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४२६ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास *
ओर मांस खानेवाले को दया नहीं रहती। मांस खानेवाला बहुत विषयी होता है और बुद्धि (ज्ञान) बिगड़ जाती है। महाघिनावना दुर्गन्ध वस्तु उच्च कुलके खाने योग्य नहीं (निशासन ) रात्रि भोजन बहुत हानिकर है। रात्रिमें कुछ दिखता नहीं। दीवा जलाकर उजैला करो तो दीवा ( दीपक के उजैलासे जीव आते हैं और थालीमें पड़ते हैं और बिजलीचसो तो और भी अधिक जन्तु, जानवर आते हैं भोजन में पड़ते हैं उन जानवरोंका घात हुआ सो पर हिंसा हुई और उन जानवरोंके खा जाने से अपनी बुद्धिज्ञान बिगड़ता स्वहिंसा हुई। तीसरे मकड़ी भोजनमें आ जाय तो कोढ़ रोग हो जाय। बाल आ जाय तो स्वरभंग हो जाय। चींटी कीड़ा आवै तो स्वरभङ्ग गला दूखने लगे । अंधेरेमें खावै तो और भी पता न लगे अछनेराकी एक घटना एक आदमीने खीर कराई। उस वटुएमें एक सांप पड़ गया। वह खीर सब कुटुम्बने खाई सारा कुटुम्ब सोता ही रह गया। दो साल हुये कि किसी अखबार पत्रमें देखा था, रात्रि भोजनका त्याग । यह जैन आदि पुराणमें श्री जिनसेन स्वामी आचार्यने तो