Book Title: Lavechu Digambar Jain Samaj
Author(s): Zammanlal Jain
Publisher: Sohanlal Jain Calcutta

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Page 476
________________ ४७४ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * सब व्याकरणोंसे प्राचीन है। जिनके सूत्रको श्रीमान् पातञ्जलि महाराजने भाष्यमें लिया है। सिद्धोवर्णः समाम्नायः सू० वर्णानां आम्नायः समाम्नायः स्वयं सिद्धोवेदितव्यः वर्णों का आम्नाय स्वयंसिद्ध अनादि हैं। इन्द्रश्चन्द्रः काशिकृष्णः पिशलीशाकटायनः पाणिन्यमर जैनेन्द्र इत्यष्टौ शाब्दिकामताः। इनमें इन्द्र, चन्द्र तथा काशिकाकार और शाकटायन अमर और जैनेन्द्र ६ जैन व्याकरण इनसे पुराना कलापका करण जैन है और शाकटायन और पाणिनि मामाभानेज थेऐसी किंवदन्ती है। इससे यह सत्र भारतकी निधि है। पहिले द्वेष नहीं था। वर्तमानमें केवल ज्ञान होरा ज्योतिषशास्त्र अधुरामूड़विद्रीमें है और मद्रास जिलेमें छिन्नतम्बी शास्त्रीके पास पूरा ग्रंथ है। तथा बेङलोरमें भैषज्य जान मञ्जरी है सब कनड़ी भाषामें है। श्रीमान् लक्ष्मी धरैय्या पंडितने १ श्लोक पढ़कर सुनाया था। चौबीस तीर्थकरोंके नामका जो एक औषधिका नुकसा था।

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