Book Title: Lavechu Digambar Jain Samaj
Author(s): Zammanlal Jain
Publisher: Sohanlal Jain Calcutta

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Page 432
________________ ४३० *श्री लँबेच समाजका इतिहास * वैश्यका व्यापारादिमें देशान्तरसे चीज वस्तु लाना मेजनादिमें शूद्रके सेवाकर्मादिमें और तीसरी विरोधी हिंसा जो हमें कोई मारने आवे हमारे स्त्री-पुत्र धनादिको कोई हरने लेने आवै जवरन जोरीसे तो हम भी लड़ेंगे। ___उसमें जो हिंसा हो जाय तो विरोधी हिंसा है और चौथी संकल्पी हिंसा है जो मारनेका संकल्प करके कि मैं इसे मारता हूं यह संकल्पी हिंसा है। सो गृहस्थ आरम्भी उद्यमी विरोधी हिंसासे बच नहीं सकता। अशक्यानुऽष्ठान है उसके हाथसे जवरन होती है उसका त्यागी नहीं परन्तु संकल्पी हिंसाका त्यागी होता है और ऊपर कहीं हुई तीन हिंसाको अपने जानमें बचाता है पर त्यागी नहीं हो सकता । रोटी पानी करै बिना रहेगा नहीं । व्यापारादि करै बिना बनेगा नहीं और कोई शत्र उसपर वार करेगा। तो वह भी वार करके वारण करना ही होगा कोई गनीम शत्रु आक्रमण करता है तो लड़ना ही होता है न करै तो अपनी रक्षा नहीं होती। आत्मघाती महापापी इसलिये गृहस्थ संकल्पी हिंसा कभी नहीं करता जूं खटमल कीडी पशु, मनुष्य आदिकी हिंसा मनसे भी नहीं करता और

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