तत्कुमारेण गारुडास्त्रेण तत्क्षणात् ।। ७०॥ पुनः कोपोपरक्तः सन्नग्निवाणं ससर्ज सः। प्रशशाम तदा वेगात्कुमारो जलवृष्टिभिः॥ ७१॥ पुनस्तोमरघातेन हतो रत्नशिखो यदा । तदा हंतुं कुमारं स चक्रं जग्राह बाहुना ॥ ७२ ।। यावन्मोक्तुं स शक्नोति चक्रं रत्नशिखः खगः। तावद्वेगात्कुमारेण क्षिप्तो वाणो जवाद्रिपौ ।। ७३ ॥ तेन बाणेन तच्चक्रं खंडितं तीक्ष्णहेतिना । न्यपतत्तद्रजः स्कंध विद्युद्घातादिव द्रुतम् ।। ७४ ।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिश्रेणिकमहाराजराजगृहप्रवेशवर्णनम् १४९ तद्वाताच्चूर्णमानांगं नागं वीक्ष्य खगेश्वरः। भूमाववततारासौ कुंतहस्तश्च कोपवान् ॥ ७५ ॥ तावज्जम्बूकुमारेण क्षणादुत्तीर्य दंतिनः। हत्वा मुष्टिप्रहारेण पातितः पृथिवीतले ॥ ७६॥ त्यक्तमानधनः सोऽयं जीवन्नारोप्य दंतिनि । रत्नचूल: कुमारेण बलाबद्धो खगाधिराट् ॥ ७७॥ तदसौ मुमुचे तूर्ण मृगांकं बंधनालयात् । व्यभ्रे व्योम्नि शरत्काले यथादित्यो घनात्यये ॥ ७८ ॥ पुष्पवृष्टिं मुरास्तेनुः कुमारजयशंसिनः । दिशो दुंदुभिनादेन पूरयंतो नभोङ्गणे ॥ ७९ ॥ चक्रुर्जयजयारावं सर्वे ते त्रिदशादयः । अहो पुण्यद्रुमात्स्वादु फलं सर्वा हि संपदः ॥ ८ ॥ अथ प्रवेशयामासुः कुमारं केरलां प्रति । तौर्यत्रिकमहानादेगांकादिक्षितीश्वराः ॥ ८१ ॥ यदाप परमानंदं खगो व्योमगतिस्तदा । स्तोतुं न शक्यते सर्यो निरवशेषतया मया ॥ ८२ ॥ अथ पौरस्त्रियस्तत्र पीनस्तनभरानताः। चिक्षिपुः सुमनान्युचैः कुमारमनुरागतः ।। ८३ ।। काश्चित्पौरांगनास्तत्र जजल्पुश्च परस्परम् । काश्चित्तन्मंगलोद्गीतिं गायंति स्म मुदान्विताः।। ८४ ।। सखे दर्शय मामाशु नाम्ना जम्बूकुमारकम् । हेलया निर्जितो येन रत्नचूलखगाधिपः॥ ८५ ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जम्बूस्वामिचरिते काचिद्वदति धन्योऽयं जीयाच्चिरतरं जयी । अस्माकं येन सौभाग्यं रक्षितं निघ्नता रिपून् ॥ ८६ ॥ अहो जिनमती धन्या साईद्दासस्य भामिनी । दशमासान् यया गर्भे धृतोऽयं सिंहविक्रमः ॥ ८७ ॥ धन्यः स श्रेणिको भूपो यस्यैतादृग्भटोत्तमः । एकोऽप्यलं सहस्राणां भटानां मानहानये ॥ ८८ ॥ अध्यापणमहावीथ्यां शोभां वणिक्सुतैः कृताम् । पश्यन् स्वामी जगामाशु तोरणं नृपसद्मनः ॥ ८९ ॥ तत्र शोभातिशायित्वं निर्वृत्तं मणिमौक्तिकैः । दर्श दर्श कुमारोऽसौ क्षणं तस्थौ स कौतुकी ॥ ९० ॥ ततः शनैः शनैर्गच्छन् प्रविष्टो नृपमंदिरे । आतन्वन् जगदानंदं सौन्दर्य (स्य) सुधांशुभिः ॥ ९१ ॥ नीत्वा तत्र मृगांकस्तं क्रियां सन्मज्ञ्जनादिकाम् । उचितां दासवच्चक्रे प्रश्रयाद्वीतमत्सरः ।। ९२ । सर्वे यद्रवद्भोज्यं मृदुस्निग्धं सुशोभनम् । मृगांकोऽप्यर्पयामास भुक्तये स्वामिनः पुरः ।। ९३ । भुक्तं जम्बूकुमारेण नानाव्यंजन संस्कृतम् । भोजनं स्वादु संमिष्टं पूतं पुण्यफलादिवत् ।। ९४ । ततः कर्पूरतांबूलैचंदनादिद्रवैरपि । अर्चितोऽसौ मृगांकेण प्रीत्या सत्कारगौरवात् ॥ ९५ ॥ अथ मध्येसभं स्थित्वा कुमारः करुणापरः । कारालयान्मुमोचामुं रत्नचूलं खगेश्वरम् ॥ ९६ ॥ १ तोरणोsal बहिद्वीरं इत्यमरः । २ रचितम् । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिश्रेणिकमहाराजराजगृहप्रवेशवर्णनम् १५१ अपि च कोमलालापैः सूक्तिसंदर्भगर्भितैः । खगं संतोषयामास कुमारो मारगौरवः ॥ ९७ ॥ जयपराजयौ स्यातां कुर्वतां युद्धमाहवे । विषादं खग मा कार्षीर्धर्मः पुंसां निसर्गतः ॥ ९८ ॥ गच्छ गच्छ यथास्थानं स्वसद्मन्यपि निर्भयात् । वेष्टितथ परीवारैः स्वीयैः स्वीयसुखाप्तये ॥ ९९ ॥ अवादीद्रत्नचूलोऽपि कुमारं प्रति मार्दवात् । स्वामिन् गत्वा त्वया सार्धं द्रष्टुमिच्छामि श्रेणिकम् ॥ १०० ॥ स्थित्वा तत्र कुमारेण केषुचिद्वासरेषु च । ततो विमानमारुह्य प्रस्थितः श्रेणिकं प्रति ॥ १०१ ॥ प्रतस्थेऽस्मिन् मृगांकोऽपि प्रतस्थे सकलत्रकः । आदायोद्वाहितुं कन्यां तां विशालवतीं सतीम् ॥ १०२ ॥ तयोः सार्धं समादाय रत्नचूलोऽपि भक्तिमान् । चलति स्म विमानैः स्वैरमा पंचशतैः शुभैः ॥ १०३ ॥ खगो गगनगत्याख्यो मुदा निर्भरमानसः । अन्वगात्स कुमारं तं स्वविमानमधिष्ठितः ॥ १०४ ॥ अलंचक्रुर्दिशां चक्रं विमानैर्व्योमगा इमे । किमेतदिति भूपालैराकुलं वीक्षितं जवात् ॥ १०५ ॥ ते सर्वे सकुमाराश्च संसेदुः कुरलाचलम् । यत्रास्ति श्रेणिको भूपो राजमंडलमंडितः ।। १०६ ॥ अथोत्तीर्य विमानानि स्थापयित्वा नभोङ्गणे । आनताः श्रेणिकं सर्वे ते मृगांकादयः खगाः ।। १०७ ॥ १ प्रापुः । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जम्बूस्वामिचरिते श्रेणिकोऽपि ततस्तूर्ण समुत्थाय निजासनात् । आलिलिंग कुमारं तमुत्सुकः परमादरात् ॥ १०८॥ साधु साधु मया दृष्टो यच्चिरादपि भो भवन् । त्वयि दृष्टे महान् हर्षो जातो मे हृदि संप्रति ॥ १०९ ।। ततो गगनगत्याख्यस्तवृत्तांतपचीकथत् । यथावृत्तं द्वयोरेव तत्तथा श्रेणिकं प्रति ॥ ११० ।। ततोऽसौ दर्शयामास संज्ञया हस्तसंज्ञया । तत्तन्नामविशिष्टं वा तं तं व्योमगतिः खगम् ॥ १११ ॥ एष देव मृगांकोऽयं ददौ ते तनयां निजाम् । एषास्य महती भायो नान्ना स्यान्मालतीलता ॥ ११२ ॥ एष रत्नशिखो नाम्ना ख्यातो विद्याधराग्रणीः । निर्जितो यः कुमारेण दुर्जयो महतामपि ॥ ११३॥ श्रुत्वेदं तन्मुखाद्राजा स लेभे निर्वृति पराम् । यथा चंद्रोदये सिंधुर्बुद्धिमाप सहांभसा ॥ ११४ ॥ स्तुति चक्रे कुमारस्य श्रेणिकश्च मुहुर्मुहुः। निसर्गान्मृदुभाषित्वं राज्ञि तूपकृतौ न किम् ॥ ११५॥ परिणीताथ मृगांकस्य तनया सा वरोचिता । या विशालवती नाम्ना श्रेणिकस्य कृतेऽर्पिता ॥ ११६ ॥ ततश्चोदहकल्याणे नृत्यं तेनुः खगेश्वराः। कामिन्यो गजगामिन्यो गायंति स्म समंगलम् ॥ ११७ ॥ मैत्रीभावो द्वयोश्चापि रत्नचूलमृगांकयोः । मिथः कारापितस्तेन श्रेणिकेन महौजसा ॥ ११८॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिश्रेणिकमहाराजराजगृहप्रवेशवर्णनम् १५३ समाधाय खगेशौ द्वौ राज्ञा सन्मानदानतः । प्रेषितौ तौ यथास्थानं खालय स्वालयं प्रति ॥ ११९॥ खगो गगनगत्याख्यः सत्कृतश्च पुनः पुनः । निजधाम जगामाशु स्वामिधर्मपरायणः ॥ १२० ॥ अथ प्रतस्थे भूमीशो पुरं राजगृहं प्रति । तां विशालवती नीत्वा सानंदो मगधाधिपः ।। १२१ ॥ उल्ललंघ महीपालो विंध्याचलमहाटवीम् । तां विशालवती वैन्यान् दर्शयन्निव कौतुकी ।। १२२ ।। हे मृगाक्षि निरीक्षस्व मृगगथानितोऽमुतः। स्पद्धो कंतु समायातास्त्वन्नेत्रैः सममंजसा ।। १२३ ॥ अवलोकय बाले त्वं सुन्दराबाजयूथपान् । यद्गमेननोपमीयेत त्वद्गतिलीलयानया ॥ १२४ ॥ इतः केशरिणं पश्य वल्गंतं तं तन्दरि । यस्त्वया निजितो नूनं कटिदेशे सुशोभया ॥ १२५ ।। इतो वराहान् पश्याशु वराहारपयोधरे । उत्खातमस्तकानेवं मुखं व्यादाय भक्षकान् ॥ १२६ ॥ विशालाक्षि निरीक्षख कपिवृंदानपीह तान् । तव चित्तचमत्कारनिर्जिता ये निसर्गतः।। १२७ ॥ कोकिलायाः कलालापमाकर्णय पिकस्वने । यस्त्वया मधुरध्वानैर्वनांतऽपि तिरस्कृतः॥ १२८ ॥ इतो हंसरुतं पार्थे श्रूयतां मृदुभाषिणि । अनुनेतुं वरटी स्वां कुर्वश्चाटूनि सस्मरम् ।। १२९ ।। १ वनवृक्षान् । २ हंसस्य योषितुरटा । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जम्बूस्वामिचरिते बकपंक्ति निरीक्षस्व सरस्तीरेषु सुंदरि । त्वत्कंठालंबिनी माला यथा (सु) स्वमनसां त्वयि ।। १३० ।। इतश्चक्रयुगं पश्य चकोराक्षि विलक्षताम् । गतं त्वद्वदनं वीक्ष्य चन्द्रोदयविशंकया ।। १३१ ।। चातकध्वनिमाराद्वै शृणु स्नेहानुकारिणीम् । रदंतं परमप्रीत्या बहुशोऽपि प्रिये प्रिये ॥ १३२ ॥ मंजरी पिंजरां पश्य मुग्धे चूतद्रुमावलीम् । तव कर्णावतंसाभ्यां स्पर्द्धमानां सुकोरकैः ।। १३३॥ गुंजविरेफवृंदानि पश्य पश्य वनांतरे । त्वद्गुणस्तोत्ररूपाणि लिखितान्यक्षराणि वै ॥ १३४ ॥ दूराददो वनं पश्य केकिकेकारवाकुलम् । सेनारजश्चयाकीण घनागमसुशंकया ॥ १३५ ॥ इतः पश्य सरोजालिं प्रफुल्लेन्दीवरानने । शोभमानां द्विरेफैश्च त्वदाननजिहासया ॥ १३६ ।। अयि पल्लवितां वल्लीमक्षगोचरतां नय । त्वन्मृदुकरसंस्पर्दा कुर्वती स्वदलैरिति ॥ १३७ ॥ कांते कांतिजुषश्चैतान् पश्य सुमनसां चयान् । त्वन्मुखामोदमादाय दधतः श्रियमुत्तमाम् ।। १३८ ।। इतिप्रभृतिमार्गाणां शोभा संदर्शयन्नयम् । प्रियायै श्रेणिको भूपः प्राप राजगृहं पुरम् ॥ १३९ ॥ तत्राप्युपवने धीमान् क्षणं तस्थौ ससैनिकः । ददाथ मुनि नाम्ना सौधर्म धर्मतत्परम् ॥ १४० ॥ १ केका वाणी मयूरस्य । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिश्रेणिकमहाराजराजगृहप्रवेशवर्णनम् १५५ Bananan धर्मोपदेशनिरतं शिष्यैः पंचशतैर्वृतम् । अवबोधचतुष्कैश्च पूर्ण स्वप्रतिभान्वितम् ॥ १४१ ॥ वंदति स्म महाभागस्त्रिपरीत्य त्रिशुद्धितः । मुनि सार्ध कुमारेण सकलत्री नरेश्वरः॥ १४२ ॥ भूपस्तद्दर्शनान्नूनं मन्यमानः कृतार्थताम् । निजधान्नि प्रवेशाय चचाल पृतनावृतः ॥ १४३ ॥ विशन् राजगृहे राजा शोभया शुशुभेतराम् । सार्द्ध जयश्रिया चापि राज्यलक्षम्या न केवलम् ।। १४४ ॥ धर्मकल्पद्रुमः सेव्यः किमन्यैर्बहुजल्पितैः । यत्पाकादर्थकामादिफलं स्यात्पावनं महत् ।। १४५ ॥ इति श्रीजम्बूस्वामिचरित्रे भगवच्छ्रीपश्चिमतीर्थकरोपदेशानुसरितस्याद्वादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारदपण्डितराजमल्लविरचिते साधु पासासुतसाधुटोडरसमभ्यर्थिते जम्बूस्वामिश्रेणिकमहाराजराजगृहप्रवेशवर्णनो नाम षष्ठः पर्वः । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सप्तमः पर्वः। भवतु भावशुद्धयर्थे स्वभावो भवहानये । धर्मे धर्मफले रागस्तव श्रीसाधुटोडर ॥ १ ॥ इत्याशीर्वादः । धर्मनाथं स्तुवे धर्मतीर्थेशं धर्मसिद्धये । शांतिनाथं पुनौमि शांतये चाष्टकर्मणाम् ॥ १॥ अथ जम्बुकुमारेण चिंतितं निजमानसे | कुतः पुण्योदयादेतन्मया लब्धं यशोधनम् ॥ २ ॥ तत्सर्व प्रश्रयात्रष्टुमागतो मुनिसंनिधौ । तं प्रणम्योपविष्टश्च विनयावनताननः ॥३॥ भो मुने कृपया किंचिद्रूहि मे संशयच्छिदे । कोऽहं कुतः समायातः कस्मात्पुण्यविपाकतः ॥ ४॥ जन्मांतरस्य वृत्तांतं ज्ञातुमिच्छामि त्वन्मुखात् । त्वमुपेक्षापरः स्वामिन् निस्पृहः सुखदुःखयोः॥५॥ शत्रौ मित्रे समानस्त्वं जीवने मरणे समः । स्तुतिनिंदासमः सौम्यो वास्यां वा हरिचंदने ॥६॥ त्वं निस्तारी भवावर्तात्त्वं मुने भक्तवत्सलः । जीवन्मुक्तस्त्वमेवासि कृपालुः सर्वजंतुषु ॥७॥ अथोवाच मुनिर्नाम्ना सौधर्मो धर्मदेशकः । शृणु वत्स वदेते(?)ऽद्य वृत्तांतं पूर्वजन्मनः ॥ ८॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिपरिणयनोत्सववर्णनम् १५७ इहैव मगधे देशे वर्द्धमानाभिधो वरः। ग्रामोऽस्ति तत्र विप्रो द्वौ स्यातामासन्नभव्यकौ ॥९॥ भावदेवस्तु ज्येष्ठः स्याल्लघीयान् भवदेवकः। क्रमादादाय दीक्षां तो जैनी सर्वसुखपदाम् ॥ १०॥ सन्न्यासे मरणं कृत्वा स्वर्गलक्ष्मीस्वयंवरी। जातौ सनत्कुमाराख्ये द्वावेतो त्रिदशालये ॥ ११ ॥ स्वायुरंते ततश्च्युत्वा समुत्पन्नौ यथाक्रमात् । वज्रदंतनृपस्य स्यात्सूनुः सागरचन्द्रमाः॥ १२ ॥ भावदेवचरः सोऽयमाद्यो भ्राता द्विजोत्तमः। लघीयानपि संजातो भवदेवचरश्च यः ॥१३॥ चक्रवर्ती महापद्मो विख्यातः खाख्यया भुवि । तत्पुत्रोऽजनि माहात्म्यान्नाम्ना शिवकुमारकः ॥ १४ ॥ तत्राप्युभौ तदादाय व्रतं घोरतपोऽन्वितम् । अंते समाधिना मृत्वा जातो ब्रह्मोत्तरेऽमरौ ।। १५॥ विमाने श्रीप्रभे जाते भवदेवचरो द्विजः । भावदेवः समुत्पन्नो जलकांताभिधेऽमरः ॥ १६ ॥ दशसागरपर्यतं भुक्त्वा भोगानिरंतरम् ।। स्वायुरते ततश्चापि समुत्पन्नो हि भारते ॥ १७ ॥ इहैव मगधे देशे नगरालीविराजिते । जैनधर्मास्पदे रम्ये मुनिवृंदसमन्विते ॥ १८॥ संवाहनपुरं नाम्ना तत्रास्ति नगरं वरम् । सोधपंक्तिभिरालीढं वरस्त्रीभिर्विभूषितम् ॥ १९ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते भूपतिस्तत्र नाम्नापि सुप्रतिष्ठः प्रतिष्ठते । जैनधर्मसरोजालिं चुम्बितुं षट्पदोपमः ।। २०॥ भार्या रूपवती तस्य नाना धर्मसमन्विता । पट्टवद्धा सुशीलाढ्या सौन्दर्यगुणशालिनी ।। २१ ॥ भावदेवचरो ज्यायान् योऽयं भूत्वाऽमरो दिवि । भूत्वा सागरचंद्रश्च सोऽयं तस्य सुतोऽजनि ॥ २२ ॥ सौधर्म इति नाम्नापि राज्ञः ख्यातः स बंधुना । क्रमाद्वृद्धिं समासाद्य जातो निम्शेषशास्त्रवित् ॥ २३ ॥ कुमारावस्थया यावत्तिष्ठेत्स्वकुलदीपकः। अथान्येयुः स धात्रीशः सुप्रतिष्ठः कलत्रयुक् ॥ २४ ॥ समवादिमृति भूमि प्राप्तो वीरस्य वंदितुम् । वर्द्धमानमुखात्तत्र श्रुत्वा धर्मोपदेशनाम् । सद्यश्चोत्पन्ननिर्वेदो भोगेभ्यश्च परान्मुखः ॥ २५ ॥ भावयामास खे चित्ते संसारासारतां चलाम् । क्षणिकत्वाद्धनादीनां वारिबुदबुदसन्निभाम् ॥ २६॥ दीक्षां जग्राह नँग्रंथीं स्वर्गमुक्तिसुखप्रदाम् । सर्वसंगविमुक्तात्मा हानये चाष्टकर्मणाम् ॥ २७ ॥ दिवसः कतिभिर्भिक्षुः श्रुतपूर्णोऽभवन्मुनिः। गणधरस्तुर्यो जातो वर्द्धमानजिनेशिनः ।। २८ ।। सौधर्मोऽपि तथा पश्चाद्वीक्ष्य तं गणनायकम् । जातसंवेगनिर्वेदः प्रवत्राज महामुनिः ॥ २९ ॥ क्रमात्सोऽप्यभवत्तस्य पंचमो गणनायकः । सोऽहं सुधर्मनामा स्यां भवद्भातृचरोऽधुना ॥ ३०॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिपरिणयनोत्सववर्णनम् जन्य १५९ यो ज्यायान् भावदेवोऽभूद्भवांस्तु भवदेवकः। एवं भवांतराख्यानं जानीहि त्वं मुनिश्चयात् ॥ ३१ ।। वत्स कर्मवशाज्जीवा भाववर्ने भ्रमंति हि । अलभ्यमानाः स्वात्मीयं भावं कर्मविनाशकम् ॥ ३२ ॥ त्वं हि ततो दिवश्च्युत्वा विद्युन्मालिचरोऽमरः । अर्हद्दासगृहे सूनुर्जातः सर्वसुखाकरः ॥ ३३ ॥ याश्चतस्रोऽपि त्वद्देव्यः क्रमादनुपरिच्युताः। जातास्तास्तनया नूनं वाद्धिदत्तादिश्रेष्ठिनाम् ॥ ३४॥ ताश्चतस्रोऽपि त्वद्भार्या भविष्यंति विवाहिताः। पूर्वस्नेहानुकारिण्यो भवंतं प्रति सोत्सुकाः ॥ ३५ ॥ श्रुत्वा भवांतरं खस्य साक्षात्कारिसुनेर्मुखात् । प्रवृद्धवीरवैराग्यो जम्बूस्वामिकुमारकः ॥ ३६ ।। मुनिमुद्दिश्य विज्ञप्तिमकरोद्विनयानतः। प्रतिबुद्धः कुमारोऽसी निविण्णो भवदेहयोः ॥ ३७॥ मुने निर्व्याजबंधुस्त्वं जातश्चोद्धरणे मम । तथाद्यापि कृपानाथ मामुद्धर भवार्णवात् ॥ ३८ ॥ प्रसादं कुरु मे दीक्षां देहि नँग्रंथ्यलक्षणाम् । निस्पृहस्य तु भोगेभ्यः सस्पृहस्यात्मदर्शने ॥ ३९ ॥ आकयेदं वचस्तस्य कुमारस्य महामुनिः। ऊचे साम्नैव तच्चेतःसमाधानकरं वचः ॥ ४० ॥ जानन्नप्यवधिज्ञानाद्वालमासन्नभव्यकम् । भाषासमितिसंशुद्धयै जगौ कोमलया गिरा ॥४१॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जम्बूस्वामिचरिते अवस्थेयं क ते वत्स वयोलीलानुसारिणी । केदं दीक्षाश्रमं सौम्य दुर्द्धरं महतामपि ।। ४२ ।। अथ चेत्सर्वथोत्कंठा वर्तते तव चेतसि । एकशः स्वगृहे गत्वा कुरु कृत्यं मयोदितम् ।। ४३ ॥ बंधुवर्ग समाहूय समापृच्छयाथ गौरवात् । समाधानतया कृत्वा क्षेतव्यं च परस्परम् ॥ ४४ ॥ पश्वाद्गृहाण नैर्ग्रथीं दीक्षां कर्मक्षयंकराम् । एष क्रमः समाम्नायात्स्वीकृतः पूर्वमूरिभिः ।। ४५ ।। श्रुत्वा जम्बूकुमारोऽसौ प्रोक्तं सौधर्मसूरिणा । चिंतयामास स्वे चित्ते किं कर्तव्यं मयाधुना ।। ४६ ।। चैत्सद्मनि न गच्छेयमहं स्वात्महठादिह । गुरोराज्ञाविलोपः स्यात्स न श्रेयस्करः स्वतः ॥ ४७ ॥ ततोऽवश्यं हि गंतव्यं मया स्वात्मालये जवात् । पश्चादागत्य दीक्षां तां गृहीष्यामि तपोन्विताम् ॥ ४८ ॥ निश्चित्येतन्नमस्कृत्य गुरुं सौधर्मसंज्ञकम् । जम्बूस्वामिकुमारोऽसौ जगामाशु निजालयम् ।। ४९ ।। गत्वाथ त्वरितं तत्र वार्ता जिनमतीं प्रति । निश्च्छतः स्वचित्तोत्थां सर्वा तामप्यचीकथत् ।। ५० ।। मातर्नूनं विजानीहि निर्विण्णोऽहं भवादिति । इतः पाणिपुटाहारं कर्तव्यं मयका ( हि मया ) शुचि ॥ ५१ ॥ चकंपे श्रुतमात्रेण माता जिनमती सती । पवनेनेरिता वेगाद्धिमदग्धेव पद्मिनी ।। ५२ ।। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिपरिणयनोत्सववर्णनम् अहो पुत्र किमाख्यातं वज्रसंपातनिष्ठुरम् । कारणं किमकस्मात्स्यादत्र कार्यनिदर्शने ॥ ५३ ॥ अत्रोत्तरप्रदानेन समाधानचिकीर्षया । कथितानि कुमारेण मुनिवाक्यानि तानि वै ।। ५४ ॥ श्रुत्वा जिनमती तस्मात्तद्भवांतरवार्त्तिकम् । धर्मबुद्धितया किंचित्समाधानमुपाददे ।। ५५ ।। साईदासाग्रतः सर्व वृत्तांतं गदति स्म वै । चरमांगी कुमारोऽयं जैनीं दीक्षां जिघृक्षति ।। ५६ ।। अर्हद्दासो विशम्यैतन्मूर्छा प्राप्तः क्षणादिति । महामोहोदयादेव हाहाकारं रटन्निति ।। ५७ । ततः कथंचित्सोपायैरुत्थितोऽपि वणिक्पतिः । विललाप यथात्यर्थे तथा को वर्णयेत्कविः ।। ५८ ।। अदासेन तत्क्षिमं कश्चिद्वाग्मी विचक्षणः । प्रेषितस्तत्कथां प्रोक्तुं वार्द्धिदत्तादिसद्मनि ।। ५९ ।। आदिष्टस्त्वरितं गत्वा स संदेशहरः सुधीः । सर्वे निवेदयामास यथासर्वसमक्षकम् ।। ६० ।। अहो दुर्दैवमस्माकं यद्युष्मत्समसज्जनाः । प्राप्ताश्चापि वनप्राप्ता विघ्नकर्मोदयादिह ।। ६१ ॥ आकर्ण्यदं वचस्तीक्ष्णं दुःखदं शस्त्रपातवत् । श्रेष्ठिनस्ते महाभीतेश्चत्वारोऽपि चकंपिरे ।। ६२ ।। द्रवंति स्म शुचाक्रांताः क्षणं विस्मितमानसाः । किमन्यत्र कुमारोऽयमुद्वहं कर्त्तुमिच्छति ।। ६३ ।। १ दूतः । ११ १६१ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जम्बूस्वामिचरिते तावत्स एव संपृष्टः श्रेष्ठिभिस्तैर्महाकुलैः। वद सौम्य वचस्तथ्यं कारणं किमिहात्र भो ॥ ६४ ॥ स संदेशहरोऽवादीचातुर्यतरया गिरा। अहो स्वामिकुमारोऽयं तितीर्घभववारिधः ॥६५॥ निश्चयात्कामभोगेभ्यो निस्पृहो दुःखभीरुकः। सस्पृहो मुक्तिकामिन्यां जैनी दीक्षा ग्रहीष्यति ॥६६॥ श्रुत्वा ते वणिजा नाथा: क्षणाद्वैलक्षतां गताः। बोधयितुं स्वकन्यास्ता ययुर्व्याजानिजालयम् ॥ ६७॥ तत्र गत्वा समाहूय नीताश्चाप्यनुशासितुम् । ताः कन्याः कुलशीलत्वं न जहुर्लेशतस्त्रिधा ॥ ६८ ॥ पुत्रि जम्बूकुमारोऽयं श्रूयते भोगनिस्पृहः । व्रतान्यादातुमीहेत तपःपूर्वाणि मुक्तये ॥ ६९ ।। तद्गृह्णातु यथाकामं का नो हानिस्तु सांप्रतम् ।। भवतीनां समुद्राहे भवेच्चाद्य वरोऽपरः॥ ७० ॥ निशम्यैतत्पितुर्वाक्यं पद्मश्रीः कंपिता तदा । प्रमादाद्वा कथंचिद्वै प्राणिहत्येव योगिराट् ॥ ७१ ॥ तात मा वद दुर्वाचमंतींडाकरां मयि । प्राणांतेऽपि न कर्तव्या क्रमहानिमहात्मभिः ॥ ७२ ॥ एक एव यथा देवः सर्वदोषविवर्जितः। अहमिति त (स) दाख्यातो धर्मश्चैको महात्मनाम् ॥ ७३ ।। तथा जम्बूकुमारोऽयं भर्ता चैको हि मामकः। नापरः कश्चिदेवाती नियमो मे निसर्गतः ।। ७४ ॥ १ शिक्षां दातुं । २ यथाभिलाषं ।। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिपरिणयनोत्सववर्णनम् १६३ धिग्भोगाविषयोत्पन्नानिन्द्रजालोपमानिह । पतौ गच्छति दीक्षायै वयं तूपपती रताः ॥ ७५ ॥ अथ चेद्भाविनी सेयं भोगसंपदनीहशी। अस्माकं भाग्यसंयोगादयं स्थास्यति सद्मनि ॥ ७६ ॥ यदि भोगांतरायस्य कर्मणो मे विपाकतः। वारितो बहुधोपायैरयं गंता तपोवने ॥ ७७॥ तदापि न मनस्तापो भविता मे मुनिश्चयात् । नान्यथा शक्यते कत्तुं यद्भाव्यं तद्भविष्यति ॥ ७८ ॥ अलमत्र बहूक्तेन तात वाचंयमी भव । सर्वथा पतिरेको मे जम्बूस्वामिकुमारकः ॥ ७९ ॥ श्रुत्वा सागरदत्ताख्यः श्रेष्ठी पुत्रिवचस्ततिम् । सर्व निवेदयामास तं संदेशहरं प्रति ।। ८० ॥ श्रुत्वा वचोहरश्चापि गत्वा श्रेष्ठिनिजालये। जगाद सर्वतस्तत्त्वं यथा कन्याकथानकम् ॥ ८१॥ अथ चादृश्यतां गच्छन् भानुरस्ताचलं श्रितः। अहो न क्षमका द्रष्टुं संतः परविपत्तयः॥ ८२ ॥ इति कर्तव्यतामूढः सोऽहंदासो वणिक्पतिः। गत्वा प्रति कुमारं तं विज्ञप्तिमकरोत्कृती ॥ ८३॥ एकमेव दिनं वत्स विवाहानंतरं तव । त्वया ताभिः सहास्थानं कर्तव्यं चैकशः किल ॥ ८४ ॥ मामकी प्रार्थनां पुत्र मामोघां विधेहि भो। पश्चाद्यद्रोचते तुभ्यं तत्तद्यथा विधीयताम् ॥ ८५॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जम्बूस्वामिचरिते निरीहोऽपि कुमारः स पितुरत्याग्रहात्तदा । तथेत्युवाच तात त्वं मा विषादीः वचेतसि ॥ ८६ ॥ ततो मांगल्यतर्याणि पंचानां श्रेष्ठिनां ग्रहे। नेदुरानंदभेर्यश्च पूरिताशामुखा जवात् ॥ ८७ ॥ कलगीतानि कामिन्यो गायंति स्म मुदान्विताः। संत्रस्तमृगनेत्रास्ताः पीनोन्नतपयोधराः ॥ ८८॥ उद्वाहोचितसामग्री या काचन प्रसिद्धितः। तया सह चचालासावश्वारूढः कुमारकः ।। ८९ ॥ ध्वनद्भिर्वाद्यसंधैश्च बंदिदैः सुशब्दकैः। पठद्भिस्तबशोध्वानं नृत्यद्भिर्नर्तकीजनैः ॥ ९॥ पौरांगणादिसल्लोकैदृश्यमानः पदे पदे । प्राप जम्बूकुमारश्च वादित्तस्य समनि ।। ९१ ॥ उत्तीर्य तुरगात्तूर्णमुपविष्टश्चतुष्किकाम् । मेघगंभीरनिस्वानो धीरो मंदरकंठवत् ॥ ९२ ॥ अथानीताभिरत्यर्थमुद्राहस्य कृते कृती। करग्रहमनिच्छोऽपि प्रेच्छेद्विधिवशात्स हि ॥ ९३ ॥ विवाहानंतरं सर्व स्वर्णरत्नादिपावनम् । दत्तं सागरदत्ताचैर्दानीयं यद्वरोचितम् ॥९४ ।। पट्टकूलानि श्लक्ष्णानि विचित्राणि वि (व) स्त्राणि च । वरायादुर्दुहिता (त) भ्यो मणिमुक्ताप्रवालकान् ।। ९५ ॥ सत्कर्पूरसुमिश्राणि कुंकुमादीनि सन्मुदे । पल्यकासनयानादिवस्तूनि वणिजो ददः॥ ९६ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिपरिणयनोत्सववर्णनम् 03 हस्त्यश्वधनधान्यादिदासीदासादिकं तथा । TW यदुत्तमं गृहे किंचित्तत्सर्व स्वामिने ददुः ।। ९७ ।। तदादाय स कन्याभिः संबद्धवसनांचलः । रजन्यां सहकांताभिर्नानाविधमहोत्सवैः ।। ९८ । पठद्भिर्वदिवृंदैश्च नृत्यद्भिर्नर्तकीजनैः । अर्हदासगृहे प्राप स्वामिजम्बूकुमारकः ।। ९९ ।। यत्तत्राप्युचितं किंचिद्यत्प्रासंगिकमुत्तमम् । तत्सर्वं विनयान्नूनमर्हद्दासोऽप्युपाददे ।। १०० ।। यः कश्चित्तत्र दानीयो सोऽपि दानेन प्रीणितः । प्रश्रयाऽपि यः कश्चित्सत्कृतः स तथा किल ।। १०१ ।। जिनमत्यापि सोत्साहात्स्वगुर्यो बहुमानिताः । यथास्वं पट्टकूलादि ताभ्यो दत्तं स्वभक्तितः ॥ १०२ ॥ सन्मानिताश्च ते सर्वे ( ताः सर्वाः ) प्राप्ता निजनिजगृहम् । निद्राघूर्मि (णि) तनेत्राश्च बभूवुः शयनोद्यताः ॥ १०३ ॥ सह ताभिः कुमारश्च रहस्येकत्र मंदिरे । स्थापितस्तु वयस्यालीजनैः सस्मितलोचनैः ॥ १०४ ॥ अथ ज्वलत्सु दीपेषु दीपिताशेषवस्तुषु । हंसतुलाख्यशय्यायां स्थितस्ताभिः सहासकौ ।। १०५ ।। तत्र वाचंयमीवाशु तस्थौ स्वामी विरक्तितः । संस्थितश्चापि तन्मध्ये पद्मपत्रं जले यथा ॥ १०६ ॥ नापि वक्ति न पश्येच्च सुरूपास्वपि तासु वै । स्थितः स्थिरतरः स्वामी निस्तरंगसमुद्रवत् ।। १०७ ॥ १ गरिष्ठाः योषितः । २ सखीजनैः । १६५ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जम्बूस्वामिचरिते ताराणां निकरो रेजे तदा व्योम्नीव निर्मलः । यामिनीकामिनीभूषाहेतुमुक्ताकदंबकः ॥ १०८ ॥ अथ तासां शरीरेषु ज्वलति स्म स्मरानलः । प्रत्युपायैरसह्यश्च साभिलाषो रिरंसया ॥ १०९ ।। क्षणमेकं ततः स्थित्वा ताभिः कामातुरात्मभिः । मंदं मंदमथालापं कुर्वतीभिः परस्परम् ॥ ११० ।। कामाकुलाभिराभिश्च ताम्बूलादिसुदित्सया । आरब्धा स्मरसंचेष्टा नानाशृंगारवार्त्तया ।। १११ ।। दर्शयेत्कामुकी काचित्तत्र हारमिषात्स्तनौ । दृढी बिल्वफलाकारो यौवनांभोभृतौ घटौ ।। ११२ ।। काचिन्नाभि सुगंभीरां दर्शयंती स्थलादिह । काचिद्रुद्वयोल्लासं धत्ते स्म निजलीलया ॥ ११३ ।। काचिददृढहासादिनर्मगर्भ च मर्मभित् । वचश्चीचे नवोद्वाहा स्वामिनं प्रति सस्मरा ॥ ११४ ॥ काचिदृक्कोणलीलाभिः स्वसाकंतु समीहते । हावभावविलासाद्यैः काचित्कांतं विमोहति ॥ ११५ ।। काचिद्रागांश्च गायंती पवम (न) ध्वनिमिश्रितान् । काचित्पठति वैदग्ध्यावजितं स्वामिनो मनः ॥ ११६ ।। इत्यादिविविधैर्भावैर्दर्शयंत्यः स्वपाटवम् । न क्षमास्ताश्चतस्रोऽपि तन्मनो मोहितुं मनाक् ॥ ११७ ॥ इतिसुकृतविपाकात्स्वामिजम्बूकुमार: सकलमुखनिधानो मारमातंगासिंहः। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ han जम्बूस्वामिपरिणयनोत्सववर्णनम् कृतपरिणयकर्मा धर्ममूर्तिर्विरक्तो १६७ विषयविरतचेताः स्यात्समासन्नभव्यः ॥ ११८ ॥ इति श्रीजम्बूस्वामिचरित्रे भगवछ्रीपश्चिमतीर्थकरोपदेशानुसारितस्याद्वादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारद पण्डितराजमल्लविरचिते साधुपासात्मजसाधुटोडरसमभ्यर्थिते जम्बूस्वामिपरिणयनोत्सवर्णनो नाम नवमः पर्वः । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ दशमः पर्वः। भवत्वाराधिता सम्यग्भारती परमेष्ठिनां । साधुपासांगजस्यास्य श्रेयसे साधुटोडरः॥१॥ इत्याशीर्वादः। कुंथु कुंथ्वादिसदयं धर्मतीर्थविधायकम् । अरं चारिविनाशाय वंदे मुक्तिवधूवरम् ॥१॥ अथ तासां चतसृणां दृष्ट्वा पंचेषुविक्रियाम् । निर्विवेद विदांवों जम्बूस्वामी तदर्थकृत् ॥ २ ॥ हा धिगज्ञानमेवैतन्मोहकर्मोदयादिह । यत्मभावान्नु मन्यते जीवा दुःखं हि सौख्यवत् ॥ ३॥ तथा मरीचिकां पातुं मृगो धावति वार्धिया । तथा प्राणिगणश्चायमिच्छेद्वेषायिकं सुखम् ॥ ४॥ यथा कंड्यनं कुर्वन्नातुरो नखरैः खरैः। अजानन् स्ववपुःपीडां मनुते हि वरं वरम् ॥ ५ ॥ तत्सौख्यं यन्निराबा, साधोः स्वात्मसुखाप्तये । निर्विपेक्षमथो नित्यमव्याबाधमतीन्द्रियम् ॥ ६॥ इदं त्वाक्ष्यं सुखाभासं परं बाधापुरःसरम् । बंधहेतुनित्यं च तद्धेयं हि महात्मभिः ॥ ७ ॥ १ सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इंदिएहि लद्धो तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ॥ इति प्राकृतश्लोकः। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिभार्या चतुष्ककथाविद्युच्चरागमनवर्णनम् आद्या (त्मा) नंदमजानानो जनः प्रज्ञापराधतः । विषयेषु समासक्तः सुखं वदति मृढधीः ॥ ८ ॥ किं चास्मिन्सुखे मग्नो जीवो मज्जति दुर्गतौ । योषित्पाशैर्दृढं बद्धो यथा वागुरया मृगः ।। ९ ।। आशीर्विषं वदत्यन्ये दंदेशूकविशेषकम् । वृथा वै तदहं मन्ये चेदथो योषिदंजसा ॥ १० ॥ यासामर्धविलाकैश्च ददयंते हि कामुकाः । ज्वलत्कामाग्निना दग्धाः शराघातैर्मृगा इव ॥। ११ ॥ असारेऽपि वधूकाये मोमुह्यते शठाः कथम् । त्यक्त्वातीन्द्रियसौख्यं हि सीदंति बत दुर्मदाः ।। १२ ।। यदत्र गर्हितं किंचित्चत्सर्वे स्त्रीकुटीरके । वर्चोमूत्राद्यसृङ्मांससंभृते कीकसोच्चये ॥ १३ ॥ सुंदरं चापि यद्वस्तु पूतं वा यन्निसर्गतः । वपुःसंसर्गतो नूनं याति दुर्गंधतां क्षणात् ॥ १४ ॥ आलकोलहलेनालमिमाः सर्वाश्च योषितः । मन्ये प्राणिविधाय धात्रा पाशा विनिर्मिताः ।। १५ ।। एवं संचितयन्नास्ते यावत्स्वामी स्वचेतसि । तावत्प्रोवाच पद्मश्रीस्तास्तिस्रोऽपि वधूः प्रति ।। १६ ।। अहोऽस्मिन् निर्गुणे पुंसि किं कृतेनापि चाटुना । वाणाः कुर्वति किं षंढे मन्मथस्यापि सर्वशः ।। १७ ।। १ अशिषि आश्यां वा विषमस्येति विषधर इत्यर्थः । २ गर्हितं दशति इति ददशकः सर्पः। ३ पुरीषं । १६९ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते यधेि नर्तनेनापि गानेन बधिरे न हि । कातरे किं कृपाणेन किं लक्ष्म्या कृपणे वृथा ॥ १८ ॥ सखे समीक्षकारीव वर्तते ग्राहवानयम् । प्राप्तं तपःफलं त्यक्त्वा पुनः कर्तुं समीहते ॥ १९ ॥ यथा कश्चिन्नरो मूर्खः सिद्धमन्नं स्वसद्मनि । त्यक्त्वाज्ञानात्ममादाद्वा भिक्षुर्भिक्षामटत्यहो ।। २० ।। तपसां हि फलं सौख्यं तत्स्वर्गे वा महीतले। प्राप्तं चापि न जानाति नूनमध्यक्षतो जडः ॥ २१ ॥ वयं रंभासमा नार्यः सझैतत्स्वर्गसन्निभम् । वपुर्दिव्यं गृहे संपद दुर्लभं किमतः परम् ॥ २२ ॥ सर्व स्वाधीनमुत्सृज्य तपः कत्तु समीहते । तत्र सा प्राप्यते नो वा विवेकरहितस्त्वयम् ॥ २३ ॥ सख्यः कथानकं चैकं रम्यं दृष्टांतभूमिजम् । सावधानतया श्राव्यं युष्माभिर्वम्यहं यदि ॥ २४॥ शृण्वंति स्म च तास्तिस्रो साश्चर्याः सकुमारकाः। पद्मश्रीरवदत्सौम्या धनदत्तकथानकम् ॥ २५ ॥ यथात्र होलिकः कश्चिद्धनदत्तो नाम्नाप्यभूत् । तस्य भार्या यथानान्नी वर्तते स्म मुदान्विता ॥ २६ ॥ तयोर्जातः सुतश्चैको नाम्ना वै सबलो बली । अप्येकाकी स निष्णातो गृहकार्ये क्षमः क्षमी ॥ २७॥ अथ दैववशात्तस्य हालिकस्य मृता वधूः। लब्ध्वा लक्ष्मीयथा स्वप्ने दृष्टनष्टाभवत्क्षणात् ॥ २८ ॥ १ हलेन खनति इति कर्षकः इत्यर्थः । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिभार्याचतुष्ककथाविधुचरागमनवर्णनम् १७१ हालिकेन ततः पश्चादुद्वाह्याशु सुतं वरम् । परिणीता परा स्वस्मै वृद्धेनापि सकामिना ॥ २९ ॥ षोडशाब्दमिता सेयं षष्टिवर्षमितः स्वयम् । तया सार्द्ध रतिक्रीडां कुर्वन्नास्ते स कामुकः ॥ ३० ॥ अथाऽन्येार्निशीथे सा कामुकी कामिना सह । कथंचित्प्रणयक्रोधाज्जाता मानमधिष्ठिता ॥३१॥ ततोऽनुनेतुकामोऽसौ स्वप्रियां तां प्रसादयन् । उवाच हालिकः कामी चाटुवाक्यं वदन्निति ॥ ३२ ॥ प्रिये प्रिये वदस्वाशु सन्मूखीभूय मां मति । कोपस्य कारणं किं स्यादत्राकस्मात्मिये मयि ॥ ३३॥ वदत्येवं मृदूक्त्यापि सानुकूलेऽपि भर्तरि । मा मां स्पृश करेणेति सावदत्क्रोधशालिनी ॥ ३४ ॥ अलं त्वया प्रियेणापि मद्वचोऽकुर्वता शठ । अज्ञानान्निन्नता प्रीतिं तल्लक्षणमजानता ॥ ३५ ॥ उक्तं च"पानीयं च रसः शीतं परानं सादरं रसः। रसो गुणयुता भार्या मित्रश्चानंतरो रसः" ॥ ३६॥ इत्याकर्ण्य स भार्योक्तमूचे वाचः प्रियंवदः । वद पिये मया चाशु कर्तव्यं त्वन्मनीषितम् ।। ३७ ।। लालितानुनयेनेह सोचे पापाशया शुभा। नंदनं सबलं नाम्ना घातयैन मुनिश्चयात् ।। ३८॥ १ रात्रौ। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जम्बूस्वामिचरिते श्रुत्वेति कंपमानोऽसौ हालिकः पुनरब्रवीत् । वद मुग्धे महादुष्टमेतत्कर्म दधे कथम् ॥ ३९ ॥ किं श्रेयस्तद्धेनापि दर्शयस्व प्रिये मम । नं हि कार्यमनुद्दिश्य मंदश्चापि प्रवर्तते ॥ ४०॥ हालिकं सा (पिया) वादीयुक्तिसंदर्भया गिरा। हते त्वस्मिन्महाश्रेयो भावीति शृणुत (१) यथा ॥४१॥ सत्यस्मिन् सूनवः केचिये यास्यंति ममोदरात् । ते सर्वेऽप्यस्य दासत्वं करिष्यति न संशयः॥ ४२ ॥ अतोऽयं सर्वथा वध्यो नूनं भर्तर्विधेहि तत् । मारिते त्वत्र ते सर्वे स्वाधीनाः स्युः सुखावहाः॥ ४३ ।। एवं तद्वचनैरीषत्यस्खलन्मानसोऽपि सः। किंचित्कारुणिकस्तत्र हालिकः पुनरब्रवीत् ॥ ४४ ॥ मुग्धे निरपराध तं मारयामि मुतं कथम् । अपि चैकं गृहस्यास्य वोढोरं विनयान्वितम् ॥ ४५ ॥ यदि वा मारिते त्वस्मिन् राज्ञो दंडभयो भवेत् । बांधवाश्चापि ते सर्वे दोषं दास्यति सत्वरम् ॥ ४६ ॥ पुनर्दुर्ललिता सोचे भर्तारं हालिकं प्रति । वधेनं सर्वथा भर्तरन्यथा नावयोः सुखम् ।। ४७॥ अतः परं तु मद्गर्भे ये भविष्यति मूनवः । वृद्धत्वे ते करिष्यंति निर्विघ्नं सुखमावयोः॥४८॥ अप्युपायं च ते वच्मि यथा तस्य वधे कृते। नापि भूपतिभीतिः स्यान्नापि रुष्यंति बांधवाः ।। ४९ ।। १ प्रयोजनमनुद्दिश्य न मंदोऽपि प्रवर्तते इति सुभाषिते। २ भारवाहकं । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिभार्याचतुष्ककथाविद्युञ्चरागमनवर्णनम् १७३ यदासौ लांगलं मंद मंद वाहयति स्फुटम् ।। तदा त्वमप्यतः पश्चाद्वाहयातीव वेगतः॥५०॥ खरगैर्बलीवर्दैः प्रातोदादतिताडितैः । मारयैनमनायासाद्यथाधूर्तविचेष्टितम् ॥ ५१ ।। एवं कृते न भूपालो दंडं दास्यति ते कचित् । नापि बंधुजनाः सर्वे युष्मदोषावहा मनाक् ।। ५२ ॥ भार्योक्तं प्रतिपाद्यासौ कामांधो हालिकः कुधीः । तथास्त्विति वचश्चीचे तामाश्चास्य पृथग्जनः ।। ५३ ॥ आलिंग्याभिमुखीभूय संतुष्टासौ स्वमानसे । कामकलिं तथा चक्रे प्रिया सुरतिपण्डिता ॥ ५४ ।। अथ तत्सूनुना सर्वमाणितं यथोदितम् । सुप्तेनोपगृहं वृत्तं समक्षमनुरक्तयोः ॥ ५५॥ प्रातरुत्थाय मागेव तत्रागात् सबलः सुतः। हालिकस्तदनु प्रातो हंतुकामः स्वनंदनम् ॥ ५६ ।। पृष्ठलग्नोऽपि यावत्स जनकस्तत्र गच्छति । तावत्तनंदनेनाशु क्षेत्रे संवाहितं हलम् ॥ ५७ ।। अथ गत्वा ददर्शासौ पामरश्चात्मजं वरम् । मूलोन्मूलं हि कुर्वाणं शालिक्षेत्रं हलास्यतः ॥ ५८ ॥ दृष्ट्वाथ हालिकोऽवादीद्रे रे पुत्र महाशठ । भ्रात्या (1) कष्टकर नूनमर्थच्छेदं करोषि किम् ।। ५९ ॥ १ लम्। २ नीचजनः । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जम्बूस्वामिचरिते उवाच पुत्र भो तात जीर्णत्वात्सस्यसंपदम् । पोन्मूल्य रोपयिष्यामि नाश्चात्ममुखाप्तये ॥ ६॥ समाकर्ण्य वचस्तस्य पित्राप्युक्तं स्वबुद्धितः । सिद्धं त्यजसि रे पुत्र नव्यं कांक्षसि रे जड ॥ ६१ ॥ छलान्वेषी स पुत्रोऽपि वचश्चोचे समृद्धवाक् । तातैवं चेत्स्मरस्याशु रात्रौ यज्जल्पितं त्वया ॥ ६२ ।। हत्वाध मां सुसत्ताकं पुत्रं वांछति भाविनम् । सुखार्थ कांतया सार्द्ध तात बुद्धिस्तवेदशी ॥ ६३ ॥ पुत्रवाक्यात्स मूर्योऽपि जातः प्रतिबुद्धतां क्षणात् । दुराग्राही त्वयं बाले नेतुं शक्यो न मार्दवम् ॥ ६४ ॥ अज्ञवच्चेष्टते तद्वत्स्वामी जम्बूकुमारकः । स्वाधीनाः संपदस्त्यक्त्वा संदिग्धाः पुनरीहते ।। ६५॥ एतत्सर्व कथावृत्तं श्रुत्वा प्रोवाच धीधनः । निरीहोऽपि यथा चक्ति धर्माख्यानं मुयोगिराट् ॥६६॥ प्रियाः कथानकं चकं भवरोधविधायकम् । सावधानतया श्राव्यं भवतीभिर्मयोदितम् ॥ ६७॥ विंध्याचले महाटव्यां मृतश्चैको मतंगजः । वर्षापूरभरेणेव नर्मदा प्रति सोऽप्यगात् ।। ६८॥ तत्तत्कलेवरं कश्चिद्भक्षमाणोऽपि वायसः । अन्वगात्तत्करकस्थो लोलुपः पिशिताशितः ॥ ६९ ।। १ तत्कपालोपरि स्थितः। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिभार्याचतुष्ककथाविधुच्चरागमनवर्णनम् १७५ मध्येजलं यथाधावत्पतितोऽसौ महांबुधौ । काकस्तत्पिशितग्रासरससंलुब्धमानसः॥ ७० ॥ भक्षितं तद्पुस्तूर्ण मत्स्यायैर्जलचारिभिः। काकेन गंतुमारब्धमुड्डीनेन महाम्बुधौ ॥ ७१ ॥ उड़ीयोडीय यावत्स व्योम्नि पश्यति दिङ्मुखम् । स्थानं ग्रामं तरं शैलं विश्रामाथे न किंचन ॥ ७२ ।। कियत्कालं स बंभ्रम्य पतितोऽथ महार्णवे। आस्यैकंककमित्युक्त्वा वराको पंचतां गतः ॥ ७३ ।। यथा तन्मांसलुब्धन प्राप्ता चापदनीदृशी। तथाहं न भविष्यामि कांताः कांतवपुश्चयाः॥ ७४ ॥ भोक्तारं चाधुना भोगान् युष्मत्संस्पर्शसंभवान् । तत्पाकान्मां निमज्जंतमुद्धरेत्को भवांबुधौ ।। ७५ ॥ दृष्टांतेन प्रतिध्वस्तं तत्पद्मश्रीकथानकम् । कनकश्रीरथोवाच कथां कौतूहलावहाम् ॥ ७६ ॥ कैलासे पर्वते रम्ये कपिश्चैकोऽभवकिल । दैवयोगादथान्येयुः शैलशृंगमधिष्ठितः ॥ ७७ ॥ पतित्वाथ ततो वेगात्खंडखंडितविग्रहः। अकामनिर्जरां कुर्वन् मृत्वा जातः खगाधिपः॥ ७८ ॥ एकदा स मुनि नत्वा पप्रच्छ स भवांतरम् । मुनिस्तूचे यथावृत्तं सावधिज्ञानचक्षुषा ॥ ७९ ॥ पुरा जन्मनि विद्येश त्वमासीत्कपिरुत्तमः। केलासात्वं पतित्वाशु मृत्वा जातो खगः शुभात् ॥ ८॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते श्रुत्वेतिवचनं रम्यं पावनं सुनिनोदितम् । निश्चिकाय खगेनाशु स्थापितं हृदि दुर्धिया ।। ८१ ॥ यतः स्थानात्कपिर्मृत्वा जातो विद्याधरो नरः । नूनं ततः खगो मृत्वा देवोऽहं भविता क्षणात् ॥ ८२ ॥ अतएव मयावश्यं कर्तव्यं मरणं वरम् । ततः कैलासकूटाग्रात् पतित्वाथ तथाविधम् ॥ ८३ ॥ विमृश्य चैकदाऽवादीत्खगो निजभियां प्रति । यथा मनीषितं स्वस्य प्राणघातस्य सूचकम् ॥ ८४ ॥ प्रिये सर्वं हि सुप्राप्यं स्वर्गमोक्षादिकं फलम् । केवलं शैलकूटाग्रात्पातेनाशु विशंकया ।। ८५ ।। भर्तुर्वचः समाकर्ण्य विललापातिदुःखिता । भार्या विद्याधरस्योच्चैर्विहला दीनमानसा || ८६ ॥ कांत कांत महाप्राज्ञ वृथा मरणमिच्छसि । विद्याधरोऽसि नाथ त्वं दुर्लभं किमतः परम् ॥ ८७ ॥ उल्लंघ्याथ प्रियावाक्यं शैलंगात्पपात सः । मृत्वा दुर्ध्यानयोगेन यातो रक्ताननः कपिः ॥ ८८ ॥ सख्यो यथा खगो मूर्खो मुक्त्वा स्वाधीनसंपदः । मृतश्चापन्मयो जातस्तथास्माकीयनायकः ।। ८९ ॥ प्राप्ताश्चापि महारम्यास्त्यक्त्वा सर्वा हि संपदः । भाविन्यस्ताः समीक्षेत प्राप्यते तपसा न वा ॥ ९० ॥ जम्बूस्वामी तदाकर्ण्य सर्व कनकश्रियोदितम् । प्रोवाचोत्तरं व्याजादेकं किंचित्कथांतरम् ॥ ९१ ॥ १७६ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिभार्याचतुष्ककथा- विद्युञ्चरागमनवर्णनम् १७७ विंध्याद्रौ बलवान्कश्चिदासीत्कामातुरः कपिः । असहिष्णुः कपीन् सर्वान् हन्यमानो वनेतरान् ।। ९२ । जातं जातं स्वभार्यायाः स्वपुत्रमपि हन्यतः । एकाकी सुरतक्रीडां कर्त्तु ( कामी १ ) वनांतके ॥ ९३ ॥ अथैकदा तत्पुत्रोऽपि जातो न ज्ञायते तदा । दैवादवृद्धिमगाद्गोप्यः स्थितो वृक्षसा .... ॥ ९४ ॥ ततः क्रमेण जातोऽसौ युवा स्मरातुरः कपिः । (स्व) भार्यो मन्यमानश्च मातरं रंतुमुद्यमी ।। ९५ ।। ....न केनापि तत्पित्रा वानरेण सम (मीक्षि)क्षतः । समुद्भूतरुषा तेन हंतुं नीतो चलादिह ।। ९६ ॥ • त्काररक्तास्यश्च विभीषणः । सोऽपि दंतैर्नखायैश्च जातकोपोऽदशत्कपिम् ।। ९७ ।। तदा तौ मिथः ष्टी .. युद्धमुल्बणम् । नखदंताभिघातैस्तैर्जर्जरौ जनकात्मजौ ॥ ९८ ॥ भग्नो वृद्धकपिर्वेगादपला हान् । लग्नः कोपपरः पृष्ठौ निर्भीकस्तरुणः कपिः ॥ ९९ ॥ तावद्यावद्धिनस्ति स्म वानरं वृद्धमेव तम् । ......विजयीभूत्वा व्यावृत्तः स्वगृहं प्रति ॥ १०० ॥ अथ पिपासया तूर्ण तृषासंशुष्कतालुकः । संप्रविष्टो जले....मीषत्तोये सपंकिले ।। १०१ ॥ पीत्वाथ कलुषं तोयं ततो निःसर्तुमक्षमः । आतुरो विषयार्थेषु मृतस्तत्र कुधीर्यथा ॥ १०२ ॥ १२ .... Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते तथा नाहं भवाम्यत्र संसारे प्रियवादिनि । निर्मग्नं विषयेषूच्चैः कः को मां हि समुद्धरेत् ॥ १०३ ॥ इत्युत्तरवलादेव कनकश्रीरश्रीरभूत् । विनयश्रीस्तृतीयोचे या कथाकोषकौशला ॥ १०४ ॥ एकः कश्चिदरिद्रो हि संखनामास्ति कुत्रचित् । मध्येवनं स प्रत्यूषे याति काष्ठादिहेतवे ॥ १०५ ॥ ततश्चेन्धनमानीय विक्रीयाथ यथार्थतः । क्लेशेन वल्भनं तस्य भवेत्साततरोदयात् ॥ १०६ ॥ एकदा बहुमूल्यत्वाल्लब्धं किंचित्ततोऽधिकम् । भोजनादवशिष्टं स्यादेकं रूपकमात्रकम् ॥ १०७ ॥ ततो विमृश्य दीनोऽसौ भार्यया समकं तदा । आपद्रक्षादिहेतोस्तद्भूमौ निक्षिप्तवानिह ॥ १०८ ॥ अथ कश्चित्प्रवासी च साध्वसात्तत्र कानने । रत्नभांडं सुनिक्षिप्य गतस्तीर्थादिकेषु सः ।। १०९ ।। काननं भ्रमता तेन दृष्टं तदैवयोगतः । निक्षिप्तं च ततोऽन्यत्र लोभात्तत्र विमृश्यता ॥ ११० ॥ प्रत्यहं रत्नमेकैकं ग्रहीष्यामि प्रयत्नतः । इत्यानंदमनाश्चासौ वेगात्तूर्ण स्वसद्मनि ॥ १११ ॥ गत्वा गेहे दरिद्रोऽसौ भार्यौ प्रति निवेदयत् । रत्नभांडं मया प्राप्तं प्रिये पुण्योदयादिह ॥ ११२ ॥ स्थापितं तच्च कांतारे मया चाद्य प्रयत्नतः । सत्यं जानीहि हे कांते नान्यथा वच्मि कर्हिचित् ॥ ११३ ॥ १७८ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिभार्यां चतुष्ककथा-विद्युच्चरागमनवर्णनम् १७९ श्रुत्वाश्चर्यवती भार्या जाता रोमांचिता तदा । भद्रं तथास्तु हे कांत चिरंजीवी त्वकं भव ॥ ११४ ॥ अथ मयोदितं मंत्रमवश्यं क्रियतां त्वया । संचितो रूपकः पूर्व योऽसौ संगृह्य लक्षताम् ॥ ११५ ॥ सोपि तत्रैव संस्थाप्यो रत्नभांडे सुकौशलात् । त्वमहं च तथापूर्व कुर्यावः कर्म सांप्रतम् ॥ ११६ ॥ प्रामाणितं दरिद्रेण मोहाद्भार्योदितं वचः । वरं वरं त्वयोक्तं यत्कांते वैदग्ध्यशालिनि ॥ ११७ ॥ ततस्तौ दंपती स्यातां काष्ठाद्युद्धरक्षमौ । तद्वनाच्छिरसा नीत्वा विक्रीय च कुक्षिंभरौ ॥ ११८ ॥ एवं व्यतीयमानेऽत्र काले कियति चानयोः । दैवाद्रत्नपतिः सोऽयमागतस्तत्र कानने ।। ११९ ॥ यथास्थाने निरीक्ष्याशु न लब्धं रत्नभांडकम् । ततश्चोद्यमवान् जातो यत्र तत्र निरीक्षणे ॥ १२० ॥ चिराल्लब्धं धनेशेन रत्नभांडं स्वपुण्यतः । नीत्वोत्खाय गतः सोऽयं सानंदात्स्वालयं प्रति ॥ १२१ ॥ अहो पुण्यवशालक्ष्मीश्चंचलापि स्वभावतः । विनष्टाप्यन्यथानेन कथं लब्धा सुखादिह ।। १२२ ॥ एकदोद्घाट्य कुंभं तं रिक्तं यावत्स पश्यति । हत्वा हत्वा शिरः स्वीयं रोदिति स्म जडोऽधमः ॥ १२३ ॥ रत्नभांडेन तेनालं मम पूर्वोऽपि रूपकः । संचितोऽपि विनष्टोऽभूत्तेन सार्द्धं स्वदुष्कृतात् ॥ १२४ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जम्बूस्वामिचरिते हा वंचितोऽस्म्यहं नूनं दुईवेन विपाकिना । यतो लब्धमपि स्यान्न दानायाथ न भुक्तये ॥ १२५ ॥ स्ववशां भुंजते नैव लक्ष्मी प्राप्तामपीह यः। पश्चात्तापपरो मूर्खः संखवत्स भविष्यति ॥ १२६ ॥ जम्बूस्वामी निशम्येतद्विनयश्रीकथानकम् । प्रोचे कथांतरं व्याजाद्वाक्यं प्रत्युत्तरप्रदम् ।। १२७ ।। आसीद्वाणिग्वरः कश्चिल्लब्धदत्त इतीरितः। वाणिज्याय जगामाशु कांतारं वमै दुर्गमम् ।। १२८ ॥ दुर्दैवात्तत्र संलग्नो गजो दुर्मदभीषणः । हेतुं तं वणिज कोपात्कृतांत इव निर्दयः ।। १२९ ।। तीतो वणिजां नाथः प्रपलायनितस्ततः। वटमारोहमालंब्य स्थितः कूपांतरालतः ॥ १३० ॥ तत्र प्रारोहमूलं वत्कृतांतं मृषकद्वयम् । सितासितं च वर्णेन संददर्श वणिग्वरः ॥ १३१ ॥ चिंतितं तेन चित्ते स्वे किं कर्तव्यं मयाधुना । कूपगर्ते पतिष्ये चेद्भविष्ये शतखंडतां ॥ १३२ ।। चिंतयन्निति यावत्स स्थितो धीरतया वणिक् । तावत्कृपस्य भूभागेऽजगरं दृष्टवानहो ॥ १३३ ।। कंपमानोऽथ तद्भीतेरंतरे तत्र कूपके । पाववाल्मीकरंध्राच निर्गता भीषणाहयः ॥ १३४ ॥ यादृशं वणिजो दुःखं तत्राजायत संकटे । चिंताव्याकुलचित्तस्य कः क्षमो वक्तुमंजसा ॥१३५॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिभार्याचतुष्ककथा-बिद्युञ्चरागमनवर्णनम् १८१ नागोऽथ रोपवानेत्य वटमुत्खातुमुद्यमी। आत्मस्कंधबलेनेह ध्वनति स्म महाद्रुमम् ।। १३६॥ स्थितस्तत्र वटावासे च्युतो माक्षिकसमनः । एकस्तस्योन्मुखस्यास्ये मधुबिंदुरपीपतत् ।। १३७ ।। से तेन निर्वृति लेभे यथा लब्धं मनीषितम् । उत्तमं स्थानमैवैतन्मया प्राप्तं वदन्निति ॥ १३८ ॥ अत्रांतरे खगः कश्चित्संचरन्व्योमवर्त्मनि। दृष्ट्वा दुःस्थं तमुत्तीर्य विमानादित्यवीवदत् ।। १३९ ।। रेरे मूढ खगेशोऽहं त्वामुद्धर्तुमलं त्वर । मामकं भुजमालंब्य निःसरस्वाशु संकटात् ॥१४०॥ श्रुत्वावादीत्स मूढात्मा तद्रसास्वादलोलुपः। प्रवीक्षस्व खगेश त्वं मन्मुखे संपतन्मधु ।। १४१ ॥ तावत्सुखेन तिष्ठामि जीव्ये चाहं यथास्थितः। मधुबिंदुरसाभावात्ततो निःसरणेन किम् ॥ १४२ ॥ भृण्वन्नपि कृपाक्रांतः खगो भूयोऽवदत्सुधीः। रेरे मूढानभिज्ञोऽसि मर्तमिच्छसि किं हठात ॥१४३॥ नेक्षसे मरणं पार्चे स्थितं ते दुर्निमित्ततः । विदुमात्रस्य लोभेन मा याहि यममंदिरम् ॥ १४४ ॥ आलकोलाहलेनालं यदि जीवितुमिच्छसि। आलंबयस्व मे बाहं विलंबोऽनुचितस्तव ॥ १४५ ॥ इत्यादिविविधैर्वाक्यैर्वोधितोऽपि खगेशिना । नागमन्मार्दवं सूर्यो रसनेन्द्रियवंचितः॥ १४६॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जम्बूस्वामिचरिते- आकर्ण्यदं वचस्तस्य मर्तुकामस्य दुर्दृशः । विद्याधरी जगामाशु सत्वरं स्वास्पदं प्रति ।। १४७ ॥ अथ प्राप्तः स पंचत्वं सरघाशतपीडितः । व्याकुलीभूय प्राणांते हाहाकारं स्टन्निति ।। १४८ ।। कूपेऽपीपतदेवासौ लब्धदत्तो वणिक्सुतः । युग्ममूषकसंछिन्नवटारोह समन्वितः ॥ १४९ ॥ कूपांतः प्रपतन्नाशु भक्षितोऽजगरेण सः । कालरूपेण तेनाहो लब्धदत्तो वणिग्यथा ।। १५० ।। तथाहं न विशालाक्षि सुखलेशस्य हेतवे । कालवक्त्रे महाभीमे विशाम्यात्महतो भवन् ॥ १५१ ॥ निर्व्यूढा स्वामिवाक्यात्सा विनयश्रीः सुश्रीरपि । अथोवाच कथां तुर्यां रूपश्री रूपशालिनी ।। १५२ ॥ अथैकदा समायातः प्रावृट्कालो मनोहरः । नवांभोदैर्महीभागं कुर्वनेकार्णवं जवात् ।। १५३ । रुंधच्छिद्राणि सर्वाणि वारिपूरैर्महीतले । विद्युद्भा (?) त्कारसंत्रस्तयोषिज्जनकदंबकः ।। १५४ ॥ गमनागमनाभ्यां च कर्दमीभूतभूतलः । महा दुर्दिनतमस्तोमतिरोहितदिवाकरः ।। १५५ ।। अथ चैवंविधे काले वर्तमाने महीतले । कुंकलासः क्षुधाक्रांतो निर्गतो भुक्तये विलात् ॥ १५६ ॥ तेन पर्यटता दृष्टो दंदशूकोऽतिभीषणः । अंजनाभोऽतिवीभत्सश्चलज्जिह्वांचलः ऋधः ॥ १५७ ॥ १ सरटः कृकलासः स्यात् इत्यमरः । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिभार्याचतुष्ककथा-विद्युञ्चरागमनवर्णनम् १८३ कृष्णसर्प तमालोक्य कालरूपं पुरःस्थितम् । तत्रास्ते कृकलासोऽयं भीतश्चिंतातुरो भयात् ॥ १५८ ॥ जीविष्येऽहं कथं दैव केनोपायेन सांप्रतम् । चिंतयन्निति तद्वेगाद्विवेश नकुलालये ॥ १५९ ॥ नागोऽपि तमनुप्राप्य छिद्रे छिद्रशतान्विते । क्षुधार्तानामहो कास्था प्राणिनां प्राणिसंकटे ॥ १६०॥ तत्राप्यने स्थितं मुक्त्वा कृकलासं सरीसृपः। गच्छति स्म ततोऽप्यग्रे तत्कुटुम्बजिघृक्षया ॥ १६१ ।। विशंस्तत्र बिले दृष्टा नकुलैः स बिलेशयः। भक्षितस्तैः क्षुधाक्रांतः संभूय बहुभिर्यथा ॥ १६२ ।। तथायं मामकः स्वामी विवेकरहितो जडः। प्रत्यग्रासं त्यजंल्लक्ष्मी पथभ्रष्टो भविष्यति ॥ १६३ ॥ श्रुत्वा जम्बृकुमारोऽसौ वाक्यं रूपश्रियोदितम् । ऊचे तत्प्रतिबोधाय रम्यं किंचित्कथांतरम् ॥१६४ ॥ आसीत्स जम्बुको कश्चिदत्र विख्यातभूतले । एकदा तु विभावयर्या जगाम नगरांतरम् ॥ १६५ ॥ तत्र जरद्वं चेकं मृतं दृष्ट्वा स हर्षितः । अद्य संपत्स्यते नूनं यथास्वं मे मनोरथः ॥ १६६॥ चिंतयित्वा प्रविष्टः स तदलीवर्दपंजरे । भक्षयन्पिशितं तस्य नाज्ञासीद्रजनीं गताम् ।। १६७॥ १ बुभुक्षितः किं न करोति पापं । इति हितोपदेशे । २ सर्पः । ३ रात्रौ । ४ वृद्धवृषभ। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जम्बूस्वामिचरिते प्रातःकालेऽथ संजाते दृष्टः पौरजनैरिह । तदस्थिपंजरातिर्यक् निःसर्तुमपि न क्षमः ॥ १६८ ॥ चिंताव्याकुलितः सोऽयं चिंतति स्म निजे हृदि । अद्य मे मरणं नूनं संप्राप्तं दैवयोगतः ।। १६९ ।। अथ पौरजनः कश्चित्तस्य कर्णद्वयं यथा । पुच्छकं च लुनाति स्म सिद्धौषधिधिया कुधीः ॥ १७० ॥ चिंतितं जम्बुकेनेह जीविष्ये चेदहं मनाक् । ईदृशोऽपि कथंचिद्वै न नष्टं मे किमप्यहो ।। १७१ ॥ अथ कचिद्विस्तस्य रदानुत्खाय चाश्मना । नीत्वागमद्गृहे स्वस्य वशीकरणहेतुतः ।। १७२ । अचिंतयत्तदा सोऽपि दैवाज्जीव्ये कथंचन । ईदृशोऽपि प्रदोषेऽद्य नूनं यामि वनांतरम् ।। १७३ ।। चिंतयन्निति तत्राशु श्वानाद्यैर्मारितः क्षणात् । भक्षितश्च शृगालोऽसौ रसनावशगो यथा ।। १७४ ।। तथाहं न भविष्यामि विषयांधो न मूढधीः । प्रिये जानीहि कः प्राज्ञो दृष्टिवानुत्पथे पतेत् ॥ १७५ ॥ मामशक्तं हृषीकार्थैरायंत्यां कः समुद्धरेत् । न परीक्षाक्षमं चैतद्वचोऽपि तव सम्मतम् ।। १७६ ।। इत्थं नानाविकाराद्यैः संलापैस्तत्र योषिताम् । न चचाल मनस्तस्य मनागपि महात्मनः ॥ १७७ ॥ अत्रांतरे चुरासक्तो नाम्ना विद्युच्चरो नरः । निशि कामलतागेहान्निर्गतश्चौरकर्मणे ।। १७८ ॥ १ उत्तरकाले । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिभार्याचतुष्ककथा-विद्युच्चरागमनवर्णनम् १८५ सौधं सौधं भ्रमन्नेव चिंतयंस्तलरक्षणात् । सोर्हद्दासगृहे दैवात्प्रविष्टो दुष्टधीः खलु ॥ १७९ ॥ शय्यागारं कुमारस्य प्राप्तश्चेति व्यचिंतयत् । आदौ रत्नानि गृह्णामि किं वा पश्यामि कौतुकम् ॥१८॥ वधूवरद्वयोरेव मिथःसंजल्पकोतुकम् । शृणोम्येकाग्रतो नूनं ततो मुष्णामि तद्धनम् ।। १८१ ।। इति निश्चित्य चित्ते स्वे शुश्रूषुः स्याद्वयोरपि । वाती विद्युच्चरो नाम्ना दस्युकर्मरतोऽपि यः ॥ १८२ ।। श्रुत्वा द्वयोर्यथा वृत्तं वृत्तांत वरकन्ययोः । परमाश्चयपदो जातः सोऽपि विद्युच्चरस्तदा ॥ १८३॥ अहो धैर्यमहो धैर्य वर्णितुं केन शक्यते । यावोऽपि मनोधैर्य नापि भिन्नं वधूजनैः ॥ १८४ ॥ अत्रांतरे कुमारस्य माता सा दुःखपूरिता । गमागमो करोति स्म व्याकुला तत्र वर्त्मनि ॥ १८५ ॥ पश्यति स्म महामोहाद्गृहद्वारं मुहुर्मुहुः। किं जातमथ किं भावि वर्तमानमथात्र किम् ।। १८६ ।। कामिनीकंठपाशे किमपतत्किमुतोऽथवा । इति संशयदोलायामारूढा दु:खिता सती ।। १८७॥ कुट्यपार्थेऽथ संलीनं तस्करं संददर्श सा । अवादीद्भीतभीता च कः कोऽस्त्यत्र महानिति ॥ १८८॥ ततो विद्युच्चरोऽवादीन्मातर्मा गच्छ साध्वसम् । अहं विद्युच्चरो नाम्ना चौरोऽस्मीह धरातले ।। १८९ ।। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते चौर्यकर्म करोम्यत्र नित्यं वनगरे वसन् । अतःपूर्व हृतं मातबहुशोऽपि महाधनम् ॥१९॥ मुषितं त्वद्गृहादेव स्वर्णरत्नादिकं मया । किमत्र बहुनोक्तेन यावदद्य विधीयते ॥ १९१ ॥ अथोवाच कुमारस्य माता विद्युच्चरं प्रति।' वत्स यद्रोचते तुभ्यं तद्गृहाण ममालयात् ॥ १९२ ।। ततो विद्युञ्चरेणोक्तं वाक्यं जिनमती प्रति । मातर्मन्यस्व मे चिन्तां न स्यादद्य धनार्जने ॥ १९३ ॥ किंतु कौतूहलं चैतन्मया दृष्टमपूर्वजम् । यावो न मनो भिन्नं कटावरयोषिताम् ॥ १९४ ॥ कारणं हि किमत्राहो मातरभ्रांतितो वद । अतस्त्वं मे वसा धर्मादहं भ्राता तथा तव ।। १९५॥ श्रुत्वा जिनमती पोचे धैर्यमालंब्य तं प्रति । भ्रातरेकोऽस्ति पुत्रो मे सुप्रीतः कुलदीपकः ॥ १९६॥ मोहादुद्वाहितोऽप्यद्य तपो वांच्छेद्विरक्तधीः । आसूर्योदयमस्यास्ति नियमस्तपसे ध्रुवम् ।। १९७।। भ्रातजैनीमसौ दक्षिां ग्रहीष्यति न संशयः । तद्वियोगकुठारेण मे मनः शतखंडताम् । नीयतेऽतोऽधुना भ्रातर्जातास्मि चलचेतसा ॥ १९८ ॥ द्रष्टुं पुत्रोत्सवं दैवाधृभिः सह संगमम् । मुहुर्मुहुर्वेश्मद्वारं व्याकुलाहं विलोकये ।। १९९ ॥ श्रुत्वा जिनमतीवाक्यं जातः कारुणिको महान् । ऊचे मातर्मया ज्ञातं सर्वमेतत्कथानकम् ॥२०॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिभार्याचतुष्ककथा- विद्युच्चरागमनवर्णनम् १८७ मा विभीस्त्वं सुसाध्येऽस्मिन् कार्ये कार्यविदा मया । यथाकथंचित्तत्पार्श्वे मंक्षु मां हि प्रवेशय ।। २०१ ॥ मोहनं स्तंभनं मंत्र तंत्रं चापि वशीकरम् । यथावदुर्घटं किंचित्तत्सर्वं हेलया क्रिये ॥। २०२ ।। अद्य चेदध्वदनसरोजालीमधुव्रतम् । त्वत्पुत्रं न करोम्यत्र तदेयं मे गतिर्ध्रुवम् ॥ २०३ ॥ एवं कृतप्रतिज्ञोऽसौ यावदास्ते वहिः स्वयम् । गत्वा जिनमती तत्र तद्वारे शनकैः स्थिता ॥ २०४ ॥ अंगुल्ययैः कपाटस्य युगलं तर्जयत्यपि । नोवाच व्रीडया किंचिच्चातुर्यैकनिधिस्तदा ॥ २०५ ॥ अररद्वंद्वमुद्घाटय नीतांतः सूनुना तदा । आशीर्दानपरा जाता प्रसन्ना प्रणुता सती ॥ २०६ ॥ अथ जम्बूकुमारेण विज्ञप्ता विनयाद हो । त्वरितं वद भो भ्रातः किमत्रागमकारणम् ॥ २०७ ॥ ऊचे जिनमती पुत्र त्वयि गर्भस्थितेऽगमत् । अनुजोऽयं मामको भ्रातर्वाणिज्यार्थे विदेशके ।। २०८ ॥ इदानीं स समाकर्ण्य पुत्रोद्वहमहोत्सवम् । दूरादप्यागतो द्रष्टुं युष्मत्संदर्शनोत्सुकः ॥ २०९ ॥ श्रुत्वा जिनमतीवाक्यमूचे जम्बूकुमारकः । आनयस्वाशु भो मातरागतं मम मातुलम् || २१० ॥ पुत्रस्याज्ञां समादाय मात्रा नीतः समश्रयात् । दस्युर्विद्युच्चरो नाम्ना तत्समीपे समागतः ॥ २११ ॥ १ कपाटम् । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जम्बूस्वामिचरिते मायामातुलमालोक्य जम्बृस्वामी स्वगौरवात् । आलिलिंग महास्नेहात्पल्यंकादुत्थितो त्वरा ॥ २१२ ॥ पृच्छति स्माथ तं स्वामी मार्गादिकुशलं वरम् । एतावत्सु दिनेषूच्चैः क स्थितं मातुल त्वया ॥ २१३॥. श्रुत्वा विद्युञ्चरोऽवादीद्भागिनेयधिया तदा । वाणिज्यस्य कृते सौम्य शृणु यत्र मया स्थितम् ॥ २१४॥ दक्षिणस्यां दिशि प्राप्य समुद्रं मलयाचलम् । पटीरादिद्रुमाकीर्णमग्रोत्तुंगमनोहरम् ।। २१५ ॥ अगम्यं हि सिहंलदीपं केरलं देशमुन्नतम् । द्रविडं चैत्यगृहारामं जैनलोकपरिवृतम् ।। २१६ ॥ चणिं कर्णाटसंज्ञं च कांबोज कौतुकावहम् । कांचीपुरं सुकात्या वै कांचनामं मनोहरम् ॥ २१७ ॥ कौतलं च समासाद्य सह्यं पर्वतमुन्नतम् । महाराष्ट्रं च वैदर्भदेशं नानावनाङ्कितम् ।। २१८ ॥ विचित्रं नर्मदातीरं प्रदेश विध्यपर्वतम् । विंध्याटवीं समुल्लंघ्य ततश्चलितवानहम् ।। २१९ ॥ आहीरदेश चेउलं भृगुकच्छतटं महत् । यत्र श्रीपालभूपालो धवलश्रेष्ठिनः सुतः ॥ २२० । कोङ्कणं नगरं चाथ किष्किंधनगरं स्फुटम् । इत्यादिकौतुकान्वषी दृश्यं वै कृतवानहम् ।। २२१ ॥ पश्चिमायां च सौराष्ट्रदेशं संदृष्टवानहम् । अनिशं तीर्थकर्तृणां पंचकल्याणपावनम् ॥ २२२ ॥ यत्रोर्जयादिशृंगेषु नेमिनाथो जिनेश्वरः । त्यक्त्वा राजीमती माया कृतवांश्च तपश्चिरम् ।। २२३ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिभार्याचतुष्ककथा-विद्युञ्चरागमनवर्णनम् १८९ संपदः संति सर्वाश्च तत्र को वर्णयेत्कविः। यतो मुक्तिमगान्नेमिः यदुवंशविभूषणः ॥ २२४ ॥ भिल्लमालं विशालं च गच्छेऽहं त्वर्बुदाचलम् । लाटदशं महारम्यं सर्वसंपत्समन्वितम् ॥ २२५ ॥ चित्रकूटं गिरं सौम्यं देशं मालवसंज्ञकम् । पारियात्रमवंत्याश्च देशं जैनालयाङ्कितम् ॥ २२६ ॥ उत्तरस्यामथो दृष्टा मया शाकंभरी पुरी। जैनचैत्यालयाकीर्णा मुनिदैः समाश्रिता ॥ २२७ ।। काश्मीरं करहाटं च सिंधुदेशसमस्तकम् । दृष्टवान्हेलया चाहं किं दूरं व्यवसायिनाम् ॥ २२८ ॥ ततः पूर्वदिशाभागे कन्नौज गौडदेशकम् । अंगं वंर्ग कलिंगं च जालंधरमनुक्रमात् ।। २२९ ॥ बाणारसी कामरूपं दृष्टवानहमादरात् । यद्यदृष्टं मया पूर्व तत्संव कथ्यते कियत् ।। २३० ॥ इति विविधकथोघं सद्विवेकी स भृण्वन् परपरिचयभीतः कामिनीमध्यसंस्थः । तदनुविरतचित्तो चौरवाक्यं च किंचित् जयति जगति पूज्यः स्वामिजम्बृकुमारः ।। २३१ ।। इति श्रीजम्बूस्वामिचरित्रे भगवच्छ्रीपश्चिमतीर्थकरोपदेशानुसरितस्याद्वादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारदपण्डितराजमल्लविरचिते साधुपासात्मजसाधुटोडरसमभ्यर्थिते भार्याचतुष्ककथाविद्युच्चरागमनवर्णनो नाम दशमः पर्वः ॥८॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ एकादशः पर्वः । धर्मवृद्धिप्रसादाद्वै सर्वेऽभीष्टा भवंतु ते । साधुपासांगजस्याहो तव श्रीसाधुटोडर ।। १ ।। इत्याशीर्वादः । मल्लि मोहमहामलप्रतिमल्लमहं स्तुवे । मुनिसुव्रतमाम्नातसुव्रतोपज्ञसंज्ञिकम् ॥ १ ॥ अथ विद्युच्चरोऽवादीन्मया मातुलसंज्ञकः । मार्दवोद्रोधमिच्छुस्तं जम्बूस्वामिनमंजसा ॥ २ ॥ अहो जम्बूकुमार त्वं महाभागो महोदयः । कामदेवसमो दीप्त्या वीर्याद्वज्रिसमो वली ॥ ३ ॥ हिमरश्मिसमः सौम्यो यशसात्र महीतले । मेरुवद्धीरवीरस्त्वं गंभीरश्च समुद्रवत् ॥ ४ ॥ भानुमानिव तेजस्वी कंजवत्कोमलाशयः । शरणागतं महाराज रक्षणे भुजपंजरः ॥ ५॥ दुर्लभं भोगसामग्रीं जानीहि त्वं धरातले । सा सर्वापि त्वया प्राप्ता पूर्वोपार्जितपुण्यतः ॥ ६ ॥ दुर्लभं चैकतश्चैकं वस्तुजातं स्वभावतः । भोक्तुं शक्तिर्न केषांचिद्यथासत्यपि भोजने ॥ ७ ॥ परेषां भोजनं नास्ति भोक्तुं शक्तिस्तु वर्तते । द्वयं प्राप्य न भुंजीत यः स दैवेन वंचितः ॥ ८ ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविद्युच्चरकथाचतुष्कवर्णनम् यथा वा संति कामिन्यः कामोत्साहो न विद्यते। अथ कामोद्यमस्तस्य कामिन्यो न कदाचन ॥ ९ ॥ यथा वा दानशक्तिश्चेद्हे द्रव्यं न वर्तते। अथ चेद् (त्स्व गृहे द्रव्यं दानशक्तिन जायते ॥१०॥ देवात्तदुभयं प्राप्य यो न भुंक्ते स मूढधीः । शशशृंगधनुःकृष्टेर्हति वंध्यासुतं जडः ॥ ११ ॥ तस्य हेतोस्तपालेशं चिकीर्षसि विचक्षणः। सांगं निर्विघ्नं पूर्ण तत्सुखं त्वत्पुर स्थितम् ॥ १२ ॥ तत्त्यक्त्वा तपसा नूनं ततः साधिकमीहसे। इदमाकूतं ते प्राज्ञ न परीक्षाक्षम कचित् ।। १३॥ एकं कथानकं रम्यं वच्मि दृष्टांतहेतवे । भागिनेय महाभाग सावधानतया शृणु ॥ १४ ॥ तद्यथा करभः कश्चिदासीत्सौहत्यमंथरम् । यथेच्छं कानने रम्ये भक्षति स्म द्रुमान् बहून् ॥१५॥ एकदा भ्रमता तेन वृक्षः कूपतटे स्थितः। आस्वादितो यथाखाद ग्रीवया लंबमानया ॥१६॥ तद्दलानि मृदून्येव लिहता करभेण च । स्वादित मक्षिकाजालान्मधुबिंदुं तथैककम् ॥ १७॥ चिंतयामास चित्ते स रसास्वादवशीकृतः। वृक्षस्यास्योर्ध्वशाखायां साधिकं तद्भविष्यति ॥१८॥ निश्चित्येति महालोभादूर्ध्वशाखां प्रचक्रमे । गंतुं पुनः पुनश्चोर्ध्वशाखां प्रति तृषातुरः ॥१९॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जम्बूस्वामिचरिते किं बहु प्रस्खलंस्तत्र मृतः कूपे पतन्नसौ । जजरांगो महालोभाद्रभूव करभो यथा ॥ २०॥ तथा त्वं भाविभोगार्थ त्यक्त्वा प्राप्तां हि संपदम् । चिकीर्षसि तपश्चोग्रपज्ञानेन विमोहितः ॥ २१ ॥ जम्बूस्वामी ततो वाचमूचे विद्युच्चरं प्रति । अत्रोत्तरपदं किंचिच्छृणु माम कथांतरं ।। २२ ॥ एको वणिक्सुतः कश्चित्समकार्यरतोऽभवत् । एकदा व्यवसायाथे गतो देशांतरं स्वतः॥ २३॥ मार्गे पिपासितः सोऽयमभूत्काननसंकटे । स्यात्तदा जलमप्राप्य पश्चात्तापेन पीडितः ॥ २४ ॥ निःसृतोऽहं वृथा गेहादरण्ये पतितोऽधुना। न प्रामोति जलं चेन्मे मरणं स्याद्विनिश्चयात् ॥ २५ ॥ चिंतयन्निति यावत्स आस्ते वणिग्वनांतरे । मुषितस्तावत्तत्रत्यैश्चौर्यकर्मपरायणः ॥ २६ ॥ ततः शोकपिपासाभ्यां पीडितोऽसौ वणिग्वरः । गंतुं नालं पदं चैकं सुसुष्वाप तरोरधः ।। २७॥ तत्र सुप्तः स अद्राक्षीत्स्वममेकं वनांतरे। पयः पीत्वा करोति स्म जिह्वया लेहनं तथा ॥२८॥ अथ जाग्रदवस्थः स चिंतयामास चेतसि ।। क सरः क जलं तच्च यन्मया पीतमंजसा ॥ २९ ॥ तद्वत्स्वमनिभां विद्धि मातुल मां च संपदम् । महतां हि कथं स्नेहो भवेदत्र कदाचन ॥३०॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविद्युच्चरकथाचतुष्कवर्णनम् इति श्रुत्वा कुमारस्य वार्त्ता विद्युच्चरस्तदा । जातो निरुत्तरस्तूर्ण मिथ्यैकांतादिवादिवत् ॥ ३१ ॥ अथ विद्युच्चरो दस्युर्मायया मातुलच यः । निरस्तोऽपि कथां कांचिदपरामब्रवीत्पुनः || ३२ ॥ एकः कचिद्वणिग्वृद्ध गृहमेधी प्रियारतः । तस्य प्रिया प्रचंडास्य (स्ति) पुंश्चली नवयौवना ॥ ३३ ॥ सैकदादाय स्वर्णादि तद्नेहादपि निर्गता । विटाद्रतसुखं भोक्तुं स्वेच्छया काम लंपटा ॥ ३४ ॥ गच्छती सापि धूर्तेन केनचिल्लक्षिता क्षणात् । रंजिता मायिना तेन चाटुवाक्यकृता जवात् ॥ ३५ ॥ तामुद्दिश्यावदद्भूतः स्नेहकोमलया गिरा । सुंदरि त्वयि दृष्टायां मयि स्यात्स्नेहवर्धनम् || ३६ | न जानीमो विशालाक्षि कारणं त्वत्र कर्मणि । किं वा जन्मांतराबद्धो स्नेहोऽयाप्यवशिष्यते ॥ ३७ ॥ सावादीच्चेदियं संस्था वर्तते तव चेतसि । तदा त्वमेव मे भर्ता नान्यश्चान्यादृशः क्वचित् ॥ ३८ ॥ ततस्तौ दंपती जातौ स्नेहवृद्धेः (द्धौ) परस्परम् | कामलीलां कुर्वतौ यथेच्छं सुरतप्रियौ ॥ ३९ ॥ ततःप्रभृति कालोऽगात्कियान्बहुतरस्तयोः । एकदा सापि लुब्धा स्यात्सार्द्धमन्येन कामिना ॥ ४० ॥ अथ द्वाभ्यां रतं भुक्ते सा ज्वलत्स्मरशालिनी । निर्लज्जा निर्घृणा पापा मायामिथ्याभिशंसिनी ॥ ४१ ॥ १३ १९३ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जम्बूस्वामिचरिते मनस्यन्यद्वचस्यन्यत्काये कुर्वति योषितः । अहो क्वापि न कर्तव्यो विश्वासस्तासु पंडितैः ॥ ४२ ॥ एकदा प्रथमो जारश्चितयामास दुष्टधीः । निगृह्णामि कथं चैनमनया भार्यया सह ॥ ४३ ॥ सोपायः स गतः शीघ्रं तलरक्षकसन्निधिम् । क्रोधाविष्टो महारौद्रमूचे दुश्चरितं तयोः ॥ ४४ ॥ तलरक्षक मद्वार्ती शृणु साश्चर्यकारिणीम् । रात्रौ कश्चित्समागत्य रमते मामकी वधूम् ॥४५॥ अथ चेत्तं कथंचित्त्वं क्षमो धतुं निशीथिके । तदा ते स्वर्णलाभः स्यादित्युक्त्वा स गृहेऽगमत् ॥ ४६॥ क्रमाजाते निशीथेऽथ जाग्रन्नेव स्थितस्तदा । यः पूर्वोपपतिस्तस्या द्रष्टुं तच्चरितं स्वयम् ।। ४७॥ अथागतो भोक्ता तस्या द्वितीयोपपतिः शनैः। तदंकात्सा समुत्थाय तत्समीपे गतेत्वरी ।। ४८ ॥ तेन नीता भराभोक्तुं यावत्कामातुरेण सा। तावत्तत्रागतस्तूणे ग्रहीतुं तलरक्षकः ॥ ४९॥ तत्र कोलाहले जाते सा दुष्टा कपटान्विता । पुनर्व्याघुव्य सुष्वाप पूर्वोपपतिसन्निधौ ।। ५० ॥ आगतास्ते महारौद्रास्तलरक्षकभृत्यकाः। ऊचुः कोऽत्र गृहे तिष्ठेविटो वा तस्करोऽथवा ॥ ५१ ॥ द्वितीयोपपतिर्वेगादुवाचान्वेषयंतु भोः। न जाने घूर्णमानोगो (नांगो) निद्रयाहं सुचूर्णितः ।। ५२॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविद्युच्चरकथाचतुष्कवर्णनम् १९५ इतोऽमुतस्ततो दृष्ट्वा बद्धः पूर्वपतिः शरैः।। सोऽहं येनोक्तमेवैतत्सायं चेति वदन्नपि ॥५३॥ तं नीत्वागुश्च स्वस्थाने घातयतः पदे पदे। यष्टिमुष्टिप्रहारैश्च महानिर्दयमानसाः ॥ ५४ ॥ अथ सा चिंतयामास मम श्रेयः पलायनम् । अन्यथा निग्रहोऽस्माकं भविष्यति न संशयः॥ ५५ ॥ विमश्येति तया जारः शिक्षितः स्वीयवार्त्तया। अथ द्वो दंपती भूत्वा गंतुं साढ़े समुद्यतौ ॥५६॥ नीत्वाथ यद्गृहे किंचिद्वस्त्रालंकरणादिकम् । उत्तम बहुमूल्यं च जारेणामा चचाल सा ॥ ५७ ॥ मार्गेऽगाधां नदीं प्राप्य पतिमन्योऽवदत्तदा। प्रिये वस्त्रादिकं मह्यं ददस्वाशु विशंकया (किता) ॥ ५८॥ समुत्तीर्य गते पारे स्थापयामि सुनिश्चलम् । एकत्र सुस्थिते स्थान वस्त्रालंकरणादिकम् ॥ ५९॥ पश्चादागत्य स्वस्कंधे त्वामारोप्य प्रयत्नतः। वेगादुत्तारयिष्यामि निःप्रत्यूहतया प्रिये ॥६०॥ स्वयं धूर्तापि विश्वासान्मन्यमाना तथैव सा ।। ददौ स्वर्णादिकं तस्मै प्रतीता पतिवुद्धितः ॥ ६१॥ सा स्वयं नाग्निका भूत्वा तस्थावर्वाक्तटे कचित् । वीभत्सा निस्त्रपा दृश्या डाकिनीच भयंकरा ॥ ६२॥ अथोत्तीर्य गतः पारे तस्याश्चोपपतिर्जवात् । नागतः पुनरत्रासौ नेतुमेकाकिनीमिमाम् ॥ ६३ ॥ १अमा सह । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जम्बूस्वामिचरिते सोवाच रे महाधूर्त मां मुक्त्वेह गतं त्वया । तेनोक्तं हे खले तत्र तिष्ठ त्वं पापशालिनि ॥६४ ॥ एतस्मिन्नंतरे कश्चिज्जंबुकः समुपागतः। उत्पुच्छं चालयन्नाशु मांसखंड मुखे दधन् ॥ ६५ ॥ जलादुच्छ (च्च) लितं मत्स्यमेकं दृष्ट्वा स जम्बुकः । धावति स्म महालोभान्मुक्त्वा मांसं मुखे स्थितम् ॥६६॥ लातुमर्हति यावत्स मत्स्योगाद्वारिमध्यगः। मांसपिंडमितो गृद्धो नीत्वागात्काननांतरे ॥ ६७ ॥ उभभ्रष्टं तमालोक्य जंबुकं दैववंचितम् । सा कामिनी जहासोचैः पंडितमन्यमानसा ॥ ६८॥ अविचार्य कृतं वै तज्जंबुकेन कुबुद्धिना । मुक्त्वा स्वाधीनमेवैतत्परायत्तं समिच्छता ॥ ६९॥ पारे स्थितोऽवदों मर्मभिद्वचनं तदा । त्वयापि किं कृतं मूर्खे पश्यात्मानं सुनिश्चिता ॥ ७० ॥ अयं तिर्यग् न जानाति वाच्यावाच्यं हिताहितम् । त्वं विदग्धा स्वभर्तारं हत्वा चान्यरताभवत् ॥ ७१ ।। तर्जयनिति तां मुक्त्वा धृर्ताऽगात्स्वीयसद्मनि । तदा साधोमुखी जाता नारी लज्जापरा यथा ॥ ७२ ॥ तथा त्वमपि मा गच्छ भागिनेयोऽपहास्यताम् । त्यक्त्वा हस्तस्थितां लक्ष्मीमिच्छन् दूरे स्थितामहो ॥ ७३ ।। ऊचे जंबूकुमारोऽसौ यत्कथां श्रुतिपेशलाम् । प्रसरदशनज्योतिरुद्दयोतितनिजालयः॥ ७४ ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविद्युञ्चरकथाचतुष्कवर्णनम् आसीद्वणिक्सुतः कविद्वाहनव्यवसायवान् । एकदा पोतमारुह्य सोऽगाद्वीपांतरे कचित् ।। ७५ ।। सर्व वस्तु सुविक्रीय रत्नमेकं समग्रहीद । ततः स्वगृहमुद्दिश्य चचाल वणिजां वरः ॥ ७६ ॥ चिंतयन्निति स्वे चित्ते कार्यसंदोहमीहितम् । हस्ते संस्थाप्य तद्रत्नं विलोकयन्मुहुर्मुहुः ॥ ७७ ॥ वेलाकूलमितः प्राप्य विक्रियेऽहं महन्मणिम् । ग्रहीष्यामि गजाश्वादि विविधं वस्तु सुंदरम् ॥ ७८ ॥ ततो नृपसमो भूत्वा यास्यामि निजपत्तनम् । श्रिया च शोभया पूर्णो मंत्रिभृत्यादिसेवितः ॥ ७९ ॥ तत्रापि स्वगृहे स्थित्वा जीविष्यामि सुखं यथा । लालयन्पुत्रपौत्रादि पश्यन् योषित्सु सस्मितम् ॥ ८० ॥ एवं चिंतयतस्तस्य यावद्रत्नमपीपतत् । हस्ताब्धौ प्रमादाद्वा दुर्दैवाद्वा महाभ्रमा (१) ॥ ८१ ॥ मोघीभूतास्ततस्तस्य चिंतिताश्च मनोरथाः । न दृश्यते महारत्नं हाहाकारं प्रकुर्वता ।। ८२ ।। तथाहं न भविष्यामि मातुल त्वमवैहि भो । त्यक्त्वा धर्मफलं सौख्यं दुःखं भुंजामि संप्रति ॥ ८३ ॥ इत्युत्तरप्रदानेन स्वामिना कथितेन वै । निरस्तो मातुलो नाम्ना चौरो विद्युच्चरोऽभवत् ॥ ८४ ॥ पुनराह कथामेकां दस्युर्विद्युच्चरस्तदा । हतोऽपि मुरजो नूनं करोति मधुरध्वनिम् ॥ ८५ ॥ १९७ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते तद्यथा घातकः कश्चिद्भिल्लोऽप्यासीद्धनुर्धरः । नाम्ना दृढपहारीति विंध्याद्रो संवसन्निति ।। ८६ ।। तेनैकदा हतो बन्यो कुंजरो बाणसंहतेः। वारि पातुं तृषाक्रांतः समागच्छन् जलाशये ॥ ८७ ॥ दैवात्सोऽपि मृतो भिल्लो दष्टः सर्पण तत्क्षणात् ।। अथ सोऽपि धनुर्घातान्तश्चाशु भुजंगमः ॥ ८८ ॥ मृतेष्वेतेषु जीवेषु गजभिल्लाहिषु स्फुटम् । आगतस्तत्र गोमायुः क्षुधितः कालनोदितः ॥ ८९ ।। पतितं चापि वीक्ष्याशु गजं भिल्लं सरीसृपम् । धनुश्चापि स हृष्टांगो जातो लोभाबुभुत्सया ॥ ९०॥ चिंतति स्माथ गोमायुः कुंजरोऽयं मृतो महान् । भक्षयिष्यामि षण्मासं यावदेन सुनिश्चलम् ॥ ९१॥ ततो मासैकपर्यतममुं नरकलेवरम् । ततोऽप्येकदिनं यावत्सपे भोक्तास्मि निश्चितम् ॥ ९२ ॥ इमे यथास्थिताः सर्वे तिष्ठतु कुंजरादयः। तावदद्य मया भोज्यो ज्याबद्धो गुण एव हि ॥ ९३ ॥ इति तं भक्षमाणोऽसो गोमायुः पापपाकतः। मृतस्त्रुटच्छराघातात्तालुस्फोटेन दुःखितः॥ ९४॥ यथा बहुसुखं चेच्छन् गोमायुर्मुत्युमागमत् । तथा त्वमेहिक सौख्यं त्यक्त्वा मा गच्छ हास्यताम् ।। ९५॥ मातुलोक्तं ततः श्रुत्वा प्रोचे जम्बूकुमारकः । किंचित्कथांतरं रम्यं प्रतिवाक्यदिदित्सया।। ९६ । १ गां विकृतां वाचं मिनोति शृगाल इत्यर्थः । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविद्युञ्चरकथाचतुष्कवर्णनम् एक: कर्मकरः कश्चिदासीदतिदरिद्रवान् । वनादिन्धनमानीय विक्रीय कुरुतेऽशनम् ।। ९७॥ अथैकदा महाभारं नीत्वा स्कंधे कथंचन । प्रतस्थे बत मध्याह्ने स्वालयं प्रति यत्नतः ॥९८॥ भाराक्रांतोऽथ पापात्मा तप्ततालुश्च तृष्णया । क्षणं सुष्वाप शांतः सन्नपभारस्तरोरधः ॥ ९९ ॥ मुप्तः स स्वममद्राक्षीन्निद्रया कर्मकारकः। साम्राज्यपदमारूढं स्वात्मानं समपश्यत ।। १००॥ आसीनं विष्टरे रम्ये मणिमौक्तिकभूषिते । चलञ्चामरसंघातैर्वीज्यमानं मुहुर्मुहुः ॥ १०१॥ बंदिबुंदजयारावैः स्तूयमान मनोहरैः। कापि यौवतमध्यस्थं कालकेलिरसाकुलम् ॥ १०२ ॥ गजाश्वादिपरीवारर्वेष्टिते राजमंदिरे । अत्रांतरे स पादाभ्यां ताडितो यष्टिमुष्टिभिः ॥१०३ ॥ भार्यया स्वस्य तत्रत्य क्षुधापीडितया बलात् । उत्थितो जागरूकः स चिंतयामास कर्मकृत् ॥१०४ ॥ केयं लक्ष्मीक साम्राज्य दृष्टनष्ट क्षणादपि । तद्वन्माम कलत्रादि स्वमसाम्राज्यसन्निभम् ।। १०५ ।। जानीहि क्षणिकं सर्व सद्यःमाणापहारि च। मत्वेति माम को धीमान् जनो दुःखालयं व्रजेत् ।। १०६॥ त्यक्त्वा स्वात्मोत्थितं सौख्यं जन्ममृत्युविनाशकृत् । जंबूस्वामिका श्रुत्वा प्रोचे विद्युच्चरः सुधीः॥१०७॥ १ युवतीनां समूहः। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जम्बूस्वामिचरिते यामिनीपश्चिमे भागे तुर्ये चापि कथानकम् । एकः कश्चिन्नटोऽभिज्ञो कलाविज्ञानकोविदः ॥ १०८ ॥ आसीदत्र सुविख्यातो यथानामा कुतूहली । अथैकदा नृपस्याग्रे ननर्त्त बहुकौशलात् ॥ १०९ ॥ नर्तकीभिः समाकीर्णः सालंकारिभिरप्यसौ । तन्नृत्यं पश्यता राज्ञा प्रसन्नमनसा तदा ॥ ११० ॥ दत्तं स्वर्णादिकं ताभ्यः पट्टकूलादिकं तथा । राज्ञः प्रसादं नीत्वा ते सुषुपुस्तत्र निद्रया ॥ १११ ॥ रजन्यां जागरूकत्वाद्द्वैतुमक्षमका नटाः । अथ सुप्तेषु तेषूच्चैर्नर्तक्यादिजनेष्वति ॥ ११२ ॥ नटवर्य्यस्तदा तस्थौ जाग्रन्नेव स पापधीः । जाग्रता चिंतितं तेन वंचकत्वधियाऽधिया ॥ ११३ ॥ नीत्वा हेमादि सर्वस्वं गच्छेयं नीवृदंतेरे। यथोत्पन्नं कृतं तेन नीत्वा सर्वस्वमंजसा ॥ ११४ ॥ गंतुकामो धृतस्तूर्ण जाग्रद्भिर्नर्तकीजनैः । चौरत्वेनाभियुक्तस्तैनतो भूपस्य सन्निधिम् ।। ११५ ।। दृष्ट्वा रुष्टेन भूपेन कृतं चौरोचितं हि यत् । तद्वखं भागिनेयाहो जम्बूस्वामिन्महामते ॥ ११६ ॥ मागाद्बह्वर्थलाभाय शोच्यावस्थां कदाचन । जम्बूस्वामी निशम्यैतन्मातुलोक्तं कथांतरम् ॥ ११७ ॥ किंचित्कथांतरं रम्यं प्रोवाच प्रतिभान्वितः । वाराणस्यां सुविख्यातो भूपोऽप्यासीन्महत्तरः ॥ ११८ ॥ १ क्षणान्तरे । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविद्युच्चरकथाचतुष्कवर्णनम् - २०१ आख्यया लोकपालोऽसौ राज्यभारधुरंधरः। तस्य राज्ञी तु नाम्ना स्यादपट्टा मनोरमा । कंदर्पस्य धनुयष्टिजिगीषोरिव भूपतेः ॥ ११९ ॥ अथान्येयुः स भूमीशो जगामाशु स्वलीलया । आखेटकक्रियासक्तो वन्यान्हंतुं वनांतरे ॥ १२० ॥ अत्रांतरे महाराज्ञी राज्ञस्तस्य मनोरमा। कामुकी रंतुकामासीत्कामबाणैर्निपीडिता ॥ १२१ ॥ द्रुतं कांचित्समाहूय विदग्धामभिसारिकाम् । चित्तस्थं गूढमाकूतं सानुदूतीमवेदयत् ॥ १२२॥ मातमा च विजानीहि तद्वाधां सोढुमक्षमाम् । कातरां कुपिते कामे त्वयि तत्परमानसाम् ।। १२३ ॥ तत्वं मे शरणं भूयाः सोद्यता मदनुग्रहे। कामा आनयस्वाशु गत्वाथ सुंदरं तरुणं नरम् ।। १२४ ॥ ना ततः सोचे महापापा दूती साहसिकं वचः । मय्यत्र सानुकूलायां मा दौस्थ्यं कुरु सुंदरि ॥ १२५ ॥ मोहयामि स्ववार्ताभिनिष्काममपि योगिनम् । का कथा नरकीटानां कामाज्ञावशवर्तिनाम् ॥ १२६ ॥ अंतरे दैवयोगाद्वै स्वसौधस्थितया तया । दृष्टः कोऽपि युवा वीथ्यां पर्यटस्तत्र लीलया ॥ १२७॥ नाम्ना चंग इति ख्यातः स्वर्णकारो दृढोरुकः । अयमेवोचितो रंतुं तया चेत्यवलक्षितः ॥ १२८ ॥ दृष्ट्वा तं मृगशावाक्षी दृती प्रत्याह पुंश्चली। एनमानय सोपायैर्जीवनस्य कृते मम ॥ १२९॥ १ मृगस्य शावः पोतकः । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जम्बूस्वामिचरिते प्रतस्थे सा तदादेशाती मायान्विता सती। आनयामास तं वेगास्थिता यत्र मनोरमा ॥ १३० ।। सा राज्ञी रंतुकामा तं यावन्नीत्वा स्वसद्मनि । शय्यातले समायाता सस्मरा मुरतोत्सवा ॥ १३१ ।। तावदैवागजारूढो भूपोऽध्यत्र समागतः। धृतातपत्रसच्छायो बीज्यमानः सुचामरैः ।। १३२ ।। आगच्छंत तमालोक्य राजानं स्वर्णकारकः । व्याकुलोऽभूद्भयाक्रांतः कंपमानो मुहुर्मुहुः ॥ १३३ ॥ गोपयित्वा तया चंगं कौशल्याद्गूढकूपके । सन्मुखीभूय भूपालः स्नेहान्नीतः स्वसमनि ॥ १३४ ॥ कामासक्तः स भूमीशः षण्मासं स्थितबानिह । मनोरमां मुखांभोजगंधलुब्धमधुव्रतः ॥ १३५ ॥ जीवनस्य कृते तत्र ग्रासमात्र प्रयत्नतः । भुक्तोच्छिष्टच्छलादेव क्षिपति स्म मनोरमा ॥ १३६ ॥ एवं यावत्स षण्मासं तिष्ठस्तत्रातिदुःखितः। पांडुरोगी महापापाज्जातो दुर्गधवासितः ॥ १३७ ॥ अथ भूपाज्ञया नीचैः कूपे प्रक्षालिते जलैः । चंगः प्रणालिकाद्वाराग्निर्गत्यागात्सरित्तटे ॥ १३८ ॥ तत्रत्यैः सर्वलोकैश्च पृष्टः साश्चर्यमानसैः । कोऽसि त्वं ते कथं पांडु जातं कांचनसन्निभम् ।। १३९ ॥ चंगेनोक्तमहो लोका मत्सौन्दर्यावलोकनात् । भोक्तुं पातालकन्याभिनीतोऽहं परमादरात् ॥ १४०॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविद्युच्चरकथाचतुष्कवर्णनम् २०३ ततश्च गंतुकामं मां ज्ञात्वात्मीयगृहोन्मुखम् । चक्रुर्वैवर्ण्यमत्यंत कोपाक्रांतास्तु ताः खलाः ॥ १४१ ॥ निसर्गतोऽपि यत्सत्यं न वंदति कदाचन । किं पुनः कारणं प्राप्य तद्यथा स्वर्णकारकः ।। १४२॥ ततश्चापि क्रमादेव कृच्छ्राच्छन्नैह प्रति । आगतश्चंगनामासौ कथंकथमिवात्महा ॥ १४३ ॥ तत्रानीतैर्महावैद्यैर्नीतः सौरभ्यमादरात । सुगंधद्रव्यसंयोगः शोभनांगोऽभवद्यथा ॥ १४४॥ अथैकदा गतस्तत्र वीथ्यां कार्यवशादिह । राजसौधसमीपस्थो सृष्टः सोऽपि तया स्त्रिया ॥ १४५ ॥ तथैव सस्मरा सोचे चंगमुद्दिश्य संज्ञया । आगच्छागच्छ भो भूयोऽप्येकशो मम सद्मनि ॥ १४६ ।। चंगेनोक्तमलं स्नेहेस्तावकीयैः खलेऽधुना। यत्प्राप्तं त्वद्गृहादुःखं विस्मरामि न तत्क्षणम् ।। १४७॥ अद्यापि न तन्मदेहाद्दौर्गन्ध्यं याति सर्वतः। उपसर्गाच्चन्मुक्तोऽहं नाविमृश्यं करोम्यतः ।। १४८ ॥ तद्वन्नाहं भविष्यामि मुखलेशस्य हेतवे । तिर्यगादिगतिष्याहो जातुचिदुःखभाजनम् ।। १४९ ॥ बहुमलपितेनालं मातुल त्वमवैहि भो । नाहमाक्ष्यं सुखं मुंजे समाधानशतैरपि ॥ १५० ॥ ज्ञात्वा विद्युच्चरो दस्युः कुमारं दृढमानसम् । स्तुतिं चक्रे सुनिविण्णः सोऽप्यासन्नभवः स्वतः।। १५१ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते अहो स्वामिन्नहो प्राज्ञ धन्योऽसि त्वं जगत्रये । मादृशां का कथा नाथ त्वं पूज्यस्त्रिदशैरपि ।। १५२ ।। संसारजलधेः पारं प्राप्तोऽसि त्वं महामते । धर्मकल्पतरोर्मूलं त्वं भेत्ता कर्मभूभृताम् ।। १५३ ।। इत्यादिस्तवनं कृत्वा तेन विद्युच्चरेण वै । निःशेषमात्मवृत्तांतं गदितं तस्करादिकम् ॥ १५४ ॥ अत्रांतरे दिगासीत्प्राग्रक्तवर्णा सुभास्वरा । जम्बूकुमारसंत्यक्तै रागैर्जातैरिवाध्वनिः ।। १५५ ।। केचित्सद्दृष्टयस्तत्र ध्यानसंलीनमानसाः । कायोत्सर्गपरा भव्या बभूवुः परमादरात् ।। १५६ ।। केचिच्छ्रीमज्जिनेशानां पूजां कर्तुं समुद्यताः । गंधधूपादिसामग्रीं स्वीकुर्वाणा बभ्रुस्तराम् ।। १५७ ।। ततो वेगादुदेति स्म भानुमानुदयाचलात् । स्वामिनं द्रष्टुमौत्सुक्यादुद्यन्नेव गर्भस्तिभिः ॥ १५८ ॥ यत्प्रसादान्महासत्त्वा भुंजतिं सुखमच्युतम् । शक्रचक्रपदं चैव सेव्यो धर्मः स धार्मिकैः ।। १५९ ।। २०४ इति श्रीजम्बूस्वामिचरित्रे भगवछ्रीपश्चिमतीर्थकरोपदेशानुसरितस्याद्वादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारद पण्डितराजमल्लविरचिते साधुपासात्मजसाधुटोडरसमभ्यर्थिते विद्युच्च रकथाचतुष्कवर्णनो नाम एकादशः पर्वः । १ किरणैः । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वादशः पर्वः । शिवमस्तु सदा तुभ्यं जैनशासनशासनात् । साधुपासांगजस्यास्य तव श्री साधुटोडर ॥ १ ॥ इत्याशीर्वादः । नमि नमत्सुराधीश पंचकल्याणभागिनम् । नेमिं धर्मरथस्येव नेमिं नौमि जगद्गुरुम् ॥ १ ॥ अथ प्रभातसमये यदभूच्छ्रेष्ठिनो गृहे । प्रवक्ष्यामि तदेवोच्चैर्यथावृत्तमनुक्रमात् ॥ २ ॥ नैश तस्य कथावृत्तमश्रौषीच्छ्रेणिको नृपः । अर्हदासेन संप्रोक्तं स्वतो गत्वा नृपालयम् ॥ ३॥ क्षणं वैलक्ष्यमासाद्य सान्द्रस्त्रेहवशान्नृपः । धर्मबुद्धया पुनः सोऽयं ज्ञातश्चानंदनिर्भरः ॥ ४ ॥ नेदुदुदुभयस्तत्र श्रेणिकस्याज्ञया तदा । केवलज्ञानसाम्राज्यपदावाप्तिर्जयावहा ।। ५ ।। मृदंगानकनादैश्व व्याप्तो भूवलयस्तदा । कल्याणेष्वेव तीर्थेशां व्योममार्गे यथामरैः ॥ ६॥ आगतः श्रेणिको भूपः सोत्सुकः श्रेष्ठिनो गृहे । स्नेहार्द्रः सकुटुम्बव वंदितुं स्वामिपंकजम् ॥ ७ ॥ नेत्रवक्त्रादिचेष्टाभिर्निर्विकाराभिरस्य वै । वीरं वैराग्यमारूढं स्वामिनं सोऽप्यजिज्ञपत् ॥ ८ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जम्बूस्वामिचरिते ज्ञात्वा स भूषयामास स्वामिनं भूषणादिभिः । जानन्नपि विरागं तं भावशुद्धयर्थमात्मनः ॥९॥ चंदनादिद्रवैरंगं चर्चित स्वामिनो बभौ । यथा मेरौ जिनेशस्य भूपेनेवामरेशिना ॥ १० ॥ सशेखरं शिरस्तस्य शोभामापातिशायिनीम् । स्वयंवराय मुक्तश्रीकामिन्या इव संस्तुतम् ॥ ११ ॥ ततः सानुमतिर्भूत्वा भूपतिः श्रेष्ठिना सह । शिविकायां वहस्ताभ्यां स्थापयामास स्वामिनम् ।। १२ ।। वने गंतुं समुद्युक्तं स्वामिनं तपसः कृते । सर्वः पौरजनस्तत्रागमद्वीक्षितुमादरात् ॥ १३ ।। समकार्याण्यतीत्यापि धावंती जनसंहतिः। अद(१)ष्टमिव तं द्रष्टुमाजगाम सकौतुकात् ॥ १४ ॥ मुक्तभार्याचतुष्कोऽसौ सिद्धिसौख्याभिलाषवान् । धन्योऽयमिति सर्वेऽपि जजल्पुस्ते परस्परम् ॥ १५ ॥ हाहाकारो महानासीत्तदा राजगृहे पुरे । केचित्तत्स्नेहसंसक्ता मुमूर्च्छरिव दुःखिताः ॥ १६ ॥ अत्रांतरे समायाता माता जिनमती सती । स्रवदश्रुसमाक्रांतं गद्दं चाभिजल्पति ॥ १७॥ प्रतीक्षस्व क्षणं यावत्पुत्र मां मातरं प्रति । इति दीनगिरं मोहादुद्गिरंती मुमूर्च्छया ॥ १८ ॥ नष्टचेष्टामिवालोक्य श्वश्रू तावधूजनः । विललाप महामोहात् सशोकां गिरमुद्गिरन् ॥ १९ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिनिर्वाणगमनवर्णनम् २०७ हा नाथ मन्महाप्राण हा कंदर्पकलेवर । अनाथा वयमद्याहो विनाप्यागाकृताः कथम् ॥ २० ॥ धिग्दैवं येन दत्तास्य तपसे बुद्धिरुत्कटा। पश्यता स्म महादुःख तत्कारुण्यमकुर्वता ॥ २१ ॥ अद्यापि भो कृपानाथ प्रसीद कुरु मार्दवम् । भुक्ष्व भोगान्नभोगाभान्नित्यूचुस्ताः प्रियास्तदा ॥२२॥ रजर्वयं कथं नाथ त्वां विना दीनवृत्तयः। यथा चन्द्राइते रात्रिरिति दनिगिरश्च ताः ॥२३॥ ततः सोपायमालंब्य चंदनादिद्रवैरपि । यत्नैर्जिनमती नीता ताभिश्चेतनतां तदा ॥ २४॥ सावधाना तदा प्रोचे माता जिनमती सती। वीरवैराग्यमारूढं स्वामिनं प्रति प्रश्रयात् ॥ २५॥ केदं तव वपुर्वत्स कदलीगर्भकोमलम् । खड्गधारानिभं पुत्र केदमुग्रतरं तपः॥२६॥ अंगुष्ठाज्ज्वलितो वह्निर्यथा याति स्वमस्तके । तथा तपो विजानीहि तस्मादप्यतिरिक्तकम् ॥ २७ ॥ कर्तु भूशयनं बाल कथं शक्नोषि दुःखदम् । बाहुमुच्छीर्षकं कृत्वा गमिष्यसि कथं निशाम् ॥ २८ ॥ अप्यावां (हि) परित्यज्य पितरौ कोमलाशयो। विना गा (2) दुःखितौ कृत्वा कथं यासि वनांतरे ॥ २९ ॥ इमा वध्वश्चतस्रोऽपि त्वामृते दुःखपूरिताः। एकाकिन्यो न शोभंते भावशून्याः क्रिया इव ॥ ३० ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जम्बूस्वामिचरिते इत्यादिबहुधालापविलपंतीमिवातुराम् । मातरं प्रति प्रोवाच जम्बूस्वामी दृढाशयः ॥ ३१ ॥ मातः शोकं जहीहि त्वं कातरत्वं परित्यज । । भावयाजस्रमेवेमामनित्यां संसृतिस्थितिम् ॥ ३२ ॥ आदौ वैषयिक सौख्यं मातभुक्त्वोज्झितं मया। बहुशोऽपि यतस्तद्धि न समीहामहे वयम् ॥ ३३ ॥ स्वर्गेऽपि यन्महाभोगेर्नागात्तृप्तिमयं जनः। एभिः स्वमनिर्भमत्यैः स कथं तृप्तिमाप्नुयात् ॥ ३४ ॥ न जाने कियतो वारानभवं नारकः सुरः। तिर्यक्चापि नरश्चाहं भूत्वा भूत्वा पुनः पुनः॥ ३५ ॥ उक्तं च“कति न कति न वारान् भूपतिभूरिभूतिः कति न कति न वारानत्र जातोऽस्मि कीटः । नियतमिति न कस्याप्यस्ति सौख्यं न दुःखं जगति तरलरूपे किं मुदा किं शुचा वा ॥ १ ।।” इति प्रभृतिवाक्यांशैरुचितैरमृतोपमैः। मातरं प्रतिबोध्याशु निरगात्स निजालयात् ॥ ३६॥ गच्छन्ननुवनं रेजे तदासो विमुखो गृहात । त्रुटद्धंधनस्वच्छंदो महागज इव द्रुतम् ॥ ३७॥ स्तुवंति स्म तदा तुष्टाः सर्वेऽप्यासन्नभव्यकाः। तृणाय मन्यमानं तं पदं साम्राज्यसन्निभम् ॥ ३८॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिनिर्वाणगमनवर्णनम् २०९ अथानंदसमायुक्तः श्रेणिकादिनृपादिभिः। शिबिकायां स्थितो नीतो हस्ताद्धस्तैः स काननम् ॥ ३९ ॥ फलपुष्पसमाकीर्णमकालेऽपि फलोदयम् । तदा तत्काननं रेजे किंचिन्मृष्टविशेषकम् ॥ ४०॥ अनिलोदूतशाखाग्रेश्चलमानैरितस्ततः । जम्बृखामिकुमारस्यागमे नृत्यमिवातनोत् ।। ४१॥ तत्रस्थं मुनिमानम्य गुरुं सौधर्मसंज्ञकम् । उपविष्टो यथास्थाने कुमारोऽभिमुखं मुनेः॥४२॥ उत्तमांगे स विन्यस्य कुड्मलीकृतहस्तकम् । तेन जम्बूकुमारेण विज्ञप्तो मुनिरादरात् ॥ ४३॥ कृपासागर सद्वृत्त मामुद्धर भवार्णवात् । नानादुःखशतावैतनिमज्जत कुयोनिषु ॥ ४४ ॥ अद्य मे करुणां कृत्वा देहि दीक्षां भवापहाम् । पावनी सस्पृहां सर्वैः कर्मनिर्मूलनक्षमाम् ॥ ४५ ॥ लब्धानुज्ञः स शुद्धात्मा गुरोः सर्वसमक्षतः। अंगादुत्तारयामास भूषणानि विरक्तधीः ॥ ४६॥ तावत्पुष्पसजो मुक्ताः स्वकिरीटाग्रकोटितः।। दूरीकृता बलादेव मन्मथस्य शरा इव ।। ४७॥ आक्षिपन्मुकुटं मर्दनो हेलया रत्ननिर्मितं । मानौन्नत्यमिवाशेष निर्जयान्मोहभूपतेः ॥४८॥ ततोऽप्युत्तारयामास हारावल्याद्यलंकृतान् । मुद्रिकादींश्च सद्रत्ननिर्मितानंगतः स्फुटम् ॥ ४९ ॥ १४ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जम्बूस्वामिचरिते ततस्तत्याज वस्त्राणि श्लक्ष्णानीय निजान्वयात् । पटलानीव मायायाः क्षणादेव विचक्षणः ।। ५०॥ तुत्रोट कटिसूत्रं च घटितं मणिवेष्टितं । दृढं बंधनमस्येव संसारस्य महाद्विषः ।। ५१ ।। ततः कुंडलयुग्मं च न्यक्कृतं कर्णयोः स्थितं । त्रुटद्भवरथस्येव चक्रयुग्ममिवामुना ॥ ५२ ॥ कचलोचः कृतस्तेन कराभ्यां स्वस्य लीलया। पंचमुष्टि यथाम्नायमोन्नमश्चच्चिरनिति ॥ ५३॥ ततश्चांगीकरोति स्म गुरोरादेशतः क्रमात् । शुद्धान्मूलगुणान्सर्वानष्टाविंशतिसंमितान् ॥ ५४॥ महाव्रतानि पंचैव स्मृताः समितयस्तथा। इंद्रियाणां निरोधश्च पंचधेति प्रकीर्तितः ॥ ५५ ॥ लोचश्चैको गुणो मुख्यः षोढावश्यकसक्रिया। अचेलत्वं ततः प्रोक्तं शुद्धचारित्रधारिभिः ॥ ५६ ॥ अहिंसाव्रतसिद्धयर्थ यतीनां स्नानवर्जनम् । पाशुकावनौ शयनं वैराग्यादिविवृद्धये ।। ५७॥ दंतकाष्ठादिभोगश्च विरागाणामनुत्तमः । गल्लूपादिक्रिया चापि कर्तव्या न यतीश्वरैः॥५८॥ कायोत्सर्गेण भोक्तव्यं स्थितिभोजनमेकशः । केवलं देहसिद्धयर्थ न भोगार्थ कदाचन ॥ ५९ ॥ एते मूलगुणाः प्रोक्ताः श्रमणानां जिनेश्वरैः। संत्युत्तरगुणाश्चापि लक्षाश्चतुरशीतिकाः।। ६०॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिनिर्वाणगमनवर्णनम् २११ सर्वेऽप्यामरणं नीत्वा पालनीया मुमुक्षुभिः। एतत्समुदितं सर्व निश्चित स्यान्मुनिव्रतम् ॥ ६१॥ इत्युक्तं गुरुणा स्वेन गुरुणा सद्गुणैरपि । श्रुत्वा जम्बूकुमारोऽसौ सर्व जग्राह शुद्धधीः ॥ ६२ ।। ततो जयजयारावं चक्रुः सर्वेऽपि संमुदा। श्रेणिकप्रमुखा भूपाः सर्वे पौरजनास्तथा ॥ ६३ ॥ ततः केचित्तु भूपालाः शुद्धसम्यक्त्वभूषिताः। बभूवुमुनयो नूनं यथाजातस्वरूपकाः।। ६४ ।। केचिन्मोहावृतेस्तत्र क्लीवत्वेन कदर्थिताः। श्रावकस्य व्रतान्युच्चैस्तेऽपि जगृहुः सादरात् ॥ ६५॥ अथ विद्युच्चरो दस्युर्विरक्तो भवभोगतः। सर्वसंगपरित्यागलक्षणं व्रतमाहीत् ।। ६६ ॥ सार्ध पंचशतैर्भूपपुत्रैरासीत्स संयमी । दस्युकर्मरतैः सर्वैः प्रभवादिसुसंज्ञिकैः ॥ ६७ ॥ अतः परं सुनिर्विण्णः सोऽर्हद्दासो वणिग्वरः। सकलत्रं गृहं त्यक्त्वा दृढोऽभून्सुनिकुंजरः ॥ ६८ ॥ सुप्रभाक्षांतिका पार्थे माता जिनमती ततः। संसारासारतां मत्वा स्यादार्यिका (याः) व्रतान्विता ॥ ६९ ॥ पद्मश्रीप्रमुखा वध्वो वीक्ष्य संमृतिसंस्थितिम । सुप्रभां गणिनी नत्वा गृहंति स्म तपो महत् ।। ७०॥ प्रणम्याशु ततः सर्वान् सौधर्मादिमुनीश्वरान् । जग्मुः श्रेणिकभूपाद्याः प्रतिसअसमुत्सुकाः ॥ ७१ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जम्बूस्वामिचरिते कृतार्थ मन्यमानः स स्वात्मानं सद्ब्रतान्वितः।। कृतोपासविधिस्तत्र स्थितो वाचंयमी बने ॥ ७२ ॥ यथाशक्ति समाधाय तेऽपि विद्युच्चरादयः। नीत्वोपवाससंख्याश्च तस्थुानावलंबिनः ।। ७३ ।। सिद्धभक्तिं समाध्यंते पठित्वाथ महामुनिः। प्रतस्थेऽतोऽनघे मार्गे पारणायै कृतोद्यमः॥ ७४ ॥ विशन्राजगृहे रम्ये पुरे शोभात सुसंयतः । अहो पुण्यपदार्थोऽयमायातो मूर्तिमानिव ।। ७५ ॥ आगच्छंते तमालोक्य दूरादानम्रमस्तकाः। प्रणेमुः श्रावकाः सर्वे श्रेयोऽर्थ वीतमत्सराः॥ ७६ ॥ केचिच्चित्रमिवालोक्य संजजल्पुः सविस्मयम् । योऽभू (द) ग्राग्रणीः पूर्व सोऽयं जातो मुनीश्वरः॥ ७७॥ अहो देवस्य वैचित्र्यं कर्मणां रसपाकतः। को वेत्ति किं कथं भावि ज्ञानादन्यत्र मादृशः ।। ७८ ॥ केचिदानरसाः शक्ताः प्रतिग्राहितुमुत्सुकाः। तस्थुर्व्यस्ताः खवीथ्यंतर्मार्गालोकनतत्पराः ॥ ७९ ॥ वदंति स्म जनाः केचित् स्वामिन्नत्र कृपां कुरु । पवित्रीकुरु नो वेश्म चरणाम्बुजरेणुभिः॥८॥ तिष्ठ तिष्ठात्र मद्रोहे जम्बूखामिन्महामुने । प्राशुकान्नं गृहाणाध निरवयं भक्त्या ( मया) र्पितम् ।। ८१॥ इहैवागच्छ मद्नेहमिहैवागच्छ मद्गृहम् । ऊचुरानेडितं भव्या मिथः केचिदितोऽमुतः ॥ ८२॥ १ आम्नेडितं द्विस्त्रिरुक्तं इत्यमरः । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिनिर्वाणगमनवर्णनम् २१३ काचिदचे वयस्योऽयं मन्मथाकारविग्रहः । सुकरांगः कथं कुर्यात्तपो दुष्करमंजसा ।। ८३ ॥ अगमद्वंदनाव्याजात्काचिदाशी (रा)निरीक्षतुम् । कामदेवनिभं देवमकाममपि स्वामिनम् ॥ ८४ ॥ इत्यादिविविधालापैः संवदत्सुजनेष्वपि । अगादचित्यवृत्त्यासौ जिनदासस्य सद्मनि ॥ ८५॥ नवकोटिविशुद्धं स जग्राहाहारमल्पशः । अभूदानातिशायित्वात्पंचाश्चर्य तदंगणे॥८६॥ नीत्वाहारं स शुद्धात्मा निरीहोऽपि समीहया। कृतेर्यापथसंशुद्धिश्चचालानुवनं मुनिः ॥ ८७ ॥ क्रमादाप वनस्यांते पार्थ सौधर्मसन्मुनेः । सर्वतः सुतपःसिद्धये निर्वाणस्य महौजसः ॥ ८८॥ अथ सौधर्मसंज्ञस्य मुनेः कतिपयैदिनैः । प्रादुरासीत्स्वभावोत्थं केवलज्ञानमेजसा ।। ८९॥ पादमलेऽस्य सर्वार्थवेदिनोऽनंतधर्मणः। चरति स्म तपश्चोग्रं जम्बूस्वामी महामुनिः ।। ९०॥ तपोऽनशननन(?)मायं करोति स्म स सादरात् । वेगादात्मविशुद्धयर्थमह्निसंख्या पुरःसरम् ।। ९१ ॥ द्वितीयमवमौदर्य चरति स्म तपो महत् । एकग्रासादिकं मुंजन्नोदनं सजलं शमी ॥ ९२॥ विधाय समसंख्यादि यथालुब्धमलुब्धकः । वृत्तिसंख्यानमेवैतत्तृतीयं तप आसदत् ॥ ९३॥ १ सुकोमलाङ्गः । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जम्बूस्वामिचरिते समाचरस्तपस्तुर्य रसानां परिहापनम् । हृषीकाणां निषेधाय स्मरोद्रेकस्य शांतये ॥ ९४ ॥ शून्यागारवनाद्यद्रौ चकार वसतिं वशी। तपोऽदः पंचमं नाना विविक्तशयनासनम् ।। ९५ ॥ षष्ठसंज्ञं समाख्यातं कायक्लेशाभिधं तपः। महोपसर्गजेत्रास्त्रं कर्त्तव्यं सुमनीषिभिः॥ ९६ ॥ इदं बाह्यं तपः पोढा चर्करीति स्म हेलया । जम्बृस्वामी महावीर्यो धैर्यस्यैकपदं महत् ।। ९७ ॥ अभ्यंतरं तपः प्रोक्तं प्रायश्चित्तं यदादिमम् । कुमारः स्वीकरोति स्म लब्धान्वर्थाभिधानकम् ।। ९८ ॥ निश्चयादात्मधर्मेषु मोक्षमार्गेष्वनुद्धतः। विनयं तमकार्षीत् स यथास्वं परमेष्ठिषु ॥ ९९ ॥ नातिक्रमो मुनीशानां नमस्कारक्रियादिषु । वैयावृत्यं तपः प्रोक्तं तत्तृतीयं सुखप्रदम् ॥ १० ॥ शुद्धस्वात्मानुभूतेः स्यादभ्यासात् परमं तपः। स्वाध्यायं निश्चयाच्छुद्धं चतुर्थमकरोन्मुनिः ॥ १०१ ॥ शरीरोपाधिभेदेषु ममत्वपरिवर्जनं । व्युत्सर्गाख्यं तपस्तच्च पंचमं मुनिना कृतम् ॥ १०२ ॥ ततोऽप्यनुत्तरध्यानं तपः षष्ठमनुत्तरम् । कृत्स्नचिंतानिरोधेन यच्चैतन्यावलंबनम् ॥ १०३ ।। षोढेत्याभ्यंतरं शुद्धं तत्तपो मुक्तिकारणम् । स निर्विण्णमनाः सर्व निरतिचारमाददे ॥१०४ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिनिर्वाणगमनवर्णनम् २१५ अप्यभिव्यक्तरूपश्च जातजातस्वरूपतः । गुप्तो गुप्तित्रयेणोच्चैर्वाङ्मनोयोगनिग्रहात् ॥ १०५ ।। कषायारिचमूं जेतु बद्धकक्ष इवाबभौ। धृत्वा प्रशमजेः शस्त्रं सन्मुखं योद्धमुद्धतः ॥ १०६ ॥ मन्मथस्य प्रियामारादति मागेव निघ्नता । प्रवारितो भटो मारो हेलया येन निर्जितः ॥ १०७ ।। द्वादशांगमहाविद्यावारिधेः पारगः सुधी । द्रव्यभावादिभेदेन नैकधार्थप्रपंचकः ॥१०८ ॥ एवमष्टादशाब्दानां व्यतिक्रांता इच क्षणं । जम्बूस्वामिनि घोरोग्रं तपः कुर्वति नैकथा ।। १०९ ।। तपोमासे सिते पक्षे सप्तम्यां च शुभ दिने । निर्वाण प्राप सौधर्मो विपुलाचलमस्तकात् ।। ११० ॥ अनंतसुखपाथोधौ निमग्नं बलभूषितम् । अनंतदर्शनज्ञानं तमहं नौमि श्रेयसे ।। १२१ ॥ तत्रैवाहनि यामार्धव्यवधानवति प्रभोः। उत्पन्न केवलज्ञानं जम्बूस्वामिमुनेस्तदा ।। ११२ ॥ नष्टे मोहरिपो ज्ञानदर्शनावरणक्षये । आसीत्पद्मासनस्तस्य ज्ञान वीर्यावृतेः क्षयम् ॥ ११३॥ ततः केवलपूजार्थमाजग्मुत्रिदशालयाः। सोत्साहा सपरीवारा निजद्धादिसमन्विताः ॥ ११४ ॥ प्रणेमुनिःपरीत्याथ स्वामिन त्रिजगद्गुरुम् । उच्चैर्जयजयारावमुच्चरंतोऽमराधिपाः॥११५ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते पूजयित्वाथ सामग्या तुष्टुवुः प्रभुमादरात् । गद्यपद्यादिसद्वृत्तैरनौपम्यैः सुरेश्वराः ॥ ११६ ॥ जय प्रचंडकंदर्पदर्पसापह प्रभो। जय केवलमार्तड प्रकाशितजगत्त्रय ॥ ११७ ॥ स्तुत्वेति बहुधा स्तोत्रैः प्रात्यकेवलिनं जिनम् । ययुर्देवा निजं धाम मन्यमानाः कृतार्थताम् ॥ ११८ ।। विजहर्ष ततो भूमौ श्रितो गंधकुटी जिनः । मगधादिमहादेशमथुरादिपुरीस्तथा ॥११९ ॥ कुर्वन् धर्मोपदेशंस केवलज्ञानलोचनः । वर्षाष्टादशपर्यतं स्थितस्तत्र जिनाधिपः ॥ १२० ॥ ततो जगाम निर्वाणं केवली विपुलाचलात् । कर्माष्टकविनिर्मुक्तः शाश्वतानंतसौख्यभाक् ॥ १२१ ॥ ततोऽनंतरमेवासावर्हद्दासो मुनीश्वरः । अंते सल्लेखनां कृत्वा षष्ठेऽभूदिवि देवराट् ॥ १२२ ॥ नाम्ना जिनमती सापि कृत्वा सल्लेखनां शुभाम् । ब्रह्मोत्तरे सुरेन्द्रोऽभूच्छित्वा योषित्कुलिंगकं ॥ १२३ ॥ ततो वध्वश्चतरस्ता वासुपूज्यजिनालये । मृत्वा चंपापुरे तत्र देवीजाता महर्द्धिकाः॥१२४ ॥ अथ विद्युच्चरो नाम्ना पर्यटन्निह सन्मुनिः। एकादशांगविद्यायामधीती विदधत्तपः ।। १२५ ॥ अथान्येयुः स निःसंगो मुनिपंचशतैर्वृतः।। मथुरायां महोद्यानप्रदेशेष्वगमन्मुदा ॥ १२६ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिनिर्वाणगमनवर्णनम् तदागच्छत्स बैल (र) क्त्यं भानुरस्ताचलं श्रितः । घोरोपसर्गमेतेषां स्वयं द्रष्टुमिवाक्षमः ॥ १२७ ॥ अब्रवीच्चंडमारीति काचित्तद्वनदेवता । २१७ मुने पंचदिनान्यत्र स्थातव्यं न त्वयाधुना ॥ १२८ ॥ आगत्य सप्त (?) यात्रायै भूतप्रेतादयस्त्विह । क्षुद्रा वाघां करिष्यंति युष्माकं सोडुमक्षमां ॥ १२९ ॥ अतस्त्वैतत्परित्यज्य स्थानमन्यत्र गम्यताम् । दुर्निमित्तं त्यजति ज्ञाः संयमध्यानसिद्धये ।। १३० ॥ इत्युक्त्वा सा गता तूर्ण चंडमारी निजालयम् । ऊचे विद्युच्चरः प्राज्ञो मुनिमुद्दिश्य साम्यतः ॥ १३१ ॥ अहो बृद्धगणा यूयं मा कुर्वेतु हटक्रियाम् । निष्प्रमादतया चातः स्थानादन्यत्र गम्यताम् ॥ १३२ ॥ श्रुत्वैतन्मुनयः केचिदूचुर्निशंकिताशयाः । अस्तं गते दिवानाथे नेयं कालोचितक्रिया ।। १३३ ।। विभ्यतां कीदृशो धर्मः स्वामिन्निःशंकिताभिधः । उपसर्गसहो योगी प्रसिद्धः परमागमे ।। १३४ ॥ भवत्वत्र यथाभाव्यं भाविकर्मशुभाशुभम् । तिष्ठामो वयमद्यैव रजन्यां मौनवृत्तयः ।। १३५ ॥ निशम्यैतद्वचस्तेषां तस्थौ विद्युच्चरो मुनिः । नैशं योग प्रतिष्ठाप्य मौनमालंव्य धीरधीः ॥ १३६ ॥ ततोऽन्धतमसा व्याप्तमाशामास्यं दुरीक्षणात् । विश्वं जिघत्सुमायातो लयःकाल इव क्षणात् ।। १३७ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जम्बूस्वामिचरिते अत्रांतरे समायाता भूतमेताथ राक्षसाः । इतोऽमुतच धावतो भीषणाकृतिधारकाः ।। १३८ ॥ केचिन्मशकदंशा ददशूकनिभाः परे । केचित्तु कुक्कुटाकाराः सतीक्ष्णा नखचंचवः ।। १३९ ॥ फेत्कारादिवं केचित्कुर्वतोऽतिभयानकाः । नभस्युल्लालयंत्युच्चैर्मासखंडानितस्ततः ।। १४० ॥ सद्यः श्रोणितसंलिप्तकपालांकितपाणयः । निर्यमानिभीमास्याः कंठबद्धास्थिसंचयाः ॥ १४१ ॥ रक्ताक्षा व्याददानास्याः केचिद्धस्तोर्वमूर्द्धजाः । उरुस्थरुंडमालास्ते हसंत इव लीलया ॥ १४२ ॥ गृहाणैनं गृहाणैनं मारयेति वचोन्विताः । सहुंकाररवै रौद्रा रोषाद्दष्टाधराः परे ।। १४३ ।। मह्यामास्फाल्य मंक्ष्वैनं ताडयेत् फुक्तिभीषणाः । प्रेरयैनं मरुन्मार्गे केचित्संत्रास निर्दयाः ॥ १४४ ॥ इत्यादिविविधोपायैः पापाः पापक्रियारताः । चक्रुर्महोपसर्गे ते मुनीनां वक्तुमक्षमं ॥ १४५ ॥ तदा विद्युच्चरो धीरो महाधैर्यपरायणः । चिंतयन्निति चित्ते स्वे शुद्धा द्वादश भावनाः ॥ १४६ ॥ जीवनाशां परित्यज्य कृत्वा सन्यासमादरात् । इवाकिंचित्करत्वं तन्मन्यमानः स्थिरोऽभवत् ।। १४७ ॥ ततो यथा स्वमन्येपि मुनयः स्वस्थचेतसः । उपसर्गसहा जाता ज्ञातसंसृतिलक्षणाः ।। १४८ ॥ १ भूमौ । २ आकाशमार्गे । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ जम्बूस्वामिनिर्वाणगमनवर्णनम् स्वाध्यायनिरताः केचित्केचिद्ध्यानावलंबिनः । केचित्कर्मविपाकज्ञा तस्थुर्मेरुरिवाचलाः || १४९ ।। धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरो धर्म बुधाश्विन्वते धर्मेणैव समाप्यते शिवमुखं धर्माय तस्मै नमः | धर्म्मान्नास्ति परः सुहृद्भवभृतां धर्मस्य मूलं दया तस्मिन् श्रीजिनधर्मशर्मनिरतैर्धर्मे मतिर्धार्यताम् ।। १५० ।। इति श्रीजम्बूस्वामिचरित्रे भगवच्छ्रीपश्चिमतीर्थकरोपदेशानुसरित स्याद्वादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारदपण्डितराजमल्लविरचिते साधुपासासुतसाधु टोडरसमभ्यर्थिते जम्बूस्वामिनिर्वाणगमनवर्णनो नाम द्वादशः पर्वः । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ त्रयोदशः पर्वः । भूयात्स शर्मणे जम्बूस्वामी निष्कर्मतां श्रितः । साधुपासांगजस्यास्य तत्र श्रीसाधुटोडर ॥ १ ॥ इत्याशीर्वादः । पार्श्वनाथमहं नौमि हंतारं विघ्नकर्मणाम् । वर्द्धमानं सुनाम्नापि प्रमाणाच्च निजोन्नतम् ॥ १ ॥ अथोपसर्गसंभूतौ ते च विद्युच्चरादयः । मुनयो भावयामासुरिमाः षोडशभावनाः ॥ २ ॥ अनित्या शरणा चैव संसृतेश्वानुचितनम् । एकत्वचिंतनं चैत्रमन्यत्वं च ततः परम् ॥ ३ ॥ अशुच्यास्रवसंज्ञे द्वे संवरो निर्जरा ततः । लोकसंस्था तथा बोधिदुर्लभो धर्म एव च ॥ ४ ॥ संवेगवर्धनाद्यर्थमेषां तत्त्वानुचितनम् । अनुप्रेक्षाः स्मृतास्ताथ द्वादशैवानुपूर्वतः ॥ ५ ॥ ये याता यांति यास्यति यमिनः पदमव्ययम् । द्वादशैताच ताः सर्वा भावयित्वा सुभावनाः ॥ ६॥ अन्यत्वं सर्वमेवैतद्वस्तुजातं चराचरं । वैभाविकस्वभावत्वात्कर्मणां रसपाकसात् ॥ ७ ॥ आफलोदय मेवैतत्कर्मव्रीह्यादिवत्स्वतः । तन्निर्माणं कथं लोके नित्यं भवितुमर्हति ॥ ८ ॥ अतः कर्मोदयाज्जाताः पर्याया वपुरादयः । स्वानुभूत्यैकमात्रत्वाद्भिन्नास्ते क्षणभंगुराः ॥ ९ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविद्युच्चरसर्वार्थसिद्धिगमनवर्णनम् प्रमाणादागमाच्चापि स्वानुभूतेः समक्षतः । तेषामनित्यसंसिद्धों को विमुह्येत् प्रगल्भधीः ॥ १० ॥ कृत्वावधिं सहस्रांशुरुदेत्यत्र महीतले । कृत्वावधिं तथा जीवा उत्पद्यते चतुर्गतौ ॥ ११ ॥ यथा वृक्षात्फलं पक्कं विश्लिष्टमनुभूतलं । आवश्यकं पतत्येतत्तथा तनुभृतोऽप्यमी ॥ १२ ॥ जीवितं चपलं लोके जलबुदबुदसन्निभम् । रोगैः समाश्रिता भोगा जराक्रांतं हि यौवनम् ॥ १३ ॥ सौन्दर्य च क्षणध्वंसि संपदो विपदंतकाः । मधुबिंदूपमं पुंसां सौख्यं दुःखपरंपरा ॥ १४ ॥ इंद्रियारोग्यसामर्थ्यचलान्यभ्रोपमानि च । इन्द्रजालसमानानि राजसौधधनानि च ।। १५ ।। पुत्रपौत्रकलत्रादि मित्रांधवसज्जनाः । संपावच्चपलरूपाश्च दृष्टनष्टा इव क्षणम् ॥ १६ ॥ इत्यध्रुवं जगत्सर्व नित्यश्रात्मा सनातनः । अतः सद्भिर्न कर्त्तव्यं ममत्वं वपुरादिषु ।। १७ ।। ॥ अनित्यानुप्रेक्षा ॥ भ्रमतोऽस्य भवावर्त्ते जंतोर्गतिचतुष्टये । यमारातिगृहीतस्य न कोऽपि शरणं भवेत् ॥ १८ ॥ यथा व्याघ्रगृहीतस्य मृगशावस्य कानने । पुण्योदयादृते कश्चिद्रक्षितुं न क्षमोऽङ्गिनः ॥ १९॥ १ विद्युत् । २२१ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते अणिमादिगुणेशनां तेषामपि दिवौकसाम् । दिवः प्रच्युतिरेवासीत्का कथान्यशरीरिणाम् ॥ २० ॥ मणिमंत्रौषधादीनि तावत्सर्वाणि संत्यहो । २२२ यावद्वक्त्रकरालोऽसौ यमो नायाति सन्मुखम् ॥ २१ ॥ कृतान्तेन गृहीतोऽसौ कुपितेन यदा तदा । इंद्रचक्रखगेशाद्यैः क्षणं त्रातुं न शक्यते ।। २२ ।। मत्वेत्यशरणं विश्वं शरण्यं जैनशासनम् । उपादेयतया सद्भिर्ग्रहीतव्यं प्रयत्नतः || २३ || अर्हतः शरणं सिद्धाः साधवः शरणं त्रिधा । शरणं तत्प्रणीतश्च धर्मः सर्वत्र धीमताम् ।। २४ ।। मत्वेति धीधनैरेको धर्मः कार्यः स च द्विधा । व्यवहारात् क्रियारूपो निश्चयादात्मदर्शनम् ।। २५ । ॥ अशरणानुप्रेक्षा ॥ द्रव्यं क्षेत्र तथा कालो भवो भावस्तथैव च । एतत्सोपपदान्नायात् संसारः पंचधा स्मृतः ॥ २६ ॥ तावत्स द्रव्यसंसारो लक्ष्यो सूक्ष्मार्थदर्शिभिः । कर्मनो कर्मरूपेण पुद्गलादानलक्षणः ॥ २७ ॥ गृहीता गृहताच मिश्राश्चापि निसर्गतः । विद्यते पुद्गलास्त्रेधा लोकेऽस्मिन्निचिताः स्फुटम् ॥ २८ ॥ तद्विविक्षतजीवेन ते त्रेधापीह पुद्गलाः । कर्मनो कर्मभावेन नीत्वा वाराननंतशः ।। २९ ॥ भुक्तोज्झिताः पुनश्चापि पुनर्नीत्वा पुनस्तथा । एवं समुदितः सर्वो द्रव्यसंसार उच्यते ॥ ३० ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिविद्युच्चरसर्वार्थसिद्धिगमनवर्णनम् २२३ सोऽप्यनेनैव जीवेन कृतपूर्वो ह्यनंतशः। क्षेत्रमाकाशदेशः स्यानच्चाणुप्रीमतोऽङ्गिनः॥ ३१ ।। हानिवृद्धिक्रमाद्व्याप्तो जन्मना मृत्युनाथवा । कनकाद्रिमहास्कंधाः संत्यष्टौ मध्यदेशकाः ॥३२॥ विख्याता गोस्तनाकारनं लोकस्य मध्यगाः । अथ कुर्वस्तदारंभ कश्चिज्जीवो विवक्षितः ॥ ३३ ॥ तावत्तानष्टदेशांश्च नीत्वोत्पन्नो निजोदरे। भुक्तायुः सोचिते काले मृत्वोत्पन्नो स कुत्रचित् ॥ ३४ ॥ एकदेशमतिक्रम्य तत्रैवोत्पद्यते पुनः। एवं क्रमात्परित्यज्य तमेकैकं प्रदेशकम् ।। ३५ ॥ कचित्संमूछते जीवे मृत्वा मृत्वा पुनः पुनः। यावतः सर्वलोकस्य सर्वदेशाः प्रपूरिताः॥३६॥ भवंत्येकेन जीवेन जन्मना मृत्युना तथा।। तदा समुदितः सोऽयं क्षेत्रसंसारलक्षणः ॥ ३७॥ सोप्यवश्यं कृतोऽनेन पूर्णो वाराननंतशः। निरंशः समयः कालः सोऽपि संलक्ष्यते जिनैः ॥ ३८ ॥ अणोः पर्यटतो मंदगत्या शुद्धस्य मानतः। अथोत्सवसपोभ्यां देहादीनां स्वभावतः ॥ ३९ ॥ लब्धान्वर्थाभिधानो द्वौ कालभदौ यथाक्रमम् ॥ ४०॥ . १ तत्र सर्वकालं जीवाष्टमध्यमप्रदेशा निरपवादाः सर्वजीवानां स्थिता एव । केवलीनामपि अयोगिनां सिद्धानां च सर्वे प्रदेशा स्थिता एव । व्यायामदुःखपरितापोद्रेकपरिणतानां जीवानां यथोक्ताष्टमध्यप्रदेशवर्जिताना इतरे प्रदेशा अवस्थिता एव । शेषाणां प्राणिनां स्थिताश्चास्थिताश्चेति । तत्त्वार्थराजवार्तिके पृ. २०३ । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जम्बूस्वामिचरिते तद्यथोत्सर्पिणीकालो यावदष्टप्रमाणकः । सोऽप्यवसर्पिणीकालस्तावानेव जिनागमे ॥ ४१ ॥ कोटीकोट्यो दशाब्दानां वार्डीणां स्वस्य संख्यया। प्रमाणं तत्र प्रत्येकं दर्शितं विश्वदर्शिना ॥ ४२ ॥ तस्यामारभ्य मानायामाचैकस्मिन्निरंशके । लब्धजन्मा यदा कश्चित् भवेत्यारंभकस्तदा ॥ ४३ ॥ भुक्त्वा स्वायुर्यथाकालं मृत्वोत्पन्नश्च कुत्रचित् । तस्यां द्वितीयेऽस्मिश्चेदुत्पन्नो भवेत्तदा ।। ४४ ॥ अतिक्रांतो निरंशः स समयश्चैकमात्रकः । विज्ञेयोऽयं क्रमः सद्भिर्नान्यादृशः क्रमः कचित् ४५ ॥ यावंतः समयास्तस्या भज्यमाना निरंशकाः। नीताः सर्वेऽपि जीवेन जन्मना मृत्युना च ते ॥ ४६॥ तदाय मेलितः सर्वः कालसंसृतिरिष्यते । साप्यनुभूतपूर्वस्य जीवस्यानंतशः स्फुटं ॥४७॥ भवो जीवस्य पर्यायः सोऽप्यशुद्धश्च कर्मसात् । नारकश्चापि तिर्यग्वा देवश्चेति चतुर्विधः ॥ ४८॥ वत्सराणां त्रयस्त्रिंशदब्दयो दिवि नारके । उत्कर्षेणापकर्षेण सहस्राणि दश स्थितिः ॥ ४९ ॥ तत्र बद्धां नरः कश्चिच्छ्वाभ्री स्थितिमनुत्तमा । भुक्तोज्झितो मृतश्चाथ बंभ्रम्येत यतस्ततः ॥ ५०॥ यदा तु दैवयोगात्स स्थिति बध्नाति तादृशीं । प्रारंभकस्तदा ज्ञेयो नान्यथा भवसंमृतेः॥५१॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युच्चरसर्वार्थसिद्धिगमनवर्णनम् २२५ जघन्यस्थितिवर्षाणां यावंतः समयाः स्मृताः। तावंतो वारानसको ( कृत् ) मृतो जातः पुनः पुनः॥ ५२ ॥ ततः साधिकमेकेन ततोऽप्येकेन साधिकम् । समयेन यदायुः स्याद्वर्तमानं शरीरिणाम् ॥ ५३॥ तदाप्येष क्रमो ज्ञेयो नान्यथा तदतिक्रमात् । क्रमाद्धीनोऽधिकश्चापि नोल्लेख्यः कदाचन ।। ५४ ॥ वर्द्धमानं क्रमादायुः सर्वोत्कर्ष यदा भवेत् । पर्याप्तो भवसंसारो देवनारकयोस्तदा ॥ ५५ ॥ एवं तिर्यग्मनुष्याणां स्थितिरांतर्मुहूर्तिकी । अपकर्षात्तूपकर्षेण त्रिपल्योपमसंमिता ।। ५६ ॥ अथारभ्य जघन्यादा पूर्ववत्समयाधिकम् । पुनर्बध्वा क्रमादायुर्यावतोत्कर्षतां व्रजेत् ॥ ५७ ॥ तावानेकीकृतः सर्वः स युक्तः समवायवान् । उच्यते भवसंसारस्तल्लक्षणविदांवरैः ॥ ५८ ॥ सोऽप्यनेनैव जीवेन संगृहीतो ह्यनंतशः । कृते नित्यनिगोदाद्वा सर्वेणाप्यटता भृशम् ॥ ५९ ॥ भावो जीवस्य पर्यायः परिणामगुणात्मकः । स चाशुद्धश्च शुद्धश्च द्विधा स्यान्नयभागतः ॥ ६०॥ परद्रव्यात्मकं कर्म ज्ञानाद्यावरणं स्वतः। तद्विपाकनिमित्तत्वे जातो शुद्धः स जन्मिनः ।। ६१ ॥ कृत्स्नकर्मक्षये यस्तु भावो जीवस्य निष्क्रियः । स शुद्ध इति विज्ञेयो यथा सौख्यमतीन्द्रियम् ॥ ६२ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते तत्रोपाश्रययुक्तित्वादशुद्धे परिवर्त्तनम् । शुद्धे भावे स्वरूपत्वात्तन्नास्ति खरशृंगवत् ॥ ६३ ॥ स्थितेरध्यवसायानां स्थानानीह सुसंख्यया । पतितानि चतुःस्थानैर्लोक संख्यातमात्रतः ॥ ६४ ॥ एवमध्यवसायानामनुभागोचितलक्षणाम् । पतितानि च षट्स्थानैर्लोकासंख्यातमात्रशः ॥ ६५ ॥ लोकसंख्यातमात्राणि योगस्थानानि संख्यया । पतितानि चतुःस्थानैर्वृद्धिहानिक्रमादिति ॥ ६६ ॥ अतश्चैषामनंताः स्युर्भेदास्ते च निरंशकाः । उत्कृष्टोऽनुत्कृष्टश्च जघन्योऽप्यजघन्यकः ॥ ६७ ॥ सर्वा जघन्यादारभ्य यावदुत्कृष्टतां नयेत् । जीवः सर्वानिमान्भावान्भावसंसार इत्ययं ॥ ६८ ॥ २२६ उक्तं च "पैढमक्खो अंतगदो आदिगदे संकमेदि विदियक्खो । दोष्ण वि गंतूणंतं आदिगदे संकमेदि तदियक्खो ।। १ ।। " कृते नित्यनिगोदाद्वा भवसंसारवद्यतः । एषोऽपि भावसंसारः प्राप्तो मंदैरनंतशः ।। ६९ ।। पंचप्रकार संसारं मत्वा मोक्षसुखार्थिनः । निःसंसारं निजात्मानं त्रिधाप्याराधयंतु भोः ॥ ७० ॥ ॥ इति संसारानुप्रेक्षा ॥ १ प्रथमाक्ष अन्तगत आदिगते संक्रामति द्वितीयाक्षः । द्वावपि गत्वान्तमादिगते संक्रामति तृतीयाक्षः ॥ गोम्मटसारजीवकांडे गाथा ॥ ४० ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युच्चरसर्वार्थसिद्धिगमनवर्णनम् २२७ एको द्रव्यस्वभावत्वादनादिनिधनः स्वतः। पर्यायार्थीदनेकत्वेऽप्यस्य चिद्रूपमात्रतः ॥ ७१॥ एकाकी भ्रमते दीनो मोहकांवृतः शठः । ऊर्वाधस्तिर्यगालोकादशेषूच्चैरितोऽमुतः॥ ७२ ॥ कदाचिन्नारकं दुःखमेकाकी सहते जडः। न कोऽपि तत्र साहाय्यं कुर्याद्यावदिति क्षणम् ॥ ७३ ।। एकोऽयं स्वर्गसौख्यानि भुंक्ते पुण्योदयादिह । तिर्यक्त्वेऽपि नरत्वेऽपि सहायपरिवर्जितः ।। ७४॥ उत्पद्यतेऽथ पंचत्वं याति जीवो रुदन्निव । तदापि पुत्रपौत्रादि मित्रबांधवसज्जनाः॥ ७५ ॥ ये कलत्रादयस्तेन नापि साद्ध पदं दधुः। सस्थावरकायेषु दुःखयोनिसतात्मसु ॥ ७६ ॥ एकाकी भ्रमते प्राणी नानाक्लेशोघपीडितः । न सध्यङ्कोऽपि तत्राहो क्षणं यावदिति स्फुटम् ॥ ७७॥ एकस्तपोसिना हत्वा कर्मारातीः स्वपौरुषात् । केवलज्ञानसाम्राज्यं निर्भयं पदमश्नुते ॥ ७८ ॥ इत्येकत्वं परिज्ञाय जंतोः संसारमोक्षयोः। सावधानतयादेयो मोक्षोऽनंतसुखात्मकः ॥ ७९ ॥ ॥ इति एकत्वानुप्रेक्षा ॥ वपुषोऽपि विभिन्नश्चेज्जीवः संलक्ष्यते क्षये । लक्षणादप्यतः स्युस्ते कथं स्वीयाः सुतादयः ॥ ८॥ १ सहचारी। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जम्बूस्वामिचरिते जीवात्पंचेन्द्रियाणीह भिन्नलक्ष्माणि निश्चयात् । मनःकायवचांसीव कर्मजत्वां (न्या) विशेषतः ॥ ८१ ॥ ये च रागादयो भावा मोहकर्मोदयात्मकाः। चिदाभासाश्च ते सर्वे भिन्नाश्चैतन्यरूपतः ॥ ८२॥ जीवस्थानगुणस्थानबंधस्थानान्यपि क्रमात । योगस्थानानि भिन्नानि स्वात्मनः सर्वथाप्यतः॥ ८३ ॥ बंधाद्यध्यवसायानां स्थानानीह बहूनि च । भिन्नलक्षणलक्ष्यत्वादन्यानीव चिदात्मनः ॥ ८४ ॥ धर्माधर्मनभःकालज्ञेयद्रव्याण्यनंतशः। बिंबितान्यपि तज्ज्ञप्त्यै भिन्नान्यात्मचतुष्टयात् ।। ८५॥ मूर्त्तद्रव्याणवस्तेऽपि तुल्यदेशाः स्थिताः स्वतः। एकक्षेत्रावगाहित्वे ज्ञानादन्ये स्वभावतः ।। ८६॥ वर्गश्चापि यथा लक्ष्यस्त्रयोविंशतिवर्गणाः । अनात्मीयाश्च ते सर्व स्पर्द्धका गुणहानयः ॥ ८७॥ ज्ञानाद्यावृत्तिरूपाणि कर्माण्यष्टाप्यसंख्यया । नोकर्माण्यपि भिन्नानि चिद्रूपैकस्वरूपतः ॥ ८८ ॥ क्षायोपशमिका भावा मतिज्ञानादयः क्रमात् । ते सर्वेऽप्यस्य जीवस्य न संतीति विनिश्चयात् ।। ८९ ।। अलं वा बहुभिर्जल्पैरालकोलाहलाकुलैः । मुक्त्वा चिन्मात्रमात्मानमनादेयमतः परम् ॥ ९॥ सर्वमन्य परिज्ञाय योऽनन्यशरणं व्रजेत् । अचिराल्लभते मोक्षमभिप्रेतमिदं मम ॥९१॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युच्चरसर्वार्थसिद्धिगमनवर्णनम् ॥ इति अन्यत्वानुप्रेक्षा ॥ अशुचिः सर्वदेहोऽयं शुक्रशोणितयोनिजः । असृग्मांसवसाकीर्णः का कथा वाह्यवस्तुषु ।। ९१ ॥ वर्चोमूत्रसमाकीर्ण चर्मवद्धास्थिसंचयम् । भ्रातर्वपुर्विजानीहि वीभत्सुक्षयितापकं ।। ९३ ।। यत्किचित्सुंदरं वस्तु पूतं वा यन्निसर्गतः । वपुः संसर्गतो नूनं क्षणादशुचितां व्रजेत् ।। ९४ ॥ जले जंबालवन्नूनं कालुष्येनोपलक्षिताः । सर्वे रागादयो भावा हेयाश्चाशुचिमंदिराः ।। ९५ ॥ रागसद्भावतो नूनं त्रिदशेऽपि दिवौकसाम् । शुचिः कुतस्तनी तेषां दृङ्मलैर्दूषितात्मनाम् ।। ९६ ॥ अतश्चैकः स शुद्धात्मा चिद्रूपो रूपवर्जितः । त्रिकालेऽपि शुचिः साक्षात् स्वतोऽनंतगुणात्मकः ॥ ९७ ॥ यदि वा दर्शनज्ञानचारित्राणि शुचीन्यहो । सम्यक्पदोपलक्ष्याणि तन्मलापगमादितः ॥ ९८ ॥ अशुचित्वं परित्यज्य शुचिग्रह्या मनीषिभिः । चैतन्यलक्षणः सोऽयमयमर्थो निरूपणे ।। ९९ ।। ॥ इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा ॥ आश्रवः स द्विधा प्रोक्तो भावद्रव्यविभेदतः । तत्र रागादयो भावाः कर्मागमनहेतवः ॥ १०० ॥ तस्माद्भावाश्रवो ज्ञेयो रागभावः शरीरिणाम् । तद्धेतोः कर्मरूपेण भावो द्रव्याश्रवः स्मृतः ॥ १०१ ॥ १ शैवालं 1 २२९ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जम्बूस्वामिचरिते मिथ्यात्वं च कषायाश्च योगा विरतयस्तथा । संति भावाश्रवस्येह भेदाः श्रीजिनदेशिताः ॥१०२ ॥ एभिरैस्तु जीवानामाश्रवंतीह पुद्गलाः। यथा सच्छिद्रपोतस्य वारिमध्ये स्थितस्य च ॥ १०३ ॥ तत्त्वार्थानामश्रद्धानं श्रद्धानं वा तदन्यथा । मिथ्यात्वं पोच्यते प्रास्तच्च भेदादनेकधा ॥१०४॥ सामान्यादेकमेवैतन्मिथ्यात्वं जातिरूपतः । विशेषात्पंचधा यद्वा लोकासंख्यातमात्रतः ॥१०५॥ एकमेकांतमिथ्यात्वं द्वितीयं विपरीतकं । तृतीयं विनयस्तुर्य संशयोऽज्ञस्तु पंचमम् ॥ १०६॥ उक्तं च" एयंतबुद्धदरसी विवरीओ बंभ तावसो विणओ । इंदो वि य संसयिदो मकडिओ चैव अण्णाणी ॥१॥" एतेषां लक्षणं प्राज्ञैविज्ञेयं परमागमात् । यद्वासंख्यातलोकाः स्युः सूक्ष्म्यास्ते बुद्धद्यगोचराः ॥ १०७॥ कषंत्यात्मानमेवात्र कषायादिति दर्शिताः। पंचविंशतिसंख्याका मोहकर्मोदयोद्भवाः ॥१०८॥ क्रोधो मानश्च माया च लोभश्चेति चतुर्विधः । प्रत्येकं ते ह्यनंता स्यु(खा)नुबंधिन उदाहृताः ॥ १०९ ॥ द्वितीयं तच्चतुष्कं स्यादप्रत्याख्यानसंज्ञकम् । प्रत्याख्यानं तृतीयं स्यात्तुर्य संज्वलनाख्यया ॥ ११०॥ १ एकान्तो बुद्धदर्शी विपरीतो ब्रह्म तापसो विनयः । इन्द्रोऽपि च संशयितो मस्करी चैवाज्ञानी ।। गोम्मटसारे जीवकांडे गा. १६ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युच्चरसर्वार्थसिद्धिगमनवर्णनम् २३१ एवं संमिलिता भंगेः कषाया षोडश स्मृताः। नोकषायास्तथा ज्ञेया संख्यया नव तद्यथा ॥१११ ।। हास्यो रत्यरती चैव शोको भीतिस्तथैव च । जुगुप्सास्त्रीनरक्लीववेदाचोदेशिताः क्रमात् ॥ ११२ ॥ एवमेकीकृताः सर्वे पंचविंशतिसंख्यकाः। कर्माश्रवस्य कर्तृत्वान्महानर्थविधायिनः ।। ११३॥ अविरतिस्तु विख्याता सर्वतो द्वादशाख्यया । अंतर्भूता कषायेषु पृथगप्युपदेशिता ॥ ११४ ।। इंद्रियाणि च पंचैव मनः षष्ठमुदाहृतम् । तेषामनिग्रहात्मोक्ता षोढा विरतिरित्यपि ॥ ११५॥ पंचस्थावरजीवानां षष्ठस्यापि त्रसस्य च । प्राणापरोपणं हिंसा पोढा सा चेति समिता ॥ ११६॥ धर्मः स्वात्मानुभूत्याख्य प्रमादोनवधानता । हेतोः कर्माश्रवस्यास्य भेदाः पंचदश स्मृता ॥ ११७ ॥ उक्तं च"विकहा तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणगो य । चदु चदु पणमेगेगं होति पमादा हु पण्णरसा ॥१॥" योगश्चात्मप्रदेशानां परिस्पंदस्त्रिधा मतः । मनोवाकायरूपाणां वर्गणानां विपाकतः ॥११८ ॥ सोऽपि सत्यादिरूपेण भिद्यते नैकधा बुधैः। औदारिकादिभेदैश्च काययोगोऽप्यनेकधा ॥ ११९ ॥ १ विकथास्तथा कषाया इन्द्रियनिद्रास्तथैव प्रणयश्च । चतुःचतुःपंचैकैकं भवन्ति प्रमादा खलु पंचदश ॥ गोम्मटसारजीवकांडे गा. ३४ ।। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जम्बूस्वामिचरिते उक्तं च- " कंम्मत्तणेण एकं दव्वं भावं तु होइ दुविहं तु । तं पुण अहविहं वा अडदालसयं असंखलोगं वा ॥ १ ॥ " तारतम्यात्मकं लक्ष्य (यं) निकृष्टोत्कृष्टमध्यमं । निरवशेषाच्वेषां हि वेदितव्यं महागमात् ॥ १२० ॥ सर्व हेयं विजानीयादाश्रवं परमार्थतः । एको निराश्रवः स्वात्मा ग्राह्य शुद्धानुभूतितः ॥ १२१ ॥ ॥ इति आश्रवानुप्रेक्षा ॥ आश्रवाणां निरोधो यः संवरः प्रोच्यते बुधैः । द्रव्यभावविभेदेन सोऽपि द्वैविध्यमश्नुते ।। १२२ ।। येनशिन कषायाणां निग्रहः स्यात्सुदृष्टिनाम् । तेनशिन प्रयुज्येत संवरो भावसंज्ञकः ।। १२३ ॥ उक्तं च " वेदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुषहापरीसहजओ य । चारितं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा ॥ १ ॥ " कर्मणामाश्रयो भावो रागादीनामभावतः । तारतम्यतया सोऽपि प्रोच्यते द्रव्यसंवरः ।। १२४ ॥ १ कर्मस्वरूपेण एकं द्रव्यं भावं तु होदि द्विविधं तु । तत् पुनः अष्टविधं वा अष्टचत्वारिंशत् असंख्यलोकं वा ॥ गोम्मटसारकर्मकाण्डे ॥ २ व्रतसमितिगुप्तयः धर्मानुप्रेक्षापरीषड्जयश्च । चारित्रं बहुभेदाः ज्ञातव्याः भावसंवरविशेषाः ॥ द्रव्यसंग्रहे ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युच्चरसर्वार्थसिद्धिगमनवर्णनम् २३३ अयमेकः सदा सेव्यः संवरो मोक्षसाधनम् । अथ तत्राविनाभूतः शुद्धः सेव्यश्चिदात्मकः ॥ १२५ ॥ ॥ इति संवरानुप्रेक्षा ॥ निर्जरापि द्विधा ज्ञेया भावद्रव्यविभेदतः। अपि चैकादशस्थानः ख्याताः संख्यगुणक्रमाः॥ १२६ ॥ आत्मनः शुद्धभावेन गलत्येतत्पुराकृतम् । वेगाद्धक्तरसं कर्म सा भवेद्भावनिर्जरा ।। १२७ ।। आत्मनः शुद्धभावस्य तपसोऽतिशयादपि । यः पातः पूर्वबद्धानां कर्मणां द्रव्यनिर्जरा ॥ १२८ ॥ यथाकालं समागत्य दत्वा कर्मरसं पचेत् । निर्जरा सर्वजीवानां स्यात् सविपाकसंज्ञकः ।। १२९ ।। इयं मिथ्यादृशामेव यदा स्याद्वंधपूर्विका ।। मुक्तये न तदा ज्ञेया मोहोदयपुरःसरा ॥ १३०॥ सविपाका विपाका वा सा स्यात्संवरपूर्विका। निर्जरा सुदृशामेव नापि मिथ्यादृशां कचित् ॥ १३१ ॥ निर्जरालक्षणं ज्ञात्वा मोक्षसिद्धिमभीप्सुभिः। सर्वारंभेण शुद्धात्मा सेवितव्यस्तदंगतः ॥ १३२ ॥ ॥ इति निर्जरानुप्रेक्षा ॥ अधो वेत्रासनाकारो मध्ये स्याज्झल्लरीनिमः। मृदंगसदृशश्चाग्रे लोकस्येति त्रिधा स्थितिः ॥ १३३ ॥ पापास्तु पापपाकेन पयंते छेदनादिभिः । सप्तश्वभ्रेष्वधोभागे नारका नारकैः सह ॥ १३४ ॥ केचित्पुण्योदयेनेह स्वर्गेषु सुखसंपदः । मुंजतो दिव्यभोगांश्च सागरावधिजीविनः ॥ १३५॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जम्बूस्वामिचरिते कचित्सौख्यं कच्चिदुःखं मध्यलोके क्वचिवयम् । प्राप्नुवंति नृतियेचः पुण्यपापवशीकृताः ॥ १३६ ॥ लोकाग्रे शाश्वतं धाम मनुष्यक्षेत्रसंमितम् । अनंतसुखसंपन्नाः सिद्धा यत्र वसंत्यहो ॥ १३७ ॥ एतल्लोकत्रयं ज्ञात्वा तन्मूर्द्धस्थं शिवालयं । हत्वा मोहं दृगाद्यैश्च सोधयंतु महर्षयः॥ १३८ । ॥ इति लोकानुप्रेक्षा॥ बोधिर्बोधनमित्युक्तमनन्यमनसात्मनः। दुर्लभा सा हि जीवानां बोधिदुर्लभ इष्यते ॥ १३९ ।। अनंतानंतजीवानां समानादिवनस्पती । निःसरंति ततः केचिद्गतेऽनंतेऽप्यनेहसि ॥१४॥ ततः कथंकीचदै पृथ्वीकायिकादिषु ॥ १४१॥ उत्पद्यते तथा दैवात् दुर्गती लब्धसंनिधिः । ततः कृच्छ्रतमात्ते हि लाघवाद दुष्टकर्मणाम् ॥ १४२ ।। द्वीन्द्रियादिषु जायंते तिरश्चामिव दुर्गतौ । पर्याप्तत्वं ततः कृच्छ्रात्प्राप्यते प्राणिभिः कचित् ॥ १४३ ।। प्रायोऽपर्याप्तका जीवा संत्यत्र बहवो यतः । तेषामुल्लासमात्रेण जन्मानि मरणानि च ।। १४४ ॥ संख्यायाष्टादशावश्यं जायंते दुःखजान्यहो । अतस्ततोऽपि निःसृत्य कृच्छ्रात्पंचेन्द्रियोऽभवत् ॥ १४५॥ ततः कथंकथंचिदै संज्ञी भवति मानवः । तत्राप्यार्यखंडेऽस्मिन्नुत्पत्तिर्दुर्लभा नृणाम् ।। १४६ ।। तत्राप्युच्चैःकुले जन्म दुर्लभं जैनधर्मणि। प्राप्तेऽप्यायुः सुसंपूर्ण वपुरारोग्यमेव च ॥ १४७ ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युच्चरसर्वार्थसिद्धिगमनवर्णनम् २३५ तथोत्तरं सुदुष्पाप्यं प्राप्यते दैवयोगतः । तत्रापि विषयांधानां धर्मबुद्धिस्तु दुर्लभा ॥१४८॥ . प्राप्तायां धर्मबुद्धौ च दुर्लभं धर्मपाटवं । प्राप्त तस्मिन्नपि प्रायो दुर्लभा गुरुदेशना ॥ १४९ ॥ प्राप्तौ तस्यां कपायाणां निग्रहश्चातिदुर्लभः ।। सति यस्मिन् भवत्येव संयमः कर्मनाशकृत् ।। १५०॥ लब्धे तस्मिन्नपि प्राज्ञ ( प्रज्ञा? ) काललब्धिवशीकृतः। शुद्धचैतन्यरूपस्य बोधिलाभस्तु दुर्लभः ।। १५१॥ उक्तं च"खओबसमविसोही देसणपाओगकरणलद्धी य । चत्तार वि सामण्णा करणं सम्मत्तजुत्तस्स ॥१॥" इदमत्र हि तात्पर्य विज्ञेयं परमार्थिभिः। दुर्लभे बोधलाभेऽस्मिन् प्रमादो दस्युरेव हि ।। १५२ ।। ॥ इति बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा ॥ धर्मशब्दस्त्वनेकार्थेऽप्येकार्थ प्रत्ययत्यहो । यस्मादुकै पदे धत्ते जीवं नीचे पदादपि ॥ १५३ ॥ धर्मो वस्तुस्वभावः स्यात्कर्मनिर्मूलनक्षमः । तच्चैव शुद्धचारित्रं साम्यभावचिदात्मनः ॥ १५४ ॥ व्यवहारेण तत्प्रोक्तो धर्मः संयमसंज्ञकः । सर्वप्राणिदयामृलस्तपः शीलसमन्वितः ॥ १५५॥ १ क्षायोपशमिकविशुद्धी देशनाप्रायोग्यकरणलब्धयश्च । बतस्रोऽपि सामान्याः करणं सम्यक्त्वयुक्तस्य । गोम्मटसारजीवकांडे ६५० ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जम्बूस्वामिचरिते द्विधा सोऽप्याश्रमाद्भेदात् गृहस्थशमिनोर्द्वयोः । त्रिधा सद्दर्शनज्ञानचारित्रोदेशभेदतः ॥ १५६ ॥ दशधापि ततो धर्मस्तथालक्षणसंभवात् । उत्तमादौ क्षमा ज्ञेया मार्दवार्जवसत्यवाक् ॥ १५७ ॥ शौचं संयम एवानुतपस्त्यागस्तथोत्तमम् । आकिंचन्यमथो ज्ञेयं ब्रह्मचर्ये सुदुष्करं ॥ १५८ ॥ धर्मोऽमुह पाथेयं सध्व्यङ् (सध्यङ् ) नित्योपकारकं । पिता माता च बंधुश्च देवश्चाप्यंगिनामिह ॥ १५९ ॥ मत्वेति धीधनैः कार्या धर्मबुद्धिः सनातनी । न हि कालकलः कापि नेतव्या स्वतृषोज्झिता ॥ १६० ॥ सर्वत्रापि दिशः शून्या विना धर्मेण प्राणिनाम् । मत्वैतत्स्वहितं कार्य वावदूकतयाप्यलम् ॥ १६१ ॥ ॥ इति धर्मानुप्रेक्षा ॥ ॥ इति द्वादशानुप्रेक्षाः ॥ एवं चिंतयतस्तस्य हृदि द्वादश भावनाः । अजातमिव तत्रासीद्धोरं चाप्युपसर्गकम् ॥ १६२ ॥ देहाद्भिन्नं चिदात्मानं स्वानुभूत्यैकमात्रतः । विद्युच्चरः समालंब्य जयति स्म परीषहान् ।। १६३ ॥ व्यतीते चोपसर्गेऽथ मुनिर्विद्युच्चरो महान् । व्यभ्रे व्योम्नि यथादित्यो तेजःपुंज इवा (व) द्युतः ॥ १६४ ॥ प्रातःकालेऽथ संजाते प्रत्यसल्लेखनाविधौ । चतुर्विधाराधनां कृत्वागमत्सर्वार्थसिद्धिके ॥ १६५ ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युच्चरसर्वार्थसिद्धिगमनवर्णनम् २३७ त्रयस्त्रिंशत्समुद्रायुर्भुक्ते सौख्यं निरंतरम् | दुर्लभं चाल्पपुण्यानां सर्वे वाचामगोचरम् ।। १६६ ॥ स्वायुरंते ततश्च्युत्वा संप्राप्य चरमं वपुः । केवलज्ञानमुत्पाद्य गंतातः परमां गतिं ।। १६७ ॥ नमस्तस्यै नमस्तस्मै नमोऽनंतसुखात्मने । नमश्वानंतवीर्याय केवलज्ञानभानवे ।। १६८ ।। शतानां पंचसंख्याकाः प्रभवादिमुनीश्वराः । अंते सल्लेखनां कृत्वा दिवं जग्मुर्यथायथं ॥ १६९ ॥ जंबूस्वामिजिनेशस्य चरित्रमिदमुत्तमं । जैनागमानुसारेण प्रोक्तमल्पधिया मया ॥ १७० ॥ यदत्र स्खलितं किंचित्प्रमादात्शारदे मम । स्वरव्यंजनसंध्यादि तत्क्षंतव्यं जगन्नुते ।। १७१ ॥ अपारे चातिगंभीरे महाशब्देऽतिदुस्तरे । को न मुह्यति शास्त्राब्धौ विद्वानपि महीतले ।। १७२ ॥ जंबुस्वामिवदुत्तमं प्रकुरुते भूमौ तपो यो जनः । पंचाक्षारिविशालकामगहन श्रेणीषु दावोपमं || स स्यात्सौख्यनिकेतनं खलु बुधा ज्ञात्वेति चित्तेऽनिशं । कुर्वीध्वं करुणापराः शिवसुखे वांछास्ति रम्या यदि ॥ १७३ ॥ ये शृण्वंति चरित्रमुत्तममिदं श्रीजंबुनाम्नो मुनेः । नानाचित्रकथाविभूषितमतिप्रावीण्यसंबोधनं ॥ तेषां स्याद्वहुपुण्यकर्मनिपुणा बुद्धिः स्वयंभूरिव । त्यक्त्वाशेषभवप्रमृतसुखसार्थस्याशु धर्मास्पदम् ।। १७४ ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जम्बूस्वामिचरिते पठनीयं पाठनीयं शास्त्रमेतन्मुनीश्वरैः । जंबूस्वामिचरित्रायं रोमांचजननक्षमम् ॥ १७५ ॥ क्षेतव्यं शारदे देवि यदत्र गदिते मया । न्यूनाधिकं भवेत्किंचित्प्रमादादांतितोऽथवा ॥ १७६ ॥ जंबूस्वामी जिनाधीशो भूयान्मंगलसिद्धये । भवतां भुवि भो भव्याः श्रीवीरांतिमकेवली ॥ १७७ ॥ इति श्रीजम्बूस्वामिचरिते भगवच्छ्रीपश्चिमतीर्थकरोपदेशानुसरितस्याद्वादानवद्यगद्यपद्यविद्याविशारदपण्डितराजमल्लविरचिते साधुपासात्मजसाधुटोडरसमभ्यर्थिते मुनिश्रीविद्युच्चरसर्वार्थसिद्धिगमनवर्णनो नाम त्रयोदशः पर्वः॥ इति जम्बूस्वामिचरितम् समाप्तम् ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BER अथ प्रशस्तिः शब्दार्थैरर्थवच्छास्त्रं यथेदं याति पूर्णताम् ॥ तथा कल्याणमालाभिर्वर्द्धतां साधुटोडरः । 105 अथ संवत्सरेऽस्मिन् श्रीनृपविक्रमादित्यगताब्दसंवत् १६३२ वर्षे चैत्र सुदि ८ वासरे पुनर्वसुनक्षत्रे श्रीअर्गलपुरदुर्गे श्रीपातिसाहिजला - दीन अकबरसाहिप्रवर्त्तमाने श्रीमत्काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यान्वये भट्टारकश्रीमलयकीर्तिदेवाः । तत्पट्टे भट्टारक श्रीगुणभद्रसूरिदेवाः । तत्पट्टे भट्टारक श्रीभानुकीर्त्तिदेवाः । तत्पट्टे भट्टारक श्रीकु मारसेननामधेयास्तदाम्नायेऽस्रोतकान्वये गर्गगोत्रे भटानियाकोलवास्तव्यश्रावकसाधुश्री (न) न्दनः तद्भ्राता साधुश्रीआसू तद्भार्या सरो तयोः पुत्रत्रयः । ज्येष्ठपुत्रः साहुरूपचंदः तस्य भार्या जिनमती । तस्य पुत्रत्रय । प्रथमपुत्रः साधुजसरथः । तस्य भार्या गावो तस्य पुत्रत्रयः । प्रथमः साहलोरचंद्रः भार्या प्यारी । तस्य पुत्रः साहगरीबदासः भार्या हमीरदे तस्य पुत्राः पञ्च । प्रथमः साहहेमराजः भार्या गरीबदासपुत्रौ द्वौ । दुरगनः तृतीयपुत्रः हरिवंश साहजसरथपुत्रद्वितीयसाधुश्रीछल्लू तस्य भार्या भवानी तस्य पुत्रः साधुचोजसाल: भार्या वृवो जसरथतृतीयपुत्रः साधुचौहथः तस्य भार्या भागमती तस्य पुत्रद्वयम् । प्रथमः पुत्रः साधुभोवाल: भार्या पारो पुत्रः लालचंदः साधुचौहथः । द्वितीयपुत्रः जारपदासः भार्या साधुरूप चंदद्वितीयपुत्रः Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० प्रशस्तिः साधुरायमलः भार्या थिरो तस्य पुत्र साहनथमलः भार्या चांदनदे साधुरूपचंदतृतीयपुत्रः साधुश्रीपासा भार्या घोषा तस्य पुत्रः साधुटोडरः तस्य भार्या कसूंभी तस्य पुत्रत्रयः । पुत्रः साधुश्रीऋषभदासः तस्य भार्या लालमती । साधुटोडरद्वितीयपुत्रः मोहनदासः तद्भार्या मधुरी। साधुटोडरतृतीयपुत्रः चिरंजीवी रूपमांगद एतेषां मध्ये परमसुश्रावकसाधुश्रीटोडरेन जंबूस्वामिचरित्रं कारापितं । लिखापितं च कर्मक्षयनिमित्तम् ॥ लिखितं गंगादासेन । ॥ इति ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकमलमार्तण्डः प्रथमः परिच्छेदः प्रणम्य भावं विशदं चिदात्मकं समस्ततस्त्वार्थविदं स्वभावतः । प्रमाणसिद्धं नययुक्तिसंयुतं, विमुक्तदोषांवरणं समंततः ॥ १ ॥ - १ नत्वा । २ परमात्मानम् । अत्र भावशब्दः आत्मवाचको ग्राह्यः । "भावः सत्तास्वभावाभिप्रायचेष्टात्मजन्मसु" इत्यमरः । ३ निर्मलम् । अष्टादशदोषरहितम् । ४ चिश्चेतना एव आत्मा स्वरूपं यस्य तं चिदात्मकं । चेतनखरूपमित्यर्थः । ५ तस्य भावस्तत्त्वं । योऽर्थो यथा व्यवस्थितस्तस्यार्थस्य तथा भावो भवनं तत्त्वमुच्यते । अर्यते गम्यते ज्ञायते निश्चीयते इत्यर्थः, तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थः । तत्त्वमेव वार्थस्तत्त्वार्थः । तत्त्वार्थं परमार्थभूतपदार्थ । अत्र तत्त्वार्थेन जीवादिपदार्था ज्ञेयाः । नत्वर्थशब्देन प्रयोजनाभिधेयधनादिकं ग्राह्यं तदर्थस्य मोक्षप्राप्तेरयुक्तत्वात् । अर्थशब्दस्यानेकार्थत्वं । तदुक्तम् — हेतौ प्रयोजने वाच्ये निवृत्तौ विषये तथा । प्रकारे वस्तुनि द्रव्ये अर्थशब्दः प्रवर्तते । १ । समस्ताश्च ते तत्त्वार्थाः पदार्थास्तान् वेत्ति जानातीति समस्ततत्त्वार्थवित् तम् । ६ स्वाभिप्रायात्स्वकीयचेष्टातो वा । ७ प्रमाणैः प्रत्यक्षपरोक्षादिभिः सिद्धं परमात्मखरूपम् । ८ साध्यविशेषस्य नित्यत्वानित्यत्वादेर्याथात्म्यप्रापण निपुणप्रयोगो यथावस्थितस्वरूपेण प्रदर्शनसमर्थन व्यापारो नय उच्यते; ज्ञायकजीवस्याभिप्राय इत्यर्थः । नयंति प्रापर्यंति प्रमाणैकदेशानिति नयास्तेषां युक्तिर्योजनं विचित्रनयानां संयोजनम् अथवा नयानां नैगमादीनां युक्तयस्तत्र सर्वत्र संयुतं युक्तम् । ९ संसारिजीवस्य दोषानामावरणमाच्छादनं वर्ततऽतो जीवस्य साक्षात्कारस्वशक्तिरूपश्चमत्कारो न दृश्यते परमात्मनस्तन्न। अथवा दोषा रात्रिरंधकारभूता लक्षणया अंधकारस्तत्, आवरणं ज्ञानावरणदर्शनावरणद्वयं । विमुक्तं त्रुटित दोषावरणं यस्य तम् । अर्थात् केवलज्ञानदर्शनराजितम् । १० समंततञ्चतुर्गतिभ्रमणविवर्त्तनरहितत्वाद्विमुक्तदोषावरणमिति । अथवा समंततो मनोवाक्काययोगेभीवं प्रणम्येति बोद्धधम् । १६ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ अध्यात्मक मलमार्तण्डे अनन्तधर्म समयं ह्यतीन्द्रियं कुवादिवदाप्रहतस्वलक्षणम् । कुँवेऽपवर्गप्रणिधेतुमद्भुतं, पदार्थतत्त्वं भवतापशान्तये ॥२॥ युग्मम् नमोऽस्तु तुभ्यं जंगदम्ब भारति, प्रसादपात्रं कुरु मां हि किंकरम् । तव प्रसादादिह तचैनिर्णयं, यथास्वबोधं विदधे स्वसंविदे | ३ | मोहः संतानवर्ती भववनजलदो द्रव्यकमघहेतुस्तत्त्वज्ञाननमूर्तिर्वमनमिव खलु * श्रद्दधीते न तत्त्वे । मोहमुक्ता वेंगमयुतात्स चरित्राच्च्युतिश्च । गच्छत्वध्यात्मकंजद्युमणिपरपरिख्यापनान्मे चिंतोऽस्तम् ॥ ४ ॥ x " १ अनन्तस्वभावम् । " धर्माः पुण्ययमन्यायस्वभावाचारसोमपाः इत्यमरः । २ समयं संविश्चेतनास्वरूपम् " समयाः शपथाचारकालसिद्धान्तसंविदः " इत्यमरः । अथवा समं युगपद्याति गच्छति प्राप्नोति त्रैलोक्ये ज्ञानदर्शनद्विकेन सः समयस्तं समयम् । " दंसणपुत्रं णाणं छदमडाणं ण दोण्णि उवओगा । जुगवं जम्हा केवलिमाहे जुगवं तु ते दोषि । इतिवचनात् । ३ अतीन्द्रियं सिद्धस्वरूपत्वादिन्द्रियबाह्यम् । ४ कुवादिनां नास्तिकानां वादोऽनात्मत्वं तेनाप्रहतमदूषितं स्वं स्वीयं लक्षणं यस्य तं अर्थात् त्रिशतत्रिषष्ठिकुवादिश्वन्दैरप्रतिहतात्मरूपं । ५ वच्मि । ६ अपवर्गस्य मोक्षस्य प्रणिधेतुमुद्दीपितुं स्पष्टीकरणार्थमित्यर्थः । ७ आश्चर्यदायकं शब्दतः संख्यातमपि चमत्कारप्रदम् । ८ संसारातापशांतये । ९ हे जगन्मातः । १० प्रसन्नतायाः पात्रम् । ११ अस्मिन् ग्रन्थे । १२ तत्त्वनिश्चयम् । १३ खज्ञानानुसारेण । १४ कुर्वे । १५ स्वकीयज्ञानाय आत्मज्ञानायेत्यर्थः । १६ अनादिसंतानवर्तनशीलः । १७ तत्त्वज्ञानहननेकमूर्त्तिः । १८ मोहस्य क्षोभेण चांचल्येन विमुक्ता रहिता मुनयः । १९ दर्शनज्ञानयुक्तान् । २० चैतन्यात् । २१ नाशम् । * ब्रुवेऽपवर्गस्य च हेतुमद्भुतं इत्यपि । * श्रद्धधानं इत्यपि । X सच्चरित्राद्युता यम् इत्यपि । ג, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमोक्षमार्गलक्षणप्रतिपादकः प्रथमः परिच्छेदः २४३ मोक्षेः स्वात्मप्रदेशस्थित विविधविधेः कर्मपर्यायहानिमूलात्तत्कालचित्ताद्विमलतरगुणोद्भूतिरस्या यथावत् । १ आ इति स्मरणे । हे भव्य त्वं स्मरणं कुरु । अस्यात्मनः । शुक्लध्यानस्यादिः पृथक्त्ववितर्कविचारः । मनोवचनकायानामवष्टम्भेनात्मप्रदेशपरिस्पंदनमात्मप्रदेशचलनमीडग्विधं पृथक्त्ववितर्कमाद्यं शुक्लध्यानं भवतीत्यर्थः । पूर्वविदः सकलश्रुतज्ञानिनः श्रुतकेवलिनःश्रेण्यारोहणात्पूर्व धर्मध्यानं भवति, श्रेण्योस्तु द्वे शुक्रध्याने भवतस्तेन सकलश्रुतधरस्यापूर्वकरणात्पूर्व धर्मध्यानं योजनीयम् । अपूर्वकरणेऽनिवृत्तिकरणे सूक्ष्मसांपराये उपशांतकषाये चेति गुणस्थानचतुष्टये पृथक्त्ववितर्कविचारं नाम प्रथमं शुक्ध्यानं तेन शुक्लथ्यानादिना । अथवा आदिशब्देन "शुक्ले वाद्ये पूर्वविदः । परे केवलिनः " इति वचनादेकत्ववितकविचारमपि ग्राह्यम् । तत्तु क्षीणकषायगुणस्थाने संभवति तेनापि । अथवा शुक्लच्यानशब्देन आदिशब्दोऽत्र तपःसमितिगुप्तिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रादिसंवरकारणविशेषसूचकोऽपि ग्राह्यस्तेन भावात् आत्मनः सकाशादपर पृथग्भूतं कृतं करणानि इन्द्रियाणि च तनुः शरीरं च ईग्विशेषणविशिष्टस्यात्मनः । संवरात् द्रव्यभावसंवरात् । अथ च निर्जराया एकदेशकर्मगलनस्वभावायाः सकाशाद्यथाबत् शुटंकोत्कीर्णात् शुद्धात्मोपलब्धेः सहजशुद्धनिष्कलंकपरमात्मन उपलब्धेः प्रापणात् मोक्षः स्यात् । अथ चास्यात्मनः खात्मप्रदेशस्थितविविधविधेः सकाशान्मूलाकर्महानिः स्यात्-अस्यार्थः-स्वे आत्मन्यात्मप्रदेशानां स्थित निश्चलताकारणं बाह्यनानापदार्थसमुदायादाकृष्यैकत्र स्वात्मन्याकर्षणं तस्मै हेतवे विविध नानाप्रकारं विधिविधान पिंडस्थपदस्थरूपस्थादिध्यानयोगक्रियालक्षणं तस्मात् । मूलान्मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणांतरायक्षयाच बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां चेति कर्मणां पर्यायस्य च हानिः स्यादष्टकर्महानिः। अथ च मनुष्यभवपर्यायशरीरहानिः स्यात् । अथ च तत्कालचित्ताद्विमलतरगुणोद्भुतिः स्यात् । तत् तस्मिन् परमात्मनि कालेऽन्तर्मुहूर्तमात्रे । चित्तात् चित्तधारणाकालचित्तात्। “एकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्" इति वचनात् । अथवा तत्कालचित्तात्तेषां कर्मणां काले नारी सति तत्र चित्ताद्धृदयात् । "कृतांतानेहसोः कालः" इत्यमरः । विमलतरा अतिशयेन निश्चलाश्च ते गुणाश्च तेवामुद्भुतिरुद्भवनं उत्पत्ति रिति यावत् । केवलज्ञानकेवलदर्शनाद्यनंतगुणोत्पत्तिः स्यादित्यर्थः । अथ च परमसमरसीभावपीयूषतृप्तिः स्यात् । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ अध्यात्मकमलमार्तण्डे स्याच्छुद्धात्मोपलब्धः परमसमरसीभावपीयूषतृप्तिः शुक्लथ्यानादिभावापरकरणतनोः संवरानिर्जरायाः ॥ ५॥ सम्यग्दृग्ज्ञानवृत्तं त्रितयमपि युतं मोक्षमार्गो विभक्तासर्व स्वात्मानुभूतिर्भवति च तदिदं निश्चयात्तत्त्वदृष्टेः । एतद्वैतं च ज्ञात्वा निरुपधिसमये स्वात्मतत्त्वे निलीय यो नि दोऽस्ति भूय स्स नियतमचिरोन्मोक्षमा मोति चात्मा ।६। यच्छ्रद्धानं जिनोक्तेरथ नयभजनात्सप्रमाणादवाध्यात्मत्यक्षाच्चानुमानात् कृतगुणगुणिनिीतियुक्तं गुणाढ्यम् । १ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि जातित्वादेकवचनमत्र । २ व्यवहारनयाद्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । निश्चयात्तत्त्रिकमय आत्मा एव । तदुक्तं-सम्मइंसणणाणं चरण मोक्खस्स कारण जाणे । ववहारा णिचयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा । १। ३ व्यवहारनिश्चयं । ४ उपाधिरहिताचारे । ५ खकीयात्मपदार्थे । ६ आश्लिष्य । लीड संश्लेषणे इतिधातोः। ७ जीवः । ८ इतरभेदरहितः शुद्धटंकोत्कीर्णज्ञायकैकखभावः पुद्गलादिभिभिन्नोऽस्ति । ९ पुनः । १० निश्चयेन । ११ शीघ्रम् । १२ प्राप्नोति । १३ जिनानामुक्तिस्तस्या अर्थाजिनेन्द्रवाक्यात् । १४ नयानां नैगमादीनां भजनात्सेवनानयविचारणादित्यर्थः । १५ किविशिष्टान्नयभजनात् सप्रमाणात्प्रमाणेन सहितात् । १६ वादिन्नतिवादिभिर्वाधतारहितात् । १७ अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा तमक्षमात्मानं | अवधिमनःपर्ययापेक्षया परिमाप्तक्षयोपशम केवलापेक्षया प्रक्षीणावरणं वा प्रतिनियत प्रतिनिश्चितं । “प्रत्यक्षमन्यत्" इति अवधिमनःपर्ययकेवलज्ञानत्रयं प्रत्यक्ष प्रमाणं भवति । केचिदिद्रियव्यापारजनितं ज्ञानं खलु प्रत्यक्ष मन्यते तन्न घटते । कथम् ? इंद्रियज्ञानप्रत्यक्ष सति सर्वज्ञाभावो भवति । सर्वज्ञस्य प्रत्यक्षज्ञानसंभवत्वे सति तेनातीन्द्रियज्ञानवता भवितव्यमिति । परमतेऽप्युक्तम् “अतीन्द्रियज्ञाननिधि” रिति । वस्तूनि संसारेऽनंतानि दूरस्थानि कथमिन्द्रियज्ञानेन गम्यतेऽतो न प्रत्यक्षज्ञानमिन्द्रियजम् । तस्मात् प्रत्यक्षादवधिमनःपर्ययकेवलज्ञानत्रयात् । अबाध्यादिति किम् । अत्रोच्यते-केचन वादिनस्तत्त्वज्ञानं x भूयात् इत्यपि। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमोक्षमार्गलक्षणप्रतिपादकः प्रथमः परिच्छेदः २४५ तार्थानां स्वभावाद ध्रुवविगमसमुत्पादलक्ष्ममभाजां तत्सम्यक्त्वं वदंति व्यवहरणनयात्कर्मनाशोपशान्तेः ॥ ७ ॥ एषोऽहं भिलक्ष्मी हगवगमचरित्रादिसामान्य रूपो ह्यन्यद्यत्किंचिदाभांति बहुगुणिगुणवृत्तिलक्ष्म पैरं तत् । धर्म चाधर्ममाकाशसमुख गणद्रव्यजीवांतरीणि प्रमाणं इति मन्यते । केचित्तु संन्निकर्षः प्रमाणं इति मन्यन्ते । संनिकर्ष इति कोऽर्थः ? इन्द्रियं विषयश्च तयोः संबंधः संन्निकर्षः तदुभयमपि निराकर्त्तुं मतिश्रुतावध्यादि सूचयितुं अबाध्यादित्युक्तम् । १८ अनुमितिकरणमनुमानं तस्मादनुमानप्रमाणात् । अत्र परोक्षप्रमाणं मतिश्रुतद्वयं बोद्धव्यम् । किंलक्षणं परोक्षं इति चेदुच्यते इन्द्रियानीन्द्रियाणि पराणि प्रकाशादिकं व आदिशब्दात् गुरूपदेशादिकं च परं । मतिश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमश्च परं उच्यते। तत्परं बाह्यहेतुमपेक्ष्य अक्षस्य आत्मनः उत्पद्यते यज्ज्ञानद्वयं तत्परोक्षम् । इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं तत् । " श्रुतमनिन्द्रियस्य " इतिवाक्यात् । अत्रागमोपमानार्थापत्त्यभावा अंतर्भूताः । १९ कृतं रचितं तत् गुणाश्च गुणिनश्च तेषां निर्णीतिर्निश्चयं तेन युक्तं । २० गुणैनिःशंकतादिभिराढ्यं युक्तम् । । १ नवतत्त्वानां षड्द्रव्याणां वा । २ ध्रुवशब्देन धौव्यं विगमशब्देन व्ययः समुपादशब्देनोत्पादस्तदेव लक्ष्म चिह्नं तत्प्रभजंति तेषामिति । ३ नाशः क्षयः उपशांतिरुपशमो वा नाशोपशांतिः क्षयोपशम इत्यत्र सम्यक्त्वत्रयं परिगृहीतमिति । ४ पृथक्चिहोऽहम् भिन्नः पुगलब, शरीरादिभिन्न इति भावः । ५ दर्शनज्ञानचारित्रादिसामान्यरूपः । ६ हीति निश्वयेन । ७ शुद्धजीवद्रव्यादन्यत्सर्वम् । ८ प्रतिभाति । ९ बहवो गुणिनो द्रव्याथीश्च तेषां गुणाश्च तस्मिन् गुणसामान्यापेक्षयैकवचनमिति । १० प्रवर्तत् ११ | चिह्नम् । १२ अन्यत् । १३ अत्र रसशब्दो द्रव्यवाचकः "रसो गंधे जले वीर्ये तिक्तादौ द्रव्यरागयो” रिति मेदिनीकोषः । १४ मुखे आये व्यवहारकाले गणः संख्या यस्मिन् तन्मुखगणं तत्कालं च तद्द्द्रव्यं च मुखगणद्रव्यं कालद्रव्यं इत्यर्थः । १५ जीवोन्तरो मध्ये यस्मिन् तजीवांतरम् पुद्गलद्रव्यमिति । पञ्चाद्द्वंदः कार्यः । आकाशरसश्च मुखगणद्रव्यं च जीवांतरं चेति । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकमलमार्तण्डे मत्तः सर्वे हि भिन्नं परपरिणतिरप्यात्मकर्मप्रजाता ॥ ८॥ निश्चित्येतीह सम्यग्विगतसकलहग्मोहभावः स जीवः । सम्यग्दृष्टिर्भवेनिश्चयनयकथनासिद्धकल्पश्च किंचित् । यद्यात्मा स्वात्मतत्त्वे स्तिमितनिखिलभेदैकतानो बभाति साक्षात्सदृष्टिरेवायमथ विगतरागश्च लोकैकपूज्यः॥९॥ युग्मम् जीवाजीवादितत्त्वं जिनवरंगदितं गौतमादिप्रयुक्तं वर्ऋग्रीवादिमूक्तं सदमुंतविधुसूर्यादिगीतं यथावत् । तत्त्वज्ञानं तथैव स्वपरभिदमलं द्रव्यभावार्थदक्षम् संदेहादिप्रमुक्तं व्यवहरणनयात्संविदुक्तं दृगादि ॥१०॥ स्वात्मन्येवोपयुक्तः परपरिणतिभिच्चिद्गुणग्रामदर्शी चिच्चित्पर्यायभेदाधिगमपरिणतत्वाद्विकल्पावलीढः । सः स्यात्सद्बोधचंद्रः परमनंयगतत्वाद्विरागी कथंचिच्चेदात्मन्येव मग्नश्च्युतसकलनयो वास्तवज्ञानपूर्णः ॥ ११ ॥ १ आत्मनः । २ क्रोधलोभमोहादिपरिणतिः । ३ सिद्धये मोक्षाय कल्प: सज्जः । ४ जिनवरेण गदितं कथितमिति । ५ तदनु गौतमादिभिर्गणधरैः प्रयुक्तं द्वादशांगरूपेण गुंफितम् । ६ कुंदकुंदादिभिरानुपूर्वीमवलम्व्य कथितमिति । ७ अमृतंचद्राद्याचायः गीतं देशितमिति । ८ चिच्छब्देन चेतना । ज्ञानभावेन स्वरूपवेदनमिति ज्ञानचेतना, ज्ञानादन्यत्रेदममिति चेतनं ह्यज्ञानचेतना। सा द्विविधा कर्मकर्मफलचेतना च । तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना । ज्ञानादन्यत्रेदं चेत यहामति चेतनं कर्मफलचेतना । तत्र ज्ञानचेतना सिद्धानां भवति । संसारिजीवाणामन्ये द्वे भवतः ज्ञानचेतना चेति ज्ञानादिभावेन चेतनाया बहवो भेदा ज्ञेयास्तेषामधिगमो ज्ञानं तत्र परिणतत्वादिति । ९ भेदावलीढः । १० सद्ज्ञानचंद्रः निश्चयज्ञानम् । ११ निश्चयनयत्वात् । १२ सर्वव्यापाररहितः । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमोक्षमार्गलक्षणप्रतिपादकः प्रथमः परिच्छेदः २४७ को भित्संविदशोवै ननु समर्समये संभवत्सत्त्वतः स्यादेकं लक्ष्म द्वयोर्वा तदखिलसमयानां च निणीतिरेव । द्वाभ्यामेवाविशेषादिति मतिरिह *चेन्नैव शक्तियात्स्या संविन्मात्रे हि बोधो रुचिरतिविमला तंत्र सौ सगेव ॥१२॥ पंचाचारादिरूपं गवंगमयुतं सच्चरित्रं च भोक्तं द्रव्यानुष्ठानहेतुस्तदनुगतमहारागभावः कथंचित् । भेदज्ञानानुभावादुपशमितकषायप्रकर्षस्वभावो भावो जीवस्य : स्यात्परमनयगतः स्याच्चरित्रं सरागम् ।१३॥ स्वात्मज्ञाने निलीनो गुण इव गुणिनि त्यक्तसर्वप्रपंचो रागः कश्चिन्न बुद्धौ खलु कथमपि वी बुद्धिजेः स्यात्तु तस्यै । १ को भेदः । २ ज्ञानदर्शनयोः । ३ नन्विति वितर्के । ४ समः समानः समयः काल इति समसमयस्तस्मिन् । ५ लक्षणम् । ६ समस्तान्यमतसिद्धान्तानाम् । ७ निश्चयमेव । ८ ज्ञानदर्शनाभ्यामेव । ९ विशेषो भेदस्तेन रहितात् । १० ज्ञानदर्शनदुयात् । ११ ज्ञानमात्रे। १२ श्रदा। १३ बोधे । १४ श्रद्धा। १५ सत्सम्यक्त्वमेव । १६ पंचविधमाचारं दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीयभदात् , आदिशब्देन द्वादशतपांसि दशधर्माः षडावश्यकक्रिया इत्यादिकं परिग्राह्यं तदेव रूपं स्वरूपं यस्य तत् । १७ दर्शनज्ञानसंयुक्तम् । १८ सम्यक्चारित्रम् । १९ सेवितं सत्, "भक्तिविभागे सेवायामिति" मेदिनी । २० द्रव्यस्यात्मनोऽनुष्ठाने अधिष्ठानं प्रभावस्तस्य हेतुः । २१ महता कष्टेन । २२ भेदविज्ञानप्रभावात् । २३ उपशमितः कषायानां प्रकर्षस्योद्रेकस्य स्वभावो येन सः । २४ सो भावः । २५ एतत्सरागचारित्रलक्षण प्रतिपादितम् । २६ नितरां लीनो निलीनः । २७ त्यक्तः सर्वः प्रपंचो विस्तारः संचयः प्रतारणं वा येनासौ त्यक्तसर्वप्रपंचोऽर्थाद्वाह्यवस्तुविस्ताररहितोऽथवा सर्वजीवानां प्रतारणेन रहितः। "प्रपंचः संचयेऽपि स्याद्विस्तारे च प्रतारणे" इति मेदिनी। २८ वा अथवा। २९ बुद्धिजः बुद्धिजीनतो रागः।३० स्विति पादयूरणे। ३१ मुनेः। * चेन्न स्वभावप्रदेशात् इत्यपि । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ अध्यात्मकमलमार्तण्डे सूक्ष्मत्वात्तं हि गौणं' यतिवरवृषभाः स्याद्विधायेत्युशंति तच्चारित्रं विरागं यदि खलु विगलेत्सोऽपि साक्षाद्विरागम् ॥१४॥ । इति श्रीमदध्यात्मकमलमार्तण्डाभिधाने शास्त्रे मोक्षमोक्षमार्गलक्षण प्रतिपादकः प्रथमः परिच्छेदः। १ अप्रधानम् । २ यतिवराणां मध्ये वृषभाः श्रेष्ठाः । ३ कथयन्ति । ४ सोऽपि बुद्धिजनितो रागः । ५ साक्षात् वीतरागं चारित्रम् । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः परिच्छेदः *जीवाजीवावाश्रववन्धौ किल संवरच निर्जरणं । मोक्षस्तत्वं सम्यग्दर्शनसद्बोधविषयमखिलं स्यात् ॥ १ ॥ * आश्रवन्धांतर्गतं पुण्यं पापं स्वभावतो न पृथक् । तस्मान्नोद्दिष्टं खलु तत्त्वदृशा सूरिणा सम्यक् ॥ २ ॥ जीवैमजीवं द्रव्यं तंत्र तदन्ये भवंति मोक्षान्ताः । चित्र्षुद्गल परिणामाः केचित्संयोगजाश्च विभजनजाः ॥ ३ ॥ द्रव्याण्यनाद्यनिर्धनानि सदात्मकानि स्वात्मस्थितानि सदकारणवन्ति नित्यम् । १ आश्रवश्च बन्ध तयोर्मध्येऽन्तर्गतं मध्यगतमिति आश्रवबन्धांतर्गतम् । २ ज्ञानादिभेदेनानेकप्रकारा चेतना सा लक्षणं यस्यासौ जीवस्तद्विपरीतोऽजीवः । ३ जीवाजीवयोः । ४ जीवाजीवाभ्यामन्ये । ५ शुभाशुभकर्मागमद्वारलक्षण आश्रवः, आत्मनः कर्मणश्च परस्परप्रदेशानुप्रवेशलक्षणो बन्धः । आश्रवनिरोधलक्षणः संवरः । एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणो निर्जरा । सर्वकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । ६ अन्ये जीवपुद्गलयोः स्वभावाः | ७ आश्रवबंधमुख्याः संयोगजाः पुनः केचित् संवरनिर्जरामोक्षा विभजनजाश्चेति भावः । ८ यथास्वं पर्यायैर्ब्रयन्ते द्रवन्ति वा तानि द्रव्याणि । ९ आयन्तरहितानि । १० सत्सत्त्वं आत्मा स्वरूपो येषां तानि सदात्मकानि । ११ स्वस्यात्मनि स्थितानि साध्यवस्थितानीत्यर्थः । * एतौ ठोको जम्बूस्वामिचरिते ( ३- ११, १२) अपि लभ्येते । *आश्रवबन्धवपुरिदं इत्यपि । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकमलमार्तण्डे एकत्र संस्थितवपूंष्यपि भिन्नलक्ष्म २५० लक्ष्याणि तानि कथयामि यथास्वैशक्ति ॥ ४ ॥ । गुणपर्ययवद्द्रव्यं विगमोत्पादध्रुवत्ववच्चापि । सल्लक्षणमिति च स्याद्वाभ्यामेकेर्न वस्तु लक्ष्येद्वा ॥ ५ ॥ अन्वयिनः किल नित्या गुणाश्च निर्गुणावयवो (वा) अनंतांशाः । द्रव्याश्रया विनाशप्रादुर्भावाः स्वशक्तिभिः शश्वत् ॥ ६ ॥ सर्वेष्वविशेषेण हि ये द्रव्येषु च गुणाः प्रवर्तते । ते सामान्यगुणा इह यथा सदादि प्रमाणतः सिद्धम् ॥ ७ ॥ तस्मिन्नेव विवक्षितवस्तुनि मग्ना इहेदमिति चिज्जाः । ज्ञानादयो यथा ते द्रव्यप्रतिनियमिनो विशेषगुणाः ॥ ८ ॥ व्यतिरेकिणो ह्यनित्यास्तत्काले द्रव्यतन्मयाचापि । ते पर्याया द्विविधा द्रव्यावस्थाविशेषधर्माशाः ॥ ९ ॥ एकानेकद्रव्याण्येकानेकप्रदेश संपिण्डः । द्रव्यजपर्यायोऽन्यो देशावस्थांतरे तु तस्माद्धि ।। १० ॥ १ षद्रव्याण्येकत्र स्थितान्यपि कदाचिन्निजस्वरूपं न जहन्ति । २ स्वशक्तिमनतिक्रम्येति यथास्वशक्ति । ३ गुण्यते विशिष्यते पृथक्क्रियते द्रव्यं द्रव्यांतराद्यैस्ते गुणाः, पर्ययणं पर्ययः, स्वभावविभावरूपतया परिप्राप्तिरित्यर्थः । गुणाञ्च पर्ययाश्च गुणपर्यथाः तेऽस्य संतीति गुणपर्ययवद्द्रव्यमिति । अत्र मतुप्प्रत्ययो कथंचिद्भेदे द्रष्टव्यः । ४ द्रव्यस्य स्वां जातिमजत उभयनिमित्तवशात् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः । तथा पूर्वभावविगमनं व्ययः । अनादिपारिणामिकखभावेन व्ययोदयाभावात् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवस्तस्य भावो धौव्यं ध्रुवत्वं वा । ५ पूर्वोक्ताभ्यां लक्षणाभ्याम् । ६ द्वयोर्मध्येऽन्यतरेण वा । ७ गुणेभ्यो निष्क्रांता इति निर्गुणाः, निर्गुणा अवयवाः शक्त्यंशा येषां ते निर्गुणावयवाः । ८ अनन्ता अशा अविभागप्रतिच्छेदा येषां ते । ९ द्रव्यमाश्रयो येषां ते । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यसामान्यलक्षणसमुद्योतको द्वितीयः परिच्छेदः २५१ यो द्रव्यान्तरसमिति विनैव वस्तुप्रदेशसंपिण्डः। नैसर्गिकपर्यायो द्रव्यज इति शेषमेव गदितं स्यात् ।। ११ ॥ द्रव्यान्तरसंयोगादुत्पन्नो देशसंचयो द्वयजः । वैभाविकपर्यायो द्रव्यज इति जीवपुद्गलयोः ॥ १२ ॥ एकैकस्य गुणस्य हि येऽनंतांशाः प्रमाणतः सिद्धाः। तेषां हानिवृद्धिर्वा पर्याया गुणात्मकाः स्युस्ते ॥ १३ ॥ धर्मद्वारेण हि ये भावा धोशात्मका (हि) द्रव्यस्य । द्रव्यांतरनिरपेक्षास्ते पर्यायाः स्वभावगुणतनवः ।।१४॥ अन्यद्रव्यनिमित्ताये परिणामा भवंति तस्यैव । धर्मद्वारेण हि ते विभावगुणपर्या (य) या द्वयोरेव ॥ १५॥ कैश्चित्पर्ययविगमैव्येति द्रव्यं ह्युदेति समकाले । अन्यैः पर्ययभवनधर्मद्वारेण शाश्वतं द्रव्यम् ॥ १६ ॥ बहिरंतरंगसाधनसद्भावे सति यथेह *तंत्वादिषु । द्रव्यावस्थान्तरो हि प्रादुर्भावः पटादिवन्न सतः ॥ १७ ॥ सति कारणे यथास्वं द्रव्यावस्थांतरे हि सति नियमात् । पूर्वावस्थाविगमो विगमश्चेतीह लक्षितो न सतः॥ १८ ॥ पूर्वावस्थाविगमेप्युत्तरपर्यायसमुत्पादे हि । उभयावस्थाव्यापि च तद्भावाव्ययमुवाच तन्नित्यम् ॥ १९ ॥ सद्व्यं सच्च गुणः सत्पर्यायः स्वलक्षणाद्भिन्नाः। तेषामेकास्तित्वं सर्व द्रव्यं प्रमाणतः सिद्धम् ॥ २०॥ ध्रौव्योत्पादविनाशा भिन्ना द्रव्यात्कथंचिदिति नयतः। युगपत्सन्ति विचित्रं स्याद्रव्यं तत्कुदृष्टिरिह नेच्छेत् ॥ २१ ॥ * तत्त्वादिषु इत्यपि । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२५२ अध्यात्मकमलमार्तण्डे अविनाभावो विगमप्रादुर्भावध्रुवत्रयाणां च । गुणिगुणपर्यायाणामेव तथा युक्तितः सिद्धम् ।। २२॥ स्वीयाच्चतुष्टयात्किल सदिति द्रव्यं बाधित गदितम् । परकीयादिह तस्मादसदिति कस्मै न रोचते तदिदम् ॥ २३ ॥ एक पर्ययजातैः समप्रदेशैरभेदतो द्रव्यम् । गुणिगुणभेदान्नियमादनेकमपि न हि विरुद्धयेत ॥ २४ ॥ नित्यं त्रिकालगोचरधर्मत्वात्मत्यभिज्ञतस्तदपि। क्षणिकं कालविभेदात्पर्यायनयादभाणि सर्वज्ञैः ॥२५॥ इति श्रीमदध्यात्मकमलमार्तण्डाभिधाने शास्त्रे द्रव्यसामान्य लक्षणसमुद्योतको द्वितीयः परिच्छेदः । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः परिच्छेदः । जीवो द्रव्यं प्रमितिविषयं तद्गुणाश्चेत्यनन्ताः पर्यायास्ते गुणिगुणभवास्ते च शुद्धा ह्यशुद्धाः। प्रत्येकं स्युस्तदखिलनयाधीनमेव स्वरूपम् तेषां वक्ष्ये परमगुरुतोऽहं च किंचिज्ज्ञ एवं ॥१॥ प्राणैर्जीवति यो हि जीवितचरो जीविष्यतीह धुवं जीवः सिद्ध इतीह लक्षणबलात्प्राणास्तु संतानिनः । भाषद्रव्यविभेदतो हि बहुधा जंतोः कथंचित्त्वतः साक्षात् शुद्धनयं प्रगृह्य विमला जीवस्य ते चेतना ॥२॥ संख्यातीतप्रदेशास्तदनुगतगुणास्तद्भवाश्चापि भावाः एतद्रव्यं हि सर्व चिदभिदधिगमात्तंतुशोक्ल्यादिपुजे । सर्वस्मिन्नेव बुद्धिः पट इति हि यथा जायते प्राणभाजां सूक्ष्म लक्ष्म प्रवेत्ति प्रवरमतियुतः कापि काले न चाज्ञः ॥३॥ जीवद्रव्यं यथोक्तं विविधविधियुतं सर्वदेशेषु यावद्भावैः कर्मप्रजातः परिणमति यदा शुद्धमेतन तावत् । भावापेक्षाविशुद्धो यदि खलु विगलेद्घातिकर्मप्रदेशः साक्षाद्रव्यं हि शुद्धं यदि कथमपि वा घातिकापि नश्येत् ॥४॥ संख्यातीतप्रदेशेषु युगपदनिशं विश्नवश्चिद्विशेषास्ते सामान्या विशेषाः परिणमनभवानेकभेदप्रभेदाः। १ कथंचित्तु ते इत्यपि । २ विष्लवंश्चित् इत्यपि । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ अध्यात्मकमलमार्तण्डे नित्याज्ञानादिमात्राश्चिदवगमकरा झुक्तिमात्रप्रभिन्नाः श्रीसर्वज्ञेर्गुणास्ते समुदितवपुषो ह्यात्मतत्त्वस्य तत्त्वात् ॥ ५॥ मुक्तौ कर्मप्रमुक्तो परिणमनमदः स्वात्मधर्मेषु शश्वद्धर्माशैश्च स्वकीयागुरुलघुगुणतः स्वागमात्सिद्धसत्त्वात् । युक्तेः शुद्धात्मनां हि प्रमितिविषयास्ते गुणानां स्वभावात्पर्यायाः स्युश्च शुद्धा भवनविगमरूपास्तु वृद्धश्च हानेः ॥ ६॥ संसारेऽत्र प्रसिद्ध परसमयवति प्राणिनां कर्मभाजां ज्ञानावृत्यादि कर्मोदयसमुपशमाभ्यां क्षयाच्छांतितो वा । ये भावाः क्रोधमानादि(?)समुपर्शमाभ्यां सम्यक्त्वादयो हि बुद्धिश्रुत्यादिबोधाः कुमतिकुदृगचारित्रग(?)त्यादयश्च ॥ ७ ॥ चक्षुईष्टयादि चैतद्धि समलपरिणामाश्च संख्यातिरिक्ताः। सर्वे वैभाविकास्ते परिणतिवपुषो धर्मपर्यायसंज्ञाः। प्रत्यक्षादागमाद्वा ह्यनुमितिमतितो लक्षणाचेति सिद्धस्तत्सूक्ष्मांतः प्रभेदाश्च गतसकलदृग्मोहभावविवेच्यः॥८॥ युग्म आत्मासंख्यातदेशपचयपरिणति वतवस्य तत्त्वात्पर्यायः स्यादवस्थान्तरपरिणतिरित्यात्मवृत्त्यन्तरो हि । द्रव्यात्मा स द्विधोक्तो विमलसमलभेदाद्धि सर्वज्ञगीतश्चिद्व्यास्तित्वदर्शी नयविभजनो रोचनीयः प्रदक्षैः ॥ ९ ॥ कर्मापाये चरमवपुषः किंचिदूनं शरीरं स्वात्मांशानां तदपि पुरुषाकारसंस्थानरूपम् । नित्यं पिंडीभवनमिति वा कृत्रिमं मूर्तिवय॑म् चित्पर्यायं विमलमिति चाभेद्यमेवान्वयंगम् ॥ १०॥ १ समुपशमसम्यक्तवृत्त्यादयो हि इत्यपि । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यविशेषप्रज्ञापकस्तृतीयः परिच्छेदः २५५ ये देहा देहभाजां गतिषु नरकतिर्यग्मनुष्यादिकासु स्वात्मांशानां स्वदेहाकृतिपरिणतिरित्यात्मपर्याय एव । द्रव्यात्मा चत्यशुद्धी जिनवरगदितः कर्मसंयोगतो हि देशावस्थांतरश्चेत्तदितरवपुषि स्याद्विवर्त्यन्तरश्च ॥ ११ ॥ एकोऽप्यात्मान्वयात्स्यात्परिणतिमयतो भावभेदात्त्रिधोक्तः पर्यायार्थान्नयाद्वै परसमय रतत्वाद्वहिर्जीवसंज्ञः । भेदज्ञानाच्चिदात्मा स्वसमयवपुषो निर्विकल्पात्समाधेः स्वात्मज्ञश्चांतरात्मा विगतसकलकर्मा स चेत्स्याद्विशुद्धः ॥ १२ ॥ कर्ता भोक्ता कथंचित्परसमयरतः स्याद्विधीनां हि शश्वद्रागादीनां हि कर्ता स समलनयतो निश्चयात्स्याच्च भोक्ता । शुद्धद्रव्यार्थिकाद्वा स परमनयतः स्वात्मभावात्करोति भुंक्ते चैतान् कथंचित्परिणतिनयतो भेदबुद्धयाप्यभेदे ॥ १३ ॥ भेदज्ञानी करोति स्वसमयरत इत्यात्मविज्ञान भावान् भुंक्ते चैतांश्च शश्वत्तदपरमपदे वर्तते सोऽपि यावत् । तावत्कर्माणि बध्नाति समलपरिणामान्विधत्ते च जीवी नैकेन तिष्ठेत्स तु परमपदे चेन्न कर्ता च तेषाम् ।। १४ ।। शुद्धाशुद्धा हि भावा ननु युगपदिति स्वैकतत्वे कथं स्युरादित्याद्युद्योततमसोरिव जडतपयोर्वा विरुद्धस्वभावात् । इत्यारेका हि ते चेन्न खलु नयवलात्तुल्यकालेऽपि सिद्धेस्तेषामेव स्वभावाद्धि करणवशतो जीवतत्त्वस्य भावात् ||१५|| सदृग्मोहक्षतेः स्युस्तदुदयजनि (?) भावप्रणाशाद्विशुद्धा भावावृत्यावृतेर्वादयभवपरिणामापणाशादशुद्धाः । १ चोदय इत्यपि । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ अध्यात्मकमलमार्तण्डे इत्येवं चोक्तरीत्या नयविभजनतो घोष इत्यात्मभावान् दृष्टिं कृत्वा विशुद्धिं तदुपरितनतो भावतो शुद्धिरस्ति ॥ १६॥ संक्लेशासक्तचित्तो विषयसुखरतः संयमादिव्यपेतो जीवः स्यात्पूर्ववद्धोऽशुभपरिणतिमान् कर्मभारमबोढा । दानेज्यादौ प्रसक्तः श्रुतपठनरतस्तीवसंक्लेशमुक्तो वृत्त्याद्यालीढभावः शुभपरिणतिमान सद्विधीनां विधाता ॥१७॥ शुद्धात्मज्ञानदक्षः श्रुतनिपुणमतिर्भावदर्शी पुरापि चारित्रादिप्ररूढो विगतसकलसंक्लेशभावो मुनींद्रः। साक्षाच्छुद्धोपयोगी स इति नियमवाचावधार्येति सम्यकर्मन्नोऽयं सुखं स्यान्नयविभजनतो सद्विकल्पोऽविकल्पः ॥१८॥ द्रव्यं मूर्तिमदाख्यया हि तदिदं स्यात्पुद्गलः संमतो मूर्तिश्चापि रसादिधर्मवपुषो ग्राह्याश्च पंचेन्द्रियः। सर्वज्ञागमतः समक्षमिति भो लिंगस्य बोधान्मितात्तद्रव्यं गुणवृन्दपयेययुतं संक्षेपतो वच्म्यहम् ॥ १९ ॥ शुद्धः पुद्गलदेश एकपरमाणुः संज्ञया मूर्तिमांस्तद्देशाश्रितरूपगंधरससंस्पर्शादिधर्माश्च ये। तद्भावाश्च जगाद पुद्गलमिति द्रव्यं हि चैतत्त्रयं सर्व शुद्धमभेदबुद्धित इदं चांतातिगं संख्यया ॥ २० ॥ रूक्षस्निग्धगुणैः प्रदेशगणसंपिण्डो गुणानां व्रजस्तत्राप्यर्थसमुच्चयोऽखिलमिदं द्रव्यं ह्यशुद्धं च तत् । पर्यायार्थिकनीतितो हि गणितात्संख्यातदेशी विधिः । संख्यातीतसमं शमाद्भवति वानंतप्रदेशी त्रिधा ॥ २१ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यविशेषप्रज्ञापकस्तृतीयः परिच्छेदः शुद्धैकाणुसमाश्रितास्त्रिसमये तत्रैव चाणौ स्थिताचत्वारः किल रूपगंधरससंस्पर्शा ह्यनंतांगिनः । मूर्तद्रव्यगुणाश्च पुद्गलमया भेदप्रभेदैस्तु ते । येनैके परिणामिनोऽपि नियमाद्ध्रौव्यात्मकाः सर्वदा ॥ २२ ॥ पर्यायः परमाणुमात्र इति संशुद्धोऽन्वयाख्यः स हि रूक्षस्निग्धगुणैः प्रदेशचयजो शुद्ध मूर्त्यात्मनः । द्रव्यस्येति विभक्तनीतिकथनात्स्याद्भेदतः स त्रिधा सूक्ष्मांतर्निदनेकधा भवति सोपीदेति भावात्मकः ॥ २३ ॥ शब्दो बन्धः सूक्ष्मस्थली संस्थानभेदसंतमसम् । छायातपप्रकाशाः पुद्गलवस्तोरशुद्धपर्यायाः ॥ २४ ॥ शुद्धेऽणौ खलुरूपगंधरससंस्पर्शाश्च ये निश्चितास्तेषां विंशतिधा भिदो हि हरितात्पीतो यथाम्रादिवत् । तद्भेदात्परिणामलक्षणबलाद्भेदान्तरे सत्यतो धर्माणां परिणाम एष गुणपर्यायः स शुद्धः किल ।। २५ ।। तत्राणौ परमे स्थिताश्च रसरूपस्पर्शगंधात्मकाः (१) एकैकद्वितयैकभेदवपुषः पर्यायरूपाश्च ये । २५७ पंचैवेति सदा भवति नियमोऽनंताश्च तच्छक्तयो पर्यायः क्षतिवृद्धिरूप इति तासां धर्मसंज्ञोऽमलः (१) ॥ २६ ॥ स्कंधेषु व्यणुकादिषु प्रगतसंशुद्धत्वभावेषु च ये धर्माः किल रूपगंधरससंस्पर्शाश्च तत्तन्मयाः । तेषां च स्वभिदो भिदेतरतनुर्भावश्च तच्छक्तयो ह्यर्थस्तत्क्षतिवृद्धिरूप इति चाशुद्धश्च धर्मात्मकः ॥ २७ ॥ १७ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकमलमार्त्तण्डे लोकाकाशमितप्रदेशवपुषौ धर्मात्मकौ संस्थितौ नित्यौ देशगणप्रकं परहितौ सिद्धौ स्वतंत्राच्च तौ धर्माधर्मसमायाविति तथा शुद्धौ त्रिकाले पृथक् स्यातां द्वौ गुणिनावथ प्रकथयामि द्रव्यधर्मास्तयोः ॥ २८ ॥ शुद्धा देशगुणाश्च पर्ययगणा एतद्धि सर्व समम् द्रव्यं स्यान्नियमादमूर्तममलं धर्म ह्यधर्मे च तत् तद्देशाः किल लोकमात्रगणिता पिंडीवभूवुः स्वयं पर्यायो विमलः स एष गुणिनोऽधर्मस्य धर्मस्य च ॥ २९ ॥ धर्मद्रव्यगुणो हि पुद्गलचितोश्चिद्द्रव्ययोरात्मभा गच्छद्भावव तोर्निमित्तगतिहेतुत्वं तयोरेव यत् । मत्स्यानां हि जलादिवद्भवति चौदास्येन सर्वत्र च प्रत्येकं सकृदेव शश्वदनयोर्गत्यात्मशक्तावपि ॥ ३० ॥ तिष्ठद्भाववतोश्च पुद्गलचितोश्चौदास्यभावे नयद्धेतुत्वं पथिकस्य मार्गमटतरच्छाया यथावस्थितेः । धर्मो धर्मसमाह्वयस्य गतमोहात्मप्रदिष्टः सदा शुद्धोऽयं सकृदेव शश्वदनयोः स्थित्यात्मशक्तावपि ॥ ३१ ॥ धर्माधर्माख्ययोर्वै परिणमनमदस्तत्त्वयोः स्वात्मनैव धर्मशैश्च स्वकीयागुरुलघुगुणतः स्वात्मधर्मेषु शश्वत् सिद्धात्सर्वज्ञवाचः प्रतिसमयमयं पर्ययः स्यादद्वयोश्च शुद्धो धर्मात्मसंज्ञः परिणतिमयतोऽनादिवस्तुस्वभावात् ॥ ३२ ॥ irs गगनतत्त्वमनंतमनादिमत्सकलतत्त्वनिवासदमात्मगं द्विविधमाह कथंचिदखंडितं किल तदेकमपीह समन्वयात् ||३३|| २५८ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यविशेषप्रज्ञापकस्तृतीयः परिच्छेदः २५९ यावत्स्वाकाशदेशेषु सकलचिदचित्तत्त्वसत्तास्ति नित्या 3112 तावंतो लोकसंज्ञा जिनवरगदितास्तद्वहिर्ये प्रदेशाः । सर्वे तेऽलोकसंज्ञा गगनमभिदपि स्वात्मदेशेषु शश्वद्भेदार्थाच्चोपलंभाद्द्द्विविधमपि च तन्नैव बाध्येत हेतोः ॥ ३४ ॥ अंतातीतप्रदेशा गगनगुणिन इत्याश्रितास्तत्र धर्मास्वत्पर्यायाश्च तत्त्वं गगनमिति सदाकाशधर्मे विशुद्धम् । द्रव्याणां चावगाहं वितरति सकृदेतद्धि यत्तु स्वभावा द्धर्माशैः स्वात्मधर्मात्प्रतिपरिणमनं धर्मपर्यायसंज्ञम् ।। ३५ ।। गगनानंतांशानां पिण्डीभावः स्वभावतो भेद्यः । पर्यायो द्रव्यात्मा शुद्धो नभसः समाख्यातः || ३६ ॥ प्रोक्तं द्रव्यं प्रमाणाद्भवति स समयाणुः किल द्रव्यरूपो लोकैकैकदेशस्थित इति नियमात्सोऽपि चैकैकमात्रः । संख्यातीताश्च सर्वे पृथगिति गणिता निश्चयं कालतत्वं भाक्तः कालो हि यः स्यात्समयघटिकावासरादिः प्रसिद्धः |३७| द्रव्यं कालाणुमात्रं गुणगणकलितं चाश्रितं शुद्धभावैः तच्छुद्धं कालसंज्ञं कथयति जिनपो निश्चयाद्द्रव्यनीतेः ॥ द्रव्याणामात्मना सत्परिणमनमिदं वर्तना तत्र हेतुः कालस्यायं च धर्मः स्वगुणपरिणतिर्धर्मपर्याय एषः ॥ ३८ ॥ पर्यायो द्रव्यात्मा शुद्धः कालाणुमात्र इति गीतः । सोनेहसोऽणवश्वासंख्याता रत्नराशिरिव च पृथक् ।। ३९ ।। पर्यायः किल जीवपुद्गलभवो यो शुद्धशुद्धाहयस्तस्यैतञ्चलनात्मकं च गदितं कर्मक्रिया तन्मता १ कालो इत्यपि । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० FI तस्याः स्याच्च परत्वमेतदपरत्वं मानमेवाखिलं तस्मान्मानविशेषतो हि समयादिर्भातकालः स यः ॥ ४० ॥ एनं व्यवहति कालं निश्चयकालस्य गांति पर्यायं । वृद्धाः कथंचिदिति तद्विचारणीयं यथोक्तनयवादैः ॥ ४१ ॥ अस्तित्वं स्याच्च षण्णामपि खलु गुणिनां विद्यमानस्वभावात् पंचानां देशपिंडात्समयविरहितानां हि कायत्वमेव । सूक्ष्माणोश्रोपचारात्प्रचयविरहितस्यापि हेतुत्वसत्वात् कायत्वं न प्रदेशप्रचयविरहितत्वाद्धि कालस्य शश्वत् ॥ ४२ ॥ इति श्रीमदध्यात्मकमलमार्त्तण्डाभिधाने शास्त्रे द्रव्यविशेषप्रज्ञापकस्तृतीयः परिच्छेदः । 1081 अध्यात्मकमलमार्त्तण्डे 134 Ispas PRATAP म काक ग ארט דען TATEF क Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः परिच्छेदः। भावा वैभावका ये परसमयरताः कर्मजाः प्राणभाजः सर्वागीणाश्च सर्वे युगपदिति सदावर्तिनो लोकमात्राः ये लक्ष्याश्चहिकास्ते स्वयमनुमितितोऽन्येन चानैहिकास्ते प्रत्यक्षज्ञानगम्याः समुदित इति भावाश्रवो भाववन्धः॥१॥ एतेषां स्युश्चतस्रः श्रुतमुनिकथिता जातयो मर्त्य तावमिथ्यात्वं लक्षितं तद्ध्यविरतिरपि सा यो ह्यचारित्रभावः। कालुष्यं स्यात्कषायः समलपरिणतो द्वौ च चारित्रमोहः योगः स्यादात्मदेशप्रचयचलनतावाङ्मनःकायमार्गः॥२॥ चत्वारः प्रत्ययास्ते ननु कथमिति भावाश्रवो भावबंधश्चैकत्वाद्वस्तुतस्ते बत मतिरिति चेत्तन्न शक्तियोः स्यात् । एकस्यापीह वहेर्दहनपचनभावात्मशक्ति याद्वै वह्निः स्याद्दाहकश्च स्वगुणगणबलात्पाचकश्चति सिद्धः॥३॥ मिथ्यात्वाद्यात्मभावाः प्रथमसमय एवाश्रवे हेतवः स्युः पश्चात्तत्कर्मबन्धं प्रतिसमसमये तो भवेतां कथंचित् । नव्यानां कर्मणामागमनमिति तदात्वे हि नाम्नाश्रवः स्यादायत्यां स्यात्स बंधः स्थितिमिति लयपर्यंतमेषो नयोभित् ॥४॥ वस्त्रादौ स्नेहभावो न परमिह रजोभ्यागमस्यैव हेतुवित्स्यालिबन्धः स्थितिरपि खलु तावच्च हेतुः स एव । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ अध्यात्मकमलमार्तण्डे सर्वेप्येवं कषायानपरमिह निदानानि कर्मागमस्य बंधस्यापीह कर्मस्थितिमतिरिति यावन्निदानानि भावात् ||५|| सिद्धाः कार्म्मणवर्गणाः स्वयमिमा रागादिभावैः किल ता ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामं यांति जीवस्य हि । सर्वांगं प्रति सूक्ष्मकालमनिशं तुल्यप्रदेशस्थिताः स्याद्द्रव्याश्रव एष एकसमये बन्धश्चतुर्भान्वियः ॥ ६॥ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेश भेदाच्चतुर्विधो बंधः । प्रकृतिप्रदेशबन्धौ योगात्स्यातां कर्षायतश्चान्यौ ॥ ७ ॥ युगपद्योगकषायौ चिक्कणपटकंपवंचितः स्याताम् । बंधोऽपि चतुर्धा स्याद्धेतुप्रतिनियतशक्तितो भेदः ॥ ८ ॥ त्यागो भावाश्रवाणां जिनवरगदितः संवरो भावसंज्ञो भेदज्ञानाच्च स स्यात्स्वसमयवपुषस्तारतम्यः कथंचित् । सा शुद्धात्मोपलब्धेः स्वसमयवपुषा निर्जरा भावसंज्ञा नाम्ना भेदोनयोः स्यात्करणविगतः कार्यनाशप्रसिद्धेः ॥ ९ ॥ एकः शुद्धो हि भावो ननु कथमिति जीवस्य शुद्धात्मबोधाद्भावाख्यः संवरः स्यात्स इति खलु तथा निर्जरा भावसंज्ञा । भावस्यैकत्वतस्ते मतिरिति यदि तन्नैव शक्तिर्द्वयोः स्यात्पूर्वोपात्तं हि कर्म स्वयमिह विगलेतैव बध्येत नव्यं ॥ १० ॥ स्नेहाभ्यंगाभावे गलति रजः पूर्वबद्धमिह नूनम् । नाप्यागच्छति नव्यं यथा तथा शुद्धभावतस्तौ द्वौ ॥ ११ ॥ चिदचिद्भेदज्ञानाभिर्विकल्पात्समाधितश्चापि कर्मागमननिरोधस्तत्काले द्रव्यसंवरो गीतः ।। १२ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादकश्चतुर्थः परिच्छेदः २६३ शुद्धादुपयोगादिह निश्चयतपसश्च संयमादेव । गलति पुरा बर्द्ध किल कम्मैषा द्रव्यनिर्जरा गदिता ॥ १३ ॥ मोक्षो लक्षित एव हि तथापि संलक्ष्यते यथाशक्ति । भावद्रव्यविभेदाद्विविधः स स्यात्समाख्यातः ॥ १४ ॥ सर्वोत्कृष्टविशुद्धिर्वोधमती कृत्स्नकर्मलयहेतुः । ज्ञेयः स भावमोक्षः कर्मक्षयजा विशुद्धिरथ च स्यात् ॥ १५ ॥ परमसमाधिबलादिह बोधावरणादिसकलकर्माणि । चिदेशेभ्यो भिन्नीभवंति स द्रव्यमोक्ष इह गीतः ।। १६ ।। देशेनैकेन गलेत्कर्मविशुद्धिश्च देशतः सेह । स्यान्निर्जरा पदार्थो मोक्षस्तौ सर्वतो द्वयोभिरिति ॥ १७ ॥ शुभभावैर्युक्ता ये जीवाः पुण्यं भवत्यभेदात्ते । सक्केशैः पापं तद्द्द्रव्यं द्वितीयं च पौगलिकम् ।। १८ ।। ये जीवाः परमात्मबोधपटवः शास्त्रं त्विदं निर्मलं नाम्नाध्यात्मपयोजभानु कथितं द्रव्यादिलिंगं स्फुटम् । जानन्ति प्रमितेश्च शब्दवलतो यो वार्यतः श्रद्धया ते सद्दृष्टियुता भवंति नियमात्संवांतमोहाः स्वतः ।। १९ ।। अर्थाश्चाद्यवसानवर्जतनवः सिद्धाः स्वयं मानतस्तलक्ष्मप्रतिपादकाच शब्दा निष्पन्नरूपाः किल । भो विज्ञाः परमार्थतः कृतिरियं शब्दार्थयोश्च स्वतो नव्यं काव्यमिदं कृतं न विदुषा तद्राजमल्लेन हि । इति श्रीमदध्यात्मकमलमार्त्तण्डाभिधाने शास्त्रे सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादक चतुर्थः परिच्छेदः । इति अध्यात्मक मलमार्त्तण्डः समाप्तः । ত Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतदधिकमपि उपलभ्यते मूलपतौ कम्माणं फलमेक (को) कज्ज (एक्को) तु णाणफलमेकं (मथमेक्को)। चेदयदि जीवरासिं (सी) चेदणभावेण तिविहेण ॥१॥ सव्वे खलु कम्मफलं थावरकायं (या) जा तस्स (सा हि) कज्जजुत्तं (द) च। पाणदि चिदिकतो (पाणित्तमदिक्कता) णाणं विन्दति ते जीवा।।२॥ तच्चाणेसण काले समयं बुज्झदि जुत्तमग्गेण ! णो आराहण समये पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ॥३॥ पचंति मूलपयडी शृणं समुहेण सव्वजीवाणं । सुमुहेण परमुहेण य मोहाओ वज्जया सव्वे ।। ४ ॥ पण्णवदि (परिणमदि) जेण दव्वं तं काले (तकालं) तं मयोदि (तम्मयत्ति) पण्णवदि (तं)। तम्हा धम्मो (म्म) प(रि)णदो आदा धम्मो मुणेअब्बो ॥५॥ ज्ञानाद्धर्मप्रवृत्तिर्भवति भुवि तृणां पुण्यबंधप्रबंधो । ज्ञानात्सौभाग्यमुच्चैविपुलमतियशः पार्थितार्थस्य सिद्धिः । ज्ञानालक्ष्मीविचित्रा नयविनयगुणैर्ज्ञानतो बुद्धियोगो ज्ञानाद्दौर्गत्यनाशस्त्रिदशपतिपदं ज्ञानतः सुप्रसिद्धम् ॥१॥ दहति मदनवह्निर्मानसं तावदेव भ्रमयति तनुभाजां कुग्रहस्तावदेव । छलयति गुरुतृष्णा राक्षसी तावदेव स्फुरति हृदि जिनोक्तो वाक्यमंत्री न यावत् ॥ २॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण मूर्यातपो नागेन्द्रो निशिांकुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभाः। व्याधिर्भपजसंग्रहैश्च विविधैर्मत्रप्रयोगैविषं सर्वस्यौषधमास्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधं ॥३॥ ज्ञानं मददर्पहरं तेनैव माद्यति तस्य को वैद्यः । अमृतं यस्य विषायते तस्य चिकित्सा कथं क्रियते ॥ ४ ॥ अथ प्रशस्तिका वर्षे वेदाब्धिसिद्धीन्दु (१८४४) मित अमले (?) श्रावणे मासि पूर्वे कृष्ण पक्षे हि षष्ट्यां निजविमलकरात्पार्श्वनाथस्य गेहे। वृन्दावत्यां नगर्या व्यसनहरिनृपे श्रीसुरेन्द्रादिकीर्तिः नाम्ना भट्टारकेन्द्रो बुधपतिमहितोऽमुं लिलेखातिभावात् ॥ १ ॥ जिनादिदासस्य विपश्चितोऽत्र पुस्तादशुद्धाच लिपीकृतं मे शीघ्रात्तथाज्ञानतया ह्यशुद्धं यल्लेखितं तद्विवुधैर्विशोध्यम् ॥ २॥ विपश्चिच्छात्रसर्वसुखाख्याध्ययनार्थं लिपीकृतं मया । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिचरिते उद्धारणवाक्यानां वर्णानुक्रमणिका अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यताया एयंत बुद्धदरसी एष लोक बहुभावभावितः कति न कति न वारान् कम्मत्तणेण एकं कालाई लदिणियडा खओवसमविसोही जीवादीसहहणं नागुणी गुणिनं वेत्ति पढमं पढमे यिदं पढमक्खो अंतगदो पानीयं च रसः शीतं ब्रह्मचारी तृणं नारी मानस्तंभाः सरांसि राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः वदसमिदीगुत्तीओ विकहा तहा कसाया विश्वतश्चक्षुरुत १३३ २३० ३० २०८ २३२ १० २३५ ५३ १४५ ३२ २२६ १७१ १३६ ४४ ३३ २३२ २३१ २८ बृहत्स्वयंभू स्तोत्र गोम्मटसारजी बकाण्ड गोम्मटसारकर्मकाण्ड गोम्मटसार जीवकाण्ड द्रव्यसंग्रह गोम्मटसारजीव काण्ड ३३ १६ ६,७ ६५० ४१ ३५ द्रव्यसंग्रह गोम्मटसारजीवकाण्ड शुक्लयजुर्वेदसंहिता १७-१९ ૪ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मकमलमार्तण्डस्य श्लोकानां वर्णानुक्रमणिका पृष्ठ २५९ २५४ २६१ २५३ २४९ २४९ २५३ २५७ श्लोक अनन्तधर्म समय अन्तातीतप्रदेशा अन्यव्यनिमिताचे अन्वयिनः किल नित्या अर्थाश्चाद्यवसान अविनाभावो विगम अस्तित्वं स्थाच आत्मासंख्यातदेश आश्रवबन्धान्तर्गतं एकः शुद्धो हि एकानेकद्रव्य एकैकस्य गुणस्य एकोप्यात्मा एक पर्ययजातैः एतेषां स्युश्चतस्रः एनं व्यवति कालं एषोऽहं भिन्नलक्ष्मो कत्ती भोक्ता कथंचित् कर्मापाये चरमवपुषः कैश्चित्पर्ययविगमै को भिसंवित् गगनतत्त्वमनंत गगनानंतांशानां पृष्ठ । श्लोक २४२ गुणपर्ययवद्र्व्यं चक्षुदृष्टयादि २५१ चत्वारः प्रत्ययास्ते २५० चिदचिद्भेदज्ञाना जीवद्रव्यं यथोक्तं २५२ जीवमजीवं द्रव्यं २६० जीवाजीवादितत्त्वं जीवाजीवाश्रवबन्धी २४९ जीवो द्रव्यं प्रमितिविषय तत्राणौ परमे २५० तस्मिन्नेव विवक्षित तिष्ठद्भाववतोश्च २५५ त्यागो भावाश्रवाणां २५२ देशेनकेन गलेत् २६१ द्रव्यं कालाणुमात्रं २६० द्रव्यं मूर्तिमदाख्यया २४५ द्रव्यान्तरसंयोगात् २५५ द्रव्याण्यनाद्य २५४ धर्मद्रव्यगुणो २५१ धर्मद्वारेण हि धर्माधीख्ययोः २५८ धौव्योत्पादविनाश २५९ | नमोस्तु तुभ्यं २५० २५८ ૨૬૨ २६३ २५९ २५६ २५१ २४९ २५८ २५१ २५८ २४२ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 256 258 255. 257 257 263 279 र५१ श्लोक पृष्ठ / श्लोक नित्यं त्रिकालगोचर 252 वस्त्रादौ नेहभावो निश्चित्येतीह 246 व्यतिरोकिणो ह्यनित्या परमसमाधि शब्दो बन्धः सूक्ष्मः पर्याय: किल 259 शुद्धः पुद्गलदेशः पर्यायो द्रव्यात्मा शुद्धात्मज्ञानदक्षः पर्यायः परमाणुमात्र शुद्धा देशगुणाश्च पूर्वावस्थाविगमे 251 शुद्धादुपयोगादिह पंचाचारादिरूपं शुद्धाशुद्धा हि प्रकृतिस्थित्यनुभाग शुद्धकाणुसमाश्रिता प्रणम्य भाव विशदं 241 शुद्धेऽणौ खल प्राणैर्जीवति शुभभावैर्युक्ता प्रोक्तं द्रव्यं प्रमाणात सति कारणे यथास्त्र बहिरंतरंगसाधन 251 सद्व्यं सच्च गुणः भावा वैभाविका सहरमोहक्षतः भेदज्ञानी करोति सम्बग्दृग्ज्ञानवृत्तं मिथ्यात्वाद्यात्म सर्वेश्वविशेषेण मुक्तकमैप्रमुक्ती सर्वोत्कृष्टविशुद्धि मोक्षो लक्षित एव सिद्धा कार्मणवर्गणाः मोक्षः स्वात्मप्रदेश संक्लेशासक्तचित्तो मोहः संतानवी संख्यातीतप्रदेशा यच्छ्रद्धानं जिनोक्तेः 244 संख्यातीतप्रदेशेषु यावत्वाकाश 259 युगपद्योगकषायो 262 संसारेऽत्र प्रसिद्ध ये जीवा परमात्म 263 स्कंधेषु द्वयणुकादिषु दादेवभाजों स्नेहाभ्यंगाभावे यी द्रव्यन्तिरसमिति स्वात्मज्ञाने निलीन रुक्षस्निग्धगणैः का खात्मन्येवोपयुक्तः लोकीकाशमितकर यah२५८ स्वीयाच्चतुष्टयात् 261 255 251 255 244 250 261 263 256 K 253 253 254 257 255 247 246 समबन आमसपास लिली. * JAL RAPATAN