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यह समस्त ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। जितना उपलब्ध है उसमें केवल दो प्रकरण मिलते हैं:-एक द्रव्यसामान्यनिरूपण जिसमें ७७० श्लोक हैं, और दूसरा द्रव्यविशेषनिरूपण जिसमें ११४५ श्लोक हैं । दूसरा प्रकरण अधूरा है । इन दोनोंको मिलाकर लगभग पौने दो अध्याय कहा जा सकता है । पंचाध्यायी कविकी सर्वोत्तम प्रौढ़ रचना प्रतीत होती है । जीवोंको सुगम उक्तिसे धर्मका बोध करनेके लिये ही कवि इस ग्रन्थकी रचना करनेमें प्रेरित हुए हैं। इसमें प्रतिपाद्य विषयको शंका-समाधानके रूपमें उपस्थित करके विषयको बहुत ही सुन्दर और सरलरूपमें रक्खा गया है । द्रव्य, गुण, पर्याय, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, प्रमाण, नय आदिसंबंधी द्रव्यानुयोगकी चर्चाको ग्रन्थकारने अनेक दृष्टांत आदि देकर तार्किक दृष्टि से खूब ही प्रस्फुटित किया है । विशेष करके कविका व्यवहार और निश्चयनयका समन्वय करना, श्रद्धा आदि गुणोंसे स्वात्मानुभूतिकी उत्कृष्टताका प्रतिपौदन करना आदि, कविकी मौलिक प्रतिभा, समर्थता और अनुभवबृद्धताको बोतित करता है । निस्सन्देह पंचाध्यायी अपने ढंगकी एक अनोखी ही रचना है।
कविकी दूसरी रचना लाटीसंहिता है । यह आचार-शास्त्रका १ अध्यात्मकमलमार्तण्डमें भी द्रव्यसामान्य और द्रव्यविशेषके निरूपणके लिये दो अलग अलग परिच्छेद रचे गये हैं। इसी तरह पंचाध्यायीमें भी द्रव्यसामान्य और द्रव्यविशेषनिरूपणको अलग अलग अध्याय समझा जा सकता है। २ सर्वोऽपि जीवलोकः श्रोतुंकामो वृष हि सुगमोक्त्या।
विज्ञप्तौ तस्य कृते तत्रायमुपक्रमः श्रेयान् । १-६। ३ खानुभूतिसनाधाश्च(च)त् सन्ति श्रद्धादयो गुणाः । खानुभूति विनाभासा नार्थाच्छूद्धादयो गुणाः २-४१७ ।