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अमृतचन्द्रसूरिको स्मरण किया है । कविने इस छोटेसे ग्रन्थमें आत्मख्याति समयसारके ढंगपर अनेक छन्द, अलंकार आदिसे सुसज्जित अध्यात्मशास्त्रकी एक अति सुन्दर रचना करके सचमुच जैन साहि त्यके गौरवको वृद्धिंगत किया है ।
कवि राजमल्लकी इन चार कृतियोंमें, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, जम्बूस्वामिचरितकी रचना वि० सं० १६३२ और लाटीसंहिताकी रचना वि० सं० १६४१ में हुई है। शेष दो ग्रन्थोंके समय के विषय में ग्रन्थकारने स्वयं कुछ भी उल्लेख नहीं किया । परन्तु मालूम होता है। कविकी सर्वप्रथम रचना जम्बूस्वामिचरित है, और इसी रचनाके ऊपरसे इन्होंने 'कवि' की प्रख्याति प्राप्त की। इसके बाद किसी कारणसे कविको आगरेसे वैराट नगरमें जाना पड़ा, और वहाँ जाकर इन्होंने जम्बूस्वामिचरितके नौ वर्ष बाद लाटीसंहिताका निर्माण किया । जम्बूस्वामिचरित के कई पद्य भी लाटीसंहिता में अक्षरशः अथवा कुछ परिवर्तन के साथ उपलब्ध होते हैं। पंचाध्यायी और अध्यात्मकमलमार्त्तण्ड कविकी इन रचनाओंके बादकी ही कृतियाँ जान पड़ती हैं। मालूम होता है जैसे जैसे कवि राजमल्ल अवस्था और विचारोंमें प्रौढ़ होते गये, वैसे वैसे उनकी रुचि अध्यात्म की ओर बढ़ती गई । फलतः उन्होंने अपने आत्म-कल्याणके लिये इन दोनों प्रन्थोंका निर्माण किया । अब इन दोनोंमें संभव है कि पंचाध्यायी पहिले बनी हो, और उसके संक्षिप्त सारको लेकर
१ पं० जुगलकिशोरजीने लाटीसंहिता और पंचाध्यायीमें ४३८ समान पद्योंके पाये जानेका उल्लेख अपनी उक्त भूमिकामें किया है। इन पद्ययका लाटीसंहितामसे ही उठाकर पंचाध्यायीमें रक्खा जाना अधिक संभव जान पड़ता है।