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Prakrit Text Series
No. 21
TĀLA'S GĀHAKOSA (GĀTHĀSAPTASATI)
with THE SANSKRIT COMMENTARY
of
BHUVANAPĀLA
Part I
Edited by Prof. M. Y. Patwardhan
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PRAKRII TEXT SOCIETY
AHMEDABAD-38C 009
in Education International
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PRAKRIT TEXT SERIES No. 21
General Editors (1) D. D. Malvania (2) H. C. Bhayani
HĀLA'S GĀHĀKOSA (GĀTHĀSAPTAŚATI)
With
THE SANSKRIT COMMENTARY
OF BHUVANAPĀLA
Part 1
Edited by Prof. M. V. Patwardhan
PRAKRIT TEXT SOCIETY AHMEDABAD-380009.
1980
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Published by Dalsukh Malvania Secretary, Prakrit Text Society Ahmedabad-9.
First Edition 1980
Price Rs. 35/
Printed by Mahanth Tribhuvandas Shastri Sree Ramanand Printing Press Kankaria Road Ahmedabad-380022
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प्राकृतग्रन्थपरिषद्, ग्रन्थाङ्क-२१
कविवत्सलहालकृतः
गाहाकोसो (गाथाकोशः)
भुवनपालविरचितया छेकोक्तिविचारलीलानाम्न्या
टीकया संवलितः
प्रा. माधव वासुदेव पटवर्धन, एम् . ए.
इत्येतेन संपादितः
प्राकृत ग्रन्थ परिषद्
अहमदाबाद १९८०
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Publisher's Note
This one more edition of Hāla's Gābākosa does not require any apology as new mss are utilized for its critical edition and also for the first time Bhuvanapāla's commentary is printed with the text.
I have to thank Professor M. V. Patwardhan for editing the text and the Commentary for the Prakrit Text Society though he is not in good health due to old age.
I hope that he will be able to finish the Second part in which he wants to give the Translation of the text, Notes, Indices and an exhaustive Introduction.
DALSUKH MALVANIA
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PREFACE
Work on the present edition of Hala's Gahakosa (Gathakosa or Gathasaptasati) was undertaken by me in 1972, at the instance of the Prakrit Text Society, Ahmedabad, as a part of the Society's plan to bring out new editions of ancient Prakrit literary works. It was decided by the Society that the Prakrit text of Hala's Gāhākosa with Bhuvanapala's Sanskrit Commentary (not printed so far) should be published on the same lines as the Vajjalagga published by the Society in 1969. The Prakrit Text Society feels happy in placing in the hands of scholars Part I of Hala's Gāhākosa with the Sanskrit Commentary of Bhuvanapala and importtant variants from Prof. Weber's text of the Saptasatakam of Hala (Leipzig, Germany, 1881). The Roman figures with the letter W prefixed to them in the margin of the text of the gathās indicate the numbers of the gathās in Weber's edition of 1881, Part II will contain an Introduction, translation, alphabetical index of the gathās, explanatory notes and glossary of important words occurring in the gathās.
For the present edition the following published and manuscript material has been used.
(1) Prof. Weber's editions of Hala's Saptasatakam, Leipzig 1870 and 1881.
(2) Prof. A. Weber's two long articles on the Saptasataka of Hāla published in Vols. 26 (1872) and 28 (1874) of ZDMG.
(3) Prof. A. Weber's monograph on Bhuvanpalas commentary on the Saptasataka, published with introduction, various indices and a concordance on pp. 1-204 of Indische Studien, Vol, 16, 1883.
후
(4) Deccan College (Poona) manuscript No. 245 of 1880-1881 (used by Weber for his monograph mentioned above) and now deposited in the Bhandarkar Institute, Poona.
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(5) Ahmedabad manuscript No. 7118 of the L. D. Institute of
Indology, Ahmedabad. (6) Bhandarkar Institute manuscript No. 385 of 1887-1891 of
the Gāthāsaptaśati with Ajada's Sanskrit commentary (used
for Stanzas 601-637 of the Seventh Cento). (7) Baroda manuscript No. 12681 of the Oriental Institute Baroda
with very probably Bhuvanapāla's commentary (used for stanzas 641-700 of the Seventh Cento).
[ For (6) and (7), see the note printed on pp. 258-259 of the present edition }.
I have great pleasure in recording here my sincere thanks to the BOR Institute Poona, to the L. D. Institute, Ahmedabad and the Oriental Institute, Baroda, for allowing me to make use of the manuscript material mentioned above. My gratitude is of course also due to Prof. A. Weber for ths enlightenment and inspiration that I derived from his pioneering work on Hāla's anthology. I am also thankful to the Prakrit Text Society, Ahmedabad, for entrusting the present work to me.
Poona 4. 1st February, 1980.
M. V. PATWARDHAN
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गाहाकोसो
पढमं सयं W.1 १) पसुवइणो रोसारुणपडिमासंकेतगोरिमुहयंदं ।
गहियग्धपंकयं पिव संझासलिलंजलिं नमह ॥१॥ w.3 २) सत्त सयाइं कइवच्छलेण कोडीऍ मज्मयाराओ'।
हालेण विरइयाइं सालंकाराण गाहाणं ॥२॥ ओं नमो जिनाय ।............
इह खलु श्रीसातवाहनकृते गाथाकोशे नानाकविकल्पितासु भिन्नविषयासु अनेकच्छेकोक्तिषु सकलकलाकौशलकुशलोऽपि न गूढप्रभावमुद्भावयितुमलं, किं पुनर्वयम् । तथापि सकलसूरिशास्त्रार्थप्रार्थनोपरोधेन अस्माभिरस्मिन्यथाबुद्धि विवरणं विधास्यत इति । तत्रादौ सकलविघ्नप्रतिबन्धसिद्धिम् अवगुंते भुकामः (अधिगन्तुकामः) कविरयं नमस्कारमकार्षात् ।
१) हालस्य । [पशुपते रोषारुणप्रतिमासंक्रान्तगौरीमुखचन्द्रम् । गृहीतार्धपङ्कजमिव सन्ध्यासलिलाञ्जलिं नमत ॥] पसुवइणो पशुपतेर्महेश्वरस्य संझासलिलंजलिं नमह सन्ध्यासलिलाञ्जलिं नमत । कथंभूतम् । रोसारुणपडिमासंकंतगोरिमुहयंदं कोपपाटलप्रतिबिम्बिताम्बिकावदनेन्दुम् । अतश्च कीदृशम् । गहि नग्धपङ्कयं पिव गृहीतार्धपङ्कजमिव । सन्ध्यावन्दनेन रोषारुणत्वं गौरीमुखचन्द्रस्य ज्ञेयम् । अनेनैव वस्तूपक्षेपरूपेण ईर्ष्याविप्रलम्भशृङ्गारप्रायः प्रबन्धोऽयं विधास्यत इति सूचितं भवति । उत्प्रेक्षा नाम अलङ्कारः । तस्य लक्षणम्-यत्र विशिष्टे वस्तुनि सत्यसदारोप्यते समं तस्य । (वस्त्वन्तरमुपपत्या उत्प्रेक्षा) सा (तु) विज्ञेया ॥१॥
२) [सप्त शतानि - कविवत्सलेन कोट्या मध्यात् । हालेन विरचितानि सालंकाराणां गाथानाम् ।।] सप्त शतानि कविवत्सलेन कोट्याः १w मज्झारम्मि
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गाहाकोसो
[१.३W4 ३) उय निच्चलणिफंदा भिसिणीपत्तम्मि रेहइ बलाया।
निम्मलमरगयभायणपरिट्ठिया संखसुत्ति व ॥३॥ w5 ४) ताव च्चिय रइसमए महिलाणं विब्भमा विरायति ।
जाव न कुवलयदलसच्छहाई मउलंति नयणाई ॥४॥ मध्यात् सातवाहनेन विरचितानि सालंकाराणां गाथानाम् । हाल इति सातवाहनस्य कुन्तलाधिपस्य नाम । कविवत्सलत्वात् सत्यामपि शक्ती तदीया एव गाथाः प्रख्यापिताः ॥२॥
३) पोट्टिसस्स । पश्य निश्चलनिःष्पन्दा बिसिनीपत्रे राजते बलाका । निर्मलमरकतभाजनप्रतिष्ठिता शङ्खशुक्तिरिव ॥] पश्य निश्चलनिःष्पन्दा बिसिनीपत्रे शोभते बलाका निर्मलमरकतभाजनप्रतिष्ठिता शवशुक्किरिव । निश्चला पवनादिपाताभावात् । निःष्पन्दा स्वयं निष्क्रियत्वात् । कल्पितोपमालङ्कारः । काचिजनाकीणे वक्तुमक्षमस्य संकेतं कथयति । अत्र पद्मिनीखण्डनिकटे शून्यं वर्तते, तथा च निश्चला निःष्पन्दा च बलाकीति इङ्गिताकारलक्षितत्वादर्थान्तरस्य सूक्ष्मोऽप्यत्रालंकारः ॥३॥
४) सालाहणस्स । [तावदेव रतिसमये महिलानां विभ्रमा विराजन्ति । यावन्न कुवलयदलसच्छायानि मुकुलन्ति नयनानि ॥] तावदेव रतिसमये महिलानां विभ्रमा विराजन्ति, यावन्न कुवलयदलसदृशानि मुकुलीभवन्ति नयनानि । विभ्रमा मणितसीत्कृतादयः । विभ्रमाणां मध्ये नयननिमीलितानि विशेष्यन्ते, इति भावः । अथवा नयननिमीलितेभ्यो अनि सर्वे विभ्रमा लभ्यन्ते, इत्यर्थः । अथवा नयननिमीलितेषु जातेषु अन्ये विभ्रमा न भवन्ति, सुरतसुखनिश्चेष्टत्वादबलानाम् । क्षणं रटन्ती रुदती नृत्यन्ती चातिविह्वला । निःसहत्वं तदा याति मुकुलीकृतलोचना ॥४॥
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-१.७]
पढम सयं w6 ५) नोहलियमप्पणो किं न मग्गसे मग्गसे कुरुवयस्स ।
एयं तु हसइ तुह मुहये वलियमुहपंकयं जाया ॥५॥ - W7 ६) ताविनंति असोएहि लडहविलयाउ दइयविरहम्मि ।
किं सहइ को वि कस्स वि पायपहारं पहुप्पंतो ॥६॥ w8 ७) अत्ता तह रमणिज्जं अम्हं गामस्स मंडणब्भूयं ।
लूयतिलवाडसरिसं सिसिरेण कथं भिसिणिसंड ॥७॥
५) चुल्लोडयस्स । [नवफलिकामात्मनः किं न मार्गयसे मार्गयसे कुरुबकस्य । एवं तु हसति तव सुभग वलितमुखपङ्कजं जाया ॥] नवफलिकामात्मनः किं न मार्गयसि मार्गयसे त्वं कुरुबकस्य, एवं तु हसति त्वां हे सुभग वलितमुखपङ्कजं जाया। अपूर्वोपायनफलं नवफलिका । संकेतस्थानात् कुरुबकं गृहीत्वा आयातः सन् कुलटायाः कुरुबकं दर्शयन् नवफलिकां याचते । न त्वं तत्र गतेति सूचनार्थम् । साऽपि तव प्रथमम् अहं गतेति वलितग्रीवं केशन्यस्तकुरुबकं दर्शितवती । अतस्तत्सखी विदिताभिप्राया गाथामिमाम् आह । लेशोऽलङ्कारः, उत्तरं वा । नवजातकुसुम ललना लताया नोहलियं ( नवफलिकाम् ) इच्छन्ति । नवफलिका स्यान्नव्ये (१) नवजातरजःस्त्रियाम् ॥५॥
६) मयरंदसेहरम्स । [ताप्यन्तेऽशोकैलटभवनिता दयितविरहे । कि सहते कोऽपि कस्यापि पादप्रहारं प्रभवन् ॥] ताप्यन्तेऽशोकैलेटभवनिता दयितविरहे, उद्दीपनविभावत्वादशोकस्य । किं सहते कोऽपि कस्यापि पादप्रहारं प्रपुष्यन् (2)। दोहददानार्थ ताभिरशोकः पादैहत आसीत् इति । अर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः ॥६॥
७) तस्सेय (मयरंदसेहरस्स)। [पितृष्वास्तथा रमणीयमस्माकं ग्रामस्य मण्डनभूतम् । लूनति लवाटसदृशं शिशिरेण कृतं बिसिनीषण्डम् ॥] हे अत्ता पितृष्वसः, तथा रमणीयम् अस्माकं ग्रामस्य मण्डनभूतं १w एअं खु सुहअ तुह हसइ २ w मडगीहूअं ३ w लुअतिलवाडसरिच्छं
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गाहाकोसों
१.८-]
W9 ८) मा रुयसु' ओणयही धवलायंतेसु साहिछिन्त्ते । हरियाल मेडियमुद्दा नड व्व सणवाडया जाया ॥८॥ W10 ९ ) सहि एरिसि च्चिय गई मा रुव्वउँ तंसमुहं । एयाण बालवालुंकितंतुकुडिलाण पिम्माणं ||९||
लूनतिलवाटसदृशं शिशिरेण कृतं बिसिनीखण्डम् । लुनतिलवाटवत् संकेतस्थाननिरुपयोगित्वात् । संकेतभङ्गकथनम् । उपमासहोक्तिः (?) अलङ्कारः सूक्ष्मं च ॥७॥
2
८) कुमारिलस्स । [ मा रुदिहि अवनतमुखी धवलायमानेषु शालिक्षेत्रेषु । हरितालमण्डितमुखा नटा इव शणवाटका जाताः ॥] काचित् सखीं समाश्वासयितुम् इदमाह । मा रुयसु ओणयमुही मा रोदी: अवनतमुखी । क्व सति । धवलायंतेसु सालिछित्तेसु धवलायमानेषु शालिक्षेत्रेषु | हरियालमंडियमुहा नड व्व सणवाडया जाया हरितालमण्डितमुखा नटा इव शणवाटका जाताः । एतदुक्तं भवति । ओषध्यः फलपाकान्ताः (मनुस्मृति, १.४६ ) इति नाम परिणतिवशेन शालयः शीर्यन्ते । शीर्यन्ताम् । इमानि पुष्पितानि शणवाटकानि । ततः स्वेच्छाप्रच्छन्नोपकरणानि च भविष्यन्ति इति । हरितालो धातुविशेषः । उपमासूक्ष्माभ्यां संकीर्णोऽलंकारः ||८||
९) महेन्द्रपालस्य । [ सखि ईदृश्येव गतिर्मा रुथतां त्र्यस्रवलितमुखचन्द्रम् । एतेषां बालवालुङ्कीतन्तुकुटिलानां प्रेम्णाम् [1] सहि सखि मा रुद्यताम् । कथम् । तंसवलियमुहयंदं त्र्यनवलितमुखचन्द्रम् । एयाण बालवालुं कि तंतुकुडिला । पिम्माणं एरिसि च्चिय गई एतेषां बालवालुङ्कीतन्तुकुटिलानां प्रेम्णाम् ईदृश्येव गतिः दुःखदायिनोत्यर्थः । त्र्यस्तशब्दस्य वक्रादित्वात् (वररुचि, ४.१५) अनुस्वारे कृते रूपम् ॥ ९ ॥
१w किं असि २ w हरिआलमंडिअमुही गडि व्व सणवाडिआ ३w रुव्वसु
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- १.११ ]
W11 १०) पायरडियस्स पड़णो पट्ठि पुत्ते समारुतम्मि | दढमन्नुदूमियाएँ वि हासो घरिणीइ निक्कंतो ॥१०॥ W12 ११) सच्चं जाणइ ददतुं सरिसम्मि जणम्मि जुज्जए राओ । मरउ, न तुमं भणिस्सं मरणं पि सलाहणिज्जं से ॥ ११ ॥
१०) दुर्गस्वामिन: । [ पादपतितस्य पत्युः पृष्ठं पुत्रे समारोहति । दृढमन्युनाया अपि हासो गृहिण्या निष्क्रान्तः ॥ |] हासो धरिणीइ निक्कतो हासो गृहिण्या निष्क्रान्तः । कीदृश्याः । दढमन्नुदूमियाऍ वि दृढो यो मन्युः तेन दूनायाः पीडिताया अपि । क्व सति । पट्ठि पुत् समारुतम्मि पृष्ठं पुत्रे समारोहति सति । पायवडियस्स पइणो पादपतितस्य पत्युः । स किलानुनयन्नपि गोत्रस्खलनं चकार । तथाभूतस्य च तस्य पशुनिर्विशेषस्य या पुत्रेण पृष्ठारोहणलक्षणविकृतचेष्टा सा अस्या हासहेतुः । हास्योऽपि हासमूलः स्फुटमुत्तममध्यमामाधम प्रकृतिः । विकृताङ्गवेषभाषाव्यापारेभ्यः समुद्भवति ॥ स्खण्डिता नायिका । हासेन व्याजतो मन्दम् इति खण्डिताकोपाङ्गम् । सूक्ष्ममलंकारः ॥ १० ॥
११) तस्यैव ( दुर्गस्वामिनः ) । [ सत्यं जानाति द्रष्टुं सदृशे जने युज्यते रागः । म्रियतां न त्वां भणिष्यामि मरणमपि श्लाघनीयं तस्याः ॥] सच्चं जाणइ दट्टु सत्यं जानाति द्रष्टुम् । यतः सरिसम्मि जणम्मि जुज्जए राम्रो सदृशे जने रागो युज्यते । त्वं रूपवान्, सातिरूपवतीत्यर्थः । मरउ न तुमं भणिस्सं यदि च सा त्वामलभमाना म्रियते, म्रियताम् न त्वां भणिष्यामि । किं कारणम् । मरणं पि सलाह णिज्जं से मरणमपि श्लाध्यं तस्याः, यत् त्वदर्थं संपद्यते । अन्ये अन्यथा गाथार्थं योजयन्ति । सत्यं जानाति द्रष्टुं यदसौ त्वय्यनुपमरूपे यूनि अनुरक्ता । एतदुक्तं भवति । द्रष्टुमेव जानाति न पुनरिङ्गिताकारवेदिनी । यतः सदृशे जने युज्यते रागः । अनुरागकृतमत्र सादृश्यम् । रक्ते जनेऽनुरज्यते, १w पुडिं
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गाहाकोसो
[११२
W13 १२) रंधणकम्मणिउणिए मा झुरमु' रत्तपाडलमुबंध ।
- मुहमारुयं पियतो विज्झाइ सिही न पज्जलइ ॥१२॥ W15 १३) किं किं ते पडिहासइ सहीहि इय पुच्छियाइ मुद्धाए ।
पढमुग्गयदोहलिणी नवर दइयं गया दिट्ठी ॥१३॥ त्वं तु वोतराग इत्यर्थः । अतश्च म्रियतां, न त्वां भणिष्यामि । यत ईदृश्यामविवेकिन्याम् उपेक्षापक्ष एव क्षमः । अपि च मरणमयि श्लाध्यं तस्याः । तस्यां मृतायामपि नानुतापो भवतीति भावः । एतेन सा स्वद्वियोगेन दशमी दशां प्राप्तकल्पा वर्तत इति प्रतिपादितं भवति । पर्यायोक्तिरलंकारः । इष्टमर्थमनाख्याय साक्षात्तस्यैव सिद्धये । यत् प्रकारान्तराख्यानं पर्यायोक्तं तदिष्यते (काव्यादर्श २.२९५) ॥११॥
१२) [रन्धनकर्मनिपुणिके मा विवस्व, रक्तपाटलसुगन्धिम् । मुखमारुतं पिबन् निर्वाति शिखी, न प्रज्वलति ।।] हे रंधणकम्मणिउणिए मा झूरसु रन्धनकर्मनिपुणिके मा विद्यस्व । यतः मुहमारुयं पियंतो विज्झाइ सिही वदनपवनं पिबन् निर्वाति शिखी, न पज्जलइ न दीप्यते । इति । कथंभूतम् । रत्तपाडलसुयंधं रक्तपाटलमुगन्धम् । संधुझिते हि मयि रक्तपाटलसुगन्धवदनपवनपानसुखं न संपत्स्यते. इति मत्वा पावको न प्रदोप्यते, इति । अन्ये तु अघरदलदन्तव्रणवशविसूचितफूत्कारमारुताया दुर्विनयं प्रच्छादयन्ती काचिदिदमाह इत्याहुः । अत्र पक्षे लेशोऽलङ्कारः । जइ सो सोहग्गणिही दिट्ठो नयणेहि ति चिय गलंतु । अंगाइ अपावियसंगमा ता कीस झिज्जंति ॥ क्षेपकः ॥१२॥
१३) [किं किं ते प्रतिभासते सखीभिरिति पृष्टाया मुग्ध याः। प्रथमोद्गतदोहदायाः केवलं दयितं गता दृष्टिः ॥] मुद्धाए नवरं दइयं गया दिट्ठी मुग्धायाः केवलं दयितं गता दृष्टिः । कथंभूतायाः । पढमुग्गयदोहलिणाएँ प्रथमोद्गतदोहदिन्याः । पुनरपि कथंभूतायाः । किं किं ते १w जूरसु २w माइ
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-१.१५ ]
पढमं सयं
W16 १४) अमयमय गयणसेहर रयणीमुहतिलय चंद दे छिवसु ।
_छित्तो जेहिं वि पिओ' मम पि तेहिं चिय करेहिं ॥१४॥ W17 १५) एइहिइ सो पउत्थो अहयं कुप्पिज्ज सो वि अणुणिज्ज ।
इय कस्स वि फलइ मणोरहाण माला पिययमम्मि ॥१५॥ पडिहासइ महाडि इय पुच्छियाइ भक्ष्यभोज्यलेह्यपेयानां मध्यादिति मनस्यनुध्याय किं किं ते प्रतिभासत इति सखीभिः पृष्टायाः । दयितं गता दृष्टिः, अयं मे प्रतिभासत इति भावः । दोहददानमन्तरेण मम्मणगद्गदादिदोषदुष्टा जन्तवो जायन्त इति अन्तर्वत्नीनां दोहददानेन (8) आयुर्वेद विदो वदन्ति । नवरं इति केवलार्थो निपातः । स्वीया मुग्धा नायिका ॥१३॥
१४) रुद्रसुतस्य । [ अमृतमय गगनशेखर रजनीमुखतिलक चन्द्र प्रार्थये स्पृश । स्पृष्टो यैरपि प्रियो मामपि तैरेव करैः ॥] काचिद् विरहिणी प्राणेश्वरस्य पारम्पर्यस्पर्शमपि स्पृड्यन्तो शशिनमिदमाह । हे चंद जेहिं पि (करेहिं) पिओ छित्तो तेहिं चिय करेहिं ममं पि छिवसु यैरेव (करैः) प्रियः स्पृष्टः तैरेव करैर्माम् अपि स्पृशेति । सम्बोधनपरंपरापदेशेन संपत्त्यै प्रशंसां करोति । अमयमय गयणसेहर रयणीमुहतिलय अमृतमय गगनशेखर रजनीमुखतिलकेति यः किल प्रार्थ्यते स प्रशस्यते इति । दे इति प्रार्थनायां निपातः । विरहिणी नायिका । उन्मादो नाम संचारी भावः । इष्टजनविभवनाशादभिघाताद् वातपित्तकफकापात् । मनसिजमानविकाराद् उन्मादो नाम संभवति ॥ अनिमित्तरुदितहसितैः संगीतनृत्यप्रधावितोत्क्रुष्टैः । अप्रार्थ्यप्रार्थनया चोन्मादं दर्शयेत् प्राज्ञः ॥ (नाट्यशास्त्र, ७. १२२-१२३) ॥१४॥
१५) श्रीसातवाहनस्य । [एष्यति स प्रोषितोऽहं कुप्येयं सोऽप्यनुनयेत् । इति कस्यापि फलति मनोरथानां माला प्रियतमे ॥] काचिद् वियोगिनी स्वचेतसि चिन्तयति । एइहिइ सो पउत्थो एष्यति स प्रोषितः, •w जेहि पिभभमो २w एहिज्ज
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गाहाकोझो
[१.१६W18 १६) दुग्गयकुडुंबयड्ढी कह नु :मए धोविएण सोढव्वा।।
दसिओसरंतसलिलेण उयह रुन्नं व पडएण ॥१६॥ W19 १७) कोसंबकिसलवण्णय तण्णय उन्नामिएहि कण्णेहि ।
हियइच्छियं घरं वच्चमाण धवलत्तणं पाव ॥१७॥ अयं कुप्पिज्ज अहं चिरागमनदोषेण तस्मै कुप्येयम् । सो वि अणुणिज्ज सोऽपि मामनुनयेत् “प्रिये क्षमस्वेदं मे दूषणम्" इति । इय कस्स वि फलइ मणोरहाण माला पिययमम्मि इति कस्यापि पुण्यात्मनो मनोरथानां माला फलति निष्पद्यते, न पुनरपुण्यानां मादृशोनामिति । एइहिइ आगमिष्यति । चिन्ता संचारी भावः । स्वीया नायिका ॥१५॥
१६) श्रीवर्मणस्य । दुर्गतकुटुम्बकृष्टिः कथं नु मया धौतेन सोढव्या । दशापसरत्सलिलेन पश्यत सदितमिव पटेन ॥] दसिओसरंतसलिलेण उयह रुन्नं व पडएण दशापसरत्सलिलेन पश्यत रुदितमिव पटेन । अत्र कारणमाह । मए घोविएण मया धोतेन दुग्गयकुडुंबअड्ढी कह नु सोढव्वा दुर्गतकुटुम्बाकृष्टिः कथं नु सोढव्येति । धौतं किल निःस्थामसारत्वात् परस्पराकर्षणं न क्षमत इति । उत्प्रेक्षालंकारः । तस्य लक्षणम् । अन्यथैव स्थिता वृत्तिश्चेतनस्येतरस्य वा । अन्यथा वर्ण्यते यत्र तामुत्प्रेक्षां प्रचक्षते ॥ (काव्यादर्श, २.२२१)॥१६॥
१७) तस्यैव (श्रीवर्मणस्य) । [कोशाम्ब (कोशाम्र)-किसलयवर्णक तर्णक उन्नामिताभ्यां कर्णाभ्याम् । हृदयेष्टं गृहं व्रजन् धवलत्वं प्राप्नुहि ॥] हे कोसंबकिसलवण्णय तण्णय कोशाम्बकिसलयवर्णक तर्णक, उन्नामिएहि कण्णेहिं उन्नामिताभ्यां कर्णाभ्याम् उपलक्षित । हियइच्छियं धरं वच्चमाण हृदयेप्सितं गृहं व्रजन् धवलत्तणं पाव धवलत्वं प्राप्नुहि धुरंधरो भूयास्त्वमिति । कोशाम्बो वृक्षविशेषः । तस्य पल्लवाः पाटला भवन्तीति । तर्णको वत्सः । एतदन्वेषणानुषङ्गेण १) अहं हृदयेप्सितगृहं प्राप्ता (8) इति आशीर्वाददानम् । आशीर्वादोऽलंकारः । (काव्यादर्श २. ३५७) ॥१७॥
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- १.२० ]
पढमं सयं
W20 १८) अलिपसृशय विनिमीलियच्छ दे गंडपरिडंबणा पुलइयंग न उणो W21 १९) असमत्तमंडण चिय वच्च घरं से सकोउहल्लस्स । वोलाविहलहलयस्स पुत्ति चित्ते न लग्गिहिसि ॥ १९ ॥ W22 २०) आयरपणामिउहूं अघडियणासं असंगयणलाडं । वण्णग्धयतुप्पमुही ती परिउंबियं भरिमो ॥२०॥
२
.
मुहय अम्ह ओवासं । चिराइस्सं || १८ ||
१८) गणस्य । [ अलीकप्रसुप्त विनिमीलिताक्ष प्रार्थये देहि सुभग ममावकाशम् । गण्डपरिचुम्बना पुलकिताङ्ग न पुनश्चिरायिष्यामि ॥ ] हे सुहय सुभग अलियपसुत्तय विणिमीलियच्छ अलीकप्रसुप्त विनिमीलिताक्ष । दे इति प्रार्थये देहि अम्ह ओवासं देहि अस्माकमवकाशम् । कदाचित् स्वभावशयित एव स्याद् इत्याह । गंडपरिउंबणापुलइयंग न उणो चिराइस्सं गण्डपरिचुम्बनापुलकिताङ्ग न पुनश्चिरायिष्यामि । क्षम्यतां स्खल्विदं मे प्रमादस्खलितम् इति । पुलकः सात्त्विको भावः । स्वीया नायिका प्रगल्भा || १८ ||
१९) वज्जर्षेः (वज्रर्षेः ? ) । [ असमाप्तमण्डनैव व्रज गृहं तस्य सकौतूहलस्य । अतिक्रान्त ( अतिक्रामित ) - औत्सुक्यस्य पुत्रि चित्ते न गिष्यसि ॥ ] कांचिदवलोकन कुतूहलिनि कान्ते प्रसाधनकृत विलम्बामम्बा शिक्षयन्ती इदमाह । से तस्य सकोउहल्लम्स सकौतुकस्य असमत्तमंडण च्चिय घरं वच्च असमाप्तमण्डनैव गृहं व्रज । किं कारणम् । वोलावियहलहलयम्स अतिक्रान्त कौतुकौत्सुक्यातिशयस्य तस्य पुत्ति चित्ते न लग्गिहिसि पुत्रि चित्ते न लगिष्यसीति । साकाङ्क्ष एव कान्तो अभिगम्यते । न तु तस्योत्कण्ठा कुण्ठीकर्तुं युज्यत इत्यर्थः । कोउहल्लं कौतूहलम् । हलहलयं प्रियावलोकनौत्सुक्यम् । औत्सुक्यमिह संचारी भावः ॥ १९ ॥
२०) कलिङ्गस्य । [आदरार्पितौष्ठम् अघटितनासम् असंगतललाटम् । १Ww मज्झ ओआसं २w अहयगिडालं ३w वण्णधिअलित्तमुहिए तीए
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- गाहाकोसो
[१.२१
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W23 २१) आणासयाइँ दिती तह मुरए इरिसवियसियकवोला ।
गोसे य' ओणयमुही अह सत्ति पिया न सहहिमो ॥२१॥ W24 २२) पियविरहो अप्पियदंसणं च गरुयाइँ दो बि दुक्खाई ।
जीइ तुमं कारिज्जसि तीऍ नमो आहियाईए ॥२२॥ वर्णधृतस्निग्धमुख्यास्तस्याः परिचुम्बितं स्मरामः ॥ ] कश्चित् स्वकान्ताया वक्त्रेन्दुबिम्बचुम्बनस्य स्मरन्निदमाह । वण्णग्घयतुप्पमुहीइ तीइ वर्णधृताक्तवक्त्रायास्तस्याः परिउंबियं भरिमो परिचुम्बितं स्मरामः । कथंभूतम् । आयरपणामिउटुं आदरार्पितष्ठौम् , अघडियणासं अघटितनासम् , असंगयणलाडं असंगतललाटम् । स्वकान्तायाश्चुम्बनकलाकौशलं प्रकाशितं भवति । अन्ये तु साचीकृतवक्त्रेन्दुचुम्बनमिदमित्याहुः । तुप्पं स्निग्धम् । पणामियं इति अपैः पणाम ( हेमचन्द्र, प्राकृतव्याकरण, ४.३९) इति पणामादेशे रूपम् । जातिरलंकारः । स्मृति म संचारी भावः । या खलु कुतोऽपि हेतोरनुभूतार्थस्मृतिः स्मृतिः सा स्यात् । स्वीया नायिका । वर्णधृतं यद् वर्णवैशद्याय क्रियत इति ॥२०॥
२१) बहुरागस्य । [माज्ञाशतानि ददती तथा सुरते हर्षविकसितकपोला । प्रभाते चावनतमुखी अथ (असौ) सेति प्रिया न श्रद्दधे ॥] कश्चिन्मायकः स्वकान्ताया निधुवनवैदाध्यम् अन्यदा तु ब्रीडां वर्णयितुमिदमाह । गोसे य ओणयमुही अह स त्ति पिया न सदहिमो प्रभाते चावनतमुखी सैवेयं प्रियेति न श्रद्दधे । कीदृशी। तह माणासयाई दिती तथा तेन अवर्णनीयेन विधिना आज्ञाशतानि ददतो । कदा । सुरए सुरते। पुनरपि कीदृशी । हरिसवियसियकवोला हर्षविकसितकपोला । यैव निशायां निधुवनवैदग्ध्यं दर्शितवती सैव प्रभाते व्रीडावनतवक्त्रेन्दुबिम्बा सती सैवेयं प्रियेति न प्रत्यभिज्ञायत इत्यर्थः ॥२१॥
२२) मेघान्धकारस्य । [प्रियविरहोऽप्रियदर्शनं च गुरुके द्वे अपि दुःखे । यया त्वं कार्यसे तस्यै नमोऽभिजात्यै ॥] काचिदन्याङ्गनागोत्र१w वि २w पि ३w आहिजाईए
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-१.२४]
पढमं सयं
W25 २३) इको वि कालसारो न देइ गंतुं पयाहिण वलंतो'।
किं पुण वाहाउलिय लोयणजुयलं पिययमाए ॥२३॥ W26 २४) न कुणतं च्चिय माणं निसासु पासुत्तदरविउँद्धाणं ।
सुन्नइयपासपरिर्मुसणवेयणं जइ सि जाणतो ॥२४॥ ग्रहणपूर्वकम् आलपन्तं प्रतिमेत्तुम् इदमाह । तीऍ नमो आहियाईए तस्यै नमो अभिजात्यै ! जीइ तुम गरुयाइँ दो वि दुक्खाइं कारिज्जसि यया त्वं गुरुणी द्वे अपि दुःखे कार्यसे । के ते । पियविरहो अप्पियदसणं च प्रियविरहो अप्रियदर्शनं च । इदमुक्तं भवति । अहमप्रियेति तया सह वियोगो मम च दर्शनम् इति कष्टद्वयम् असह्यं यया त्वं कार्यसे सेयमभिजातिः कुलीनता नमस्कारमर्हति । अभिजातिशब्दस्य समृद्धयादिषु पाठात् (वररुचि १. २; हेमचन्द्र, प्रा. व्या. १.४४) आत्वं द्रष्टव्यम् । स्वीया मध्या धीरा नायिका । सा धीरा वक्ति वक्रोक्त्या प्रियं कोपात् कृतागसम् । पर्यायोक्तिरलंकारः ॥२२॥
२३) ब्रह्मचारिणः। [एकोऽपि कृष्णसारो न ददाति गन्तुं प्रदक्षिण वलमानः । किं पुनर्वाष्पाकुलितं लोचनयुगलं प्रियतमायाः ॥] इक्को वि कालसारो न देइ गंतु एकोऽपि कृष्णसारो न ददाति गन्तुम् । कथंभूतः। पयाहिण वलंतो प्रदक्षिणं गत्वा वलमानः । किं पुण लोयणजुयलं पिययमाए किं पुनः साचिनिरीक्षणेन वलितप्रदक्षिणकृष्णतारकतया कालसारद्वयं लोचनयुगलं प्रियतमाया गमनप्रतिषेधं न विधत्ते । सर्व एव हि शकुना दक्षिणास्वरकुम्भकरादिकाश्च यतो यथातत्त्वदर्शिनं शब्दश्रवणचेष्टाकोर्तनभविफलं सूचयन्ति इति शकुनशास्त्रे श्रूयत इति । कीदृशं लोचनयुगलम् । वाहाउलियं बाष्पाकुलितम् । व्याधाकुलितम् इति च योज्यम् । स हि (कालसारः) भीतो भयाय जायते । अनुकूलो नायकः । आक्षेपोऽलंकारः ॥२३॥
२४) कालसारस्य । [नाक रिष्य एव मानं निशासु प्रसुप्तेपद्विबुद्धानाम् । शून्यितपार्श्वपरिमर्शनवेद नां यदि अज्ञास्यः ॥] कश्चित्कान्तो १w चलंतो १w कुणंतो ३w सहसुत्त ४w विबुद्धाणं ५w परिमूसविअणाण
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गाझकोसो
[१.२५
W27 २५) पणयकुवियाण दुन्हें' वि अलियपमुत्ताण माणइत्ताण ।
निच्चलणिरुद्धणीसासदिन्नयण्णाण को मल्लो ॥२५॥ नायिका निशायां निर्भरशयितां दृष्ट्वा अन्यरमणीरतिसुखलाभलालसो विरहव्यग्रतां गतवान् । सा पुनः प्रबुद्धा तदीयदुर्नये मानमवलम्ब्य व्यवस्थिता । अथ सत्यनिकृतकृत्यप्रवृत्त्या (१) कृतमिथ्याशपथैस्तां प्रत्याययितुं प्रवृत्तः । यदा न कथमपि प्रत्येति तदा स एव मानमग्रहीत् । तथाभूतं च वीक्ष्य लक्षतः(?) तमेव नायकं सा निबोधयन्ती सखेदमाह । जइ निसासु सुन्नइयपासपरिमुसणवेयणं तुमं जाणंतु च्चिय यदि निशासु शून्यीकृतपार्श्वपरिमर्शनवेदनां त्वम् अज्ञास्यः तदा मानं नाकरिष्यः । केषाम् । पासुत्तदरविउद्धाणं (प्रसुप्तेषदविबुद्धानाम्) । त्वयि गतवति शून्यशय्यापाश्वपरिमर्शनव्यथां मम त्वम् अजानन् विज्ञायसे । दुस्सहदुःखसद्भावम् आविष्करोति । पासुत्त इति प्रसुप्तशब्दस्य समृद्धयादिषु पाठ'त् (वररुचि, प्रा. प्रकाश, १.२; हेम चन्द्र, प्रा. व्या. १.४४) आत्वम् । इयमपि स्वीया प्रगल्भा धीरा , नायिका ॥२४॥
२५) वत्सराजस्य । [प्रणयकुपितयोयोरपि अलीकप्रसुप्तयोर्मानवतोः । निश्चलनिरुद्धनिःश्वासदत्तकर्णयोः को मल्लः ॥] दुन्ह वि माणइत्ताण को मल्लो द्वयोरपि दम्पत्योर्मानवतोः को मल्लो, न कश्चिदपीत्यर्थः । तयोरन्यतरो धीरो नास्तीति भावः । कथंभूतयोः । पणयकुवियाण प्रणयकुपितयोः । निच्चलणिरुद्धणीसासदिन्नयण्णाण निश्चलनिरुद्धनिःश्वासदत्तकर्णयोः, आलिङ्गनलालसयोः अन्योन्यनिसर्गनिष्प्रकम्पयोः । व्यलीकनिद्राकाङ्क्षया निश्चलनिरुद्धनिःश्वासवितीर्णकर्णत्वम् । सुप्तस्य हि विशङ्खलाः श्वासा निर्यान्तीति । मानेन वित्तयोः प्रख्यातयोरित्यर्थः । अस्त्यर्थक इत्तप्रत्ययः । जातिरलंकार: ॥२॥ १w दोण्ह २w माणइल्लाणं ३w दिण्णकण्णाण
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-१.२८]
पढमं सर्च
W28 २६) कुवलयपहरं' अंगे जहिं जहिं महइ देवरों दाउं । ।
रोमंचदंडराई तहि तहिं दीसइ वहए ॥२६॥ W29 २७) अज्ज मए तेण विणा अणुहूयमुहाइँ संभरंतीए ।
अहिणवमेहाण रवो निसामिओ वज्झपडहु ब्व ॥२७॥ w30 २८) निकिव जायाभीरुय दुईसण निंबकीडयसरिच्छ ।
गामो गामणिणंदण तुज्झ कए तह वि तणुआइ ॥२८॥
२६) तस्यैव (वत्सराजत्य) । [कुवलयप्रहारमङ्गे यस्मिन् यस्मिनिच्छति देवरो दातुम् । रोमाञ्चदण्डराजिस्तस्मिंस्तस्मिन् दृश्यते वध्वाः । रोमंचदंडराई रोमाञ्चदण्डराजिः कुवलयप्रहारं यत्र यत्र अङ्गे देवरो दातुमभिलषति तत्र तत्र दृश्यते । कस्याः । वहूए वध्वाः । बद्धानुरागसूचकोऽयं रोमाञ्चः सात्त्विको भावः । सूक्ष्मो नामालंकारः । परकीया स्वीया(१) नायिका । आचार्यदण्डिनस्तु मते आकारलक्ष्यः सूक्ष्मोऽयम् ॥२६॥
२७) कूतालस्य (कुन्तलस्य !)। [अद्य मया तेन विना, अनुभूतसुखानि संस्मरन्त्या । अभिनवमेघानां रवो निशामितो वध्यपटह इव ॥] काचिद् विरहिणी स्वदुःखं सख्यै कथयति । तेण विणा अज्ज मए अहिणवमेहाण वो निसामिओ वज्झपडहु व्व अद्य मया तेन प्रियतमेन विना अभिनवमेघानां रवो निशामितः श्रुतः। कथंभूतया मया । अणुहूयसुहाइँ संभरंतीए अनुभूतसुखानि (सं)स्मरन्त्या । कीदृशः । वज्झपडहु व्व वध्यपटह इव । स्वनः तदुपचारः तत्संबन्धात् । प्रावृत्प्रवृत्तावपि प्रियस्याप्रत्यावृत्तौ मम मरणं शरणम् इति तात्पर्यार्थः । उपमालंकारः॥२७॥
२८) [निष्कृप जायाभीरुक दुर्दशन निम्बकीटकसदृक्ष । ग्रामो ग्रामणीनन्दन तव कृते तथापि तनूयते ॥] हे गामणिणंदण ग्रामणीसुत, निक्किव निष्कृप । निष्कृपस्त्वं यद् ईदशी दशां प्राप्तां मामुपेक्षसे । जायाभीरुम जायाभीरो (मा) नानुवर्तसे । भदमण (१) दुर्दर्शनस्त्वं यस्तस्यामा१w णवलभपहर २w देअरो ३w वज्झपडहु ०व ४w णिबईडसारिच्छ
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१४
गाहाकोसो
[१.२९
W188 २९) नेउरकोडि विलग्गं चिहुरं दइयस्स पायवडियस्स ।
हियय माणपउत्थं ओमोयति च्चिय कहेइ ॥२९॥ W194 ३०) सा तइ सहत्थदिन्नं अज्ज वि ओ सुहय गंधरहियं पि ।
उव्वसियणयरघरदेवय व्व ओमालियं वहइ ॥३०॥ सक्तो न कस्यापि लोचनगोचरं गच्छसि । निम्ब कीटकसदृशो निम्बकीटककल्पस्त्वं यत् तस्यामपि निकृष्टरामामां रमस इति सपत्नीदोषोद्घोषणम् । यद्यपि त्वमीदृशः तह वि तथापि गामो तुज्झ कए ग्रामस्त्वदर्थ तणुयाइ तनूयते । ग्रामशब्देनात्मानं व्यपदिशति । अहं त्वद्वियोगदुःखेन इमामवस्थां प्राप्तेति तात्पर्यार्थः । ग्रामणी मनायकः । विशेषोक्तिरलंकारः। गुणजातिक्रियादीनां यत्तु वैकल्यदर्शनम् । विशेषदर्शनायैव सा विशेषोक्तिरिष्यते ॥ (काव्यादर्श, २. २२३)। अन्योढा नायिका । अन्योढापि हि. कन्या कर्तव्यं सर्वमुद्गतं कुरुते । दुरवस्थापि च तं तु स्वयमभियुङ्क्ते स्मरावेशात् ॥ (रुद्रट, १२ ३६-३८) ॥२८॥
२९) हरिराजस्य । [नूपुरकोटिविलग्नं चिकुरं दयितस्य पादपतितस्य । हृदयं प्रोषितमानम् उन्मोचयन्त्येव कथयति ॥] काचिन्नायिका पायवडियस्स पइणो (दइयस्स!) पादपतितस्य पत्युः दयितस्य नेउरकोडिविलग्गं चिहुरं नूपुरकोटिश्लिष्टं चिकुरं ओमोयति च्चिय उन्मोचयन्त्येव हिययं माणपउत्थं कहेइ हृदयं प्रोषितमानं कथयति । मा खल्वयं केशाकुञ्चनव्यथाम् अनुभवतु, कथं केशान् मोचयेदिति प्रसन्ना अहम् इति कथयितुं तुलाकोटिकोटिश्लिष्टान् कलया कुन्तलान् श्लयथतीति भावः । प्रत्यावृत्तहृदया पत्युः मानावसानम् आविष्करोतीत्यर्थः । माणपउत्थं इति प्राकृते पूर्वनिपातानियमः । अनुमानालंकारः ॥२९॥
३०) अनुपरसस्य । [सा त्वया स्वहस्तदत्तम् अद्यापि हे सुभग गन्धरहितमपि । उद्वासितनगरगृहदेवतेव अवमालिकां वहति ॥] काचित् १w उम्मोअंति चिअ
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-१.३२]
पडम सयं
W31 ३१) पहरवणमग्गविसमे जाया किच्छेण लहइ से निई ।
गाणिउत्तस्स उरे पल्ली उण से मुहं सुयइ ॥३॥ W32 ३२) अह सम्भावियमग्गो' मुहय तुह" च्चेय नवरि निव्वूढो ।
इन्हि अन्नं हियए अन्नं वायाऍ लोयस्स ॥३२॥ स्वसख्याः पत्यो प्रेम प्रकाशयन्ती उपालम्भगमिदमाह । साऽद्यापि मालिकां कुसुमजां वहति । कथंभूताम् । तइ सहत्थदिन्नत्वमा स्वहस्तदत्ताम् । पुनश्च कीदृशी । उव्वसियणयरघरदेवय व्व उद्वरानगरगृहदेवतेव । सा तथा त्वय्यनुरक्ता यथा तव स्वहस्तदानबहुमानेन कालान्तरशुष्का सौरभरहितामपि कुसुमस्नजं स्वमूर्धनि धत्ते । त्वं तु तद्वार्तामपि न पृच्छसीति । उद्वसनगरगृहदेवता या देवतेब पिशुनितं भवति (१) । तदुद्वसनगरगृहदेवतेव सा त्वया गवेष्यते (१) इत्यर्थः । प्रथमम् इति निपातः संकेते द्वितीया स्वादा (!) । उपमालंकारः ॥३०॥
३१) काटिल्लस्य । [प्रहारत्रणमार्गविषमे जाया कृच्छ्रेण लभते तस्य निद्राम् । ग्रामणीपुत्रस्योरसि पल्ली पुनस्तस्य सुख स्वपिति ।।] हे सखि से गामणिउत्तस्स उरे जाया किच्छेण लहइ निदं तस्य प्रामणीपुत्रस्योरसि शयनाजाया कृच्छ्रेण लभते निद्राम् । कथंभूते । पहरवणमग्गविसमे प्रहारत्रणमार्गविषमे । समे हि किल सुखं प्राप्यते, इति । पल्ली उण से सुहं सुयइ पल्ली पुनस्तस्य सुखं स्वपिति । अनेकवक्षःस्थलशस्त्रपातानुमितशौर्यशौण्डीर्यगुणस्य तस्य त्रासेन तस्करो न कोऽपि संचरतीत्यर्थः। पहर इति प्रहारशब्दस्य अदातो यथादिष्विति (वररुचि, १. १०) आतो अत्वे रूपम् । विरुद्धार्थाक्षेपोऽलंकारः ॥३१॥
३२) वाम्पतिराजस्य । [असौ स्वाभाविकमार्गः सुभग तवैव केवलं नियूहः । इदानीमन्यद् हृदयेऽन्यद् वाचि लोकस्य ॥] काचिदन्याङ्गनागोत्रेणालपन्तं प्रियं प्रतिभिनत्ति । अह असौ सम्भावियमग्गो स्वाभा१w संभावियमग्गो २ तुए ३w णवर
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गाहाकोसो
१.३३-] W33 ३३) उपहाइँ नीससंतो सयणद्धे कीस मे पराहुत्तिं ।
हिययं पलीविउं अणुसरण पट्टि पलीवेसि ॥३३॥ W189 ३४) तुझंगरायसेसेण सामली तह खरेण सोमाला ।
सुइरै गोलातूहे न्हाया जंबूकसाएण ॥३४॥ विकमार्गः तुह च्चेय नवरि निव्वूढो तवैव केवलं नि! ढः । यतः इन्हि इदानी अन्नं हियए अन्न वायाएँ लोयस्स अन्यच्च हृदये अन्यच्च वाचि लोकस्य । तवैव हृदये सैव वाचि (च) वर्तत इत्यर्थः । तस्यां त्वम् अनुरक्तो मयि तु शिथिलानुराग इत्युक्तं भवति । अह इत्यदखो रूपम् । स्वीया मध्या नायिका । मध्या प्रतिभिनत्येनं सोल्लुण्ठैः सा तु भाषितैः । पर्यायोक्तिरलंकारः ॥३२॥
३३) भोजस्य । [उष्णानि निःश्वसन् शयनार्धे कस्मान्मे पराङ्मुखम् । हृदयं प्रदीप्यानुशयेन पृष्ठं प्रदीपयसि ॥] काचिदुष्णैनिःश्वासस्वनैरन्यासक्तं प्रियं हृदि विदित्वा परावृत्य तम् अभीहितम् (2) इदमाह । कीस कस्मात् मे हिययं पलीविउं मे हृदयं प्रदीप्य अणुसएण पराहुत्तिं पढेि पलीवेसि अनुशयेन पराङ्मुख पृष्ठं प्रदीपयसि । अनुशयः सपत्नीसङ्गजो मन्युः । क्व । सयणद्धे शयनार्धे । किं कुर्वन् । उण्हाइँ नीससंतो उष्णोष्णं निःश्वसन् । आत्मनः पराङ्मुखत्वेन पृष्ठस्य पराङ्मुखत्वम् उपचारात् । अक्षिकुक्षिपृष्ठ चास्वीया (१)। अन्ये तु 'उण्हाई नीससंतो सयणद्धे कीस मे पराहुत्ति (? पराहुत्ते)। हिययं (? हियए) पलीवियं (१ पलीविउं) अणुसएण पट्टि पलीवेसि' इति पठन्ति । तत्र तु , मामनुशयेन हृदये प्रदीप्य उष्णं किमिति पृष्ठे (? पृष्ठ) प्रदीपयसीति योज्यम् ॥३३॥
३४) अनङ्गदेवस्य । [तवाङ्गरागशेषेण श्यामला तथा खरेण सुकुमारा । सुचिरं गोदातीर्थे स्नाता जम्बूकषायेण ॥] काचित् कस्याश्चित् १w कीस मह परंमुहीअ सभणद्धे २w सोमारा ३w सा किर
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पंढम सयं । W34 ३५) तुह विरहे चिरयारय तिस्सा वियलंतबाहमइलेण ।..
रविरहसिहरधएण व मुहेण छाइ च्चिय न पत्ता ॥३५॥ W35 ३६) दियरस्स असुद्धमणस्स कुलवहू निययकुड्डलिहियाई ।
दियह कहेइ रामाणुलग्गसोमित्तिचरियाई ॥३६॥ स्वसख्याः प्रेमातिशयं प्रकाशयितुं तत्प्रियं प्रत्याह । सा सामली श्यामा । तुझंगरायसेसेण जंबूकसाएण न्हाया तवाङ्गरागशेषेण जम्बूकषायेण स्नाता। तह वरेण अत्यर्थ खरेण असह्येन । सा कीदृशी। सोमाला सुकुमारा । क्व । गोलातृहे गोदावर्यास्तटे । सुकुमारमूर्तिरपि सती तथाभूतेन तीव्रजम्बूकषायेण यदसौ स्नाता तत्र त्वदङ्गरागशेषता कारणम् इति रागातिरेकः सौकुमार्य च वर्णितम् इति । पर्यायोक्तिरलंकारः ॥३४॥
३५) तस्यैव (अनङ्गदेवस्य)। तव विरहे चिरकारक तस्या विगलद्वाष्पमलिनेन । रविरथशिखरध्वजेनेव मुखेन च्छायैव न प्राप्ता ||] तुह विरहे चिरयारय त्वद्विरहे चिरकारक, तिस्सा तस्याः, वियलंतबाहमइलेण मुहेण छाइ च्चिय न पत्ता विगलद्वाष्पमलिनेन मुखेन छायैव न प्राप्ता । केनेव । रविरहासिहरधएण व रविरथशिखरध्वजेनेव । रविरथशिखरध्वजो दिवाकरकरैः सर्वदा सर्वाङ्गमालिङ्गितः छायाम् आतपाविषयं न प्राप्नोति तथा मुखमपि । मुखच्छाया कान्तिर्भण्यते । वैवयेमिह सात्त्विको भावः । उपमालंकारः ॥३५॥
३६) रविराजस्य । [देवरस्याशुद्धमनसः कुलवधूर्निजकुड्यलिखितानि । दिवसं कथयति रामानुलग्नसौमित्रिचरितानि ॥] कुलवह दियरस्स रामाणुलग्गसोमित्तिचरियाई दियहं कहेइ कुलवधूर्देवरस्य रामानुलग्नसौमित्रिचरितानि दिन प्रति कथयति । निययकुडलिहियाई निजकुड्यलिस्वितानि । कीदृशस्य देवरस्य । असुद्धमणस्स अशुद्धमनसः। आलेख्यलिखितसीतासौमित्रिवृत्तं दर्शयन्त्या तया इदमुक्तं भवति । पुत्र, १w. छाहि
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૧૯
गाहाकोसो
[ १.३७
W36 ३७) चच्चरघरिणी पियदंसणा य तरुणी पउत्थवइया य । असई सयझिया दुग्गया य न ये खंडियं सीलं ॥३७॥ W37 ३८) तालूरभमाडणेखुडियकेसरो गिरिणईऍ पूरेण । दरबुड्डुब्बुडुणिबुड्डमहुयरो हीर६ कलंबो ||३८||
सौमित्रियेथा सीतायां मयि तथा वर्तितुमुचितं नान्यथेति । प्रगल्भा नायिका । दियरो भर्तृभ्राता अनुजः । सोमित्ती लक्ष्मणः । कुड्डुं भित्तिरति । सूक्ष्मा-लंकारः ॥३६॥
३७) हालस्य । [ चत्वरगृहिणी प्रियदर्शना च तरुणी प्रोषितपतिका च । असती प्रतिवेशिनी दुर्गता च न च खण्डितं शीलम् ||] न य खंडियं सीलं न च तया खण्डितं शीलम् । कदाचिद अगोचर गृहवासिनी स्यादित्याह । चच्चरघरिणी चत्वरगृहिणी । या खलु चत्वरगृहिणी सा सकललोकलोचनगोचरं गच्छतीति । कदाचित् चत्वरगृहिण्यपि अमनोज्ञदर्शना सा स्यादित्याह । पियदंसणा प्रियदर्शना । तां सर्व एव निकामं कामयते । कदाचित् प्रियदर्शनाऽपि अनवतीर्णतारुण्या भवतीत्याह । तरुणी । या तरुणी सा मकरकेतनेन क्रोडीक्रियते । कदाचित् तरुण्यपि सभर्तृका भवतीत्याह । पउत्थवइया य प्रोषितपतका च । या खलु प्रोषितपतिका तस्याः प्रतिबन्धकाभावात् सर्व एव युवजनो वेश्म प्रविशति । कदाचित् प्रोषितपतिकाऽपि सतीभिः समाकुला भवतीत्याह, असती प्रतिवेशिनी । सा तदनुषङ्गदोषेण दुष्यति । कदाचिदसती - प्रतिवेशिन्यनि स्वैरा भवतीत्याह दुग्गया य दुर्गता च । या खलु दुर्गता भवति सा धनलोभेन विनश्यति । एवं सामग्रयां सत्यामपि न स्खण्डितं शीलम् इति महासतीत्वं वर्णितं भवति । तत्र केवलं कौलीन्यमेव कारणम् । चच्चरं चतुष्पथम् । सयज्झिया प्रतिवेशिनी । कार्याक्षेपोऽलंकारः । प्रतिषेधोक्तिराक्षेपः (काव्यादर्श २.१२०) ॥ ३७॥
३८) माहिलस्य । [ आवर्त भ्रमणखण्डितकेसरो गिरिनद्याः पूरेण ।
१ w. चतर; २ हु. १w. भमाउल
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पढमं लयं
W38 ३९) अहियायमाणिणो दुग्गयस्स छायं पइस्स रक्खती ।
नियबंधवाण जूरइ घरिणी विहवेण इंताणं ॥३९॥ W39 ४०) साहोणे वि पिययमे पत्ते वि छणे न मंडिओ अप्पा ।
दुग्गयपउत्थवइयं सयज्झियं संठवंतीए ॥४०॥ ईषन्मग्नोन्मग्ननिमग्नमधुकरो हियते कदम्बः ॥] गिरिणईए पूरेण कलंबो हीरइ गिरिनद्याः पूरेण कदम्बं वहति । केचित्, नदीपूरेण कदम्बो हियते देशान्तरं प्राप्यते । कीदृशः । तालूरभमाडणखुडियकेसरो आवर्तभ्रमणखण्डितकेसरः । पुनरपि कीदृशः । दरबुड्ड्डब्बुडणिबुड्डमहुयरो ईषन्मग्नोन्मग्ननिमग्नमधुकरः । एवंभूतं कदम्ब हियत इति । अन्योकिरलंकारः। तारो आवर्तः । खुडियं खण्डितम् । बुड्डुब्बुणिबुड्डु इति देशरूपाणि । कलंबो इति कदम्बः । प्रदीप्तकदम्बदोहदेषु (वररुचि, २,१२) इत्यनेन दस्य लत्वे रूपम् ॥३८॥
(३९) अदम्बकस्य । [अभिजातमानिनो दुर्गतस्य च्छायां पत्यू रक्षन्तो । निजबान्धवेभ्यः क्रुध्यति गृहिणो विभवेन आयद्भ्यः ॥ घरिणी विहवेण इंताणं नियबंधवाण जूरइ गृहिणी विभवेन आगच्छद्भ्यः प्राप्तेभ्यः स्वबान्धवेभ्यः कुप्यति । किं कुर्वती। छायं पइस्स रक्खंती छायां पत्युः रक्षन्ती । कथंभूतस्य । अहियायमाणिणो अभिजातमानिनः कुलवतश्च मानिनश्च । “अयमस्मत्पतिः एतान् सकलसंपत्संपन्नान् वीक्ष्य वैलक्ष्येण मा मलिनिमानमायातु" इति बान्धवेभ्यो असूयति इति । जूरइ इति क्रुधेः जूर इति (वररुचि, ८, ६४) जूरादेशे रूपम् । सती स्वीया नायिका ॥३९॥
४०) चुल्लोड कस्य । [स्वाधीनेऽपि प्रियतमे प्राप्तेऽपि क्षणे न. मण्डित आत्मा । दुर्गतप्रोषितपतिका प्रतिवेशिनी संस्थापयन्त्या ॥] कयाचित् अप्पा न मंडिओ आत्मा न प्रसाधितः । सा कदाचिद् वियोगिनी १w. महियाइ; २w, छाहिं; ३w. पिअस्स; ४w. पत्ताणं.
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गाहाकोलो
[१.४१
W40 ४१) तुज्झ वसहि' त्ति हिययं, इमेहि दिट्ठो तुमं ति अच्छीइं ।
तुह विरहे किसियाई ति तेणे अंगाइँ वि पियाइं ॥४७॥ W41 ४२) सम्भावणेहमइएँ रत्ते रज्जिज्जइ त्ति जुत्तमिणं ।
अणहियए उण हिययं जं दिज्जइ तं जणो हसइ ॥४२॥ स्यादित्याह । साहीणे वि पिययमे स्वायत्तेऽपि पत्यौ । कदाचित् समय एव न भवतीत्याह । पत्ते वि छणे प्राप्तेऽप्युत्सवदिवसे । विशेषणद्वारेण कारणमाह । कथंभूतया तया । दुग्गयप उत्थवइयं सयज्झियं संवं तोए दुर्गतां प्रोषितपतिको प्रतिवेशिनी संस्थापयन्त्या । मां प्रसाधिततर्नु वीक्ष्य मा एषा भूषादुर्दशाम् आसादयत्विति । विशेषोक्तिरलंकारः ॥४०॥
४१) विन्ध्यस्य । [तव वसतिरिति हृदयम् आभ्यां दृष्टस्त्वभित्यक्षिणी । तव विरहे क्रशितानीति तेन अङ्गान्यपि प्रियाणि ॥] तव वसतिरिति हृदयं वल्लभम् । आभ्याम् अक्षिभ्यां दृष्टस्त्वम् इति लोचने प्रिये । तुह विरहे तव विरहे कसियाई ति तेण कृशानीति कृशीभूतानीति तेन अङ्गान्यपि प्रियाणि ममेत्यर्थादापद्यते । यदहं त्वद्विरहे न विपन्ना तत्र उक्तेन प्रकारेण प्रियाणि हृदयादीनि न परिहतुं पारयामीति निःस्नेहा सा (इति) मा मनसि मंस्था इति तात्पर्यार्थः । पर्यायोक्तिरलंकारः ॥४१॥
४२) मुग्धस्य । [सद्भावस्नेहमये रक्ते रज्यते, इति युक्तमिदम् । अहृदये पुनहृदयं यद्दीयते तज्जनो हसति ॥] सद्भावस्नेहमये रक्ते रज्यते इति युक्तमिदम् । अणहियए जं हिययं दिज्जइ अहृदये यद् हृदयं दीयते, तं जणो हसइ तज्जनो हसति । साऽहं त्वय्यहृदये रक्ता सकलजनहासास्पदं जातेति भावः । यदनुरक्तेऽपि नानुरज्यसे तेन त्वम् अहदयो यतः, इति दोषच्छायया प्रतीतिः । पर्यायोक्तिरलंकारः, मध्या नायिका ॥४२॥ १w. वसइ त्ति; २ w. तीए; ३ w. सब्भावणेहभरिए.
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-१.४५]
पढमं सयं
W42 ४३ ) आरंभंतस्स धुयं लच्छी मरणं व होइ पुरिसस्स । तं मरणमणारंभे वि होइ लच्छी उण न होइ ॥ ४३ ॥ W43 ४४ ) विरहाणलो सहिज्जइ आसाबंधेण वल्लहजणस्स । इक्कग्गामपवासो हु मामि' मरणं विसेसे ॥४४॥ W190 ४५) अज्जं चेय पउत्थो अज्जं चियै सुन्नयाइँ जायाई । रच्छा मुहचच्चर देउला हूँ अहं च हिययाई ||४५ ॥ ४३) रोहायाः [आरभमाणस्य ध्रुवं लक्ष्मीर्मरणं वा भवति पुरुघस्य । तन्मरणमनारम्भेऽपि भवति लक्ष्मीः पुनर्न भवति ||] आरंभंतस्स धुयं प्रारभमाणस्य ध्रुवं लक्ष्मीर्मरणं वा भवति पुरुषस्य । तं मरणमणारंभे वि होइ तन् मरणमनारम्भेऽपि भवति । लच्छी उण न होइ लक्ष्मी: पुर्न भवति । तत् लक्ष्मीलाभकामो मरणभयेन मा त्वम् उद्यमविमुखो भूरित्यर्थः । उत्थानप्रशंसापरेयमुक्तिः । आक्षेपोऽलंकारः ||४३||
४४) वल्लभस्य | [विरहानलः सह्यते आशाबन्धेन वल्लभजनस्य । एकग्रामप्रवासः खलु सखि मरणं विशेषयति ||] काचित् कलहान्तरिता अनुनयपरमपि प्रियम् अवधीर्येव पश्चात्तापतप्यमाना तदानयनाय सखी - मिदमाह । विरहानलः सह्यते आसाबंघेण वल्लहजणस्स आशाबन्धेन वल्लभजनस्य । इक्कग्गामपवासो हु मामि मरणं विसेसेइ एकग्रामप्रवासस्तु मामि, हुः पुनरर्थे, सखि मरणं विशेषयति, आगमनरत्यभावात् । यः खलु मयि रोषजुषि ज्ञात्वा गतः स स्वयं नागमिष्यति । तद् व्रजामि तत्र यत्रासौ, इति तात्पर्यार्थः ॥ ४४ ॥
४५) वैरसिंहस्य | [ अद्यैव प्रोषितः अद्यैव शून्यानि जातानि । रथ्यामुखचत्वर देवकुलानि, अस्माकं च हृदयानि ||] काचित् प्रथमदिवस एव प्रोषितस्य प्रेयसः अनुपमसौभाग्यभङ्गीमभिध्याय, आत्मनश्च दुरवस्थां, प्रार्थयितुम् (?) इदमाह । स हृदयवल्लभोऽचैव प्रोषितः । अद्यैव रच्छा१ w. 'माएँ; २ w. अज्ज चि अ; ३ w. रच्छामुहदेउलचच्चराइ.
२१
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२२
गाहाको
[१.४६
W44 ४६ ) अक्खडइ पिया हियए अन्नं महिलायणं रमंतस्स । दिट्ठे सरसम्मि गुणे सरिसम्मि गुणे अईसंते ॥४६॥ W45 ४७) नइपूरसच्छहे जुन्वणम्मि दियहेसु निच्चपहिए | अणियत्तासु य राई पुति किं दढमाणेण ॥४७॥
मुहदेउलचच्चराइँ सुन्नयाइँ जायाईं रथ्यामुखदेवकुलचत्वराणि शून्यानि जातानि । एतदुक्तं भवति । तस्मिंस्तिष्ठति किल तदीयानुपमरूपवत्तया, आलोकनकौतूहलोत्कलिकाकुलाभिः नगरनारीभिराकीर्यन्ते स्म रथ्यापथचैत्यचत्वराणि । अद्य तु तस्मिन् प्रोषिते न काचिदिह युवजनावेक्षणनिरवेक्षा (2) निजनिलयान्निष्क्रामति, इति । अथवा युवजनाकीर्णान्यपि तेन विना शून्यानि रथ्यादीनि प्रतिभासन्त इति । न केवलमिमानि शून्यानि । अम्हं च हिययाइं अस्माकं च हृदयानि । रथ्यामुखादीनां शून्यत्वं रिक्तत्वम् ॥ हृदयानां च शून्यत्वं तद्गतत्वम् । श्लेषदीपकच्छायोदयात् सहृदयचमत्कारिणी काsपि उक्तिवैचित्री समुल्लसतीति । पर्यायो क्तिर लंकारः । विषादो व्यभिचारी भावः । प्रच्छन्नो ( प्रवासो) विप्रलम्भशुङ्गारः । विरहिणी नायिका ॥ ४५ ॥
४६) धर्मिणस्य । [आस्खलति प्रिया हृदयेऽन्यं महिलाजन रमयतः । दृष्टे सदृशे गुणे सदृशे गुणे अदृश्यमाने || ] अन्नं महिलायणं रमंतस्स पिया हियए अक्खडइ अन्यं महिलाजनं रमयतः पुंसः प्रिया हृदये स्मृतिपथमेति । क्व सति । दिट्ठे सरिसम्म गुणे दृष्टे उपलब्धे सदृशगुणे । किमेतावदेव । नेत्याह । सरिसम्म गुणे अईसंते सदृशे गुणे अदृश्यमाने । यदा किल कान्तो अन्या रमणी रमयन् स्वगृहिणीगुणानुगुणं सकलकलाकौशलं पश्यति तदा तद्गुणसादृश्यात् तां स्मरति । अथ न पश्यति तदापि तस्यां ( तासु ) तत्संभोगसुखमनासादयन् प्रियां स्मरति, इति उभयथाऽपि स्मरणम् ||४६ ||
४७) कविराजस्य । [ नदीपूरसदृशे यौवने दिवसेषु नित्यपथि१w. अदीसंते; २w अइपवसिएसु दिअहेसु
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-१.४९]
पढम सयं W46 ४८) कल्लं किर खरहियओ पवसिहिइ पिउ त्ति सुवइ जणम्मि ।
तह वड्ढ भयवइ निसे जइ से कल्लं चिय न होइ ।।४८॥ W47 ४९) हुंतपहियस्स जाया आउच्छणजीयधारणरहस्सं ।
पुच्छंती भमइ घरंघरेसु पियविरहसहिरीओ ॥४९॥ केषु । अनिवृत्तासु च रात्रिषु पुत्रि किं दग्धमानेन ॥] काचिन् मानिनी प्रबोधयन्तीदमाह । पुत्ति किं दइढमाणेण पुत्रि किं दधमानेन । क्व सति । नइपरसच्छह जुव्वणम्मि नदोपूरसदृशे यौवने । दियहेसु निच्चपहिएसु दिवसेषु नित्यपथिकेषु । अणियत्तासु य राईसु अनिवृत्तासु च रात्रिषु सतीषु । किं दड्ढमाणेण मानं मा कार्षीरिति । यदि गत्वरं तारुण्यं न भवति, यदि च निवृत्तगमनानि दिनानि भवन्ति, यदि रात्रयो दृष्टप्रत्यावृत्तयो भवन्ति तत् कदाचिद् युज्यते प्रियजने मानः । न चैतदस्ति, तत् प्रियजने किममुना कृतेन दुःस्वावसानेन क्रियत इति गोत्रवतीशिक्षोक्तिः । आक्षेपोऽलंकारः ॥४७॥
४८) प्रवरराजस्य । [कल्यं किल खरहृदयः प्रवत्स्यति प्रिय इति श्रूयते जने । तथा वर्चस्व भगवति निशे यथाऽस्य कल्यमेव न भवति ॥] कल्लं किर पवसिहिइ पिउ त्ति सुवइ श्वः किल प्रियः प्रस्थास्यत इति श्रूयते । क। जणम्मि जने लोके । कीदृशः । खरहियो सुष्ठु निष्ठुरचित्तः । यन्मामपि ईदृशीं विहाय व जतीति । तह वड्ढ भयवइ निसे तथा वर्धस्व भगवति निशे जह से कल्लं चिय न होइ यथाऽस्य श्वस्तनं दिन न संपद्यते, इति । भविष्यविरहिणी नायिका ।। उन्मादो व्यभिचारी भावः ॥४८॥
४९) मेघटस्य । [भविष्यत्पथिकस्य जाया आपृच्छमजीवधारगरहस्यम् । पृच्छन्तो भ्राम्यति गृहे गृहे प्रियविरहसहनशीलाः ॥] हुंतपहियस्स जाया घरंघरेसु पुच्छंनी भमइ प्रथमभविष्यत्पथिकस्य भार्याः १w. घरंघरेण.
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गाहाकोसो
[१.५०
W48 ५०) अन्नमहिलापसंग दें दिव्य कुणेसु मज्झै दइयस्स ।
पुरिसा इक्कंतरसा न हु दोसगुणे वियाणंति ॥५०॥ W49 ५१) थोयं पि न नोइ इमा मज्झन्हे उय सिरीसतललुक्का ।
__ आयव भएण छाही वि पहिय ता किं न वीसमसि ॥५१॥ गृहे गृहे पृच्छन्ती भ्राम्यति । किं पृच्छन्तो। आउच्छणजीयधारणरहर्स आउच्छणं आपृच्छनं पुनदर्शनाय प्रश्नः, तस्मिन् प्रणयिकृते सति जीवधारणाय रहस्यं गुह्यो मन्त्रः । काः पृच्छन्ती । पियविरहसहिरीमो प्रियविरह सहनशीलाः । सीमन्तिन्यस्ताः किल अनुभूतदयितविरहतया प्राणधारणरहस्यं जानन्तीति । प्रच्छिर्द्विकर्मकोऽयम् । मुग्घा नायिका॥४९॥
५०) सीहल्लस्य (? सिंहलस्य) । [अन्यमहिलाप्रसङ्गं प्रार्थये दैव कुरु मम दयितस्य । पुरुषा एकान्तरसा न खलु दोषगुणान् विजानन्ति ॥] दे दिव्व कुणेसु दैव कुरुष्व । अन्नमहिलापसंग अन्यस्त्रीप्रसङ्गम् । कस्य । मज्झ दइयस्स मम दयितस्य । यतः पुरिसा इक्कंतरसा न हु दोसगुणे वियाणंति पुरुषा एकान्तरेसा न खलु दोषगुणान् विजानन्ति । यदि खलु अयम् अस्मत्कान्तो अन्यरामा रमयति तद् अस्मदोयान् अशेषान् गुणान् बुध्यते, बुद्धवा च न मामवगणयतीति । दे इति प्रार्थनायां निपातः ॥५०॥
५१) अनिरुद्धस्य । [स्तोकमपि न निर्यातीयं मध्याह्ने पश्य 'शिरीषतललीना । आतपभयेन च्छायाऽपि पथिक तत् किं न विश्राम्यसि ॥] काचित् प्रपापालिका कंचिन्नरं रिरंसमाना विश्रामोक्तिव्यपदेशेन इदमाह । पहिय पथिक, ता किं न वीसमसि तत् किं न विश्राम्यसि । यतः उय पश्य मज्झन्हे छाही थोयं पि न नीइ इमा मध्याह्ने छाया स्तोकमपि न निःसरतीयम् । इयं कीदृशी । सिरीसतललुक्का शिरीषतललीना । केन । आयवभएण आतपभयेन । इदम् उक्तं भवति । १w. हे; २w. अम्ह; ३w. सरीरतललुक्का.
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-१.५३]
पढमं सयं
W50 ५२) सुहउच्छयं जणं दुल्लहं पि दुराउं अह आणत | उवयारि जैरय जीयं पित न कयावराहो सि ॥ ५२ ॥ W51 ५३) आम जरो मे मंदो अहव न मंदो जणस्स का तत्ती । सुहउच्छय सुहय सुगंधयंध मा गंधिरिं छिवसु ॥५३॥ मध्या अचेतना छायाऽपि न निलयात् निष्क्रामति । किं पुनर्धीरधर्मक्लमक्लाम्यन् क्वापि कोऽपि पुमान् नो विश्राम्यतीति । इदमावयोः संघातार्हम्, अहो अस्मिन सजस्व मामिति भावः ॥ ५१ ॥
५२) सुरभिवृक्षस्य । [ सुखपृच्छक जनं दुलभमपि दृरादस्माकमानयन् । उपकारिन् ज्वर जीवमपि नयन् न कृतापराधोऽसि ॥] काचिदभीष्टं जनमनासादयन्ती आवस्थिकेन ज्वरेण गृहीता सुखप्रस्तावागतं तं वीक्ष्य सुखिनी सती स्वगतमिदमाह । हे उवयारि जरय उपकारिन् ज्वर, जीवं पि नंत न कयावराहो सि जोवमपि नयन् न कृतापराधोऽसि । तमेव उपकारं संबोधनद्वारेणाह । सुहउच्छयं जणं दुल्लहं पि सुखपृच्छकं जनं दुर्लभमपि । जीवितादप्यधिको ममायं वल्लभ इति भावः । दूराउ अम्ह आणंत दूरादस्माकम् आनयन् । यत एवास्यानयनेन अहं त्वया कृतकृत्या कृता इति । अतो जीवितमपि नयन् नापराध्यन् स जीवति । अभिलाषतोऽनुस्मरणं गुणकीर्तनं तथोद्वेगः प्रलापश्च । उन्मादो व्याधिरथ जडता च मरणं च ॥ ( रुद्रट १४, ४-५) तन्मध्याद् व्याधिरयं प्रच्छन्नोऽपि प्रबन्धः भः (१) ॥ ५२ ॥
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५३) गजवर्मणः । [आम् ज्वरो मे मन्दो अथवा न मन्दो जनस्य का चिन्ता | सुखपृच्छक सुभग सुगन्धगन्ध मा दुर्गन्धवतीं स्पृश ||] आम जरो मे मंदो । आम इति संप्रतिपत्तौ । अस्ति मे ज्वरः किंतु मन्दो न मन्द इति जणस्स का तत्ती जनस्य का चिन्ता । यतस्त्वम् ईदृशेन चरितेन अस्माकं सामान्यजनस्थाने वर्तसे, अतः सुहउ दूराहि, २w. आणत, ३w उवआरअ जर, ४w णेंत
१w.
२५
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. २६
गाहाकोसो
[२.५४
।
W52 ५४) सिहिपिच्छलुलियकेसे वेतोरू निमीलियद्धच्छि' ।
दरपुरिसाइयविसमिरि मुणसु पुरिसाण दुक्खाई ॥५४॥ W53 ५५) पिम्मस्स विरोहियसंहियस्स पच्चक्खदिढविलियम्स ।
____उययस्स ये तावियसीयलस्स विरसो रसो होइ ॥५५॥ च्छय सुखपृच्छक, सुहय सुभग सकलललनाप्रिय, सुर्यधयंध सुगन्धगन्ध, मा गधिरि छिवसु मा मां दुर्गन्धवती स्पृश । न हि तवोपभोगयोग्यता यामीत्यर्थः । मुखपृच्छक इत्यनेन औदासोन्यं सुखकृता उदासीन ननबन्धन .... तवासीति () उक्तं भवति । सुहय इति अर्थान्तरच्छायया(?) अधरदले दशनदंशं शंसति (:) । सुगन्धगन्धेति अन्यनारीसंभोगसुखलाभसंपन्नतां प्रकटयति । गंधिरिं इति निन्दायां मतुबू .... इत्यर्थः । तदुक्तम् । भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने । संसर्गेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः ॥ माघव्याजादासर्वनं (१) खण्डितायाः कोपस्याङ्गम् । उत्तरालंकारः । उत्तरवचनश्रवणादुन्नयनं यत्र पूर्ववचनानाम् । विज्ञेय उत्तरोऽसो प्रश्नादप्युत्तरं यत्र ।( रुद्रट, ७, ९३) ॥५३॥
५४) हालस्य । [शिखिपिच्छतुलितकेशे वेपमानोरु निमीलितार्धाक्षि । ईषत्पुरुषायितविश्रमणशीले जानीहि पुरुषाणां दुःखानि ॥ ] ईषत्पुरुषायितविश्रमणशोले मुणसु जानीहि पुरिसाण दुक्खाई पुरुषाणां दुःखानि । तान्येव संबोधनद्वारेण प्रकटयति । सिहिपिच्छलुलियकेसे शिखिपिच्छवद् व्यालोलकेशे। वेवंतोरु निमोलियद्धच्छि वेपमानोरु निमीलितार्धाक्षि । कर्मधारयः समासः । आत्मानुमानेन मयि श्रमदुःखानि जानीहीत्यर्थः ।। पुरुषायितं विपरीतरतम् ॥५४॥
५५) केरलस्य । प्रेम्णो विरोधितसंहितस्य प्रत्यादृष्टव्यलोकस्य । उदकस्य च तापितशीतलस्य विरसो रसों भवति ॥] पिम्मस्स उययस्स १w. वेवंतोरु विणिमीलियद्धच्छि, २w. दरपुरिसाइरि विरमिरि; ३w. जाणसु, ४w. जं दुक्खं; ५w. व.
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-१.५७ ]
पडम सयं W54 ५६) वज्जवडणाइरितं पइणो सोऊण सिच्छिणिग्योस।'
'फुसियाइँ करमरीए सरिबंदीणं पि अच्छीणि ॥५६॥ W55 ५७) करमरि अयालगज्जियजलयासणिपडणपडिरवो एसो।
___ पइणो धणुरवकंखिरि' किं रोमंचं मुहा वहसि ॥५७॥ य विरसो रसो होइ प्रेम्ण उदकस्य च विरसो रसो भवति । कथंभूतस्य प्रेम्णः । पच्चक्खदिविलियस्स प्रत्यक्षदृष्टव्यलीकस्य । अत एव विरोहियसंहियस्स, पूर्व विरोधितस्य पश्चात् संहितस्य इति पूर्वकालैकदेशे वा इत्यादिना ( पाणिनि, २, १, ४९) कर्मधारयः । उदकस्य कीदृशस्य । तावियसीयलस्स तापितशीतलस्य । प्रेम्णो विरसतात्र (१) । उदकस्य तदनुषङ्गेण वैरस्योक्तिः । तुल्ययोग्यताऽलंकारः । तस्य लक्षणम् । विवक्षितगुणोत्कृष्टैर्यत् समीकृत्य कस्यचित् । कीर्तनं स्तुतिनिन्दार्थ साम्यात् सा तुल्ययोग्यता (काव्यादर्श, २, ३३०) । औपम्यसमुच्चय इत्यन्ये ॥५५॥
५६) षण्मुखस्य । विज्रपतनातिरिक्त पत्युः श्रुत्वा ज्यानि?षम् । प्रोञ्छितानि बन्धा सहरबन्दीनामपि अक्षीणि ॥ ] करमरीए सरिबंदोणं पि अच्छोणि फुसियाई बन्द्या मुख्यबन्दीनामपि अक्षीणि मार्जितानि । न केवलं नेत्रोत्पलानि मार्जितानि तासाम् , भात्मनोऽपि, इति अपिशब्दस्यार्थः । वज्जवडणाइरित्तं वज्रपतनातिरिक्तम् । कठिनकुलिशनिर्घातघोरेण धनुर्ध्वनिना अनुमितागमनस्य स्वकान्तस्य भुजबलं कलयन्त्या एष आगतो अस्मभर्तेति भवतीनामपि बन्धमोक्षाय भविष्यतीति शश्वदाश्वासयन्त्या इतरबाष्पाम्बुप्लवसरिता नेत्रोत्पलानि मार्जितानीत्यर्थः । फुसियाइँ इति मृजेर्यग् फुसो वा (?) इति फुसादेशे रूपम् । करमरी बन्दी ! सच्छी ज्या। सरि मुख्यः । अन्ये तु समानपर्यायं सरिशब्दम् आहुः । सर्ववाचक इत्येके ॥५६॥
५७) कर्णराजस्य । [बन्दि अकालगर्जितजलदाशनिपतनप्रति१w. सिंजिणीघोस; २w; पुसियाइ; ३w अच्छीई ४w गज्जिर; ५w संकिणि,
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गाहाकोसो
[१.५८- . W56 ५८) सहइ सहइ त्ति तहे तेण रामिया सुरयदुधियड्ढेण ।
पव्वायसिरीसाइ व जह से जायाइँ अंगाई ॥५८॥ W57 ५९) अगणियसेसजुवाणा बालय वोलीणलोयममज्जाया ।
. अह सा भमइ दिसामुहपसारियच्छी तुइ करण ॥५९॥ रव एषः । पत्युधनूरवकाक्षिणि किं रोमाञ्चं मुधा वहसि ॥ ] करमरि अयालगज्जियजलयासणिपडणपडिरवो एसो हे बन्दि अकालगर्जितजीमूतमुक्ताशनिपातप्रतिरवोऽयम् । पइणो धणुरवकंखिरि किं रोमॅचं मुहा वहसि । पत्युर्धनुर्ध्वनिरिति प्रयुक्त्या उक्तं भवति (2)। माक्षेपभ्रान्तिमद्भयां संसृष्टिरलंकारः ।।५७॥
५८) करमन्दशेलस्य (! मकरन्दसेनस्य, मकरन्दशैलस्य)। सहते सहत इति तथा तेन रमिता सुरतदुर्विदग्धेन । प्रम्लानशिरीषाणीव यथा तस्या जातानि अङ्गानि ॥] इयं सुरतं सहते सहत इति कृत्वा तथा तेन सुरतदुर्विदग्धेन रमिता । पवायसिरीसाइ व जह से जायाइँ अंगाई यथा तस्या अङ्गानि प्रम्लानानि शिरीषाणीव जातानि । कथंभूतेन । सुरयदुव्वियड्ढेण सुरतदुर्विदग्धेन । यो विदग्धो भवति स मुग्धां मृदूपायैर भियुङ्क्ते । स्वरतरां च मुनिमतोक्काङ्गलेपादिना कृत्रिमयन्त्रयोजनैश्च मुदिमानमानयति । तरुर्विदग्ध इति यथा प्रेमप्रम्लानाम् (१) । उपमालंकारः ॥५८॥
___५९) कुसुमायुधस्य । [अगणितशेषयुवजना बालकातिक्रान्तलोकमर्यादा । अथ सा भ्रमति दिशामुखप्रसारिताक्षी तव कृते ॥] गतार्था गाथा । हे बालक, अगणितशेषतरुणा अतिक्रान्तलोकमर्यादा दिशामुखप्रसारिताक्षी तव कृते भ्रमति । औत्सुक्य चपलताख्यो व्यभिचारिभावी ॥५९॥ १w तेण तहा रमिआ
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-१.६१]
पढम सयं W58 ६०) अज्जं चेव पउत्थो उज्जग्गिरओ' जणस्स अज्जेय ।
अज्जेय हलद्दीपिंजराइँ गोलाइ तुहाई ॥६०॥ W59 ६१) असरिसचित्ते दियरे सुद्धमणा पिययमे विसमसीले ।
न कहइ कुटुंबविहडणभएण तणुयायए वहुया ॥६१॥ ६०) ग्रहलचितस्य । [अद्यैव प्रोषित उज्जागरो जनस्य अथैव । अद्यैव हरिद्रापिञ्जराणि गोदावर्यास्तीर्थानि ॥] काचिद् वियोगिनी वल्लभस्य वीरविलासी व्यपदेशेन वर्णयितुम् इदमाह । सोऽस्माकं हृदयदयितः अजं
चेव पउत्थो अद्यैव प्रोषितः । अज्जेय जणस्स उज्जग्गिरमो जाओ अद्यैव जनस्य उज्जागरको जातः । एतदुक्तं भवति । तस्मिस्तिष्ठति अपसारितचौरभये यूनि जनाः सुखेन शेरते स्म । अद्य च कृतगमने तत्र प्रचुरतरतस्करत्रासेन समस्तवास्तव्यानां यामिनीयामजागरणमिति । अज्जेय हलदीपिंजराइँ गोलाइ तुहाई अधैव हरिद्रापिञ्जराणि गोदावरीतटानि जातानि । अत्र च योऽनुरागो जितहरिद्रापिङ्गिमा गोदावर्याः, तेन च वनितानाम् अङ्गरागपरित्यागेन सौभाग्यभङ्गीभणितिराविष्कृता इति पूर्वार्द्ध वीरः, उत्तराद्धे विलासोक्तिः । गोला गोदावरी । तूहं तटम् । हलद्दी इति हरिद्रा । अत् पथिहरिद्रापृथिवीषु (वररुचि,१.१३) इत्यनेन इकारस्य अत्वम् । रेफस्य लत्वे च रूपमिदम् । पर्यायोक्तिरलंकारः । तस्य लक्षणम् । अर्थमिष्टमनाख्याय साक्षात् तस्यैव सिद्धये । यत्प्रकारान्तराख्यानं पर्यायोकिस्तदिष्यते ।। (काव्यादर्श, २.२९५).
६१) असद्धस्य [)। [असदृशचित्ते देवरे शुद्धमनाः प्रियतमे विषमशीले । न कथयति कुटुम्बविघटनभयेन तनूयते वधूः ॥] वहुया वधूः । असरिसचित्ते दियरे पिययमे विसमसीले न कहइ असदृशचित्ते देवरे, प्रियतमे विषमशीले न कथयति न निवेदयति, अर्थाद् देवरस्य दुरीहितम् इति लभ्यते । केन हेतुना । कुडंबविहडणभएण कुटुम्बविघ१ w. उज्जागरओ; २ w. हलिद्दा; ३ w. सोण्हा.
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गाहाकोसो
[१.६२W60 ६२) चिंताणियदइयसमागमम्मि कयमन्नुयाइँ भरिऊण ।
मुन्नं कलहायंती सहीही रुन्ना ने उण हसिया ॥६२॥ W61 ६३) हिययन्नुएहि समयं असमत्ताई पि जह समप्पंति ।
कज्जाइँ मणे न तहा इयरेहि समाणियाई पि ॥६॥ टनभयेन । कि तर्हि करोतीत्याह । तणुयायए तनूयते, मा खल्वेष सहसैव देवरं त्यजेदिति । तदीयात्मा मनोरथे व्यथाव्यकृतोनां (!) कुटुम्बविघटनभयेन भर्तुः न प्रकाशयति । केवलम् अन्त:सन्तापेनोपजायमानात् तानवात् कथयति इति ॥६१॥
६२) हाधिपस्य । चिन्तानीतदयितसमागमे कृतमन्तून् स्मृत्वा । शून्यं कलहायन्ती सखीभी रुदिता (शोचिता) न पुनहसिता ॥] काचिन्नायिका चिंताणियदइयसमागमम्मि सुन्नं कलहायंती रुन्ना न उण हसिया चिन्तानीतदयित समागमे ध्यानपारमिताबलानोतप्रियतमे शून्यं कल- .. हायमाना । कयमन्नुयाइँ भरिऊण कृतापराधान् स्मृत्वा । इदं शून्यं कलहायितम् । भोगोन्मादवताम् अन्तहितेत्यस्या उपहासावसानं भवती.. त्यभीष्टा (१)। सा किल सखीजनेन शोचिता न पुनरुपहसिता, इत्यर्थः । विप्रलब्धा कलहान्तरिता खण्डिता नाम नायिका । स्मृतिचिन्तोन्मादा व्यभिचारिणो भावाः । आणिय इति 'इत् ईतः पानीयादिषु' (वररुचि, १.१८) इति ईतः इत्वे सति रूपम् ॥१२॥
६३) विग्रहराजस्य । [हृदयज्ञैः समम् असमाप्तान्यपि यथा समाप्यन्ते । कार्याणि मन्ये न तथा इतरैः समाप्तान्यपि ॥] हिययन्नुएहि समयं असमत्ताई पि जह समप्पंति हृदयज्ञैः समम् असमाप्तान्यपि कार्याणि यथा समाप्यन्ते, न तहा इयरेहि समाणियाई पि न तथा इतरैः अहृदयज्ञैः समं समाप्तान्यपि समाप्यन्त इत्यर्थः । पर हितकरैः समम् असमाप्तानि न पुनरज्ञैः समं समाप्तान्यपीति, इयं सज्जनवर्णनोक्तिः॥६३॥ १ w. ण ओहसिया; २ म. सुहावेंति.
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-१.६६ ]
पढम संयं W62 ६४) दरफुडियसिप्पिसंपुडणिलुक्कहालाहलग्गपुच्छेणिहं ।
पिक्कंबढिविणिग्गयकोमलमंबंकुरं उयह ॥६४॥ W63 ६५) उयह पडलंतरोइण्णणिययतंतुद्धपायपडिलग्गं ।
दुल्लक्खमुत्तगुत्थेक्कबउलकुसुमं व मक्कडयं ॥६५॥ W64 ६६) उवरिदरदिट्ठखन्नुयणिलीणपारावयाण विरुएंण ।
नीसँसइ जायवियणं मूलाभिन्नं व देवउलं ॥६६॥
६४) विचित्रस्य । [ईषत्स्फुटितशुक्तिसंपुटनिलीनहालाहलामपुच्छनिभम् । पक्वाम्रास्थिविनिर्गतकोमलम् आम्राङ्गुरं पश्यत ॥] अंबंकुरं उयह आम्राङ्कुरं पश्यत । कथंभूतम् । पिक्कंबढिविणिग्गयकोमलं पक्वाम्रपृष्ठ (१ अस्थि) विनिर्गतं च तं कोमलं च पक्काम्रस्य यद् अस्थि ततो विनिर्गतं च तं कोमलं चेति कर्मधारयः । अतश्च कीदृशम् । दरफुडियसिप्पिसंपुडणिलुक्कहालाहलग्गपुच्छणिहं दरस्फुटितशुक्ति संपुटं तत्र निलीना या गृङ्गोधिका तस्याः पुच्छाग्रेण तुल्यम् । वृन्तानुगतताम्राकुरस्य गृहगोधिकाग्रपुच्छोपमाबीजं प्रतीयमानेनैव धर्मेण । उपमालंकारः । हालाइलशब्दो गृहगोधिकायाः पर्यायोक्तिः यस्या ब्राह्मणीति लोके प्रसिद्धिः
॥४॥ ६५) ईश्वरराजस्य । (पश्यत पटलान्तरावतीर्णनिजकतन्तूर्ध्वपादप्रतिलग्नम् । दुर्लक्षसूत्रगुम्फितै कबकुलकुसुममिव मर्कटकम् (ऊर्णनाभम्)।] पश्यत ऊर्णनाभम् । कीदृशम् । पडलंतरोइण्णणिययतंतुद्धपायपडिलग्गं 'पटलान्तराद् अवतों यो निज कस्तन्तुः तत्र ऊर्ध्वपादप्रतिलग्नम् । यथा भवति । दुर्लक्षं सूक्ष्मत्वात् सूत्रं तत्र गुत्थं (गुम्फितम्) एकं यद् बकुलकुसुमं, तदिव । पटलं (2 छदिः) । उपमालंकारः ।।६५॥
६६) पालिकस्य । [उपरि ईषददृष्टस्थाणुकनिलोनपारापतानां १ w. छेप्पणिहं. २ w. णिलुक्क; ३ w. विरुएहिं; ४ w णित्थणइ; ५ w. सूलाहिणं.
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३२ गाहाकोसो
१.६७-] W65 ६७) जइ तस्स ने होसि पिया ता दियहं नीसहेहि अंगेहिं ।
नवस्यपीयपेऊसमत्तपाडि व्व किं मुयसि ॥६७॥ W66 ६८) हेमतियासु अइदीहरासु राईसु जं सि नै विणिद्दा ।
चिरंगयपउत्थवइए न सुंदरं जं दिवा मुयसि ॥६८॥ विरुतेन । निःश्वसिति जातवेदनं शूलाभिन्नमिव देवकुलम् ॥] उपरि शिखाभागे दरदृष्टो यः स्थाणुकः तत्र निलीनपारापतविरुतेन निःश्वसितोव । कीदृशम् । जायवियणं सूलाभिन्नं व जातवेदनं किलमोरितशूलन्यस्ता(?) निःश्वसितीवेति । पूर्वार्धे समासः चिन्त्यः । नित्थणइ जायवियणं निलीणपारावयाण विरुएण । उत्ररि दरदिट्ठखन्नुयसूलाभिन्नं व देव उलं ।। इति पाठः श्रेयान् । यत्र देवकुलं तत्र तथाक्तम् । तदित्थंभूतम् (१) । निठाग - परावयाण विरुएण । उत्प्रेक्षालंकारः ॥६६॥
६७) सयरसेनस्य (सगरसेनस्य) । [यदि तस्य न भवसि प्रिया तद् दिवसं निःसहैरङ्गैः । नवसूतपीतपीयूषमत्तसैरिभोसुतेव किं स्वपिषि ॥] यदि न भवसि त्वं तस्य प्रिया तत् किं निःसहैः सुरतश्रमखिन्नैरङ्गैः दिवा नव्यजात-नवप्रसूत-पोतपीयूषमत्तसैरिभोसुतेव किं स्वपिषि । सुतेवेत्यादि ते (१) । कालाध्वभावदेशानां योगे अकर्मकाणाम् अपि कर्मसंज्ञा । अत्र उत्तरोपमाभ्यां संसृष्टिरलंकारः । निद्रा नाम संचारी भावः । आलस्याद् दौर्बल्यात् श्रमात् क्लमात् चिन्तनात् स्वभावात् च । रात्रौ जागरणादपि निद्रा संभवति देहभूतस्य ॥ उन्मुख गौरवगात्रव्यावर्तननयनमीलनजडत्वः । जम्भणगात्रविमर्दैरनुभावैरभिनयस्तस्याः ॥ (नाट्यशास्त्र ७, ११०-१११.).
६८) आढ्यराजस्य । हैमनीष्वतिदीर्घासु रात्रिषु यदसि न विनिद्रा । चिरगतप्रोषितपतिके न सुन्दरं यद् दिवा स्वपिषि ॥] काचित १w. होसि ण; २w. अणुदियह; ३w. जं सि अविणिद्दा; ४w. चिरअर.
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-१.७०]
पढम सय w67 ६९) जइ चिक्खिल्लभउप्पुयपयमिणमलेसं पए तुह विइण्णं ।
ता सुहय कंटइज्जंतमम्ह अंग किणो हससि ॥१९॥ W69 ७०) पाणिग्गहणि च्चिय पवईए नायइ सहीहि सोहग्गं ।
पसुवइणा वासुइकंकणम्मि दूरं समोसरिए ॥७०॥ प्रोषितपतिका दिवसां (? दिवसे) नयनेङ्गितचिरगान (१) विदितविकियां विदग्धसस्वोमिदमाह । हे चिरगयपउत्थवइए चिरगतप्रोषितभर्तृके जं दिवा सुयसि तं न सुंदरं यद् दिवा स्वपिघि तत् न शोभनम् । हेमंतियासु राईसु अइदीहरासु जं सि न विणिदा हैमनीषु यामिनीषु अतिदीर्घिकासु यदसि न विनिद्रा । अत्र दिवाशयनानुमितं यामिनीजागरणम् असतीत्वशङ्कां जनयतोत्यर्थः । चिरगय इति गतशब्दो भावसाधनो द्रष्टव्यः । चिरेगयपउत्थवइए इति पाठे तु न दोषः (:)। राई रात्रिः ॥६८॥
६९) कृष्टखदिरस्य । [यदि कर्दमभयोत्प्लुतपदमिदमलसं पदे तव वितीर्णम् । तत् सुभग कण्टकायमानम् अस्माकमङ्गं किं नु हससि ।। काचित् मय्यनुरक्तेति जातहासे यूनि तदवलोकनाय मदनचिह्ननिह्नवोक्तित्वेन तदालपनसुखलाभलालसा सती इदमाह । हे सुहय सुभग जइ चिक्खिल्लभउप्पुयपयमिणमलसं पए तुह विइण्णं यदि कर्दमभयोत्प्लुतं भयोक्षिप्तं पदमिदमलसं पदे तव वितीर्ण, ता किणो अम्ह अंगं हससि तत् कस्मादस्माकमङ्गं हससि । किणो किमिव हससि । कथंभूतम् । कंटइज्जंतं पुलकेनाकीर्यमाणम् । मान्यथा संभावयतु भवान् । कर्दमघृणया किलाहं पुलकिताऽऽकीर्यमाणाङ्गेति । अन्ये तु पार्श्वपरिवर्तिनो विदग्धसखीजनस्य, तस्मिन् यूनि निजानुरागलिङ्गसहितत्वं सा नायिका इदमाह इत्याहुः । उभयथाऽपि लेशोऽलंकारः । तस्य लक्षणम् । लेशो लेशेन निर्भिन्नवस्तुरूपनिगृहनम् ।। (काव्यादर्श, २,२६५) ॥६९॥
७०) कोदिल्लकस्य । पाणिग्रहण एव पार्वत्या ज्ञायते सखीभिः १w. अलसाइ तुह पए दिण्ण; २w. अंगमेण्हि किणो वहसि; ३w. पाणिग्गहण चिअ.
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गाहाकोसो
[१. ७१W68 ७१) पत्तो छणो न सोहइ अइप्पहाए य पुणियायंदो ।
___ अंतविरसो ये कामो असंपयाणे य परिओसो ॥७१॥ W70 ७२) गिम्हे दवग्गिमसिमइलियाइँ दीति विझसिहराई।
___ आससु पउत्थवइए न हुंति नवपाउसब्भाई ॥७२॥ सौभाग्यम् । पशुपतिना वासुकि कङ्कणे दूर समुत्सारिते ॥ ] वासुकिकङ्कणे दूरमपसारिते सति । केन पसुवइणा पशुपतिना । इयम् उत्फुल्लफणाफूत्कारतो मा भैषीदिति पशुपतिना वासुक्यपसर्पणं कृतमित्यर्थः । फणी कङ्कणम् । भीरतो मा निषीदतु । भुजङ्गरा जोत्सारेण सौभाग्यस्य लिङ्गम् । अनुमानालंकारः ॥७०॥
७१) ध्रुवराजस्य । [प्राप्तः क्षणो न शोभते अतिप्रभाते च पूर्णिमाचन्द्रः । अन्तविरसश्च कामः असंप्रदाने च परितोषः ।।] पत्तो छणो न सोहइ प्राप्तः क्षण उत्सवो न शोभते । अइप्पहाए य पुण्णिमायंदो तथा अतिप्रभाते च पूर्णिमाचन्द्रः । अन्तविरसश्च कामः । असंपयाणे य असंप्रदाने च परितोषः । न शोभत इति सर्वत्र संबन्धः । प्राप्ते हि क्षण उत्कण्ठा कुण्ठीभवति । उत्कण्ठाकारणाभावात् । प्रातः पूर्णिमाचन्द्रो अरुणोदयहतच्छायो भवति । अन्तविरसश्च कामो अनुभूतसुरतसुखतया न जायते । असंप्रदाने च न केवलेन साम्ना यः परितोषः पुष्यतीत्यर्थः (१)। दीपकसमुच्चयतुल्ययोग्यतायोगिनी संसृष्टिरलंकारः ॥७१॥
७२) चित्तराजस्य । [ग्रीष्मे दवाग्निमषोमलिनितानि दृश्यन्ते विन्ध्यशिखराणि । आश्वसिहि प्रोषितपतिके न भवन्ति नवप्रावृडभ्राणि ॥] आससु पउत्थवइए आश्वसिहि प्रोषितपतिके न हुंति नवपाउसब्भाई न भवन्ति नवप्रावृडभ्राणि, अपि तु विझसिहराई विन्ध्यशिखराणि । कीदृशानि । गिम्हे ग्रीष्मे दवग्गिमसिमइलियाई दवाग्निमषीमलिनितानि । ग्रीष्मसमय एवायम् । दवाग्निधूमश्यामलितविन्ध्यशिखराणि न तु वर्षावतार इत्यर्थः । १w. अईप्पहाअ ब्व; २w. व्व; ३w. असंपआणो.
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- १.७५]
पढमं सयं
३५
W71 ७३) जित्तियमित्तं तीरइ निव्वोढुं देहि' तित्तियं पणयं । न जणो पिययमकयमाणभंगदुक्खक्खमो' सव्वो ॥ ७३ ॥ W72 ७४) बहुवल्लहस्स जा होइ वल्लहा कह वि पंच दिहाई । सा छटुं किं मग्गइ कत्तो मिट्ठे च बहुयं च ॥ ७४ ॥ W73 ७५) जं जं सो निज्झाय अंगोवास महं अणिमिच्छो । पच्छामि यतं तं इच्छामि य तेण दोसंतं ॥७५॥
दावो वनदवाग्निरिति दवाग्निशब्दस्य यथादिगणपाठात् ( वररुचि १, १०) स्वत्वे रूपम् । अपहूनुतिरलंकारः । अपहूनुतिरपहूनुत्य किंचिदन्यार्थदर्शनम् (काव्यादर्श, २, ३०४] ॥ ७२ ॥
७३) चन्द्रपुट्टिकायाः (चन्द्रपुत्रिकायाः ? ) । [ यावन्मात्रं शक्यते निर्बोढुं देहि तावन्तं प्रणयम् । न जनः प्रियकृतमानभङ्गदुःखक्षमः सर्वः ॥] तित्तियं पणयं देहि तावत् प्रेम प्रयच्छ जित्तियमित्तं निव्वोढुं तीरइ यावमात्रं निर्वोढुं शक्नोति इति । तोरइ इति कर्तर्यपि । अथवा यावन्निर्वाहयितुं शक्यत इत्येवंभूतकारितार्थे निर्वोढुम् इति शब्दों द्रष्टव्यः । ननु सकलजनस्य पतिप्रणयप्राचुर्ये कोऽयं दोष इत्याह न जणो पिययमकयमाणभंगदुक्खक्खमो सव्वो न जनः प्रियतमकृतमानभङ्गदुःखक्षमः सर्वः । नाहं प्रियतमकृतमानभङ्गदुः खमीक्षितुं क्षमेत्यर्थः ॥७३॥
७४) शुद्धशीलस्य । [बहुवल्लभस्य या भवति वल्लभा कथमपि पञ्च दिवसानि । सा षष्ठं किं मार्गयते, कुतो मिष्टं च बहु च || ] बहुवल्लभस्य जा कह वि पंच दियहाई वल्लहा होइ बहुवल्लभस्य पुंसो या कथमपि पञ्च दिवसान् वल्लभा भवति सा छटुं किं मग्गइ सा षष्ठं किमिति दिनं याचते । कुतः । बहुयं च मिट्ठे च कत्तो बहु च मृष्टं चेति कुतः । इदमेव दुर्लभं यद् बहुबल्लभस्य त्रिचतुराणि दिनानि प्रियत्वं प्राप्यते । ततोstoधिकतरं मृगाक्षि मा मा विद्यस्य ( 1 ) इति सखीशिक्षोक्तम् । अर्थान्तरन्यासोऽलंकारः ॥७४॥
१w. देसु; २w. विणिअत्तपसा अदुक्खसहण क्लमो ३ w. सा किं मग्गइ छ, ४ w. अंगोआसं ५ w. अणिमिसच्छं.
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गाहाकोसो
[ १.७६- . W74 ७६) दढमन्नुदूमियाएँ वि गहिओ दइयम्मि पिच्छह इमीए । .,
__ ओसरइ वालुयामुहिउ व्य माणो सुरसुरंतो ॥७६॥ W75 ७७) उय पोमेरायमरगयसंवलिया नहयलाउ ओयरइ ।
नहसिरिकंठभट्ट व्व कंठिया कीररिंछोली ॥७७॥
७५) अक्ष्णस्य । [यं यं स निर्ध्यायति अङ्गावकाशं ममानिमिषाक्षः । प्रच्छादयामि तं तम् इच्छामि च तेन दृश्यमानम् ॥] काचित् स्वसख्याः कथयति । जं जं सो महं अंगोवासं अणिमिसच्छो निज्झायइ यं यं स ममाङ्गपार्श्वम् अनिमिषाक्षं पश्यति तं तं अहं पच्छाए मि इच्छामि य तेण दीसंतं तं तम् अहं प्रच्छादयामि च इच्छामि च तेन दृश्यमानम् । लज्जानुरागप्रकाशनम् । मुग्धा नायिका । किमपि सखीनां कर्णे अलक्षिताक्षर वक्ति, रुच्यम् अप्रावृतमङ्गं विदधाति ससंभ्रमं चैव । वागो (!) व्यभिचारिणो भावाः । निज्झायइ पश्यति ।।७५॥
७६) पीठहर्म्यस्य । [दृढमन्युदुनाया अपि गृहीतो दयिते पश्यतानया । अपसरति वालुकामुष्टिरिव मानः सुरसुरायमाणः ॥] पिच्छह इमीए माणो ओसरइ पश्यतास्या मानोऽपसरति । कीदृशः । दइयम्मि गहिओ दयिते गृहोतः । कथंभूतायाः । दढमन्नुदूमियाएँ वि दृढमन्युदूनाया अपि । किं कुर्वन् क इव । सुरसुरंतो वालुयामुट्ठिउ व्व शनैः शनैः विगलन् वालुकाया मुष्टिरिव । मन्युः क्रोधः । मुष्टिशब्दः पुंलिङ्गोऽपि । उपमालंकोरः ।।७६॥
७७) पालित्तकस्य । [पश्य पद्मरागमरकतसंवलिता नभस्तलादवतरति । नभःश्रीकण्ठभ्रष्टेव कण्ठिका कीरपङ्तिः ॥] पश्य शुकश्रेणिनभस्तलादवतरति । कीदृशी का इव । नहसिरिकंठब्भट्ट व्व कंठिया नभःश्रीकण्ठभ्रष्टेव कण्ठिका कण्ठाभरणम् । कथंभूता कण्ठिका । पोमरायमरगयसंवलिया पझरागमरकतमिलिता । आताम्रतुण्डतया नीलच्छदच्छाय१w पोमराअ
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--१. ८० j
। पढमं संयं W76 ७८) न वि तह विएसवासो दुग्गच्च मह जणेइ संतावं ।
आसंघियत्थविमुहो जह पणइयणो नियत्ततो ॥७८॥ W77 ७९) खंधग्गिणा वणेसु तणेहि गामम्मि रक्खिओ पहिओ।
नयरवसिओ नडिज्जइ साणुसएणं व सीएण ॥७९॥ W78 ८०) भरिमो से गहियाहरधुयसोसपहोलणालयाउलियं ।
वयणं परिमलतरलियभमरोलिपैहल्लकमलं व ॥८॥ तया शुकशकुन्तश्रेणः पद्मरागमरकतमिश्रितया अन्तरिक्षलक्ष्मीकण्ठकण्ठिकया उपमीयते । उपमालंकारः ॥७७||
____७८) वासुदेवस्य । [नापि तथा विदेशवासो दौर्गत्यं मम जनयति संतापम् । संभावितार्थविमुखो यथा प्रणयि जनो निवर्तमानः ॥ न वि तह विएसवासो दुग्गच्चं मह संतावं जणेइ नैव तथा विदेशवासो दौर्गत्यं च ममान्तःसंतापं जनयति जह आसंघियत्थविमुहो पणइयणो नियत्ततो यथा आशस्तार्थविमुखः प्रणयिजनो निवर्तमानो मम संतापं जनयतीति । आसंघियं संभावितम् । हेतुदीपकाभ्यां संसृष्टिरलंकारः ॥७८॥
७९) भीमविक्रमस्य । [स्कन्धाग्निना वनेषु तृणैामे रक्षितः पथिकः । नगरोषितो विडम्ब्यते (अभिभूयते) सानुशयेनेव शीतेन ॥] नयरवसिओ पहिओ सीएण नडिज्जइ नगरोषितः पथिकः शीतेन विडम्ब्यते अभिभूयत इत्यर्थः । कथंभूतेन । साणुसएणं व सकोपेनेव । कीदृशः पधिकः । खंघग्गिणा वणेसुं तणेहि गामम्मि रक्खिओ स्कन्धाग्निना चनेषु तृणैामे रक्षितः । इत्यत एवानुशयशीलेन । अयं किल वने वसन् प्रचुरकाष्ठकल्पिततल्पपार्श्वपावको ग्रामे च प्रबलपलालमध्यम् अध्यासोनो न मां मात्रयाऽपि गणयति स्म । सोऽयं नगरे निराश्रय इति सानुशयेन शीतेन बाध्यत इति । खधग्गो स्थूलाग्निः (स्थूलकाष्ठाग्निः) । उत्प्रेक्षाऽलंकारः ॥७९॥
१w. आसंसिअत्थविमुहो, २w. साणुसएण व्व. ३w. पहोलिरा, ४w. भमरालि; ५w. पइण्णः
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[ १.८१
३८
W79 ८१) हल्लाफलन्हाणपसाहिरीणं छणवासरे सवत्तीणं । अज्जाएं मज्जणाणायरेण कहियं व सोहग्गं ॥ ८१ ॥ W80 ८२) न्हाणइलि दीभरियंतराइँ जालाइँ जालवलयस्स । सोहंती किलंबयकरण कं काहिसि कत्थं ॥ ८२ ॥
गाहाकोसो
८०) विरयादित्यस्य ( विनयादित्यस्य ? ) । [ स्मरामः तस्या गृहीताधरधुतशीर्षप्रघूर्णनालका कुलितम् । वदनं परिमलतरलितभ्रमरालिप्रचलकमलमिव || ] कश्चित् चिरप्रवासी इदमाह । से तस्या दयितायाः वयणं भरिमो वदनं स्मरामः । कीदृशम् । गहियाहरधुय सीसपहोलणालयाउलियं गृहीताधरधुतशीर्षप्रघूर्णनालका कुलितम् । किमिव । परिमलतरलियभमरोलिपहल्लकमलं व परिमलतरलितभ्रमरमालाकम्पप्रचलकमलमिव । स्मृति: व्यभिचारी भावः । अनुरागसूचको वागनुभावः | पहल्लं दोलितम् । उपमालंकारः ||८०||
८१) मुक्ताफलस्य । [ औत्सुक्यस्नानप्रसाधनशीलानां क्षणवासरे सपत्नीनाम् । आर्यया मज्जनानादरेण कथितमिव सौभाग्यम् ||] प्रौढयुवत्या मज्जनानादरेण कथितमिव सौभाग्यम्, अर्थाद् आत्मन इति लभ्यते । काभ्यः । सवत्तोणं सपत्नीभ्यः । हल्लप्फलन्हाणपसाहिरीण औत्सुक्येन यत् स्नानं प्रसाधनं च तदाचरणशीलाभ्यः । सौभाग्यम् आहार्यगुणापेक्ष नेत्यभिप्रायः । कदा | छणवासरे उत्सव दिवसे । केन कृत्वा । मज्जणाणायरेण मज्जनानादरेण । अहं निजरूपशोभा सौभाग्यगुणा अकृतमज्जनमण्डनाऽपि प्रकृत्यैव प्रियस्य प्रियेति । न हि स्वभावसुभगम् आहार्यगुणमपेक्षत इत्यभिप्रायः । हल्लम्फलं आकुलता । गर्यो 1 नाम व्यभिचारी भावः । ( आकुलता - ) व्यञ्जकः बिव्वोको नाम चेष्टालकारः । ईप्सितभावप्राप्तावप्यत्यभिमानगर्वसंभूतः । स्त्रीणामनादरकृतो बिव्वोको नाम विज्ञेयः ॥ उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ८१ ॥
८२) काढिल्लकस्य । [स्नानहरिद्वापूरितान्तराणि जालानि जालवलयस्य । शोधयन्ती क्षुद्रवंशकण्टकेन कं करिष्यसि कृतार्थम् ॥] १w. पसाहिआण; २w. हलिद्दा; ३w. किलिंचिअकंटएण.
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- १.८५ ]
पढमं सयं
W81 ८३) असणेण पिम्मं अवेइ अइदंसणेण वि अवे । पिसुणजर्जपिएण वि अवेइ एमेये बि अवेइ ॥ ८३ ॥ W82 ८४) अहंसणेण महिलायणस्स अइदंसणेण नीयस्स ।
मुक्खस्स पिसुणजण जंपिएण एमेये वि खलस्स ॥ ८४ ॥ W83 ८५) पुंवडिएहि दुक्खं अच्छिज्जइ उन्नएहि होऊण ।
इय चिंतंताण मणे थणाण किसणं मुहं जायं ॥ ८५ ॥ जालवलयस्य जालरूपकटकस्य जालानि सुषिराणि तत्स्थानदारुकेण शोधयन्ती कं कृतार्थं करिष्यसि । कथंभूतानि जालानि । न्हाणहलिहीभरि - यंतराइँ स्नानहरिद्रादापित ( पूरित ) मध्यभागानि । धन्यः खल्वसौ यदर्थे त्वयायं विशेषः क्रियत इति । इयं हेला विलासः । तस्या लक्षणम् । सा जिघ्रति धम्मिल्लं माल्यं वा नखशिखामिरुल्लिखति । कटकाद् व्यपनयति विलेपनं च कर्मेति हेलायाः ||८२||
८३) मधुकरस्य । [ अदर्शनेन प्रेमापैति अतिदर्शनेनाप्यपैति । पिशुनजनजल्पितेनाप्यपैति एवमेवाप्यपैति ।।] निगदव्याख्यातेयं गाथा | अदर्शनेन अतिदर्शनेन पिशुनजनजल्पितेन एवमेवापि प्रेमा पैति इति गाथार्थः । आवृत्तिरलंकारः । अर्थावृत्तिः पदावृत्तिरुभयावृत्तिरेव च । दीपकस्थान एवैतदलंकारत्रयं यथा ।। (काव्यादर्श २, ११६ ) ॥८३॥
८४) तस्यैव ( मधुकरस्य) । [ अदर्शनेन महिला जनस्य अतिदर्शनेन नीचस्य । मुर्खस्य विशुनजनजल्पितेन एवमेवापि स्वस्य || ] पिम्मं अवेह इति पूर्वगाथाया अनुवर्तनोयम् । उभे अप्यम् गाथे अन्योन्यापेक्षया गतार्थे इति ॥८४॥
३९
८५) स्वामिनः । [ उदर पतितैर्दुःखमास्यत उन्नतैर्मूत्वा । इति चिन्तयतोर्मन्ये स्तनयोः कृष्णं मुखं जातम् ॥ ] इति मनसि चिन्तयतां स्तनानां कृष्णं मुखं जातम् । किं तद् इत्याह । उन्नएहि होऊण उन्नतै
१w. एमेअ; २ w. पोह; ३w. कसणं;
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गाहाकोसो
[१.८६W84 ८६) सो तुह कएण सुंदरि तह झीणो सुमहिलो हलियउत्तो ।
जह से मच्छरिणीइ वि दुच्चं जायाइ पडिवन्नं ॥८६॥ W85 ८७) दक्खिण्णेण वि इंतो सुहय मुहावेसि अम्ह अंगाई ।
निक्कइयवाणुरत्तो सि जाण का निव्वुई ताणं ॥८७॥ भूत्वा पश्चात् पुट्टवडिएहि दुक्खं अच्छिज्जइ जठरउदरपतितैः दुःखमास्यत इति । उन्नतं पदं प्राप्यते तदनु उदरभरणमात्रसस्तैः स्थीयते, इति आत्मनो अवस्थाम् अवश्यंभाविनी भावयत इव स्तनमण्डलस्य मुखमालिन्यं जातम् इत्यर्थः । अत्र प्रयुक्त्या कयाचिद् अन्तर्वत्नोत्वं सूचितम् इति ज्ञेयम् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥८५॥
८६) कृतपुराशोलस्य (? कृतपुण्यशीलस्य)। [स तव कृते सुन्दरि तथा क्षीणः सुमहिलो हालिकपुत्रः । यथा तस्य मत्सरिण्याऽपि दोत्यं जायया प्रतिपन्नम् ॥ काचित् कस्यांचित् नायकानुरागं प्रकटयितुमिदमाह । सो तुह कएण स त्वदर्थे हलिअउत्तो हालिकसुतः तह झीणो तथा क्षीणः जहा से दुच्च जायाइ पडिबन्नं यथा तस्य जयया दौत्यं प्रतिपन्नम् । कथंभूतया जायया । मच्छरिणीइ वि मात्सर्यवत्यापि । कथंभूतः स हालिकसुतः । सुमहिलो शोभनभायः । यत एव शोभना, अत एव पत्युः प्राणपरित्राणाय मत्सरं मुक्त्वा तया तद्दयितया दौत्य प्रतिपन्नम् । अन्ये तु सुमहिलो शोभनभार्याऽपि यदसौ तव संगमाय कार्यम् नभवति तेन त्वमेव तद्भार्याया अधिकशोभासौभाग्यभावभाजिनीति दर्शितम् इत्याहुः । दौत्यभिति सख्याः तद्योगः । मच्छरिणी असहनशीला ॥८६॥
८७) निघट्टस्य। [दाक्षिण्येनाप्यायन् सुभग सुखयस्यस्माकमङ्गानि। निष्कतवानुरक्तोऽसि यासां का निर्वृतिस्तासाम् ॥] काचिद् अन्याङ्ग
१w. मच्छरिणीअ वि. २w. दोच्चं. ३w. हिअआइं ४w. णिक्कइअवेण जाणं गओ सि.
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४१
-१. ८९]
पढम सयं W86 ८८) इक्कं पहरुव्यायं हत्थं मुहमारुएण वीयंतो ।
सो वि हसंतीइ मए गहिओ बीएण कंठम्मि ॥८८॥ W89 ८९) मुहमारुएण तं कण्ह गोरयं राहियाइ अवणितो ।
एयाण बल्लवीणं अन्नाण य गोरयं हरसि ॥८९॥ नागोत्रग्रहणेन अन्येव (2) आकारेङ्गितलिङ्गेन कृतकानुरागमनुमाय नायकमिदमाह । हे सुहय सुभग दक्खिण्णेण वि इंतो सुहावेसि अम्ह अंगाई दाक्षिण्येनापि आगच्छन् सुखयसि अस्माकम् अङ्गानि । निष्कैतवमनुरतोऽसि यासां का निवृतिस्तासाम् । कः सुखनिवेशो, नाहमवधारयितुं समर्थेत्यर्थः ॥८७॥
८८) आदिवराहस्य । [एक प्रहारपीडितं हस्तं मुखमारुतेन वीजयन् । सोऽपि हसन्त्या मया गृहोतो द्वितीयेन कण्ठे ॥] काचित् स्वरहस्यं सख्याः कथयति । सो वि मए इक्कं पहरुव्वायं हत्थं मुहमारुएण वीयंतो सोऽपि मया एकं प्रहारपीडितं पाणिं मुखमारुतेन वीजयन् बीएण गहिओ कंठम्मि द्वितीयेन गृहीतः कण्ठे । कथंभूतया । हसंतीइ हसन्न्या । अथासौ सहसा अपराधक्रोधान्धया मया कान्तः करतलेन ताडितः । ततोऽसौ स्वीयां तथा परुषपाणिप्रहारवेदनामनादृत्य प्रत्युत तमेव हस्तं मुखनिःश्वासमारुतेन सुखयितुं प्रवृत्तः । ततः प्रत्यावृत्तप्रीत्या विहस्य मया तदितरकरेण कण्ठे गृहीत इत्यर्थः । उव्वायं पीडितम् । धृष्टो नायकः । कृतदोषोऽप्यविशङ्को न विलक्षस्तर्जितोऽपि निर्लज्जः । स तु निर्दिष्टो धृष्टो मिथ्यावाग् दृष्टदोषोऽपि ॥ अधीरा नायिका । ताडयति पतिमधीरा कोपात् संतय॑ संतयॆ ॥८८॥
८९) पृथिव्याः । [मुखमारुतेन त्वं कृष्ण गोरजो राधिकाया अपनयन् । एतासां बल्लवीनाम् अन्यासामपि गौरवं हरसि ॥] हे कण्ह कृष्ण तं त्वं मुहमारुएण राहियाइ गोरयं अवणिंतो मुखमारुतेन राधाया -गोरजो अपनयन् एयाण बल्लवीणं अन्नाण वि एतासां बल्लवीनाम
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४२ गाहाकोसो
[१.९०W87 ९०) अवलंबियमाणपरंमुहोइ इंतस्स माणिणि पियस्स । _ 'पिट्टिपुलउग्गमो से कहेइ समुहट्ठियं हिययं ॥९०॥ W88 ९१) जाणइ जाणावेउं अणुणयविद्दवियमाणपरिसेसं ।
पैइरिक्कि च्चिय विणयावलंबणं स च्चिय कुणंती ॥११॥ अन्यासामपि गोरयं हरसि गौरवं हरसि इति चित्रम् । वस्तुतस्तु (न) विरोधोऽयम् । यत एकत्र गोरयं गोरजः अन्यत्र गौरवम् । राधालानं रजो वदनपवनेन प्रोत्सारयन् इतरगोपीमुखानि मलि(नि)मानम् आनयसोत्यथैः । विशेषोऽलंकारः । यत्रान्यत् कुर्वाणो युगपत् कर्मान्तरं च कुर्वीत । कर्तुमशक्यं कर्ता विज्ञेयोऽसौ विशेषोऽन्यः ॥ रुद्रट, ९, ९) ।। ८९ ॥
९०) पुट्टिसस्स । [अवलम्बितमानपराङ्मुख्या आयतो मानिनि प्रियस्य । पृष्ठपुलकोद्गमस्तस्य कथयति संमुवस्थितं हृदयम् ॥] से तस्याः पिद्विपुल उग्गमो पृष्ठपुल कोद्गमः समुट्टियं हिययं कहेइ संमुखस्थितं हृदयं कथयति । कस्य । इंतस्स हे माणिणि पियस्स आगच्छतो मानिनि प्रणयिनः । कथंभूतायास्तस्याः । अवलंबियमाणपरंमुहीइ अबलम्बितमानपराङ्मुख्याः । तददर्शनादिव (? तददर्शनेऽपि) रोमाञ्चेन प्रेमाभिमुख्यं प्रिये प्रकटितम् इत्यर्थः । विरोधोऽलंकारः । मानिनीयम् ।। ९० ॥
९१) रेवत्याः । [जानाति ज्ञापयितुम् अनुनयविद्रावितमानपरिशेषम् । प्रतिरिक्त एव विनयावलम्बनं सैव कुर्वती ॥] काचित् कस्याश्चिद् उत्तमनायिकायाः मानशेषसूचनवैदग्धों वर्णयितुम् इदमाह । स च्चिय जाणावेउं जाणइ सैव ज्ञापयितुं जानाति । किम् । अणुणयविद्दवियमाणपरिसेसं अनुनयविद्रवितमानपरिशेषम् । किं कुर्वती । पइरिक्कि च्चिय विणयावलंबणं कुणंती एकान्तेऽपि विनयाबलम्बनं कुर्वती । विनयपथेन १w. पुट्टि; २w. तुह; ३w. पइरिक्कम्मि बि
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-१.९४ ]
पढमं सयं W90 ९२) किं ताव कया अहवा करेसि काहिसि य सुहय इत्ताह' ।
अवराहाण अलज्जिर साहसु कयरा खमिज्जति ॥९२॥ W91९३) नूमति जे पहुत्तं कुवियं दास व्य जे पसायंति ।
ति च्चिय महिलाण पिया सेसा सामि च्चिय वराया॥९३॥ W92 ९४) तइया कयग्ध महुयर न रमसि अन्नासु पुप्फजाईसु ।
बद्धफलडाँ मालइ त्ति इन्हि परिच्चयसि ॥९४॥ . यथानुवर्तते तथा अनुमीयते अद्यापि मानशेषमेषा वहतीत्यर्थः । स्वीया ....धीरा नायिका । सा समधिकमाद्रियते धोरा कान्ते कृतापराधेपि । भाकारसंवृतिपरा सुरतेऽपि प्रस्तुत उदास्ते ॥९॥
९२) ग्रामकुट्टिकायाः । [किं तावत् कृता अथवा करोषि करिष्यति च सुभगेदानीम् । अपराधानां निस्त्रप कथय कतरे क्षम्यन्ते ॥ ] कयाचित् कृतापराध आवर्जनाय नायको अन्याङ्गनागोत्रेण अनुनयन् इदमुच्यते । हे अलज्जिर साह अवराहाण कयरा खमिज्जंति निर्लज्ज कथय अपराधानां मध्ये कतरे अपराधाः क्षम्यन्ते । कि ताव सुहय कया अहवा करेसि काहिसि किं तावत् कृताः सुभग अथवा करोषि यान् करिष्यसि वा यान् । न तवापराधानामन्तोऽस्तीति भावः । खण्डिता नायिका । दोषाधिकरणं (? दोषाविष्करणं) कोपाङ्गम् । अमाविषादास्तथा व्यभिचारिभावाः ॥१२॥
९३) [छादयन्ति ये प्रभुत्वं कुपितां दासा इव ये प्रसादयन्ति । त एव महिलानां प्रियाः शेषाः स्वामिन एव वराकाः ॥ ] ति च्चिय महिलाण पिया त एव महिलानां प्रियाः । क इत्याह । जे पहुत्तं नूमंति ये (प्रभुत्वं) प्रच्छादयन्ति । कुवियं दास व जे पसायंति कुपितां दासा इव ये प्रसादयन्ति । अन्ये तर्हि क इत्याह । सेसा सामि च्चिय वराया शेषाः स्वामिन एव वराकाः । नितम्बिनीनां न तासां मनांसि आवर्जयन्तीत्यर्थः ॥९३॥ 1w. एत्ताहे; 2w. खमिज्जंतु; 3w. ण कुणंति; 4w. बद्धफलभारगरुई मालइमेण्हि.
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४४
गाहाकोसो
[१.९५W93 ९५) अवियण्हपिच्छणिज्जेण तक्खणं मामि तेण दिद्वेण ।
सिविणयपीएण व पाणिएण तण्ह च्चिय न फिट्टा ॥९५।। W94 ९६) मुयणो जं देशमलंकरेइ तं चिय करेइ पवसंतो ।
गामासन्नुम्मूलियमहावडट्ठाणसारिच्छं ॥९६॥
९४) [तदा कृतघ्न मधुकर न रमसेऽन्यासु पुष्पजातिषु । बद्धफला मालतीति इदानी परित्यजसि ।।] हे कयग्घ महुयर कृतघ्न मधुकर तइया न रमसि अन्नासु पुप्फजाईसु तदा न रमसेऽन्यासु पुष्पजातिषु । इन्हि इदानीं बद्धफलडया मालइ त्ति परिच्चयसि बद्धफला गुर्वीयमिति मालती परित्यजसि । कोऽयं नयः । चिरनरं खलु रतिसुखमनुभूय अन्तवनीत्यनुपभोग्यां यतो मां परिहरति (! यस्ता परिहरति) स एवं भङ्गिभणित्याऽभिधीयत इति । अन्यापदेशोऽलंकारः ।।९४॥
९५) मातङ्गस्य । [अवितृष्णप्रेक्षणीयेन तत्क्षणं सखि तेन दृष्टेन । स्वप्नपीतेनेव पानोयेन तृष्णा एव न नष्टा ॥ ] काचिदभीष्टावलोकनसु. खामृतस्य नतृप्ता इदमाह । अवितृष्णप्रेक्षणीयेन तत्क्षण तेन दृष्टेन तृष्णैव न व्यपगता । केनेव । सिविणयपीएण व पाणिएण स्वप्नपोतेन पानीयेनेव । यथा खलु स्वप्नसमयपीतं पानीयं तृषं न मध्नाति तथा तदर्शनम् । रूपसौभाग्यभङ्गितं भणित्वोक्तिर्भवति ()। उपमापर्यायोक्तिभ्यां संसृष्टिरलंकारः ॥१५॥
९६) बटुकस्य। [सुजनो यं देशमलंकरोति तमेव करोति प्रवसन् । ग्रामासन्नोन्मूलितमहावटस्थानसदृक्षम् ॥] जं चिय देसं सुयणो अलंकरेइ यमेव देशं सुजनोऽलंकरोति मण्डयति तं चिय पवसंतो गामासन्नुम्मूलियमहावडट्ठाणसारिच्छं करेइ तमेव प्रवसन् देशान्तरं व्रजन् ग्रामासन्नोन्मूलितमहावटस्थानसदृशं करोति । यं प्रदेशम् अध्यास्ते तं सत्पुरुषः प्रसा
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-१.९८] - पढमं सयं W95 ९७) सो नाम संभरिज्जइ पम्हसइ खणं पि जो हु हिययाहि ।
संभरियव्वं च कयं गयं च पिम्मं निरालंबं ॥१७॥ N96 ९८) नासं व सा कबोले अज्ज वि तुह दंतमंडलं बाला ।
उभिन्नपुलयवइवेढपरियरं रक्खइ वराई ॥९८॥ धयति । यं च मुञ्चति स शून्यो भवति । सुजनप्रशंसा । इयमपि उपमापर्यायोक्तिसंसृष्टिरलंकारः ॥९॥
९७) फरकुन्तस्य । [स नाम संस्मर्यते प्रवसति क्षणमपि यः खलु हृदयात् । संस्मतव्यं च कृतं गतं च प्रेम निरालम्बम् ॥ ] काचित् प्रवासप्रत्यावृत्तेन कान्तेन, मामनुस्मरन्ती भवती स्थिता उत नेति पृष्टा सतीदमाह । सो नाम संभरिज्जइ स नाम संस्मर्यते पम्हुसइ खणं पि जो हु हिययाहि प्रवसति क्षणमपि यः खलु हृदयात् । संभरियवं च कयं गयं च पिम्मं निरालंबं संस्मर्तव्यं च कृतं गतं च प्रेम निरालम्बम् । संभरियव्वं इति भावसाधनम् । त्वं तु मम हृदये सर्वदा वससीति स्मरणम् अनुपपन्नम् । प्रेयःसमुच्चयाभ्यां संसृष्टिरलंकारः ॥९७॥ . ९८) वाक्पतिराजस्य । [न्यासमिव सा कपोले अद्यापि तव दन्तमण्डलं बाला । उद्भिन्नपुलकवृतिवेष्टनपरिकरं रक्षति वराकी ॥] काचित् स्वसख्याः नायकस्य पुरतः प्रेमातिशयं भङ्गया अभिधातुमाह । सा बाला वराई अज्ज वि तुह दंतमंडलं कवोले रक्खइ सा बाला वराकी अद्यापि त्वया दत्तं दन्तवणं कपोले रक्षति । कमिव । न्यासमिव निक्षेपमिव । कथंभूतम् । उब्भिन्नपुलयवइवेढपरियरं उद्भिन्नपुलकवृतिनेष्टनपरिकरम् । यत् किल रक्षणीयं तत् कण्टकादिभिः परिवार्यत इति । अत एव च रोमाञ्चनिचितगण्डमण्डलतया तस्मिन् यूनि रागातिरेकः प्रकाशितः । इत्थंभूतायाम् अपि तस्यां त्वं शिथिलादर इति वराकीपदेन प्रकटितम् । दन्तमण्डलमिह अर्थाद् दन्तक्षतमेव । पुलकः सात्त्विको भावः । १ w. पन्भसिओ जो खणं पि. २w. परिगयं;
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४६ गाहाकोलो
[१.९९W168 ९९) अच्छउ ताव मणहरं पियाइ मुहदसणं अइमहग्छ ।
तग्गामछित्तसीमा वि झत्ति दिट्ठा सुहावेड ॥९९॥ W97 १००) दिट्ठा चूया अग्घाइया सुरा दाहिणाणिलो सहिओ।
कज्जाई चिय गरुयाइँ मामि को वल्लहो कस्स ॥१०॥ तदुक्तम् । स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमाञ्चः स्वरभेदोऽथ वेपथुः । वैवर्ण्यमश्र प्रलय इत्यष्टौ सात्त्विका गुणाः ॥ उपमापर्यायोक्तिभ्यां संसृष्टिरलंकारः । प्रियोपालम्भः सखीकर्म ॥९८॥
९९) स्थिरसाहस्य (! स्थिर साहसस्य)। [आस्तां तावन्मनोहरं प्रियाया मुखदर्शनम् अतिमहाघम् । तद्ग्रामक्षेत्र सीमाऽपि झगिति दृष्टा सुस्वयति ॥] अच्छउ ताव पियाइ मुहदंसणं आस्तां तावत् प्रियाया मुखेन्दुदर्शनम् । कीदृशम् । मणहरं मनोहरम् । अत एव अइमहग्धं अतिमहाघम् । तग्गामछित्तसीमा वि झत्ति दिट्ठा सुहावेइ तद्ग्रामक्षेत्र-. सीमाऽपि झगिति दृष्टा सुखयति ॥९९।।
१००) महिषासुरस्य । [दृष्टाचूता आघ्राता सुरा दक्षिणानिलः सोढः । कार्याण्येव गुरूणि सखि को वल्लभः कस्य ।।] दिट्ठा चूया दृष्टा
चूता अवलोकितम् आम्रवनम् । अग्घाइया सुरा तथा आघ्राता सुरा । दाहिणाणिलो सहिओ मलयानिलः सोढः । एतदुक्तं भवति । मुकुलिताम्रदर्शनेन सुरभिसुरागन्धेन मनोज्ञमलयानिलेन च उद्दीपनविभावेनासौ अत्रैवानुपयातः । स्मरस्मरतिः (: जातस्मररतिः !) तद्वियोगेनाहं विपन्नेति । अतोऽनुमीयते कज्जाई चिय गरुयाइँ मामि को वल्लहो कस्स कार्याण्येव गुरूणि सखि कः कस्य वल्लभः, न कश्चित् कस्यापीत्यर्थः । दक्षिणानिलः सोढ इति वसन्तागमनं सूचयति । अत एव दिट्टा च्या इति नवमञ्जरीसनाथा इति ज्ञेयम् । मङ्गल्यमिति (2) उत्सवेऽपि विरहिणोनां तत्पानाभावात् ॥१०॥ इति श्रीभुवनपालविरचिते छेकोक्तिविचारलीलायां श्रीसातवाहनकृते
गाथाकोशे प्रथमं शतं समाप्तमिति ॥ . १w. दाव; २w. दक्खिणाणिलो
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बीयं सयं W98 १०१) रमिऊण पयं पि गयो जाहे अवगृहए पडिणियत्तो।
अहयं पउत्थवइय व्च तक्खणं सो पवासि व्व ॥१॥ w99 १०२) अवियण्हपिच्छणिज्जं समदुक्खमुहं विइण्णसम्भावं ।
अन्नुन्नहिययलग्गं पुण्णेहि जणो जणं लहइ ॥२॥
१०१) रत्वा पदमपि गतो यदाऽवगृहति प्रतिनिवृत्तः। अहं प्रोषितपतिकेव तत्क्षणं स प्रवासीव ॥] ओं नमो जिनाय । काचिदात्मनः प्रियतमे प्रेम स्वसौभाग्यं च मझ्याऽभिधातुमिदमाह । रमिऊण पयं पि . गओ रत्वा पदमपि गतः जाहे अवगूहए पडिणियत्तो यदाऽवगृहति प्रतिनिवृत्तः । अहयं पउत्थवइय व अहं प्रोषितपतिकेव तक्वणं सो पवासि व्व तत्क्षणं स प्रियतमः प्रवासीव ज्ञातः ( ? जातः ) इत्यध्याहार्यम् । चिरविरहदुःखमनुभूय प्रवासावसानसंगतयोरिव आवयोरधिकं प्रेमारम्भनिर्भर रिरंसा संजातेत्यर्थः । स्वाधीनभर्तृका नायिका । प्रस्तुतविचित्र सुरतक्रीडासुखलाभलालसो यस्याः । भुञ्चति पतिर्न पार्श्व सा स्यात् स्वाधीनपतिकेति ॥ अनुकूलो नायकः ॥१०॥
१०२) नन्नराजस्य । [अवितृष्णप्रेक्षणीयं समदुःखसुखं वितीर्णसद्भावम् । अन्योन्यहृदयलग्नं पुण्यैर्जनो जनं लभते ॥] काचिदात्मेच्छानुरूपं पतिमनाप्नुवती सखेदमिदमाह । पुण्यैर्जनो जनं लभते । कीदृशम् । अवियोहपिच्छणिज्जं अवितृष्णप्रेक्षणीयं सुन्दरम् । कदाचित् सुन्दरोऽपि समदुःखसुखो न स्यादित्यत आह । समदुक्खसुहं समदुःखसुखम् । कदाचिद् दाक्षिण्येन समदुःखसुखता भवतीत्याह । विइण्णसम्भावं वितीर्णसद्भावम् । एवमपि कदाचित् परस्परप्रेमपात्रं न भवतीत्याह । अन्नुन्न१w. उवऊहिउं; २w. पडिणिउत्तो; ३w. समसुहदुक्खं ४w. अण्णोण्ण
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४८ गाहाकोसो
२. ३W100 १०३) दुक्ख दितो वि सुहं जणेइ जो जस्स वल्लहो होइ ।
दइयणहमियाण वि वड्ढइ थणयाण रोमंचो ॥३॥ - W191 १०४) चिरिडि पि अयाणंता लोया लोएहि गारवग्धविया ।
मुण्णारेतुल व्य निरक्खरा वि खंधेण वुझंति ॥४॥ हिययलग्गं अन्योन्यहृदयलग्नम् । एवंभूतं पतिं धन्या प्राप्नोति, अहं पुनरधन्या यन्नेदृशं पति प्राप्तेत्यर्थः ॥१०२॥ - १०३) धर्मणस्य । [दुःख दददपि सुखं जनयति यो यस्य वल्लभो भवति । दयितनखदूनयोरपि वर्धते स्तनयो रोमाञ्चः ॥] जो जस्स वल्लहो होइ यो यस्य वल्लभो भवति स तस्य दुक्खं दितो वि सुहं जणेइ दुःख ददपि सुख जनयति । अमुमेव चार्थम् अर्थान्तरन्यासेन समर्थयति । दइयणहदूमियाण वि वड्ढइ थणयाण रोमंचो दयितनखदूनयोरपि वर्धते स्तनयो रोमाञ्चः । रोमाञ्चस्थायी हर्षोद्भवो भावः स दयितनखदूनयोरपि स्तनयोदृश्यते इति प्रकृतार्थसमर्थनम् । बहुसुखसाधनं न स्वल्पदुःखमपि दुःखं करोति यथा स्वर्गाप्तिहेतुकयागे छागादिवधमात्रं, यथा वा प्रचुरफलाभिलाषुकाणामपि अल्पबीजवपनव्ययो न दुःखाय जायते तथेदमपीत्यर्थः । दूमियं पीडितम् ॥१०३॥
१०४) नरनाथस्य । [ओष्ठस्फुरणमप्य जानन्तो लोका लोकैौरवार्षिताः । स्वर्णकारतुलेव निरक्षरा अपि स्कन्धे नोह्यन्ते ॥] लोया लोएहि खंधेण वुझंति लोका लोकैः स्कन्धेनोह्यन्ते गौरवेण दृश्यन्त इत्यर्थः । गारवग्घविया गुरुतया महार्घता नीताः । पुनः कीदृशाः । चिरिडि पि अयाणंता ओष्ठस्फुरणेऽप्यनभिज्ञाः । दूरे वाग्मिता तावदित्यर्थः । सुण्णारतुल व्व निरक्स्वरा वि स्वर्णकारतुलेव निरक्षरा अपि । स्वर्णकारतुला यथा निरक्षराऽपि स्कन्धेनोह्यते तथा तेऽपीत्यर्थः । चिरिडिं ओष्ठस्फुरणम् । अक्षरं (? अक्षराणि) चात्र वर्णाः अन्यत्र परिमाणालेख्याक्षराणि । उपमालंकारः ॥१०४॥
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-२.७ ]
बीय सयं
१२
W192 १०५) आयवंतकवोलं खलियक्खरजंपिरि फुरंतुहि ।
मा छिवसु ति सरोसं समोसरंति पियं भरिमो ॥५॥ W333 १०६) मुहविज्झवियपईवं उससियणिरुद्धसंकिरुल्लावं ।
सवहसयरक्खिउटुं चोरियरमियं सुहावेइ ॥६॥ W573 १०७) मयणग्गिणु ब्व धूमं मोहणपिच्छं व लोयदिट्ठीए ।
जुव्वणधयं व मुद्धा वहइ मुधं चिहुरंभारं ॥७॥
१०५) हालस्य । [माताम्रान्तकपोलां स्खलिताक्षरजल्पिनी स्फुरदोष्ठीम् । मा स्पृशेति सरोषं समपसरन्तीं प्रियां स्मरामः ॥] प्रियं भरिमो प्रियां स्मरामः । कथंभूताम् । मा छिवसु त्ति सरोसं समोसरंतिं मा स्पृशेति सरोषं समपसरन्तीम् । पुनश्च कीदृशीम् । आयंबंतकवोलं आताम्रान्तकपोलाम् । वलियस्वरजपिरि स्खलिताक्षरजल्पनशीलाम् । फुरन्तुढेि स्फुरदोष्ठीम् । आताम्रान्तकपोलादयः शारीराः कोपानुभावाः । प्रणयकलहकुपिताऽपि सा कमनीयमूर्तिरित्यर्थः । अन्ये तु मदिरामदमाचक्षते । वचनं यत्राव्यक्तं व्यक्तीकृतसकलमन्मथावस्थम् । न्यक्कृतनूपुरमणितं वान्मन्दमुद्वारम् (१) इत्यादि तस्य लक्षणम् । स्मृतिर्व्यभिचारी भावः । जातिरलंकारः ॥१०५॥
१०६) मदाहडस्य । [मुखनिर्वापितप्रदीपं निरुद्धोच्छ्वसितशङ्कितोल्लापम् । शपथशतरक्षितौष्ठं चौर्यरतं सुखयति ॥ ] चोरियरमियं सुहावेइ प्रच्छन्नसुरतं सुखयति । कीदृशम् । मुहविज्झवियपईवं मुखवातनिर्वापितप्रदीपं, ऊससियणिरुद्धसंकिरुल्लावं निरुद्घोच्छ्वसितशङ्कितालापम् । प्राकृते विशेषणस्य पूर्वनिपातानियमः । पुनरपि च कथंभूतम् । सवहसयरक्खिउठं शपथशतरक्षितोष्ठम् । जातिरलंकारः ॥१०६॥
१०७) विरहानलस्य । [मद नाग्नेरिव धूमं मोहनपिच्छमिव लोकदृष्टेः । यौवनध्वजमिव मुग्धा वहति सुगन्धि चिकुरभारम् ।। ] मुद्धा मुग्धा १w. णिरुद्धसास ससंकिउल्लावं; २w. चिउरभारं.
४
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५० गाहाकोसो
[२.८W747 १०८) दे यो दुमसु तुमं चिय मा परिहर पुत्ति पढमदुमियं ति ।
किं कुड्डू नियमुहयंदकंतिदुमियं न लक्खेसि ॥८॥ W101 १०९) धरिओ धरिओ वियलइ उवएसो से सहोहि दिज्जतो।
मयरद्धयबाणपहारजज्जरे तीइ हिययम्मि ॥९॥ चिहुरभारं चिकुरभारं वहइ वहति । कीदृशम् । सुयंधं सुरभिगन्धम् । किमिव । मयणग्गिणु व्व धूमं मदनाग्निधूममिव । मोहणपिच्छं व लोयदिठोए मोहनपिच्छमिव लोकदृष्टेः । जुव्वणधयं व यौवनध्वजमिव । मालोस्प्रेक्षाऽलंकारः । केशप्रशंसापरेयं गाथा । चिहुरभारं इति स्फटिकनिकपचिकुरेषु हः (वररुचि, २, ४) इति कस्य हत्वे रूपम् ॥१०७।।
. १०८) कच्छाहनरस्य । [अहो धवलय त्वमेव मा परिहर पुत्रि प्रथमधवलितमिति । किं कुड्यं निजमुखचन्द्र कान्तिधवलितं न लक्षयसि॥] काचित् खगण्डमण्डलच्छायाछुरितं मुग्धा सुधारसेन धवलितम् इति भ्रान्त्या स्वभवनभित्तिभागमवलोकयन्ती कयाचिदिदमुद्यते । दे या अहोऽर्थे । दुमसु तुम चियं धवलय त्वमेव । मा परिहर पुत्ति पढमदुमियं ति मा परिहार्षीः पुत्रि प्रथमधवलितमिति । किं कुडे न लक्खेसि किं कुड्यं न लक्षयसि । कीदृशम् । नियमुहयंदकंतिदुमियं निजमुखचन्द्रकान्तिधवलितम् । मुग्धोमुखेन्दुद्युतिवर्णनपरेयं गाथा । चिय इति पदं भिन्नक्रमं कु९ इत्यतः परं द्रष्टव्यम् । दे या इति अहो इत्यर्थे निपातः । इति हेतौ । भ्रान्तिमत्पर्यायोक्तिभ्यां संकीर्णोऽलंकारः ॥१०८॥
१०९) श्रीस्वामिनः । [धृतो घृतो विगलति उपदेशस्तस्याः सखीभिर्दीयमानः । मकरध्वजबाणप्रहारजर्जरे तस्या हृदये । ] से सहीहि दिज्जतो उवरमो धरिओ धरिओ वियलइ तस्याः सखीभिरुपदेशो दीयमानो धृतो धृतो विगलति स्रंसते । क्व । हियए हृदये । कीदृशे । मयरद्धयबाणपहारज जरे मकरध्वजबाणप्रहारजर्जरे, इति विशेषणद्वारेण कारणोक्तिः । यत एव जर्जरं तत एव तस्मात् सखीशिक्षोपदेशो अजस्रं विस्रंसते इति। १w. दइए (१). २w. पिअसहीहि.
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-२.११ ]
बोयं सयं WI02 ११०) तहेसंठियणिड्डक्कंतपिल्लपरिरक्खणिकदिन्नमणा ।
अगणियविणिवायभया पूरेण समं वहइ काई ॥१०॥ W103 १११) बहुपुप्फभरोणामिय भूमीगयसाह सुणसु विन्नत्ति ।
गोलायडवियडकुडंगमहुय सणियं गलिज्जासु ॥११॥ स्मरेण परायणा वर्तते इत्यर्थः । संभावनानुमानोत्प्रेक्षालंकारः । तदुक्तं वनोक्तिजीवितकारेण "संभावनानुमानेन" इत्यादि (वक्रोक्तिजीवित,३, २५) ॥१०९॥
११०) मानस्य । तथासंस्थितनीडोत्क्रान्तशिशुपरिरक्षणैकदत्तमनाः । अगणितविनिपातभया पूरेण समं वहति काकी ॥] पूरेण समं वहइ काई पूरेण पयःप्रवाहेण समं वहति काकी वायसवधूः । कोदशी। अगणियविणिवायभया अगणितविनिपातभया। पुनश्च कीदृशी। तहसंठियणिड्डक्कंतपिल्लपरिरक्खणिकदिन्नमणा तथास्थितनीडोत्क्रान्तपोतपरिरक्षजैकदत्तमनाः, इति विशेषणद्वारेण कारणोक्तिः। स्वपक्षपक्षार्थित (? प्रच्छादित) पोतपतनशङ्काकुला कुलायवर्तिप्रथमसंस्थानम् अशिथिलयन्ती स्वनाशं नाशकते । केवलं नदीपूरेण सह वहति वायसी। नीडशब्दस्य एत्वे द्वित्वे नेड्डु इति रूपम् । निड्डे कुलायम् । पिल्लः शिशुः । जातिरलंकारः । प्राकृते पूर्वनिपातानियमाद् एकशब्दस्य परनिपातः ॥११०॥
१११) ग्रामणीकस्य । [चहुपुष्पभरावनमित भूमिगतशाख शणु विज्ञप्तिम् । गोदातटविकटनिकुञ्जमधूक शनैः गल ॥] काचित् स्वैरिणी मधूकमिदमाह । हे गोलायडविय डकुडंगमहुय गोदावरीतटविकटगहनमधूक, बहुपुप्फभरोणामिय बहुपुष्पभरावनमित, भूमोगयताह भूमिगतशाख, सुणसु विन्नत्तिं शृणु विज्ञप्तिम् । किं तदित्याह । सणियं गलिज्जासु शनैगैल इति । स्वयि अनवरतं प्रचुरकुसुमोत्करं किरति अविरेग एव मम संकेतगमनमनोरथमङ्गो मा भूदित्यर्थः । कुडंगो गहनम् । कच्छस्तटम् (१)। आमन्त्रणपदोपादानद्वारेण सप्रशंसं प्रार्थ्यते इति ॥१११॥ १w. तडसंठिअणीडेक्कतपीलुआरक्खणेकदिगमगा; २w. भरोणामिअ- . भूमोगअसाह; ३ w. कुडंग महुअ.
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५२
गाहाको सो
[२. १२
W104 ११२) निष्पच्छिमाइँ असई दुक्खालोयाइँ महुयपुरका । चीए बन्धुस्स व अट्टियाइँ रुईरी समुच्चेई ॥१२॥ W105 ११३) हे हियय मडहसरियाजलरयहीरंत दोहदारु व्व । ठाणे ठाणि च्चिय लग्गमाण केणावि उज्झि हिसि ॥ १३॥
११२) महाइयस्स । [निष्पश्चिमानि असती दुःखालोकानि मधूकपुष्पाणि । चितायां बन्धोरिवास्थीनि रोदनशीला समुच्चिनोति ॥ ] असती मधूकपुष्पाणि समुच्चिनोति । कथंभूतानि । निष्पच्छिमाइँ निष्पश्विमानि अन्त्यानि । अत एव दुक्खालोयाइँ दुःखदायित्वाद् दुःखः आलोको दर्शनं येषां तानि दुःखालोकानि । कीदृशी । रुइरी रोदनशोला । कस्यां कस्य कानीव । चीए बन्धुस्स अट्टियाइँ व चितायां बन्धोरिक अस्थीनि दुःखदर्शनीयानि भवन्ति । अद्यैव खलु मम भग्नमनोरथायाः प्रियजनसंकेत संगमावसरः इति सबाष्पं पुष्पाव चयेन असतीभाव आविष्कृतः इति । निप्पच्छिमाइँ यतो अन्यानि पश्चिमानि न सन्तीति । असती स्वैरिणी । चीए इति सामान्यभाषाश्रयेण शब्दप्रयोगः । लोकः किल चीयशब्देन चितामाह । तद्भवतत्समदेशी सामान्यभाषाश्रयेण चतुर्विधं प्राकृतं पूर्वाचार्याः स्मरन्तीति । भावोपमाभ्यां संकीर्णोऽलंकारः ॥ ११२ ॥
११३) श्रीधर्मिलस्य । [हे हृदय तनुतरसरिज्जलरयहियमाणदीर्घदारु इव । स्थाने स्थान एव लगत् केनापि घक्ष्यसे ||] काचित् क्वचित् असदृशप्रेम्णि पुरुषे अनुरज्य पुरुषान्तरं कामयमाना स्वहृदये सखेदमि - दमाह । हे ठाणे ठाणि च्चिय लग्गमाण स्थाने स्थान एवं स्थितिं कुर्वत् । केणावि उज्झिहिसि केनापि दासे (? धक्ष्य से ) । किमिव । मडहसरियाजलर हीरं तदीहदारु व्व तनुतरसरिज्जलरयहियमाणदीर्घदारु इव । यथा किल तनुतरतरङ्गिणीरयहृतं स्थाने स्थाने संश्लिष्टं दीर्घकाष्ठमाकृष्य केनापि दह्यते तथा त्वमपि पुरुषं पुरुषं प्रति स्नेहानुबन्धबुद्धिमात्मनः ( कुर्वत्) केनापि दुर्विदग्धेन लक्षसंपातिरेकं (?) नेष्यस इत्यर्थः । मडहं तुच्छम् । ठाणं स्थानम् । उपमालंकारः ॥११३॥
१. रुअरी; २w. समुच्चिणइ, ३w. ओ हिअअ.
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-२.१५]
चीयं सय W107 ११४) गोलायडष्टिय पिच्छिकण गहवइसुयं इलियमुन्हा ।
आढत्ता उत्तरिउं दुक्खुत्ताराऍ पयवीए ॥१४॥ wl06 ११५) जो तीइ अहरराओ रतिं उव्वासिओ पिययमेण ।
सुच्चिय गोसे दोसइ सवत्तिवयणेसु संकंतो ॥१५॥
११४) दामोदरस्य । [ गोदातटस्थितं प्रेक्ष्य गृहपतिसुतं हालिकस्नुषा । आरब्धा उत्तरीतुं दुःखोत्तारया पदव्या ॥] दुक्खुत्ताराएँ पयवीए उत्तरिउ आढत्ता दुःखोत्तारया पदव्या उत्तरीतुम् आरब्धवती। किं कृत्वा । पिच्छिऊण दृष्ट्वा । कम् । गहवइसुयं गृहपतिसुतम् । कीदृशम् । गोलायडट्टियं गोदावरीतटस्थितम् । यत् किलासौ सत्यपि सुखाबहे गोदानदीतीरोत्तरणमार्गे मृगेक्षणा विषमेण तटिनीतटेन उत्तरोतुमैच्छत्, तदस्या मामेवमवेक्ष्य अयं ग्रामणोसुतः करावलम्ब करिष्यति, ततोऽहम् एतत्करकमलन्यस्तहस्तस्पर्शामृतम् अनुभविष्यामीति भावः । सुन्हा वधूः । पदवी मार्गः । इङ्गितलक्ष्यः सुक्ष्मालंकारः (काव्यदर्श, २, २६०) ॥११४॥ .
११५) महादेवस्य । [ यस्तस्या अधररागो रात्रावुद्वासितः प्रियतमेन । स एव प्रभाते दृश्यते सपत्नीवदनेषु संक्रान्तः ॥] जो तीइ अहरराओ रत्तिं पिययमेण उव्वासिओ यस्तस्या अधररागो रात्री उद्वासितः अपनीतः प्रियतमेन, सु च्चिय सवत्तिवयणेषु संकेतो गोसे दीसइ स एवं सपत्नीवदनेषु संक्रान्तो विभातवेलायां दृश्यते इति । तस्या हि निशायां प्रियतमपीतपोतमिति वोतरागमधरं प्रातनिरीक्षमाणा विपक्षवनिता ईर्ष्यारोषेण ताम्रवदनेन्दुबिम्बा बभूवुरित्यर्थः । उत्प्रेक्षालंकारः । तदिवेति तदेवेति तामुस्प्रेक्षां प्रचक्षते (वक्रोक्तिजीवित, ३, २६)। अयमेवोत्प्रेक्षाध्वनिः ध्वनिकारमतेन । श्रीभोजदेवमते तु व्यत्ययवत्यमुख्या परिवृत्तिरियम् । व्यत्ययो वस्तुनोर्यस्तु यो वा विनिमयो मिथः । तवयेनोभयवती निर्दिष्टा काव्यसुरिभिः (सरस्वतोकण्ठाभरण ३, २९-३०) ॥ त्रिधापि चासो मुख्यामुख्यभेदाद द्विधा पुनः ॥११५॥ १w. सोण्हा; २w. दीला गोसे
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गाहाकोसो
[२.१६W108 ११६) चलणोवासणिसण्णस्स तस्स भरिमो अणावलंतस्स ।
पायंगुहावेढियकेसदढायड्ढणमुहेल्लि ॥१६॥ W109 ११७) फालेइ अच्छभल्लं व उयह कुग्गामदेउलदारे ।
हेमंतयालपहिओ विज्झायंतं पलालग्गि ॥१७॥ W699 ११८) इन्हि वारेइ जणो तइया मूयल्लिओ कहिं व गमो ।
जाहे विसं व जायं सवंगपहोलिरं पिम्मं ॥१८॥
११६) [चरणावकाशनिषण्णस्य तस्य स्मरामोऽनालपतः । पादागुष्ठावेष्टितकेशदृढाकर्षणसुखम् ॥ ] तस्य नायकस्य पादाङ्गुष्ठावेष्टितकेशहढाकर्षणसुखं स्मरामः । कथंभूतस्य । चलणोवासणिसण्णस्स चरणावकाशनिषण्णस्य चरणपाोपविष्टस्य । पुनरपि कथंभूतस्य । अणालवंतस्स अनालपतः ॥११॥
११७) चमरस्य [पाटयति ऋक्षभल्लम् इव पश्यत कुग्रामदेवकुलद्वारे । हेमन्तकालपथिको वाध्यमानं (निर्वाप्यमाणं) पलालाग्निम् ॥] उयह पश्यत हेमंतयालपहिओ पलालग्गिं फालेइ हेमन्तकाले पथिकः पलालाग्निं पाटयति । विज्झायंतं निर्वाप्यमाणम् । क्व । कुग्गामदेउलदारे कुग्रामदेवकुलद्वारे । कमिव । अच्छभल्लं व ऋक्षमिव । य उपरि सर्वाङ्गनिर्वाणस्य लोमश्यामलिम्नः पाटितस्य पलालाग्नेः सदृश इति । अच्छभल्लो ऋक्षः । उपमालंकारः ॥११७॥
११८) कालियसिंहस्य । [इदानी वारयति जनस्तदा मूक इव कुत्र इव गतः । यदा विषमिव जातं सङ्गिप्रघूर्णनशीलं प्रेम ॥] काचित् प्रियतमे समुपोढप्रौढानुरागा सरवोजनेन केनचिद् हेतुना निवार्यमाणा इत्याह । इन्हि वारेइ जणो इदानी वारयति जनः । जाहे विसं व विसम सव्वंगपलोहिरं पिम्मं जायं यदा विषमिव सर्वाङ्गप्रघूर्णनशीलं प्रेम जातं, तइया मूयल्लिओ कहिं व गओ तदा तु मूकः क्वचिद् गत इव जोन
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-२.२०] W110 ११९) कमलायरा न मलिया हंसा उड्डाविया न य पिउच्छा ।
केण वि गामतलाए अभं उत्ताणैयं छूटं ॥१९॥ W700 १२०) कह तं पि तइ न नायं जह सा आसंदियाण बहुयाण ।
काऊण उत्तरै विडिं तुह दंसणलेहडा पडिया ॥२०॥ जातः । नवानुरागसुकरप्रतिक्रिये प्रेम्णि जनेन नाहं निवारिता माऽस्मिन् यूनि रज्येथा इति । इदानीं च विषमिव प्रेम सर्वाङ्गं सर्पति स्म । अतोऽस्य आरूढप्रौढिम्नः प्रतिक्रिया कर्तुं न पार्यत इत्यर्थः । मूयल्लिओ मूकः । जाहे यदा ॥११८॥
११९) मेघनादस्य । [कमलाकरा न मृदिता हंसा उडायिता न च पितृण्वसः । केनापि ग्रामतटाके अभ्रम् (अन्तरिक्षम्) उत्तानकं क्षिप्तम् ॥] काचित् संकेतोपान्तप्रदेशे प्रियमनागतं वीक्ष्य सब्रीडमर्धपथ एव व्यावृत्ता तदनागमनचिह्न विवृण्वतीदमाह । कमलायरा न मलिया हंसा उड्डाविया न य पिउच्छा इत्य|क्त एव पितृष्वसारं प्रेक्ष्य स्वेङ्गितलिङ्गं निगूहन्ती पुनरपीदमाह । हे पिउच्छा हे पितृष्वसः केण वि गामतलाए केनापि ग्रामतटाके अभं उत्ताणयं अभ्रम् उत्तानकं छूढं क्षिप्तम् । कमलायरा न मलिया कमलाकरा न मृदिताः, हंसा उड्डाविया हंसा उड्डापिताः (उड्डायिताः) न च । इह ग्रामतटाकस्यापि मध्ये अन्तरिक्ष निक्षिप्तं विकीर्णम् । कमलखण्डनम् उड्डयनं च इंसानां न जातमिति चित्रम् इत्येतेन स्वाशयप्रछादनम् । ते वृक्षा कीदृक्षा येषां मुक्ताफलं फलं भवति । चन्द्र जदीपनिभाते प्रतीक्षते हन्त तव कान्तः ।। यदि मदनः संनिहितः सदैव संभवति चूतमञ्जर्याः । प्रियसखि तदसावस्या विलोक्यते किं न भग्नायाम् ॥ सत्यं किमन्यदेशेऽपि दृश्यते व्योम्नि चन्द्रमुखि चन्द्रः । स्यादेवमादि वचन मौग्ध्यं बाल्ये व्यतीतेऽपि ॥११९॥ १२०) रसिकस्य । कथं तदपि त्वया न ज्ञातं यत् सा पीठिकानां बहूनाम् । कृत्वोपर्युपरिस्थापनं तव दर्शनलम्पटा पतिता ॥] काचित् कस्याश्चित १w. गामतडाए; २w. उत्ताणिअं; ३w. तुइ; ४w. उच्चवचिअं.
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गाहाको सो
[ २.२२
W111 १२१) केण वणे' भग्गमणोरहेण उल्लावियं पवासु ति । सविसाई व अलसायंति जेण क्हुयाएँ अंगाई ॥२१॥ W112 १२२) अज्ज वि बालो दामोयरो त्ति इय जंपिए जसोयाए । कण्हमुहपेसियच्छं निहुयं हसियं वयवहूहिं ||२२|
1
प्रियतमेऽनुरागं प्रकटयन्तोदमाह । कथं तदपि त्वया न ज्ञातं यत् पीठानां बहूनां कृत्वा उत्त्रिपिटिं ( ! ) तव दश नलम्पटा पतिता । स्वैरिणीचेष्टां सखी गोपयति । नैषा जारेण नखक्षतादिभिरुपद्रुता किंतु तब दर्शनार्थ बासनोपरिस्थिता जघनभारेण पतिता । न तु ईदृशी (जारेण हेतुना ?) संजाता । गतार्थी गाथा । अन्ये तु 'तं मि' इति पठन्ति । तत्र तं मि (=तं पि) इति द्वितीयैकवचनेऽपि भवति ( 1 ) । सप्तम्यास्तु दुर्घट: (दुर्घटम्) | आसन्दी पीठिका || उत्तरिविडि उपर्युपरिस्थापनम् । लेइडो लम्पटः ॥ १२०॥ १२१) मृगाङ्कस्य । [केन सखि भग्नमनोरथेन उल्लपितं प्रवास इति । सविषाणीवालसायन्ते येन वध्वा अङ्गानि ||] केण वणे पवासु त्ति उल्लावियं केन सखि ते प्रियप्रवास इति उल्लपितम् । कथंभूतेन । भग्गमणोरहेण भग्नमनोरथेन । कथं जानासीत्याह । सविसाइ व अलसायंति जेण अंगाई सविषाणोव अलसायान्ते येन अङ्गानि । कस्याः वहुयाए वध्वाः । यदि न कोऽपि एतस्याः प्रियप्रवास इति उदलपिष्यत्, नाङ्गानि अलसानि अभविष्यन् । वणे इति सखीसंबोधनम् । उल्लावियं इति प्रकटादिपाठाद् दीर्घत्वम् । अलसादिपाठात् अय्यन्तः (१ अण्यन्तः ?)| अनुमानालंकारः ॥ १२१ ॥
१२२) तारभेदकस्य । [ अद्यापि बालो दामोदर इति जल्पिते यशोदया । कृष्णमुखप्रेषिताक्षं निभृतं हसितं व्रजवधूभिः ||] निहुयं हसियं चयवहूहिं निभृतं हसितं व्रजवधूभिः । कस्मिन् सति । अज्न वि बालो दामोय चि इय जंपिए अथापि बालो दामोदर इति जल्पिते सति ।
१.. मणे; २w. संलाविअं.
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-२.२४]
बीय संयं W193 १२३) गोलाविसमोयारच्छलेण अप्पा उरम्मि से खित्तो'।
__ अणुयंपाणिदोसं तेण वि सा गाढमवऊँढा ॥२३॥ W113 १२४) ते विरला सप्पुरिसा जाण सिणेहो अभिन्नमुंहराओ।
___ अणुदियहवड्ढमाणो रिणं व पुत्तेसु संकमइ ॥२४॥ कया । जसोयाए यशोदया। कथं हसितम् । कण्हमुहपेसियच्छं कृष्णमुखप्रेषिताक्षं यथा भवतीति । जननीजनयोग्यं जल्पितं यशोदया । यथा च त्वं बालस्तथा वयं विम इति हरेः सहास्यम् आस्यकमलावलोकनं गोपीनामिति ॥१२२॥
१२३) नारायणस्य । [ गोदाविषमावतारच्छलेन आत्मा उरसि तस्य क्षिप्तः । अनुकम्पानिर्दोषं तेनापि सा गाढमवगूढा ॥] से तस्य वल्लभस्य उरम्मि अप्पा खित्तो उरसि आत्मा क्षिप्तः । कथम् । गोलाविसमोयारच्छलेण गोदावरीविषमावतरणलच्छलेन । स्खलिता हला अहम् इति तया तदङ्गसङ्गसुखलाभलालसया सकलजनसमक्षम् उरसि तस्य आत्मा क्षिप्तः । किमेतावदेव । न इत्याह । तेण वि सा गाढमवऊढा तेनापि सा गाढमुपगूढा । कथम् । अणुयंपाणिद्दोसं अनुकम्पानिर्दोषम् । इयं खलु तुङ्गात् सिन्धुरोधसोऽधस्तात् पतन्ती मा वराकी प्राणैर्वियुज्यतामिति अनुकम्पापदेशेन सर्वाङ्गमालिङ्गता इति । अवतारो घट्टः । सुक्ष्मोऽलंकारः ॥१२३॥
१२४) स्थिरवित्तस्य । ते विरलाः सत्पुरुषा येषां स्नेहो अभिन्नमुखरागः । अनुदिवसवर्धमान ऋणमिव पुत्रोषु संक्रामति ॥] ते विरला सप्पुरिसा ते विरलाः सत्पुरुषा जाण सिणेहो पुत्तेसु संकमइ येषां स्नेहः पुत्रोषु संक्रामति । कथंभूतः स्नेहः । अभिन्नमुहराओ अभिन्नमुखरागः, अनुपदर्शितवदनविकृतिरिति यावत् । पुनरपि कीदृशः। अणुदियहवड्ढ
माणो अनुदिवसवर्धमानः । किमिव । रिम ब ऋममिव । ऋणं खल्लु १. w मुक्को; २. w गाढमुवऊढा; ३. w अहिण्णमुहराओ...
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गाहाकोलो
[२.२५W114 १२५) नच्चणसलाहणासंणिहेण पार्सटिया निउणगोवी ।
सिरिगोवियाइ चुंबइ कवोलपडिमायं कण्हं ॥२५॥ W115 १२६) सन्यतै दिसामुहपसरिएहि अन्नुन(अन्नन्न) कडयळग्गेहि ।
__छल्लि व मुयइ विंझो मेहेहि विसंघडतेहिं ॥२६॥ अभिन्नमुखरागं प्रतिदिनसंचीयमानं पुत्रोषु संक्रामति इति । उपमालंकारः । सत्पुरुषप्रशंसापरेयं गाथा ॥१२४॥
१२५) मृगेन्द्रस्य । [नृत्यश्लाघनापदेशेन पार्थस्थिता निपुणगोपी । मुख्यगोपिकायाश्चुम्बति कपोलप्रतिमागतं कृष्णम् ॥] निउणगोवो कवोलपडिमागयं कण्हं चुंबइ निपुणगोपी कपोलप्रतिमागतं कृष्णं चुम्बति । कस्याः। सिरिगोवियाइ मुख्यगोपिकायाः । कथंभूता सा। पासट्ठिया पार्श्वस्थिता तत्पार्श्ववर्तिनी। कथं चुम्बति । नच्चणसलाहणासंणिहेण नृत्यश्लाघापदेशेन । सुललितललितैः पादपातैमनोहरैर्हरिणाक्षि त्वयाऽध साधु नृत्तमित्यभिधाय । गोपीकपोलपालीप्रतिफलितं कृष्णवदनेन्दुबिम्बं चुग्बति । अत एव निपुणेत्युक्तम् । सिरिशब्दो मुख्यपर्यायः । लेशोऽलंकारः॥१२५॥ १२६) गुरथस्य (!)। [सर्वत्र दिङ्मुखप्रसृतैः अन्योन्य (! अन्यान्य)कटकलग्नैः । त्वचमिव मुञ्चति विन्ध्यो मेधैर्विसंघटमानैः ।।] विंझो छल्लि व मुयइ विन्ध्यस्त्वचमिव मुञ्चति । कैः कीदृक्षैः । मेहेहि विसंघडंतेहि मेधैर्विसंघटमानैः । कथंभूतैः । अन्योन्य (? अन्यान्य) कटकलग्नैः । पुनरपि कीदृशैः । सव्वत्त दिसामुहपसरिएहि सर्वत्र दिङ्मुखप्रसृतैः । घटितविघटितैर्घनैर्विन्ध्याख्यः पर्वतः त्वचमिव मुञ्चतीत्यर्थः । ये किल गगनमपि स्वेच्छया प्रच्छादयितुमीशते ते तदीयकटकघटितविघटिताः तनुतरत्वग्रूपतां तन्वन्तीति महत्त्वं युक्त्या विन्ध्याद्रेर्वणितं भवति । कटकः पर्वतैकदेशः । छल्ली त्वक् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥१२६॥ १w. सलाहणणिहेण, २w. पासपरिसंठिया, ३w. सरिगोविआण, ४w. सम्वत्थ, ५W. अण्णोण्ण.
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-२.२९]
बीयं सयं W116 १२७) आलोयंति पुलिंदा पव्वयसिहरहिया धणुणिसण्णा ।
हत्थिउलेहि व विझं पूरिज्जतं नवम्भेहिं ॥२७॥ W117 १२८) वणेयवमसिमइलंगो रेहइ विझो घणेहि धवलेहिं ।
छीरोयमंथणुच्छलियदुद्धसित्तु व महुमहणो ॥२८॥ WI18 १२९) बंदीऍ निहयबंधववियणाएँ वि पक्कल त्ति चोरजुया।
___अणुराएण पुलइओ गुणेसु को मच्छरं वहइ ॥२९॥
१२७) कमलाकरस्य । [आलोकयन्ति पुलिन्दाः पर्वतशिखरस्थिता धनुर्निषण्णाः । हस्तिकुलैरिव विन्ध्यं पूर्यमाणं नवाझैः ।।] पुलिंदा विंझं मालोयन्ति पुलिन्दा विन्ध्यमालोकयन्ति । कथंभूतम् । पूरिज्जतं पूर्यमाणम् । कैः। नवब्भेहिं नवात्रैः। कैरिव । हत्थिउलेहि व हस्तिकुलैरिव । कथंभूतास्ते। पव्वयसिहरदिया धणुणिसण्णा पर्वतशिखरस्थिता धनुर्निषण्णाः । स्वभाव एव धनुष्मतां, यदि ते किंचित् कौतुकेनालोकयन्ति धनुषि निषीदन्ति । सजल जलधराणां श्यामलिम्ना महिम्ना च करिच्छालैः (१ करिकुलैः) सह साम्यम् । उपमालंकारः ॥१२७॥
. ११८) ललितस्य । विनदवमषीमलिनाङ्गो राजति विन्ध्यो धनधवलैः। क्षीरोदमथनोच्छजितदुग्धसिक्त इव मधुमथनः ।] विंझो रेहइ विन्ध्यः शोभते । कथंभूतः । वणयवमसिमइलंगो वनदवमषीमलिनाङ्गः । कैः शोभते । घणे हिँ धनैः । कथंभूतैः। धवलेहिं धवलैः । क इव । छोरोयमंथणुच्छलियदुद्धसित्तु व्व महुमहणो क्षीरोदधिमथनोच्छलितदुग्धसिक्त इव मधुमथनः । दावशब्दस्य हस्वत्वं यथादिगणपाठात् (वररुचि, १,१०)। उपमाऽलंकारः ॥१२८॥
१२९) कोहिलस्य (काहिलस्य) । [बन्द्या निहतबान्धववेदनयाऽपि समर्थ इति चौरयुवा । अनुरागेण प्रलोकितो गुणेषु को मत्सरं वहति ॥]. १w. वणदव; २w. खीरोअ, ३w. विमणाइ.
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गाहाको सो
[२.३०
W119 १३०) अज्ज कमो वि दियहो वाहवहू रूयजुवणुम्मइया | सोहर धणुरूपच्छलेण रच्छासु विकिरेइ ||३०॥ W122 १३२) बहुपितणुओ पायं परिणाऍ रक्खतो । अलिहिदुष्परियल्लं पि नेइ रगं घं वाहो ॥ ३१ ॥
बंदीऍ बन्या चोरजुवा चौरयुवा प्रलोकितः । केन । अनुशरण अनुरागेण । कथंभूतया तया । निहयबंधववियणाएँ वि निहतबान्धववेदनयाऽपि । निहतबान्धवानां वेदना यस्या इति बहुव्रीहिः । उपलक्षणे वा तृतीया । केन हेतुना तर्हि अवलोकित इत्याह । पक्कलु त्ति समर्थ इति । अमुमर्थं समर्थयन्नाह । गुणे को मच्छरं वह गुणेषु को मत्सरं वहति । पक्कलो समर्थः । मत्सरः असहिष्णुता । अर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः ॥ १२९॥
1
१३०) कृष्णराजस्य । [ अद्य कतमोऽपि दिवसो व्याधबधू रूपयौवनोन्मत्ता । सौभाग्यं धनुरुल्लेखनत्व कुछकेन रथ्यासु विकिरति ||] अञ्ज कमो वि दियहो अथ कतमोऽपि दिवसः । वाहवहू सोहग्गं रच्छासु विक्किरइ व्याधवधूः सौभाग्यं रथ्यासु विकिरति । केन । धणुरुंपच्छलेण धनुर्न वोल्लेख नत्वव्यपदेशेन । कीदृशी सा । रूवजुव्वणुम्मइया रूपयौवनगर्विता । तस्यां खल्वसौ शबरयुवा अत्यन्तमासक्तः शक्तिक्षयाद् अनुदिनं स्वधनुस्तनूकरोति । तद्वंशत्वचश्च सा तरुणी तारुण्योन्मादनमदेन सौभाग्यं मूर्तिमदिव रथ्यापथेषु विकिरत े त्यर्थः । रूपं त्वक् । उत्प्रेक्षाऽलङ्कारः ॥ १३० ॥
१३१) स्कन्ददासस्य । [ नववधूप्रेमतनूकृतः प्रणयं प्रथम गृहिण्या रक्षन् । अलिखितदुष्परिकर्षम् अपि नयत्यरण्यं धनुर्व्याधः ||] वाहो रणं
नेइ व्याधो धनुररण्यं नयति । कोदृशम् । अलिहियदुष्परियल्लं पि अलिखितम् अत एव च दुप्परियल्ले आक्रष्टुम् अशक्यम् इति | किमर्थं नियतीत्याह । पणयं पढमघरिणोऍ रक्तो प्रणयं प्रथमगृहिण्या रक्षन् । कथंभूतः । नववहुपिम्मतणुइओ नववधूप्रेम्णा तनूकृतः । अमुना १w. रूवजोव्वणुम्मत्ता; २. विक्खिरइ.
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-२.३३
बीयं सय W123 १३२) हासाविओ जणो सामलोएँ पढम पस्यमाणीए ।
वल्लहवाएण अलं मम त्ति बहुसो भणंतीए ॥३२॥ W124 १३३) कइयवरहियं पिम्मं नत्थि च्चिय मामि माणुसे लोए।
___“अह हुतं विरहो कस्स होइ विरहे य को जियइ ॥३३॥ कोमलचापाकुञ्चनचिह्नेन अन्यस्यामयम् आसक्तः इति मा मम प्रथमजायाजनो जानातु इति तत्प्रणयभङ्गभीरुभ्रषैव दुःखाकर्षणकर्म कामुक मृगयामही नयतीत्यर्थः । दुप्परियल्लं (आक्रष्टुम्) अशक्यम् । दक्षिणो नायकः । स्वण्डयति न पूर्वस्यां सद्भाव गौरवं भयं प्रेम (रुद्रट, १२, १०)। अन्यासक्तो मनागपि विज्ञेयो दक्षिणः स इति ॥१३१॥
१३२) कर्णपूरस्य । [हासितो जनः श्यामल्या प्रथमं प्रसूयमानया। वल्लभवाते (दे) न अलं ममेति बहुशो भणन्त्या ॥] सामलीऍ पढम पसूय-- माणीए जणो हासाविओ श्यामया प्रथमं प्रसूयमानया जनो हासितः । किं कुर्वत्या । वल्लहवाएण अलं मम त्ति बहुसो भणंतीए वल्लभवातेन अमुना अलं ममेति असकृद् जल्पनत्या । अत्र एतस्या मौग्ध्याद असमञ्जसभाषि-. णीत्वं सखी ननस्य हासहेतुः । वल्लहवाएण इति लोकोक्तिः । वल्लभवातेनेत्यर्थः ॥१३२॥
१३३) अनुरागस्य । [कैतवरहितं प्रेम नास्त्येव सखि मानुषे लोके । अथाभविष्यत् (अथ भवेत् ) विरहः कस्य भवति विरहे च को जीवति ॥] मामि सखि माणुसे लोए कइयवरहियं पिम्मं नस्थि च्चिय मनुध्यलोके कैतवरहितं प्रेम नास्त्येव । अह हुतं विरहो कस्स होइ विरहे य को जियइ अथ भवेदकृत्रिमं प्रेम विरहः कस्य भवतीति । नि
ाजं व्याजम्भमाणे प्रेम्णि न कश्चित् स्वभाया विरहय्य देशान्तरमनुसरेत् । अथ कथंचिद् विरहो भवति तदा तस्मिन् सति को जीवति न कश्चिदित्यर्थः । अमुना विरहे जीवितलिङ्गेन अकृत्रिमं प्रेम नास्तीति भावः । मामि इति सखीपर्यायः । मनुष्यलोको जीवलोकः। अनुमानालंकारः ॥१३३॥ १४. पसृअमाणाए, २w. अह होइ कस्स विरहो विरहे होंतम्मि को जिअइ..
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६२
गाहाकोसो
[२.३४
W125 १३४) अच्छे व निर्हि 'पित्र सुक्खं सग्गं व अमयपाणं व । आम्हि सो तो विणियंसणसणे तिस्सा ||३४|| W126 १३५) सा तुज्झ वल्लहा तं पिं मज्झ, वेसो सि तोई तुज्झ अहं । बालय फुडं भगामो पिम्मं किर बहुवियारं ति ||३५|| १३४) रामस्य । [आश्चर्यमिव निधिरिव सौख्यं स्वर्ग इव अमृतपानमिव । आसीदस्माकं स मुहूर्तो विनिवसनदर्शने तस्याः ||] विणियंसणदंसणे तिस्सा सो मुहुत्त अम्ह आसि विनिवसनं यद् दर्शनं तस्मिन् सति तस्याः, स मुहूर्ती अस्माकम् आसीत् । किमिव । अच्छेरं व आश्चर्यमिव आश्चर्यजनकत्वात् । किम् एतावदेव नेत्याह । निहिं पिव सुक्खं सग्गं व अमपाणं व निधिरिव सौख्यमिव स्वर्ग इव अमृतपानमिव आसीदिति सर्वत्र प्रयोज्यम् । नियंसणं परिधानवासः । मालोपमालंकारः । मालोपमेति सेय यत्रैकं वस्त्वनेकसामान्यम् । उपमीयेतानेकै रुपमानैरे कसामान्यैः ( रुद्रट, ८, २५) ॥ अच्छेरं आश्चर्यशब्दस्य शय्यादित्वाद ( वररुचि, १,५ ) - तूर्यधैर्यादित्वाद ( वररुचि, ३, १८) र्यस्य रत्वे रूपम् ॥१३४॥
१३५ ) प्रवरसेनस्य । [ सा तव वल्ल्लभा त्वमपि मम, द्वेष्योऽसि तस्यास्तवाहम् । बालक स्फुटं भणामः प्रेम किल बहुविकारमिति ॥ ] काचिदात्मनोऽनुरागेण विपक्षद्वेषोद्घोषेण च नायकं प्रयुक्त्या प्रतिभिनत्ति । - बालक सत्यं भणामः प्रेम किल बहुविकारमिति । तामेव च बहुविकारतां प्रकटयति । सा तुझ वल्लहा तं पि मज्झ सा तव वल्लभा त्वमपि मम चल्लभ इति । वेसो सि तीइ तुज्झ अहं द्वेष्योऽसि तस्यास्त्वं तवाहं द्वेष्येति । बालय इति अभिधेयान्तर ( वैधेय) सम्बोधनम् । रिरंसमानां न रमयसि, अकामयमानां च कामयसे । अतो मूर्ख एव त्वमित्यर्थः । मध्या नायिका । मध्या प्रतिभिनत्तीत्यादि । दीपकालंकारः ॥ १३५ ॥
१. णिहिं मिव; २w. सग्गे रज्जं व; ३w. तं मुहुत्तं; ४w. दंसणं ५w. सि; ६w. तीअ.
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बीयं सयं W129 १३६) तह माणो माणधणाइ तीइ एमेय दूरमणुबद्धो ।
जह से असुणी पिओ इक्कग्गामि च्चिय पउत्थो ॥३६॥ W128 १३७) महुमासमारुयाहयमहुयरझंकारणिब्भरे रणे ।
- गाई विरहक्खराबद्धपहियमणमोहणं गोवी ॥३७॥ W127 १३८) अहयं लज्जालुइणी तस्स य उम्मच्छराइ पिम्माई ।
सहियायणो ये निउणो अलाहि किं पायराएण ॥३८॥ १३६) तथा मानो मानधनया तया एवमेव दूरमनुबद्धः । यथा तस्या अनाश्रयायाः प्रिय एकग्राम एव प्रोषितः ॥] तथा मानो मनधनया तया एवमेव निष्कारणं दूरमनुबद्धः परां कोटिमारोपितः, यथा तस्याः प्रिय एकस्मिन्नेव ग्रामे प्रोषितः, तस्या न समीपमुपसर्पतीत्यर्थः। कथंभूतायाः। असुणीऍ अश्रवणशीलायाः। अश्रवणो या उपदेशं न शणोति । अधमा नायिका । तस्या लक्षणम् । दोषं विनाऽपि रुष्यति तुष्यति चानुनयमन्तरेणापि । निर्हेतुकप्रवृत्तिश्चलचित्ता साधमा ज्ञेया ॥१३६॥
१३७) स्वामिनः । [मधुमासमारुताहतमधुकरझङ्कारनिर्भरेऽरण्ये । गायति विरहाक्षराबद्धपथिकमनोमोहनं गोपी ॥] रण्णे गोवी गाइ अरण्ये गोपी गायति । कीदृशेऽरण्ये । महुमासमारुयाहयमहुयरझंकारणिभरे मधुमासमारताहतमधुकरशङ्कारनिर्भरे पूरिते । कथं गायति । विरहक्खराबद्धपहियमणमोहणं विरहाक्षराबद्धपथिकमनोमोहनमिति गानक्रियाविशेषणम् । मलयानिलान्दोलनमनोहरशङ्कारिणा विशेषतो विरहाक्षरबद्धेन गोपीगानेन उद्दीपनविभावेन पथिकाः स्वसीमन्तिनीनिरन्तरं स्मरन्तो मुह्यन्तीत्यर्थः ॥१३७॥
१३८) ग्रामकुटिकायाः । [अहं लज्जावतो तस्य च निरर्गलानि प्रेमाणि । सखीजनश्च निपुणः, पास्तां किं पादरागेण ॥] काचिच्चरणी यावकरसरागेण रजयितुमुन्मुखीम् अनुलेप्तुकामाम् सखीमिदमाह । अलाहि किं पायराएण आस्तां कि पादरागेण । यतः अहयं लज्जालुइणी १w. अणुणीअ; २w. गाअइ विरहक्खरबद्ध..., ३w. वि णिउणो.
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गाहाकोसो
[२.३९
W130 १३९) सालोई च्चिय सूरे घरिणी घरसामियस्स चित्तूण ।
निच्छतस्स वि पाए धुयइ हसंती हसंतस्स ॥३९॥ W195 १४०) केलीइ वि रूसेउ न तीरए तम्मि मुक्कै विणयम्मि ।
माएँ जाइयएहि इमेहि अवसे हि अंगेहिं ॥४०॥ अहं लज्जावती। तस्स य उम्मच्छराइ पिम्माई तस्य च निरर्गलानि प्रेमाणि । सहियायणो य निउणो मखीजनश्च निपुणः । इति कृत्वा आस्तां पादरागेण । पादरागलिङ्गानुमिता विपरीतक्रीडां मम विदग्धसखीजनो मा जानास्वित्यर्थः । अहयं इति अस्मदो हं अहं अहयं सौ (वररुचि, ६,४०) इति अहयं आदेशे रूपम् । अलाहि इति निषेधे निपातः । आक्षेपहेतुभ्यां संसृष्टिरलंकारः ॥१३८॥
१३९) [सालोके चैव सूर्ये गृहिणी गृहस्वामिनो गृहीत्वा । अनिच्छतोऽपि पादौ धावयति हसन्ती हसतः ॥] घरसामियस्स परिणी पाए घित्तण धुयइ गृहस्वामिनो गृहिणी पादो गृहीत्वा प्रक्षालयति । कदा । सालोइ च्चिय सूरे अस्तमस्तकमनासादयत्यादित्ये । कथंभूतस्य । निच्छंतस्स वि अनिच्छतोऽपि । अनु च (? अथ च) कीदृशस्य । हसंतस्स । अनया प्रकृत्या (१ प्रयुक्त्या) अवरुद्धोऽहमनयेति हसतः । साऽपि कीदृशो। हसन्ती स्मयमाना। अथ मा खत्वयम् अन्याङ्गनासंभोगसुखलालसतया निर्यासीदिति व्यपदेशेन प्रियं निरुणद्धोति । असमय एव पादप्रक्षालनम् उभयाभिप्रायपरिज्ञानं च उभयोहांसहेतुः । स्वीया प्रगल्भा नायिका । लब्ध्वा पतिं प्रगल्भाऽनुभावहेलाविलासवासगृहम् । आक्रान्तपति नाविधनिधुवनलब्धवैदग्ध्या (४.रुद्रट, १२,२४)। आक्षेपोऽलंकारः
॥१३९॥ १४०) सुरभिवृक्षस्य । [क्रीडयाऽपि रोष्टुं न शक्यते तस्मिन् मुक्तविनये । माततिरेभिरवसैरङ्गैः ।।] काचिदनुनयसुखलाभलालसा अवशान्यङ्गानि सीदन्ति इदमाह । माए केलीए वि रूसेउं न तीरए मातः १w. सालोअ च्चिअ, २w. चुक्क; ३w. जाइअएहि व माए इमेहि.
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W196
-२.४२]
डीयं सय wig6 १४१) डिल्लियाई खिल्लउ मा न बार होउ पडिया।
मा रमणभारगरुई पुरिसायंती किलामिहिइ ॥४१॥ W197 १४२) पउरजुवाणो गामो महुमासो जुब्वणं पई थेरों।
जुग्णसुरा साहीणा असई मा होउ किं मरउ ॥४२॥ क्रीडयाऽपि रोषं कर्तुं न शक्यते । तम्मि तस्मिन् प्रिये । कोदृशे । मुक्कविणयम्मि मुक्तविनये । कैः करणभूतैः । इमेहि अवसेहि अंगेहिं जाइयएहिं एभिरेव स्वैरङ्गैरवशैर्जातः । यदि नर्मणा मनागपि अहं रुष्येयं तदेतान्य-- ङ्गानि प्रियरतरसिकानि निरन्तरम् अमुमेव अनुवर्तन्ते, इति भावः ॥१४॥
१४१] गागिलस्य । [फुडिल्लिकया क्रीडतु मैनां वारयत भवतु प्रतिहस्ता । मा रमणभार गुर्वी पुरुषायमाणा क्लमिष्यति ॥] हे सख्यः, मा नं वारेह मा एनां वारयत । फुडिल्लियाऍ क्रीडाविशेषेण खिल्लउ क्रीडतु । यतः होउ पडिहत्था भवतु पटवो । किं पटुतया अस्य : इत्याह । मा पुरिसायंती किलामिहिइ मा एषा पुरुषायितं कुर्वतो क्लान्ति यास्यति । कथंभूता । रमणभारगरुई जषनभारगुवों । धनजघनतया विपरीतसुरत श्रमं मा आसादयतु इत्यर्थः । फुडिल्लिया क्रीडामेदो यस्यां न्यञ्चनोदञ्चनानि जघनस्य जायन्त इति । पडिहत्था पटवी । नं इति एनामित्यस्य अवासवि (?) लोपविशेषा बहुलम् इति एकारस्य लोपे सति रूपम् । अनुमानालंकारः ।१४१॥
१४२] वत्सराजस्य । [प्रचुरयुवा ग्रामो मधुमासो यौवनं पतिः स्थविरः । जीर्णसुरा स्वाधीना मसती मा भवतु किं म्रियताम् । ] असई मा होउ कि मरउ असती मा भवतु किं म्रियताम् । कदाचिदसतीत्वस्य आलम्बनविभावाभाव एव इत्याह । पउरजुवाणो गामो प्रचुरयुवा ग्रामः । कदाचित् कन्दर्पदीपकः समया न स्यादित्याह । महुमासो मधुमासः ।
कदाचिदनवतोर्णतारुण्या भवतीत्याह । जुव्वणं यौवनम् । कदाचित् पति१w. उप्फुल्लियाइ, २w. परिखामा, ३w. जहण, ४W. किलिम्मि हइ ५w. ठेरो
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गाहाकोसो
[२.४३W198 १४३) बहुसो वि कहिज्जतं तुह बयणं मज्ज्ञ इत्थसंदिटं।
न सुयं ति पाणी पुणरुचसुयं करइ अशा ॥४३॥ "W199 १४४) पाडियणेहसम्भावविन्मम तीऍ जह अहं दिह्रो ।
संवरणवावडाए अन्नो वि जणो तह च्चेय ॥४४॥ रेव तरुणोऽस्याः स्यादित्याह । पई थेरो पतिः स्थविरः । कदाचिदुन्मादयतां भावानामन्यतमो न स्यादित्याह । जुण्णसुरा साहीणा जीर्णा पुराणी या सुरा सा स्वाधीना । एवम् असतीत्वहेतौ कारणकलापे सत्यपि न चेद् असती, इति किं वराकी विपद्यतामित्यर्थः । काकुवक्रोक्तिरियम् । श्रीभोजदेवस्तु पठितिमिमामाह । तदुक्तम्-काकुस्वरपदच्छेदभेदाभिनयका'न्तिभिः । पाठो योऽर्थविशेषाय पठिति. तां प्रचक्षते ॥ (सरस्वतीकण्ठा'भरण ।।, २,५६) आचार्य दण्डिमते निषेधाक्षेपोऽयमिति ॥१४२।।
१४३) भावस्य । [बहुशोऽपि कथ्यमानं तव वचनं मम हस्तसंदिष्टम् । न श्रुतमिति जल्पन्ती पुनरुक्तश्रुतं करोत्यार्या ॥] काचिद् दूती कस्यचियूनस्तत्प्रियानुरागं प्रकटयितुम् इदमाह । अज्झा तुह वयणं पुणरुत्तसुयं करइ उपभोगयोग्या युवतिस्तव वचनं पुनरुक्तश्रुतं करोति । कथंभूतं तव वचनम् । म झ हत्थसंदिहं मम पार्श्वसंदिष्टं मन्मुखेन संदिष्टमिति यावत् । किं कुर्वती । न सुयं ति जंपमाणी न श्रुतमिति जल्पन्ती । कदाचित् तयाऽपि न श्रुतं भवतीत्याह । बहुतो वि कहिज्जंतं बहुशोऽपि कथ्यमानम् । सा त्वत्संदेशनिशमनसुखरसरसिका श्रतमपि पुनः शणोतीत्यर्थः । अज्झा प्रोढयुवतिः । हत्थसंदिटुं इति लोकोक्तिः ॥१४३॥
१४४) कशपुत्रस्य । [प्रकटितस्नेहसद्भावविभ्रमं तया यथाऽहं दृष्टः । संवरणव्यापृतया अन्योऽपि जनस्तथैव ॥] कश्चिधुवा निजवयस्यपुरतः स्ववल्लभाया आत्मातिमनोद्भवभावम् ) आविष्कुर्वन् इदमाह । तीऍ जह अहं दिद्रो तया यथाऽहं दृष्टः अन्नो वि जणो तह चेय अन्योऽपि जनम्तथैव दृष्टः । कथं यथा भवति । पायडियणेहसम्भावविन्मम १w. माणा, २w. पुणरुत्तसय, ३w. कुणह, ४w. णिब्भरं, ५w. तुमं.
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बीयं सयं W200 १४५) हंत पुलोएस इमं ति वियसियच्छी पइस्स अप्पेइ ।
धेरिणी सुयपढमुभिन्नदंतजुयलंकियं बोरं ॥४५।। w201 १४६) अच्छउ ता जणवाओ हिययं चिय अत्तणो तुह पमाणं ।
तह तं सि मंदणेहो जह न उवालंभजुग्गो सि ॥४६॥ प्रकटितस्नेहसद्भावविभ्रमम् । कथंभूतया । संवरणवावडाए संवरणव्या'पृतया । सा खलु मां स्नेहार्द्रया दृशा कृशाङ्गी सविभ्रमं वीक्ष्य सहसैव
दैवादापतितम् अन्यमपि जनं स्वलोचनपथातिथिं तथैव (चकार), मम समक्षमीक्षांचके । मा खल्वियम् अस्मिन् यूनि रक्तेति जनो जानातु, स्वभाव एवास्या यदियं सर्वानप्येवमवलोकयतीति । विकृतावलोकनेन स्वदुर्नयेच्छाप्रच्छादनमिति । विभ्रमो विलासः । संवरणमा कारनिगूहनम् । वावडो व्यापृतः । अवहित्थं व्यभिचारी भावः । लेशोऽलंकारः ॥१४४॥
१४५) हरिवृद्धस्य । [हन्त प्रलोकयेदम् इति विकसिताक्षी पत्युरर्पयति । गृहिण। सुतप्रथमोद्भिन्नदन्तयुगलाङ्कितं बदरम् ॥] परिणो यपढमुभिन्नदंतजुयलंकियं बोरं पइस्स अप्पेइ गृहिणी सुतप्रथमोद्भिन्नदन्तद्वयाङ्कितं बदरं पत्युरर्पयति । किमुक्त्वा । हंत पुलोएस इमं हन्त प्रलोकयेदम् इत्यभिधाय । कीदृश।। वियसियच्छी विकासताक्षो । आ सुतदन्तदर्शनाद् अनुपभोगयोग्या युवतिर्भवति । इदानीम् अभिगम्या अहम् इति भावः ! हंत इति आमगे । बोरे इति उपब इरयोदास्याम् (?)। इङ्गित ४क्ष्यः सूक्ष्मालंकारः । तस्य लक्षणम् । इङिाताकारेत्यादि (काव्यादर्श २,२६०) ॥१४५।।
१४६) मणिनागस्य । [भास्तां ताव जनवादो हृदयमेवात्मनस्तव प्रमाणम् । तथा त्वमाम मन्दस्नेहो यथा नोपाल भयोग्योऽसि ।। तह त मि मंदणेहो नह न उवाल जुग्गो सि तथः तेन प्रकारेण स्वमसि १w. गेण्हह पुलोअह इमं पहमिअवअगा, २w. जाआ.
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गाहाकोसो W202 १४७) अप्पच्छंदपहाविर दुल्लहलंमं जणं विमग्गंत ।
आयासवहेहि भमंत हियय कइया वि भज्जेिहिसि४७॥ W203 १४८) अहव गुण ञ्चिय लहुया अहवा अगुणन्नुभो हु सो लोगो । - अहव म्ह निग्गुणा बहुँगुणो हु अन्नो जणो तस्स ॥४८॥ मन्दस्नेहो यथा नोपालम्भयोग्योऽसि । आनन्त्याद् अपराधानाम् उपालम्भभाजनं न भवसि इत्यर्थः । किमत्र प्रमाणमित्याह । अच्छउ ता जणवाओ आस्तां तावदयं जनवादः, हिययं चिय अत्तणो तुह पमाणं हृदयमेव आत्मनस्तव प्रमाणं यदि उपाल भयोग्यो भवसीति ॥१४६॥
१४७) राघवदेवस्य । [आत्मच्छन्दप्रधावनशील दुर्लभलम्भं जनं विमार्गयत् । आकाशपर्भमत् हृदय कदाऽपि भक्ष्यसे ॥] काचिद् दुर्लभजनसंगमाशा सुखग्रहं ग्रहीतुं हृदयं प्रत्याह । हे हियय हृदय मप्पच्छंदपहाविर स्वच्छन्देन प्रधावनशील । अन्ये तु आत्मच्छन्दप्रधावित इति व्याचक्षते । यथा आत्मानं तथा अन्यमपि जनं जानासीत्यर्थः । दुल्लहलंभ जणं विमग्गंत दुर्लभलामं जनम् अभिलषत् । अत एव आयासवहेहिं भमंत आकाशपथैर्धाम्यत्, केणावि भज्जिहिसि केनापि भज्यसे (: भङ्क्ष्यसे)। यथा कश्चित् स्वैरविहारः दुर्लभलाभाशापिशाचिकागृहीतः आकाशपथेन भ्राम्यन् भज्यते तथा त्वमपीति । आकाशपथेनेति लोकोक्तिः, लोकातीतमार्गसंचरणे । एकत्र आकाशपथैः, अन्यत्र आयासपथैरिति योज्यम् । हृदयोपदेशः । आक्षेपोऽलंकार ॥१४७।।
१४८) प्रवरसेनस्य । [अथवा गुणा एव लघवः अथवा अगुणज्ञः खलु स लोकः । अथवा स्मो निर्गुणाः बहुगुणः खलु अन्या जनस्तस्य । काचित् समुचितसमयेऽप्यनागच्छति कान्ते अनेककल्पनया स्वगतमिदमाह । अहव गुण च्चिय लहुया अथवा गुणा एव(मम)लघवः, यत् सत्सु अपि १w. डज्झिहिसि; २w. गुणअण्णुओ ण; ३w. म्हि; ४w. वा बहुगुणवतो जणो तस्स.
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-२.५.1
W204 °४९) फुट्टतेण चि हियएम मामि कह निवरिज्जइ अणम्मि ।
अदाए पडिविवं व जम्मि दुक्खं न संकमइ ॥४९॥ W177 १५०) सहि ,मति कर्षबाइँ जह ममं तह न सेसकुसुमाइं।
नूणं इमेसु दियहेसु वहइ गुलियाहणुं कामो ॥५०॥ तेषु मम थियो नायात इति । अहवा अगुणन्नुओ हु सो लोओ अथवा अगुणज्ञोऽसौ मदभर्ता यः सतोऽपि मद्गुणान्न बहु मन्यते । अहव म्ह निग्गुणा अथवा निगुणाः स्मः, येषाम् अगुणेषु गुणाभिमानोऽस्माकम् । मोऽपि मत्प्रियो गुणज्ञः, वयमेव केवलं निर्गुणाः । बहुगुणो हु अन्नो जणो तस्स बहुगुणः खलु अन्यो जनस्तस्य । सा सपत्नी गुणाधिकेति भावः । उत्कण्ठिता नायिका । तस्या लक्षणम् । उत्कण्ठिना तु सा स्यात्समुचितसमयेऽप्यनागते कान्ते । तिष्ठत्यनागतेऽस्मिन् (: तिष्ठत्यथागतेऽस्मिन्) बहलविकल्पाकुला या नो ॥१४८॥
१४९) कुडलहस्तिनः । [स्फुटताऽपि हृदयेन सखि कथं (दुःखं) निवेद्यते जने । आदर्श प्रतिबिम्बमिव यस्मिन् दुःख न संक्रामति ॥] मामि सखि, फुट्टतेण वि हियएण कह तम्मि जणम्मि निव्वरिग्जइ स्फुटितेनापि (१ स्फुटताऽपि) हृदयेन कथं तस्मिन् जने स्वदुःख प्रकाश्यते । जम्मि दुक्खं न संकमइ यस्मिन् जने तत् निवेद्यमानं दुःखं न संक्रामति । कस्मिन् किमिव । अदाए पडिबिंब व आदर्श प्रतिविम्वमिव । यदि दुःखभरनिर्भरं स्फुटितं भूयिष्ठमपि (स्फुटितभूयिष्ठमपि) हृदयं भवति तथाप्युक्तस्वरूपे जने न निवेद्यते, निष्फलत्वादिति भावः । स्वदुःखाविष्करणम् । अदाओ आदर्शः । उपमालंकारः ॥१४९॥
१५०) बन्धुदत्तस्य । सखि दुन्वन्ति कदम्बानि यथा मां तथा न शेषकुसुमानि । नूनम् एषु दिवसेषु वहति गुलिकाधनुः कामः ॥] सहि नह ममं कलंबाई दुर्मति सखि यथा मां कदमपुष्पाणि दुन्बन्ति उपतापयन्ति १w. णिन्वरिज्जए तम्मि; २w. दुम्मेंति.
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गाहाकोसो
[२. ५१
W205 १५१) नेच्छेइ पासासंकी काओ दिन्नं पि पहियघरिणीए ।
ओणंतकरयलोअलियवलयमज्झट्टियं पिंडं ॥५१।। W574 १५२) ख्यं सिढे चिय तस्स सेसपुरिसोणियत्तियच्छेण ।
बाहुल्लेण इमीए अजंपमाणेण वि मुहेण ।५२।। न तह सेसकुमुमाई न तथा शेषकुसुमानि । अतो न जानीमहे नूणं इमेसु दियहे सु वहइ गुलियाह' कामो नूनमेषु दिवसेषु वहति गुलिकाधनुः काम इति । एतानि कदम्बगोलकानि कामकार्मुकनिर्मुक्तगुटिका इव मनो दुन्वन्ति इति भावः । अनुमानालंकारः ॥१५०॥
१५१) नागधर्मस्य । [नेच्छति पाशाशङ्की काको दत्तमपि पथिक-- गृहिण्या । अवनमत्करतलावगलितवलयमध्यस्थितं पिण्डम् ॥] काओ पिंडं दिन्नं पि नेच्छइ काको दत्तमपि पिण्डं नेच्छति । कया । पहियघरिणीए पथिकगृहिण्या। कथंभूतं पिण्डम् । भोणंतकरयलोअलियवलयमज्झट्ठियं अवनमकरतलावगलितवलयमध्यस्थितम् । किमिति न गृह्णातीत्याह । पासासंकी पाशाशङ्की तदेव वलयं पाशमाशङ्कमानः । स्वबन्धनभिया दत्तमपि बलिपिण्डं वायसो न वाञ्छतीति । पान्थकान्ताया देहदौर्बल्यं प्रयुक्त्या दर्शितं भवति । ओणतं अवनमत् । पर्यायोक्तिभ्रान्तिमद्भयां संकीणोंऽलंकारः ॥१५१॥
१५२) हालस्य । [रूपं कथितमेव तस्य शेषपुरुषापनिवृत्ताक्षेण । बाष्प ट्रेणैतस्या अजल्पतापि वदनेन ।] इमोए मुहेण तस्य रूयं सिद्रं चिय अस्या मुखेन तस्य यूनो रूपं शिष्टमेव कथितमेव । कीदृशेन । अजंपमाणेण वि अजल्पताऽपि । भूयश्च कीदृशेन । सेसपुरिसोणियत्तियच्छेण शेषपुरुपापनिवृत्ताक्षेण अन्य नरेभ्योऽपगतनेत्रेग । पुनश्च कोदृशेन । बाहुल्लेण बाष्पजलाट्टैण । तं वीक्ष्य यद् इतर पुरुषावेक्षणनिरपेक्षं मुखं सजलां दृशं १w. पासासंकी काओ .ण छिवइ, २w. ...ओणत्त; ३w. से असेसपुरिसे.
णिअत्तिअच्छेण.
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-२.५४].
बीयं सयं
W255 १५३) ओ हिदियागमासकिरोहि सहियाहि तो लिहिरीए ।
. दो तिन्नि तह च्चिय चोरियाएँ रेहा फुसिज्जति ॥३॥ W207 १५४) तुह मुहमारिच्छं न लहइ त्ति संपुण्णमंडलो विहिणा ।
अन्नमयं व घडेउं पुणो वि खंडिज्जइ मियंको ॥५४॥ वहति, तेन अनुमायते अनुपमरूपसंपत्संपन्नोऽसौ युवेत्यर्थः । सिटुं कथितम् ।। उल्लं आर्द्रम् । विरोधच्छायानुमानाभ्यां संकीर्णोऽलंकारः ॥१५२॥
१५३) भोगिनः । [अवधिदिवसागमाशङ्किनीभिः सखोभिस्तस्या लिखनशालायाः । द्वे तिस्रस्तथैव चौर्येण रेखा प्रोञ्छ्यन्ते ।।] ताएँ दो तिन्नि तह च्चिय रेहा फुसिम्जंति तस्या द्वे तिनस्तथैव रेखाः उन्मृश्यन्ते । किंभूतायाः तस्याः । लिहिरीए लिवनशीलायाः । काभिः । सहियाहिँ मम्बीभिः । कीदृशीभिः । ओहिदियहागमासकिरोहिँ अवधिदिवसागमाशङ्किनीभिः । कथम् । चोरियाएँ चौर्येण । एषा किल प्रियतमागमनदिनलेखालिखनशीला पूर्णावधिम् अवधीरयितुम् अपार यन्ती प्राणान् मंक्षु मोक्ष्यति इति तत्प्राणपरित्राणाय अनाकलिता द्वे तिम्रो विदग्धसख्यो लेखाः परिमृजन्तीत्यर्थः । मुग्धाश्वासनोपायः सखीकर्म ॥१५३॥
१५४) [तव मुखसादृश्यं न लभत इति संपूर्णमण्डलो विधिना । अन्यमयमिव घयितुं पुनरपि खण्ड्यते मृगाङ्कः ॥ ] विहिणा मियंको पुणो वि खंडिजइ विधिना विश्वसृना मृगाङ्कः पुनरपि स्वण्ड्यते । किमित्याह । तुह मुहसा रच्छं न लहइ त्ति तव मुखसादृश्यं न लभत इति । अन्नमयं व घडेउं पुनरुक्त मिद घटितुम् । यथा यथा नायं पूर्णेन्दुस्त्वद्वदनसादृश्यं
स्पृशति तथा तथा एनं तुल्याभिलाषेण विधिर्भक्त्वा घटयतीति (हवेभि)। : अन्नमयं पुनरुक्तम् । उत्प्रेक्षाऽलंकारः । अनुकूलो नायकः । अतिरक्त
तया नार्याः करोति नान्याङ्गनाप्रसवं यः । स्यान्नायकोऽनुकूलः स रामवग्जनकतनयायाम् ॥१५॥ १w. कुड्डलिहिआओ; २w. तहिं विअ.
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[२.५५W208 १५५) अन्ज गट तिनं गउति मजंगउ ति मणिरीए ।
पदम च्चिय दियहढे कडो रेहाहि चित्तलिभो॥५५॥ W209 १५६) न वि तह पढमसमागममुस्यसुहे पाक्एि वि परिभोसो ।
जह बीयदियहसविलक्खलखिए वयणकमलम्मि ॥५६॥ W210 १५७) जे समुहागयबोलीवलियपियपेसियच्छिविच्छोहा ।
___ अम्हं ते मराणसरा जणस्स जे हुंति ते इंतु ॥५७।।
१५५) नागहस्तिनः । [ अब गतो अद्य गतो अब गत इति भणनशीलया । प्रथम एव दिवसाधं कुंड्यं रेखाभिश्चित्रितम् ॥] कयाचित् कुड्यं रेखाभिः चित्रितम् । कथंभूतया । अजं गउ त्ति अद्य गत इति पुनरुक्तं च वचनशीलया । किं कालान्तरेण इत्याह । पढम चिय दियहद्धे प्रथम एव दिवसार्धे । एतदुक्तं भवति । प्रियया अवधिदिनगणनलेखाभिः लाञ्छितं स्वभवनभित्तितलम् । मुग्धा विरहिणो नायिका । "स्वावघिदिवसगणनया गमयति कालं प्रियतमस्य" ॥१५५॥
१५६) प्रवरसेनस्य । [नैव तथा प्रथमसमागमसुरतमुखे प्राप्तेऽपि परितोषः । यथा द्वितीयदिवससविलक्षलक्षिते वदनकमले ॥ ] नैव तथा प्रथमसमागमसुरंतसुखे प्राप्तेऽपि परितोषो यथा द्वितीयदिवससविलक्षलक्षिते वदनकमल इति । अर्थात् प्रियाया इति लभ्यते । ब्रीडा हि वनितानां प्रथम समागमे, प्रणयिनां मनांसि आवर्जयतीति । लग्जा व्यभि'चारी भावः ॥१५६॥
१५७) भानुशक्तेः । [ये संमुखागतातिकान्तवलितप्रियप्रेषिता'क्षिविशेषाः । अस्माकं ते मदनशरा जनस्य ये भवन्ति ते भवन्तु ॥ काचित् प्रियकृतकटाक्षविक्षेपः क्षिप्रमेव वशीकृतहदया इदमाह । अम्हं ते मयणसरा अस्माकं ते मदनशराः । जस्स जे हुंति ते हुतु जनस्य ये भवन्ति ते भवन्तु । एते अन्ये वा भवन्तु इत्यर्थः । के ते इत्याह । जे समुहामयवोलीणवलियपियपेसियच्छिवि छोहा थे संमुखागतातिकान्तव१w. गणिरीए. २w. वोलंत, ३. जे होति ते हो. .
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बीये सर्व W211 :१५८) अणुहेवउ कणवेदोरो हुयक्रुणाण लद्धमाहप्पो ।
इयरो जणो न पावइ-तुह जहणारुहण सुक्खाई ॥५८ 'W212 १५९) जंजस्स विहवसारं सो तं देइ ति किं अच्छरियं ।
__ अणेहुंतयं पि दिन्नं दोहगं तइ सवत्तीणं ॥५९॥ लितप्रियप्रेषिताक्षिविक्षेपाः इति । प्रथमानुरागे साक्षाद् दर्शने गायेयस् । गुणस्तुतिरवस्था मेदः । त एवास्माकं स्मरशराः, तत्कार्यकरणादित्यर्थः । वोलीणो अतिक्रान्तः । विच्छोहा विक्षेपाः । रूपकमलंकारः ॥१५७॥
१५८) माधवराजस्य । [अनुभवतु कनककाञ्चीगुणो हुतवहवरुणयोर्लब्धमाहात्म्यः। इतरो जनो न प्राप्नोति तब जघनारोहण पौख्यानि ॥] कणयदोरो तुद् जहणारुणसुक्खाइं अणुडवउ कनककाञ्चोकलापस्तव जघनारोहणसुखानि अनुभवतु । कोदृशः । हुयवहवरुणाण लद्धमाहप्पो हुतवहवरुणयोर्लब्धमाहात्म्यः । कनक काञ्चीगुणः किल घटनकाले पावके समुत्ताप्य वारिणि निर्वाप्यते । प्रतो अस्य विषमतमवह्निवरुणत्रत चरि'ष्णोस्त्वदीयजघनारोहणं युज्यते । यतः इयरो जणो न पावइ इतरस्तु अकृतवतो जनो न प्राप्नोति तानि सुखानीत्यर्थः ।।१५८॥
१५९) अनङ्गस्य । [यो यस्य विभव पारः स तं ददाताति फिमिवाश्चर्यम् । अभवदपि दत्तं दौर्भाग्यं त्वया सपत्नीभ्यः ।।] काचित् कस्याश्चित् सौभाग्यं वर्णयितुम् इदमाह । जं जस्स विहवसारं सो तं देइ त्ति यद्यस्य विभवसारं स तद् ददातोति किं व अच्छरियं किमिवाश्चर्यम् । इदं तु चित्रम्, अणहुंतयं पि दिन्नं दोहागं तइ मवत्तीणं असदपि दत्तं दौर्भाग्य त्वया सपत्नीनाम् । किं थ इत्यत्र एकारस्य असन्धिलोपविशेषो बहुलम् (१) इति लोपः ॥१५९॥
१w. इयरो अणो ण पाव तुह जहणारहणसंगमसुहेल्लि । अणुहवइ कणअ. डोरो हुभवहवरुणाण लद्धमाहप्पो ॥ २w. जो जस्स बिहवसारो, ३ w तं सो; ४ w. थ अच्छेरं; ५; अणहोतं पि खु दिण्णं.
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७४
गाड़ोलो
[२.६०
W213 १६०) चंक्सरिसं मुहं से सग्सिो अमस्से मुहरसो तिस्सा । सके या हर हसा यल्लचुंबणं केण सरिसं से ||६० ॥ W215. १६१) बालय तुमाहि अहियं निययं चिय वल्लहं महं जीयं तं तइ विणा न होइ त्ति तेण कुवियं पसाएमि ॥ ६१ ॥ W216 १६२ ) पत्तियन पत्तियंती जइ तुज्झ इमे न मज्झ रुइरीए । पैंडीऍ वाहबिंदू पुलर्डे भेण भिज्र्ज्जता ॥ ६२ ॥
१६०) अद्दमरिस्स | [ चन्द्रसदृशं मुखं तस्याः सदृशो अमृतस्य मुखरसस्तस्याः । सकच प्रहरभसहठचुम्बनं केन सदृशं तस्याः ||) कश्चित् स्वनायां प्रशंसन्निदमाह । से तस्याः चन्दसरिसं मुहं चन्द्रसदृशं वदनं, सरिसो अमयरस मुहरसो तिस्सा सदृशो अमृतस्य मुखरसस्तस्याः, सकयग्गइरहसायलचुंबणं सकचग्रहरभसहठ चुम्बनं के सरिसं से केन सदृशं तस्याः, न केनापीत्यर्थः । आयल्लं बलात्कारः ॥ १६० ॥ १६१) त्रिविक्रमस्य । [ बालक त्वत्तो अधिकं निजकमेव वल्लभं मम जीवितम् । तत् त्वया विना न भवतीति तेन कुपितं प्रसादयामि ॥] काचिदनुनयन्ती भर्तुः (१ प्रियकरस्य) भङ्गया अनुरागं प्रकटयितुम् इदमाह । हे बालय बालक, तुमाहि अहियं त्वत्तोऽधिकं निययं चिय वल्लहं महं जीयं निजमेव मम वल्लभं जीवितम् । तर्हि किमर्थं वृथाऽनुनयसि (इत्याह) तं तइ विणा न होइ त्ति तेण कुवियं पसाएमि तत् त्वया विना न भवतीति तेन कुपितं प्रसादयामि । त्वया विना नाहं मुहूर्तमपि जीवितुमुत्सह इत्यर्थः । तइ विणा इति तृताया विनायोगे ( cf. पाणिनि २, ३, ३२) । अन्ये तु अगृहीतानुनयतया रोषजुषि रुषित्वा गते विदग्धदूत्या च प्रत्यानी कान्ते कलहान्तरिता अनुनयन्ती इदमाहेत्याहुः || १६१ ॥
१६२) हालस्य । [ " प्रतीहि", "न प्रतीयां यादे तवेमे न मम रुदत्याः । पृष्ठे बापचिन्दवः पुलको दभेदेन भिद्येरन्" ।। ] काचिन्मानिनी १५. अमिअस्स; २w. सकअग्गहरहसु॰वेल्लचुंबणंः ३w. पुडीअ, ४w पुलउमेए ण.
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७५.
-२.६४]
बीयं स .. W217 १६३) तं मित्तं कायव्वं जं मित्तं वसणदेसयालम्मि ।
आलिहियभित्तिबाउल्लयं व न परंमुहं ठाइ ॥६३।। W218 १६४) वहुयाएँ नइणिउंजे पढमुल्लयसीलखंडणविलक्खो ।
उड्डेइ विहंगउलो हा हा पक्खेहि व भेणंतो ॥६४॥ प्रसादनाय पादपतितस्य प्रणयिन उपरि पतितान् स्ववाष्पवारिबिन्दून् तत्पृष्ठपुलकाङ्कुरकोटिप्रोतान् प्रेक्ष्य रोमोद्गमलिङ्गलक्षितप्रेम्णि तस्मिन् प्रसन्ना सतीद माह । पत्तिय प्रतीहि मयि स्नेहानुबन्धबुद्धि विधेहीति । नाहं त्वां प्रतीयां यदि मम रुदत्यास्तव पृष्ठे बाष्पबिन्दवः पुलकोदभेदेन भिधेरन् । इदानी प्रतीतिर्जातेति । प्रणतिरेव प्रसादनोपायः । स्युः-.. सामदानभेद प्रणत्युपेक्षाप्रसङ्गविभ्रंशाः । मानोपशमोपाया दण्डः शृङ्गा रहा नैव ॥ तानेतान् यथावसरं वक्ष्यामः । अनुमानालंकारः ।१६२॥ १६३) सर्वसेनस्य । [तन्मित्रं कर्तव्यं यन्मित्रं व्यसनदेशकाले । आलिखितभित्तिपश्चालिकेव न पराङ्मुखं तिष्ठति ॥] तं मित्तं कायव्वं तन्मित्रं कर्तव्यं जं न परंमुहं ठाइ यन्न पराङ्मुखं तिष्ठति । कदा । वसणदेसयालम्मि व्यसनदेशकाले व्यसनदेशे व्यसनकाले च । किमिव । आलिहियभित्तिबाउल्लयं व आलिखितभित्तिपुत्रक इव । यथैव चित्रपुत्र कः पराङ्मुखो न भवति तथैव यत् पृष्ठं न प्रयच्छति तदेव मित्रं कार्यमित्यर्थः । बा उ.. ल्लयं पुत्रकः । उपमालंकारः ॥१६३॥ . १६४) पालित्तकस्य [वध्वा नदीनिकुंजे प्रथमशोलखण्डनविलक्षम् । उड्डयते विहङ्गकुलं हा हा पक्षैरिव भणत् ॥ ] उड्डइ विहंगउलो उड्ड-. यते विहाकुलम् । क्व । नइणिउंजे नदोनिकुञ्ज । कथंभूतम् । पढमु. . ल्लयसीलखंडणविलक्खं वध्वाः प्रथमशोलखण्डनविलक्षम् । किं कुर्वत् । हा हा पक्खेहि व भणंतो हा हा पक्षरिव भणत् । पक्षिकुलम् उड्डीयमानं: पक्षविक्षेपोत्पन्नपवनात्वनेन “हा हा किमेतद् अभव्यया अनुष्ठितम्" इतोव।
१w. जं किर वसणम्मि देसआलम्मि; २w. पढमुग्गअ; ३ w. विलक्ख: ४ w. विहंगउलं; ५ W. भणंत;
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[२.६५
W219 १६५) सच्च मामि बालय नस्थि असमं वसंतमासस्स ।
. वेण कुरवयाण मणम्मि असइत्तणं पत्ता ॥६५'। W220 १६६) इक्विकर्मवइवेढयविवरंतरतरलदिन्नणयणाए ।
_____ तइ वोलते बालय पंजरस उणाइयं तीए ॥६६॥ व्याहरतीत्यर्थः । व्यत्यया बहु लम् इति (विहङ्गकुलस्य नपुंमकस्यापि) पुंसा निर्देशः । अथवा विहंगगणो इति पाठः ॥१६४॥
- १६५)माट्यराजस्य । [ सत्यं भणामि बालक नास्ति असाध्य
वसन्तमासस्य । गन्धेन कुरचकाणां मनसि असतोत्वं प्राप्ता ॥] काचित् स्वय-मभिसारणेन निजलधिमलिङ्गं निगूहन्ती इदमाह । हे चालय बालक सच्चं -भणामि सत्यं वदामि, नस्थि वसंतमासस्स असझं नास्ति वसन्तमासस्य “असाध्यम् । यतः गंधेण कुरबयाणं गन्धेन कुरबकाणां मणाम्म असइत्तणं “पत्ता मनसि असतीत्वं प्राप्ता अहमिति । यदहम् अनाहूताऽपि प्राप्ता “तदेतत् कुरबककुसुमपरिमलविलसित मित्यर्थः । लेशहेतुभ्यां संकोर्णोऽलंकारः ॥१६५॥
१६६) देवराजस्य । [एकै कवृतिवेष्टकविवरान्तरतरलदत्तनयनया । त्वयि अतिक्रामति बालक पञ्जरशकुनायितं तया ॥] कस्याश्चित् काचित् प्रियतमे ऽनुरागम् अधिकुर्वती आह । हे बालय बालक तइ वोलंते त्वयि अतिक्रामति सति पंजरस उफाइयं ताए पञ्जरशकुनायित तया । कथंभूतया । : इक्किक्कमवइवेढयविक्रंतरतरलदिन्नणयणाए एकैककृतिवेष्टकविवरान्तरतरलदत्तनयनया । यथा पारशकुनिः एकैकशलाकान्तरदत्तदृष्टिः तथा असो त्वदवलोकनकौलुकेन भवनाभ्यन्तर एवं भ्राम्यति स्मेत्यर्थः । उपमालंकारः ॥१६६।।
१w. असमक, २ :w. मणं पि श्रसइतणं ण गा. ३ w. एक्केकमवहवेढणविवरंतरदिण्णतरलणयणाए;
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W221 १६७) ता किं करेउ वह तंसि ती भावेपिल्लिषषणीए ।
पायेग्गंगुपिखलणीसहमी, विन दिहो ॥६७॥ W222 १६८) पियसभरणपलुटुंतबाहधाराणिकम्य भीयाए ।
दिज्जइ वंकग्गीवाएँ दीवओ पहियजायाए ॥६॥
१६७) परिकेसरिणः । [तत् किं करोतु यदि त्वमसि वृतिवेष्टप्रे.. रित (पीडित) स्तनया । पादाबाङ्गुष्ठोत्क्षिप्तनिःसहाङ्गयाऽपि न दृष्टः ।।] जइ तं सि ताएँ न दिट्ठो यदि त्वं तया न दृष्टोऽसि ता कि करेउ तत् कि कुरुताम् । कथंभूतया । बइवेढपिल्लियथणार वृतिवेष्टप्रेरितपयोधरया । पुनरपि कथंभूतया । पायग्गंगुठुक्वित्तणीसहंगीऍ वि पादानाङ्गुष्ठोक्षिप्तनि:महाङ्गयाऽपि । पूर्व वद विशेषणेन उच्चस्त्वं वृतिवेष्टकस्य वर्णितम् उत्तारणे च प्रयत्नातिशयः तस्याः सूचितः । निःसहपदेन च स्तनजघनभरगोस्वं तस्याः कथितम् । एवमपि यदि तया त्वं न दृष्टः, तद् इदानों किं करोतु । यत् स्वाधीनं : तत् सर्वं तया त्वदवलोकनाय सुष्ठु अनुष्ठितमिति । वइवेढो वृतिवेटकः । औत्सुक्यं व्यभिचारी भावः । जातिरलंकारः ॥१६॥
१६८) ब्रह्मचारिणः । [प्रियसंस्मरणप्रवर्तमानबाष्पधारानिपातभोतया । दीयते वक्रतीवया दीपकः पथिकजायया ॥] दीवमो दिजइ पहियजायाए पथिकजायया दीपको दोयते । कथंभूतया । वंकग्गोवाएँ वक्रग्रीवया । पुनः कथंभूतया। पियसंभरणपलुटतबाहधाराणिवायभीयाए प्रियसंस्मरणप्रवर्तमानबाष्पधारानिपात भीतया । अत एव मा खल्वयम् अनवरतपतदनल्पबाष्पाम्बुपातो दीपशिखां शमयतु इति कुटिलीकृततरकण्ठकन्दल्या दोपको दीयते इत्यर्थः । विरहिणो नायिका । अश्रूणि सात्त्विको भावः । संभरणं संस्मरणम् । पलुट्टइ प्रवर्तते । हेतुजातिभ्यां संसृष्टिलंकारः ॥१६८॥ १ W. पाअंगुढग्गुक्खित्तणीसहंगीअ.
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गाहाकोसो
[२.६९W223 १६९) तह वोलते वालय तिस्सा वलिया तह नु अंगाई ।
जह पैटिममणिवडंतबाहधाराउ दोसंति ॥६९।। “W224 १७०) ता मज्झिमु रिचय वरं दुज्जणसुयणेहि दोहि वि अल मे।
जह दिट्टा तवइ खलो तहेव सुयणो अईसंतो ॥७॥ "W225 १७१) अच्छिपिच्छियं मा करेसु साहाइयं पलोएंसु ।
सो वि सुदिट्ठो होही तुमं पि मुद्धा कलिज्जिहिसि ॥७१॥ १६९) अनवरतस्य । [त्वय्यतिक्रामति बालक तस्या पलितानि तथा नु अङ्गानि । यथा पृष्ठमध्यनिपतबाष्पधारा दृश्यन्ते ॥] काचित् कस्यचित् स्वसख्याः प्रेम प्रकाशयितुम् इदमाह । हे बालय बालक, तइ वोलंते त्वय्यतिक्रामति तिस्ता वलियाइँ तह नु अंगाई तस्या वालतानि तथा न्वङ्गानि, जह पट्टिमज्झणिवतबाहधाराउ दीसंति यथा पृष्ठमध्ये निपतबाप्पधाराः अश्रुप्रवाहाः दृश्यन्ते इति । प्रथमानुरागगाथा ।। १६९।।
__ १७०) [तस्मान्मध्यम एव वरं दुर्जनसुजनाभ्यां द्वाभ्यामप्यलं मे । यथा दुष्टस्तापयति खलस्तथैव सुजनोऽदृश्यमानः ॥] ता मज्झिमु च्चिय वरं तस्मान्मध्यम एव वरं दुजणसुयणेहि दोहि वि अलं मे दुर्जन पुजनाभ्यां द्वाभ्यामपि अलं मे पर्याप्तम् । यत: जह दिद्रो तवइ खलो यथा दृष्टस्तापयति खलः तहेव सुयणो अईसंतो तथैव सुजनोऽप्यदृश्यमानस्तापयतीत्यर्थः । यतोऽसंयोगविषयो गौरवेण सुजनो दुःखाय जायते एतेन दुर्जनजने निन्दा सुनने च प्रशंसा पर्यवस्यति । व्याजस्तुतिरलंकारः । तस्या लक्षणम् । यदि निन्दन्निव स्तौति व्याजस्तुतिरसो मता. ( काव्यादर्श, २, ३४३ ) ॥१७०॥
१७१) तस्यैव (१)। [अर्धाक्षिप्रेक्षितं मा कुरु स्वाभाविक प्रलोकय । सोऽपि सुदृष्टो भविष्यति त्वमपि मुग्धा कलिष्यसे ।।] काचित्
१w. तिस्सा अंगाइ तह णु वलिआई; २ w. पुडि; ३ w. ण कज्ज; ४ w. करेहि; ५ W. पलोएहि; ६ w. होहिइ.
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-२.७३]
बीयं सयं W226 १७२) दियहं घुडंकियाए'तीए काऊण गेहवावारं ।
गरुए वि मन्नुहुक्खे भरिमो पायंतमुत्ताए ॥७२।। W227 १७३) पाणउडोए जलिऊण हुयवहो जलइ जन्नवाडेहुँ ।
न हु ते परिहरियन्वा विसमदसासंठिया पुरिसा ॥७३॥ कंचन मनीषितं प्रियं नेत्रत्रिभागेण पश्यन्तो कयाचिद् विदग्धसख्या इदमुच्यते । अद्धच्छिपिच्छियं मा करेमु अर्धाक्षिप्रैक्षितं मा कार्षीः । साहाइयं पलोएसु स्वाभाविकदृष्ट्या प्रलोकय । सो वि सुदिट्ठो होही तव हृदयदयितो विकृतदृशा पश्यन्त्या सुदृष्टो भविष्यति, तुम पि मुद्धा कलिजिहिसि त्वमपि मुग्धा ज्ञास्यसे । अन्यथा विकृतेति ज्ञास्यसे । संजातलज्जायाः कटाक्षप्रेक्षितानि खलु अनुरागलिङ्गानि, अतः तानि मा कार्षीः इति सखी"शिक्षोक्तिः ॥१७१।।
१७२) मकरन्दस्य । [दिवसं रोषमू कायास्तस्याः कृत्वा गेहव्यापारम् । गुरुकेऽपि मन्युदुःखे स्मरामः पादान्त सुप्तायाः ॥] घुडुकिया मानमौनावलम्बिनी । खण्डिता नायिका । तस्याः कोपाङ्गम् । गतार्था गाथा ॥१७२॥
१७३) विक्रमस्य । [चाण्डालकुट्यां ज्वलित्वा हुतवहो ज्वलति यज्ञवाटेषु । न खलु ते परिहर्तव्या विषमदशासंस्थिताः पुरुषाः ।।] अगम्यागमनदोषदूषितं पुरुषं परिहरन्तो पण्याङ्गना काऽपि कुट्टिन्या इदमभिधीयते । न हु ते परिहरियव्वा न खलु ते परिहर्तव्याः । के । पुरिसा 'पुरुषाः । कीदृशाः । विसमदसासंठिया विषमदशासंस्थिताः। अर्थोऽन्यः । न खलु कामुकानां पण्याङ्गना गुणागुणान् गणयन्तीति । अमुमेवार्थम् अर्थान्तरन्यासेन द्रढयति । पाणउडीए जलिऊण हुयवहो जलइ जन्नवाडेसु चाण्डालकुट्यां ज्वलित्वा हुतवहो ज्वलति यज्ञवाटेषु । यथा दाह्यमदाह्य च दहनस्य वस्तु नास्ति, एवम् उपभोग्यमनुपभोग्यं च धनलुब्धानां गणि१w. खुडकिकआए; २w. मण्णुदुक्खे, ३w. पाअंतसुत्तस्स; ४w. पाणउडीअ वि; ५w. जण्णवाडम्भिः
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गाहाकोसो
[२.७४W228 १७४) जं तुम सई जाया असईओ'जं च मुहय अम्हे वि।
___ ता किं फुटउ बिल्लं तुम समांणो जुवा नत्थि ॥७४।। W229 १७५) सव्वस्सम्मि विडढ़े तह वि हु हिययस्स निव्वुइ च्चेय ।।
जं तेण गामडाहे हत्थाहन्थि कुडो गहिओ ॥७५।। कानां नास्तीत्यर्थः । पाणो चाण्डालः । अर्थान्तरन्यासोऽलंकारः । दृष्टान्तोऽयमित्यन्ये ॥१७३॥
१७४) हालस्य । [यत्तव सती जाया असत्यो यच्च सुभग वयमपि । तत् किं स्फुटतु रहस्यं तव समानो युवा नास्ति।] जं तुज्झ जाया सई यत्तव जाया सतो असईओ जं च सुहय अम्हे वि असत्यश्च यदयमपि हे सुभग ता किं फुट उ बिल्लं तत् किं भिवतां रहस्यं तुझ समाणो जुवा नस्थि तव समानो युवा नास्ति इति । एतदुक्तं भवति । मम जाया स्वतः सतीति मा मनसि मंस्थाः । न हि स्त्री स्वतः सती भवति, स्त्रीवादेव । तदुक्तम्-रहो नास्ति क्षणो नास्ति नास्ति चोपनिमन्त्रकः। तेन. नारद नारीणां सतीत्वमुपजायते ॥ कथं न तस्याः सतीत्वमिति चेत्, तव. समानो युवा नास्ति । यद्यभविष्यत् तस्याः सतोत्वं नाभविष्यत् । किमेतदेव । नेत्याह । असईओ जं च सुहय अम्हे वि असत्यो यच्च सुभग वयमपि, तत्रापि त्वदीयशीलसौन्दर्यमेव निमित्तम् । अयमेव रहस्यमेदः, तुज्झ समाणो जुवा नत्थि इति । सदृशाथै रतुलोपमाभ्यां तृतीया वा (cf. पाणिनि २,३,७२] इति षष्ठी । हेतुपर्यायोक्तिभ्यां संकरोऽलंकारः ॥१७४॥
१७५) अन्धलक्ष्म्याः । [सर्वस्वेऽपि दग्धे तथापि खलु हृदयस्य निर्वृतिरेव । यत्तेन ग्रामदाहे हस्ताहस्तिकया घटो गृहोनः ।।] काचिद्
व्यसने समुपस्थिते पारम्पर्येण प्रियकरस्पर्शमुखं समासाद्य स्वगतमिदमाह । . सव्वस्सम्मि वि डद्धे सर्वस्वेऽपि दग्धे तह वि हु हिययस्य निव्वुइ च्चेयः
१ W. असईओ सुहअ जं च; २w. बीअं. ३ w. डड्ढे;
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-२.७८ ]
बीयं सयं
W230 १७६) जाइज्ज वणुद्देसे खुज्जो वि हु खन्नुओ झडियवत्तो।
मा माणुसम्मि लोए चाई रसिओ दरिदो य ॥७६॥ W231 १७७) तुज्झय सोहग्गगुणं अमहिलसरिसं च साहसं मज्झ ।
जाणइ गोलाऊरो वासारत्तद्धरत्तो य ॥७७॥ W232 १७८) ते बोलिया वयंसा ताण कुडंगाण खन्नुया सेसा । -
__ अम्हे वि गयवयाओ मूलँच्छेयं गयं पिम्मं ॥७८॥ तथापि खलु हृदयस्य निर्वृतिरेव । किं कारणम् । जं तेण गामडाहे हत्थाहत्थिं कुडो गहिओ यत्तेन हृदयेप्सितेन पुरुषेण ग्रामदाहे हस्ताहस्तेन कुटो घटको गृहीतः । तेन मां सर्वस्वदाहोऽपि न दुःखाकरोतीत्यर्थः । कुडो घटकः । निवृतिः सुखम् ॥१७॥
१७६) वल्लभस्य । [जायेत वनो देशे कुब्जोऽपि खलु स्थाणुको विशीर्णपत्रः । मा मानुषे लोके त्यागी रसिको दरिद्रश्च ॥] कश्चिन्महात्मा दैवदोषेण दुर्गतिं प्राप्तः परोपकारमपारयन् कर्तुं स्वगतं शोचति । जाइज्ज वणुद्देसे जायेत वनो देशे खुज्जो वि हु खन्नुओ झडियवत्तो कुब्जोऽपि स्थाणुका स्रस्तपत्रः । मा माणुसम्मि लोए चाई रसिओ दरिदो य मा मानुषे लोके त्यागी रसिको दरिद्रश्च कश्चिज्जनो जनिष्ट । खुज्जो कुब्जः । खन्नुमओ स्थाणुकः ॥१७६।।
१७७) असमसाह(स)स्य । तव च सौभाग्यगुणम् अमहिलासदृशं च साहसं मम । जानाति गोदावरीपूरो वर्षारात्रार्धरात्रश्च ॥] तुज्झ य सोहग्गगणं तव च सौभाग्यगणं अमहिलसरिसं च साहसं मज्झ अमहिलासदृशं च साहसं मम । जाणइ गोलाऊरो जानाति गोदावरीपूरः । किमेष एव । नेत्याह । वासारत्तद्धरत्तो य वर्षारात्रार्धरात्रश्च जानातीति । समुच्चयालंकारः ॥१७७॥
१७८) [तेऽतिक्रान्ता वयस्यास्तेषां संकेततरूणां स्थाणुकाः शेषाः । वयमपि गतवय सो मूलच्छेदं गतं प्रेष ॥] काचिद् गतवयाः, एव१w. णीसहो सिढिल व त्तो; २w. तस्स. ३w. वअस्सा, ४w. मूलुच्छेअं.
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गाहाकोसो
२.७९-] W233 १७९) थणवयणणियंबोवरि डसणंका गयवयाण विलयाण ।
उव्वसियाणंगणिवासमूलबंध व्य दीसंति ॥७९॥ W234 १८०) जस्स जहिं चिय पढम तिस्सा अंगम्मि निवडिया दिट्ठी।
तस्स तहि चेय ठिया सव्यंग केण वि न दिटुं ।। ८०॥ माह । ते वोलिया वयंसा ते तथाभूता इङ्गिताकारवेदिनोऽतिक्रान्ता वयस्याः, ताण कुडंगाण खन्नुया सेसा तेषां दर्शनमनोहारिणां कुडङ्गकानां संकेततरूणां स्थाणुकाः शेषाः । अम्हे वि गयवयाओ वयमपि गतवयसः मूलच्छेयं गयं पिम्म मूलच्छेदं गतं प्राप्तं प्रेम आलम्वनोद्दीपनविभावाभावात् । एतत्सर्वे कालेन समूलकाषं कषितमित्यर्थः । वोलिया अतिक्रान्ताः । वयंसा सुहृदः । कुडंगो लघुवृक्षः। खन्नुओ स्थाणुकः । सेवादित्वात् (वररुचि, ३,५२) द्वित्वम् । समुच्चयोऽलंकारः ।।१७८॥
१७९) निरुपमस्य । स्तनवदननितम्बोपरि दशनाङ्काः गतवयसां वनितानाम् । उद्वासितानङ्गनिवासमूलअन्धा इव दृश्यन्ते ।।] थणवयणणियंबोवरि डसणंका दीसंति स्तनवदननितम्बानामुपरि दशनाङ्का दृश्यन्ते दन्तक्षतानि विलोक्यन्ते । कासाम् । विलयाण वनितानाम् । गयवयाण गतवयसाम् । कीदृशाः । उब्वसियाणंगणिवासमूलबंध व्व उद्वासितानङ्गनिवासनीवीबन्धा इव दृश्यन्ते इति सम्बन्धः । उत्प्रेक्षाऽलंकारः ॥१७९।।
१८०) सर्वसेनस्य । [यस्य यत्रैव प्रथमं तस्या अङ्गे निपतिता दृष्टिः । तस्य तत्रैव स्थिता सङ्गिं केनापि न दृष्टम् ॥] कश्चित् कस्याश्चिल्लावण्यातिरेकं प्रकटयितुम् इदमाह । जस्स जहिं चिय पढमं यस्य यत्रैव प्रथमं तिस्सा अंगम्मि निवडिया दिवो तस्या अङ्गे निपतिता दृष्टिः, तस्स तहिं चेय ठिया तस्य तत्रैव स्थिता । एतदुक्तं भवति । यस्य पुंसः तद्वदनकमले दृष्टिः प्रथमं निपतिता तस्य पूर्णेन्दुबिम्बसंवादिनि तस्मिन्नेव ३w. जहण; ४w. णहरंका
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-२.८५]
बीयं सयं W235 १८१) विरहे विसं व विसमा अमयमया होइ संगमे अहियं ।
किं विहिणा समय चिय दोहिं पि पिया विणिम्मविया।।८१ लावण्यामृतरसास्वादनलालसा स्थिता । यस्य तु नेत्रोत्पलयोः पतिता तस्य तु तदीयं तरलिमगुणं, तीक्ष्णपक्ष्मलता, निकामकमनीयत्वं कनोनिकयोः, धवलभागभ्राजिष्णुतां, केतकदलद्राधिमाणं, रक्तोत्पलपलाशपाटलापाङ्गतां च पश्यतः तत्रैव स्थिता । यस्य पुनः स्तनकलशयोदृष्टिः पतिता तस्य तदीयं पारिमाण्डल्यं, घनपीनोन्नतत्वगुणं करिकलभकुम्भशोभां च समावयतः तत्रैव स्थिता । यस्य तु तदोयबाहोईष्टिः पतिता तस्व तदीयां शिरोषकुसुमसुकुमारतां चिरं चिन्तयतः तत्रैव स्थिता । यस्व च मध्यदेशे दृष्टिः पतिता तस्यापि प्रतनुलोमलतालावण्यं, नाभिगम्भीरता, त्रिवलीवलयसौभाग्यं च भावयतः तत्रैव स्थिता । यस्य च ऊरुदण्डद्वये दृष्टिः पतिता तस्यापि करिकराकारतां रूपाद्भुतं च पश्यतः तत्रैव स्थिता । यस्य च पादयोः पतिता दृष्टिः तस्यापि तदीयां स्थलकमलकोमलकान्ति नखचन्द्रचन्द्रिकां च चिरं चेतसि चिन्तयतः तत्रैव स्थिता । एवं च यस्य यत्रैव दृष्टिः पतिता तस्य तत्रैव दर्शनसुखस्य अतृप्ता अन्यतो न वलितेति । अत एव सवंगं केण वि न दिटुं सर्वाङ्गं केनापि न दृष्टम् इति । अङ्गम् अङ्गं तस्या रम्यमिति भावः। पर्यायोक्तिरलंकारः ॥१८॥
१८१) आदयराजस्य । विरहे विषमिव विषमा अमृतमया भवति संगमेऽधिकम् । किं विधिना सममेव द्वाभ्यामपि प्रिया विनिर्मिता ॥] विरहे विसं व विसमा पिया विरहे विषमिव विषमा प्रिया, अमयमया होइ संगमे अहियं अमृतमयी भवति संगमेऽधिकम् । किं विहिणा समयं चिय किं विधिना सममेव दोहि पि द्वाभ्यामपि विषामृताभ्यां पिया विणिम्मविया प्रिया विनिर्मिता, तत्कार्यकारित्वात् ताभ्यां संसृष्टेति संभावना । वियोगावियोगौ तस्या मारणजीवनकाविति तात्पर्यार्थः । विणिम्मविया सृष्टा। सामान्यम् (: साम्यम्) अलंकारः ॥१८॥ १ w. समअ चिअ किं विहिणा
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८४
गाहाकोसो
[ २.८२
W236 १८२) अहंसणेण पुत्तय सुदठु वि नेहाणुबद्ध हिययाणं । हत्थउडपाणियाइँ व काळेण गलंति पिम्माई ॥ ८२ ॥
W237 १८३) पइपुरउ च्चिय निज्जर बिछुडक्क ति विज्जजारहरं । सिढिला सहियणकरधरियभुयलयंदोलिरी अज्झा॥ ८३ ॥
W238 १८४) विक्के माहमासम्मि पामरो पारैयँ बइल्लेण । निममुम्मुरे सामलीऍ थणए नियच्छंती ॥८४॥
१८२) हालस्य । [अदर्शनेन पुत्रिके सुष्ठु अपि स्नेहानुबद्धहृदयानाम् । हस्तपुटपानीयानीव कालेन गलन्ति प्रेमाणि ||] काचित् स्वसखीं शिक्षयितुमिदमाह । पुत्तय कालेण गलंति पिंम्माई पुत्रि कालेन गलन्ति प्रेमाणि । केषाम् । सुटु वि अत्यर्थमपि नेहाणुबद्धहिययाणं स्नेहानुबद्धहृदयानाम् । केन गलन्ति । अहंसणेण अदर्शनेन । कानीव । हत्थ - डडपाणियाइँ व हस्तपुटपानीयानीव इति अस्वाधीनतां दर्शयति । अतोऽनुवर्तस्व प्रियं प्रियकृतप्रणयप्रौढिमदूरदाढर्येन दीर्घे मानं मा कार्षीरित्यर्थः । उपमा पर्यायोक्तभ्यां संकीर्णोऽलंकारः ॥ १८२ ॥
१८३) वेहुरस्य | [ पतिपुरत एव नीयते वृश्चिकदष्टेति वैद्यजारगृहम् | शिथिला सखीजनकरधृतभुजलतान्दोलनशीला आर्या || ] अशा figarh ति विज्जजारहरं निज्जइ प्रौढयुवतिः वैद्योऽयमिति व्यपदेशेन जारगृहं नीयते वृश्चिकदष्टेति । कथम् । पइपुरउ चिचय पत्युः पुरत एव । कीदृशी । सिढिला शिथिला । सहियणकरघरियभुयलयंदोलिरी सखीजनकरधृतान्दोलनशीलभुजलता । मा खलु अस्याः पतिरयं मदनवेदनां विदांकरोत्विति कृतक वृश्चिकविषव्यथा थाङ्गीति विदग्धेन सखीजनेन करधृतविलोलदोलायमानदोर्लता वैद्योऽयमिति व्याजेन जारगृहं सा तरुणी नीयत इत्यर्थः । अज्झा प्रौदयुवतिः । विछुओ वृश्चिकः । लेशालंकारः || १८३॥ १८४) मल्लसेनस्य । [विक्रीणाति माघमासे पामरः प्रावारकं वृषमेण । निर्धूममुर्मुरौ श्यामल्याः स्तनौ पश्यन् ॥ ] पामरो पारयं विक्केइ हाणुबंधघडिआई. २ w. विलुंअदट्ठेति जारवेज्जघरं ; ३ w. णिउणसहीकरधरिआ भुअजुअलंदोलिरी बाला; ४ w. विक्किणइ ५ w. पारिडिं.
? W.
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-२.८६ ]
बीयं सयं W240 १८५) अंधलयबोरपत्थि व माउया मह पई विलंपंति ।
ईसायंति मह च्चिय छिप्पाहतो फणो जाओ ॥८५॥ W239 १८६) सच्च भणामि मरणट्ठिय म्हि पुण्णे तडम्मि तावीए ।
अज्ज वि तत्थ तह च्चिय वलंति नयणा कुडंगम्मि।।८६॥ पामरः प्रावारकं विक्रीणाति । केन । बइल्लेण वृषभेण । कदा । माहमासम्मि माधमासे । किं कुर्वन् । सामलीए थणए नियच्छंतो श्यामायाः पयोघरी पश्यन् । कथंभूतौ । निदूममुम्मुरे निधूमकरीषाग्निकल्पौ। अनेनैव सोष्मणा कान्ताकुचकलशद्वयेन शिशिरनिशागमं गमयिप्यामीति किमेतेन अन्तर्गडुना प्रावारकेणेति भावः। पामरो ग्रामीणः। पारयं प्रावारकशब्दात् यावदादित्वात् (वररुचि ४, ५) लोपे सन्धौ च रूपम् । मुम्मुरो कारीषाग्निः । संकरोऽलंकारः । शङ्गाराभासोऽयम् ॥१८४॥
१८५) [अन्धबदरपात्रीमिव मातमम पतिं विलुम्पन्ति । ईर्ण्यन्ति मह्यमेव च शेफात् फणा जाता ॥] हे माउया मातः । अंधलयबोरपन्थि व मह पई विलुपैति ईसायंति मह च्चिय अन्धबदरपात्रीमिव मम पतिं विलुम्पन्ति, ईय॑न्ति मह्यमेव । स एष छिप्पाहितो फणो जाओ सोऽयं पुच्छात् फणो जातः । विपरीतमेतत् । या एव मम कान्तं कामयन्ते ता एवं प्रत्युत मह्यमीय॑न्ति, इति तदिदं पुच्छात् फणोत्पत्त्या उपमीयते । प्रतिवस्तुपमालंकारः । तस्य लक्षणम्-वस्तु किंचिदुपन्यस्य न्यसनात् तत्सधर्मणः । साम्यप्रतीतिरस्तोति प्रतिवस्तूपमा मता काव्यादर्श, २, ४६) ॥१८५॥
१८६) [सत्यं भणामि मरणस्थिताऽस्मि पुण्ये तटे ताप्याः । अद्यापि तत्र तथैव वलतो नयने लतागृहे ॥] काचिदसती वयःपरिणत्या मरणावस्थायां स्वभावम् आविष्कुर्वती इदमाह । पुण्णे तडम्मि तावीए पुण्ये तटे ताप्यभिधानाया नद्याः मरणद्विय म्हि सच्चं भणामि मरणस्थिताऽहं सत्यं भणामि । किं तदित्याह । अज्ज वि तत्थ तह चिय वलंति नयणा १w. मरणे ठिअ म्हि, २w. तत्थ कुडंगे णियडइ दिट्ठी तह च्चेअ
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गाहाकोसो
[२.८७W241 १८७) अप्पत्तपत्तयं पाविऊण नवरंगयं हलियसुन्हा ।
उयह तणुई न मायइ रुंदासु वि गामरच्छासु ॥८७॥ W242 १८८) थक्के पियाएँ पियजंपियाइँ पिय हिययणिव्वुइयराइं
विरलो हु जाणइ जणो उप्पन्ने जंपियव्याई । ८८॥ W243 १८९) छज्जइ पहुस्स ललियं पियाऍ माणो खमा समत्थस्स ।
जाणंतस्स य भणियं मउँण च अयाणमाणस्स ॥८९॥ अद्यापि तत्र तथैव नयने वलतः । क । कुडंगम्मि लतागृहे । अस्यामप्यवस्थायां सानुरागं नयने संकेतलतागृहं वलतः इति सत्यमेतत् । मरणावस्थायां को नाम असत्यं जल्पतोत्यर्थः । नयणा इति व्यत्ययो बहुलम् इति पुंसि निर्देशः । कुडंग लतागृहम् ॥१८६॥
१८७) अनुरागस्य । [अप्राप्तप्राप्तं प्राप्य नववस्त्रं हालिकस्नुषा । पश्यत तन्वो न माति विपुलास्वपि ग्रामरथ्यासु ॥] रुंदं विपुलम् । गतार्था गाथा ॥१८७॥
१८८) मन्मथस्य । [विलम्बे प्रियायाः प्रिय नल्पितानि प्रिय हृदयनिवृतिकराणि । विरलः खलु जानाति जनः उत्पन्ने जल्पितव्यानि ॥] काचित् प्रतिभाप्रभावेण तत्कालकृतमप्यलोकं प्रच्छादयति प्रिये प्रसन्ना इदमाह । हे प्रिय थक्के विलम्बे सति पियजंपियाइँ प्रियजल्पितानि....सर्व एव जनो जानाति । कीदृशानि । हियणिन्वुइयराइं हृदयसुखसंपादकानि । कस्याः । पियाएँ प्रियायाः। विरलो हु जाणइ जणो विरलः खलु जानाति जनः उत्पन्ने जंपियव्वाइं उत्पन्ने जल्पितव्यानि इति । त्वमेव केवलं तत्का लोत्पन्नं जानासि येनेदं सद्यःकृतमपि व्यलीकम् अलीकतां नीतमिति भावः ॥१८८॥
१८९) वल्लभट्टस्य । [शोभते प्रभोललितं प्रियाया मानः क्षमा समर्थस्य । जानतश्च भणितं मौनं चाजानतः ।।] छज्जइ पहुस्स ललियं १w हलिअसोहा, २ . वक्खेवआइ पिअजंपिआइ परहिअअणिबुइअराई. ३ w मोणं
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-२.९१ ]
बीयं सयं W244 १९०) वेविरसिन्नकरंगुलिपरिग्गहक्खलियलेहणीमग्गे । सत्थि च्चिय न समप्पई पियसहि लेहम्मि किं
लिहिमो ॥९॥ W246 १९१) मामि हिययं व पीयं तेणे जुवाणेण मज्जमांणीए ।
न्हाणहलिंदीकडुयं अणुमुत्तजलं पियंतेण ॥९१॥ शोभते प्रभोविलसितं, पियाएँ माणो प्रियाया मानः, खमा समत्थस्स क्षमा समर्थस्य । जाणतस्स य भणियं जानतश्च सतो भणितम्, मउणं च अयाणमाणस्स मौनं चाजानतः शोभते । इतोऽन्यथारूपं हासाय जायते, इत्यर्थः । छज्जइ इति सर्वत्र योग्यम् । दोपकमलंकारः ॥१८९॥
१९०) सुन्दरस्य । वेपमानस्विन्नकरागुलिपरिग्रहस्खलितलेखनीमार्गे । स्वस्त्येव न समाप्यते, प्रियसखि लेखे किं लिस्वामः ॥] काचित् कयाचित् प्रियतमाय सखि लेखो लिख्यताम् इत्युक्ता इदमाह । पियसहि प्रियसखि, किं लिहिमो किं लिखामः । यतः सस्थि च्चिय न समप्पड़ स्वस्येव न समाप्यते । । लेहम्मि लेवे । कथंभूते । वेविरसिन्न करंगुलिपरिग्गहक्खलियलेहणीभग्गे कम्प्रप्रस्विन्नकराङ्गुलिपरिग्रहस्खलितलेखनीमार्गे ! इह हि बहु लेखनोयं यो लिखति, लिख्यते च यस्य, तयोर्द्वयोरपि नामधामनी तदनु चोत्कण्ठाकण्ठग्रहणस्वकायकल्याणवार्ताकीर्तनादि कार्य पर्यन्तमिति । तत्र तावदादौ यत् श्रियः सूचकं स्वस्तीति (पदं) तदपि न समाप्यते, किमुतान्यदिति । वेविरमिन्न इत्यादि विशेषणद्वारेण कारणोक्तिः । कम्पस्वेदी सात्विकभावो । उत्तरमलं हारः । तस्य लक्षणम् - उत्तरवचनादित्यादि (रुद्रट, ७,९३) ॥१९०॥
१९१) इल्लकस्य । [सखि हृदयमिव पीतं तेन यूना मज्जत्याः । स्नानहरिद्राकटुकम् अनुस्रोतोजलं पिबता ॥] मामि सखि, मज्जमाणीए हिययं व पोयं मज्जत्या हृदयमिव पोतम् । अर्थात् ममेति । केन । तेण १ w. मज्जमाणाए, २ W. हलिद्दा, ३ w अणुसोत्त जलं.
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गाहाकोसो
[२.९२
W245 २९२) दिव्वम्मि पराहुते पत्तिय घडियं वि विहडइ नराणं । कज्जं वालुयवडलं व कह वि बंधं च्चिय न एइ ॥९२॥ W247 १९३) जीयं असासयं चिय न नियत्तः जुव्वणं अइक्कतं । दिया दियेहेण समान हुंति किं निठुरो लोओ ॥ ९३ ॥
萋
८८
W248 १९४) उष्पाइयदव्वाण वि खलाण को भायणं, खलु च्चेय । पिका व निंबळा नवर काएहि स्वज्जंति ॥ ९४ ॥
जुवाणेण तेन यूना । किं कुर्वता । अणुसुत्तजलं पियंतेण अनुगतं यत् स्त्रोतः तत्र जलं पिबतः । किंभूतम् । न्हाणहलिदोकडुयं स्नानार्थ या हरिद्रा तया कटुकम् । मदङ्गरागानुरागतया कटुकमपि पयः पिबता तेन अहम् आवर्जिता, इति भावः ॥। १९१ ॥
१९२ ) [ दैवे पराग्भूते प्रतीहि घटितमपि विघटते नराणाम् । कार्य वालुकापटलमिव बन्ध एव नैति ॥] दिव्वम्मि पराहुत्ते कज्जं सुघडियं पि विहडइ दैवे पराङ्मुखे कार्य सुघटितमपि विघटते । केषाम् । नराणं पुरुषाणाम् । किमिव । वालुयवडलं व वालुकापटलमिव । कह वि बन्ध च्चिय न एइ कथमपि बन्ध एव नागच्छति । पुनः पुनर्योज्यमानमपि न घटाम् उपैतीत्यर्थः । दैवप्रशंसा । उपमालंकारः ॥ १९२॥
1
१९३) रोलदेवस्य । [ जीवितमशाश्वतमेव न निवर्तते यौवनमतिक्रान्तम् | दिवसा दिवसेन समा न भवन्ति, किं निष्ठुरो लोकः ॥] काचिन्नायकं प्रतिबोधयितुं सप्रतिभेदमिदमाह । जीयं जोवितम्, असासयं चिय अशाश्वतमेव । न नियत्तइ न निवर्तते जुव्वणं अइक्कंतं यौवनमतिक्रान्तम् । दियहा दियहेण समा न हुंति दिवसा दिवसेन समा न भवन्ति, दुःख बहुलत्वात्संसारस्य । किं निठुरो लोओ किमर्थं निष्ठुरो लोकः । लोकशब्देनेह प्रियो विवक्ष्यत इति ।।१९३।।
१९४) हाडुलस्य ( राहुलस्य ) | ( उत्पादितद्रव्याणा मपि खलानां को भाजनं, खल एव । पक्वान्यति निम्नफलानि काकैः केवलं खाद्यन्ते ॥] १w. वालुअवरणं; २w बंधं चिअ ण देइ; ३w जिविअं; ४w दिअहेहि.
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-२.९६]
बीयं सय W 250 १९५) सुयणो न कुप्पइ चिय अह कुप्पइ मंगुलं न चिंतेइ ।
अह चिंतेइ न जंपइ अह जंपइ लज्जिओ होइ ॥९५॥ W251 १९६) सो अत्थो जो हत्थे तं मित्तं जं निरंतरं वसणे।
तं रुवं जत्थ गुणा तं विन्नाणं जहिं धम्मो ॥९६ः। उप्पाइयदव्वाण वि खलाण को भायणं उत्पादितद्रव्याणामपि स्खलानां को भाजनम् । उच्यते। खलु च्येय, स्खल एव तदीयद्रव्यभाग्भवतीत्यर्थः । अमुमेवार्थम् अर्थान्तरन्यासेन द्रढयति । पिक्काइँ वि निबहलाई नवर काएहि खज्जति पक्वान्यपि निम्बफलानि नूनं काकैरेवोपभुज्यन्ते, इत्यत्र अर्थान्तरन्यासोऽलंकारः । अङ्गं पुनरुत्तरम् । प्रश्नादप्युत्तरं यत्र (रुद्रट,७ ९६) ॥ १९ ॥
१९५) सुचरितस्य । [सुजनो न कुप्यत्येव, अथ कुप्यति पापं न चिन्तयति । अथ चिन्तयति न जल्पति, अथ जल्पति लज्जितो भवति ॥] सुयणो न कुप्पइ चिय सुजनो न कुप्यत्येव । अह कुप्पइ मंगुलं न चिंतेइ अथ कथंचित् कुप्यति पापं न चिन्तयति । अह चिंतेइ न जपइ अथ चिन्तयति न जल्पति, अह जंपइ लज्जिओ होइ अथ जल्पति लज्जितो भवति । मंगुलं पापम् ॥१९५॥
१९६) सज्जनस्य । [सोऽर्थो यो हस्ते तन्मित्रं यन्निरन्तरं व्यसने । तद्रूपं यत्र गुणाः, तद् विज्ञानं यस्मिन् धर्मः ।।] सो अस्थो जो हत्थे सोऽर्थो यो हस्ते । परहस्तगतं व्यसने न प्राप्यत इत्यर्थः । तं मित्तं जं निरंतरं वसणे तन् मित्रं यन्निरन्तरं व्यसने । अन्यदा (? अन्यथा) किं मित्रेणेत्यर्थः । तं रूवं जत्थ गुणा तद्रपं यत्र गुणाः । गुणरहितं रूपं न फलायेत्यर्थः । तं विन्नाणं जहिं धम्मो तद विज्ञानं यत्र धर्मः । धर्मरहितं विज्ञानम् इहामुत्र च शर्मणे न भवतीत्यर्थः । परिसंख्यालंकारः । तस्य लक्षणम् । पृष्टमपृष्टं वा सद् गुणादि यत् कथ्यते क्वचित् तुल्यम् । अन्यत्र तु तभावः प्रतीयते सेति परिसंख्या (रुद्रट, ७.७९) ॥१९६॥
१w. विप्पिअं; २w रूअं
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2
गाहाको सो
[ २.९७
W252 १९७) चंदमुहि चंदधवला दोहा दीहच्छि तुह विओयम्मि चउजामा सयजाम व्व जामिणी कह वि वोलीणा ॥ ९७॥ W253 १९८) अकुलीणो दोमुहओ ता महुरो भोगणं मुहे जाव । सुरउ व्व खलो जिष्णम्मि भोयणे विरसमारसइ ॥ ९८ ॥ १९७) हालस्य । [ चन्द्रमुखि चन्द्रधवला दीर्घा दोर्घाक्षि तव वियोगे । चतुर्यामा शतयामेव यामिनी कथमप्यतिक्रान्ता ||] कश्चिन्नायको नायिकां प्रति स्वानुरागं प्रकटयितुमिदमाह । हे चंदमुहि चन्द्रमुखि, चंदधवला चन्द्रधवला दहा दीहच्छि दीर्घा दीर्घाक्षि तुह विभयम्मि तव वियोगे, चउजामा जामिणी कह वि वोलीणा चतुर्यामा यामिनी कथमपि कष्टेन अतिक्रान्ता । केव । सयजाम ब्व शतयामेव । चतुर्यामाऽपि त्वद्वियोगेन मम शतयामेव यामिनी भूतेत्यर्थः । लाटानुप्रासो वर्णालंकारः ॥ १९७॥
१९८) रिन्द्रस्य (१ इन्द्रस्य । [ अकुलीनो द्विमुखस्तावन्मधुरो भोजनं यावत् । इलो जीर्णे भोजने विरसमारसति ||] ख़लो दुर्जनः ता महुरो भोयणं मुहे जाव तावन्मधुरो भोजनं मुखे यावत् । भोज्यमान एव मधुरं वक्ति | जिष्णम्मि भोयणे विरसमारसइ जीर्णे भोजने विरसमारसतीति परुषाक्षरं वक्ति । क इव । मुरउ व्व मुरज इव । कीदृशः स्वलो मुरजश्च । अउलीणो अकुलीनोऽनभिज्ञातः । मुरजस्तु कौ पृथिव्यां लीनो न भवति । स हि स्कन्धमारोप्य वाद्यत इति । पुनश्च कीदृशः । दोमुहओ द्विमुखः । खलः प्रियाप्रियवादित्वात्, मुरजस्तु द्विमुख उभयतोऽनुबद्धत्वात् । अयं भोजनं मार्जनापिण्डो मुखे यावत् तावदेव मधुरोऽतिसुखदः । । जीर्णे त्रस्ते च तस्मिन् विरसमारसति कर्णकटु रटतीत्यर्थः । मृदङ्गे भोजनं मार्जनादिपिण्डः । तिस्रो मार्जना भवन्ति मायूरो अर्धमायूरी कामरावेधा (१ कार्मारवी) इति । उपमालंकारः ॥१९८॥
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-२.१००]
बीय सयं
W254 १९९) तह मुन्हाएँ पुलइओ दरवलियावंगतारयं पहिओ ।
जह वारिओ वि घरसामिएण ओणिद्धए वसिओ ॥९९॥ W575 २००) रुंदारविंदमंदिरमयैरंदाणंदिरालिरिंछोली ।
रणरणइ कसणमणिमेहल व्व महुमासलच्छीए ॥ १०॥
१९९) [ तथा स्नुषया प्रलोकित ईषद्वलितापाङ्गतारकं पथिकः । यथा वारितोऽपि गृहस्वामिना अपनीध्रके उषितः ।।] तह सुन्हाएँ पहिओ पुलोइओ तथा कथंचिदवर्णनीयेन विधिना स्नुषया पथिकः प्रलोकितः जह वारिओ वि घरसामिएण यथा वारितोऽपि गृहस्वामिना "माऽस्मिन्वेश्मनि वात्सोः” इति, मोणिद्धए वसिओ अपनध्रके उषितः अनाच्छादितप्रदेश एवोषितः । कया अवलोकितः । दिट्ठीए दृशा । दरवलियावंगतारयं दरवलितापाङ्गतारकम् इति क्रियाविशेषणम् । अत्र ललितचेष्टालंकारः । क्षणमीषत्साचिविलोकितं च सभूलतास्यहसितं च । सिचयैकाञ्चलनिरुद्धवदनेन्दुचन्द्रिकाप्रसरम् ।। मनसिजगुरूपदिष्टं चेष्टितमित्यादि यत् समुद्भवति । स्त्रीणां स्वभावचेष्टाललितं तत् कीर्तितं कविभिः ।। दरं ईषत् । सुन्हा वधूः । नीघ्रं पटलम् । हेतुरलंकारः। "कारकज्ञापकौ हेतू" इत्यादि (काव्यादर्श, २,२३५) ।। १९१ ।।
२०.) पालित्तकस्य । [ विशालारविन्दमन्दिरमकरन्दानन्दशीला अलिमाला । रुणरुणायते कृष्णमणिमेखलेव मधुमासलक्ष्म्याः ॥ ] रुंदारविदमंदिरमयरंदाणंदिरालि छोली रणरणइ रुंदं विस्तीर्ण यद् अरविन्दमन्दिरं तत्र यो मकरन्दस्तेन आनन्दशीला या अलिरिंछोली मधुकरमाला सा रुणरुणायते । कसणमणिमेहल व्व कृष्णमणिमेखलेव । कस्याः । महुमासल
छीए मधुमासलक्ष्म्याः । अत्र मधुरस्वरत्वं श्यामलिमा च भ्रमरमालायाः इन्द्रनीलमणिमे वलाकलापोपमा वो जम् । रुंद विस्तीर्णम् । उपमालंकारः ॥ २०० ॥ द्वितीयं शतं समाप्तम् । १w. ओलिंदए. २w. मयरंदाणंदियालिरिंछोली; ३w. झणझण इ.
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गाहाकोसो
[३.१तीयं सयं “W576 २०१) कस्स करो बहुपुण्णफलिक्तरुणो तुहं विसम्मिहिइ ।
थणपरिणाहे वम्महणिहाणकळसे व्व पारोहो ॥ १ ॥ *W249 २०२) अज्ज मए गंतव्वं घणंधयारे वि तस्स सुहयस्स ।
. अज्मा निमीलियच्छी पयपरिवाडि घरे कुणइ ॥२॥ __ २०१) इन्दुराजस्य । [ कस्य करो बहुपुण्यफलैकतरोस्तव विश्रमिष्यति । स्तनपरिणाहे मन्मथनिधानकलशे इव प्ररोहः ।। ] ओं नमो जिनाय । काचित् कान्तं युक्त्या प्रशंसन्ती इदमाह । कस्स करो बहुपुण्णप्फलिक्कतरुणो थणपरिणाहे तुहं विसम्मिहिइ बहुपुण्यफलैकतरोः कस्य . करः स्तनपरिणाहे तव निपतिष्यति ( ? विश्रमिष्यति)। कस्मिन् क इव वम्महणिहाणकलसे व्व पारोहो मन्मथनिधानकलशे प्ररोहः पल्लवः इव । निधानकलशस्योपरि तरोः प्ररोहो रोहतीति लोकप्रसिद्धिः । धन्यः स्वल्वसौ यस्य करः तव परिणाहिनि स्तनमण्डले पतिष्यतीति भावः । बहुपुण्णप्फलेति सेवादिगणपाठात् (वररुचि, ३,५८ ) द्वित्वम् ।। २०१ ।।
२०२) हालस्य [अब मया गन्तव्यं घनान्धकारेऽपि तस्य सुभगस्य । युवतिनिमोलिताक्षी पदपरिपाटी गृहे करोति ॥ ] तरुणी पदपरिपाटी गृहे करोति । कथंभूता । निमीलियच्छी निमीलितनयना । अग्ज मए तस्स सुहयस्स घणंधयारे वि गंतव्वं अद्य मया तस्मै सुभगाय धनान्धकारेऽपि -गन्तव्यम् । तत्कथं तिरस्कृतनयनालोकेषु (तमस्सु) गम्यते इति प्रागेव
प्रियभवनमनुसंधाय निमीलिताक्षी गृह एव गतागतं करोतीति भावः । -तस्य सुभगस्येति तादर्थ्यचतुर्थ्यर्थे षष्ठी । गृह इति काकाक्षिगोलकन्यायेन वा उभयत्र संबन्धनीयम् । अभिसारिका नायिका । तस्या लक्षणम्-या दूतिकाऽऽगमनकालमपारयन्तो सोढुं स्मरज्वरभरातिपिपासितेव । निर्याति बल्लभजनाधरपानलोभात् सा कथ्यते कविवरैरभिसारिकेति ॥ तस्याः
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-३.४]
बीयं सयं
W255 २०३) हुयंति लहु पुरिसं पव्त्रयमित्तं पि दो य कज्जाई निव्वरियमणिव्वूढे निव्वूढे जं अणिव्वरियं ॥ ३ ॥ W256 २०४) कं तुंगथणुक्खितेण पुत्ति दारद्विया पुलोरेंसि । उन्नामियकलसणिवेसियग्धकमलेण व मुद्देण ॥ ४ ॥
प्रियाभिसरणे बहुलानि (१) । सा ग्रीष्मसमयमध्याह्ना अग्न्या... द्युपद्रवभवश्च कलकलभस्वस्वभाव श्वसिति (?) । लकितदुर्दिन है भवतीति (?) चैव । नीहारपातपातात् पुस्थानबेति (?) निजकालाः । पराङ्गना चेयम् । स्वीया सर्वकामिनी चति । या तयोरायतना सा प्रार्थितेव प्र-स्ताववतीव तं स्वैरं गच्छेत् । अप्रार्थिताऽपि वाऽन्यासह ( ? अन्यया सह ) । सा प्रगल्भा या गतो गच्छेत् (?) नलकूबरमिता (1) प्रथमवरू मराग़मश्री-यात् (?) । अन्याङ्गनाऽभिसरति रुदित दिशि दिशि भयतरलदृष्टिपातेन । स्नूजायै दलितासितोत्पलस्रजमिव सृजन्तो । स्वीया व्यभिसरति । पतिं प्रयच्छति प्रथमनायिका भीत्या इत्यादि । एतत् स्वयं प्राप्तावसरं दशयिष्यामः | अज्झा उपभोगयोग्या युवतिः ॥ २०२ ॥
२०३ ) शूद्रकस्य । [ लघयतो लघु पुरुषं पर्वतमात्रमपि द्वे च कार्ये । निषेदनमनिर्व्यूढे निर्व्यूढे यदनिवेदनम् ॥] दो य कज्जाई पुरिसं लहुं लहुयंति द्वे च कार्ये पुरुषं लघु शीघ्रं लघयतः । किंविशिष्टं पुरुषम् | पव्वयमित्तं पि पर्वतमात्रमपि । के ते द्वे कार्ये इत्याह । निव्वरियं दुःखनिवेदनं यत् अणिग्वूढे अभरसहे पुंसि, निव्वूढे जं अणिव्वरिय निर्व्यूढे यद् दुःखानिवेदनम् ॥ २०३ ॥
२०४) गोविन्दस्वामिनः । [ कं तुङ्गस्तनोत्क्षिप्तेन पुत्रि द्वारस्थिता प्रलोकयसि । उन्नामित कलश निवेशितार्घकम लेनेव मुखेन ॥ ] पुत्ति पुत्रि कं तुंगथणुक्खितेण मुहेण द्वारद्विया पुलोएसि कं पुरुषं तुङ्गस्तनो रिक्षप्तेन मुखेन द्वारस्थिता अवलोकयसि । कथंभूतेन मुखेन । उन्नामियकलसणिवे-१w. दो विकज्जाई; २w. पलोएसि. ३ The following portion of the commentary is corrupt and abounds in quotations.
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९४
गाद्दाकोसो
[३.५
W257 २०५) वइविवरणिग्गयदलो एरंडो साहइ व्व तरुणाणं । एत्थ घरे saras seहमित्तत्थणी वसई ॥ ५ ॥ W258 २०६) करिकैलह कुंभसंनिहघणपीणणिरंतरेहि तुंगेहिं । ऊससिउं पिन तीरइ किं पुण गंतुं हयथणेहिं ॥ ६॥ सियग्घकमलेण व उन्नामितकलशनिवेशितार्धकमलेनेव । धन्यः स्वल्वसौ यस्य त्वं मार्ग मृगाक्षि मृगयसे, इत्यर्थः । उपमाजातिभ्यां संसृष्टिरलंकारः 11 208 11
२०५) पालित्तकस्य । [ वृतिविवरनिर्गतदलः एरण्डः कथयतीति तरुणानाम् । अत्र गृहे हालिकवधूरे तावन्मात्रस्त नो वसति ।। ] एरण्डो गन्धर्वहस्ततरुः साहइ व्व तरुणाणं कथयतीव तरुणानाम् । कीदृशः । वइविवरणिग्गयदलो वृतिविवरनिर्गतदलः । किं तदित्याह । एत्थ घरे हलियवहू इद्दहमित्तत्थणी वसइ अत्र गृहे हालिकवधूः एतावन्मात्रस्तनी वसति । प्रवितताङ्गुलिकराकारेण पत्रेण यौवनप्रमाणमिव प्रकाशयतीति । स तवेत्यनुमानेन (1) उत्प्रेक्षा । तदुक्तं वक्रोक्तिजीवितकृता संभावनानुमानेन इत्यादिना ग्रन्थेन ( वकोक्तिजीवित, ३,२५) । वई वृतिः । साहइ कथयतीति
॥ २०५ ॥
२०६ ) तस्यैव ( पालित्तकस्य ) । [ करिकलभकुम्भसंनिभघनपोननिरन्तराभ्यां तुङ्गाभ्याम् । उच्छ्वसितुमपि न शक्यते किं पुनर्गन्तुं हतस्तनाभ्याम् || ] काचित् कयाचित् सर्वाङ्गावतीर्णतारुण्य भरनिर्भरा प्रियाभिसरणेऽभिहिता इदमाह । हयथणेहिं ऊससिउं पि न तीरइ किं पुण गंतुं हतपयोधराभ्याम् उच्छ्वसितुमपि न शक्यते किं पुनर्गन्तुम् । कथंभूताभ्याम् । गयकलहकुंभसंनिहघणपीणणि रंतरेहि ँ गजकलभकुम्भसंनिभघनपीननिरन्तराभ्याम् । पुनश्च कीदृशाभ्याम् । तुंगेहिं तुङ्गाभ्याम् । ईदृशेनामुना कुम्भद्वयेन उच्छ्वासोऽपि न मे इति । गच्छेति का कथा मन्यसे, इत्यर्थः ॥ २०६ ॥
१w. गअकलह.
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.-३.८]
बीयं सयं . W259 २०७) मासपसूयं छम्मासगब्भिणि इक्कदियहजरियं च ।
रंगुत्तिण्णं च पियं पुत्तय कामंतओ होहि ॥ ७ ॥ W260 २०८) पडिवक्खमन्नुपुंजे लायण्णकुडे अणंगगयकुंभे ।
पुरिससयहिययधरिए कीस थणंती थणे वहसि ॥ ८॥
२०७) कविराजस्य । [ मासप्रसूतां षण्मासगर्भिणीम् एकदिवसज्वरितां च रोत्तोर्णा च प्रियां पुत्रक कामयमानो भव ॥ ] मासप्रसूतां प्रियां पुत्रक कामयमानो भव । मासप्रसूताया अलसश्लथाङ्ग्या गाने प्रियानुरागातिरेकः स प्रियस्य रिरंसां जनयति । एवं षण्मासगर्भिण्याः एकदिवसज्वरितायाः रङ्गोत्तोर्णायाश्च विश्रमशिथिलाइग्याः वेदितव्यम् । अपरिपूर्णमासा प्रदरप्रसवव्यथाश्लमीना (?) अभिगमनायोग्या युवतिर्भवतीति । किमेतावदेव । नेत्याह। छम्मासगब्भिणिं इक्कदियहजरियं च रंगुत्तिण्णं च कामंतओ कामयमानो भवेति सर्वत्र योज्यम् । आ षण्मासाद् हि गभस्रंसनशङ्कया न भार्याऽभिगम्यते । परतस्तु कललघनपेशीपराङ्गुलिपरिपूर्णबहलपिण्डतया गर्भस्य, अभिगम्यत एव । एकदिवसज्वरितायां न तावन्मात्रेणैव शक्तिव्युपरमः । अतः साऽपि सेव्यते, इति । रङ्गोत्तीण वस्तुश्रमशिथिलसर्वावयवाऽपि रतिरिरंसां जनयतीति । अतः साऽपि सविशेषतः सेव्या । तिसृणामिति च सामीकक्षतसामर्थ्यात् (?) नार्या रिरंसा प्रियस्यानुराग़ातिशयहेतुरिति । अन्यस्तु यो मासप्रसवां षण्मासगर्भिणोम् एकदिवसज्वरितामपि कामयमानावासास्वविरोधाद (?) र
ङ्गोत्तीर्णा प्रियां कामयमानो भवेत्याह । अपरे तु-मासप्रसूतां कामय. मानः स गर्भिणीम् एकदिवसज्वरितां रङ्गोत्तीर्णा च अङ्गना मृगाङ्गा भवतीति (१) अतः सैव सेव्येति व्याचक्षते । शब्दपूर्ववाक्याविशेषवर्तते (?) । रङ्गो नृत्यभूमिः ।। २०७ ॥
२०८) हालस्य । [ प्रतिपक्षमन्युपुजौ लावण्यघटौ अनङ्गगजकुम्भौ । पुरुषशतहृदयधृतो कस्मात् स्तनन्ती स्तनौ वहसि ॥ ] किमिति स्तनन्तो स्तनौ वहसि । कीदृशौ । पडिवक्वमन्नुपुंजे प्रति१w• लावण्णउडे.
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गाहाकोसो
[३.९W261 २०९) घरिणिघणत्थणपिल्लणसुहेल्लिपडियस्स हुंतपहियस्स ।
अवसउणंगारयवारविहिदियहा सुहावंति ॥ ९ ॥ W262 २१०) सा तुज्झ कए बालय 'निच्च धरदारतोरणणिसण्णा ।
ओ सूसइ बंदणमालिय व्व दियहं चिय वराई ॥१०॥ पक्षस्य सपत्नीजनस्य मन्युराशी । अणंगग़यकुंभे अनङ्गगज कुम्भौ । ईदृशौ पयोधरौ किमिति स्तनन्ती : वहम ति । विशेषणद्वारेण कारणमाह । पुरिससयहिययधरिए पुरुषशतहृदयादी भासरतया(?)सुवहावपि किं स्तनन्तो स्तनौ वहसीत्यर्थः । तव स्तनौ समस्तयूनां मनस्सु संविभक्तभारतया वस्तु सुवहं भवति (? वस्तुसुवही भवतः) । स्फरसि वर्तस (?) इति तात्पयार्थः । मन्नू मन्युः । कुडो घटकः । रूपकसमासोपमा (?) संकरानुगृहीतः पर्यायोक्तिरलंकारः ॥ २०८ ॥
२०९) ऊर्ध्ववंशस्य । [ गृहिणीघनस्तनप्रेरणसुखपतितस्य भवत्पथिकस्य । अपशकुनाङ्गारकवारविष्टिदिवसाः सुस्वयन्ति ॥ ] हुंतपहि. यस्स भवत्पथिकस्य सुहावंति सुखयन्ति । के ते । अवसउणंगारयवारविट्ठिदियहा अपशकुनाङ्गारकवारविष्टिदिवसाः । कीदृशस्य तस्य । घरिणिघणत्थणपिल्लणसुहेल्लिपडियस्स गृहिण्या यौ घनौ स्तनौ, ताभ्यां यत् प्रेरणसुखं, तत्र पतितस्य । सर्वस्यैव प्रवसतः सतोऽपशकुनादीनि दुर्निमित्तानि दुःखाय जायन्ते । तस्य पुनः प्रत्युत प्रमदाघनस्तनकलशस्पर्शकेलिदुर्ललितस्य सुखाय जायन्त इति । अनुकूलो नायकः । सुहेल्ली सुखम् । अङ्गारकवारो मङ्गलदिनम् । विष्टिः भद्रा ॥ ५०९ ।।
२१०) दुर्विदग्धस्य । [ सा तव कृते बालक नित्यं गृहद्वारतोरणनिषण्णा। ओ शुष्यति वन्दनमालिकेव दिवममेव वराकी ॥ हे बालय सा वराई तुज्झ कए ओ सूमइ हे बाल क सा त्वदर्थे वरकी नित्यं शुष्यति म्लानिमायाति । दियहं चिय दिवसमेव । कीदृशी । घरदारतोरणणिसण्णा
१w. अणिसं
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-३. १२]
सीयं सयं W263 २११) हसियं सहत्थयालं मुक्वडं भाईएहि पहिरहि।
पत्तप्फलसारिच्छे उड्डाणे पूसम्मि ११॥ W264 २१२) अज्ज मिह हासिया मामि तेण पाएमु तह पडं तेण ।
तीए वि जलंतिं दीववट्टिमभुत्तणंतीए ॥ १२ ॥ गृहद्वारतोरणनिषण्णा । का इव । वंदणमाछिय व्व वन्दनमालिकेव । यथा वन्दनमालिका मन्दिरद्वारे तोरणनिषण्गा अतिक्रामति दिवे (? दिवसम्) । वन्दनमालिकां निवेश्य तया सह त्वन्मार्ग मृगयमाणा मृगाक्षी म्हायतीत्यर्थः । अपश्य (!) सहोक्तिरलंकारः । उभयोरपि उपमानोपमेयभावयोः प्रारम्भणिकत्वात् (?) समुच्चयोपमेयम् इत्यन्ये । ओ इति सूचनायां निपातः ॥ २१० ॥
२११) पालित्तकस्य । हसितं स्वहस्तताले शुष्कवटम् आगतैः पथिकैः । पत्रफलसदृझे उड्डोने शुकवृन्दे ॥ ] पहिएहिं हसियं पथिकैर्हसितम् । सहत्थयालं स्वहस्ततालं करतले करं ताडयित्वेत्यर्थः। कथंभूतैः । सुक्कवडं आइएहि शुष्कवटमागतैः । कस्मिन् सति हसितम् । उड्डीणे पूसवंदम्मि उड्डीने शुककुले । कीदृशे । पत्त फलप्तारिच्छे पत्रफलसदृशे । शुकानां चम्चपुटपाटलिम्ना नोलच्छदच्छवितया च वटविटपिनः पत्रफल सादृश्यम् । आइओ आगतः । पूसो शुकः । वंद्रं वृन्दम् । हास्यो रसः । शुकशकुन्तोड्डयनम् मालम्बनविभावः । स्वकरतलताडनं सहितम् अनुभावः । संरब्धस्वरनेत्रं यद् विक्रुष्टोत्कण्ठस्वरहास्यम् । स्वकरताडितकरतलं पुनरपि हसितमित्याहुः । हेतुरलंकारः ॥ २११ ॥
२१२) अन्ध्रलक्ष्म्याः । [ अद्यास्मि हासिता सखि तेन पादयोस्तथा पतता । तयाऽपि ज्वलन्ती दीपवर्तिमभ्युन्नमयन्त्या ॥] अद्य स्वनायिकां तामनुनेतुं तथा सपत्नीनाम्ना पादयोः पतता तेन यूना अहं हासिताऽस्मि । सर्वत्रव खलु सपत्न्यनुकूलाचरणचिह्ननिह्नवपरेण प्रेयसी
१w. उवगएहि; २w. पत्तअफलाण सरिसे; ३w.पूसविंदम्मि; ४w. अब्भुत्तअंतीए.
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९८
गाहाकोसो
३.१३-]
W265 २१३) अणुवत्तणं कुणंतो वेसे वि जणे अभिन्नेमुहराओ । अपसो वि सुयणो परव्वसो आडियाईए || १३|| W266 २१४) अणुदियह वड्ढियायर विभाणगुणेहि जणियमाहप्पो । पुत्तय अहियायजणो विरमाणो वि दुल्लक्खो ॥ १४ ॥
प्रसाद्यते । प्रवृत्त इति ( 1 ) । न केवलं ( तेन ) । तीए वि जलति दीववटिमम्भुत्तणंतीए तयाऽपि अन्तीम दोपवर्त्तिमुत्क्षिपन्या अहं हासितेत्यर्थः । अयमर्थः । मा कदाचित् विभवं (1) मत्प्रियो मां मन्दमन्देन दीपोद्योतेन (न) प्रत्यभिजानातीति । तदेषाऽहं तद्वत्र्त्तिमुद्दीप्य दर्शयामि आत्मानमिति । अथवा अमुना दीपवर्त्तिनो (१) वन्दनरूपेणेङ्गित लिङ्गतेन........ । अहुत्तणं (! अब्भुत्तणं) उत्क्षेपणम् । सूक्ष्मो नामालंकारः । तस्य लक्षणम् - इङ्गिताकारलश्योऽर्थ इत्यादि ( काव्यादर्श २,२६० ) । हास्यो रसः । एष मुखरागपार्श्वग्रहणौष्ठ कपोलनासिकास्फुरणैः । करतलताडनदृष्टिव्याघातांस कुञ्चनैः कार्यः || हास्योऽपि हासमूलः स्फुटमुत्तममधमाधम प्रकृतिः ः । विकृताङ्गवेषभाषाव्यापारेभ्यः समुद्भवति ॥ २१२ ॥
२१३) शूद्रकस्य । [ अनुवर्तनं कुर्वन् द्वेष्येऽपि जनेऽभिन्न मुखरावः । आत्मवशोऽपि सुजनः परवरा आभिजात्येन ॥ ] काचिदन्यासकमपि नायकगुणेन तथैव वर्तमानं प्रियं भिनत्ति । अवसो वि सुयणो अत्मवशोऽपि सुजनः परव्वसो परवशो भवति । कया । आहियाईए अभिजातकुलीनतया । किं कुर्वन् । अणुवत्तणं कुणंतो अनुवर्तनं कुर्वन् । वेसे व जणे द्वेष्येऽपि जनेऽपि । कीदृशः सन् । अभिन्नमुहराओ अभिन्नमुस्वरागः । त्वं खलु मयि वीतरागो यत् पुनरनुवृत्तिं विधत्से । अभिजातिशब्दस्य समृद्ध्यादिगणपाठाद् दीर्घत्वम् ( वररुचि, १,२ ) । अप्पव्वसो अ- परवशः ( परव्वसो परवशः ) इति सेवादित्वाद् द्वित्वे रूपे आत्मवशपरवशशब्दयोः । मध्या नायिका स्वीया ॥ २१३ ॥
1w. अहिण्ण; 2w. अप्पवसो वि हु सुअणो.
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-३.१६]
तीयं सर्य W267 २१५) विन्नाणगुणमहग्धे पुरिसे वेसत्तणं पि रमणिज्ज ।
जणणिदिए उण जणे पियत्तणेणावि लज्जामो ॥१५॥ W268 २१६) कह नाम'तीए तं तह सहावगरुओ वि थणहरो पडिओ।
__ अहवा महिलाण चिरं को वा हिययम्मि संठाइ ॥ १६ ॥
२१४) हालस्य । [ अनुदिवसवर्धितादरविज्ञानगुणैर्जनितमाहात्म्यः । पुत्रिके अभिजातजनो विरज्यमानोऽपि दुर्लक्षः ॥ पुत्तय पुत्रिके अहियाय जणो विरजभाणो वि दुल्लक्खो अभिजात ननो विज्यमानोऽपि दुर्लक्षः । कोदृशः । जणियमाहप्पो जनितमाहात्म्यः । कैः । अणुदियहवड्ढियायरविन्नाणगुणेहि अनुदिवसवर्धितादरविज्ञानगुणैः । यथा यथा अभिजातजनो विरज्यते तथा तथा अधिकाधिकम् आदरविशेषं दर्शयति । अतो मय्ययमनुरक्त इति मा मनसि मंस्था इति । मुग्धाप्रबोधनम् । दक्षिणो नायकः । यः सद्भावं भयं प्रथम (१) गौरवं पूर्वयोषिति । न मुञ्चत्यन्यवृत्तेऽपि ज्ञेयोऽयं दक्षिणो यथा ॥ २१४॥
२१५) पराक्रमस्य । [विज्ञानगुणमहाघे पुरुषे द्वेष्यत्वमपि रमणीयम् । जननिन्दिते पुनर्जने प्रियत्वेनापि लज्जामहे ॥] पुरिसे वेसत्तणं पि रमणिज्जं पुरुषे द्वेष्यत्वमपि रमणीयम् । कथंभूते पुरुषे। विन्नाणगुणमहाघे विज्ञानगुणमहाबै । जणणिदिए उण जणे जननिन्दिते पुनजने पियत्तणेणावि लज्जामो प्रियत्वेनापि लज्जामहे । गुणवान् वरं विरक्तोऽपि न पुना रक्तोऽपोतरः, इत्यर्थः । विवेकिपुरुषप्रशंसापरेयमुक्तिः ॥ २१५ ॥
२१६) समरशक्तेः । [कथं नाम तस्यास्तत् तथा स्वभावगुरुकोऽपि स्तनभरः पतितः । अथवा महिलानां चिरं को वा हृदये संतिष्ठते ॥] कह नाम तोएँ कथं नाम तस्याः तं तह सहावगरुमओ वि विशेषेण तथा स्वभावगुरुकोऽपि थणहरो पडिओ स्तनभरः पतितः । अहवा महिलाण चिरं को वा हिययाम्म संठाइ कः किल महिलानां १w. तीअ तह सा
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१०० गायकोसो
[३.१७W269 २१७) सुयणु वयणं छिचं या परं सालोएँ वारेहि।।
एयस्स पंकयस्स य जाणउ कयरं मुहप्फंसं ॥१७॥ W270 २१८) माणोसदं व पिज्जइ पियाइ माणंसिणीऍ दइयस्स ।
करसंपुडवलिउत्ताणवयण मइराएँ गंडूसो ॥ १८ ॥ W430 २१९) अन्नो को इ सहावो वम्महसिहिणो हला हयासस्स ।'
विञ्झाइ नीरसाणं हियए सरसाण पज्जलइ ॥ १९ ॥ हृदये चिरं संतिष्ठते । तथेति तेन प्रकारेण । तनुतरतरङ्गभङ्गरं पुरन्ध्रीणां प्रेम भवतीत्यर्थः । आक्षेपोऽलंकारः । तस्य लक्षणम् । वस्तु' प्रसिद्धमिति यद् विरुद्धमिति वाऽस्य वचनमाक्षिष्य । अन्यत् तथात्व. सिद्धयै यत्र ब्रूयात् स आक्षेपः ॥ (रुद्रट, ८, ५९)। २१६ ॥
२१७) हालस्य । [सुतनु वदनं स्पृशन्तं मा सूर्य मयूरपिच्छछत्रिकया वारय । एतस्य पङ्कजस्य च जानातु कतरत् सुखस्पर्शम् ।। हे सुयणु सुतनु वयणं छिवंतं वदनं स्पृशन्तं मा सूरं साहुलीऍ वारेहि सूर्य मा मयूरच्छदच्छत्रिकया करधृतया वारय । एयस्स पंकयस्स य जाणउ कयरं सुहप्फंसं एतस्य वदनस्य पङ्कजस्य च जानातु कतरत् सुखस्पर्शम् । सुखदायित्वात् सुखः स्पर्शो यस्य तत् तथोक्तम् । साहुली मायूरच्छत्रिका । शाखा, वस्त्रं वा ( इति ) अन्ये । पर्यायोक्तिरलंकारः ॥ २१७ ॥
२१८) मेघनीलस्य । [मानौषधमिव पीयते प्रियया मनस्विन्या दयितस्य । करसंपुटलितोत्तानवदनं मदिराया गण्डूषः ॥] प्रियया गण्डूषः पीयते । कस्य । दइयस्य वल्लभस्य । कथंभूतया तया । माणसिणीऍ मनस्विन्या । कस्या गण्डूषः । करसंपुडवलिउत्ताणवयणमइराएँ करसंपुटवलितोत्तानवदनमदिरायाः । करसंपुटवलितोत्तानवदनम् इति क्रियाविशेषणस्य मदिरापदेन समासश्चिन्त्यः । उपमाऽलंकारः ॥ २१८ ॥ १w. साउलीअ, २w. माणोसहं; ३w. करसंपुडवलिउद्घाणणा.
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-३.२१]
तीयं सयं W271 २२०) कह सा निव्वणिज्जइ जीऍ जहालोइयम्मि अंगम्मि ।
दिट्ठो दुब्बलगाइ व्व पंकवडिया न उत्तरइ ॥ २० ॥ W272 २२१) कोरंति चिय नासइ उयए रेह व्व खलजणे मित्ती ।
सा उण सुयणम्मि कया अणहा पाहाणरेह ब्व ॥ २१ ॥
२१९) राघवस्य । [अन्यः कोऽपि स्वभावो मन्मथशिखिनो हला हताशस्य । वीध्यते नीरसानां हृदये सरसानां प्रज्वलति ॥] अन्यः कोऽपि . स्वभावो मन्मथशिखिनः, हला चेट्याह्वानं, हताशस्य । तदेव दर्शयति (नीरसानां हृदये निर्वाति) सरसानां हृदये प्रज्वलति दीप्यते । अन्यो वह्निः खलु आवॆण दारुणा न दीप्यते शुष्केणेन्धनेन पुनर्दीप्यत एव । एकत्र नीरससरसशब्दो शुष्काईपर्यायौ, अन्यत्र निरनुरागसानुरागपर्यायौ ।
आभ्यां विरोधच्छाया काऽपि सहृदयचमत्कारिणी समुल्लसतीति । सजातिव्यतिरेको नामालंकारः (काव्यादर्श, २. १९८) ॥ २१९॥
२२०) रामदेवस्य । [कथं सा निर्वर्ण्यते यस्या यथाऽऽलोकिते अङ्गे । दृष्टिर्दुर्बलगौरिव पङ्कपतिता नोत्तरति ॥] कह सा निव्वण्णिज्जइ कथं सा निर्वर्ण्यते जोएँ जहालोइयम्मि अंगम्मि यस्या यथाऽऽलोकिते अङ्गे दिट्ठी न उत्तरइ दृष्टिर्नोत्तरति । कीदृशी का इव । पंकवडिया दुब्बलगाइ व्व पङ्कपतिता दुर्ब लगौरिव । अङ्गमङ्गं तस्या मनोहरमित्यर्थः । उपमालंकारः ॥ २२० ॥
२२१) पर्वतकुमारस्य । [क्रियमाणैव नश्यति उदके रेखेव खलजने मैत्री। सा पुनः सुनने कृता अनघा पाषाणरेखेव ॥] क्रियमाणैव विनश्यति उदके रेखेव खलजने मैत्री । सा पुनः सुजने कृता अनघा अक्षया भवति । केव । पाहाणरेह व्व पाषाणरेखेव । उपमाऽलंकारः
॥ २२१॥
१w. णिव्वणिज्जउ.
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१०२ गाहाकोसो
[३.२२w 273 २२२)अन्वो दुक्करयारय पुणो वि तर्ति करेंसि गमणस्स
अज्ज वि न हुंति सरला वेणीऍ तरंगिणो चिहुरा ॥ २२ ।। W 274 २२३) न वि तह छेयरयाइँ वि हरंति पुणरुत्तरायरसियाई ।
जह जत्थ व तत्थ व जह व तह व सब्भावरमियाइं ॥२३॥ W276 २२४) दढमूढेबद्धगंठि व्व मोइया कह वि तेण मे बाहू ।
अम्हेहि वि तस्स उरे खुत्त व्व समुक्खया थणया ॥२४॥
२२२) [हंहों दुष्करकारक पुनरपि चिन्तां करोषि गमनस्य । अद्यापि न भवन्ति सरला बेण्यास्तरङ्गिणश्चिकुराः ॥] काचित् प्रियं प्रवसन्तं सखेदमिदमाह । अन्वो दुक्करयारय अन्चो (हंहो) दुष्करकारक, पुणो वि तत्ति करेसि गमणस्स पुनरपि चिन्तां करोषि गमनस्य । यतः अज्ज वि न हुंति सरला अद्यापि न भवन्ति सरलाः वेणीऍ तरंगिणो चिहुरा वेण्यास्तरङ्गिणश्चिकुराः । एतदुक्तं भवति । त्वयि प्रवासरसिके ये बेणीबन्धाकुञ्चनकुञ्चिताः केशाः ते नाद्यापि सरलतामायान्ति । तत् किमर्थमियम् अचिरागतस्यापि तव पुनःप्रवासवासनाव्यसनितेति । अन्वो इति निपातो दुःखसूचने (वररूचि ९,१०)। चिहुरा इति स्फटिकनिकषचिकुरेषु कस्य हत्वे रूपम्(वररुचि २,४) । आक्षेपोऽलंकारः ॥ २२२ ॥
२२३) हालस्य । [नैव तथा छेकरतान्यपि हरन्ति पुनरुक्तरागरसिकानि । यथा यत्र वा तत्र वा यथा वा तथा वा सद्भावरतानि ॥] नैव तथा छेकरतान्यवि पारतन्त्र्यम् उत्पादयन्ति । कीदृशानि । पुणरुत्वरायरसियाई पुनरुक्तरागरसिकानि । जह जत्थ व तत्थ व यथा यत्रैव (यत्र वा तत्र वा ) यथा च तथा च (यथा वा तथा वा ) सद्भावरमियाई सद्भावरमितानि । आलिङ्गनचुम्बनदशनच्छेद्यविधाननिपुणनिधुवनविधेः सहजस्नेहभरनिर्भरनिष्णाताधिकसुरतानि विशिष्यन्त इत्यर्थः ॥ २२३ ॥
२२४) कस्याषि () [दृढमूदबद्धग्रन्थिरिव मोचितौ कथमपि 1 w. दढमूलबंधगंठि व्व.
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-३.२६]
तीयं सयं
१०१
W275 २२५) वुझेसि पियाइ समयं त वि हु रे भणसि कीस किसय त्ति ।' उपरिभरेण अयाणुय मुयइ बइल्लो बि अंगाई || २५ ||
W 277 २२६) अणुणयपसाइयाए तुज्वराहे चिरं गणतीए । अपतोह हत्थंगुलीऍ रुन्नं वराईए ||२६||
तेन मे बाहू | अस्माभिरपि तस्योरसि मग्नाविव समुत्खातौ स्तनौ ॥] दृढमुग्धदत्तग्रन्थिरिव तेन कथमपि स्थापितौ बाहू, तेनाहं गाढं भुजाभ्यामवटब्धा इत्यर्थः । अस्माभिरपि तस्योरसि खुत्त ब्व समुक्खया थणया मग्नाविव उत्खातौ स्तनौ, इति विपरीतरतानुरागप्रकाशनम् । पूर्वार्ध उपमा, उत्तरार्धे तूत्प्रेक्षा । स्वाधीनपतिका नायिका, अनुकूलो नायकः ॥ २२४ ॥ २२५) समरस्य । [ उसे प्रियया समं तथापि खलु रे भणसि कस्मात् कृशेति । उपरिभरेण अज्ञ मुञ्चति बलीवर्दोऽपि अङ्गानि ॥] काचित् किमिति त्वं कृशेति प्रियेण पृष्टा तं प्रतिभिनत्ति । उद्यसे प्रियया सार्धं तथापि खलु रे भणति कस्मात् कृशेति । उयरिभरेण अयाणुय उपरिभरेण अज्ञ मुयइ बइल्लो वि अंगाई मुञ्चति वृषभोऽपि अङ्गानि किं पुनर्न वयं मुञ्चामः इति । सा तव हृदये वसतीति उभयभारधारणे कस्मान्न देहदौर्बल्यं जायत इति । वुज्झसि इति दुहिलिहिवहां दुज्झलिज्झवुज्झाः धातोः इति वहेः बुझादेशे रूपम् । उत्तरार्थान्तरन्यासाभ्यां संसृष्टिरलंकारः । रे इति निपातो निन्दायाम् । रे अरे इति संभाषणरतिकलहाक्षेपेषु ( वररुचि, ९.१५ ) ॥ २२५ ॥
२२६) ईशानस्य । [ अनुनयप्रसादितया तवापराधांश्विरं गणयन्त्या । अप्रभूतोभयहस्तागुल्या रुदितं वराक्या ।। ] काचित् सखी कस्याश्चिन्नायकं प्रतोदम् आह । अनुनयप्रसादितया रुदितं वराक्या । प्रसादितापि कि रोदितीति विशेषणद्वारेण कारणमाह । कथंभूतया । तुझबराहे चिरं गणतीए तवापराधांश्विरं गणयन्त्या । अतोऽपि किम् इत्याह । 1 w. उज्झसि, 2 w. तह वि अरे, 3 w तुह अबराहे
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गाहाकोसो
[३.२७W 278 २२७) सेयच्छलेण पिच्छह तणुए अंगम्मि से अमायंत ।
लायण्णं ओसरइ ब तिवलिसोवाणपंतीहि ॥२७ ॥ W 279 २२८) दिव्वायत्तम्मि फले कि कीरई एत्तियं पुणे भणामि ।
किंकिल्लिपल्लवा पल्लवाण न हु हुँति सारिच्छा ॥२८॥ अपहुत्तोहयहत्थंगुलीऍ अप्रभूतोभयहस्ताङ्गुल्या । अहं किल कराङ्गुलीगणनाधिकान् एतान् अपराधान् कथं गणयिष्यामीति रुदितमित्यर्थः । एतेन नायकस्य (प्र) भूतापराधता तस्याश्च मौग्ध्यमुक्तं भवति । तुज्झवराहे इति भावांसंविलोपवहुरित्यकारलोपः (१) ।। २२६ ।।
२२७) निरवग्रहस्य । [स्वेदच्छलेन प्रेक्षध्वं तनुकेऽङ्गे तस्या अमात् । लावण्यमपसरतीव त्रिावलोसोपानपङ्क्तिभिः ॥] काचिन्नायकस्य प्रथमदर्शने स्वेदप्लुतां कांचिद् वीक्ष्येदमाह । पिच्छह से लायण्णं ओसरइ व्व पश्यतास्या लावण्यम् अपसरतीव । कथम् । सेयच्छलेण स्वेदापदेशेन । काभिः । तिवलिसोवाणपंतीहिं त्रिवलिसोपानपङ्क्तिभिः । किमित्यवतरतीत्याह। तणुए अंगम्मि अमायंतं तनुके अङ्गे अमात् । यत् किल तुच्छाधारतया न माति, तत् तस्मादववंसत इति प्रचुरलावण्यवर्णनपरेयमुक्तिः । स्वेदः सात्विको भावः ।।२२७॥ - २२८ हालस्य । दैवायत्ते फले किं क्रियते, एतावत् पुनर्भणामि । अशोकपल्लवाः न खलु पल्लवानां भवन्ति सदृशाः।।] काचित् स्वगुणानुगुणं फलमनासादयन्ती इदमाह । दिव्वायत्तम्मि फले किं कीरइ दैवायत्ते फले किं क्रियते एत्तियं पुण भणामि एतावन्मानं पुनर्ब्रवीमि । किं तदित्याह । किंकिल्लिपल्लवा पल्लवाण न हु हुंति सारिच्छा अशोकपल्लवा अन्यपल्लवानां न खलु भवन्ति सदृशाः । अन्यथा गुणा अन्यथा फलमिति भावः । सेवादिपाठाद द्वित्तम् । सारिच्छा इति समद्धयादिपाठाद दीर्घत्वम् । किंकिल्ली अशोकः। अन्योक्तिरलंकारः ॥ २२८॥ lw. कीरउ 2w.पुणे भणिमो, 3w. कंकेल्लिपल्लवाणं ण पल्लवा होति सारिच्छा.
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W280 २२९) धुयइ व्व मयकलक कवोलपडियस्य चंदेस्स ।
अणवरयमुक्कजलभरियण यणकलसेहि सौ बाला ॥ २९ ॥ W281 २३०) गंधेण अप्पणो मालियाएँ नोमालियाएँ फुट्टिहिइ ।
अन्नो को वि हयासाऍ मासलो परिमलुग्गारो ॥३०॥ W282 २३१) फलसंपत्तीए समोणयाइँ तुंगाइ फलविपत्तीए ।
हिययाइँ सुपुरिसाणं महातरूणं व सिहराई ॥ ३१ ॥
२२९) जीवदेवस्य ।[मार्जयतीव मृगकलङ्क कपोलपतितस्य चन्द्रस्य । अनवरतमुक्तजलभृतनयनकलशाभ्यां सा बाला । ] धुयइ व्व सा बाला चंदस्स मयकलंक सा बाला चन्द्रस्य मृगकलङ्क मार्जयतीव । कथंभूतस्य चन्द्रस्य । कवोलपडियस्स कपोलपतितस्य । कैः । अणवस्यमुक्तजलभृतनयनकलशैः वाह्यतीब (१) रुदतीव । अनवरतमुक्ताश्रुवारिधारामिः स्वगण्डमण्डलप्रतिबिम्बितमृगाङ्कमृगमलमिवमार्टि, इत्युत्प्रेक्ष्यते । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ २२९ ॥
२३०) [गन्धेनात्मनो मालिताया नवमालिकायाः स्फुटिम्यति । अन्यः कोऽपि हताशायाः मांसलः परिमलोद्गारः ॥ ] काचिद उद्दीपनवि भावभूतां नवमालिकां निन्दन्तीदमाह । नोमालियाएँ हयासाएँ अन्नो को वि परिमलुग्गारो हताशाया नवमालिकाया अन्यः कोऽपि परिमलोगारो अवर्णनीयरूपः परिमलोद्गारः फुट्टिहिइ स्फुटिष्यति । कथंभूतः । मासलो मांसलः । कीदृश्याः गंधेण अप्पणो मालियाएँ गन्धेनात्मन: आलि - ङ्गितायाः व्याप्तायाः । स कश्चिदस्याः सुगन्धिगन्धोद्गारों येन मादृशीनां प्रोषितपतिकानां देहसंदेहो भविष्यतीत्यर्थः ॥ २३० ।।
२३१) विशुद्धशीलस्य । [ फलसंपत्या समवनतानि तुङ्गानि फलविपत्या । हृदयानि सुपुरुषाणां महातरूगामिव शिवराणि ॥] फलसंपत्त्या समवनतानि तुङ्गानि फलविपरया हृदयानि सत्पुरुषाणां तरूणामिव शिवराणीत्यादि सुबोधम् । उपमालंकारः ॥ २३१ ॥ १w. माणिणी उयह, २w. अणवरअवाहाल, ३w. चंदस, ४w मालिआण, ५w णोमालिआण फुट्टिहिइ, ६w मंसलो
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गाहाकोसो
[३.३२W283 २३२) आसासेइ परियणं परियत्ततीऍ पहियजायाए ।
नित्थामावत्तणवलियहत्थमुहलो वलयसदो ॥ ३२ ॥ W284 २३३) तुंग च्चिय होइ मणो मणस्सिणो अंतिमासु वि दसामु ।
. अत्यंतस्स वि रविणो किरणा उड्ढं चिय फुरंति ॥३३॥
२३२) [ आश्वासयति परिजनं परिवर्तमानायाः पथिकजायायाः । निःस्थामावर्तनवलितहस्तमुखरो वलयशब्दः ॥] पहियजायाए वलयसदो परियणं आसासेइ पथिकजायाया वलयशब्दः कङ्कणध्वनिः परिजनमाश्वासयति । कीदृशः । नित्थामावत्तणवलियहत्थमुहलो निःस्थामावर्तनवलितहस्तमुखरः निस्सहहस्तावर्तनवशविशङ्खलवलयरषश्रवणेन अनुमितं परिजनेन, यथेयं देहदौर्बल्यं प्राप्ता, तथा सोढः खल्वनया सुदुःसहोऽपि प्रियविरहवेदनाऽऽवेगः । तन्नूनं न विपत्स्यत इति आश्वासनहेतुः वलयशब्दः । प्राकृते पूर्वनिपातानिपातानियमात् सुखशब्दस्य परनिपातः(?) । हेतुरलंकारः । रुद्रमतेन (तु सूक्ष्मोऽलंकारः) । यत्रायुक्तिमदों गमयति शब्दो निजार्थसंबद्धम् । अर्थान्तरमुपपत्तिमदिति तत् संजायते सूक्ष्मम् ॥ ( काव्यालंकार, ७, ९८)। आचार्यदण्डिनस्तु मते समाधिनाम गुणोऽयम् । तस्य लक्षणम् । साधारणधर्माणां यदन्यत्राधिरोपणम् इति ( cf काव्यादर्श १, ९३ ) ॥ २३२ ॥
२३३) अलंकारस्य । [ तुङ्गमेव भवति मनो मनस्विनोऽन्तिमास्वपि दशासु । अस्तं गच्छतोऽपि रवेः किरणा ऊर्ध्वमेव स्फुरन्ति ॥] तुंग चिय होइ मणो मस्सिणो तुङ्गमेव भवति मनो मनस्विनः अंतिमासु वि दसासु अन्तिमास्वपि दशासु । इदमेव समर्थयन्नाह । मत्थंतस्स वि रविणो किरणा उद्धं चिय फुरति अस्तं गच्छतोऽपि. रवेः उर्ध्वमुखा एव मयूखाः स्फुरन्ति । अर्थान्तरन्यासोऽलंकारः॥ २३३ ।। .. १w. णित्थामुन्वत्तण; २w. तुंगो चिअ, ३w. मणंसिणों; ४w. अस्थमणम्मिः ५w. रइणो; ६w. उद्धं
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तोयं सयं
१०७ W285 २३४) पुट्टी भरेइ सउणी ऍ माउया असणो' अणुविग्गा ।
विहलुद्धरणभरसहा भवंति जइ के विसप्पुरिसा ॥३४॥ W286 २३५) न विणा सम्भावेणं घिप्पइ परमत्थयाणुओ लोओ।
को जुण्णमंजरं कजिएण वेयारिउं तरइ ॥ ३५॥ W287 २३६) रण्णाउ तणं रण्णाउ पाणियं सन्यं सयंगाहं ।
तह वि मयाण मईणं आमरणताइँ पिम्माइं ॥ ३६॥
२३४) [उदरं भरति शकुनिहें मातः आत्मनो अनुद्विग्ना । विह्वलोद्धरणभरसहा भवन्ति यदि केऽपि सत्पुरुषाः ॥] हे माउया मात: सउणी वि अत्तणो पुढे भरेइ शकुनिरपि आत्मनः उदरं बिभर्ति । अणुविग्गा विहलुद्धरणभरसहा भवंति जइ के वि सम्पुरिसा अनुद्विग्नाः विहलोद्धरणभरसहाः भवंति यदि केऽपि सत्पुरुषाः । बहव औदरिकाः सन्ति न पुनः परोपकारका इत्यर्थः । पुट्ट उदरम् ॥ २३४॥
२३५) अभिनवगजेन्द्रस्य । [ न विना सद्भावेन गृह्यते परमार्थज्ञो लोकः । को जीर्णमार्जारं काझिकेन प्रतारयितुं शक्नोति ॥] न विणा सब्भावेणं न विना सद्भावेन घिप्पइ लोओ गृह्यते लोकः । किं सर्व एव । नेत्याह । परमत्थयाणुओ परमार्थज्ञः तत्त्वज्ञः। अमुमेवार्थम् अर्थान्तरन्यासेन द्रढयति । को जुण्णमंजरं को जीर्णमार्जार कंजिएण काञ्जिकेन वेयारिउ तरइ प्रतारयितुं शक्नोति, न कोऽपीत्यर्थः । विदग्धेन मया प्रपञ्चरचनां विहाय प्रवर्तितव्यम् इति भावः ॥ २३५ ॥
२३६) [ अरण्यात् तृणम् अरण्यात् पानीयं सर्वकं स्वयंग्राह्यम् । तथापि मृगाणां मृगीणाम् आमरणान्तानि प्रेमाणि ॥] रण्णाउ तणं रण्णाउ पाणियं अरण्यात् तृणम् अरण्यात् पानीयं सव्वयं सयंगाहं सर्वकं स्वयंग्राह्यम् । तह वि मयाण मईणं तथाऽपि मृगार्णा मृगीणां च आमरणंताई पिम्माइं आमरणान्तानि प्रेमाणि । सर्वत्र (! सर्वः) किल कार्यानु
१w. पोट्टं भरंति सउणा; २w. अप्पणो; ३w. विहलुद्धरणसहावा; ४w हुवंति २w. सव्वदो; ६w. मआण मईण अ
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१०८ गाहाकोसो
[३.३७W438 २३७) जो वि न पुच्छइ तस्स वि कहेइ, “भग्गाइँ सेण वळयाई"।
अह उज्जुया वगई अह व पिओ से हयासाए ॥३७॥ 'W298 २३८)हियइच्छियस्स दिग्नउ तणुयायंतिं न पिच्छह पिउच्छा ।
__ "हियइच्छियं म्ह कत्तो" भणिउं मोहं गया कुमरी ॥३८॥ रोधेन प्रेम बिभर्ति । तथा हि नायको नायिकायाः कनककटकेन नैपुणगुणेन प्रतिभासते । केयूगदिलोभेन रोचते । न च तदस्ति मृगाणाम् ।अनेनैवोक्तेन प्रकारेण मृगीणां मृगाणां च परस्परोपकारकत्वमस्ति, इति अतस्तयोः अत्यन्तानुराग़योः रद्विरोधेऽपि (?) शङ्गाराभासोऽपि साक्षात् शङ्गाररसकोटिं स्पृशतीति ॥ २३६ ।।
२३७) रत्नाकरस्य । [योऽपि न पृच्छति तस्यापि कथयति "भग्नानि तेन वलयानि" । अथ ऋज्वी वराको असो वा प्रियस्तस्या वराक्याः ॥ जो वि न पुच्छइ तस्स वि कहेइ योऽपि न पृच्छति तस्यापि कथयति । किं तत् कथयतीत्याह । भग्गाइँ तेण वलयाई भग्नानि तेन वलयानि । अह उज्जुया वराई अथ ऋग्वी वराकी मयेदं रतिकलहरहस्यं प्रियस्य प्रच्छादयितव्यम् इत्यपि न जानातोति । अह व पिओ से हयासाए अथवा प्रियो वल्लभः असौ तस्या हताशायाः । तदेकलानमानसतया "तेन भग्मानि वलयानि" इति अपृष्टाऽपि व्याचष्टे इति । उज्जुया ऋज्वी ॥२३७॥
२ ३८) हालस्य । हृदयेप्सितस्य दोयतां, तनूभवन्ती न प्रेक्षध्वे पितृवासः । "हृदयेप्सितमस्माकं कुतः” भणित्वा मोहं गता कुमारी।।] हे पिउच्छा पितृण्वसः, हियइच्छियस्स दिजउ एषा हृदयेप्सिताय दोयतां, तणुयायंतिं न पिच्छह तनुभवन्तीं न प्रेमध्वं ( प्रेक्षध्वे ) यूयम् । ययेयं प्रत्यहम् उपजायमानतानवा तन्वङ्गो तथा तस्या हृदये कोऽपि युवा वर्तते । तस्मै इयं दोयतामित्यर्थः । हियइच्छियं म्ह कत्तो हृदयेप्सितमस्माकं कुतः इय भगिउं मोहं गया कुमरी इति भणित्वा मोहं गता कुमारी । मोहः सात्विको भावः । भणिउं इति क्वार्थे तुमुन् ।।२३८॥
१w. आण इ.
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-३.४१]
तीयं सयं W299 २३९)खिन्नस्स ठावइ उरे पइणो गिम्हावरन्हरमिरस्स ।
उल्लं गलतपुप्फ न्हाणमुबंध चिहुरभारं ॥३९॥ W300 २४०) अह सरसदंतमंडलकवोलपडिमागो मयच्छीए ।
अंतोसिंदूरियसंखवत्तकरणि लहइ चंदो ॥४०॥ W302 २४१) पुसिया कंठाहरणिंदणीलकिरणाहया ससिमऊहा ।
माणिणिवयणेसु सकज्जलंसुसंकाइ दइएहिं ॥४१॥ २३९) सर्वस्वामिनः । [ खिन्नस्य स्थापयत्युरसि पत्युप्रीष्मापराहरमणशीलस्य । आर्द्र गलत्पुष्पं स्नानसुगन्धि चिकुरभारम् ।।] पइणो उरे चिहुरभारं ठावइ पत्युरुरसि कुन्तलकलापं स्थापयति । कथंभूतस्य पत्युः । गिम्हावरन्हरमिरस्स ग्रीष्मापराक्रमणशीलस्य, अत एव खिन्नस्य । कीदृशं चिकुरभारम् । उल्लं आर्द्रम् । पुनश्च कीदृशम् । गलंत पुप्फ गल-पुष्पम् । अन्यच्च कीदृशम् । न्हाणसुयंधं स्नानेन स्नानोयेन सुगन्धम् । स्नानशब्देन स्नानीयं चूर्णमुच्यते, उपचारात् । प्रेमातिरेकेण दृष्टादृष्टार्थविरुद्धमपि ग्रीष्मापराह्नरतम् आचरतः श्रमापनयनाय प्रत्युपकारकं कामिनी कान्तस्योरसि कुन्तलकलापं शीतं सुरभिं च निवेशयतीत्यर्थः ॥२३९॥
२४०) कीर्तिवर्मणः । [असौ सरसदन्तमण्डलकपोलप्रतिमागतो मृगाक्ष्याः । अन्तःसिन्दूरित शङ्खपात्रसादृश्यं वहति चन्द्रः।।] मह चंदो अंतोसिंदूरियसंखवत्तकरणिं वहइ एष चन्द्रो अन्तःसिन्दूरितशलपात्रसा-- दृश्यं वहति । कीदृशः। सरसदंतमंडलकवोलपडिमागओ सरसदन्तमण्डलकपोलप्रतिमागतः । कस्याः मयच्छीए मृगाक्ष्याः । अह इत्यदसो रूपम् । दन्तमण्डलं दन्तमण्डलक्षतम् अर्थात् । करणी सादृश्यम् । उपभालंकारः ॥२४॥
२४१) आउकस्य । [प्रोञ्छिताः कण्ठाभरणेन्द्रनीलकिरणाहताः शशिमयूखाः । मानिनोवदनेषु सकम्जलाश्रशङ्कया दयितैः ॥] दइएहिं पुसिया १w. खिष्णस्स उरे पइणो ठवेइ गिम्हावरण्हरमिअस्स २w. माणिणिवअणम्मि..
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गाहाकोसो
[३.४२W303 २४२) इहमित्ते विजए सुंदरमहिलासहस्सभरिए वि ।
अणुहरइ नवैरि तिस्सा वामद्धं दाहिणद्धस्स ॥४२॥ W304 २४३) जह जह वाएई पिओ तइ तइ नचामि चंचले पिम्मे ।
वल्ली वलेइ अंगं सहावथद्धे वि रुक्खम्मि ॥४३॥ प्रियैः उन्मार्जिताः । के । ससिमऊहा शशिमयूखाः । कीदृशाः । कंठाहरणिंदणीलकिरणाहया कण्ठाभरणे यद् इन्दनोलं तत्प्रभाहताः । क्व माणिणिवयणेसु मानिनीवदनेषु । कया । सकज्जलंसुसंकाइ सकज्जलं यद् अश्रु तच्छङ्कया। शशिमयूखा मानिनीकपोलफलकपतिताः कण्ठाभरणीकृतेन्द्रनीलप्रभाभिन्नाः सन्तः समजलाश्रुपतनभ्रान्त्या भर्तृभिः मृष्टा इत्यर्थः । भ्रान्तिमानलंकारः ॥२४॥
२४२) कलशचिह्नस्य । [एतावन्मात्रेऽपि नगति सुन्दरमहिलासहस्रभतेऽपि । अनुहरति केवलं तस्या वामा दक्षिणार्धस्य ।।] अणुहरइ नवरि तिस्सा अनुहरति केवलं तस्याः वामद दाहिणद्धस्स वामाधै दक्षिण र्धस्य । कदाचिद् जगदेवाल्पं स्यादित्याह । इद्दहमित्ते वि जए एतावन्मात्रेऽपि अप्रमाणे जगति, इति । कदाचिद् रमणीयरामारहितं तत् स्यादित्याह । सुंदरमहिलासहस्सभरिए वि सुन्दरमहिलासहस्रभृतेऽपि । एतदुक्तं भवति । न तस्या भिन्न जातीयेन निशाकरविकचारविन्दादिना, सजातोयेन अन्यवनितावोन्दुप्रभृतिना उपमानेन उपमाहीं। केवलं तस्या वामा तस्या एव दक्षिणार्धेन यदि परम् उपमीयते इति । नियमालंकारः (काव्यादर्श २, १९) ॥२४२॥
२४३) माधवस्य । [यथा यथा वादयति प्रियस्तथा तथा नृत्यामि 'चञ्चले प्रेम्णि । वल्ली वलयत्यङ्गं स्वभावस्तब्धेऽपि वृक्षे ॥] काचित् क्षणभङगुरानुरागे प्रियतमे सति सखेदमिदमाह । जह जह वाएइ पिओ यथा यथा वादयति प्रियः तह तह नच्चामि तथा तथा नृत्यामि । क्व सति । १w एद्दहमेत्तम्मि जए २w णवर
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-३.४५] तीयं सयं
१११ w 305 २४४) दुक्खेहि लब्भइ पिभो लदो दुक्खेण होइ साहीणो।
लद्धो वि अलध्दु च्चिय जह हिययं तह जइ न होइ ॥४४॥ W306 २४५) अब्धो अणुणयसुहकंखिरी अकयं कयं कुणंतीए ।
सरलसहावो वि पिओ अविणयमग्गं बला नीओ॥४५॥ चंचले पिम्मे चञ्चले प्रेम्णि । अमुमेवार्थम् अर्थान्तरन्यासेन द्रढयति । चल्लो वलेइ अंग वल्ली वलयत्यङ्गं सहावथद्धे वि रुक्खम्मि स्वभावस्तब्धे- . ऽपि वृक्षे । अहमनुरक्ता स पुनमयि वीतरागः इत्यर्थः । जह जह वाएइ तह तह नरुचामि इति लोकोक्तिः । यथा यथा स मां वर्तयति तथा तथा चर्तेऽहम् इत्यर्थः ॥२४३॥
२४४) शशिप्रभायाः । [ दुःखैलभ्यते प्रियो लब्धो दुःखेन भवति स्वाधीनः । लब्धोऽप्यलब्ध एव यथा हृदयं तथा यदि न भवति ॥] काचिन्मनोरथान् करोति । दुक्खेहि लभइ पिओ दुःखलभ्यते प्रियो वल्लभजनः । किम् एतावदेव इत्याह । लद्धो दुक्खेण होइ साहीणो लब्धोऽपि प्रियो दुःखेन भवति स्वाधीनः । लद्धो वि अलद्धो च्चिय जइ जह हिययं तह न होइ लब्धोऽप्यलब्ध एव यदि यथा हृदयं तथा न भवति । यथा मम हृदयमनुरक्तं विदग्धं तथा योऽनुरक्तो न भवतीत्यर्थः । एकतरानुरागे हि उपकरणकलापकल्पः एव च प्रियो भवति । तथा हि उपकारामादानाद् (१) एकशय्यासनादि पुरुषोऽभिलषति । तस्मादन्योन्यानुरागः श्रेयान् । अथवा लब्धोऽप्यलब्ध एव यदि यथा हृदये तथा न भवति । यदि च हृदयम् आलिङ्गनचुम्बनादिकं चिकीर्षति तथैव प्रियोऽपीति विदग्धो दयितः श्रेयान् इति भावः ॥२४४॥
२४५) ग्रामकुट्टिकायाः । [हंहो अनुनयसुखकाक्षिण्या अकृतं कृतं कुर्वत्या । सरलस्वभावोऽपि प्रियो अविनयमार्ग बलान्नीतः ] । प्रियोsविनयमार्ग बलान्नीतः । कया। अणुणय सुहकंखिरीऍ अनुनयसुखकाङ्क्षणशोलया। किं कुर्वत्या । अयं अकृतमप्यपराधं कयं कृतं कुणंतीए कुर्वत्या। कीदृशश्च प्रियः । सरल सहावो वि सरलस्वभावोऽपि । अनुनय सुखलाभला
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११२ गाहाकोलो
[३.४६-. W307 २४६) "हत्थेमु य पाएमु य अंगुलिगणणाइ तवं गया दियहा ।
इन्हि पुण केण गणिज्जउ" त्ति भणिउं रुयई मुद्धा ॥४६॥ W308 २४७) कीरमुहसच्छहेहि रेहइ वसुहा पलासकुसुमेहिं ।
बुद्धस्स चलणवंदणपडिएहि व भिक्खुसंधेहि ॥४७॥ W309 २४८) जज पिहुलं अंगं तं तं जायं किसोयरि किसं ते ।
जं जं तणुयं तं तं पि निट्ठियं किं व माणेण ॥४८॥ लसया तया स्वकान्तो मृषैव अविनयपथातिथिः कृतः इति सखीशोचनम् । अब्बो इति दुःखसूचनायां निपातः ॥२४५॥
२४६) सुग्रोवस्य । ["हस्तयोश्च पादयोश्च अङ्गुलिगणनया तव गता दिवसाः । इदानीं पुनः केन गण्यताम्" इति भणित्वा रोदिति मुग्धा ॥] हत्थेसु य पाएमु य अंगुलिगणणाइ तव गया दियहा हस्तपादयोरपि अङ्गलिगणनया अतिक्रान्ता दिवसाः । इन्हि पुण इदानी पुनः केण गणिज्जउ केन गण्यताम् इति भणिउं भणित्वा रुयइ मुद्धा रोदिति मुग्धा ॥२४६।।
२४७) [ कोरमुखसच्छायै; शोभते वसुधा पलाशकुसुमैः । बुद्धस्य चरणवन्दनपतितैरिव भिक्षुसंधैः ॥] कीर मुड्सन्छ?हिं कीरमुखसदृक्षः पलासकुसुमेहिं रेहइ वसुहा पलाशकु प्रमैः शोभते वसुधा । कथंभूतैः । बुद्धस्त चलणवंदणपडिएहि व मिक्खुसंघेहिं बुद्धस्य चरणवन्दनपतितैरिव भिक्षुसंधैः । उपमालंकारः ॥ २४७ ॥
२४८) भूषणस्य । [यद्यत् पृथुलमङ्गं तत् तज्जातं कृशोदरि कृशं ते । यद्यत् तनुकं तत् तन्निष्ठितं किमिव म नेन] काचित् सखो मानकृशामिदमाह । यद्यत् पृथु उमङ्गं तत् तत् तनु जातं किसोयरि कृशोदरि । किं तावदेव । नेत्याह। ज जं तणुयं तं तं पि निद्रिय यद्यत् तनुकं तत्ताप निष्ठितं नष्टं परकाष्ठां प्राप्तम् । अतः किं व माणेण किमिव मानेन । तव चेयम् एतादृशो दशा वर्तते । अतो मुञ्च मानं प्रियमनुवर्तस्वेत्यर्थः । आक्षेपोऽलंकारः। सखीशिक्षोक्तिः। खण्डिता कलहान्तरिता च नायिका ।२४८॥ १w. अइगआ; २w. थ (=एत्थ).
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-३.५०]
तीयं सयं w 310 २४९) न गुणेहि हीरइ जणो होरइ जो जेण भाविओ तेण ।
निच्छति' पुलिंदा मुत्तियाइँ गुंजाउ गिण्हंति ॥४९॥ W311 २५०) लंकालयाण पुत्तय वसंतमासम्मि लद्धपसराणं ।
आवीयलोहियाणं बोहेइ जणो पलासाणं ॥५०॥
२४९) [न गुणैर्हियते जनो हियते यो येन भावितस्तेन । नेच्छन्ति पुलिन्दा मौक्तिकानि, गुञ्जा गृह्णन्ति ॥] काचित् कृपाशालिनीमपि गृहिणीम् अगणयित्वा पराङ्गनायामासक्तं नायकं प्रति प्रयुक्त्या उपालम्भगभमिदमाह । न गुणेहि होइ जणो न गुणैर्हियते जनः हीरइ जो जेण भाविओ तेण, यो येन भावितो रञ्जितो वासितान्तःकरणः स तेन हियत इति । अमुमर्थ दर्शयन्नाह । निच्छंति पुलिंदा मोत्तियाइँ गुंजाउ गिण्हति नेच्छन्ति पुलिन्दा मौक्तिकानि गुञ्जाश्च गृह्णन्ति । तत्त्वप्रकाशनपरेयमुक्तिः । पुलिंदा शबराः । गुञ्जाः कृष्णलाः । अर्थान्तरन्यासपर्यायोक्तिरलंकारः ॥२४९॥
२५०) सुदर्शनस्य । [ लङ्कालयेभ्यः पुत्रक वसन्तमासे (वसान्त्रमासे) लब्धप्रसरेभ्यः । पीतलोहितेभ्यो बिभेति जनः पलाशेभ्यः ॥] हे पुत्तय पुत्रक, बीहेइ जणो पलासाणं बिभेति जनः पलाशेभ्यः । न केवलं पलाशा वृक्षाः राक्षसाश्च । तत्र वृक्षेभ्यस्तावत् कथंभूतेभ्यः । लंकालयाण लकयुक्तगृहेभ्यः । वसंतमासम्मि लद्धपसराणं वसन्तमासे लब्धप्रसरेभ्यः । तदा किल पलाशानां (पुष्पसमृद्धिर्भवति)। राक्षसेभ्यः कथंमतेभ्यः । वसान्त्रमासेषु लब्धप्रसरेभ्यः । ते हि वसान्त्रमासेषु लुब्धाः । पुनरपि कीदृशेभ्यः । भावीयलोहियाणं आपीतलोहितेभ्यः । कीदृशेभ्यो वृक्षेभ्यो राक्षसेभ्यश्च । आपीतो लोहितो वर्णो येषां ते (वृक्षाः) तथोक्ताः । आसमन्तात् पीतं लोहितं यैस्ते (राक्षसाः) तथोक्ताः । अतस्तेभ्यः पलाशेभ्यो जनो बिभेतीति वाक्यार्थः । शब्दशक्त्यनुरणनरूपव्यापारव्यङ्ग्यो ध्वनिरयं लक्ष्यक्रमोद्योत मेदः। अविशेषश्लेषोऽयम् इति रुद्रटः (काव्यालंकार, १०,३-४) ॥२५०॥ ____1w मोत्तूण; 2w. वसंतमासेक्कलद्धपसराण,
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गाहाकोसो
११४
1३.५१
W312 २५१) धिसूण चुण्णमुहिं हासूसेलियाऍ वेवमणीए । फलिहिमि त्ति पिययमं हत्थे गंधोययं जायं ॥ ५१ ॥ W 313 २५२) पुट्ठि पुससु किसोयरि परोड कुल्लपत्त चित्तलियं । छेयाहि दियरजायाहि उज्जुए मा कलिज्जिहसि ॥ ५२ ॥
२५१) अनुरागस्य । [ गृहात्वा चूर्णमुष्टि हास्य पुलकिताया वेपमानायाः । अवगुण्ठयामीति प्रियतमं हस्ते गन्धोदकं जातम् ||] कस्याश्चिद् हस्ते गन्धोदकं जातम् । कथंभूतायाः । फसद्धि (हि) मित्ति पिययमं हासूसलियाऍ वेवमाणीए उद्गुण्डयामि प्रियतममिति हास्यतः पुलकितायाः । किं कृत्वा । धित्तूण चुण्गमुट्ठि गृहीत्वा चूर्णमुष्टिम् । स्वहस्तेनास्त चूर्णमु' टेरभोष्टजनगात्रोद्गुण्डितप्रवृत्तायाः स्वेदोदकबन्धाद् गन्धोदकतां गता [ चूर्णमुष्टिः ] इत्यर्थः । स्वेदपुलकोत्कम्पाः साविका भावाः । अनुरागातिशयवर्ण नपरेमुक्तिः । फसलियं भूषितम् । ऊसलिओ पुलकितः । हेतुसूक्ष्माभ्यां संकलंकारः ॥ २५१ ।।
।
२५२) हालस्य । [पृष्ठं प्रोञ्छय कृशोदरि गृहपश्चाद्भागाङ्कोपत्रचिह्नितम् | छेकाभिर्देवरजायाभिः ऋजुके मा ज्ञास्यसे || 1 किसोयरि पुट्ठि पुस है कृशोदरि पृष्ठं परिमार्जय | परोहडं कुल्लपत्तचित्त लिये पृष्ठगृहा कोल्लपत्रचित्रितं पश्चाद्वारका कोठपत्र चित्रितम् । को हेतुरिस्याह । उज्जुए दियरजायाहि मा कलिज्जिहिसि ऋजुके देवरजायाभिर्मा ज्ञास्यसे । कीदृशीभिः । छेयाहि विदग्धाभिः । पृष्ठावसक्तपत्र चित्रचिह्नतः अकोठदलकल्पनया तया प्रियतमो रमित इति मा देवरजाया जानन्तु इत्यर्थः । पृष्ठशब्दः स्त्रियां प्राकृते । परोहडें पश्चाद्वाटकम् | अंकुल्लं अड्कोठम् ॥२५२॥
lw.हरिसूससिआइ, 2w . वेअमाणाए, 3w. भितिणेमि त्ति 4w. पडोहरं कोल्ल.
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-३.५५]
तीयं सयं
११५
W314 २५३) अच्छीणि ता थइस्सं दोहि मिं इत्थेहि तम्मि दिइम्मि । अंग कलंवकुसुमं व मैउलिये कह तु ढकिस्सं ॥ ५३॥ W315 २५४) झंझावाउत्तिणिए घरम्मि रोत्तूण नीसहणिसण्णं । जोएँइ गयवईयं विज्जुज्जोओ
जलहराणं ॥ ५४ ॥ गामरद्धम्मि ।
W316 २५५) भुंजसु जं साहीणं कत्तो लोणं
हय सलोणेण विः किं वै तेण नेहो जहिं नत्थि ॥५५॥
२५३) पण्डितस्य । [ अक्षिणी तावत् स्थगयिष्यामि द्वाभ्यामपि हस्ताभ्यां तस्मिन् दृष्टे । अङ्गं कदम्बकुसुममित्र मुकुलितं कथं नु स्थगयिये ||] अक्षिणी तावत् स्थगयिष्यामि । काभ्याम् । दोहि मि हत्थेहि द्वाभ्यामपि हस्ताभ्याम् । क्व सति । तम्मि दिट्ठम्मि तस्मिन्दृष्टे । एतदुक्तं भवति । तस्मिन्नायाते तदवलोकनसुखलाभलालसनेत्रे निवारयितुमक्षमाऽपि भवतु कराभ्यां ते निवारयिष्यामि । इदं तु अंगं कलंबकुसुमं व मउलियं कह नु ढक्किस्सं अङ्कं पुनरुदञ्चद्रोमाञ्चं कदम्बकुसुममिव मुकुलितं, स्थगयिष्यामि कथं तदित्यर्थः । उत्तमवचनश्रवणादित्यादि स्त्रिया (?) उत्तमा नारी | रागप्रणयप्रणयिनि गुणहार्या वोत्तमा नारी ॥ २५३ ॥
२५४) नरसिंहस्य | [झञ्झावातोत्तृणिते गृहे रुदित्वा निःसहनिषणाम् । द्योतयति गतपतिकां विद्युद्योतो जलधराणाम् ||] विज्जुजोओ जोएइ विद्युद्योतः गवेषयति । काम् । गयवईथं प्रोषितभर्तृकाम् । केषां विद्युद्योतः । जलहराणं मेधानाम् | नो सहणिसणं निस्सहं यथा भवेद् एवं निषण्णाम् उपविष्टाम् । किं कृत्वा । रोत्तूण रुदित्वा । क्व | झंझावाउत्तिणे घरम्मि झञ्झाव तैरुत्तीर्णे गृहे । का कि अद्यापि आस्ते शून्येषु प्रोषितयुवतिः (इति) तदन्वेषणतात्पर्यं पर्जन्यानामित्यर्थः । झञ्झा - चातः सवृष्टिः स्यात् । उत्तिणियं उद्गततृणम् । उत्प्रेक्षा नामालंकारः
॥२५४॥
२५'५) नागहस्तिनः । [भुङ्क्ष्व यत् स्वाधीनं कुतो लवणं खल्लु ग्रामराद्धे । सुभग सलवणेनापि किमिव तेन स्नेहो यत्र नास्ति ।।] काचिद्
1w. पि, 2w पुलइअं, 3w दीवेइ व ग अवइअं 4w. कुगामरिद्धम्मि, 5w. अव 6w. तेण सिणेहो जहिं णत्थि .
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११६
गाहाकोसो
[३.५६
W317 २५६ ) सुहउच्छियाएँ हलिओ मुहपंकयसुरहिपत्रणणिव्ववियं ।
तह पियs पयइकडुयं वि ओसहं जह न निट्टाइ ||५६ ||
किं व तेण
यत्र नास्ति ।
ग्रामकामिनीलावण्यलोमेन पण्याङ्गना हितचित्तम् इष्टं स्वामिनमिदमाह । भुंजसु जं साहोणं हे सुहय सुभग भुङ्क्ष्व यत् स्वाधीनं, कत्ता लोणं खु गामरद्धम्मि कुतः खलु लवणे ग्रामराद्धं । सुहय सलोणेण वि हे सुभग सलवणेनापि किमिव तेन, नेहो जहिं नत्थि स्नेहो एतदुक्तं भवति । स्वाधीनं जनं रमयस्त्र । कुतः किल ग्रामे ग्रामे कामिनीनां लावण्यं लभ्यते । अयमभिप्रायः । लावण्यं हि परप्रत्ययवेद्यं यदि प्रतिपद्यसे तदा अस्ति, नो चेन् नास्तीति ब्रूमः । पण्यललना लोकस्तु निःस्नेहो भवतीति भावः । लावण्येनापि किं क्रियते यत्र स्नेहः प्रेम नास्ति । अहं खलु त्वयि अनुरक्तेति । इदम् इदमायत्तं परायत्तं च (इति) वालोक्य स्नेहो भवतीत्यर्थः । इवशब्दो वाक्यालंकारः यथा किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् (शाकुन्तल, १, १९ ) । समासोक्तिरलंकारः । तस्य लक्षणम् । सकलसमानविशेषणमेकं यत्राभिधीयमानं सत् । उपमानमेव गमयेद् उपमेयं सा समासोक्तिः ॥ ( रुद्रट, काव्यालंकार, ८, ६६) ॥२५५॥
1
२५६ ) त्रिलोचनस्य । [ सुखपृच्छिकाया हालिको मुखपङ्कजसुरभिपवननिर्वापितम् । तथा पिबति प्रकृतिकटुकमपि औषधं यथा नावशिध्यते ॥ ] हल्लिओ ओसहं जह न निट्ठाइ तह पियइ हालिक औषधं यथा नावशिष्येत् तथा निःशेषं पिबतीत्यर्थः । कदाचित् स्वादु स्यादित्याह । प्रकृतिकटुकमपि | किमर्थं तर्हि निःशेषयतीति विशेषणद्वारेण कारणमुच्यते । कीदृशं तत् । मुहपंकयसुरहिपवणणिव्ववियं मुखपङ्कज सुरभिणा पवनेन निर्वापितं शैत्यं नीतम् । कस्याः । सुहउच्छियाऍ सुखप्रश्नकारिण्याः । एतदीयवदनपवननिर्वापितम् इति अनुरागयोगात् सर्वं पिबतीत्यर्थः ।
॥२५६॥
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- ३.५९ ]
तोयं सयं
-११७
W318 २५७) अह सा तर्हि तर्हि चिय वाणीरवणम्मि चुक्कसंकेया । तुह दंसणं विमग्गइ पन्भट्टणिहाणठाणं व ॥ ५७ ॥ W319 २५८) दढरोसकलुसियस्स वि सुयणस्स मुद्देोउ विप्पियं कत्तो । राहुमुहम्म विससिणो किरणा अमयं चिय मुयंति ॥ ५८ ॥ Ww320 २५९ ) माणिओ वि नवि तह दूमिज्जइ सज्जणो विश्वहीणो । पडिकाउं असमत्थो माणिज्जतो जह पैरेहिं ।। ५९ ।।
२५७ ) यज्ञस्वामिन: । [ अथ सा तस्मिन् तस्मिन् एव वानीरवने भ्रष्टसंकेता । तव दर्शनं विमार्गयति प्रभ्रष्टनिधानस्थानमिव ।। ] चित् सखी कस्याश्चिदनुरागं प्रकटयितुमिदमाह । मह सा तुह दंसणं विमग्गइ अथ सा तव दर्शनं मार्गयति । क्व । तर्हि तर्हि चिय वाणीरवणम्मि तस्मिन् तस्मिन् एव वानीरवने । कीदृशी । चुक्कसंकेया चलितसंकेता | किमिव दर्शनम् । पब्भट्टणिहाणठाणं व प्रभ्रष्टनिधानस्थानमिव । यथा हि प्रभ्रष्टं विस्मृतं निधानस्थानं तत्र तत्रैव मृग्यते, एवं तव दर्शन मृगाक्षी मृगयत इत्यर्थः । चुक्कं चलितम् । वाणीरशब्दो वेतसपर्यायः । उपमालंकारः । विप्रलब्धा नायिका । तस्या लक्षणम् - अहरहरनुरागे दूतिकां प्रेष्य पूर्व सरभसमभिधाय क्वापि संकेतक वा । न मिलति खलु यस्या वल्लभो "दैवयोगात् कथयति भरतस्तां नायिकां विप्रलब्धाम् ॥ २५७ ॥
२५८) श्रीमाधवस्य । [ दृढरोषकलुषितस्यापि सुजनस्य मुखाद् विप्रियं कुतः । राहुमुखेऽपि शशिन: किरणा अमृतमेव मुञ्चन्ति ॥ ] सुयणस्स मुद्दाउ विप्पियं कत्तो सुजनस्य मुखाद् विप्रियं कुतः । न कुतश्चिद् भवतीत्यर्थः पैः । कदाचित् कुपितस्य भवतीत्याह । दढरोसकलुसियस्स वि दृढरोषकलुषितस्यापि । अमुमेवार्थं समर्थयन्नाह | राहुमुहम्म विससिणो राहुमुखेऽपि शशिन: किरणा अमयं चिय मुयंति किरणा अमृतमेव मुञ्चन्ति । सुजनप्रशंसापरेयमुक्तिः । अर्थान्तरन्यासोऽलंकारः || २५८ ॥ २५९) अवन्तिवर्मणः । [अपमानितोऽपि नैव तथा दूयते सज्जनो विभवहीनः । प्रतिकर्तुम् असमर्थो मान्यमानो यथा परैः ॥ ] अपमानितोऽपि १. मुहाहि; २w अप्पियं; 3w. परेण .
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११८
गाहाकोसो
[३.६०
W321 २६०) कलहंतरे वि ने विणिग्गयाइँ हियए जरं उवगयाइं।
मुयणसुयाइँ रहस्साइँ डहइ आउक्खए अग्गी ॥ ६० । W322 २६१) लुंबीओ अंगणमाहवीण दारग्गलाउ जायाओ।
आसासो पंथपलोयणे वि नहो गयवईणं ।। ६१ ॥ तथा नैव दूयते सज्जनो विभवहानः जह माणिज्जतो परेहिं यथा मान्यमानः परैः दूयते । कथंभूतः । पडिकाउं असमत्थो प्रतिकर्तुमक्षमः । न तथा विभवभ्रंशेन सुजनस्य सकलजनापमानो दुनोति यथा प्रत्युपकारं कर्तुमसमर्थस्य मान्यमानस्यापि इत्यर्थः । नवि इति अवधारणे ॥२५९॥
२६०) प्रवरराजस्य । [कलहान्तरेऽपि न विनिर्गतानि हृदये जरामुपगतानि । सुजनश्रुतानि रहस्यानि दहत्यायुःक्षये अग्निः ॥] सुयणसुयाइँ रहस्साइँ सुजनश्रुतानि रहस्यानि गुप्तमन्त्रयितव्यानि आउक्खए अगगी डहह प्राणान्ते वह्निः भस्मसात् करोति । कलहं तरे वि न विणिग्गयाइँ कलहमध्येऽपि न विनिर्गतानि । भूयश्च कीदृशानि । जरं उवगयाइं जरामुपगतानि । क्व । हियए हृदये । रुष्टादपि सत्पुरुषात् प्राणान्तेऽपि रहस्यभेदो न भवतीत्यर्थः । डहइ आउखए अग्गी इति लोकोक्तिः ॥२६॥
२६१) [लता अङ्गणमाधवीनां द्वारार्गला जाताः । आश्वासः पथिपलोकनेऽपि नष्टो रातपतिक नाम् ।] आश्वासो नष्टो गतपतिकानाम्। क्व विषये । पंथलोयऽपि मार्गान्वेषणेऽपि । अर्थात् प्रियस्येति । लंपोओ दारग्गलाउ जायाओ लताः द्वारार्गलाः जाता। कस्याः । अंगणमाहवीए अङ्गणमाधविकायाः । प्रियमार्गान्वीक्षणेन किल वियोगिन्यो मनो विनोदयन्ति । लंबी लता । माधवी अतिमुक्तकम् ॥२६॥ १w. अविणिग्गआहे; २w. हिअअम्मि जरमुघगआई.
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-३.६४]
तीयं सयं W323 २६२) पियदंसणसुहरसमउलिया ने यणाइँ तोइ न हु हुँति ।
ता केण कण्णलइयं लक्खिज्जइ कुवलयं तिस्सा ॥६२॥ w 324 २६३) चिक्खिल्लखुत्तहलमुहकड्ढणसुढिए पइम्मि पासुत्ते ।
___ अप्पत्तमोहणसुहा घणसमयं पामरी सवइ ॥६३॥ W 325 २६४) दुमति दिति सुक्खं कुणंति अणरामयं रमाविति ।
अरइरइबंधवाणं नमो नमो कामबाणाणं ॥६४॥
२६२) हंसस्य । [ प्रियदर्शनसुखरसमुकुलिते नयने तस्या न स्खलु भवतः । तत् केन कर्णगृहीतं लक्ष्यते कुवलयं तस्याः ॥] प्रियदर्शनसुखरसेन मुकुलिते नयने न (चेत्) भवतः, ता केण कण्णलइयं तत् केन कर्णगृहीतं लक्विज्जइ कुवलयं तिस्सा लक्ष्यते कुवलयं तस्याः । न केनापीत्यर्थः । एतेन कर्णकुवलयाकारे च तस्या नयने, इति भङ्ग्याऽभिहितं भवति । लइयं गृहोतम् । साम्यमलंकारः । अर्थक्रियया यस्मिन् उपमानस्यैति साम्यमुपमेयम् । तत्सामान्यगुणादिककारणया तद् भवेत् साम्यम् (रुद्रट, ८, १०५) ।। २६२ ॥
२६३) तस्यैव (i. e. हंसस्य)। [कर्दममग्नहलमुखकर्षणश्रान्ते पत्यो प्रसुप्ते । अप्राप्तमोहनसुखा घनसमयं पामरी शपति ॥ ] घनसमयं पामरी शपति आक्रोशति । कीदृशी । अप्पत्तमोहण सुहा अप्राप्तसुरतसुखा । क्व सति । पइम्मि पासुत्ते पत्यो प्रसुप्ते । कीदृशे पत्यौ । चिक्खिल्लखुत्तहलमुहकड्ढणमुढिए कर्दमनिमग्नहलमुखाकर्षणश्रान्ते, श्रमेण स्वपति, सुरतस्य अभिलाषो न भवतीति । चिक्खिल्लं कर्दमम् । खुत्तं मग्नम् । सुढिमो श्रान्तः ॥ २६३
२६४) चुल्लोडकस्य । [दुन्वन्ति ददति सौरव्यं कुर्वन्ति अरर्ति रमयन्ति । भरतिरतिबान्धवेभ्यो नमो नमः कामबाणेभ्यः ॥] कामबाणेभ्यो नमो नमः । कीदृशेभ्यः । अरइरइबंबवाणं अरतिरतिबान्धवेभ्यः । १w. जह से ण होंति णअणाई: २w. कण्णरइअं. ३w. सिढिले; ४w. अणुराअअं.
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२२०
गाहाकोसो
[३.६५W 748 २६५) विधति' तणुं उबणिति वेयणं नेय ताण खयमग्गो ।
अन्वो अइटउवो अणंगवाणाण माहप्पो ॥६५॥ w 326 २६६) कुसुममया वि अइखग अलद्धफंसा वि दुसहपयावा ।
. भिंदंता वि रइयरा कामस्स सरा बहुवियप्पा । ६६॥ कथमित्याह । दुर्मति दिति सुक्खं एते हि दुन्वन्ति ददति सौरव्यम् । किमेतावदेव । नेत्याह । कुणंति अणरामयं रमाविति कुर्वन्ति अति रमयन्ति । यत एवेदशा अत एव अरतिरतिबान्धवत्वमेषाम् । इतरेतरविरुद्धकार्यकारणत्वाच्च नमो नमः कामबाणेभ्य इत्युक्तम् । विरोधोऽलंकारः ।। २६४ ॥
__२६५) तस्यैव (i. e. चुल्लोडकस्य)। [विष्यन्ति तनुम् उपनयन्ति वेदनां नैव तेषां क्षतमार्गः । अहो अदृष्टपूर्वम् अनङ्गबाणानां माहात्म्यम् ॥] अव्वो अइट्ठपुल्वो माहप्पो अहो अदृष्टपूर्व माहात्म्यम् । केषाम् । अणंगबाणाणं अनङ्गबाणानाम् । किं तदित्याह । विधति तणं उवणिंति वेयण विध्यन्ति तनुम् उपनयन्ति वेदनाम् । नेय ताण खयमग्गो नव तेषां क्षतमार्ग इति । ये किल मनः (? शरीरं ) व्यथयन्ति तेषां व्रणमागों दृश्यते । न चैवं स्मरमार्गणानाम् इति अननुभूतपूर्वः प्रमावस्तेषाम् इति सजातिव्यतिरेकोऽलंकारः । अव्वो इति विस्मयार्थे निप तः ॥२६५॥
२६६) वराहधर्मिणः। [कुसुममया अप्यतिस्वरा अलब्धस्पर्शा अपि दुःसहप्रतापाः । भिन्दन्तोऽपि रतिकराः कामस्य शरा बहुविकल्पाः ॥] कामस्स सरा बहुवियप्पा कामस्य शरा बहुविकल्पाः । कथमित्याह । कुसुममया वि अइखरा कुसुममया अपि अतिखराः मर्ममेदिनः । ये किल कुसुममयास्ते मृदवो भवन्ति । पुनः कीदृशाः । अलद्ध फंसा वि दूसहपयावा अलब्धस्पर्शा अपि दुस्सहप्रतापाः । किमेतावदेव । नेत्याह । भिदंता वि रइयरा भिन्दन्तोऽपि रतिकराः । ये किल भिन्दन्ति न ते रतिं कुर्वन्ति । १w. विज्झति.
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-३. ६८]
तीयं सयं
१२१
-W327 २६७ ) ईसं जणंति बेहढंति वम्महं विपयं सहाविंति | विरहे न दिति मरिडं अहो गुणा तस्स बहुमग्गा ॥ ६७ ॥ W 328 २६८) नीयाइँ अञ्ज निकिव पिणदणवरंगयाऍ वरईए । घरपरिवाडीऍ पणयाइँ तुह दंसणासाए ॥ ६८ ॥ अत एव बहुविकल्पत्वं कामबाणानामिति विरोधोऽलंकारः । तस्य लक्षणम् (?) ।।२६६॥
२६७) हालस्य । [ईर्ष्या जनयन्ति वर्धयन्ति मन्मथं विप्रियं साहयन्ति । विरहै न ददति मर्तुम् अहो गुणास्तस्य बहुमार्गाः ।] अहो आश्चर्यम् । गुणास्तस्य हृदयवल्लभस्य बहुमार्ग नानाप्रकारा इत्यर्थः । तदेव बहुमार्गत्वमाह । ईसं जणति ईष्या जनयन्ति । स खलु मे अन्ययोषिज्जनम् अयं रमयेन्तु इति तस्य सौन्दर्योक्तिः । वर्द्धति वमहं वर्धयन्ति मन्मथम् । तदनुस्मरणात् स्मरो वर्धते इति । विप्पियं सहाविति विप्रियं मयन्ति इति सहज सौभाग्यं भङ्गेनोक्तं भवति । किमेतावदेव । नेत्याह । विरहे न दिति मरिडं विरहे न प्रयच्छन्ति मर्तु, पुनः संगमसुखाशया । काचित् प्रोषितेऽपि प्रिये न म्रियत इति भावः । अहो इति आश्चर्ये । क्रियासमुच्चयोऽलंकारः ॥ २६७॥
9
-
२६८) महासेनस्य । [नीतानि अद्य निष्कृप पिनद्धनवरक्तवसनया वराक्या । गृहपरिपाट्या प्रहेणकानि तव दर्शनाशया ॥] हे निक्किव निष्कअरुण अज्ज वरईए घरपरिवाडीऍ पहेणयाइँ नीयाइँ अद्य तया वराक्या गृहपरिपाट्या प्रहेणकानि नीतानि । कथंभूतया । पिणद्धणवरंगयाऍ निवतिनवरक्तकया । कया । तुह दंसणासाए त्वदर्शनाशया । त्वदवलोकनसुखाभलालसा वराक्या प्रहेणनिभेन प्रतिभवनं यातमिति तदनुरागप्रकाशनपरेयमुक्तिः । पणयं यदुत्सवदिने प्रतिगृहं प्रमदाभिर्दीयते । यस्य लाहणक इति लोकप्रसिद्धिः || २६८ ॥
1w. दावेंति
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१२२
महाको
[३.६९
w 329 २६९) दुमिज्जेइ हेमंतम्मि दुग्गओ फुंफुआसुयंत्रेण । धूमकविलेण परिविरल तंतुणा जुण्णवडण ॥ ६९॥
W 330 २७० ) खरसिप्पीरुल्लिहियाइँ कुणइ पहिओ हिमागमपहाए । आयमणजलुल्ल यहस्थ फंसमसिणाइँ अंगाई ॥ ७० ॥ W 331 २७१) नक्खुक्खुडियं सहयारमंजरिं पामरस्स सीसम्म | बंदि पिव हीरंतिं भमरजुवाणा अणुसरंति ॥ ७१ ॥
२६९) धनंजयस्य । [ दूयते हेमन्ते दुर्गतः करोषाग्निसुगन्धेन । धूमकपिलेन परिविरलतन्तुना जीर्णपटकेन ||] दुग्गओ हेमंतम्मि दुमिज्जइ दरिद्र हेमन्ते दूयते । केन । जुण्णवडएण जीर्णपटकेन । पुनरपि कीदृ-शेन । परिविरतंतुणा परिविरलतन्तुना । इत्थंभूतेन शीतमपनेतुमशक्तेन पटेन दुर्गतो दूयत इत्यर्थः । अन्ये तु सुइज्ज हेमंतम्मि इति पठन्ति । तत्र च दरिद्रो हेमन्ते करीषानलसंक्रान्तसौरभेण कलित कालिम्ना स्फटितशतेन जरद्वस्त्रेण सूच्यत इति संबन्धः । फुंफुआ करीषाग्निः । पूर्वपक्षे हेतुः, उत्तरत्र अनुमानमलंकारः ॥ २६९।।
२७०) कृष्णचरित्रस्य । [ खरपलालो ल्लिखितानि करोति पथिको हिमागमप्रभाते | आचमन जलाई कहस्तस्पर्शमसृणानि अङ्गानि ॥] अङ्गानि पथिकः करोति । कीदृशानि । आयमणजलुल्लय हत्थकं समसिणाइँ आचमनजलाई कहस्तस्पर्शमसृणानि । कदा | हिमागमपहाए हिमागमप्रभाते । स्वभावोऽयं परिपाट्यां पलाउतल्पतृणाम्रलेखाञ्छितानि अङ्गानि पथिकः परिमार्जयतीति । सिप्पीरं पलालम् । जातिरलंकारः ॥ २७० ॥
२७१) प्रसन्नस्य । [मखोत्खण्डितां सहकरमञ्जरी पामरस्य शीर्षे । बन्दीमिव हियमाणां भ्रमरयुवानी अनुसरन्ति ||] सहकारमञ्जरीं भ्रमरयुवानोऽनुसरन्ति । कीदृशीम् । नक्खुक्खुडियं नखोत्खण्डिताम् । क्व । पामरस्स सीसम्मि पामरस्स शिरसि । कामिव व्अनुसरन्ति 1 1w. सूइज्जह; 2w जलुल्लिअ, 3w. भमरजुआणा.
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-३७३]
तीयं सयं
१२३
W 288 २७२) तावमवणेइ न तहा चंदणपंको वि कामिमहुणाणं । जह दूसरे वि गिम्हे अन्नुन्नालिंगण सुहिल्ली ॥७२॥
W 289 २७३ ) तुप्पालया किणो मैज्जसि त्ति इयं जंपियाएँ बहुयाए । विउणावेढियजहणत्थलाऍ लज्जोणयं इसियं ॥ ७३ ॥
बंदि पिव होरंतिं बन्दामिव हियमाणाम् । यथा बन्दीं ह्रियमाणां जना अनुसरन्ति एवं सहकारमञ्जरीं भ्रमरयुवान इत्यर्थः । नस्खशब्दस्य सेवादिपाठाद ( वररुचि, ३, ५८ ) द्वित्वम् । खुडियं स्खण्डितम् । उपमालंकारः ॥२७१ ॥
"
२७२) महाराजस्य । [ तापमपनयति न तथा चन्दनपङ्कोपि कामिमिथुनानाम् । यथा दुस्सहेऽपि ग्रोमे अन्योन्याचिङ्गनसुखकेलिः ||] न तथा चन्दनपङ्कोऽपि तापमपनयति जह अन्नुन्नालिंगणसुहिल्ली यथा अन्योन्यालिङ्गन सुखम् । केषाम् । काममिहुणाणं कामिमिथुनानाम् । कदा | गिम्हे ग्रीष्मे । कीदृशे । दुस्सहे वि दुरुपऽपि । अगणित ग्रीष्माणां कामिमिथुनानाम् अन्योन्यं सर्वाङ्गमालिङ्गन निर्वृतिहेतुरित्यर्थः ॥ २७२॥
२७३ ) हरिमृगस्य । [ स्निग्धालका किं मज्जसि इतीति जल्पितया वध्वा । द्विगुणावेष्टितजघनस्थलया लज्जावनतं हसितम् ||] वध्वा लज्जावनतं हसितम् । कथंभूतया । तुप्पालया किणो मज्जसि त्ति इय जंपियाऍ स्निग्धालका क्रिमिति मज्जसीति जल्पितया । पुनश्च कीदृश्या । विउणावेढियजहणत्थलाऍ द्विगुणावेष्टितजघनस्थलया । अहो अहमनेन लक्षिता । यथा चानेन तथा मा मां रजस्वलां कश्चिज्जनो जानातु, इति द्विगुणावेष्टितनितम्बता वध्वाः । तुप्पं स्निग्धम् । किणो प्रश्ने अन्य इतिशब्दः प्रश्ने, अन्यश्च प्रकारे ॥ २७३॥
1W. तुप्पाणणा; 2W. अच्छसि; 3W. परिपुच्छि आइ.
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१२४
गाहाकोसो
[३.७४w 290 २७४) हियइ च्चेय विरोओ न साहिओ जाईऍ घरसारं ।
. बंधवदुबयणं पित्र दोहलओ दुग्गयवहूए ॥७॥ W291 २७५) धावई विहै डियम्मिल्लसिचयसंजमणवावडकरग्गा ।
चंडिलमयविवलायंतडिंभमग्गन्निरी जणणी ॥७५॥ W292 २७६) उत्रहइ बह जह जह नवजुव्वणमणहराइ अंगाई।।
तह तह से तणुयाई मज्झं दहओ य पडिवक्खो ॥७६॥
२७४) लक्षणस्य । (लक्ष्मणस्य !) । [हृदय एव विलीनो न कथितो जानत्या गृहसारम् । बान्धवदुर्वच नमिव दोहदो दरिद्रवधा ॥] दुग्गयवहूए दोहलओ न साहिओ दुर्गतबध्वा दोहदो न कथितः । किमिव । बन्धवदुव्वयणं पिव बान्धवदुर्वचनमिव । कथंभूतया । जाणईऍ घरसारं जानत्या गृहसारम् । अत एव हियइ च्चेय विराओ स दोहदस्तस्या अभिलण्यमाणो हृदय एवं विलीनः । यथैव बान्धलदुर्वचनं न प्रकाश्यते तथा दोहदमपि न प्रकाशितवती दुष्प्राप्यत्वादिति भावः । विराओ विलीनः । साहिओ कथितः । दुर्गतो दरिद्रः । उपमालंकारः ॥२७॥
२७५ कृष्णचित्तस्य । धावति विघटितधम्मिल्लसिचयसंयमनव्यापृतकराया। नापितभयविपलायमानडिम्भमार्गान्वेषणशोलो जननी ॥] जणणो धावइ जननी धावति । कीदृशी । चांडलभयविवलायंत डिंभमग्गनिरी नापितभयविपलायमानडिम्भमार्गान्वेषणशोला । पुनरपि कीदृशी । विहडियधम्मिल्लसिचयसंजमणवावडकरग्गा विघटितधम्मिल्लसिचयसंयमनव्या'पृत कराया । वावड जस व्यावर्तित कर्मग (?) धाम्नललो केशपाशः । चंडिलो नापितः । जातिरलं कारः ॥२७५।।
२७६) कृष्णराजस्य । [उद्वइति वधूर्यथा यथा नवयौवनमनोहराण्यङ्गानि । तथा तथा तस्यास्तनुकानि मध्यं दयितश्च प्रतिपक्षः ॥] जह जह वह नवजुब्वणमणहराइँ अंगाई उचहइ यथा यथा वधूनवयौवनमनोहराणि अङ्गानि उद्वहति, तह तह से तणुयाई मज्झं दइओ य पडि.
१w. विलीणो; २w. जाणिऊण; ३w. विअलिअ, ४w. डिंभपरिमग्गिरी; '५w घरिणी; ६w जह जह उव्वहइ वहू; ७w तणुाअइ.
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१२५
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-३.७९]
तीयं सयं W293 २७७) जह जह जरापरिणो होइ पैई दुग्गो विरूओ य ।
कुलबालियाण तह तह अहिययरं वल्लहो होइ ॥७७॥ W294 २७८) एसो मामि जुवाणो वारंवारेण जं अडयणाओ। .
गिम्हे गामिक्कवडोअयं व "किच्छेहि पाविति ॥७८ ॥ W295 २७९) गामवैडम्मि पिउच्छा आवंडुमुहीण पंडुरच्छायं ।
हियएण समं असईण पडइ वायाहयं पत्तं ॥७९॥ वक्त्रो तथा तथा तस्यास्तनूनि भवन्ति मध्यं दयितः प्रतिपक्षश्च । मध्यं तयोर्विशेषणम् (१) । दयितस्तदासवत्या । प्रतिपक्षः सपत्नीजनः । हेतुसमुच्चयाभ्यां संसृष्टिरलंकारः ॥२७॥
२७७) राजधर्मणः । [यथा यथा जरापरिणतो भवति पतिर्दुर्गतो विरूपश्च । कुलबालिकानां तथा तथा अधिकतरं वल्लभो भवति ॥ जह जह जरापरिणो यथा यथा जरापरिणतः होइ पई भवति पतिः दुग्गो विरूओ य दुर्गतो विरूपश्च, कुलबालियाण तह तह कुलबालिकानां तथा तथा अहिययरं वल्लहो होइ अधिकतरं वल्लभो भवति । कुलबालिकाप्रशंसापरेयमुक्तिः ।।२७७॥
२७८) पाहिलस्य । [एष मातुलानि (अथवा सखि) युवा वारंवारेण यमसत्यः । ग्रीष्मे ग्रामैकावटोदकमिव कृच्छ्रेण प्राप्नुवन्ति ॥] एसो मामि जुवाणो एष मातुलानि युवा जं अडयणाओ किच्छेहि पावंति यम् असत्यः कृच्छेण प्राप्नुवन्ति । गिम्हे गामिक्कवडोअयं व ग्रीष्मे ग्रामैककूपोदकमिव । कथम् । वारंवारेण पुनःपुनः । अडयणाओ असत्यः । मामि इति मातुलानी सखी च । अवटः कूपः ॥२७८॥
२७९) मधुसूदनस्य । [ग्रामवटे पितृष्वसः आपाण्डुमुखीनां पाण्डुरच्छायम् । हृदयेन समम् असतीनां पतति वाताहतं पत्रम् ॥] हे पिउच्छा पितृष्वसः, गामवडम्मि पत्तं पडइ ग्रामवटे पत्रं पतति ध्वंसते (? संसते)। कथंभूतम् । वायाहयं वाताहतम् । पुनश्व कीदृशम् । १w. पिओ; २w किच्छेण; ३w गामवडस्स.
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१२६ गाहाकोसो
[३.८०W296 २८०) पिच्छइ अलद्धलक्खं दीहं नीससइ सुन्नयं हसइ ।
जह जंपइ अफुडत्थं तह से हिययट्टियं किं पि ॥८॥ W297 २८१)घरेवइ गउ म्ह सरणं रक्खसु एयं ति अडयणा भणिरो ।
सहसागयस्स तुरियं पइणु च्चिय जारमप्पेइ ।।८।। पंडुरच्छायं पाण्डुरच्छायम् । किं तदेव केवलं पतति । नेत्याह । आवंडुमुहीण असईण हियएण समं आपाण्डुरमुखीनाम् असतोनां हृदयेन समम् । अत्र पत्रपतनक्रमेण विरलतां गते वटविटपिनि कथमस्माभिरभी. ष्टसंगमसुखम आस्वादयितव्यम् इति असतीनां हृदयपतनं वैवण्यं चेति । सहोक्तिरलं कारः । भवति यथारूपोऽर्थः कुर्वन्नेवापरं तथारूपम् । उक्तिस्तस्य समाना तेन समं या सहोक्तिः सा ॥ (रुद्रट,७, १३)॥२७९॥
२८०) खलस्य। प्रेक्षतेऽलब्धलक्ष्यं दीर्घ निःश्वसिति शून्यं हसति । यथा जल्पत्यस्फुटार्थ तथाऽस्या हृदयस्थितं किमपि ॥] यथा सा पिच्छइ अलद्धलक्ख प्रेक्षते अलब्धलक्ष्यम् , दीहं नीससइ दीर्घ निःश्वसिति, सुन्नयं हसइ शून्यं हसति, जह जंपइ अफुडत्थं यथा च अस्फुटाथै जल्पतति, तथा अहम् एवं मन्ये से तस्याः हिययद्वियं किं पि हृदयस्थितं किमपि । लिङ्गेन ज्ञायते तस्याः कश्चित् सुन्दरयुवा चित्ते वर्तते, इत्यर्थः । अनुमानं नामालंकारः। तस्य लक्षणम् । वस्तु परोक्षं यस्मिन् साध्यमुपन्यस्य साधनं तस्य । पुनरन्यदुपन्यस्येद् विपरीतं चैतदनुमानम् ॥ (रुद्रट, ७, ५६) प्रथमानुरागे विप्रलम्भोऽयम् । प्रियतमाप्राप्तौ उन्मादो नाम दशा ॥२८०॥
२८१) विषदस्य । [गृहपते गतोऽस्माकं शरणं रक्षै नमित्यसतो भणन्ती। सहसागतस्य त्वरितं पत्युरेव जारमर्पयते ॥ ] काचिदुपपतौ गाढोपगूढे सति समायान्तं स्वपति प्रेक्ष्य स्वदुर्नयं निगुहितुम् इदमाह । स्वदुश्चरितं प्रच्छादयितुं काचित् पत्युरेव जारमर्पयति । कथम् । तुरियं तत्क्षणेनेत्यर्थः । १w. गवइ, २w. भणिउं.
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-३.८३] तीयं सर्य
१२७ W301 २८२) अह अम्ह आगमो कुलहराउ पुरउ ति छिछई जारं ।
सहसागयस्स पइणो तुंरियं कंठम्मि लाए३ ॥८५॥ w332 २८३) सूरच्छलेण पुत्तय कस्स तुमं अंजलिं पणामेसि ।
हासकक्डखुम्मीसा न हुंति देवाण जोक्कारा ॥८३॥ कीदृशस्य पत्युः । सहसागयस्स सहसागतस्य । कीदृशी सा। घरवइ गउ म्ह सरणं गृहपते गतोस्माकं शरण रक्ख पु एयं ति अडयणा भणिरी रक्षनमिति भणनशीला असतो । शरणागतोऽयं त्वां, रक्षनमिति व्यपदेशेन पत्युरेव उपपतिमर्पयतीत्यर्थः । अडयणा असती। अप्पेह अर्पयति । लेशोऽलंकारः । तस्य लक्षणम् । लेशो लेशेन निर्मिन्नवस्तुरूपनिगूहनम् । (काव्यादर्श, २, २६५) ॥२८१॥
२८२ ) समविषमकस्य । ['एषोऽस्माकमागतः कुलगृहात् पुरतः' इत्यसती जारम् । सहसागतस्य पत्युस्त्वरितं कण्ठे लगयति ॥] छिछई असतो जारं पइणो तुरीयं कंठ म्म ला एइ जारं पत्युः त्वरितं कण्ठे लगयति । कथंभूतस्य पत्युः । सहसागयस्स अकस्मादागतस्य । कथम् । अह अम्ह आगमो कुलइराउ पुरउ त्ति एषोऽस्माकम् आगतः कुलगृहात् पुरत इति । स्वदुर्न य प्रच्छादनपरेयं व्याजोक्तिः । छिछई असती ॥२८२।।
२८३) शिखण्डिनः । [ सूर्यच्छलेन पुत्रिके कस्य त्वम् अञ्जलिम् उपनयसि । हासकटाक्षोन्मिश्रा न भवन्ति देवानां नमस्कराः॥ सूरच्छलेण पुत्तय सूरच्छलेन पुत्रिके कस्स तुमं अंजलिं पणामेसि कस्य त्वम् अञ्जलिमुपनयसि । सूर्यप्रणामापदेशेन कस्य त्वम् अञ्जलिं करसम्पुट घटयसीत्यर्थः । यतः हासकडक्खुम्मीसा हासकटाक्षोन्मिश्राः न हुँति देवाण जोक्कारा न भवन्ति देवतानां नमस्काराः। अतः कोऽसौ युवा यस्यार्थे त्वम् अजलिं बध्नासीति गाथार्थः ॥२८३॥ १w- अज्ज कुलहराओ त्ति छेछई
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१२८] गाहाकोसो
[३.८४-. W334 २८४) गीर्यच्छलेण भैरई कस्स तुमं रुयसि निम्भरुक्कंठं ।
_ मन्नुपडिरुद्धकंठद्धणितखलियखरुल्लावं ॥८४॥ w335 २८५) बहलनमाहयराई अज्ज पउत्थो पई घरं सुन्न ।
तह जग्गेसु सयज्झय जहा न अम्हे मुसिज्जामो ॥८५
२८४ ) वज्रढदेवस्य । [गीतच्छन्न स्मरन्तो कस्य त्वं रोदिषि निर्भरोत्कण्ठम् । मन्युपतिरुद्धकण्ठार्धनिर्यस्खलिताक्षरोल्लापम् ॥] कस्स भरई तुम निब्भरुक्कठं रुयसि कस्य स्मरन्ती त्वं निर्भरोत्कण्ठं रोदिषि । केन । गीयच्छछेण गीतच्छलेन । कथम् । मन्नुपडिरुद्धकंठद्धणितखलियक्खरुल्लावं । मन्युप्रतिरुद्धकण्ठार्धनिर्यस्खलिताक्षरोल्लापम् इति क्रियाविशेषणम् । इति पूर्वानुरागे विप्रलम्भशृङ्गारे अनुस्मरणं नाम दशा । मन्युर्दैन्यम् । जातिरलंकारः ॥२८४।।
२८५) आउकस्य । [बहलतमआहतरात्रिः, अद्य प्रोप्पितः पतिः, गृहं शून्यम् । तथा जागृहि प्रतिवेशिन् यथा न वयं मुष्यामहे ॥] काचिदसती जारस्य आगमनाभयं सूचयन्ती इदमाह । तह जग्गेसु तथा जागृहि सयज्झय प्रतिवेशिन् , न जहा अम्हे मुसिज्जामो न यथा वयं मुष्यामहे । किं कारगम् । यतः बहलतमाहयराई बहलतिमिराहता रात्रिः । अज्ज पउत्थो पई घरं सुन्नं अद्य प्रोषितः पतिः गृहं शून्यम् । धनतमतमस्काण्डकज्जलितायां निशि न कोऽपि लक्षयति, नापि सद्यः प्रोषितस्य पत्युः प्रत्यागमनं संभाव्यते । शून्यतायां (१ शून्यतया ) प्रातिवेश्मिकवन्ध्यम् (:) अस्मद्वेश्म । निःशकं त्वया आगन्तव्यम् इति प्रयुक्त्योपपतेः ज्ञापितं भवति । सयज्झओ प्रतिवेशी । पउत्थो प्रोषितः । भावो नाम अलंकारः। तस्य लक्षणम् - अभिधेयमभिदधानं तदेव तदसदृशसकलगुणदोषम् । अर्थान्तरमवगमयति यद् वाक्यं सोऽपरो भावः ॥ (रुद्रट, ७,४०)॥२८५॥ १w. गेअच्छ ठेग; २w. भरिउ; ३ w. सअञ्जिअ, ४ w. ण जहा अम्हे.
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-३.८८]
तीयं सयं
१२९.
W336 २८६) संजीवणोसहं पिव सुयस्स रक्खर अणभवावारा | सासू नव भदंसणकंठागयजीवियं सुन्हं ॥ ८६ ॥ W337 २८७) नृणं हिययणिहित्ताऍ वससि जायाऍ अम्ह हिययम्मि | अन्नह मणोरहा साहे सुहय कह तीऍ विन्नाया ॥ ८७ ॥ W338 २८८) तर सुहय अईसंते तिस्सा अच्छीहि कण्णलग्गेहिं । दिन्नं' घोलिवाहेहि पाणियं दंसणसुहाणं ॥ ८८॥
२८६) कैवर्तस्य । [संजीवनौषधमिव सुतस्य रक्षति अनन्यव्यापारा । श्वश्रुर्नवाभ्रदर्शनकण्ठागतजीवितां स्नुषाम् ||] सासू सुन्हं रक्बइ श्वश्रूः स्नुषां रक्षति । कीदृशी । अणन्नवावारा अनन्यव्यापारा तद्रक्षणैकपरा । कथंभूतां स्नुषाम् । नव भदंसणकंठागयजोवियं नवाभ्रदर्शनेन कण्ठागत जोवितं यस्याः सा तथोक्ता, ताम् । किमिव । संजीवणोसहं पिव संजीवनौषधमिव । कस्य । सुयस्स सुतस्य । तया विना नासौ मत्पुत्रो जीवतीति भावः । सुन्हा पुत्रवधूः । उपमालंकारः ॥ २८६ ॥
२८७) भूतदत्तस्य । [ नूनं हृदयनिहितया वससि जायया अस्माकं हृदये । अन्यथा मनोरथाः कथय सुभग कथं तया विज्ञाताः ॥] काचित् खण्डिताधरदलं प्रातरायातं प्रियं प्रतिभेत्तुमिदमाह । नूणं हिययणिहित्ताएँ जायाऍ अम्ह हिययम्मि वससि नूनं हृदयनिश्तिया जयया त्वम् अस्म
,
हृदये वससि । कथमेतद् व्यज्ञासीरित्याह । अन्नह मणोरहा साह सुहय तीऍ कह विन्नाया अन्यथा मनोरथाः कथय सुभग मम मनोरथाः कृता भवद्दशनादिकाः कथं तया विज्ञाताः । यदि च सा त्वदनुषङ्गेण मम चेतसि न वसति कथं तया मम मनोरथाः त्वदधरदलदशनादिकाः ज्ञाताः । त्वयि अनुतिष्ठतीति (?) प्रतिभेदः । मध्या खण्डिता नायिका । मध्या प्रतिभिनस्येनं सोल्लुण्ठैः साधु भाषितैः । अनुमानालंकारः ॥ २८७॥
२८८) महादेवस्य । [त्वयि सुभगादृश्यमाने तस्या अक्षिभ्यां कर्णलग्नाभ्याम् । दत्तं घूर्णनशीलबाषाभ्यां पानीयं दर्शन सुखानाम् ||] तिस्सा १w. मे साहसु कह तीअ विष्णाआ; २w. दिण्णं.
९
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गाहाकोसो
३.८९W340 २८९) चोलीणालक्खियरूवजुव्वणा पुत्ति कं न दूमेसि ।
दिट्ठा पणट्ठपोराणजणवया जम्मभूमि व्व ॥८९॥ W341 २९०) परिओसवियसिएहि भणियं अच्छोहि तेण जणमज्झे ।
पेडिबन्न चिय भरिउन्धरंतसेएहि अंगेहिं ॥९॥ अच्छीहि सणसुहाणं पाणियं दिन्नं तस्या अक्षिभ्यां दर्शनसुखानां पानीयं दत्तम् । कथंभूताभ्याम् । घोलिरबाहेहि धूर्णनशीलबाष्पाभ्याम् । पुनपि कीदृशाभ्याम् । कण्णलग्गेहिं कर्णलग्नाभ्याम् । क्व सति । तइ सुहय अईसंते त्वयि सुभग अदृश्यमाने । अन्ययुवावलोकनविमुखी त्वामेव स्वदृशा अक्षद् इति भावः । उत्प्रेक्षालंकारः ॥२८८॥
२८९) विश्वसेनस्य । [अतिक्रान्तालक्षितरूपयौवना पुत्रि के न दनोषि । दृष्टा प्रनष्टपुराणजनपदा जन्मभूमिरिव ॥] हे पुत्ति पुत्रि दिवा के न दूमेसि दृष्टा कं न दुनोषि । कीदृशो । वोलोणालक्खियरूवजुवणा वोलीणं अतिक्रान्तम् अथ च मालक्षितं रूपयौवनं यस्याः सा तथोक्ता। का इव । जम्मभूमि व्व जन्मभूमिरिव । कोदशी। पण?पोराणजणवया प्रनष्टपुराणजनपदा । यथा प्रनष्टपुराणजनपदा जन्मभूमिः मनो दुनोति तथा त्वम् इत्यर्थः । वयःपरिणतिसमये सविशेषरूपयौवनलिङ्गानुमितपूर्वसौन्दर्या त्वं मनो दुनोषीति भावः । वोलोणं अतिक्रान्तम् । आ ईषदर्थे । पोराणं इति तुण्डादिपाठाद् ओत्वम् (वररुचि ७,२०) हेत्वलंकारः ॥२८९॥
२९०) प्रवरराजस्य । परितोषविकसिताभ्यां भणितमक्षिभ्यां तेन जनमध्ये । प्रतिपन्नमेव भृतोर्वरितस्वेदैरङ्गैः ॥] तेण अच्छीहि भणियं तेनाशिभ्यां भणितम् । कथंभूताम्याम् । परिमोसवियसिएहिं परितोषविकसिताभ्याम् । क्व । जणमझे जनमध्ये । सकलजनसमाजे लज्जया वक्तुं न पार्यते, अतो नेत्राभ्यामेव अभिहितं मां भजस्वेति भावः। किमेतावदेव । नेत्याह । अंगेहिं पडिबन्नं चिय भङ्गैः प्रतिपन्नमेव । कोदृशैरङ्गैः । भरि१w. पडिवणं तीअ वि उव्वमंतसेएहि.
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-३.९३]
तीयं सयं W342 २९१) इविक्कमसंदेसाणुरायवड्डतकोउहल्लाई ।
दुक्खं असमत्तमणोरहाइँ अच्छंति मिहुणाई ॥११॥ W343 २९२) जइ सो न वल्लहु च्चिय गुत्तरगहणेन तस्स सहि कीस ।
होइ मुहं ते रवियरफंसविसर्ट व तामरसं ॥९२॥ W344 २९३) माणदुमफरुसपवणस्स मामि सव्वंगणिचुइयरस्स ।
अवऊहणस्स भदं रेयनाडयपुव्वरंगस्स ॥१३॥ उव्वरंससेएहि भृतावशिष्यमाणस्वेदैः । मम इत्यध्याहार्यम् । स्वेदः सात्त्विको भावः । रुद्रटमते सूक्ष्मम् अलंकारः। यत्रायुक्तिमदर्थों गमयति शब्दो निजार्थसंबद्धम् । अर्थान्तरमुपपत्तिमदिति तत् संजायते सूक्ष्मम् ॥ (रुद्रट, ७, ९८)॥२९॥
२९१) जीवदेवस्य । [अन्योन्यसंदेशानुरागवर्धमानकौतूहलानि । दुःखमसमाप्तमनोरथानि आसते मिथुनानि ॥] दुक्खं मिहुणाई अच्छंति कष्टं मिथुनानि तिष्ठन्ति । तामेव दुःखासिकामाह । कीदृशानि मिथुनानि । असमत्तमणोरहाइँ असमाप्तमनोरथानि । पुनश्च कीदृशानि । इक्किक्कमसंदेसाणुरायवइदंतकोउहल्लाइं परस्परसंदेशानुरागवर्धमानकौतूहलानि । पूर्वानुरागे गाथेयम् । इक्किक्कम परस्परम् ।।२९१॥
२९२) प्राणराजस्य । [यदि स न वल्लभ एव, गोत्रग्रहणेन तस्य सखि कस्मात् । भवति मुखं ते रविकरस्पर्शविकसितमिव तामरसम् ॥] जइ सो न वल्लहु सिवय यदि स न वल्लभ एव, गुत्तग्गहणेग तस्स सहि . कोस गोत्रग्रहणेन तस्य सखि कस्मात् । होइ मुहं ते भवति मुखं ते, रवियरफंसविसई व तामरसं रविकरस्पर्शविकसितमिव तामरसम् । गोत्रं नाम । तामरसं कमलम् । उत्तरनामालंकारः ॥२९२॥
__२९३) पाहिलस्य । [मानद्रुमपरुषपवनस्य सखि सर्वाङ्गनिवृतिकरस्य । अवगृह नस्य भद्रं रतनाटकपूर्वरङ्गस्य ।।] हे मामि सखि, अव१w. रइणोडअ.
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१३२ गाहाकोसो
[३.९४:W345 २९४) निययाणुमाणणीसंक हियय दे पसिय बिरम इत्ताहे ।
अमुणियपरमत्थजणाणुलग्ग कीसम्ह लहुएसि ॥९॥ W346 २९५) अवसहिओ तुज्झ पइणा सलाहमाणेण ईच्चिरं हसिभो।
चर्दु त्ति तुज्झ मुहदिन्नकुसुमसायंजलिविलक्खो ॥१५॥ ऊहणस्त भई अवगृहनस्य भद्रं शोभनं भवतु । कीदृशस्य । माणदुमफरुसपवणस्स मान एव द्रुमः, तस्य परुषपवनस्य, तदुन्मूलकत्वात् । सव्वंगणिव्वुइयरस्स सर्वाङ्गनिर्वृतिकरस्य । भूयश्च कीदृशस्य । रयणाडयपुवरंगस्स, रतनाटकपूर्वरङ्गस्य तस्य प्रथमं प्रयुज्यमानत्वात् । ईदृशरय अवगूहनस्य भद्रं भवतु इत्यर्थः । पूर्वरङ्गो यत् नाटकादीनामादौ प्रयुज्यते । यस्य प्रत्याहारोऽवतरणं तथा ह्यारम्भ एव च । संघातः कार्यान्तश्च परिघटनेत्यादीनि महाचारोपर्यन्तानि द्वाविंशतिः अङ्गानि । (cf. नाट्यशास्त्र, ५, ९)। रूपकभेदः परम्परितं नामालंकारः। यस्मिन्नुप- . मानाभ्यां समस्यमुपमेयमन्यार्थे (रुद्रट, ८, ४७) ॥२९३॥
२९४) चुल्लोडकस्य । [निजानुमाननिःशङ्क हृद्य प्रार्थये विरम सांप्रतम् । अज्ञातपरमार्थेजनानुलग्न किमित्यस्मान् लघयसि ॥] काचिदस्थिरप्रेम्णि प्रियतमे स्वगतमिदमाह । हे हियय हृदय निययाणुमाणणीसंक निजानुमाननिःशङ्क, अमुणियपरमत्थजणाणुलग्ग अज्ञातपरमार्थजनानुलग्न, पसिय विरम इत्ताहे प्रसीद विरम इतः (? सांप्रतम्) । कीसम्ह लहुएसि किमित्यस्मान् लघयसि । अमुना अनुमानेन निजार्जवगुणेन अन्यासक्तेऽपि कान्ते मा स्म अनुरागारम्भनिर्भरं भूरित्यर्थः । दे प्रार्थनायाम् । इत्ताहे सांप्रतम् । अन्ये इतः । खण्डिता नायिका स्वीया । दृ....देश (१) कोपाङ्गम् । आक्षेपोडलंकारः ॥२९४॥
२९५) कैलासस्य । [आवसथिकः तव पत्या छाधमानेन चिरं हसितः । चन्द्र इति तव मुखदत्तकुसुमसायाञ्जलिविलक्षः ॥] तुज्झ पइणा
१w. ओसहिअजणो पइणा; २w. अइचिरं; ३w. चंदो त्ति. तुज्झ वअणे. विइण्णकुसुमंजलिविलवखो.
।
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-३.९७] तीयं सयं
१३३ W702 २९६) अन्नच्छलेण पेसियतुलग्गमेलीणदिद्विपसराई।
दो वि वणे कयभंडणाई समयं चि हसियाइं ॥९६॥ W347 २९७) शिउतेहि अणुदिणं पच्चक्खम्मि वि तुमम्मि अंगेहिं ।
बालय पुच्छिज्जंती न याणिमो कस्स किं भणिमो ॥९७॥ अवसहिओ जणो इच्चिरं हसिमो तव पत्या प्रतिजनः (? आवसथिकः जनः) चिरकालं हसितः । कीदृशेन पत्या । सलाहमाणेण लाधमानेन । कोदृशः प्रतिजनः । चंदु त्ति तुझ मुहदिन्नकुसुमसायंजलिविलक्खो चन्द्र इति त्वन्मुखसायं दत्तकुसुमाञ्जलिविलझः । स तत्र भर्ता स्वभावोद्योतितदिङ्मुखः शशी अयम् इति बुद्धया मुग्धमुनिजनं वितीर्णसन्ध्याञ्छलिं विलक्षं वोक्ष्य सायं हसितवान् इत्यर्थः । अवसहिओ प्रतिजनः (१) इच्चिरं चिरं कालम् । अपहनुतिरलंकारः ॥२९५॥
२९६) मन्दरस्य । [अन्यच्छलेन प्रेषितयदृच्छामिलितदृष्टिप्रसरौ । द्वावपि सखि कृतकलही सममेव हसितौ॥] काचित् कस्याश्चित् कथयति । दो वि वणे समयं चिय पहसियाइं द्वावपि दंपती सखि सभमेव प्रहसितौ सहास्यो संपन्नौ । कीदृशौ। कयभंडणाई कृतकलहो । कृतकलहतया अन्योन्यानवलोकनस्थितौ । कथं तर्हि प्रहसितौ । विशेषणद्वारेण कारणमुच्यते । कीदृशो दंपतो। अन्नच्छलेण पेसियतुलग्गमेलीणदिद्विपसराई अन्यच्छन प्रेषिततुलाग्रमिलितदृष्टिप्रातरौ, अत एवं प्रहसितो , नावयोः किल प्रतिज्ञा पूर्णेति । अन्ये पुनरन्यथा व्याचक्षते । यथा वणे सखि कृतकलहावपि दंपती अन्यच्छलेन अन्यमेवावलोकयतः । तथा पश्यतोस्तयोः एकदा कथमपि दैवाद द्वयोरपि दृष्टिर्मिलितेत । ततस्तौ इतरेतरं ज्ञाताभिप्रायतया हसितवन्तौ इति । प्राकृते बहुलम् इति पुंस्यपि नपुंसकतानिर्देशः। चणेशब्दः सखोपर्यायः । जातिरलंकारः ॥२९६॥
२९७) अन्यशक्तेः । क्षीयमाणैरनुदिनं प्रत्यक्षेऽपि त्वयि अझैः । बालक पृच्छ्यमाना न जानामि कस्य किं भणामि ॥] काचित प्रियस्य १४. अण्णोणकडक्खंतरपेसियमेलीण; २w. दो च्चिअ मण्णे; ३w. समअं
पहसिआई.
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.......
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गाहाकोसो
[३.९८W348 २९८) अंगाणं तणुयारय सिक्खावय दोहरोइयव्याणं ।
विणयाइक्कमकारय मा' हो णे विम्हरिज्जासु ।।९८॥ W349 २९९) अन्नह न तीरइ च्चिय परियइढतस्स गरुयपिम्मस्स ।
___मरणविणोएण विणा विरमालेउं विरहदुक्खं ॥१९॥ लज्जया लधिम्ना च अपराधान् प्रकटयितुम् अपारयन्ती अवपृच्छति । अणुदिणं अनुदिनं झिज्जतेहि अंगेहिं क्षीयमाणैरङ्गैः पुच्छिज्जती किमिति त्वं कुशासोति पृच्छयमाना न याणिमो कस्स किं भणिमो न जानोमः कस्य किं भणामः । कस्मिन् सति । पञ्चक्खम्मि वि तुमम्मि प्रत्यक्षेऽपि त्वयि । विरहे हि प्रियप्रवासः कायकार्यकारणं कथ्यते । त्वयि तु प्रत्यक्षं लक्ष्यमाणे किं वयामीति । तवापरावान् प्रकटयितुं न पारयामीति भावः ॥२९॥
२९८) माणिक्यराजस्य । [अङ्गानां तनु (त्व)कारक शिक्षक दोर्घरोदितव्यानाम् । विनयातिक्रमकारक मा रे नः विस्मरेः । ] काचित् कान्तस्य नैकापराधदुःखभरनिर्भरतया कृतस्वमरणव्यवसाया तमेव आत्ममरणं प्रार्थयमाना इदमाह । हे अंगाणं तणुयारय अङ्गानां तनु(स्व)कारक, सिक्खावय दीहरोइयव्वाणं शिक्षादायक दीर्घरोदितव्यानाम् , विणयाइक्कमकारय विनयातिक्रमकारक मा हो णे विम्हरिज्जासु मा पुनरस्मान् विस्मरेरिति । एषाऽहं दशमी दशां प्राप्ता त्वया स्मरणीयेति भावः । मरणव्यवसिता खण्डिता। कोपाङ्गम् (!)। णे इति अस्मदो द्वितीयाबहुवचनरूपम् ॥२९८॥ . २९९) शबरस्य। [अन्यथा न शक्यत एवं परिवर्धमाने गुरुप्रेम्णि । मरणविनोदेन विना सोढुं विरह दुःखम् ॥] काचिद् विरहदुःखिता दयितं सनिर्वेदमिदमाह । मरणविणोएण विणा मरणविनोदेन विना अन्नह न तीरह च्चिय विरहदुःक्खं विरमालेउ अन्यथा न शक्यत एव विरहदुःखं सोढुम् । १w. मा मा णं पम्हरिज्जासु २w. परिवड्दतगरुअं पिअअमस्स ३w. विरमावेउं; साधारणदेव, वोलावेउं
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-४.०२] चउत्थं सयं
१३५ W350 ३००) वणंतीहि तुह गुणे बहुसो अम्हेहि छिछईपुरमओ।
बालय सयमेव को सि दुल्लहो कस्स कुप्पामो ॥१०॥ W351 ३०१)जाओसो' वि विलक्खो मए वि हसिऊण धणियमवऊढो ।
पढमोसरियस्स नियंसणस्त गठिं विमग्गंतो ॥१॥ W723 ३०२)सेउल्लणियंबालग्गसण्हसिचयस्स मग्गमलहंतो।।
___ सहि मोहघोलिरो अज्ज तस्स हसिओ मए हत्थो ॥२॥ मरणमन्तरेण नास्त्यन्य उपाय इत्यर्थः । क्व सति । परिवड्ढंतस्स गरुयपिम्मस्स परिवर्धमाने गुरुप्रेम्णि । सप्तम्यर्थे षष्ठी द्रष्टव्या । विरमालेड सोडुम् ॥२९९॥
३००) नागहस्तिनः । [वर्णयन्तीभिस्तव गुणान बहुशोऽस्माभिरसतीपुरतः । बालक स्वयमेव कृतोऽसि दुर्लभः कस्य कुप्यामः ।। ॥३०॥
इति हालविरचिते गाथाकोशे श्रीभुवनपालवृत्तौ छेकोक्तिविचारलीलायां तृतीयमेतत् शतं समाप्तम् । जिनः जिनः ।
३०१) [जातः सोऽपि विलक्षा मयापि हसित्वा गाढमवगूढः । प्रथमापसृतस्य निवसनस्य ग्रन्थि विमार्गयन् ॥] ओं नमो जिनाय । काचित् स्वरहस्यं सख्याः कथयति । सो वि विलक्खो जाओ सोऽपि प्रियो विलक्षो जातः । किं कुर्वन् । गठिं विमग्गंतो ग्रन्थि विमार्गयन् । कस्य । नियंसणस्स निवसनस्य । कथंभूतस्य । पढमोसरियस्स प्रथमापसृतस्य । किमेतावदेव । नेत्याह । मए वि सो धणियमवऊढो मयापि स गाढमवगूढः । किं कृत्वा । हसिऊण हसित्वा । निवसनग्रन्थिश्लथनजनितवैलक्ष्यक्षपणाय गाढमुपगूढ इत्यर्थः । धणियं गाढम् । नियंसणं परिधानवास: ॥३०१॥
३०२) चन्द्रकस्य । [स्वेदाईनितम्बालग्नसूक्ष्मसिचयस्य मार्गमलभमानः । सखि मोघघूर्णनशीलो अद्य तस्य हसितो मया हस्तः ॥] हे १.w वि सो, २w गाढमुवऊढो.
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- गाहाकोसो
[४.०३W352 ३०३) कण्णुज्जुया वराई सा अज्ज तए कयावराहेण ।
- अलसाइयमुभवियंभियाई दियहेण सिक्खविया ॥३॥ W353 ३०४)अवराहेहि वि नवि तह पत्तिय जह तं इमेहि मेसि ।
अवहत्थियसब्भावेहि सुहय दक्खिण्णभणिएहिं ॥४॥ सहि भज्ज तस्स मए हसिओ हत्थो सखि अद्य तस्य मया हसितो हस्तः । कीदृशः । मोहधोलिरो मोघमेव घूर्णनशीलः । किं कुर्वन् । मग्गमलहंतो मार्गमलभमानः । कस्य । सेउल्लणियंबालग्गसम्हसिचयस्य स्वेदाो यो नितम्बः, तत्र आलग्नं यत् सूक्ष्म सिंचयं तस्य मार्गम् अनासादयन् स हसित इति । सहं सूक्ष्मम् ! उल्लं भाम् ॥३०२॥
३०३) अनङ्गदेवस्म । [कर्ण का वराकी सा अद्य त्वया कृतापराधेन । अलसायितशून्यविजम्भितानि दिवसेन शिक्षिता ॥] सा अज तए दियहेण सिक्खविया सा अद्य त्वया दिवसेनैव शिस्निता । कथंभूतेन । कयावराहेण कृतापराधेनापि । कानि । अल साइयसुन्नवियंभियाइँ अलसायितशून्यविजृम्भितानि । यतः कण्णुज्जुया वराई कर्ण का वराकी । यथैव शृणोति तथैव प्रतिपद्यत इत्यर्थः । कृतमपि व्यलीकम् अकृतं ब्रुवता अनुरागे निवेशितेति भावः । अन्ये तु कंडुजुया इति पठन्ति । अत्र पक्ष काण्डवद् ऋजुका सरलस्वभावेति व्याख्येयम् ॥३०३॥
३०४)कदलीगृहस्य । [ अपराधैरपि नैव तथा प्रतीहि यथा त्वम् एभिर्दुनोषि । अपहस्तितसद्भावैः सुभग दाक्षिण्यभणितैः ॥] हे सुहय सुभग पत्तिय प्रतीहि । अवराहेहि वि नवि तह दूमेसि अपराधैरपि नैव तथा मां दुनोषि संतापयसि जह इमेहि दक्खिण्णभणिएहिं यथा एभिर्दाक्षिण्यमणितैः । कथंभूतैः । अवहत्थियसब्भावेहि अपहस्तितसद्भावैः । दुनोषीति सम्बन्धः। अपराधेभ्यो दाक्षिण्योक्तयो व्यथकत्येन विशिष्यन्त इत्यर्थः । अत्र दक्षिणो नायकः । मध्या नायिकेति ॥३०४॥ ..१w. कंडुज्जुआ, २w. अज्ज तए सा, ३w. रुण्ण ४w. वि ण तहा; ५w. दुम्मेसि.
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-४.०६]
चउत्थं सयं
W354 ३०५) मा जूर पियागिणसुन्नोवासभमिरीण बाहाणं । तुहिकपरुन्ना सुयणु अज्ज माणसिणि मुद्देणं ||५|| W355 ३०६ ) मा वच्च पुप्फलाई देवा उययंजलीऍ तूसंति । 'गोयावरीऍ पुत्तय सीलुम्मूलाई कूलाई ||६॥
३०५) सिद्धराजस्य । [ मा क्रुध्य प्रियालिङ्ग नशून्याव काशभ्रमणशीलयोः बाह्वोः । तूष्णीं प्ररोदिता सुतनु अथ मनस्विनि मुखेन || ] कांचित् प्रतिबुध्य शून्य शय्या पार्श्व परामर्शेन उदश्रुमुखीं सखो सखेदमिदमाह । मा नूर मा विवस्त्र | कयोः । पियालिंगण सुन्नोवासभमिरीण बाहाणं प्रियालिङ्गनशून्यात् पार्श्वाद् भ्रमणशीलयोः बाह्वोः । किं कारणमित्याह । तुहिकपरुन्ना सुयणु अज्ज माणसिणि मुहेणं तूष्णींप्ररुदिता सुतनु अब मनस्विनि सुखेन । अनेन सरोषपरुषाक्षरतापहस्तितकान्तसंगमसुखेन मुखेन तूष्णींप्ररुदिता कृतासि इति । तस्मै मुखराय मुखाय कुप्यतां, किं बाहुक्यामपराद्धम् इति भावः । कलहान्तरिता नायिका । सख्याः सखीकर्म ॥ ३०५ ॥
१३७
३०६) नकुलस्य । [ मा ब्रज पुष्पलावी देवा उदकाञ्जलिना तुष्यन्ति । गोदावर्याः पुत्रि शोलोन्मूलकानि कूलानि ||] कयाचित् कुलबालिकया पुष्पावचयनिमित्तं गोदावरीगमनाय पृष्टा श्वश्रूः सती इदमाह । मा वच्च पुष्कलाई मा वन पुष्पावो । पुष्पाणि लविण्यामोति कृत्वा मा व्रज । देवा उययंजलीऍ तूसंति देवा उदकाञ्जलिभिः तुष्यन्ति । को दोषो गमन इयाह । गोयावरीऍ पुत्तय सीलम्मूलाइँ कूलाई गोदावर्याः पुत्रि शीलोन्मूलकानि कूलानि । स्वभावरमणीयत्वात् सुन्दरयुत्र जनाकीर्णत्वात् असतीसमूहसंकुलत्वाच्च गोदावर्याः सतीनामपि चरित्रखण्डन शौण्डानि सैकतानि । आक्षेपोऽलंकारः ॥ ३०६॥
1
१W, सरहसभमिरीण, २w. बाहुलइआणं; ३. तुण्डिक्क परुण्णेण इमिणा, ४. पुप्फलावि ५Ww. उअअंजलीहि; ६w. गालाणईअ.
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१३८
गाहाकोसो
[४.०७
W356 ३०७)वयणे वयणम्मि चलंतसीसमुन्नावेहाणहुंकारे ।
सहि दिती नीसासंतरेसु कीस म्ह मेसि ॥७॥ W357 ३०८)सब्भावं पुच्छंती बालय रोयाविया तुह पिया मे ।
नत्थि त्ति अकयसवहं हाऍम्मीसं भणंतीए ॥८॥ W358 ३०९)इत्थ मए रमियचं तीऍ समं चिंतिऊण हियएण ।
पामरकरसेउल्ला न पडइ तुवरी वविज्जती ॥९॥
३०७) नन्दनस्य । [वचने वचने चलच्छीर्षशून्यावधानहुंकारान् । सखि ददती निःश्वासान्तरेषु कस्माद् अस्मान् दुनोषि ॥] काचिद् दुर्लभजनेऽनुरक्तां सखी नियमावस्थां शिक्षयन्ती सखेदमिदमाह । वयणे वयणम्मि वचने वचने चलंत सीससुन्नावहाणहुंकारे दिती चलच्छीर्ष यथा भवति एवम् अवधानशून्यत्वात् हुंकारान् ददती । केषु । नीसासंतरेसु निःश्वासान्तरेषु । नि:श्वासश्वसनसूचितमिथ्याप्रतिपत्तितया (!) किमस्मान् व्यथयसि । त्वदुःखदुःखिता अहमपि भवामीति भावः । पूर्वानुरागे गायेयम् ॥३०७॥
३०८) अशोकस्य । [सद्भावं पृच्छन्ती बालक रोदिता तव प्रिया मया । नास्तीत्यकृतशपथं हासोन्मिश्रं भणन्त्या ॥] दुर्लभलम्भजने अनुरक्तां कामपि (अधिकृत्य) काचित् सखी इदमाह । हे बालय रोयाविया तुह पिया मे बालक रोदिता तव प्रिया मया । किं कुर्वती। सब्माकं पुच्छंती मत्प्रियस्यापराधोऽस्ति न वेति पृच्छन्ती सद्भावम् । कथंभूतया मया । नत्थि त्ति अक्यसवहं हामुम्मोसं भणंतीए नास्तीत्यकृतशपथं हासोमिश्र भणन्त्या । अकृतशपथतया मिथ्येति प्रतिपद्य सा रुदितवतीत्यर्थः । मे इति तृतीयारूपम् । हेतुरलंकारः ॥३०८॥
३०९) [ अत्र मया रन्तव्यं तया समं, चिन्तयित्वा हृदयेन । पामरकरस्वेदार्दा न पतति तुवरी उप्यमाना ॥] इत्थ मए रमियब्वं तीऍ १w. • सुण्णावहाणहुंकार; २w. पिआए; ३w. णत्थि च्चिय कयसवह;: ४w. हासुम्मिस्स; ५w. णिवडइ.
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१३९.
-४.११]
चउत्थं सयं W359 ३१०) गहवइसुउच्चिएस वि पलहीवोढेसु उयह वहुयाए।
मोहं भमइ पुलइओ सेयगलंतंगुली हत्थो ॥१०॥ W361 ३११) नीससिउक्कंपपुलइएहि जाणंति पिच्छिउँ धन्ना ।
अम्हारिसीण दिट्टे पियम्मि अप्पा वि वीसरइ ॥११॥ समं हियएण चिंतिऊण अत्र निष्पन्नाढकीक्षेत्रे अलक्षितेन मया रमितव्यं तया समम् (इति) हृदयेन चिन्तयित्वा । न पडइ तुवरी वविज्जती न पतति तुवरी उप्यमाना । विशेषणद्वारेण कारणमाह । कीदृशी। पामरकरसेउल्ला पामरकरस्वेदाः । अत एव न पततीति । स्वेदः सात्त्विको भावः ॥३०९॥
३१०) गुणनन्दिनः । [गृहपतिसुतोच्चितेष्वपि कर्पासफलेषु. पश्यत वध्वाः । मोघं भ्राम्यति पुलकितो गलत्स्वेदाङ्गुलिहस्तः ॥] उयह वहुयाए हत्थो मोहं भमइ पश्यत वन्वाः हस्तः मोघं भ्राम्यति । केषु । पलहोवोढेसु कर्पासफलेषु । कथंभूतेषु । गइवइसुउच्चिएसु वि गृहपतिसुतोच्चितेष्वपि । कथंभूतो हस्तः । पुलइओ पुलकितः । पुनः कीदृशः । सेयगलंतंगुली गलत्स्वेदाङ्गुलीकः । गृहपतिसुतकरस्पृष्ट कर्पासप्रसङ्गेन स्वेद'पुलकोद्गम इति । पलही कर्पासः । वोढं फलम् । संभावनोत्प्रेक्षालंकारः॥३१०॥
३११) जयकुमारस्य । [निःश्वसितोत्कम्पपुलकितैर्जानन्ति प्रेक्षितुं धन्याः । अस्मादृशीनां दृष्टे प्रिये आत्माऽपि विस्मरति ॥] धन्ना पिच्छिउँ जाणंति धन्याः प्रेक्षितुं जानन्ति । नीससिउकंपपुलइएहिं निःश्वसितोत्कम्पपुलकितैः । अम्हारिसीण दिटे पियम्मि अप्पा वि वीसरइ अस्मादृशीनां दृष्टे प्रिये आत्माऽपि विस्मरति, का कथा निःश्वसितादीनाम् । अहं दृष्टे प्रिये सति अत्यन्तानुरागयोगात् कोऽप्तौ, काऽहम् इत्यपि न जानामीत्यर्थः। स्वीया नायिका प्रगल्भा च : लब्धायतिः प्रगल्भा रतिकर्मणि पण्डिता विभु· दक्षा । आक्रान्तनायकमना नियूंढविलासविस्तारा । सुरते निराकुलाऽसौ द्रवतामिव याति नायकशरीरे । न च तत्र विवेक्तुमलं कोऽयं काऽहं किमे-- तदिति ॥ (रुद्रट, १२,२४-२५) ॥३१॥ १w. फलहीवेटेसु; २w. विलग्गसेअंगुली, ३w. णीसासुक्कंपिअषुलइएहि, ४w. णच्चिङ, ५w. अम्हारिसीहि, ६w. वीसरिओ,
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गाहाकोसो
[४.१२
W362 ३१२) तणुएण वि तणुइज्जइ वामेण खमिज्जए बला इमिणा ।
मज्झत्येण वि मज्झेग सुर्यणु कह तुज्झ पड़िवक्खो॥१२॥ W363 ३१३) वाहि व विज्जरहिओ धणरहिओ साहैवासवासु व्व ।
रिउरिद्धिदसणं पिव दूसहणीओ तुह वियोओ ॥१३॥
३१२) रोलदेवस्य । [तनुकेनापि तनूक्रियते क्षामेणापि क्षामीकियते बलादनेन । मध्यस्येनापि मध्येन सुतनु कथं तव प्रतिपक्षः ॥] हे सुयणु कह तुज्झ पडिवक्खो इमिणा मज्झेण बला तणुइज्जइ हे सुतनु, कथं तव प्रतिपक्षः सपत्नीजनः अनेन मध्येन बलात् तनूक्रियते काश्य नोयते । कीदृशेन मध्येन । तणुएण वि तनुकेनापि । यो हि अतनुः स कदाचिद् अन्यं तनूकरोति । न चैवं मध्यम् इति । खामेण खमिज्जए क्षामेण क्षाम्यते (=झामीक्रियते) । यो हि अक्षामो भवति स कदाचिद् अन्य क्षामयति । न चैवं मध्यमिति । कदाचिद् अमध्यस्थं मध्यं भवति इत्याह । ममत्येण वि मध्यस्थेनापि मध्येन स तथा क्रियते, क्षिति नीयते । विक्षिप इति विधीयामहे ()। प्रतिपक्षः सपत्नीजनः । तनुः कृशः । सामो निस्सहः । रुद्रटमतेन विषमः (रुद्रट, ९,४५)। आचार्यदण्डिनस्तु मते अयमेव चिहेतुरलंकारः (काव्यादर्श, २,२५३, २५८) ॥३१२॥
३१३) विफुल्लकस्य । [व्याधिरिव वैद्यरहितो धनरहितः सहवासवास इव । रिपुऋद्धिदर्शनमिव दुस्सहनीयस्तव वियोगः ॥] काचिद् विरहासहिब्णुः प्रियं प्रत्याह । वाहि व्य विग्जरहिओ व्याधिरिव वैद्यरहितः, धणरहिओ साहवासवासु व्व धनरहितः सहवासवास इव मित्रेणैव सहवास इव । रिउरिद्धिदसणं पिव रिपुऋद्धिदर्शनमिव दूसहणीओ तुइ वियोओ दुस्सहनोयस्तव वियोगः इति सर्वत्र योज्यम् । सहवासाद्वेति समृद्धयादिषु चेति दीर्घः (cf. वररुचि, १,२)। रुद्रटमतेन मालोपमालंकारः (रुद्रट, ८, २५) ॥३१३॥ १w. खीणेण वि खिज्जज्ए, २w. पुत्ति. ३w. सअणमज्झवासो व्व,
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-४.१६] चउत्थं सय
१४१ W364 ३१४) को' तरइ समुच्छरिउं वित्थिणं निम्मलं समुत्तुंगं ।
हिययं तुज्झ नराहिव गयणं व पोहरे मुत्तुं ॥१४॥ : W365 ३१५) आयण्णेइ अडयणा कुडंगहिम्मि दिन्नसंकेया ।
चलणग्गपिल्लियाणं मम्मरयं जुण्णपत्ताणं ॥१५॥ W439 ३१६) सामाऍ गरुयजुव्वणविसेसभरिए कवोलमूलम्मि ।
पिज्जइ अहोमुहेणं कण्णवयंसेण लायण्णं ॥१६॥
३१४) वासुदेवस्य । [कः शक्नोति समवस्तरितुं विस्तीर्ण निर्मल समुत्तुङ्गम् । हृदयं तव नराधिप गगनमिव पयोधरान् मुक्त्वा ।।] स्वामिनं कविरुपगाथयितुमिदमाह । हे नराहिव नराधिप पओहरे मुत्तुं को तुज्झ हिययं समुच्छरिउ तरइ पयोधरान् स्तनान् मुक्त्वा कोऽन्यः तव हृदयं व्याप्तुं पारयति । कथंभूतं हृदयम् । वित्थिगं निम्मलं समुत्तुंग विस्तीर्ण महाकटं, निर्मलं मलरहितं, समुत्तुङ्गम् उन्नतम् । किमिव । गयणं व गगनमिव । यथा किल गगनं विस्तीर्ण निर्मलं समुत्तुङ्गं पयोधरान् मुक्त्वा नान्योऽवच्छादयितुमलम्, एवं तव हृदयम् इति श्लेषोपमालंकारः । एकत्र पयोधराः स्तनाः, अन्यत्र स्तनयित्नवः । समुच्छरणं व्याप्तिः ॥३१४॥
___३१५) विशालस्य । [आकर्णयत्यसती गहनाधस्ताद् दत्तसंकेता । चरणाग्रप्रेरितानां मर्मरशब्दं जीर्णपत्राणाम् ॥] अडयणा मम्मरयं जुण्णप-. त्ताणं आयपणेइ असती मर्मरशब्दं जीर्णपत्राणाम् आकर्णयति । कथंभूतानाम् । चलणग्गपिल्लियाणं चरणाग्रप्रेरितानाम् । कीदृशी सा । कुडंगहिट्ठम्मि दिन्नसंकेया कुडंगो गहनं, तस्य अधस्ताद् दत्तसंकेता । तत्कालायातप्रियपादप्रेरितानां जीर्णपत्राणां स्वनम् आकर्णयतीत्यर्थः । अडयणा असती। कुडंगो . गहनम् । हस्ववृक्ष इत्यन्ये । प्रच्छन्नकामिते वासज्या (१) ॥३१५॥
३१६) विक्रमादित्यस्य । [श्यामाया गुरुयौवनविशेषभृते कपोल- . मूले । पीयतेऽधोमुखेन कर्णावतंसेन लावण्यम् ॥] सामाएँ लायण्णं पिज्जइ १w. को त्थ जअम्मि समत्थो थइउं वित्थिण्णणिम्मलुत्तुंगे. २w. अग्गपअपे-. लिआणं; ३w. अहोमुहेण व.
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गाहाको
[४. १७
W366 ३१७) अहिर्किति सुरहिणिम्महियपरिमलाबद्ध मंडल भमरा । •अमुणिय चंदपरिभवं अउच्चकमलं मुहं तिस्सा ॥ १७ ॥ W367 ३१८) धीरैमवलंबिरीए गुरुयैणमज्झे पिम्मि बोलीणे । पडिओ से अच्छिणिमीलणेण पम्हडिओ बाहो ॥ १८ ॥
१४२]
A
श्यामाया लावण्यं पीयते इव । केण । कण्णवयंसेण कर्णावतंसेन । कीदृशेन । अहोमुहेणं अधोमुखेन । क्व । कवोल मूलम्मि कपोलमूले । कीदृशे । गरुयजुव्वणविसेय भरिए गुरुकयौवनविशेषभृते । अधोमुखत्वात् कर्णावतंसस्य · तारुण्य पूर्णत्वात् कपोलमूलस्य लावण्यं पीयते इव इत्युत्प्रेक्ष्यते । लावण्यवर्णनपरेयमुक्तिः । संभावनानुमानेनोत्प्रेक्षालंकारः || ३१६ ॥
३१७) मार्गशक्तेः | [ अभिलीयन्ते सुरभिनिष्क्रान्तपरिमलाssव-द्वमण्डलभ्रमराः। अज्ञातचन्द्रपरिभवम् अपूर्वकमलं मुखं तस्याः ||] कश्चित् : प्रियावदनं वर्णयितुमिदमाह | अउवक्रमलं मुहं तिस्सा अपूर्वकमलं मुख तस्याः | अहिलिति अभिलीयन्ते । के । सुरहिणिम्महिय परिमला बद्ध मंडलभमरा । सुरभिर्निष्क्रान्तो यः परिमलः, तत्र आबद्धं मण्डलं यैस्ते तथोक्ताः । ते च ते भ्रमराश्व इति बहुव्रीहिगर्भः कर्मधारयः । कथंभूतं मुखम् | अमुणियचंदपरिभवं अज्ञातचन्द्रपरिभवम्, अत एव अपूर्वकमलम् । 'पद्मं खलु ज्ञातचन्द्रपरिभवं भवति इति । सजातिव्यतिरेकोऽलंकारः ।। ३१७॥
३१८) [ धैर्यमवलम्बिन्या गुरुजनमध्ये प्रिये अतिक्रान्ते । पतितस्तस्या अक्षिनिमीलनेन पक्ष्मस्थितो बाष्पः ॥] से बाहो अच्छिणिमीलण पडिओ तस्या बापो नेत्रनिमीलनेन पतितः । कीदृशः । पम्हडिओ पक्ष्म'स्थितः । क्व सति । पियम्मि वोलीणे प्रिये गते सति । कीदृश्यास्तस्याः । -चीरमवलंबिरीए धैर्यम् अवलम्बनशीलायाः । क्ा । गुरुयणमज्झे गुरुजनमध्ये ५३१८॥
३. सुरहिणीस सि अपरिमलाबद्ध मंडलं भमरा २w. धीरावलंबिरीअ वि; ३w. गुरुअणपुरओ; ४w. तुभम्मि;
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१४३
--४.२१]
चउत्थं सयं W440 ३१९) सेउल्लियसव्वंगी नामग्गहणेण तस्स सुहयस्स।
दुई अप्पाहिती तस्सेय घरंगणं पत्ता ॥१९॥ W565 ३२०) नवि तह अणालवंती हिययं मेइ माणिणी अहियं ।
जह दूरवियंभियगरुयरोसमझत्थणिएहि ॥२०॥ W441 ३२१) जम्मतराई वोसं चलणे जीएण मयण अग्घिस्सं ।
जह तं पि तण बाणेण विज्झसे जेण हं विद्धा ॥२१॥
३१९) राहवस्स (राघवस्य)। [स्वेदार्द्रिततसर्वाङ्गी नामग्रहणेन तस्य सुभगस्य । दूतों संदिशन्ती तस्यैव गृहाङ्गगं प्राप्ता] काचिन्नायिका तस्स सुड्यस्त नामग्गहणेण तस्य सुभगस्य नामग्रहणेन दुई , अप्पाहिती दूती संदिशती तस्सेय घरंगणं पत्ता तस्यैव गृहाङ्गणं प्राप्ता । कीदृशी । सेउल्लियसव्वंगी स्वेदार्दितसर्वाङ्गी । अनुरागयोगात् नानाविधविकल्पकल्पनया तत्संदेशावसानं जातम् इति तस्यैव प्रियतमस्य एव वेश्म प्राप्तेति । अप्पाहियं संदिष्टम् ॥३१९॥
३२०) खरग्रहणस्य । [नैव तथा अनालपन्ती हृदयं दुनोति मानिनी अधिकम् । यथा दूरविजृम्भितगुरुरोषमध्यस्थभणितैः ।।] नवि तह माणिणी हिययं दूमेइ नैव तथा मानिनी हृदयं दुनोति । किं कुर्वती। अणालवंती अनालपन्ती । जह दूरवियंभियगरुयरोसमज्झत्थणिएहिं यथा दरविजम्भितगुरुकरोषमध्यस्थमणितेरधिकं मनो दुनोति इति । अनालपन्ती अनुनयेन प्रसाधते । या पुनर्मिथ्याऽप्रसन्ना तस्या अनुनयावसरोऽपि नासाधते, इति अधिकमसो सन्तापं प्रयच्छतीत्यर्थः । नवि तह इत्यवधारणे ॥३२०॥
३२१) सातवाहनस्य । [जन्मान्तराणि विंशतिं चरणो जीवितेन मदन अर्धयिष्यामि । यदि तमपि तेन बाणेन विध्यसि येनाहं विद्धा ] १w. गोत्तग्गहणेण. २w. जग्मंतरे वि चलणे जीएणं मअण तुज्झ अच्चिस्सं.
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१४४
गाहाको
W368 ३२२) भरिमो से सयणपरंमुहीऍ वियलं तमाणपसराए । केश्वयसु चुव्वत्तं तथणहरुप्पिल्लणसुहिल्लि ॥२२॥ W749 ३२३) आमोडेऊण बला मह हत्थं पहिय ऍ गओ सि । हियाउ जइ यनीहसि सामत्थं तो तु जाणिस्तं ||२३|| हे मयण मदन, जइ जेण बाणेन हं विद्वा तेण तं पि विज्झसे यदि ये बाणेनाहं विद्वा तेन बाणेन तमपि मम वल्लभं विध्यसि, तदा चलणे जीएण अग्धिस्सं चरणौ जोवितेन अर्धयिष्यामि । किमस्मिन्नेव जन्मनि । नेत्याह । जम्मंतराइँ वीसं विंशर्ति जन्मान्तराणि यावत् । येन हि बाणेन अहं विद्धा सतो तदेकपरायणा संपन्ना एवं सोऽपि तेन बाणेन प्रतिभिन्नविग्रहो कामास भविष्यतीति प्राणोपहारदानेनापि प्रार्थना । जेण हं विद्धा इति आवां संविलेपविशेष बहुलम् (1) इति अलोपः ॥ ३२१॥
३२२) कर्कधर्मणः [स्मरामस्तस्याः शयनपराङ्मुख्या विगलन्मानप्रसरायाः । कैतवसुप्तोद्वर्तमानस्तन मरोत्प्रेरणसुखकेलिम् ||] से तस्याः सयणपरंमुहीऍ शयने पराङ्मुखतायाः भरिमो कइयव सुव्वत्तं तथणहरुपिल्लण सुहिल्लि कैतवशयितोद्वर्तमानायाः स्तनभरोत्प्रेरणसुखं स्मरामः । कीदृश्याः । वियलंतमाणपसराए विगल मानप्रसरायाः । तया मानमवधीर्य अनुरागयोगेन शयनापदेशात् स्तनयुगेनाहमाहतः । तत्सुखं स्मरामीत्यर्थः । अयं बिव्वोको नाम चेष्टालंकारः । तस्य लक्षणम् - "आर्द्रार्द्रसुरभिचन्दन-विलिप्त कुचकलशनिर्दयोर्मर्दः" इत्यादि ॥ ३२२ ॥
[४.२२
३२३) [आमोदय बलाद् मम हस्तं पथिक हे गतोऽसि । हृदयाद् यदि च निर्यास सामर्थ्य ततस्तव ज्ञास्यामि ॥] हे पहिय पथिक मह हत्थं आमोडेऊण बला गओ सि मम हस्तमामोट्स बलाद् गतोऽसि । हिययाउ जइ य नोहसि हृदयाद् यदि च निर्यास्यसि सामत्थं तो तु. जाणिस्सं सामर्थ्य ततस्तव ज्ञास्यामि । ( नोहसि इति) निष्क्रामसीति भावः । तु इति युष्मदः षष्ठयेक वचने रूपम् ॥ ३२३॥
१w. कइअत्रसुत्तुव्वत्तणथणअलस पेल्लणसु हेल्लिं.
२w. आमोडऊण बलाउ हत्थं मज्झं गओ सि भा पहिअ; ३w- तुज्झ.
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-४.२६]
पउत्थंसयं
१४५
W370 ३२४) किं न भणिओ सि वालय गामणिध्याएँ गुरुयणसमक्सं ।
अणवरयं तंसवलंतवयणणयणदितुहिं ॥२४॥ W371 ३२५) नयणभंतरघोलंतबाहभरमंथराऍ दिट्ठीए ।
पुणरुत्तपिच्छिरीए बालय किं जं न भणिओ सि ॥२५॥ W372 ३२६) वडैजक्खो जो ऊसीसयम्मि दिनो महं जुवाणेहिं ।
तं चिय इन्हि पणमामि हयजरे होहि संतुहा ॥२६॥
३२४) शूरस्य । [किं न भणिताऽसि बालक ग्रामणीदुहित्रा गुरुजनसमक्षम् । अनवरतं तिर्यगवलद्वदननयनार्घटः ।।] काचिद् दूतो, गृहमागतोऽपि तयाऽहं नाभाषित इत्युपालभमानं नायकमिदमाह । हे बालय बालक तं गामणिधूयाएँ त्वं ग्रामणीदुहित्रा किं न भणि प्रो सि किं न भणितोऽसि । सर्वमेव गृहागतगौरवगर्भ भणितोऽसोत्यर्थः । कैः । अणवरयं तं सवलंतवयणणयणदिठेहिं अनवरतं व्यकं (? तिर्यक् ) वलद् वदनं, तेन यानि नयनार्धदृष्टानि तैः । कथम् (? कुत्र) । गुरुयणसमक्खं गुरूणामये। संजातलज्जा अर्धाक्षिप्रेक्षितैरेव सर्वम् अभिहितवतीति । विहृतं नाम चेष्टालंकारः । तस्य लक्षणम्-कार्यात् स्वभावतो वा वाक्यानामवचनं तु यद् भवति । आकारेगितगम्यं विहृतं तद् व्याहरन्ति बुधाः ॥ ग्रामणी मनायकः ॥३२४॥
३२५) वत्सराजस्य । [ नयनाभ्यन्तरघूर्णमानबाष्पभरमन्थरया , दृष्ट्या । पुनरुक्तप्रेक्षणशोलया बालक किं यद् न भणितोऽसि ॥] पूर्वव्याख्ययैव गतार्था गाथ। ॥३२५।।
३२६) हालस्य । [वटयक्षो य उच्छीर्षके दत्तो मम युवभिः । तमेवेदानी प्रणमामि हतजरे भव संतुष्टा ।।] तं चिय इन्हि पणमामि तमेव इदानीं प्रणमामि । तं कम् । वडजक्खो जो ऊजीसयम्मि दिन्नो महं जुवा
१w. अणिमिसमीसीसिवलंत; २w. जो सीसम्मि विइण्णो मज्झ जुआणेहि गणवई आसि.
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१४६
गाहाकोसो
[४.२७
w 373 ३२७) अंतोहुत्तं डझइ जायासुन्ने घरे हलियउत्तो।
उविखण्णणिहाणं पिव रमियहाणाइँ पिच्छंतो ॥२७॥ W374 ३२८) निदाभंगो आवंडुरत्नणं दोहरा य नीसासा ।
___ जायंति जस्स विरहे तेण समं केरिसो माणो ॥२८॥ णेहिं वटयक्षो यो मम उच्छीर्षके युवभिर्दत्तः । यौवने हि धनद वटविटपितळे संकेते तत्रस्थं यशमेव तस्या उच्छीर्षके दत्त्वा तां युवानो रमयन्ति स्म । वार्द्ध के सा तं नमस्यतीति स्वस्था संचिन्त्य जरामुपालभते । हयजरे हत बरे होहि संतुद्वा भव संतुष्टा । किमन्यदतोऽपि त्वया कर्तव्यमिति भावः ।।३२६॥ __३२७) तस्यैव (1.e. हालस्य)। [अन्तरभिमुखं दह्यते जायाशून्ये गृहे हालिरुपुत्रः । उत्कीर्णनिधानमिव रमितस्थानानि प्रेक्षमाणः ॥] हलियउत्तो अंतोहुत्तं डज्झइ हालिकपुत्रो अतरमिमुखं दह्यते । क्व । जायासुन्ने घरे रमणीरहिते गृहे । किं कुर्वन् । रमियट्ठाणाइँ पिच्छंतो रमितस्थानानि पश्यन् । किमिव । उक्खिण्णणिहाणं पिव उत्कीर्णनिधानमिव । उत्कीर्णनिधानस्थानं पश्यन् यथा कश्चिदन्तर्दह्यते तथा हालिकसुत इत्यर्थः ॥३२७॥
- ३२८) नागहस्तिनः। [निद्राभङ्ग आपाण्डुरत्वं दीर्घाश्च निःश्वासाः । जायन्ते यस्य विरहे तेन समं कीदृशो मानः ॥] तेण समं केरिसो माणो तेन समं कीदृशो मानः । केन इत्याह । जस्त विरहे निदाभंगो यस्य विरो न्द्रिाभङ्गः । किम् एतावदेव । नेत्याह । आवंडुरत्तणं दोहरा या नीसासा जायंति आपाण्डुरत्वं दीर्घतराश्च निःश्वासा जायन्ते, तेन समं कीदृशो मानः । मानं मा कार्षीरिति भावः । पीठमर्दस्येदं शिक्षावाक्यम् । तदुक्तम्-स्युस्तस्य नर्मसचिवाः कुपितां कान्तां (१) प्रसादने पटवः । प्रथमोऽत्र पीठमी विदूषकोऽन्यो विटश्चैव ॥ नायकसमगुण आयो विदूषकः क्रीडनी१w. उक्खाअणिहाणाइ व.
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-४.३०]
चउत्थं सयं
१४७
W 375 ३२९) तेण न मरामि मन्नूहि पूरिया जेण अज्ज रे सुहय । तग्गयमणा मरंती मा तुज्झ पुणो वि लग्गिस्सं ॥२९॥ W 376 ३३०) अवरज्झसु वीसंत्थं सव्वं ते सुहय विसहिम अम्हे | गुणभिरम्मि हियए पत्तिय दोसा न मायंति ||३०|| यकप्रायः । विट एकदेशविद्यो निगद्यते कामशास्त्रेषु ( cf. रुद्रट, १२, १४ - १५) आक्षेपोऽलंकारः ॥ ३२८ ॥
३२९) दुगल्लकस्य । तेन न म्रिये मन्युभिः पूरिता येनाथ रे सुभग । त्वद्गतमना म्रियमाणा मा तव पुनरपि लगिष्यामि ||] काचित् प्रियापराधदुःखदह नदग्धा प्रियतममिदमाह । रे सुहय रे सुभग तेण न मरामि तेन न म्रिये । कीदृशी । मन्नूहि पूरिया मन्युभिः पूरिता | जेण तग्गयमणा मरंती येन त्वद्गतमना म्रियमाणा मा तुज्झ पुणो विलग्गिस्सं मा तव पुनरपि लगिष्यामि इति । यो हि यद्वासनावासितो जन्तुर्जीवितं जहाति स तया जन्मान्तरे जायते । तथा चेतिहासः । हिरण्यकशिपुः प्राणान् परित्यजन् राक्षसेनाहं निहत इति रावण एवाभवत् । पुनश्च स एव मनुष्येणाहं निहत इति वासनया शिशुपालतां प्राप्तः । पुनः स एव हरिणाहं निहत इति हरिरेवाभवत् । रे इति निपातः संभाषणे । रे अरे संभाषणरतिकलहाक्षेपेषु ( वररुचि, ९, ७५ ) ॥३२९॥
३३०) अनुरागस्य । [ अपराध्य विश्वस्तं सर्वं ते सुभग विषहामहे वयम् । गुणनिर्भरे हृदये प्रतोहि दोषा न मान्ति ||] काचिन्नायिका सकृत्कृतापराधलज्जावैलक्ष्यं प्रियं प्रेक्ष्येदमाह । हे सुभग अवरज्झसु वीसत्थं अपराध्य विश्वस्तम् । सव्वं ते विसहिमो अम्हे सर्व ते विषहामहे वयम् । अयं जनो मन्युं करिष्यति इति मा हृदि कृथाः । यतः गुणणिभरम्मि हियए तव गुणैर्निर्भरे हृदये पत्तिय दोसा न मायंति प्रतीहि दोषा न मान्ति । यथा काचित् पात्रे परितः पूरिते न अर्थान्तरम् अव - १w. पूरिआ अज्ज जेण रे सुहअ. २w. बीस.
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१४८
गाहाकोसो
[४.३१
का पराइए।
W377 ३३१) भरि उच्चरंतपसरियपियसंभरणपिसुणिओ वराईए ।
__ परिवाहो विय दुक्खस्स वहइ नयणढिो बाहो ॥३१॥ W378 ३३२) जं जं करेसि जं जं च जंपसे जह तुमं नियंसेसि ।
तं तमणुसिक्खिरीए दीहो दियहो न संपडइ ॥३२॥ काशमासादयति, तथा मे हृदयेऽपि त्वद्गुणपूरिते नापराधाः प्रवेशं प्राप्नुवन्ति इति । उत्तमा नायिका । दोषानुरूपकोपाऽनुनीयमाना प्रसीदति क्षिप्रम् । रागप्रवणा प्रवरा गुणहार्या चोत्तमा नारी ॥ पत्यनुनयः खण्डिताकोपाङ्गम् ॥३३०॥
३३१) मातृराजस्य । भृतोच्चरत्प्रसृतप्रिय संस्मरणपिशुनितो वराक्याः । परिवाह इव दुःखस्य वहति नयनस्थितो बाष्पः ॥] वराईए नयणट्ठिो बाहो वहइ वराक्या नयनस्थितो बाष्पो वहति । कथंभूतोऽसौ । भरिउच्चरंतपसरियपियसंभरणपिसुणिओं नयनयोः परिपूर्णः, निर्यन, प्रसृतः प्रियसंस्मरणपिशुनितश्चेति कर्मधारयः। स इत्थंभूतो बाष्पो वहति । क इव । परिवाहो विय दुक्खस्स परिवाह इव दुःस्वस्य । यथा प्रचुरपयःपरिपूर्णस्य तडागादेः शेषोदकं स्यन्दते तथाऽयमपीत्यर्थः । परिवाहो जलनिर्गमः । उत्प्रेक्षालंकारः । प्रोषितपतिका नायिका। निःश्वसिति रुदितचित्ता (2) संतापैः कृशतनुर्विपाण्डुमुखी। सावधिदिवसगणनया गमयति कालं प्रियतमस्य ॥३३१॥
३३२) विशेषरसिकस्य । [यद्यत् करोषि यद्यच्च जल्पसे यथा त्वं निवस्से । तत्तदनुशिक्षणशीलाया दीर्घो दिवसो न संपद्यते ॥] तं तमणुसिक्खिरीए दीहो दियहो न संपडइ तत्तदनुशिक्षणशीलायास्तस्या दीर्घा दिवसो न संपवते । किं तद् इत्याह । जं जं करेसि यद्यत्करोषि, जं जं च जपसे यचञ्च जल्पसे, जह तुमं नियंसेसि यथा त्वं परिदधासि वाससी, तस्यास्त्वदनुरागयोगात् त्वत्कृतानुकरणं कुर्वत्या झगित्येव दिवसः १w. उव्वरंत, २w जं जं जंपसि जह जह तुम णिअच्छेसि.
।
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चउत्थं स
-४.३४]
१४९
W131 ३३३) बाहरउ में सहीओ तिस्सा गुत्तेण, किं' व भणिएण । थिरपिम्मी होउ जहिं तहिं वै मा कुप्पह कया वि ॥ ३३॥ W134 ३३४) परिभूषण दियसियं परवरभमिरेग अन्नकज्जम्मि । चिरजीविएण इमिणा खवियैम्हे डड्ढकाएण ||३४||
समाप्यत इत्यर्थः । अन्ये तु त्वदनुकरणेन तस्या दीर्घौऽपि दिवसो न समाप्तये भवतीत्याचक्षते । एषा लीला नाम चेष्टालंकारः । तस्य लक्षणम्हृदयविनोदनहेतोः खीसमक्ष प्रियस्य यानुकृतिः । गतहसितबोक्षितोक्तैः सा लीला विंशतिविधा तु ॥ ३३२||
३३३ ) कल्याणसिंहस्य | [ व्याहरतु मां सख्यस्तस्या गोत्रेण किमिव भणितेन । स्थिरप्रेमा भवतु यत्र तत्र वा मा कुप्यत कदापि ॥ ] काचिन्नायिका विपक्षगोत्रेण व्याहरन्तं कान्तं निवारयन्तीः सखीराह । हे सहीओ सख्यः, तिस्सा गुत्तेण मं वाहरउ तस्या नाम्ना मां व्याहरतु । किं व भणिएण किमिव भणितेन । यतः थिरपिम्मो होउ जहिं तहिं व मी कुप्पह कया व स्थिरप्रेमा भवतु यत्र तत्रैव, मा कुप्यत कदापि । नायं स्थिरानुरागो भविष्यतीति भावः ॥ ३३३॥
३३४ ) योगराजस्य । [ परिभूतेन नित्यं परगृहभ्रमणशीलेन अन्य ( अन्न ) - कार्ये । चिरजीवितेनानेन क्षपिता वयं दग्धकायेन ( दग्धकान ) || ] काचिद् एकया उक्त्या स्वकायवायसौ निन्दन्ती सखेदमिदमाह । अनेन क्षपिता वयं दग्धकायेन दग्धकाकेन च । कायेन कथंभूतेन । परिभूएण परिभूतेन । प्रियस्यानागमनात् परिभूतता कायस्य । भूयः किंभूतेन । दियसियं नित्यं परघरभमिरेण परगृहभ्रमणशीलेन । किमर्थम् । अन्नकज्जम्मि अन्यस्य कार्ये प्रियतमस्य वाती प्रष्टुं परगृहेषु भ्राम्यतेति भावः । पुनरपि कीदृशेन । चिरजीविएण चिरं जीवितेन । वयं कायेन क्षपिताः कष्टं प्रापिताः । दग्धकाकेन च कीदृशेन । परि१w. किं त्थ; २w. पि; ३w मा किंपि णं भणह; ४w घरघरभमिरेण; ५w. खविअ म्हो.
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गाहाकोसो
[४.३५
W135 ३३५) वसइ जहिं चेय खलो पोसिज्जतो 'सिणेहदाणेण । तं चेय आलयं दीवड व्व अइरेण मइलेइ ॥ ३५ ॥
१५०
W136 ३३६) हुंती व निष्फल चिय धणरिद्धी होइ "दाणरहियस्स । गिम्हायवसंतत्तस्स निययछाहि व्व वच्छस्स ॥ ३६ ॥
भूतेन नित्यं परगृहभ्रमणशीलेन । किमर्थम् । अन्नकार्येण । बलिवाञ्छया : हि काका : प्रतिभवनं भ्राम्यन्ति । पुनरपि कीदृशेन । चिरजीविना । चिरं हि काका जीवन्तीति लोकप्रसिद्धिः । दियसियं सर्वदा । विवक्षितान्यपरवाच्यलक्षणक्रमोदद्योतस्य शब्दशक्तिमूलानुरणनव्यापारव्यङ्ग्यस्यायं ध्वनेः प्रभेदः । अविशेषः श्लेषोऽयमिति रुद्रटः । अविशेषः श्लेषोऽसौ विज्ञेयो यत्र वाक्यमेकस्मात् । अर्थादन्यं गमयेदविशिष्टविशेषणोपेतम् ॥ ( रुद्रट, १०, ३ ) ॥ ३३४ ॥
३३५ ) [ वसति यस्मिन्नेव स्वल: पोष्यमाणः स्नेहदानेन । तमेवालयं दीपक इवाचिरेण मलिनयति ॥ ] तं चेय आलयं अइरेण स्वलो मइलेइ तमेवालयम् अचिरेण खलो जनो मलिनयति । तं कम् । जहिं चेय वसइ यस्मिन्नेव वसति । किं क्रियमाणः । पोसितो सिणेहदाणेण पोष्यमाणः स्नेहदानेन । कं क इव । अलय दीवउ व्व आलयं दीपक इव । यथा हि दीपक: स्नेहेन वर्धमानो यत्रैव वसति तमेवालयं मलिनयति, तथा खलजनोऽपीति । उपमालंकारः ॥ ३३५॥
३३६ ) कीर्तिरसिकस्य । [ भवन्ती अपि निष्फलैव धनर्द्धिर्भवति दानरहितस्य । ग्रीष्मातपसंतप्तस्य निजकच्छायेव वृक्षस्य ।।] दाणरहियस्स धरिद्धी हुंती व निष्फल च्चिय होइ दानरहितस्य धनर्द्धिः भवन्ती अपि निष्फलैव भवति । केव कस्य । निययछाहि व्व वच्छस्स निजकच्छायेव वृक्षस्य । कथंभूतस्य । गिम्हायवसंतत्तस्म ग्रीष्मात पसंतप्तस्य । यथा तरोः स्वच्छाया न संतापशान्त्यै उपपद्यते एवं दानशून्यस्य घनर्द्धिर्न सिणेहदाणेहिं; २w कि.विणपुरिस्स; ३w. पहिअस्स.
१.
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-४.३८] चउत्थं सयं
१५१ W137 ३३७) फुरिए वामच्छि तए जेइ एइ पिउ त्ति मज्झ ता सुइरं ।
मीलियदोहिणणयणा तैइ अघियण्हं पलोइस्सं ॥३७।। W138 ३३८) सुणयपउरम्मि गामे हिंडती तुह करण सा बाला ।
पासयसारि व्व घरघरेण केणावि खज्जिहिइ ॥३८।' सुखाय जायत इत्यर्थः ।। अन्ये तु 'छाहि व्व किविणस्स' इति पठन्ति । तत्र च यथा स्वच्छाया ग्रोष्मातपतप्तस्य (कृपणस्य) तथा धनाद्धदानशून्यस्य कृपणस्य शान्तये न भवतीति योज्यम् । उपमालंकारः ॥३३६॥
३३७) कन्दुकस्य । [स्फुरिते वामाक्षि त्वयि यद्येति प्रिय इति मम तत् सुचिरम् । मीलितदक्षिणनयना त्वयाऽवितृष्णं प्रलोकयिष्यामि ।।] हे वामच्छि, तए फुरिए जइ एइ मज्झ पिउ त्ति हे वामाक्षि त्वयि स्फुरिते यद्येति मम प्रियः, ता तइ सुइरं पलोइस्सं तत् त्वया सुचिरं प्रलोकयिध्यामि । अवियोहं अवितृष्णं सस्पृहमिति यावत् । प्रियतमानयनतः त्वत्कृ तोपकारस्य सुन्दरस्वकान्तसंदर्शनं प्रत्युपकारं करिष्यामीति भावः । वामाङ्गभागस्फुरणे पुरन्ध्रोणां समीहितसिद्धिः स्यादिति हि अङ्गविद्यायाम् । श्रीभोजदेवमतेन अन्योन्यमलंकारः । अन्योन्यमुपकारो यस्तदन्योन्यमितीष्यते (cf. सरस्वतीकण्ठाभरण, ३९) । परिवृत्तिरित्यन्ये । वयं तु मन्य महे अन्योन्यपरिवृत्तिसंकरम् ॥३३७॥
३३८) माधवस्य । [श्वप्रचुरे ग्रामे हिण्डमाना तव कृते सा बाला । पाशकमारिरिव प्रतिगृहं केनापि स्वादिष्यते ।।] श्वप्रचुरे ग्रामे भ्राम्यन्ती तव कृने सा बाला शुना केनापि खादिष्यते । पासयसारि व पाशकसारिरिव । यथा हि सारिः प्रतिगृहं भ्राम्यन्ती केनापि खाद्यते तथा सापीत्यर्थः । उपमालंकारः ॥३३८॥
१w. जइ एहइ सो पिओ ज्ज ता सुइरं; २w. संमीलिअ दाहिणअं; ३w. , तुइ, ४w. सुणहपउरम्मि ५w. कइआ वि..
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१५२
गाहाकोसो
[४.३९
w369 ३३९) फग्गुच्छणणिद्दोसं तेण इमं तुह पसाहणं दिन्नं ।
थणयलसमुहपलुटुंतसेयधोयं किणो धुयसि ॥३९॥ W139 ३४०) अन्नन्नं कुसुमरसं जं किर सो महइ पाणलोहिल्लो।
सो नोरसाण दोसो कुसुमाणं नेय भमरस्स ॥४०॥ W140 ३४१) रच्छापइण्णणयणुप्पला तुमं सा पडिच्छए इंतं ।
दारणिमिएहि बालय मंगलकलसेहि व थणेहिं ॥४१॥
३३९) देवराजस्य । (फाल्गुनीक्षणनिर्दोषं तेनेदं तव प्रसाधनं दत्तम् । स्तनकलशमुखप्रवर्तमानस्वेदधीतं किं नु धावयसि ॥] कांचित् फाल्गुन्युत्सवदिवसे दयितस्वहस्तन्यस्तं कुचतटेऽङ्गरागपङ्कं प्रक्षालयन्ती सखी सोत्प्रासमिदमाह । तेण इमं तुह पताहणं दिन्नं तेन दयितेनेदं तुभ्यं मण्डनं दत्त किणो धुयसि प्रक्षालयसि । कथं दत्तम् । फग्गुच्छणणिदोसं फाल्गुनीक्षणनिर्दोषम् । फाल्गुन्यां किल परिहासपदेन पराङ्गनाङ्गसंगोपनसङ्गास्पदं (?) भवतीति । कीदृशम् । थणयलसमुहपलुस॒तसेयधोयं स्तनकलशमुखप्रवर्तमानस्वेदधौतम् । किं पुनः धावयसि प्रक्षालयसीत्यर्थः । . परस्परानुगः प्रयुक्त्याभिहितो भवति ।।३३९।।
३४०) अनुद्भट्टस्य । [अन्यान्यं कुसुमरसं यत् किल स वाञ्छति पानलोभिकः । स नीरसानां दोषः कुसुमानां नैव भ्रमरस्य ॥] अन्नन्नं कुसुमरसं जं किर सो महइ अन्यमन्यं कुसुमरसं यत् किल स. मधुकरो वाञ्छति पातुं, सो कुसुमाणं दोसो नेय भमरस्त म कुसुमानां दोषो नैव भ्रमरस्य । कीदृशानां कुसुमानाम् । नीरसाणं नीरसानाम् । भ्रमरश्च कीदृशः । पाणलोहिल्लो पानलोभिकः । याः किल निर्गुणतया नितम्चिन्यो रतिसखला मलालसस्य पत्युरीप्सितं न पूरयन्ति, ताः प्रयुक्त्या एवमभिधीयन्त इति । लोहिल्लो लोभवान् । अन्यापदेशोऽलंकारः ॥३४०॥
३४१) अनुरागस्य । [रथ्याप्रकीर्णनयनोत्पला त्वां सा प्रतीक्षत आयन्तम् । द्वारनिमिताभ्यां बालक मङ्गलकलशाभ्यामिव स्तनाभ्याम् ॥] १w. फग्गुच्छवणिद्दोस केण वि कदमपसाहणं दिणं; २w. महुअरो पाउं; ३w. दारणिहिए हि; ४w. दोहि वि..
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-४.४३]
चउत्थं सयं
१५३
W141 ३४२) ता रुन्नं जा रुव्वइ ता झीणा जाव झिज्जए अंगं । तो नीससियं वरईए जांव सासा समप्र्पति ॥ ४२ ॥ W142 ३४३) समदुःखसुक्ख संवड़ियाण काळेण रूढपणयाणं । मिहुणाण मरइ जं तं खु जियइ इयरं मुयं होइ ॥ ॥ ४३ ॥
8
हे बालय, बालक सा तुमं पडिच्छए सा त्वां प्रतीक्षते । कथंभूतम् । इंतं आगच्छन्तम् । काभ्याम् । श्रणेहिं स्तनाभ्याम् । कथंभूताभ्याम् । दारणिमिएहि द्वारनिमित्ताभ्याम् । काभ्यामिव । मंगलकलवहि व मङ्गलकलशाभ्यामिव । कीदृशी । रच्छापइण्णणयणुप्पला रथ्या प्रकीर्णनयनोत्पला । यस्य किल आगमनमभीष्टं भवति स स्वमन्दिरद्वाराधिरोपितमङ्गलकलशया रथ्या प्रकीर्णकुसुमोत्करया च प्रतीक्ष्यत इति । सा द्वारदेशावलग्ना स्वन्मार्ग मृगयमाणा तिष्ठतीति भावः ॥ ३४९ ॥
W
३४२) हालस्य । [ तावदुदितं यावद्र्धते तावत्क्षीणा यावत्क्षीयते अङ्गम् । तावन्निःश्वसितं वराक्या यावच्छ्वासाः समाप्यन्ते || ] ता रुन्नं जा रुवइ तावदुदितं यावदुद्यते । किमेतावदेव । नेत्याह । ता झीणा जाव झिज्जए अंग तावत् क्षीणा यावत् क्षीयतेऽङ्गम् । ता नीससियं वरईऍ जाव सासा समर्पति तावन्निःश्वसितं वराक्या यावच्छ्वासाः समाप्यन्ते । सा वराकी रोदितुमक्षमा चर्मास्थिशेषितशरीरा निःश्वसितुमपारन्ती दशमीं दशां प्राप्तकल्पा वर्तते इति प्रयुक्त्या नायकस्योपालम्भोऽभिहित इति ॥ ३४२ ॥ ३४३) रवशक्तेः । [समदुःखसौख्यसंवर्धितानां कालेन रूढप्रयानाम् । मिथुनानां म्रियते यत् तत्खलु जीवति इतरमृतं भवति ।। ] मिहुणाण मरइ जं तं खु जियइ इयरं मुयं होइ मिथुनानां म्रियते यत् तत् स्खलु जीवति, इतरन्मृतं भवति । कीदृशानाम् । समदुक्ख सुक्खसंवड्ढियाण समदुःखसौख्यं यथा भवति, एवं संवर्धितानाम् । भूयः किंभूतानाम् । काळेण रूढपणयाण कालेन रूढप्रणयानाम् । यो हि म्रियते स दुःखं नानुभवति, जीवतीत्युच्यते । यश्च जीवति स दुःखभाजनं भवति । जीवितमृतयो जीवनमरणधर्मयोगात् तथा व्यवहार इति ||३४३॥
"
१w. ता णीससिअ वराइअ; २w. जाव अ सासा पहुप्पंति ३w. क्खदुक्खपरिवड्ढिआण; ४w. रूढपेम्माण_
समसो
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१५४]
गाहाको
[४.४४
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W143 ३४४) हरिeिs पियस्स नवचूयपल्लवो पढममंजरिसणाहो । मा रुय पुत्ति पत्थाणकलसमुहसठिओ गमणं ॥ ४४ ॥ W144 ३४५) जो कह वि स हीहि महं छिद्द लहिऊण पेसिमो हियए । सो माणो चोरियकामु व्व दिट्ठे पिए नट्ठो ॥ ४५ ॥ W145 ३४६) सहियाहिँ भण्णमाणी थणए लग्गं कुसुंभपुष्फे ति । मुद्धबहुया हसिज्जइ पप्फोडती नहरयाई ॥ ४६ ॥ ३४४) बन्धुधर्मणः [ हरिष्यति प्रियस्य नवचूतपल्लवः प्रथममञ्जरीसनाथः । मा गेदी: पुत्रि प्रस्थान कलशमुखसंस्थितो गमनम् ॥ ] काचित् भविष्यत्प्रियप्रवासाक्रान्तां कांचित् समाश्वासयितुम् इदमाह । मा यसुपुत्तिमा रुदः पुत्रि । यतः नवचूयपल्लवो पियस्स गमणं हरिहि नवचूतपल्लवः प्रियस्य गमनं हरिष्यति । कीदृशः । पढममंजरिसणाहो प्रथममञ्जरीसनाथः । भूयश्च कीदृशः । पत्थाणकलसमुहसंठिओ प्रस्थानकलशमुखसंस्थितः । अत एवासौ गमनं हरिष्यति । चूतमञ्जरीं निरीक्ष्य वसन्तागमनं मन्यमानस्त्वत्प्रियः प्रवासवासनां न विधास्यति । को हि नाम पुनर्गमनचिन्तां चित्तेऽपि करोतीति भावः । समाश्वासनं सस्वीकर्म | हेतुरलंकारः ॥ ३४४ ||
३४५) [ यः कथमपि सखीभिर्मे छिद्र लब्ध्वा प्रेषितो हृदये । स मानश्चौर्य कामुक इव दृष्टे प्रिये नष्टः ।] सो माणो दिट्ठे पिए नट्ठो स मानौ दृष्टे प्रिये नष्टः । कोऽसाविव्याह । जो कह वि सहीहि महं हिए पेसिओ यो मानः कथमपि कृच्छ्रात् सखीभिर्मम हृदये प्रवेशितः । किं कृत्वा । छिद्दं लहिऊण छिद्रं प्रियापराधलक्षणं लब्ध्वा । क इव नष्टः । चोरियकामुरव्व चौर्य कामुक इव । यथा हि चौर्यकामुकः छिद्रमासाद्य प्रवेशितः प्रियेणावलोकिते नश्यति, तथा मान इत्यर्थः ॥ ३४५॥ ३४६) मालवाधिपस्य । [सखीभिर्भण्यमाना स्तने लग्नं कुसुम्भपुष्पमिति । मुग्धवधूर्हस्यते प्रस्फोटयन्ती नखपदानि ॥ ] मुद्रवहुया हसिजइ १w. मह सहीहिं; २w. भण्णमाणा.
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-४.४८ ]
W146 ३४७) उम्मूलंति व हिययं ईमाइँ हो हे विरज्जमाणस्स । अवहेरिव सविसंठुलवलंतणयणद्धदिट्ठाई ॥ ४७ ॥
W147 ३४८) न मुयंति दोहसासे नैं रूयंति न हुँति विरहकि सियाओ । नाउ ताउ जासि बहुवल्लह वल्लहो न तुमं ॥ ४८ ॥
मुग्धवधूर्हस्यते । किं कुर्वती । पप्फोडंती नहवयाई । प्रस्फोटयन्ती नखपदानि । किं क्रियमाणा सती । सहियाहि भण्णमाणी सखीभिर्भण्यमाना । किं तदित्याह । थणए लग्गं कुसुंभपुष्पं ति स्तने लिग्नं कुसुम्भपुष्पमिति । अत्र कुसुमबुद्धया नखक्षताक्षेपणं सखीनां हासहेतुः । हासः स्थायी भावः । मुग्धा नायिका । तदाश्रयो जातिरलंकारः ॥ ३४६ ॥
३४७) तस्यैव ( मालवाधिपस्य ) । [ उन्मूलयन्तोव हृदयम् इमानि हो है विरज्यमानस्य । अवधीरणावशविसंष्टुलवलमाननयनार्धदृष्टानि ।।] तव अवधीरणावराविसंष्टुलवलन्नयनार्धनिरीक्षितानि उन्मूलयन्तीव हृदयम् । किंभूतस्य तव । विरज्यमानस्य । पूर्वं खलु मयि भवदीयाः स्नेहार्द्रा दृष्टिनिपाताः प्रादुरासन् । संप्रति त एवं अन्यथाभूता व्यथयन्ति माम् इति भावः । उत्प्रेक्षाहेतुभ्यां संसृष्टिरलंकारः । शृङ्गाराभासः ।।३४७॥
३४८) विजयशक्तेः । [ न मुञ्चन्ति दीर्घश्वासान् न रुदन्ति न भवन्ति विरहकृशाः । धन्यास्ता यासां बहुवल्लभ वल्लभो न त्वम् ||] धन्नाउ ताउ धन्यास्ता नायिकाः जासिं बहुवल्लह वल्लहो न तुमं यासां बहुवल्लभ वल्लभो न त्वम् । यतः ता न मुयंति दीहसासे न मुञ्चन्ति दीर्घनिःश्वासान् । किमेतावदेव, नेत्याह । न रुयंति न हुंति विरहकिसियाओ न रुदन्ति न भवन्ति विरहकृशाः । अहमधन्या या त्वदनुरागयोगाद् ईदृशीं दशां प्राप्तेति भावः । बहुवल्लभ इति साभिप्रायमामन्त्रणम् | त्वं किलबह्वीनां वल्लभो नास्माभिर्लभ्यसे, इति । रुद्रटमते लेशो नामालंकारः ॥ ( रुद्रट, ६, १०० ) ॥ ३४८ ॥
१w. उम्मूलेति ; २w. इमाइ रे तुह विरजमाणम्स; ३w. अवहीरणवसवि - संकुल ४w. ण रुअंति चिरं ण होंति किसिआओ.
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१२५६
गाहाको सो
W148 ३४९) निद्दालसपेरिघोलिरतंसवलं तद्धतारयालोया ।
कामस्स विदुव्विसहा दिट्टिणिवाया ससिमुहीए ॥४९॥ W149 ३५०) जोवियंसेसाइ मए गमिया कह कह विपिम्मदुद्दौली । इन्हिविरम रे हियय मा रज्जसु कैंहं पि ॥५०॥
३४९) हालस्य । [ निद्रालसपरिघूर्णनशी उतिर्यग्वलमानार्घतारकालोकाः । कामस्यापि दुर्विषहा दृष्टिनिपातः शशिमुख्याः ॥ ] दिट्ठिणिवाया ससिमुहीए कामस्स वि दुव्विसहा दृष्टिनिपाताः शशिमुख्याः कामस्यापि दुर्विषाः । काममवि सकामं कुर्वन्तीत्यर्थः । कीदृशास्ते | निदाउपरोलिए सतारवालोया निद्रालसपरिघूर्णन शोछाः व्यनवलमानार्धतारकालोकाः । ईदृशा दृष्टिनिगताः स्मरस्यापि दुस्सहाः, का कथा पुनरन्येषाम् इति । तंसं त्र्यनं वक्रादिपाठात् (वररुचि, ४, १५) अनुस्वारः । इदं ललितं नाम हर्ये हर्ष्याभावोद्भवः (?) चेष्टालंकारः । तस्य लक्षणम् - गमनं चंक्रमणक्रम हेलाशिञ्जानमञ्जुमञ्जीरम् । जघनविवर्त नली लाक्वणन्मेखलावलयम || अलपविवर्तितवदनं स्कन्धारो हैककुण्डलप्राप्तम् (?) | भिन्नत्रिवलीले स्खा समुन्नमद्रामकुचकलशम् || ईषद्दष्टौष्ठं परिस्फुरद्गण्डमण्डलच्छायम् । किञ्चित्कम्पपयोधर सूचितनिभृतनिःश्वासम् ॥ हसितं सिचयैकाञ्चलनिरुद्ध वदनेन्दु चन्द्रिकाप्रसरम् क्षणमेव विधिविलोकितं (?) च सभ्रूलतालास्यम् ॥ मनसि न गुरूपदिष्टं चेष्टितमित्यादि यत् समुद्भवति । स्त्रीणां स्वभावसिद्धं ललितं तत्कीर्तितं कविभिः ||३४९॥
[ ४.४९
३५० ) विरहानलस्य । [ जीवितशेषया मया गमिता कथं कथमपि प्रेमदुर्विनयदशा । इदानीं विरम रे दग्धहृदय मा रज्य कथमपि ॥ ] काचिदभीष्टं कष्टादपि जनमनासादयन्ती हृदयं स्वगतम् इदम् आह । रे दड्ढहियय रे दग्धहृदय, जीवियसेसाइ मए जीवितशेषया मया गमिया ae as a पम्मदुद्दौली गमिता अतिवाहिता कथं कथमपि प्रेम्णः स्ने१w. परिघुम्मिर; २w. इहि; ३w. डड्ढइिभअ, ४W कहिं पि.
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-४.५२] चउत्थं सय
१५७. W150 ३५१) अज्झाएँ नवणहक्खयणियच्छणे गरुयजुन्नणुत्तुंगं ।
पडिमागयणियणयणुप्पलच्चिय होइ थणवढे ॥५१॥ W151 ३५२) तं नमह जस्स वच्छे लच्छिमुहं कुत्थुहम्मि संकतं ।
दीसइ मयपरिहीणं ससिबिंब सूरबिंब व्य ।। ५२ ॥ हस्य दुद्दोली दुर्विनयदशा । अतश्च इन्हि विरमसु इदानी विरम मा रज्जसु कहं पि मा रज्य त्वं कथमपि, इति हृदयप्रार्थना । परकीया नायिकेति । रे इति निपातः क्षेपे । दुद्दोली दुर्नयं वस्तु । आक्षेपोऽलंकारः ॥ ३५० ।।
३.५१) अवटङ्कस्य । [ प्रौढयुवत्या नवनवक्षतावेक्षणे गुरुकयौ. वनोत्तुङ्गम् । प्रतिमागतनिजनयनोत्पलार्चितं भवति स्तनपृष्ठम् ।।] अज्झाएँ थणव होइ प्रौढयुवत्याः स्तनपृष्ठं भवति । कीदृशम् । पडिमागयणियणयणुप्पलच्चियं प्रतिमागतनिजनयनोत्पलार्चितम् । क्व । नवणहक्स्वय. णियच्छणे नवनखक्षतावेक्षणे । कीदृशं स्तनपृष्ठम् । गरुयजुवणुत्तुंगं गुरुकयौवनोत्तुङ्गम् । संक्रान्तनेत्रतया नीलोत्पलपलाशकीर्णमिव कुचकुम्भपीठं भवति । स्वच्छताप्रतिपादनपरेयमुक्तिः । अज्झा प्रौढयुवतिः। प्रतिमा बिम्बम् ।। ३५१ ॥
३५२) केशवराजस्य । [तं नमत यस्य वक्षसि लक्ष्मीमुखं कौस्तुभे संक्रान्तम् । दृश्यते मृगपरिहीनं शशिबिम्ब सूर्यबिम्ब इव ॥] तं नमह तं नमत | जस्स वच्छे लच्छिमुहं दीसइ यस्य वक्षसि लक्ष्मीवक्त्रं विलोक्यते । कीदृशम् । कुत्थुहम्मि संकेतं कौस्तुभे संक्रान्तम् । किं कस्मिन्निव । ससिबिंबं सूरबिंब व्व शशिबिम्बं सूर्यबिम्ब इव । कीदृशं शशिबिम्बम् । मयपरिहीणं मृगपरिहीनं मुक्तकलङ्कमित्यर्थः । लक्ष्मीमुखेन्दुकौस्तुभनैर्मल्यप्रतिपादनपरेयमुक्तिः। अयम् अभूतोपमालंकारः । सर्वपद्मप्रभासारः समाहृत इव क्वचित् । तदाननं विभातोति तामभूतोपमां विदुः (काव्यादर्श, २,३८) ॥ ३५२ ॥
१w. णिरिक्खणे,
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-४.५७] चउत्थं सयं
१५९ W155 ३५६) निव्वेत्तरया वि वह सुरयविरामटिइं अयाणंती।
अविरयहियया अन्नं पि कि पि अत्थि ति चिंतेइ॥५६॥ W156 ३५७) नंदंतु सुरयसरहसतण्हावहराइँ सयललोयस्स ।
बहुमग्गविणिम्मवियाइँ वेसविलयाण हिययाइं ॥५७॥ काचित् क्वचित् शोभासौभाग्यभाजि यूनि मनो विनिवेशयन्तो कयाचिद् इदम् उच्यते । पुत्तय मा साहसं करिजासु पुत्रि मा साहसं कृथाः ।। यतो दुन्निक्खेवयमेयं दुर्निक्षेपकमिदम् । एतदेव विवृणोति । इत्थ निहित्ताई वणे हिययाइँ पुणो न लब्भंति । अत्र निहितानि सखे (: सखि ) हृदयानि पुनर्न लभ्यन्ते । माऽस्मिन् स्वहृदयं निघास्यसीति भावः । यद् हि वस्तु न्यस्तं हस्ते न भवति, तद् दुर्निक्षेपकमित्युच्यते । नायकगुणवर्णनपरेमुक्तिः । आक्षेपपर्यायोक्तिभ्यां संसृष्टिरलंकारः ॥३५५॥
३५६) सवज्रस्य (or सर्वज्ञस्य ) । [ निवृत्तरताऽपि वधूः सुरतविरामस्थितिमजानती । अविरतहृदया अन्यदपि किमप्यस्तीति चिन्तयति ॥ ] निव्वत्तरया वि वहू निवृत्तसुरताऽपि वधूः अन्नं पि किं पि अत्थि त्ति चिंतेइ अन्यदपि किंचिदतोऽप्यधिकमस्तीति चिन्तयति । कीदृशी। अविरयहियया अविरतहृदया। निर्वृत्तरता किमन्यदपि अभिलषतीत्याह । सुरयविरामट्टिई अयाणंतो सुरतविरामस्थितिमजानतो । एतदन्तमेव मोहनं भवतीति न जानातीत्यर्थः । मध्या नायिका ॥३५६॥
३५७) मङ्गलकलशस्य । [नन्दन्तु सुरतसरभसतृष्णापहरणानि सकललोकस्य । बहुमार्गविनिर्मितानि वेशवनितानां हृदयानि ।।] वेसविलयाण हिययाई नंदंतु वेशवनितानां हृदयानि नन्दन्तु । कीदृशानि । बहुमागविणिम्मवियाइँ विनिर्मिता बहव आलिङ्गनचुम्बनश्वसितमणितसीत्कृतादयो मार्गाः प्रकारा यः (तादृशानि) । पुनश्च कीदृशानि । सुरयसरहसत१w. णिव्वुत्तरआ. २w. सुरअसुहरसतण्हा; ३w. बहुकइअवमग्गविणिम्मिआइ वेसाण.
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१५८]
गाहाकोश
[४.५३
W152 ३५३) मा कुण पडिवक्खसुहं अणुणेसु पियं पसायलोहिल्लं ।
अइगरुयगहियमाणेण पुत्ति रासि व्व झिन्जिहिसि ॥५३॥ W153 ३५४) विरहकरवत्तसहफालिंज्जंतस्स तीइ हिययस्स ।
अंसु सकज्जलमीसं पमाणसुत्तं व से पडियं ॥५४॥ W154 ३५५) दुन्निक्खेवयमेयं पुत्तय मा साहसं करिज्जासु ।
इत्थ निहित्ताइँ वेणे हिययाइँ पुणो न लब्भंति ॥५५॥
३५३) निष्कलङ्कस्य । [ मा कुरु प्रतिपक्षसुखम् , अनुनय प्रिय प्रसादलोभवन्तम् । अति गुरुकगृहीतमानेन पुत्रि राशिरिव क्षेष्यसि ।।] हे पुत्ति पुत्रि, मा कुण पडिववस्वसुहं मा कार्षीः प्रतिपक्षसुखम् । अणुणेसु पियं पसायलोहिल्लं अनुनय प्रियं प्रसादलोभिनम् । प्रियः प्रसादे लोभवान् भवति । अइगहियगरुयमाणेण झिज्जिहिसि अतिगुरुकगृहीतमानेन क्षीणा भविष्यसि । केव । रासि व्व राशिरिव । यथा राशिः अतिगुरुणा गृहीतेन मानेन क्षीयते तथा त्वमपि, इति मानं मा कार्षीरिति । मानो मानिनीपक्षे अहंकारः । राशिपक्षे कुडवादीनामन्यतमः । भाक्षेपोपमाभ्यां संसृष्टिरलंकारः । सखीभिः शिक्षोक्तिः ।। ३५३॥
३५४) मातङ्गस्य । [ विरहदुस्सहकरपत्रपाट्यमानस्य तस्या हृदयस्य । अश्रु सकज्जलमिश्र प्रमाणसूत्रमिव तस्याः पतितम् ।। ] अश्रु सकउजलमित्रं पतितम् । किमिव । पमाणसुत्तं व प्रमाणसूत्रमिव । कस्य । हिययस्स हृदयस्य । कीदृशस्य । विरह करवत्त दूसहफालिजंतस्त विरहदुस्सहकरपत्रपाट्यमानस्य । प्राकृते पूर्वनिपातानियमाद् दुस्सहशब्दस्य परनिपातः । यत् करपत्रेण पाटयितुमिष्यते तस्य किल कृष्णं प्रागेव प्रमाणसूत्रं पात्यत इति । उत्प्रेक्षालंकारः । विरहिणी नायिका ॥३५४॥
___३५५) मातुलस्य ( or माहिलस्य)। [ दुनिक्षेपकमेतत् पुत्रि मा साहसं कुर्याः । अत्र निहितानि सखि हृदयानि पुनर्न लभ्यन्ते ॥ ] १w. अइगहिअगरुअमाणेण; २w. फालिज्जतम्मि तीअ हिअअम्भि; ३w. कज्जलमहलं; ४w. व पडिहाइ, ५. मणे.
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१६० गाहाकोसो
[४.५८W157 ३५८) अप्पत्तमन्नुदुक्खय किं मं किसिय त्ति पुच्छसि हसंतो।
पावसु याचलचित्तं पियं जणं ता तु पुच्छिस्सं ॥५८॥ . W158 ३५९) अवहत्थिऊण सहिजंपियाइँ जाणं करण रमिओ सि । -
एयाइँ ताइँ सुक्खाइँ संसओ जेहि जीयस्स ॥५९॥ हावहराइँ सरभससुरततृष्णापहरणानि । कस्य । सयललोयस्स सकललोकस्य । प्राकते पूर्वनिपातस्यानियमात् 'सरहस'शब्दस्य परनिपातः । तृष्णापाद्य (? तृष्णायाः) सरभस इति विशेषणम् । वेसविलया वेशवनिता । तस्या लक्षणम् – पण्याङ्गना तु बाढं रमयति यूनां (मनांसि) कृतककृतैः । रसभावहावहेलाविलासकिलकिश्चितैः सुरतैः ॥ अस्यास्तु भवति भूयो रतिः सकलकलाकलापकुशलायाः । शङ्गारस्याभासैः केवलधनहार्यहृदयायाः ॥३५७॥
३५८) हालस्य । [अप्राप्तमन्युदुःखक किं मां कृशेति पृच्छसि हसन् । प्राप्नुहि चञ्चलचित्तं प्रियं जनं ततस्ते प्रक्ष्यामि ॥] हे अप्पत्तमन्नुदुक्खय अप्राप्तमन्युदुःखक, किं मं किसिय त्ति पुच्छसि हसंतो कि मां कृशेति पृच्छसि हसन् । पावसु याचलचित्तं प्राप्नुहि आचलचित्तं चञ्चलस्वभावं पियं जणं ता तु पुच्छिस्सं प्रियं जनं ततस्त्वां प्राप्तमन्युदुःख प्रक्ष्यामीति । एतदुक्तं भवति । न मया कदाचिदपि तवापराद्धम् । अतो अप्राप्तदुःखतया अपरवेदनानामज्ञानात् किं त्वं कृशेति मां पृच्छ स । यदा चञ्चलचित्ताम् अन्यां प्रेयसी प्राप्स्यसि, ता ततः, तु इति कर्मणि षष्ठी द्रष्टव्या (तव प्रक्ष्यामत्यर्थः)। मन्युरपराधः । विप्रलम्भे मानिनी मध्या नायिका । धृष्टो नायकः । अमर्षेविषादादिव्यभिचारिभावाः । सूत्रकोपरानुभावः १), देहदौर्बल्यं शरीरानुभावः ॥३५८॥
३५९) प्रवरराजस्य । [अपहस्त्य सवींजल्पितानि येषां कृते रमितोऽसि । एतानि तानि सौख्यानि संशयो यैर्जीवस्य. ॥ ] काचित् १w. अप्पत्तमण्णुदुक्खो; २w. पावसि जा चलचित्तं; ३w. ता तुह कहिस्सं.
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-४.६१ ] चउत्थं सयं
१६१ W159 ३६०) ईसालुओ पई से रत्तिं महुए न देइ उच्चेउं ।
उच्चे अप्पण च्चिय माए अइउज्जुयसहावो ॥६०॥ W160 ३६१) अच्छोडियन्यद्धतपत्थिए मंथरं पिएं वच्च ।
चितेसि थणहरायासियस्स मज्झस्स वि न भंग ॥६१॥ क्षणभङ्गुरानुरागं नायकम् उपालम्भेनेदमाह । एयाइँ ताइँ सुक्खाइँ एतानि तानि प्रत्यक्षप्रमाणानि सोख्यानि । जाणं कएण रमिओ सि यदर्थे त्वं रमितोऽसि । किं कृत्वा । अवस्थिऊण सडिजापयाइँ अनादृत्य सखीजल्पित नि । कानि तानि सौख्यानीत्याह । संसओ जेहि जायस्स संशयो यैर्जीवस्य (एजीवितस्य) । एतदुक्तं भवति । मया खलु अलीकसंभोग सुखाग्रहगृहीतया सरवीजनजल्पितानि अवधीर्य त्वयि अनुरज्य देहसंदेहदशेयमासादिता, इत । निर्वेदविषादवित्तानि (!) आदायावागभाकव्यङग्या(?) व्यभिचारिणो भावाः । विप्रलम्भशृङ्गारभावोऽयम् (!) । विषमोऽलंकारः । यत्र क्रियाविपत्तन भवेदेव कियाफलं तावत् । कर्तुग्नथश्च. भवेत् तदपरमभिधीयते विषमम् ।। (रुद्रट, ७,५४)॥३५९॥
३६०)[ईर्ष्यालुः पतिस्तस्या रात्रिं मधूकानि न ददायुच्चेतुम् । उच्चिनोत्यात्मनैव मातरतिऋजुकस्वभावः ॥] से पई रत्तिं महुए न देइ उच्चेउं तस्याः पतिः रात्रि मधूकानि न ददाति उच्चेतुम् । कीदृशः पतिः । ईसालुओ ईर्ष्यावान् । अत एव निजवध्वा मधूकानि उच्चेतुं न ददाति । किं तहिं करोतीत्याह । उच्चेइ अप्पण च्चिय उच्चिनोति स्वयमेव । माए अइउग्जुयसहावो मातरतीव ऋजुस्वभावः । रात्रौ बहिर्गमने शङ्कते,... न पुनर्निर्जने गृहे गृहिण्या दुश्चरितम्, इति सरलस्वभावत्वं तस्येति । स्वै- ... रिणी नायिका ॥३६०॥ ३६१) हरिकेशवस्य । [आक्षिप्त वस्त्रार्धान्तप्रस्थिते मन्थरं प्रिये बज । चिन्तयसि स्तनभरायासितस्य मध्यस्यापि न भङ्गम् ॥] अच्छोडियव-- १w महुअं, २w तुमं.
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गाहाको
[४.६२
W161 ३६२) उद्धच्छो पियह जलं जह जह विरलंगुली चिरं पहिओ । पावालिया वि तह तह धारं तणुयं पि तणुएइ || ६२ || W162 ३६३) सा तस्स पिच्छइ मुहं भिच्छयरो नाहिमंडलं तिस्सा | दुन्हं पि करकं चयं च काया विलुपति ॥ ६३ ॥
त्थद्धतपत्थिए मंथरं पिए वच्च आक्षिप्तवस्त्रार्घान्तं यथा भवति एवं प्रस्थिते प्रिये मन्थरं मन्दं ब्रज । मज्झस्स वि भंगं न चितेसि मध्यस्यापि भङ्गं न चिन्तयसीति । कथंभूतस्य मध्यस्य । थणहरायामियस्स स्तनमरायासित-स्य । एतदुक्तं भवति । यदि मामपि (? मय्यापे) अनुरोधबुद्धि: ( नास्ति) तद् एतस्य स्तनभारभङ्गरस्य मध्यभागस्य भङ्गभयमपि नास्तीति, येन त्वरितमितो गन्तुं प्रवृत्तासीति भङग्या प्रियाप्रसादनपरेयमु क्तः ।। ३६१॥ ३६२) गुणाद्र्यस्य । [ऊर्ध्वाक्षः पिवति जलं यथा यथा विरलाङ्गुलिश्चिरं पथिकः । प्रपापालिकाऽपि तथा तथा धारां तन्वोमपि तनयति ॥ ] जह जह पहिओ चिरं जलं पियइ यथा यथा पथिकश्चिरं जलं पिबति । कथंभूतः । उद्धच्छो ऊर्ध्वाक्षः । भूयः कथंभूतः । विरलंगुलो विरलाङ्गुलिः । पावालिया वि तह तह प्रपापालिकाऽपि तथा तथा धारं तयं पितणुएइ धारां तन्वीमपि तनयति । अत्र विरलाङ्गुलीभिः पयःपानं मुखनिरीक्षणं च पथिकस्य वारिधारासंतानतानवं च तदिङ्गितवेदिन्याः पापालिकाया अन्योन्यानुरागज्ञापकम् । ज्ञापको हेतुरलंकारः । ३६२॥
३६३) भ्रातृकस्य । [सा तस्य प्रेक्षते मुखं भिक्षुका नाभिमण्डलं. तस्याः । द्वयोरपि भिक्षापात्रं दर्धी च काका विलुम्पन्ति ||] सा तस्स पिच्छइ मुहं सा तस्य भिक्षो: प्रेक्षते मुखम् । भिच्छयरो नाहिमंडलं तिस्सा भिक्षुस्तु नाभिमण्डलं तस्याः । दुन्हं पिकरकं चड्डयं च द्वयोरपि भिक्षाभाजनं दव च काया विलुपंति काका विलुम्पन्ति । एवं नाम तौ द्वावपि अन्योन्यविलोकनैकतानमानसौ जातौ यथा वाय* १ भिच्छरो पेच्छर णाहिमंडलं सा वि तस्स मुहअंदं । तं चट्टुअं करकं दोन्ह वि काव्य विलुपति ॥
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चउत्थं सयं
W163 ३६४) जेण विणा न वेलिज्जइ अणुणिज्जइ सो कयावराहो वि।
पत्ते वि नयरडाहे भण कस्स न वल्लहो अग्गी ॥६४॥ W164 ३६५) वंक का पुलैइज्जइ कस्स कहिज्जइ सुहं व दुक्खं वा ।
केणं + समं हसिज्जइ पामरपउरे हयग्गामे ॥६५॥ सैर्विलुप्यमानम् अभीक्ष्णं भिक्षान्नमपि न बुध्यत इति । जडता व्यभिचारी भावः । तस्य लक्षणम्-जड़ताऽत्र सर्वकार्याप्रतिपत्तिश्चेति सा (चेत पो) मनुष्याणाम् । इष्टानिष्ट श्रवणावलोकनव्याधिभिर्जेया || नामनि निमिषप्रेक्षण (१) तूष्णीभावैरनुत्तरादानात् । परवशतयाप्यभिनयेत् चित्रालिखितैरिवावयबैः ॥३६३॥ । ३६४) स्वधर्मणस्य । येन विना न वल्यते अनुनोयते स कृतापराधोऽपि । प्राप्तेऽपि नगरदाहे भण कस्य न वल्लभो अग्निः ॥] काचित् कांचित सापराधमपि प्रियमनुवर्तयितुमिमाह सखी। सो कयावराहो वि अणुणिउजइ स कृतापराधोऽप्यनुनीयते । कोऽसावित्याह । जेण विणा न वलि. उनइ येन विना न वय॑ते (१) । अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह । पते वि नयरडाहे भण कस्स न वल्लहो अग्गो प्राप्नेऽपि नगरदाघे भण कस्य न वल्लभोऽग्गिः । तस्मान्मुञ्चे मानं प्रियमनुवर्तस्वेत्यर्थः । सखीशिक्षोक्तिः । अर्थान्तरन्यासोऽलंकारः ॥३६४।। ... २६५) रेद्दायाः (? रेवायाः)। [ वकं कः प्रलोक्यते कस्य ब.थ्यते सुख वा दुख वा । न वा समं हस्यते पामरप्रचुरे हतग्रामे ।।] काचिद् विदग्धवनिता स्वगुणानुगुणं कान्तमलभमाना इदमाह । पामरपउरे हयग्गामे पामरप्रचुरे हतग्रामे वंकं को पुलइज्जइ वक्र कोऽवलोक्यते । कस्म कहिज्जइ सुहं व दुक्खं वा कस्य कथ्यते सुख वा दुःखं वा । केश व समं इसिज्जइ केग वा ममं हस्यते । न केनापीत्यर्थः । वैदग्ध्यवन्ध्ये प्राम्यजने न संगतिरेवोचितेति भावः ॥३६५।। . . . १w. जिविकपद. २w. पुलइज्जउ; ३w. कहिज्जउ, ४w. केण समं व हसिन्नर.
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१६४
गाहाको
W165 ३६६) फैलहीवाडयपुण्णा मंगळे मंगलं कुणतोए । असईए मणोरभिणाऍ हत्था थरहरंति ॥ ६६॥ W167 ३६७) भंजतस्य वि तुह सग्गगामिणो नइकरंजसाहाओ ! पाया दुन्निवि धम्मिय अज्ज वि धरणिं चिय छिवंति । ६७॥ W166 ३६८) पउिल्लूरण संकाउलाहि असईहि बहलतिमिरस्स | औयंपणेण निहुयं वडस्स सित्ता हूँ पत्ताई ॥ ६८॥
३६६) हालस्य । [ कर्पासवाट पुण्याहमङ्गले मङ्गलं कुर्वत्याः । असत्या मनोरथगर्भिताया हस्तौ कम्पेते ||] असईऍ हत्था थरहरंति असत्या हस्तौ थरथरायेते कम्पेते । किंभूतायाः । मंगलं कुणंतीए मङ्गलं कुर्वत्याः । क्व । फलह| वाडयपुण्णाहमंगले कर्पासवाटके यत् पुण्याहमङ्गलं तस्मिन्नुपस्थिते । कथंभूताया असत्याः । मणोरहगब्भिणाऍ मनोरथगर्भितायाः । अत्र मया स्वेच्छाप्रच्छन्नकामित कर्तव्यमिति रागयोगात् बीजवपन पुण्याहमङ्गले कर कमलकम्पः सात्त्विको भावस्तस्या इति ।। ३६६ ।। ३६७) काढिल्लकस्य । [ भञ्जतोऽपि तव स्वर्गगामिनो नदीकर - खशाखा: | पादौ द्वावपि धार्मिक अद्यापि धरणीमेव स्पृशतः ॥ ] काचित् नदीकूलशास्वाक्षयकरं वोक्ष्य भिक्षुकं निर्भर्त्सयन्तोदमाह । हे धम्मय तुह पाया दुन्नि वि अज्ज वि धरणि चिय छिवंति, हे धार्मिक तव द्वावपि पादौ अद्यापि धरणीमेव स्पृशतः । किंभूतस्य तव । भजंतस्य वि नइकजसाहाओ भजतोऽपि नदीकरञ्जशाखाः । कोदृशम्य । सग्गगामिणो स्वर्गगामिनः । अत्युल्लुण्ठनया असंभाव्यार्थपात्रत्वगर्भं विशेषणम् । वागनुभावव्यङ्ग्यः संकेत करे जशा स्वाभङ्गोद्भवोऽमर्षों नाम व्यभिचारी भावः । तदनुभावो निर्भर्त्सनं नायकाः ( नायिकायाः ) || ३६७ ॥
३६८) स्वामिनः । [ पथिकच्छेद नशङ्का कुलाभिर सतीभिर्बहलतिमिरस्य । हरिद्रोदकेन निभृतं वटस्य सिक्तानि पत्राणि ॥ ] असई हि ँ फलही वाहणपुण्णाहमंगलं लंगले; २. पाआ अज्ज वि धम्मिअ तुह कह धरणिं. विअ छिवंति. ३. आइप्पणेण.
१w.
१४.६६
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-४.७०] .
चउत्थं सयं W169 ३६९) निक्कम्माहि वि छेत्साहि पामरो नेय वच्चए वसहिं ।
मयपियजायासुन्नइयगेहदुक्खं परिहरंतो ॥१९॥ W170 ३७०) झंझावाउत्तिण्णियघरविवरपलुट्रैसलिलधाराहि ।
कुड्डलिइिओहिदियहे रक्खइ मुद्धा करयलेहि ॥७॥ निहुयं वइस्स सित्ताइँ पत्ताई असतोभिर्निमृतं वटस्य सिक्तानि पत्र णि । केन । आयंपणेण हरिद्रारसेन । किंभूतस्य वटस्य । बहलतिमिरस्स प्रचुरतिमिरस्य । कोदशीभिरसतीभिः। पहिउल्लूरणसंकाउलाहि पथिकैयद उल्लूरणं भजनं, तच्छङ्किनीभिः । हरिद्रोदकसिक्तपत्रस्य हि देवतायाः कस्याश्चिदयम् इति शङ्कया पथिका न वटशाखिशावां गमिष्यन्तीति भावः । धनतिमिरान्धकारितदिङ्मुखत्वाद् अयं बहलतिमिरसंगमसुखायत (न) मिति प्रियतमसुविशङ्कतया ( ? ) वटवृक्षरक्षापक्षपातः पंसुलोनाम् इति । उल्लूरणं भञ्जनम् ॥३६८॥
__३६९) आदयराजस्य । [निष्कर्मणोऽपि क्षेत्रात् पामरो नैव ब्रजति वसतिम् । मृतप्रिय जायाशून्योकृतगेहदुःख परिहरन् ॥ ] पामरो नेय वच्चए वसहिं पामरो ग्रामणो व व्रजति वसतिम् । कस्मात् । छेत्ताहि क्षेत्रात्। कथंभूतात् । निक्कम्माहि वि निष्कर्मणोऽपि । किं कुर्वन् । परिहरंतो परित्यजन् । किं तत् । मयपियनायासुन्नइयगेहदुक्खं मृतप्रियजायाशून्यीकृतगेहदुःखम् । बहिरेव ताम्यतीत्यर्थः । करुणो रसः । तस्य स्वप्रमदामरणम् आलम्बनविभावः । शोकात्मवस्तुकरुणः प्रियपुत्रकलत्रमित्रधनहान्याः । सर्वत्र दैवहत कस्तत्र नायको ज्ञेयः ।। शितिपतनदैवनिमारोदनप्रविलापमुखशोषैः । शो!रःस्थलताडनवैवानि च भवन्त्यस्मिन् ॥३६९।।
३७०) पुण्डरीकस्य । [झझावातोत्तृणितगृहविवरप्रवृत्तसलिलधाराभ्यः । कुड्यालेखितावविदिवतान् रक्षति मुग्धा करताभ्याम् ॥] कुड्यलिस्वितावधिदिवसान् रक्षति मुग्धा करतलाभ्याम् । कुतो रक्षति । १w. मुअ; २w. झंझावाउत्तिणघर; ३w. पलोत; ४w. दिअहं; ५w.
अज्जा .
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गाहाकोसो
W171 ३७१) गोलाणईऍ कच्छे चक्खंतो राइयाइ पत्ताई । अब्भिर मकडो खुक्खुएइ पुढं च पिट्टेइ ॥ ७१ ॥ W172 ३७२) गहवइणा मयेसेरिहिदुमदामं चिरं बहेऊण । वग्गसँयाइँ निएऊण नवर अज्जाहरे बद्धं ॥ ७२ ॥
झंझावाउत्तिण्णिय घरविवर पलुह सलिलघाराहिं झञ्झावातेन उत्तणितं यद् गृहं, तस्य यद् विवरं तेन प्रवर्तमानाः ( प्रवृत्ताः ) याः वारिधाराः, ताभ्यः. ।' विरहिणी नायिका ॥ ३७० ॥
|४.७१
३७१ ) ( गोदानद्याः कच्छे, आस्वदमानो राजिकायाः पत्राणि । उल्ललति मर्कटः खोखोशब्दं करोति, उदरं च ताडयति ||] अब्भिडइ मक्कडो उल्ललति मर्कटः, पुटं च पिट्टेइ जठरं च ताडयति । कि कुर्वन् । चक्खतो राइयाइ पत्ताई आस्वादयन् राजिकायाः पत्राणि । क । गोलाणईऍ कच्छे गोदावर्याः कच्छे । इति जातिरलंकारः । अन्ये तु पुनः । गोदावरीशब्दसंशब्दनात् 'अहं तत्र गता न तु त्वम्' इति वीतसंकेततां सूचयितुं नायिकेदमाह । तदा तु सुक्ष्मालंकारः । अपरे तु, यथा मनोहरहरितिना हृतहृदयो गोदावरीतटैकभागभाजि राजिकाकन्दलीकन्दे कवलिते कष्टं कपिरवाप तथाऽन्योऽपि दर्शनमात्रमनोहरे अनुभवदुःखदायिनि जने दुःखं पश्चात्तापेन तप्यत इति अन्यापदेशेनोक्तं भवतीत्याहुः । पुटं उदरम् || ३७१ ॥
३७२) नरवाहनस्य । [ गृहपतिना मृतसैरिभीघण्टादाम चिरम् ऊदवा । वर्गशतानि दृष्ट्वा तत आर्यागृहे बद्धम् || ] गहवइणा मयसेरिहिदुंदुमदामं अज्जाहरे बद्धं गृहपतिना मृत सैरिभीघण्टादाम आर्यागृहे बद्धम् । किं कृत्वा । चिरं वहेऊण चिरम् ऊदवा । पुनः किं कृत्वा । वग्गस्याइँ निएऊण वर्गशतानि दृष्ट्वा । मृतमहिषीघण्टादाम प्रेम्णा कण्ठक
१w. उप्फडइ; २w. मयसेरिहडुडुमदामं; ३w. वम्गसआई ऊण.
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-४.७४]
चउत्यं सयं W173 ३७३) सिहिपेहुणावयंसा वहुया वाहस्स गन्विरी भमइ ।
गयमुत्तियगहियपसाहणाण मज्ज्ञे सवत्तीणं ॥७३॥ W174 ३७४) वंकच्छिपिच्छिरीणं वंकुल्लविरीण वंकभमिरीणं ।
वंकहसिरीण पुत्तय पुण्णेहि जणो पिओ होइ ॥७॥ न्दलेऽवलम्ब्य, ततो महिषी तत्सदृशी नास्तीति विदित्वा हृदि, ततोऽम्बिकावेश्मनि बद्धवान् इत्यर्थः । सैरिभी महिषी। दुंदुमं घण्टा । अग्ना आर्या । अन्यापदेशोऽलंकारः ॥३७२॥
३७३) सर्व (१ शर्व) स्वामिनः । [शिखिपिच्छकर्णपूरा वधूा-- धस्य गर्विता भ्राम्यति । गजमौक्तिकगृहीतप्रसाधनानां मध्ये सपत्नीनाम् ॥] वहुया वाहस्स गन्विरी भमइ वधूळधस्य गर्वोद्वहनशीला भ्राम्यति । कीदृशो । सिहिपेहुणावयंसा शिखिपक्षावतंसा । क्व भ्राम्यति । मज्झे सवत्तीणं मध्ये सपत्नीनाम् । कथंभूतानाम् । गयमुत्तियगहियपा-- हणाण गृहीतगजमौक्तिकप्रसाधनानाम् । मद्भर्ता भवतीष्वनुरक्तः सन् हस्तिहननेन कर्मक्षम आसीत् । मय्यासक्तस्तु शक्तिक्षयान् मयूरमारणशक्तो वर्तत इति भावः । सपत्नोजनमध्ये पुनः गर्वोद्भुरकन्धरं पर्यटनम् अनुभावः । पेहुणो पक्षः । अवतंसः कर्णपूरः । स्वीया नायिका ॥३७३॥
.. ३७४) [वक्राक्षिप्रेक्षिणीनां वक्रोल्लापिनीनां वक्रभ्रमणशीलानाम् । वक्रहासिनोनां पुत्रक पुण्यैर्जनः प्रियो भवति ॥] हे पुत्तय पुत्रक पुण्णेहि जणो पिओ होइ पुण्यैर्जनः प्रियो भवति । कासाम् । वंकच्छिपिच्छिरीणं वक्राक्षिप्रेक्षणशीलानाम् । वंकभमिरीणं वक्रभ्रमणशीलानाम् । वंकहसिरीणा वक्रहसनशोलानाम् । एवंभूतानां विदग्धवनितानां पुण्यैर्जनः प्रियो भवति ॥३७४॥
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१६८ गाहाकोसो
[४.७५W176 ३७५) वाएरियस्स भरियं अच्छि कंड्यउप्पलरयस्स। .
फूमित्तविसुद्धं चुंबमाण को होसि देवाणं ॥७॥ W179 ३७६) तीऍ मुहाउ तुह मुहं तुज्झ मुहाओ वि मज्य चैरणेसु । .
हत्थाहत्थिमुवगओ अइदुक्करयारओ तिलओ ॥७६॥ - ३७५) व्याघ्रस्वामिनः । [वातेरितस्य पूर्णम् अक्षि कण्डूकृदुत्पलरजसः । फूत्कारमात्रविशुद्धं चुम्बमान को भवसि देवानाम् ॥] हे अच्छि चुंबमाण को होसि देवाणं अक्षि चुम्बमान को भवसि देवानाम् । कोहशम् अक्षि । वाएरियस्स कंडूय उप्पलरयस्स भरियं वातेरितस्य कण्डूकदुत्पलरजसो भृतं पूर्णम् । पुनश्च कीदृशम् । मित्तविसुद्धं फूत्कारमात्रबिशुद्धम् । फूत्कारमारुतमात्रविशुद्धस्यापि चक्षुषः चुम्बनेन मम मनोगतं भावम् उद्भाव्य तथैवाचरन् देवानां मध्ये कोऽपि भवसीति भावः । कंडूयउप्पलरयस्स इति पूर्णार्थयोगे. तृतीयार्थे षष्ठी। अन्ये तु कंडमं इति पठन्ति व्याचक्षते च । कीदृशम् अक्षि । कंडूमदिति । पृष्ठाक्षिकुक्षिप्रस्तावा () स्त्रियामिति स्त्रियां कंडम इति भवति ॥३७५।।
३७६) अन्ध्रलक्ष्म्याः । [तस्य मुखात्तव मुखं तव मुखादपि मम चरणयोः । हस्ताहस्तिमुपगतो अतिदुष्करकारकस्तिलकः॥] काचित् सिन्दूरेण प्रियं तिलकितं वीक्ष्य सप्रतिभेदमिदमाह । मइदुक्करयारओ तिलओ अतिदुष्करकारकस्तिलकः तीएँ मुहाउ तव मुहं तस्या मुखात्तव मुखं, तुज्झ मुहाओ वि मज्झ चरणेसु तव मुखादपि मम चरणयोः, हत्थाहत्थिमुवगओ हस्ताहस्तिमुपगतः । एतदुक्तं भवति । तद्वदनचुम्बनेन त्वन्मुखे संक्रान्तः पादपातक्रमेण च मच्चरणयोः संक्रान्तः, एवं तिलकः अतिदुष्करकारक इति तिलकनिर्भर्त्सन (प्रशंसा) मुखेन नायकनिकारः कृतो भवति, इति । त्वं किल तदनुरक्तो मयि पुनर्मिथ्यानुनयमेव दर्शयसीत्यर्थः । हत्थाहत्थि इति लोकोक्तिः । पर्यायोक्तिलंकारः । खण्डिता स्वोया प्रगल्मा नायिका । विप्रलम्भमेदो मानोऽयम् ॥३७६ ॥ १w. वाएरिएण. २w. मुहाहि; ३w. चलणम्मि; ४w. हत्थाहत्थीअ गओ.
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-४.७८] चउत्थं सयं
१६९ W180 ३७७) सीमाएँ सौमलीए अद्धच्छिपुलोइरीऍ मुहसोहा।
जंबूदलकयकण्णावयंसभमिरे हलियउत्ते ॥७७॥ W181 ३७८) दूइ तुम चिय कुसला कक्खडमउयाइ जाणसे वस्तुं ।
कंडुइयपंडुरं जह न होइ तह तं कुणिज्जासु ॥७८ ॥ ३७७) हालस्य । [श्यामायते श्यामलाया अर्धाक्षिप्रेक्षिण्या मुखशोभा। जम्बूदलकृतकर्णावतंसभ्रमणशोले हालिकपुत्रे ॥] सामलोए मुहसोहा सामा श्यामाया मुखशोभा श्यामायते । कीदृश्याः । अद्धच्छिपुलइरीऍ अर्धाक्षिप्रेक्षणशीलायाः । क्व । हलिय उत्ते हालिकपुत्रे । कीदृशे । जंबूदलकयकग्णावयंसभमिरे जम्बूदलकृतकर्णावतंसभ्रमणशोले । अत्र किल सहसैव श्यामायाः समुत्पन्नं मुखकमलमालिन्य कार्यत्वात् कारणं कलयति । न च पुरः परिदृश्यमानानां मध्यादन्यतमेन केनचिद् भवितव्यम् । यतः संनिहितपरित्यागे व्यवहितं प्रतिकारणं वाच्यम्(१) । तत्र किं जम्बूदलम् उत हालिकसुत आहोस्विन्न सं ...गः (१) । किं वा तस्यैव....रि...सुतस्य जम्बूदलकृतकर्णावतंसदर्शनपिशुनं (पिशुनितं) तत्र रतिसंकेतके प्रथमगमनं, किं वा आत्मनो अगमनम् इति । न तावन्निसर्गरमणीयं जम्बूदलं कारणम् । न चासौ सकलनयनानन्दनो युवा । नापि तयोः जम्बूदलहालिकयोः संयोगः । न वा तस्यास्तन्वङ्ग्या रतिसुखलाभलालसाया मनोषितम् । अपि तु तस्य यूनस्तत्र गमनम् । किं तहिं । पारिशेण्याद् आगमनमेव यूनः तस्याः पश्वात्तापतपनतप्यमानमानसायाः वदनवैवर्ण्यस्य कारणं कल्प्यते इति । तदुक्तमस्माभिरेव । जंबूदलं न उव्वेयकारणं नेय हालियसुओ वि । गमणं च तस्स ताय (? तत्था) गमण( अगमण) नियं चेय ॥ भावो नाम अलंकारः । तस्य लक्षणम्-यस्य विकारः प्रभवन् अप्रतिबद्धन हेतुना येन । (गमयति तदमिप्रायं तत्प्रतिबन्धं च भावोऽसौ॥) (रुद्रट,७, ३८)। सूक्ष्मोऽयम् आचायदण्डिनः। (काव्यादर्श, २,२४९-२५०) ॥ ३७७ ॥ १w. सामाइ; २w. सामलिज्जइ.
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१७० गाहाकोसो
[४.७९W182 ३७९) महिलासहस्सभरिए तुह हियए मुहय ठाणमलहंती।
दियह अणन्नयम्मा अंगं तणुयं पि तणुएइ ॥७९॥ W183 ३८०) खणमित्तं पि नै चुक्कइ अणुदियह विइण्णगरुयसंतावा ।
पच्छन्नपासक व्व सामली मज्म हिययाहि ॥ ८० ॥
३७८) अविरतस्य । [दूति त्वमेव कुशला कर्कशमृदुकानि जानासि वक्तुम् । कण्डूयितपाण्डुरं यथा न भवति तथा त्वं कुर्वीथाः॥] हे दुइ तुम चिय कुसला हे दूति त्वमेव कुशला । अन्यच्च, वत्तं जाणसे वक्तुं जानासि । कीदृशानि । कक्वडमउयाइँ कर्कशमृदुकानि । कंडुइयपंडुरं जह न होइ तह तं कुणिज्जासु कण्डूयितपाण्डुरं यथा न भवति तथा त्वं कुर्वीथाः । यथा काचित् हस्तकलया काये कण्डूयनमुखं संपादयति, न च तं पाण्डिमानमानयति, एवम् असौ त्वया तावदुपलम्भनीयो, यथा न विरज्यते तथा कार्यमित्यर्थः ।। ३७८ ॥
३७९) माधवशक्तेः । [महिलासहस्रभृते तव हृदये सुभग स्थानमलभमाना । दिवसमनन्यकर्मा मङ्गं तन्वपि तनयति।1] काचित् कस्याश्चित् प्रियतमेऽनुरागं प्रियस्य चान्यासक्तत्वं भङ्ग्याऽमिघातुमिदमाह । हे सुहय सुभग, सा अंग तणुयं पि तणुएइ सा अङ्गं तनुकमपि तनूकरोति । कीदृशी सा । दियह अणन्नयम्मा दिवसम् अनन्यकर्मा प्रतिदिनं का कार्यमानयति इत्यर्थः । किं कुर्वती । तुह हियए ठाणमलहंती तव हृदये स्थानमवकाशम् अलभमाना । कीदृशे हृदये । महिलासहस्सभरिए महिलासहस्रभृते । अत एव तत्र अवकाशमनासादयन्ती तन्वी तनुमपि तनूकरोतीत्यर्थः । दियह इति कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे इति कर्मत्वम् । उत्प्रक्षालंकारः ॥३७९ ॥
३८०) नागभट्टस्य । क्षणमात्रमपि न भ्रश्यति अनुदिवस वितीर्णगुरुसंतापा । प्रच्छन्नपापशङ्केव श्यामला मम हृदयात् ॥] सामली मम १w. सुहअ सा अमाअंती; २w. ण फिट्टइ; ३w. हिअआओ.
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१७१
-४.८२]
चउत्थं सयं W184 ३८१) उन्नेम नाह कुविया अवऊहसु किं मुहा पसाएसि ।
तुह मन्नुसमुप्पन्नेण मज्म माणेण वि न कज्जं ॥८॥ W14 ३८२) घरिणीऍ महाणसकम्मलग्गमसिमइलिएण हत्थेण ।
छिक्कं मुहं हसिज्जइ चंदावत्थं गयं पइणा ॥८२।। हिययाहि स्वणमित्तं पि न चुक्कइ श्यामागी मम हृदयात् क्षणमपि न स्व-- लति, न च्यवते । कीदृशी। अणुदियहविइण्णगरुयसंतावा अनुदिवसं वितीर्णो गुरुकः संतापो व्यथा ययेति सा तथोक्ता। केव । पच्छन्नपावसंक व्व प्रच्छन्नपापशङ्केव । यथा गुप्तकृतदुष्कर्मशङ्का अनुदिनं विती
गुरुसंतापा न हृदयादपसर्पति तथा सा मम श्यामाङ्गीति । तामेव नक्तंदिनं चेतसि चिन्तयामीत्यर्थः । चुक्कइ इति स्खलतीत्यर्थे देशीपदम् । उप-- मालंकारः ॥३८० ॥
३८१) अचलस्य । [उन्नम नाहं कुपिता अवगृहस्व किं मुधा प्रसादयसि । तव समुत्पन्नमन्युना मम मानेनापि न कार्यम् ॥काचिद्. दीनाननं प्रियमनुनयन्तमिदमाह । उन्नम उत्तिष्ठ, नाहं कुविया नाहं कुपिता। • अतश्च भवऊहसु उपगृहस्व किं मुडा पसाएसि किं मुधा प्रसादयसि ।
यतः तुह मन्नुसमुप्पन्नेण मज्झ माणेण वि न कज्ज तवोत्पन्नमन्युना मम मानेनापि न कार्यम् । तर मन्युर्दैन्यं क्रोधो वा येनोत्पद्यते तेन मानेनापि न मे प्रयोजनमस्ति । पूर्वनिपातानियमात् समुत्पन्नशब्दश्य परनिपातः । दयितस्यानुकम्पनं स्वण्डिताकोपाङ्गम् ॥३८१ ॥
३८२) हालस्य । [गृहिण्या महानसकर्मलग्नमषोमलिनितेन ह.. स्तेन । स्पृष्टं मुखं हस्यते चन्द्रावस्थां गतं पत्या ॥] धरिणीऍ मुहं पइणा हसिज्जइ गृहिण्या मुखं पत्या हस्यते । कथंभूत मुखम् । छिक्कं हत्थेण स्पृष्टः हस्तेन । कीदृशेन । महाणसकम्मलग्गमसिमइलिएण, महानसकर्मलग्नमषी-.. मलिनितेन । कीदृशं मुखम् । चंदावत्थं गयं चन्द्रावस्थां गतम् । मुख निस-..
-
१w अण्णुअ, २w. छित्तं.
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१७२ · गाहाकोसो
[४.८३"W185 ३८३) दीहुन्हपउरणीसासपलिमो बाहसलिलसिप्पंतो।
साहेइ सामैसबलो तीए अहरो तुह विओअं ।।८३॥ 'W696 ३८४) संकेलिउँ ब नज्जइ खंडं खंडं कउ व्व पीउ व्य ।
वासागमम्मि पंथो घरहुत्तमणेण पहिएण ॥८४॥ निर्मठमपि मलिनेन (समलेन ) शशिना तुल्यं वर्तते, इति पतिः कान्तामुपहसतीत्यर्थः । प्रतीपं नाम अलंकारः। तस्य लक्षणम्-यत्रानुकम्प्यते सममुपमानेनेति निन्द्यते वापि । उपमेयमति स्तोतुं दुरवस्थमिति प्रतीपं तत् (रुद्रट, ८, ७६)॥३८२॥
३८२) तस्यैव (हालस्य)। [ दीर्घोष्णप्रचुरनिःश्वासप्रकलितो बाष्पसलिलसिच्यमानः। कथयति श्यामशबलस्तस्या अधरस्तव वियोगम् ॥] काचित् कस्याश्चिद् दुःखं प्रिये प्रकाशयितुमिदमाह । तीए अहरो तुह विओ साहेइ तस्या अधरस्तव वियोगं साधयति कथयति । कीदृशः । दीहुन्हप उरणासासपयलिश्रो दीर्घोष्णप्रचुरनिःश्वासप्रकलितः । भूयश्च किंभूतः । बाहसलिलसिप्पंतो बाष्पसलिलसिच्यमानः, अविरतरोदनात् । अत एव सामस वलो श्यामशबलः । सा त्ववियोगे बाष्पभरमन्थरं दो?vणं निःश्वसितीत्यर्थः ।।३८३॥ ३८४) भाहसस्य (१मासस्य !)। संकोचित इव ज्ञायते खण्डशः कृत इव पीत इव । वर्षागमे पन्था गृहानिमुखमनपा पाथेकेन ॥] पहिएण पंथो संकेलिउ च नग्जइ पथिकेन पन्थाः संकोचित इव नीयते (ज्ञायते)। खंडं खंड कउ व्व खण्डं खण्डं कृत इव पीउ व्व पीत इव लघु लङ्घनात् । कथंभूतेन । घरहुत्तमणेण गृहाभिमुखमनसा। कदा। वासारंभम्मि वर्षागमे । स्वदयितादर्शनोन्मुखेन दूरं दुरतिक्रमोऽपि पन्थाः पथिकेन लघु लधित इत्यर्थः। उत्प्रेक्षालंकारः ॥३८४॥ १w. पअविओ; ४w परिसित्तो; ३w. सामसबलं व तीइ; ४w. विओए; ५w. संकेल्लिओ व्व णिज्जइ; ६w. मग्गो.
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-४.८७
चउत्थं सयं . W717 १८५) अह सुबइ दिन्नपडिबक्खवेयणं पसिढिलेहि अंगेहिं ।
निव्वत्तियमुरयरसाणुबंधसुहणिब्भरं वहुया ॥८५।। W186 ३८६) सरए महदहाणं अंतो सीयाइँ बाहिरुन्हाई।।
जायाइ कुवियसज्जणहिययसरिच्छाइँ सलिलाई ॥८६ ।।' W187 ३८७) अयसस्स कि नु काहं कह वुच्छं कद्द नु होहिइ इम ति ।
पढKल्लयसाहसकारियाएँ हिययं थरहरेइ ।।८७।।
३८५) कमलस्य । [असौ स्वपिति दत्तप्रतिपक्षवेदनं प्रशिथिलैरङ्गैः । निर्वर्तितसुरतरसानुबन्धपुस्खनिर्भरं वधूः ॥ ] अह वहुया सुयइ असौ वधूः स्वपिति । कथम् । निव्वत्तियसुरयरसाणुबंधसुहणिब्भरं निर्वर्तित सुरतरसानुबन्धसुखनिर्भरम् । कैः। पसिढिलेहि अंगेहिं प्रशिथिलैरङ्गैः । कथम् । दिन्नपडिवक्खवेयणं दत्तप्रतिपक्षवेदनं यथा भवति, एवं स्वपिनीत्यर्थः । रात्रिजागरसूचकं हि दिबाशयनं सपत्नीनां दुःखाय जायत इति । अह इत्यद सो रूपं त्रिष्वपि लिङ्गेषु तुल्यम् । निद्रा व्यभिचारी भावः । प्रशिथिल- - ताऽनुभावः ॥३८५।।
___३८६) सिंहविक्रमस्य । शरदि महाहदानाम् अन्तःशीतानि बहि-. रुष्णानि । जातानि कुपितसज्जनहृदयसदृक्षाणि सलिलानि ॥ ] सरए महदहाणं सलिलाई जायाई शरदि महादानां सलिलानि जातानि । कीदृशानि । अंतोसीयाइँ बाहिरुन्हाई अन्तःशीतानि बहिरुष्णानि । अतः कथंभूतानि । कुवियसज्जणहिययसरिच्छाई कुपितसज्जनहृदयसदृशानि । कुवितसज्जनहृदयानि हि अन्तःशीतलानि बहिरुष्णानीति तीव्राणि भवन्ति ।। उपमालंकारः ॥३८६॥
३८७)निःकोपस्य । [अयशसः किं नु करिष्यामि कथं वक्ष्यामि कथं नु भविष्यतीदमिति । प्रथमसाहसकारिण्या हृदयं वेपते ॥] हिययं थरहरेइ १w. दिण्णपडिवक्खवेअणा; २w.अंतोसिसिराइ, ३w.. आअस्स;.. ४.w.. पढमुग्गयसाहसआरिआइ.. :
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१७४ गाहाकोसो
(४.८८W706 ३८८) अवसर रुत्तं चिय निम्मियाइँ मा पुससु मे हयच्छीई ।
दसणमित्तुम्मइएहिं जेहि सोलं तुह न नायं ।।८८।। W707 ३८९) रणरणयमुन्नहियो चिंतंतो विरहदुबलं जायं ।
आसंघियवसही गामयस्स मज्झेण वोलीणो ॥८९॥ हृदयं थरथरायते । कस्याः । पहमुल्लयसाहसकारियाएँ प्रथमतः साहसकारिण्या: । कथम् । अयप्तस्स किं नु काहं अयशसः किं नु करिष्या मे कि वुच्छं पृच्छ्यभाना किं वदिष्यामि । कह नु होहिइ इमं ति कथं नु भविष्यत्येतदिति । इति बहुलावकल्पैर्वेपते हृदयम् । साह समिह शीलवण्डनम्।।३८७।।
___ ३८८) शल्लस्य(?शल्यस्य)। [अरसर रोदितुमेव निर्मिते मा प्रोञ्छय मे हताक्षिणी । दर्शनमात्रोन्मत्ताभ्यां याभ्यां शीलं तब न ज्ञातम् ।। ] काचित् कृतव्यलोकं सानुनयम् इदमाह । अवसर मा पुससु मे हयच्छोइं अपसर मा माजय मे हताक्षिणी । रुत्तुं चिय निम्मियाइँ रोदितुमेव निर्मिते । के ते इत्याह । जेहि सोलं तुह न नायं याभ्यां शीलं चरित्रं तव न ज्ञातम् । कोदृशाभ्याम् । दसणमित्तम्मइएहिँ दशमात्रादुन्मत्ता. भ्याम् । एतदुक्तं भवति । एते हि मम हतनेत्रे त्वरसौन्दर्यैकदर्शिनी रते (: तव) चलचित्तं न ज्ञातवती, अत एव दुःखं सहेते इति भावः ॥३८८॥
३८९) विरलस्य । [ रणरण शून्यहृदयश्चिन्तयन् विरह दुर्बलां जायाम्। संभावितवसतिग्रामस्य मध्येन अतिक्रन्तः । ] करिवत् पथिकः मासंघियवसहो मामयस्य मज्झेण वोलीणो संभाविवसतिः ग्रामस्य मध्येन एव गतः । कथंभूतः । रणरण यसुन्नहियो रणरणकशून्यहृदयः । किं कुर्वन् । चिंततो विरहदुब्बलं नायं चिन्तयन् विरह दुर्बलां जायां, स्वप्रिया
संगमसुखलालसतया । अत्र ग्रामे मया व मनीयम् इति कृतमपि निश्चयं -- न स्मृतवानिति भावः ॥३८९ ।।
. १w.भोसर; २w. दि. ३w. अमुणिमणिअवसही सो वोलीणो गाममझेण.
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-४.९२] चउस्थं सयं
१७५ W714 ३९०) जे असरगो व्य देड्ढो गामो साहीणबहुजुवै णो वि।
संभमविसंठुलाणं तं दुच्चरियं तुह थणाणं ॥९॥ W715 ३९१) सो वि जुवा माणहणो तुमं पि माणस्स असहणा पुत्ति ।
मत्तच्छलेण गम्मउ सुराऍ अवरि पुससु हत्थे ।।९१॥ W379 ३९२) भंडंतीऍ तणाई सोत्तुं दिन्नाइ जाइँ पहियस्स ।
ताई चेय पहाए अज्झा आयइढइ रुयंती ॥२२॥ ___ ३९०) हालस्य । [यदशरण इव दग्धो ग्रामः स्वाधीनबहुयुवकोऽपि । संभ्रमविसंष्ठुलयोस्तद् दुश्चरितं तव स्तनयोः ॥ ] तं दुच्चरियं तुह थणाणं तद् दुश्चरितं तव स्तनयोः । कीदृशयोः । संभमविसंठुलाणं संभ्रमविसं ठुलयोः । कि तद् इत्याह । जं असरणो ब्व गामो दो यदशरण इव अनाथ इव ग्रामो दग्धः । कीदृशः । । साहीणबहुजुवाणो वि स्वाधीनबहुयुवाऽपि । त्वदीयस्त नावेक्षणाक्षिप्त चक्षुः सन् युवजनो ग्रामदाहमप्युपेक्षितवान् इति स्तनवर्णनपरेय मुक्तिः । संभ्रमः त्वरा । पर्यायोक्तिरलंकारः ॥३९०॥
३९१) सुरतदुर्विदग्धस्य । [सोऽपि युवा मानधनस्त्वमपि मानस्य असहना पुत्रि । मत्तच्छलेन गम्यतां सुराया उपरि प्रोञ्छय हस्तौ ॥] काचित् सरवीं संशिक्षयितुमिदमाह । सो वि जुवा माणहणो सोऽपि युवा मानधनः तुमं पि माणस्स असहणा पुत्ति त्वमपि मानस्यासहना पुत्रि | मत्तच्छलेण गम्मउ मत्तापदेशेन गम्यतां, सुराएँ अवरिं पुससु हत्थे सुराया उपरि उत्प्रोञ्छय हस्तौ । मत्ताऽहं किलाऽऽजगामेति तदीयसन च्छद्मना गम्यतामिति मञ्चुसुण (?) अयशोदामम् (?) ॥ ३९१ ॥
३९२) हालस्य । [ कलहामानया तृणानि स्वप्तुं दत्तानि यानि पथिकस्य । तान्येव प्रभाते तरुणी आकर्षति रुदती ।। ] तान्येव तूणानि तरुणी आकर्षति चिरं रुदती । कदा । पहाए प्रभाते । कानि तानीत्याह । जाई पहियस्त सोत्तुं दिन्नाइँ यानि पथिकस्य शयितुं दत्तानि । कथं१w. उइदो, २w. जुभाणो.
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गाहाकोसो
[४.९३W380 ३९३) वसम्मि अणुव्विग्गा विहवम्मि अगविरा भए धीरा ।
हुति भिन्नसहावा समेसु विममेसु य समैत्था ॥९॥ "W381 ३९४) सहि केग अज्ज गासे कं पि मणे वल्लई भरतेण ।
अम्हं मयणसराहयहिययव्वणफोडणं गीयं ॥९४॥ मूतया तया । भंडतीए कलहायमानया । एतदुक्तं भवति । । प्रथमं तया कलहायमान्या कथं कथमपि प्रस्तराय तृणानि यानि पथिकस्य प्रदत्तानि, तान्येव तदुपभोगसुखामृतमग्ना कृतप्रस्थाने पथिके सति रुदती संचिनोति इति । भंडंती कलहायमाना शपमाना ॥३९२।। ..
३९३) संवत्सरस्य ।। व्यसनेऽनुद्विग्ना विभवेऽगर्वशीला भये धीराः'। भवन्ति अभिन्नस्वभावाः समेषु विषमेषु च समर्थाः ॥ ] अभिन्नसहावा हुंति समत्था अभिन्नस्वभावा भवन्ति समर्थाः । केषु । समेसु विसमेसु य समेषु विषमेषु च । संपत्सु विपत्सु च तुल्यस्वरूपा भवन्ति । कीदृशाः । वसाम्म अणुम्बिग्गा व्यसने अनुद्विग्नाः, विहवम्मि अगविरा विभवे सति न गर्वोद्वहनशीलाः, भए धारा भए समुत्थिते धोरा अविचलितवृत्तयः । अत एव अभिन्नस्वभावा इत्युक्तम् । समुच्चयोऽलंकारः ॥३९३॥
३९४)) मृणालस्य । [ सखि केनाद्य प्रभाते कामपि मन्ये (मनसि) वल्लभां स्मरता । अस्माकं मदनशराहतहृदयव्रणस्फोटनं गीतम् ।। ] सखि केनाद्य अस्माकं मदनशराहतहृदयत्रणस्फोटनं गीतम् । किं कुर्वता । के पि मणे वल्लहं भरतेण कामपि वल्लभां मनसि संस्मरता । तथा कथंचित् करुण स्वकान्तां संस्मृत्य गीतं यथा चिरप्ररूढान्यपि मम हृदि मदनबाणवणानि विदीर्णानीत्यर्थः । गीते हि द्वाविंशतिः श्रुतयः । षड्जर्षभगान्धारमध्यपञ्चमधैवतनिषादाः सप्त स्वराः। तदाश्रितौ ग्रामो १w. अगन्धिआ: २w. सप्पुरिसा; ३w. अज्ज सहि केण गोसे; ४w हिअ. अवणप्फोडणं.
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-४.९६]
चउत्थं सय W382. ३९५) उद्रुतमहारंभे थणए दळूण मुद्धवहुयाए ।
ओसिन्नकवोलाए नीससियं पढमपरिणीए ॥९५॥ W383 ३९६) गरुपछुहाउलियस्स वि वल्लइकरिणीमुहं भरंतस्स ।
सरसो मुणालकवलो गयस्स हत्थिं च्चिय मिलाणो॥१६॥ षड्जमध्यमौ । तद्भवाश्चतुर्दश मूर्छनाः । तदुक्तम् । उत्तरं मन्द्रा रजनी तृतीया चोत्तरायता । चतुर्थो शुद्धषड्जा स्यात् पञ्चमी समरीकृता । अस्वकान्ता च षष्ठो स्यात् सप्तमी चाभिरुद्गता । स्वक्रमेण कृता ह्येता मूर्छनाः षड्जतो मताः ॥ सौवीरीयर्षभग्रामहारिणी स्यात्तथैव च । लोपानता तृतीयेति चतुर्थी शुद्धमध्यमा । मार्गी च पौरवी चेति हृष्यकाश्च (! हृद्यकाश्च) यथाक्रमम् । आराह्यवरोहिस्थायि संचारिभेदेन वर्णाश्चत्वारस्तदाश्रिताः । प्रसादाधाः त्रयस्त्रिंशदलंकाराः, एवमन्येऽपि भवन्ति । न चतेषां मध्यादन्यतमेन हृदयहारिता विवक्षिता, केवलं कारुण्यमेव । विरहिण्याः स्मरशरशताहतहृदयव्रणस्फोटनहेतुरिति हेतुरलंकारः ॥३९४॥
३९५) केशवस्य । [उत्तिष्ठन्महारम्भी स्तनौ दृष्ट्वा मुग्धवध्वाः । अवस्विन्नकपोलया निःश्वसितं प्रथमगृहिण्या ॥] नीससियं पढमधरिणोए निःश्वसितं प्रथमगृहिण्या । किंभूतया । ओसिन्नकवोलाए अवस्विन्नकपोलया । किं कृत्वा । थणए दळूण स्तनौ दृष्ट्वा । कस्याः । मुद्धवहुयाए मुग्धवध्वाः । कीदृशौ स्तनौ दृष्टा । उदंतमहारंभे उत्तिष्ठन्महारम्भौ। उत्तिष्ठन्तौ च तो महारम्भौ च इति कर्मधारयः। अनया किल ईदृशेन स्तनभरगौरवगुणेन सौभाग्यभाजिन्या भवितव्यम् इति भयेन स्वेदोदकाईकपोला प्रथमजाया जातेति । अत्र विषादो व्यभिचारी भावः। . तस्य महारम्भमुग्धवधूपयोधरदर्शनम् लम्बनविभावः । निःश्वसितम् अनुभावः ॥३९५॥
३९६) शिलोन्घ्रस्य । [गुरुक्षुधाकुलितस्यापि वल्लभकरिणोसुखं स्मरतः । सरसो मृणालकवलो गजस्य हस्त एव म्लानः ।।] सरसो १w. ०करिणीमुहं, २w. हत्थ चिअ.
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૭૮
माहापोस
[४.९७
को ये पसे ?
W384 ३९७) पसिय पिए, का कुबिया ? सुयणु तुमं, परजणम्मि को कोवो ? तुमं, कीस ? अउण्णाण मे सत्ती ॥९७॥ W 385 ३९८) एडिसि तुमं ति वैरिस व जग्मिय जामिणीऍ पढमद्धं । से संतापसाऍ कैष्पं व बोलीणं ॥ ९८ ॥
मुणालक्लो यस्स हस्थि चिय मिळाणो सरसो मृणालकवलो गजस्य हस्त एव म्लानः । कथंभूतस्य । गरुबछुड़ाउलियस्स वि गुरुक्षुधा कुलितस्यापि । कथं तर्हि मृणालकवलस्य म्लानता इत्याह । वल्लहकरिणीसुहं भरंतरस वल्लभकरिणीसुखं स्मरतः, तदेकतानमानसस्य करिणः करार्पितमपि काण्डकवलं क्षुधा बाध्यमानस्यापि विस्मृतमित्यर्थः । अन्योक्तिरलंकार-: ।। ३९६॥ ३९७) मत्तगजेन्द्रस्य । [ प्रसीद प्रिये, का कुपिता ? सुतनु त्वं, परजने कः कोपः । कश्च परः ? नाथ त्वम्, कस्मात् ? अपुण्यानां मे शक्तिः ।। ] पसिय पिए प्रसीद प्रिये, का कुविया का कुपिता यां त्वं प्रसादयसि : सुयणु तुमं सुतनु त्वं कुपिता । परजणम्मि को कोवो परजने कः कोपः ? को य पशे कश्च परः ! नाह तुमं नाथ त्वं परः । कीस कस्मात् ? अण्णाण मे सत्ता अपुण्यानां मे शक्तिः । यत् त्वम् आत्मोयोऽपि सन् परः संजातः तदिदं पूर्वोपार्जितानां ममापुण्यानां सामर्थ्यम् इति । व्यङ्ग्या ईर्ष्या व्यभिचारी भावः । वैदर्भीरीतिप्रायेयं गाथा । एतत् प्रश्नोत्तररूपं वाकोवाक्यम् अलंकारविदो वदन्ति ||३९७ ||
३९८) कुविदस्य ( कुविन्दस्य ) । [ एष्यसि त्वमिति वर्षमिव जागरितं यामिन्याः प्रथमार्धम् । शेषं सन्तापपरवशायाः कल्प इवातिक्रान्तम् ॥ ] काचित् प्रियतममुपालभमाना इदमाह । एहिसि तुमं ति वरिसं व जग्गियं नामिणोऍ पढमद्धं एष्यसि त्वमिति वर्षमिव जागरित यामिन्याः प्रथमार्धम् । सेसं संतावपरव्वसाऍ कप्पं व वोलीणं शेषं तु द्वितीयं यामिन्या अर्ध मम कल्पवदतिक्रान्तम् । उत्कण्ठिता नायिका । नैवागतः समुचितेऽपि हि
१w. हु, २w. णिमिस व ३w. वरिसं व.
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पंचमं सय
१७९ W 386 ३९९) अवलंबह मा संकह नेसा गहलंघिया परिन्भमइ।
अत्थक्कगज्जिउब्भंतहित्थहियया पहियजाया । ९९।। w 387 ४००) केसररविच्छड्डे कुसुमरसो होइ जित्तिओ कमले । जइ भमर तित्तिओ अन्नहि पिता सोहसि भमंतो ॥१०॥
पंचमं सयं W388 ४०१) जोयंति अणिमिसच्छा पहिया हलियस्स पिट्ठपंडुरियं ।
ध्यं दुद्धसमुदुच्छलंतलच्छिं पिव घराओ ॥१॥ वासरेऽस्मिन प्राणेश्वरो गुरुककार्यवशेन यस्याः । दुईरदुःखदहनप्रविदोपिताङ्गीम् उत्कण्ठितां वदति तां विरहे विदग्धः ॥३९८॥
३९९) [अवलम्बध्वं मा शङ्कध्वं नैषा ग्रहलङ्घिता परिभ्राम्यति । अनवरतगर्जितोद्धान्तत्रस्तहृदया पथिकजाया ॥ ] अवलंबह मा संकह . अवलम्बध्वं मा शङ्कवं नेसा गहलंधिया परिब्भमइ नैषा ग्रहलचिता परिभ्रमति । का तर्हि इयम् इत्याह । पहियजाया । कोदृशो । अत्थक्कगज्जिउम्भंतहित्थहियया अनवरतगजितोद्धान्तत्रस्तहृदया । वर्षास्वपि न मम प्रियः प्रत्यावृत्त इत्युभ्रान्तचित्तेन नेयमात्मानं परं च वेत्ति इति भावः । अत एवं प्रहगृहीतेति शङ्काकलितचित्ता मा मुधा मुह्यतेति । तत्त्वोपमालंकारः
||३९९|| ४००) दुर्घस्य । [ केसररजःसमूहे कुसुमरसो भवति यावान् कमले। यदि
भ्रमर तावान् अन्यत्रापि ततू शोभसे भ्रमन् ॥] गतार्था गथा । विच्छड्डो समूहः । अन्यापदेशाक्षेपाभ्यां संसृष्टिरलंकारः ॥४०॥ .
इति हालविरचिते गाथाकोशे थीभुवनपालवृत्तौ छेकोक्तिविचारलीलायां चतुर्थमेतच्छतं परिसमाप्तम् । मङ्गलं महाश्रीः ।
श्रीगौतमाय नमः । श्रीमहावीरश्रीवीतरागाय नमः । ४०१) [ पश्यन्ति अनिमिषाक्षः पथिकाः हालिकस्य पिष्टपाण्डुरिताम् । दुहितरं
दुग्धसमुदोग्छलल्लक्ष्मीमिव गृहात् ॥ ] पहिया हलियरुस धूयं जोयंति १wण इमा २w. मअरंदी; ३w. पेच्छति, ४w. सअण्हा.
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१८०
गाहाकोसो
[५.२
W 389 ४०२) कस्स भरसित्ति भणिए को मे अस्थि त्ति जंपमाणीए । तु विरह रुयंतीए अम्हे वि रुयाविया तीए ॥ २ ॥ W 390 ४०३) पायवडियं अहन्ने किं दाणि न उट्टबेसि भत्तारं । एवं चिय अवसाणं दूरं पि गयस्स पिम्मस्स || ३ || पथिका हालिकस्य दुहितरं पश्यन्ति । कस्मात् | घराओ गृहात्, निर्यान्तोमिति अध्याहार्यम् । कथंभूताः । अणिमिसच्छा अनिमिषाक्षाः । कथंभूताम् । पिटुपंडुरियं पिष्टपाण्डुरिताम् । कामिव । दुद्धसमुद्दुच्छलंत लच्छिं पिव दुग्धसमुद्राद् उच्छललक्ष्मीमिव । पिष्टरजोरुषितत्वाद् दुग्धान्धिसमुत्थितया लक्ष्म्या सह सादृश्यं सरिकसुतायाः । लक्ष्मीपक्षे अनिमिषाक्षा देवाः । जोयंति अणिमिसच्छा धूयं इलियस्स पिट्ठपंडुरियं । दुध्दोवहीहि एहि य नितिं लच्छि पिव घराओ || इति पाठः । उपमापर्यायोक्तभ्यां संसृष्टिरलंकारः । विस्मयोऽत्र स्थायीं भावः । स्याद् विस्मयोऽत्र नो समानुषं (?) मायेन्द्रजालकुह काद्यैः । निरतिशयशिल्पचित्रादिकर्मनिर्माण निर्वर्यः ॥ तस्य च वस्तूत्क्षेपैरनिमिषप्रेक्षणैः सरोमाञ्चैः । कार्योऽभिनयो लोचनविस्तारैः साधुवादैश्च ॥ अस्यानुपमरूपमालम्वनविभावः । अनिमिषेक्षणम् अनुभावः ॥ ४०१ ॥
४०२ ) [ कस्य स्मरसीति भणिते को मेऽस्तीति जल्पन्त्या । तव विरहे रुदत्या वयमपि रोदितास्तया ।। ] काचित् कस्याश्चित् पत्युः पुरतः सनिर्वेदमिदमाह । तव विरहे रुदत्या तथा वयमपि रोदिताः । किंभूतया तया । को में अस्थि त्ति जपमाणीए को मेऽस्तीति जल्पन्त्या । क्व सति । कस्स भरसित्ति भणिए कस्य स्मरसीति भणिते । सकरुणं वयं रोदिताः । तद् गत्वाऽसौ त्वया समाश्वास्यतामिति भावः । पर्यायोक्तिरलंकारः ॥ ४०२ ॥
४० ३) विरहानलस्य । [ पादपतितम् अधन्ये किमिदानीं नोत्थापयसि भर्तारम् । एवमेवावसानं दूरमपि गतस्य प्रेम्णः ।। ] हे अहन्ने अभव्ये किं दाणि न उट्ठवेसि भत्तारं किमदानीं नोत्थापयसि भर्तारम् । किंभू१ w उब्बिग्रारोरीए २ w अहव्वे; ३. w एअं.
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पंचमं सयं
१८१ W 750 ४०४) सद्धा मे तुज्क्ष पियत्तणस्स अहयं तु तं न याणामि ।
दे पसिय तुमं चिय सिक्खवेसु जह ते पिया होमि ॥४॥ W 43 ४०५) पायबडिओ न गणिभो पिथं भणंतो वि 'विप्पियं भणिो ।
वच्चंतो नै निरुद्धो भण कस्स कए को माणो ॥५॥ तम् । पायवडियं पादपतितम् । यतः एवं चिय अवसाणं दूरं पि गयस्स पिम्मस्स एतदेवावसानं दूरमपि गतस्य प्रेम्णः । प्रणामान्तो मान इत्यर्थः । कलहान्तरिता नायिका । चाटुकारमपि जीवितनाथं कोपनस्य (१ पादलग्नम् !) अवधोर्य पुनर्या । तप्यते अनुशयस्स वितानैरुच्यते तु कवहान्तरिता सा ॥ ४०३ ॥
४०४) ताराभट्टस्य । [श्रद्धा मे तव प्रियत्वस्य, अहं तु तन्न जानामि । प्रार्थये प्रसोद, त्वमेव शिक्षय यथा ते प्रिया भवामि ॥] काचिद् हृदयानुवर्तनेनापि अननुवर्तमानं प्रियं सखेदमिदमाह । सद्धा मे तुज्क्ष पियत्तणस्त श्रद्धा मे तव प्रियत्वस्य, कथं नाम तव प्रिया भवामीति । अहयं तु तं न याणामि अहं तु तन्न जानामि । दे पसिय तुम चिय सिक्खवेसु प्रार्थये प्रसीद त्वमेय शिक्षय जह ते पिया होमि यथा तव प्रिया भवामि । दे इति प्रार्थनायां निपातः ॥ १०४॥ .
४०५) देंभिलस्य (? दम्भिलस्य ?) [पादपतितो न गणित: प्रियं भणन्नपि विप्रियं भणितः । व्रजन्नपि न निरुद्धः भण कस्य कृते कृतो मानः ॥ ] पायवडिओ न गणिो पादपतितो न गणितो नादृतः । प्रियं भणतो वि विप्पियं भणिओ प्रियं भणन्नपि विप्रियं भणितः परुषाक्षरं गिरा निराकृतः । वच्चंतो न निरुद्धो व्रजन्न निरुद्धो न सिचयाञ्चले धृतः । एवं च कुप्यन्त्या त्वया भण कस्स कए को माणो भण कस्य कृते कृतो मानः, इति सखीशिक्षोक्तिः । कलहान्तरिता नायिका ॥ १०५ ॥ १w अप्पिअं, २w. वि ण रुद्धो.
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१८२
गाहाको सो
[५.६
W391 ४०६) तडविणिहियग्गहत्था वारितरंगेसु दोलिरणियंबा | सालरी पडिबिंबे पुरिसायंति व्व पडिहार ॥ ६ ॥ W 392 ४०७) सिक्करियमणियदेरवेवियाइँ घुयहत्थसिज्जियाई । सिक्खंतु वोहीओ कुसुंभिं तुम्हं पसारण ॥ ७॥
W 393 ४०८ ) जित्तियमित्ता रच्छा नियंब कह तित्तिओन जाओ सि । जहाँ छिप्पर गुरु णलज्जिमोसरंतो विसो सुहओ ॥८॥
४०६ ) पालित्तकस्य । [ तटविनिहितामहस्ता वारितरङ्गेषु दोलनशोलनितम्बा । मण्डूकी प्रतिबिम्बे पुरुषायमाणेव प्रतिभाति ।। ] मण्डू - कौं पुरुषायमाणेव प्रतिभाति । क्व । पडिबिंबे निजप्रतिबिम्बे । कीदृशी । तडविणिहियग्गहत्था तटविनिहिताग्रहस्ता । भूयश्च कोदृशी । दोलिरनियंबा दोलनशीलनितम्बा । क्व । वारितरंगेसु वास्तिरङ्गेषु । अत्र लोलकल्लोलान्दोलनक्रमावाञ्चितोदञ्चित नितम्बता भेकमार्यायाः पुरुषायितस्योत्प्रेक्षाबीजम् । सारी मण्डूकी । उत्प्रेक्षालंकारः || ४०६ ।।
४०७) हालस्य । [सीत्कृतमणितेपद द्वे पितानि स्वेदितव्यहस्तधूतानि । शिक्षन्तां तरुण्यः कुसुम्भ तव प्रसादेन ॥ ] सिक्खंतु वोद्दही भो कुसुंभि तुम्हं पसाएग शिक्षन्तां कुमार्यः कुसुम्मि युष्माकं प्रसादेन । किं तदित्याह । सिक्करियमणियदरवेवियाइँ सोत्कृतमणितदरवेपनानि, धुयहत्थसिज्जिय वाई पूर्वनिपातानियमात् स्वेदितव्यानि हस्तधूतानि । ताः किल कुसुम्भश्चयने कण्टककोटिक्षत करतला: सोत्कृतादिकं सर्वं कुर्वन्तीति भावः । अतः एवमुच्यते । वोद्दहीओ प्रथमवयसा नायिकाः ॥ ४०७ ॥ ४०८ ) [ यावन्मात्रा रथ्या नितम्ब कथं तावान्न जातोऽसि । यथा स्पृश्यते गुरुजनलज्जितापसरन्नीिस सुभगः ||] गतार्था गाथा | स्त्रीणां पूर्वापरी कटोमागौ जघननितम्बाख्यो || ४०८ | !
१ w घोलिर; २ w मुह; ३w सिजिअव्वाइ; ४w कुसुंभ, ५w. जेण छिविज्जइ; ६w. गुरुअणलज्जो सरिओ.
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-५.११] पंचमं सय
१४६ W394 ४०९) मरगयसई विद्धं व मुत्तियं पियइ आययग्गीवो ।
. मोरो पाउसयाले तणग्गलग्गं उययबिंदुं ॥९॥ W397 ४१०) धन्ना ता महिलाओ जो भी पियं सिविणए वि पिच्छति।
___निद च्चिय तेण विण। न एइ को पिच्छए सिविणं ॥१०॥ W399 ४११) मज्झन्हपस्थियस्स वि गिम्हे पहियस्स हरइ संतावं ।
हिययटियजायामुहमियंकजुन्हाजलप्पवहो ॥११॥ ४०९) पालित्तकस्य । [मरकतसू चोविद्धमिव मौक्तिकं पिनत्यायतग्रीवः । मयूरः प्रावृट्काले तृणाग्रजमम् उदकबिन्दुम् ॥] मोरो तणग्गलग्गं उययबिंदु पियइ मयूरस्तृणाग्रलग्नम् उदकबिन्दुं पिवति । कीदृशः । आययग्गीवो आयत ग्रोवः । कदा । पाउसयाले प्रावृहकाले । किमिव । मरगयसूई विद्धं व मुत्तियं मरकतसूचीविद्धम् इव मोक्तिमम् । मयूरमयूखयोर्वा (वररुचि,१,८) इति मोरशब्दस्य सिद्धिः । उपमालंकारः ॥४०९॥
४१०) वयस्यस्य । [धन्यास्ता महिला याः प्रियं स्वप्नेऽपि प्रेक्षन्ते । निद्रैव तेन विना नैति कः प्रेक्षते स्वप्नम् ॥17 धन्ना ता महिलाओ धन्यास्ता महिलाः जाओ पियं सिविणए वि पिच्छंति याः प्रियं स्वप्नेऽपि पश्यन्ति । निद च्चिय तेण विणा न एइ निद्वैव तेन विना नैति को पिच्छए सिविणं कः प्रेक्षते स्वमम् । अस्माकमधन्यानां स्वप्नेऽपि प्रियो दुर्दशों जायत इत्यर्थः । सिविणं इति ईषत्रपक्वस्वप्नवेतसव्यजनमृदङ्गाङ्गारेषु (वररुचि,१,३) इत्यत इत्वे सति रूपम् ॥४१०॥
४११) मलयशेखरस्य । [मध्याह्नपस्थितस्यापि ग्रीष्मे पथिकस्य हरति संतापम् । हृदयस्थितजायामुखमृगाङ्कज्योत्स्नाजलप्रवाहः । ] पहियस्स हरह संतावं पथिकस्य हरति संतापम् । किंभूतस्य । मञ्झन्हपस्थियस्स वि मध्याह्नपस्थितस्यापि । कदा । गिम्हे ग्रीष्मे । कोऽसावित्याह। हियद्विय बायामुहमियंकजुन्हा जलप्पवहो हृदयस्थित जायामुखमुगाङ्कग्यो-' स्नाजलप्रवाहः । स हि स्वकान्तामुखमृगाङ्कस्मरणमुखामृतमग्नो न धोर- . १w. ा दइअं.
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१८४
गाहाकोसो
[५ १२W400 ४१२) भण को न रूसइ च्चिय पत्थिज्जतो अएसयालम्मि ।
रइकावडा रुयंतं पियं पि पुत्तं सवइ माया ॥१२॥ W401 ४१३) मुप्पउ तइओ वि गो जामु नि सहीउ कीस में भणह।
- सेहालियाण गंधो न देइ मुत्तुं सुयह तुम्हे ॥१३॥ W396 ४१४) रायविरुद्धं व कहं पहिओ पहियस्स साहइ ससंको।
जत्तो अंबाण फैलं तत्तो दरणिग्गयं किं पि ॥१४॥ मपि धर्मक्लमं गणयतीत्यर्थः । पवहो इति प्रवाहः, यथादिपाठात् (वररुचि १,१०) ह्रस्वत्वम् । हेतुरलंकारः ॥४११।।
___४१२) मङ्गलकलशस्य । [भण को न रुष्यत्येव प्रार्थ्यमानोऽदेशकाले । रतिव्यापृता रुदन्तं प्रियमपि पुत्रं शपति माता ।।] भण को न रुष्यत्येव । किं क्रियमाणः । पत्थिज्जता अभ्यर्थ्यमानः । किं सर्वदा । नेत्याह । अएसयालम्मि अदेशकाले. अदेशे अकाले च । अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह । रइवावडा रुयंत पियं पि पुत्तं सवइ माया रतिव्यापृता रुदन्तं प्रियमपि पुत्रं शपति माता । सर्वमेव देशकाले सुखावह मित्यर्थः । अर्थान्तस्यासोऽलंकारः ॥४१२॥
४१३) महोदधेः । [सुप्यतां तृतीयोऽपि गतो याम इति सख्यः कस्मान्मां भणथ । शेफालिकानां गन्धो न ददाति स्वप्तुं, स्वपित यूयम् ॥] हे सहीउ सख्यः सुप्पउ तइओ वि गओ जामु त्ति सुप्यतां तृतीयोऽपि गतो यामः प्रहर इति कीस मं भणह कस्मान्मा भणथ । यत. सेहालियाण गंधो न देइ सुत्तुं शेफालिकानां गन्धो न ददाति स्वस्तुं, सुयह तुम्हे स्वपित यूयम् । अनेन शेफालिकापरिमलेन उद्दीपनविभावेन अधिकं मम मनसिजो विजृम्भित इति भावः । हेतुरलंकारः ॥४१३॥ - ४१४) नोलस्य । [राजविरुद्धामिव कथां पथिकः पथिकस्य कथयति सशङ्कः । यत आम्राणां फलं तत ईषन्निर्गत किमपि ॥] पहिलो पहियस्स . १w.जणो, २w. स्वंतं. ३w. संक; ४w. दलं.
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- ५.१७]
पंचमं सयं
१८५
W413 ४१५) कह सो न संभरिज्जइ जो मे तह संठियाइँ अंगाईं । निव्वत्तिए वि सुरए निज्झायइ सुरयर सिउ व्व ॥ १५॥ W414 ४१६) वायंत बहलकदमघम्मविवरंतकमढपाढीणं । दि अदिब्वं कालेण तलं तलायस्स ॥१६॥ W415 ४१७) चोरियरयसद्धाउइणि पुत्ति मा भमसु अद्धरत्तम्मि । अहिययरं लक्खिज्जसि तमभरिए दीवयसिह व्व ॥ १७॥
साहइ पथिकः पथिकस्य कथयति । किं कथयतीत्याह । जत्तो अंबाण 'फलं यत आम्राणां फलं निर्याति तत्तो दरणिग्गयं किंपि ततः प्रदेशाद् ईषन्निर्गतं किमपि । इति संवृतिमुद्रया माकन्दमञ्जर्युद्गमं कथयति । कीदृशः । ससंको सशङ्कः । कामिव कथयतीत्याह । शयविरुद्धं व कह राजविरुद्धाभिव कथाम् । यथा कश्चिद् गजविरुद्धां कथां सशङ्कं पथिकः पथिकाय कथयति तथा चूतमञ्जरीमित्यर्थः । उपमालंकारः ।।४१४ ॥
४१५) श्रीदत्तस्य । [ कथं स न संस्मर्यते यो मे तथा संस्थतान्यङ्गानि । निर्वर्तितेऽपि सुरते निर्ध्यायति सुरतरसिक इव || ] गतार्था गाथा । संभरिज्जइ संस्मर्यते । निज्झायइ पश्यति । अनुरागसूचनम् ॥ ४१५ ॥
४१६) तस्यैव ( श्रीदत्तस्य ) । [ शुष्यद्वहलकर्दमधर्मविद्यमानकमठपाठीनम् । दृष्टमदृष्टपूर्व कालेन तलं तडागस्य ||] दिट्टं अदिवं काळेण तलं तलायस्स दृष्टम् अदृष्टपूर्व कालेन कालवशेन तलं तडा - गस्य । कीदृशं तत् । वायं नचहलकदमघम्मविरंतकमढपाढोणं शुष्यद्वहलकर्दमं धर्मविद्यमान कमठपाठीनम् इति कर्मधारयः । यः किल समस्त संपत्संपन्नः कालेन विभवभ्रंशाद् विसंष्ठु विलपन्धुवर्गों भवति सोऽनया भङ्गयाभिधीयत इत्यन्यापदेशोऽलंकारः । वार्यतं शुष्यत् । कमठाः कच्छपाः । पाठीना मीनविशेषाः ॥ ४१६॥
४१७) स्वभावस्य । [ चौर्यरतश्रद्धालुके पुत्रि मा भ्रमरा । अधिकतरं लक्ष्यसे तमोभृते दीपक शिखेव || ] काचित् स्वदेहकान्तिद्यो१w. सुक्खंत २w. अइट्ठउब्वं. ३w. सद्धालुणि; ४w मा पुत्ति भम्मसु अंधआरम्मि.
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१८६ गाहामो
[५.१८W416 ४१८) वाहिता पडिवयणं न देइ रूसेइ इक्कमिकस्स ।
अज्झा कज्जेण विणा पलिप्पमाणे नईकच्छे ॥१८॥ W417 ४१९) आम असइ म्ह उवरम, पइन्धयाणं पि मइलियं गुत्तं ।
किं पुण जणस्स जाय व्व चंडिलं ता न कामेमो ॥१९॥ तितदिड्मुखी निशाभिमारिका कयाचिद् एवमुच्यते । हे पुत्ति पुत्रि चोरियरयसद्धालुइणि चौर्यरतश्रद्धालुके, मा भमसु अद्धरत्तम्मि मा भ्रमार्धरात्रे । कीदृशे । तमभरिए तमोभृते । यतो हि अहिययरं लक्खिज्जसि अधिकतरं लक्ष्यसे । केव । दीवयसिह व्व दीपकशिखे । कायकान्तिव्यावर्णनपरेयमुक्तिः । आक्षेपपर्यायोक्तिभ्यां संसृष्टिरलंकारः ।।४१७॥
४१८) ब्रह्मदत्तस्य । [ व्याहृता प्रतिवचनं न ददाति रुष्यत्येकैकस्य । तरुणी कार्येण विना प्रदीप्यमाने नदीकच्छे ॥] अज्झा तरुणी वाहिता पडिवयणं न देह व्याहृना नोत्तरं प्रतिसंधत्ते । रूसेइ इक्कमिकस्त रुष्यति ऐकैकस्य । कदाचित् कोपकारण स्याद् इत्याह । कम्जेग विणा परपरिभवादिना कार्येण विना । पालप्पमाणे नईकच्छे प्रदीप्यमाने नदीकच्छे । अत्र कार्य संबद्ध कारणविरहाद् असंबद्धमपि कारणं कल्पयति । तदत्र स्वसंकेतभवनभङ्गो वृथाकोपकारणं कुलटायाः, तस्य च ज्ञापको नदीतटदावपावकः पलिप्पमाणे नईकच्छे इति वचनादवसीयत इति । भावोऽलंकारः । अज्झा प्रौढयुवतिः । अत्र क्रोधो व्यभिचारी भावः । तस्य नदोकच्छात् निराअम्बनभावेन व्याहारोऽनुभावः । परस्त्री इयम् ॥४१८॥ . ४१९) रोलदेवस्य । [सत्यमसत्यो वयम्, उपरम, पतिव्रतानामपि मलिनितं गोत्रम् । किं पुनर्जनस्य जायेव नापित तावन्न कामयामहे ॥] काचिद् अभिसरन्ती असतो स्वदोषेण परिहियमाणा कंचित् प्रत्याह । आम असइ म्ह उवरम । आम इति संप्रतिपत्तो । सत्यं स्वैरिण्यो वयम् । तस्मादुपरम, अस्माभिः समं संगमो न कार्यः । किं च पइ१w. असई; २w. ओसर पइन्धए ण तुह मइलिअं गोतं.
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-५.२१]
पंचमं सयं
१८७
W419 ४२०) बालय तुमाइ दिन्नं करणे काऊण बोरसंघाडि ।
लज्जालुणी वैहुया घरं गया गामरच्छाओ ||२०|| W420 ४२१) अह सो विलक्खहियओ मए अहव्वाऍ अगहियाणुणओ । परवज्जणच्चिरीहिं तुम्हेहि उविक्खिओ जैतो ॥२१॥
व्त्रयणं पि महलियं गुत्तं पतिव्रतानामपि मलिनितं गोत्रम् । याऽपि त्वया सतीत्वेन स्वभार्या प्रतिष्ठापिता साध्यसतोत्यर्थः । पुनरक्षममाणा आह । किं पुण जणस्स जाय व्त्र चंडेलं ता न कामेमा किं पुनर्जननायेव नापितं तावन्न कामयामहे । त्वद्भार्या साऽपि तेन नापितेन सह तिष्ठतीत्यर्थः । जाया भार्या । चंडिलो नापितः ॥ ४१९ ||
४२०) देवदेवस्य । [ बालक त्वया दत्तां कर्णे कृत्वा बदरसंघाटिकाम् । लज्जावती वधूगृहं गता ग्रामरथ्याया: ।। ] हे बालय बालक, गामरच्छाओ वहुया घरं गया ग्रामरथ्याया वधूर्गृहं गता । किं कृत्वा । तुमा - इ दिनं बोरसंघाडि कण्णे काऊण त्वया दत्तां बदरसंघाटिकां कर्णे कृत्वा । कोदृशी । लज्जालुइणी लज्जावती । अत एव गृहं गता । सा हि त्वया दत्तेति तां न परिहर्तुं पारयति, नापि लोकलज्जया तत्रैव स्थातुं शक्नोति । अत्र व्रोडा व्यभिचारी भावः । प्रथमानुरागे गाथेयम् । उदरबदर्याद् बदरास्वामिति (?) | बोरं बदरम् । बोरसंघाडी एकनाललग्नं बंदरद्वयम् ।
॥४२०॥
४२१) भुजङ्गस्य । [ अथ स विलक्षहृदयो मयाऽभव्ययाऽगृहीतानुनयः । परावद्यनर्तनशीलाभिर्युष्माभिरुपेक्षितो निर्यन् ॥] काचित् कलहान्तरिता पादपतितमपि प्रियतममवधीर्य पश्चात्तापदहनदह्यमानमानसा सखी :: खेदमिदमाह । अह सो अथासौ मद्भर्ता तुम्हेहि ँ युष्माभिरपि जंतो निर्यन् गृहाद् गच्छन् उबिक्विओ उपेक्षितः । किंभूतः । मए बहव्वाऍ अर्गाहियाणुणओ मया अभव्यया अगृहीतानुनयः । अत एव विलक्वहि-ओ विलक्षहृदयः । कीदृशीभिर्भवतीभिः । परवज्जणविरीहिं परस्य अवयेन हर्षेण नर्तनशीलाभिः । इदं परितपनं नाम चेष्टालंकारः
तस्य लक्ष
१w. विवहू; २w. गामरच्छाए; ३w. णितो.
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१८८ गाहाकोसो
[५.२२W421 ४२२) 'दीसंत नयणसुहओ निव्वुइजणणो करेहि वि छिवंतो।
अब्भत्थिओ न लब्भइ चंदु व्व पिओ कलाणिलओ ॥२२॥ W724 ४२३) तुह दुइकहायण्णणपडिरोहं मा करेहिइ इमं ति ।
उच्छप्पेइ व तुरियं तिस्सा कण्णुप्पलं पुलओ ॥२३॥ णम्-बाष्पाकुलनयनयुगं मडमडितनितम्बलग्न करशाखम् । मातर्भवतु सकामा (?) पुनःपुनःखेदितसखोकम् ।। आत्माऽऽक्रोशपरायणमाविष्कृतरोषमत्सरोत्कर्षम् । खेदाद् दयितालाभे परितपनमिहोदितं तज्ज्ञैः ॥४२१॥
४२२) [दृश्यमानो नयनसुभगो निवृतिजननः कराभ्यां (करैः) अपि स्पृशन् । अभ्यर्थितो (अभ्रस्थितो) न लभ्यते चन्द्र इव प्रियः कलानिलयः ॥] अब्भत्थिो न लब्भइ पिभो अभ्यर्थितो न लभ्यते प्रियः । कीदृशः । दीसंत नयणमुहमओ दृश्यमानो नयनसुभगः । निव्वुइजणणो करेहि वि छिवंतो निर्वृतिजननः कराभ्यामपि स्पृशन् । कलाणिलो कलानां गीतवादितादीनाम् आलिङ्गनादीनां (कामकलानां) निलयः स्थानम् । क इव न लभ्यत इत्याह । चंदु । चन्द्र इव । सोऽपि भन्भस्थिओ अभ्रस्थितो भवति, दृश्यमानो नयनसुखदः, निर्वृतिजननः करैः किरणैरपि स्पृशन् , कलानिलयश्च भवति । यथा चन्द्रो न लभ्यते तथ प्रियोऽपति । प्रलेषोऽलंकारः ।।४२२॥
४२३) प्रवरराजस्य । [तक दूतीकथाऽऽकर्णनप्रतिरोध मा करिध्यतीदमिति । उत्क्षिपतीव त्वरितं तस्याः कर्णोत्पलं पुलकः ॥] काचित् कस्यचिन्नायकस्य संदेशाकर्णनकुतूहलिनीत्वं स्वसख्याः प्रज्ञापयितुम् इदमाह । त्वदीयदूत्या या कथा, तस्या आकर्णनप्रतिरोधं मा करिष्यतीदमिति उत्क्षिपतीव तूर्ण तस्याः कर्णोत्पलं पुलकः । तत्कथाऽऽकर्णनकुतूहलत्वरित, श्रोत्रस्य देशं प्राप्तं सहृदयं कर्णोत्पलम् उत्क्षिपतीव (पुलकः) इति उत्प्रेक्ष्यते । उच्छष्पेइ उत्क्षिपति । उत्प्रेक्षाऽलंकारः ॥४२३॥ १w. दीसंतो णअणसुहो; २w. णिव्वुइजणओ; ३w. दूईकज्जाअण्णण; ४w. उत्थंघेई.
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- ५.२६ ]
पंचमं सयं
१८९..
W423 ४२४) खणभंगुरेण पिम्मेण माउया दुमिय हे इत्ताहे । सिविण पणिहिलंभेण व दिपणद्वेण लोयम्मि ||२४|| W424 ४२५) चा जैइ वि विशुद्धं विच्छुहइ सैरो गुणम्मि वि घडतं । कस्स उज्जुस्स य संबंधी किं चिरं होई ||२५|| W425 ४२६) पढमं वामणविहिणा पच्छा हु कओ वियंभमाणेण । यैणजुयलेणं मज्झस्स महुमहेणेव वलिबंधी || २६ ॥
४२४) माधवस्य । [ क्षणभङ्गुरेण प्रेम्णा मातर्द्वनाः स्म इदानोम् । स्वप्ननिधिलाभेनेव दृष्टप्रणष्टेन लोके ॥ ] हे माउया मातः, इमिणा पिम्मेण दूामय म्ह अनेन प्रेम्णा दूनाः पीडिताः स्मः । कीदृशेन । स्वणभंगुरेण क्षणभङ्गुरेण । कीदृशेन केनेव । दिट्ठपणद्वेण सिवि णयणिहिलंभेण व दृष्टप्रणष्टेनेव स्वमनिधिलाभेन । क । लोयम्मि लोके । यथा क्षणदृष्टनष्टेन स्वप्ननिधिलाभेन जना दूयते तथा क्षणक्षयिणा प्रेम्णा वयम् इत्यस्थायित्वं प्रेम्णः प्रतिपादितं भवति । उपमालंकारः ॥ ४२४ ॥ ४२५) परवलस्य (?) । [चापं यद्यपि विशुद्धं व्यजति शरो गुणेऽप घटमानम् । वक्रस्य ऋजुकस्य च संबन्धः किं चिरं भवति । ॥] चावं जइ विविसुद्धं चापं यद्यपि विशुद्धं विच्छुहइ सरो तथाऽपि त्यजति शरः । कदाचिन्निर्गुणं तद्भवेदित्याह । गुणम्मि वि घडतं गुणेऽपि घटमानम् । अमुभेवार्थ समर्थयन्नाह । अथवा वकस्स उज्जुयरस य संबंधी किं चिरं होइ वक्रस्य ऋजु कस्य च संबन्धः किं चिरं भवति । कियन्तमेव कालं : भवतोत्यर्थः । अर्थान्तरन्या सोडलंकारः ||४२५॥
४२६) काञ्चनतुरङ्गस्य । [ प्रथमं वामनविधिना पश्चात् खलु कृतो विजृम्भमाणेन । स्तनयुगलेन मध्यस्य मधुमथेनेव वलिबन्धः ॥ |] थणजुयलेणं मज्झस्स वलिबंधो कओ स्तनयुगलेन मध्यस्य वलिबन्धः कृतः । किंभूतेन । पढमं वामणविहिणा प्रथमं वामनविधिना, पच्छा हु वियंभमाणेण पश्चात् खलु उन्नतिं व्रजता । केनेव । महुमहेणेव मधुमथेनेव पूर्व १w. हि .. २w. चाओ; ३w. सहावसरलं; ४w. सरं; ५w. णिवडतं; ६w. थणजुअलेण इमीए महुमहणेण व.
९
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१९०
गाहाकोसो
W427 ४२७) तुंगाण विसेसणिरंतराण सरसवणबद्धसोहाणं ।
कयक जाण भडाण व थणाण पडणं पि रमणिज्जं ||२७|| W428 ४२८) परिमेलियसुहा गरुया अलद्धविवरा सलक्खणाहरणा । थणया कव्वाला व्व कस्स हियए न लग्गति ॥ २८ ॥ वामनवेषेण तदनु च विजृम्भमाणेन विश्वं व्याप्नुवता बलिबन्धः कृतः, तथाऽनेन (स्तनयुगलेन) इत्यर्थः । एकत्र वलिशब्द उदरलेखावाची, अन्यत्र वैरोचनवचनः । श्लेषोपमाऽलंकारः ||४२६॥
४२७) स्फुटिकस्य । [तुङ्गानां विशेषनिरन्तराणां सरसव्रणबद्ध - शोभानाम् । कृतकार्याणां भटानामिव स्तनानां पतनमपि रमणीयम् ||] स्तनानां पतनमपि रमणीयम् । केषामिव । भडाणं व भटानामिव । स्तनानां तावत् किंभूतानाम् । तुंगाण तुङ्गानाम् उन्नतानाम् । विसेसनिरंतरण विशेषेण निरन्तराणाम् । सरसवणबद्धसोहाणं सरसव्रणैर्नस्वदशनपदैः बद्धा शोभा यैः तेषां तथोक्तानाम् । कयकज्जाण कृतं कार्यं
"
युवजनावर्जनलक्षणं यैः तेषां कृतकार्याणाम् । भटानां च कीदृशानाम् । तुङ्गानां महाशयानाम् । विशेषेण निरन्तरा निर्भेदा ये तेषाम् । सरसव्रणैर्निशितशरशक्तिप्रासपट्टिशानां प्रहारैर्बद्धा शोभा येषां तेषाम् । कृतकार्याणां संपादितस्वस्वामिप्रयोजनानाम् । पतनमपि रमणीयमित्यर्थः । श्लेषोपमालंकारः ॥४२७॥
[५.२७
४२८) तस्यैव (स्फुटिकस्य ) | [ परिमृदितसुखा गुरवो अलब्धविवराः स्व ( स ) लक्षणाभरणाः । स्तनाः काव्यालापा इव कस्य हृदये न लगन्ति ।। ] स्तनाः कस्य हृदये न लगन्ति चित्तं नारोहन्ति । के इव कव्वालाय व्व काव्यालापा इव । स्तनास्तावत् कीदृशाः । परिमलियसुहा परिमर्दितसुखाः परिमर्दनेन सुखदायिन इत्यर्थः । सलक्खणाहरणा स्वकीयं यत् लक्षणं सामुद्रिकोक्तं तदेवाभरणं येषां ते तथोक्ताः । काव्यालापा अपि परिमलितशुभाः (परिभृदितशुभाः) क्षोदक्षमाः, गुरवों गुणान्विताः, १w. परिमलणसुहा.
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पंचर्न संयं W566 ४२९) मंचं अन्यायंसय पंर्यकालंबाण, महभरियच्छ ।
आसस पहियजुवाणय मा परिणिमुहं न पिच्छिहिसि ॥२९॥ W567 ४३०) गञ्ज महं चिय अवरिं सवत्थामेण लोहहिययस्स ।
'जलहर लंबालइयं मा रे मारेडिसि वराई ॥३०॥ - मलब्धक्विसः मलब्धच्छिाः , सलक्षणाभरणाः सालंकाराः । कस्य हृदये न लमन्ति, सर्वेषामेवेत्यर्थः । षोपमालंकारः ॥४२८॥
१२९) विषप्रन्येः । गन्धं जिघ्रन् पथिकदम्बानां, बाष्पभृताक्ष । आश्वसिहि पथिकयुवन् मा गृहिणीमुखं न प्रेक्षिष्यसे ॥] हे पहियजुवाणय पथिकयुवन् । पंथकलंशण गंध अग्धायंतय पान्थ (? पथि-) कदम्बानां गन्धं जिघन् । बाहभरियच्छ बाष्पभृताक्ष । आसस आश्वसिहि । मा परिणिमुहं न पिच्छिहिसि मा गृहिणीमुखं न प्रेक्षसे (: प्रेक्षिष्यसे) । तत् समाश्वसिहि । एष परापतित एव वर्षासमयः, मुधा मा मुह्येत्यर्थः ॥४२९।।
४३०) प्रवरस्य । [गर्ज ममैवोपरि सर्वस्थाम्ना लोभ (लोह) हृदयस्थ । जलधर लम्बालकां मा रे मारयिष्यसि वराकीम् ॥] कश्चिद् वर्षास्वप्यप्रत्य वृत्तो धनरक्श्रवणानिजमाया अनिष्टं शङ्कमान इदमाह । है जलहर जलधर, गज महं चिय अवरि गर्ज ममैवोपरि । कथम् । सम्वस्थामेण सर्व बलेन । कथंभूतस्य मम । लोह हिययस्स लोभहृदयस्य । यो हि बालां विसृज्य धनलाभलालसो देशान्तरम् अवतीर्णः, तस्यैव अन्यायपरस्योपरि सर्बात्मना मर्जे इति आत्माकोशेन ( ? आत्माकोशनम् । लोहहिययस्स लोहरदयस्य इत्यपि लेषच्छाययाऽभिहितं भवति । यः किल लोहहृदयः सोऽभ्रगर्जिताऽऽडम्बरं सोढुं शक्नोतीति तन्ममैवोपरि गर्न । मा रे मारेहिसि वराई तां बराकी मा रे मारयिष्यसि । कीदृशीम् । लंबालइयं लम्बालकाम् । मा तस्याः शिरीषकुसुमसुकुमारमूर्तरुपरि गर्जेत्यर्थः । धामो बलम् । त्यक्तामुलीयवलयां लम्बालकणिकासमायुक्ताम् । अतिमहिनाम्बरमा प्रोषितपतिकां निबध्नीयात् ॥४३० ।। १w. पिक्ककलंबाण; २w. आमा ३w. उपरि.
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१९२ गाहाकोसो,
-५:३१] w568 ४३१) पंकमइलेण छीरिक्कघाइणा दिन्नेउन्नयवएण ।,
आणंदिज्जई हलिओ पुत्तेण व सालिछित्तेण ॥३१॥ w569 ४३२) कह मे परिणइयाले खलसंगो होहिइ ति चिंतंतो ।
ओंणयमुहो ससूओ रुयइ व साली तुसारहिं ॥३२॥ .४३१) कलशचिह्नस्य । [ पङ्कमलिनेन क्षारैकधायिना दत्तोन्नत-- पयसा ( पदेन ) । आनन्द्यते हालिकः पुत्रेणेव शालिक्षेत्रेण ॥ ] हलिओ आणांदज्जइ सालिछित्तेण शालिक्षेत्रेण हालिक आनन्द्यते । पुत्तेण व पुत्रेणेव । कीदृशेन क्षेत्रेण । पंकमइलेण पङ्कमलिनेन छोरिक्कघाइणा क्षोरैकधायिना क्षीरमेकं धातीति (? धयतीति ) एवंशालेन । दिन्नउन्नयवएण दत्तम् उन्नतं पयो यस्मिन् । शालिक्षेत्रे हि प्रचुरं पयः प्रवेश्यते । पुत्रेण च कीदृशेन । पङ्कमलिनेन क्षीरैकधायिना क्षीरमेकं घयतीत्येवंशोलेन। दत्तोन्नतपदेन । पुत्रवान् हि उन्नतं पदं प्राप्नोति । अन्ये तु दिन्नजन्नुयवएण इति पठन्ति, व्याचक्षते च दत्तं कृतं जन्नुयवयं पतितमिव प्रत्युत्थापनं (१) यस्य तत् तथोक्तम् । अथवा दत्तं. जानुप्रमाणं पयो यस्मिन् इति योज्यम् । तेन शालिक्षेत्रेण । दत्तजानुभ्यां किल शिशुमा॑म्यतीति । एवं च पुत्रशालिक्षेत्रयोः साधर्म्यम् । उपमालंकारः॥४३१॥
४३२) बहुगुणस्य । [ कथं मे परिणतिकाले खलसङ्गो भविष्यतीति चिन्तयन् । अवनतमुखः सशूकः ( सशोकः ) रोदितीव शालिस्तुषारैः॥ ] रोदितीव शालिः । कैः । तुसारेहिं तुषारैः अवश्यायसलिलैः । किंभूतः । ओणयमुहो अवनतमुखः। भूयश्च कीदृशः । ससूओ सशूकः । किं कुर्वन् रोदितीव । कह मे परिणइयाले खलसंगो होहिइ त्ति चिंतंतो कथं मे परिणतिकाले खलसङ्गो भविष्यतीति चिन्तयन् । यस्य किल परिणतिकाले वृद्धावस्थायां दुर्जनसङ्गो भावो सोऽवनतमुखः सशोकः शङ्कां वहन् रोदितीति प्रषच्छाया काऽपि तत्र महृदयचमत्कारिणी समुल्लसति । एकत्र शूकः किंशारः ( किंशारुः ), अन्यत्र शोकः अशुभसंक्रमणशङ्का । एकत्र १w. दिण्णजाणुवडणेण; २w. तुसारेण.. ... ... ....
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१९३
-५.३५]
पंचम सयं W443 ४३३) कुरुणाहो विय पहिओ मिजइ माहवस्स मिलिएण।
भीमेण जहिच्छाए दाहिणवाएण छिप्पंतो ।। ३३ ॥ W570 ४३४) संझारीयत्थइओ दीसइ गयणम्मि पडिवयायंदो ।
रत्तदुऊलंतरिओ नहअणिवाउ व नहसिरोए ॥ ३४ ॥ W433 ४३५) पुसइ खणं धुयइ खणं पप्फोडइ तक्खणं अयाणंती।
मुदबहू थणवट्टे रईयं दइएण नक्खवयं ॥ ३५ ॥ परिणतिः पाककालः, अन्यत्र वयोऽवस्था । एकत्र खलो यत्र निष्पन्नमन्नं नीत्वा निक्षिप्यते, अन्यत्र दुर्जनः। उत्प्रेक्षाश्लेषाभ्यां संसृष्टिरलंकारः॥४३२॥
४३३) प्रेमराजस्य । [ कुरुनाथ इव पथिको दूयते माधवस्य मिलितेन । भीमेन यथेच्छ दक्षिणवातेन ( • पादेन ) स्पृश्यमानः ॥] पहिलो दूमिज्जइ पथिको दूयने । किं क्रियमाणः । भोमेण दाहिणवारण जहिच्छाए छिप्पंतो भीमेन भीषणेन दक्षिणवातेन यथेच्छं स्पृश्यमानः । किंभूतेन तेन । माहवस्स मिलिएण माधवस्य वैशाखस्य मिलितेन । क इव । कुरुणाहो विय कुरुनाथ इव । स किल माधवस्य विष्णोर्मिलितेन भीमेन वृकोदरेण दक्षिणपादेन स्पृश्यमानो दूयते स्म, इत्यागमः । प्रदेषोपमालंकारः ।।४३३॥
४३४) दोसोरस्य । ( सन्ध्यारागस्थगितो दृश्यते गगने प्रतिपचन्द्रः । रक्तदुकूलान्तरितो नखकनिपात इव नभःश्रियः ॥) दीसह गयणम्मि पडिवयायंदो दृश्यते गगने प्रतिपच्चन्द्रः । कीदृशः । संझारायस्थइओ सन्ध्यारागस्थगितः । क इव । रत्तदुऊलंतरिओ नहअणिवाउ व रक्तदुकूलान्तरितो नरवनिपात इव । कस्याः । नहसिरीए नभःश्रियः । दुकूलं कौशेयम् । उपमालंकारः ॥ ४३४ ॥
४३५) अर्जुनस्य । (प्रोञ्छति क्षणं प्रक्षालयति क्षणं प्रस्फोटयति तत्क्षणम् अजानती। मुग्धवधः स्तनपृष्ठे रचितं दयितेन नखपदम् ॥) ....: 1w. दुम्मिज्जइ; 28. संझाराओत्थइओ; 3w. थणणहलेहो व णयवहए;
4w.दिणं.
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१९४ " गाहाकोसो
५.३६- W571 ४३६) अइ दियर कि न पिच्छसि आयासं किं मुहा पलोएसि ।
जायाएँ बाहुमूलम्मि 'मुद्धयंदाण रिछोलिं ॥३६॥ W572 ४३७) वायाएँ किं व भण्णइ कित्तियमित्तं य लिक्खए लेहे।
. तुह बिरहे जं दुक्खं तस्स तुयं चेव गहियत्थो ॥३७॥ मुद्रवहू मुग्धवधूः नक्खवयं नखपदं रइयं दइएण थणवढे रचितं दयितेन स्तनपृष्ठे । पुसइ स्वणं परिमार्टि क्षणं, धुयइ खणं घावयति प्रक्षालयति क्षणं, पप्फोडइ तक्वणं प्रस्फोटयति तत्मणम् । कीदृशो । अयणंती अजानती । सुरत समये नखक्षतानि दोयन्त इति नासौ जानातीत्यर्थः। मुग्धा नायिका । तदाधारा जातिरलंकारः । शिशुमग्धयुवनिकातरतिर्यक् संभ्रान्तहीनपात्राणाम् । सा कालावस्थोचितचेष्टासु विशेषतो रम्या ( रूट्रट, ७,३१) ॥ ४३५॥
४३६) कुमारदेवस्य । अपि देवर किं न प्रेक्षसे, आकाशं किं मुधा प्रलोकयसि । जायाया बाहुमूळे मुग्धचन्द्राणां पङ्क्तिम् ॥ ) काचिद् द्वितीयेन्दुदर्श सकुतूहछिनं देवरं सपरिहासमिदमाह । अइ दियर जायाएँ बाहुमूलम्मि अयि देवर जायाया बाहुमूठे मुद्धयंदाण रिछोलिं मुग्धचन्द्राणां मालां किं न पिच्छसि किं न प्रेक्षसे । आयासं किं मुहा पलोएसि आकाश किं मुवा प्रलोकयसि । किम् एकेनामुना द्वितीयाचन्द्रेण । नन्वेतां स्वकान्ताकक्षान्तरे अर्धचन्द्रावलिं विलोकयेति । रिंछोली पङ्क्तिः ॥४३६॥ . ४३७) अर्जुनस्य । वाचा किं वा (किमिव) भण्यते कियन्मात्रं च लिख्यते देखे । तव विरहे यद् दुःखं तस्य त्वमेव गृहीतार्थः ।) वायाएँ किं व भण्णइ वाचा किमिव भण्यते, कित्तियमित्तं य लिक्खए हे कियन्मानं च लिख्यते लेखे । तुह विरहे जं दुक्खं तव विरहे यद् दुःखं भवति, तस्स तुयं चेव गहियत्थो तस्य त्वमेव गृहीतार्थः । त्वं मम हृदये वससीत्यर्थः । मयि विरहवेदनां कथं न जानासीति भावः ॥४३७॥ 1w. अद्धअंदाण परिवाडि, 2w. वाआइ कि भणिज्जइ; 3w तुअं चेअ.
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[-५.४० पंचमं सयं
.१९५ W452 ४३८) कह सा सोहग्गगुणं मए समं वहइ निग्धिण तुमम्मि ।
जाएँ हरिज्जइ नाम 'हरिऊणं दिज्जए मज्झ ॥ ३८॥ W 442 ४३९) नियपक्खारोवियदेहभारणिउणं रसं लहंतेण । - वियसाविज्जइ पिज्जइ कुंदक्कलिया महुयरेण ॥३९॥ 444 ४४०) जाव न कोसवियासं पावइ ईस वि मालेईमउलं ।
आरुहेणपाणलोहिल्ल भमर ताव च्चिय मलेसि ॥४०॥
४३८) तस्यैव (i.e. अर्जुनस्य ) । ( कथं सा सौभाग्यगुणं मया समं वहति निघृग त्वयि । यस्या ड्रियते नाम हृत्वा च दीयते मम ॥ ) गतार्था गोत्रस्खलने गाथा ॥ ४३८ ॥
४३९) कुन्ददन्तस्य । [निजपक्षारोपितदेहभारनिपुणं रसं लभमानेन । विकास्यते पोयते कुन्दकलिका मधुकरेण ॥] वियसाविज्जइ कुंद
कलिया महुयरेण मधुकरेण कुन्दकलिका विकासं नीयते । कथंभूतेन मधुकरेण । नियपक्खारोवियदेहभारणिउणं रसं लहंतेण निजपक्षारोपितदेह. भारनिपुणं रसं लममानेन । अनया भङ्गभणित्या यो मुग्धवधूं निजकलाकौशलेन रमते (? रमयति) न च तामायासयति स एवमुच्यते । अन्यापदेशोऽलंकारः ॥४३९॥
१४०) उत्तस्य (१) । [ यावन्न कोशविकासं प्राप्नोतीषदपि मलतीमुकुलम् । आरोहणपानलोभाविष्ट भ्रमर तावदेव मृगासि ॥ हे भारुहणपाणलोहिल्ल महुयर आरोहणपानलोभिक मधुकर, जाव न कोसवियासं पावइ ईसं पि मालईमउलं यावन्न कोशविकासम् ईषदपि मालतीमुकुलं प्राप्नोति, ताव पिचय मलेसि गृह्णासि (? मृद्गासि) इति । कान्तामन्यां मृगयसीत्यर्थः । अनया भङ्गभणित्या यो अप्राप्तयौवनामङ्गनां रिरमिषति १w. हरिऊण अ, २w. विअसाविऊण; ३w. मालईकलिआ; ४w. ईसीसि; .५w. मालईकलिमा, ६w. मअरंदपाणलोहिल्ल.
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१९६
गाहाको सो
[५४१
W445 ४४१) अन्य तुज्झ कए पाउसर ईसु जं मए खुन्नं । उपिक्खामि अलज्जिर अज्ज वि तं गामचिक्खिल्लं ॥४१॥ W751 ४४२) पिम्मुम्मइयाइ हला अवैऊढो हलियउत्तबुद्धीए । फंसेमि जाव, फरुसो तणपुरिसो गामसीमाए ॥ ४२ ॥ स निषिध्यत इति अन्यापदेशाक्षेपाभ्यां संसृष्टिरलंकारः । ईसि पि वक्रादित्वान्मोऽन्तः ( वररुचि, ४, १५) ||४४०॥
४४१) येष्टायाः (ज्येष्ठायाः) । [ अकृतज्ञ तव कृते प्रावृशत्रिपु यो मया क्षुण्णः । उत्प्रेक्षे लज्जाविवर्जित अद्यापि तं ग्रामकर्दमम् ||] काचिद् वीतरागं नायकं प्रतीदमाह । हे अकयन्नुय अकृतज्ञ, तं गामचिक्खिल्लं अज्ज वि उपिक्खामि तं ग्रामक कर्दममद्यापि उत्प्रेक्षे जं अलज्जिर मए पाउसराईल खुन्नं यद् लज्जाविवर्जित मया प्रावृड्रात्रिषु क्षुण्णं विगाहितम् । किमर्थम् । तुज्झ कए तवार्थे । बहलपङ्कपिच्छिलायामपि प्रावृषि त्वामभिसरन्त्या मया यानि कष्टानि सोढानि तान्यहं तथैव स्मरामि । त्वं पुनर्वैपरीत्येन व्यवहरसि । लज्जावर्जितेन तानि प्रमार्जितानि इति भावः ॥४४१॥
"
४४२) कलश तस्य । [ प्रमोन्मत्तया सखि, अवगूढो हालिकपुत्रबुद्धया । स्पृशामि यावत् परुषस्तृणपुरुषो ग्रामसीमायाम् । ] काचित् कस्याश्चित् स्वरहस्यं सहास्यं कथयति । हला सवि, मए तणपुरिसो अवऊढो मया तृणपुरुषो अवगूढः । केन हेतुना । हलियउत्तबुद्धोए हालिक पुत्रबुद्धया । कोदृश्या मया । पिम्मुम्मइयाइ प्रेमोन्मत्तया । फंसेमि जाव स्पर्शयामि (? स्पृशामि ) यावत्, फरुसो तणपुरिसो गामसीमाए परुषस्तृणपुरुषो ग्रामसीम्नोऽन्ते । हलाशब्दः सखीपर्याये ( सखीपर्यायः) । भ्रान्तिमज्ञापक हेतुभ्यां संसृष्टिरलंकारः ||४४२ ॥
१w. अकअण्णुअ; ६w. उवऊढो.
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[-५.४५ पंचमं सयं
१९७.. w 526 ४४३) हसियं कवोलकहियं भमियमणकंतदेहलिपएसं।
दिट्ठमणुच्छ्ढवयं एसो मग्गो कुलवहूणं ॥४३॥ W 752 ४४४) बे मग्गा धरणियले माणिणि माणुन्नयाण पुरिसाणं ।
__ अहवा पावंति सिरिं अहव भमंता समप्पंति ॥४४॥ W 606 ४४५) पैच्चूहमऊहावलिपरिमाससम्ससंतवत्ताणं ।
कमलाण रयणि विरमे जियलोयसिरी महमहेइ ॥४५॥ ४४३) बन्धुदत्तस्य । [हसितं कपोलकथितं भ्रमणमनाक्रान्तदेहलीप्रदेशम् । दृष्टमत्यक्तपदम् एष मार्गः कुलवधूनाम् ॥] एसो मग्गो कुलवहूर्ण एष मार्गः कुलवधूनाम् । कोऽसावित्याह । हसियं कवोलकहियं हसितं कपोलाभ्यां किंचिदुरपुलकाम्यां कथितम् । भमियमणिक्कंतदेह लिपएसं (भ्रमणम्) अनाक्रान्तदेहलीप्रदेशम् । दिट्ठमणुच्छुढवयं दृष्टं दर्शनम् अत्यक्तपदं, स्वपादाप्रदत्ता दृष्टिरित्यर्थः । उच्छूद्रं त्यक्तम् । स्वीया .. नायिका । शुचिपौराचाररता चरित्रशरणार्जवक्षमायुक्ता । त्रिविधा भवति स्वीया मुग्धा मध्या प्रगल्भा च (रुद्रट, १२, १७)॥४४३॥
४४४) अन्ध्रलक्ष्म्याः । द्वौ मार्गों धरणीतले मानिनि मानोन्नतानां पुरुषाणाम् । अथवा प्राप्नुवन्ति श्रियम् अथवा भ्रमन्तः समाप्यन्ते ।।] गतार्था गाथा ॥४४४॥
४४५) सातवाहनस्य । [रविमयूखावलिस्पर्शसमुच्छ्वसत्पत्राणाम् । कमलानां रजनीविरमे जोवलोकश्रोः गन्धेन प्रसरति ॥] कमलाण जियलोयसिरी महमहेइ कमलानां जीवलोकलक्ष्मीरधिका भवति । कदा। रयणिविरमे रजनीविरमे । किंभूतानां कमलानाम् । पच्चूहमऊहावलिपरिमाससमूससंतवत्ताणं दिनकरकिरणावलीपरामर्शोच्छ्वसत्पत्राणाम् । प्र तर अधिकशतेषु कमलेषु जोवलोकलक्ष्मीरधिकतरं भवतीत्यर्थः । पच्चूहो रविः । परामर्शः स्पर्शः ॥४४५|| १w, अइट्ठदंतं; २w. भमिअमणिकंतदेहलीदेस; ३w. दिट्ठमणुक्खित्तमुहं; ४w. पच्चूस; ५W. परिमलणसमूससंत; ६w. महम्महइ.
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१९८
. [५.४६W 753 ४४६) कत्तो कमलाण रई कत्तो कुमुयाण सहयरो चंदो।
तह सज्जणाण नेहो न चलइ दूरट्टियाणं पि॥४६॥ w 494 ४४७) रोयति व ओ रणे दिणयरकरणियरफरुससंतत्ता।
अइतारैझीरुविरुएहि पायवा गिम्हमज्झन्हे । ४७॥ W 446 ४४८) रेहई "वियलंबरकेसहत्थकोंडललुलंतहारलया।
अद्भुप्पइया विज्जाहरि व पुरिसाइरी बाला ॥४८॥ w 496 ४४९) गुत्तक्खलणं सोऊण पिययमे अज्ज 'मामि छणदियहे।
वज्झमहिसस्स माल ब्व मंडणं से न पडिहाइ ॥४९॥
४४६) गोजस्य (गाय॑स्य)। [कुत: कमलानां रविः कुतः कृमुदानां सहचरश्चन्द्रः । तथा सज्जनार्ना स्नेहो न चलति दूरस्थितानामपि ।।] गतार्था गाथा । दृष्टान्तालंकारः ॥४४६॥
४४७) वामनस्य । [रुदन्तीव मो अरण्ये दिनकरकरनिकरपरुपसंतप्ताः । अतितारझिल्लीका विरुतैः पादा ग्रीष्ममध्याह्न ।] ओ रणे पायवा रोयंति व अरण्ये पादपा रुदन्तोष । कैः । अइनारझोरुविरुएहि अतितारझिल्लीविरुतैः । कीदृशाः पादपाः । दिणयर करणियरफरुससंतत्ता परुषरविकरनिकरसंतप्ताः । कदा। गिम्हमज्झन्हे ग्रीष्ममध्याह्ने । पूर्वनिपातानियमात् परुषशब्दस्य पनिपातः । झोरू झिल्लोका । ओ इति सुचनायाम् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥४४७।
४४८) हालस्य । [शोभते विगलदम्परकेशहस्तकुण्डललुलद्धारलता । अर्धोत्पतिता विद्याधरोव पुरुष यमाणा बाला । गतार्था गाथा ॥४४८॥
४४९) देवस्य । [गोत्रस्वलनं श्रुत्वा प्रियतमेऽद्य सखि क्षणदिवसे । वध्यमहिषस्य माठेव मण्डनं तस्या न प्रतिभाति ।] हे मामि
१w. सीयलो; २w. रोवंति व्व अरण्णे; ३w. दूमहरइकिरणफंससंतत्ता; ४w. "झिल्लि'; ५w. गलंतकेसक्वलं कुंडलललंतहारलाः ६w. ती ७w उअह पडिहाइ.
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-५.५१] पंचम संयं
१९९ W497 ४५०) महमहइ मलयवाओ अंता वारेह नं घरा निति ।
अंकुल्लपरिमलेण वि जो हु मो सो मउ च्चेय ॥५०॥ W449 ४५१) गामणिणो सव्वासु वि पियासु अनुमरणगहियवेसासु ।
__मम्मच्छेएमु वि वल्लहाऍ अवरिं वलइ दिट्ठी ॥५१॥ सखि, अग्ज छणदियहे से मंडणं न पडिहाइ अद्य उत्सवदिवसे तस्या नण्डनं न प्रतिभाति । किं कृत्वा । पिययमे गुत्तक्खलणं सोऊण प्रियतमे सपत्नीनाम श्रुत्वा । किमिव मण्डनम् । वाममहिसस्त माल व्व वध्यमहिपस्य मालेव । यथा वध्यमहिषस्य माला तथा तत् (मण्डनं) तस्या इत्यर्थः ॥४४९॥
४५०) दुर्गस्वामिनः । [गन्धेन प्रसरति मलयवातः पितृष्न सर्वारयतैनां गृहानिर्यान्तीम् । अङ्कोटपरिमलेनापि यः खलु मृत स मृत एव ।।] हे अत्ता पितष्वसः, वारेह नं घरा नितिं वारयतैनां गृहान्निर्यान्तीम् । यतः महमहइ मलयवाओ महमहायते मलयवातः । यदि मलयवातो वाति, किमिति गृहान्निर्यान्ती निवार्यत इत्याह । अंकुल्लपरिमलेण वि जो हु ममो सो मउ चेय अकोठपरिमलेनापि यः खलु मृतः स मृत एव । मलयमारुताहृतं वसन्तसमयसूचकम् अङ्कोठमकुपुमामोदमाध्राय सा मा म्रियताम् इति । विरहिणो नायिका । अकोठे हलः (वररुचि ,२,२५, हेमचन्द्र, ८,१,२००) इति अंकुल्लशब्दस्य न्युत्पत्तिः ॥४५०॥
४५१) विन्ध्यराजस्य । [ग्रामण्यः सर्वास्वपि प्रियास्वनुमरणगहोतवेषासु । मर्मच्छेदेष्वपि वल्लभाया उरि वलते दृाष्टिः ।।] गामणिणो ग्रामनाय कस्य वल्लहाएँ भवरिं वलइ दिट्ठो तन्मध्याद् वल्लभायां परिवळते दृष्टिः । क्व सति । सम्वासु वि पियासु अणुमरणगहियवेसासु सर्वास्वपि प्रियासु अनुमरणगृहीतवेषासु । मर्मज्छेदवशविवशवपुरप्यसौ किमियं मया १w. भत्ता वारेशम घसा इति; २w. लहाइ उपरिं.
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उवरमसु ।
गाहाकोसो
[५.५२W450 ४५२) मामि सरिसक्खराणं अस्थि विसेसो पयंपियव्वाणं ।
नेहमइयाण अन्नो अन्नो उवरोहमइयाणं ॥५२॥ W451 ४५३) हिययाहिंतो पसरंति जाइँ अन्नाइँ ताइँ वयणाई ।
उर्वरमसु किं इमेहिं अहरंतरमित्तभणिएहि ॥५३॥ W453 ४५४) सहि साहसु सम्भावेण पुच्छिमो किं असेसमहिलाणं ।
वड्दंति करत्थ च्चिय वलया दइए पउत्थम्मि ॥५४॥ समं मरिष्यति न वेति अनुमरणमपि तदीयमेव मृगयत इति भावः ॥४५१॥
४५२) तस्यैव (विन्ध्यराजस्य) । [सखि (मातुलानि वा) सदृशाक्षराणामस्ति विशेषः प्रजल्पितव्यानाम् । स्नेहमयानामन्यो अन्य उपरोधमयानाम् ॥] स्नेहमयानामन्यो विशेषो अन्यश्चोपरोधमयानाम् उपरोधकानामिति वा । तान्येवाक्षराणि स्नेहे नोच्यमानानि मनसि निवृति जनयन्ति, उपरोधाभिधानेन उद्वेगाय जायन्त इत्यर्थः । मामिशब्दः सखीमातुलान्योः प्रसिद्धः ॥४५२॥
... ४५३) तस्यैव ( विन्ध्यराजस्य) । [हृदयात् प्रसरन्ति यानि, अन्यानि तानि वचनानि । उपरम किमेभिरधरान्तरमात्रणितैः।।] काचित् कपटचाटुकारं कान्तं प्रति सखेदमिदमाह । उवरमसु किं इमेहिं उपरम किमेभिः अहरंतरमित्तभणिएहिं अधरान्तरमात्रभणितैः । यतः हिययाहिंतो पसरंति जाइँ हृदयात् प्रसरन्ति यानि, अन्नाइँ ताइँ वयणाई अन्यानि तानि वचनानि । इमानि पुनरन्यान्येवेति सद्भावरहितानि कृत्रिमाणीति भवः ॥४५३।।
___४५४) विष्णुनाथस्य । [सखि कथय सद्भावेन पृच्छामः किम. शेषमहिलानाम् । वर्धन्ते करस्थान्येव वलयानि दयिते प्रोषिते ॥] काचिन्मुग्धा प्रियविरह कृतकायकायेन करमूलप्रस्खलद्वलया सखीमिदमाह । १w. सरिसक्खराण वि २w. ओसरसु...'
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-५५६] पंचमं संयं
__२०१ . W454 ४५५) भमइ परित्तो जूरइ उक्खिविउं से करं पसारेइ ।
__करिणो पंकवखुत्तस्स नेहणियलाविया करिणी ॥५५॥ W455 ४५६) रइकेलिहियणियंसणकरकिसलयरुद्धणयणजुयलस्स ।
रुद्दस्त तइयणयण गोरीपरिचुंबियं जयइ ॥५६॥ सहि साहसु सखि कथय सम्भावेण पुच्छिमो सद्भावेन पृच्छामः, किं असेसमहिलाणं वड्दति करत्थ च्चिय वर्धन्ते करस्थिता एव वलया दइए पउत्थम्मि वलयानि दयिते प्रोषिते सतोति । साहियं कथितम् 4॥४५४॥
४५५)श्रीकर्णराजस्य । [भ्रमति परितः, स्विद्यते, उत्क्षिप्य तस्य करं प्रसारयति । करिणः पङ्कमन्नस्य स्नेहनिगडिता करिणी ॥] करिणी परित्तो भमइ हस्तिनी परितो भ्राम्यति । कस्य । करिणो करिणः । कीदृशस्य । पंखुत्तस्स कर्दममग्नस्य । किमेतावदेव, नेत्याह । जूरइ खिद्यते । उक्खिविउ करं पसारेइ उत्क्षिप्य करं प्रसारयति । क दृशी करिण । नेहणियलाविया स्नेहनिगडाकलिता । कथं नामायम् उद्धियेतेति तात्पर्याकुला करिणी । नेहणियलाविया स्नेहनिगडाकलिता करिणी सर्वमेवं करोतीति । जातिरलंकारः । परित्तो इति द्वित्वादनुस्वारः (१) । से इति कर्मणि षष्ठी प्राकृतत्वात् ॥४५५।।
४५६) दुर्गराजस्य । [रतिकेलिहृतनिवसनकरकिसलयरुद्ध नयनयुगलस्य । रुद्रस्य तृतीयनयनं गौरीपरिचुम्बितं जयति ॥] रुदस्स तइयणयणं जयइ रुद्रस्य तृतीयनयन जयति । कीदृशम् । गोरोपरिचुंपियं गोरोपरिचुम्बितम् । किंभूतस्य रुद्रस्य । रइके लिहियणियंतणकरकिसलय. रुद्धणयणजुयलस्स रतिकेलिहननिवसनकरकिसलयरुद्ध नयनयुगलस्य । रतिकेलिहृतनिव नतापाणिपल्लववमिहितोभयनेत्रोऽपि त्र्यम्बको मा मां तृतीयदृशा द्राक्षीदिति तृतीयनयमचुम्बनमम्बिकायाः । रतिकेलिहतनिव
सनतयेति ताप्रत्ययो लुप्तो द्रष्टव्यः । “रुद्दस्त तइयणयणं करकिसलयरुद्ध. w. परिदो विसूरइ; २w. पवइपरिचुंबिअं.
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२०२
गाहाको सो
[५.५७
W456 ४५७) घावइ पुरओ पासेसु भमर दिट्ठीवहम्मि संठाइ । नवेलपारभीया सा देउरस्स ववलग ॥५७॥ W457 ४५८) कारिममाणंदवडं भामिज्जंत बहूऍ बंधू हिं । पिच्छ कुमरीजारो हासुम्मी सेहिं अच्छीहिं ॥ ५८॥
णयणजुयलस्स । रइके जिहियणिय सणपव्वइपरिचुंबियं जयइ ||" इति वा पाठः । समाहितमलंकारः । कार्यारम्भे सहायाप्तिर्देवा दैवकृतेइ वा । आकस्मिकी बुद्धिपूर्वोमयी वा तत्समाहितम् । ( सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, ३५) ॥ ४५६॥
४५७) वसन्तस्य । [ धावति पुरतः पार्श्वयोर्भ्राम्यति दृष्टिपथे संतिष्ठते । नवलताप्रहारभीता सा देवरस्य व्यवलगति ||] देवरो नवलतायुक्त एतां वराकीं प्रहरति यतः, ( अतः ) धावइ पुरओ द्रवति पुरतः, पासेसु भमइ पार्श्वयोश्राम्यति दिट्ठीवहम्मि संठाइ दृष्टिपथे संतिष्ठते । नवलताप्रहार भीता । • करोति, इत्येतस्या मनीषितं क्रियतामिति परिहासोक्तिः । दे इति प्रार्थनायां निपातः । चपलता व्यभिचारी भावः । आत्मप्रकाशनपरा चेष्टा चपलतोध्यते ॥ ४५७ ||
४५८) तस्यैव ( वसन्तस्य ) | ( कृत्रिम मान्दपटं भ्राम्यमाणं वध्वा बन्धुभिः । प्रेक्षते कुमारीजारो हासोन्मिश्राभ्यामक्षिभ्याम् || ] बहूऍ कारिमं आणंदवडं कुमरीजारो पिच्छइ यन्त्राः कृत्रिमम् आनन्दप कुमारीजारः प्रेक्षते । कीदृशम् । भामिज्जेत बहूएँ बंधुहिं भ्राम्यमाणं बध्वा बन्धुमिः । काभ्यां प्रेक्षते । हासुम्मीसेहि अलीहिं हासोन्मिश्राम्यामक्षिभ्याम् । तस्याः प्रथमविप्लुतायाः (1) इयमयुग्मन् रक्तेति वृथा रक्तांशुकभ्रमणं हासहेतुः कुमारोजारस्य ||४५८ ||
.......
१w. नवलकरस्स तुह हलिउ दे पहरसु, बराई, २w.
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सहि आहिं...
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-५.६१] पंचमं संयं
२०३ . W458 ४५९) सणियं सणियं मयणंगुलीऍ मयणवडरोईणणिहेण ।
बंधेई धवलवणपट्टयं व वणियाहरे तरुणी ॥५९।। W459 ४६०) रइविरमलज्जियाओ अप्पत्तणियंसणाओ सहस त्ति ।
ढक्कंति पिययमालिंगणेण जहणं कुलवहुभो ॥६०॥ W460 ४६१) पायडियं सोहग्गं तंबाए सय लगुट्ठमज्झम्मि ।
दुहवसहस्स सिंगे अच्छिउडं कंडुयंतीए ॥६१॥
४५९) वासुदेवस्य । [शनैः शनैर्मदनामुल्या मदनपटरोपगनिभेन । बध्नाति धवलवणपट्टकमिव व्रणिताधरे तरुणो॥] तरुणी सणियं सणियं धवलवणपट्टयं बंधेइ तरुणी शनैः शनैर्धवलवणपपट्टकमिव वध्नाति । क्व । वणियाहरे व्रणेताघरे । केन । मयणवडरोहणणिहेणं मदनपटरोपणनिभेन । कया। मयणंगुलीऍ मदनाङ्गुल्या । अधरलेपनमदनपटो हिमसमये निवेश्यते इति स्रीणाम् आचारः । स च मदनपटोऽधरदत्तदन्तबगपट्ट कत्वेन उत्प्रेक्षित इति । उत्प्रेक्ष ऽलंकारः ।।४५९।
४६०) चुल्लोडकस्य । [रतिविरमलज्जिता अप्राप्तनिवसनाः सहसेति । प्रच्छादयन्ति प्रियतमालिङ्गनेन जघनं कुलवध्धः ।।] ढक्कंति जहणं कुलबहओ प्रच्छादयन्ति जघनं कुलाङ्गनाः । केन । पिययमालिंगणेण प्रियतमालिङ्गनेन । कथंभूतास्ताः । अप्पत्तणियंसणाओं सहस त्ति अप्राप्तनिवसनाः सहसैव । किंभूनाः । रइविरमलज्जियाओ रतिविरमलज्जिताः । अत एव प्रियतमावगृहनेन जघनं प्रच्छादयन्तीति । ढक्कियं आवृतम् । समाहितमलंकारः । तस्य लक्षणम्-कार्यारम्भ इत्यादि (सरस्वतीकण्ठाभरण, ३,३४) ॥४६०॥
४६१) धवलस्य । [प्रकटो कृतं सौभाग्यं धेन्वा सकलगोष्ठमध्ये । दुष्टवृषभस्य शङ्गे अक्षिपुटं कण्डूयमानया ।।] पायडियं सोहागं तंबाए १w. ललिअंगुलीअ; २w; लाअण; ३w. बंधइ धवलवणवह व. ४w. उअह गोट्ठमम्मि. . .
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२०४ गाहाकोसो
-५.६२] W461 ४६२) उय संभमविक्खित्तं रमियन्वयलेहडाएँ सुन्हाए ।
नवरंगयं कुडंगे धयं व दिन्नं अविणयस्स ॥६२॥ W462 ४६३) हत्थफंसेण जरग्गवी वि पैन्हुयइ दोहयगुणेण ।
अवलोइयपन्हुइरिं पुत्तय दुवैखेहि पाविहिसि ॥६३॥ प्रकटीकृतं सौभाग्यं गवा । कि कुर्वत्या । दुवसहस्स सिंगे अच्छि उडं कंडुयंती ए दुष्टवृषभस्य शृङ्गे अक्षिपुटं कण्डूयमानया । क्व । सयलगुट्ठमअझम्मि सकलगोष्ठमध्ये । एवं नाम सौभाग्यं यदसौ निरपेक्षम् अक्षिपुटं दुष्टवृषभविषाणकोटौ कण्डूयत इति । तंबा गौः ॥४६१॥
४६२) वल्लभम्य । [पश्य संभ्रमनिक्षिप्तं रम्तव्यलम्पटया स्नुषया । नवरक्तकं निकुञ्ज ध्वजमिव दत्तम् अविनयस्य ॥] नवरंगयं कुडंगे उय नवरक्तकं कुटङ्गे पश्य । कीदृशम् । संभमविक्वित्तं संभ्रमविक्षिप्तम् । कया । सुन्हाए स्नुषया । कीदृश्या । रमियन्वयलेहडाएँ रन्तव्यलम्पटया । किंभूतम् । धयं व दिन्नं अविणयस्स ध्वजमिव दत्तम् अविनयस्य । संभ्रमस्त्वरा । नवरंगयं कौसुम्भं वासः । लेहडा लम्पटा । स्नुषा वधूः । कुटो (: कुटङ्गो) गृहम् (१ लतागृहम्) । गमनम् (? गहनम्) इत्यन्ये । उत्प्रेझालंकारः ॥४६२॥
४६३) रोहायाः । [हस्तस्पर्शन जरद्गवी अपि प्रस्नौति दोहकगुणेन । अवलोकितप्रस्नवनशीलां पुत्रक दुःखैः प्राप्स्यसि ।।] हे पुत्तय पुत्रक, अवलोइयपन्हुइरिं अवलोकितमात्रेण प्रस्नवनशीलां गां दुक्खेण पाविहिसि कष्टेन लप्स्यसे । यतः हत्थफंसेण जरग्गवी वि पन्हुयइ हस्तस्पर्शेन अरद्वी अपि प्रस्नौति क्षीरं क्षरयति । केन । दोहयगुणेण दोहकगुणेन । अन्यापदेशोऽलंकारः ॥४६३॥ १w. रमिअन्वअलंपडाइ. २w. पण्हअइ; ३w. 'पुण्णेहि..
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[५.६४. पंचम सयं .
२०५ W463 ४६४) मसिणं चंकम्मंती पए पए कीस कुणइ मुहभंगं ।
नूणं से मेहेलया रमणगयं छिवइ नहपंति ॥६४॥ W464 ४६५) संवाहणसुहरसतोसिएण दितेण तुह करे लक्खं ।
चलणेण विक्कमाइच्चचैरियमणुयत्तियं तिस्सा ॥६५॥ W465 ४६६) पायवडणाण मुद्धे रहसबलामोडिचुंबियवाणं ।
दंसणमित्तपसन्ना चुका अन्नाण वि सुहाणं ॥६६॥ __ ४६४) तस्या एव (रोहायाः) । [मसृण चक्रम्यमाणा पदे पदे कस्मात् करोति मुखभङ्गम् । नूनं तस्या मेखला रमणगतां स्पृशति नवपङ्क्तिम् ॥] सा नायिका मसिणं चंकम्मंती मसृणं मन्दं चङ्कम्यमाणा कुटिलं कामन्ती, पए पए कोस कुणइ मुहभंग पदे पदे किनिति करोति मुखभङ्गम् इति स्वयमाशङ्क्य उत्तरं करोति । नणं से मेहलया नुनमस्या मेखला रमणगयं छिवइ नहपंतिं रमणगतां नितम्बसङ्गिनी स्पृशति नखपङ्क्तिम् । चङ्कमक्रमप्रसरान् मेखलास्पृष्टनखपङ्क्तिपीडया मसणं संचरतीत्यर्थः । अनुमानालंकारः ॥४६४।।
४६५) संवरराजस्य । [संवाहनसुखरसतोषितेन ददता तव करे लाक्षाम् (लक्षम् ) । चरणेन विक्रमादित्यचरितमनुवृत्तं तस्याः ॥] काचित् प्रियापादाग्रसंवाहनक्रमसंक्रान्तालक्तकरसरागरञ्जिताप्रकरं नायक निरोक्ष्य सोत्प्रासमिदमाह । चरणेन विक्रमादित्यचरितमनुवर्तितं तस्याः। कीदृशेन चरणेन । तुह करे लक्खं दिंतेण तव करे लाक्षां ददता यावकं संक्रामयता । संवाहणसुहरेसतोसिएण संवाह नजनितो यो सुखर सस्तेन तोषितेन । किल विक्रमादित्यो लक्षं प्रयच्छति । प्रलेपच्छायया तेन साध साधर्म्य पादस्येति प्रत्ययोपमालंकारः ॥४६५॥
४६६) हालस्य । [पादपतनानां मुग्धे रभसहठचुम्बितानाम् । दर्शनमात्रप्रसन्ना च्युता अन्येषामपि सुखानाम् ॥] हे मुद्धे मुग्धे, दंसण१w. मेहलिआ जहणगअं; २wचरिअमणुसिक्खिों . ३w. ०पसण्णे; ४w. चुका सि सुहाण बहुआणं.
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२०६
गाहाकोसो
-५०६९]
W466 ४६७) दे सुयणु पसिय इन्हि पुणो वि सुलहाइँ रूसियव्वाइं । एसा मयच्छि मयलंछणुज्जला गइ छणराई ॥ ६७ ॥ W467 ४६८) आण्णाइँ कुलाई दु च्चिय जाणंति उन्नई नेउं । गोरोऍ हिययदइओ अहवा सालाहणणरिंदो ||६८ || W468४६९) निकदुरारोहं पुत्तय मा पाडलिं समारुहसृ । आरूढणिवडिया के इमीऍ न कया इहें ग्गामे ॥ ६९ ॥
मित्त पसन्ना सती पायवडणाण रहसबलामो डिचुंबियव्वाणं चुका पादपतनेभ्यः, रभसहठचुम्बनेभ्यः च्युता । किमेतावदेव । नेत्याह । अन्नाण वि सुहाणं अन्येभ्योऽपि सुखेभ्यः आलिङ्गनप्रभृतिभ्यश्च्युता, इत्यर्थः । अत एव मुग्धेत्युक्तम् । बलामोडी बलात्कारः । चुक्कं स्खलितम् । पञ्चम्यर्थे षष्ठी ॥ ४६६ ॥
४६७) तस्यैव (i. e. हालस्य ) । [ प्रार्थये सुतनु, प्रसीद इदानीं पुनरपि सुलभानि रोषितव्यानि । एषा मृगाक्षि मृगलाञ्छनोज्ज्वला गलति क्षणरात्रिः || ] निगदव्याख्यातेयं गाथा ||४६७ |
४६८) पोटिसस्य । [ आपन्नानि (आपर्णानि ) कुलानि द्वावेव जानीत उन्नतिं नेतुम् | गौर्या हृदयदयितोऽथवा सातवाहननरेन्द्रः ॥ ] कश्चित् सातवाहनमुनाथयितुमिदमाह । दो च्चिय जाणंति उन्नई नेउं द्वावेव जानीत उन्नतिं नेतुम् । कानि । कुलाई कुलाणि । कौ तावित्याह । गोरीऍदिइओ गौर्या हृदयदयितः शङ्करः | अहवा सालाहणणरिंदो अथवा सातवाहननरेन्द्रः । कथंभूतानि कुलानि । आवण्णाइँ | शिवस्ता। चद् आपर्णानि गौरो संबन्धोनि कुलानि उन्नति नयति । सातवाहनः पुनरापन्नानि आपदं प्राप्तानि कुलानि उन्नति नयतीति । श्लेषोऽलंकारः । अपर्णा गौरी ॥ ४६८॥
·
४६९) पृथ्वीनरस्य । [निराधारदुरारोहां पुत्रक मा पाटलां समारोह । आरूढनिपतिताः के अनया न कृता इह ग्रामे ॥] हे पुत्त पुत्रक, १. गिक्सं०; २w इयासाए.
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[५.७०
पंचमं सयं W469 ४७०) गामणिघरम्मि अत्ता इक्क रिचय पाडला इह ग्गामे ।
बहुपाडलं च सीसं दियरस्स न सुंदरं एयं ॥७॥ W470 ४७१) अन्नाण वि अस्थि मुहे पम्हलपवलाई दोहकसणाई ।
नरणाइँ सुंदरीणं तह वि हु दटुं न याणंति ॥७१॥ निकदुरारोहं मा . पाडलिं समारुहसु, निराधारतया दुरारोहां मा पाटलां समारोह । किं कारणमित्याह । आरूढाणडया के इमीऍ न कया इह ग्गामे आरूढनिपतिताः के अनया न कृता इह ग्रामे । केनचित् कस्यचिद भङ्ग्या अभिधीयते यथा इयमिति । कुटिलतया नायिका अनुगन्तुं नेतुं (? रन्तुं) न शक्यते । अथ कथंचित् कला कौशलेनाभिगम्यते तदा काळसहा न भवति । प्रेमप्रकोटिमारोप्य निपातयत्येव । तदुपसर्पगनिषेधपरेयमुक्तिः । आक्षेपापदेशाभ्यां संसृष्टिरलंकारः । निट्टकं टङ्कच्छिम्नं विषमं च ।।४६९५
४७०) तस्यैव ( पृथ्वीनरस्य ) । [ग्रामणीगृहे पितृष्वसर एकैव पाटला इह प्रामे । बहुपाटलं च शीष देवरस्य, न सुन्दरमेतत् ॥] काचिद् भ्रातृजायादेवरयोः घुयंती (2) तमत्तामुखेन विचारयितुम् इदमाह । हे अत्ता पितृण्वसः, गामणिहरम्मि ग्रामनाय कनिलये इक्क च्चिय पाडला इह ग्गामे एकत्र पाटला इह प्रामे । बहुपाडलं च सीसं दियरस्स न सुंदरं एवं बहुपाटलं च शीर्ष देवरस्य न सुन्दरमेतत् । एतदुक्तं भवति । अयं हि प्रचुरपाटलीपुष्पशोर्षदर्शनानुमानेन ग्रामणीसुताऽऽसक्त इति केनचिन्नूनं ज्ञास्यते । तन्निवार्यतामिति भावः ॥४७० ॥
४७१) मवलस्य ( धवलस्य)। [ अन्यासामपि सन्ति मुखे पक्ष्मलधवलानि दीर्घकृष्णानि । नयनानि सुन्दरीणां तथापि खलु द्रष्टुं न जानन्ति ॥ ] अन्नाण वि सुंदरीणं नयणाई मुहे अस्थि अन्यासामपि सुन्दरीणां नयनानि मुखे सन्ति । किंभूतानि । पम्हलघवलाई पक्ष्मलधवलानि १w. होति.
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। २०८ गाहाकोसो
. -५.७३] W471 ४७२) हंसेहि व मणहरजलयसमयभयचलियविहलवक्खेहिं ।
परिसेसियपउमासेहिं माणसं गम्मइ रिऊहिं ॥७२॥ W472 ४७३) दुग्गयहरम्मि घरिणो रक्खंती आउलत्तणं पइणो ।
पुच्छियदोहलसद्धा पुणो वि उययं चिय कहेइ ॥७३॥ दीहकसणाई दीर्घकृष्णानि । तह वि हु दटुं न याणंति तथापि खल्ल द्रष्टुं न जानन्ति । तस्या एव नायिकाया नयने निरीक्षितुं जानीत इति तत्कटाक्षपातप्रशंसापरेयमुक्तिः । पर्यायोक्तिरलंकारः ॥४७॥
४७२) चुल्लोडकस्य । [ हंसैरिव मनोहरजलदसमयभयचलितविहलपक्षः । परिशेषितपनाशैर्मानसं गम्यते रिपुभिः ।। ] कश्चिन्नृपतिमुपगाथयितुमिदमाह । रिऊहिं माणसं गम्मइ रिपुभिर्मानसं गम्यते । कीदृशैः । मणहरजलय समयभयचलियविहलवक्खेहिं मनोहरो योऽसौ जलधरसमयः, तस्य भयेन चलितो विह्वलः पक्षो येषां तैस्तथोक्तैः । भूयश्च कोदृशैः । परिसेसियपउमासेहि परिशेषिता त्यक्ता पद्माया आशा यैः, तैस्तथोक्तैः । कैरिव । हंसेहि व । हंसैहि मनोहरजलदसमयभयचलितविहलपक्षैः परित्यक्तकमलाशैः, मानसं नाम सरो गम्यत इति । 'दुक्खं हयपोमासेहि माणसं गम्मइ रिऊहिं' इति पाठः । अत्र पक्षे मानसं दुक्खं रिपुभिर्गम्यत इति व्याख्येयम् । प्रदेषोऽलंकारः ॥४७२।।
४७३) हालस्य । [ दुर्गतगृहे गृहिणी रक्षन्ती आकुलत्वं पत्युः । पृष्टदोहदश्रद्धा पुनरपि उदकमेव कथयति ॥ ] घरिणी गृहिणी पुच्छियदोहलसद्धा उययं चिय कहेइ, तुभ्यं किं रोचत इति पृष्टा सती उदकमेव कथयति । इदं मे रोचत इत्यर्थः । क्व । दुग्गय हरम्मि दरिद्रगृहे । किं कुर्वतो । रक्खंती आउलत्तणं पइणो रक्षन्ती आकुलत्वं पत्युः । दुर्लभाभिलाषेण मा खलु अस्मत्पतिराकुलो भूदिति सुलभमेव सलिलं प्रार्थयत इत्यर्थः । स्वीया नायिका ॥४७३॥ १w. ०पोम्मासेहि.
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२०९
-५.७६]
__ पंचमं सयं W474 ४७४) के उद्धरिया के इह न खंडिया के न लुतगुरुविहवा ।
नखाई कामिणीओ गणणारेहाओ व वहति ॥७४॥ W473 ४७५) आयंबलोयणाणं उल्लंमुपपायहोरुजहणाणं ।
अवरोहमज्जिरीणं करण कामो वहइ चावं ॥७५॥ W475 ४७६) विरहेण मंदरेण व हिययं दुद्धोयहिं व महिऊण ।
उम्मूलियाइँ अव्वो अम्हं रयणाई व सुहाई ॥७६॥ ४७४) इन्द्रस्य । [ क उद्धृताः क इह न खण्डिताः के न लुप्तगुरुविभवाः । नसानि कामिन्यो गणनारेखा इव वहन्ति ।। ] गतार्था गाथा । उत्प्रेक्षाऽलंकारः ॥४७४।।
४७५) गणमुग्धायाः ( ? गुणमुग्घायाः)। [ आताम्रलोचनानाम् आर्द्रा शुकप्रकटोरुजघनानाम् । अपराह्नस्नानशीलानां कृतेन कामो वहति चापम् ॥] अवरोहमज्जिरीणं अपराह्नमज्जनशीलानां सीमन्तिनीनां कएण कामो वहइ चावं मन्मथो धनुर्धत्ते तदर्थे । कीदृशीनाम् । आयंबलोयगाणं आताम्रलोचनानाम् । पुनरपि कोहशीनाम् । उल्लंप्यपायडोरुजहणाणं पाशुकप्रकटोरुजघनानाम् । अपराह्नस्नानोन्मोलच्छोभातिशयमनोरमा रामा रमयितुं कामः कार्मुकं करेण कलयति, तासां साहाय्यं कर्तुम् । कामो वहइ चावं इति वा योज्यम् । अत्र पक्षे तद्दशनेन सकामाः कामिनो भवन्तीत्यर्थः । जातिरलंकारः ॥४७५॥
४७६) अनङ्गदेवस्य । [विरहेण मन्दरेणेव हृदयं दुग्धोदधिमिव . मथित्वा । उन्मूलितान्यहो अस्माकं रत्नानीव सुखानि ॥ ] अन्यो अम्हं मुहाई उम्मूलियाई अहो अस्माकं सुखान्युन्मूलितानि। कानोव । रयणाई व रत्नानीव । केन । विरहेण वियोगेन । केनेव । मंदरेण व मन्दरेणेव । किं कृत्वा । हिययं महिऊण हृदयं मथित्वा । कमिव । दुद्धोयहिं व दुग्धो१w. उव्वरिआ; २w. णहराइ; ३w. वेसिणीओ.
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२१०
गाहाकोसो
_ [५.७७W476 ४७७) उज्जुयरएण रूसइ कम्मि विडागमं वियप्पेइ। .
इत्थ अहव्वाइ मए पिए पियं कहनु कायव्वं ॥७७॥ W754 ४७८) हा हा किं तेण कयं मालइविरहम्मि पुत्ति भसलेण ।
- कंकिल्लिकुसुममज्झे जलणु त्ति समप्पियो अप्पा ॥७॥ दधिमिव । मां प्रियविरहो दुःखाकरोतीति भावः । अनेकेवशव्दा वाक्याथोपमाऽलंकारः । वाक्यार्थेनैव वाक्यार्थः कोऽपि यधुपमीयते । एकानेकेवशब्दत्वात् सा वाक्यार्थोपमा द्विधा ॥ ( काव्यादर्श, २,४३ ). विरहिणी नायिका । वागनुभावव्यङ्ग्यो विषादो व्यभि वारी भावः । अव्यो इति दुःखसूचनायां निपातः ।।४७६॥
४७७) अन्ध्रलदम्याः । [ ऋजुकरतेन रुष्यति वके विटागमं विकल्पयति । अत्राभन्यया मया प्रिये प्रियं कथं नु कर्तव्यम् ॥] इत्थ अहवाइ मए अत्रामव्यया मया पिए पियं कह नु कायन्वं प्रिये प्रिय कथ नु कर्तव्यम् । किं कारणमित्याह । उज्जुयरएण रूसइ ऋजुरतेन रुष्यति । विदग्धः खल्वसौ नाविकृतरतेन परितोषमायाति । वंकम्मि विडागमं वियप्पेइ वक्रे विटागमं विकल्पयति । आलिङ्गनचुम्धनादिसकलकलाकलापदर्शने तु विटस्य कस्यचित् संगमं शङ्कते । न चोपायान्तरमस्ति । अत एव कथं मया प्रिये प्रियं कर्तव्यमिति चिन्ता ॥४७७॥
४७८) एतस्याः एव (अन्धलदम्याः )। [हा हा किं तेन कृत मालतीविरहे पुत्रि भ्रमरेण । अशोककुसुममध्ये ज्वलन इति समर्पित आत्मा ॥] मालईविरहम्मि मालतोविरहे पुत्ति तेण भसलेण पुत्रि तेन भ्रमरेण हा हा किं कयं किं कृतम् । किं तद् इत्याह । ककिल्लिकुसुममाझे अशोककुसुममध्ये जलणुः ति समप्पिओ अप्पा ज्वलनोऽयमिति कृत्वा समर्पित आत्मा । मालतीवियोगदुःखादितेन द्विरेफेण अशोकस्तबके विभावसुभ्रान्त्या आत्मा निक्षिप्त इत्यर्थः । भ्रान्तिनामाऽलंकारः । मालती जातिः । कंकिल्ली अशोकः ॥४७८॥ १w. उज्जुअरए ण तूसइ; २w. वि आगमं.
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-५.८०] पंचमं सय
२११ W477 ४७९) बहुविहविलासभरिए मुरए महिलाण को उवज्झाओ ।
सिक्खइ असिक्खियाई सम्बो नेहाणुबंधेण ॥७९॥ W478 ४८०) वण्णवसिए विअच्छसि सच्चं चिय सो न सच्चविओ।
न हु हुंति तम्मि दिटे सत्थावत्थाई अंगाई ॥८॥ ४७९) वामनस्य । [ बहुविधविलासभृते सुरते महिलानां क उपाध्यायः । शिक्षतेऽशिक्षितान्यपि सर्वः स्नेहानुबन्धेन ॥] बहुविहविलासभरिए बहुविधैर्विलासैरालिङ्गनचुम्बना दिसकलकलाकलापेन संकुले सुरए महिलाण को उवमामओ सुरते महिलानां क उपाध्यायः । न कोऽपीत्यर्थः । कथं तर्हि तज्जानन्तीत्याह । सिक्खइ मसिक्खियाई शिक्षतेऽशिक्षितान्यपि सम्बो नेहाणुबंधेण सर्वः स्नेहानुबन्धेन । नोपदेशमपेक्षत इत्यर्थः । तदुक्तम् । उपदेशं विनाऽप्यर्थकामौ प्रतिजनं मतो । न धर्मस्तु विना शास्त्रमिति तत्रादृतो भवेत् । अर्थान्तरन्यासोऽलंकारः ॥४७९॥
४८०) सीहालस्य (? सीहलस्य)। [स्वदेशवासिनि विलोक्यसे सत्यमेव स त्वया न दृष्टः । न खलु भवन्ति तस्मिन् दृष्टे स्वस्थावस्थानि अङ्गानि ॥] वण्णवसिए विअच्छसि स्वदेशवासिनि विलोक्यसे यन् मया स दृष्ट इति । सच्च चिय सो तए न सच्चविमो सत्य
मेव स त्वया न दृष्टः । कथं जानासीत्याह । न हु हुंति तम्मि दिद्वे . न खल्लु भवन्ति तस्मिन् दृष्टे सस्थावत्थाई अंगाइ स्वस्थावस्थानि
अङ्गानि । तस्मिन्नवलोकिते खलु सस्वेदकम्पपुलकोद्गमज़म्भादिभाजि भवन्ति अङ्गानि । न च त्वं तथा दृश्यसे । तस्मादनुमीयते नासौ त्वया दृष्ट इति । सौभाग्यभङ्ग्याऽभिहितं भवतीति (१)। वण्णवसिया स्वदेशवा
सिनी । उत्तरानुमानाक्षेपपर्यायोक्तिभिः संकरोऽलंकारः ॥४८०॥ : १w.. रसिए; २w. असिक्खि आइ वि; ३w. वित्थसि. ४w. संभविओ:
५w. सुत्थावस्थाइ.
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૨૨૨ गाहाकोसो
[५.८१W527 ४८१) लिमइलो वि पंकिमो वि तणरइयसयणदेहो वि।
नंवर गइंदु च्चिय गरुइमाइ ढक्कं समुन्वहइ ।।८।। W528 ४८२) करमरि कीस न गम्मइ, को थामो जेण मसिणगमणा सि।
___ अहिटुंदंतहसिरीऍ जंपियं "चोर जाणिहिसि" ॥८॥ W529 ४८३) योरंसुएहि रुन्नं सपत्तिवग्गेण पुप्फवइयाए ।
भुयसिहरं पइणो पिच्छिऊण सिरमैग्गतुप्पइयं ॥४३॥
४८१) वराहस्य । [धुलिमलिनोऽपि पङ्काङ्कितोऽपि तृणरचितशयनदेहोऽपि । केवलं गजेन्द्र एव गरिम्णा ढक्कां समुद्वहति ॥] केवलं गजेन्द्र एव गरिम्णा ढक्का डिण्डिममुद्रहति । कीदृशः । धूलिमइलो वि धूलिमलिनोऽपि, पंकंकियो वि पङ्काङ्कितोऽपि, तणरइयसयणदेहो वि तृणरचितशयनोऽपि । स एव गरिम्णा ढक्कां समुदहति, नान्य इत्यर्थः । तस्यैव ढक्काशोभनभाव इति । अन्यापदेशोऽलंकारः ॥४८१॥
४८२) [बन्दि कस्मान्न गभ्यते, किं बलं येन मसृणगमनाऽसि । अदृष्टदन्तहसनशीलया जल्पित, “चोर ज्ञास्यसि" ॥] हे करमरि बन्दि, कीस न गम्मइ कस्मान्न गम्यते । को थामो जेण मंदगमना सि किं बलं येन मन्दगमनाऽसि । अहिट्ठदंतहसिरीऍ अदृष्टदन्तहसनशीलया जंपियं चोर जणिहिसि जाल्पितं चोर ज्ञास्यसि । मन्दं मन्दं पदन्यासे स्वस्वामिसामर्थ्य कारणमिति भावः । गर्वो व्यभिचारी भावः । किंचिद्विकसितैर्गण्डैः कटाक्षः सौष्ठवान्वितैः । अलक्षितद्विजं धीरम् उदात्तानां स्मितं भवेत् ॥(नाट्यशास्त्र, ६,६५)। करमरी बन्दी । थामो बलम् ॥४८२॥
४८३) हर्षस्य । [स्थूलाश्रुभी रुदितं सपत्नीवर्गेण पुष्पवत्याः । भुजशिखरं पत्युः प्रेक्ष्य शिरोमार्गस्निग्धम् ।।] थोरंसुएहि रुन्न स्थूलाश्रभिः रुदितम् । केन । सवत्तिवग्गेण सपत्नीवर्गेण । किं कृत्वा । पइणो १w. तणरइयदेहभरणो वि; २w. तह वि गईदो गरुअत्तणेण; ३w. गव्वो; ४w. अदिदंतं हसिरीअ; ५w. लग्ग.
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[-५.८६ पंचमं सयं
२१३ W530 ४८४) लोभी जूरइ जूरउ, वयणिज्ज होइ होउ किं'नाम ।
एहि नुमज्जसु पासे पुष्फवइ न एइ मे निदा ॥८४॥ W531 ४८५) जं जं पुलएमि दिसं पुरओ लिहिउ व्व दीससे तैत्तो ।
तुह पडिमापरिवाडि व वहइ सयलं दिसावलयं ॥८५।। W727 ४८६) दिट्ठीऍ नाव पसरो ताव तुमं सुहय निव्वुई कुणसि ।
चोलीणदंसणो तह तवेसि जह होउ दिछेण ॥८६॥ भुयसिहरं पिच्छिऊण पत्युर्भुजशिखरम् अंसस्थलं वोक्ष्य । कीदृशम् । सिरमग्गतुप्पइयं शिरोमार्गस्निग्धम् । कस्याः । पुप्फवइयाए पुष्पवत्याः । संभोगानुमितसौभाग्यातिशयः सपत्नीनां स्थूलाश्रुपातहेतुः । हेतुरलंकारः । तुप्पइयं स्निग्धम् ।।४८३॥
४८४ [लोकः क्रुध्यति क्रुध्यतु. वचनीयं भवति भवतु किं नाम । एहि निषीद पावें पुष्पवति नैति मे निद्रा ॥] निगदव्याख्यातेयं गाथा । निमग्नसु निषीद । नुमज्जसु इति ने: सदो मज्जादेशः । तदुज्ञोर्बहुलम् (1) इति उत्वे च सति रूपम् (हेमचन्द्र ८,४,१२३,८,१,९४) ॥४८४।।
४८५) तस्या (?) एव ( हर्षस्य ) [यां यां प्रलोकयामि दिशं पुरतो लिखित इव दृश्यसे ततः । तव प्रतिमापरिपाटोमिव वहति सकलं दिशावलयम् ।।] जं जं पुलएमि दिसं यां यां प्रलोकयामि दिशां, पुरओ लिहिउ व्व दीससे तत्तो पुरतो लिखित इव दृश्यसे तस्याम् । हि यतः तुह पडिमापरिवाडि व वहइ सयलं दिसावलयं तव प्रतिमानां परिपाटी पङ्क्तिमिव वहति सकलं दिग्वलयम् । सर्वत्र ध्यानपारमिताबलेन त्वामेव पश्यामीति भावः । स्मृतिरत्र व्यभिचारी भावः । तस्य नायकगतकुलशोलसौन्दर्यादिकम् आलम्बन वेभावः । सर्वत्र तदर्शनमनुभावः । उत्प्रेक्षालंकारः ।।४८५॥
१८६) शिवस्य । [ दृष्टेर्यावत् प्रसरस्तावत् त्वं सुभग निर्वृति करोषि । अतिक्रान्तदर्शनस्तथा तापयसि यथा भवतु पुनर्दष्टेन ॥] दिट्ठीएँ १w तं . २w तत्तो. ३w. दिसाचकं.
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गाहाकोसो
२१४
[१.८७W532 ४८७) मोसरइ धुणइ साहं हुप्पामुहलो पुणो समल्लियइ ।
जंबूफलं न गिण्डइ भमरु त्ति कई पढमडको ॥८७॥ W533 ४८८) न छिवइ हत्थेण कई कंडुयणभरण पत्तलभिउंजे ।
द!लंबियगुच्छकविच्छुसच्छहं वाणरीहत्थं ॥८॥ जाव पसरो दृष्टेर्यावत् प्रसरः ताव तुमं सुहय निवुई कुणसि तावत् त्वं सुभग निर्वृतिं करोषि । वोलोणदंसणो तह तवेसि अतिक्रान्तदर्शनस्तथा तापयसि जह होउ दिद्वेण यथा भवतु पुनदृष्टेन । दृश्यमानःसुसुखं जनयसि, अदृश्यमानस्तु महते दुःखाय जायस इति मूलादेव वरमदर्शनमित्यर्थः । निव्वुई सुखम् । वोलीण अतिक्रान्तम् ।।४८६।।
. ४८७) [ अपसरति धुनोति शाखां गलगर्जितमुखरः पुनः समालीयते । जम्बूफलं न गृह्णाति भ्रमर इति कपिः प्रथमदष्टः ॥] भमरु त्ति कई जंबूफलं न गिण्हइ कपिभ्रमरभ्रान्त्या जम्बूफलं न गृह्णाति । कीदृशः । पढमडक्को प्रथमदष्टः । किं तर्हि करोतोत्याह । ओसाइ धुणइ साह हुप्पामुहलो पुणो समल्लियइ अपसरति धुनोति शास्वां गलगर्जितमुखरः पुनरपि समालीयते । कपिढेिरेफदष्टः स्वजात्यनुरूपं सर्वमेवैमत्करोतीति । जातिभ्रान्तिमदलंकाराभ्यां संसृष्टिरलंकारः। हुप्पा गलगर्जितम् ॥४८७॥
४८८) गङ्गटस्य ।[ न स्पृशति हस्तेन कपिः कण्डूयनभयेन पत्रप्रचुरनिकुञ्ज । दरलम्बितकपिकच्छूगुच्छसदृक्षं वानरीहस्तम् ॥] कई वाणरीहत्थं न छिवइ कपिर्वानरोहस्तं न स्पृशति । कीदृशम् । दरलंबियगुच्छ विच्छुपच्छहं दरलम्बितकापेकच्छगुच्छसदृक्षम् । केन न स्पृशति । कंडूयणभएग कण्डूयनभयेन । क्व । पत्तलणिउंजे पतले पत्रसहिते निकुञ्ज । कपिकच्छुगुच्छभ्रमेण वानरीकरं न स्पृशतोत्यर्थः । भ्रान्तिमानलंकारः ।
प्राकृते पूर्वनिपातस्यानियमात् गुच्छशब्दस्य पूर्वनिपातः ।।४८८॥ . १w खोक्खामुहलो; २w समुल्लिहह; ३w. कंड्इभएण; ४w. दरलंबिगोच्छकइकच्छु.
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[-५.९० पंचमं संयं
२१५ W609 ४८९) गम्मिहिसि तस्स पासं सुंदरि मा तुवर वड्ढउ मियंको।
दुद्धे दुद्धं पिव चंदिमाइ को पिच्छइ मुहं ते ॥८९।। W534 ४९०) सरसा वि सूसइ रिचय जाणा दुक्खाइँ मूढहियया वि ।
स्त्ता वि पंडुर च्चिय जाया बरई तह वियोए ॥९॥
४८९) जयन्तकुमारस्य । [ गमिष्यसि तस्य पार्श्व, सुन्दरि मा स्वरस्व वर्धतां मृगाङ्कः । दुग्धे दुग्धमिव चन्द्रिकायां कः प्रेक्षते मुखं ते ॥] काचित् कांचित् स्वमुखेन्दुद्योतितदिङ्मुखीं प्रियमभिसरन्तोमिदमाह । गमिष्यसि तस्य पाश्व सुन्दरि मा त्वरस्व मा उत्सुका भव । वर्धतां नभोभागमाक्रमतां तावन्मृगाङ्कः । ततः किमित्याह । दुद्धे दुद्धं पिव चंदिमाइ को पिच्छइ मुहं ते दुग्धे दुग्धमिव चन्द्रिकायां कः प्रेक्षते मुखं ते । न कश्चिदित्यर्थः । यथा दुग्धे दुग्धं निक्षिप्तं तथा चन्द्रिकायां वर्णसावात् त्वन्मुखमपि न लक्ष्यते, इति प्रियाभिसरण कारणं कौमुदी भविष्यतीति भावः । तन्मुखेन्दुकान्तिकीर्तनपरेयमुक्तिः । आक्षेपोऽयमलंकारः ॥४८९॥
१९०) जीवदेवस्य । [ सरसाऽपि शुष्यत्येव, जानाति दुःखानि मूढहृदयाऽपि । रक्ताऽपि पाण्डुरैव जाता वराकी तव वियोगे !!] काचित् कस्याश्चिन्नायके रागातिशयं प्रकाशयितुमिदमाह । सा वरई वराकी तुह वियोए तव वियोगे सरसा वि सूसइ च्चिय सरसाऽपि शुष्यत्येव । या किल रसाः भवति सा न शुष्यतीति । जाणइ दुक्खाइँ मूढहियया वि जानाति दुःखानि मूढहृदयाऽपि । या किल मूढहृदया सा दुःखं न जानाति। रत्ता वि पंडुर च्चिय रक्ताऽपि पाण्डुरैव । या किल रक्तवर्णा सा पाण्डुरा न भवतीति विरोधः। तत्त्वतस्तु अविरोधः । सा त्वविरहे सरसा सानुरागा शुष्यति । मूढहृदया मोहान्वितचित्ता त्वद्विरहवेदनां वेत्ति । रक्ता अनुरक्ता पाण्डिम्ना गृहीता । इति तदवस्थानिवेदनपरेयमुक्तिः । विरोधोऽलंकारः ॥४९॥ 1w. चंदिआइ.
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११६ महाकोसो
[५.९१W535 ४९१) नीठप्पलपरिमलवासियरस सरयस्स सो दोसो।
- मारुहइ जुग्णयं मेदयं च जं उयह वल्लरी तउसी ॥९१॥ W536 १९२) उप्पडपहावियजणो पविभियकलयलो पहयतुरो।
उव्वेयंणु म्ह उ छणो तेण विणा गामपडहु च ॥९२॥ W537 ४९३) उल्लावंतेण न होइ कस्स पासहिएण थडढेण ।
संका मसाणपायवलंबियचोरेण व खलेण ॥९॥
४९१) बहुकस्य (? बाहुकस्य )। [ नीलोत्पलपरिमलवासितायाः शरदः स दोषः । भारोहति जीर्णकम् आर्द्रकं च यत् पश्यत वल्लरी त्रपुषी ॥ ] वल्लरी तउसी त्रपुषवल्ली जं यत् अयं जुण्णयं च मारुहह आई जीणं चारोहति स दोषः शरदः । किंभूतायाः शरदः । नीलुप्पलपरिमलवासियस नीलोत्पलपरिमलवासितायाः । शरद किल त्रपुषवल्ली विसपेन्ती यदेव पुरतो भवति तदेवारोहतोत्यर्थः । द्वितीयस्तु वल्लरीशब्दो नायिकां विवक्षते । यदसौ युवानं स्थविरं च भजते स नीलोत्पलवासितस्य सरकस्य दोषः । मदिरामत्तो हि गम्यागम्यं न गणयति । समासोक्तिरलंकारः ॥४९१॥
१९२) हालस्य । [ उत्पथप्रधावितजनः प्रविजम्भितकलकलः प्रहततर्यः । उद्वेजनोऽस्माकं खलु क्षणस्तेन विना प्रामपटह इव ।। ] गतार्था गाथा । ग्रामे किल चोरशङ्कया पटहस्ताइयत इति ॥४९२॥
१९३) तु(तुष्ट) राजस्य । [ उल्लपता न भवति कस्य पार्श्वस्थितेन (पाशस्थितेन) स्तब्धेन । शङ्का श्मशानपादपलम्बितचोरेणेव खळेन ॥] कस्स खलेण न संका होइ कस्य न खलेन शङ्का भवति । कीदृशेन । पासट्ठिएण पार्श्वस्थितेन । भूयश्च कीदृशेन । थड्ढेण स्तच्छन । 1w. The two halves stand transposed; 2w. खुज्जअं; 3w. अबो सो ब्चेव छगो; 4w. गामडाहो व.
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-५.९५]
पंचमं सयं
W538 ४९४ ) असमत्तगरुयकज्जे' इंते पहिए घरं निएऊण । नवपाउसो पिउच्छा इसद व कुडअट्टहासेहिं ॥९४॥ W755 ४९५) ढंखरसेसो वि हु महुयरेहि मुक्को न मालईविडवो । दरवियसियकलियामोयबहलिमं संभरतेहिं ॥९५॥
पुनध कीदृशेन । उल्लावंतेण उल्लापयमानेन, अभिभवता । उल्लाविरयम् अभिभवेऽपि वर्तते । केनेव स्वडेन शङ्का न जन्यते । मसाणपायवलंबियचोरेण व श्मशानपादपलाम्बितचोरेणेव । यथा अनेन (चोरेण) पाशस्थितेन कण्ठार्पितपाशेन स्तब्धेन उल्लपता च शङ्का जन्यते तथा खलेनापि । अस्माकमपकारं करिष्यतीति भावः । श्लेषोपमालंकारः ॥४९३॥
-२१७
४९४) अर्जुनम्य । [ असमाप्तगुरुकार्यान् आयतः पथिकान् गृहं दृष्ट्वा । नवप्रावृट् पितृष्वसहसतीव कुटजा रहा सैः ॥] हे पिउच्छा पितृष्वसः नवपाउसो हसइ व नवप्रावृड् इसतीव किं कृत्वा । घरं इंते पहिए निएऊण गृहं समागच्छतः पथिकान् दृष्ट्रा । कीदृशान् । असमत्तगरुयकज्जे असमाप्तगुरु कार्यान् । कैईसतीव । कुडयट्टहासेहिं कुटजाट्टहासैः । यो यकृतकार्यः अशोकेन निवर्तते स उपहासास्पदं भवतीति । स्वगृहिणीनां संभोगसुखलाभाशयेति या अकृतकार्याणां पथिकानां प्रत्यावृत्तिः सा हास्यहेतुः । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ४९४ ॥
:
....
४९५) अनङ्गस्य । [ पत्रपुष्पर हितशाखाशेषोऽपि खलु मधुकरैर्मुचतो न मालतीविटपः । ईषविकसितकलिकाऽऽमोदबहलिमानं संस्मरद्भिः ॥] दरवियसियकलियामोयबहलिमं संभरतेहिं दरविकसितकलिकाऽऽमोदबहालमानं संस्मरद्भिर्भधुकरै मालतीविटपो न मुक्तः । विभवभ्रंशेऽपि अनुभूतसुखानि स्मरन्तः ( ये ) स्वस्वामिनं न परिहरन्ति त एवं भङ्गीभणित्याऽभिधीयन्त इति । अन्यापदेशोऽलंकारः ॥ ४९५ ॥ 1w. एहि पहिए घरं णिअहंते; 2w महुअरेण; 3w. संभरते.
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२१८ गाहाकोसो
५.९६-2 W539 ४९६) दळूण उन्नमंते मेहे आमुक्कजीवियासाए ।
____ पहियग्घरिणीऍ पई ओरुन्नमुहीऍ सच्चविओ ॥९६॥ W540 ४९७) अविहबळक्खणवलयं ठाणं निंतो पुणो पुणो गलियं ।
सहिसत्थु च्चिय माणसिणीऍ वलयारओ जाओ ॥९॥ w711 ४९८) जं मुच्छियाएँ नै सुयं कलंबगंधेण, तं गुणे पडियं ।
इहरा गज्जियसदो जीएण विणा न वोलंतो ॥९॥
४९६) बन्धुदत्तस्य । [ दृष्ट्रोन्नमतो मेधान् आमुक्तजीविताशया। पथिकगृहिण्या पतिरवरुदितमुख्या दृष्टः ॥ ] पहियग्धरिणाएँ पान्थगृहिण्या पतिदृष्टः । कथंभूतया । आमुक्कजीवियासाए त्यक्तजीविताशया । किं कृत्वा । दळूण 'उन्नमंते मेहे दृष्ट्वोन्नमतो मेधान् । किंभूतया पतिरवलोकितः ।
ओरुन्नमुहीऍ अवरुदितवक्त्रया । एतदुक्तं भवति । प्राप्तायामपि प्रावृषि अप्रत्यावर्तमाने प्रिये सा अश्रुपयःपूरितेक्षणा जाता । पहियधरिणी, डिंभो इति तु क्वचित् पाठः स एव श्रेयान् । सच्चविओ दृष्टः । हेतुरलंकारः ॥४९६॥
४९७) अनुद्भटस्य । [ अविधवालक्षणं वलयं स्थानं नयन् पुनः पुनर्गलितम् । सरवीसार्थ एव मनास्विन्याः (मानवत्याः) वलयकारो जातःः ॥ ] माणसिणोए मानवत्याः सहिसत्थु रिचय वलयारो जाओ सरवोसार्थ एव वलयवणिग् जातः । किं कुर्वन् । अविहवलक्खणवलय पुणो पुणो ठाणं नितो अविधवालक्षणवलयं पुनः पुनः स्थानं नयन् करमूले निवेशयन् । किंमतम् । गलियं कायकाश्यवशेन विस्त्रस्तम् । हेतुरलंकारः ॥४९७||
४९८) तस्यैव ( अनुद्भटस्य )। [यन्मूर्छितया न श्रुतं कदम्बगन्धेन, तद्गुणे पतितम् । इतरथा गर्जित शब्दो जीवेन विना नागमिष्यत् ॥ ] जं मुच्छिायाएँ न सुयं तं गुणे पडियं यन् मूर्छितया १w. पहिअधरिणोअ डिभो; २w. ण सुओ..
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-५.१०.] पंचम सय
२१९ W541 ४९९) पहियवहू निव्वंतरगलियजलुल्ले घरे अणुल्लं पि। .
"उद्देस अविरयवाहसलिलणिवहेण उल्लेइ ॥१९॥ W542 ५००) जीहाएँ कुणंति सुहं तरंति हिययस्स निव्वुइं काउं. ।
' पोडिज्जंता वि रसं मुंयति उच्छू कुलीणा य ॥१०॥ घनगर्जितं न श्रुतं तद् गुणे पतितम् । केन मूर्छितया । कलंबगंधेण कदम्बगन्धेन । कथं गुणे पतितमित्याह । इहरा गज्जियसदो जोएण विणा न वोलंतो इतरथा गर्जितशब्दो जीवेन (जीवितेन) विना नागमिष्यत् । कदम्बपरिमलोत्पन्ना मूर्छा गुणाय जायते स्म । इतरथा यदीयं गर्जितशब्दमश्रोष्यत् तन्नाजीविष्यद् इति । ........रुद्रटमते तु स लेशोऽलंकारः । दोषोभावो यस्मिन् गुणस्य दोषस्य वा गुणोभावः । मभिध यते तथाविधकर्मनिमित्तः स लेशः स्यात् (रुद्रट,७,१००) ॥४९८॥
१९९) साहसस्य । [पथिक वधूधवान्तरगलितजला गृहेऽनामपि । उद्देशमविरतबाष्पसलिलनिवहेनार्द्रयति ॥] पहियवहू पथिकवधूः अणुलं पि उद्देसं उल्लेइ अनार्द्रमप्युदेशमा यति । केन । अविरयवाहसलिलणिवहेण अवरिलवाष्पप्सलिलनिवहेन । क्व । धरे गृहे । कीदृशे । निव्वंतरगलियजलल्ले नोवान्तरगलित नलप्लुते । यत्र च पटलान्तरेण न नीरं निपतितं तत्प्रदेशमाश्रयन्तो बाप्पाम्बुपातेन प्लावयतोस्यर्थः । निव्व पटलम् । उल्लं आदम् । विरहिणो नायिका । तस्या लक्षगम् । त्यक्त्वा गत इत्यादि । निःश्वासरुदितचिन्तादेवोपालम्भदैन्यवचनैश्च । अतिमलिनं वा देषं प्रोषितपतिका निबध्नोयात् ।। जातिरलंकारः ।।४९९॥
५००) स्यन्दनस्य। [जिह्वायाः (जिह्वयः) कुर्वन्ति सुखं शक्नुवन्ति हृदयस्य निर्वृतिं कर्तुम् । पोड्यमाना अगि रसं मुञ्चन्ति इक्षवः कुलीनाश्च ॥] उच्छ कुलीणा य इक्षवः कुलीनाश्च जोहाएँ कुणंति सुहं । १w. विवरंतर; २w. पिअं; ३w होति अ; ४w. जणेति .
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२२०
गाहाकोसो
छटुं सयं W543 ५.१) दीसइ न चूभमउलं अत्ता न य वाइ मलयगंधवहो ।
पत्तं वसंतमासं साहइ उक्कंठिय च्चेय ॥१॥ W544 ५०२) अंबवणे भमरउलं न विणा कज्जेण अमुयं भमइ ।
___ कत्तो जलणेण विणा धूमस्स सिहाउ दीसंति ॥२॥ इक्षवस्तावत् जिह्वायां सुख कुर्वन्ति मधुरत्वात् । कुलीनास्तु जिह्वया कारणभूतया सुखं कुर्वन्ति प्रियंवदत्वात् । तरंति हिययस्स निव्वुई काउं शक्नुवन्ति हृदयस्य निर्वृतिं सुखं कर्तुम् । पीडिज्जता वि रसं मुयंति । तत्रेक्षवो यन्त्रयोगेन पीड्यमाना अपि रसं मुञ्चन्ति । कुलीनाः पुनर्वचनेनापि पीड्यमाना रसम् अनुरागमेव क्षरन्ति, न विरज्यन्त इत्यर्थः । समुच्चयः षोऽलंकारः ॥५०॥
इति हालविरचिते गाथाकोशे श्र भुवनपालवृत्तौ छेकोक्तिविचारलीलायां पञ्चममेतच्छतं समाप्तम् ।।
५०१) [दृश्यते न चूतमुकुलं सखि न च वाति मलयगन्धवहः । प्राप्तं वसन्तसमयं कथयत्युत्कण्ठिका एव ।।] ओ नमो जिनाय । श्रीगौतमाय नमः । हे अत्ता सखि, दोसइ न चूअम उलं दृश्यते न चूनमुकुलं, न य वाइ मलयगंधवहो न च वाति वरति मलयानिलः । पत्तं वसंतमासं साहइ उठिय च्चेय यान्तं सन्तं वसन्तमासम् उत्कण्ठिकैव कथयति अनुभूतचूतमञ्जर्या बाह्यचिह्नमन्तरेण । उत्तर एवोत्कण्ठाभरोऽवतरन्तं वसन्तसमयं शंसतीत्यर्थः । अनुमानालंकारः । तस्य लक्षणम् । बस्तु परोक्षं यस्मिन् साध्यमुपन्यस्य साधकं तस्य । पुनरन्यदुपन्यन्यस्येद् विपरीतं चैतदनुसानम् ।। (रुद्रट, ७, ५६). आचार्यदण्डनस्तु मते ज्ञापको हेतुरयम् । अत्ता पितृष्वसा, श्वथः, सखी च ।।१०१॥
५०२) आदित्यसेनस्य । [आम्रवने भ्रमरकुलं न विना कार्येण उत्सुकं भ्रमति । कुतो चलनेन विना धूमस्य शिखा दृश्यन्ते ॥] अंबवणे १w उक्कंठिअं चेअ.
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२२१
छ8 सयं W545 ५०३) दइयकरम्गहलुलियो धम्मिलो सीडगंधियं क्यणं ।
सेयणम्मि इत्तियं चिय पसाहणं होई तरुणीणं ॥३॥ W546 ५०४) गामतरुणीयो हिययं हरंति पोढाण थणहरुल्लीओ।
मयणे लसतकोमुंभकंचुआहरणमित्ताओ ॥४॥ W547 ५०५) अवलोयंत दिसाओ ससंत जंभंत गंत रोवंत ।
'पुच्छंत पडत हुसंत पहिय किं ते पउत्षेण ॥५॥ भमरउलं आम्रवने भ्रमरकुलं न विणा कजेण ऊसुयं भमइ न विना कार्येण उत्सुकं भ्राम्यति । अत्र मञ्जयुद्गमेन भवतिव्यमिति भावः । अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह । कत्तो जलणेण विणा धूमस्स सिंहाउ दीसंति कुतो ज्वलनेन विना धूमस्य शिखा दृश्यन्ते । अर्थान्तरन्यासोऽलंकारः । अनेन च अर्थान्तरभूतोपमार्थेन अर्थान्तरेण ममायं मुकुलितमाकन्दमर्युद्गमो वह्निरिव संतापाय भवतीति सूचितं भवति ॥५०२।।।
५०३) तस्यैव (आदित्यसेनस्य) । [दयितकरग्रहलुलितो धम्मिल्लः सोघुगन्धितं वदनम् । शयनीय एतावदेव प्रसाधनं भवति तरुणीनाम् ॥] गतार्था गाथा । समुच्चयोऽलंकारः ॥५०३॥
५०४) अचलस्य । [ग्रामतरुण्यो हृदयं हरन्ति प्रौढानां स्तनभारवत्यः । मदनोत्सवे लसत्कौसुम्भकञ्चुकाभरणमात्राः ॥] निगदव्याख्यातेयं गाथा ॥५०४ ॥
५०५) पालित्तकस्य । [अवलोकयन् दिशः, श्वसन्, जम्भमाण, गायन्, रुदन् । पृच्छन्, पतन्, हसन् पथिक कि ते प्रोषितेन ॥] अवलोयंत दिसाओ अवलोकयन् दिशः, ससंत श्वसन्, जंभंत जम्भमाण, गंत गायन, रोवंत रुदन्, पुच्छंत पृच्छन् , पडत पतन् , हसंत हसन्, पहिय पथिक, किं ते पउत्धेण किं ते प्रोषितेन । येनेमाम् उन्म
१w. मअणम्मि एत्ति चिअB२w. हरइ. ३w. छेआण; ४w. कुसुंभराइल० ५w. आलोअंत; ६w मुच्छंत; ७w. खलंत.
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२२२
गाहाकोसो W410 ५०६) इत्ताहि चिय मोहं जणेइ पालत्तणे वि तरुणाणं ।
विसकंदलि ब्व मुद्धा वड्डंती काहिइ अणत्थं ॥६॥ W479 ५०७) आसन्नविवाहदिणेसु नैववहूपिम्मऊमुयमणस्स ।
पढमधरिणीऍ मुरयं वरस्स हियए न संठाइ ॥७॥ W480 ५०८) जइ लोयणि दियं जइ अमंगलं जइ विभिन्नमज्जायं ।
पुप्फवइदंसणं तह वि देइ हिययस्स निव्वाणं ॥८॥ त्तदशां दर्शितोऽसि स तं प्रवास मा कार्षीरिति भावः । जन्न (१) इति । आक्षेपोऽलंकारः ॥५०५॥
५०६) सिरिसत्ताए (! सिरिसत्तीए, श्रीशक्तेः)। [ इदानीमेव मोहं जनयति बालत्वेऽ पि तरुणानाम् । विषकन्दलीव मुग्धा वर्धमाना करिष्यत्यनर्थम् ॥] इत्ताहि श्चिय मुद्धा इदानीमेव मुग्धा बालत्तणे वि मोहं नणेइ बालत्वेऽपि मोहं जनयति तरुणानां यथा चैषा, तथाऽनुमिमीमहे वड्दती काहिइ अणथं वर्धमानाऽनर्थ करिष्यति । केव । विसकंदलि व्व विषकन्दलीव । यथा हि विषवल्लो वर्धमानाऽनथं करोति तथैवेयं प्राप्तयौवना (तरुणानां) मनःसु दुरुत्सहं मन्मथोन्माथस्वरूपमनथं वितरिष्यतीति भावः । उपमाऽलंकारः॥५०६॥ ५०७) पृथ्वीनन्दनस्य । [आसन्नविवाहदिनेषु नववधूप्रेमोत्सुकमनसः । प्रथमगृहिज्याः सुरतं वरस्य हृदये न संतिष्ठते ॥] वरस्स हियए सुरयं न संठाइ जामातुर्हृदये सुरतं न संतिष्ठते । कस्याः । पढमरिणीए प्रथमगृहिण्याः । कथंभूतस्य वरस्य । नववहूपिम्मऊसुयमणस्स नववधूप्रेमोत्सुकमनसः । केषु । आसन्नविवाहदिणेसु आसन्नेषु विवाहदिनेषु । औत्सुक्यं व्यभिचारी भावः । जातिरलंकारः ।५०७॥
५०८) कुम्भभोगिनः। [यदि लोकनिन्दितं यधमङ्गलं यद्यपि भिन्नमर्मादम् । पुष्पवतीदर्शनं तथाऽपि ददाति हृदयस्य निर्वाणम् ।।] पुष्फ१w.. दिणे; २w. अहिणवबहुसंगमुस्सुभमणस्स. ३w. मुकमज्जाअं.
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-६.१०] छ8 सयं
२२३ W483 ५०९) न वि तह अइगरुएण विखिज्जइ हिययं भरेण गम्भस्स।
जह विवरीयणिहुयणं पियम्मि सुन्हा अपार्वती ॥९॥ W608 ५१० वीसत्थहसियपरिसक्कियाण उययंजली पढम दिन्नी।
पच्छा बहुएँ गहियो कुडुंबभारो निमज्जंतो ॥१०॥ वइदसणं पुष्पवतीदर्शनं जइ लोयणि दियं यदि लोकनिन्दितं, जइ अमगलं यधमालं, जइ वि भिन्नमज्जायं यद्यपि भिन्नमर्यादं शास्त्रविरोधात् , तह वि देह हिययस्स निव्वाणं तथाऽपि ददाति हृदयस्य निर्वाण निर्वृतिम् । यद्यपि लोकविरुद्धम् ऋतुमत्या दर्शन, तथाऽपि निर्वाणाय मुक्तये जायत इति विरोधः ॥५०८॥ ५०९) निषद्धस्य (? निषिद्धस्स)। [नापि तथा अतिगुरुणाऽपि खिद्यते हृदयं भरेण गर्भस्य । यथा विपरीतनिधुवनं प्रिये वधुरप्रामुवतो ॥] निगदव्यारव्यातेयं गाथा ॥५०९।।
५१०)[ विश्वस्तहसितपरिष्वकितानाम् उदकाञ्जलिः प्रथमं दत्तः । 'पश्चाद् वधा गृहीतः कुटुम्बमारो निमज्जन् ॥] वहूऍ वध्वा पढमं वीसस्थहसियपरिसक्कियाण उययंजली दिन्नो प्रथमं विश्वस्तहसितपरिष्वक्कितेभ्यो जलाञ्जलिर्दत्तः । पच्छा कुटुंबभारो गहिओ पश्चात्कुटुम्बभारो गृहीतः । कीदृशः सः । निमज्जंतो निमज्जन् । कुटुम्बचिन्तादिकं शृङ्गाराङ्गं न भवतोति भावः । चित्रहेतुरलं कारः । तदुक्तम् आचार्येण-" दूरकार्यस्तत्सहजः कार्यानन्तरजस्तथा। अयुक्तयुक्तकार्यों चेत्यनन्ताश्चित्रहेतवः ॥ (काव्यादर्श २, २५३)। अमीषां मध्ये कार्यानन्तरजोऽयम् । रुद्रटस्य तु मतेन अतिशयविशेषः पूर्वोऽयम् । यत्रातिप्रबलतया विवक्ष्यते 'पूर्वमेव जन्यस्य । प्रादुर्भावः पश्चाज जनकस्य तु तद् भवेत् पूर्वम् ॥ रुद्रट, ९, ३) ॥५१॥ १w. तम्भइ हिअए; २w. सोण्हा; ३w. पढम जलंजली दिग्णो.
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२२४.
गाहाकोसो
[६.११
W610 ५११) जइ जूरइ जुरउ नाम मामि परलोयवसणिओ लोभो । तह वि बला गोमणिउत्तवयणकमले वलइ दिट्ठी ॥ ११ ॥ W611 ५१२) धोयें व चित्तयम्मं उज्झरकुहरं व सलिलसुन्नइयं । गोहरहियं गुद्धं व तीऍ वयणं तुइ विओए ॥ १२ ॥
५११) विन्ध्याधिपस्य । [ यदि खिद्यते विद्यतां नाम सखि परलोकव्यसनी लोकः । तथाऽपि बलाद् प्रामणीपुत्रवदनकमले बलते दृष्टिः ||] हे मामि मातः (? मातुलानि), लोओ जइ जूरइ जूरउ नाम लोको यदि खिद्यते विद्यतां नाम । कीदृशः । परलोयवसणिओ धार्मिकः । तह वि बला गामणिउत्तवयणकमळे वलइ दिट्ठी तथाऽपि बलाद् ग्रामणीपुत्रवदन-कमले वलते दृष्टिः । तदेव दृष्टिवृत्तिहेतुश्चित्तोल्लासो हेला, सा च पुंसोऽपि भवति । हेला भावश्व हावश्च व्याजो विस्रम्भभाषणम् । चाटु प्रेमानुसन्धानं परीहासः कुतूहलम् । चकितं चेति निर्दिष्टाश्चेष्टाः काश्चिद् विलासिनाम् || मामि इति मातुलानि, सखि च । जूग्इ इति खिदेर्जूर इति जुरादेशे रूपम् ॥५११ ॥
५१२) अरदेवस्य । [ धौतमिव चित्रकर्म निर्झरकुहरमिव सलिलशून्यम् । गोधनरहितं गोष्ठमिव तस्या वदनं तव वियोगे ||] काचित् कस्याश्चिद् विरहदुरवस्थां प्रतिपादयितुमाह । तीए वयणं तस्या वदनं तुह विमोए तब वियोगे धोयं व चित्तयम्मं धौतमिव चित्रकर्मकार्यम्, अञ्जनपत्रलेखावर रागादिरहितमित्यर्थः । धौतं हि चित्रकर्म व्यपेतवर्णकं भवति । पुनरपि कीदृशम् । उज्झरकुहरं व सलिलसुन्नइयं निर्झरकुहरमिव सलिलशून्यम् । विच्छायमित्यर्थः । शुष्कौष्ठगलकतालुकमित्यपरे । भूयश्च कीदृशम् । गोहणरहियं गुठं व गोधनरहितं गोष्ठमिव । निःशब्दमित्यर्थः । सशब्दं हि अनेकगोधनध्वनिमनोहरम् । अन्ये तु शोभनशुन्यत्वमात्रमेव प्रतीयमानं सामान्यधर्ममाश्रित्य उपमा अत्र इयमित्याहुः ॥ ५१२॥ १w. गामणिणंदणस्स वअणे; २w. गेहं व वित्तरहियं ३w. णिज्झर०.
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-६.१६]] छठं संयं
२२५ W756 ५१३) समुहागयवोलोणे वि सा तुमे अपडियंगसंठाणा ।
. रुंदं पि गामरच्छे निदइ तणुयं च अप्पाणं ॥१३॥ W757 ५१४) समईच्छंति नियतंति पसरिया रणरणंति तद्दियई।
चलचित्त तुज्झ लग्गा मणोरहा तीइ हिययम्मि ॥१४॥ W484 ५१५) अगणियजणाववायं अवहीरियगुरुयणं वराईए ।
तुह गलियदंसणासाएँ तीऍ दीई चिरं रुन्नं ॥१५॥ W481 ५१६) हिययं हियेयणिहित चित्तालिहिय व्व तुह मुहे दिट्ठी।
आलिंगणदुहियाई नवरोलुग्गाइँ अंगाई ॥१६।। ५१३) अपराजितस्य । [ संमुस्वागतातिक्रान्तेऽपि सा त्वय्यपतिताङ्गसंस्थाना । विस्तोर्णामपि ग्रामरथ्यां निन्दति तनुं. चात्मानम् ॥] गतार्था गाथा । बोलीणं अतिक्रान्तम् । रुंदं विस्तीर्णम् ॥५१३॥
५१४) स्कन्ददासस्य । [ समतिका मन्ति, निवर्तन्ते. प्रसृता रणरणकं कुर्वन्ति अनुदिवमम् । चवित्त तव (=त्वयि) लाना मनोरथास्तस्या हृदये ॥] गतार्था गाथा । समइच्छंति अतिक्रामन्ति ।। ५१४॥
५१५) नागबलस्य । [ अगणित ननापवादम् अवघोरितगुरुजनं वराक्या । तव गलितदर्शनाशया तया दोघं चिरं रुदितम् ॥] काचित् कस्याश्चिद् दुरवस्था प्रकाशयितुम् इदमाह । त ऍ वराईए दीहं चिरं रुन्नं तया वराक्या दीर्घ चिरं रुदितम् । कथंभूतया । तुह गलियदसणासाएँ तव गलितदर्शनाशया । कथं रुदितम् । अगणियजणाववायं अगणितजनापवादम्. अवहीरियगुरुयणं अवधोरितगुरुजनम् । तया त्वदर्शनमनासादयन्त्या अविगणय्य निजकुलकलङ्कम् (रुदितम् ) ॥५१५॥
. ५१६) हरिराजस्य । [ हृदयं हृदयनिहितं चित्रालिखितेव तव मुखे दृष्टिः । आलिङ्गनदुःस्थितानि केवलमवरुग्णानि अङ्गानि ॥] हिययं
१w .समुहागयवोलंतम्मि सा तुमे अघडियंगसंठाणा. २w. सममच्छंति; ३w. अवहरिथा ४w. तीअ वलिउं चिरं रुण्णं; ५w. हिअए णिहिअं; ६w. आलिंगणरहिआई; ७w. णवरं झिज्जति अंगाई.
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२२६
... गाहाकोसो .
[६.१७
W486 ५१७) अहयं विओयतणुई, दुसहो विरहाणलो, चलं जीयं ।
अपाहिज्जइ किं सहि जाणसि तं चेय जं जुत्तं ॥१७॥ W487 ५१८) तुइ विरहे जग्गिरओ सिविणे वि न देइ दसणसुहाई।
___ बाहेण पहालोयणविलोयणं मे "हियं तं पि ॥१८॥ हिययणिहित्तं तस्या हृदयं तव हृदये निहितम् । चित्तालिहिय व्व तुह मुहे दिट्ठी चित्रालिखितेव निर्निमेषतया तव मुखे दृष्टिः । मालिंगणदुहियाइं आलिङ्गनदुःस्थितानि नवरोलग्गाइँ अंगाई केवलं विच्छायान्यङ्गानि । मतिविस्मयो भावौ स्थापितौ । उलुग्गं विच्छायं दुर्बलं वा । दुहियं दुःस्थितम् । णिहित्तं इति निहितशब्दस्य सेवादिपाठात् (वररुचि, ३,५८) द्वित्वे सति रूपम् । नवरं केवलार्थे निपातः ॥५१६॥
५१७) ध्रुवमस्य । [ अहं वियोगतन्वी दुस्सहो विरहानलश्चलं जीवितम् । संदिश्यते किं सखि जानासि त्वमेव यद युक्तम् ॥] काचिद दूतीं संदिशन्तीदमाह । अहयं विओयतणुई अहं वियोगतन्वी, दुसहो विरहाणलो दुस्सहो विरहानलः, चलं जीयं चलं जीवितम् । अप्पाहिज्जइ किं सहि जाणसि तं चेय जं जुत्तं संदिश्यते किं सखि जातो (१ यतो) जानासि त्वमेव यद् युक्तम् । कालोचितं संचिन्त्य चेतसि त्वमेव सर्व कुर्वीथाः । सर्वथा हृदयदयितम् इहानेष्यसीति भावः । अनुनयाग्रहणाद रोषमुषिता प्रिये गतवति सानुशया कलहान्तरिता नायिका । अप्पाहियं संदिष्टम् ॥५१७॥
५१८) शूद्रकस्य । [ तव विरहे जागरक: स्वप्नेऽपि न ददाति दर्शनमुखानि । बाप्पेण पथालोकनविलोकनं मे हृतं तदपि ॥] काचित् प्रवासिनं प्रियं प्रति सोत्प्रासं संदिशन्ती उपालम्भमिममाह । तुह विरहे जगिरओ तव विरहे उज्जागरकः सिविणे वि न देइ दंसणसुहाई स्वप्नेऽपि न ददाति दर्शनसुखानि । सुप्तया किल स्वप्नो लभ्यत इति । किमेताव१w. अप्पाहिज्जउ; २w. विरहुज्जागरओ; ३w. ०विणोअणं; ४w. हअं.
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२२७
-६.२०]
छर्टी सयं W339 ५१९) उप्पिक्खागय तुह मुहदंसणपडिरुद्धजीवियासाए ।
दुहियाएँ मए कालो किच्चिरमित्तु व नेयवो ॥१९॥ W627 ५२०) तेह तेणं सा दिवा ती तह तस्स पेसिया दिट्ठी।
जइ दुन्नि वि समयं चिय निव्वत्तरयाइँ जायाइं ॥२०॥ . देव । नेत्याह । बाहेण पहालोयणविलोयणं मे हियं तं पि बाप्पेण पथालोकनेक्षणं मम हृतं तदपि इति । त्वद्वियोगेऽहम् ईदृशी दशा प्राप्ता, त्वं पुनः सुष्ठु निष्ठुरो यदेतां प्रवासवासनां न विजहासीति मायाऽमिहितं भवति । जग्गिरओ इति जागुः कृति असंतृड्वरीति जभावनिषेधात् गधाभावे (?) (वृद्धयभावे) घनि गुण एव । सिविण इति स्वप्नशब्दस्य ईषत्पक्वस्वप्नेत्यादिना (वररुचि, १,३) अत इत्वम् । विरहिणी नायिका । निःश्वसितरुदितचिन्तादैवोपालम्भदैन्यवचनैश्च । हृद्दाहदेहदौर्बल्यखेदनिर्वेदजागरणः । त्यक्तागुलीयवलयां लम्बालकवेणिकासमायुक्ताम् । प्रतिमलिनाम्बरवेषां प्रोषितपतिकां निबध्नीयात् ॥५१८॥
५१९) विरञ्चाचार्यस्य । [ उत्प्रेक्षागत तव मुखदर्शनप्रतिरुद्धजीविताशया । दु:खितया मया कालः कियच्चिरमात्र इव नेतव्यः ॥] काचित् प्रवासिनं प्रिय प्रति संदिशन्तीदमाह । कालो दुहियाएँ मए कालो दुःखितया मया किच्चिरमित्तु व्व नेयवो कियन्मात्र इव नेतव्यः । कथंभूतया मया । उम्पिक्स्वागय तुह मुहदंसणपडिरुद्धजीवियासाए उत्प्रेक्षागतं यत् त्वन्मुखदर्शनं तेन प्रतिरुद्धजीविताशया । एतदुक्तं भवति । यदहं त्वविरहे जीवामि तत्र ध्यानपारमितया त्वन्मुखकमलावलोकनं हेतुरिति । विरहिणी नायिका ॥५१९॥
___ ५२०) हालस्य । । तथा तेन सा दृष्टा तया तथा तस्य प्रेषिता दृष्टिः । यथा द्वावपि सममेव निवृत्तरतौ जातौ ॥] तह तेणं सा दहा तथा तेन विधिना स्नेहाया दृशा सा कृशाङ्गी तेन दृष्टा, तीए तह तस्स १w. केत्तिअमेत्तो; २w. तह तेण वि; ३w. तीअ वि; ४w. दोण्ह वि.
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२२८
गाहाकोसो
[६.२१
W498 ५२१) मुहपिच्छओ पई से सा वि हु सविसेसदसणुम्मइया ।
दो वि कयत्था पुहईऍ पुरिसमहिल त्ति भणंति ।।२१॥ W488 ५२२) अन्नावराहकुविओ जह तह कालेण वच्चसि पसायं ।
वेसत्तणावराहेण कुविय, कह तं पसाएमि ॥२२॥
पेसिया दिट्ठी तयाऽपि तथा सललितवलितापाङ्गपातिनी दृष्टिरिष्ट जनस्य तस्य प्रेषिता, जह दुन्नि वि समयं चियं यथा द्वावपि तो स्त्रीपुरुषो समय चिय सममेव तुच्यमेव निव्वत्तरयाईं जायाइं निवर्तित (? निवृत्त) रतौ जाती। पूर्वानुरागे अन्योन्यं साक्षाद्दर्शने गाथेयम् । रतिस्तु स्थायी भावः ॥५२०॥
५२१) पवनस्य । [ मुखप्रेक्षकः पतिस्तस्याः साऽप खलु सवि शेषदर्शनान्मत्ता । द्वावपि कृतार्थे पृथिव्यां पुरुषमाहले इति भण्ये ते ॥] काचित् कयोश्चिद् दंपत्योरितरेतरानुरागं वर्णयितुमिदमाह । मुहपिच्छओ पई से मुखप्रेक्षिता पतिस्तस्याः । किमेतावदेव । नेत्याह । सा वि हुसविसेसदसणुम्मइया साऽपि खलु सविशेषदर्शनोन्मत्ता । अतश्च दो वि कयथा पुहईएँ पुरिसमहिल त्ति भण्णंति द्वावपि कृतार्थी पृथिव्यां पुरुषमहिले इति भण्येते, न पुनरन्य इत्यर्थः । स्वाधीनभर्तृका नायिका । तस्या लक्षणम्-यस्याश्चित्ररतक्रीडासुखाऽऽस्वादनलालसः । न मुञ्चति पतिः पावं सा तु स्वाधीनभर्तृका ॥ अनुकूलो नायकः । तस्य लक्षणम्अतिरक्त तया नार्या करोति नान्याप्रसङ्गं यः । स्यान्नायकोऽनुकूलः स रामवज्जनकतनयायाम् ॥५२१॥
__ ५२२) सहदेवस्य । [अन्यापराधकुपितो यथा तथा कालेन व्रजसि प्रसादम् । द्वेष्यत्वापराधेन कुपित, कथं त्वां प्रसादयामि ।।] काचित्
कान्तकृतानुनयेऽपि यदा न प्रसीदति तदा तदीयद्वेषदोषमुद्भाव्येदमाह । १w. पुहई अमहिलपुरिसं व मण्णति. २w. गच्छइ; ३w, वेसत्तणावराहे कुविअं.
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- ६.२४] छर्टी सयं
२२९ W489 ५२३) दीससि पियाइँ जंपसि सम्भावो सुहय इत्तिउ च्चेय ।
फालेऊण य हिययं साहसु को दावए कस्स ॥२३॥ W491 ५२४) भग्गपियसंगम कित्तियं व जुन्हाजलं नहसरम्मि ।
जं चंदपणालोज्झरणिवहपडतं न निट्ठाइ ॥२४॥ अन्नावराह कुविओ अन्येनापराधेन वाक्पारुष्यादिना कुपितस्त्वं जह तह कालेण वच्चसि पसायं यथा तथा कालेन व्रजसि प्रसादम् । वेसत्तणावराहेण कुविय द्वेष्यत्वापराधेन कुपित कह तं पसाएमि कथं त्वां प्रसादयामि । न कथंचिदित्यर्थः ॥५२२॥
५२३) वनदेवस्य । [दृश्यसे प्रियाणि जत्पसि सद्भावः सुभगैतावानेव । पाटयित्वा हृदयं कथय को दर्शयति कस्य ॥] दीससि पियाइँ जंपसि दृश्यसे प्रियाणि जल्पसि,सब्भावो सुह्य इत्तिउ च्चेय सद्भावः सुभग एतावन्मात्र एव । यतः फालेऊण य हिययं पाटयित्वा हृदयं साहसु को दावए कस्स कथय को दर्शयति कस्य । न कश्चित् कस्यापि दर्शयतीत्यर्थः । दक्षिणो नायकः ॥५२३॥
५२४) राघवस्य । [भग्नाप्रयसंगम कियत्प्रमाणमिव ज्योत्स्नाजलं नभःसरसि । यच्चन्द्रप्रणालनिर्झरनिवहपतन्न निस्तिष्ठति ॥] काचित् पूर्णेन्दुधुतियोतितदिङ्मुखायां निशायां प्रियतमसङ्गमलभमाना स्वगतमिदमाह । कित्तियं व जुन्हाजलं नह सरम्भि कियत्प्रमाणमिव ज्योत्स्नासलिलं नमःसरसि । कीदृशम् । भग्गपियसंगमं भग्नप्रियसंगमम् । किं तु (१) नं चंदपणालोज्झरणिवहपडतं यच्चन्द्रप्रणालनिर्झरनिवहेन पतत्, न निट्ठाइ न निरवशेषं भवति । संतुडन्तेनापि समासः (१) प्राकृते दृश्यत इति । रूपकम् अलंकारः । कित्तियं व इत्युपमेयशब्दो (!) वाक्यालंकारमात्रे, यथाकिमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् (शाकुन्तल, १,१९) ॥५२४॥ १w. फालेइऊण हिअअं २w. चंदअरपणालणिज्झरणिवह ०.
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२३०
गाहाकोसो
[६.२५
W492 ५२५) सुंदरजुवाणजणसंकुले वि तुह दंसणं विमग्गंती । रणेमि व भमइ वराइयाऍ दिट्ठी अणुव्वाया ॥२५॥ W481 ५२६) जइ न छिवसि पुप्फवई पुरओ ता कीस वारिओ ठासि । छिक्को सि चुलचुलुंतेहि पसरिएहि अम्ह हत्थेहिं ॥ २६ ॥ W482 ५२७) उज्जग्गिरयकसाइयगरुयच्छो मोहमंडण विलक्खा । गार्मेसिया विवज्जइ अवेज्जए कस्स साहेमो ||२७|| ५२५) दुरामर्षस्य । [सुन्दरयुवजनसंकुष्ठेऽपि तव दर्शनं विमार्गयन्ती । अरण्य इव भ्राम्यति वराक्या दृष्टिष्पाप्लुता || ] काचित् कस्याश्चिद् अनुरागातिशयं प्रकाशयितुमिदमाह । वराइयाऍ दिनो भमइ वराकिकाया दृष्टिभ्रम्यति । किं कुर्वती । तुह दंसणं विमगंती तव दर्शनं विमार्गयन्ती । कीदृशी दृष्टिः । अणुव्वाया सरसा बाष्पाप्लुतेति यावत् । कदाचिदन्यो मनोहर मूर्तिर्न भवतीत्याह । सुंदरजुवाणजणसंकुले वि सुन्दयुवजननिरन्तरेऽपि स्थाने । कस्मिन्निव भ्राम्यति । रण्णम्मि व अरण्य इव शून्ये, त्वदालो कनोत्कण्ठा दृष्टिः ससंभ्रमं भ्राम्यति । एतदुक्तं भवति । सा त्वयि रक्ता त्वं तत्प्रेम प्रति शिथिल इति । उपमाऽलंकारः । आवेगो नाम व्यभिचारी भावः ||५२५||
1
५२६ ) [ यदि न स्पृशसि पुष्पवर्ती पुरतस्तत् कस्माद् वारितस्तिठसि | स्पृष्टोऽसि कण्डूलाभ्यां प्रसारिताभ्यामस्माकं हस्ताभ्याम् ||] गतार्थ गाथा | चुल्लुचुलुंते हि कण्डूलैः । चपलता व्यभिचारी, रतिः स्थायी भावः । लीला चेष्टालंकारः । लक्ष्मभ्यः सूचितं निह्नवश्व विक्रीडितं मृगादीनाम् (मृगाक्षीणाम् ) । सुरतस्पर्शन मिथ्याभियोग संशस्य संरोधाः (?) ।। लीला विरोधी इति (१) ॥५२६ ॥
५२७) परमेश्वरस्य । [ उजागरकषायितगुर्वक्षी मोघमण्डनविलक्षा | ग्रामणीसुता विपद्यतेऽवैद्य के कस्य कथयामः ] ॥ ५२७॥
१w. रणे व भ्रमइ दिट्ठी वराइआए समुव्विग्गा; २w छित्तो सि चुलचुलंतेहि धाविऊण म्ह हत्थेहिं; ३w. उज्जागरअ; ४w. लज्जइ लज्जालुइणी सा सुहअ सहीण विवराई.
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___२३१
-६.३०]
छटुं संयं W493 ५२८) इकोवणा वि सासू रुयाविया गयवईऍ मुन्हाए।
पायवडणोणयाए दोमु वि गलिएसु वलएमु ॥२८॥ W501 ५२९) आउच्छणणित्यामं जायाऍ मुहं नियच्छमाणेण ।
पहिएण सोयेणियलिएण गंतुं चिय नै तिण्णं ॥२९॥ W502 ५३०) सूईवेहे मुसलं विच्छुहमाणेण दड्ढलोएण ।
इक्कग्गामे वि पिमओ समेहि अच्छीहि वि न दिछो ॥३०॥
५२८) दुर्लभराजस्य । [अतिकोपनाऽपि श्वश्रू रोदिता गतपतिकया स्नुषया । पादपतनावनतया द्वयोरपि गलितयोर्वलययोः ॥] अइकोवणा वि सासू रुयाविया अतिकोपनाऽपि श्वश्रूरश्रुमुखी कृता, पायवडियाए पादपतितया सुन्हाए स्नुषया पुत्रपन्या । कथंभूतया । गयवईऍ गतपतिकया । क्व सति रोदिता । दोसु वि गलिएसु द्वयोरपि गलितयोलययोः । कायकार्यवशविनस्तवलयदर्शनेन "अहो ईदृशी दशामियं मत्पुत्रस्यार्थे प्राप्ता वर्तते वराकी" इति श्वश्रूरुदश्रुमुखी जातेति तात्पर्यार्थः । लक्ष्यक्रमोद्योतितध्वनिप्रभेदे अर्थशक्त्यनुरणनव्यापारव्यङ्ग्यो ध्वनिरलंकारः । पर्यायोक्तिरित्यन्ये ॥२८॥
५२९) दुघस्य । [आपृच्छननि:स्थामं जायाया मुखं पश्यता । पथिकेन शोकनिगडितेन गन्तुमेव न शक्तम् ॥] जायाएं मुहं नियच्छमाणेण जायाया मुखं निरीक्षमाणेन, गंतुं चिय न तिण्णं गन्तुमेव न शक्तम् । कीदृशम् । आउच्छणणित्थामं पुनर्दर्शनप्रश्नेन. निःस्थामं निःसहम् । कीदृशेन पथिकेन । सोयणियलिएण शोकनिगडकलितेन । अत एष गन्तुं न पारितम् । भाउच्छणं पुनदर्शनप्रश्नः । थामं बलम् । नियच्छणं दर्शनम् । तरति शक्नोति । हेतुरलंकारः ॥५२९॥ . ..
५३०) बुद्धभट्टस्य । [सूर्च वेधे मुशलं विक्षिपता दग्धलोकेन । एकनामेऽपि प्रियः समाभ्यामक्षिश्यामपि न दृष्टः ॥] इक्कागामे वि पिमो १w. विच्छाअं; २w. सोअणिअलाविएण, ३ w. ण इटुं.
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२३२ :
गाहाकोसो
[ ६.३१-.
W503 ५३१) अज्ज पि ताव इक्कं मा मं वारेहि पियसहि रुयंति ।
कल्लं पुण तम्मि गए जेइ न मरिस्सं न रोइस्सं ॥३१॥ W504 ५१२) "ऐ एहि" वाहतम्मि पिययमे उदुमदीए इत्ताहे।
.. ओणयमुहोएँ दिन्नो विउणो वेढो नियंबस्स ॥३२॥ एक ग्रामेऽपि प्रियः समेहि अच्छीहि वि न दिट्ठो समाभ्याक्षिभ्यां न दृष्टः । केन कारणेन । सूईवेहे मुशलं विक्षिपमाणेन दग्धलोकेन । एतदुक्तं भवति । अयं दग्धलोकः सुक्ष्मसूचीसुषिरेण मुशलं प्रवेशयन् , छिद्रलवं लब्ध्वा, असंभाव्यमपि भावयतीति एकप्रामेऽपि स समया दृशाऽभीष्टो न दृष्ट इति । अन्याय (2) प्रगल्भा स्त्री। हेतुरलंकारः ॥५३०॥
५३१) विक्रान्तभानोः । [अद्यापि तावदेकं मा मां वारय प्रियसखि रुदतोम् । कल्यं पुनस्तस्मिन्गते यदि न मरिष्यामि न रोदिष्यामि ।।] काचित् प्रातः प्रियो व्रजिष्यतीत्याकये सखीभिर्निवार्यमाणा इदमाह । अज्ज पि ताव इकं अद्यैव तावदेकं मा मं वारेहि पियसहि रुयंतिं मा मां वारय प्रियसखि रुदतीम् । कल्लं पुण तम्मि गए कल्यदिने पुनस्तस्मिन् प्रिये प्रोषिते जइ न मरिस्सं न रोइस्सं यदि न मरिष्यामि तदा न रोदिष्यामि । मरिष्याम्येवेति भावः ॥५३१॥
५३२) शिवराजस्य । ["अयि एहि" व्याहरति प्रियतम ऋतुमत्या "इदानीम्" । अवनतमुख्या दत्तो द्विगुणो वेष्टो नितम्बस्य ॥] उदुमईऍ विउणो वेढो नियंबस्स दिन्नो ऋतुमत्या नायिकया द्विगुणावेष्टितं नितम्बस्य दत्तम् । कथंभूतया तया । ओणयमुहीऍ अवनतवक्त्रया । क्व सति । 'इत्ताहे ए एहि" पिययमे वाहरंतम्मि इहोति प्रियतमे व्याहरति सति । द्विगुणावेष्टित वस्त्रनितम्बतया रजस्वलाऽस्मीति ज्ञापितं भवति । उदुमई इति ऋत्वादेरुत्वे (वररुचि, १,२९) रूपम् । ज्ञापकहेतुसूक्ष्माभ्यां संकरालंकारः ।।५३२॥
१ w. जइ ण मुआ ता ण रोइस्स; २ w. एहि त्ति वाहरंतम्मि; ३w. दूमिआइ. इत्ताहे ४ w. विउणावेढिअजहणत्थलाइ लज्जोणअं हसिअं.
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--६.३४]
छ सयं
W505 ५३३) मारेसि कं न मुद्धे इमेण रत्तततिक्खविसमेण । भुमयळयाचावविणिग्गएण नयणद्धभल्लेण ॥ ३३ ॥
Ww720 ५३४) दिंडीए जं न दिट्ठो सरलसहवाऍ जं न आलतो । उवयारो जं न कओ तं चिय कलियं छइल्लेहिं ॥ ३४ ॥
२३३
५३३ ) सलवणस्य । [ मारयसि कं न मुग्धे अनेन रक्तान्ततीक्ष्णविषमेण । भ्रूलताचापविनिर्गतेन नयनार्थभल्लेन ।] हे मुद्धे मुग्धे, इमेण नयणद्ध भल्लेण कं न मारेसि अनेन नयनार्धभल्लेन कं न मारयसि । कीशेन । भुमयलयाचावचिणिग्गएण भ्रूलताचापविनिर्गतेन । भूयश्च कीदृशेन । रतंततिवखविसमेण रक्तान्ततीक्ष्णविषमेण । एवंभूतेन नयनार्धबाणेन कं न मारयसि सर्वमेव मान्यखीति । तोक्ष्णपक्ष्मलकटाक्षविक्षेपास्तव दुस्सहा इति भल्लतुल्यत्वं तेषाम् । त्वया ( अहं सर्वो वा ) इत इत्यर्थः । रूपकमलंकारः । - उपमैव तिरोभूतभेदा रूपक भिष्यते (काव्यादर्श, २,६६ ) ॥५३३॥
५३४) महिषासुरस्य । [दृष्ट्या यन्न दृष्टः सरलस्वभावया, - यन्नापितः । उपचारो यन्न कृतस्तदेव कलितं छेकैः ||] दिट्ठीऍ जं न दिट्ठो दृष्ट्या यन्न दृष्टः । कीदृश्या । सरलसहावाऍ सरलस्वभावया । जं न आलत्तो यन्नालपितः संभाषितः । उवयारो जं न कओ उपचारो गृहगमनगौरवम् आसनदानादिकं यन्न कृतं तं चिय कलियं छइल्लेहिं - तदेव कलित ज्ञातं प्राज्ञैः । इयमस्मिन्ननुरक्तेति मा कश्चिदज्ञो जाना* त्विति य एव स्वाभिप्रायगोपनोपायस्तस्याः, स एव च्छेकलोकस्य तदीयाशयोन्नयनं जातम् । आकृतिरन्यथाभावाद अन्यथात्वं सूचयति । यत्खलु दर्शनयोग्यस्य यूनोऽदर्शनं यच्च आलाप्यस्यानालपनं, यदुपचार्य- स्याप्यनुपचारः तेन ज्ञातम् इयमस्मिन्ननुरक्तेति । ज्ञापकहेत्वनुमानयोः क्षीरनीरन्यायेन संकरोऽलंकारः ॥ ५३४ ||
"
१w. भुलआचावविणिग्ग अतिक्खअरद्धच्छिभल्लेण; २w. दिट्ठाइ, ३. जं च णालविओ.
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२३४
गाहासो
[६.३५
W506 ५३५) तुह दंसणसत्तण्डा सदं सोऊण निग्गया जाई । ती तर बोलीने पयाइँ वोढव्वया जाया ॥ ३५॥ W743 ५३६) भिउडीएं पुलोइस्सं निव्भच्छिस्सं परंमुही हुस्सं । जं भणह तं करिस्सं सहोओ जइ तं न पिच्छिस्सं ॥ ३६॥
५३५ ) प्रवरसेनस्य । [तव दर्शनसतृष्णा शब्दं श्रुत्वा निर्गता यानि । तानि त्वय्यतिक्रान्ते पदानि वोढव्या जाता ||] काचित् कस्याश्चिन्नायकस्यानुरागं युक्त्या वक्तुमिदमाह । तुह सद्दं सोऊण तव शब्द श्रुत्वा दंसणसत्तण्डा दर्शनसतृष्णा सती जाईं पयाईं निग्गया यानि पदानि वेश्मनो बहिर्निर्गता ताई तड़ बोलीणे तानि पदानि त्वयि गते सति वोढव्वया जाया वोढव्या वहनीया जाता । तानि पदानि साऽन्येनानीयतेति भावः । जडना व्यभिचारी भावः । सत्तण्हा इति सेवादिगणपाठाद् द्वित्वम् ||५३५॥
५३६) अन्ध्रक्ष्याः । [ भ्रुकुट्या प्रलोकयिष्यामि निर्भर्त्सयिष्यामि पराङ्मुखी भविष्यामि । यद् भणथ तत्करिष्यामि सख्यो यदि तं न द्रक्ष्यामि ||] काचित् कृतापराधे प्रिये 'त्वया एवमेवं कर्तव्यम्' इति स्वसख्याऽभिहिता सती इदमाह । हे सहीओ सख्यः, जं भणह तं करिस्सं यद् भणथ तत् करिष्यामि जइ तं न पिच्छिस्सं यदि तं न प्रेक्षिष्ये । किं तद् यत् करिष्यसीत्याह । भिउडीऍ पुलोइस्र्स भ्रुकुट्या प्रलोकयियामि, निव्भच्छिरसं निर्भर्त्सयिष्यामि, परंमुही हुस्सं पराङमुखी भविव्यामि । तस्मिन् पुनरवलोकिते तदर्शनहृतहृदया भ्रूभङ्गनिर्भर्सन पृष्ठदानादिकं कर्तु न शक्नोमीति । उत्तरालंकारः । तस्य लक्षणम् - उत्तरवचनश्रवणाद् इत्यादि ( रुद्रट, ७, ९३ ) ॥५३६॥
१w. दंसणे सतण्हा; २. तइ वोलणे ताई.
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-६.३९] छट्टे सयं
२३५ W507 ५३७) ईसामच्छरहिएहिँ निम्वियारेहिँ मामि अच्छीहिं ।
इन्हि जणो जणं पिव नियच्छए कह न झिज्जामो ॥३७॥ W612 ५३८) तुह दंसंणसंजणिओ ईमीएँ लज्जालुआएँ अणुराओ ।
दुग्गयमणोरहो इवें हियय चिय जाइ परिणामं ॥३८॥ W607 ५३९) वाउबिल्लियसाहुलि थएमु फुडदंतमंडले ऊरू ।
चडुयारयं पई मा हु पुत्ति जणहासियं कुणसु ॥३९॥
५३७) [ईमित्सररहिताभ्यां निर्विकाराभ्यां सखि अक्षिभ्याम् । इदानी जनो जनमिव पश्यति कथं न क्षीयामहे ||] इन्हि जणो जणं पिव जनः प्रियो जनमिव सामान्यजनमिव नियच्छए मां पश्यति । काभ्याम् । अच्छोहिं अक्षिभ्याम् । कीदृशाभ्याम् । ईसामच्छररहिएहि ईयया योऽसौ
मत्सरः, तेन रहिताभ्याम् । तथा निम्वियारेहि निर्विकाराभ्यां निरभिलाष- त्वात् । इति कृत्वा कह न झिज्जामो (कथं न). क्षीयामह इति ॥५३७॥
५३८) वन सरिणः । तव दर्शनसंजनितोऽस्या लज्जावत्या . अनुरागः । दुर्गतमनोरथ इव हृदय एव याति परिणामम् ॥] इमीऍ अणुराओ अस्या अनुरागः हियय चिय जाइ परिणाम हृदय एव जरां याति । कथंभूतः । तुह दंसणसंजणि भो तव दर्शनेन जनितः । किंभूतायास्तस्याः । लज्जालुआएँ लज्जावत्याः । यत एवेयं सलज्जा अत एवं न प्रकाशयति । क इव । दुग्गयमणोरहो इव । यथा दुर्गतमनोरथो हृदय एव जरां याति तथा तदनुरागः । प्रथमानुागे साक्षादर्शने गाथेयम् । कन्या नायिका । सा नायकमभियुङ्क्ते स्वयं न विदिताशया सखी त्वस्याः । स्वयंभूतां तदभिलिखितं तां च सलज्जेति घिकुर्यात् (१) ॥ उपमालंकारः ॥५३८॥
५३९) चुल्लोडकस्य । [वातोद्वेल्लितवस्त्रे स्थगय स्फुटदन्तमण्डलावूरू। चटुकारकं पति मा खल पुत्रि जनहसितं कुरु ॥] गतार्था १w. कुह. २w. दसणेण अणिओ; ३w इमीअ, ४w. विअB ५w. फुडदंतनमंडलं जहणं.
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२३६
गाहाको सो
W508 ५४० ) वाउयसिययविहाविओरुदिट्ठेण दंतमग्गेण ।
वहुमाया तोसिज्ज निहाण कलसस्स व मुहेण ||४०|| W758 ५४१) डदिऊण सयलरणं अग्गी समविसमलंघणुव्वाओ । तडलं ततणेहिं तिसिउ व्व नई सेमोयर ||४१ ॥ W510 ५४२) अन्नं पि किं पि पाविडिसि मूढ मा तम्म दुक्खमित्तेण । हियय पराहीणजणं महंत तुह कित्तिय एयं ॥ ४२ ॥
गाथा । साहुल्ली वस्त्रम् । द्वे (१) वाहु ( ! चाटु) कारकम् इति कृत्वा द्वित्वादि नाटद्वेष्ययोधकर्मणि णन्तात्स्वार्थे.... त्यये (?) रूपम् ॥५३९॥ ५४०) रेहायाः (! रोहायाः) । [वातोद्धूतसिचयविभावितोरुदृष्टेन दन्तमार्गेण । वधूमाता तोष्यते निधान कलशस्येव मुखेन ||] बहुमाया तोसिज्ज वधूमाता तोष्यते । केन । दंतमग्गेण दन्तमार्गेण, दशनाङ्केनेति यावत् । कथंभूतेन वाउयसियय विद्याविओरुदिट्ठेण वातोद्भूतसिचयविभावितो रुदृष्टेन । केनेव । निहाणकलसस्स व मुहेण निघान कलशस्येव मुखेन । यथा हि निधानकुम्भमुखावेक्षणे सुखं संपद्यते, तथा वध्वा ऊरुदण्डदत्तदन्तव्रणदर्शनेनेत्यर्थः । उपमालंकारः || ५४०||
[६.४०
५४१) संभ्रमस्य । [ दग्ध्वा सकलारण्यम् अग्निः समविषमलङ्घनोद्वानः। तटलम्बमानतृणैस्तृषित इव नदीं समवतरति ॥] अग्गी नई समोयरइ अग्निर्नदीं समवतरति । कैः । तडलंवंततणेहिं तटलम्बमानतृणैः । किं कृत्वा । डहिऊण मयलरणं दग्ध्वा सकलमरण्यम् । कोदृशो - ऽग्निः । समविमलंघणुव्वाओ समविषमलंङ्घन खिन्नः । ततश्च क इव । तिसिउव्व तृषित इव । यः खलु विकटाटवीमटति स समविषम देशसंचरणक्लमक्लान्तकायतया तृषितः पानाय तटिनीतटमवतरति । संभावनानुमानोत्प्रेक्षालंकार : ( वक्रोक्तिजीवित ३, २५-२७) ॥ ५४१ ॥
५४२) केशवस्य । [ अन्यदपि किमपि प्राप्स्यसि मूढमा ताम्य दुःखमात्रेण । हृदय पराधीनजनं वाञ्छत्, तब कियदेतत् ॥ ] हे मूढ १ w. समोसरइ.
-
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२३७
-६.४४]
छर्टी सयं w511 ५४३) जोसे वेसो पंसुल अहिययरं सा वि वल्लहा होइ ।
इय भाविऊण असई वीससइ न दुहहिययस्स ॥४३॥ W512 ५४४) सा आम सुहय गुणरूवसोहिरी आम निग्गुणा अम्हे।
जेइ तीए न सरिच्छो ता कि सब्बो जणो मरउ ॥४४॥ हियय मूढ हृदय, पराहीणजणं महंत मा तम्म पराधीनं जनमभिलषत्, मा ताम्य । केन । दुवस्वमित्तेण अमुना दुःस्वमात्रेण । अन्नं पि कि पि पाविहिसि अन्यदपि किमपि प्राप्स्यसि । अतः तुह कित्तियं एयं तव कियदेतत् । अतोऽप्यधिकतरं दुःखं लप्स्यस इत्यथैः । एतदुक्तं भवति ।दुर्लभजनानुरागं मा कुर्वीथाः । माक्षेपोऽलंकारः। धनिकारमते तु विवक्षितान्यपरवाच्यस्य लक्ष्यक्रमोद्योतस्य अर्थशक्त्यनुरण नरूपव्यङ्ग्यो ध्वनेः प्रभेदः । पर्याय इत्यन्ये । प्रध्वस्तो (१) विप्रलम्भश्टङ्गारः ॥५४२ ।।
५४३) जयदासस्य । [यस्याः द्वेष्यः पांसुल. अधिकतरं साऽपि • वल्लभा भवति । इति भावयित्वाऽसती विश्वसिति न दुष्टहृदयस्य ।।] इय भाविऊण असई इति ज्ञात्वा असती वोससइ न दुहिययस्त विश्वसिति न दुष्टहृदयस्य । किं तदित्याह । जीसे वेसो पंसल हे पांसल यस्यास्त्वं द्वेष्यः महिययरं सा वि वल्लहा होइ अधिकतरं साऽपि वल्लभा भवति । अहं पुनरनुरागिणीति प्रिया न भविष्यामि । न चेति (?) त्वामनुधावतः स्वहृदयस्यापि न विश्वसितीति । सा त्वय्यनुरक्ता, त्वं पुनरन्यस्यां सा वन्यस्मिन्ननुरक्तेति तात्पर्यार्थः । वेसो द्वेष्यः । पंसुलो पुंश्चलः । इय इति । इतेस्ते: इति इतेः इतो अत्वे रूपम् । ( वररुचि , १,१४) ॥ ५४३ ॥
५४४) जयदेवस्य । [सा कामं सुभग गुणरूपशोभिनी, काम निर्गणा वयम् । यदि तस्या न सक्षस्तत् कि सर्वो जनो म्रियताम् ॥ गतार्था गाथा । आम इति संप्रतिपत्तौ । शब्दालंकारः काकुवक्रोक्तिः ॥५४४ १w. वेसो सि जीअ पंसुल; २ w. सा हु वल्लहा तुज्झ; ३w. जाणिऊण वि मए ण ईसियं दड्ढपेभ्मस्स; ४ w. अहअं; ५ w. भण तीअ जो ण सरिसो किं सो सम्वो.
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२३८
गाहाकोसो
[६.४५
W513 ५४५) संतमसंतं दुक्खं सुहं च जाओ घरस्स जाणंति ।
ताउ च्चिय महिलाओ सेसाउ जरा मणुस्साणं ॥४५॥ W514 ५४६) हसिएहिँ उवालंभा पच्चुवयारेहि खिज्जियवाई।
असहि भंडणाई एसो मग्गो सुमहिलाणं ॥४६॥ W515 ५४७) उल्लावो मा दिज्जउ लोअविरुद्ध ति नवर काऊण ।
समुहावडिए को वेरिए वि दिदि न पाडेइ ॥४७॥ ५४५) जयसिंहस्य । [ सदसद् दुःखं सुखं च या गृहस्य जानन्ति आ एव महिलाः शेषा जरा मनुष्याणाम् ॥ ] निगदव्याख्यातेयं गाथा ॥ ५४५ ॥
५४६) साधुवलितस्य । [ हसितैरुपालम्भाः प्रत्युपकारैः खेदितव्यानि । अश्रुभिः कलहा एष मार्गः सुमहिलानाम् ॥ ] एष मार्गः सुमहिलानाम् । कोऽसावित्याह । हसिएहिं उबालंभा हसितैरुपालम्भाः, पच्चुवयारेहि खिज्जियव्वाइं प्रत्युपकारैः खेदितव्यानि, अंसूहि भंडणाई अश्रुभिः युद्धानि (? कलहाः) । एसो मग्गो सुमहिलाणं एषा एव स्थितः सुमहिलानाम् ॥ ५४६ ॥
५४७) सुमतेः । [ उल्लापो मा दीयतां लोकविरद्ध इति केवलं कृत्वा । संमुखापतिते को वैरिण्यपि दृष्टिं न पातयति ॥ ] काचिद् हृदयदयितम् अवधीर्य व्रजन्तम् इदमाह । लोकविरुद्ध इति परललनालोको लोकविरुद्ध इति कृत्वा केवलम् उल्लापो मा दीयताम् । समुहावडिए को वेरिए वि दिद्रिं न पाडेइ संमुखापतिते को वैरिण्यपि दृष्टिं न पातयति, अपि तु पातयतीत्यर्थः । अन्योढा नायिका । अन्योढाऽपि हि कन्या कर्तव्यं सर्वम् उद्गतं कुरुते । दुरवस्था दयितं तु स्वयमभियुङ्क्ते स्मरावेशात् ॥५४७॥ १w. अच्चुवयारेहि; २w. लोअविरुद्ध ति णाम काऊण, ३w. को उण बेसे;
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-६.५०]
छठें सयं
२३९
W516 ५४८) जा तणुयाइ सा तुह करण किं, जेण पुच्छसि हसंतो।
अह गिम्हे मह पंयइ त्ति एयँ भणि चिय परुन्ना ॥४८॥ W516 ५४९) साहीणपिययमो दुग्गो वि मन्नई कयत्थमप्पाणं ।
पियरहिओ उण पुहईवई वि अकयत्थओ चेव ॥४९॥ W517 ५५०) कि रुयसि कि किसायसि किं कुप्पसि सुयणु इक्कमिकस्स।
पिम्मं विसंवयंत साहसु को रुभिउं तरइ ॥५०॥ ५४८) ब्रह्मभट्टस्य । [ या तनूयते सा तव कृतेन किं, येन पृच्छसि हसन् । असौ ग्रीष्मे मम प्रकृतिरित्येवं भणित्वैव प्ररुदिता ॥] काचित् केनचित् सोपहासं किमिति कृशाङ्गी त्वम् इति पृष्टा सती इदमाह । जा तणुयाअइ सा तुह कएण किं, या तनुयते मा तव कृते किं, जेण पुच्छसि हसंतो येन पृच्छति हसन् । किमर्थ तर्हि तनूयस इत्याहै । अह गिम्हे मह पयह त्ति असौ ग्रीष्मे मम प्रकृतिरिति एवं भणिउं चिय परुन्ना एवं भणित्वैव प्ररुदिता रोदितुं प्रवृत्तेति । तदप्राप्तिरेव रुदितस्य हेतुः ॥५४८॥
५४९) गणपतेः । [ स्वाधीनप्रियतमो दुर्गतोऽपि मन्यते कृतार्थमात्मानम् । प्रियारहितः पुनः पृथिवीपतिरप्यकृतार्थ एव ॥] गतार्था गाथा ॥५४९॥
५५०) गिरिसुतायाः । [ किं रोदिषि किं कृशायसे किं कुप्यसि सुतनु एकैकस्य । प्रेम विसंवदत् कथय को रोदु शक्नोति ॥] काचित् स्नेहानुबन्धबुद्धिं विधुरयति प्रियें दुरवस्थां स्वसखीं शिक्षयित्वा (? शिक्षयि- . तुम्) इदभाह । किं रुयसि किं किसायसि किं रोदिषि किं कृशायसे, किं कुप्पसि सुयणु इक्कमिक्कस्स किं कुप्यसि सुतनु एकैकस्य । यतः पिम्म विसंवयंतं प्रेम विसंवदत् साहसु को रंभिउं तरइ साधय कथय को वा रोढुं शक्नोति । न कोऽपीति । स........चैतत् । प्रेम्णो यदुत मृणालतन्तुपुच्छगच्छिदुरुंतकालान्तरमवति । ष्टत इति (१)। आक्षेपोऽलंकारः ॥५५॥ १w. जं; २w. पयई एवं भणिऊण ओरुण्णा; ३w पुण. पुहवि पि पाविउं
दुग्गओ च्चे, ४w. किं व सोअसि; ५w. पेम्म विसं व विसमं;
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२४०
गाहाको सो
[६.५१
W518 ५५१) ते य जुवाणा सा गामसंपया तं च अम्ह तारुणं । अक्खीणयं विय जेणो कहे अम्हे वि तं सुणिभो ॥५१॥ W519 ५५२) बाहुल्लफुरियगंडाहराऍ भणियं विलक्खहसिरीए । अज्ज वि किं रूसिज्जइ सवहावत्थं गए पिम्मे ॥ ५२ ॥ W520 ५५३) वण्णग्घयतुप्पमुहिं र्वि जो ममं आयरेण चुंबतो । सो इन्हि भूणभूसियं पि अलसायद छिवंतो ॥५३॥ W551 ५५४) सा निविडपाउयंगि ति माउया मा हु परिहरिज्जासु । पच्छाणवत्थजुयलं रयम्मि अवणिज्जइ च्चेय ॥ ५४ ॥
५५१) श्रीअभिमानस्य । [ते च युवानः सा ग्रामसंपत् तच्चास्माकं तारुण्यम् । आख्यानकमिव जनः कथयति, वयमपि तच्छृणुमः ॥ ] गतार्थ गाथा | अक्खाणयं वृत्तान्तः ॥ ५५१ ॥
५५२) हालस्य । [ बाप्पार्द्रस्फुरितगण्डाधरया भणितं विलक्षइसनशीलया । अद्यापि किं रुष्यते शपथावस्थां मते प्रेम्ण । ] कयाचित् बाहुलफुरियगडाहराए भणियं बाष्पाई कपोलया स्फुरिताधरया च भणितम् । किंभूतया । विलक्खहसिसीए विलक्षहसनशीलया । किं भणितमित्याह । अज्ज विकिं रूसिज्जई अद्यापि किं रुष्यते । क्व सति । सवहावत्थं गए पिम्मे शपथावस्थां गते प्रेम्णि । स हि मां खलुज्झितस्नेहो मिथ्यापथैः प्रत्याययति अतः कृतं मानेनेति भाव: । उल्लं आर्द्रम् | आक्षेपोऽलंकारः ||५५२॥
५५३) रथवाहनस्य । [वर्णधृत लिप्तमुखीमपि यो मामादरेण चुम्बन् ( आसीत् । स इदानीं भूषणभूषितामप्यलसायते स्पृशन् ||] गतार्था गाथा ॥ ५५३ ॥
५५४) पन्नाविल्लिकस्य । [सा निबिडप्रावृताङ्गीति मातर्मा स्खलु परिहरेः । प्रच्छादनवस्त्रयुगलं रतेऽपनीयत एव ॥ ] ॥५५४ ॥ ॥
१w. अक्खाणअं व लोओ; २w. बाहोहभरि अगंडाहराइ; ३w. गअं पेम्म; ४w, जो मं अहआअरेण; ५w. एहि सो; ६w. णीलवडपाउअंगि त्ति मा हु णं परिहरिज्जासु; ७w. पट्टसूअं पिण्डू.
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-६.५७]
छ सयं
२४१
W522 ५५५) सच्चं कलहे कलहे सुरयारंभा पुणो नवा हुंति । माणो उण माणसिणि गेरुयं पिम्मं विणासे ॥५५॥ W523 ५५६) माणुम्मत्ताऍ मए कैलहै निक्कारणं कुणंतीए । अहंसणेण पिम्मं विहै। डियं पोढवारण || ५६ ॥ W524 ५५७) अणुऊलं वत्सुं जे देाउं अइवल्लहं पि वेसे वि । कुवियं य पसाएउ सिक्खंड लोओ तुमाहिंतो ॥५७॥
५५५) सरस्वत्या: । [ सत्यं कलहे कलहे सुरतारम्भाः पुनर्नवा भवन्ति । मानः पुनर्मनस्विनि गुरुकं प्रेम विनाशयति ||] काचित् प्रयत- मानां सखी शिक्षयितुमिदमाह । सत्यं कलहे कहे सुरतारम्भाः पुनर्नवा भवन्ति, मानः पुनर्मनस्विनि गुरुकं प्रेम प्रणाशयति । तस्मात् केलिकलहे कामचारः, मानं तु मा कार्षीरिति । माणसिणी इति समृद्धयादित्वाद दीर्घत्वम् (वररुचि, १, २ ) । पिम्म इतिप्रेमशब्दस्य सेवादित्वाद् द्वित्वम् ( वररुचि, ३, ५८ ) । आक्षेपपर्यायोक्तभ्यां संसृष्टिरलंकारः । सखीकर्म शिक्षा
॥५५५॥
५५६) कालदेवस्य । [ मानोन्मत्तया मया कलहं निष्कारणं कुर्वत्या | आदर्शनेन प्रेम विघटित प्रौढवादेन ॥] गतार्था गाथा ।। ५५६ ॥ ५५७) अनुरागस्य । [ अनुकूलं वक्तुं वै दर्शयितुम तिवाल्लभ्यमपि द्वेष्येऽपि । कुपितांच प्रसादयितुं शिक्षतां लोकस्त्वत्तः ॥] काचिन्मानवती स्वबुद्धिवैदग्ध्यबलेन प्रसादयितुमुद्यतं दयितनभिनन्दन्तीदमाह । सिक्खउ लोभो तुमाहिंतो शिक्षतां लोकत्वत्तः । किं तदित्याह । अणुऊलं वत्तं अनुकूलं वक्तुम् । दाउं अइवल्लई पि वेसे वि दर्शयितुमा तिवाल्लभ्यं द्वेष्येऽपि । कुवियं य पसाएउ कुपितां च प्रसादयितुम् । अत एव शिक्षतां लोकः ।
१w. गरुओ पेम्मं; २w. अकारणं कारणं कुणंतीए; ३w. विणासिअं; ४w. अणुऊलं चिअ वोत्तुं; ५w. बहुवल्लह वल्लहे वि वेसे वि; ६. सिक्खइ.
१६
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गाह कोसो
[६.५८
W759 ५५८ ) स च्चिय रामेउ तुमं पंडियइत्तं, अलं म्ह रमिएन । सम्भावबाहिराई जा जाणइ अट्टमट्ट| ई || ५८ ॥
W525 ५५९) लज्जा चत्ता सीलं च खंडिय अयसघोसणा दिन्ना ! जस्स एणं पियसहि स च्चेय जणो जणो जाओ || ५९ ॥ त्वमेव केवलम् एतज्जानासीत्यर्यः । जे इति इजेरा: पादपूरणे (हेमचन्द्र, ८,२,२१७) । माहिंतो इति पञ्चम्येकवचनस्यापि दृश्यत इति केचित् ||५५७||
२४२
५५८) कलितसिंहस्य | [ सैव रमयतु त्वां पण्डितंमन्यम् अलमस्माकं रमितेन । सद्भाव बाह्यानि या जानाति नानाविज्ञानानि ॥ ] स च्चिय रामेउ तुमं सैव रामयतु त्वाम् । कथंभूतम् । पंडियइत्तं पण्डितंमन्यम् । अलं म्ह रमिएण अलमस्माकं रमितेन । काऽपावित्याह । ना जाइ अट्टमट्टाई या जानाति नानाविज्ञानानि । कथंभूतानि । सब्भावबाहिराईं सद्भाव बाह्यानि कृत्रिमाणोत्यर्थः । पंडियइत्तं इति उल्लुण्ठायाम् । अकृत्यं, यत् खलु कृत कर तिशिल्पकल्पनया तुष्यसि, न तु सुरतेन स्वाभा विकेनेति भावः । वागनुभावो व्यङ्ग्यः (१) । ईर्ष्यामिर्षे संचारिणौ भावी । रतिः स्थायी भावः । मानो विप्रलम्भभेदः । मध्या नायिका । अट्टमट्टाई लोकोकिः ॥ ५५८ ॥
५५९) नीलमेघस्य । [ लज्जा त्यक्ता शीलं च खण्डितमयशोघोषणा दत्ता । यस्य कृते प्रियसखि स एव जनो जनो जातः ।] हे पियसहि प्रियसखि, सच्चेय जणो जणो जाओ स एव जनो जनो जात: । कोऽसावित्याह । जस्स करणं यस्यार्थे लज्जा चत्ता त्रपा व्यक्ता अय सघोसणा दिन्ना अयशः पटहो दत्तः । सोऽपि सामान्यजन इव मयि परायत्तो (? परावृत्तो) जात इत्यर्थः || ५५९ ।।
१ w. पंडिय णिच्चं.
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-६.६१] छटै सयं
२४३ W582 ५६०) कित्ति यमित्तं होहिइ सोहग्गं पिययमस्स भमिरस्स।
महिलामयणछुहाउरकडक्खपच्चैक्ख धिप्पंतं ॥६॥ W583 ५६१) धणियमुबऊहयम्हें कुक्कुडसदेण झत्ति पडिउद्धो ।
__परघरवसई सुमरिय निययम्मि घरम्मि मा भाहि ॥६१॥
५६०) नारीगणस्य (१) [ कियन्मानं भविष्यति सौभाग्यं प्रियतमस्य भ्रमणशीलस्य । महिलामदनक्षुधातुरकटाक्षप्रत्यक्षगृह्यमाणम् ॥] काचित् स्वभर्तुः सौभाग्यं भङ्ग्याभिधातुमिदमाह । कित्तियमित्तं होहिइ सोहग्गं कियन्मानं भविष्यति सौभाग्यम् । कस्य । पिययमस्त प्रेयसः । कीदृशस्य । भमिरस्त भ्रमणशीलस्य । किंमूतं सौभाग्यम् । मयणछुहाउरकडक्खपच्चावधिप्पंतं मरनरूपा या क्षुधा तया आतुरा या महिलास्तासां कटाक्षः प्रत्यक्षं गृह्यमाणम् । तत् कियन्मात्रं भविष्यति । अयमस्मद्भर्ता भ्राम्यन् सक कटाक्षपातैः पोयत इति रूपातिशय वर्णनपरेयमुक्तिः । पर्यायोक्तिरलं कारः । धनिकारमतेन तु विवक्षितान्यारवाच्यो अलक्ष्यक्रमोद्योतो ध्वनिप्रभेदः ॥५६०॥
५६१) काढिल्लकस्य । [गाढमुपगृहस्वास्मान् कुक्कुटशब्देन झटिति प्रतिबुद्धः । परगृहवसति स्मृत्वा निज केऽपि गृहे मा भैपोः ॥ ]धणियमुबऊयम्हे गाढवमवगू इयत्वास्मान् । कुक्कुडसद्देण झत्ति पडिउद्धो कुक्कुट- . शब्देन झगिति प्रति बुद्धः । परघरवसई सुमरिय नियम्मि घरम्मि मा भाहि परगृवसतित्रे ते च स्मृत्वा नि नकेऽपि गृहे परभवनभ्रान्त्या मा भेषीरिति पालनालम्पटत्वं युक्त्या पत्युरुक्तं भवतीति । धणियं गाढम् ॥५६१॥ १w. छुहाउल; २.w.विक्खेव; ३w.णिअधणिअं उवऊहसु; ४.w.परवसहिवाससंकिर निअए वि घरम्मि मा भासु.
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२४४
गाहाकोसो
[६.६२
मार
W550 ५६२) वोडेसुणयं विवन्नं अत्तं मत्तं पहेणयमुराए ।
फलियं च मोडियं महिसरण को तस्स साहिज्ज ॥६२॥ W577 ५६३) चोरा समयसयण्हा पुणो पुणो पेसयंति दिट्ठीओ।
अहिरक्खियणिहिकलस व्व पंक्कवइयाथणुच्छंगे ॥६३।। ५६२) अन्घ्रलक्ष्म्याः । [दुष्टश्वान विपन्नं श्वश्रू मत्ताम् उत्सवसुरया । द्वारपिधानं च मोटितं महिषेण कस्तस्य कथयेत् ।। ] को तस्स साहिज्ज कस्तस्य कथयेत् । किं तदित्याह । वोडसुणयं विवन्नं वोडाभिधानं श्वानं विपन्नम् । किमेतावदेव । नेत्याह । अत्तं मत्तं पहेणयसुराए अत्तां (श्वश्रृं) मत्तामुत्सवसुरया । फलियं च मोडिअं महिसएण फलिहकं (१ परिघं) च मदितं महिषेणेति कस्तस्य कथयेत् । एतदुक्तं भवति । प्रतिबन्धवन्ध्यं मद्गृहं वर्तते, तदागम्यतामिति । अत्ता मत्ता (? अत्ता श्वश्रः)। पहेणयं यदुत्सदिने गृहे गृहे दीयते । फलियं द्वारे दारुमयं पिधानम् । भावोलंकारो रुद्रटमतेन (रुद्रट,७,३७) । ध्वनिकारमतेन तु विवक्षितान्यपरवाच्यप्रभेदस्यालक्ष्यक्रमस्य अर्थशक्त्यनुरणनरूपव्यापारव्यङ्ग्यो ध्वनिप्रभेदः । असती अन्योढा नायिका ॥५६२॥
५६३) कलिङ्गस्य । चोराः सभयततृष्णाः पुनः पुनः प्रेषयन्ति दृष्टोः । अहिरक्षितनिधिकलश इव समर्थपतिकास्तनोत्सङ्गे ।।] चोरा पुणो पुणो दिदीओ पेसयन्ति चोराः पुनः पुनर्दृष्टीः प्रेषयन्ति । क । पक्कवइयाथणुच्छंगे समर्थपतिकास्तनोत्सङ्गे । कीदृशोदृष्टीः । समयसयहा सभयसतृष्णाः । कस्मिन्निव । अहिरक्खियणिहि कलस व अहिना सण रक्षिते निधिकलश इव । यथा हि भुजङ्गरक्षिते निधिकलशे सभयप्ताभिलाषा दृष्टिर्निपतति तथा समर्थपतिकापयोधरोत्सङ्गे दस्यूनां दृष्टिर्निपततीत्यर्थः । पक्को समर्थः । रतिभययोः स्थायिभावयोः संकरोऽत्र । उपमाऽलंकारः ॥५६३॥ १w.वोडसुणओ विवण्णो अत्ता मत्ता पई वि अण्णत्थो। फडई वि मोडिया महिसएण को कस्स साहेउ. २w. सभअसतण्हं; ३w. पोढवइआ.
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छ8
सयं,
२४५
W551 ५६४) सकयग्गहरहमुत्ताणियाणणा पियइ पियमुहविइण्णं ।
थोयत्थोयं रोसोसढं वे माणसिणी मइरं ॥६४॥ W578 ५६५) उबहइ नवतणंकुररोमंचपसाहियाइँ अंगाई ।
__ पाउसलच्छीए पउहरेहि पडिपिल्लि मो विंझो ॥६५॥
५६४) अमर्षस्य । [सकचग्रहरभसोत्तानितानना पिबति प्रियमुखवितीर्णम् । स्तोकस्त किं रोषौषमिव मनस्विनी मदिराम् ।।] माणासणो महरं पियइ मनस्विनी मदिरां पिबति । कथंभूतो मदिराम् । पियमुह विइण्णं प्रियमुखवितीर्णाम् । कीदृशो सा पिपति । सकयग्गहरहसुत्ताणियाणणा सकचग्रहरभसोत्तानितानना । कथं पिबति । थोयत्थोयं स्तोकस्तोकम् इति क्रियाविशेषणम् । किमिव । रोसोसलं व रोषौषधमिव पिस्तीत्यर्थः । उत्प्रेक्षाऽलंकारः । परस्परं प्रियाणां गण्डूष पुरापानमिति वृद्धाचारः । कामिनी नायिका । समानप्रसादनोपायः ॥५६४॥
५६५) हालस्य । [उद्वहति नवतृणाङ्कुररोमाञ्चप्रसाधितान्यङ्गानि । प्रावृइलक्ष्म्याः पयोधरैः प्रतिप्रेरितो विन्ध्यः ॥] विझो अंगाई उन्बहइ विन्ध्योऽङ्गान्युद्हति । कोदशानि । नवतणंकुररोमंचपसाहिया. नवतृणाङ्कुरा एव रोमाञ्चाः, तैः प्रसाधितानि । क दृशः । पाउस छोए पहरेडि पडिपिल्लि मो प्रावृड्लाम्याः पयोधरैर्मेधैः प्रतिप्रेरितः । यः प्रमदायाः पयोधरैः ( ! पयोधराभ्याम् ) अभ्याहन्यते सोऽनुरागयोगात् पुलकाङ्कुरं वहतीति । अवयवरूपकमलं कारः । ध्वनिकारमतेन पुनरयमेव रूपकध्वनिः । उत्प्रेक्षावयव इत्यन्ये । शृङ्गाराभासोऽयम् । स्थावरत्वाद्विन्ध्याचलस्य । तदुक्तम्- एकानुरागतिर्यक्स्थावरनिर्जीवकाश्रयो यः स्यात् । सोऽपि रसान्तरमिश्रः शङ्गाराभास एवासौ ।। ५६५ ।। १w. थाअं थोअं; २w. व उअ मणिणी मइरं.
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२४६
गाहाकोसो
W579 ५६६) आम बहला वणालो, मुहला जलरंकुणो, जलं सिसिरं ।
अन्नण ईसु वि, रेवाएँ तह वि अन्ने गुणा के वि ॥६६॥ W760 ५६७) रयणायरस्स साहेमि नम्मए अज्ज मुक्कदक्खिण्णा ।
- वेडिसैलयाहरंतिल्लमइलिया ज सि पूरेण ॥६७॥ W580 ५६८) एह इमीऍ नियच्छह परिणयमालूरसच्छहे थणए ।
तुंगे सप्पुरिसमणोरह ब हियर नै मायति ॥६८॥
५६६) इन्द्रकरस्य । [ कामं बहला वनाली, मुखराः जलपक्षिणो, जलं शीतम् । अन्यनदोष्वपि, रेवायास्तथाऽपि अन्ये गुणाः केऽपि ॥] गतार्था गाथा । आम इति संप्रतिपत्तौ निपातः । जलरङ कुर्जलकाकः । रेवा नर्मदा । अन्यापदेशोऽलंकारः ।। ५६६ ॥
५६७) पालित्तकस्य । [ रत्नाकरस्य कथयामि नर्मदेऽद्य मुक्तदाक्षिण्या । मलिनितान्ति कवेत सलतागृहा यदसि पूरेण ॥ ] काचिदसती निजाय पूर सङ्काङ्कितसकतं संकेतलतागृहं दृष्ट्वा रेवां तरङ्गिणी तर्जयन्तीदमाह । हे नम्मए नर्मदे, रयगायरस्त साहेमि रत्नाकरस्य कथयामि । कि तदित्याह । अज्ज मुक्कदक्विण्णा अद्य मुक्तदाक्षिण्या सती पूरेण पयःप्रवाहेण वेडिसलयाहरंतिल्ल महालया जं सि मलिनीकृतान्ति कवर्तिवेत. सलतागृहा त्वमसि । तमे तवा विनयं त्वद्भर्तुरम्भोधेः कथयामोति उन्मत्तोकिः । इह हि लोके छेकाहीकोन्मत्तापाठमत्तोक्तिभेदतः यदक्तयो भवन्ति (?) । वेतसशब्दस्य इदीषत्पकस्वप्न इत्यादिना (वररुचि, १,३) मत इत्वे, प्रतिसरवेतसपताकासु डः (वररुचि, २,८) इति तस्य इत्वे च रूपम् । पूर्वनिपातानियमात् मलिनितान्तिकवेतसलतागृहेति मन्तव्यम् । अंतिल्लं अन्तिकम् । वेडिसो वृक्षविशेषः ॥ ५६७ ॥
५६८) स्वामिनः । [ एतस्याः प्रेक्षध्वं परिणतबिल्वसदृशौ स्तनौ । तुङ्गौ सत्पुरुषमनोरथा इव हृदये न मातः ॥ ] एह इमीए
१ w. अण्णगईण वि. २w. वेडिसलयाहरतेण मिलिंया जं सि पूरेण; ३w. हिअए अमाअंते.
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-६.७०]
W584 ५६९) खेरवण गलत्थल्लण गिरिकूडावडण भिन्नदेहस्स | धुक्कुएइ हिययं विज्जुलया कालमेहस्स ॥ ६९ ॥ W585 ५७० ) मेहमहिसस्स पिच्छे उयरे सुरचावकोडि भिन्नस्स | कंदतस्स सवियणं अंत वै पलंबिया विज्जू ॥७०॥
नियच्छह एत भागच्छत, अस्याः स्तनौ पश्यत यूयम् । कथंभूतौ । परिणयमारसच्छ परिणत बिल्वसदृशौ । गौरववृत्तत्वोक्तिः । पुनश्च कीदृशौ । तुंगे तुङ्गौ । हियए न मायंति हृदये न मातः, पृथुलत्वात् । के इव । सप्पुरिसमणोरह व्व सत्पुरुषमनोरथा इव । तेऽपि हृदये न मान्तीत्यर्थः । परिणतः पक्वः । मालूरं बिल्वम् । सच्छहो सदृशः । पिच्छह पश्यत । थणए हृति द्वयोरप्यर्थयोः प्राकृते बहुवचनस्य स एवेति एत्वे कृते रूपम् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥ ५६८ ॥
छ सयं
२४७
५६९) पालित्तकस्य । [ खरपवनप्रेरणगिरिकूटापतनभिन्नदेहस्य | धुकधुकायते हृदयं विद्युता कालमेघस्य ॥ ] धुक्कुद्धपद्द हिययं विज्जुलया धुकधुकायने हृदयमिव विद्युता । कस्य । कालमेहस्स कालमेघस्स । कोदृशस्य । खरपवणगलत्थल्लणगिरिकूडावडणभिन्नदेहस्स खरपवनेन यत् प्रेरणं तेन यद गिरिकूटे आपतनं गिरिशिखरापातः, तेन भिन्नदेहस्य विदारितवपुषः । यः किल भिन्नदेहो भवति तस्य हृदयं धुकधुकायते । इवेन विना उत्प्रेक्षा । तदुक्तम् । तदिवेति तदेवेति तामुत्प्रेक्षां प्रचक्षते ( वकोक्तिजोवित, ३, २६ ) | ध्वनिकारमतेन पुनरयमुत्प्रेक्षाध्वनिः । कूटं शिखरम् ॥ ५६९ ॥
५७० ) जीवदेवस्य । [ मेघमहिषस्य प्रेक्षध्वम् उदरे सुरचापकोटिभिन्नस्य । क्रन्दतः सवेदनम् अन्त्रमिव प्रलम्बिता विद्युत् ॥ ] मेहमहिसस्स पिच्छह अंतं व पलंबिया विज्जू मेघमहिवस्य प्रेध्वम् अन्त्रमिव प्रलम्बिता १w. खरपवणर अगलत्थि अगिरिऊडावडण ०; २w. धुक्काधुक्कइ जीअं व विज्जुआ काहमेहस्स; ३. णज्जइ; ४w. व पलंबर.
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६४८ गाहाकोसो
[६.७१W586 ५७१). नवपल्लवं विउल्ला पहिया पिच्छंति चूर्यसिहरम्मि ।
कामस्स लोहिउप्पंकराबियं हत्थभल्लि व ॥७१॥ W587 ५७२) महिलाणं चिस दोसो जेणेय पवासगन्चिया पुरिसा ।
दो तिन्नि जाव न मरंति ता न विरहा समप्पंति ॥७२॥ W588 ५७३) बालय दे वच्च लहुं माइ वराई य मा विलंबेण ।
सा तुज्झ दसणेणं जीवेइ न इत्थ संदेहो ॥७३॥ विद्युत् । किंभूनस्य । उयरे सुरचाव कोडिभिन्नस्स उदरमध्ये सुरचापकोटिभिन्नस्य । अत एव सवियणं कंदंतस्स सवेदनं क्रन्दनशब्दं कुर्वतः । यः किल कार्मुकाप्रभागभिन्नो भवति तस्यान्त्राणि प्रलम्बन्ते । रूपकमलं कारः । उम्मैव तिरोभूतभेदा रूपकमिष्यते । (काव्यादर्श, २, ६६) ॥ ५७० ॥
५७१) ज्येष्ठायाः । [नवपल्लवमाविग्नाः पथिकाः प्रेक्षन्ते चूतशिखरे । कामस्य लोहितसमूहरञ्जितां हस्तभल्लोमिव ॥] पहिया नवपल्लवं पिच्छंति पथिका नवपल्लवं प्रेक्षन्ते । क्व । चूयसिहरम्मि चूतरशिखरे । कीदृशाः पथिकाः । विउल्ला आविनाः । कामिव । कामस्स हत्थमल्लि व कामस्य हस्तभल्लोमिव । कीदृशोम् । लोहि उप्पंकरावियं लोहितोघरञ्जिताम् । त्वत्कार्यकारणावमिव ( ? तत्कार्य करणात् ) पश्यन्तीव । उप्र्पको समूहः । रावियं रञ्जितम् । विउल्लो आविग्नः । उपमालंकारः ॥५७१॥
५७२) गेल (? रोल) देवस्य । [महिलानामेव दोषो येनैव प्रवासगर्विताः पुरुषाः । द्वे तिस्रो यावन्न नियन्ते तावन्न विरहाः समाप्य. न्ते ॥] गतार्था गाथा ॥५७२। . ५७३) श्वेतपट्टस्य (: श्वेतपटस्य)। [ बालक प्रार्थये बज लघु
म्रियते वराकी च मा विलम्बेन । सा तव दर्शनेन जीवति नात्र संदेहः ॥] १w.विसण्णा; २w. चूअरुक्खस्स; ३w. जेण पवासम्मि गम्विआ पुरिसा; ४w.
अलं; ५w. दसणेण वि जीवेज्ज.
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छर्टी सयं
२४९
W614 ५७४) वण्णकमरहियस्स वि एस गई नवर चित्तयम्मस्स ।
निमिसं पिजंन मुच्चई पिओ जणो गाढमवऊढो ।।७४॥ W615 ५७५) अविहत्तसंधिबंधं पढमरसुब्भेयपाणलोहिल्लो।।
उविल्लिउं न याणइ खंडइ कलियामुहं भमरो ॥७५॥ सा तव दर्शनेन जीवति नात्र संदेहः । त्वदप्राप्तिजनितोऽयं तस्या रोगोद्भव इति भावः । अप्राप्तौ हि दश दशा भवन्ति, तन्मध्याद् व्याधिश्यम् ॥५७३॥
५७४) वप्पकस्य । [वर्णक्रमरहि तस्याप्येषा गतिः केवलं चित्तजन्मनः (चित्रकर्मणः) । निमिषमपि यन्न मुच्यते प्रियो जनो गाढमव . गूढः ॥) एस गई नवर चित्तयम्भस्स एषा गतिः केवलं चित्तजन्मनो मनोभवस्य । कासावित्याह । निमिसं पि जं न मुच्चइ पिओ जणो गाढमवऊढो निमिषमपि यन्न मुच्यते आलेख्यलिखितोऽपि कृतालिङ्गनः कान्तः कान्ताभिः । इह हि वर्णक्रमरहितस्यापि अस्य एषा गतिरिति । स्वजातिव्यतिरेकालंकारः । ब्राह्मणादयो वर्णाः, शुक्लादयश्च ॥५७४॥
५७५) विन्ध्यस्य । [अविभक्तसन्धिबन्धं प्रथमरसोद्रेदपानलोभवान् । उद्वेष्टयितुं न जानाति खण्डयति कलिकामुखं भ्रमरः ॥] भमरो कलियामुहं उम्विल्लिउं न याणइ भ्रभरः कलिकामुखम् उद्वर्तयितुं न जानाति । कीदृशम् । अविहत्तसंधिबंध अविभक्त सन्धिबन्धम् इति तत्त्वोक्तिः । कि तर्हि करोतीत्याह । खंडइ खण्डयति । कीदृशः । पढमरसुब्भेयपाणलोहिल्लो प्रथमोद्गतरसपानलोभवान् । यः खलु अनवतीर्णतारुण्यामपि रामा रमयितुमजानानो रतिसुखलाभर सेन विस्त्रयति (1) स एवमुच्यते । लोहिल्लो लोभवान् । अन्योक्तिरलं कारः ॥५७५।। ९w. गुणो, २weण मुंचइ. .
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२५० . गाहाकोसो
[६.७६-- W422 ५७६) जे लीणभमरभरभग्गगुच्छया आसि नइयडुच्छंगे। ..
कालेण वंजुला पियवयंसि ते खण्णुया जाया ॥७६॥ W589 ५७७) अविरैयपसरियहुयवहजालालिपलीविए वणाहोए ।
किंसुयवणं ति कलिऊण मुद्धहरिणो न निक्कमइ ।।७७॥ W590 ५७८) निहुयणसिप्पं तह सारियाएँ उल्लावियं म्ह गुरुपुरओ।
जहें तं वेल्लं माऊ न याणिमो कत्थ वच्चामो ॥७८॥ ५७६) रविराजस्य । [ये लीनभ्रमरभरभग्नगुच्छका आसन्न-- दीतटोत्सङ्गे । कालेन वेतसाः प्रियवयस्ये ते स्थाणवो जाताः ॥ ] हे. पियवयंसि प्रियवयस्ये ते वंजुला कालेण खण्णुया जाया ते वेतसाः कालेन स्थाणुका जाताः। के त इत्याह । जे लोणभमरभरभग्गगुच्छया आसि ये लीनभ्रमरभरभग्नगुच्छका आसन् । क्व । नइयडुच्छंगे नदीतटोन्सङ्ग ।। कालमाहात्म्यवर्णनपरेयमुक्तिः । वंजुला वेतसाः । स्थाणुः पत्रफलशाखाशून्यस्तरुः ॥५७६॥ .
५७७) मुग्धहरिणस्य । [ अविरतप्रसृतहुतवहग्वालालिप्रदीपिते वनाभोगे । किंशुकवनमिति कलयित्वा मुग्धहरिणो न निष्कामति ॥ ] मुद्धहरिणो न निक्कमइ मुग्धहरिणो न निष्कामति । क्व । वणाहोए वनाभोगे । कीदृशे । . अविस्यपसरियहुयवह जालालिपलोविए अविरतप्रसृतहुतवइज्वालावलीप्रदीपिते । किं कृत्वा । किंसुयवणं ति कलिऊण किंशुकवनमिति मनसि मन्यमानो न निष्क्रामतीत्यर्थः । भ्रान्तिमानलं कारः ॥५७७||
५७८) सारस्य । [निधुवनशिल्पं तथा सारिकयोल्लाषितमस्माकं गुरुपुरतः । यथा तां वेलां मातर्न जानीमः कुत्र व नामः ॥] अम्ह निहुयणसिप्पं अस्माकं निधुवनशिल्पं तह सारियाएँ गुरुपुरओ उल्लावियं तथा तेन प्रकारेण सारिकया गुरूणां पुरत उल्लपितं जह तं वेलं न याणिमो १w. पिअवअस्स; २w. तम्मिरपसरिअ, ३w: जालोलि; ४wअह तं वेलें माए.
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-६.८१] छटुं सयं
२५१ 1553 ५७९) पंजरयसारियं माऊया अवणेह रइहराहिंतो।
वीसंभजंपियाइं एसा लोयम्मि पयडेइ ॥७९॥ 1761 ५८०) रक्खइ अणन्नहियो जीर्य पिव महुयरो पयत्तेण ।
दरणितदीविदाढग्गसच्छह मालईमउलं ॥८॥ N591 ५८१) पच्चग्गुव्विल्लदलुल्लसंतमयरंदपरिमलसुहाए ।
तं नत्थि कुंदलइयाएँ जं न भमरो महइ काउं ॥८१॥ यथा तद्वेलं न जानोमः कत्थ वच्चामो क्व बजामः । संजातलज्जतया तत्र स्थातुं नाशक्यतेत्यर्थः ॥५७८।।
५७९) शकटस्य । [पञ्जरकसारिकां मातरपनय रतिगृहात् । विस्रम्भजल्पितानि एषा लोके प्रकटयति ॥] गतार्था गाथा ॥५७९॥
५८०) हालस्य । [रक्षत्यनन्य हृदयो जोवितमिव मधुकरः प्रयस्नेन । ईषन्निर्गच्छवीपिदंष्ट्राग्रसदृशं मालतीमुकुलम् ॥] मालईमउलं भमरो . रक्खइ मालत मुकुलं भ्रमरो रक्षति । कीदृशः । अणन्नहियो अनन्यहदयः, तद्रक्षणैकतानमानसः । कीदृशं तत् । दरणितदीविदाढग्गसच्छह दरनिर्यद्वीपिदंष्ट्र प्रसदृशम् । किमिव रक्षति । जीयं पिव जीवितमिव । यथा हि जीवितं प्रयत्नेन रक्ष्यते तथाऽवधीरितेतरकुसुमसमृद्धिर्मधुकरो मालतीकुसुमं रक्षतीत्यर्थः । तत्प्रियताऽस्योक्ता भवतीति । दरं ईषत् । दीवी चित्रकः । सच्छहं सदृशम् । उपमालं कारः ॥५८०॥
५८१) वसन्तस्य । [प्रत्यग्रोद्वेल्लदलोल्लसन्मकरन्दपरिमलसुखायाः । तन्नास्ति कुन्दलतिकाया यन्न भ्रमरो वाञ्छत कर्तुम् ॥] तं नत्थि जं न भमरो काउं महइ तन्नास्ति यन्न भ्रमरः कर्तुं वाञ्छति, आलिङ्गनचुम्बनादिकम् । कस्याः । कुंदलइयाए कुन्दलतिकायाः। कथंभूतायाः । पच्चग्गुठिवल्लदलुल्लसंतमयरंदपरिमलसुहाए प्रत्यप्रोत्फुल्लदलोल्सन्मकरन्दपरिमलसुखायाः । यः किल प्रथमावतीर्णतारुण्याम् आलिङ्गनचुम्बनादिनाs१w. पंजरसारिअमत्ता ण णेसि किं एत्थ रइ०; २w. लोआण; ३w. जीवं पिक..
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२५२ , गाहाकोसो
[६.८२W592 ५८२) सो को वि गुणाइसओ न याणिमो मामि कुंदलइयाए.
अच्छीहिं चिय पाउं अहिलिय्यइ जेण भमरेहिं ॥८२॥ W616 ५८३) दरवेविरोरुजुयलामु मउलियच्छीसु लुलियचिहुरासु । ।
पुरिसाइरीसु कामो पियामु सज्जाउहो वैसइ ॥८३॥ W617 ५८४) जं जं ते न सुहायइ तं तं न करेमि जं ममायत्तं ।
अहयं उण जं न सुहामि सुहय तं किं ममायत्तं ॥८४॥ भिप्रपद्यते स एवमुच्यत इति । अन्योक्तिरलं कारः ॥५८१॥
५८२) गुणानुरागस्य । [ स कोऽपि गुणातिशयो न जानीमः सखि कुन्दलतिकायाः । अक्षिभिरेव पातुमभिलीयते येन भ्रमरैः ॥] सो को वि गुणाइसो स कश्चिद गुणातिशयः न याणियो मामि कुंदलइयाए न जानोमः सखि कुन्दलतिकायाः । कोऽसावित्याह । अच्छोहिं चिय पाउं अक्षिभिरेव पातुम् अहिलिय्यइ अभिलिख्यते (?) येन भमरैः । ये हि नायिका निरतिशयसौभाग्यवतीं पश्यन्तस्तरुणा न तृप्यन्ति त एवमभिधीयन्त इति । अन्योक्तिरलंकारः ॥५८२॥
____ ५८३) माधवप्रियस्य । [ईषद्वेपमानोरुयुगलासु मुकुलिताक्षीषु लुलितचिकुरासु । पुरुषायमाणासु कामः प्रियासु सनायुधो वमति ॥] पुरिसाइरीसु पियासु सजाउहो कामो वसइ पुरुषायितरतासु प्रियासु सज्जायुधः कामो वप्तति । कीदृशोषु । दरवेविरोरुजुयलासु लुलियचिहुरासु ईषकम्पोरुयुगलासु लुलिस के शासु । पुनरपि कीदृशोषु । मलियच्छोसु मुकुलिनाक्षीषु । इत्थंभूनासु कान्तासु कुण्डलितकोदण्डः कामो वसति । तदर्शनेन कामिनां कामो भवतीति भावः ।।५८३॥
५८४) कोगदेवस्य । [यद् यत् : ते न सुखयति तत् तन्न करोभि यन् ममायत्तम् । अहं पुनयन् न सुखयामि सुभा तत् किं २w. अहिलस्सइ, २w. होइ; ३w. अहअं चिअ.
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“६.४६]
छ सय
7594 ५८५) मन्ने साउ च्चिय जं न पाविओ पिययमाहररसस्स । तिसेहि तेण रयणायराहि अमयं समुद्धरियं ॥ ८५ ॥ V593 ५८६ ) इक्क च्चिय धूया गहवइस्स महिलत्तणं समुव्वहउ । अणिमिसणयणो सयलो 'वि जीऍ देवीकओ गामो ॥ ८६ ॥
२५३
ममायत्तम् ||] जं जं ते न सुहायइ यद्यत् तव न सुखायते तत्तन्न करोमीति । कस्मात् । जं ममायत्तं यद् यस्मात् कारणान् ममायत्तं मदधीनम् । अयं उण जं न सुहामि सुइय अहं पुनर्यत् न सुखयामि सुभग तं किं ममायतं तत् किं ममायत्तं तत्तत्रायत्तमित्यर्थः । अहं स्वदीयहृदयेच्छानुवर्तिन्यपि दुर्भगेति भावः || ५८४ ॥
"
५८५) सुरभिवृक्षस्य । [ मन्ये स्वाद एव यन्न प्राप्तः प्रियतमाधररसस्य । त्रिदशैः, तेन रत्नाकरादमृतं समुद्धृतम् || ] मन्ने साउ च्चिय तियसेहिँ जं न पाविमो पिययमाहररसस्स मन्ये स्वाद एव त्रिदशैर्यन्न प्राप्तः प्रियतमाधररसस्स । तेण अमयं समुद्धरियं तेनामृतं समुद्धृतम् । कुतः । रयणायराहि रत्नाकरात् । यदि तु प्रियाधररसास्वादनम् अलप्स्यन्त नामृतम् अम्भोधेरुदधरिष्यन् इत्यर्थः । अनुमानमलंकारः ||५८५ ||
५८६ ) देवस्य । [ एकैव दुहिता गृहपतेर्महिलात्वं समुद्वहतु । अनिमिषनयतः सकलोऽपि यया देवीकृतो लोकः ||] इक्क च्चिय धूया गइवइस्स महिलत्तणं समुम्बहउ एकैव दुहिता गृहपतेर्महिलास्वं समुद्रतु, जोऍ सयलो वि गामो देवीकओं यया सकलोऽपि ग्रामो देवीकृतः । कीदृशः । अणिमिसणयणो अनिमिषनयनः । देवा हि अनिमिषनयना भवन्ति । रूपाद्भुतहृताः सर्व एव तामनिमिषं प्रेक्षन्त इति भावः । विस्मयोऽत्र स्थायी भावः । ग्रामरामारूपातिशयदर्शनम् आलम्बनविभावः । अनिमिषप्रेक्षणम् अनुभावः । तदुक्तम् स्याद् विस्मयोऽपि नामानुश्र (1) मायेन्द्र१७. आसाओ चिचअ ण पाविओ; २w. तिअसेहि जेण; ३w.रूअगुणं गामणिधूआ समुन्द्रह; ४w, जीए देवीकओ.
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-२५४ गाहाकोसो
[ ६.८७W762 ५८७) तह नेहलालियाण वि अबाहरिल्लाण सव्वकज्जेसु ।
जं कसणं होइ मुहं तं भण्णइ किं पईवाणं ॥८७॥ W619 ५८९) कि भणह सहीो मा मर त्ति दोसिहिइ सो जियंतेहि।
कज्जालावो एसो सिणेहमग्गु च्चिय न होइ ॥८९॥ जालकुहकाद्यैः । निरतिशयशिल्पचित्रादिकर्मनिर्माण नवर्त्यः ॥ तस्य च मञ्जुत्क्षेपैः अनिमिषप्रेक्षणैः सरोमाञ्चैः । कार्योऽभिनयो लोचनविस्तारैः साधुवादैश्च इति ॥५८६॥
५८७) सीहलस्य । [तथा स्नेहलालितानाम् अपि अबाह्यानां सर्वकार्येषु । यत् कृष्णं भवति मुखं तद् भण्यते किं प्रदीपानाम् (प्रतीपानाम)॥] जं कसणं होइ मुहं यत् कृष्णं भवति मुखं, तं भण्णइ किं पईवाणं तद् भण्यते किं प्रदीपानाम् । कीदृशानाम् । तह नेहलालियाण वि तथा तेन प्रकारेण स्नेहलालितानामपि । भूयः कीदृशानाम् । अबाहरिल्लाण सव्व कज्जेस् अबहिर्भूतानां सर्वकार्येषु । एवंभूतानामपि प्रदीपानां मलिनमेव मुखं प्रभावो भवति सज्जनत्वात् । अथ च ये प्रतीपा भवन्ति तेषामेषेव गतिः। यदुत स्नेहपालिताः सकलकार्यान्तर्भाविताश्च ते मुखं मलिनयन्ति म्लेच्छतया (?) । सहृदये चमत्कार कारिणो काप्युक्तिवैचित्रो परिस्फुरतोति श्लेषोऽलंकारः ॥५८७।
५८९) शालिकस्य । [किं भणथ सख्यो मा म्रियस्वेति द्रक्ष्यते स जीवद्भिः । कार्यालाप एष स्नेहमार्ग एव न भवति ॥] किं भणह सहीओ किं किमर्थ (भणथ) सख्यः । किं तदित्याह । मा मर त्ति दीसिहिद सो जियंतेहिं मा म्रियतां (! म्रियस्व) द्रक्ष्यते स हृदयवल्लभो जीवद्भिरिति हेतोः, मा म्रियस्वेति कारणम् (कार्यम्)। कज्जालावो एसो कार्यालाप एषः, सिणेहमग्गु च्चिय न होइ स्नेहमार्ग एव न भवति यत् तेन विना जीव्यत इति ॥५८९॥
१w.अबाहिरिल्लाण सयलकज्जेसु, २. St. 588 is missing in both the BORI and Ahmedabad Iss. ३w. किं भणह में सहीओ -मा मर दीसिहइ सो जिअंतीए...सिणेहमग्गो उण ण होइ.
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-६.९२]
W620 ५९०) एक्कैल्लमो दीवियमईएँ तह लालिओ सयण्डाए ।
पियजायस्स जह धणुं पडियं वाहस्स हत्थाओ ॥१०॥ W763 ५९१) तिसिपी मयउ त्ति मई मओ वि तिसियं मई कलेऊण ।
इय मयमिहुणं तिसियं पियइ न सलिलं सिणेहेण ॥९॥ W554 ५९२) इदहमित्ते गामे न वडइ भिक्ख त्ति कीस रे भणसि ।
धम्मिय करंजभंजय जं जीवसि त महच्छरियं ॥९२॥ ५९.) जक्कुरङ्गयाः (१)। [एकाकिमृगः क्रीडामृग्या तथा लालितः सतृष्णया। प्रियजायस्य यथा धनुः पतितं व्याधस्य हस्तात् ।। एक्कल्लममओ दोवियमईऍ एकाकिमृगः दीवितमृग्या तह लालिओ सयोहाए तथा तेन प्रकारेण लालितो रमितः सतृष्णया साभिलाषया । जह वाहस्स यथा व्याधस्य हत्थाओ घणु पडियं हस्ताद् धनुः पतितम् । कथंभूतस्य व्याध. स्य । पियजायस्स प्रिया जाया यस्येति स तथोक्तस्तस्य । यत एवासौ प्रियजायो, अत एव तस्य स्वकान्तानुगतमृगोदर्शनेन तस्मरणाद् धनुहस्तात् स्रस्तम् । दीवियमई क्रीडामृगी । हेतुरलंकारः १५९०॥
५९१) तस्या एव (जक्कुरङ्गयाः) । तृषितो मृग इति मृगी, मृगोऽपि तृषितां भृगी कलयित्वा । इति मृगमिथुनं तृषितं पिबति न सलिलं स्नेहेन ॥] निगदव्याख्यातेयं गाथा ||५९१॥
५९२) हस्तिन्याः । एतावन्मात्रे ग्रामे न पतति भिक्षेति कस्माद् रे भणसि । धार्मिक करञ्जभनक यज्जीवसि तन्ममाश्चर्यम् ॥] धम्मिय धार्मिक करंजभंजय करञ्जभञ्जक । इद्दहमित्ते गामे न पडइ भिक्ख त्ति कीस रे भणसि एतावन्मात्रे महति ग्रामे न पतति भिक्षेति किं भणसि । यतः जं जीवसि तं महच्छरियं यजीवसि तन् ममाश्चर्यम्। असतीसंकेतानां करञ्जानां भञ्जनत्वान् न त्वामिह ग्रामे कोऽपि वसन्तं वाञ्छतोति भावः । धार्मिकेति उल्लुण्ठनायाम् । धार्मिकस्त्वम् अथ च १w एकल्लमओ दिट्टीअ मईअ तह पुलाओ सअण्हाए;२w. तिसिया पियउ त्ति मओ, मओ वि तिसिओ मई करेऊण, ३w. ण पडइ; ४w. मं. ५w तं पि दे बहुअं.
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२५६:
र माहाकोसो
६.९३-) W764 ५९३) तुह सामलि धवलवलंततरलतिक्खग्गलोयणबलेण ।
मयणो पुणो वि इच्छइ हरेण सह विग्गैहं काउं ॥९३॥ W556 ५९४) पत्तणियंब फंसा न्हाउचिण्णाएँ सामलंगीए ।
जलविंदुएहि चिहुरा रोवंति व बंधणभरण ॥९॥ W555 ५९५) जंतिय गुलं मग्गसि न य मे इच्छाएँ वाहसे जंतं ।
अरसन्न किं न याणसि न रसेण विणा गुलो होइ ॥१५॥ परापकारकरणे प्रवृत्त इति । रे इति निपातो निन्दायाम् । रे हरे भरे संभाषणरतिकलहाक्षेपेषु (वररुचि, ९,१५) ॥५९२॥
५९३) बाणेसुरस्य (? बाणासुरस्य)। [ तव श्यामलि धवलवलमानतरलतीक्ष्णाप्रलोचनबलेन । मदनः पुनरपीच्छति हरेण सह विग्रह कर्तुम् ॥ ] निगदव्याख्यातेयं गाथा ।।५९३॥
५९४) । हालस्य । [प्राप्तनितम्बस्पर्शाः स्नातोत्तीर्णायाः श्यामलाङ्ग्याः । जलबिन्दुभिश्चिकुरा रुदन्तीव बन्धनभयेन 1] सामलंगीए चिहुरा रोवति व श्यामलाङ्ग्याः केशा रुदन्तीव । कैः । जलबिंदुएहि जलबिन्दुभिः । किमूतायाः । न्हाउत्तिण्णाएँ स्नातोत्तोर्णाया इति । पूर्वकालेत्यादिना (पाणिनि, २,१,४९) कर्मधारयः । कीदृशाः । पत्तणियंबप्फंसा प्राप्तनितम्मस्पर्शाः । केन हेतुना रुदन्तोव । बंधणभएण बन्धनस्येव भयेन । सापराधः किल बन्धनं लभते । अपराधस्तु नितम्बस्पर्शः । अतोऽसावुत्प्रेक्षालंकारः ॥५९४॥
५९५) विद्धस्य । [यान्त्रिक गुडं प्रमार्गयसि न च म इच्छया वाहयसि यन्त्रम् । अरसज्ञ किं न जानासि न रसेन विना गुडो भवति । नंतिय गुलं पमग्गसि यान्त्रिक गुडं मार्गयसि, न य मे इच्छाएँ वाहसे १w. चलंत; २w.विग्गहारंभ; ३W. हाणुत्तिण्णाइ;४w.रुअंति बंधस्स व भएण; ५w. विमग्गसि; ६w. अणरसिय; ७w.ण आणसि. ८St. 596 and 597 are missing in both the BORI and Ahmedabad Mss.
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-६.९९]
W621 ५९८ ) केमले य ममई परिमलइ सत्तलि मालई पि नो मुयइ । तरलत्तणं पि हयमहुयरस्स जइ पाडला हरइ ॥ ९८ ॥ W622 ५९९) दो अंगुलयकवाडयपिणद्धसविसेसणीलकंचुइया | aras rणत्थ लिवणियं व तरुणी जुवाणाणं ।। ९९ । जंत न च ममेच्छया यन्त्रं वयसि । अरसन्न किं न याणसि न रसेण विणा गुलो होइ अरसज्ञ किं न जानासि न रसेन विना गुडो भवति । यो निधुवनविधिवैदग्ध्येन समीहितं न संपादयति, अथ च सुखमभिलषति सोऽयम् अरसज्ञेति सप्रणयकोपं कयाचिदेवमभिधोयत इत्यन्योकिरलंकारः । भाविकोऽयमित्यन्ये । स्वाभिप्रायस्य कथनं यदि वाऽप्यन्यभावना | अन्यापदेशो वा यस्तु त्रिविधं भाविकं विदुः || ( सरस्वतीकण्ठाभरण, ४, ८६ ) । इदमन्यभावनाभिधानं भाविकम् ॥५९५ ॥
५९८ ) गोतरस्य (? गोभटस्य ) । [ कमले च भ्राम्यति परिमृद्वाति नवमालिकां मालतीमपि नो मुञ्चति । तरलत्वम् अपि इतमधुकरस्य यदि पाटला हरति ।।] तरलत्तणं पि हयमहुयरस्स तरलत्वमपि - हतमधुकरस्य जइ पाडला हरइ (यदि पाटला हरति ) । तरलत्वमेवाह | (कमले य भमइ) कमले च भ्राम्यति, परिमल सत्तलि (परिमुद्राति नवमालिका) मालई पि नो मुयइ मालतीमपि न मुञ्चति । एवमहं संभावयामि, अस्य अनेक कुसुमरसलोभलम्पटस्य पाटला यदि मकरन्दोत्तरा तरलत्वं हरति नान्यकुसुमजा तिरित्यर्थः । अपिः संभावनायाम् । सत्तली 1 नवमालिका ! अन्यापदेशोऽलंकारः ॥५९८॥
छ सय
५९९) तस्यैव ( गोतरस्य ) । [ द्वयङ्गुलककपाटक पिनद्धसविशेघनीलकञ्चुकिका । दर्शयति स्तनस्थलीवर्णिकामिव तरुणी यूनाम् ||] तरुणी जुवाणाणं थणस्थलवण्णियं दावेइ युवतिर्यूनां स्तनस्थलीयाणकामिव १w. णलिणीसु भमसि परिमलसि सत्तलं मालई पि णो मुअसि । तरलत्तणं तुहअहो महुअर जइ; २w; दोअंगुल अकवालअ०; ३. जुवजणाण.
१७
२५७
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२५८
गाहाकोसो
६.१०.-]
W557 ६००) गामंगणणियलियकण्हवक्ख वड तुन्झ दूरमणुलग्यो ।
तत्तिल्लवडिक्खरभोइओ वि गामो ने उब्बियइ ॥१०॥ दर्शयति । कीदृशी । दोमंगुलयकवाडयपिणद्धसविसेसणीलकंचुझ्या द्वय
गुलककपाटकपिनद्धा स्तनोन्नतिगुणेन सविशेषा अधिकदृश्यमानान्तरा नीलकञ्चुकिका यस्याः सा तथोक्ता । अतश्च कीदृशी । दृश्यमानैकदेशतया स्तनवर्णिकामिव दर्शयन्ती इति । वर्णिका एकदेशः । दृश्यदर्शनेन एकदेशिनो ज्ञानम् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥५९९॥
६००) [ ग्रामाङ्गणनिगडितकृष्णपक्ष वट तव दूरमनुलग्नः । चिन्तापरप्रतिखरभोगिकोऽपि ग्रामो नोद्विजते ॥ ] हे गामंगणणियलियकण्हवम्व वड प्रामाङ्गणनिगडितकृष्णपक्ष वट, तुज्झ दूरमणुलग्गो तव दूरमनुलग्नः गामो न उब्वियइ ग्रामो नोद्विजते । कदाचिदुदासीनमृदुस्वामिको भवतीत्याह- तत्तिल्लवडिक्स्वरभाइओ वि चिन्तापरतीव्रतरभोगिकोऽपि । एवंभूतोऽपि ग्रामो नोद्विजते, तत् तव संतमसतिरस्कृतसकललोकलो
चनालोकतया-प्रच्छन्नकामितोपकरणस्य वटविटपिनो विलसितमिति भावः । - तत्तिल्लो चिन्तातत्परः ।पडिक्खरो अमर्षणः । हेतुरलंकारः ॥६००॥
इति हालविरचिते गाथाकोशे भुवनपालदेवविरचितायां छेकोक्तिविचारलीलायां षष्ठमेतच्छतं समाप्तम् । श्रीगौतमाय नमः। .. .
APPENDIX [Both the BORI and Ahmedabad Mss. contain only the first six centos of Hala's Gātbākośa and Bhuvanapala's commentary on them. In this appendix are given stanzas 1-37 from. the seventh cento of the Gathakosa as found in the BORI Ms. (No. 385 of 1887-91), with Ajada's. commentary, and stanzas 641 to 700 (actually 701) as found in the Baroda Ms. (No. 12681 of the Orien.
१w. तत्तिल्लपडिक्खअभोइओ; २w. ण उम्विग्गो.
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-७:०२] सत्तमं सयं
२५९ W436,R609, ६०१) अविरयपडतरयजलधाराभरघडियरज्जुबंधेहिं ।
असमत्थो उक्खिविउं रसइ व मेहो महिं उयह ॥१॥ W561,R610, ६०२) महिसक्खंधलागं घोलइ सिंगाहयं सिमिसिमंतं ।
आहयवीणाझंकारसदमुहलं मसयवंदं ॥२॥ tal Institute, Baroda)with what is very probably Bhuvanapala's commentary. Stanzas 638,639 and 640 are found neither in the BORI M3, with Ájada's commentary nor in the Baroda Ms, as the relevant folios are missing in both the Mss. The BORI Ms. with Ajada's commentary contains towards the end of cento VI four stanzas (597 600) which are not found in the BORI and the Ahmedabad Mss. with Bhuvanapāla's commentary. These four stanzas are given with Ajada's commentary at the end of this appendix. In the case of all these stanzas their serial numbers as given in Weber's 1881 edition and as found in Ms. R used by Weber are shown in the left hand margin with the letters W and R. ]
६०१) कलिङ्गस्य । अविरतपतद्रयजलधाराघटितरज्जुबन्धैः । असमर्थ उत्क्षेप्तुं रसतीव मेघो महीं पश्यत ॥ पुनवर्षावर्णनगाथाष्टकम् । अविरतं पतन्तो रयेण वेगेनोपलक्षिता ये जलधाराभराः, तैर्धटिता ये रेज्जुबन्धाः, तैः करणभूतैः महीम् उत्क्षेप्तुम् असमर्थों मेघो रसतीव । उय पश्य । प्राकृतत्वाद् रयशब्दस्य प्राग्भावाभावः (१) ॥६०१ ॥
६०२) पालित्तयस्स । [महिषस्कन्धावलग्नं घूर्णति शृङ्गाहतं सिमसिमायमानम् । आइतवीणाझङ्कारशब्दमुखरं मशकवृन्दम् ॥] महिषस्य स्कन्धलग्नं शृङ्गाहतं सिमिसिमायमानम् आहतवोणाझङ्कारशब्दमुखरं धूर्णति मशकवृन्द समूहः ॥ ६०२॥
१ . अविरलपडतणवजलधारारज्जुपडि पअत्तेण । अपहुत्तो..........॥ २w. विलग्गा ३.w. .मसबुंद; :: .....
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गाहाको
[ ७.०३
W765R612,६०३) सुंयइ सुहं चिय कुंडलियपेहुणो निग्गयस्स वडुयस्स ! जणरंजणग्गिहुत्ते घरम्मि सुणओ अईमंतो ||३||
२६०
W725,R611, ६०४) मा बंधंसु वीसंभं पुत्तय चडुयारओ इमो लोओ । सूईवेहो कम्मि पिच्छ किं ननइ पमाणं ||४|| W564,R613, ६०५) धाराधुव्वतमुहा लंबियपक्खा निउंचियग्गीवा । वेद काया लाभिन्न व्व दीसंति ||५|| W623,R614, ६०६) रक्खेइ पुत्तयं मत्थरण उच्छोवयं पडिच्छंती । ● पंहियजाया उल्लिज्जंतं न लक्खेइ ॥ ६ ॥
६०३) [स्वपिति सुखमेव कुण्डलितपुच्छो निर्गतस्य बटुकस्य । जनरञ्जनाग्निहोत्रे गृहे शुनको अतिम्यमानः ॥] प्रावृड्वर्णनम् । जनरजनार्थम् अग्निहोत्रं यत्र तत् तथा । गृहे कुण्डलितपुच्छो जलधाराभिरतिभ्यमानो बहिर्गतस्य बटुकस्य वा सुखं स्वपिति । पेहुणं पुच्छम् । जातिरलं
कारः ||६०३ ॥
६०४) माहवरायस्स । [ मा बधान विस्रम्भं पुत्रक चाटुकारको अयं लोकः । सूचीवेधः कर्णे पश्य किं ज्ञायते प्रमाणम् ||] कश्चित्पुत्रं शिक्षयति । मा विस्रम्भं बधान हे पुत्रक, चाटुकारकोऽयं लोकः । आमन (?) कर्णे कृतः सूचीवेधः पश्य किं प्रमाणं प्रथते । तस्मान्मा विश्वसेदित्यर्थः ॥ ६०४ ॥ ६०५) अंगरास्स | [ धाराधान्यमानमुखा लम्बितचरणा निकुञ्चितग्रीवा: । वृतिवेष्टकेषु काकाः शूलाभिन्ना इव दृश्यन्ते ||] धाराक्षाल्य - मानमुखाः लम्बितपक्षा नितरां कुञ्चितग्रीवा: काका वृतिवेष्टकेषु वृत्यन्तर्गतकीडेषु स्थिताः सन्तः शूलाभिन्ना इव भान्तीत्युत्प्रेक्षा ॥ ६०५ ॥
६०६) पालित्तयस्स । [ रक्षति पुत्रकं मस्तकेन पटलोदकं प्रतीच्छन्ती । अश्रुभिः पथिकजाया आद्रक्रियमाणं न लक्षयति ||] यत्र यत्र गृहं १ w. सुहय सुहं चिय कुडलि व्व पेहुणो णिग्गअस्स चडुवस्स । नगरंजणिग्गहो ते घरम्मि सुणहो अतिहिवंतो ॥; २ w. बच्चसु; ३. वइवेढणेसु; ४w. ओच्छोअअं; ५w. पहिअघरिणी.
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-७.०९] सत्तमं सयं
२६१ W766,R615,६०७)निवेडि हिसि मुन्नहियएजलहरजलपंकिलम्मिपंथैम्मि।
उप्पिक्खागयपिययमहत्थे हत्थं पसारिती ॥७॥ W667,R616, ६०८) उच्छंगियाऍ पइणा अहिसारणपंकमलिणपेरंते ।
आसन्नपरियणो विय सेउ च्चिय धुयइ से पाए॥८॥ W562,R617, ६०९) रेहंति कुमुयदलणिच्चलट्ठिया मत्तमहुयरणिहाया।
ससियरणीसेसपणासियस्स गंठि व्य तिमिरस्स ॥९॥ श्चोतति तत्र तत्र शिरो न्यस्यन्तो पथिकपत्नी रक्षति जलबिन्दुभ्यः पुत्रम् । अथ च स्वाभिराोक्रियमाणम् एनं न लक्षयति । पथिकभार्यात्वाद् चोदनसंभवः । उच्छोवो बिन्दुः । दैवशब्दः (१) उत्पूर्वोऽयम् ॥६०६॥
६०७) राघवस्य । [ निपतिष्यसि शून्यहृदये जलधरजलपङ्किले पथि । उत्प्रेक्षागतप्रियतमहस्ते हस्तं प्रसारयन्तो ॥] हे शून्यहृदये जलधरजलपङकिले पथि चिन्तानीतप्रियतमहस्ते हस्तं प्रसारयन्तो निपतिष्यसि । उत्प्रेक्षा । स्वयंकृता चिन्ता ।। ६०७ ॥
६०८) पोट्टिसस्स । [ उत्सङ्गितायाः पत्या अभिसारणपङ्कमलिनपर्यन्तो । आसन्नपरिजन इव स्वेद एव धावयति तस्याः पादौ ॥] तस्याः पत्न्याः कान्तोत्सङ्गितायाः सत्या अभिसारणपङ्कमलिनप्रान्तो पादावासन्नपरिजन इव स्वेद एव भाजयति । सोपानद्य.....चारणायाः (१) ( सोपानकत्वे चरणयोः ? ) पर्यन्तावेव मलिनितौ ।। ६०८॥
६०९) [ शोभन्ते कुमुददलनिश्चिलस्थिता मत्तमधुकरसंघाताः । शशिकरनिःशेषप्रणाशितस्य ग्रन्थय इव तिमिरस्य ।। चन्द्रोदयसमयवर्णनम् । कुमुददलेषु निश्चलस्थिता मत्तमधुकरनिकराः शशिकरैः निःशेषप्रणाशितस्य तिमिरस्य ग्रन्थय इव राजन्ते । कस्यचिद् दा देस्तक्ष्यमाणस्य दुर्भे या ग्रन्थयस्तथैवावशिष्यन्ते, तथा तिमिरस्यापीत्यर्थः । निहाया संधाताः ॥६०९॥
१R. निवडिहसि, २w. मग्गम्मि, ३w. सेअ च्चिय, ४w. धुवइ.
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२६२
गाहाकोसो
- [७.१०
W434,R618, ६१०)वासारत्ते उन्नयपयोहरे जुव्वणि व्व वोलीणे।
पढमिककासकुसुमं दीसइ पलियं व धरणीए ॥१०॥ W563,R620,६११) उये कोडराउ तुरियं पहाविथं पूसयाण रिछोलिं ।
सरए जरिउ व्व दुमो पित्तं व सलोहियं वमइ ॥११॥ W.624,R619, ६१२)सरए सरम्मि पहिया जलाई कंदुट्टसुरहिगंधाई।
धवलच्छाइँ सयण्हा पियंति दइयाण व मुहाई ॥१२॥ ६१०) आढ्यराजस्य । [ वर्षारात्र उन्नतपयोधरे यौवन इवातिक्रान्ते । प्रथमैककाशकुसुमं दृश्यते पलितमिव धरण्याः । ] गाथासप्तकेन शरद्वर्ण तम् । उन्नतपयोधरे वर्षारात्रे यौवन इत्रातिकान्ते सति प्रथमैककाशकुसुमं धरण्याः पलितम् इव दृश्यते । उत्प्रेक्षालंकारः । पयोधरा मेघाः स्तनाश्च ॥६१०॥
६११) पोट्टिसस्स । [ पश्य कोटरात् त्वरितं प्रधावितां कीराणां पङिक्तम् । शरदि ज्वरित इव द्रुमः पित्तमिव सलोहितं वमति ।] कीराणां पतिम् वृक्षस्य कोटरात् तूणे प्रधावितां पश्य । शरदि ज्वरित इव द्रमः सशोणितं पित्तमिव वमति, इति उत्प्रेक्षा । कीराणां तुण्डस्य रक्तस्व'त् पक्षाणां नोलत्वाद् रक्तपित्तोपभ्यम् । पूमा शुकाः । रिंगोली पक्तिः ॥६११॥
६१२) माननरेन्द्रस्य । [शरदि सरसि पथिका जलानि कमलसुरभिगन्धानि । धवलाच्छानि (धवलाक्षाणि) सतृष्णाः पिबन्ति दयितानामिव मुखानि ।] शरत्काले तडागसमृद्धया पथिकाः कमलैः सुगन्धानि कमलवत् सुगन्धोनि च धवलाच्छानि धवलाक्षाणि च जलानि दीयतामुखानीव पिबन्ति । कंदोटं पद्मम् ॥६१२॥
१w. उअह तरुकोडराओ णिहूतं पूसुआण रिंछोलिं.
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२६३
सत्तम सय W625,R621, ६१३) अभिंतरसरसामो उवरिं पव्वायबद्धपंकाओ।
चंकंमतम्मि जणे समूससंति व्च रच्छाओ ॥१३॥ W681,R622, ६१४) सिंयसिंधवपव्वयसच्छहाइँ धुयतूलपुंजसरिसाई।
. वैमुआयंति व मुक्कोअयाई सरए सियभाई ॥१॥ W684,R623,६१५) मज्झे पयणुयपंकं अवहोवासेसु सैरसचिक्खल्लं ।
गामस्स सीससीमंतयं व रच्छामुहं जायं ॥१५॥ ६.१३) सज्जनस्य । [अभ्यन्तरसरसा उपरि शुष्कबद्धपकाः । चक्रम्यमाणे जने समुच्छ्वसन्तीव रथ्याः।] अभ्यन्तरे सरसाः सार्दाः, ऊपरिष्टाद् बद्धशुष्क पड्काः सत्यो रथ्याश्चक्रम्यमाणे जने सति समुच्छ्वसन्तीव । अतः सानुरागाणां वियागे सोच्छ्वासता युक्तैव । पव्वायं शुष्कम् । उतो मुकुलादिष्वत् (हेमचन्द्र,८,१,१०७) इति अत्त्वम् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥६१३॥
६१४) सज्जनस्य । [सितसैन्धवपर्वत सच्छायानि धोततूलपुज्जसदृशानि । शुष्यन्तीब मुक्तोदकानि शरदि सिताभ्राणि ।] सितसैन्धवपर्वतसक्षाणि धुतधूलो (? तूल) पटलरूपाणि मुक्तोदकानि सन्ति शरत्काले सिताभ्राणि शुष्यन्तीव । वस्त्रादि कमपि मुक्तोदकं सत् सद्यः शुष्यति इति । वसुमायति इति शुष्यन्ति ॥६१४॥
६१५) [मध्ये प्रतनुकपकम् उभयपार्श्वयोः सरसकर्दमम् । ग्रामस्य शीर्षसीमन्त इव रथ्यामुख जातम् ।] मध्ये मध्यभागे जनैः क्षोदितत्वात् प्रतनुकपङ्क पतितदण्डकमित्यर्थः । दण्डरेखाया उभयोः पार्श्वयोः सरसकर्दमं सद् ग्रामस्य रथ्यामुखं शिरःसीमन्तस्य सदृशं जातम् । सीमन्तस्यापि पार्श्वयोः केशकालिका मध्ये च रेखा स्याद् अतः सदुत्प्रेक्षा (तदुत्प्रेक्षा) । अवहो इति मुकुलादित्वात् । चिक्खल्लो कर्दमः । सीमन्तः केशविन्यास एव ॥६१५।
१w. अब्भंतर; २w. उअ सिंथवावअसन्छहाइ, ३ . सोहंति सुअणु; ४ w. 'साणांचक्खिल्लं.
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गाहाको
[७१६
W768,R624,६१६) जह लंघेसि परवई निययवई भरसहं पि मोक्षूंन । तह मन्ने कोहलिए अज्जं कल्लं व फुट्टिडिसि ॥ १६ ॥ W682,R625,६ १७) आउच्छंति व वेढिक्कएहि कालेयएहि निज्र्ज्जता । निपच्छिम लिय पुलोइएहि महिसा कुंडबाई ॥ १७ ॥ W680. R626,६१८) मुद्धे अपत्तियंती पवालयं कुरवण्णलोहियए । निद्धोयधाउराए वि कीस हत्थे पुणो धुयसि || १८ ||
६१६) पालित्तयस्स । यथा लङ्घयसि परवृति (परपर्ति) निजवृर्ति भरसहाम् (निजपतिं भरसहम् ) अपि मुक्त्वा । तथा मन्ये कूष्माण्ड ( कुतूहलिनि) अद्य श्वो वा विकसिष्यसि ( प्रकटीभविष्यसि ) ।] हे कोहलिए कूष्माण्डलते यथा त्वं भरसहामपि निजकवृर्ति मुक्त्वा परवृतिमारोहति तथा मन्ये अथ श्वो वा विकसिष्यसि । अथ च श्लेषस्य व्याख्यानाद हे कोहलिए कौतुकिनि यथा त्वं भरसहमपि निजकपति मुक्त्वा परपति भजसि, तथा मन्ये अद्य श्वो वा प्रकटीभविष्यसीति । लोकापवादभाग् भविष्यसीत्यर्थः ॥ ६१६॥
२६४
६ १७) हालस्स । [आपृच्छन्त इव गलगर्जितैर्घातकैर्नीयमानाः । निष्पश्चिमवलित प्रेक्षितैर्महिषाः कुटुम्बानि ||] (महिषाः) काटे यकैर्घातकैर्नीयमानाः सन्तो निष्पश्चिमवलितावलोकितैः करणभूतैः कुटुम्बानि पुनर्दर्शनाथं पृच्छन्ति (इव) | वेढिक्कं गवादिगर्जितम् । वेईतिह्निवकं वेढिक्कं (1) वक्तारः (१) ॥ ६१७॥
६१८) केल्लिवस्स । [मुग्धेऽप्रतियती प्रवालका कुरवर्णलोहितौ । निधैतधातुरागावपि कस्माद् हस्तौ पुनर्भावयसि ।। ] स्वभावरक्तौ हस्तौ धातुविभक्ताविति क्षालयन्ती काचित् केनाप्यभिधीयते । हे मुग्धे अप्रतियती निर्घौत तुरागावपि विद्रुमाङ्कुर शोणौ करौ किं पुनः क्षालयसि । भ्रान्तिमानलंकारः || ६१८॥
१ w. मोत्तणं; २w. कुडंगाइ; ३ w. पवाल अंकुर अणिद्धलोहिअए.
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-७.२१] सत्तमं सयं .
२६५ W683,R627,६१९) पुससु मुहं ता पुत्तिइ वाहोअरणं विसेसरमणिज्ज ।
मै ए मन्नु च्चिय मंडणं ति मा काहिइ पुणो वि ।१९।। W677,R628, ६२०)अत्थक्करूसणं खणपसज्जण अलियवयणणिबंधो ।
उम्मच्छरसंतावो पुत्तय पर्यई सिणेहस्स ॥२०॥ W605,R629,६२१)मोइगिदिन्नपहेणयचक्खियदुस्सिक्खिओ हलियउत्तो
इत्ताहे अन्नपहेणयाण छिब्बोल्लियं देइ ॥२१॥ ६१९) मृगेन्द्रस्य । [ मार्जय मुखं तावत् पुत्रिके बाष्पावतरणं विशेषरमणीयम् । मातर्मन्युरेव मण्डनम् इति मा करिष्यति पुनरपि ।] काचित् पुत्रवती प्रति वक्ति । हे पुत्रि तावत् प्रमार्जय मुखम् । यतो बापावतारेण सविशेषमिदं रम्यं वर्तते । अपरं च सैत्र पुत्री प्रत्याह । हे मातर, मन्युरेव मण्डनमिति कृत्वा पुनरपि सत्वरं वल्लभो मा मन्यु कारयिष्यति, मा अचोकरदित्यर्थः । बाष्प एव मुखमण्डनलो मेन स यदि पुर्मिन्यु कारयति तदा तव हानिर्मम च दुःवमिति भावः ।।६१९॥
६२०) [ अकाण्डरोषणं क्षणप्रसत्तिरलीकवचननिर्बन्धः । निरगेलश्च संतापः पुत्र प्रकृतिः स्नेहस्य ।।] काचित् कंचित् प्रबोधयति । अप्रस्तुतरोषणं, क्षणेन प्रत्तिः, अपत्यव वननिर्बन्धः, निरर्गलश्च संतापः इति हे पुत्रक स्नेहस्य प्रकृतिरेषेति । अथक्कं अप्रस्तावः ॥६२०॥
६२१) पोट्टिसर । भोगिनोदत्तप्रहेगकभक्ष गदुःशिक्षितो हालिकपुत्रः । इदानोमन्यप्रहेगानां घिग्व वनं ददाति ॥] योग्यताधिकसंपन्नफल: पुमान् अन्योक्तया भग्यते । स्वामिभार्या यद् दत्तं भोज्योपायन.... । निछतीति (?) वचनं दत्ते, निन्दतात्यर्थः । भोइणी स्वामिभार्या । पहेणयं भोज्योगायनम् । लाहणकमिति प्रसिद्धम् । छिब्बोल्लियं छो इति संयुक्तं वचनम् ॥६२१॥
१w. पुत्ति अ-पुत्रि च); २w. मा एअं चिअ मुहमंडणं ति सो काहिह पुणो वि. ३ w. पअवी (= पदवी); ४ w. छीबोलला. .
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२६६
ग्राहीकोसो
W685,R630, ६२२) अवरण्डागयजामाउयस्स विउणेइ मौहणुत्रकंठ । बहुयाऍ घेरपरोहड मज्जणमुहको वलयसो ॥२२॥ W626.R631,६२३) मुहपुंडरीयछायाऍ संठिए वेंडर रायहंसि व्व । छण पिट्ठकुट्टणुच्छलियधूलिधवले थणे तैणुई | २३ | W686, R632, (२४) जुज्र्ज्ञेच वेडामोडण मोडियमल्लस्स जुण्णमल्लस्स । कच्छाबंधु च्चिय भज्जैमल्ल हिययाइँ उक्खणइ ॥ २४ ॥ W687,633, ६२५) आणिज्जतीर तुमं परणो हयपडहजयपडायाए । मल्लि न लज्जति नच्चसि दोहग्गे पायडिज्जते ॥२५॥ ६२२) अंधपर मस्स । [ अपराह्नागतजामातुर्द्विगुणयति मोहनोह्कण्ठाम् । वध्वा गृहपश्चाद्भागमज्जनमुखगे वलयशब्दः ||] वध्वाः सबन्धी गृहपश्चाद्भागमज्जनमुंम्बरो वलयशब्दो अपराह्नागतस्य जामातृकस्य सुरतोल कण्ठां द्विगुणयति । बाह्यान्तरसंनापशम कत्वात् (?) मदर्थोऽयं मञ्जनारम्भ इत्याशयाद्वा | परोहड गृहपश्चाद्भागः ||६२२॥
६२३) दामोदरस्स । [ मुखपुण्डरीकच्छायायां संस्थितो वहति राजहंसाविव । क्षणरिष्ट कुट्टनो च्छलितधूलिधवलौ स्तनौ तन्वी ॥] कापि कस्याश्चित् कुचौ वर्णयति । उत्सवे यत् पिष्टकुट्टनं तेन उच्छलिता या धूलि, तया धवल सितौ स्तनौ, मुखपुण्डरीक च्छायायाम् उपविष्टौ राजहंसाविक तन्वी वहति । कमलच्छायायां हि राजहंसोपवेशनं युक्तमेवेति । ६२३॥ ६२४) [युद्धचपेटामोटनमोटितमल्लस्य जीर्णमल्लस्य । कक्षाबन्ध एवं भीरुमल्लहृदयान्युत्खन ते ||] कश्चित् कृतकर्म (1) वर्णयति । युद्धार्थ या चपेटा तथा यत् प्रमर्दनं तेन मोटितान्यमल्लस्य निर्व्यूढ मल्लस्य कंक्षाबन्ध एव भीरु मल्लहृदयान्युत्खनति । ऊरुकरस्फोटनादिकमित्यर्थः । जुण्णो दृष्टकर्मा | भज्जो भीरुः ||६२४ ॥
I
[७,२२
६२५ ) ईश्वररानस्य । [आनीयमानया एवं पत्युर्ह तपटहजयपताकया । मल्लि न लज्जसे नृत्यसि दौर्भाग्ये प्रकट्यमाने ।] जितप्रतिमल्लस्य
1
१ w. घरपोहरमज्जण पिसुणो; २ w. उअह ३ w. वहइ.
४ w. जुज्झचवैडामोडि भजज्जरकण्णस्स ५ w. भोरुमल्लहिअअं ६ w. समुक्खणइ; ७ w. आणंदतेण तुमं पइणो पहण पडइसण.
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. ७.२८]
सत्तमं सयं
W. 688, R -, ६२६) मा वच्चह वीसंभं इमाण वहुचाडुयम्मणिरेयाणं । निव्वकिज्जपरंमुहाण सुणयाण व खलाणं ||२६||
W.689,R634, ६२७) अन्नग्गामपउत्था कइती मंडलाण रिछोलिं । अक्खंडिय सोहरा वासस्यं जिय मे सुणिया ||२७|| W690,R635, ६२८) सच्चं साहस देवर तं तह चडयारएण सुणएन । निव्वट्टियकज्जपरं मुहत्तणं सिक्खियं कत्तो ॥ २८॥
मल्लस्य हृष्टां वधुं क िवदिदमाह । प्रत्याहतपटहं यथा भवति, एवमानीयमानया पत्युर्जयपताकया तव दौर्भाग्ये प्रकट्यमाने रूति है मल्लि न लज्त से, किंतु नृत्यसि । यतस्त्वदनासक्त्या अयं प्रतिमल्लजयीति । मल्लानां च युद्धकाले स्त्रीपरिहार इति स्थितिः || ६२५ ।।
२६७
६२६) तस्यैव ( ईश्वरराजस्य ) [ मा वजत विश्रम्भम् एषां बहुचाटुकर्मनिरतानाम् । निर्वर्तितकार्य पराङ्मुखानां शुनामिव खलानाम् । ] एतेषां बहुचाटुकर्मनिरतानां समर्थितस्व कार्य पराङ्मुखाणां शुनामिव स्वलानां विश्वासं व्रजसि (? मा व्रजत ) ||६२६ ॥
६२७) हालस्स । [ अन्यग्राम प्रोषिता कषन्ती शुनां पङ्क्तिम् । अखण्डित सौभाग्या वर्षशतं जावतु मे शुनी ||] काचिदसतः स्वां शुनीमाशीर्वादयति । अन्यस्मिन् ग्रामे प्रोषिता प्रवस्तुमारब्धा आत्मना मण्डलानां शुनां पङ्क्तिम् आकर्षन्ती, अखण्डित सौभाग्या मे शुनी वर्षशतं जीवतात् । कौलेयकशब्दशून्ये ग्रामे सुखं मम तद्गृहगमनं तस्य च मे गृहागमनमिति भावः । मंडलो वा । रिछोको पक्तिः ||६२७||
1
६२८) अनुकूटस्य । [ सत्यं कथय देवर तत् तथा चाटुकारण शुना । निर्वर्तितकार्य पर ङ्मुखत्वं शिक्षितं कुनः ॥] काचिद् भ्रातृजाया देवरं पृच्छति । तत् प्रसिद्धं तेन प्रकारेण निर्वर्तितकार्यपराङ्णिउणाणं; २ . वित्तिअ; ३ w. वरिसतयं.
१ w.
०
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२६८
गाहाकोसो
[७.२९
W691,R636,६२९) निप्पन्नसस्सरिद्धीऍ गधिओ गाइ पामरो सरए ।
दलियणवसालितंडुलधवलमियंकासु राईसु ॥२९॥ W692,R637, ६३०)अहिलिज्जइ पउमालेहडालिवल एण कलमगोवीए।
केयारसुत्तरंभणतंसट्टियणिच्चलो चरणो ॥३०॥ W. 693,R638,६३१) दियहे दियहे सूसइ संकेययभंगवढियासंका ।
आवंडुरोणयमुही कलमेण समं कलमगोवो ॥३१॥
मुखत्वं चटु कारकेण शुना कुतः शिक्षितम् इति हे देवर सत्यं कथय । त्वत्तो निश्चितं शिक्षितमिति । त्वमेव ईग, नान्य इत्यर्थः ॥६२८॥
६२९) अवटङ्कस्य । [निष्पन्नसस्यऋद्धया गर्वितो गायति पामरः . शरदि । दलितनवशालितण्डुलधवलमृगाकासु रात्रिषु ॥] पामरस्य सुखासिकाकथनेन पूर्णाशः पुमान् वर्ण्यते । दलितनव - शालितण्डुलधवलमृगाङ्कामु रात्रिषु पामरः सुखं गायति ।।६२९॥
६३०) केरलस्य । [अभिलीयते पद्मलोलुपालिवलयेन कलमगोप्याः । केदारस्रोतोरोधनतिर्यविस्थतनिश्चलश्वरणः ॥] केदारकुल्यारोधनाय त्र्यस्र स्थतो निश्चलः कलमगोप्याश्चरणः पम नम्पटालिवलयेन अभिलीयते । पद्मसदृश इत्यर्थः । लेहडो लम्पटः ॥६३०॥
३३१)विषमशीलस्य। [दिवसे दिवसे शुष्यति सङ्केतकभङ्गवर्धिताशङ्का । आपाण्डुरावनतमुखी कलमेन समं कलमगोपी ॥] शरद्वर्णनगाथात्रयम् । निष्पन्नकणत्वाल्लवनाभिमुखे क्षेत्रे संकेतभङ्गवर्धिताशङ्का मापाण्डुरावनतमुखी सती कलमेन समं कलमगोपी शुष्यति । कलमोऽपि पाकपाण्डुरावनतमुखः शुष्यति । सहोक्तिलंकारः ॥६३१॥
१w. णिप्पण्णसस्सरिद्धी सच्छंद; २w. अलिहिज्जइ पंकअले हलालचलणेण कलमगोवीए 1 केआरसोअरंभणतंसहिअकोमलो चलणो.
.
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-७.३४] सत्तम संयं
२६९ w 695,R639,६३२) दठ्ठण हरियदीहं गोसे वठाण झूरैए हलिओ।
सरैए सहस्समगं तुसारधवले तिलच्छित्ने ॥३२॥ W769,R640,६३३) अणुसोयइ हलियवहू रविकिरणोलुग्गपंडुरच्छायं ।
रणुंदुरदंतुक्खुत्तविसमवलियं तिलत्तंबं ॥३३॥ W770,R641, ६३४) ओहायसंघासालुयाण वइमूलमल्लियंताणं ।
डिभाण किलिंक्यवावडाण सुन्नो सिही जलइ ॥३४॥
६३२) महेन्द्रस्य । [दृष्ट्वा हरितदीर्घ प्रभाते वृषभाणां खिद्यते हालिकः । शरदि सहस्रमागे तुषारधवले तिलक्षेत्रे ॥] शरत्कालप्रातः, तुषारधवले तिलक्षेत्रे आरकवृषस्मय (?) हरितं दोघं च मार्गसहस्रं दृष्ट्वा हालिको रक्षपालने (?) (क्षेत्रपालने ?) विद्यते । मशकत्रस्यमानाः पशवः शालोतिलवाटेषु प्रविशन्ति । देहलग्नांश्च दंशास्तिलैः सह वर्षन्ति । तद्वर्षणादवश्यायबिन्दवः पतन्ति । ततो हरितः प्रतिभाति । शाखाद्युपमर्दाच्च दार्घसरलोऽनेकदण्डको मार्गः स्यादित्यर्थः ॥६३२॥
६३३)[अनुशोचति हालिकवधू रविकिरणावरुग्णपाण्डुरच्छायम् । अरण्यमूषकदन्तोत्कृत्तविषमपतितं तिलस्तम्बम् ॥] अरण्यमूषकदन्तोत्कृत्तम् अत एव रविकिरणैनिःस्थामं पाण्डुरच्छायं विषमपतितं तिलस्तम्बं हालिकवधरनशोचति । एकस्य तिलस्तम्बस्य विनाशम् आशक्य (? आलोक्य) अन्येषामपि शङ्कत इत्यर्थः ।।६३३॥
६३४) तरलस्य । [उपहारकसंघर्षवतां वृति मूलमालीयमानानाम् । डिम्भानां लधुकाष्ठव्यापूतानां शून्यो ज्वलत्यग्निः ॥] गथाद्वादशकेन हेमन्तशिशिरवर्णनम् । उपहारकः प्रस्तावात् तृणकाष्ठादिमूलः (१), तस्याननयनविषये अन्योन्यस्पर्धावताम् अत एव वृतिमूलमालोयमानानां लघुकाष्ठादिषु व्यापूतानां डिम्भाना शून्यः शिस्वी ज्वलति । तेषां कष्टमेवेत्यर्थः । संघासो स्पर्धा । किलिंबं लघुदारू ।६३४॥
१w. संढाण; २w. जरए; ३w. असई रहस्समग्गं; ४w. ओवालअम्मि सीआलुआण वइमूलमुल्लिहंताणं । डिंभाण . कलिंचयवावडाण सुण्णो जलइ अग्गी ॥
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गाहाकोसो
[७.३५
W771,R642, ६ ३५) मा मा मुय परिहासं देअर अणोरणा वराईयं । सीम्मि विपासिज्ज पुणो वि तीसे कुणसु छाहिं ॥ ३५ ॥ W772,R643,६३६) किं तत्स पारएणं किमग्गिणा कि च वासेभवणेणं । जस्सं उरम्मि निसम्मइ उम्हीयंतत्थणी जाया || ३६ || W773,R644,६३७) कमलायराण उण्डो हेमंतो सीयलो जणवयाणं | को इह भिन्नसहावं जाणइ (परमेत्थओ) लोए ॥ ३७॥ ६ ३५) बटुकस्य । [मा मा, मुञ्च परिहास, देवर अनावरणा वराकीयम् । शीतेऽपि प्रस्विद्यति पुनरपि तस्याः कुरु च्छायाम् ॥ ] धर्मोपविष्टाया भ्रातृनायायाश्छायां कुर्वतो देवरस्य द्वयोः स्वेदोद्गमं वीक्ष्य काचिद्
.२७०
"
विदग्धा वदति । हे देवर, मा मा । मुञ्च परिहासं कुरु च्छायाम् । यतः शीतेऽपि प्रस्त्रिद्यते, यत एव ( अत एव ) निरावरणेयं वराकी ततोऽस्याः प्रियां छायां पुनः कुरु । आहारणं ( ? आहोरणं ) उत्तरीयम् ||६३५ ॥
६३६) महिषासुरस्यः । [किं तस्य प्रावारकेण, किमग्निना किंच वासभवनेन । यस्योरसि निश्राम्यति ऊष्मायमाणस्तनी जाया ॥ ] किं तस्य प्रावारकेण वस्त्रेण, किमग्निना, किं वा वासगृहेण, यस्योरसि ऊष्मायमाणस्तनी नायिका लुठति । पारयं प्रावारकम् । निसम्मइ निपतति ॥ ६३६||
६३७ ) ईशानस्य । [ कमलाकराणामुष्णो हेमन्तः शीतलो जनपदानाम् । क इह भिन्नस्वभावं जानाति ( परमार्थतो ) लोके । ] उष्णः कमलाकराणां हेमन्तो दाहकत्वात् । .... ||६३७ ||
१w. गव्भहरएण; २w. जस्स णिसम्मइ उअरे; ३w. उण्हायंतस्थणी; ४w. को किर; ५w. परमत्थयं.
६ Stanzas 638-640 are missing in both the BORI ms. with Ajada's commentary and the Baroda ms. with presumably Bhuvanapāla's commentary.
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२७१
-७.४३]
सत्तमं सयं W730, R645, ६४१) चेरिएहि नन्नइ जणो संगोवंतो पि अप्पाणं ।
उण्हु त्ति समथिज्जइ दाहेण सरोरुहाण हेमंतो। ४१॥ W745,R646,६४२) कस्स न सद्धा गरुयत्तणस्सै पइणो पसायमइयस्स।
जई माणभंजणीओ न हुंति हेमंतराईश्रो ॥४२॥ W774,R647,६४३) हेमंते हिमस्यधूसरस्स असरणस्स पहियस्स ।
सुमरियजायामुहसिज्जिरस्स सीयं चिय पणहूँ ॥४३॥ ६४१) चरितैयिते जनः संगोपयन्नप्यात्मानम् । उष्ण इति समर्थ्यते दाहेन सरोरुहाणां हेमन्तः ॥] जणो चरिएहिं नज्जइ लोकः सुचरितैयिते । किं कुर्वन् । संगोवंतो वि अप्पाणं संगोपयन्नप्यास्मानम् । अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह । उण्हु त्ति समस्थिज्जइ उष्ण इति सम
र्थ्यते दाहेण सरोरहाण हे मंतो दाहेन सरोरुहाणां हेमन्त इति । अर्थान्तरन्यासोऽलंकारः ॥६४१॥
६४२ कस्स वि (1) । [कस्य न श्रद्धा गुरुत्वस्य (निजगुरुत्वे) पत्युः प्रसादमयस्य । यदि मानभञ्जन्यो न भवन्ति हेमन्तरात्रयः ।। ] कस्त न सद्धा गरुयत्तणस्स कस्य न श्रद्धा गुरुत्वस्य । कीदृशस्य । पइणो पसायमइयस्स पत्युः प्रसादमयस्य। जइ हेमंतराईमओ न हुंति यदि हेमन्तरात्रयो न भवन्ति । कथंभूताः । मानभंजणीओ मानभञ्जिन्यः । कामिनीषु हि हैमनीषु यामिनीषु निकामं कामः प्रभवतीति ॥१४२॥
६४३) उरोभहस्य । हेमन्ते हिमरजोधूसरस्य अशरणस्य पथिकस्य । स्मृतजायामुखस्वेदनशीलस्य शीतमेव प्रणष्टम् ॥] हेमंते पहियस्स सीयं चिय पणटुं हेमन्ते पथिकस्य शीतमेव प्रणष्टम् । कदाचिद भवनाभ्यन्तरगतो भवतीत्याह । असरणस्स गृहरहितस्य अत एव हिमस्यधूसरस्स (हिमरजोधूसरस्य) (अपरं च कीदृशस्य) । सुमरियजायामुहसिजिरस्स स्मृतं यत् कान्तामुखं तेन स्वेदनशीलस्य । तहस्मरणैकतानमनाः सदपि शीतं न
गणयतीत्यर्थः। जइ इति सूचायां निपातः (१) । हेतुरलंकारः ॥६४३॥ १W. The two halves stand transposed; २w.गरुअत्तणम्मि ३w पसाअमाणस्स; ४w ओ असरणस्स.
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गाहाकोसो
[७.४४
W.732,R648,६४४) पज्जालिकण अरिंग पुतेय किण्णो समोसरसि । यसपडियपडिमा फुरंति न छिवंति ते जाला ॥ ४४ ॥
२७२
W734, R649,६४५) कह ए धूमंधारे अभ्युत्तणमग्गिणो समपिहि । मुहकमळचुंबणा लेहडम्मि पासट्ठिए दियरे ॥४५॥
W733,R650,६४६) अग्गिं अब्भुतंतोऍ पुत्ति पडिमागया कवोलम्मि । कैण्णलइयल्लपल्लवलल्लि बंधेइ ते जाला ॥४६॥
६४४) वैरसिंहस्य | [ प्रज्वाल्यानं पुत्रि किं नु समपसरसि | स्तनकलशपतितप्रतिमाः स्फुरन्ति, न स्पृशन्ति त्वां ज्वालाः ॥ ] काचित् प्रदीप्तदहनं कुचकलशसंक्रान्त ज्वालाशङ्कया परिहरन्ती कयाचिदेवमुच्यते । थणयलसपडियपडिमा फुरति न छिवंति ते जाला स्तनकलशपतिताः प्रतिमाः स्फुरन्ति न स्पृशन्ति ( त्वां ) ज्वालाः । तस्मात्स्तनलग्नज्वलनज्वालाशङ्कया माऽपतिष्ठेति । ते इति कर्मणि षष्ठी । किण्णो इति किणोशब्दस्य एवादित्वात् (सेवादित्वात्) द्वित्वे रूपम् । पृथुस्तनतावर्णनपरेय मुक्तिः ॥६४४॥
:
।
६४५) मनोभवस्य । [कथमयि धूमान्धकारे अभ्युत्ते जनमग्नेः समाप्स्यते । मुखकमलचुम्बनालम्पटे पार्श्वस्थिते देवरे ||] पासट्ठिए दियरे पार्श्वस्थिते देवरे । कीदृशे | मुहकमलचुंबणा लेहडम्मि मुखकमलचुम्बनलम्पटे । तस्मिन् हि वक्त्रेन्दुबिम्ब चुम्बनचटुले अग्निसंधुक्षण फूत्कार मारुतमोहावसरः (?) तत्र भवतीति भावः ॥ अग्भुत्तणं संधुक्षणम् । लेहडो लम्पटः ॥ ६४५॥ ६४६) तरङ्गमत्याः । [ अग्निम् अभ्युक्तेजयन्त्याः पुत्रि प्रतिमागता कपोले । कर्णगृहीतार्द्रपल्लवलोलां बध्नाति ते ज्वाला || ] है पुत्ति पुत्रि, ते कवोलम्मि तव कपोले कण्णलइयल्लपल्लवलल्लिं बंधेइ कर्णगृहीताई पल्लवलीलां बध्नाति । का । जाला ज्वाली | कीदृशी । पडिमागया प्रतिमागता । कीदृश्यास्तव । अगिंग अब्भुततीएँ अग्नि संधुक्षमाणायाः । उपमालंकारः । लल्ली लीला ||६४६ ॥
१w मुद्देण पुत्तिएँ किणो समोसरसि; २w. दे; ३w. समप्पिइ ४W. कण्णालंबिrपल्लवलच्छि संवेइ.
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-७.४९] सत्तमं सयं
२७३ W 735,R651 ६४७) आयंवच्छं वियतबाहमाबद्धयणहरुक्कंप ।
- असमत्तं चिय चिट्ठउ सिहिणो अन्भुत्तणमिणं ते ॥४७॥ w740 R652,६४८) जो होइ रसासाओ मुविणहाणं पि पल्लवच्छणं ।
(पुंडरिच्छृणं)। कत्तो सो होइ रसो मोहासाणं भमौसाणं ॥४८॥ W775,R653,६४९) उवइसइ लट्टियम्मं कङ्ढेइ रसं न देइ सोत्तुं जे।
जंतस्स जुव्वणस्स य नज्जेइ इक्कु च्चिय सहावो॥४९॥
६४७) धारावर्षस्य । [आताम्राक्षं विगलद्वाष्पमाबद्धस्तनभरोत्कम्पम् । असमाप्तमेव तिष्ठतु शिखिनोऽभ्युत्तेजनमिदं ते ॥] सिहिणो अब्भुतणमिणं ते शिखिनः संधुक्षणमिदं ते । की दृशम् । आयंबच्छं आताम्राक्षम् । वियलंतबाहं विगलद्वाष्पम् । आबद्धथणहरुक्कंप आबद्धः स्तनभरस्योत्कम्पो यस्मिन, तत् तथोक्तम् । ईदृशम् अग्निसंधुक्षणम् असमाप्तमेव तिष्ठतु । मस्मिन् हि धूमाभिभवात् पाटलबाष्पाविलविलोललोचना समुन्मुक्तफूत्कारमरुत्कम्प्रकुचाभिमनोहरा भवती, इति भावः । प्रियप्ररोचनमिदमिति । जातिरलंकारः ॥६४७॥
६१८) पवनशक्तेः । [ यो भवति रसास्वादः सुविनष्टानामपि पल्लवेक्षणाम् (? पुण्ड्रेक्षणाम्) । कुतः स भवति रसो मोघाशानां शरविशेषाणाम् । सुगमा गाथा। भमासो शरविशेषः । अन्योक्तिरलंकारः॥६४८॥ . ६४९) अकालवर्षस्य । [उपदिशति यष्टि कर्म, कर्षति रसं न ददाति स्वप्तुं हि। यन्त्रस्य यौवनस्य च ज्ञायत एक एव स्वभावः ॥] नज्जइ इक्कु च्चिय सहावो ज्ञायत एक एव स्वभावः । कस्य । जंतस्स जुम्वणस्स य
यन्त्रस्य यौवनस्य च । कोऽसौ स्वभाव इत्याह । उवइसइ लद्रियम्म , उपदिशति यष्टिकर्म । कड्ढेइ रसं कर्षति रसम् । न देइ सोत्तुं जे न
ददाति स्वप्सुम् । एवं यौवनेऽपि योज्यम् । श्लेषोऽलंकारः ॥६४९॥ ... . पथलता है; धुंडचूण; Ajada : पंडरच्छूण; ३w अणिच्छृण; ४w लडियाण; ५w.ण होइ इच्छु च्चिय सहावो.
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गाहाकोसो
[७.५०
W 776, R654, ६५०) बहुएहि जंतिएहिं सिद्धं अम्हं सबहकरणेण । सच्चिय से भद्दो भोइणिजंते रसो नत्थि ॥ ५०॥ W736, R655, ६५१) छपाहुणिय त्ति किणो अन वि नं भणह संगयसहावं । जाया अम्हघरिल्लय गुणेण घरसामिणी चेय ॥ ५१ ॥ W737,R656,६५२)वण्णकर्म न याणसि ठाणविमुद्धी वि नेर्ये निव्वडिया। चित्तर तह बि मग्गसि भोइणिकुड्डम्मि आलिहिउं ॥ ५२ ॥ ६५०) गण्डराजस्य | [बहुभिर्यान्त्रिकैः कथितमस्माकं शपथकरणेन । शब्द एव तस्या भद्रो भोजिनी - (भोगिनी - ) यन्त्रे र सो नास्ति । ]
निगदव्याख्यातेयं गाथा ॥ ६५० ॥
६५१) तस्यैव ( गण्डराजस्य ) । [ क्षणप्राधुणिकेति किं नु अथाव्येनां भणत संगतस्वभावाम् । जाता अस्मद्गृहपतिगुणेन गृहस्वामिन्येव ।। ] काचित् कांचित् क्षणप्राघुणिकेति व्याहरन्ती गृहिण्या सखेदभिदमुच्यते । छणपाहुणियति किणो क्षणप्राधुणिकेति कस्मात् अज्ज वि नं भणह अद्याप्येतां भणत, संगयसहावं संगतमेव स्वभावो यस्याः सा तथोक्ता । यत एषा अम्ह घरिल्लियगुणेण घरसामिणी चेय जाया अस्मद्गृहपतिगुणेन गृहस्वामिन्येव जाता । अस्मत्स्वामी पराङ्गनालम्पटः, इयं च संगतशीला । तत् किमद्यापि मोहात् प्राघुणिकेत्यभिधीयत इति भावः । ईर्ष्या संचारी भावः । स्वीया नायिका । छणं उत्सवः । घरिल्लओ गृहस्वामी ॥ ६५१ ॥
६५२) पयवस्य (?) । [ वर्णक्रमं न जानासि स्थानविशुद्धिरपि नैव निष्पन्ना । चित्रकर तथापि मार्गय से भोजिनी - (भोगिनी)- कुड्य बालिखितुम् ||] हे चित्तयर चित्रकर, वण्णक्कमं न याणसि वर्णानां सितादिकवर्णकविशेषाणां क्रमं परिपार्टी न जानासि । ठाणविसुद्धी वि १. पिएहिं सिद्धं अम्ह सवहे करेऊण. २w. छणपाहुणिए त्ति; ३. अंगसंतावं; ४w. दे ण गिब्वडिआ.
२७४
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-०.५४]
सत्तमं सयं
२७५
W777,R657,६५३) पढम चिय माहवपट्टयं व चित्तूण दाहिणों वाऊ।
अंकुल्लपढमवत्तं पहिडिओ गामरच्छासु ॥५३॥ W778,R658,६५४)सो माणो पियमुइयंददसणे कह थिरो धरिग्जिहिइ।
___ अंकुल्लछारयाणं जो फुट्टहिययाण बीहेइ ॥५४॥ नेय निव्वडिया स्थानानाम् ऊर्ध्व-अङ्कायत (! वकायत ) मञ्जसा (8) विपराङ्मुखप्रभृतीनां या विशुद्धिः प्ताऽपि तव न निष्पन्ना। तह वि मग्गसि भोइणिकुड्डम्मि आलिहिउं तथापि मार्गयसे भोगिन्याः कुड्यं भित्तिम् आलिखितुम् इत्येकोऽर्थः। अपरस्तु । वर्णानां प्रदेशानां विशु द्धरपि तव नास्ति । तत् किमेवं भोगिन्या विलासवत्यास्तस्याः कुड्यम् आलिखितुं वाञ्छसि । वराङ्गतानां (१ वराङ्गनां ) रमयितुं वाञ्छसीति । ईश्वरस्य विदग्धस्य च तया सह संगमो भवतीत्यर्थः ॥६५२॥
६५३) अन्यशक्तेः । [प्रथममेव माधवपट्टकमिव गृहीत्वा दक्षिणो वायुः । अङ्काठप्रथमपत्रं प्रहिण्डितो ग्रामरथ्यासु ॥] गामरच्छासु ग्रामस्थ्यासु वाऊ पहिंडिओ वायुः प्राहिण्डितः । किं कृत्वा । चित्तण गृहीत्वा । अंकुल्लपढमवत्तं अङ्कोठप्रथमपत्रम् । किमिव । माहवपट्टयं व माधवपट्टकमिव । उत्प्रेक्षालंकारः ॥६५३। ...
६५४) रिस्सोः (१) 1 [ म मानः प्रियमुखचन्द्रदर्शने कथं स्थिरो धरिष्यते । अकोठकोरकेभ्योऽपि यः स्फुटितहृदयेभ्यो बिभेति ॥] सो माणों कह थिगे परिज्जिहिइ स मानः कथं स्थिरो धारयिष्यते। क्व सति । पियमुहयंददसणे प्रियमुख चन्द्रदर्शने । कोऽसावित्याह । जो मंकुल्लछारयाणं बीहेइ योऽकोठकोरकेभ्योऽपि बिभेति । कीदृशेभ्यः । फुहिययाण स्फुटित हृदयेभ्यः । एतदुक्तं भवतिद् । आस्तां तावद् बकुलचम्पककथा । प्रियमुखमृगाङ्कलोकनेन मन: स्थिरः छारयतीति (1) ॥६५॥ १w. वामो; २.wफुटुमुहाण.
-
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२७६ गाहाकोसो
[७.५५W779R659),६५५)कारणगहिओ विमए माणो एमेव समोसरिओ।
...... अत्थक्कफुल्ल अंकुल्ल तुम तं मत्थए पडउ ॥५५॥ W780R660,)६५६) सेज्जेह देह तूरं रएह कुसुमाई कुणहँ विच्छिति।
.... न वि तह पुहविवइस्स वि जह हल हैलओ वसंतस्स ॥५६॥ W499R661)६५७)खेमं कत्तो खेमं जो सो खुज्जंबो इह ग्गामे ।
- तस्सेय मत्थयाओ किं पि अणत्थं समुप्पन्नं ॥५७ ॥ - ६५५) रविविक्रमस्य । [कारणगृहीतोऽपि मया मान एवमेव यत् समपंसारितः । अकोलपुष्पिताकोठ तव तन्मस्तके पततु ॥] काचित् । कुड्मलिताङ्कोठविधूतमाना मानिनी प्रियानुनयसुखमनासादयन्ती इदमाह । कारणगहिओ वि मए कारणगृहीतोऽपि मया माणो एमेव मान एवमेव जं समोसरिओ यत् समपसारितः। अत्थक्कफुल्ल अंकुल्ल सकालकुसुमिताकोठ, तुज्झ तं मत्थए पडउ तव तन्मस्तके पततात, इत्याक्रोशनम् ॥६५५॥
६५४) [सज्जयत दत्त तूर्य रचयत कुसुमानि कुरुत विच्छित्ति । नैव तथा पृथिवीपतेरपि यथौत्सुक्यं वसन्तस्य ॥] गतार्था गाथा । विच्छित्तिर्मण्डनम् । हलहलओ औत्सुक्यम् ॥६५६॥
६५७) माधवस्य । [क्षेमं कुतः क्षेमं, योऽसौ कुब्जाम्रक इह ग्रामे । तस्यैव मस्तकात् कोऽप्यनर्थः समुत्पन्नः ॥] काचिद् विरहिणी चूतमञ्जरी निरीक्ष्य ससंदेहा इदमाह । खेम कत्तो खेमं क्षेमं कुतः क्षेमम् । जो सो खुज्जबओ इह ग्गामे, योऽसौ कुब्जाम्र इह प्रामे तस्सेय सत्थयाओ तस्यैव मस्तकात् किं पि अणत्थं समुप्पन्नं कोऽज्पनर्थः समुत्पन्नः । मञ्जरी निर्यातेति भावः । खेमं कत्तो. खेम इति संभ्रमे द्विरुक्तिः। खुज्जबओ कुब्जाम्रः ॥६५॥ १w. रंजेह देहरूवं; २७. देह; ३w. हलहलभरे. जह, ४W. घस्दारे.
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२७७
सत्तमं सयं. W781R662,६५८)सिसिरे वणदवदड्ढं वसंतमासम्मि पुणे वि संभूयं ।
मंकुसकण्णसरिच्छ दीसइ पत्तं पलासस्स ॥५॥ W782R663, ६५९) दूरपइण्णपरिमलं सपल्लवं मुद्धपुप्फपंगुरणंः ।
अंगच्छित्तं मित्रं चम्महेण दिन्नं महुसिरीए ॥५९॥ W783 R664,६६०)कारणगहियं पि इमा माण मोएइ माणिणिजणस्स ।
सहयारमंजरी पियसहि व्व कण्णे समल्लीणा ॥६॥ ६५८) सिद्धस्य । [ शिशिरे वनदवदग्धं वसन्तमासे पुनरपि संभूतम् । नकुलकर्णसदृक्षं दृश्यते पत्रं पलाशस्य ॥] दीसइ पत्तं पलासस्स दृश्यते पत्रं पलाशस्य । कोदृशम् । सिसिरे वणदवदड्ढे शिशिरसमये दवाग्निना दग्धं, वसंतमासम्मि पुण वि संभूयं वसन्तमासे पुनरपि संभूतम् । किमिव । मंकुसकण्णसरिच्छं नकुलकर्णसदृक्षम् । लधिम्ना लोमशकपिलानां पलाश दलानां नकुलकर्णोपमाची नम् । मंकुसो नकुलः । उपमालंकारः ॥६५॥
. ६५९) रविराजस्य । [दूरप्रकीर्णपरिमलं सपल्लवं मुग्धपुष्पप्रावरणम् । अङ्गस्पृष्टमिव मन्मथेन दत्तं मधुश्रियः ॥] अंगच्छित्त मिव वम्महेण दिन्नं मङ्गस्पृष्टमिव मन्मथेन दत्तम् । कस्याः महुसिरीए मधुत्रियः । किं तत् । सपल्लवं मुद्रपुप्फपंगुरणं पल्लवसहितं मुग्धपुष्पाण्येव प्रावरणम् । कीदृशं तत् । दूरपहण्णपरिमलं दूरं प्रकीर्णः क्षिप्तः परिमलो येन तत् तथोक्तम् । यत् किन स्वामिनोऽङ्गस्पृष्टं तत्सङ्गं ( ? तत्सङ्गाद ) भवति प्रसादपारितोषिकं यदनादुन्मोच्य दीयते । मधुसमये संपल्लवपुष्पा वनराजिः स्मरं दीपयतीत्यर्थः । उत्प्रेक्षालंकारः ।।६५९॥ . . ...६६०)[कारणगृहीतमपीयं मानं मोचयति मानिनीजनस्य । सहकारमञ्जरी प्रियसरवीव कर्णे समालोना ] इमा सहयारमंजरी माणं मोएहू इयं सहकारमजरी मानं मोचयति । कस्य । माणिणिजणस्स मानिनीजनस्य । lw उअह; 2w पिव.
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गाहाको
[७.६१
W784R665, ६६१) अज्जं चिय घणदियेहे मा पुत्ति परुवसु एडिइ पिओ दे। सुण्डं आसासंती पडियत्तमुही रुवइ सामू ||६१॥
W785R666, ६६२) दियहे दियहे निवडइ गर्दैवइ धूयामिसेज माउच्छा | संगैहणइत्तवाउयत्रसुहारा खुज्जसहयारे ॥६२॥
२७८
W786R667, ६६ ३) आउच्छणोवऊहणकंठसमोसरियबाहुलइयाए । वलयाइँ पहियचळणे बहुऍ निळयाएँ व पंडति ॥ ६३ ॥ कीदृशे मानम् । कारणगहिये पिकारणेन प्रियापराधेन गृहीतमपि । कीदृशी । कण्णे समल्लीणा कर्णे संलीना अवतंसतां गता । केव । पियसहि व्व प्रियसखीव । यथा सा कर्णाभ्यर्णवर्तिनी उपदेशदानेन मानं मोचयति तथा सहकारमञ्जरी, उद्दीपनविभावत्वात् तस्याः । वसन्ते हि समयस्वभावान्मानिन्यो मानं मुञ्चन्ति । उपमालंकारः ||६६०॥
६६१ जयराजस्य | [ अद्यैव क्षणदिवसे मा पुत्रि प्ररोदिहि, एष्यति प्रियस्ते । स्नुषामाश्वासयन्ती परिवृत्तमुखी रोदिति श्रवः ॥ ] गतार्था गाथा | जातिरलंकारः ॥ ६६१॥
६६२) स्नेहशक्तेः । [ दिवसे दिवसे निपतति गृहपतिदुहितृमिषेण मातृष्वसः । संग्रहणप्रसिद्धव्यापृतवसुधारा कुब्जसहकारे || ] हे माउच्छा मातृष्वसः, संगहणइत्तवा उयवसुहारा दियहे दियt निवडइ | संग्रहणवित्तो धावति (?) (वाउभो ) ग्रामोत्तमः । तस्य वसुधारा धनसंततिर्दिवसे दिवसे निपतति प्रत्यहं धनमुत्पद्यत इत्यर्थः । क्व । खुज्जसहयारे कुब्जसहकारे । केन रूपेण । गहवइधूयामिसेण गृहपतिसुतापदेशेन । एतदुक्तं भवति । यो यस्तत्र संकेतकामः कामुको गृहपतिसुतया सह संगमं करोति तं तमसौ दण्डयतीत्यर्थः । वाउओ ग्रामो मतः (१ ग्रामोत्तमः) ॥६६२ ॥
६६३) हरिराजस्य | [ आपृच्छनोपगूहनकण्ठसमपसृतबाहुलतिकायाः । वलयानि पथिकचरणे वध्वा निगडानीव पतन्ति || ] बहूएँ वलयाइँ पहिय१w छणदियहो; २w मा पुत्ति रुएहि एहइ पिंओ त्ति ३w गिहवइधूयाणिहेण; ४w संगहणइति वावठ वसुहारा
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-७.६५]
सत्तमं सयं
. २७९ W787R668,६६४)उड्डियपास तणछन्नकंदरं निहुयसंठियारक्खं ।
जूहाडिव परिहर पैमुहमित्तमुहयं कलमछित्तं ॥४॥ W788R669,६६५)वणसालियो वि करिणो होहिह जूहाहिवत्तणं कत्तो।
नवसालिकवललोहिल्लयाऍ विझं मुयंतस्स ॥६५॥ चलणे पडंति वध्वा वलयानि पथिकचरणयोर्निपतन्ति । कानीव निलयाई व निगडानीव । कीदृश्या वध्वाः । आउच्छणोवऊहणकंठसमोसरियबाहुलइयाए अप्राप्ते(? प्राप्ते) वियोगे पुनदर्शनोको यदवगृहनं, तत्र कण्ठोत् समपसृते बाहुलते यस्याः सा तथोक्ता । कायकायेवशविसस्तवलयाया भविष्यत्प
थिकस्य पत्युः पादयोर्निगडानीव पतितानि । तदाकारत्वाद् गमन- निषेधकत्वाच्च वलयानां निगडैरौपम्यम् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥६६३॥
६६४) देवराजस्य । [प्रप्तारितपाशं तृणच्छच्नकन्दरं निभृतसंस्थितारक्षम् । यूथाधिप परिहर प्रमुखमात्रसुखदं कलमक्षेत्रम् ॥] हे जूहाहिव परिहर कलमछित्तं हे. यूथाधिप परिहर कलमक्षेत्रम् । कीदृशम् । उड्डियपास प्रसारितपाशं, तणछन्नकंदरं तृणच्छन्नकन्दरं, निहुयसंठियारक्खं निभृतं संस्थिता आरक्षका यत्र तत् तथोक्तम् । एवंविधमपि कदाचिन्महते गुणाय जायत इत्याह । पमुहमित्तसुहयं मुखमात्रसुन्दरम् । अत उक्तप्रकारेण उपापमतिपुण्यगुणं (१) कलमकेदारं यूथाधिप मावतरिष्यसीति । आक्षेपान्यापदेशाभ्यां संकरोऽलंकारः ॥६६४॥
६६५) सत्यधर्मस्य । [वनशालिनोऽपि करिणो भविष्यति यूथाधिपत्वं कुतः । नक्शालिकवललोलातया विन्ध्यं मुञ्चतः ।।] करिणो जूहाहिवत्तणं कत्तो होहिह दन्तिनो यूथाधिपत्वं कुतो भविष्यति । किंभूतस्य । वणसालिणो वनेन राजते शोभते तच्छील यस्य स तथोक्तः, तस्यापि । इह हि वनान्यष्टौ दन्तिनां भवन्ति । तयथा । लोहिन्योदधि -(?) कान
नानि यमुनामन्दाकिनोसंगमः शम्मोििलभुजङ्गमस्तकमणिच्छायाकणा १w. णिहुअसंठियावश; २w. मुहमेत्तसरीय; ३w. गुणसालिणो वि; ४. होहइ.
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२८०
गाहाकोसो
[७.६६W789 R670, ६६६) विहिणा अणुज्जुएणं पुत्तय, जाओ कुलम्मि
पढमम्मि । जाइविमुद्धो भद्दो विबंधणं पावइ खणम्मि॥६६॥ जाह्नवी । मन्दारोपवनोपविष्टविलसदविन्ध्याधरारेः (१) शरहीतासारित () कन्दरश्च हिमांश्चध्वंबर (!) दनिमाम् ॥ इत्याप्राच्यगिरेस्तन्मध्योत्तमवनोद्रवस्यापि । कथं तर्हि यूथाधिरत्यं न भविष्यतीत्याह । विझं मुयंतस्स विन्ध्याख्यं गिरिं परित्यजतः । कया । नवशालीनां कवलेषु या लोभिता, तया । यः खलु तुगकुलप्रसूतोऽपि भूत्वा प्रथमे क्यसि वर्तमानोऽपि प्रवर्तते (1) स एवं भङ्गीभणिस्याऽभिधीयत इति । अन्यापदेशोऽलंकारः ॥६६॥
६६६) तस्यैव (सत्यधर्मस्य)। [विधिनाऽनृजुना पुत्रक जातः कुले प्रथमे । जातिविशुद्धो भद्रोऽपि बन्धन प्राप्नोति क्षणे ॥] हे पुत्तय पुत्रक, विहिणा अणुजुरणं वेधसाऽनुजुकेन बंधणं पावइ खणम्मि बन्धन प्राप्नोति क्षणे । कदाचिद् विगुणः स्यादित्याह । जाओ कुलम्मि पढमम्मि जातः कुळे प्रथमे, ऐरावतस्येत्यर्थः । अष्टौ हि कुलानि भवन्ति । ऐरावतः पुण्डरीको वामनः कुमुदोऽञ्जनः । पुष्पदन्तः सार्वभौमः सुप्रतीकश्च दिग्गजाः॥ अन्यच्च कीदृशः । जाइविसुद्धो जात्या विशुद्धः । भदो वि भद्रोऽपि । भद्रमन्द्रमृगसंकीर्णभेदेन चतम्रो जातयो भवन्ति । तन्मध्याद् भद्रजातिर्विशुद्धापि (: विशुद्धाऽस्ति ) । सन्ति हि संकीर्णानेकविधा एकद्वित्रिमनो (8) भेदाः पृथङ् नव नव त्रयः (!) । एकं देहाद् विदेहांश्चाङ्गत्रिद्धयेककल्पनादिति भवन्ति संकीर्णजातयः । एवंगुणविशिष्टो विविधैकर्येण (!) बन्धनं प्राप्नोति । तन्मादिरिवप्रा (१) इति । देवप्रभाववर्णनपरेयमुक्तिः । समा
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७.६९]
सत्तमं सयं
२८१
W790 R67I, ६६७) चउवासदिन्न हुयवहविसमाहयपडह वेढणाविडेलं । निम्बाहेडं जाणs जूहं जूहाहिवु च्चेय ॥ ६७॥ W791 R672, ६६८) ओलेग्गकवोलेण वि विगैयमपण पत्तदसावसाणस्मि । अज्जै वि तर सणाहं गयवैइ जूहं धरंतेण ॥६८॥ W.792 R673, ६६९) न वि तह दुमेह मँगो गयस्स बंधी विकरिणिविरहो वि । दाणविभयविमुहिय जह भमरउलं परिभमंते ॥ ६९ ॥ ६६७ ) प्रवरस्य । [चतुष्पार्श्वदत्तहुतवहविषमाहतपट वेष्टनाविनम् । निर्वाहयितुं जानाति यूथं यूथाधिप एव ||] चतुष्पार्श्व दत्तहुतवहविषमाहतपटहं यद्वेष्टनं तेन विउलं आविग्नम् । इत्थंभूतं यूथं यूथाधिप एव निर्वाहपितुं जानाति नान्यः । स हि दह्यनानदेहोऽपि क्वचिद् दववह्निमहयन् (?), क्वचित् करसीकरोत् करेण शमयन, क्वचित् पादावपातेन सृद्गन् एकैकं करिकुम् अनाकुलं निष्क्रामयतोति । अन्योक्तिरलंकार : ॥ ६६७ ॥ ६६८) तस्यैव (प्रवरस्य ) । [ अवलग्नकपोनापि विगत मदेन प्राप्तदशावसाने । अद्यापि त्वया सनार्थ गजपते यूथं ध्रियमाणेन ।] गयचइ गजरते, अज्ज वि तर मणाहं जूहं अद्यापि त्वया सनाथं यूवम् । कथंभूतेन । घरंतेण जोवतेत्यर्थः । कदाचित् समर्थः स्यादित्याह । ...... [आजड - हे गजपते, दशानामवसाने प्राप्ते, अन्तिमायां दशायां प्राप्तायां, 'क्षामकपोछेन विमदेनापि त्वया ध्रियमाणेन जीवता, अद्यापि कुल सनाथमेव । त्वद्विक्रमस्मरणान्न कश्चिद दुर्नयमा चरतीत्यर्थः । अन्त्यदशायां गनस्याम कपोता विमदता च भवति । ओलग्गं क्षामं विच्छायं च । ]६६८॥ ६६९) सुरभिवत्सस्य । [ नैव तथा दुनोति मनो गजस्य बन्धोsपि करिणीविरहोsपि । दानवियोग विमुखितं यथा भ्रमरकुल परिभ्रमत् ॥ ]
१. w. पिडलं; २w. अल्लग्गकवोलेण वि; ३. गयमाणा पत्तदसा सणम्मि ४w. अज्ज विमाऍ सणाई; ५w. गयवइजूह; ६w• मर्ण; ७w. of • विमुहिए; भमरउले; ९w. भमंतम्मि.
८w.
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२८२ गाहाकोसो
[७.७०W630R674, ६७०) जह चिंतेइ परियणो आसंकइ जह य तस्स प
डिवक्खो। बालेण वि गामणिणंदणेण तह रक्खिया पल्ली ॥७॥ W631,R675, ६७१) अन्नेसु पहिय पुच्छसु वाहकुटुंबेसु पूसचम्माई ।
अम्हं वाहजुवाणो हरिणेसु धणुं न संधेइ ॥७॥ W€32,R676, ६७२) गयवहुवेव्वहयरो मैंह पुत्तो इक्ककंडविणिवाई।
हेयसुन्हाएँ तह को जह कंडकरंडयं वहइ ॥७२॥ [माजड-विषमदशागतस्य सत्पुरुषस्य स्वदुःखात् परिजनस्य कष्टदर्शनं महदसुखम् इत्यर्थेऽन्योक्तिमाह । बन्धोऽपि करिणीविरहोऽपि नैव तथा गजस्य मनो दुनोति, यथा दानविप्रयोगविमुखम् इतस्ततः परिभ्रमद् भ्रमरकुलं दुनोतीति । बद्धानं यूथवियोगदुःखितानां च गजानां प्रायो मदोदयो न स्यादिति ॥] ॥६६९॥
६७०)[यथा चिन्तयति परिजन आशङ्कते यथा च तस्य प्रतिपक्षः। बालेनापि ग्रामणीनन्दनेन तथा रक्षिता पल्लो ] [आजड-परिपालकप्रशंसायामन्योक्तिः । यथा चिन्तयति परिजनः, आशङ्कते भयं करोति यथा प्रतिपक्षः, तथा बालेनापि प्रामणोनन्दनेन पल्ली रक्षिता । करसंकोचेन प्रजारानं कृतम् (१) सर्बत्र जागरूकतया च शत्रवो भीषिता इत्यर्थः ॥]
॥६७०) (६७१)[अन्येषु पथिक पृच्छ व्याधकुटुम्बेषु पृषच्चर्माणि । अस्माकं व्याधयुवा हरिणेषु धनुर्न संधत्ते ॥ ] आजड-हालस्य । सुकरकर्मपरिहारेण दुष्करकङ्गिीकारेण च स्वपक्षोत्कर्षार्थम् अन्योक्तिः । हे पथिक, अन्येषु व्याधकुटुम्बेषु चित्रकचर्माणि पृच्छ । अस्माकं व्याधयुवा हरिणेषु धनुर्न संधत्ते । पूसो चित्रकः] ॥६७१॥ ।
६७२)[गजबवैधव्यकरो मम पुत्र एककाण्डविनिपाती। हतस्नु. षया तथा कृतो यथा काण्डसमूहं वहति ॥] [आजड-संवरशक्तेः । यः ... १w.वाहअपुत्तेसु; २w. पुसिवचम्माई; ३w.ण णामेइ, ४w. पुत्तो में; ५w. तह सोहाइ पुलइओ.
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-७.७४] सत्तमं सयं
२८३ W793 R677; ६७३) गामम्मि गोहेणाई 'दिन्नंगक्खेवचोरदिहाई।
गहवइणो नामेणंकियाइ अन्नेण विजणेण ॥७३॥ W633R678, ६७४) विंझारुहणालावं मा पल्ली कुणउ गामणी ससइ ।
पचुज्जीवो जइ कह वि मुणइ ता जीवियं मुयइ ॥७४॥ परसंसर्गात् पतद्गुणो भवति तत्रार्थेऽन्योक्ति दर्शयति ।मम पुत्रो गजवधू-- वैधव्यकर एककाण्डविनिपाती, स तथा हतवध्वा कृतो यथा काण्डसमूह वहति । पूर्वम् एकघातेन हस्तिनमपातयत् । असौ संप्रति तदासक्तत्वान् निःसार: सन्, काण्डशतेनापि हन्ति न वेत्यर्थः । वरंड: समूहः ॥] ॥६७२॥ [भुवनपाल- ........तथा कृतो यथा काण्डकदम्बकं वहति । काचिदसमर्थ एव स्यादित्याह । गजबहुवेहन्वयरो गजवधूनां वैधव्यकारः। तर्हि अतिवध्य कदाचिन मा गगणेन गजथापादयतात्याह (? तर्हि गतिविध्य कदाचिन् मार्गणगणेन गजव्यापादयिता स्यादित्याह )। इककंडविणिवाई एककाण्डेन विनिपातनशीलः । एवंभूतोऽपि मत्सुतो हतस्नुषायामासक्तः शक्तिक्षयाच्छरसमूहवाहो वर्तत इत्यर्थः । वरंड: समूहः॥६७२॥ .
६७३)भुवनपाल-अमरदेवस्य । [ग्रामे गोधनानि दत्ताङ्गक्षेपचोरहष्टानि । गृहपतेनम्निाऽङ्कितान्यन्येनापि जनेन ॥] गणकियाइ (१ नामेणकियाइ)। अन्येनापि जनेन गृहपतेनाम्ना अङ्कितानि चिह्नितानि । किंभूतानि । दिन्नंगक्खेवचोरदिवाई दसाङ्गक्षेपा ये चोरा स्तैदृष्टानि । ते हि गृहपति ........। तन्नाम्नाकितानीत्यर्थः । गृहपतेः पौरुषप्रशंसापरेयमुक्तिः। ॥[भाजड-माधवशक्तेः। जगदाकम्पकारिपुरुषप्रशंसायामन्योक्तिमाह । गोधनान्यपहरन्तश्चोरा गवादीनां पार्श्वद्वयमपि दत्ताङ्गक्षेपं यथा भवति, एवम् अहं चालयित्वा निभालयन्ति । गृहपतिनामाङ्कितं परिहरन्तीति ज्ञात्वा जनैर्घामगृहपतिनाम्ना गोधनान्यङ्कितानीत्यर्थः] ॥६७३॥
६७४) क्षुण्णभोगिनः। [विन्ध्यारोहणाल पं मा पल्ली करोतु ग्रामणीः श्वसिति । प्रत्युज्जीवितो यदि कथमपि शृगोति तज्जीवितं मुञ्च
१w. मोहणाई; २w. दिण्णे खग्गे ब्व चोरहित्थाई ३w. पल्ली मा कुणउ; ४w. पच्चु जी ओ.. . .
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२८४ गाहाकोसो -
[७.७५W634R679, ६७५)अप्पाहेह मरंतो पुत्तं पल्लीवई पयत्तण ।
.. मह नामेण जह तुम ने नज्जसे तह करिज्जासु ॥७५॥ W694 R680, ६७६) गहियाई अंगयाई बाहिरलोएण मासलुद्धण ।
हिययं हियएण विणा न देह वाही भमइ हट्टं ॥७६॥ ति ॥] विंझारुहणालावं पल्लो मा कुणउ विन्ध्यारोहणालापं पल्लो मा करोतु यतः गामणी ससइ प्रामणोः श्वप्सिति । यदि श्वसिति तत् किम् इत्याह । पच्चुग्नोवो जइ कह वि सुणइ ता जोवियं मुयइ प्रत्युग्जो वतो यदि कथंचिच्छृणोति तज्जीवितं मुञ्चति ॥६७४॥
६७५) [संदिशति म्रियमाणः पुत्रं पल्लीपतिः प्रयत्नेन ॥ मम मान्ना यथा त्वं न ज्ञायसे तथा कुर्याः ॥] पुत्तं पल्लीवई पयत्तेण अप्पाहेइ पल्लीपतिः पुत्रं प्रयत्नेन संदिशति । कि कुर्वन्। मरतो म्रियमाणः । किं संदिशतीत्याह । मह नामेण जह तुमं न नज्जसे तह करेग्जामु मम नाम्ना यथा त्वं न ज्ञायसे तथा कुर्याः। शौर्यशोण्डोर्यशालिना भवता भवितव्यमिति भावः । अप्पाहियं संदिष्टम् ॥६७५॥
६७६) हालस्य । [ गृहीतान्यङ्ग कानि बाह्यलोकेन मांसलुब्धेन । हृदयं हृदयेन विना न ददाति व्याधी भ्राम्यत्यापणम् ॥ गहियाइँ अंगयाई बाहिरलोएण मासलुद्धण गृहीतान्यङ्गकानि पहिलोंकेन मांसलुब्धेन । हिययं हियएण विणा न देह वाहो हृदयं हृदयेन विना न ददाति व्याघवधः भमइ हट्टं भ्राम्यत्यापणम् इति बाह्योऽर्थः । आन्तरस्तु-गृहीतान्यङ्गकानि वदननयनस्तनादीनि बाह्यलोकेन अविदग्धजनेन । कीदृशेन । मांसलुब्धेन मांसस्पर्शलुब्धेन । हृदयं तु व्याधो हृदयेन चित्तेन विना न ददासि । स. हृदय एव जने हृदयं ददातीत्यर्थः ॥६७६॥ १w ण लज्जसे; २w. मलिणाई अंगाई; ३w. मैसलुद्धेण.
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-७.७९]] सत्तमं सयं
२८५ W636 R681, ६७७) महुमच्छियाऍ डेक दळूण मुहं पइस्स बणुढे ।
है , ईसाइया पुलिंदी रुक्खच्छायं गया अन्नं ॥७७॥ w 635 R 682, ६७८) अणुमरणपत्थियाए पम्मारयजीविए पियय
मम्मि । वेहव्वमंडण कुलवहूऍ सोहग्गयं जायं ॥७॥ w637 R683, ६७९) धन्ना वसंति नीसंकमोहणे बहलपत्तळवईए ।
वायंदोलणहल्लं तवेणुगहणे गिरिग्गामे ॥७९॥ ६७७) [मधुमक्षिकया दष्टं दृष्ट्वा मुखं पत्युः शूनोष्ठम् । ईर्ष्यायिता पुलिन्दो वृक्षच्छायां गताऽन्याम् ॥] पइस्स दणं मुहं पत्युदृष्ट्वा मुखम् । कथंभूतं मुखम् । महुमच्छियाएँ डकं मधुमक्षिकया दष्टम् । अत एव सूणुढे शूनोष्ठम् । अन्याङ्गनादत्तदन्तवणम् । रुखच्छायं गया अन्न वृक्षच्छायां गता अन्या, वृक्षान्तरच्छायां पुलिन्दी गतेत्यर्थः । कयंभूता । ईसाइया ईर्ण्यन्ती। स्वोया नायिका ॥६७७॥
६७८) बप्पभट्टिस्स । [अनुमरणप्रस्थिताया अपमृत्युजीविते प्रियतमे । वैधव्यमण्डनं कुलवध्वाः सौभाग्यं जातम् ॥] गतार्था गाथा । पम्मारयं दीर्घमूर्छा । सती स्वीया नायिका ॥६७८॥
६७९) सातवाहनस्य । [धन्या वसन्ति निःशङ्कमोहने बहलपत्रवतिके । वातान्दोलनवेपमानवेणुगहने गिरिग्रामे ॥] धन्ना गिरिग्गामे वसंति धन्या गिरिनामे वसन्ति । कीदृशे । बहलपत्रैरुपचिता वृतयो यस्मिन् स तथोक्तः, तस्मिन् । अन्यच्च कीदृशे । वायंदोलणहल्लंतवेगुगहणे वातान्दोलनेन दोलायमानं वेणुगहनं यत्र । अत एव नीसंकमो
हणे निःशङ्क मोहनं यत्र तस्मिन् । ईदृशे गिरिग्रामे धन्या वसन्तीत्यर्थः । - असतीजनोक्तिः ॥६७९॥ .
. : १w.दटुं; २.w.पिअस्स; ३w.ईसाळुई; ४w.पञ्चागअनीविए; ५७ बलपत्तल
वइम्मि; ६w.वाअंदोलणओणविअवेणुगहणे.
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२८६ गाहाकोसो
[७.८.W 638 R684, ६८०) पेप्फुल्लघरकलंबा निद्धोयसिलायछा मुइयमोरा।
पैसरंतुज्मरकलयळमणोहरा इह गिरिग्गामा॥८॥ •w 639 R685, ६८१) तह परिमलिया गोवेण तेण हत्थं पिजा न
उल्लेइ । सच्चिय खडणा इण्हि पिच्छह कुडदोहिणी
जाया।।८१॥ W610 R886 ६८२) धवलो जियइ तुह कर धवलस्स कए जियंति
गिट्रोओ। जिय तंबे मम्हं जीविएण गुटुं तु यत्तं ॥८२॥ .६८०) कर्कराजस्य । [विकसितगृहकदम्बा निधो तशिलातला मुदितमयूराः । प्रसरन्निर्झर कलकलमनोहरा इह गिरिनामाः ॥] इह प्रदेशे गिरिग्गामा गिरिनामा: पप्फुल्लघरकलंबा प्रफुल्लता गृहकदम्बका येषु ते तथोक्ताः । निद्धोयशिलायला निधौ तानि शिलातलानि येषु ते तयोक्ताः। मुइयमोरा मुदिता हृष्टा मयूराः येषु ते तथोक्ताः । पसरंतुशरकलयलमणोहरा प्रसरन् निझराणां यः कलकलस्तेन मनोहराः सुरम्याः । सुलभस्थान (? सुरतसुलभस्थानत्वम्, भाजड)। भासन्ननयनमनोहराः, अलक्ष्यमाणसीत्कृतरवाः, संकेतार्थिकामिनो बनयोग्या इह गिरिमामा इत्यर्थः ।।६८०॥
६८१) वाक्पतिराजस्य । [तथा परिमृदिता गोपेन तेन हस्तमपि या नायति । सेवादुग्धदेदानी प्रेक्षवं घटदोहिनी जाता ॥] गतार्था गाथा । उल्लं आर्द्रम् । खडणा गौर्या दुग्धं न प्रयच्छति । कुडो कुटो घटः । अन्योक्तिरलंकारः ॥६८१॥ ।
६८२) भगदत्तस्य । [धवलो जीवति तव कृते धवलस्य कृते जीवन्ति गृष्टयः । जोव गौरस्माकं जोवितेन गोष्ठं त्वदायत्तम् ।।] जिय तंबे २w.पप्फुल्लघणकलंबा; २w. पसरंतोज्झरमुहला उच्छाहते; ३w. अम्ह वि बीविएण, - Yw. तुमाअत्तं.
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-७.८४]
सत्तमं सयं
२८७
W731R687, ६८३) उवहारिया ऍ समय पिंडारे उय दवं कुणंतम्मि । नववहुयाऍ सरोसं सव्व श्चिय वच्छया मुक्का ॥८३॥
W795587, ६ ८४) कढिणखुरवीढ पिल्ळण दलंतपत्थरविणिग्गयग्गिकणे । धवलुज्जुआरियव कसरा वि सुहेण वच्चति ॥ ८४ ॥ अहं जीविएण जीव गौरस्माकं जीवितेन, यतः गुटुं तुहायत्तं गोष्ठं तवायत्तम् । कथमित्याह । धवलो जियई तुह कए घबलो जीवति तब कृते, धवलस्स कए नियंति गिट्टीओ घवलस्यार्थे जीवन्ति गृष्टयः । अत एव गोष्ठं तवायत्तम् । त्वयि जीवति सर्वे जीवन्तीत्यर्थः । सौरभेयी सौभाग्यं भङ्ग्या भणितं भवति । तंचा गौः । गृष्टिः सकृत्प्रसूता गौः । पर्यायोक्तरलंकारः ||६८२।।
६८३) हालस्य । [दोहनकारिकया सार्धं गोपालके पश्य नर्म कुर्वति । नववध्वा सरोषं सर्व एव तर्णका मुक्ताः ||] नववहुयाऍ सरोसं सव्व च्चिय वच्छया मुक्का नववध्वा सरोषं सर्व एव वर्णका मुक्ताः । क्व सति । पिंडारे उय दवं कुणंतम्मि गोपालके ( पश्य ) नर्म समाचरति । -कया सह । उवहारियाऍ समयं दोहनधारिकया समम् । अयमस्मत्पति
मोक्षणे सति तद्बन्धनव्ययः सन् न मत्स्या ( मत्सपत्न्या ) समं नर्म करिष्यतीति भावः । उवहारी दोहनधारिणी ( दोहनकारिणी ) । प्रथमवधूरित्येका ( ! प्रथमवधूरित्येके) | पिंडारो गोपालकः । दवो नर्म । इङ्गितलक्ष्यः सूक्ष्मालंकारः ||६८३||
६८४) समरशक्तेः । [ कठिनखुरपीठप्रेरण - (पीडन - ) दल प्रस्तरविनिताग्निकणे । घवळर्जु सेवितपथे निकृष्टवृषभा अपि सुखेन व्रजन्ति ||] धवलुजुआरियव कसरा वि सुहेण वच्चंति धवलेन गोचरीकृते पथि निकृष्टवृषभा अपि सुखेन वजान्त कीदृशे । कढिणखुरवीढपिल्लणदलंत पत्थर विणिग्गयरिंगकणे कठिनेन खुरपोठेन यस् प्रेरणं, तेन दन्तः शीर्यन्तो ये प्रस्तराः, तेम्यो
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२८८ गाहाकोसो
[७.८५W796R689,६८५) नक्खमऊहेसु खणं, कुसुमेसु खणं, खणं किसलएम् ।
. हत्येसु खणं कुसुमुच्चियाएँ डोलाविया भसला ॥८५॥ W641R690,६८६)अग्याइ छिवइ चुंबइ ठवेइ हिययम्मि जणियरोमंचे।
जायाकवोलसारिच्छयाएँ पहिलो · महुयपुप्फ ॥८६॥ W642R691,६८७) उय उल्लिज्जइ मोहं भुजंगकित्तीऍ कडयलग्गाए।
उज्झरधारासद्धालुएण सीसं वणगएण ॥८॥ विनिर्गता अग्निकणा यस्मिन् स तथोक्तः, तस्मिन् । कसरो निकृष्टवृषभः । अन्योक्तिरलंकारः ।।६८४॥
१८५) चुल्लोडकस्य । [नखमयुखेषु क्षणं, कुसुमेषु क्षणं, क्षणं किसलयेषु । हस्तयोः क्षणं कुसुमोच्चायिकया दोलायिता भ्रमराः ॥] डोलाविया भसला दोलायिता भ्रमराः । (कया) कुसुमुच्चियाएँ कुसुमोच्चायिकया । (क्वा) . नक्खमऊहेसु खणं नखमयूखेषु क्षणम् । कुसुमेसु खणं पुष्पेषु (क्षणम्) । हत्थेसु खणं (हस्तयोः क्षणम्)। खण किसलएसु (क्षणं किसलयेषु) । नखमयुखानां कुसुमानां कराणां (? करयोः) किसलयानां च सादृश्यदर्शनेन द्विरेफा दोलायन्ते, इति भावः । संशयोऽलंकारः ॥६८५॥
. ६८६) शीलूकस्य । [माजिघ्रति स्पृशति चुम्बति स्थापयति हृदये जनितरोमाञ्चे । जायाकपोलसदृक्षतया पथिको मधूकपुष्पम् ॥] गतार्था गाथा । सारिच्छया सदृक्षता ।।६८६॥
६८७) सर्वसेनस्य । [पश्याद्रक्रियते मोघं भुजङ्गकृत्या कटकलग्नया । निर्झरधाराश्रद्धालुना शोर्ष वनगजेन ॥] उय पश्य । मोहं वणगएण भुयंगकितीऍ सीसं उल्लिज्नइ, मोघं वृथा बनगजेन भुनाकृत्त्या शीर्षम् आर्दीकि-- यते । कीदृश्या। कडयलग्गाए कटकं पर्वतैकदेशः, तत्र लानया । भ्रान्तिमान् - मलंकारः ॥ ६८७॥ मा . . . " १w. लोडाविया; २w. अणिय मंचो w, अयाकवोलसरिस छह
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-७.९०] सत्तमं सयं
२८९ W643,R693,६८८)कमलं मुयंत महुयर पिक्ककइत्थस्स गंधलोहेण ।
__ आलेक्ख उज्जुयपामरो व्व छिविऊण जाणिहिसि ।।८८॥ W644,R693,६८९)गिज्जते मंगळगाइयाएँ वरगोत्तदिन्नयण्णाए ।
सोउं व निग्गओ उयह हुंतवहुयाएँ रोमंचो ॥८९॥ W797,R694,६९०)छित्तम्नि जेण रमिया ताओ किर तस्स में देह ।
जइ तेण इमं निसुयं फुट्टइ हिययं हरिसियाए ॥९॥ ६८८) मकरध्वजस्य ।। [कमलं मुञ्चन् मधुकर पश्वकपित्थस्य गन्धलोमेन । आलेख्यम् ऋजुकपामर इव स्पृष्ट्वा ज्ञास्यसि ॥] स्पृष्ट्वा ज्ञास्यसि । कः कमिव । आलेखं उज्जुयपामरो व्व आलेख्यम् ऋजुकपामर इव । यथा सरळस्वभावो ग्राम्यः मालेख्ये निरीक्ष्य नायिकां पारमार्थिकीयमिति सोहान्यसि (?) मन्यमामः पाणिना परामृशमानः प्रत्येति यदुत चित्रपुत्रिकेयमिति, एवं त्वमपि कपित्थफलं स्वृष्ट्वा ज्ञास्यसि यदिदं चञ्चुपुटपाटितमपि तत्स्फटति (?) । उपमान्यापदेशाभ्यां संसृष्टिरलंकारः ॥६८८॥
६८९) धूर्तस्य । [गीयमाने मङ्गलगायिकया वरगोत्रदत्तकीयाः । श्रोतुमिव निर्गतः पश्यत भविष्यद्वध्वा रोमाश्चः ॥] उयह पश्यत । हुंतवहुयाएँ रोमंचो निग्गओ भविष्यद्वध्वा रोमाञ्चो निर्गतः । कथंभूतायाः। वरगोत्तदिनयण्णाए वरगोत्रदत्तकर्णायाः। वरनामाङ्कितं हि मंगलं गीयत इति स्थितिः । किमिव कर्तुं निर्गतः । सोउं व श्रोतुमिव । वरो जामाता । रोमाञ्चः सात्विको भावः । गोत्रं नाम । उत्प्रेक्षालंकारः ॥६८९॥
६९०) पामराजस्य (१ प्रेमराजस्स)। [क्षेत्रे येन रमिता ताप्तः किल तस्यैव मां ददाति । यदि तेनेदं निश्रुतं स्फुटति हृदयं हर्षिकया ॥] छित्तम्मि जेण रमिया क्षेत्रे येनाहं रमिता, तामओ किर तस्स चेय मं देह तातः किल तस्मै एव मां ददाति । जइ तेण हम निसुयं यदि तेन मत्प्रियेण इदं निश्रुतं,
फुटइ हिययं हरिसियाए स्फुटति हृदयं हर्षितायाः (१ हर्षिकया)। हर्षनिर्भर १.w पिककइत्याण; २ w. आलेक्खलड्डुअं पामरो व्य; ३w. मंगलगाइआहि. ४ w. तीअ.
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गाहाको
[ ७.९१
W 645, R695, ६९१) मन्ने आयण्णता आसन्नविवाह मंगलेग्गीयं । तेहि जुवाणेहि समं इति मं वेडिसर्कुडंगा ॥ ९१ ॥ W 646, R 696, ६९२ ) उवगयचउत्थि मंगलद्दोंत विओयसविसेस लग्गेहि । ती वरस्स से सुरहि रुण्णं व हत्धेहिं ॥ ९२ ॥
हृदयं स्फुटतीत्यर्थः । अणेमल्लो (१) इति पठन्ति । तत्र मन इति सेवादि - स्वाद् द्वित्वे रूपम् (?)। चेय इत्यवधारणे । इरकिर हिलस्य (1) निश्चित्याख्याते । अस्य संबन्धिनी कन्या नायिका | हेतुरलंकारः ॥ ६९०॥
२९०
६९१) गोपस्य । [ मन्य आकर्णयन्त आसन्नविवाहमङ्गलगीतम् । तैर्युवभिः समं हसन्ति मां वेतसनिकुञ्जाः ॥] मन्ने वेडिसकुडंगा मं हसंति मन्ये वेतसकुडङ्गा मां हसन्ति । कथम् । तेहि जुवाणेहि समं तैर्युवभिः समम् । किं कुर्वन्तः । आसन्नविवाहमंगलग्गीयं श्रयण्णंता आसन्ने विवाहे यन्मङ्गलतूर्येषु गीतं, तदाकर्णयन्तः शृण्वन्तः । युवानो वेतसकुडङ्गानि च उन्नतो आतत्वंति स्नति (1) प्रतिरवेण हसन्तीवेत्यर्थः । वेडिसो वेतसः । कुडंगकं गहनम् । अत्र च्युतचरित्राणां कुमारीणां विषाहारम्भो हास्यहेतुः ॥ ६९९ ॥
६ ९२) बाणस्य । [उपगत चतुर्थी मङ्गलभविष्यद्वियोगसविशेषलाग्नैः । तस्या वरस्य स्वेदाश्रुभिः, रुदितमिव हस्ताभ्याम् || ] तीए वरस्स रुण्णं व हत्थेहिं तस्या वध्वा वरस्य च जामातुः रुदितमिव हस्ताभ्याम् । उवगयचउत्थि मंगलहोंत विभय सर्विसेस लग्गेर्हि उपगतं यच्चतुर्थीमङ्गलं, तत्र यो भवति (! भविष्यन् ) वियोग:, तेन सविशेषलग्नैः लिष्टे ( सविशेषलग्नाभ्यां श्लिष्टाभ्याम्) । चतुर्थीमङ्गल उपगते सति वधूवराणां करवियोगविशेषो (१) भवतीति सतां समयः । स्वेदः साविको भावः ॥ ६९२ ॥ १w. मंगलुग्गीअं; २w. ० कुडुंगा; ३. तीअ वरस्स अ.
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-७.९५]
सत्तमं सयं
२९१
W 647, R697, ६९३) न य दिर्द्वि देई, मुहं न य छिविडं देइ,
नाव किंपि । तह वि हु किं पि रहस्सं नववहुसत्थो पिओ होइ ॥ ९३ ॥ W 648, R698, ६९४ ) अळियपसुतवलंत म्मि नववरे नववहूऍ वेवंता । संवेल्लिओरुसं जमियवत्थगठिं गर्यो हत्था ॥ ९४ ॥
W649, R699, ६९५) पुच्छिज्जंती न भणइ, गहिया पप्फुरइ चुंबिया रुवइ । तुण्डिक्का नववहुया कयावराहेण उवगूढा ||९५॥
६९३) आदयराजस्य । [ न च दृष्टिं ददाति, मुखं न च स्प्रष्टुं ददाति, नालपति किमपि । तथापि किमपि रहस्यं नववधूसार्थः प्रियो भवति ॥ ] न य दिट्ठि देइ न च दृष्टिं ददाति । नेत्र मुहं नैव मुखं (! न य मुहं न च मुख) छिविडं देइ स्प्रष्टुं ददाति (इति) सर्वत्र योग्यम् | नालवइ कि पि नालपति किमपि । तह वि हु किं पि रहस्सं तथापि खलु किमपि रहस्यं नववहुसत्थो पिओ होइ नववधूसार्थः प्रियो भवति । कान्तानां मनांस्यावर्जयतीत्यर्थः । मुग्धा नायिका सस्पृहं प्रियेऽवलोकयति, अन्यतोऽवलोकयति । वक्त्रेन्दुबिम्बचुम्बनकामुके
तु पराङ्मुखीभवतीत्यादि जातिरलंकारः ||६९३॥
६९४) इन्द्रराजस्य | [ अलोकप्रसुप्तवलमाने नववरे नववध्वा वेप मानौ । संवेल्लितोरुसंयतवस्त्रग्रन्थि गतौ हस्तौ ||] नववहूऍ नववध्वाः संवेल्लि ओरुसं जमियवत्थठि गया हत्था संवेल्लितोरुसंयतवस्त्रग्रन्थि गतौ हस्तौ । कथंभूतौ । वेवंता वेपमानौ । क्व सति । अलियपसुत्तवलंतम्मि नववरे अलोकप्रसुप्ते वलमाने नववरे । संवेल्लियं संवलितम् । इयमपि मुग्धा सहिनी (!) | विमोचन.... दुलक्षियव (1) पत्युः । कारण कलंत करपृध्यावयथामति संघत्ते पोत्तरं भर्तुः (१) || जातिरलंकारः ||६९४||
६९५ ) प्रलयमृगेन्द्रस्य । [ पृच्छयमाना न भणति, गृहीता प्रस्फुरति, चुम्बिता रोदिति । तूष्णीका नववधुः कृतापराधेनोपगूढा ॥] पुच्छिन्नं१w. इ; २w. णववहुसंगो; ३w. वेयंतो; ४w. गओ हत्थो.
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२९२ गाहाप्लेसो
[७.९६W650,R700,६९६) तत्तो च्चिय निति' कहा,वियसंति तहितहिं सम
पंति । किं मन्ने माउच्छा, इक्कजुवाणो इमो गामो ॥९॥ W.651,R704, ६९७)जाई वयणाइँ अम्हे वि पिमो ताइ जंपइ जणो वि।
ताई चिय तेण पषियाइँ हिययं मुहावेंति ॥९७॥ तो न भणइ पृच्छयमाना न भणति, गहिया पप्फुरइ गृहीता प्रस्फुरति, चुंबिया रुयइ चुम्बिता रोदिति । तुहिक्का नववहुया तूष्णीका नववधूः कयावराहेण उवऊढा कृतापराधेनोपगूढा । इयमपि मुग्धा। सा हि व्ययोपरिकृत्यास्ते(?) सर्वाङ्गालिङ्गनं परिहरति । रोदिति तूष्णी तिष्ठति कृतापराधेन (उपगूढा) सा दयिता ॥ जातिरलंकारः ॥६९५॥
६९६) दुर्निवारस्य । [तत एव निर्यान्ति कथाः, विकसन्ति तस्मिन्, तस्मिन् समाप्यन्ते । किं मन्ये मातृष्वसरेकयुवकोऽयं प्रामः ॥] है माउच्छा मातृष्वसः । मन्ने किं इक्कजुवाणो इमो गामो मन्ये किम् एकयुवायं ग्रामः येन तत्तो चिचय निति कहा तत एव कथा निर्यान्ति, वियसंति तहिं विकसन्ति तत्र, तहिं समपंति तत्र समाप्यन्ते । तत् किम् एकयुवाऽयं ग्रामः । इति ज्ञात्वा स एवैकः सुन्दरयुवेति ॥६९६॥
६९७) विक्रमराजस्य । [ यानि वचनानि वयमपि जल्पामस्तानि जल्पति जनोऽपि । तान्येव तेन प्रजल्पितानि हृदयं सुखयन्ति॥] ताई चिय तेण पयंपियाइँ हिययं सुहाति तान्येव तेन प्रजल्पितानि हृदयं सुखयन्ति । जा. वयणाई अम्हे वि जंपिमो यान्येव वचनानि वयम् (अपि) जल्पामः, ताई जंपइ जणो वि तानि जल्पति जनोऽपि लोकोऽपि । नैव तानि सुखयन्ति । तान्येव तत्संबन्धात् सुखमुत्पादयन्तीति पत्यो रागातिशयप्रकाशनपरेयमुक्तिः ॥९७॥ १w. होंति २ TW (two of the Telinga recension MSS consulted by Weber) जाइ जपइ जणो कि.
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-७.१००] सत्तमः सयं
२९३ W652,R702, ६९८)सव्वायरेण मग्गह पियं जणं जइ मुहेण वों कज्ज।
जं जस्स हिययदइयं ने मुहं जं तर्हि नत्थि ॥९८॥ W809, ६९९) सरहसविणिग्गयाएँ वि इच्छाएँ तुमं न तीऍ सच्चविभो ।
सीसाहयवलियभुयंगवंकरच्छे हयग्गामे ॥९९।। W808, ७००) माणसिणीऍ पइणा नयणकवोलाहरप्पहाभिन्ना ।
उज्जुयमुरचावणिहा वाहोआरा चिरं दिवा ॥१०॥ ६९८) रोहायाः । [सर्वादरेण मार्गयत प्रियं जनं यदि सुखेन वः कार्यम् । यद्यस्य हृदयदयितं, नैव सुखं यत् तत्र नास्ति ॥] सव्वायरेण मगह पियं जणं सर्वादरेण मार्गयत प्रार्थयत प्रियं जनं, प्रियो जनो मे भूयादिति आशंसत । कुतश्चैत्यर्यः (: कुतश्चैतदित्याह) ॥९८॥
६९९) [ सरभसविनिर्गतयाऽपि इच्छया त्वं न तया दृष्टः । शीहितवलितभुजङ्गवक्ररथ्ये हतग्रामे ॥] तीऍ तुम इच्छाएँ न सच्चविमओ तया त्वम् इच्छया न दृष्टः । कदाचित् गृहान्निर्गता न भवतीत्याह । सरहसविणिग्गयाएँ वि सरभसविनिर्गतयाऽपि । क्व । सोसाहयवलियभु. यंगवंकरच्छे हयग्गामे शीर्षाहतवलितो योऽमौ भुजङ्गः, तद्वद् वक्रा रथ्या यस्मिस्तत्र । तथाभूते हतग्रामे । वक्रवर्त्मवलनवशेन न दृष्टः । स्वेच्छया तया त्वं नावलोकित इत्यनुरागसूचकं सखीवचनम् । सच्चविभो दृष्टः। उपमालंकारः ॥९९॥ ७००)हालस्य । [मनस्विन्याः पत्या नयन कपोलाधग्प्रभाभिन्नाः। ऋजुसुर
चापनिभा बाप्पावताराश्चिरं दृष्टाः ।।] १०.॥ १w. तं ण सुह ज तहिं णत्थि. The Ms. breaks off at the end of folio 13b. As folio 14 is missing, the commentary on st. 700 as also the colophon of the seventh cento and of the entire work are lost to us.
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२९४
गाहाकोसो Four additional stanzas appearing in the BORI Ms, with Ajada's commentary, at the end of the sixth cento:W558,R605, १)सुप्पं दड्ढे चणया न मुंजिया सो जुआ अइक्कतो।
अत्ता घरम्मि कुविया बहिरीण व वाइओ वंसो ॥१॥ W559,R606,२)पिमुणंति कामिणीणं जलिकपियावगृहणमुहिल्लि ।
कंडइयकवोलुप्फुलणिच्चळच्छीई वयणाई ॥२॥ W726,R607,३) अमेयमयं विय हिययं हत्था तण्डाहरा सयव्हाणं ।
चंदमुह कत्थ निवसइ अमित्तदहणो तुह पयावो ॥३॥
१) तस्सेय (गोभटरय)। [शूर्पे दग्धं चणका न भृष्टाः स युवा अतिक्रान्तः । श्वश्रूहे कुपिता, बधिराणां वादितो वंशः ॥] व्यर्थकारितायामसतीवाक्यम् । काचित् शूर्पे चणकान् निक्षिप्य भर्जनाय परगृहे गत्वा साङ्गारं भस्म तन्मध्ये चिक्षेप । तदानीं तदभीष्टस्तेन पथाऽऽगतः । साऽपि शूर्प तथागतं मुक्त्वा पृष्ठेन धाविता । स च शोघ्रत्वाद् गतः । सा च प्रतिनिवृत्ता यावदायाति, शूर्प दग्धं च जातम् । तादृशं च गृहीत्वा गृहे गता। ततः श्वश्र्वा कलहिता । ततः सा भणति । शूपं दग्धं चणका न भृष्टाः, स युवाऽतिक्रान्तः, श्वश्रूगुहे कुपिता बघिराणां वादितो वंशो मयेति ॥१॥
२) भूसणस्त । [पिशुनयन्ति कामिनीनां जलनिलीनप्रियावग्रहनसुखकेलिम् । कण्टकितकपोलोत्फुल्लनिश्चलाक्षीणि वदनानि ॥] जलक्रीडा वर्ण्यते । कण्टकितकपोलोत्फुल्लनिश्चलाक्षोणि कामिनीनां वक्त्राणि जलनिमनप्रियावगृहनसुखासिकां सूचयन्ति । अनुमानालंकारः । लिको निमनः ॥२॥
३) रवरस्स । [अमृतमयमिव हृदयं हस्तौ तृष्णाहरी सतृष्णानाम् । चन्द्रमुख कुत्र निवसति अमित्रदहनस्तव प्रतापः॥] राजा वर्ण्यते ।
१w. भज्जिआ; २w. अत्ता वि घरे कुविआ; ३w. भूआण; ४w, जललुक्क ५w. अमिअमअं; ६w. चिअ, ७w. चंदमुहि.
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२९५
W560,608, ४) अहिणवपाउसर सिएम सह सामाइ दियt । रसपरिग्गहियाणं व नच्वियं मोरेविंदाणं ॥ ४ ॥
हे राजन्, तव हृदयं तावदमृतमयम् । अमृतं जलं सुधा च । हस्तौ च सतृष्णानां वृष्णाहरौ । दानोदक प्लुतत्वात् । मुस्वस्य साक्षात् चन्द्रत्वाच्च त्रीण्यपि जलत्वकारणानि । मित्रो रविः, दहनो अग्निः । ततोऽमित्रदहनः सूर्याग्न्योर संभवी, शत्रुदनः वा (१ च) क्व तव प्रतापस्तिष्ठतीति प्रश्नः । प्रतापयोर्विरुद्धत्वाद् विरोधोऽलंकारः ॥३॥
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४) मकरन्दस्य | [ अभिनवप्रावृत्रसितेषु शोभते श्यामायितेषु दिवसेषु । रभसपरिगृहीतानामिव नृत्तं मयूरवृन्दानाम् ||] मेघो वर्ण्यते । अभिनवप्रावृड्रसितेषु श्यामायितेषु दिवसेषु रभसपरिगृहीतानामिव मयूरवृन्दानां नृत्तं शोभते । अथवा श्लेषच्छायोक्तिलेशे दिवसेषु सामाजिकेषु अभिनव प्रावृड्रसितेषु वादित्रश्वायमाणेषु सत्सु रसपरिगृहीता मयूरा नटा इव नृत्यन्तीति ॥ ४ ॥
१w. सो इइ २. रहसपसारिअगीवाण; ३w. मोखुंदाणं.
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________________ तार जप मनापामा