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आसपास अन्य मोक्ष जानेवाले अनेक मुनियोंके स्तूप भी मौजूद थे । इन मुनियोंके स्तूप कहीं पाँच, कहीं आठ, कहीं दस
और कहीं बीस इस तरह बने हुए थे । साहु टोडरको इन स्तूपोंको जीर्ण-शीर्ण अवस्थामें देखकर इनका जीर्णोद्धार करनेकी प्रबल भावना जागृत हुई । फलतः टोडरने शुभ दिन और शुभ लग्न देखकर अत्यन्त उत्साहपूर्वक इस पवित्र कार्यका समारंभ कर दिया । साहु टोडरने इस पुनीत कार्यमें बहुत-सा धन व्यय करके ५०१ स्तूपोंका एक समूह और १३ स्तूपोंका दूसरा समूह, इस तरह कुल ५१४ स्तूपोंका निर्माण कराया । तथा इन स्तूपोंके पास ही १२ द्वारपाल
आदिकी भी स्थापना की । यह प्रतिष्ठाका कार्य वि० सं०१६३० में ज्येष्ठ शुक्ला १२ को बुधवारके दिन नौ घड़ी व्यतीत होनेपर सूरिमंत्रपूर्वक निर्विघ्न सानन्द समाप्त हुआ । साहु टोडरने चतुर्विध संघको आमंत्रित किया । सबने परम आनन्दित होकर टोडरको आशीर्वाद दिया और गुरुने उसके मस्तकपर पुष्प-वृष्टि की । तत्पश्चात् साहु टोडरने सभामें खड़े होकर शास्त्रज्ञ कवि राजमल्लसे प्रार्थना की कि मुझे जम्बूस्वामि-पुराणके सुननेकी बड़ी उत्कण्ठा है, सो आप कृपा करके इस कथाको विस्तारसे कहिये । इस प्रार्थनासे प्रेरित होकर कवि राजमल्लने जम्बूस्वामिचरितकी रचना की ।
इस काव्यमें कुल १३ सर्ग हैं, जिनकी पद्य-संख्या सब मिलाकर लगभग २४०० के है । जान पड़ता है कि कविने जम्बूस्वामिचरितको आगरेमें रहकर ही बनाया था। कविने कथामुख-वर्णन नामक सर्गमें आगरेके बाजारों आदिका वर्णन भी दिया है । काव्यमें वैराग्यकी प्रधानता है । कहींपर युद्धका वर्णन करते समय वीररस