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* श्री लँबेचू समाजका इतिहास *
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हैं। लॅबेचू यदुवंशी हैं।
और लँबेचुओं में जब बालक
इसमें यह कथन साधक है होता है और षष्ठी क्रिया जातक संस्कार होता है तब चोकपूर कर स्त्रिये जच्चा ( प्रसूती वाली माता) वालक गोदी में लेकर बैठती हैं स्त्रियें (अखड़ब ) लिवाती हैं । उस समय बालक के हाथ में तीर गहाया जाता है और जब सीमंत संस्कार अठमासा होता है तब गर्भिणी स्त्री को चौक पूर कर चोकी रखकर और चोकीपर गुर्भिणी को बिठा के उदम्बर फलों की माला ॐ ह्रीं उदम्बर फला भरणेन वहुपुत्रा भवितुमह स्वाहा । इस मंत्र से पहराकर और उस गर्भिणी के कानों में उसके देवर से शंखध्वनि कराते हैं । ये सब यदुवंशी होने के प्रतीक हैं। श्री नेमिनाथ भगवान् ने और कृष्णजी ने शंख बजाया। जब नागशय्या दली और श्री नेमिजिनका शंखचिंह है और तीर कमान भी चलाना क्षत्रियों का प्रतीक है और अनेकान्त पत्र में १६७१ सं० में कीर्ति सिंधुका राज्य लिखा है सो कीर्तिसिंह होगा । राजा कोई इन्हीं चोहानों में से भये होंगे या कीर्तिसागर हों और आसकरण मंत्री थे और इन्हीं