Book Title: Lavechu Digambar Jain Samaj
Author(s): Zammanlal Jain
Publisher: Sohanlal Jain Calcutta
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर दिल्ली 24672 Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लॅवेचू दि. जैन समाज तथा संक्षेपमें अन्य जैन समाजका इतिहास लेखक पं० झम्मनलाल जैन, तर्कतीर्थ प्रथम संस्करण दीपावली पीर संवत् २४७८ विक्रम संवत् २००० मूल्य स्वाध्याय Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहनलाल जैन .६, बड़तल्ला स्ट्रीट, SHARE RAMACHAR उमादत्त शर्मा रनाकर प्रेस ११ए, सैयदसाली लेन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखकका वक्तव्य इतिहासः पुरावृत्तः प्रमाणे रुपदर्शितः शिलालेखै स्ताम्रपत्रै वृद्धपुरुषैनिवेदितः ॥१॥ पट्टावलोभिराम्नातः राजकीयैरुदन्तिभिः किंवदन्तीभिरनुकूलैः प्रमाणित सुतकितैः ॥२॥ सएव सप्रमाणं स्यात् विद्वद्भिः परिकीर्तितम् . तदेवाहं प्रवक्ष्यामि लम्धकञ्चुक वृत्तमिह ॥३॥ पूर्व संक्षिप्तरूपेण मयैवात्र प्रकाशितम्। पञ्च सततिनवैकेऽस्मिन् संख्याकेहायने तथा ॥४॥ तस्यैव विस्तरं वक्ष्ये प्राप्तसामणिसंग्रहात् विद्वद्भिरातं भूया दित्याशास्महे वयम् ॥५॥ ___ श्रीलंबेच (लम्बकंचुक) जैन समाजका इतिहास वर्णन करते हैं इसलिये कि कोई विशिष्ट लोकविदित उत्तमपुरुषको लेकर वंशवर्णन किया जाता है जिससे समाज व जातिका Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौरव प्रदर्शित हो और सन्तान दरसन्तान उत्तम आचरण कर उन उत्तम पुरुषोंका गौरव प्रदर्शन करै और सन्तान उत्तम बने, गौरवशालिनी होवे । इतिहास नाम पुराने वृत्तान्त चरित्रका है जो आगम अनुमान प्रत्यक्षादि प्रमाणों से दिखाया गया हो, शिला-लेख, ताम्रपत्रोंसे साबित हो, वृद्ध पुरुषोंसे जाना गया हो तथा पट्टावलियोंसे और सरकारी गजटियर विज्ञप्तियोंसे और सुतर्कित अनुकूल प्रमाणित किंवदन्तियोंसे भी साबित किया गया हो सुयुक्तियों द्वारा सिद्ध किया गया हो वही इतिहास विद्वानों द्वारा प्रमाणित माना जाता है वही हम श्रीलम्वकंचुक लम्बेच समाजका इतिहास पाठकगणोंके समक्ष रखेंगे। इस पुस्तकमें उसी लम्बकंचुक लँबेच जातिका उदन्त कहेंगे पहिले हमने १६७५ विक्रम सम्बत्में एक संक्षिप्त इतिहास लिखकर परिचय दिया था। यद्यपि वह पुस्तक श्रीमान् सेठ बाबू मुन्नालाल द्वारकादास फार्मके मालिक श्रीमान् सोहनलालजी और श्रीमान् बद्रीदास संघई द्वारा जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्थामें श्रीमान् पं० श्रीलालजी काव्यतीर्थ, पद्मावतीपुरवार द्वारा छपवाई थी। परन्तु Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने असावधानीसे एक तो बटेश्वर सूरीपुरकी आचार्योंकी पट्टावली और लँबेच समाजकी पट्टावलियोंको इसकी उसमें और उसकी इसमें छपवाकर घसडब्बा कर दिया था। दूसरे सन् सम्वत् भी नहीं दिया उसका मुद्रण समयका इससे पता चल जाता है कि उस समय श्रीमान् रामपाल यती भट्टारक सूरीपुरके बने थे। उस पुस्तकमें भी उनका जिकर है तो भी वह इतिहास अनेक इतिहासझोंको रुचिकर हुआ। अब उसीको लेकर और विशेष सामग्री उपलब्धकर यह दूसरा विस्तरित संस्करण हम पाठकगणोंके समक्ष रख रहे हैं। आशा है कि इसे पढ़कर मुझे आशीर्वाद देंगे। इसमें प्रेरणा और सहायता श्रीमान बाबू सोहनलालजी पोद्दार तथा ताराचन्दजी रपरिया की है वे धन्यवादके पात्र हैं। झम्मनलाल जैन तर्कतीर्थ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीलबेचू (लम्क्कञ्चुक) जैन समाज AN PPPETS . FerE इतिहास EPPER अथ च मङ्गलाचरण तथा उद्देश्यनिर्देशवंशवर्णनश्च श्रीमजिनपतिरधिभूः षट्पञ्चाशत्कोटि यादवानांहि लोकत्रयैकपूज्यः सजयतु श्रीनेमिनाथोत्र ॥१॥ श्रीनेमिनाथ पद पङ्कज माभिनम्य जातीय शिक्षण दलो ल्लिखितायमाना श्रीलम्बकञ्चुक शुभान्वय लेखमाला लेलिख्यते शुभवचोभि रलङ्कृतेयम् ॥२॥ लम्बायमान कवचं परिधान योग्यम् वीरोचितं प्रहरणे भुवियस्य वीरः सो लम्बकञ्चुक इति प्रविगीयते ते जातौ भवन्ति पुरुषाः खलुसापिसैव ॥३॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * श्रीनेमिनाथ हरिवंश समुद्र चन्द्र श्रीलोमकर्ण नृपनाथ समुद्भवाच्च श्रीलम्बकाश्चन पुरोपधि सन्निवेशात् श्रीलम्बकञ्चुक इति प्रथितोऽत्र वंशः ॥४॥ श्रीशुद्धराजन्यकुलेप्रसिद्धे वंशोऽभिवृद्धोभुवियादवानाम् यत्रास्ति सूतिर्जगदाधिपस्य श्रीनेमिनाथस्यचिरंजयेतसः ॥५॥ अर्थ-कार्यके प्रारम्भमें, कार्यके मध्यमें, कार्यकी समाप्तिमें श्रीइष्टदेव नमस्कारात्मक मङ्गलाचरण नियमपूर्वक अवश्य करना चाहिये ऐसी श्रीदेवाधिदेव परमगुरु श्रीवीतराग सर्वज्ञ भगवान् अरहन्त देवकी आज्ञा है सोही श्री गोमट्टसारादि जैन सिद्धान्त ग्रन्थोंमें तथा श्री श्लोकवार्तिकादि जैन न्यायशैलीके शास्त्रोंमें लिखा है कि :अभिमत फल सिद्धे रभ्युपायः सुवोधः प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिरातात् Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * इति भवति सपूज्य स्तत्प्रसाद प्रबुद्धथै नहिकृत मुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥१॥ अर्थ-अभीष्ट चाहा फल सिद्धिका उपाय सम्यज्ञान सच्चा ज्ञान है और वह शास्त्रके पठन-पाठनसे होता है। शास्त्रकी उत्पत्ति श्रीसर्वज्ञ वीतराग हितोपदेश इन तीन गुणसंयुक्त सत्यवक्ता आप्तसे होती है इसलिये वह परम वीतराग चराचरको जाननेवाले सब प्राणीमात्रके हितका उपदेश करनेवाले श्री अरहन्त आत ही परम पूज्य हैं। उस समीचीन निर्मल ज्ञानकी प्राप्तिके लिये आदरणीय हैं, आदर करने योग्य हैं क्योंकि ( पूज्यादरोहिमहतामिति मङ्गलत्वं ) पूज्य पुरुषोंका आदर करना ही ( मंपापंगालयति वा मंगसुखंलाति ददाती ति मङ्गलं ) पापका नाशक सुख का देनेवाला सार्थक मङ्गल होता है अर्थात् सार्थक मङ्गलाचरण है क्योंकि सत्पुरुष किये उपकारको नहीं भूलते । किये हुये उपकारके करनेवाले उपकारीको भूलना कृत्यता रूपी महा पाप है जहाँ पाप है वहाँ पापमल नाशक मङ्गल कहाँ। इस हेतु अपनी विव्यध्वनिसे द्वादशाङ्गरूप समस्त Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * शास्त्रकी प्ररूपणा कर प्राणीमात्रका हितमार्ग बिना इच्छा ही दिखाया उस परमइष्ट श्रीअरहंत भगवान्का नमस्कार रूप मङ्गलाचरण करना प्रत्येक लौकिक व पारमार्थिक कार्यमें अत्यावश्यक है यद्यपि नैय्यायिक वैशेषिकादि अजैन ग्रन्थों में कार्य समाप्ति विन धंसादि मङ्गलाचरणका फल बतलाया है अर्थात् मङ्गलाचरण करनेसे कार्य पूरा होता है तथा विनोंका नाश होता है ऐसा कहा है परन्तु कार्य समाप्ति तथा विनोंका नाश पूरी २ सामग्रीका मिलना आदि कारणोंसे भी होता । दूसरे उनके यहाँ मङ्गलाचरण करनेपर भी कादम्बरी आदि ग्रन्चोंकी परी समाप्ति न हुई और नास्तिकादि ग्रन्थोंकी मङ्गलाचरण न करने पर भी ग्रन्थ समाप्ति देखी गई। इसलिये कार्य कारणकी ब्याप्ति घटित न हुई अव्याप्ति अति व्याप्ति दूषण दूषित हुई उनका हेतु मङ्गलाचरण असाधारण कारण नहीं ठहरता यद्यपि पूर्ण सामग्रीका मिलना तथा दान आदि शुभाचरण वाह्य विनोंको दूर कर सकते हैं। परन्तु कृतघनता रूपी पापको दूर करनेमें असमर्थ हैं। समर्थ नहीं ! कृतघ्नता दूर करनेवाला तो, इष्ट नमस्कारात्मक कृतज्ञता रूप शुभ परिणाम ही Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास - असाधारण कारण ( जिसके बिना कार्य न हो) है यदि संसारमें कृतज्ञता न रहै तो परस्पर उपकार हिताचरण न रहै । और हिताचरणके न होनेसे अहिताचरण बढ़ जावै तो संसारके कार्य ही नहीं होशक्त प्रत्येक कार्यमें (काममें) हर एकको एक दूसरेके अवलम्बन लेने पड़ते हैं। तब कार्य सिद्धि होती है। जैसे एक पान्थ (रस्तागीर) किसी मार्ग जाननेवाले पुरुषसे मार्ग पूछता है । यदि मार्ग जाननेवालेके परोपकार बुद्धि न हो और पूछनेवालेके कृतज्ञता न हो तो वह पान्थ कभी यथेष्ट स्थानपर नहीं पहुँच सकता। यद्यपि चाहे वह मुखसे कृतज्ञता न प्रकट करै । परन्तु पान्थका हृदय इच्छित स्थान पर पहुंचते ही अवश्य कहेगा। कि मार्ग ठीक बताया यह कृतज्ञता ही मार्ग दर्शकके हृदयमें परोपकार बुद्धि उत्पन्न करती है और परोपकार बुद्धि उस पान्थके हृदयमें कृतज्ञता उत्पन्न करती। इन दोनोंमें अविनाभाव सम्बन्ध है। अर्थात कृतज्ञता किये हुये उपकारको मानना। सराहना प्रशंसा करना और उपकार ये दोनों एक दूसरेके सहारे जीते हैं। जबतक संसारमें उपकार रहेगा। तबतक कृतज्ञता अवश्य रहेगी। और कृत Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ज्ञता रहेगी तो उपकार अवश्य रहेगा। यदि दोनोंमेंसे जहाँ एक नष्ट होगा, वहाँ दोनों नष्ट होंगे, और उपकार तथा कृतज्ञता दोनों न रहैं। तब कोई कार्य ही संसार या परमार्थका नहीं चल सकता। क्योंकि उपकार और कृतज्ञता न रहने पर कोई सहायक न होगा। और सहायक (सहकारी कारण) बिना कोई काम न होगा। कारण बिना कार्य कभी नहीं होता। यह नियम है बहुत कारण मिलकर एक कार्य होता है उनमेंसे एक कारण भी बिगड़ने पर कार्य नहीं होता। जैसे रेलगाड़ीका एक भी पुर्जा खराब होनेपर गाड़ी नहीं चलती, इसलिये उस शुद्ध-बुद्ध चैतन्य समस्त चराचर वस्तुको देखने जाननेवाला तथा हितोपदेशी परमगुरु सकल परमात्मा अरहंतदेवका स्मरण करना प्रथम कर्तव्य है ऐसा मनमें धार इस लॅवेच इतिहासके प्रारंभमें लम्बेच जाति वंशधर हरिवंश शिरोभूषण त्रैलोक्य चूड़ामणि परम पूज्य जगत् पितामह परम शुद्ध निजान्तस्तत्व निलीन शुद्ध परमात्मा भगवान् २२ वें तीर्थङ्कर श्रीनेमिनाथ अरहंत देवके चरणकमलोंका ध्यान कर इस इतिहासका प्रारंभ करता हूँ। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * उपर्युक्त मङ्गलाचरणके ५ श्लोकोंका क्रमशः भावार्थ श्रीमान् शुद्ध क्षत्रियाधिपति छप्पन कोटि यादवोंके प्रभु त्रिलोक पूज्य श्री १००८ श्री नेमिनाथ जिनराज इस जगत्में जयवन्त रहैं ॥१॥ ऐसे श्री नेमिनाथ स्वामीके चरण-कमलोंको नमस्कार कर अथवा श्री नेमिनाथ स्वामीके चरणोंका स्पर्श करनेवाले अपने हृदय कमल पुष्पको इस मनोहर इतिहास माला. लतिकामें लगाकर शुभ वचनोंसे गूंथी हुई सुशोभित पुष्प जातीय-शिक्षाओंके हरे-भरे पत्रोंसे उल्लासमान श्री लम्बकञ्चुक शुभवंश इतिहास लेखमाला जातीय पुराण पुरुषोंसे प्रेरित हो मेरे द्वारा लिखी जाती है ॥२॥ ___ यह लम्बकञ्चुक वंश ( लंबेचू जाति ) अन्वर्थ संज्ञाको रखता है अर्थात् यौगिक इसका सार्थक नाम इस प्रकार है कि जिस वीरके पास युद्धके समय वीरोंके पहनने योग्य लम्ना कवच हो अर्थान् लंबी झूल लम्बा अँगरखा हो (कवच लोहेके तारांका गूंथा हुआ होता है), उस वीरको लम्बकञ्चुक कहते हैं और जिस जातिमें ऐसे वीर पुरुष हुए हों, उस जाति या उस वंशको भी लम्पकञ्चुक कहते हैं। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dha .. * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ११ इसलिये जिस जातिमें श्री नेमिनाथ स्वामी तीर्थक्कर बलदेव, बलभद्र तथा महाराज श्रीकृष्णनारायण सदृश उद्भट योद्धा हुए हों, जिन्होंने संसारमें रहकर बड़े-बड़े संग्रामोमें विजय पाया और संसारसे विरक्त हो कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सिद्ध पद पाया। उस जाति, उस वंशका नाम लम्बकञ्चुक सार्थक नहीं तो क्या कहें अवश्य ही सार्थक कहेंगे ॥३॥ श्री नेमिनाथ स्वामी तथा कृष्ण बलभद्रसे जगत् प्रसिद्ध हरिवंश रूपी समुद्रको बढ़ानेमें पूर्ण चन्द्रमा समान राजा लोमकर्ण या लम्बकर्णकी सन्तान होनेसे अथवा लम्बकाश्चन देशोपाधिसे यह वंश ( लमेचू जाति ) नाम लम्बकञ्चुक ऐसा प्रसिद्ध होता भया ॥४॥ - जिस श्री शुद्ध क्षत्रिय कुलमें प्रसिद्ध इस संसारमें यादवांका वंश अभिवृद्धिको प्राप्त भया और जिस वंशमें जगतके अधिपति जगन्नाथ श्री नेमिनाथ भगवान् उत्पन्न हुए यह यदुवंश ( लँबेचू जाति ) लम्बकञ्चुक वंश बड़े चिरजीवै चिरंजीव रहै वंश बढ़े अनन्त चिरकाल जयवन्त रहै ॥५॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ___ इन उपर्युक्त पाँच श्लोकोंसे मङ्गलाचरण किया तथा लँबेचू इतिहास प्रकाशित करेंगे। यह उद्देश्य बतलाया और संक्षिप्तमें यह भी विदित किया कि हमलोग श्री १००८ श्री नेमिनाथ स्वामी और कृष्ण महाराजके वंश यदुवंशकी सन्तान हैं और इस लँबेचू जोतिका प्राचीन शुद्ध सार्थक नाम लम्बकञ्चुक है, जिसका अपभ्रंश वर्तमानमें लँबेच है। इस विषयमें कोई शंका करेंगे कि तुमने अपनी जाति की प्रशंसाके लिये अपनी विद्वत्तासे लम्बकञ्चुक ऐसा नाम रख लिया है। पुराना नाम लम्बेच रूढ़िसे पुकारते आते हैं (लम्बकञ्चुक)। प्राचीन नाम है इसमें क्या प्रमाण है, इसलिये हम आपलोगोंके समक्ष ऐतिहासिक प्रबल प्रमाण उपस्थित करते हैं। वह यह है कि प्राचीन प्रसिद्ध शहर (प्रयाग) इलाहाबादके छोटे श्री जिन मन्दिरमें विक्रम संवत् १६४१ तथा संवत् १५६० के दो यन्त्र ताम्रपत्र पर है। एक श्री कलिकुण्ड यन्त्र है और दूसरा श्री दशलाक्षणिक यन्त्र है। ये दोनों लँबेच जातीय, सोनी गोत्र तथा बुढ़ले गोत्रके बनवाये व प्रतिष्ठा कराये हुए हैं। उन्हींकी प्रशस्ति इस प्रकार है Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १३ ये दोनों सन्त्र इलाहाबाद (प्रयाग) के जिन मन्दिरोंकी नकल हैं श्री कलिकुण्ड यन्त्रकी प्रशस्ति संवत् १६४१ फाल्गुण सुदी ३ सोमे श्री मूलसङ्घ श्री भट्टारक, श्री धर्म कीर्ति देवा स्तत्पट्ट भ० श्री शीलभूषण देवास्तत्पट्ट भ० श्री ज्ञानभूषण स्तदाम्नाये लम्ब. कञ्चुकान्वये सोनी गोत्रे साधु विनायक भार्या धारोपम श्री तत्पुत्र हमीरसेन भार्या लालो पुत्र मेदी सम्भवानन्त जगन्मेदी भार्या राणी पुत्र मीत्तलसेन सु० कु. यह कलिकुण्ड दण्ड यन्त्रकी प्रशस्ति है। द्वितीय यन्त्र दश लक्षण शुद्धबुद्धस्वचिद्र पात् अन्यस्याभिमुखीरुचिः व्यवहारेण सम्यक्त्वं निश्चयेन तदात्मनि ॥१॥ ___ संवत् १५६० वर्षे माघ सुदी ५ शुभ दिने श्री मूलसंघे लम्बकञ्चुकान्वये बुढ़ेले गोत्रे साधु श्री सवसू तत्पुत्र खुसालसेन भार्या खेमा तत्पुत्र मन्नू भार्या धर्मा सुत सूवा युत्र मन्नू पुत्र ३ कमल श्री लघु भ्राता लालू भार्या धर्मा सकट लघु सारावनु चिरंजीवतु यह द्वितीय यन्त्रकी प्रशस्ति है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ___ये ताम्रपत्र और श्रीप्रतिमाजी कुरावली जिन मन्दिरमें हैं ये नकलें श्रीलम्बेच महासभाका मुखपत्र उत्कर्ष वर्ष १ खण्ड २ श्री वीर सं० २४५२ से उद्धृत । श्री ताम्र-पत्रपर यन्त्र सदवृत्तं सर्वसावद्य योगव्यावृत्तिरात्मनाम् गौणः स्यादवृत्ति रानन्दसान्द्राः कर्मच्छिदेञ्जसाः १ ___ सम्बत् १५४२ वर्षे कार्ति सुदी १४ शनी श्रीमूलमंधे भट्टारक श्री विद्यानन्द देवाः जदुवंशे लम्बकचञ्चुकान्वये सं० वार्दुलः ताकुवखे पुत्राः सं० अगार्य भवराजः सं० घाटमः सं० वाढ्यः सं० पशौचैतत्पुत्राः सं वुदई सं० थेधः ई० सं० मन्संथेधू भार्या ललीकमा पुत्रो राघवः उदर्दू भार्या मा स० वेधू इदं चारित्रयन्त्र कारापितं कर्मक्षयनिमित्तं पण्डित नक्षत्रात्मजेन लावशर्मणा लिखितम् सं० यह गट्टसंकेत सन्धीगोत्रका है। श्री १००८ प्रतिमापर लेख संवत् १७८८ वर्षे फाल्गुण सुदि ८ शनौ श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दान्वये शीलभूषणदेवा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .......mor.www.wrimar * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * १५ इत्यादि लेख ज्यादा है। पीछे लिखा है प्रतिमा प्रतिष्ठापितं जवंशेलम्बकञ्चुक साधु कमलापति इत्यादि चकवा चिन्ह श्री सुमतिनाथ स्वामीकी मूर्ति है। हाँतिकांतिसे प्राप्त हुई प्रतिमाओंकी प्रशस्ति संवत् १२१८ शनौ श्री मूलसंधी लम्बकञ्चुकान्वये भ० साधु जिनहंस प्रतिमां प्रणमति नित्यम् । संवत् १६८८ फाल्गुण सुदि ८ श्री मूलसंधे २० गणे सरस्वती गच्छे श्री शीलभूषण देवास्त पट्ट भ० जगद्भूषण देवास्त दाम्नाये लम्बकञ्चुकान्वये साराप्त गोत्र संगहोड़क: पुत्रः इत्यादि। संवत् १४६३ लँबकञ्चुकान्वये साधु पद्म तत्पुत्र हंसज तत्पुत्र गंगपतिः इत्यादि। __जहाँके श्री बाबू मुन्नालालद्वारकादास धीवाले ७६ नं० बडतल्ला स्ट्रीट कलकत्ताके हैं, यह हांतिकांति (हस्तिक्रान्ति ) कोई समयमें बड़ा शहर था। उसके रहनेवाले जो चम्मिल नदी ( चर्मणावती ) के किनारेमें बसा है। अब बहुत अगम रास्ता है जो इटावा, गाढ़ीपुरा जैन-धर्मशाला और जिन मन्दिर उन्होंने बनवाये हैं और जिसकी नींव मेरे हाथसे Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ . श्री लँखेचू समाजका इतिहास * लगवाई हुई है । ७६ नं० बडतल्ला स्ट्रीटमें निजी बाड़ी और गद्दी है, ये भी पोद्दार गोत्रीय लम्बकञ्चक लँबेचू जातिके हैं। जो जिन मन्दिर बड़ा विशाल हतिकांति में है और वहां जैनियोंके घर न रहनेसे वहांसे जिन प्रतिमाओंका समूह समवसरण इटावा गाढ़ीपुरा धर्मशाला जिन मन्दिरमें बैलगाड़ियोंद्वारा सब प्रतिमा लाकर उन्होंने पधराई है। हंतिकांतिकी प्रतिमायें प्रायः बहुत जगह गई हैं। लोगोंने अपने-अपने मन्दिरोंमें विराजमान की हैं। श्री बाबू ताराचन्द परियाने ऊँटपे लेजाकर श्री सूरीपुर जिन मन्दिरमें भी दो प्रतिमायें विराजमान कराई हैं। सूरीपुर और हन्तिकांतिको बहूत थोडा चार-पांच कोसका फासला है। ___ काशी बनारस के भदेनीघाटके निकट भेलूपुरमें खड़सेन उदराज तीनमुनया गोत्रीय लबेचूका बनाया हुआ जिन मन्दिर है। वहाँ १६२५ के संवतमें उन्होंने बिम्ब प्रतिष्ठा कराई थी, उन प्रतिभाओंपर लेख है। उसमें भी लिखा है लम्बकाञ्चुकान्वये तीन मुनया गोत्र खड़गसेन उदराजन प्रतिष्ठा कारापिता । उस जिन मन्दिरके मालिक दत्तक पुत्र सूर्यमल मौजूद हैं। एक प्रतिमो सोनागिरिमें भी इनकी है उसपर भी यही लेख है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास* आज आठ सौ और चार सौ साढ़े चार सौ तथा दो सौ वर्ष पूर्वके ताम्र पत्र और प्रतिमाओंके शिलालेखोंसे स्पष्टतया प्रमाणित है कि लॅवेचू नाम का शुद्ध शब्द लम्बकञ्चुक है और यह सार्थक नाम है । तथा यदुवंशमेंसे हैं। क्षत्रिय हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं रहता और दूसरे इन यन्त्र और प्रतिमाओं में जो आचार्योंके नाम दिये हैं वे सूरीपर (शौर्य पुर) बटेश्वर से उपलब्ध हुई आचार्य पट्टावलीके नामोंमें शक सम्वत् सहित नाम मिलते हैं। और सूरीपुर (शौर्यपुर) श्री हरिवंशपुराण लिखित श्री १००८ नेमिनाथ भगवान् की जन्म नगरी है और इसके आस-पास लँबेचजैन बसते हैं और इसी सूरीपुर बटेश्वर के नामसे लम्बेचू जातिके गोत्रों में भी विशेषण पड़ गये हैं। जैसे बटेश्वरवाले चंदोरिया जैसे चन्दवार (चन्द्रपाट) के चन्द्रपाल या चन्द्रसेन राजाके वंशके चंदोरिया गोत्र हुआ और वहाँसे बटेश्वर आकर रहे तो बटेश्वर वाले चंदौरिया पुकारने लगे। इसी प्रकार बटेश्वर वाले रपरिया-जमुनाके किनारे लम्बेचू जातिके राजा रपरसेनके वंशके रपरिया गोत्र उन्होंने रपरी शहर बसाया उसके रहनेवाले रपरसेनेके वंशके रपरिया और बटेश्वर में 2. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . .... १८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * आकर रहे वे बटेश्वर वाले परिया कहलाये जो भिण्डमे अटेरमें रहते हैं। मनीराम उल्फतिराय लम्बेचजैन आज भिठमें बड़ा फार्म है और अब भी श्रीमान् मनीराम उलफातेरायका मकान बटेश्वर सूरीपुरमें है और उसमें एक आदमी रखा दिया है । और सबमें प्रसिद्ध श्रीमान् बाबू ताराचन्दजी रपरिया जैन फेजल्लावादी जो इस समय आगरावाले हैं। हम इटावावाले चन्दोरियानमें हैं। सबका निकास चन्दवार ( चन्द्रपाट ) से हैं, हमारे यहाँ विवाह-शादीमें राय भाट आते हैं, उनका हक बँधा हुआ है वह दिया जाता है। वे लोग एक-एक गोत्रके विरद बखानते हैं, पुराने कवित्त हजार वर्ष पहिलेका इतिहास वृत्तान्त उन पुराने कवित्तोंमें कहते हैं जो हम इस पुस्तकके इतिहास लिखनेके बाद पिछाड़ी पृष्ठोंमें लिखेंगे। राय भाटोंसे लिखकर संग्रह किया है और भी श्री जिन प्रतिमाओं पर शिला लेख मिले हैं। दूसरे इतिहास लेखकोंने जो अपने इतिहासमें लेख दिये हैं, वे हम पीछे जहाँ उपयुक्त समझेंगे लिखेंगे और उन आचार्योंकी पट्टावलियोंमें जो पट्ठावली ( सूरीपुर ) गालियरके भट्टारकोंकी तथा सूरीपुरके आचार्योकी है और Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लबेचू समाजका इतिहास * १६ वह आचार्यपट्टावली श्री राजेन्द्रभूषण तथा श्रीपाल वर्णीकी लिखी हुई है। पाण्डव पुराणकी प्रशस्तिमें श्री शुभचन्द्राचार्यकी सहायता देनेवाले लिखा है। वह संवत् १६०८ में लिखा है और इस पट्टावलीमें भी श्री शुभचन्द्राचार्यको १५७१ में लिखा है। अँगाड़ी फिर संवत्का उल्लेख नहीं ये वे ही श्रीपालजी हो सक्त हैं। इससे स्पष्ट विदित होता है कि ये दोनों यन्त्र श्री सूरीपुर या गवालियरके पट्टाधीश आचार्यों के द्वारा प्रतिष्ठित हैं। श्री धर्मकीर्तिके शिष्य श्री शीलभूषण और उनके शिष्य जगद्भुषणजी गवालियरके पट्टाधीश हुये हैं। गवालियरके पट्टाधीश ही सूरीपुरके पट्टाधीश हैं। और कोई समय गवालियरके भट्टारक यतियोंका सूरीपुरसे ही निकास भया होगा क्योंकि सुनते हैं कि गोपाचल ( गवालियर ) पर तोमरोंका राज्य रहा तोमर क्षत्रिय हरिवंश यादव वंशमेंसे ही है। जरासिंधकी लड़ाईमें कृष्णकी तरफ सेनामें तोमर भी थे हरिवंश पुराणमें लिखा है। ___अब तक सूरीपुरके यति भट्टारक रामपालजी गवालियर के शिष्योंमें हैं जो इस समय वर्तमान हैं। यह बात हम Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * पहिले संवत् १६७५ में जो लँवेच संक्षिप्त इतिहासमें छपाया था। उस समय श्री रामपाल यती बने थे सम्बत् १९८१ में वे नहीं रहे वे बीमार थे रात्रिको श्री बटेश्वरके जिन मन्दिरको बाहिरी जैन धर्मशालाके दरवाजे के ऊपर दालानमें बदमाशों द्वारा फाँसी लगाकर मार डालेगये। सरकारी बहुत इनकारी भई पता नहीं लगा। उन्हीं दिनोंसे वहाँसे सूरीपुर १ मील दूरी पर है उसपर श्वेताम्बर लोग आक्रमण कर खेवट जो रामपाल दिगम्बर यतोके नामसे था उसपर कबजा करनेके लिये वटेश्वरके पटवारीको अपने फेवरमें बनाकर ग्वेवट पर अपना नाम चढ़वाना चाहते थे सरकारी आदमी नाम चढ़वाने के लिये इतला करनेके लिये श्वेताम्बरों के धोखे वटेश्वर दि० जैन मन्दिर पर सदैव की भाँति चला आया और उस समय रामपाल यती दिगम्बर भट्टारकके स्थान पर गवालियरसे हरप्रसाद यति आये हुये थे वे उस समय उस बृटिश राज्यके सरकारी आदमीके साथ गये और इन्होंने कागद पढ़ा तब इन्होंने कहा कि यह खेवट तो दिगम्बरियों के नाम है श्वेताम्बर कौन होते हैं तब उसने जवाब दिया कि कागजात सब आगरा गये वहाँ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २१ आप दरख्वास्त देवे हम कुछ नहीं कर सक्ते । तब हमलोगों को मालूम हुआ मुकद्दमा लड़े श्रीमान् बंशीधर सुमेचरचन्द वरोलिया गोत्रोत्रीय लँबेच जैन और उनके भानेज श्रीमान् बाबू ताराचन्द परिया गोत्रीय लॅवेचूको उत्तेजित कर तथा वलनगंजके सब पश्चोंको मिलाकर मुकद्दमा लड़े। ___कई अदालतोंमें फोजदारी दिवानी मुकदमा चला आखिरमें हाईकोर्ट इलाहाबाद (प्रयागमें) श्रीमान् तेजबहादुर सा वेरिष्टर साहब द्वारा मुकदमा सम्वत् विकम २००३ या या ४ के बीचमें तीर्थक्षेत्र श्री नेमिनाथकी जन्म नगरीका खेवट दिगम्बरियोंके नाम हो गया ईतिहासमें इतने लिखने का कारण रामपालजी भट्टारकके नामसे हुआ इस सरीपुरके आस-पास लम्बकञ्चुक लॅवेच समाज बसता है और यह क्षेत्र लवेच समाजके ही रक्षाधीनमें हैं। सूरीपुर वटेश्वरके आस-पास इतने ग्राम है। वाह जिसमें २० के करीब लँबेचु ओंके घर हैं पास ही कचोरा घाटका ग्राम है। वहाँ भी लँबेच रहते हैं जसवन्त नगरमें लवेच रहते हैं यहाँ भी २० घर है। कचोरामें चार-पांच घर है तथा नोगाउँ पारना जैतपुर साहिपुरा राजाकी हाट मीठेपुर सिरसागंज (कोरारा) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * मदान खुरई अटेर हंतिकात सब जगह लम्बेच रहे हैं और हैं। श्रीचन्द्रप्रभ भगवानकी स्फटिककी मूर्ति जो इस समय फीरोजाबादके प्रसिद्ध चन्द्रप्रभके जिन मन्दिरों में विराजमान है सुनते हैं कि प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान चन्दवार (चन्द्रपाट) से आई हैं ऐसी किम्बदन्ती है कि जब कोई मुसलमान ब-दशाहने चढ़ाई की उससे चन्दवारका राजा शका नहीं तब मोरी ( सुरंग ) द्वारा राजा निकलकर जिन प्रतिमाओं का समवशरण ( समूह ) जमुनामें जो किलेके किनारे वही है उस जमुनामें अविनयके भयसे पधराकर राजा सकुटम्ब निकल गया फिर कुछ दिनोंके बाद उन प्रतिमाके विषयमें स्वम पाया कि जमुनामें स्फटिककी प्रतिमायें हैं सोनिकाल लो सो एक मल्लाहने निकाली । दो स्फटिककी चन्द्रप्रभकी प्रतिमाय थी। सो एक तो उस मल्लाहसे लाकर फीरोजाबाद के मन्दिरमें विराजमान हुई और दूसरी अब भी एक मल्लाहके घरमें है ऐसा सुनते हैं। और एक मूर्ति श्रीचन्द्रप्रभ स्वामीकी अष्टप्रतिहार्य युक्त Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास - २३ हीरालालके भाई भगवान दास परियाने मरसलगंजमें प्रतिष्ठा हमारे द्वारा कराकर विराजमान की है। फिरोजाबादमें लॅवेचुओंका बनाया हुआ श्रीचन्द्रप्रम स्वामीका मन्दिर है। अब भी उसका प्रबन्ध 'चावी हीरालाल केशरीमल रपरियाके हाथमें रहती है। फिरोजाबाद चँदवारसे उत्तर तरफ है। और इसी इतिहासमें अणुव्ययरयण पदीव एक ग्रन्थका उल्लेख करेंगे उसमें रायवद्दिय नगरी लिखी है। जिन लक्ष्मण कविने वह ग्रन्थ बनाया है वे राय वद्दिय नगरीके थे। जिसके जाननेमें इतिहास लेखक अंदेशोंमें पड़े हैं। वह भी जसवन्त नगरके पास रायनगर ही राय वद्दिय नगरी है जो जमुनासे उत्तर तटके तरफ लिखी है सो उत्तर तरफ है और उसमें अब भी लम्बकञ्चुक समाजके विरद बखाननेवाले कवि राय लोग रहते हैं। और इटावामें भी लँबेच रहते हैं और जशवन्त नगर इटावाके बीचमें करहल नगरी है यह तो लँवेचुओंका केन्द्र है ही इसमें मेरे विवाहके समय ४०० घर थे। अब कहीं दूर दूर देश चले गये कुछ अब भी डेढ सो १५० या १२५ के करीब घर हैं। ४ जिन मन्दिर हैं Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास इसलिये वरीपुर और ग्वालियरकी आचार्य पट्टावलीसे लँवेचू समाजका घनिष्ट सम्बन्ध है और लॅवेचुओंने प्रतिष्ठा कराई श्री प्रतिमाओंके शिला लेखोंसे आचार्य भी सूरीपुर वटेश्वर ग्वालियरके ही सूचित होते हैं। श्री विश्वभूषणजी जगद् भूषणजीके शिष्यों में है । जिन्होंने इन्द्र ध्वज विधान तथा अनेक विधान ऋषिपाठ तथा चरित्रोंकी रचनाकी है । इन्हीं ग्वालियर के भट्टारकोंकी श्रीसम्भेद शिखरजीकी वीस पंथी कोठी है । दतिया में रूरामें जिनके बड़े-बड़े विशाल मन्दिर दुकाने जायदाद रही रूरा ग्राम ही जोगियोंका कहलाता है। वहां जिमीदारी भी भट्टारकोंकी है वहीं हरप्रसाद जती रहते हैं । अब अन्धे हो गये हैं। मैं उनके पास हो आया हूँ । झांसी से छोटी गाड़ी जालोन वहाँ से मोटर में रुरामल्लू जाते हैं । इन्द्रध्वज विधानमें मध्यलोकके ४५८ जिन मन्दिरोंके स्थान में कुम्हारसे ४५८ मन्दिर नवाकर ढाई द्वीपका नक्सा तेरह द्वीपका नक्सा मांडना मण्डल बनाकर उन मन्दिरोंको स्थापित कर इन्द्र इन्द्राणी का प्रतिष्ठित कर उन मन्दिरों पर ध्वजा चढ़वाते हैं और पूजन किया जाता है । इन्द्र ध्वजका ही भाषा पूजन तेरह २४ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास द्वीप है। पर संस्कृतमें मन्दिर और चार प्रकार देवोंके आह्वानन ध्वजाओंकी विशेषता है। उसमें जो दो मन्त्र इन्द्र इन्द्राणी बनाकर जिन स्त्री-पुरुषोंको प्रतिष्ठित करते हैं। उन मन्त्रोंमें अन्तर्हित अर्थ पुत्र सन्तान उत्पन्न होने की सत्कामना सुचित होती है। इसलिये पुत्रकामेष्ट यज्ञ भी कहैं तो अत्युक्ति न होगीऔर जल तो अवश्य वर्षताही है। उस क्रियाको जाननेवाला चाहिये पानी वर्षता है लोगोंमें मध्य प्रदेशमें आम तौर पर रूढ़ि हो रही है। उन विश्वभूषणजीके गुरु श्रीजगद्भूषणजीने बनारसमें भदेनी घाटके श्री जिन मन्दिर श्री काशी नरेशकी अध्यक्षता में ब्राह्मण विद्वानोंको परास्त कर बनवाया अर्थात् ब्राह्मण लोग मन्दिर नहीं बनने देते थे। तब इनके शिष्यको राजा की सभामें ब्राह्मण एक विद्वानने ऐसा समझ लिये कुछ जानते नहीं मूर्ख हैं सो मस्करी करी बताओ आज कौन तिथि है। तब वे शिष्य मारवाडूकी तस्फुके थे उन्होंने कहा कि आज पूर्णिमा है। मारबाड़में अमावसको भी वदी पूर्णिमा कहते हैं। सो वदी तो बोला नहीं पूर्णिमा कह दिया उसने फिर हँसी की तो आज पूर्णिमा है । चन्द्रमा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * का उदय होगा। इनको झूठा बताकर परास्त करना चाहा तब उस शिष्यने इनकी मखोलबाजी समझ गुरूकी मंत्र शक्तिको जाननेवाला इसने जोर देकर राजाके सामने कहा हां पूर्ण चन्द्रमाका उदय होगा इस बातको सुन राजा तथा सभाके सब मनुष्य अचम्भेमें आ गये और रात्रिकी प्रतीक्षा करने लगे। इन्होंने आकर गुरूसे निवेदन किया कि महाराज मैंने भूलसे सभामें अमावस्याको पूर्णिमा कह दिया। सो ब्राह्मणों ने उस भूलको ग्रहण कर विवादमें झूठा साबित कर परास्त करना चाहते हैं। तब श्री जगद्भूषणजीने बाजारसे एक कांस्यथाल मँगाकर उस कांस्य थालको मन्त्र द्वारा आकाशमें पूर्ण चन्द्रकर दिखाया । उस दिन ऐसा अपूर्व बड़ा पूर्णचन्द्र उदय भया जो कभी देखा नहीं था ब्राह्मणों को और राजा और राज कर्मचारियों तथा सारे शहरमें बड़ा आश्चर्य भया फिर सब ब्राह्मणोंने स्वयं मुहृत्तम इंटे लगाई । यह बात बनारसके विद्वानोंमें कुछ दिन पहले तक प्रचलित रही है। हमारे ही मुहल्ले गुरहाईमें श्रीमान् पं० मुकुन्दपति शास्त्री जिनके पास हम पढ़े हैं । कुछ दिन उनके भतीजे श्रीमान् महामहोपाध्याय पं० रघुपति शास्त्री Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री देवेचू समाजका इतिहास * दक्षिणी ब्राह्मण जो बनारसमें श्रीमान् महामहो पाध्याय - श्रीवालशास्त्रीके शिष्यों में थे जिनके सपाठी श्रीमान् दामोदार शास्त्री व्याकणाचार्य श्रीमान् साहित्याचार्य गङ्गाधर शास्त्री बनारससे सं० १६५३।५४ में से ६० तक काव्यकादम्बिनी एक कविताओंकी लेख माला निकलती थी वे उसके सम्पादक थे। उसमें सबकी कवितायें निकलती थी वे परीक्षाके समय मार्चमें परीक्ष्य छात्रोंको पर्चे बाँटते थे व्याकरणाचार्यषष्ट बोलकर पर्चे बांटते थे। हम उस समय सं० १६६० में व्याकरण मध्यमा देने गये थे। तब वे काव्य कादम्बिनीमें छापते थे। गङ्गाधरोपितनुते सरसप्रसाद' वे तेलङ्गब्राह्मण नाटेसे काले थे। उस समय नैय्यायिक भागवताचार्य परिष्कारज्ञ कुप्पाशास्त्री और तांतिया शास्त्री थे। और मैथिली ब्राह्मण शिव कुमार शास्त्री ये सब महामहोपाध्याय थे। ये सब रघुपति शास्रीके सपाठी थे। हमारे कहनेका तात्पर्य यह कि उस समय तक यह बात सुनी जाती थी। पुराने आदमी कहते थे और जो आचार्यों की पट्टावली हमने पूर्व इतिहासमें दी थी। वह इसमें भी देंगे पट्टावलीमें तो बनारसमें बादजी तो इतना Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्री लँबेचू समाजका इतिहास * संकेत है ही कि बादजी तो इसका विस्तार यह है जो ऊपर लिखा है यह विशेष कथन दूसरी जगह हमने देखा है। स्यात् प्रारम्भिक जैन सिधान्त भाष्करकी किरणोंमें है जिसके संपादक श्रीमान् खुर्जा वाले पदमराज रानीवाले रहे हैं। और मैने पट्टावली और प्रशस्तिओंकी टीका की है तथा हरनाथ द्विवेदीजीने भी टीका की है उसकी पहिली ४ किरणोंमें होने शके है इन्हीं जगद्भूषणजीका दूसरा नाम ज्ञानभूषण होना चाहिये। उन्होंने ये यन्त्र प्रतिष्ठित किये हैं या इन्हींके शिष्यों में ज्ञान भूषण हुये होंगे। क्योंकि प्रधान २ आचार्य लिखे कोई २ बीच २ में छोड़ दिये इन्हीं गवालियरकी गद्दी सूरीपुर वर्तमान नाम बटेश्वरमें भी है। रही तथा गवालियर की ही गद्दी अटेरमें गई या सूरीपुर की गद्दी ही गवालियर रही हो प्राचीन कालमें क्योंकि इन दोनोंका सम्बन्ध है क्योंकि बटेश्वरके मन्दिरमें हमने सड़ी गली चहियो तथा कागजोंमें श्री विश्वभूषणजीका नाम देखा था । इन्हींके शिष्योंमें १८३८ में बटेश्वरका जिन मन्दिर श्री जिनेन्द्र भूषण महाराज भट्टारकने बनवाया । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ~ ~...nn * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * - २६ जो मन्दिरमें शिलालेख गोजद है, और सूरीपुर तीर्थक्षेत्र १ मील दूरीपर है कोई समय विशाल नगरी थी अब वहाँ जंगल है एक बड़े टीले प्रदेशमें कई मन्दिर हैं जहाँ हमलोगोंने जीर्णोद्धार कलकत्ता तथा आगरा आदि दिगम्बर जैन भाइयोंको शामिलकर तथा हमलोगोंने यथाशक्ति प्रदान कर कराया है और श्वेताम्बरोंसे मुकद्दमा लड़कर खेबट दिगम्बर जैनके नाम कराया है। श्री जिनेन्द्रभूषण जीको राजा भदोरियासे माफीमें भूमि मिली और राजमान्य हुये। सुनते हैं कि इन्हींकी कचनाउरमें बिना कहारों की पालकी चली तथा तामेका सुवर्ण बना लेते थे। बटेश्वरका जिन मन्दिर बीच जमुनामें बनबाया था। इसकी भी किंवदन्ती है कि ब्राह्मण लोग अटकाव करते थे। तब इन्होंने जमुनामें बैठ मन्त्र जाप किया और कहा कि जमुना हमें जगह देगी तब जमुना की धार कुछ हट गई तब मन्दिर बनवाया अब भी मन्दिरके नीचे जमुना बहती है। मन्दिर तीन तल्ला है। एक तल्ला पानीमें ड्वा रहता है जो आज तीन चार लाख रुपया लगाने पर भी मन्दिर तथा धर्मशाला नहीं Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * बन सकती। ये खरौवा जातिमें दीक्षित हुये थे । इन्हींके शिष्य महेन्द्रभूषण हुये। इनके शिष्य राजेन्द्रभपणजी हुये। इन्हीं विश्वभुषणादि आचार्य भट्टारकों की प्रतिष्ठा कराई हुई प्रतिमा आरा शहरमें है। वहाँ से तीन कोस पर मसाढ़ नामका ग्राम है आराका पुराना नाम चक्रपुर है और इसी मसाढ़का पुराना नाम महासार है जो प्रतिमाओं पर अङ्कित है। महासारका इतिहास इस प्रकार है कि मारवाड़के राठोर क्षत्रिय वसते हैं और इनके वंशधर खरगसी विरमसी* नामके २ आदमी अपने पुरुखाओंके १४ पीढ़ी बाद इस देशमें आये। ये लोग जैन क्षत्रिय थे। इनका समय आज से ५०० वर्ष पहिलेका मालूम होता है क्योंकि जैनमूर्तियोंपर विक्रम सम्बत् १४४३ अर्थात् १३८३ AD का लेख अङ्कित है। इससे मालूम होता है कि इन्हीं राठोर जैन क्षत्रिय राजाओंने यह मन्दिर बनवाया था और हम समझते हैं कि इसी विरमदेवकी मृत्यु जो जाधपरके सरदार थे टाड साहबने राजस्थानमें १३८१ को नोट--'खरगसी विरमसी' खरगसिंह विरमसिंहके प्रतीक है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३१ लिखी है के १४ पुत्र छोड़कर मरे इस बातका उल्लेख चौहान राजभाट मुकुर्जीने किया है। इन्हीके सन्तान लोग आकर इस ग्रोममें वसे है क्योंकि इनके समयकी आठ जैन मूर्तियां अब भी मौजूद हैं और इन पर राजा देवनाथ रायका नाम खुदा हुआ है। इनका समय वही विक्रम संवत् १४४३ में खुदा हुआ है 1 इन मूर्तियोको बुचसेन साहबने एक छोटेसे मंदिर में देखा था। चीनी यात्री नसेन साहबने उस समय १८१६ ई० में एक पुजारीसे पूछा था कि यह मंदिर कौनका है ? तब पुजारीने कहा था कि देवनाथ राय राजाका और उसी समय एक नवीन पार्श्वनाथ स्वामीका मंदिर बन रहा था जिसको आरा निवासी शंकरलालजी अग्रवाल बनवा रहे थे। उसी मंदिर तथा जिनबिम्ब प्रतिष्ठा उपर्युक्त श्री विश्वभूषणजी के शिष्य प्रशिष्य जिनेन्द्रभूषण महेन्द्र भूषण अटेर की गद्दीके भट्टारकोंने कराई थी। मसाढ़ से २५ कोस पर वैशाली ग्राम है जो कि विशाल राजाका बसाया हुआ है और यही वैशाली श्री वर्द्धमान स्वामी की जन्म नगरी है । इसी में कुण्ड ग्राम है जिसे कुण्डलपुर कहते हैं । 1 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # श्री वर्द्धमान स्वामी पिता सिद्धार्थको वैशालीके राजा चेटककी ७ कन्याओंमेंसे त्रिशला देवी ब्याही थी और त्रिशलादेवीकी बहिन चलना श्रेणिकको ब्याही थी । श्रेणिकके पुत्र कुणिकका दूसरा नाम अजातशत्रु या जितशत्रु भी है। श्री हरिवंशपुराण में लिखा है कि वसुदेवके पुत्र जरत्कुमारजी द्वारका भस्म हो जानेके बाद राज्य गद्दी पर बैठे अर्थात् पांडवोंने वंशरक्षार्थ कृष्णके बाद जरत्कुमारका राज्याभिषेक किया और इन्हींके वंशधर वंशपरम्परा में श्री वर्द्धमान स्वामीके समकालीन राजा जितशत्रु हुए जिनको अजातजत्रु भी कहते हैं । इन्हींको राजा सिद्धार्थकी बहिन ब्याही थी, परन्तु वर्त्तमानमें राजा श्रेणिकको बिम्बसार लिखा है और उनका वंश शैशुनाग लिखा है । परन्तु श्री वर्द्धमान स्वामी के समकालीन और और कोई जितशत्रु नहीं पाया जाता जिसका उल्लेख हो । इससे ऐसा मालूम होता है कि बहुत दिन होने से कई नामान्तर हो जाते हैं और राष्ट्रवंश ( राठौर वंश ) में शक संवत् ७०५ से ७३५ तक राजा दन्तिदुर्गके वंशमें ( अकालवर्ष ) प्रथम कृष्ण होते हैं । इन्हींको चेदीनरेश ३२ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rrnwww *श्री लंबेचू समाजका इतिहास * ३३ बंगाधीशकी कन्या न्याही थी और ये बड़े विजयी हुए। इनका बड़ा भारी इतिहास है। मुझे स्मरण है शिशुपालवध माघ काव्यमें भी शायद रुक्मिणीको चंदी नरेशकी कन्या बतलाया है और गुप्तिगुप्त मुनि भी परमार जाति क्षत्रिय वंश जो चन्द्रगुप्त राजाका वंश होता है यह भी यदुवंशमें से ही हैं उसी वंशमें विक्रम संवत् २६ में हुए हैं। और राजा चन्द्रगुप्त सन् ईस्वीसे ३२१ वर्ष पूर्व हुए हैं जो कि विक्रम संवत् २६४ वर्ष पूर्वमें होते हैं। उन गुप्तिगुप्त मुनिके पश्चात् माघनन्दि आचार्य संवत् ५२ में हुए और उनके पश्चात् संवत् १४२ में श्री लोहाचार्य लँबेच हुए ऐसा सूरीपुर (वटेश्वर ) की पट्ठावलिमें लिखते हैं। और गुप्तिगुप्त मुनिके शिष्य प्रशिष्योंमें अर्ककीर्ति मुनिको एक जैन मन्दिर बनवानेके लिये इन्दीगुरदेशमें जलमंगल नामक एक ग्राम अकालवर्ष प्रथम कृष्णके पोता गोविन्द तृतीयने मयूर खण्डी ( नासिक ) में थे जब उन मुनिको दिया जो कि हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेन स्वामी शक संवत् ७०५ में हुए हैं उनके अमोघवर्ष शिष्य थे ऐसा एक दानपत्र ताम्रयन्त्र है उसमें लिखा है। इन्हीं तृतीय गोविन्दके Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्री लँबेचु समाजका इतिहास * पुत्र श्री अमोघवर्ष मुनि हुए हैं जिन्होंने प्रश्नोत्तर रत्नमाला और शाकटायण व्याकरणके ऊपर अमोघ वृत्ति बनाई है । शाकटायण व्याकरणका उल्था (अनुवाद रूपमें) पाणिनीय व्याकरण हैं और अमोघ वृत्तिका धातु पाठ, गण पाठ सिद्धान्त कौमुदीमें रखा है और प्रश्नोत्तर रत्नमालाका अनुवाद शङ्कराचार्यने चर्पटपिजरिकामें किया है । इस अकाल वर्ष प्र० कृष्ण तथा जो कि राज्य पश्चिमी उपकुलसे लेकर पूर्व उपकूल तक, उत्तरमें विन्ध्या पर्वतसे लेकर मालवा तक तथा दक्षिणमें तुङ्ग नदी तक था और इनको परमेश्वर भट्टारक श्री बल्लभ महाराजाधिराज कीर्तिनारायण वीरनारायण इत्यादि पदवियाँ थीं। तृतीय गोविन्दकी पुत्री राणादेवी बंगालके महाराज धर्मपालको ब्याही थी । इत्यादि इतिहासके सम्बन्ध कथनका यह तात्पर्य है कि उन दोनों ताम्र यन्त्रोंसे किन-किन पट्टावलीके आचार्योंका तथा उनके शिष्य जैन क्षत्रिय राजाओंका श्रावकका सम्बन्ध सूचित होता है। वर्तमान राठौर क्षत्रिय यदुवंशी जैन क्षत्रिय रहे और १२०० शताब्दी में राजा परिमाल राठौर थे, जिनके राज्य महोबा में श्री अजितनाथ भगवान्की श्यामवर्ण Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३५ मूर्ति कसोटी पाषाणकी श्री बटेश्वर जमुना किनारे जिन मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई है लेख है। इस सम्बन्धमें हमें इन बातोंका पता लगानेकी आवश्यकता है कि सूरीयुर, ग्वालियर, अटेर इनकी गद्दीकी पट्टावलीके आचार्य तथा भट्टारक गुरुओंकी शिष्यतामें कितने-कितने जैन क्षत्रिय आदि रहे हैं। और, उन्हींके शिष्य लम्बकञ्चुक लँबेचू रहे। तब लँवेच लोग राजपुरोहित पटिया लोगोंकी बहियोंसे तथा परम्पराके पुराने लोगोंके कथनसे यह विदित है कि यदुवंशी जैन क्षत्रिय हैं और लम्बकाञ्चन देश राजा लम्बकर्ण या लोमकरण राजाने बसाया। उसके रहनेवाले लम्बकंचुक का अपभ्रंश लँबेचू कहलाये। और, उनके कृष्णविजयी आदि गोत्र लिखे हैं तथा यह भी कथन है कि विक्रम संवत् १४६ में लम्बकाञ्चन देश छोड़ मारवाड़ देशमें आये और वहाँ ६६६ वर्ष ताई रहे, इक्कीस पीढ़ी ताई वहाँ ही रहे। पीछे पूरब देशमें अन्तरवेदमें वहाँका राजा पञ्चकुमर तिनके साथ आये ११५२ की वर्षमें राजा चन्द्रसेन उनके बंशधर चन्दवरियाओंने चन्दवार बसाया। फिरोजाबादके पास पुरानी वस्ती है, जहाँपर श्री वृटिश सरकारकी तरफ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * से खुदाई भी पुरातत्व विभागसे हुई है, कई प्रतिमाएँ भी निकली हैं। और रपरियाओंने रपरी ग्राम बसाया । वकेवरियाओंने बकेउर बसाया, जो इटावाके पास है। यह सब वृत्तान्त पटिया लोगोंकी बहियोंमें है। उसमें से कुछ नकल हमको भाई लोगोंसे श्रीयुत् बाबू उलफतिरायजी करहल निवासीने उतरवाकर भेजी है, सो भी हम इसमें लिखेंगे। उपर्युक्त इन बातोंसे हमारी दृष्टि ऐसी है कि आचर्य नहीं कि जिन राठौरोंका उल्लेख मसाढ़के इतिहास में किया है तथा १४ पीढ़ी बाद मारवाड़से आया लिखा है और पटिया लोगोंकी बहियोंमें ६६६ वर्ष मारवाड़में रहनेका उल्लेख है। सम्भव है कि राजा पाँचकुमार सेन पूर्व देश अंतरवेदमें गये। इस कथनसे और राजा देवनाथरायका संबंध कुछ मिले तथा इनके वंशधर अकाल वर्ष प्रथम कृष्ण तथा कृष्ण विजयी गोत्र इस सम्बन्धमें कुछ रहस्य मिले क्योंकि श्रीमान् आचार्य प्रवर लोहाचार्यजी इधरसे चलकर दक्षिण देशमें भद्दलपुरके पट्टाधीश हुए। ऐसा इण्डियन एंटीक्वेरीमें पट्टावलीके लेखमें है। और श्री लोहाचार्यजीका संवत् भी १४२ दिया है तथा श्री प्रमेय Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३७ कमलमार्तण्ड १, न्यायकुमुद-चन्द्रोदय २, अर्थ प्रकाश ३, वादिकौशिक मार्तण्ड ४, राज मार्तण्ड ५, प्रमाणदीपिका ६ आदि शास्त्रोंके रचयिता श्री प्रभाचन्द्राचार्यके गुरु लोकचन्द्राचार्य लँबेच हुए हैं। उनका नाम भी इंडियन एण्टीक्वेरी पट्टावलीमें है और ठीक इस पट्टावलीमें दिया हुआ संवत् ४२७४५३ दोनों आचार्योंका उसमें मिलता है। ये श्री लोहाचार्य, लोकचन्द्र, प्रभाचन्द्र आदि भद्दलपुरके पट्टाधीश हुए। ये लोहाचार्यजी उन्हीं श्री गुप्तिगुप्त मुनिके शिष्यप्रशिष्योंमें हैं और इनके शिष्य प्रशिष्योंमें अर्ककीर्ति मुनि हैं। जिनको अकालवर्ष प्र. कृष्णके पोता गोविन्द तृतीयने इन्दीगुरदेशमें जल मङ्गलग्राम दिया, ताम्रपत्रमें लिखा है । इस जटाजूट इतिहाससे इतना पता लगता है कि इन उत्तम पुरुषोंसे लंबेचजातिका घनिष्ट सम्बन्ध मिलता है तथा काञ्चीदेश दक्षिणमें तो है परन्तु जूना गढ़की तरफ या अन्य किसी जगह लम्बकाश्चन नगरके नामका अबतक उल्लेख नहीं मिला है। दूसरे भद्दलपुरका अपभ्रंश भदावरन हो जो भद्दलपुर बासियोंके वसनेसे यह अटेर गवालि Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * यर आदि प्रदेश भदावर कहलाया हो यह भी एक अन्वेषण करनेको बात है। प्रमार वंशमें राजा विक्रम हुए जिनका संवत् चालू है उनके नाती (पोता) गुप्तिगुप्त मुनि थे जिन्होंने सहस्र परवार थापे ऐसा पट्टावलीमें लिखते हैं। और वे विक्रम संवत् २६ में हुए और उनके शिष्य प्रशिष्योंमें संवत् १४२ में लोहाचार्य लम्बेच हुए इन्हींने हिस्सारके पास अग्रोहामें अग्रवाल जैन स्थापे तथा बघेरवाल जैनी किये और पटिया लोगोंकी बहियोंमें परमारोंको भी यदुवंशी क्षत्रिय लिखा है। तथा राजा भोज और श्रीभद्रबाहु स्वामी पंचम श्रुतकेवली के शिष्य राजा चन्द्रगुप्त मौर्य वंशीय क्षत्रिय परमार वंशकी शाखाओंमें थे। जो चन्द्रगुप्त राजा विक्रमके वंशधर होते हैं परमार वंशकी शाखाएँ ३५ थी और वे श्री महावीर स्वामीके समकालीन राजा श्रेणिकके समयमें भी वर्तमान थीं ऐसा टाड साहबने लिखा है । और बिम्बसार राजा श्रेणिकके पुत्र कुणिक ( अजात शत्रु ) ने पाटलीपुत्र ( पटना ) राजधानी बनाई और आरा मसाढ ( महासार ) वैशाली कुन्डग्राम ये सब निकटवर्ती प्रदेश है इन उपयुक्त स्थान तथा क्षत्रिय राजाओंसे तथा इन Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३६ क्षत्रिय राजाओंके गुरुओंसे इन लम्बेच जातिका ऐतिहासिक दृष्टिसे धनिष्ट संबंध मिल रहा है तथापि हमारी बुद्धि इस समय बड़े ही भ्रमर चक्रमें पड़ी हुई है जबतक राजा लोमकरणका पता नहीं चलता तब तक अन्वेषणीय है परन्तु अब लंबेचूजातिके वंशधरोका उल्लेख विशेष रूपसे मिलने लगा है एक यह भी विशेष बात है कि वर्तमान समयमें लंबेच घरोंकी बस्ती १००८ श्री नेमिनाथ स्वामीकी जन्म नगरी सूरीपुर ( वटेश्वर ) के आसपास ही निवास कर रही है यह निवास भी यादवकुल संतान सूचित करता है यद्यपि वर्तमान राष्ट्र कूट आदि वंशोंकी वंशावलीमें राजा लोमकरण का उल्लेख नहीं मिला है तथापि आचार्योंकी पट्टावलियों से तथा पटिया पुरोहित लोगोंकी हज़ार आठसौ वर्षोंकी बहियों से तथा सैकड़ों वर्षों से सन्तान दरसन्तान भाट लोग लम्बेचजातिके संघी रपरिया ठाकुर, चन्दवरिया ठाकुर वकेवरिया ठाकुर इत्यादि कहकर लोगों को पुकारते आते हैं और वंशावली विरद बखानते हैं; इत्यादि प्रबल प्रमाणों से निर्विवाद सिद्ध है कि लंबेच जाति यादववंश क्षत्रिय हैं । यह एक और भी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બ્રે * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * प्रबल प्रमाण है कि अन्य समस्त जैन जातियों में लंबेच जातिके समान विवाह शादी आदि मंगल कार्यों में समय समय पर नियमित कायदे से पायेवन्दी से जुहारू करनेकी मुख्य रूप से प्रथा नहीं है। हाँ लंबेचू जातिके समीपवासी खरौआ तथा गोलालारे आदि जातियों में भी कुछ कुछ प्रथा है जिस जुहारू शब्द को युद्धकारु का अपभ्रंश बताते हैं अथवा राग द्वेष मोहर्त्ता परस्पर विनयवाची शब्द कहते हैं जिसको श्री भद्रबाहु संहितामें ऐसा लिखा है: “श्राद्धाः परस्परं कुर्युर्जु हारुरिति संश्रयम्” इसका अर्थ यह होता है कि जैन धर्म की श्रद्धा रखने वाले सहधर्मी भाई परस्पर जुहारू ऐसा कहकर परस्पर विनय करें और जैन धर्म क्षत्रिय धर्म है अर्थात् जिन्होंने अपनी आत्माको अजर अमर समझा है जो धर्मरक्षा के लिये आत्मोत्सर्ग करनेके लिये तत्पर हैं वेही क्षत्रिय हैं उन्हीं निर्भीक सप्तभयरहित शुद्ध सम्यग्दृष्टियों का धर्म है । यद्यपि जैनधर्म प्राणी मात्रका धर्म है परन्तु पूर्णरूपसे जो पालन करेगा वहीतो उस धर्मका पात्र समझा जावेगा । क्षतात् त्रायत Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४१ इति क्षत्रं कुलं क्षत्रे कुले जातः क्षत्रियः जो कुल वंश घावसे रक्षा करें अर्थात् बलवानसे सताये हुये निर्बलको बचावें व रक्षा करें वही क्षत्रिय है अर्थात् दया धारक है वही क्षत्रिय है इस लिये अहिंसकोंका धर्म जैन धर्म है वह समस्त जैन जाति में पाया जाता है। धर्म रक्षार्थ आत्मोत्सर्ग वे ही कर सक्ते हैं जिनके रागद्वेष मोह नहीं है विशेषकर ममत्व-रहित क्षत्रियही हो सकते हैं इस लिये जैन धर्म श्रद्धालुओं को जुहारू कहकर परस्पर विनय करना लिखा है अन्य जातियों में धीरे धीरे प्रमाद् भूल करते करते प्रथा उठ गई है लबेम्बूओंमें कुछ नियमित रूपसे अबतक चली आती है परन्तु Marathi संगति से जयगोपालकी देखा देखी जयजिनेन्द्र उच्चारण करना प्रारंभकर दिया है। यह कोई परस्पर विनय - वाचक शब्द नहीं है। देखा देखी इस प्रथासे पुरानी प्रथा जुहारुकी लम्बेचुओं से भी उठने लगी है सो ठीक नहीं । अपने स्वत्वको स्मरण कराने वाली प्रथाका उठाना उचित नहीं इत्यादि उपर्युक्त हेतुओंसे यह लम्बेचू जाति यादव वंश संतान हैं यह तो निर्विवाद ही सिद्ध है यद्यपि इतर लोगों को यह बात चाहे प्रकट न हो परन्तु खरउआ गोलालारे Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * लम्बेचू आदि जातियोंके वृद्ध पुरुषों के मुखसे हमने स्वयं सुना है कि वे कहते थे तुम यदुवंश में हो और हम खरउआ इक्ष्वाकुवंश में हैं । लम्बेच यदुवंशी हैं इस बातकी प्रसिद्धि पहिले ही से है और इस समय प्रमाण उपस्थित होनेसे और भी ढ़ता हुई है । श्री सूरीपुरकी गुर्वावली में प्रमुख प्रसिद्ध श्री लोहाचार्य जी श्री लोकचन्द्रा चार्य तथा रामकीर्ति जी और गोपाचल दुर्ग पर श्री ललितकीर्ति आचार्य इन ४ चार आचार्यों ने लम्बेचू जाति में जन्म लिया है ऐसा पढ़कर निःसीम हर्ष हुआ है । हम आशा करते हैं कि जाति नेतागण यह बात सुनकर अपनेको अतिशय कृतार्थ मानेगे । लम्बेचू जातिके लिये यह बड़े गौरव की बात है जो ऐसे चरित्रशील प्रसिद्ध दिग्गज विद्वान इस जाति के वंशधर थे और भी इस जाति की गौरवता की बातें ज्ञात होंगी जब जातिके ८४ (चौरासी) गोत्रोंकी वंशावलि तथा उनके पुण्य कृत्यों का वर्णन करते हुये पवित्र चरित्र वर्णन करेंगे ४२ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लम्बेचू जाति वंशावली श्रीयुत पं० उलफति राय जी संघी अटेर (भिण्ड) निवासी ____वर्तमान बम्बई निवासीसे प्राप्त श्रीनेमिनाथ स्वामी के वाढे में श्रीनेमिनाथ व श्री कृष्ण वंश में राजा लोमकरण भये तिनसे लम्बकाञ्चनदेश प्रख्यात भया इसी से लम्बेच वंश कहाया तिन से द्वादस पुत्र भये तिनही से द्वादशगोत्र कहाये तिनके नाम प्रथम सोनी १ वजाज २ रपरिया ३ चॅदवरिया ४ राउत्त ५ बके वरिया ६ मुजवार ७ सोहाने ८ चौसठयारी ६ बरोलिहा १० पचोलये ११ कुअरभरये १२ येद्वादशगोत्र सन्तान प्रति सन्तान राजा लोभकरण के वंशधर द्वादश पुत्रों से भये इन्ही में से एक एक सत्ता भया जैसे (१) प्रथम सोनपाल से सोनीगोत्र चला तिनके ७ सात पुत्र भये सोनी १ संघी २ पोद्दार ३ चौधरी ४ तिहैया ५ मोदी ६ कोठीवाल ७ यह प्रथम सत्ता हुआ इसका तात्पर्य यह है कि प्रथम सोनपाल से सोनीगोत्र चला तो सोनपाल के सोनी संघी आदि सात पुत्र भये ऐसा कहा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ * श्री लँबेचू समाजका इंतिहास * marrrrr.mmmmmmmmmmmmmm इसका यह अर्थ समझना कि प्रथम सोनपालजी के सन्तान प्रतिसन्तान में कोई राजा महाराजाओं की दी हुई पदवियों से और कोई नामसे और कोई कारोवार से ( व्यवसायके ) नामसे एक में से ये ७ गोत्र प्रसिद्ध हुए इन सातों ७ गोत्रोंके वंशधर प्रधान पुरुषोंके नाम पृथक् २ दूसरे हुए हैं जो कि दूसरी अन्यत्र से प्राप्त वंशावली से ज्ञान होगा क्यों कि पोद्दार और चौधरी किसी पुत्र का नाम नहीं है किन्तु प्राप्त पदवी का है और यह पदवी किस पुरूष ने प्राप्त की यह दूसरी विशेषवंशावली से ज्ञात होजायगा इसी इतिहास में हम लिखेगें इसी प्रकार अन्य अन्य सत्ताओं का भी आशय समझना । ___ (२ ) श्रीवीरसहायजी के सात ७ पुत्र भये वजाज १ पटवारी २ गोहदिया ३ मुड़हा ४ वड़ोघर ५ सेठिया ६ तीनमुनैय्या ७ यह दूसरा सत्ता वजाज का श्रीवीरसहाय जी से प्रवर्तित हुआ। ___(३) रतनपाल जो परियाके सत्ताके कुदरा १ अरमाल २ रुखारुव ३ शंखा ४ कसाहव ५ (मानी) कानीगोह ६ सुहाभरे ७ यह तीसरा सत्ता श्रीरतनपालजी से चला। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * (४) चौथे पुत्र श्रीचन्द्रमणि (चन्द्रसेन ) ये चन्द्रपाल के सत्ता के चन्दवरिया १ काकरमत्तले २ भत्तेले ३ सागर ४ कसोलिहा ५ असैय्या ६ वित्तिया ७ यह चौथा सत्ता श्रीचन्दमणि जी से प्रवर्तित हुआ। ( ५ ) पाँचबेपुत्र जगसाहके राउत १ भुंसीपादा २ बावउतारू ३ गगरहागा ४ जीठ ५ गुरहा ६ पिलखनिया ७ यह पांचवां सत्ता जगसाहसे प्रवर्तित हुआ। (६ ) छटचे पुत्र दीपचन्द्रजीके सत्ताके बकेवरिया १ गुजोहुनिया २ गुशोनिया जमेवरिया ३ देमरा ४ माहोसाह ५ टाँटे बाबू ६ जमसरिया ये ७ सात हुये। । (७) सातवे पुत्र श्री मानपालके मंजवार १ मेहदोले २ जखनिया ३ छढ़िया ४ वेतरवाल ५ दीदवाउरे ६ दुधइया ७ यह श्री मानपालसे सत्ता चला। ___(८) आठवे पुत्र श्री हरीकरणके सत्ताके सोहाने १ कोहला २ भजरोले ३ कुर्कुटे ४ पडुकुलिया ५ भण्डारी ६ जैतपुरिया ७ ये सात हुये। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * (६) नवमे पुत्र श्रीचम्पतरायके चोसठियारी १ कचरोलिया २ हिम्मत पुरिया ३ बुढ़ेले ४ हरोलिया ५ बघेले ६ इंदरोलिया ७ ये सात हुये। (१०) दशवे पुत्र श्रीमधुकरसाहके वरोलिया १ वेदबावरे २ रुहिया ३ घिया ४ विलगइयो ५: कारे ६ शतफरिया ७ ये सात भये। (११) ग्यारहवे पुत्र श्रीपीताम्बरदासके पचोलये १ उड़दिया २ वैमर ३ कालिहा ४ मुरैय्या ५भण्डारिया ६ इटोदिया ७ ये सात भये। (१२) बारहवे पुत्र. श्रीगुमानरायके सत्ताके कुंअर भरये १ तिलोनिया २ सलेरिया ३ हरसोलिया ४ सिंघी ५ पुरा ६ मझोने ७ ये सात भये । वि० संवत् ११५२ के सालमें पांच कुँअर मारवाड़ देश सामरसे आये जेठे तो केवलसिंह इन्होंने इटावेमें राज्य किया दूसरे जगरामने मैनपुरीका राज्य किया तीसरे वलराम जिलाएटाके राजा हुये चौथे राजसिंह रिजोरके राजा भये पाँचवे चन्द्रपाल चन्दवारके राजा हुये और श्याम Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # ४७ सहाय चन्दवरिया चन्दवारके दीवान हुये हाउलीराय इटावा के दीवान हुये हाउलीरायने यज्ञ प्रतिविम्ब प्रतिष्ठा आरम्भ किया गजरथ निकास्या मन्दिर स्थापित किये प्रतिष्ठा कराई सम्बत् १२७२ की सालमें उनके पुत्र अजमतसहाय का व्याह सोनीगोत्र में हुआ चन्दवारमें जिसमें ५०६००० पांचलाख नोहजार रुपया खर्च हुआ यह व्याह संवत् १९३०७ की सालमें हुआ इटावासे चन्दवार तक उनके पुत्र मुकुटमणि दीवान हुये उनके पुत्र वलवीरशाह उनके पुत्र लछोल शाह उनके पुत्र दो भये सहसमल १ रामसहाय २ सहसमल तो इटावा के दीवान रहे और रामसहाय चकन्नगर के दीवान रहै सहसमल के पुत्र जशवन्तशाह उनके पुत्र कमलापति उनके पुत्र खड्गसेन उनके पुत्र आशकरण उनके पुत्र गुन्तशाह भये उनको राणा ने भैय्याजूकी खिताव दई दीवान भगुन्तसाहके ७ सात पुत्र भये परतापरुद्र परतापनहर के राजा भये और अगरसाह करोली राजा भये यह संवत् १६११ तकका हाल है गाड़ीका हाल मालूम नहीं । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी वंशावली ( श्रीमान् बाबू उलफतिरायजी सिंघई करहल द्वारा प्राप्त लँबेचुओंकी सन्तान उत्पत्तिका ब्योरा) राजा लोमकरण हुये लमकाञ्च देश ( लावा ) में वि० सम्वत् ३५३ में हुये उनकी सन्तान प्रतिसन्तानमें प्रसिद्ध ७ सात पुत्र हुये तिनसे गोत्र हुये तिनके नाम १ प्रथम सोनी २ चन्दोरिया ३ रपरिया ४ चकेवरिया ५ वजाज ६ राउत ७ पचोलये इन सातोंसे जो पृथक् पृथक सन्ताने हुई उनका न्योरा इस भांति है सो लिखा मुख्यतया प्रसिद्ध ये सात गोत्र ही है। (१) प्रथम सोनपाल द्वितीय नाम ललशाह सोनी गोत्र पुत्र पहिलेच्याहरू गभूरमलजी इन्होंने सरकारी नोकरी नहींकरी अपने घर पर ही रहै और पूजा प्रतिष्ठा कराई तव पिताने कही आप बड़े हो पिता दाखिल हो आपकी इजतको वे नहीं पाशक्त हैं ये सोनी रहै । (२) सोनपाल । ललशाहजीने दूसरा व्याह किया ताके ७ सात पुत्र भये प्रथम सँघई पदस्थ धारी हमीर जो राजाके Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.... * लॅबेचू समाजका इतिहास * मंत्री थे निम्नलिखित ६ और हमीर तथा गभूरमलजी इन आठो भाइयोंने बापकी पक्ष तथा राजाकी पक्षसे ( मदतसे ) जिन पूजा प्रतिष्ठा कराई सर्व भाई विरादरीकी बड़ी खातिरकी इससे हमीरको संघाष्टक पद मिला अर्थात् श्रावक धर्म जिनधर्म पालने वाले श्रावक सङ्घके अधिपति होनेसे संघी पदमिला जब यहाँ सिकस्ति पड़ी तव अटेरको गये यह सोनियोंमेंसे सङ्घी गोत्र हुआ। (३) तीसरा पोद्दार गोत्र श्रीभागीरथजी राजाके यहाँ नोकरी पेसा ( व्यावसाय) गाउनकी मालगुजारी रुपये पोद्दारके जमा होना जिससे पोद्दार गोत्र हुआ पीछे पोद्दार हतिकांति ( हस्तिक्रन्त ) गए कोई समयमें अच्छा शहर था चम्मिल ( चर्वणा ) और जमुना नदीके बीच चम्मिलक किनारे वसाहै जिसका उल्लेख अभी कुछ दिन पहले जैनमित्रमें दिया था ३१ वर्ष हुआ जहां पर श्रीमान् बाबू मुन्नालाल द्वारकादासजी पोद्दारकी जमीदारी है और उनके पूर्वजोंका विशाल जिनमन्दिर है जिसकी प्रतिमायेंजी बहत स्थानोमें भाई लोगोंको आवश्यक समझ उन्हों नेदी है और अधिकतर इटावामें एक श्रीविशाल दि०जिन मन्दिर Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास # और धर्मशाला बनवाकर वहाँ श्रीजिन मन्दिरजीमें विराजमान की है। इन्हीं बाबू मुन्नालाल द्वारकादासने कुण्डलपुर ( बिहार ) भगवान महावीरकी जन्मनगरीमें दिगम्बर जैन धर्मशाला और छोटा जिनमन्दिर बनवाया था। अब उसको बड़ा कर दिया है और धर्मशालाके दरवाजेपर इन्हींका शिलालेख है । (४) मोदी गोत्र नाम सदीन ( नोकरी पेसा ) व्यवसाय राजा साहवकी दुकान पर चुनीवगेरह रसदकी सेना आदिके लिये व्यवस्था करना पीछेसे मोदी कोसाणगांउ बसे । (५) चोधरी गोत्र हनुमन्त सिंह ( नोकरी पेसा ) व्यवसाय राजाको जिस वस्तुकी आवश्यकता हो सो चोधरी से कहना हाथी घोड़ा रथ सोना चांदी मोती मूंगा आदि सब देना पीछेसे भिंडमें वसे । (६) कोठीवार गोत्रन्नतम वंशधर खड़गजीत ( नोकरी पेसा) राजा साहबको असबाव कोठामें जमा देना तथा हाथी रथ सोना चाँदी आदि देना पीछे हंतिकाँत बसे । ( ७ ) तिहैय्या गोत्र नाम बंशधर रज्जूमलजी जिन Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री वेचू समाजका इतिहास * ५१ प्रतिष्ठा पूजा कराई दश हजार रुपया लगाया रथ चलवाया अपने तीसरे हक का रुपया राय तथा याचकोंको व कंगीरो को देदिया ( दान किया ) तिससे तिहय्या कहलाये पीछे विडये वसे और आठवे निष्कलंकका वंश नहीं चला ये सात ७ गोत्र सोनपालके वंश सोनी गोत्रमें से हुये यह प्रथम सत्ता हुआ। (२) चन्दवरिया गोत्र ( चन्दोरियाओं की) उत्पत्ति सत्ता ७ सात कुँअर भरये १ मुजवार : रूखारुआ ३ वरोलिया ४ असैया ५ सेठिया ६ सोहाने ७।। (३) तीसरा गोत्र रपरियोकी उत्पत्ति सत्ता। चोसठियारी १ जैतपुरिया २ गोहदिया ३ जखनिया ४ काँकरमत्तले ५ छेदिया ६ दीदवावरे ७ । (४) गोत्र वकेवरियाओं की उत्पत्ति सत्ता । गगर हागा १ भुसीपद २ हरोलिया ३ सिंहीपुरा ४ माहोसाहू ५ संखा ६ भत्तेले ७।। (५) गोत्र वजाजनिकी उत्पत्ति सत्ता। वित्तिा १ पिलखनिया २ टाटेवाबू ३ जीट ४ कोलिया ५ पटवारी ६ गुझोनिआ ७। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * (६) राउत गोत्र की उत्पत्ति सत्ता ७ रूहिया १ सेलरिया २ कुदरा ३ सलरैय्या ४ वड़ोधर ५ समइया ६ जखामिहा ७। (७) पचोलये गोत्र की उत्पत्ति सत्ता ७ कसाव १ वैसर २ गुरमुहा ३ वोमनतारे ४ तीनमुनैया ५ देरिया ६ मुरहा ७ । इसी पचोलये गोत्रकी उत्पत्ति सत्तामें चोथा तीनमुनया गोत्र है इसो तोनमुनैय्या गोत्र के वनारसवाले खड़गसेन उदैराज थे जिनका वनवाया ( भेलूपुर ) वनारसमें जिन मन्दिर है वहाँ उन्होने जिन विम्ब प्रतिष्ठा सं० १६२५ विक्रम संवत् में गद्दीनशीन गुरू श्रीमान् भट्टारक राजेन्द्रभूषणजो द्वारा कराई जो गोपाचल ( गवालियर ) और सूरीपुरके विश्व भूषण जगद्भुषण के पट्ट परम्परामें थे उस मन्दिरकी श्री जिन प्रतिमाका शिला लेख इस प्रकार है। श्री अजित नाथाय नमः संवत १६२५ वैशाख शुक्ल ७ बुधवासरे श्री मूल सङ्घ वलात्कार गणे सरस्वतीगच्छे कुन्द कुन्दाम्नाये गोपाचल पट्ट श्रीमद् भट्टारकजिनेन्द्रभूषणजी देवास्तत्पट्ट श्रीमद्भट्टारक महेन्द्र भूषणजीदेवास्तत्पट्ट Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ५३ श्री मद्भट्टारक राजेन्द्र भूषणजी देवास्त दुपदेशात् लम्बकञ्चु कान्वये तीनमुनैय्या गोत्र शाह जीवनदासस्तत्पुत्र श्चन्द्रसेनिस्तत्पुत्रः सीतारामस्तत्पुत्रः खड़गसेनिस्तद् भ्राता उदयराज स्तत्पुत्रौ पुरुषोत्तमदासलक्ष्मीचन्द्रौ तैः वाराणसी नगरे प्रतिष्ठा कृता कोरिता । ऐसा लेख प्रायः सब प्रतिमा ओ और यन्त्रों पर है। इसप्रकार ४६ गोत्र प्रसिद्ध है १ लँबेच १७५३६६६६ दीनार ( मोहर ) का स्वामी था उसने धनका मद किया तत्पश्चात् लम्बेचओंके संघमें कोट्यधीश नहीं हुआ। इस पट्टावली में श्रीमान् पं० उलफति रायजी संघई द्वि०नाम पं० नगपालजी भिण्डसे उपलब्ध बंशावली से इस प्रथम सोनीसत्ताके ७ सत्ताओंका विशेष कथन है और उनके वंशधरोंके नाम हैं और कुछ कुछ नामों में भेद भी पाया जाता है। _____ अब दूसरी जगह से प्राप्त बाबू उलफतिराय जी संघई करहल द्वारा तीसरी उपलब्ध वंशावलीका जिससे कुछ और भी पुरातन इतिहास की गंभीरता और विशेषता मालूम होती है। उसका ब्योरा लिखते हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लँबेचू वंश की आदि उत्पत्ति प्रथम गोत्र काश्यप १ दूसरा वत्स २ तीसरा विजयीकृष्ण ३ चौथा गौतम ४ पांचवाँ भारद्वाज ५ छठवाँ वशिष्ठ ६ सातवाँ शाण्डिल्य ७ आठवाँ गर्ग ८ नवमाँ चान्द्रायण ६ दशवाँ कौशिक १० ग्यारहवाँ उपमन्यु ११ बारहवाँ पुरांक्ष्वी १२। ऐसे ये १२ गोत्र भये । फिर १२ सत्ता भये तिनमेंसे प्रत्येकमें से सात सात अलल भये तिनके नाम सोनी १ संघई २ कानूनगो ३ पोद्दार ४ चोधरी ५ तिहइया ६ मोदी ७ कोठीवार ८ रपरिया ६ चन्दोरिया १० बजाज ११ वकेवरिया १२ पटवारी १३ पचोलये १४ राउत १५ गोहदीया १६ मुढैया १७ कुंअर भरये १८ मुजवार १६ चोसठियारी २० बड़ोघर २१ सेठिया २२ तीनमुनैया २३ कुदरा २४ भुसीपद २५ बावतारू २६ गगरहागा २७ रूखारुये २८ सुहाने २६ शंखा ३० कांकरभत्तेले ३१ बरोलिया ३२ भत्तले ३३ असइया ३४ रित्तिया ३५ छेड़िया ३६ पिलखनिया ३७ जीट ३८ गुझोनिया ३६ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ५५ गुरहा ४० माहोसाहू ४१ टाटेबाबू ४२ कोलिहा ४३ जखेमिहा ४४ हरोलिया ४५ दीद वावरे ४६ जेतपुरिया ४७ रुहिया ४८ मुरहइया ४६ वधेला ५० वलगैय्या ५१ सलरैय्या ५२ कोलिहा ५३ देमरा ५४ गगरहागा ५५ हिंडोलिहा ५६ सिंहीपुरा यह छप्पन तो अब मौजूद है। २८ बरबाद हो गये तासोतिन के नाम हू नहीं लिखे यह ८४ अलल भई। यद्यपि इन वंशावलियोंमें ऐतिहासिक दृष्टिसे विशेष प्रामाणिक और क्रमबद्ध और विशेष वृत्तान्त सम्बन्धित पूर्वलिखित ही मालूम होती है तो भी उसके सिवाय उपर्युक्त वंशावलियोंमें भी उस प्रथम वंशावली से कई विशेष वृत्तान्त और ऐतिहासिक गूढ़ रहस्य इसमें उपलब्ध हैं और राधकाभाव से सम्भावित विशेष प्रमाणता भी पाई जाती है। इस वंशावलीमें गौतम, भारद्वाज बशिष्ठ इत्यादि जो गोत्रक है उन नामो के धारक यातो पूर्वज वंशधर हुये और या इन नामोंके कोई तो वंशधर हुये और कोई गुरू हुये उनके नामसे गोत्र हुये और गौतम भारद्वाज वशिष्ठ ये सब जैन ऋषि हुये ऐसा मालूम होता है क्योंकि Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ये ही मुनि जैनसिद्धान्तके प्रथमानुयोग शास्त्रोमें जैन थे । ऐसा भी विदित होता है जैसे अष्टादश वैष्णव सिद्धान्तके पुराणों के कर्ता गौतम ऋषि प्रथम अवस्था गृहस्थाश्रममें अजैन थे और श्री १००८ श्रीमहावीर स्वामीके मुख्य प्रसिद्ध प्रथम गणधर हुये इसका कुछ वृत्तान्त ऐसा है कि जब महावीर स्वामीको केवल ज्ञान हुआ और वाणी न खिरे तब इन्द्र ने अवधि ज्ञानसे मालूम किया गणधर बिना वाणी नहीं खिरती तब इन्द्र ने काज्यं द्रव्यषट्कं नव पदसहितं जीव षट्काय लेश्याः यञ्चान्येचास्तिकाया व्रतसमितिगति नचारित्रभेदाः इत्येत्तन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितं प्रोक्तमर्हद्भिरीशैः प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशतिचमतिमान् यः सर्वशुद्धदृष्टिः १ यह श्लोक लिखकर एक देवको वालक का रूप धारण कर उस श्लोक का अर्थ पूछने गौतमजी के पास मेला पूछा तो उसका अर्थ श्री पं० गौतमजीसे सम्बन्ध बिना मालूम भये अर्थ नहीं लगा। तब झुंझला कर उन्होंने कहा तुम्हारे गुरू के पास ही चलते हैं। वहीं आये श्री वीर भगवानके समव सरण के आगे मान स्तम्भ का दर्शन करते ही मानगलत भया समवसरणमें भीतर जाकर नम Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ५७ स्कार किया और दीक्षा ली मुनि पद धारते ही चार ज्ञान हुये मति श्रुत दो ज्ञान तो सब जीवोंके होते ही हैं । अवधि और मनःपर्ययय दो ज्ञान उत्पन्न और भये अर्थात् अवधि ज्ञानावरण मनःपर्यय ज्ञानावरण दोनों आवरण हट गये तब अवधि ज्ञान मनापर्यय ज्ञान प्रगट भये। तब गौतम गणधर भये श्रीमहावीर भगवान की वाणी खिरी मेघ गर्जनावत निरक्षरी सब के कानोंमें पहुंचते ही अपनी २ भाषारूप परिणम जाती है तो जैसे गौतम स्वामी जैन ऋषि भये ऐसे ही और भी होंगे। ___ श्री चोवीसतीर्थक्करोंके १४५३ चोदह सौ पन गणधर गणेश भये। इन्होंमें ये भी हों ता आश्चर्य क्या श्रीमान् गौरीशंकर हीराचन्द ओझा जो ६२ भाषाके जानकार थे जिन्होंने उदयपुरका इतिहास लिखा । पचीसों संस्कृत काव्य और फारसी उर्दू तवारीखे तथा मुहणोत नेणसी आदि क्षत्रिय राजाओं की लिखी हुई ख्यातें तथा अंग्रेजी तथा टाँड साहब आदि लिखित टाड राजस्थान आदि की ऐतिहासिक गलतियाँ लिखी हैं और भाटों की ख्याते पृथ्वीराज वीरविनोद अकबर नामा आदि रासे Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ भी लँबेचू समाजका इतिहास * जिन्होंने देखे इन सबका उल्लेख उदयपुर इतिहास द्वि० खण्ड और प्र० खण्डमें किया है। वे लिखते हैं कि क्षत्रियों के गोत्र कुछ तो वंशधरों से हुये कुछ पुरोहित ऋषियोंसे हुये और पीढीमें साखायें बदलने पर भी विवाह सम्बन्ध भी होने लग जाते। उन्होंने रणथंभोरके हमीर अर्थात् चन्दाने शाखावाले चोहान की पुत्री जो अरिसिंह को व्हाही थी, उसके पुत्र हमीरको और मालदेवचोहान जोउदयपुर मेवाड़के राजा थे उनकी पुत्री हमीरको व्याही और सिंहल द्वीप (सिलोन) लंकाके राजा हमीर चोहानकी पुत्री भीमसिंह राणाको व्याही । इत्यादि कथनसे चोहानों का और गुहेल वंशीय शीसोदे राणाओका सम्बन्ध और राज्य बहुत २ दूर तक था। सोनगरेलम काश्चन (लाँवा) बृदीमें चोहानोकी एक शाखा हाडोकेचोहानोका राज्य था। नारनोल, अजमेर गुजरात वृन्दावती बूंदी मेवाड़, रणथंभोर, मंडोर, (मंडावा) संचालक, जालोर, चित्तोर, मालवा, बंदी इन प्रदेशों में सब जगह चोहानोका राज्य रहा और उन्हींमेंसे अन्तरवेद इटावा, चंदवाड़ आदिमें राज्य रहा । गंगा जमुनाके बीचके प्रदेशोंको अन्तरवेद कहते हैं । जब राणा संग्राम Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लैंवेचू समाजका इतिहास * ५६ सिंह (सांगा) से वि० सं० १५८४ की सालमें १५८४ से ८८ तक जब बावर बादशाह के साथ लड़ाई छिड़ी तव राणा संग्रामसिंह ( साँगा ) के सहायतार्थ अनेक राजा पहुँचे। तब अन्तरवेदसे चन्द्रमाण और मणिकचन्द दो चोहान सरदार सेना लेकर गये और इनमें कोठारिया (भण्डारिया), वेदला आदिकी प्रशंसा लिखी है। ये उस लड़ाईमें मारे गये। 'हाड़ा' हाड़ोती (हाड़ावती) हड़दाके चोहान वंश है और (मण्डल) गुजरात, गिरनार प्रदेशके राज्यके राजा मण्डलीकको राणा कुम्भा (कुम्भकर्ण) की बहिन रमाबाई ब्याही थी। वह मण्डलीक उसको तंग करता था। तब पृथ्वीराज उस मण्डलीकके पास समझाने गये इत्यादि । जटाजूट कथनसे परस्पर विवाह सम्बन्ध थे और गुहिल वंश तथा चोहान वंशका घनिष्ठ सम्बन्ध था और निकटतासे राणा कहे जाते थे। मण्डलीक राजा चोहानों में कहा-श्री गिरनार पर्वतपर बीसलदेव मण्डलीकके बन वाये श्री जिनमन्दिर लिखे हैं श्री जैन सिद्धान्त भास्करमें अणुव्वयवदीपके अमें राय-रणमल्ल राठोर भी यदुवंशकी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * शाखाओंमें है। यद्यपि बृहद्धरिवंशपुराण मे वाहुल्यताके कथनसे कहा है कि द्वारिकाके भस्म होते और श्रीकृष्ण महाराजके तीर लगते जरत् कुमारसे कहा कि हमारे वंशमें तुम्हीं बचे हो, सो तुम पांडवोंके निकट जाओ, वे तुम्हारा राज्याभिषेक कर यादवोंकी गद्दीपर बैठारेंगे वंश रक्षा होगी। यह कथन वाहुल्यतासे है। क्या छप्पन करोड़ यादव लोटकर सब आ जाने सके हैं ? यदि सब ही आ गये थे, तो फिर जरन्कुमार क्यों बचे ! प्रलय कालमें भरत ऐरावत क्षेत्रमें सबका नष्ट होना लिखा है ७२ जुगल मनुष्योके देव ले गये, रक्षा की। फिर भी त्रैलोक्यसारमें लिखा है कि पर्वतोंकी कन्दराओंमें जो छिप गये वे भी बच गये। तो इसी प्रकार बहुतसे यादव बचे होंगे। मुझे तो इतिहासके देखें राष्ट्र (राठोर) के शब्दक साथ महाशब्दसे महाराष्ट्र ( मरहाठा ) हो गया। कर्नल टाड साहबने राठोरोंको यदुवंशी जैनक्षत्रिय लिखा है और परमार और परमारोंके प्रतीहार खीची चोहानो में है तथा लम्बेचुओंके गोत्रोंमें एक बघेले गोत्र है। मुझे ऐसा मालूम होता है। वधेले एक जाति कहलाने लगी, जैसे एक Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * बुढेले गोत्रसे एक बुढेले जाति हो गई। श्रीमान् पंडित आशाधरजी वघरवाल थे। ये भी वघेलेमें से होंय, तो क्या आश्चर्य । वबेले ठाकुरोंके गोत्र तपासनेसे पता चले। ओझाजीने गुहिलोको सूर्यवंशी लिखा है, कोई विशेष विवरण नहीं दिया। मुझे तो यदुवंशकी ही शाखा मालूम होती है। क्योंकि लँबेचू वंशावलीमें भत्तले काँकर भत्तेले गोत्र है। यह भत्तले गोत्र भर्तृ भटका अपभ्रंश होने शके हैं और काँगा राणाके वंशके भटसे या कांकरोली गाँवके नामसे काँकर भत्तेले हो गया हो। इसका जिकर इतिहासमें आया है। कांकरोली रोड स्टेशन है । चित्तोरके तरफ ४८० पेजमें भर्तृ पुरीय मटेवरगच्छका जैनाचार्यका कथन भी है। बहुत गोत्र देशकी अललसे हैं देशकी अलल भी किसी विशेष पुरुषको लेकर हैं। जैसे रतनपालसे रपरिया और रपरी वसाई तिससे रपरिया, राजा चन्द्रपाल चन्द्रसेनसे चन्दोरिया और (चंदपाट चंदवार ) वसाई तासे चंदोरिया भये। इसी प्रकार पुरोहित और ऋषियों से गौतमादि गोत्र कहै। बशिष्ट ऋषि भी जैन श्रद्धालु होय तो क्या अन्देशा है। उन्होंने अपने योग वाशिष्ठ ग्रन्थमें लिखा है कि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ *श्री लॅबेच समाजका इतिहास - नाहं रामो न मेवांछा विषयेषु च न मेमनः । शान्तिमासितुमिच्छामि स्वात्मन्येवजिनोयथा ॥१॥ रामचन्द्रजी कहते हैं कि मैं राम नहीं हूँ ; क्योंकि रमन्ते योगिनोयस्मिन् सरामः जिसमें योगी लोग रमण करें, उसे राम कहते हैं। राम परमात्म पद वाचक है। मैं ग्रहस्थाश्रममें सीता सहित बैठा हूँ, तो क्या विषयोंमें मन है सो भी नहीं। मैं जिन भगवानके समान शान्ति चाहता हूँ। जैसे श्री जिन भगवान् अपनी आत्मामें लीन हो गये वीत. राग होना चाहता हूँ। तो बशिष्ठ महाराजके भी जिन धर्म प्रिय था। यदि जिन धर्म प्रिय न होता, तो ऐसे वाक्य क्यों लिखते । दूसरे ब्राह्मण विद्वानोंने जैन ऋषियों के नामानुकरणसे अपने ग्रन्थों में भी उन्हींके नामोंका अनुकरण किया हो। जैसे जैन पद्म-पुराणादिमें और वैष्णव पुराणोंमें भी हनुमान रामचन्द्रादिका कथन है ऐसी इसमें भी बात हो सकती है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ फेजल्लावादी रपरियोनकी वंशावली तथा आदि उत्पत्ति लिखते हैं आदि वंशावली गोत्रं विजयी कृष्ण अलल परिया प्रथम स्थान द्वारावती देशान्तर लम्बकञ्चन देश ( लाँवा ) वंश आदि इक्ष्वाकु प्रवर्तक यदुवंशी श्री नेमिनाथ स्वामीक बादेते उत्पत्ति भई। कृष्णवंशी राजा लोमकर्ण जिन्होंने लम्ब काञ्चन देश बसाया, तिनहींके नामसे लम्बेचू वंश कहाया। तिनके पुत्र ये द्वादश भये । तिनहींके नामसे ऊपर लिखे बारह गोत्र मये। फेरि तिनहींसे बारह सत्ता भये । यहाँपर स्पष्ट रूपसे गौतम भारद्वाजादि पुत्र लिखे हैं। उन बारह सत्ताओंके नाम___ सोनी १, बजाज २, रपरिया ३, चन्दोरिया ४, राउत ५, वकेपरिया ६, भुजवार ७, सुहाने ८, चोसठिथारी ६, बरोलिहा १०, पचोलये ११, कुअरभरये १२ । ये इन्हींमें से एक २ मेंसे सात ७ अललके हिसाबसे ८४ अलल भई, जिनको (वोरा) पीछे लिख चुके हैं। प्रथम Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * लम्बकाञ्चन देश छोड़ो। एक सो १४६ वि० संवत्की सालमें देश मारवाड़ हृढाड़ देशमें आया। वहाँ ६६६ वर्षताई रहै इक्कीस पीढ़ीताई वहाँ ही रहै। पीछे जब उस देशका राजा पूरव देश अन्तरवेदमें आया । पाँच कुंअर तिनके साथ सब आया। सर्वत्र लम्बेचू वंश संवत् वि० ११५२ की सालमें चन्दवरियाओने चन्दवार बसाई है जो कि फिरोजावादके पास है। रपरियाओंने रपरी बसाई, जो वोरंगीघाट बटेश्वर सूरीपुरके जमुनाके घाटसे उत्तर तटमें है। रपरिया ५ तरहके भये। एक तो वंश रायसेन बैठो, दूसरो युरोंग, तीसरो कचनाउर, चोथो फफून्द, पाँचवो फैजाबाद बैठो। ये कर्मसेनके पाँच ५ पुत्र भये। वि० संवत् १२७३ की साल में रपरी नगरमें थे। तिनही वंशज पाँच तरहके परिया कहाये। जामजीभानुके रायसेन कहाये अजमति सहाय मुरोग आये । वीरभानु कचनावर आये। नाहरराय फंफूद आये । भूपतिराय फेजल्लावाद आये । तिनके पुत्र सुमेरुसाह व शक्तिसाहने रपरी नगरमें गजरथ चलवाया, प्रतिष्ठा करवाई संवत् १५०० की सालमें। तिनके पुत्र भण्डनसाह Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * तिनके पुत्र नागरनन्द तिनके पुत्र जगमणिसाह तिनके पुत्र पूरणमल तिनके पुत्र साहिभानु तिनके मुकरणदेव तिनके पुत्र जगमेद प्रकाशराय वटेश्वर वरीपुर आये। तिनकी सन्तानके बटेश्वरवाले रपरिया कहाये। जगन्मेदके पुत्र जागमल भये तिनके पुत्र नन्दसाह व मथुरामल नन्दसाहके पुत्र उम्मेदराय तिनके पुत्र मानिकचन्द व बाहकराम तिनके पुत्र सोदास तिनके पुत्र कमलनयन तिनके पुत्र श्यामचन्द व युगलकिशोर तिनके पुत्र अर्जुन व रूपराम तिनके पुत्र नागरमल व केशोराम मकसूदन तिनके पुत्र रायकरण व अमानतराय व जुझारसाह व कामताप्रसाद तिनके रोशनदेव व अजायवदेव तिनके पुत्र सुरजनसाह तिनके पुत्र जयरामदास व शालिगराम व मुकुन्दमणि व अगरशाह तिनके पुत्र रोयचन्द तिनके पुत्र गुमानराय तिनके पुत्र मनोहरसाह व लीलाधर व भागीरथ भागीरथके तेजराय व राधाकृष्ण व रामसिंह व उम्मेदराय ये चार भये। तेज रायके कोई नहीं भया। राधाकृष्ण के अलोलमणि भये। अलोलमणिके मथुरा प्रसाद हुबलाल वृन्दावन माणिकचन्द ये चार । मथुरा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ *श्री लँबेच समाजका इतिहास : प्रसादके बलदेवप्रसाद भये उनका ब्याह नहीं भया वृन्दाबनके कोई नहीं हुआ। हुन्वलालके जानकीप्रसाद व हरदेव प्रसाद भये अँगाड़ी इसमें न्योरा नहीं है। ___ इस प्रकार जैसी जैसी लिखित वंशावली उपलब्ध हुई है। हमने लिखी है चंदोरिया इटावा वालों की वंशावली भिंडकी चन्द्रमणि ( चन्द्रपाल ) चंदोरिया के कुल परम्परा में खेमीपति (खेमचन्द ) उनके कुल में राधेलाल उनके पुत्र हँसराज हँतिकान्त के पोद्दारन के व्याहे । नाथराम पोद्दार की बेटी तिनके ४ पुत्र भये रामवकस १ छीतरमल २ रामनारायण ३ मंगली ४ रामनारायण को रपरिया गोत्रकी रामचन्द्रकी बेटी व्याही गयी। जिनके बेटा गनी १ झुन्नीलाल २ । झुन्नीलाल विजोरा गाँवकी सर्वजीत रपरिया की बेटी व्याही । तिनके बेटा मिट्ठ लाल १ रूपचंद २ मिहीलाल ३, मिट्ठ लाल को सहसपुर की भजनलाल रपरिया की बेटी व्याही। रूपचंद मोवतपुरा कुअर भरए के व्योहे। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * 1 छीतर के बेटे घासीराम तिनके बेटे मङ्गलसिंह तिनके वेटी ३ एक पटवारिनके व्याही । महुआ गाँव, दोय भिन्ड गाँव व्याही गई परिया कचनाउर वालोंके । मंगलसिंह को भिंडगांव टोडरमल की बहिन व्याही इटावा रहै कनपुरा में हाँसे भिंड चले गये । तिनके बेटे भिखारीदास, सुखलाल बेटी १ सुन्दा ववरियन के व्याही । विजोरा गाँव २ सुका बेटी हँतिकांत वाले रावतन के व्याही, ३ वखतो बेटी मुरोग वाले रपरियनके ब्याही, चौथी रुका बाई नाथूराम पचोलये करहलके को व्याही | भिखारीदास करहल गाँवकी देवकीनन्दन पचोलयेकी बेटी व्याही। जिनके बेटे वसन्तलाल झम्मनलाल, द्वारकाप्रसाद, बेटी गोरा बाई, हीरालाल रावत के लड़के को पारने गाँव व्याही । वसन्तलालको महीगाँव के हुब्बलाल रावत की बेटी ब्याही । उनके बेटे मगनीराम और श्रीलाल बेटी चतुररानी पारने मंगनीराम रपरियाको ब्याही | कस्तूरा पारने गाँव व्याही रसकलाल रपरिया को चमेला बेटी बाह गाँव ब्याही कन्हैयालाल रावतको, मगनी राम पारने गाँव ब्याहे भादोलाल रपरिया की बेटी तिनके बेटा महेशचन्द्र १ और सुरेन्द्रनाथ २ उर्फ छोटेलाल Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास बेटी द्रोपदी बाई १ रतन देवी २ श्रीलाल पारने ब्याहे झम्मनलाल परिया की बेटी । झम्मनलाल वसन्तलाल के भाई करहल ब्याहे । मिहीलाल सोनी के यहाँ द्वारका प्रसाद वरकेपुरा गाँव हुलासराय रपरिया की बेटी व्याही । द्वारकाप्रसाद की बेटी जैनाबाई संघई तालबारे चिरंजी लाल को ब्याही । द्वारका प्रसाद गोद गए टीकाराम रपरिया कचनाउर वाले के । रतना बेटी बाह गाँव ब्याही फुलजारी लाल तिहैय्या के पुत्र डालचंदको जो गोद गए सुन्दरलाल तिहैय्या के| द्रौपदी बेटी व्याही अटेर मिजाजी लाल पटवारी को । श्रीलाल के बेटा दो भये । जेठे मूलचंद और छोटे चंदकिशोर और सुरेन्द्रनाथके बेटा नेमीचंद भये और महेशचन्द की जेठी बेटी सावित्री लघु बेटी माया ये सब भिंड में हैं । गनीलाल के बेटे ३ गुलजारीलाल, गिरधारीलाल, सधारीलाल | गुलजारीलाल के ३ पुत्र भये । प्यारेलाल, पन्नालाल, चरनदास । प्यारेलाल स्वरूपुर ब्याहे । सन्तान नभई । पन्नालाल वरकेपुरा रपरियन के व्याहे । फफूंदवालों के तिनके बेटा मेवाराम | मेवाराम के बैटे २ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लँबेचू समाजका इतिहास * बेटी २। जेठी बेटी कचनाउरवाले परियन के प्रकाशचन्द को व्याही और गिरधारीलाल के पुत्र भादोलाल पारने विलासराय रपरिया की बेटी व्याही। ताकं २ पुत्र जठो वाहगांव ब्याहो परियन के ताके २ पुत्र । छोटा पुत्र कचोरा बजाजों के ब्याहा। सघारीलाल वाहगाव ब्याह चतुर्भुज रपरिया की बहिन को । ताके बेटा ३ हजारीलाल मोतीलाल, छोटेलाल हजारीलाल करहलके सोनी गोत्र में ब्याहे सन्तान नहीं। दूसरे मीतीलाल उनके बेटा १ छोटेलाल चोरुवा ब्याहे ताक पुत्र २ और मोतीलाल की बहिन चारुवा गांव पचोलयों के ब्याही। ये तो इटावेवाले चंदोरियायों की संक्षिप्त वंशावली कही मिली जैसी और वटश्वर वाले, गोडावाले, खारवाले तीन प्रकार के चंदोरिया और हैं हमारे पास उनकी वंशावली नहीं है। भोगीराय राय (भाट) की पुरानी कविता दोहा रसना सों मनकी कहे चलो इटाये जाँय खेमीपति चन्दवार की, वहाँ की खण्डर बखान Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * कवित आज भोगचन्द के दिपत संसार में ___ जैन की जुगति को अधिक लाजै नियम ओर धर्म को वृत्त पाले रहै ___सत्य की डाक दरवार बाजै आर और पार के शाह चर्चा करै खेम चन्दवार पति अंविराज थान चन्दवार राउ यदुवंश के सहस ___दश जिन प्रतिष्ठा सुछाजै ॥१॥ चंदोरिया इटावा वाले सिरसागंज के प्राणदास के गोरेलाल और उनके सदासुख और सदासुख के गोपाल और मूलचन्द गोपाल जाइमही व्याहे पचोलरों के। तिनके बेटा कल्याणमल, सुखवासीलाल, श्यामलाल, चोखेलाल, शिखरीप्रसाद । मूलचन्द व्याहे जैतपुर मूलचन्द वकेवरिया की बेटी व्याही। तिनके छेदीलाल, जानकीप्रसाद, वंशीधर । जानकी प्रसाद के बाबूराम, मुंशील ल, शिवचरणलाल । बाबुराम जेतपुर रामसहाय के न्याहे । तिनके बेटा कपूरचन्द Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास मंशीलाल पारने रावतन के व्याहे । शिवचरनलाल कंपिला वाले लमेचू हिरोदी के ब्रजभूषणलाल के यहाँ व्याहे । शिवचरनलाल के १ बेटा १ बेटी। वंशीधर परियन के व्याहे तिनके बेटा २ मगनीराम गोपीराम । मगनीराम चोधरिन के भिंड व्याहे । गोपीराम करहल कल्यानमल रावत के पुत्र फुलजारीलाल रावतकी बेटी व्याही। तिनके १ पुत्र दो बेटी। कल्यणमल करहल दिल्लीपति चिम्मनलाल पचोलये की बहिन व्याही । तिनके बेटा श्रीपतिलाल श्रीपतिलाल कुरावली मलचन्द रावत की बेटी फुलजारी लाल बनारसी दास रावत की वहिन व्याही । तिनके बेटा सतीशचन्द्र गढ़वार परियन के व्याहे । तिनकं २ पुत्र श्रीपतिलाल की बहिन पारनेवाले रावत गुलजारीलाल के बेटा मिजीलाल को व्याही चिरंजीलाल वैद्य के भाई को। चंदौरिया इटावा वाले कचोराके प्यारेलाल और कन्हैयालाल माखनलाल चचरे जात भाई। कन्हैयालाल के ७ बेटे इश्वरी प्रसाद १ झम्मन शल २ गिरधारी लाल ३ सगुनचन्द्र ४ ओदि। झम्मन Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ * श्री लँबेचु समाजका इतिहास * . लाल प्यारेलाल के गोद गये। प्यारेलालजी और मुंशीलाल वकेवरिया विजोरा वाले जो त्रैलोक्यसार और गणित शास्त्रमें बड़े निपुण थे। एक बार कचोरामें दिक्षितों से इस बात पर विवाद भया । जंबू द्वीपमें जैन सिद्धान्त से दो सूर्य दोचन्द्रमा हैं और दीक्षित निषेध करै तब एक खगोल भूगोल का एक एक काठ और भोडल का नकशा बनाया और दो सूर्य दो चन्द्र चाल से सिद्ध कर दिखाए अभी कुछ दिन पहिले तक वह नकशा पड़ा था कचोरा के मन्दिर में अब मालूम नहीं झम्मनलाल करहल हलवाई रपरिपन के दम्मीलाल के ब्याहे थे १ पुत्र १ पुत्री हुई गिरधारीलाल फतेपुर रावतनिके ब्याहे तिनके बेटे २ वाबूराम १ जिनेश्वरदास २ । बाबूराम दिल्लीपति पचोलये के व्याहे तिनके लड़के ५ एक कुरावली व्यहा । ईश्वरी प्रसाद के दो लड़के जेठा कहीं चला गया छोटा उलफतिराय । उसके दो बेटो हैं । ईश्वरीप्रसाद को वाहिके सुन्दर लाल तिहैया की बहिन ब्याही । माखनलाल करहल पचोलयन के ब्याहे तिनके बेटा वंशीधर, जिनेश्वरदास, जोहरीलाल । बंशीधर वाहवाले Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * ७३ रपरिया कचनाउर के झुन्नीलाल सराफ के लड़के मिठ्ठलाल की बेटी ब्याही तिनके उग्रसेन चन्द्रसेन एक छोटेलाल । जिनेश्वरदास को करहलके रपरिया भोजराज की बेटी ब्याही तिनके १ पुत्र । दूसरा व्याह ब्रजकिशोर रावत की बेटी ब्याही । जोहरीलाल को कचोरा के बजाज कुंजीलाल की बेटी व्याही । इनके ही कुटुम्ब में कुरावली में गंगाराम चंदोरिया तिनके २ बेटे २ बेटी। ___ अब हम चौथी वंशावली लिखते हैं जो पीछे से पटिया (पुरोहित लोगों से मिलो) पुरोहित लोग कलकत्ता आये थे उनकी बहियों में से लिखीलवेच ( लम्बकञ्चुक ) वंशावली वर्णन (व चन्दोरियादि गोत्र वर्णन ) गोत्र विजयी कृष्ण प्रथम शौर्यपुर (सरी पुर) द्वितीय द्वारावती देशोत्र लमकाञ्चदेश प्रवत्त नाम यदुवंशी श्री नेमिनाथके बाड़ा में उत्पन्न भये । कृष्ण वंशी राजा लोमकर्ण हुए तिनही के नाम से ( लम्बकञ्चुक ) लम्बेचू कहाये Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * कृष्णवंशी राजा लोमकर्ण ने लमकाञ्च देश ( लाँवा शहर ) बसाया तिनके द्वादश पुत्र भये ( इस समय सरदार शहर लाँवा का ठिकाणा है गुजरात में काञ्चनगिरि सोनगढ़ तक ऐसा जोधपुर इतिहास में लिखा है) इन्होंने द्वादश गोत्र का अर्चन किया तिनके द्वादश गोत्र कहाये अलल कहाये। प्रथम गोत्र काश्यप १ द्वितीय वत्स २ तृतीय विजयी कृष्ण ३ चोथा गोत्र गौतम ४ भारद्वाज ५ वशिष्ट ६ शांडिल्य ७ गर्ग ८ चान्द्रायण ६ कौत्स १० उपमन्यु ११ पुरावी १२ तिनके १२ अलल भये १ प्र० सोनी गोत्र २ वजाज ३रपरिया ४ चन्दोरिया ५ रावत ६ वकेवरिया ७ मुंजवार ८ सुहाने ६ चोत्थारी १० वरोलिया ११ पचोलये १२ कुअरभरये तिनहीमें से एक एक सत्ता भया तिनमें से ८४ खाँपे हुई एक १ अलल में से सात ७ खापे हुई सोनी गोत्र में से ७ खाँपे हुई कानूनगोह ( कानीगो ) १ पोदार :: संघई ३ चोधरी ४ तिहैय्या ५ मोदी ६ (कोठीवार) कोठारिया ७ रपरियन में से ७ खाप पटवारी १ पचलिहा २ गोहदिया ३ मुडहा ४ बदरआ ५ बजाज ६ वकेवरिया ७ रावत ८ कुअरभरये Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ६ मुजवार १० चोत्थत्थारी ११ बड़ोघर १२ ( श्रेष्ठी ) सेठि १३ तीन मुनैय्या १४ कुदरा १५ भुंशीपद १६ वावतारू १७ गंगरहागा १८ रुखारूपे १६ शंखा २० सुहाने २१ काकरभत्तेले २२ वरोलिया २३ भत्तेले २४ असहिया २५ वरतिहा ( वित्तिया ) २६ छेड़िहा २७ पिलखनिया २८ जीट २६ गुझोलिया ३० माहोशाहू ३१ टाटेबाबू ३२ कोलिहा ३३ जखेलिया ( जखनिया ) ३४ हरोलिहा ३५ वेदवावरे ३६ जेतपुरिया ३७ रूहिया ( रूहा ) ३८ मुरड्या ३६ बघेले ४० वलगइया ४१ सलरइया ४२ कोलिहा ४३ सिंघीपुरा ४४ वेमर ४५ पड़कुलिहा ४६ और भी इसमें गोत्र छुट गये चदोरिया या पचोलये इत्यादि पीछे से घड़वा कर दिया सत्ता सत्ता नहीं रहा भण्डरिया छुट गया उतारने में हमी भूल गए हों । चोथी वंशावली का विशेष विवरण प्रथम लमकाञ्च देश वि० संवत् १४६ की साल में. देश मारवाड़ में मेवाड़ (मेदपाट) ढूंढार देशमें आये ६६६ नो सो निन्यानवे वर्ष तक तो वहाँ ही रहै इकईश २१ पीढ़ी ताई तो वहीं रहा फिर राजा माणिकराव के Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ......rrrrrrrrrr... * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * पास रहा शाह सोजीरामजी को राजा माणिकराव ने अपने देश को दीवानगी दीनी अजमेर गढ़ था १ एक सो निन्याणवे की सालमें शाह सोजीरामजी गुरु पर्वत सरजी का सिक्ख शिष्य छा गुरुरंगाचारीजी विंशोत्तरी मंत्र दीनो जद साम्हर में निमक पैदायश भयो जब चोरासी गढ़न को राज भार शाह सोजीरामजी को दीनों शाह सोजीरामजी के बेटा सवहरण प्रधान रहै छोटे भाई हर करण कानीगोह रहै राजा माणिकराव के धुवल राजा भयो जीकी साथ प्रधान वनवीर देवजी छा राजा धुवलदेव के राजा धर्मचंद भया। जिसके साथ प्रधान राणा भीम करण रहा। उस स्थान लूणावास करो पीछे फेर राणा वीसल मण्डलीक भये सं० ३५३ की साल में तिनके साथ प्रधान बलकरण जी रहै । जिन्होंने यज्ञ प्रतिष्ठा कराई एक करोड़ पचहत्तर लाख छत्तीस हजार नो सो निन्याणवे रुपये लगे १७५३६६६६ रुपये लगे तब लक्ष्मीने सापसा दीनो कि आज से तुम्हारे वंश में कोई करोड़ पति (कोटिध्वज) नहीं हो फिर राजा लाखनसिंह भये जिनके साथ में प्रधान अशोकमलजी हुआ फेर देवदुसल राजा हुआ जाकी साथ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * प्रधान चाचक देव हुआ फेर राजा विशेसर हुआ जाके साथ प्रधान अमोलक देव छा फेर राजा आमकेशर हुआ जाके साथ प्रधान ब्रजदेव छा फेर राजा हरिकेशर हुआ जाके साथ प्रधान विमलदेव छा फेर राजा जुगलेश्वर हुआ जाके साथ प्रधान हरिहरदेव छा फेर राजा मंजलेश्वर हुआ प्रधान जगतराम छो सम्बत् ७४५ सात सो पैतालीस की साल में जिन यज्ञ पूजा आरंभ किया मदगण कुण्ड खुदाओ दूगर पर बाल्मीजी का दर्शन हुआ । ७७ हसेसर राजा के साथ प्रधान कन्धर देव छा फेर राजा मलूकदेव के साथ प्रधान मेघ भाग छा साम्हर स्थान । फेर राजा जोबनातुर हुआ प्रधान हमीर सिंह भया फेर राजा विशेसर भया प्रधान मदनीमल छा फेर सोमेसुर राजा भया प्रधान सिंहोजी छा राजा कनक के पास प्रधान सीता रामजी छा फेर राजा सिंघर हुआ प्रधान वरघनाथ छा राजा सिघंर के २२ बेटा हुआ जामे सूं पाँच कुंअर अन्तरवेद में ( गंगा जमुना नदी के ) बीच के प्रदेश को अन्तर वेद कहते हैं इटावा चन्दवार (चन्द्रपाट) आदि के दक्षिण तरफ जमुना नदी बहती है और उत्तर में गंगा बहती है इससे Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँखेचू समाजका इतिहास * यह अन्तरवेद है इससे यहाँ वे पांच कुअर आये राय केवल सिंह इटावा आये जगराम मैनपुरी आये वलराम एटा आये राज सिंह जोग आये चन्द्रपाल चन्द्रवार ( चन्द्रपाट ) आये जद सब लॅवेचू वंश इनके साथ आये वि. सम्बत् ११५२ की सालमें जब प्रधान हाहुलीराव वादशाह सो मिले छप्पन लाख का राज इटावो लियो फेर यज्ञ प्रारंभ कियो गजरथ निकालो इटाबा का स्थान मन्दिर स्थापित करो प्रतिष्ठा करवाई संवत् १२७२ की साल में। फेर राजा केरलसिंह के पुत्र राणा रतनसिंह के प्रधान अजमत सिंह भये तिनके सोनी गोत्र की चन्दवार गांव की बेटी व्याही व्याह में पाँच लाख नो हजार ५०६००० रुपए लगाये इटावा गाँव से चन्दावार तक संवत् १३०७ की साल में फेर राजा सूरजसिंह सूर्यसिंह भये प्रधान मुकुटमणि को परियान की बेटी व्याही रपरीगाँव की। संवत् १३४३ की सालमें फेर राणा लक्ष्मीसिंह के प्रधान बलवीरसिंह को चन्दोरिया गोत्र की बेटी व्याही । चन्दवार गांव की संवत् १३८५ की साल में ब्याह भयो फेर राणा उडुमराव भये छोटे भाई उधरण देव, प्रधान लछोलसिंह Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाज का इतिहास * ७६ कानीगोह ने उधरणदेव को खिताव रावतकी दिवाई इटावा गाँव बैठे संवत् १४०५ की साल में। लछोलसिंह के पुत्र २ दो भये सहसमल रामसहाय इटावा गांव रहै रावत उधरणदेवके प्रधान वाहिते चकनगरको गये और सहसमल इटावा में राणा उडुमरावकी प्रधानगीरी करी उडुमराव के पुत्र राणा सुमेरसिंह ने इटावे में राज्य किया किलो कराओ संवत् १४१३ चोदहसे तेरह की साल में प्रधान सहसमलजी को बकेवरिया गोत्र की हंसमा गांव की बेटी व्याही संवत् १४१३ साल में राणा सुमेर सिंह के पुत्र संग्राम सिंह भये प्रधान जशवन्त सिंह भये सहसमलके पुत्र जशवन्त सिंह के संघई गोत्रकी जग्गीमल सिंहकी पुत्री व्याही संवत १४४५ में। फेर उनके राणा चक्रसेन भये प्रधान कमलापति को पोद्दार हंतिकांति गांव की शाहकरणमल की बेटी व्याही । संवत् १४६१ की साल में करणमल के बेटे खरग सिंह को चोधरी गोत्र की हंतिकांति गांव की पुत्री व्याही तिनके पुत्र मुकुलदेवके पुत्रीके पुत्र राजा विक्रमाजीतने गांव विक्रमपुर वसाया संवत् १५६५ की साल में प्रधान असकरण को वजाज गोत्र की दुगमई गांव की पुत्री ब्याही Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्री लँबेचू समाज का इतिहास * बादशाही में बड़ी पहुंच भई जहांगीर से खिल्लत पाई फेर विक्रमाजीत के पुत्र २ भये राणा अगरसिंह सकरोली गांव के राणा प्रतापरुद्र प्रताप नहर के राजा भये गाँव प्रतापनहर बसाया संवत् १६११ की साल में । तिनके साथ प्रधान भगवन्त सिंह भैय्याजू की खिताब पाई। तिनके पुत्र ७ सात भये। मानपाल, गंगाराम, भमानी, परमानन्द, अति सुख, कलियान, रतनगल, भगवन्तसिंह, कानीगोह ने यज्ञ प्रतिष्ठा कराई इटावा में संवत् १६०५ की साल में खेमीचंद चन्दोरिया ने यज्ञ करी प्रतिष्ठा कराई इटावा गांव में संवत् १६०६ की साल में। इस वंशावली में लिखे प्रदेश सब उपलब्ध हैं मिलते हैं। इटावा से ५ मोल विक्रमपुर है जशवन्त सिंह ने ज़शवन्त नगर बसाया। जशवन्त नगर इटावा से ५ कोस ६ दश मील है। चक्रसेन का बसायो चकनगर बड़ेपुरा के पास है। सहसमल का वसाय बटेश्वर के पास सहसपुर हैं। वहाँ लम्बेंचू बसते हैं। दस पन्द्रह घर है वाहि में २० धर हैं सकरोली भी पास ही है। एटो के तरफ और ( असकरण) आशकरण का Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * वसाया हुआ आशई खेड़ा ग्राम है। किलो है इटावा से ४ पाँच मील आशई खेड़ा ग्राम है। जहाँ एक जगह किले के खेतरूप प्रदेश में तीन जैन मूर्ति गढ़ी हुई खड़ी हैं । हम देख आये हैं जमुना के किनारे पर और भिंडकी रास्ता पर चुंगी घर के पास सुमेरु सिंह का किला है और एक जिन मन्दिर बड़ी ऊँचाई पर है। और शिखर कलश सहित है जो इस समय अजैनों के हस्तगत है। त्रिकुटी के महादेव का मन्दिर कहने लगे हैं। जब श्रीमान् ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी आये थे; तब उसमें टूटी-फूटी जिन मूर्तियाँ रखी थीं, उन्होंने देखकर कहा लोग दर्शनार्थ गये आने जाने लगे भबड़ मचाया ( हल्ला) तब जिन्होंने बड़के नीचे सीडिये हैं। वहां की सिड्डियों पर श्लोक लिखाये है। उन पंडित बलदेव प्रसाद वैद्य कान्यकुब्ज आदि वैष्णवों को भय हो गया कि ये लोग दावा न कर बैठे। श्री जिन मूर्तिये अन्यत्र कर दी उस मन्दिर के पेटे एक विद्यापीठ स्थान है जिसमें बृहत् संस्कृत पुस्तकालय है । वह हर किसीको दिखाया नहीं जाता; सैकड़ों प्राचीन ग्रन्थ सुनते हैं। अनुमान होता है Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ • भी लँबेचू समाजका इतिहास * कि उसमें जैन ग्रन्थ अवश्य होंगे। हमको मालूम भी न था। एक संस्कृत पंडित नोकर थे। हम गये हमको श्रीमान् वैद्यराज दया चन्द जैन गोलालारे के सुपुत्र ने कहा था लिवा गये थे। हमारे साथ श्रीमान् वैद्यराज आयुर्वेदाचार्य छोटेलाल वैद्य तथा श्रीपाल जी श्रीमान् प० ब्रह्मचारी नन्दब्रह्मजी गये थे पर चाबी न मिली लौट आये। उस किले में मिंड के रास्ते में अगाड़ी चल के एक नशिया जी (निषद्या ) दिगम्बर मुनियों का आश्रम स्थान भी है। जिसमें श्री विजय सागर जैन मुनि के चरण हैं ( चरण पादुकाएं हैं )। जिसका कुछ एक जिन मन्दिर का जीर्णोद्वार श्रीनान् वाबू मुन्नालाल द्वारका दास ( लम्बेच पोद्दार) फार्म के मालिक बाबू सोहन लाल; कलकत्ताने भी कराया है और वहाँ के प्रबन्ध कर्ता श्रीमान् लाला लक्ष्मण प्रसाद जी जैन अग्रवाल हैं। वे भी सेवा करते है। उन्होंने भी कुछ सुधराया हो तो हमें मालूम नहीं वे भी धनपात्र हैं। भक्तिमान जैन है। इसका मुख्य उद्धार का श्रेय पू० श्रीमान् ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी को है। उन्होंने Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास : खोज कर उद्धार कराया। मेला लगवाया इटावा के जैन भाइयों ने खर्चाकर जीर्णोद्धार किया। विनय सागर मुनि का सम्बन्ध वटेश्वर वरीपुर श्री नेमिनाथ की जन्म नगरी से भी है गुरु परंपराय शिला लेख से सूचित होती है और यह महाराणा सुमेरसिंह से भी किले के जिन मन्दिर से भी सम्बन्ध है। राणा सुमेरुसिंह चोहान यदुवंश मे ही है इस इतिहास से स्पष्ट है और भी ऐतिहासिक प्रमाण पीछे लिखेंगे और इटावा गजेटियर में भी इसका वृत्तान्त है और लोगों ने द्वष के कारण राणा सुमेरुसिंह को जैन नहीं लिखाया है परन्तु इस पटिया लोगों की लिखित वंशावली से स्पष्ट मूचित होता है कि राणा सुमेरुसिंह ने जब जिन मन्दिर बनवाया तो जैन थे और उनकी रियासतों के नाम से लबेचूं जाति के गोत्र अलल हो गये। ___ जैसे जाखन से जखनिया गोत्र और वकेवर से वकंवरिया गोत्र कुदर कोट से कुदरा गोत्र है और विक्रमपुर आदि इटावे के प्रदेश बंशावली से मिलते हैं तथा रइधू कवि के पून्याश्रव आदि से प्रतापरुद्र आदि का विवरण Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाज का इतिहास # मिलता है जो हम अगाड़ी लिखेगें और इटावा गजेटियर का लेख हम ज्यों का त्यों कुछ भाग उद्भित करते हैं । इटावा जिले का संक्षिप्त इतिहास ( इटावा गजेटियर से उद्घृत ) इटावा जिले का प्राचीन इतिहास अन्धकारपूर्ण है । परम्परागत विचारधारा के अनुसार कुछ लोग जमुना, चम्बल, द्वाबे में स्थितित चक्रनगर को महाभारत का एक चक्र बताते हैं यह अनुमान सन्देहपूर्ण है। आस-पास के बहुत से पुराने टीले जिन पर प्राचीन काल में प्रसिद्ध नगर और किले स्थिति थे अब भी बर्तमान है पर इनकी खोज नहीं हुई। कुदरकोट, मूख, और आसईखेड़ा इनमें अधिक प्रसिद्ध हैं । १२ वीं शताब्दी में राजपूतों ने जब मेवों तथा इस्माइली जाति को खदेड़ दिया तो वे इन्हीं इलाकों में जाकर बसे । अनुमान किया जाता है कि प्राचीन समय में यह इलाका सेंगर नदी के उत्तर में घने जंगलों से ढका था । दक्षिणी भागमें जंगलों से ढके कितने खन्दक थे जो अब भी इस क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य को बढ़ा रहे हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लँबेचू समाजका इतिहास * ८५ ___ यहां के निवासियों के विषय में इतना ज्ञात है कि उनका सम्बन्ध मौर्य तथा गुप्तसम्राटों से था। ७ वी शताब्दी के आरम्भ में यह इलाका हर्षवर्द्धन के राज्य में था । हर्ष की मृत्यु (६४८ई०) के पश्चात् भारत में अशांति थी । कन्नौजमें ८ वीं शताब्दीमें जिस साम्राज्यकी स्थापना हुई वह १०१८ तक रहा बाद में महमूद गजनी ने इसका अन्त कर दिया। मुसलमानों के यहां से चले जाने के पश्चात् गहरवारों ने यहां राज्य स्थापित किया और यह जिला उनके आधीन था। कुदरकोट में एक ताम्र पत्र मिला है जो ११५४ में चन्द्रदेव के शासन काल में लिखा गया था। मूञ्ज और आसई खेड़ा के विषय में भिन्न-भिन्न मत है। कुछ लोगों का कहना है कि ये वे ही किले हैं जिन पर महमूद गजनी ने १०१८ में हमला किया था। वरन कुलचन्द का किला तथा मथुरा लेने के बाद सुल्तान कन्नौज की ओर बढ़ा और बहुत सम्भव है कि वह इसी जिले से होकर गुजरा हो । इसके बाद वह मूज की ओर बढ़ा। यहाँ के ब्रोमणों ने मुसलमानों का सामना किया पर जब उन्होंने अपने को असमर्थ पाया तो शस्त्र रख Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ . *श्री बेच समाजका इतिहास * दिये। पर इसमें से बहुत मारे गये। अब सुल्तान आसई के किले की ओर बढ़ा। आसई उस समय हिन्द वीर चन्दल भोर के अधिकार में था। चन्दल योद्धा था और । उसने कन्नौज के राय से भी युद्ध किया था। इसके किले के चारों ओर जंगल था जिसमें विषैले सर्प रहते थे। ___महमूद गजनवी की इस यात्रासे यह पता चलता है कि मुज और आसई कन्नौजके पूर्व में थे। मुसलमान इतिहासकारों के वर्णन द्वारा इनकी स्थिति का पूर्ण निश्चय नहीं किया जा सकता। ___ जमुना नदीके तटपर बसा हुआ इटावा नगर प्राचीन कालमें व्यापारका केन्द्र था। जब रेल और हवाई जहाजों का प्रचलन नहीं हुआ था तब लोग नौकाओंमें बैठकर नदियोंके सहारे एक स्थानसे दूसरे स्थानकी यात्रा किया करते थे। इस कारण नदियोंके तटपर बसे हुए नगरोंने काफी उन्नति की। इस जिलेके सम्बन्धमें प्राप्त ऐतिहासिक सामग्रीसे पता चलता है कि ब्राह्मणोंका इस जिलेमें हमेशा प्राधान्य रहा है। कनौजिया, लहरिया, संगिहा, सावन, हिन्नारिया Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * और लहारिया इन ६ घरानों के ब्राह्मण इस जिलेमें जमींदार किसान और अन्य व्यवसाय द्वारा अपनी जीविका उपार्जन करते रहे हैं। इन ब्राह्मणोंमें ६ घरानेकी अलग अलग जमींदारियां हैं जिनमें सबसे बड़ी जमींदारी लखना की है। इटावे को रियासतें .. इटावा जिले में क्षत्रियों का भी काफी बोलबाला रहा है। इटावा गजेटियर' से पता चलता है कि दिल्ली के चौहान राजा पृथ्वीराज के वंशज सुमेर शाह ने पहले पहल इटावा को मेवों से छीन लिया। फरुखाबाद जिले में स्थिति छिवरामऊ से लेकर जमुना नदीके तट कक ११६२ गावों पर सुमेर शाह ने कन्जा कर लिया था। इस प्रकार सुमेर शाह ने परतापनेरा चकरनगर और सकरोली के चौहान बंश की नींव डाली। १८५७ में जब भारत में राज क्रान्ति हुई तो विद्रोहियों का साथ देने का कारण चकरनगर और सकरोली को जमींदारो अंग्रेजों ने जप्त कर लो। जसोहन और किशनी की जमोंदारी कालांतर में घट गयी और ये बहुत छोटे से जमींदार रह गये । रण Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www ८८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * दूसरी राजपूत जाति संगरों की है जिसका ओरैया तहसील में बोलबाला है। सेंगरों की उत्तपति के सम्बन्ध में कहा जाता है कि ये श्रृगि ऋषि की संतान हैं। एक किम्बदन्ती यह भी है कि कन्नोज के गहरवार राजपूत राजा जयचन्द की पुत्री देवकली के पुत्र सेंगर वंश के संस्थापक हैं। देवकली के नाम से औरैया अकबर के के शासन काल की कौन कहे ब्रिटिश शासन में भी विख्यात रहा। अकबर के शासन काल के कागजातों से पता चलता है कि वर्तमान जगम्मनपुर के राजा अकबर के समय में कनवाड़ खेड़ा के राजा कहलाते थे और कनवाड़ खेड़ा एक परगना था जालोन जिलेमें जगम्मनपुर से दो मील की दूरी पर ध्वस्त कनवाड़ खेड़ा आज भी अपने वैभवों को छिपाये हुये ध्वस्त अवस्था में पड़ा हुआ है। इटावे के सेंगर बंश के शासक भड़ेह के राजा और रुरु के राजा हैं। भदौरिया राजपूतों के सम्बन्ध में बतलाया जाता है कि ये लोग आगरे से इटावा आये । मुगल शासकों की इन पर कृपा थी इस कारण परताप नेर और मैनपुरी के Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाज का इतिहास * ८६ चौहानों से अधिक इन लोगों का प्रभाव जम गया। भदौरिया राजपूतों को अपने उत्कर्ष का अवसर शाहजहां के शासन काल में मिला । कुछ लोगों का मत है कि सातवीं शताब्दी में भदौरिया राजपूत अजमेर की तरफ से आये । कुछ लोगों का कहना है कि ये चन्दवार के चौहान राजपूत हैं जो कालोतर मैं भदौरिया कहलाने लगे। १८०५ में भदोरिया राजपतों के मुखिया ने अंग्रेजों के विरुद्ध इटावे में बगावत की थी इसके कारण उन्हें जिले से निर्वासित करदिया गया। उन्हों ने बड़पुरा नामक गांव में शरण ली । भदौरिया बड़पुरा के अपने बंशजो को इसी कारण आज भी अग्रपूज्य मानते हैं। इटावे में कछवाहा राजपूतों की भी काफी संख्या है। ये राजपूत औरैया और विधूना में फैले हुये हैं। इस बंश के एक व्यक्ति ने रोहतासगढ़ का प्रसिद्ध किला बनवाया था । ११२६ ई० में कछवाहों ने ग्वालियर राज्य के नरवर नामक स्थान को अपनी राजधानी बनाया। कहते हैं इसी वंश के एक व्यक्ति ने जयपुर राज्य की नींव डाली थी। कालांतर में नरवर के कछवाहा शासक ग्वालियर Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # राज्य के लहार नामक स्थान में चले आये और यहीं आकर बस गये, जिसके कारण लहार के आसपास का स्थान अभी तक कछवाहगढ़ या कछवाह घार कहलाता है । रियासत परतापनेर इटावे की सबसे प्राचीन बड़ी जमींदारीहैं । इस रियासत के २१ मुस्लिम मौजे इटावा जिले में हैं और इस रियासत के कुछ गाँव मैनपुरी जिले में भी है। परतापनेर के चौहान शासकों का इटावा, एटा और मैनपुरी में सदियों तक दबदबा रहा है। कहते हैं सन् १९६३ ईस्वी में दिल्ली के चौहान राजा पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद करन सिंह सिंहासन पर बैठे। करन सिंह पुत्र हमीर सिंह ने रणथंभोर के किले की नींव डाली । कालांतर में वे इस किले की रक्षा में ही मारे गये । इनके पुत्र उद्धव रावने ६ विवाह किये जिससे १८ संतानें हुई । उद्धव राय जब मरे तो राज्य का नामोंनिशान मिट चुका था। उनकी संतानें अपने लिये उपयुक्त स्थान की खोज में थीं। उन दिनों कानपुर, फरुखाबाद, एटा, इटावा और मैंनपुरी में मेव लोगों की तूती बोल रही थी । सुमेर सिंह ( जो उद्धय राय के होनहार बेटे थे) ने एक के 3 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास- ११ छोटी सी सेना का संगठन किया और मेवों पर चढ़ाई कर दी। सुमेर सिंह के साथ चौहानों की सामान्य सेना थी पर मेव उनके सामने डट न सके। सुमेर सिंह, जो राजा होने पर सुमेर शाह कहलाये, ने इटावेको अपनी राजधानी बनाया और जमुना के तट पर एक किले की नींव डाली। यह वही किला है जो इटावा के टिकसी मंदिर के पास वस्तावस्था में अवस्थित है। सुमेर शाह ने अपने एक भाई ब्रह्मदेव को राजा की उपाधि और राजोर का इलाका दे दिया। दूसरे भाई अजबचंद को चंदवार का इलाका दिया। सुमेर शाह की आठवीं पीढ़ी में प्रताप सिंह हुये जिन्होंने परतापनेर का किला बनवाया। उसके पाँच पीढ़ी के बाद गज सिंह हुये जिनका १६८३ ईस्वीमें देहांत हुआ। गज सिंह के चार लड़के थे। गज सिंह ने अपनी रियासत इन चार पुत्रों में बाँट दी। सबसे बड़े लड़के का नाम गोपाल सिंह था जिनके हिस्से में परतापनेर का इलाका पड़ा। गोपाल सिंह अभी अच्छी तरह सम्भल भी न पाये थे कि मुसलमानों ने उन पर हमला कर दिया और उनके पास जो कुछ था सब छीन लिया। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * गोपाल सिंह की चौथी पीढ़ी में राजा दरयाव सिंह हुए, जिन्हें अंग्रेजों ने राजा की उपाधि देकर फिर परतापनेर का राजा बनाया। राजा दरयाव सिंह के उत्तराधिकारी चेत सिंह हुए, जिनके समय में राज्य की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई जिसके कारण परतापनेर रियासत में केवल ११ गाँव रह गये। चेतसिंह के बाद उनके पुत्र लोकेन्द्र सिंह रियासत के मालिक हुए पर इनकी बुद्धि कमजोर थी इस कारण उनकी तथा रियासत की व्यवस्था सब लोकेन्द्र सिंह के चाचा जुहार सिंह को सौंपी गई। जुहार सिंह अंग्रेजों का बहुत कृपापात्र था। १८५७ की राज्य क्रान्ति के समय उसने अंग्रेजों को बहुत मदद पहुँचाई थी। चकर नगर के राजा ने विद्रोहियों का साथ दिया था इसलिये अंग्रेजों ने जुहार सिंह को चकर नगर के कई गाँव भेंट कर दिये थे। १८८६ ईस्वी में राजा लोकेन्द्र सिंह की मृत्यु हुई और उनके पुत्र मुहकम सिंह गद्दीपर दैठे। मुहकम सिंह भी बड़े शाह खर्च थे। रियासत की व्यवस्था इनके शासन काल में बहुत खराब हो गई। राजा का चरित्र Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ६३ भी अच्छा न था इस कारण इनकी राजा की उपाधि भी छीन ली गई। मुहकम सिंह १८६७ में मर गये । उनके बाद हुक्म तेज प्रताप सिंह परतापनेर की गद्दी पर बैठे । हुक्म तेजप्रताप सिंह उस समय नावालिग थे। उनकी मां ने अपने पुत्र की नवालगी में रियासत का सब इन्तजाम अपने हाथ में लिया और उनकी व्यवस्था से सन्तुष्ट होकर अंग्रेजों ने १७ मार्च १९०६ में हुक्म तेज प्रताप सिंह को फिर राजा की उपाधि प्रदान की । परतापनेर रियासत के इतिहास के साथ-ही-साथ चकर नगर और सहसों तालुके का इतिहास सम्बन्धित है । चकर नगर राज्य की नींव सुमेरशाह के भाई त्रिलोक चंद ने डाली थी । त्रिलोक चंद की पाँचवीं पीढ़ी में चित्र सिंह हुए जिन्होंने राजा की उपाधि ग्रहण की । सन् १८०३ में इस राज्य के शासक राजा रामबक्स सिंह थे। इन्होंने स्वाधीन राजा होने की घोषणा की और अपने आपको शक्तिशाली बनाने के लिये ठग और डाकुओं का एक जबरदस्त गिरोह संगठित किया । अंगरेज इनसे चिढ़े हुए थे ही, उन्होंने राजा रामबक्स सिंह की रियासत पर कब्जा करने Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * के लिये फौज की एक टुकड़ी भेजी। राजा साहब ने आत्म समर्पण नहीं किया। वे चंबल नदी को पार कर जंगल में चले गये। अंग्रेजों ने रियासत पर कब्जा कर लिया। बाद में केवल चकर नगर राजा रामबक्श सिंह को दे दिया गया और बाकी जमींदारी पर अंग्रेजोंने कब्जा कर लिया। सहसों को १८०६ तक अंग्रेजों ने अपने अधिकार में नहीं किया। चकर नगर के राजा के वंशज कंबल कुछ गांवों के मालिक रह गये थे। १८५७ के राजक्रांति के अवसर पर उन्होंने अंग्रेजों की जोरदार खिलाफत की इस कारण अंग्रेजोंने उसकी रियासत को जब्त कर लिया। राजा परतापनेर के चाचा जुहार सिंह अंग्रेजों के विशेष कृपा पात्र थे इस कारण चकर नगरकी जमींदारी का अधिकांश भाग उन्हें दिया गया जिस पर उसके वंशज आज तक कायम हैं। भदावर में भदोरिया राजपूतों की तूती बोलती रही है। बड़पुरा के राव हिमंचल सिंह बहादुर की कामेथ से लेकर कन्धेसी (परगना भर्थना) तक रियासत थी। इनकी रियासत आगरे जिले तक फैली हुई थी जिसमें ५६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * ६५ मुहाल थे। बड़पुरा इनका हेड क्वार्टर था और नरेन्द्र सिंह बड़पुरा के राव के नाम से विख्यात-थे। १८०४ में जब राव नरेन्द्र सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया तो अंग्रेजों ने उनकी रियासत को छीन लिया। केवल बड़पुरा इनके अधिकार में रह गया था। अंग्रेजों ने बाद में उसे भी छीन कर नीलाम कर दिया। बाद में कई पीढ़ियों के बाद कुछ गाँव दिये गये। जिन पर भदौरिया का अब भी अधिकार है। मलाजनी की रियासत भी इटावे में है जिसकी स्थापना परिहार राजपत जंगजीत ने की थी। जब इस राज के राजा महासिंह पन्ना के राजा से लड़ते हुए मारे गये थे तो उनके लड़के दीप सिंह जालोन जिले के सिद्धपुरा नामक स्थान में भाग गये थे। दीप सिंह ने लाहर के राजा और सकरौली के राणा की लड़कियों के साथ शादी की। १८१३ में इन्होंने इटावा जिले में ८ गाँव खरीदे और राजा की उपाधि ग्रहण की। इस छोटी-सी जमींदारी के मालिक मलाजनी के राजा अंग्रेजों के बड़े भक्त रहे। इस कारण १८८६ में अंग्रेजों ने इनकी राजा की उपाधि को स्वीकार कर लिया। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास इटावा तहसील इसी नाम के परगना का वृहत रूप है । यह इस जिले का पश्चिमी भाग है और यह २६-३८० अक्षांश उत्तरी से लेकर २७-१० उत्तरी अक्षांश तक तथा ७८-४५० पूर्वी अक्षांश से ७६ १३० पूर्वी अक्षांश तक फैला है । इसके उत्तर में मैनपुरी का जिला, पूर्वमें भर्थना तहसील, दक्षिण में ग्वालियर की सीमा तथा पश्चिम की सीमा अनिश्चित सी है । उत्तर से दक्षिण इस तहसील की औसत लम्बाई २० मील और चौड़ाई २२ मील है । इसका क्षेत्रफल २७२७६४ एकड़ या ४२६-४ वर्गमील है । पिछले ३० वर्षों में इस तहसील की आबादी बढ़ गई है । १८८१ में यहाँ की आबादी १६३२११ थी बाद की गणना में यह संख्या १६८०२३ हो गई । १६०१ की गणना में यहाँ २१६१४२ जन थे जिनमें ६६२११ स्त्रियाँ थीं । औसत आबादी ५०७ व्यक्ति प्रति मील है और यह दूसरे तहसीलों से बहुत अधिक है । यदि नगर की आबादी घटायी जाय तो औसत आबादी केवल ४०८ व्यक्ति प्रति;मील रह जायेगी । धर्म के हिसाब 1 ६६ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ६७ से विभाजित करने पर १९४०१७ हिन्दू, १९६६३ मुसलमान, १६३३ जैन, २०३ आर्य, १६५ ईसाई १५३ सिख तथा ८ पारसी हैं । हिन्दुओं में अहीरों की संख्या सबसे अधिक है । इसमें परगना के रूप में इटावा का नाम अकबर के समय आता है जब इसमें ७ टप्पा थे जिनके नाम हवेली, सतौरा, इन्दवा, बाकीपुर, देहली, जाखन और करहल थे । इन्दवा जिसको अब कामैथ या बढ़पुरा कहते हैं । और सतौरा अब इस तहसील में सम्मिलित हैं। देहली; तथा करहल मैनपुरी जिले में सम्मिलित हो गये हैं हवेली 1 जाखन जाखन इटावा तहसील का एक गाँव है । उत्तर में २६४६ अक्षांश तथा पूर्व में ७६५३ पर स्थित है। यह इटावा से १८ मील उत्तर पश्चिम है । १६०१ की गणना के अनुसार यहाँ की आबादी २२७५ थी जिनमें प्रमुख राजपूत हैं जो इधर-उधर गाँवों में फैले हैं इनमें नगला रामसुन्दर; नगला तौर प्रमुख हैं । इस प्राचीन नगर की स्थिति केवल एक बड़े खेड़ा से ज्ञात होती है जो सौ वर्ष Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * पूर्व से स्थित है। इसकी प्रसिद्धि का कारण यह है कि प्राचीन बादशाही के समय में इसके नाम पर तहसील का नाम पड़ी । बकेवर यह एक बड़ा गाँव है जो २६३६ अक्षांश उत्तर तथा ७६१२ अक्षांस पूर्व स्थित है। यह इटावा से १३ मील दक्षिण पूर्व औरया सड़क पर स्थित है । १८७२ में यहाँ की आवादा २६१० थी जिनमें ब्राह्मण और मुसलमान प्रमुख थे । यहाँ त्रिटिश अधिकारियों और भारतीयों के साथ बहुत सी लड़ाइयां हुई। कनचोली तहसील औरंया यह ग्राम २६३५ अक्षांश उत्तरी, ७६३६ अक्षांश पूर्व में स्थित है और उससे कच्ची सड़क मिली है। यह गाँव बिधूना के राजपूतों के अधिकार में है। यहां के निवासी अधिकतर मारवाड़ी धनी व्यापारी हैं । कोटरा तहसील ओरैया यह गांव २६३३ अक्षांश उत्तर ७६३३ अक्षांश पूर्व जिले के दक्षिणी पूर्वी कोने में औरैया से कालपी जाने Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाज का इतिहास * वाली सड़क पर औरैया से ५ मील तथा इटावा से ४४ मील जमुना के किनारे स्थित है। १८७२ में इसकी आबादी २७०५, १६०१ में आबादी घट कर २५६३ हो गई। इसमें ब्राह्मणों की संख्या अधिक है। कुदरकोट, तहसील बिधूना ___ यह एक बड़ा गांव है। उत्तर में २६४६ अक्षांश और ७६२५ अक्षांश पूर्व में स्थित है। इटावा से २५ मील उत्तर पूर्व कन्नौज जाने वाली सड़क पर स्थित है । यह बड़ा ही पुराना स्थान है यहां पान का बाग था। इस मम्बन्ध में एक कहानी कही जाती है कि एक राजा अपनी सेना के साथ इस स्थान से जा रहा था। उसकी गनी के कान का कुण्डल यहीं खो गया। स्थानीय देवी के बल से यह आभूषण शीघ्र ही मिल गया इसलिये राजा ने अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये वहीं एक किला बनवा दिया और तब उसका नाम कुण्डलकोट पड़ा । बाद में यही कुदरकोट हो गया। कन्नौज साम्राज्य के समय यह प्रसिद्ध स्थान था। १८५७ में पाए ताम्र लेख की लिखावट को देख कर उसे १०, ११ वीं शताब्दी का Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * कहा जा सकता है। इस पत्र में लिखा गया है कि हरिवर्मा के पुत्र तक्षदत्त ने अपने पिता के संस्मरण में यह ब्राह्मणों के वास के लिये दिया। इसमें पहले उन ६ ब्राह्मणों का नाम है जो वहाँ रहते थे। राजा के नाम का कोई उल्लेख नहीं है। इसकी लिखावट स्थानीय महत्व की है। कहा जाता है कि कुदरकोट से कन्नौज तक एक भूमिगत मार्ग था। इस मार्ग में जाने का छोटा रास्ता जो अब भी स्थित है पाताल दरवाजे के नाम से प्रसिद्ध है। कोई भी इस मार्ग में नहीं गया है । एक कहानी है कि एक फकीर ने इसके रहस्य को जानने का प्रयत्न किया। एक बत्ती और खाना लेकर और एक लम्बी रस्सी अपने हाथ में लेकर वह यहां उतरा ३ दिन ३ रात यह रस्सी ढीली जाती रही और फिर रोक ली गई। तब से फकीर और रस्सी के विषय में कुछ पता न चला। ___ यह किला जिसका भग्न अब भी खेड़ा पर स्थित है वह अवध के गवर्नर अलमास अली खाँ जिसकी कचहरी यहाँ थी उसके द्वारा बनाया गया था। इसमें १६ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १०१ बुर्जियाँ हैं और यह वृटिश सरकार को दे दिया गया पर तब से इसकी अवनति होने लगी । इसमें लगी गोली के चिह्न अब भी पाये जाते हैं । पहले यह एक शक्तिशाली स्थान था पर बाद में यह आधा एक नील के ब्या के हाथ बेच दिया गया जिसने यहां एक फैक्टरी स्थापित की । दक्षिणी भाग में थाना स्थापित कर दिया गया अब यह थाना नहीं रहा । वहाँ स्कूल की स्थापना की गई। आज कल नगर के कई मकान इसकी ईंटों से बने हैं । १८७२ में कुदरकोट की आबादी २५६७ थी १६०१ में यह केवल २२२७ रह गई। इसमें जुलाहों की संख्या अधिक है जो कपड़े बुनने का काम करते हैं । कुदरेल, तहसील भरथना यह गाँव भरथना तहसील के उत्तर में २६५६ अक्षांश उत्तर तथा ७६२० अक्षांश पूर्व में स्थित है। यह इटावा से २४ मील तथा भरथना से १४ मील दूर - भरथना ऊसराहार सड़क पर स्थित है । १६०१ में यहाँ की आबादी ३१५० थी । इसमें अहीर अधिक हैं । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ * श्री लँबेचु समाजका इतिहास # लखना, तहसील भरथना लखना एक छोटा कस्बा है। यह २६४० अक्षांश उत्तर तथा ७६११ पूर्व भरथना से सहसों जाने वाली रोड पर स्थित है। यह भरथना स्टेशनसे १० मील तथा इटावा से १४ मील दूर है। यह कस्या भोगनीपुर नहरके दाहिने किनारे पर स्थित है और इटावा औरया की सड़क से २ मील दक्षिण में है। १८६३ में लखना तहसील का प्रधान कार्यालय था---उसी वर्ष यह कार्यालय भरथना में हटा. दिया गया। मुञ्ज, तहसील इटावा यह गाँव इटावा फरूखाबाद रोडके निकट २६५५ अक्षांश उत्तर ७०११ अक्षांश पूर्वमें इटावासे १४ मील उत्तर पूर्वमें स्थित है। १८७२ में इसकी आबादी ६८४ तथा १६०१ में २६१६ हो गई। अहीर यहां अधिक हैं। प्राचीन समय में विस्तृत तथा ऊँचाई को ध्यान में रख कर यह खेड़ा मुज्ज प्रसिद्ध स्थान जान पड़ता है। यहां के निवासी कहते हैं कि यह कौरव और पाण्डवों का युद्ध स्थल था। इसका उल्लेख महाभारत में है कि इस अवसर Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास १०३ पर राजा मुझ जिसका नाम मूर्तध्वज था अपने दो लड़कों के साथ राजा युधिष्ठिर से लड़ा। इस संबंध में अब भी मूर्तध्वज के किले के दो गुम्बज की ओर संकेत कर लोग बताते हैं । खेरा के उत्तर में एक पुराना कुआँ है जो बड़े कंकड़ों से बना है। मालूम पड़ता है कि थे टुकड़े किसी पुरानी इमारत से निकाले गये थे । इस खेड़ा में बहुत से फर्श लगे हैं जो आधुनिक मकानों में काम में लाये जाते हैं और जो यहां ३०, ४० फीट नीचे तक मिलते हैं। मि० ह्यम ने इस स्थान को मूज बताया है जो १०१८ में महमूद गजनी द्वारा अधिकार में कर लिया गया था । बाली खुर्द, तहसील भरथना । यह एक बड़ा गाँव है जो २६४४ अक्षांश उत्तर तथा ७९१७ अक्षाँश पूर्व, इटावा से १४ मील पूर्व तथा भरथना से ४ मील है । १६०१ में इसकी आबादी २८४७ थी जिनमें बनिया और अहीरों की संख्या अधिक थी। यहां पर प्राचीन खेड़ा है जिसके चारों ओर बिनसिया के चौधरी जयचन्द द्वारा एक प्राचीर है Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ___ इटावा जिले की भूमि ऐतिहासिक सत्यों को अपने हृदयमें छिपाये पड़ी है। आसई खेड़ा, मुंज; कुदरकोट और चकर नगरके खंडहरों में जैन मूर्तियां औरजैन साहित्य का कितना भंडार भरा पड़ा है यह तो कोई अन्वेषी अनुसंधान कर्ता ही बतला सकता है । अगर संयुक्त प्रांत की सरकार इन ऐतिहासिक स्थानों की ओर ध्यान दे तो बहुत सी अप्राप्य ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त की जा सकती है। क्या सरकार का ध्यान इस ओर जायेगा ? इस इटावाके सरकारी गजटियर के लेख से पाठकों को मालूम हो कि जो पहिले ही पेजमें लिखा है कि कुदर कोट में (कुदर कोट एक इटावाकी तहसील है) उसमें एक ताम्र पत्र मिला है जो सं० ११५४ में चन्द्रदेव के शासन कालमें लिखा गया था। इससे आप लोगों को विदित होगा जो फिरोजाबाद के अटाके जिन मन्दिर में श्याम पाषाण की प्रतिमा है और उसको पहले हम देखा था उस पर यह निम्नलिखित लेख था। सम्बत् ११५३ जेठ बदी त्रयोदशी लम्बकञ्चुकान्वये श्रीचन्द्रदेवराज्ये इत्यादि । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १०५ ३१ वर्ष हुए हमने देखा था। अभी फिर वहाँ गये तो सवारी की दिक्कत से रात्रि हो गई। दीपक से देखा जो पहिली प्रतिमा ११ सवा फुट की श्याम पाषाण की चन्द्रप्रभ भगवान् को उसका लेख इस प्रकार है श्री सम्बत् १२०१ जेठ सुदी त्रयोदशी सोमे लम्बकञ्चुकान्वये साधु खुदालहिपिकं क्षत्रदेव चन्द्रण प्रतिष्टापितम् । यह अँगाड़ी रखी हुई प्रतिमा का लेख है । और इसके पीछे दूसरी प्रतिमा का लेख दूर से इतना ही पढ़ा गयासं० ११५३ जेठ वदी १३ और लेख अगाड़ी प्रतिमा के आड में था। स्नान करने की जोगाई न थी। जो स्नान करके देखते ६ बजे रात्रिको लौटना था। इन प्रतिमा पर संवत् ११५३ और १२०१ की प्रतिमा में एक ही चन्द्रदेव लिखा है सो या तो ४७ वर्ष के अन्तर तक उन्हींका राज्य रहने शके हैं या चन्द्रदेव कोई दूसरे चन्द्रदेव राज्य गद्दी पर बैठे हों। तो चन्द्रप्रभ भगवान की मूर्ति लम्बेचुओं की प्रतिष्ठा कराई है ही। तब राजा चन्द्रपाल को पल्लीवाल किस आधार पर लिखा ? राजा चन्द्रपालसे Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * हमारा चंदोरिया गोत्र है ही और ६०० वर्षों से राज्य रहा तो कई चन्द्रदेव हो सके हैं। जैसे कि ८ वीं शताब्दीमें प्रथम कृष्ण द्वितीय कृष्ण प्रथम गोविन्द द्वितीय गोविन्द राजाओं की गद्दी होती रही। इन्हीं प्रथम कृष्ण-दन्तिदुर्ग राठोर के ( महाराष्ट्र ) वंशमें ग्वालियर महाराज की गद्दियां होती हैं। माधवराव जयाजी राव और फिर माधवराव ऐसे ही ये होंगे। तीसरे कई चन्द्रदेव कई चन्द्रपाल इस लम्बेचू चौहान वंशमें हुये देखो दूसरे शिलालेख में इस प्रकार है:____ श्रीयुत पं० जगन्नाथ तिवारीजी ने जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १३ पेज ७ में लिखा है कि सं० १००० से लेकर १६०० तक के ६०० वर्ष के काल में दिगम्बर जैनियों का राज्य इस नगर में ( चन्दवार ) में रहा है। वि० सं० १०५४ में चन्द्रपाल दिगम्बर जैन राजा हुआ। जिसका दीवान राम सिंह हारुल जो लम्बकञ्चुक (लम्बेचू ) दिगम्बर जैन थे वि० सं० १०५३।१०५६ में कई प्रतिष्ठायें कराई हैं। इन प्रतापी राजा चन्द्रपाल के नाम से ही इस नगर का नाम चन्दवार पड़ा । आपने चन्द्रपाल को पल्लीवाल लिखा है । सो भूल से लिखा गया है। तुम्हारा ही लिखे हुये लेख में लिखा है कि Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १०७ राजा चन्द्रपाल ने राज्य प्राप्त करने के बाद जिन प्रतिष्ठा कराई स्फटिक के चन्द्रप्रभ भगवान् की। जो अब भी चन्द्रप्रभ कं जिन मन्दिरमें विराजमान हैं। अणुवय प्रदीव ग्रन्थमें लिखा है जब चोहानोंका राज था तब भरतपाल से लेकर आहब मल्ल तक पांच पीढ़ी तक प्रधान ( मंत्री ) भी लम्बेच ( चोहान ) वंश ही था। हल्लण से लेकर करण ( कृष्णादित्य तक ) इनको वणिकपति ) का अर्थ वणिजो ( वनियांका ) स्वामी इस अर्थ से बनिये कैसे समझ लिये ? ब्राह्मणों ने जैन समाज को बनिये बता दिये । या व्यापार वृत्ति से बनिये कहने लगे। सो बनिये नहीं जैन समाज अधिकतर क्षत्रिय वंश है। तिसमें लम्बेचुओं कोतो क्षत्रिय व वंशावली पट्टावली जिनप्रतिमा लेखः ताम्र पत्र लेख, राय भाटों की कविता, राजपूताने के इतिहास, इटावा गजटियर देश नाम आदि अनेक प्रमाणोंसे प्रमाणित है। और लम्बेचू यदुवंशी क्षत्रिय चोहान वंश हैं। लम्बेचू से चोहान, लम्बेचू चोहान हैं ऐसा सिद्ध है। शब्द व्युत्पत्ति से भी लम्बेचूहान से तथा चाहमान से चोहान शब्द व्युत्पन्न हुआ। इस गजटियर से भी प्रमाणित हैकि चन्दवार इटावा मूञ्ज आसईखेड़ा आदि में चोहानों का Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * राज्य था। और भदोरिया क्षत्रिय चन्दवार से आये। कालान्तर में चोहान कहलाने लगे। या अजमेर से आये अजमेर तथा गुजरात नागोर साम्हर ( वृन्दावती) बूंदी जालोर, नाड्डुलाई ( नारलाई ) आघाटपुरः चित्तौड़ उदय पुर मालवा; इन्दौर; हाड़ोदा (हरदा) ये सब तथा ईडरगढ़; बीजापुर तक सब चोहान क्षत्रियों से भरे पड़े थे। और अब भी भरे पड़े हैं। देवरा सोनगरा सब जगह चोहान राजपूत रहे । चोहान यदुवंशी क्षत्रिय जैन रहे हैं । चन्दवार के सब जैन थे। तो चन्दवार में राजा चन्द्रपाल लम्बेच थे। और राजा चन्द्रपाल ने चन्दवार बसाई और इन्हींके बंश के चन्दोरिया गोत्रवाले लम्बेच हुये और राम सिंह हारुल लमेच थे यह स्पष्ट ही है। इस भाष्कर १३ भाग में साफ लिखा है कि राजा चन्द्रपाल ने राज्य प्राप्त करने के बाद १०५३ में प्रतिष्टा कराई सो यातो इसमें भूल है कि ११५३ की जगह १०५३ लिखा है। इनके लेख से स्फटिक के चन्द्रप्रभ भगवान का सम्बत् हो तो सौ वर्ष पहिले से ही लम्बेच ( चोहानों ) का सिलसिला जमा हो और विश्वकोष में चन्द्रपाल के सम्बन्ध में लिखा है कि Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १०६ चन्द्रपाल इटावा अञ्चलके एक राजा का नाम था सो विश्वकोष मेरे सामने कलकत्तामें छपा है । इटावा और प्रोजाबादका कुछ ही फर्क है 1 1 जैसा आदमी ने समझा वैसा लिखा दिया चन्द्रपाल चन्द्रवार के राजा हुये और वे लॅम्बेचू थे । पल्लीवाल नहीं प्रतिमालेख अशुद्ध नहीं हो सकते। लम्बकञ्चकान्वये चन्द्रदेव राज्ये चन्द्रवार फीरोजाबादसे ४ मील फासले पर है । भास्कर में भी लिखते हैं और हम खुद जाकर मेले में चन्दवारमें देखा है । १००० संवत् तक की माथुरगच्छ के आचार्यों की प्रतिष्ठा कराई हुई दो फुट तीन फुट की बहुत प्रतिमायें एक दालान में पड़ी थी। पद्मावतीपुरवाल जन यात्री लोग वे समझीसे पानीका लोटा भर के उनके ऊपर धर देते थे । तब मैंने लोगों को उपदेश दिया । तब वे प्रतिमायें हिफाजत से कहीं रखी होंगी। दूसरी बार मैंने नहीं पाई । एक शिला लेख छपा है देशी पाषाण बादामी रंग का तीन फुटकी मूर्ति सं० १०५६ अगहन सुदी ५ गुरौ तिथौ रमाद्यकान्त्यावलि कनकदेव सुतः कोकः निर्मापितः Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ____ यह कनकदेव राजा सोनपाल होसके हैं जिनसे सोनी गोत्र हुआ और सोनी को संघपति संघाटक पद मिलने से संघी हुये और इन्होंने सोनी (सोनिया गांव) जिसको आजकल के लोगों ने कुछ का कुछ लिख मारा है । सोनिया को सोहनिया गांव लिखने लग हैं अभी भी गवालियर जिले भिण्ड से तीसरा स्टेशन सोनी है जो सोनिया गांव के नाम से हुआ है। सोनिया गांव में राजा सोनपाल ( कनकपाल ) ने कनक मठ बनवाया । जिसका दर्शन ४ कोश ८ मील से होता है। इतना ऊँचा है और लम्वृ वंश जब जूनागढ़ गुजगत से १४६ की वर्ष में चलकर इधर आया तो फुटकर अनेक जगह रहने का सत्व मिद्ध होता है। ये तो करोड़ों की संख्या में थे। साम्हर नागोर आदि ये रहे हैं यह तो ओझा ही लिखते हैं जिन मन्दिर था। जिसमें की प्रतिमा हटा कर अजैनों ने एक लम्बा पत्थर छटवाकर गड़वा दिया और उसे महादेव का मन्दिर बोलने लगे पर अब भी उस कनक मठ के चारों कोनों में ४ मन्दिर भन्न पड़े हैं और उन कोनों के पास जैन मूर्तियां पड़ी हैं हम और तारा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाज का इतिहास # १११ चन्दजी रपरिया मुरेना से गये थे । उनकी फोटो भी लाये थे और तालाब में एक पीले पाषाण की सुन्दर मूर्ति पड़ी थी और माता के मन्दिर में यक्ष यक्षिणियों की मूर्तियों से अज्ञानी लोगोंने भीति उठा दी है । उस माता के मन्दिर के चारों तरफ जैन मूर्तियां रखी थी । स्यात् मेरा ख्याल ह एक १ तथा दो शताब्दी या ११।१२ शेताब्दी की मूर्तियाँ थीं । इसी भाष्कर १३ वें भाग में उसी कनकसुत के लेख के नीचे एक देशी पाषाण की बादामी रंग की ३ तीन फूट की मूर्ति सं० १०५३ बैसाख सुदी ३ रामासिंह हारूल इतना ही लेख है और व्यस्त लेख है फिर पं० जगन्नाथजी ने लिखा है पेज ८ में चन्दवारमें ५१ जैन प्रतिष्ठायें हुई हैं। पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में एक पाषाण की श्यामवर्ण २ फूट की प्रतिमा । सिद्धिः सम्वत् १४४८ वर्षे ज्येष्ठ सुदी १५ शुक्रं काष्ठा संधे मथुरान्वये पुष्करगणे प्रतिष्ठाचार्य श्री अनन्त कीर्ति देवाः इन्द्र रामचन्द्रदे लम्बकञ्चुकान्वये श्रीचन्द्रपाट दुर्गे निवासितः राउत गओ पुत्र महाराजा तत्पुत्र राउत होत भी तत्पुत्र चन्नीदेव तद्भार्या भट्टो तयोः पुत्रः साधुः Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * तउवासिंह साधु जी ऊणसीहेन प्रतिष्टाकारापिता यह फिरोजोबाद छिपेटी मुहल्ला के जैन मन्दिरकी मूर्तिका लेख है। भाग १३ पंज ८ भास्करमें छपा है । इससे स्पष्ट हो जाता है राजा रामचन्द्रदेव भी लम्बकञ्चुक थे तथा चुन्नीदेव राडत भी लंबेचू थे और चन्द्रपाटदुर्ग चन्दवार किलेके रहनेवाले थे और हाउली रोय राउत गोत्र के लँबेच तथा रामसिंह मंत्री सब लवेच थे और सं० १४४८ की प्रतिमा की प्रति में तथा अनेकान्त पत्र किरण ८६ पेज ३४६ में। अथ सम्वत्सरे १४६८ ज्येष्ठ पञ्च दश्यां शुक्रवासरे श्रीमचन्द्र पाट नगरे महाराजाधिराज श्री रामचन्द्रदेव राज्ये तत्र श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये श्रीमूलसंघे गुर्जरगोष्ठि तिहुयण गिरिया साधु श्री जगसिंह भार्या सोमा तयोः पुत्रा चत्वारः प्रथमपुत्र उदैसिंह द्वितीय अजय सिंह तृतीय पहमराज चतुर्थ खामदेव ज्येष्ठ पुत्र उद्दसिंहभार्या रतो त्रयोपुत्राः ज्येष्ठ पुत्र देल्हा भार्या हिरोतयोः पुत्रौ द्वौ ज्येष्ठ पुत्र हालू द्वितीय अर्जुन ( ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ इदं षट्कर्मोपदेश 'शास्त्रं लिखापितं ) इसमें संवत् १४६८ में श्रीरामचन्द्र राजा थे तो रामचन्द्रजी का ही राज्य ४० वर्ष तक और राज्य Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *मी लंबेचू समाजका इतिहास रहा। इसी प्रकार आज कल की आयुष्य के हिसाब से १०० वर्ष राज्य एक राजा का रहना संभावित कम है तो दो चन्द्रदेव दो चन्द्रपाल हो सकते हैं । रामचन्द्र एक ही होंगे तथा साम्हरी नरेश के पुत्र सारंगदेव अनेकान्त पत्र ३४७ पेज में लिखा है सो साम्हरी नरेश से साम्हर से आये कोई राजा को कह सकते हैं। क्योंकि गुजरात से आकर लंबेचू नागौर और साम्हर में तथा ढूंढार मारवाड़ में तो बसे ही इससे सारंग नरेन्द्र को साम्हरी नरेश के पुत्र लिखे लंबेच वंशावली में सारंग नरेन्द्र नहीं आया है । किन्तु राजपूताने इतिहास में आया है और श्रीमान् पं० परमानन्द शास्त्रीजी ने अनेकान्त पत्र पेज ३४५ में लिखा है कि सारङ्ग नरेन्द्र राजा के मन्त्री वासाधर जायस ( जैसवाल ) वंशी सोमदेव श्रेष्ठी के सात पुत्रों में से प्रथम थे। यह भी बात भूल की है। जैन मित्र गुरुवार वैशाख बदी १ वीर सं० २४५१ के पेज ३३७ में श्रीमान पूँ० ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी ने अप्रगट श्रीवर्द्धमान पुराण संस्कृत श्रीमुनि पद्मनन्दिकृत का विवरण लिखते हुये लिखा है कि यह संवत् १५२२ फागुनवदी ६ का लिखा हुआ ८ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ *भी लँबेचू समाजका इतिहास * ४६० वर्ष का पुराना लिखित है। श्रीपचनन्दि मुनि श्री प्रभाचन्द्र आचार्य या दूसरे प्रभाचन्द्र जो १४ शताब्दी में हुये जिन्होंने प्रमितिवाद, युक्तिवाद, अन्यासिवाद, तर्कवाद, नयवाद, यह पाँच ग्रंथ रचे। ये प्रभाचन्द्र भी लँमेच होने शके हैं। प्रशस्ति के अन्त में १७ श्लोक हैं। उनसे पता चलता है कि लम्बकञ्चुक ( लम्बेच गोत्रघर सोमदेव श्रावक थे। उनकी स्त्री सुभद्रा थी। उनके दो पुत्र थे। वासाधर और हरिराज । हरिराज के पुत्र मनःसुख थे। यह ही श्रीपयनन्दि मुनि हुये। गोत्र का श्लोक है :लम्बकञ्चुक सद्गोत्र नभःसोमोऽसमधु तिः । सोमदेवोऽभवत्साधुन्यलोक शिरोमणिः ।। आशय लम्बकञ्चुक (लम्बेच) श्रेष्ठ वंश रूपी आकाश में जिनके समान और की युति नहीं भन्य लोको में शिरोमणि साधु श्रेष्ठ शाह सोमदेव हुये। सोमदेव के पुत्र वासाधर और हरािज और हरिराज के पुत्र मनःसुख ये ही पद्मनन्दि मुनि भये और जब श्रीवर्धमान पुराण १५२२ का लिखा है। यह ग्रंथ सूरत के गोपीपुरा मुहल्ला के श्री Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबे समाजका इतिहास * ११५ दिगम्बर जिन मन्दिर के संस्कृत भण्डार में जिसका प्रबन्ध भाई नगीनादास करमचन्द नरसिंहपुरा करते हैं तो हरिराज के भाई वासाधर ये ही १४ व १५ शताब्दियों में होने चाहिये । और श्री वर्द्धमानपुराण का मङ्गलाचरण कितना सुन्दर हैं। स्वच्छंद क्रीऽतो यत्र चिदानन्दौ परस्परम् । जगत्रयैक पूज्याय तस्मै सिद्धात्मने नमः ॥ भावार्थ - जिस सिद्ध भगवान में ज्ञान और आनन्द स्वच्छन्द हो परस्पर केलि कर रहे हैं। उन तीन जगत में पूज्य सिद्धों को नमस्कार हो । जब श्री महावीर स्वामीका जन्म भया तब भगवान् की स्तुति करता हुआ इन्द्र कहता है । अचेतना अपि प्रापन् दिशो यत्र प्रसन्नतां । सचेतना कथंनस्युः तत्र सानन्द मानसाः ॥ हे प्रभो आपके जन्म से अचेतन दिशायें सब प्रसन्न हो गईं । अर्थात् कण्टकादि रहित साफ-सुथरी हो गई । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ * श्री लॅवेचू समाजका इतिहास * ( देवकृत अतिशय ) तो सचेतन प्राणी सानन्द मन क्यों न हों, हो यही होवै। . इन्द्र सुमेरु पर स्नान कराकर भगवान् को अलंकृत करता है। वर्णोज्वलं रसोपेतं सत्कान्यमिव सत्पदं। अलंकारान्वितं शक्रः शरीरं कृतवान् प्रभोः । जैसे कवि सत्काब्य को सुन्दर वर्ण और श्रृंगारादि रस तथा श्रेष्ठ पदों से सुशोभित बनाता है। वैसे ही इन्द्र ने भगवान् को सुन्दर दिव्य वस्त्रादि. आभरणादि से सुसज्जित किया। फिर जब देवने सर्पका रूप धारण कर उपसर्ग किया, भगवान् ने उपसर्ग जीत लिया। तब देव कहता है : क्षमस्वत जगन्नाथ यन्मयाऽनुचितं कृतं विधुन्तुदाय शीतांशु स्तुदतेपि न कुप्यति ॥ हे भगवान्, हे जगन्नाथ, जो मैंने आपके ऊपर उपसर्ग कर गले में सर्प डाला, इत्यादि। अनुचित किया, वह मेरे पर क्षमा करो क्या राहु से सताया गया, दवाया गया, चन्द्र क्या दवनेपर भी क्रोध करता है ? नहीं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ virmanav *श्री व समाजका इतिहास * ११७ पिता सिद्धार्थ राजा कहते हैं :संप्राप्त जन्मापि बंद्य स्त्वं चेह नाहकं पुनः जातः पङ्काद्धृतः पयो नपङ्कोमस्तके बुधैः ॥ कमल कीचड़ से उत्पन्न होता है तो पद्म याने कमल को सव कोई मस्तक पर रखता है कीचड़को नहीं इत्यादि सुन्दर कथन है। इन कृति सहस्रनाम भी है। वासाधर मन्त्री हरराज का भाई लम्बेच थे। सोमदेव के पुत्र थे पर जायसवाल नहीं थे। क्योंकि वंवावदे के सरदार हरराज हालू (हमीर) यो चन्द्रराज संवत् १४४६ में हुये और हरराज से हाड़ा, चोहान कहलाये। हाड़ा चोहानों के मूल पुरुष हरराज लिखा है। हरराज के ही हाल (हमीर) चन्द्रराज नामान्तर है। अब भी हरदा में लम्बेचुओं के २० घर होंगे। तब सारंगनरेन्द्र के मन्त्री वासाधर लम्बेच ही थे। (जायस) जैसवाल नहीं। __- और साम्हर के रहनेवाले चोहान साम्हरी नरेश कहलाते हैं। प्रथम सोजीराम को मणिकरावने मंत्री बनाया। ८४ गांवका शासन किया। साम्हरका नाम शाकम्बरी भूषण सपादलक्ष विषय है इससे सवालाख गांव लगते थे। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ *श्री लॅबेचू समाजका इतिहास, ___ भोगीराय का कवित्त पुराना कहता है। जो रावत गोत्रका है साम्हरी नरेश भरअपाल आगे गाँव थाप प्रथम चन्दवार सिद्धि देवतान गाई है। दई है नवल प्रसादी जके रीड़ित दई सामन्ती सपूती शिर ____ पाई है। बदन नरेश जीत पत्र लीनो रावत रजले हरि कैसी शक्ति छाई है। थापा राहुल पति सो नीति गुपाल सिंह शाखि शाखिहोतई अनेरी रीति आई है। इससे साबित होता है कि राजा भरतपाल साम्हरी नरेश कहलाते थे। जो अणुब्बय पईव ग्रंथमें भरतपाल से चोहान वंश दिखाया है। ये लॅवेच समाज के रावत गोत्र के थे। और अनेक प्रतिष्ठाकारक हाउली राव रावत गोत्र में भये इससे सारे जैन समाज को अजैन लोगोंने साहु कह कर बनिये कह दिये । और जैन समाज भी बनिये कहने लगे। नहीं तो क्या संसार में कभी अभीर उमराव राजा और कभी गरीब निर्धन देव से होता है। जब . Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *भी बेचू समाजका इतिहास - राज्य नहीं रहा तो (प्राण यात्रा) जीविका तो किसी भांति करेंगे ही। व्यापार वृत्ति में लग गये तो बनिये कहने लगे पर जैन समाज अधिकतर क्षत्रिय है । खंडेलवाल भी खंडेला और मालवा के चोहानों में हैं। और चोहान हैं सो योदब हैं और जैसवाल जैसलमेर के यादव क्षत्रिय हैं। परवार परमार वंश के या परमार के प्रतीहार वंश के ( खीची चोहानों में ) होने चाहिये । परवार खोज करें। पल्लीवाल राठोरों में से होने चाहिये । अग्रवाल तो अग्रोहा के क्षत्रिय सूचित हैं ही पर और ऊपर खोज करेंगे तो सब छप्पन करोड़ यादव वंश में से ही निकास निकलेगा। अब हम गजटियर में दिये हुये प्रदेशों से लम्बेचुओंका विशेष सम्बन्ध दिखाते हैं। गूंज तहसील (इटावा) मुंज प्रसिद्ध स्थान राजा मूंज ने बसाया। राजा का नाम मूर्तध्वज इसका अपभ्रंश पूँज भया रेफ तथा तकार और ध्ववर्णोका लोप कर मूंज रहा और इस मुंज तहसील से लम्बेचुओं का गोत्र मुंजवार गोत्र कहाया । इससे सूचित होता है कि राजा मुंज ( मूर्तध्वज ) लम्बेच वंश का होना Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्री लँकेचू समाजका इतिहास चाहिये। क्योंकि यदि राजा मुंज युधिष्ठिर से लड़ा ऐसी महाभारत तथा किंवदन्ती की श्रुति है तो ताज्जुब क्या उस समय यदुवंशी कृष्णादिका कौरवोंसे युद्ध भया ही था। पाण्डवों से भी होने में क्या आश्चर्य ? क्षत्रियों में यह होता ही रहता है। और आसई खेड़ा, मुंज, कुदरकोट के खंडहरों में जैन मूर्तिया हाने से और भी दृढ़ प्रमाण जैनों का प्रतीक है। और मलाजनी रियासत इसकी स्थापना (पड़िहार (प्रतिहार ) वंश भी चोहानों के प्रतीहार और परमारों के प्रतीहार । प्रतीहार नाम द्वारपाल का है सो परमार भी खीची चोहानों में राजपूताने इतिहास में लिखा है। तब प्रतिहार भी क्षत्रिय ही हैं जंगजीतने स्थापना की और पन्ना जो सीपी में है वहाँ का राजा महासिंह से युद्ध हुआ। उसके पुत्र दीप सिंह भागकर आये । सकरोली लाहर आदि से सम्बन्ध किये ये सब शाखा भेद से यदुवंशी क्षत्रिय रहे और जैन संस्कार भी रहे । . और कुदरकोट इसके स्थान से कुदरागोत्र अलल भया। इसमें ६ ब्राम्हणों का कथन आया, सो इनमें लहरिया ब्राम्हणों की जमींदारी करहल जिले में है और Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री. बेधु समाजका इतिहास. १२१ राणा विक्रमजीत के दो पुत्र भये। एक अगरसिंह सकरोली के राजा भये, जो एटा जिले में है और दूसरे प्रताप रुद्र प्रताप नहर के राजा भये। प्रताप रुद्र के प्रधान मन्त्री भगवन्तसिंह जो कानूनगो ( कानीगो ) थे, जिनको भैयाजू की खिताब थी। इन्हीं के वंश में शिखरप्रसाद और चेतसिंह भये, जिनकी जमींदारी करहल के आस-पास मैनपुरी जिले में बड़ी जमीदारी है। जिनके शिखरप्रसाद के दत्तक पुत्र (गोद) लाला फुलजारीलाल थे और उनके गोद लाला मिजाजीलाल हैं। उनके औरस पुत्र लाला ऋषभदास हैं और चेतसिंह के लड़की के पुत्र लाला बाबूराम हैं। अब ये जुदे-जुदे जमींदार हैं। सं० विक्रम १६१४ की साल सन् १८५७ के गदर में चेतसिंह और लहरिया ब्राम्हणों ने करहल शहर की रक्षा की। चेतसिंह कड़ावीन लेकर घोड़े पर सवार होकर गोली से डाकुओं को भगाते थे। जब इनका आपस में मुकद्दमा चला, तब कागजातों में यह विषय निकला था। भगवन्तसिंह ( भगवन्त राय ) के दो स्त्रियां थीं। प्रथम स्त्री के लालसेन उनके पुत्र चैनसुख ( परमानन्द ) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्री खेचू समाजका इतिहास - उनके शानसिंह उनके पुत्र प्रतापसिंह उनके ३ पुत्र । शिववरदानीलाल, मनपोखनलाल, वंशीधर सोवरदानीलाल के कुछ मिथ्या श्रद्धा भी थो, ऐसा मालूम होता है नाम से और जैन श्रद्धा भी थी। घर में जिन चत्यालय ऊपर छतपर था। राणा प्रताप रुद्र प्रताप नहर क राजा भये। उनका संवत् सोलह सौ शताब्दी के करीब है। सुमेरसिंह (सुमेरुशाह) के ८ पीढ़ी बाद राजा प्रताप रुद्र भये और वंशावली में भी १६११ के करीब लिखा है तथा अनेकान्त पत्र में रइधु कवि ने भी पुण्यास्रव कथा कोष में राजा प्रताप रुद्र का जिकर किया है और आशीर्वाद दिया है। ये लँबेचू जैन थे निर्विवाद सिद्ध है और शक संवत् का मिलान है। उनके प्रधान मन्त्री भगवन्त सिंह (शाह) कानूनगो ( कानीगो ) थे। उनकी दूसरी स्त्री से महासुख ( अतिसुख ) पुत्र भये । उनसे जादोराय उनके चुन्नीलाल उनके आशाराम उनके पहुपसिंह उनके चेतसिंह शिखर प्रसाद चेतसिह ( जिन्होंने गदर में करहल की रक्षा की) उनके नवासा पुत्री के पुत्र लाला बाबूराम हैं। उनके पुत्र रामस्वरूप उनके नरेन्द्रकुमार आदि सात-आठ पुत्र और Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *मी वेचू समाजका इतिहास- १२३ पौत्र हैं और चेतसिंह के जेठे भाई लाला शिखरप्रसाद के दत्तक पुत्र लाला फुलजारीलाल रईस थे। उनके दत्तक पुत्र मिजाजीलाल हैं और उनके औरस पुत्र ऋषभदास हैं उनका एक छोटा पुत्र है। ये तो सन्तान-दर-सन्तान चले आये। अब तक वंश मौजूद है। और भी इन्हीं भगवंत सिंह की संतान कुछ चली कुछ छुट गई। वे ये हुयेमहताबराय, ग्यादीन, शिवदीनसिंह, सदासुख, वीरशाह, किशनसिंह, खुशहालसिंह ( कविता करते थे)। जवाहरलाल, कुन्दनलाल, दौलतसिंह, प्राणनाथ, उम्मेदराय, सोवरदानीलाल के दत्तक पुत्र बनवारीलाल। वंशोधर के भी दत्तक पुत्र हैं-डूंगरमल, सुमेरदास, नृपतिसिंह, महाराजसिंह इत्यादि। भगवंतसिंह कानूगो का सिजरा कहा। कानूगो के नाम से मुहल्ला कानगो बोला जाता है। चोथो वंशावली में भगवन्त सिंह ( भगुन्त राय) के पुत्रों के नामों का मिलान इस सिजरा से बहुत कम पाया जाता है। इससे हम ऐसा समझते हैं, उन्होंने नाती, पोता तो लिखे नहीं हैं किन्तु पुत्र लिखे हैं। सो कुछ तो पुत्र पोता के नाम मिला दिये, कुछ उर्फ नाम से भी Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WMrvvv १२४ * श्री बेचू समाजका इतिहास'* पुकारते हैं। . उससे भी फर्क होने सके है और गहरवार राजपूत जयचन्द की पुत्री देवकली के पुत्र सेंगर वंश के संस्थापक बतलाये। जयचन्द राठौर थे। गहरवार के नामसे गढ़वाल गाँव है जो कचौरा से राजाकीहाट वहां से शाहपुरा, वहां से उत्तर में गढ़वाल गांव है । इन सब ग्रामों में लँबेचू रहते हैं और वंशावली में राणा केवलसिंह के पुत्र रतनसिंह ( रतनपाल ) इन्होंने ही रपरी वसाई हो । हाहुलीरावने गजरथ निकाला और मन्दिर बनवाया सो यह इटावा में कर्णपुराका जिन मन्दिर होगा। कन्नपुरा के पास ही विद्यापीठ है और वहां से चलकर पास ही में किला सुमेर सिंह का बनाया तथा त्रिकुटी ( टेक्सी का) मंदिर है और १३०७ की साल में सूर्यसिंह राजा भये । इन सूर्यसिंह का किला सूरीपुर में (बटेश्वर ) में है। इन्हीं या कृष्णजी के समय के सूर्यसेन का किला हो । बहुत कर उन्हीं सूर्यसेन का किला है। जिनके कर्ण पले पर कहने का मतलब यह है कि जब दशलक्षण पर्व के बाद कुआर बदी १ को धारा देते हैं। तब करहल आदि प्रदेशों में संकल्प में आर्यावर्ते सूर्यसेन प्रदेशे ऐसा कहते Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १२५ हैं। लॅबेचू यदुवंशी हैं। और लँबेचुओं में जब बालक इसमें यह कथन साधक है होता है और षष्ठी क्रिया जातक संस्कार होता है तब चोकपूर कर स्त्रिये जच्चा ( प्रसूती वाली माता) वालक गोदी में लेकर बैठती हैं स्त्रियें (अखड़ब ) लिवाती हैं । उस समय बालक के हाथ में तीर गहाया जाता है और जब सीमंत संस्कार अठमासा होता है तब गर्भिणी स्त्री को चौक पूर कर चोकी रखकर और चोकीपर गुर्भिणी को बिठा के उदम्बर फलों की माला ॐ ह्रीं उदम्बर फला भरणेन वहुपुत्रा भवितुमह स्वाहा । इस मंत्र से पहराकर और उस गर्भिणी के कानों में उसके देवर से शंखध्वनि कराते हैं । ये सब यदुवंशी होने के प्रतीक हैं। श्री नेमिनाथ भगवान् ने और कृष्णजी ने शंख बजाया। जब नागशय्या दली और श्री नेमिजिनका शंखचिंह है और तीर कमान भी चलाना क्षत्रियों का प्रतीक है और अनेकान्त पत्र में १६७१ सं० में कीर्ति सिंधुका राज्य लिखा है सो कीर्तिसिंह होगा । राजा कोई इन्हीं चोहानों में से भये होंगे या कीर्तिसागर हों और आसकरण मंत्री थे और इन्हीं Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ *श्री लबेचू समाजका इतिहास * ने अपना आसईखेड़ा इलाका बना किला बनाया होगा। ये सब छोटे २ राजा थे और १५ वीं शताब्दी १४४५ की साल में जशवंतसिंह ने जशवंतनगर बसाया राज्य किया और इन्हीं के वंश में १६७१ में भी कीर्तिसिंह भये होंगे और सहसमल से सहसों का राज्य स्थापित होगा ये सब लँमेंच जाति के ही पूर्व पुरुष हुये। इस प्रकार गजटियर और चोथी वंशावली का मिलान है। ___ पाठकों को इन वंशावली तथा शिलालेख, प्रतिमा लेख, तथा ताम्रपत्र यन्त्र लेख, और गजटियर वृत्तान्त पढ़कर लम्मकञ्चुक शब्द का अपभ्रंश लम्बेच शब्द है। और यह यदुवंशीय क्षत्रिय श्री नेमिनाथ जिन तीर्थकर कृष्ण बलभद्र लोम करणादि जैन क्षत्रिय वंशज लम्बेबू जाति का बोधक है। क्रमवद्ध शक संवतादि से स्पष्ट है, और चौथो बंशावली तथा इटावा गजटियर और इटावा के जाखन, कुदरकोट, वकेउर, चन्दवार आदि प्रदेशों के नाम से गोत्र अलल होने से ये चोहान क्षत्रिय हैं। और अणुन्बयरयणपईप और राय भाटों की कवितासे और भी विशेष स्पष्ट हो जायगा। अब हम शब्द व्युत्पत्ति से चोहान शन्दकी प्रवृत्ति दिखाते Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेच समाजका इतिहास * १२७ 1 हैं । इटावा, करहल, भिंड, अटेमो, आगरा, कानपुर आदि लम्बेचू जाति के कथन में लमेचुहान बोलते थे और बोलते हैं । जैसे लम्बेचुहान में मान अधिक है मानी होते हैं और लमेचू हमको खबर हैं कि कुंअरपाल साइरदार हमारे भिंड में बड़ी आसानी थी। साइरका ठेका ( कष्टमका) ठेका तीन-तीन लाख का तीन वर्ष का होता था। तो कुअर पाल लाते थे । खरउआ जैन थे तो वे या उनके साले छेदीलाल कहते थे कि लम्बेचूहान में पंडित ज्यादा हैं। उस समय में पंडित भादोलाल पं० गुलजारी लाल पं० धर्मसहाय पं० रामपतिलाल (वी. आर. सी. जैन के पिता ) लमेचुओं में पंडित अधिक थे । करहल में संस्कृत में ही शास्त्र पढ़ा जाता था, तो लमेचुहान का चोहान ऐसा अपभ्रंश शब्द है; क्योंकि संस्कृत व्याकरण में लिखा है क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिद प्रवृत्तिः क्वचिद्दिभाषा क्वचिदन्यदेव | विधेर्विधानं वहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ॥ व्याकरण शास्त्र में प्रकृति प्रत्यय प्रत्ययान्त की कहीं Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ *श्री लेवेचू समाजका इतिहास प्रवृत्ति देखी जाती है, कहीं प्रवृत्ति नहीं देखी जाती। निपात से ही शब्द सिद्ध होते हैं 'यल्लक्षणेनानुत्पन्न तत्सर्व निपातात् सिद्धं' जो लक्षण शास्त्र से सिद्ध न हो, वह सब निपात से सिद्ध होता है, तो कहीं प्रवृत्ति देखी जाती और कहीं नहीं देखी जाती। बाहुलक से (बाहुल्य कथन से) और कहीं विकल्प विधि होती है। एक बार प्रत्यय का प्रयोग होता है और एक बार नहीं होता है और कहीं और का और ही हो जाता है। वर्ण विपर्यय हो जाता है, तो आचार्य कहते हैं विधि ( देव ) कर्म का ( विधि ब्रह्मा को भी कहते हैं ) विधान कृत्य अनेक प्रकार का होता देख चार प्रकार का ( बाहुलक ) बाहुल्यता का कथन बतलाया है देखो जैसे वर्णाऽऽगमो गवो द्रादौ सिंहे वर्ण विपर्ययः । ___षोड़शादौ विकारः स्यात् वर्ण नाशः पृषोदरे । गो अग्रे ( प्लस ) इन्द्रः यहाँ पर गो शब्ब के अगाड़ी अवर्ण का आगम करके गवेण्द्रः बनाया और हिसि हिंसायां धातु ( मसदर ) है, उसके नुमागम करके हिनस्तीतिहिंस बनाया । यहां हिंस का सिंह बनाया, हिंस शब्द में हकार Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅवेचू समाजका इतिहास * १२६ को सकार कर दिया और सकार को हकार कर दिया तो हिंस का सिंह बनो, तो यहाँ अक्षरों का रद्दोबदल कर दिया वाहुलक से । और षट्दश का षोड़श बनाया, यहाँ टकार के स्थान में उकार और दकार के स्थान में डकार बना कर आद् गुणः सूत्र से गुणा देश कर षोड़श हो गया ओर पृषत्उदरं यस्य सपृषोदरः इसमें तकार का लोप कर गुणादेश कर पृषोदर हो गया, तो बाहुलक से अपभ्रंश शब्दों की भी सिद्धी होती है, तब लँमेचुहान शब्द में ( लम्बे ) इस भाग को उड़ा दिया और उकार को ओकार कर चोहान शब्द बना। राजपूताना इतिहास द्वितीय खण्ड में ओझाजी लिखते हैं कि चाहमान शन्द का चोहान शब्द बना। काश्मीरी पंडित जयानक अपने पृथ्वीराज विजय महाकाव्य में लिखते हैं, राजपताना इतिहास द्वितीय खण्ड ५२४ पेज :-- काकुत्स्यमिक्ष्वाकुरचूंश्च यद्दधत्पुराऽभवन्त्रिप्रवरंरघोःकुलम्। कलावपि प्राप्यसचाहमानतां प्ररूढ़ तुर्यपवरं बभूव तत् ॥ कान्य २७१ श्लोक । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. मी लॅवेचू समाजका इतिहास * आशय---रचु का बंश ( सूर्यवंश ) जो पहिले (कृतयुग में) काकुत्स्य इक्ष्वाकु और रघु इन तीन पूवरों वाला था वह कलियुग में चाहमान ( चोहान) को पाकर चार पूवर वाला हो गया। एक गोत्र (वंश) में तीन या चार पांच पवर तक होते हैं ऐसा इसी इतिहास राजपूताने के मे लिखा है यहां सबका एक कर दिया सूर्यवंश इक्ष्वाकु चाहान एक हो गये । और सौंदरनन्द काव्य का १ सर्ग तथा वायुपुराण के ८८ अध्याय के अनेक श्लोक उद्धृत कर यह भी दिखाया है कि अनेक क्षत्रिय ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। सूर्यवंशी मांधाता के पुत्र पुरुकुत्स अंबरीष और मुचुकुन्द । और अंबरीष का पुत्र युवनाश्व और उसका पुत्र हारित हुआ। जिसके वंशज अंगिरस हारित कहलाये और हारित गोत्री ब्राह्मण हुए। श्लोक तस्या मुत्पादया माम मांधाता त्रीन् सुतान् प्रभुः ॥७॥ पुरुकुत्स मम्बरीषं मुझुकुन्द श्च विश्रुतम् । अम्बरीषस्य दायादो युवनाश्वोऽपरः स्मृतः ॥७२॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * १३१ हरिती युवनाश्वस्य हारिताः शूरयः स्मृताः। एते अङ्गिरसः पुत्राः क्षात्रो पेता द्विजातयः ॥७३॥ (वायु पुराण ८८ अध्याय ) और विष्णु पुराण में भी तीसरे अध्याय में भी यही कथन है ( राजपताना पे० ५२७)। यह हमने प्रसङ्गवश इसलिये लिख दिया है कि क्षत्रियों के गोत्र तथा प्रवर कहे । तहाँ प्रवर ( गोत्र ) वंश में परम प्रसिद्ध पुरुषों के सूचक कहे और गोत्र कुल परम्पराय से कहे। गोत्र वंश और देश के अलल को भी गोत्र मान लेते हैं। कोई कृत्य से भी मान लिये गये और इसमें वायुपुराणादिक वैष्णव ग्रन्थों का कथन यों दिखाया कि उनके यहाँ भी क्षत्रियों में से ब्राह्मण हुए ( क्षत्रिय ब्राह्मण हुए ) और यह भी दिखाया है कि ब्राह्मणों के वंशधर क्षत्रिय हुए, पर क्षत्रियों के वंशधर ब्राह्मण कभी नहीं हुए। कहीं भी नहीं लिखा ऐसा गौरीशंकर हीराचन्द ओझाजी ने लिखा है। इसका तात्पर्य यह गौतमादि ऋषि गोत्र कहे सो उनकी पुरोहिताई या मान्यता के कारण कहे ; किन्तु इन ऋषियों को क्षत्रियों का वंशधर न समझो अथवा कहीं पर इनको पुत्र Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * लिखा है। पट्टावली में तो उन्हें ऋषि या पुरोहित न समझना। जैसे जैनआदि पुराण में श्री ऋषभदेव को ही गौतम कहा है और कुलकर मनु भी कहा है, तो ये प्रसिद्ध मूल पुरुष ठहरे। पुरोहित या ऋषि न रहे २२ तीर्थकरों का गोत्र काश्यप लिखा, तो काश्यपी नाम पृथ्वी का है। उसके साधक क्षत्रिय सब काश्यप ही ठहरे ऐसा समझना । अब फिर हम चोहान शब्द का ही विवेचन करते हैं। यहाँ पर भी चाहमान का जो चोहान शब्द भया सो कैसे चा अक्षर को चो किया, चकार में अकार का विकार ओकार किया और हकार के अकार को दीर्घ विकार किया और मा अक्षर का लोप किया तब चोहान बना और चोहान शब्द का अर्थ ( गुण ) मान को चाहनेवाला । तब क्षत्रियों के तो मान ही धन होता है ऐसा साहित्य कान्यादिक में दिखलाया है। तब लम्बेच चोहानों में हैं या लम्बेचुओं में से चोहान हैं। यह बात लम्बेच जाति में घटित है। हम जब १६५५ के संवत् में हाथरस के मेला बिम्ब प्रतिष्ठा में गये थे, तब हम से अलीगढ़ के पं० प्यारेलालजी ( पं० श्रीलाल के पिता) ने पूछा था Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास - १३३ तुम कौन हो ? हम बोले-लम्बेचे हैं। तब उन्होंने कहातुम वे ही लम्बेच हो, जो कुआं में गिर पड़े थे। धोखे से जब लोगों ने तुरन्त निकाले, तब उन्हीं से पूला, भोजन कर लो। तब वे वोले हम जीम कर गिरे थे। तब हमने कहा हम वे ही लम्बेच हैं, तब इससे स्वाभिमान ही सिद्ध हुआ कि विशेष आदर से कहे बिना किसी के खाना नहीं क्या जाने वह मनुष्य हमारी मनकी इच्छा जानने के लिये ही पूछता हो। और उसके भोजन तैयार न हो, तब तुरन्त हाँ, कहने से वह भी संकोच करें। और अपने भी संकोच होवे । इससे आदर से कहे बिना मत चाहो एक बार हम संवत् १६६० में ईडर गुजरात में नौकरी के लिये गये। हमें पं० धन्नालालजी ने बम्बई में सेठ माणिकचंद पानाचन्द से मिलने को बुलाया। बम्बई में जैन बोर्डिंग में ठहरे। वहाँ निवृत्त होकर सेठजी की गद्दी में खारी कुई के पास गये। गद्दी में बैठे रहे, हमें प्यास जोर की लगी भादवे का महीना था, हमने अपने जाति की अभ्यास (आदत) से गद्दी में पानी का घड़ा धरा था। पर पानी नहीं मांगा, चार बजे तक बैठे रहे। सेठ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ *भी लँबेचू समाजको इतिहास * जी से मिलकर जैन बोर्डिंग हीराबाग में आये। तब हमने नाथूराम प्रेमीजी से कहा कि आज तो हम प्यासन मर गए। काही ने हमें पानी की पछी ही नहीं तो प्रेमी जी बोले क्या पानी पी आये। हमने कहा क्या बात है। वे बोले वह पानी जूठा था। हुमड़ और गुजरातियों में जूठ का विचार नहीं वे सब एक गिलास से पानी पिया गिलास जूठा घड़े पर रख दिया। दूसरा आया वह भी पिया और घड़े पर गिलास रख दिया ऐसा करते हैं। तुम ईडर गुजरात जाते हो अपने हाथसे पानी लाना और पीना तो चाहमानता से कितना लाभ हुआ। समझ लो तो लम्बेच जाति आदर बिना कोई चीज ग्रहण नहीं करती थी। और अब भी नहीं करती इसी प्रकार दि. जैन ग्रन्थ महीपाल चरित्र जिसको ओझाजी ने भी इतिहास में प्रमाणता में लिया है । महीपाल सिंहल द्वीप (लंका) (सिलोन) में गये वहाँ एक राज कन्याने इनसे कहा है कि आप हमारे साथ विवाह कर लो। तब महीपाल ने उत्तर दिया है कि तुम्हारे पिता हमसे आदर से कहें तो हम विवाहें ये महीपाल ही माहप न हों, अन्वेषण की बात है; क्योंकि महीपाल Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # चरित्र इधर का ही है । सिलोन में राजा हमीर चोहान की पुत्री से राणा भीम का विवाह था । ऐसा राजपूताना इतिहास में है । जाना था । अब चाहें लमेचुहान शब्द से चोहान शब्द froyer हो और या चाहमान से चोहान निष्पन्न हो, लहान से चोहान भया या चाहमान से चोहान भया । दोनों तरह से सिद्ध है । और भी एक बात है । नामैक देशे नाम ग्रहणं नाम के एक देश से भी नाम का ग्रहण होता है । यह भी संस्कृत व्याकरण तथा प्राकृत से सिद्ध है जैसे असिआडसा से पञ्चपरमेष्ठी लिए जाते हैं देखो प्राकृत में भी लिखा है । अरहंता असरीरा आइरियात उवज्झया मुणिणो । पढ़ मक्खर णिपणो ओंकारों पंच परी || असे अरहंत अशरीर के असे सिद्ध और आचार्य का आलिया उपाध्याय का उ लिया और मुनि शब्द का मकार लिया । प्रथम अक्षर लेकर ओं बना । अकः सवर्णे दीर्घः इस सूत्र से दीर्घ किया आदगुणः इस सूत्र से गुण किया। मकार का अनुस्वार किया। ओं बना तो १३५ MiAani पद्मिनी से हुआ लंका में आना Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ * श्री लवेचू समाजका इतिहास * यहाँ एक-एक अक्षर से सब नामों का ग्रहण हुआ। उसी प्रकार इंगलिश में जैसे यस. पी. जैन से सुमति प्रसाद जैन और वी. आर. सी. जैन से विद्यार्थी ऋषभदास जैन डी. गुप्ता से दास गुप्त इस प्रकार अंगरेजी में भी लेते हैं ऐसे ही लमेचुहान से चोहान तथा चाहमान से चोहान भया । स्पष्टतया लम्बेच समाज का बोधक है। और वंशावली आदि से स्पष्ट है ही कि लम्बेच चोहान हैं। और लम्बेच चोहान हैं और राजा साहब के नौकरी करी सोराजा भदौरिया लिये और भदौरिया भी चोहान में से ही हैं। भिंड का किला राजा भदौरिया का ही बनवाया हुआ है, और अटेर में भी उन्हीं का बनवाया हुआ किला है। भिंड किले के नीचे तल्ले में पुरानी बस्ती की तरफ किले में भिंडी ऋषि का स्थान है। उन्हीं के नाम से शहर का नाम भिंड पड़ा। ये जैन ऋषि थे । सूरीपुर की पट्टावली में नाम आया है कि भिंडी ऋषि भिंड में भये उस भिंडी ऋषि के. स्थान में किले के नोचे दरवाजे से चोधरी गोत्र लमेचुओं के विवाह शादीमें पूड़ी, पापड़ो,गोझा (पकवान),अखड़ब लेकर जाते चढ़ाते छोटे में हम भी उनके साथ में व्योहार में Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # १३७ गये हैं पर उस समय इतना परिज्ञान नहीं था कि यह जैन ऋषि का स्थान है । भदावर राजा चोहान उस समय जैन थे ऐसा सूचित होता है जब अपने लोगों के वंश में हैं तब जैन तो होगें ही । राजा भदावर के यहाँ अब भी नौगाये गांव में शिखरचंद संघई खजान्ची चले आये अब एक दो वर्ष से राजा नहीं रहे । तब लड़के के समय नोकरी छोड़ आये । जशवन्त नगर में रहते हैं अब वह भिंडी ऋषि का स्थान ग्वालियर महाराज के हाथ में रहा अब स्वतंत्रता में हैं। पुजारी एक अजैन बाबा बोला जाता है । अत्र मूर्ति उस स्थान में किनकी है ख्याल नहीं । हमलोग तब बिना जाने यह कहते थे कि ये तो मिथ्यात्व पूजते हैं। पर पट्टाबली देखे पता लगता है कि अपना ही स्थान है। संसार में न जाने किस का क्या हो जाता है ত Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बटेश्वर ( शौर्यपुर ) सुरीपुर श्री नेमिनाथ भगवान की जन्म नगरी के जिन मंदिर से उपलब्ध शक सम्वत् सहित श्री पूज्यपाद दि० जैन आचार्यों की पट्टावलो को नकल जिससे इतिहास में बहुत कुछ सहायता प्राप्त है - __ अथ पट्टावली लिख्यते :श्री बर्द्धमान स्वामी मुक्त भये पीछे १२ वर्ष लों श्री गौतम स्वामी केली रहे और तिनको मुक्ति भये पीछे १२ वर्ष लों सुधर्मा चार्य केवली रहे। ३८ वर्ष ला जम्बू स्वामी केवली रहे। श्रीधर नाम अन्तकृत् केवली भये श्री मुनि अन्तकृत् अवधि ज्ञानी भये । सुपार्श्वनामा अन्तकृत श्रत केली भये। वेरियशो नामा अन्त के प्रज्ञा श्रवण भये। चन्द्रगुप्त के अन्त तक मुकुटबद्ध राजा क्षत्रिय वंश में महावती भये। इस प्रकार ६२ वर्ष लों केवली रहे । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAnna * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १३६ पीछे पांच श्रुत केवली हुए। वर्ष १४ लों, नन्दी वर्ष १६ लों नन्दिमित्र, वर्ष २३ लो अपराजित, वर्ष १६ लों गोवर्द्धन, वर्ष १८ लो भद्रवाहु । इनका समुचित काल वर्ष १०० । पीछे १० पूर्वधारी साधु भये । वर्ष १८ लों विशाखाचार्य, वष १६ लों प्रोष्ठिलाचार्य, वर्ष १२ लो जयसेन, १६ वर्ष लों नागसेन, वर्ष १६ लों सिद्धार्थाचार्य, वर्ष १८ लों धृतिषणाचार्य, वर्ष १३ लों बिजयाचार्य, वर्ष २० लो बृद्धिलिङ्गाचार्य, वर्ष १४ लों गंगदेव, वर्ष १६ लों धर्मसेन, इनका काल वर्ष १८३। पीछे ग्यारह अङ्गधारी भये, वर्ष १८ लों नक्षत्राचार्य, वर्ष २१ लों जयपालाचार्य, वर्ष ४६ लों पांडकाचार्य, वर्ष १४ लो धवलसेनाचार्य, वर्ष ३२ लों कंशाचार्य, इनका काल वर्ष १३२ हुआ। पीछे १० अङ्गधारी ४ आचार्य हुए। वर्ष ६ लों समुद्राचार्य, वर्ष १८ लों यशोभद्राचार्य, वर्ष २३ लों भद्रबाहु, वर्ष ५० लों लोहाचार्य, इनका काल बर्ष ६७ । इन पार्छ एकांगधारी रहे वर्ण २८ लों अर्हद्वल्या चार्य, (२) विशाखा चार्य (३) गुप्तिगुप्त ये तीन नाम धारी यहाँसे संघ ४ भये । मूल संघ में भये प्रथम १ नन्दी संघ, २ देव संघ, ३ सिंह Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * संघ, ४ सेनसंघ, काष्ठासंघ के कर्ता कुमारसेन भए, मूल संघ के कत्ता गुप्तिगुप्त भए, वर्ष २० लो माधनन्दि, वर्ग १४ लों धरसेन, वर्ण ३० लों पुष्पदन्त, वर्ग २० लों धृतिसेन इनका काल वर्ष ११८ ( यहाँ पर वषों में कुछ यहाँ से अंगघारी उच्छिन्न भये । यहाँ लग वर्ष सर्व ६८३ भये यहाँ राजा विक्रम का जन्म हुआ। यहाँ से सम्बत्सर चल्या। संवत् ४ में निमित्तज्ञानी भद्रबाहु भये । तिनका शिष्य गुप्तिगुप भये ता समय गिरनगरपुर कोन में उज्जयन्त गिरी की चन्द्रशाला कन्दरा विषं रहते धरसेन माधु चौदह पूर्वी में दुजा आग्रायणीय पूर्व ता में १४ वस्तु को नाम अधिकार। यहाँ अच्यवन लन्धिनामा पञ्चम वस्तु विर्षे प्राभृत नाम अन्तराधिकार है सो पश्चम वस्तु के चतुर्थ कर्म प्राभृत में प्रवीण हैं। ताने अपनी आयु स्वल्प जानि बसुधरा नगरी की श्री गोमट्टदेव प्रति यात्रा को आया । संघ ४ ताको यथोचित व नाम लिखि क्षुल्लक हस्ते पत्र भेज्या। शास्त्र की परम्य राय हेतु सों सर्वसंघ पत्र भेजि बांचि तब भूतवलि पुष्प Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * १४१ दंत दोय तीक्ष्ण बुद्धि क्षुल्लक मेज्या सो वे दोऊ आय प्रदक्षिणा देय चरण-कमल में यन्त्र स्थापि प्रणिपति कर मन्मुख बैठि समस्त वृत्तान्त निवेदन करते भये । पाछे श्रीधर सेनाचार्य दोनों को हस्व दीर्घादि हीनाधिक पठन कर परीक्षा निमित्त दोय विधा साधन को दई। तिन्होंने दोय विद्या साधीं । ते दोऊ. विद्या हीनाक्षर पाठ करि दीर्घ दंता आई। तदि अपणा प्रमोद तजि शुद्ध पाठ करते भये । तदि प्रश्रय होय वहु स्तुति वह करती भई। फिर विद्या सिद्ध हुई पाछे गुरु समीप विनय युक्त प्रणाम करि यथाख्यान कहते भये। तदि श्रीधरसेनाचार्य ने अपनी आयुष्य अल्प जानि विचारी। मेरी आयु का इनको बड़ा खेद होयगा। तदि तिनको थोड़े दिन में समस्त आगम ६ खंड श्रवण कराय विदा करते भये । ते दोऊ निज-निज स्थान आय ३ सिद्धान्त की रचना करते भये । ते दोऊ ने ३ सिद्धान्त ताड़पत्र में लिखाये। ज्येष्ठ शुक्ल पञ्चमी को स्थापना करि पूजते भये। ता दिन ते श्रुत पञ्चमी व्रत शुरू हुआ। शास्त्र महाधवल हजार ८०००० अस्सी, जय धवल हजार Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ६०००० साठि विजयधवल हजार ४०००० चालीस । ये तीनों शास्त्र श्री जिन ( विडी ) बद्री मूलविडी (मूलवद्री) में विराजमान हैं और रत्नमणियों ( जवाहिरात ) की श्री प्रतिमायें भी विराजमान हैं। ते इस काल में पढ़वे सुनवे योग्य नहीं दर्शन योग्य हैं ( यह निषेध सर्व-साधारण के लिये है, परन्तु विशेष ज्ञानी के लिये नहीं)। एक दिन श्री नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती पाठ कर रहे थे। ता समय चामुण्डराय महामण्डलेश्वर राजा घर आया। ताहि देखि मौनावलम्बी भया। राजा बोला कि-भोस्वामिन् ! पाठ समाप्त का कारण कहो । तदि बोलो-तुम को सिद्धान्त पढ़ने की योग्यता नहीं, सो नीतिसारजी में लिखा है। श्लोकआर्यिकाणां गृहस्थानां शिष्याणा मल्पमेधसां । न वाचनीयं पुरतः सिद्धान्ताचार पुस्तकं ॥ गुप्तिगुप्त के शिष्य चार ४ माघनन्दिता को पारिजात गच्छ वालात्कारगण नन्दीसंघ नन्दी १, चन्द्र २, कीर्ति३, भूषण ४, ये ४ शाखा । दूजा बृषभसेन ताकासेन संघ पुष्करगच्छ सुरस्थगण सेन १, भद्र २, वीर ३, राज ये ४ शाखा। तीसरा देव संघ ताका देवसंघ पुष्कर गच्छ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाज का इतिहास * १४३ देशीय गण। देव १, दत्त २, नाग ३, तुङ्ग ४, ये ४ शाखा या उपाधि ४ । चौथा सिहंसंघ कालगण नंदी तटगच्छ सिंह १ कुजर २ आस्रब ३ सागर ४, ये ४ शाखायें या उपाधियाँ। श्री वि० सम्बत् २६ में श्रीगुप्तिगुप्त भये । जाति के पमार विक्रमेय के नाती (पोता ) ताने ५२ पोदना पुर में सहस्र परवार थापे । [ इन गुप्तिगुप्त के साथ २ कथन में जिन सेनादि कह दिये परन्तु सम्बत् ५२ गुप्ति गुप्त का ही समझना अन्य का नहीं ] श्री जिन सेन ने खंडेला में खंडेलवाल थापे वघेरा में श्री लोहाचार्य ने वघर वाल थापे । श्रीमान्तुङ्ग ने बागढ़ में वागड़िया थापे और ओसा नगरी में स्थूलभद्र ने ओसवाल थापे । जैसलमेर में जैसवाल थापे। पुरपट्टन में पोरवाड़ थापे । हेमाचार्ग ने पल्लीवाल थापे। मेदपाट में मेवाड़ा हुआ । सम्बत् ४०में जिनचद्रं हुवा यहाँ ८४ गच्छस्वेताम्बर हुआ । संवत् ४० में लोका हुवा सम्बत् ६०० के। सम्बत् १६८३ में तेरापन्थ चला शहर आगेर से। ताको लिखे हैं फिर कोमा में चला फेर आमेर में नरेन्द्र कीर्ति भट्टारक के वखतमें चला, फेर सांगानेर में अमरचन्द्र नासाने चलाया सं० १७०० से गुमान पंथी Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * चला। सं० १८२५ के तारण पंथी हुआ। सं० १८१४ में तिपिच्छ हुआ। सं० १६०० में भीमंत हुआ। भिंडी ऋषि १२४६ में भिंड भये श्रीमुनि कुंद कुंद भये पल्लीवाल ज्ञातीय माता कुंदलता । सेठ कुन्दन नाम पञ्च कुन्दकुन्द १ वक्रग्रीव २ अकाल पाठ पढ़ता वक्रगीव सोही विदेह में गया। तदि एलाचार्य कहाये। सोही पीछी गिर गई तहीं गृद्ध की पीछी घरयाँ घृद्धपच्छाचार्य कहाये। ज्ञान करि पहन्त भये । तातै मानतुङ्ग ५ भये। उमा स्वामी से पूर्व सम्बत् १०१ के उमास्वामी गोधा १४२ सम्बत में लोहाचार्य लमेच यहाँ से पूर्व के दक्षिण के पद दो दो भये । सम्बत् १५३ यशाभद्र गँगेरवाल संवत् २११ यशोनन्दि जैसवाल संवत् २५८ नन्दि पोरवाड़ सम्बन् ३५३ गुणनन्दि गोला पूरब सं० ३६४ वचनन्दि अग्रवाल सं० ३८३ कुमारनन्दि सहजवाल सं० ४२७ लोकचन्द्र लँमेचू सं० ४५३ प्रभाचन्द्र पञ्चम् सं० ४७८ नेमिचन्द्र नैगम सं० ४८७ भानुनन्दि दसर सं० ५०० सिंहनन्दि श्रीमाल सं० ५२६ वसुनन्दि वदनोरा संवत्५३१माणिक्यनन्दि अग्रवाल संवत्५३१लों पट्ट मालवदेश उजीयनी नगरी में हुआ । संवत् ६०१ मेघचन्द्र Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ham *श्री लवू समाजका इतिहास - १४५ खण्डेलवाल सम्बत् ६२७ शान्तिकीर्ति सहजवाल महायशोभद्र परवार ये ता पट्टमेलसा भद्दलपुर में हुआ । सं० ६८२ मेरुकीर्ति जैसवाल, सं० ६८६ महाकीर्ति जैसवाल, सं० ७०४ विष्णुनन्दि बांगड़, सं० ७४२ श्रीभूषण सहजवाल, सं०७४३ शीलचन्द श्रीमाल, सं० ७४६ देशभूषण श्रीमाल, सं० ७५३ कुमारसेन, सं. ७६५ अनन्त कीर्ति परवार, सं० ७६६ श्रीनन्दि नागद्रा, सं. ७८५ धर्मनन्दि नागद्रा, सम्वत् ८०८ विद्यानन्दि वषेरवाल, सम्वत् ८४० रामचन्द्र पश्चम, सम्वत् ८७५ रामकीर्ति लम्बेच, सम्वत् ८७८ अभयचन्द्र श्रीमाल, सं० ८६७ जिन चन्द्र नैगम, संवत् ११६ नागचन्द्र बागड़ा, संवत् ६३६ नयनन्दि धूसर, सम्बत् १४८ हरिचन्द वरवाल, सम्वत् ६६० महाचन्द धाकड़, सम्बत् १६०माधचन्द पोड़वार, सम्बत् १०२३ लक्ष्मीचन्द सहजवाल, सम्वत् १०३७ गुण कीर्ति गंगेरवाल, सम्वत् १०४८ गुणचन्द गोला पूरब, सम्बत् १०५३ वासवचन्द वषेरवाल येता पट्ट चंदेरी वैद्य देश में हुआ। सम्बत् १०६६ लोकचन्द्र सहज वाल, सम्वत् १०७६ श्रुतिकीर्ति नृसिंहपुरा, सम्वत् १०८४ भाक्चन्द्र खंडेलवाल, सम्बत् ११०५ महाचन्द्र श्रीमाल एता Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ भी लॅबेचू समाजका इतिहास : पट्ट सिरोजपुर में हुआ। सम्बत् ११४० में माषचन्द पञ्चम, सम्बत् ११४४ ब्रह्मनन्दि बदनोरा, सम्बत् ११४६ शिवनन्दि सहजवाल, सम्बत् ११५५ विश्वचन्द्र वदनोरा, सम्बत् ११५६ हरिनन्दि काम्भोज, सम्बत् ११६० भावनन्दि धूसर, सम्वत् ११६७ सूरकीर्ति धाकड़, संवत् ११७१ विद्याचन्द्र हुपट ( हुंमड़ ), संवत् ११७६ सूरचन्द्र नृसिंहपुरा, संवत् ११८४ माघनन्दि चतुर्थ, संवत् ११८६ ज्ञाननंदि पञ्चम एता पट्ट वारा ( बड़ोदा) हाड़ोनो में हुआ। संवत् ११८६ गंगकीर्ति बदनोरा, संवत् १२०६ सिंहकीर्ति नृसिंहपुरा, सम्बत् १२०८ हेमकीर्ति हुंमड़, सम्बत् १२१६ चारुकीर्ति सहजवाल, सम्बत् १२२३ नेमिनंदि नागद्रा, सम्वत् १२३० नाभिकीर्ति नैगम, सम्बत् १२३२ नरेंद्रकीर्ति नागद्रा एता चित्रकूट चितोरा में हुआ। देश मेवाड़ में तहाँ नरेंद्रकीर्ति वारे धौलपुर का स्वामी वीर धवल राजा ताके मन्त्री पोड़वार स्वेताम्बर तेजपाल वसुपाल षट्मतका पोषक पग निधान हुआ। जिसने ३६ वर्ष की अवस्था में महाराज्यमान होय "एक लक्ष पञ्चीस हजार" धातुके विम्ब भराये । एक हजार Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्री लवेध समाजका इतिहास तेतीस तो जिन मंदिर नवीन कराये २६००० जीर्णोद्धार कराये। १८६६००० इतनी दीनार (मुहर ) सोने का सिक्का सेतुञ्जय खची १८३०००० इतनी दीनार आवृशिखर पर खर्ची, ५३००००० दीनार गिरनार खर्ची, १५५००० इतनी दीनार शास्त्रजी में खर्ची १५५५००० और संघ में खर्जी ५२६ मन्दिर विष्णु के शिवके बनवाये । याही समय में लघुद्धि जाति भये । सम्बत् १२४१ श्री चन्द्रवघर वाल हुआ। १२४८ पद्मकीर्ति परवार, सं० १२५३ वर्द्धमान बदनोरा, सं० १२५६ अकलङ्क चन्द परवार, सं० १२५७ ललित कीर्ति लँम्बेचू, सं० १२६१ केशवचन्द श्रावक, सं. १२६२ चारुकीर्ति पञ्चम, सम्बत् १२६४ अभय कीर्ति पोरवाड़, सं० १२६५ बसन्त कीर्ति पोड़वार एता पट्टगोपाचल (गवालियर ) हुआ, सं० १२६६ तक श्री गोपाचल पर सुप्रतिष्ठ केवली मोक्ष गये हैं। सो निर्वाणभूमि है। किलेपर से वसन्त कीर्ति विराजमान रहै । प्रख्यातकीर्ति पञ्चम संवत् १२६८ विशाल कीर्ति छावड़ा, सं० १२६६ श्रुभकीर्ति गोधा सं० १२७१, धर्मचन्द सेठी, Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * वे समाजका इतिहास अटेर में एतापट्ट हुआ। सं० १२८० जितकीर्ति वयेरे हुआ, सं० १२६६ रतनकीर्ति नागद्रा, सं० १३०० प्रभाचंद्र पोड़वार यह पट्ट अजयगढ़ हुआ। आगे सगले आचार्य सर्वथा कालदोष से भट्टारक स्थाप, यहाँ से गुजरात से आचार्य से भट्टारक हुआ। सं० १३८५ कुन्दकुन्द पल्ली वाल जिनने गिरनार पर्वत पर पाषाण की प्रतिमा ब्राह्मीदेवी को मुख बोलाई । आदि दिगम्बर ऐसा शब्द तीन वार कहती भई। (ब्राह्मी ) देवी अम्बा देवी । ___ सं० १४५० शुभचंन्द्राचार्य अग्रवाल, सं० १५७० जिनचंद्र, संवत् १५७१ जिस वक्त ( नोरंग जेब ) ओरङ्ग जेब बादशाह तथा आलमगीर बादशाह दिल्ली में ( सब मतों) को एक करना ( विचारा) चाहा। ता समय दिल्ली के श्रावक गुजरात गये। श्री प्रभाचंदजी गुजरात से आये दिल्ली वहां से शाहजहानावादको आये। बादशाह को मिले जैन धर्म थापि श्रावकों को मुसलमान न होने दिया। तब प्रमाचन्दजी ने काल का विचार कर वसधारी स्थापै । जैन धर्म को डूबते से राखा। तहाँ प्रथम पट्ट ग्वालियर दजो आमेर तीजो काष्ठा सङ्घ को हासी हिसार Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में चौधे मलबलेट (मालवा) वहाँ प्रथम ग्वालियर प्रभावन्द के पट्ट सुमति कीर्ति ताक पट्ट मेरुवन्द ताके वीर नन्दि ताके विवनंदि ताके भानुचन्द्र ताके देवनन्दिताके विश्वकीर्ति ताके भावनन्दि ताके धर्म कीर्ति ताके शीलभूषण ताके जगद्भूषण श्री काशी जी दूसरा नाम बनारस वहाँ वाद जीतो जैन धर्म का उद्योत किया। साके विश्वम्पण ताके सुरेन्द्र भूषण ताके श्रीभूषण ताके धर्म भूषण ताके लक्ष्मी भूपण ताके मुनीन्द्र भूषण ताके शिष्य पुण्यवान् दाताषट् मतज्ञाता उपदेशक श्री भट्टारक जी श्री जिनेन्द्र भूषणबी विराजमान राजा भदावर सो धरतीकाढी और माढ़ी चलाई सो अटेर के बाजे । ताके श्री भट्टारकजी श्री महेन्द्र भूषणजी दया कर सहित होते भये। इति आचार्य वंशावली सम्पूर्ण श्री मूल सङ्घ बलात्कार गणे सरस्वती गच्छे श्रीकुन्द कुन्दाचार्यान्वये श्री भट्टास्क जिनेन्द्र भूषण जी तत्पट्ट भट्टारक महेन्द्र भूषण जी तत्पट्ट भट्टारक राजेन्द्र भूषणजी वच्छिष्य पण्डित श्री बालजी।। यह पहाबली पाठकगणों क समक्ष रखते हैं । मैं आशा Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० *श्री लवेचू समाजका इतिहास * करता हूँ कि लँम्बेचू जाति का ही नहीं, किन्तु समस्त जैन जातियों को गौरव और हर्ष का लाभ होगा। और भद्दल पुर का मेरा अनुमान करीब करीव ठीक ही निकला, क्योंकि इस पट्टावली में मेलसेको भद्दल पुर कहा है। यह भी ग्वालितर जिले में ही है। और कुछ हो भिण्ड अटेर वटेश्वर ( वटक्षेत्र ) सूरीपुर को और मेलसा को (कुछ) ही अन्तर है। अब मैं इस लेख को यहाँ ही स्थगित करता हूँ। और प्रार्थना करता हूँ कि, मेरे भाई लोग उपर्युक्त वंशावली और आचार्य पट्टावली से अपना गौरव और उच्चादर्श पढ़कर विचारशीलों को चाहिये कि, उच्चाचरण उच्चादर्श का स्वाभिमान रख उच्च शिक्षा में स्वयं प्रवर्तित हों। और सन्तान को प्रवर्ता, यही इस इतिहास लिखने का ध्येय है। श्री स्वस्ति भद्रश्चास्तु । जिननगर व देश सम्बन्ध से हमकों गोत्रों का सम्बन्ध व अस्तित्व मिला है, वे नगर, शहर या ग्राम किसीन-किसी रूपमें उपलब्ध हैं, जैसे इटावा के पास वकेउर कसबा है फीरोजाबाद के पास चन्दवार है, भिण्डके पास गोहद है, झाँसी व ग्वालियर जिला है। इसमें जो राजा साहब ऐसा Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ति * श्री लॅवेचू समाजका इतिहास - १५१ जिकर आया है सो मेरे समझ में राजा भदोरिया हैं, यह भिंड, अटेर, हतिकांति, वाह, जैतपुर, पानो, नोगाओ (नोगांव ) नदी का गांव ये सब भदावर प्रान्त में ही हैं। भदावर यह शन्द पहले इतिहास में हमनें भद्दलपुर का अपभ्रंश है, या भद्दलपुर मेलसा से क्षत्रिय राजा वलोहाचार्य इधर आये, इससे उस कारण यह देश भदावर कहलाया, परन्तु अबतो ( लम्बकञ्चक ) लँबेचू वंश चोहान सावित होता है और राजा भदावर भी (भदोरियाभी) चोहान में से हैं और राणा गुहदत्त से गुहिलवंश तथा राठोर रणमल्ल तथा परमारवंश ये सब यदुवंश में से ही प्रतीत होते हैं । सोलंकी चौलुक्य वंशी ये सब यदुवंश की शाखायें उपशाखायें हैं । जोधपुर ( राजपुताने ) के इतिहास में पेज ५८४,८५ के में श्री गौरीशंकर झा एक जगह गुहिलवंश को सूर्यवंश लिखते हैं दूसरी जगह चन्द्रवंश लिखते हैं। गुहिलवंशीय सोसौदिया राणा हमीर के पुत्र लाखा और लाखा के पुत्र (चूड़ा) चंड और मुकल ( मोकल ) चूड़ा को लिखते हैं। चूड़ा के गुहिल वंश की राणी से अधिक प्रेम था। एक जगह चूड़ा का चड़ा-समास वंशको यादव लिखा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ वी मेनु समाजका इतिहास है शायद चूड़ासमास और चूड़ा दूसरे हों। इस से कर्नल टाड साहब ने राठोरवंश के क्षत्रियों को राठोर जैन अत्रिय लिखा है जिन के १४ पुत्र थे। इतने लिखने का तात्पर्य यह है कि सिसोदे के सरदारों में भ भट्ट सरदार हैं । रणसिंह द्वितीय नाम कर्णसिंह गुहिल वंशीसे दो शाखा चली। माहप से रावल शाखा और राहप से राणा शाखा और ये मेवाड़ चित्तोढ़ गढ़ के राजा रहै और कभी इन्हों से छीन चोहान वंशी राणा राजा रहै । समरसिंह आदि के पोछे मालदेव चोहान रहै इन से छीन अरिसिंह के पुत्र राणा हमीरसिंह चित्तोड़ के राजा भये । भर्तृ भट गच्छीय औंसिकनियुक्ति जैन ग्रन्थ में भटेकर देश लिखा है उससे या भदेसरसे आकर बसे हों इसे यह प्रान्त भदावर हुआ या भदेसर के चोहान यहाँ आकर राज्य किया जिस से भदावर प्रान्त हुआ। चित्तोड़ पर गुहिल सीसोदे काराज्य था जब कुमारसिंह का भाई सामंत सिंह राज्य करता था, उस से छीन कर कीर्तिसिंह ने राज्य किया जो चोहान थे इनको कीर्तिपाल कीर्तुं भी द्वितीय खंड राजपूताने के इतिहास में लिखा है पेज ४५५ में विक्रम संवत् १२१८ और ४३८ पेज में Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्री साहिास लिखते हैं पंडित जयानक रचित पृथ्वीराज विजय महाकाव्यमें कि सांभर के चौहान राजा वकिपति राज ( दूसरे ने) अघाट ( आहाड़ ) के राजा अम्बाप्रसाद का मुख तलवार से चीर के युद्ध में मारा। . आहाड़ के शिला लेख में तस्माद्वापतिराजेन सम्भूतमवनी भुजा कलिः कृती कृतोयेन भूमिश्च त्रिदिवीकृताः ५८ अम्बा प्रसाद माघाटपति यः सेनयान्वितं व्यसृजधशसः पश्चात् पार्श्व दक्षिण दिक्पतेः ५६ भिन्नमम्बा प्रसादस्य येनच्छुरिकया मुखं प्रतापजीविकासृग्भिः सममेवन्यमुच्यत ६० पृथ्वीराज विजयसर्ग ५ अम्बाप्रसादके पीछे शुचिवर्मा हुआ। रावल समरसिंह के विक्रम संवत् १३४२ के लेखमें तथा राणा कुम्भकर्ण (कुम्भा के ) समय के वि० संवत् १४६६ के सादड़ी ( जोधपुर राज्य के गोड़वाल जिले में ) के निकट प्रसिद्ध राणपुर के जैनमन्दिर के शिलालेख में अम्बाप्रसाद का नाम छोड़कर शक्तिकुमारके पीछे शुचिवर्मा का नाम दिया है। शुचिवर्मा शक्तिकुमार का पुत्र था। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्री लंबे समाजका इतिहास * शुचिवर्मा के पीछे नरवर्मा, कीर्तिवर्मा, योगराज, वैरट, क्रमशः राजगद्दी पर बैठे । वैरट के पीछे हंसपाल राज्य का स्वामी भया। राणपुर के मन्दिर के शिलालेख में उस का नामवंशपाल दिया है पर कुम्भलगढ़ के लेख में हंसपाल ही नाम है । भेराघाट जबलपुर जिले में नर्मदा पर से मिले हुये शिलालेख संवत् कलचूरी ६०७ विक्रम संवत् १२१२ के शिलालख में प्रसङ्ग वशात् मेवाड़ के राजा हंसपाल वैरसिंह और विजय सिंह का वर्णन मिलता है। कुम्भलगढ़ का शिला लेख अस्ति प्रसिद्ध मिह गोभिल पुत्र गोत्रं तत्राजनिष्ट नृपतिः किल हंस पालः शौर्या वसाजित निरर्गल सैन्य संचः नम्रीकृताऽखिल मिलद्रिपुचक्रवालः (ए० इ० २ पृष्ठ ११।१२) तस्याऽभवत्तनुभवः प्रणमत्समस्त सामन्त शेखर शिरोमणि रंजितां हो श्री वरसिंह वसुधा धिपतिर्विश्रुद्धः Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वेचू समाजका इतिहास * बुद्ध विधिनपरमार्थि जनस्य चोच्चैः (पृष्ठ १२ श्लोक १८/१६) ततः श्री हंशपालश्च वैर सिंहो नृपाग्रणी स्थापितोऽभिनवो येन श्रीमदाटपत्तने १४४ प्राकारश्च चतुर्दिक्षु चतुर्गोपुरभूषितः द्वाविंशतिस्सुतास्तस्य वभुवुः सुगुणालयाः १४५ आशय--उस प्रसिद्ध गोभिल गोत्र में राजा हंसपाल भया जिस के पराक्रम से निरर्गल सैन्य लेकर शत्रुओं को नम्रीभूत किया उस के पुत्र वैरसिंह ( अरिसिंह )भया जिस की विशुद्ध बुद्धि के आगे परमार्थियों की उच्चबुद्धि नहीं थी उस अग्रेसर प्रधान पुरुष अरिसिंह ने एक नवीन प्राकार ( परकोटा ) चारों दिशाओं में चार गोपुर पुर द्वारों से सुशोभित ( आघाट ) आहार क्षेत्र में बनवाया और उसके २२ पुत्र हुये जो अनेक गुणों के निधि थे ( खजाने ) आर चित्रकूट चित्तोड़ उदयपुर राज्य के राजा थे इन्हीं अरिसिंह के पुत्र चोड़सिंह उन के पुत्र विक्रमसिंह के रणसिंह ( कर्ण सिंह ) इन्हीं कर्णसिंह से दो साखा हुई। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ मे समान इबिहास - अथ कर्ण भूमि भर्तुः। शाखा द्वितयं विभातिभूलोके। एका राउल (रावल) नानी राणानाम्नी परा महती ॥५०॥ अपरस्यां शाखायां माहपराहय प्रमुखा महीपाला । यदवंशे नरपतयो गजपतयः छत्रपतयोपि ॥७०॥ श्री कर्णे नृपतित्वं मुक्त्वा देवे इलायभं प्राप्ने । राणत्व प्राप्तः सन् पृथ्वीपति राहपोभूपः ॥७॥ और राजााकर्ण सिंह के दो दो पुत्र एक माहप एक राहप । माहप से रावल शाखा और राहप से राणा शाखा हुई । रावल शाखा में जैत्रासिंह आदि और राणा शाखा में सामन्त सिंह आदि । कर्णसिंह ने आधाटपुर का किला बनवाया। इन्हीं के वंश में सामन्त सिंह ने सोलंकियों से उदयपुर का राज्य छीना। फिर सोमन्त सिंह उपर्युक्त जैनमन्दिर के शिलालेख से चैरि सिंह आदिक कर्ण सिंह आदिक सब सजा जैन थे, ऐसा साबित होता है। राणा कुंभा को भी इस राजपूताने इनिहास में जैन प्रतिपादित है उनकी स्त्री ने श्री पार्श्वनाथ जी का मन्दिर और मूर्ति बनवाई । राणा वस्तुपाल के मंत्री तेजपाल बताये पटमत पोशक लिखा सो ओझा जी ने लिखा है एक Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्री लंबे समाजका इतिहास * लिङ्ग महादेव का कथन से षट्मतपोषक होने सके हैं, इन्हीं सामन्त सिंह से कीर्तृ (कीर्तिपाल) चोहान राजा ने उदयपुर राज्य छीना चित्तोड़ उदयपुर का राज्य किया । इनके लिये ऐसा लिखा है कि यह की मेवाड़ का पड़ोसी और नाडोल ( जोधपुर राज्य के गोड़वाड़ जिले में), के चोहान राजा अल्हण देव का तीसरा पुत्र था । साहसी वीर एवं उच्चाभिलाषी होने के कारण अपने ही बाहुबल से जालोर (काश्चनगिरि सोन गढ़) (लावाँ आर सेन गढ़ के कारण लॅब (लम) काञ्चन देश भया। लाँबा से सोन गढ़ तक) जालोर सेान गढ़ का राज्य परमारों से छीन कर वह चोहानों की सोनगरा शाखा का मूल पुरुष आर स्वतंत्र राजा हुआ। सिवाणे का किला (जोधपुर राज्य में ) भी उसने परमारों से छीन कर अपने राज्य में मिला लिया था। चोहानों के शिला लेखों और ताम्रपत्र में (ताम्रपत्र यन्त्र को कहते हैं। ये यन्त्र की प्रथा जैनियों में ही पाई जाती है, इससे जैनत्व स्पष्ट है ) कीर्तृका नाम ( कीर्तिपाल ) मिलता है। परन्तु वह राजपूताने में कीर्तृ के नाम से प्रसिद्ध है। जैसा कि मुहणोत नैणसी की Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ *श्री बेच समाजका इतिहास ख्यात तथा राजपूताने की अन्य ख्यातों में लिखा मिलता है। उस कीर्तिपाल का अबतक केवल एक ही लेख मिलता है, जो विक्रम सम्वत् १२१८ को दान पत्र (जिल्द ६, पृष्ठ ६८७० ) है। उससे विदित होता है कि उस समय उसका पिता जीवित था और उस कीर्तिपाल को अपने पिता की ओर से बारह गाँवों की जागीर मिली थी। जिसका मुख्य गाँव नड्डूलाई ( नारलाई ) जोधपुर राज्य के गोडवाड़ जिले में मेवाड़ की सीमा के निकट था । उसी कीतू ने जालोर का राज्य अधीन करने तथा स्वतंत्र राजा बनने के पीछे मेवाड़ का राज्य छीना हो--ऐसा अनुमान होता है ; क्योंकि उपर्युक्त कुंभलगढ़ के लेख में उसको राजा कीर्तृ लिखा है। जालोर से मिले हुए विक्रम सम्बत १२३६ के शिलालेख से पाया जाता है कि उस सम्बत् में कीर्तिपाल ( कीर्तृ ) का पुत्र समरसिंह वहाँ का राजा था। उसको फिर सामन्तसिंह शीसोदे के भाई कुमारसिंह ने कीर्ते से युद्ध कर गुजरात के राजा को प्रसन्न कर उसकी सहायता से कीर्त को जीत कर मेवाड़ का राज्य ले लिया। कीर्तृ ( दशपुरनगर ) मन्द Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाज का इतिहास. १५६ सोर ग्वालियर जिले में ब्याहा था और आघाटपुर का अधिपति बना। इतिहास पेज ४५१ पर उन कीर्तृ का पौत्र उदयसिंह की कन्या जैत्रसिंह को ब्याही थी। जैत्रसिंह उदयपुरके राणा वंशमें थे और ५१० पेजमें राजपुताने इति० में लिखा है। जैसे इस समय मेवाड़ के महाराणाओं के सबसे निकट के कुटुम्बी बागोर करजाली और शिवरती वाले महाराज या बाबा कहलाते हैं, वैसे ही उस समय केवल मेवाड़ के ही नहीं किन्तु कई एक अन्य पड़ोसी राज्यों में 'राजा' निकट के कुटुम्बी ( छोटी शाखा वाले ) भी राणा कहलाते थे। ऐसे ही गुजरात के सोलङ्की शासक राजा और उनकी छोटी शाखावाले बघेले राणा कहलाते रहे तथा आबू के परमार राजा रावल और उनके निकट के कुटुम्बी जिनके वंश में दातावाले हैं राणा कहलाये और राहप को कुष्ठ रोग हो गया था। उसको सांडे राव के यती जैनयती ( भट्टारक ) ने अच्छा किया। ___ जब से जैन श्रद्धा हो गयी । उनके कुल परम्परा में नरपति ( हरसू नरसू ) दिनकर (दिनकर्ण) ( बबरू हरम् ) जसकणे ( जशः करण जसकरण ) नागपाल पूर्णपाल (पुण्य Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाजका इतिहास * पाल ) पृथ्वीमल राजा हुए। उसके पीछे पृथ्वीमल के पुत्र भुवन सिंह ने सीसोदे की जागीर पाई। राणपुर के ( मन्दिर के ) जिन मंदिर के वि० सं० १४६६ लेख में उसको चाहमान (चौहान) राजा कीतू ( कीर्तिपाल ) सुरत्राण, अल्लाउद्दीन ( सुल्तान अल्लाउद्दीन ) खिलजी को जीतने वाला कहा गया है । परन्तु उपर्युक्त कीतू से इसका मिलान नहीं । ये कोई दूसरे कीर्तिपाल १५ वीं शताब्दी के होंगे या उन कीतू का ही हो शिला लेख पीछ देरी से लिखा गया हो । ओझा जी तो विश्वास योग्य नहीं कहते परन्तु यह शिला लेख है झूठा नहीं लिख सकते । इस राजपूताने इतिहास में पेज ५११ में भुवन सिंह के विषय में लिखा है । टिप्पण में ( १ ) भुवनसिंह के एक पुत्र चन्द्रा के वंशज चन्द्रावत कहलाये, जिनके अधीन रामपुरे का इलाका था, चन्द्रावतों का वृत्तान्त उदयपुर राज्य के इतिहास के अन्त में दिया जाया । वीर चरितावली में लिखा है कि राणा हमीर को चन्दावत सरदार की पुत्री ब्याही थी । टिप्पण ( २ ) चाहुमान श्री कीर्तुक नृप श्री अल्लावद्दीन सुरत्राण जैत्रवप्प वंश श्री भुवन सिंह | 1 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rammmmmmmmmmmmmmm * लॅबेच समाजका इतिहास * १६१ राजपूताने इतिहासके द्वि० खण्डमें ५१३ पेजमें ऊपरी टिप्पणमें लिखा है कि कई हमीर हुये इन हमीरका जन्म वि० सं० १३३६ में हुआ और मृत्यु १४२१ में हुई ये ही रणथम्भोरके हमीर हैं। ___(१) टिप्पण पेज० ५१३ राजपून चन्दाणा चोहानो की एक 'शाखा है। मुहणोत नेणसी ( नारायणासिंह) ने हमीरकी माता का नाम देवी लिखा है। उसको सोनगरे ( चोहान ) राजपुत्रकी पुत्री कहा है, मुहणोत नेणसोकी ख्यात ( पत्र ४ ) ( पृ० १११५ इस कथनसे हमारी बात सिद्ध होती है कि, राहपगुहिलवंशीय और उसमें भुवनसिंह भये फिर भुवनसिंह के पुत्रोंमें चन्द्रासे चन्दावत शाखा और चन्दावत शाखा और चन्दाने चोहान लिखे चाँहै चन्दावत और चन्दाने दो बात हो चन्दावत गुहिल और चन्दाने ( चोहान ) होंपर चण्ड और मोकल तो लाखा राणाके पुत्र थे गुहिल थे और चण्डको चड़ा नामसे कहा है। और चूड़ासे चड़ा समास और चडा समासको यादव लिखा है। तब हमारा अनुमान होता है कि, ये सब यदुवंशकी ही शाखा Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmm www 4 १६२ * लॅबेचू समाजका इतिहास - उपशाखायें हैं। और यह भी ध्वनित होता है कि प्रायः ये सब राजा जैन थे। इतिहास बढ़ जायगा इससे हम संक्षेपमें लिखते हैं । मौर्य वंशीय राजा चन्द्रगुप्त जगत्प्रसिद्ध आदि जैन थे, जिनका खण्डगिरि उदयगिरिमें प्राचीन शिलालेख २३०० वर्षका राजा खारवेलका खुदाया हुआ मौजूद है। और चौलुक्य वंशीय तथा सोलंकी कच्छप कछया है । इतिहासमें यदुवंशी लिखे है तथा चूड़ा समास महीपाल खंगार मण्डलीक ये सब यादव जैन थे, भाष्कर आदिमें सप्रमाण यादव जैन लिखा है और पर मार वंशीय राजा विक्रम यदुवंशी जैन थे। देखो विक्रम प्रबन्ध और भाष्कर ६ भाग किरण ३ में श्रीगिरनार पर्वतका सुदर्शन झीलका बाँध चन्द्रगुप्त मौर्य के साले स्वेनपुष्पगुप्तने बाँध की मरम्मत कराई मौर्यचन्द्र गुप्त जैन थे, भद्रबाहु मुनिके शिष्य हुये दीक्षा ग्रहण कर उज्जयिनी नगरीसे कर्णाट देश चले गये। देखो भद्रबाहु चरित्र जैनमें और चूड़ासमास वंशमें १६ पीढ़ीमें राजा मण्डलीक भये उन्होंने गिरनार तीर्थ पर दिगम्बर जैन मन्दिर बनवाये देखो ६ भाग भाफरमें, और राजा विक्रम जिनका सम्बत् प्रचलित है, जैन थे। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लॅबेचू समाजका इतिहास * १६३ तदुक्तं विक्रमप्रवन्धे (गाथा) सत्तरिचदुसग जुत्तो तिणकाले विकमो हवइ जम्मो अट्ठवरस वाल लीला सोड्स वासे भमिय वीदेसे रस पण बासा रज्जं कुणंतिमिच्छोपदेस संजुत्तो चालीस वास जिणवर धम्म पालेह सुरपयं लहियं २ आशय श्रीमहावीर तीर्थङ्करके निर्वाण भये ४७० चारिसे सत्तरि वर्ष पीछे विक्रम राजा भयो (विक्रम राजा का जन्म भयो ) ताके पीछे आठ वर्ष पर्यन्त बालक्रीड़ा करी ता पीछे सोलह वर्ष ताई देशान्तर विषे भ्रमण करि पीछे छप्पन वर्ष तक राज कियो नाना प्रकार मिथ्यात्वको उयदेशकरि संयुक्त रह्यो। ____ बहुरिताके पीछे चालीस वर्ष पूर्व मिथ्यात्वको छोड़ जिन वर धर्म कू पालन करि देव पदवी पाई ऐसे विक्रम राजाकी उत्पत्ति आदि कही। इन्हींके वंशमें भोज आदि थे, तब कोई समय जैनमय जगत था, आठवीं शताब्दीमें हरिश्चन्द्र कायस्थने श्रीधर्म शर्मा भ्युदय जैन महाकाव्य और यशोधर चरित संस्कृत रचना की जिनकी प्रशंसा वाण कवि कादम्बरीमें करते है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwww १६४ लॅबेचू समाजका इतिहास * भट्टार हरिचन्द्रस्य गद्यवन्धो नृथते (भट्टार ) भट्टारक जैन मुनिके शिष्य हों या नाटक काव्यादिमें उत्तम श्रष्ट राजा के तुल्य पात्रको भहार कहते हैं। सो हरिचन्द भट्टारक के शिष्य भी होने शके है क्यों कि हरिचन्द ( श्रीवास्तव कायस्थ ) थे और यशोधर चरित भाषा कविताके पद्मनाभि कायस्थ थे उनको ( पझनाभि ) को भट्टारकका शिभ्य लिखा है पद्मनाभि ने जैन पद्मपुराण की रचनाकी है जो आगरा के ताजगंजके जिन मंदिरमें है और यशोधर चरित भाषा पद्यात्मककी भी रचना की है और मारवाड़की तरफ एक पंचोलिया जाति है उसका भी जिकर राजपूताने इतिहास में है हमने पूछाकि पंचोलियाको है तो कोई कोईने कायस्थ वताये और किसीने ( महाजन ) वैश्य बताये ताज्जुब नहीं (पंचोलयों से पंचोलिया जाति हुईहो ) और विक्रम संवत् ७०१ में मेवाड़ चित्तोड़पर मौर्यवंशका राज्य था मौयवंश चन्द्रगुप्तका वंश था ये जेन राजा थे उसके बाद गुहिदत्त गुहिल वंश शीसोदेका राज्य रहा फिर कीर्तिपाल चोहानोंका राज्य रहा जब हम इतिहास देखते हैं तब सर यदुवंश ही पाया जाता Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लँबेचू समाजका इतिहास - १ है क्योंकि परमार भी हिङ्गलाजगढ़ और भाणपुरके खींची चोहानही हैं। श्रीमान् पं० आशाधरजी बघेरवाल थे और उदयपुर राज्यमें दीवान थे हमको श्रीमान् बाबा चाँद मलजीके साथ एक नरसिंहपुरा जैनने कहा जो उदयपुर रहने वाले थे वे वर्णीजीके परिचर्यामें रहते इटावामें मिले हीरालाल नाम है श्रीमान् पं० आशाधरजी अपने स्वरचित प्रतिष्ठा पाठमें लिखते हैं जो संवत वि० १२८५ में पूर्ण हुआहै उस समय परमार वंशके राजो ( देवा) देवपालका वर्णन अपने प्रतिष्ठा पाठकी प्रशस्तिमें करते हैं। . . आर्या छन्द विक्रम वर्ष सपञ्चाशीति द्वादशशते प्वतीतेषु आश्विनसितान्त्यदिवसे साहस मल्लापराक्षस्य श्रीदेवपाल नृपतेः प्रमार कुलशेखरस्य सौ राज्ये नलकच्छ पुरे सिद्धो ग्रन्थोयं नेमिनाथ चैत्य गृहे २० यह आशाधर कृत प्रतिष्ठा पाठ विक्रम सं० १२८५में आश्विनमासकी शुक्लपक्ष पूर्णिमाके दिन पूर्ण किया श्री प्रमार कुलशेखर देवपाल परमार खीची चोहान: राजाकी राज्यमें नलकच्छपुरमें नेमिनाथ जिन चैत्यालयमें वनायो Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ * लँबेचू समाजका इतिहास * . अने काहत् प्रतिष्टाप्त प्रतिष्ठैः केहणादिभिः सद्यःक्ता नुरागेण पठित्वायं प्रचारितः २१ । जिस प्रतिष्ठा पाठको सद्यः तुरन्त ही शीघ्र ही सूक्तानुरागसे श्रेष्ठ कथनशैलीके अनुरागसे पढ़कर अनेक जिनेन्द्र अर्हत्प्रतिष्ठायें कराके या करके पाई है प्रतिष्ठा जिन्होंने ऐसे ( केहणादिभिः ) अणुऽव्ययरयणपदीब ग्रन्थमें कथित ( कहण) कृष्णादित्य लम्बेचू महामन्त्री आदिने या आशाधरजीके शिष्य कलण खंडेलवाल आदिने पढ़कर प्रचार किया। यहाँ दोनोंका सम्बन्ध पाया जाता है, क्योंकि आशाधरजी भी लम्बेच जातिके बघेले गोत्रसे निकास भया। बघेला क्षत्रियोंमेंसे बघेलवार वंशमें श्रीमान पं० आशाधरजी उत्पन्न हुये। (काव्य) श्रीमानस्ति सपादलक्षविषयः शाकम्बरी भूषण स्तत्र श्रीरतिधाम मण्डलकरं नामास्ति दुर्गमहत् । श्रीरल्यामुत्पादितत्र विमल व्याघ्र खालान्वया च्छोसल्लक्षणतो जिनेन्द्र समय श्रद्धालुराशाधरः । अर्थ-सवालाख ग्रामोंका अधिप ऐसा साम्हर (राज्य) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लँबेच समाजका इतिहास * देशको भूषण राजा है ( अर्जुन राजा होगा ) उसकी राज्य में श्री लक्ष्मीका क्रीडाधाम मण्डलगढ़ नाम किला है । उस साम्हर देश मण्डलगढ़की राजधानीमें श्री लक्षण पिता और श्री रत्नी मातासे वघरवाल वंशमें आशाधर पंडित हुये। तो साम्हर देशके होनेसे राजा भरतपाल रावतगोत्रीय लम्बेचूके वंशमें आहवमल्ल राजा और प्रधान कह्नण आशाधर प्रतिष्ठापाठका प्रचार किया। यह सम्मव है या फिर आशाधर के शिष्य कहूण खंडेलवालने प्रतिष्ठापाठ पढ़कर प्रचार किया। १४ वीं शताब्दी १३०५-१३१३ में। और उस समय साम्हरके देशों पर अलाउद्दीन खिलजीने और अलाउद्दीनके कुटुम्बी शमसुद्दीन आदि मुसलमान राजाओंने चढ़ाई कर घेर लिया था तब आशाधरजी चारित्रकी क्षति देख विध्यभूपति राजाके देश मालवेके तरफ नलकन्छपुरमें चले गये। राजा विध्यभूपतिका राज्य विंध्याचल बनारससे लेकर मालवा तक होगा। क्योंकि एक श्वेताम्बर कनक मुनिसे पता चला है कि विन्ध्याचल पर्वत ( जो चुनारके पास है ) उसमें श्री Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ * लँबेचू समाजका इतिहास * पार्श्वनाथ दिगम्बर जिनमूर्ति है पास ही कुण्ड है जिसका नाम कलिकुण्ड है। इन्हींकी पूजा कलिकुण्ड पार्श्वनाथकी प्रसिद्ध है । प्राकृत संस्कृत मिश्रित है, मन्त्र यन्त्र युक्त है, आजकल वह अजैन पण्डाओंके अधीनमें सुनते हैं। ज्ञानोदय मासिक पत्रमें इसीके सम्बन्धसे विन्ध्यभूपतिका उल्लेख है ऐसा प्रतीत होता है। आशाधरजी लिखते हैं :इत्युपश्लोकितो विद्वद्विल्हणे न कवीशिना श्रीविन्ध्यभूपति महासांधिविग्रहिकेणयः । श्रीमदर्जनभूपाल राज्ये श्रावकसंकुले जिन धमो दयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसत् । आशय इस प्रतिष्ठापाठकी राजा विन्ध्यभपतिके ( महा सांधिविग्रहिकेण ) बड़े भारी सन्धि और विग्रह ( युद्ध ) करानेमें चतुर अर्थात् राजालोगोंके यहाँ जो शूर (क्षत्रिय) राजाओंमें आपसमें ( सन्धि ) मेल मित्रता और विग्रह युद्ध करानेमें चतुर हो उसको ( सांधिविग्रहिक ) कहते हैं। उन सांधिविग्रहिक विल्हण कविने अर्जुन भूपालकी राज्यमें इस प्रतिष्ठापाठकी प्रशंसा की है उनकी राजधानीमें जो बहुत Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S समाजका इतिहास १६६ श्रावकधर्म जैनधर्म पालनवाले रहते उस नलकच्छपुरमें हम रहते थे। और केवल लड़ाई करानेमें ही चतुर हो उसे ( विग्रहराज ) दुर्लभ वीसलदेव कहते हैं। राजाओंके यहाँ सब कामोके विभाग होते हैं और वे काम ( कार्य) पृथक् पृषक मनुष्य ( क्षत्रियों ) में बँटे रहते हैं। जैसे देखो राजपूताने-४२६ पेजमें टिप्पणमें नीचे : (१) मन्दिर आदि धम्मस्थानोंको बनवानेमें चन्दे आदिसे सहायता देनेवालोंको गोष्ठि या गोष्ठिक कहते हैं जैसे ऊपर हम प्रतिमा लेख १४६८ का दिखाया उसमें (गुर्जर गोष्ठि ) आया उसका अर्थ गुजरात देशके धर्मस्थान धर्मकार्य करने में सहायक पुरुष समुदाय धर्शकामकी सभा कमेटोके मनुष्य ये भी क्षत्रिय होते थे। (२) जिस राज कर्मचारी या मंत्रीके अधिकारमें अन्य राज्योंसे संधि या युद्ध करनेका कार्य रहता था उसको (सांधि विग्रहिक) कहते थे, राजपूताने पेज ४२७ (३) राज्यके आप व्ययका हिसाब रखनेवाले कार्यालय (मेहक्मा) को अक्षपटल कहते थे और उसका अधिकारी अक्षपटलिक या ( अक्षपटलाधीश ) कहलाता Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० * लँबेचू समाजका इतिहास था। (देखो भारतीय प्राचीन लिपि माला ) पृष्ठ १५२ टिप्पण ७ ( और ८) अक्षपटलाधीशको ही (पोद्दार) गोत्र कहना चाहिये। (४) द्रम्म एक चाँदीका सिक्का था जिसका मूल्य चारसे छः आनेके करीब होता था। (५) रूपक एक छोटा सा ३ रत्तीका चाँदीका सिका होता था (६) दुर्लभ वीसलदेव विग्रह राज युद्ध कराने वालेको कहते हैं चोहानोंमें ३ दुर्लभ ४ बीसलदेव हुये गुजराती भाटियोंमें इन्हीं दुर्लभको लेकर दुर्लभदास नाम होते हैं। हम जब कि ईडरगढ़ गये थे, अध्यापक की नौकरी की थी, उस समय हालही में केशरी सिंह राणाकी गद्दी पर प्रताप सिंह राणा बैठे थे। ईडरमें भी चोहानोंकी गद्दी थी वहाँ पर्वतका नाम डूंगर था और उसपर जैन मन्दिरोंमें १००० एक हजार वि० संवत् की प्रतिमायें थी करीब ४ फुटकी सफेद सिंह मर्मर पाषाणकी, पर उस समय इतना ध्यान नहीं था जो शिलालेख लाते। और प्रमार ( परमार ) कुलशेखर देवपाल नृपति Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लँबेचू समाजका इतिहास * १७१ प्रमार वंशी देवपाल राजा था वि० सं० १२८५ में उसी समय १२८५ में अलाउद्दीन समसुद्दीन मुसलमानका हमला हुआ। सवालक ( वालक सपादलक्ष ) अजमेर लाँवा और साम्हर पर चढ़ाई की, उस समय उदयपुरमें राज्य जैत्र सिंह करते थे। शीशोदे कुल के थे । पद्मसिंह के पुत्र थे चीरवेका शिलालेख श्रीजैन सिंहस्तनुजोऽस्यजातोऽभिजातिभृभृत्प्रलयानिलाभः सर्वत्रयेन स्फुरिता न केषां चित्तानि कंपंगमितानि सद्यः नमालवीयेन न गौर्जरेण न मारवेशेन न जाङ्गलेन म्लेच्छाधिनाथेन कदापि मानो ग्लानिंन निन्येऽवनिपस्ययस्य आशय राणा पद्मसिंहके पुत्र जैत्र सिंह हुये सब राजाओंको कपाने में 'प्रलय पवनके समान जहाँ इन्होंने अपनी आज्ञाका प्रसार किया वहां किन २ राजपुत्रोंके चित्त तत्काल न कंपको प्राप्त भये अर्थात् सबके चित्त हिल जाते थे किसी जगहका भी राजा इनका मान भङ्ग न कर सका न मालवेके राजा न गुजरातके राजा न मारवेशके (मारवाड़के) राजा न जाङ्गल देश के राजा न तुर्की के मुसलमानी शमसुद्दीन आदि राजा इस जैत्र सिंह राणाका मान भङ्ग न कर सके Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लँबेचू समाजका इतिहास * न जीत सके सबको परास्त किया । इन जैत्रसिंहके जयतल जैसल आदि नाम है इनका पुत्रतेजसिंह भया उसको कीतू कीर्तिपाल राजा चोहानके पुत्र चाचिकदेवका पुत्र उदयसिंह की पुत्री ब्याही थी' तब इनमें परस्पर मेल हो गया था पर वीरधवलमें शत्रुता थी। श्रीमद्गुर्जर मालव तुरुष्कशाकंभरीश्वरैर्यस्य चक्रे नमानभङ्गः सस्त्रः स्थोजयतु जैत्रसिंहनृपः६ आशय इस लेखके शाकम्भरी स्वरसे अभिप्राय नाडोल के चोहानोंसे है चौहान मात्र ने अपनी मूल राजधानी शाकम्भरी साम्हर माना है या सोम्हरी नरेश कहलाते हैं। उसी समय वधेल वंशी राणा वीरधवल हुये। जिनके मंत्री वसुपाल तेजपाल थे। उस समय जैत्रसिंह और वीरधवलकी लड़ाई हुई। जब आपसकी लड़ाईमें तुर्की सुलतान म्लेच्छोने साम्हर जादि प्रदेश घेर लिये होंगे। जबही पं० आशाधर जीने प्रतिष्ठा पाठकी प्रशस्तिमें लिखा है। म्लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षति त्रासादिन्ध्य नरेन्द्रदोः परिमलस्फूर्य त्रिवर्गेजसि प्राप्तो मालव मण्डले वहुपरीवारः पुरीमावसन् योधारामपठजिन प्रमितिवाकशास्त्रमहावीरतः५ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • लँबेचू समाजका इतिहास * आशय जब सांभर देशके सब प्रदेशों पर सुलतान शम्सुद्दीन, अलाउद्दीन खिलजी आदिने घेर लिये तो चारित्र नहीं पलते देख ये मालवेमें घारानगरीमें चले गये और वहाँ बाकशास्त्र ब्याकरण और ( प्रमिति ) न्यायशास्त्र साहित्यशास्त्र पं० महाबोरसे पड़े। ____ इतने इतिहासके लिखनेका तात्पर्य यह कि चोहानमात्र साम्हरी नरेश कहलाते हैं। दूसरे पाठकों को यह भी मालूम हो जाय कि भरतपाल आदि हमलोग चोहान इधर अन्तर वेद में आये । क्योंकि जब आपसमें फुटन रही और मुसलमान गनीमों ने मौका पाकर घेर लिया शके नहीं तब इधर आकर बसे। कुछ नागोर अजमेर आदि प्रदेश भी म्लेछोंने घरे उधर से भी कुछ आये और शत्रु ओंसे मुकाविला भी किया। उन्हें भगाया भी और नागोरसे भी संबंध सूचित होता है। जो अणुब्बयरयण पईव अपभ्रंश भाषाका ग्रन्थ वहाँ कैसे पहुंचा। वहाँ भी रहे पूर्वकथनसे जाहिर है और चोहान अजमेर से भीआये गजटियरसे सूचित होता है। तीसरे आघाटपुरमें प्रतिमा उपलब्ध होनेसे सीपीमें भी चोहानोंका सद्भाव रहना Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ * लँबेचू समाजका इतिहास * सूचित होता है। मालब मलयदेश ( चन्दनका देश ) वहाँ चन्दन होता है। मालवेमें भी चोहानोंका सद्भाव पाया जाता है। खडेलवाल चोहानों में से ही है। सिलोन ( लंकामें भी ) चोहान और नेपालमें शीशोदेका भी सद्भाव अब भी है और जैसलमेरसे जैसवाल ये भी यादवनमें पं० माणिकचन्दजी लश्कर गवालियरके श्री नेमिनाथके पद बहुत बनाये है तो चोहान यदुवंशी राठोर यदुवंशी परमार खीची चोहान यदुवंशी और तोमर यदु. वंशी सब यादबोंके साथ गये। हम इतिहास देंगे मालूम होगा खरउ आगोलारारे जातिके इक्ष्वा कुवंश और अर्क कीर्तिसे सूर्यवंश इनको तो कोडाकोडी सागर वर्ष व्यतीत हो गये। अब तक क्या पता गोलसिंगारों की भी प्रतिमा इटावेके मन्दिरमें देखी तो उनमें भी इक्ष्वाकुवंश लिखा पर जब तक सन्तान दर सन्तान वंशावली न खोज कर तब तक क्या कहा जाय। श्रीमान् पं० रइधू कवि जिन्होंने दश लक्षण पूजन प्राकृतमें बनाया है तथा पुण्यास्त्र कथा कोशमें आपने चन्द्रवारके राजा प्रतापरुद्रका उल्लेख किया है जो चन्दवार तथा प्रताप नेहरके राजा जैन राजा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लँबेचू समाजका इतिहास * १७५ लमेचुओंमें थे। रइधू कवि पद्मावतीपुरवार थे । १३१६ शताब्दीके बीच में हुये। दशलक्षण पूजन बनाया पुण्यास्रव कथाकोष आदि रचे रइधू कवि पद्मावतीपुरवार थे और गवालियरके मन्दिरमें धातुकी प्रतिमापर लेख है उस पर इक्ष्वाकुवंश लिखा था,पर जब तक इतिहास उपस्थित न हो तब तक अन्धेरेमें ही है और खरउआओंका गोत्र एक ठाकुर है। एकबार भिंडमें हमारी दूकानपर उनके सम्बन्धी लड़केका गोना (द्विरागमन) कराने आये थे तो रायविरदवरवानता तो ठाकुर गोत्रका निझास पृथ्वीराज चोहानसे बता रहा था। कविता पढ़ता था। इनके तिहैया जखनिहा असइया गोत्र भी है और खंडेलवालोंके गोत्र कानूनगो तथा बडजात्या (बडोघर) और मारवाडी अग्रवालोंका ( सोनगरे ) सोनगढ़ काञ्चनगिरके पास देवडागाउ है वहाँसे देवडा चोहानोका निकास है। मारवाडी अग्रवालोंमें देवडा गोत्र है तो भले ही अग्र राजा अग्रोहासे निकास हो पर राजा अग्रसेन कौन वंशी थे देवडा गोत्र से चोहान ही यदुवंशी ही प्रतीत होते हैं और नागोरके पास डेहमें हम गये वेदी प्रतिष्ठा कराई वहाँ इतिहास खंडेलवालोंका देखा कासलीवालगोत्र श्रीमान् सरसेठ हुकुमचन्दजीको चोहान लिखा देखा लोड साजन Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ assanniml" बेच समाजका इतिहास * और वड साजनका भेद देखा । राजा विक्रमादित्य सम्बत कारका पता उससे उतार कर लाये विक्रम प्रबन्धके गाथा इसमें दिये हैं तो हमको मालूम होता है कि यदुवंशियोंका ही परिकर है। नहीं तो ५६ करोड़ यादव सब भस्म थोड़े ही भये द्वारका में १८ करोड़ ही गये थे। हमारे विद्वान् लोगभी इतिहास लिखते साहु या शाह से वानिये लिखते हैं जब उसमें यह लिखा है कि राज व्यापारमें दक्ष तो राज व्यापार पनियोंका होता है क्या इस राजपूताने इतिहासमें जो ओझाजीने अक्षपटलाधीश सौंधि विग्रहिक इन मेहक्माओंमें क्षत्रिय ही नियुक्त होत थे। वणिपति वनियोका पति बनियों पर आधिपत्य रखने बाला बनिया कैसे समझ लिया अब तो शाह पदवी राणाओंके साथ भी थी। राजपत इतिहास या गजिटियर से मालूम हो जायगी। तो बनिये कैसे समझ लिये साधु नाम सज्जनका है श्रेष्ठ नाम अंठ पुरुषोंका है आज कल कंट्रोल राशन कार्ड आदि पर ब्राह्मण क्षत्रिय आदि सवही नियत है तो सब याते बनिये हो गये यह भृत है हमने अपनी इयत्ता असलियत न समझी यह भूठ है। अब तो गजटियरमें दिखा चुक हैं। राणा उडुमरवक पुत्र राणा सफेरसिंह को शाह लिखा है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारम्भ परिशिष्ट १ अणुत्रय- रयण- पईव णतूण जिणे सिद्धे आयरिए पाढए य पव्त्रइदे । अणुत्रय - रयण- पईवं सत्थं कुच्छे णिसामेह || X X X इह जउणा - णइ - उत्तर - तडत्थ मह णयरि रायवडिअ पसत्थ । धण-कण कंचण-वण सरि समिद्ध रिद्धिरिद्ध | दाणुण्णयकर - जण किम्मोर कम्म णिम्मिय रवण्ण अरहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार करके अणुव्रत- रत्न- प्रदीप शास्त्र की व्याख्या करता हूँ, सुनो। X X X X यहाँ जमुना नदी के उत्तर तट पर स्थित एक 'रायवड्डी' नाम की प्रशस्त महानगरी है। वह धन, कन, कांचन, वन, सरित् से समृद्ध है, दान में ऊँचा हाथ करनेवाले जनों की ऋद्धि से सम्पन्न है, उच्च कामों से रची हुई, रमणीक, अट्टालिकाओं और तोरणों १२ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * सट्टल सतोरण विविह - वण । पडुर-पायारुण्णइ समेय __ जहि सहहि णिरंतर सिरिनिकेय। चउहद्द चच्चरुदाम जत्थ मग्गण-गण - कोलाहल - समत्थ । जहिं विवण विवण घण कुप्पभंड जहि कसिअहिं णिच्च पिसंडि खंड । णिच्चिच-दाण - संमाण - सोह ___ जहिं वसहि महायण मुद्धबोह । ववहार चार सिरि सुद्ध लोय विहरहि पसण्ण चउवण्ण लोय । सहित विविध वर्ण है, सफेद और ऊँचे उसके प्राकार हैं, वहीं निरन्तर श्रोनिकेत शोभायमान हैं। बड़े बड़े चौहट्ट और चौराहे वहां पान्थरास्तागीरों के कोलाहल से भरे हैं, जहां दूकान दूकान में बहुत से कांसे पीतल आदि के भांड हैं, अनेक वस्त्रों से भरे हैं, जहां नित्य सुवर्ण-खण्ड कसे जाते हैं। जहाँ नित्य इच्छादान सम्मान से सुशोभित समझदार शुद्धज्ञानी महाजन बसते हैं । व्यवहार में, आचार में शुद्ध दृष्टि रखने वाले चारों वर्गों के लोग जहां प्रसन्नता से विहार करते हैं, जहां सुवर्णके खूब चूडा अलंकार पहने, पूरा-पूरा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १७६ . जहिं कणयचूड - मंडण - विसेस | सिंगार-सार-कय निरवसेस । सोहग्ग लग्ग जिण धम्म - सील माणिणि-णिय पड़ वय वहण लील । जहि पण्ण - पऊरिय - पण्ण - साल गायर - णरेहिं भूसिय विसाल । थिय जण (जिण) बिंबुजल जणिय-सम्म कूडग्ग - धयावलि - रुद्ध - घम्म । चउसालण्णय - तोरण - सहार जहिं सहहिं सेय सोहण विहार । जहिं दविणंगण वहि-प्रम-छित्त लावण्ण-पुण्ण-धण - लोल-चित्त । शृङ्गार किये, सौभाग्य में लीन, निज-धर्मके अनुसार शील पालनेवालो महिलायें अपने पतिव्रत-धर्मको आनन्दसे धारण करती हैं। ___ जहाँ प्राज्ञ पुरुषों से भरी हुई विशाल पुण्यशाला नागरिक नरों से विभूषित है, वहीं जिनबिम्बों से उज्ज्वल, सुख उत्पन्न करनेवाले, मन्दिरों के शिखर स्थित थे जो अपनी ध्वजावलि से सूर्य के आताप को रोक रहे हैं। जहां ऊँची चतुःशालायें तारण और हारां से संयुक्त है और श्वेत रमणीक विहार शोभायमान हो Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जहिं चरड चाड कुसुमाल भेड * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # ण वियंभहि कहि मि न धणविहीण पेम्माणरत परिगलिय तंबोल दुखण सखुद्द खल पिसुण एड । - दविणड्ढ णिहिल पर धम्मलीण । गव्व जहिं बसहिं विक्खण मणुव सन्च । वावार सव्व जहिं सहहिं णिच्च - कणयंत्रर भूसिय रंग रंगिय धरग्ग तहिं णरवर आहवमछ - जहिं रेहहिं सारुण सयल मग्ग । एउ राय - भिच्च । - दारिद सेउ । समुद्दत्तरण रहे हैं। जहाँ लावण्यपूर्ण, धन-लोलचित्त द्रविणांगनाएँ ( वारांगनाएँ ) बाहिरी प्रेम में लिप्त है। जहाँ लम्पट, कपटी, चोर, भीरु, दुर्जन, क्षुद्र, खल, पिशुन, भांड कहीं दिखाई नहीं देते, न कोई धन-विहीन है, सब लोग धनी और धर्म में लीन हैं । जहाँ सब मनुष्य प्रेम में अनुरक्त, गर्वरहित और विचक्षण बसते हैं । जहाँ राजा के नौकर नित्य सोने के जरीदार कपड़ों से भूषित सब कारबार करते हैं । जहाँ धराम्र ताम्बूल रंग से रंगे होनेके कारण Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * भो लंबेचू समाजका इतिहास * १८१ पत्ता-उब्वासिय - पर मंडल दंसिय ___ मंडलु कास-कुसुम-संकास जसु । छल-कुल-बल सामत्थे णीइ-गयत्थे । कवणु राउ उवमियइ तसु ॥२॥ णिय-कुल कइरव -वण - सिय-पयंगु गुण · रयणाहरण विहूसियंगु । अवराह - वलाहय - पलय - पवणु मह -माग-गण - पडिदिण्ण-तवणु । दुल्लसण - सोस - णासण - पवीणु किउ अखलिय-सजस मयंकु सीणु । पंचंग-मंत - वियरण - पवीण सब मार्ग लाल वर्ण के शोभायमान हो रहे हैं। वहां के राजा आहवमल्लदेव हैं जो दारिद्रयरूपी समुद्र से तारने के लिये सेतुसमान है, जो शत्रु-मण्डल को बीरान करनेवाले और अपने मण्डल को प्रकट करनेवाले हैं, जिनका यश काश के फूल सदृश धवल है । छल, कुल, बल और सामर्थ्य में, नीति और नय के अर्थ में कौन राजा से उसकी उपमा हो सकती है ? अपने कुलरूपी कुमुदिनी बन के लिये चन्द्रमाके समान हैं, गुणरूपी रत्नों के आभरणों से उनका Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * माणिणिमण - मोहणु मयरकेउ णिरुवम-अविरल-गुण-मणि-णिकेउ। रिउ-राय उरत्थल - दिण्ण - हीरू विसुमुण्णय समरे भिडंत वीरु । खग्गग्गि डहिय-पर-चक्क वंसु वरीय - बोह - माया · विहंसु । अतुलिय.बल खल.कुल-पलय-काल पहु-पट्टालंकिय विउल भालु । सत्तंग-रज्ज - धुर - दिण्डखंधु ___ संमाण-दाण - पोसिय - सबन्धु । णिय-परियण-मण-मीमत्सण - दच्छ परिवसिय- पयासिय - केर कच्छु । अंग विभूषित है, अपराधरूपी मेघों के लिये वे प्रलय-पवन हैं, बड़े बड़े मागध-गणों को जिन्हों ने तपनीय अर्थात् सुवर्ण का दान दिया है, वे दुर्व्यसनरूपी रोग को नाश करने में प्रवीण हैं । उन्होंने अपने अस्खलित यश से चन्द्रमा को होन कर दिया है। वे पञ्चांग मन्त्र के विचार में प्रवीण हैं, मानिनी स्त्रियों के मन को मोहने में कामदेव ही हैं, और निरुपम, अविरल गुणरूपी मणियों के निकेत हैं। उन्होंने रिपु राजाओं के उरस्थल में चोट दी है। वे बड़े Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १८३ करवाल पट्टि - विप्फुरिय - जीहु रिउ- दंड - चंड- सुंडाल- सीहु । अइ - विसम - साहसुद्दाम - धामु चउसायरंत - पायडिय - णामु । णाणा-लक्खन - लक्खिय - सरीरु सोमुज्जव (ल) सामुद्दय - गहीरु। दुप्पिच्छ - मिच्छ- रण - रङ्ग - मल्ल हम्मीरवीर-मण . नट्ट - सल्ल। चउहाण - वंस - तामरस - भाणु मुणियइं न जासु भुय-बल पमाणु । चलसीदि-खंड - विष्णाण · कोसु । छत्तीसाउह (प) पडण-समोसु । विषमसमर में भिड़ने वाले वीर हैं। अपने खड्ग के अग्र भाग से उन्होंने शत्रु के चक्र (राजमण्डल ) और वंश को ढा दिया है। वे विपरीत बोध ( मिथ्यात्व ) और माया के विध्वंसक हैं। वे अतुलित बलशाली हैं, खलों के कुल के प्रलयकाल हैं, उनका विपुल भाल राजपट्ट से अलंकृत है। सप्तांग राज्य के धुरे को सम्हालने में उन्होंने अपना कन्धा दिया है, और सम्मान दान से अपने बन्धुओं का पोषण किया है। अपने परिजनों के मन को मीमांसा Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ श्री लंबेचू समाजका इतिहास * साहण- समुदु बहु रिद्धि-रिधु अरि-राय-विसहं संकरु . पसिधु । पत्ता-पालिय-खत्तिय-सासणु परबल तासणु ताण मंडल उवासणु । मह-जस-पसर-पयासणु णव जलहरसणु दुण्णय- वित्ति - पवासणु ॥३॥ तहो पट्ट-महाएवो पसिद्ध ईसरदे पणयणि पणय-विद्ध । णिहिलंतेउर - मज्झए पहाण णिय-पइ-मण - पेसण सावहाण । सज्जण-मण • कप्प महीय - माह कंकण - केऊरंकिय . मुवाह । करने ( समझने ) में वे दक्ष हैं। पड़ोसियों तथा प्रत्याश्रितों के कक्ष अर्थात् आश्रयदाता हैं। उनको चौड़ी तलवार जीभ सी लपलपाती है, वे रिपु की सेनारूपी प्रचंड सुंडवाले मत्त हाथी को सिंह के समान हैं। वे बहुत विकट साहस के उद्दाम स्तम्भ हैं। उनका नाम चारों समुद्रों के अन्त तक प्रकट है। उनका शरीर नाना लक्षणों से संयुक्त हैं। वे चन्द्रमा के समान भृजु (उज्ज्वल) और समुद्र के समान गंभीर हैं। दुष्प्रेक्ष (मिच्छ ) मिथ्यात्व Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * छण-ससि-परिसर - संपुण्ण - वयण मुक्क-मल कमल दल-सरल-णयण । आसा - सिंधुर - गई - गमण-लील बंदियण - मणासा - दाण-सील । परिवार - भारधुर - धरण - सत्त मोयइं अंतरदल - ललिय - गत्त । छइंसण - चित्तासा . विसाम ___ चउ-सायरंत - विक्खाय - णाम । अहमछ - राय - पय - भत्ति जुत्त अवगमिय - णिहिल विष्णाण-सुत्त। णिय - णंदणाहं चिंतामणीव णिय - धवलग्गिह - सरहंसिणीव । से युद्ध करने में वे मल्ल हैं, उन्होंने हम्मीर वीर के मनकी शल्य को नष्ट किया है। चौहान-वंशरूपी कमल के वे सूर्य हैं, जिनके भुजबल का प्रमाण जाना नहीं जाता। वे चौरासी खण्ड के-चौरासी प्रामों के आधिपत्य से चौरासी गाँउ शासनकला के भण्डार थे और छत्तीस आयुध चलाने में कुशल थे। साधनों ( अस्त्र-शस्त्रादि ) के समुद्र अर बहुत ऋद्धि से समृद्ध वे शत्रुराजा-रूपी वृषभों के शंकर हैं, अथवा विषों को पी जानेवाले Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * परियाणिय- करण - विलास - कज्ज रूवेण जित्त - सुत्ताम भज्ज । गंगा-तरंग - कल्लोल - माल समकित्ति - भरिय - ककुहंतराल । कलयंठि-कंठ-कल-महुर-वाणि गुण-गरुव-रयण-उप्पत्ति-खाणि । अरिराय-विसह संकरहो सिट्ठ सोहग्ग-लग्ग गोरि ब्व दिट्ठ। पत्ता-तहिं पुरेकइ-कुल-मंडणु दुण्णय-खंडणु मिच्छत्तत्तिण जित्तउ । सुपसिद्धउ .कइ लक्खणु बोह-वियक्खण परमय-राय ण छित्तउ । शंकर प्रसिद्ध हैं। वे क्षत्रिय-शासन को पालनेवाले, शत्रु-बल को त्रास देनेवाले और उनके मण्डल को उजाड़ करनेवाले, महान् यश के फैलानेवाले, नवीन जलधर मेघ के समान हर्षकारी और दुनाति वृत्ति को दूर करनेवाले हैं। ___ उनकी पट्ट महादेवी · ईसरदे' प्रसिद्ध हैं जो उनकी स्नेहमयी प्रणयिनी हैं। वे समस्त अन्तःपुर में प्रधान और अपने पति को प्रसन्न रखने में सावधान हैं। सज्जनों के मनके समान पृथ्वी को Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # एकहिं दिणे सुकइ पसण्ण-चित्तु णिसि सेजायले झायह सत्तु । महु बोह - रयणधडगरुय - सरिसु बुहयण भव्त्रयणहं जणिय- हरिसु । कर कंठ - कष्ण पहिरण असक १८७ महु सुकइत्तणु विजा-विलासु आणंद-लयाहरु अमियरोइ मई असुह-कम्म परिणइ सहाउ र-हर-मई तेण सजोरु थक्क | बुहयण- मुह मंडणू साहिलासु । वि याण सुइण इत्थ को वि । उग्गमिउ सहिवउ दुह - विहाउ । प्रसन्न करनेवाले कंकण और केयूरों से सुशोभित जिसकी भुजायें थीं, उनका प्रफुल्ल मुख पूर्णिमा के चन्द्रबिम्ब के समान से वचन मोतीमाल समान निकलते थे और नयन निर्मल कमलदल के सदृश सरल थे । दिग्गज हाथियों के समान उनकी सुन्दर गति है । बन्दीजनों के मन की आशा का पूरी करने में वे दानशील हैं, वे अपने परिवार के कार्यभार को सम्हालने में आसक्त रहती थीं। यद्यपि उनका शरीर केले के भीतर दल के समान सुकोमल है । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * एमेव कइत्तण-गुण-विसेसु परिगलइ णिच मह णिरबसेसु । केणुप्पाएं अजियइ धम्म किजइ उवाउ इह भुवणे रम्भु । पाइयइ धम्म-माणिक जेण सहसा संपइ सुद्धे मणेण । धम्मेण रहिउ नर-जम्मु वंझु इय चिताउलु कइ-चित्तु रंश । किं कुणमि एत्थ पयडमि उवाउ ___ जे लन्भइ पुण्ण-पहाव-राउ । मणे झाड झाणु सुह-वेल्लि-कंदु तहिदल-णिसाए णिद्दलिवि दंदु। जिसके छहों दर्शन चित्त की आशा के विश्राम के स्थान थे अर्थात् षटदर्शन ज्ञाता थी। चारों सागरों के अन्त तक उनका नाम विख्यात है। वे आहवमल्ल राजा के चरणों की भक्ति में लवलीन थीं । उन्होंने समस्त विज्ञान सूत्रों का अध्ययन किया था। वे अपने पुत्रों के लिये चिन्तामणि के समान और अपने धवलगृहरूपी सरोवर में हंसिनीके समान थी। वे इन्द्रियसुख के कार्य (कामकला) को भी अच्छी तरह जानती थी। रूप में उन्होंने इन्द्राणी को भी Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेच समाजका इतिहास * १८६ अइ-णिन्भर-णिद्दाणंद-भुत्तु ___ संवेइय-मणु जा सिज सुत्तु । ता सुइणंतरि सुसमइ पसत्त जिण-सासण-जक्खिणि तम्मि पत्त । वाहरिउ ताई हे सुह-सहाव कइ-कुल-तिलयामल गलिय गाव । जिण-धम्म-रसायण-पाण-तित्तु तुई धण्णउ एरिसु जासु चित्तु । चिंता-किलेसु जं तुम्ह बप्प तंतजिवि सज्जहि मण-वियप्प। अहमल्ल-राय-महमंति सुद्ध जिण-सासण-परिणइ गुणपवधु । जीत लिया था। गंगा की तरंगों की कल्लोलमाला के समान अपनी कीर्ति से उन्होंने समस्त दिशाओं को भर दिया था। ___ उनकी बाणी कोकिला के कंठ के समान मीठी थी। अच्छे गुणरूपी रत्नों की तो वे खानि ही है। ये शत्रु राजाओं को असह्य रणकला से भी चतुर थी। शंकर की गौरी के समान श्रेष्ठ और सौभाग्यशील दिखाई देती थीं। उसी नगर में सूप्रसिद्ध कवि लक्ष्मण भी हैं जो कवि-कुल के Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * कण्हडु कुल-कइरव-सेय-माणु पहुणा समज सव्वहं पहाणु । सम्मत्तवंतु आसण्ण-भव्यु सावय-वय-पालणु गलिय गन्छ । पत्ता-सो तुम्हहं मण-संसउ जाणिय-दुहंसउ णिण्णासिहइ समुच्चउ । सुपयासिहइ कइत्तणु तुम्ह पहुत्तणु जिण-धम्मुज्जलु उच्चउ ।।। इउ मुणेवि मणसि णिद्दलहि तंदु इह कज म सजण होहि मंदु । तहो णमें विरयहि पयडु भन्बु सावय-वय-विहि-वित्थरण-कन्छ । मण्डन और दुर्नय-खन्डन हैं, मिथ्यात्व से जीते नहीं गये, ज्ञान में विचक्षण और जिन्हें पर-मत के राग ने छुआ भी नहीं है। ___ एक दिन ये सुकवि प्रसन्नचित्त से शय्या पर लेटे हुए विचार करने लगे-मेरा ज्ञान-रत्न बड़े घड़े के सदृश भारी तथा विद्वानों और भव्यजनों को हर्षे उत्पन्न करनेवाला है। वह हस्त कंठ व कर्ण में पहना नहीं जा सकता। उसकी जोड़ में नर और हर की मति स्तब्ध रह जाती है। (?) मेरा सुकवित्व और विद्या Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * १९१ इउ पभणेवि भंजिवि मण-महत्ति गय अंबादेवी णियय थत्ति । परिगलिय-विहावरि गोसे बुद्ध कइ लक्खणु संज़म-सिरि-विसुद्ध । जिणु वंदिवि अजिवि धम्म-रयणु णिज्झायइ मणे सालसिय णयणु । मुहु मुहु भावइ जं रयणि वित्त ___ अंबादेविए पणिउ पवित्तु । तमलीउ ण हवइ कयावि सुण्णु __मह मण-चिंतासा-धवणु पुष्णु। गंजोल्लिय-मणु लक्खणु वहउ सीयरिउ कन्व-करणाणरूउ । विलास बुधजनों के मुखके मण्डन होने की अमिलाषा रखता है, वद आनन्द का लतागृह और अमित कान्तिवाला है। पर उसे अभी यहां कोई जानता सुनता नहीं है। मैंने अशुभ कर्मों में अपनी स्वभाव-परिणित लगा रखी है जिसके उदय से मुझे दुःखविभाव सहना पड़ेगा। इस तरह मेरा यह विशेष कवित्वगुण नित्य सब बहा जा रहा है । किस उपाय से धर्मार्जन किया जाय ? इस भुवन में कोई सुन्दर उपाय करना चाहिये, जिससे अब जल्दी Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्री लँबेचू समाजका इतिहास * णिय घरे पत्तउ वण-गन्ध-हत्थि मयमत्तु फुरिय मुहरुह गभत्थि। वसि हुयउ स-सर दसदिसि भरंतु भणु कोण पडिच्छइ तहो तुरंतु। सुपसण्ण-राउ घरहं तवेइ भणु कवण दुवार कबाड देह अबमिय वयणलिणा चातुरंग धण-कण-कंचण-संपुण्ण चंग। घर समुह एंत पेच्छवि सवारु ___ भणु कवणु बप्प झंपइ दुवारु । चिंतामणि-हाडय-निवड जडिउ पज्जहइ कवणु सई हत्थ-चडिउ। शुद्ध मन से, धर्मरूपी माणिक्य प्राप्त हो। धर्म से रहित नरजन्म निष्फल है।" इस प्रकार कवि अपने चित्त में चिन्ताकुल हुए। ___ "क्या करूँ, यहाँ कौनसा उपाय प्रकट करूं जिससे पुण्यप्रभाव-राग का लाभ हो।" ऐसा सुखरूपी वल्ली की जड़-समान मन में ध्यान ध्याते हुए रात्रि के पश्चिम भाग में निर्द्वन्द्व होकर अपनी शय्या पर जब वे गहरी नींद में सो गये, तब स्वप्न में सद्धर्म में प्रसक्त रहनेवाली जिन-शासन यक्षिणी वहीं आई और Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १६३ घर-रंगुप्पण्णउ कप्परुक्खु जले कवणु न सिंचइ जणिय-सुक्खु । सयमेव पत्त घरु कामधेणु पज्जहइ कवणु कय-सोखसेणु। चारण-मुणि तेएं जित्त-भवइ गयणाउ पत्त किर को ण णवइ । पेऊस-पिंड करे पत्तु भन्दु को मुयइ निवे (इय) जीवियन्तु। महविज्जक्खर-गुण-मणिणिहाणु पवयण वयणामय-पय- पहाणु । घर-धम्मिय-गर-मण-(बो) हणत्यू वरकइणा विरइउ परमु सत्थु । उन्होंने कहा- हे, सुख स्वभाव, कवि-कुल के निर्मल तिलक, गर्वरहित, जिन धम-रसायण के पान से तृप्त, तुम धन्य हो जिसका ऐसा चित्त हुआ। तुम्हें जो चिन्ता क्लेश हुआ है, उसको त्याग कर मन में संकल्प कर लो। आहवमल्ल राजा के महामंत्री शुद्ध जिन शासन में परिणति रखने वाले, गुणों से भरपूर, कण्हड, अपने कुल-रूपो कैरव के चन्द्रमा, जिन्हें राजा ने सब में प्रधान बनाया है, जो सम्यक्त्ववान्, आसन्न-भव्य, श्रावक के व्रतों को Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmmmm...more on १६४ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * एमेव लद्ध मह-पुण्ण-भवणु अवगण्णइ णरु धीमंतु कवणु। धत्ता- इह महियले सो धण्णउ, पुण्ण-पउण्णउ, जसु णामें सुपसाहमि । चिंतिउ लक्खण कइणा, सोहण-मइणा, कन्च रयणु णिन्वाहमि।।५ इह चंदवाडु जमुणा-तडत्यु दंसिय विसेस गुण-विविह वत्थ । चउहट्ट हट्ट-घर-सिरि-समिद्ध चउवण्णासिय-जण-रिद्धि-रिछु । भूवालु तत्थ सिरि भरहवालु णिय-देस-गाम णर-रक्खवालु। 'पालनेवाले और गर्वरहित हैं, वे तुम्हारे इस दुविधाजनक मन के संशय को सर्वथा नाश करेंगे और तुम्हारे जैन धर्मोज्ज्वल, उच्च कविता के प्रभाव को अच्छी तरह प्रकाशित करेंगे। यह जानकर तुम मन को तन्द्रा को दूर करो। हे सजन ! इस कार्य में अब मन्द मत होओ। उनके नाम से श्रावक विधि का विस्तार बतलाने वाला एक उत्तम भव्य काव्य रचो।' ऐसा कहकर और उनके मन की चिन्ता को मिटा कर अंबादेवी अपने स्थान को Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * तर्हि लंबकंचुकुल गयण-भाणु परवइ- समज्ज सर हल्लणु पुरवड़ सब्बह पहाणु । नरनाह सहा- मंडण तहो अमयवाल तणुरुहव हूउ जणिट्ठ जिण सांसण- परिणइ पुण्ण- सिठु । वणि पट्ट किय-भालयल- रूउ | रायहंसु १६५ सो अभयवाल णरणाह-रज्जे सुपहाणु जिण भवण करायउ तं ससेउ महमंत धविय चउहाण वंसु । राय वावार कज्जे । केयावलि झंपिय-तरणि तेउ । चली गई। रात्रि बीतने पर संयम रूपी लक्ष्मी से विशुद्ध कवि लक्ष्मण जागे । जिनदेव की वंदना और धर्म रत्न का अर्जन कर के, शिथिल नयन होकर, मन में ध्यान करने लगे । रात्रि में जो वृत्तान्त हुआ था, उसकी बार-बार भावना करने लगे- 'अंबादेवी ने जो पवित्र बात कही है वह कदापि असत्य व शून्य नहीं हो सकती, वह मेरी चित्त की आशा को पूरी करनेवाली पुण्य बात है ।' Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * कूडावीडग्गाइण्ण वोमु कलहोय कलस-कलविचि- सोमु । चउसालउ तोरणु सिरि जणंतु पड - मंडव - किंकिणि - रण-झणंतु । देहरुहु तासु सिरि साहु सोढ जाहड - गरिंद - सहमंत - पोढु । धत्ता-संभूयउ तहो रायहो, लछि सहायहो, पदमु जण-मणाणंदणु। सिरि बल्लालु णरेसरु, वं जिय-सरु, सुद्धासउ महणंदणु ॥७॥ लक्ष्मण मन में बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने काव्य-रचना करने की ठान ली। यदि मदमत्त, वन का गंध हाथी, अपने दांतों की किरणों से चमकता हुआ और अपनी चिक्कार से दसों दिशाओं को भर देनेवाला वश में हो जाय और अपने घर आवे तो कहो उसे कौन तुरन्त नहीं चाहेगा ? सुप्रसन्न अनुराग से यदि वह तुम्हारे घर आवे तो कहो कौन द्वार के कपाट लगा देगा। जिसने अपने वाणों की वर्षा से चतुरंग सेना को घायल किया है, जो धन, कन, कांचन से सम्पूर्ण और चंगा है ऐसे सवार को अपने घर के सामने आते देख कहो भला कौन द्वार बन्द कर देगा ? Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * १९७ जो साहु सोढु तहिं पुर-पहाणु जण-मण-पोसणु गुण-मणि-णिहाण। तहो पदमु पुत्तु सिरि रयणवालु बीयउ कण्हडु अद्धिंदु - भालु । सो सुपसिद्धउ मल्हा - तणुउ तस्साणुमणा जिउ सुद्धरूउ । (१) उद्धरिय जिणालय - धम्म - भारु जिण - सासण-परिणय-चरिय-चारु। गंधोवरण दिणे दिणे पिवत्तु मिच्छत्त - वसण - वासण - विरत्तु । सोने में अच्छी तरह जड़ा हुआ चिन्तामणि यदि हाथ चढ़ जाय तो कौन उसे छोड़ देगा ? घर के आंगन में यदि कल्पवृक्ष उत्पन्न हो जाय तो उस सुख देनेवाले वृक्ष को कौन जल से नहीं सीचेगा ? स्वयमेव घर आई हुई सुख की सेना को उत्पन्न करनेवाली कामधेनु को कौन छोड़ देगा ? अपने तेज से भापति (सूर्य) को भी जीतनेवाले चारण मुनि यदि आकाश से आ जाये तो उन्हें कौन नमस्कार नहीं करेगा ? जीवनदान देनेवाला भव्य पीयूषपिण्ड हाथ आ जाय तो उसे कौन छोड़ेगा ? इसी प्रकार उत्तम कवि महाबीजाक्षर रूपी गुणों के मणियाँ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * अरिराय - गाइ . गोवाल - रज बल्लालएव - णरवई समज । सब्बहं सव्वेसरु रयण - साहु वावरई णिरग्णल चित्त - गाहु । सिवदेउ तामु हुउ पटमु मूणु सिरि दाण- (वंतु) णं गंध-थणु । परियाणइ णिहिल कला-कलाउ विण्णाण - विसेसुजल - सहाउ । मह-पंडा पंडिउ वि (उ) - सियासु अवगमिय-णिहिल-विजा-विलासु । का निधान शास्त्र वचनामृत के वेदों में प्रधान, गृहस्थ-धर्मवाले मनुष्यों के सम्बोधनार्थ यह परम शास्त्र रचा। इस प्रकार महापुण्य भाव का जो लाभ हुआ उसकी कौन बुद्धिमान अवगणना करेगा? इसी महीतल पर वह पुण्यवान् धन्य है जिसके नाम से मैं इसे सुप्रसिद्ध करता हूँ और शुभमति कवि लक्ष्मण द्वारा सोचे हुए इस काव्य-रत्न को निबाहता हूँ। यहां जमना के तट पर स्थित 'चंदवाड' है, जहां उत्तम प्रकार की विविध वस्तुएँ दिखाई देती हैं। वह चौहट्टो, हाटों और घरों Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास - १ पट्टाहियारि संपुण्ण - गत्तु वियसिय - सरोय - संकास - वत्त । आयु-क्खए सो सिरि रयणवाल गउ सग्गालए - गुण-गण-विसालु। तहो पच्छए हुउ सिवएव साहु पिउपट्टि बइठउ गलिय - गाहु । अहमल्ल - राय - कर-विहिय-तिलउ महयणहं महिउ गुण-गरुव-णिलउ । सो साहु पइटिउ जणिय - सेउ | सिवदेउ साहु कुल - वंस - केउ । पत्ता-जो कण्हड पुवुत्तउ, पुण्ण प3 उत्तउ, महि-मंडलि विक्खायउ । की शोभा से समृद्ध है, तथा चारो वर्णों के आश्रित जनों को द्धि से समृद्ध है। वहाँ के भूपाल श्री 'भरतपाल' हैं जो अपने देश और ग्राम के निवासियों के रक्षक हैं। वहाँ 'लंबकंचुक' कुल-रूपी: आकाश के भानु पुरपति 'हल्लणु' सब में प्रधान हुए। वे नरनाथ की सभा के मंडन, लोगों के प्यारे और जिन-शासन में परिणति १. मूल में यउत्तउ पाठ है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास आहवमल्ल - परिंदहु मणसाणंदहु मंतत्तण पइभायउ ॥८॥ पिया तस्स सल्लक्खणा लक्खणडढा गुरूणं पए भत्ति काउँ वियडढा । स - भत्तार - पायार - विंदाणगामी । __घरारंभ - वाचार - संपुण्ण - कामी। सुहायार चारित्त - चीरंक - जुत्ता सुचेयाण गंधोदएणं पवित्ता । के पुण्य के शिष्ट थे। उनके पुत्र 'अमृतपाल' हुए जिनका भालतल अवनिपट्ट* ( जागीरदारीके पट्ट) से विभूषित हुआ। वे नरपतिके समाजरूपी सरोवर के राजहंस थे और उन्होंने महामन्त्रित्व द्वारा चौहान वंशको उज्ज्वल किया था । वे 'अभयपाल' राजाके राज्यमें * वणिपट्टकिय भालयल रूट यहाँ वणि शब्द प्राकृत अपभ्रश अवनि शब्द का है। अवनि पृथ्वी का नाम है और अव उपसर्गपूर्वक णील प्रापणे धातु से बना है और अव उपसर्ग के अक र का लोप हो गया है तब वनि रहा और वनि प्राकृत भाषा में वणि हुआ नकार को णकार होकर और पट्टाङ्कित का पट्टकिय भया भालतल का भालयल भया रूउ रूपका भया अकार का लोप ( वष्टिभागुरिरल्लोपमवाप्यो रुपसर्गयोः ) इस वार्तिक व्याकरण से भया। वणिक्पट्ट से अंकित यह अर्थ भास्कर ने अशुद्ध लिखा है Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २०१ स-पासाय - कासार - सारा-मराली . किवा-दाण-संतोसिया वंदिणाली । पसण्णा सुवायार अचंचेल चित्ता रमा राम रम्मा मए बाल णित्ता । (१) खलाणं मुहंभोय - संपुण्ण - जुण्हा पुरग्गो महासाहु सोढम्स सुहा । दया - वल्लरी - मेह - मुकंबुधारा सइत्तत्तणे सुद्ध सीयावयारा । राज-व्यापार-कार्य में प्रधान थे। उन्होंने एक जैन मन्दिर भक्तिसहित निर्माण कराया जिसने अपनी ध्वजावली से सूर्य के तेज को *क दिया । वह अपने कूट शिखर के अग्रभाग से आकाश को छूता था और सुवर्ण के कलश से बड़ा सुन्दर और सौम्य था। उसके चतुःशाल और तोरण की बड़ी शोभा थी, वह पट-मंडव की घंटरियों से झनझनाता था। उनके पुत्र श्रीशाह 'सोढ' हुए जो 'जाहड' नरेन्द्र के प्रधान मंत्री हुए। इस लक्ष्मीवान् राजा का प्रथम नन्दन लोगों के मन को आनन्द देनेवाला श्रीबल्लाल नरेश्वर हुआ जिसने अपने रूप से कामदेव को जीत लिया, जो शुद्धाशय थे। २ मूल में 'सवाया' पाठ है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ श्री लँबेचू समाजका इतिहास * जहां चंद - चडाणुगामी भवाणी जहा सब्यवेइहिं सव्वंग - वाणी । जहा गोत्त - णिहारिणो रंभरामा रमा दानवारिस्स संपुण्ण - कामा । जहा रोहिणी ओसहीसस्स सण्णा महड़ढी सपुण्णस्स सारस्स रण्णा । जहा मूरिणो मुत्तिवेई मणीसा किसाणस्स साहा जहा रूवमीसा ? __ जो साहु 'सोढ़' वहाँ पुर-प्रधान, जन-मन-पोषण और गुणमणि-निधान थे उनके प्रथम पुत्र श्री रत्नपाल' हुए और दूसरे 'कण्हड' जिनका भाल अर्द्धचन्द्र के समान था। ये ( कण्हड ) 'मल्हा' के पुत्र खूब प्रसिद्ध हुए। x x x उन्होंने जिनालयों के उद्धार का धर्मभार धारण किया। उनका चारित्र सुन्दर और जिन शासन के अनुसार था। वे प्रतिदन गन्धोदक से अपने को पवित्र करते थे और मिथ्यात्व तथा व्यसन की वासना में विरक्त रहते थे। उन्हें बल्लालदेव (भोजवंशी)नरपति ने शत्रु राजारूपी गौओं के गोपालराज बनाया था। रतन साहु 'सर्वेसर्वा व्यापार में निरर्गल और गंभीर चित्त थे । उनके प्रथम पुत्र शिवदेव हुये जो गंधहस्ती के समान दानवंत थे। वे समस्त Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास २०३ जहा जाणई कोसलेसस्स सारा झुणीणस्स मंदाइणी तेयतारा । रए कंतुणो (?) दाक्षिणो सुद्धकित्ती जहासण्ण-भब्वस्स सम्मत्त-वित्ती। पत्ता-तासु मुलक्खण विहिय कुलक्कम अणुगामिणि तह जणमहिय। तहि हुव वे गंदण णयणाणंदण हरिदेउ जि दिउराउ हिया ॥६॥ कलाओं के जानकार थे और विशेष विज्ञान से उनका स्वभाव उज्ज्वल हो गया था। विद्वानों के बीच वे बड़े बुद्धिमान पंडित थे और समस्त विद्या विलास उन्हें प्राप्त था। वे पदाधिकारी थे, अविकलांग थे और उनका मुख विकसित कमल के समान था। आयु के क्षय होने पर वे रत्नपाल, गुण-गण-बिशाल, स्वर्गालय को सिधारे। उनके पश्चात् शिवदेव साहु पिता के पद पर आग्रह-रहित होकर बैठे। आहवमल्ल राजा के हाथ से उनका तिलक हुआ। वे महाजनों में मान्य और महागुणों के निलय हुए। इस तरह शिवदेव साहु, अपने कुल और वंश के केतु, प्रतिष्ठित हुए और लोग उनकी सेवा करने लगे। और कण्हड जिनका पहले उल्लेख कर आये हैं और जो पुण्य-द्वारा पवित्र और Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * सो कण्हु मयण-मुद्दावयारु अहिणाणिय- भव- भायण-वियारु । जिण्ण- धम्म- रम्म-धुर-दिण्ण-खंधु पायडिय- पणय - भन्वयण - बंधु । अणु- गुण - सिक्खावय - रयण-कोसु उवसंतासउ परिहरिय - रोसु। दुबसण - विसय - वासण - विरत्तू णिव - मंति - विणिज्झाइय - परत्तु । मही-मण्डल में विख्यात थे, आहवमल्ल नरेन्द्र द्वारा, मन में आनंद सहित, मन्त्रिपद पर प्रतिष्ठित किये गये ।। ८॥ ___ उनको प्रिय सुलक्षणा, बड़ी लक्षणवती थीं, गुरुओं के चरणों की भक्ति करने में कुशल थीं, अपने पति के पादारविंद की अनुगामिनी और घर गृहस्थी के कार्य में पूरा मन लगानेवाली, सदाचारिणी, चारित्ररूपी वस्त्रधारण करनेवाली और चैत्यों ( मूर्तियों ) के गन्धोदक से पवित्र थीं। वे अपने राजमहलरूपी सरोवर की हंसिनी थी, कृपा और दान द्वारा बंदोजनों को संतुष्ट करती थीं। वे प्रसन्न, मधुरभाषिणी, अचंचलचित्त,...... ...... खलों के मुखरूपी कमलों के लिये पूर्ण चांदनी थीं। नगर-सेठ महासाहू सोढ की पुत्रवधू ऐसी थीं। वे दयारूपी बेल के लिये Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २०५ केण वि पच्छाएं सो जि कण्ड जिण - मंदिरम्मि ठिउ चत्त-तण्हु । सो लत्तउ कविणा लक्खणेण जिण-समय-वियार- वियक्खणेण । तं कहिउ णिहिलु जं रयणि दिठ्ठ सुविणंतरि अंबाएवि सिद्ध । तं सुणेवि कण्हु रोमंच-कंचु संजाउ दुत्ति - पय - हिय- पवंचु । मेष की जलवृष्टि के समान थीं और सतीत्व में शुद्ध सीता की अवतार थीं। जैसे चन्द्रचूड (शिव) की अनुगामिनी भवानी हैं, जैसे सर्वज्ञ की सर्वाङ्ग (द्वादशांग) वाणी, जैसे गोत्रभिद् (इन्द्र) की स्त्री रम्भा, दानवारि (विष्णु) की कामना पूर्ण करनेवालो रमा, जैसे औषधोश (चन्द्र ) की रोहिणी नामधारिणी, पुण्यवान् की महद्धि, कामदेव की रति, सूरि की मोक्षाकाक्षिणी वुद्धि. जैसे कृशानु (अग्नि को शाखा (ज्वाला), जैसे कोशलेश (राम) को जानकी और धुनोन (समुद) की उज्ज्वल मंदाकिनी,.......जैसे दानी को शुद्रकीर्ति और आसन्न-भव्य की सम्यक्त्त्ववृत्ति, उसी प्रकार उनको कुलक्रम को रक्षा करनेवाली, लोक-पूज्य सुरक्षणा अनुगामिनी थी। उसके नयनों को आनन्द देनेवाले हितकारी, दो पुत्र उत्पन्न हुए-हरिदेव और द्विजराज ।। ६ ।। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m २०६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * वडु-भत्तिए लक्खणु तेण रम्म पुच्छियउ कण्हें सायारु धम्मु । सम्मत्त - गुणठ - कला - निबंध तोडहि असुहासव - कम्म-बंध । तं सुणेवि भणिउ-साहुल-सुएण जिण - चरणचण- पसरिय-भुएण । भो लंचंकंचु - कुल - कमल - सूर कुल - माणव - चित्तासा - पऊर। वे कण्ह मदन के रूप के अवतार और संसार के चलाने वाले विकारों के जानकार थे। उन्होंने जैन धर्म के रमणीक धुरे में अपना कंधा दिया था और वे प्रेम प्रकट करनेवाले भव्यजनोंके बंधु थे। वे अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत-रूपी रत्नों के कोश थे, उपशान्त आस्रव और रोग के त्यागी थे। वे दुव्यसनों और विषयों की वासना से विरक्त थे। ये राजमन्त्री परत्र (परलोक) का ध्यान रखते थे। ये कण्ह किसी पश्चात्ताप से, तृष्णा को त्याग जिनमन्दिर में बैठे थे। वहीं जैनधर्म के बिचार में विचक्षण कवि लक्ष्मण उनसे बोले और रात्रि को स्वप्न में जो कुछ देखा था व व अंबादेवी ने जो कुछ उपदेश दिया था वह सब कहा। १. मूल में लकारान्त पाठ है। २. मूल में 'दीबन्तु पाठ है। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लँबेचू समाज का इतिहास * २०७ aamananwr M a n ...... . जिण - समय - सत्थ-वित्थरण-दक्ष गुण - मणहारंकिय- वियड- वच्छ । सम्मत्ताहरण - विहूसियंग सुहियण-कइरव-वण-सिय. पयंग । णिम्मलयर - सरयायास - साम दीवंतु - वासि-णर-थुणिय- णाम । पवयण - वयणामय - पाण - तित्त सव्वहं भव्ययणहं धम्म-मित्त । उसे सुनकर कह रोमाञ्चित हो उठे और दो तीन शब्दों में ही उनका प्रपंच (मनोमालिन्य) दूर हो गया। बहुत भक्ति से कण्ह ने लक्ष्मण कवि से रमणीय सागराधर्म पूछा। ___ “हे सम्यक्त्व के आठ गुणों की कला के निवन्ध, मेरे अशुभ आस्रव कर्मों के बन्धनों को तोड़िये ।" यह सुन कर, जिन चरणों की पूजा में हाथ फैलानेवाले साहुल पुत्र बोले “हे लंबकंचुक-कुलरूपी कमल के सूर्य, अपने कुल और अन्य मनुष्यों के मन की आशा को पूरी करनेवाले, जैनधर्म और शास्त्र के विस्तार में दक्ष, गुण रूपो मणियों के हार से अपने विशाल वक्षस्थल को शोभित करनेवाले, सम्यक्त्व के आभरण से विभूषितांग, सुहृदजन-रूपी कुमुदवन के चन्द्र, खूब निर्मल शरत्कालीन आकाश के समान Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * मिच्छत्त - जरंहिव- ससण- मित्त णाणिय-परिंद महनियनिमिच (?) अवराह - वलाहय - विसम - वाय वियसिय जीवणरुह वयण छाय । भय - भरियागय · जण- रक्खवाल छण-ससि.परिसर-दल-विउल-भाल । संसार - सरणि - परिभमण - भीय गुरु - चरण - कुसेसय - चंचरीय । श्याम, अन्य द्वीपों के वासी नरों द्वारा जिनके नाम की स्तुति की जातो है, प्रवचन (शास्त्रोपदेश) के वचनामृत के पान से तृप्त सब भव्य जनों के धर्म-मित्र, मिथ्यात्व-रूपो जीर्ण वृक्ष के लिये अग्नि, ज्ञानी राजा के सहज मित्र (?), अपराध रूपो मेघों को प्रचण्ड वायु, विकसित कमल के समान मुखकांति के धारक, भय से भरे हुए आनेवाले जनों के रक्षपाल, पूर्ण चन्द्रमण्डल के अर्ध भाग समान भालयुक्त, संसार-सरणी में परिभ्रमण से भीत, गुरु के चरणकमलों के चंचरीक, धर्म के आश्रित हुए समझदार लोगों का पोषण करनेवाले, निरुपम राजनीति माग के ज्ञाता, यश के प्रसार से ब्रह्माण्ड-खण्डको भर देनेवाले, मिथ्यात्व-रूपो पर्वत के वज्रदण्ड, माया, मद, मान और दम्भ के त्यागो, महामति-रूपो हस्तिनो को Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेच समाजका इतिहास * २०६ पोसिय. धम्मासिय- विवुह- वग्ग णाणिय- णिरुवम- णिवणीइ-मग्ग। जस - पसर - भरिय. बंभंड- खंड मिच्छत्त - महीहर - कुलिस- दंड । तज्जिय - माया - मय - माण डंभ महमइ. करेणु - आलाण - थंभ। समयाणुवेइ गुरुयण - विणीय दुत्थिय - णर - गिब्वाणावणीय । पत्ता-तुहूं कइ-यण-मण-रंजणु, ___ पाव-विहंजणु, गुण-गण-मणि रयाणायरु। उछाहट्टि अबट्टिउ सुपयो मट्ठिउ (?) णिहिल.कला- मल - णयरु ॥१०॥ बांधने के स्तम्भ, समयवेदी, गुरुजन-विनीत, और दुःखित नरों को कल्पवृक्ष, तुम कविजनों के मनोरंजन, पाप-विभंजन, गुण-गण रूपी मणियों के रत्नाकर...............और समस्त कलाओं के निर्मल नगर हो ॥१०॥ तुम धन्य हो जिनका ऐसा चित्त हुआ जो तीन पदार्थों ( धर्म, अर्थ, काम ) के रस से उज्ज्वल और पवित्र मति है, शयन, आसन, स्तंबेरम (हाथी), घोड़े,ध्वजा छत्र, चमर श्रेष्ठ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * तुहुं धण्णु जासु एरिसिउ चित्तु तिपयत्थरसुज्जलु मइ - पवित्तु । सयणासण स्तंबरम तुरंग __धय छत्त चमर बाला वरंग । धण कण कंचण घण-दविण-कोस __जंपाण -जाण भूमण संतोस । घर पुर जयरायर देस गाम पट्टोलंबर - पट्टण - समाण । संसार - सारु णयवत्थु भावु जं जं दीसइ णण महाउ । तं तं मुहेण पावियइ सव्वु लहियइ ण कव्व माणिक्कु भब्बु । शरीरवाली वाला स्त्री, धन, कण, कांचन, धना द्रविण-कोश, पालकी, यान, यथेच्छ भूषण, घर, पुर, नगर देश, ग्राम, नगर सब सामान बड़े बड़े तम्बू आदि संसार में सार-रूप नाना प्रकार की जो जो वस्तुएँ दीखती हैं, वे सब सुलभता से प्राप्त हो सकती हैं, पर काब्य रूपी भव्य-माणिक्य सुलभ नहीं है । यहाँ बहुत से प्रज्ञावान् बुधजन दिखाई देते हैं, पर जैनशास्त्र का तज्ञ (ज्ञाता) सुकवि Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २११ इह दीसहिं बहु बुहयण संपण्ण दीसहिं न सुकइ जिण-समय-णण्ण । सुणु कहमि वियवखण अइविचित्त अइविसमु पुणुब्भव- भमण-वित्त ।। ___x x x x x अन्तिम प्रशस्ति सिरि लंबकंचु - कुल - कुमुय · चंदु ____करुणावल्ली - वण - धवण - कंदु । जस-पसर पऊरिय - वोम - खंड अहियद्दि- विमद्दण -कुलिस दंड। अबराह - बलाहय - पलय पवणु भव्य यण-वयण-सिरि-सयण तवणु । दिखाई नहीं देता। हे विचक्षण, सुनो, में तुमसे पुनर्भव में भ्रमण करने का अति विचित्र और अति विगम सुलभ वृत्तान्त कहता हूँ।" श्रोलंबकंचुक-कुल-रूपी कुमुद के चन्द्र, कमणारूपी वल्ली के वन का पोषण करने वाले कंद, यस के प्रसार से आकाशखंड को प्रपूरित करनेवाले, शत्रुरूपी पर्वत के विमर्दन के लिये वज्रदण्ड, अपराध रूपी मेघों के लिये प्रलय-पवन, भव्यजनों के मुख-रूपी कमलों के लिये सूर्य, मिथ्यात्वरूपी बृक्ष को उन्मूलित करने वाले, Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * उम्मूलिय-मिच्छत्तावणीउ जिण चरणच्चण-विरयण विणीउ । दसण - मणि - भूसण - भूसियंगु तज्जिय - पर -सीमंतिणि - पसंगु। पवयण - विहाणा. पयडण - समोसु णिरुवम-गुण-गण-माणिक्क कोसु । सपयडि - परपयडि - सया -अणिंदु थण- दाण-धविय. वंदियण - विदु । संसाराडइ - परिभ्रमण - भोरु जिण - कयामय - पोसिय सरीरु । देव - पाय - पुंडरिय - भत्तु विणयालंकिय - वय - सील-जुत्त। णिरुवम गुण जिन-चरणों की पूजन करने में विनीत, सम्यग्दर्शन-रूपी मणियों के भूषणों से भूषितांग, परस्री,-प्रसंग के त्यागी, प्रवचन (शास्त्रोपदेश) विधान के प्रकाशनार्थ समवशरण, निरुपम गुणरूपी माणक्यिों के कोश, स्वप्रकृति और परप्रकृति में अनिंद्य । अपने स्वभाव और पर स्वभाव की निन्दा नहीं करते। संसार-रूपी अटवी के परिभ्रमण से भयभीत, जैन काव्यों Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महसइ लक्खन तहु पाणणाहु तहो पणय * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # - कण्हडु वणिव जण सुप्पसिद्धु · पुर परिहायार पलंव - बाहु । - - - वसेन वियक्खणेण महमहणा साहु उहो घरिणि जड़ता - सुएण सुकइतण गुण - अहमल्ल - राय - महमति रिद्ध | जायस कुल गयण - दिवायरेण अणसं जमी हिं इह अणुवय रयण पई कन् २१३ कड़णा लक्खणेण । विज्जाजुएण । - | विहियायरेण । विरयउ सुसति परिहरिवि गव् के अमृत से जिनका शरीर पुष्ट होता था, गुरु और देव के चरण कमलों के भक्त, विनय से अलंकृत, व्रत और शील युक्त, महासती लक्षणा के प्राणनाच, नगर की परिखा के आकारसदृश लम्बी भुजाओं वाले, लोक में सुप्रसिद्ध, आहवमल्ल राजा के समृद्धिशाली महामन्त्री अवनिपति जागीरदार कण्ड्ड के प्रेमवश, विचक्षण महामति कवि लक्ष्मण, 'साहुल' की गृहिणी 'जइता' के Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ * श्री लँबेचू सामाजक इहिास * पत्ता-जिण - समय . पसिद्धहं धम्म - समिद्धहं वोहणत्थु मह सावयहं । इयरह महलोयहं पयडिय मोयहं परिसेसिय - हिंसावयहं ॥१॥ मई अमुणते अक्खर - विसेमू न मुणमि पबंध न छंद - लेसु । सद्दावसह ण विहत्ति अत्थु धित्तणेण मइ रइउ सत्थु । दुज्जणु सज्जण वि सहावरो वि महु मुक्खही दोसु म लेउ को वि पुत्र, सुकवित्त्व-गुण और विद्या-युक्त जायस-कुल-रूपी आकाश के दिवाकर, अणुवती श्रावकों का आदर करने वाले ने गवरहित होकर अपनी शक्ति अनुसार यह 'अणुव्रतरत्नप्रदोप' काव्य की रचना की, जैनधर्म में प्रसिद्ध, धर्मसमृद्ध, महाश्रावकों तथा मोद प्रकट करनेवाले व हिंसाके त्यागी अन्य महालोगोंके बोधनार्थ ।।१।। अक्षर विशेष (शब्दशास्त्र) न जानते हुए तथा प्रबंध व छन्द का तथा शब्द, अपशब्द व विभक्ति व अर्थ का ज्ञान न रखते हुए धृष्ठता मात्र से मैंने इस शास्त्र की रचना को। दुजेन, जन व अन्य कोई मुझ मूर्ख को कोई दोष न देना। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * पद्धडिया बंध सुप्पसण्णु · अवगमउ अत्थु भव्वयण तण्णु । हीणक्खरु मणेवि इयरु तत्थु संथवउ अण्णु वज्जेबि अणत्थु । जं अहियक्खरु मत्ता - विहाउ तं पुसउ मुणिवि जणियाणुराउ । सय दुण्णि छ उत्तर अत्थसार पडूडिय - बुझहु तिसहस सय चारि गन्थ २१५ छंद णाणा चदुदुहय सग्ग पिहू पहु पमाण - बत्तीसकखर णिरु तिमिर मंथ | - पयार । सावय - मन वोहण सुद्ध-ठाण । पद्धडिया बंध से सुप्रसन्न होकर तद्ज्ञ भव्यजन इसका अर्थ समझ लें । जो कुछ इसमें हीनाक्षर व अन्य दोष हो उसे अनर्थ बचा कर ठीक कर ले। जो कुछ अधिकाक्षर व मात्रा - विघात हो उसे जानकर अनुराग से ठीक कर लें। इसमें दो सौ छह अर्थसार और नाना प्रकार के पद्धडिया छन्द तथा तिमिर (अज्ञान के अन्धकार) को दूर करनेवाले बत्तीस अक्षरोंके तीन हजार चार सौ ग्रन्थ श्लोक इसमें जानो और बड़े बड़े प्रमाण के, श्रावकों के मन का संबोध करनेवाले शुद्ध स्थान आठ सर्ग । विक्रमादित्य कालके तेरह Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * तेरह सय तेरह उत्तराल परिगलिय विकमाइच्च काल । संवेयरइह सव्वहं समक्ख कत्तिय - मासम्मि असेय - पकखे । सत्तमि दिणे गुरुवारे समोए अट्ठमि रिकख साहिज्ज-जोए । नव मास रयत पायडत्यू सम्मत्तर कमे कमे पहु सत्थु । घत्ता--तित्थंकर बयणुब्भव, विहुणिय दुब्भव जण-वल्लह परमेसरि । कन्य-करण मइ पावण, मुह दरिदावण, महु उवणउ वाएसरि ॥२॥ सौ तेरह वर्ष बीत जाने पर संवेग (बिषय सुख-विरक्ति) में रत त्यागियों के सम्मुख, कार्तिक मास कृष्णपक्ष की सप्तमी के दिन गुरुवारको प्रातःकाल अष्टम नक्षत्र पुष्य व साहिजयोग साध्य योग में नव मास तक क्रम क्रम की रचना के पश्चात् प्रकटाथे यह शास्त्र मैंने समाप्त किया। तीर्थंकर के वचनों से समद्भूत, दुर्भव को दूर करनेवाली, मन-बल्लभापरमेश्वरी, काव्य करने में मति को पवित्र करनेवाली, सुख और कल्याण की दात्री वागेश्वरी मुझे प्राप्त हो । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २१७ परिशिष्ट २ कण्हड की कीर्तिवाचक संधियों के आदि के कुछ पद्य संधि २ वाणी जस्य परोक्यार-परमा चिंता सुदत्थे सया काया सव्वविदंह-पूय-णिरदा कित्ती जगाच्छाइणी । वित्तं जस्स विहाइ णिच सददं पत्ताण दाणअमे सो गंदादवणीयले सुअजुवो कण्हो विसुद्धासयो ॥१॥ संधि ३ गीइल्लो णिच्च-चाई सुकइ-जण-मणाणंद कंदुढचंदो भत्ता सरीण पाए समय-विहि-रसुल्लास-लीला-निकेओ। ___ जिनकी वाणी परोपकार परायण है, जिन्हें चिंता सदा श्रुतार्थ की है, जिनकी काया सर्वज्ञ के चरणों की पूजा में निरत है, कीर्ति जगदाच्छादिनी हैं और संपत्ति नित्य और सतत पात्रदानोद्यम में शोभाममान होती है वे श्रुतयुक्त, विशुद्धाशय कण्ह भूतल पर आनन्द करें॥१॥ ___नीतियुक्त, नित्य-त्यागी, सुकविजनों के मनानंद रूपी कंद को ऊर्ध्वचंद्र, आचार्यों के चरणों के भक्त, समय अध्यात्म शास्त्र विधि Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * वंदो कुंदावदातामल सजस-छुहा-छोहियासो गहतो धम्मं पाणीहि णिचं कह ण इह जए कण्हडो संसणिज्जो ।२। संधि ८ भो कण्ह तुम्ह महि-मंडलभिम सछंद-चारिणी कित्ती । धवलंति भमइ भुवणं पिहुलमसेसं सलीलाए ॥३॥ कंदावदा (त)-रुचि कीरमाण ककुतरंत-दीवंत । तीय ताविछ-छवि खल-बयणं कयं इतं चित्तं ॥४॥ के रसोल्लास कोलोला के निकेत, वंदनीय, कुंदवत् निर्मल यशोरूपी सुधासे आकाश को सुशोभित करने वाले और धर्मरूपी जल से नित्य स्नान करने वाले कण्हण इस जगत में कैसे प्रशंसनीय नहीं है ? ||२| हे कण्ह, महीमण्डल पर स्वच्छंदचारिणी तुम्हारी कीर्ति समस्त विशाल भुवन को धवल करती हुई सलील भ्रमण कर रही है ॥४॥ यह कीर्ति समस्त दिशाओं और द्वीपान्तरों को तो कुंद के के समान धवल वण कर रही है पर खलों के मुख को तापिच्छ (तमाल) के सदृश कला कर रही है, यह बड़ी विचित्रता है ।।४।। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * परिशिष्ट ३ संध्यंत पुष्पिकायें २१६ *** १ इय अणुवय रयण- पईव - सत्थे पर मोवास पाण तेवरण्ण-किरिया - पयडण-पसत्थे सुगुण सिरि- साहुल- सुबलक्खण- विरइए भव्यसिरि- कण्हाइच्च णामं किए दंसण गुण परिभाववण्णणो णाम पडमो परिच्छेउ सम्मत्तो ॥ १ ॥ २ इय अणुवय- रयण-पव-सत्ये परम-सावयार - विहि विहाण विरयण - समत्थे सगुण-सिरि-माहुल- सुव-लक्खण विरइए महामंति- कण्हाइच्च णामंकिए णिस्संक-गुण-पढमकहा- पडणो णाम दुइउ परिच्छेउ सम्मत्तो ||२|| ३ इय अणुवय रयण- पईव-सत्थे महासावयाण सुपसण्ण परम-तेवण्ण किरिय-पयडण समत्थे सगुण- साहुल-सुअ-सखणविरइए भव्व. सिरि- कण्हाइच - णामं किए पंच कहंतर- सम्मत्तगुण- वित्थरणो णाम तईओ परिच्छेउ सम्मत्ता ||३|| ४ इय अणुवय- रयण- पईव सत्थे मह सावयाण सुपसण्ण परम तेवण्ण किरिय-पयडण - समत्थे सगुण-सिरिसाहुलसुत्र लक्खन - विरहए भव्व- सिरि- कण्हाइच्च णामंकिए Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * सेणिय-महाराय.सम्मत्त-कहठ्या वरण्णणो णाम परिचछेउ सम्मत्तो ॥४॥ ५ इय अणुवय रयण-पईव सत्थे महसावयाण सुपरण्ण परम.तेवण्ण-किरिया-पयडणसमर्थ सगुणसिरि.साहुल-सुवलकखण-विराइए भव्य-सिरि कण्हाइच णामंकिय सत्त.वसणपरिहरण-मम्मत्त-वित्थरणो णाम पंचमो परिचछेउ सम्मत्तो ॥५॥ ६ ( ऊपर के समान ) - कण्हाइच . णामंकिए दाण पहाव.फल-संपत्ति-चण्णणो णाम सत्तमो परिछेउ सम्मत्तो ॥६॥ ......महामंति-कण्हाइच-णामंकिए सत्त.पडिमविछित्ति.वण्णणो णाम सत्तमो परिच्छेउ समत्तो ।।७।। ८.........भव्य मिरि.........किए सावयारविहि-सम्मत्तणो णाम अट्ठमो परिच्छेउ सलत्तो ॥८॥ नोट :-यह अणुव्वयपईव ग्रंथ श्रीमान् प्रोफेसर साहव हीरालालजीन नागोरके शास्त्र भंडारसे उपलब्ध कर श्री जैनसिद्धान्त भाष्कर भाग ६ किरण ३ में अनुवाद कर छपाया और इसकी रचना करनेवाले श्रीमान् कवि लक्ष्मण कवि है। विक्रम सं० १३१३ में इसकी रचना हुई। यह प्रस्तावना पहिले छापना था पर कारणवश भूल से रह गई वह अब प्रकाशित कर रहे हैं। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मण कवि-कृत अणुव्रत-रत्न-प्रदीप ( तेरहवीं शताब्दि की एक अपभ्रंश रचना) [ लेखक-श्रीयुत प्रो० हीरालाल जैन, एम०ए०, एल०एल०बी० ] १, पोथी-परिचय ___ 'अणुवय रयण-पईव' ( अणुव्रत रत्न-प्रदीप ) की जो प्रति मुझे प्राप्त हुई है वह ११"४५" आकार के ११० कागज के पत्रों पर समाप्त हुई है। नीचे उपर, दाये बांये १ इञ्च का हांसिया छोड़कर प्रत्येक पृष्ठ पर कहीं १० और कहीं ११ पंक्तियाँ हैं। प्रत्येक पंक्ति में लगभग ४२ अक्षर हैं। पत्रों के बीच में, पुरानी रीति के अनुसार, कुछ स्थान छूटा हुआ है। कागज पुराना होने से कहीं. कहीं पत्र बीच बीच में फट गये हैं जिससे कितने ही अक्षर नष्ट हो गये हैं। मूल प्रति १०६ में पत्र पर समाप्त हो गई है। उसका अन्तिम वाक्य है 'संवत् १५७५ वर्षे श्रावण शुदि ३ शनौ'। यह स्पष्टतः प्रति के लिखे Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास जाने का समय है । ११० वां पत्र पीछे से जोड़ा हुआ है और वह दूसरे हाथ का लिखा हुआ है । उसमें कहा गया है कि यह शास्त्र मेडता शुभस्थान पर, परमालदेव राठौर के राज्य में, खंडेलवालान्वय के पाटणीगोत्र के एक सजन हेमराज ने संवत् १५६५ वैशाख शु० २, सोमवार को लिखाकर, मूलसंघ, सरस्वती गच्छ, बलात्कार गण, कुन्दकुन्दान्वय के मुनि पुण्यकीर्ति को पठनार्थ प्रदान किया । * संवत् १५६५ वर्ष बसाव सु० द्विइज सोमवासरे श्रीमूलसंघे सरस्वती गछे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्विये भट्टारक श्री पद्म नन्दिदेवा । तत्पठे भटारक श्री शुभचन्द्रदेवा । तत्पटे भटारक श्री जिणचन्द्रदेवा | मुनि मण्डलाचार्य श्रीरत्नकीर्तिदेवा | तत्शिष्य मुनि मण्डलाचाय श्री हेमचंद्रदेवा । द्वितीय शिष्य मुनि मंडलाचाय श्री भुवनकीर्तिदेवा । तत्सिक्ष मुनि पुण्यकीति । मेडता शुभस्थानात् । राजश्री मालदे राउड राज्ये । पंडेलवालान्वये, पाटणी गोत्रं । संघ भारधुरिधरान् साह दोदा । तस्य भाय्यां शीलतरंगिणी व्यवसिर । तत्पुत्र प्रथमपुत्र साह तीकउ प्रथम भाय्य तिहुण श्री तत्पुत्र पंच । प्रथम पुत्र सीहा भाय्र्या श्रीयादे | तत्पुत्र मोना भाय महणश्री । द्वितीय पुत्र लाला | त्रितीय पुत्र थिरपाल । चतुर्थ पुत्र धर्मदास । सा० सीहा द्वितीय स्त्री सिंगारदे । दुतीय पुत्र शाह दसू । भार्या Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २२३ इस अन्वय की गुरु परम्परा इस प्रकार दी है भट्टा० पद्मनन्दि " शुभचन्द्र " जिनचन्द्र मुनि मंडलाचार्य रत्नकीर्ति मुनि मं० हेमचन्द्रदेव मु० मं० भुवनकीर्तिदेव मुनि पुण्यकीर्ति (सं० १५६५) हेमचन्द्रदेव और भुवनकीतिदेव दोनों रत्नकीर्तिजी के दशरदे। तत्पुत्र ठाकुर। त्रितीय पुत्र दान भार्या दाडिमदे पुत्र नानिग । चतुर्थ पुत्र दूलह भार्या दूलहदे पुत्र करमसी । पंचमपुत्र मेघराज भार्या मेघश्री सा- तीकर द्वितीय भार्या लाछि तत्पुत्र हेमराज । इदं सास्त्रं अणुव्रत रत्नप्रदीपकं लिषावितं कर्म क्षय-निमित्तमिति । ज्ञानवान ज्ञानदानेन निभयोऽभयदानतः । अन्नदानात्सुषी नित्यं निर्व्याधी भेषजाद् भवेत् ।। तैलात् रक्ष्यं जलात रक्ष्यं रक्ष्यं सिठ्ठल-बंधनात् । मूर्षे हस्ते न दातव्यं एवं वदति पुस्तकं ।। मुनि पुणकीर्तिकस्य दातव्यं पट्ठनाथं लेपक पाठकयोः शुभं भवतु ॥छ।। (यह प्रशस्ति यहाँ भूल से विना किसी संशोधन के दी गई है। विद्वान् पाठक सहज ही भावार्थ और त्रुटियों को समझ सकते हैं। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # २२४ शिष्य, अतः परस्पर गुरु भाई थे ये जो एक दूसरे के प्रशस्ति में ग्रन्थ- दाता हेम पश्चात् पट्टाधीश हुए होंगे। राज के कुटुम्ब के अनेक स्त्री-पुरुषों का नामोल्लेख है । २ ग्रन्थ रचना का विवरण ग्रंथ की उत्थानिका में कवि ने ग्रंथरचना का विवरण इस प्रकार दिया है : जमुना नदी के उत्तर तट पर 'रायवद्दिय' नाम की महानगरी थी। वहां आहवमल्लदेव' नाम के राजा राज्य करते थे। वे चौहान वंश के भूषण थे । उन्होंने 'हम्मीर । वीर' के मन की शल्य को नष्ट किया था । उनकी महासती और महारूपवती पट्टरानी का नाम 'ईसरदे' था । । उसी नगर में 'कविकुल- मण्डन' सुप्रसिद्ध कवि 'लकखण' भी रहते थे । एक दिन रात्रि को वे प्रसन्नचित्त होकर शय्या पर लेटे थे, कि उनके हृदय में विचार उठा कि मुझ में उत्तम कविश्व-शक्ति है, विद्याविलास है, पर सब व्यर्थ जा रहा है, न उसे कोई जानता न सुनता । अशुभ कर्मों में मेरी परिणति लगी रहती है जिसके फलस्वरूप आगे मुझे दुःख भोगना पड़ेगा । इधर मेरी कवित्व Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २२५ शक्ति नित्य क्षीण हो रही है। अब कोई ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे कुछ धर्मार्जन होवे | ऐसा विचार करतेकरते बहुत रात्रि व्यतीत होने पर कवि को गाढ़ी निद्रा आ गई । तब स्वभ में उन्हें शासन-देवता ने दर्शन दिया और कहा 'हे शुद्ध स्वभाव, कवि-कुल- तिलक, जिन - धर्म - रसाययनपान तृप्त ! तुम धन्य हो, जो तुम्हारी ऐसी चित्तवृत्ति हुई । अब तुम्हें जो चिन्ताक्लेश व्याप रहा है उसे छोड़ दो और मनमें दृढ़ संकल्प कर लो। आहवमल्ल राजा के जो प्रधान महामन्त्री 'कण्ड' हैं वे बड़े गुणग्राही, धर्मिष्ठ, सम्यक्त्वी आसन्नभव्य हैं, श्रावकोंके व्रतोंको पालते हैं और गर्वरहित हैं, वे तुम्हारे मन के संशय (चिन्ता) को दूर करेंगे और तुम्हारे कवित्व को प्रकाशित करेंगे । अब तुम मन में आलस न लाओ और इस कार्यमें मन्दता मत दिखाओ। उनके नाम से श्रावक - व्रतों का विस्तार से वर्णन करने वाला एक काव्य रचो ।' ऐसा कह कर और कवि के मन की बड़ी भारी चिंता को दूर करके अंबादेवी चली गई। प्रातःकाल उठ कर जिन वन्दना के पश्चात् कवि के मन में वही रात्रि के स्वप्न १५ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * की बात झूलने लगी। उन्होंने देवी की प्रेरणा के अनुसार कान्य रचने का निश्चय कर लिया और मन में विचारा 'इस महीतल पर धन्य है वह जिसके नाम पर अब मैं काव्य रचना करता हूं।' एक दिन महामन्त्री 'कण्हड' किसी पश्चात्तापसे जिनमन्दिर में बैठे थे। उसी समय 'लकखन' कवि भी वहां जा पहुंचे और उनसे अपना रात्रि का स्वम कहा। तब 'कण्ह' ने बड़ी भक्ति-सहित उनसे सागारधर्म पूछा। उत्तर में कवि ने विस्तार से उन्हें श्रावकधर्म सुनाया जो कि शेष ग्रन्थ का विषय है। ३ राजवंश व कवि के आश्रयदाता कवि ने अपने समय के राजवंश का भी उल्लेख किया है। ऊपर कह आये हैं कि कवि, रायवद्दिय नामक एक महानगरी के निवासी थे। यह नगरी जमुना नदी के उत्तर तट पर स्थित थी। यहाँ कवि के समय अर्थात् वि० सं० १३१३ (ई० सं० १२५७) में चोहानवंशी राजा ओहवमल्ल राज्य करते थे। उनकी पटरानी का नाम 'ईसरदे' था। आहबमल्ल ने म्लेच्छों अर्थात मुसलमानों Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २२७ से भी टक्कर ली और विजय पाई तथा किसी 'हम्मीर वीर' की कुछ सहायता भी की थी। कुछ शल्य दूर की थी। संभव है ये 'हम्मीर वीर' संस्कृत के हम्मीर काव्य तथा हिन्दीके हम्मीर रासो आदि ग्रन्थों के नायक रणथंभोर' के राजा हम्मीरदेव ही हों । अलाउद्दीन खिलजी द्वारा रणथंभोर की चढ़ाईका समय सन् १२६६ ई० माना जाता है। इसी युद्ध में 'हम्मीरदेव' मारे गये थे। वर्तमान उल्लेख और इस लड़ाई के बीच ४२ वर्ष का अन्तर पड़ता है। यह अन्तर एक ही व्यक्ति के जीवनकाल के लिये कुछ असम्भव नहीं है। आहवमल्ल की वंश-परम्परा कवि ने जमनातट के 'चंदवाड' नगर से बतालाई है। वहाँ पहले चौहानवंशी राजा भरतपाल हुए, उनके पुत्र अभयपाल, उनके जाहड़ उनके श्रीवल्लाल और उनके आहवमल्ल । अनुमान होता है कि आहबमल्ल के समय में या उनसे पूर्व राजधानी 'रामवदिय' हो गई थी। या यहाँ 'चंदवाड' वंश की एक शाखा स्थापित हुई होगी। दोनों नगर जमुना तट पर ही थे और पास पास ही रहे होंगे। प्रस्तुत समय में देश के Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ *श्री लँबेचू समाज का इतिहास * इस विभाग पर चौहानवंशियों का राज्य था यह सविख्यात है। पर प्रकाशित वंशावलियोंमें उक्त राजाओं के नाम नहीं पाये जाते । यह कोई शाखावंश रहा होगा। उक्त राजवंश के साथ साथ ही कवि के आश्रयदाता 'कण्ह' के वंश का परिचय कराया गया है। यह 'वणिकवंश था और इसका राजवंश से बहुत घनिष्ठ संबन्ध था। उसी 'चन्दवाड' नगर में लंबकंचक अर्थात् लंबेचू-कुल में 'हल्लण' नगरसेठ हुए जो बड़े राजप्रिय और लोकप्रिय थे। उनके पुत्र अमृतपाल (अमयवाल) हुए। वे भी राजमान्य और अभयपाल राजाके प्रधान मन्त्री थे। उन्होंने एक बड़ा विशाल और भव्य जिनमन्दिर बनवाया जिसपर सवर्ण कलश चढ़ाया। उनके पुत्र 'सोढ' साहु हुए जो 'जाहड' नरेन्द्र और उनके पश्चात् फिर 'श्रीबल्लाल'के मन्त्री बने । 'सोद' साहु के दो पुत्र हुए–प्रथम रनपाल, और दूसरे 'कण्हड' जिनकी माता का नाम 'मल्हा' (मल्हादे) था। ये बड़े धर्मिष्ठ और सदाचारी थे। रत्नपाल बड़ी स्वतन्त्र और निर्गल प्रकृति के थे, पर उनके पुत्र 'शिवदेव' बड़े कलाबान, विद्यावान् और कुशल हुए। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् नगरसेठ के पद पर वे ही विराजमान हुए और आहवमल्ल राजा ने अपने हाथ से उनका तिलक किया। उनके काका 'कण्हड' आहबमल्ल राजा के मंत्री Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लँबेचू समाज का इतिहास * २२६ हुए। उनकी धर्मपत्नी 'सल्लक्षणा' बड़ी रूपवती, धर्मवती और गुणवती थीं। उनके दो पुत्र हुए 'हरिदेव' और 'द्विजराज'। पूर्व कथनानुसार 'कण्हड' की प्रार्थना से ही कविने प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की । यह ग्रन्थ उन्हीं को समर्पित किया गया है। प्रत्येक सन्धि की पुष्पिका में कवि ने इसे 'कण्हाइच णामांकिय' अर्थात कृष्णादित्यनामाङ्कित' कहा है, जिससे यह भी ज्ञात होता है कि 'कण्ह' या 'कण्हड' का पूरा और शुद्ध नाम 'कृष्णादित्य था। उक्त विवरण पर से जमुना - तटवर्ती 'चंदवाड' नगर के चौहान राजवंश व तत्स्थानीय एक लंबेचू कूल का परम्परागत सम्बन्ध इस प्रकार स्पष्ट होता हैचौहान राजवंश लँबेचू साहुवंशसे साहवंश चोहानवंश ही था भारतपाल ... हल्लण अभयपाल ... अमृतपाल जाहड़ ) ... सोदु साह श्रीबल्लाल ) । । रत्नपाल । . कृष्णादित्य-7 सुलक्षण देवी आहवमल्ल-7 ईसरदे शिवदेव (कण्हड) वि० सं० १३१३) हरिदव द्विजराज Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * (कण्ह) का भो चोहानवंश हो था, वणिकवंश नहीं था। इस इतिहास में अगाड़ी मालूम हो जायगा ।* ४ रायवदिय और चन्दवाड नगर ऊपर कह आये हैं कि कवि लक्ष्मण रायवद्दिय नगरके निवासी थ, जहाँ चौहान वंशी राजा का राज्य था। सामान्य खोज से मालूम हुआ है कि आगरा फोट से बांदीकुई जानेवाली रेलवे पर एक रायभा ( Raibha ) *इसमें श्रीमान प्रोफेसर साहब ने वणिपट्टकिय का अर्थ वणिक्. पति लिया है सो नहीं बनता । हमने उसके नीचे नोट देकर अवनिपति पिद्ध किया है जो जागोरदारो का वाचक है। दूसरे शाह का साधु साहु लिखकर आजकल की धारणा से प्रोफेसर साहब ने बणिक् वंश लिखा है वह भूल है। इस काव्य में एक जगह वणिपट्टकिय ओर एक जगह वणिवइ आया है। यहां दोनों हो जगह वणिपट्टङ्कित अवनि शब्द का अव उपसर्ग का लोप होकर अवनिपट्टाङ्कित से जागोरदार जिमोदार सिद्ध होता है और वनिबइ अवनिपति से जिमोदार सिद्ध होता है। वणिकपति के से अर्थ किया ककार कहांसे लाये। और जगह इस इतिहास में लम्बेचु जदुवंशी सिद्ध है वनिये नहीं है, राजपूत क्षत्रिय है और इस इतिहास से उत्तर को सब जैन जातियां प्रायः क्षत्रिय हैं। इतिहास बहुत बढ़ गया है अब हम संक्षेप में ही दिखाया है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २३१ नाम का स्टेशन है। यह जमना के उत्तर तट पर ही है। इसी का प्राचीन नाम संभवतः रायभद्र या रायभद्री होगा जो रायवद्दिय में परिवर्तित होकर अब रायभा हो गया है। चन्दवाड के सम्बन्ध में मेरे सुहृदवर पं० नाथूरामजी प्रमी ने सूचित किया कि गुजराती में पं० जयविजय कृत संमेत-शिखर-तीर्थमाला नाम की एक पुस्तक है जो प्राचीन तीर्थमाला संग्रह, प्रथम भाग में छपी हुई है। इसमें 'चन्दवाडि' का उल्लेख आया है जो फीरोजाबाद ( जिला आगरा ) के समीप बतलाया गया है और कहा गया है कि वहां से सौरीपुर क्षेत्र तीन कोस पर है। यह पुस्तक मं० १६६४ की बनी हुई कही गई है। इसी तीर्थमाला संग्रह में सौभाग्यविजय कृत 'तीर्थमाला' संवत् १७५० की बनी हुई छपी है, उसकी पबली ढाल में लिखा हैदेहरा मरना देव जुहारी। फोरोजबाद आया सुखकारी । तहाँ थी दक्षिण दिशि सुविचारी । गाउ एक भूमि सुखकारी। चन्दवाडि मांहि सुखदाता । चन्द्रप्रभु वन्दो विख्याता। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास स्फटिक रतननी मूरति सोहें । भविजनना दीठां मन मोहें । ते बन्दी पीरोजाबाद आव्या जानी मन आह्लाद । फिर उस की बारहवीं डाल में कहा है ― २३२ ... सौरीपुर रलियामणो जनम्या नेमि जिणंद । यमुना नटिनी ने तटे पूज्य होई अनंद || सौरीपुर उत्तर दिसं जमुना तटिनी पार । चन्दनवाडी नाम कहे तिहां प्रतिमा छे अपार || इससे स्पष्ट है कि चंदवाड नाम का एक प्राचीन जैन तीर्थक्षेत्र जमना के तट पर फीरोजाबाद के निकट रहा है । जब मैं इसी को और भी जांच खोज कर रहा था तभी २२ सितम्बर, १९३८ के जैन सन्देश में मैंने पढ़ाचन्दवार ( फीरोजाबाद ) का मेला ......"यह चन्दवार क्षेत्र बहुत प्राचीन है। यहां पर ५१ प्रतिष्ठाएँ हो चुकी हैं। इस प्राचीन क्षेत्र का अभी जीर्णोद्वार हा रहा है। फीरोजाबाद के श्री १००८ चन्द्रप्रभुजी की अतिशय मूर्ति इसी क्षेत्र की जमुना नदी से निकली है । और भी प्रतिमायें समय-समय पर निकलती रहती हैं।" Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २३३ इससे स्पष्ट हो गया कि उक्त उल्लेखों की चंदवाडी यही चन्द्रवार है, और निस्सन्देह यही प्रस्तुत ग्रन्थ का चंदवाड नगर है । ५. कवि तथा काव्य - परिचय व रचना - काल ऊपर ग्रन्थ रचना -- विवरण में कह आये हैं कि इस ग्रन्थ के कर्ता 'लक्खण' (लक्ष्मण) कवि हैं, और वे जमुना नदी के तटवर्ती 'रायवहिय' नगर के निवासी थे । सन्धिपुष्पिकाओं तथा अन्तिम प्रशस्ति में उन्होंने अपने पिता का नाम 'साहुल' और माता का 'जड़ता ' प्रकट किया है और यह भी कहा है कि उनका कुल 'जायस' था, अर्थात् उनके पूर्वज जायस नगर से आये थे और इस लिये वे जायसवाल या जैसवाल थे । अन्तिम प्रशस्ति में कवि ने अपनी रचना का प्रमाण इस काव्य में भिन्न आदि भी स्पष्टतः बतला दिया है। भिन्न प्रकार के २०६ पद्धडिया छंद हैं जिनकी ३२ अक्षरी कुल ग्रन्थ-संख्या ३४०० है, तथा बड़े बड़े आठ सर्ग हैं | इसकी रचना में कवि को क्रम-क्रम से नौ मास लगे, और ग्रन्थ विक्रम संवत् १३१३ कार्तिक कृष्ण ७, दिन गुरुवार Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * को, अष्टम अर्थात् पुष्य नक्षत्र और 'साहिज' साध्य योग में समाप्त हुआ। इस प्रकार यह ईस्वी सन् १२५७ की रचना है। ग्रंथ का विषय अणुव्रतों अर्थात् गृहस्थ धर्म का वर्णन है जिसका पूर्ण परिचय अगले लेख में कराया जायगा। ऊपर के समस्त वृत्तान्त के आधारभूत अवतरण अनुवाद-सहित परिशिष्टों है देखिये । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः ॥ अब कविता ( कवित्त ) रायभाटोंके जो हमको रायवदियनगरी (रायनगर में ) पुराने मिले हैं प्रत्येक गोत्रके प्रकाशित करते हैं। जिसको भोकरमें रायवद्दिय लिखा वह नगरी रायनगर जसवन्तनगर और करहलकं बीचमें है, पुराना खड़ा है। वहींसे पुराने कवित्त लाये हैं, रायभा नहीं। कवित्त सघईनको (सवैया ३१ सा) धर्म धुरधीर आँगे संघई हमीर हुते, तिन ही की महिमा मर्याद को धुरस है। हरदासवंश धनकर अंशमनीराम आठोजाम कंचन बरस है । तिन सुत इन्द्रमणि जादोराइ, ओ विहारीलाल राजाराम शील शर्मको धरस है । कहैं लऊराइ चित्त महासुख पाइ, दान अरु जशको सँघई सरस है ॥१॥ कवित्त पोद्दारगोत्रको (सवैया ३१ सा) जोही शान आँगे मण्डल सुसिद्ध राखी, लीनो यश टीको पोद्दारीको करायो है । जोही शान आँगे नेमीदास राम Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * करन राखी थापै नृपविक्रमने हुकुम बढ़ायो है। जोही शान राखी ही वडोरन शाह करि करतूति कुले कलशा चढायो है। चम्पतिरायजको नन्द राखी शान, शानशाह सहित तखत अटेर बीच व्याह जीति आयो है ॥२॥ कवित्त रावतगोत्रको। ( सवैया ३१ सा) आँग गाऊरावत गइंदनिके शिर रथ नहै बावन प्रतिष्ठा कीनी, अवैली नाम नीको है। ताही कुल हरिके सुराजनिने इड़े कीनी दीने बड़ेदान होत मम मुख फीको है। ताही कुल छीतल बड़े बड़े जज्ञ कीने तिनहीके गुलाल प्रेमराज दिलेल महाजीको है। मनोहरदास साहिब सपूत शिरदार अब सोई रजरोतईको* तेरे शिर टीको है। छप्पे छन्द मंडलगढ़में बात लाड़को कौन महट्टइ, अंगह वंग तिलंग मंकि । मालों ( मालव ) सोहहइ आदि मोहर वद कसान ।' पुराने इतिहासकी श्रुति लेकर संवत् १७८८ भाटोंकी कुल परम्परामें लऊरायने बनाया। * राज्यपनेको। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * अवर हवसी खुरसानह, हुंमड़ घुमड़ पवरि अवर मारिय मुलतानह पटखंड जुये तहां नर नहीं अवरन कोई तुअ सरि पर्व राजा भरहपाल समान कीअसु किया गाऊ रावत खंत काल ऊपरतवै॥ (सवैया ३१ सा ) जैनके जहाज आज रावत शिरोमणि है याकी पटतर कह दजो कौन आनिये । गंगाराम रावत वदनसिंघ थाप्यो थिरताकी बात साची लिखी सोनेक पानिये । राउत आमोर घनश्याम हरिकेशवदास, जाकी बात सांची हंतिकाति देश मानिये । संगसुरताने जिन्हें सोहबृन्द वाने चारों परसादीके सुचहुचक जानिये ॥३॥ छप्पय जैन जज्ञ पर करै गाऊरावतभारै मंडल मुलुक महीप भये जगमें उजियारे। ताही कुलमें प्रगट भई करतूति करनको। परसादी के वंशभई लच्छि सुकृत धरनको । टेकचन्दनन्द ( कवि ) ईसुरदास तुम करत रीझ दारिद दपट, राजाधिराज थिरपाल जू सो जगत जोति रावत सुभट ॥४॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * (सवैया २३ सा) वाबन जज्ञभई जिनकी जदुवंश को उपरि चढावत हैं । करनी करतूतें करीं मानसिंह जो छीतल वंश जगाउत हैं। देव जो राइके नन्द प्रमराज मनीरामको कवि गावत हैं । लऊ देश प्रदेश नरेश कहैं हतिकांतिमें राउत राजत हैं। तीरथ जज्ञ अनेक करें प्रमराजके नामको ऊप करे हैं। करनी करतृते कितेको करी दोऊ कुलकी बड़ी लाजधरे हैं। नन्दकुमारकी बढ़ाई हो कहालों करों शुभ लछिमी जानि सुकृत्त धरे हैं । देश प्रदेश लऊ जश गावत चाल अकाल रोतानी सिरे हैं ॥६॥ कवित्त मुरोंगके रपरियानको ( सवैया ३१ सा) परम प्रतापी वात्तथापी जाकी भूपनिमें बलीराम सुजस लिचया आठो जामके । तिनके सुपुत्र सुत साहसीक नन्दलाल भीमसेन दया दान धर्म ही है धामके ! रप्परिया उदित उदार जदुवंशी सदा पूरनमल मोतीलाल पर कारज कामके । कहैं लऊराइ राजत मुरोंग शुभथान दानकरनीको सिरे पूतनाती गंगारामके ॥ ७ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २३६ ___ जोरजशी पुरुष प्रतापी प्रसिद्ध सदा दे दै दान दीननके दारिदको हरिया। कुलको कलश कुलदीपक कुल माहिं दिपै जिनके सुयश चारौ चक्रनिमें भरिया। रधुनाथशाह अंश राजाशाह नन्द कहैं लऊराइ लच्छि सुकृतही धरिया । चारिहू दिशानि विदिशानिमें सिफत यही घोरनि को दानी रमापति है परिया।। ८ ।। राजमल्लवंश भले अंशरघुनाथजूके धनी धरमदास भमानी सरस्वतिक । गंगाविष्णुभपरभलाई भरो भागजाको राधाकृष्ण सुजश लिवैया भले अतिकै । आनन्दको कन्दमुखुशाल चन्द यो गोपाललाल । सबै सखदेत सव शुभमतिक कहत गुलाब जिन्हें खलकमरा है। करनीको सर सपूत नाती दयाराम रमापतिके ॥६॥ ( सवैया २३ सा) प्रथमहि हेमराज परकाज करें जे पूजा पुण्यकं करिया है । वृन्दावन अरु प्राणनाथ जदुवंशकी उपज जु धरिया है। हंसराजक नन्द सदा कवितानिको दान जु करिया है। लऊराय कहै चिरञ्जीवो सदासो देखे जोर परियाहै ॥१०॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ~~~~~~~~ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * कवित्त चंदवरिया गोत्रका दोहा (सवैया २३ सा) रसनासो मनकी कहैं चलो इटाये जात । खेमीपति चंदवारकी, वहांकी खंडर विख्यात ।। आज भोगचन्द उदित संसारमें देखि तु अदर्शदालिद्र भाजै । नेम अरु धर्मको व्रत्त पाले रहै जैनकी जुगतिको कौन लाजै॥ कहैं कवि सिन्धु तुअ सिन्ध को धोरो ___ न कोई धर्म अरु सत्यकी डांक दरबार बाजे । आर औ पारके शाह चर्चा करै ___ खेम चंदवारपति इम् विराजै॥ ११ ॥ छप्पय छंद अधिक जिस समये दुक्काल सत्तु छाड़ो संसार हो । पन्द्रहसे तेतालिस मंत्र कीयो रविपरिवार हो। शक्तिसिंघ सनमान दान जैन भुअन करायो । धनि वदयारे निषेत कुल कलश चढायो । कित्तुहवंश शाह धारहुअ अस्मसी अरीअन मुखमंड्यो । भनिमल्लदीप प्रघटे हुते सो मंगनंरोर विहंड्यो ।॥ १२॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ( सवैया ३१ सा ) चंदवरियाकुलके कलश जदुवंशी विजयराम भये तिनहीके अमरसिंह पूर्णचन्द धर्मक समाज ही । टेकचन्दजूके नन्द उदित बुलाखीदास । दिपत महासुख विलासी परसादी सिरताजही । चूरामणिजू के सुत रूपचन्द छेदीलाल कहत गणेश सदा करैशुभ कोज ही । भिखारीदासजीके पुत्र नाती पंती चिरुजीवो करो तखत अटेर चंदवरिया दानीराज ही || १३ | शीलवत पालै रोरमंगनको भारै मथुरामल बड़ी बड़ी करनी करतूतें साखि साखिभई सुकृत कहैं लऊराइ चित्तमहासुखपाइ सोई १६ २४१ दुख दारिद निवारै परपीरनको हरिया । वंश अंश घांसीरामजकै दे दे दान दीननके दारिदको दरिया | सो सींचि कीर्तिकरन कैसी करिया । दिलको दिलेल मुरलीधर चंदवरिया || १४ || Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * (सवैया ३१ सा) - पूरे ज्ञान ध्यानके यो जज्ञिनक जतवारकरै परकाज पर पीरन जोहरत हैं। देशपरदेशनिमें कीर्तियशपूरि रहो मोजेकरि भिक्षुकनि मानधन सो भरत है । दुर्गादास वंशहुअ अंश श्रीनरोत्तमके रायसिंघ शाहलच्छि सुकृत धरत हैं। कहैं लऊराइ चित्तमहामुख पाइ सु आछै दान दुनीमें चंदोरिया करत हैं।१५ ॥ कोउदार ए विक्रमाजीत थापो नेमीदासको शाह सराहत भूप करोरी । लमेचुहानकी रीतिलई जबतें तब दानकी उरट्ठ अनन्य दरोरी । उद्योत कहैं तुअ सिंघ को जोर न कोई रा मकरन्दलो लाञ्छिन जोरी । मंडनवंश भयो कुलमंडन सब शाहनिमें सिरदार वहोरी ॥ १६ ॥ कवित्त बजाज गोत्र का ( सवैया ३१ सा) करहल उद्यत उदार करतूतिनके जितवार साहिबके वंश साखि साखि सिरताज है। कुलके कलश कुलदीपक कुलमाहिं दिपें शोभाशील शर्मधरै धर्मकं समाज हैं। देवीदासनन्द मयाराम हरिकृष्णदास खेमकरन राजकरन Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २४३ पर काज हैं। कहैं लउराइ दयादान अरु करनीको करहल सथान ऐसे राजत वजाज हैं ॥१७॥ अटेर के बजाज गिरधरवंश सूयमणि अंश गोवर्द्धन तिनहीक तेजपाल संत के समाज हैं। कुलके कलश कुलदीपक खड़गसेन अरुनन्दराम कीने जो सदाहीं परकाज है। मोजको उमेदराइ वेनीराम रतनपाल नेनमुखजूके शोभासुखनिके समाज हैं। कहैं लऊराई दयादान अरुकरनीको तखत अटेर बीच राजत बजाज है ॥ १८ ॥ शोभाशील राजभरै मंतकं समाज खरे करिवेको परकाज जिन राजने बताये हो। बड़े धर्मज्ञ ओ प्रतापी सर्वज्ञ ऑगे जीते जोरयज्ञ जग सजन सिहाये हो। भागमल्ल वंश हुअ अंशशाहभूपतिक शाहअखैराज लऊराइ कविगाये ही कुमति नसाई जो कीर्ति क्षिति छाई सो करनी बढ़ाई तो मदाई जीति आये हैं ॥१६॥ प्रथमअलोलमणिजूकं सुतवंशीधर मूलचन्द दयादान धर्म ही है धाम ।। धनपाल पालत हमेशह सब जीवनको हरिसिंह आछे सुजश लिवैया आठो जामकं ॥ केशरीजु सिंहसुत Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * साहसीक गोकुल हैं। कहत गुलालजे जपें जिन नामक तखत अटेर मांझ राजत बजाजराइ चिरञ्जीव पूत नातीशाह मयारामक ।। २० ॥ आछै पुण्यवान दयादानके निशान । राखौं सबहीके मान सदा आनन्दके धाम हैं । लाज के धरन सेवे नेमिके चरन। पर काजके करन गान आन जिननाम है ।। भये बड़भागी यदुवंश जोति जागी।। अब देखि देखि जैहें सज्जन मिहाम हैं । धर्म अवतार शाखि शाखि सिरदार। आशापतिके कुमार मूलचन्द तुलाराम हैं ॥२१॥ कवित्त वकेबरिया गोत्रका ( सवैया ३१ सा) उधित उदार सिरदार शाखि शाखिनते । भाउ शाह वंश दया धर्म ही धरम हैं ।। कुलको कलश कुलदीप दानी छोटेलाल । करें सन्मान झर कंचन बरस हैं। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २४५ जशके जशीले आछै वटमल ओ फूलचन्द। कहत गणेश पूरे पारस परस हैं ।। हेमराजज़के नन्द जाहर जहान बीच कोसाडिमें* प्रगट वकेवरिया सरस हैं ॥२२॥ और भी बजाज गोत्रके कवित्त १८०५ के भुजङ्गप्रयात छन्द हरीसिंह को पुत्र आनन्दकारी ॥ दुलीचन्द देखो सदा धर्म धारी ॥ केशरी सिंहके पुत्र गोकुल वखाने जवाहर सुतिन के महा मोद माने ॥ कर दर दिल दर्द दिल मुख सुलाला सुठाकुर सदासो बोले वचत्त रमाला। पढ़ी जोर बंशावली यो वखानी। बढोवेलि जिनकी मुपजा सुठानी।२३। दोहा जो नारे बहु विधि करी, दान सबै विधि दीन । मूलचन्द धन पालने, जगत बड़ी जश लीन ॥२४|| अठारह से पाँच है सम्बत् चलो विचार । मारग सुदि सात दिना औरहु शुक्कर वार ॥२५॥ * कोसाड़ि (ग्राम का नाम) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * अब फीरोजाबाद के वजाजोंका कवित्त छप्पय प्रथमहीं जारखपुर प्रगट जीति जगजशलीनो । अभय राज सिरताज नाम पोहमी पर कीनो ॥ तिनसुत नथमल दानी पृथ्वीराज गुण माता ॥ लोन कर्ण दुख हरण भयो उमेदराय जुदाता । लऊराइ कहैं वरसत है सभी बीच कंचन झरि, दिल दानी धर्म की खानि ऐसो राज बजाज जहान परि ॥ २६ ॥ कवित्त सिरो पाइ पमारी दुशाला साले दर्वि बहु चीरा अरु चूरा नीके नो गढ़ नवीने हैं। कीनी जड़ी आवड़ मोल की बड़े मोल थान वकसि वकसि जगजीति जग जश लीने हैं । नथमल्ल नन्द कुल चन्द द्वन्द के हरण जिन्हें देखें सुमनि के होत ही इहीने हैं। रीझे रीझे गुनिनि प्रवीणनको लऊराई ऐसे दान लोन कर्ण कविनिको दीने हैं ।२७/ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * वजाज अटेर के ( सवैया ३३ सा) मोतिन माल दुशाल अरु शाल घने धनदे जश मोल लिये हैं चीरा जड़ाऊ जुतुरी अनेक दशो दिशि दे कवि जाची अजाची किये हैं। सुन्दर के सुत राब वजाज सवे कवि जाची अजाची किये हैं, भिक्षुक भाट गुणी सबको ऐसे दान दुनीमें उमेदराइ दिये हैं ॥२८॥ मोदी गोत्रको कवित्त करनी कलित सार महिमा अपार ऐसी सुनी वारा पार सो वरनि कवि कोदी है। राजा सुलतानसिंह महाराजाजके राज, अत्र बांधि छत्री सब शत्रुनको खोदी है। गावत गुनीजन दुनीमें सुनी है कान पावत सुदान सनमान भरि गोदी हैं। गजके विलोके सब भज्जत अनन्त दुख, ताके मुतमुख्य भयो सदासुख मोदी है ॥ २६ ॥ दोहा सुन्यो जज्ञ पृथ्वीराज तव कचौरा नग्रसुधाउ । चले खुखंदन पुर दहन, जहाँ बालका राउ । * गांव का नाम है पृथ्वी। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ * श्री लँबेचू सामाजक इहिस शूरनि सन्मुख के भये भयो चोगुनो चाउ । चढ्यो सेन पृथ्वीराज सजि, जहाँ बालका राव || दोनों दल सूधे भये दुहु दल वाजत तूर । स्वामि धर्म पृथ्वीराजके सबै सम्हारे शूर ॥ भुजंगप्रयात छन्द तो सम्हारे सवे शुरसामन्त रूपं, जवे उच्चरे राजदिल्ली सरूपं । सभा मध्य आछे सदा हेमराजं वरम्हं सरस सम्स समाजं ॥ समें वीर वाजंत वाजंत्र वाजं, ठरीकी धरा रोश सहसम्हारं । अलड पलट्ट छुरीजंभहालं, मनोकाठ कव्वार कुटंतिशालं || मनो बूंद भादो नदीनीर जैस, भभंकंति नन्तं अनन्तं शुशेषं । चरो एक थोरी थनीचूर चंदौ, रसंवीर नारदु नाचोननन्दी || इसो जुद्ध होतं सुद्यो जाम वीत्यो, अझैपाल जीत्यो || कवित्त संचईन को छप्पय राजमंत्र ररकार रारि राजनि शिरमण्डे । अति अनाग उनमानि अररि अरि डाड़ीय डंडे । आइसु जस उच्चरे अकलि अवनीश उखारै । छिति छिनाइ छत्रीन छिनक छोरी कर डारे, सई सपूत सगुनह चह कहि दयाल उधरहिं भुअ लछिमी नरेन्द्र गजतुर रुइ गढ़ भंजन भुज भोग सुअ ||३१|| Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २४६ छप्पय उदित अवनि उदै राज कित्ति कीनीजहान पर, सोलह से पर साठि वसन्त रितु वर्षे अर में झर । भोग बंश हमीर कुल सुजश लक्ष्मो सब लीनो, करी प्रतिष्ठा धन विलास जज्ञ जग ऊपर कीनो । जदुवंश तिलक मुरली कहइ कहि भूषण नर वहि नृपति, गजराज वाजि साजतु रहइ सुसंघइ नृपति हतिकंत पति ॥ ३२॥ दोहा कवित्त चोधरी गोत्रको जदुवंशी संशय हरन मुख संपती निवास । तखत पिरोजाबादमें चोधरी भमानीदास ॥३३॥ दिन दानी उजारे विपत्ति विदारे तेज तपै । हे थप्पिन उथपइ उथपथपन जाको जशचहुं जगत जपै । जिन सुनिकरनी बहुविधिवरनी सब शत्रुनको उरजु कपैं। सो तखत फिरोजाबाद लऊ चोधरीभमानीदास दिपै ॥३४॥ (सवैया ३१ सा) | प्रथम ही लाजके जहाज मकरंद वीरवल दयादान धर्म औ समाज के ॥ कुलके कलश कुलदीप दानी पूरनमल दारिद Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * हरनजे करन परकाजके ॥ कीरति करन करतूतिन के जेतवार करें लऊराइ शाखि शाखि सिरताजके चक्रवर्ती चोधरी प्रसिद्ध चारो चक्रनिमें साहसी सपूत दिप पृतमेघराजके ।३५।। सत्रहसो संवत् अठासीशिति माघछठि शुक्रशुभवारको धर्म धुरालीनी है । दिशिविदिशानमें पठाई पत्री चारोचक्र धरि जिनभक्ति दया धर्म रसभीनी है। आई गोठे उमडि घटासी भीर लाखनि ही कहैं लऊ तिन्हें मिजमानी जोर दीनी है। मक्खन मलनन्द शाह गोविन्द जुराइ तखत पिरोजाबाद पूजा भली कीनी है ॥३६॥ कवित्त चन्द्रोरिया गोत्रको अमृत्त राय नन्दरामसिंध उदैराज सुचारो चक्रनिर्भर रस है । कुलके कलश कुलदीपशाह जयकृष्ण सभा बीच कञ्चन के झरनेवरस है। दिलके दिलेल मोतीलाल दानी इच्छाराम रोष नशिजात जिन्हें देखत दरस है। कहत भमानी दयादान और करनीको पूतनाती पंती खेमकरनके सरस हैं।३७। कवित्त जैतपुरिया रपरियनको जीते जोर जज्ञ सनमान वई दान जीते जीते बड़े व्याह नित आनदवधाये हैं। जीते सुखसंपत सपूतई मुजशजीत Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २५१ शोभासभा सबको सुखदाये हैं। परमानन्दवंश खर्गसेनके भमानीदास करि करतूतें कुलकलशचढाये हैं। बड़ी बड़ी करनी बढ़ाई सिरदारी जीते लौलाल यात जेतपुरिया ये कहाये हैं ॥३८॥ फिर गवत गोत्रको कवित्त आँगे गाऊरावतने बड़े बड़े गढ़ जीते जीते जोरजज्ञ कीने दुर्जन निःशक हैं । फेरि हंतिकति पति भाइप तिलककीनो सजन सिहाने छाती सूमनि धसक है । ताही कुल परसादी गान मान दान जीतो खडगसेननन्द भयो तोहीमें इसक्क है। मन सुखराइ साहिब सपूत लऊराइ कहैं अरराज रोतईकी तोही में ठसक है ॥३६॥ सोनी गोत्रका कवित्त छप्पय प्रथमही सोनी कर्णशाह सुलताननि मानो । तिह घर हरष भयो देश देशनिमें जानो। जंजंगिनिका जीति वार भयो लोकर्माहि उजियारो, मंगन आवत पार रोर तिन को अतिभारो। जगदीश वंश लऊराइ कहैं जेदेल दिलेल कंचन वरस । टीकाराम जदुवंशमें राज पेमराज सोनीसरस ॥३६॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . . . . . २५२ ॐ श्री लँबेचू समाजका इतिहास * सोनी सपूतई कीर्ति जहानमें सोहति है शिर तेरे भलाई, कञ्चन देत कपूरेको नन्द सिराहत हैं सिरदारी सवाई। सावित मौजक सवितासुअ कीरति चारिह चक्र भलाई, तुलसी परमानन्दलाल तेरे ही लालकी राखे भलाई ॥४०॥ ___ कवित्त फिर सोनी गोत्रके पूजा पर कारज के करिक थलोड़ा सींचि सुकृत मुधा सों दानी वारिकर वरु है। पुण्य जर पूरण प्रताप शाखा पूरि रही दया धर्म पल्लव प्रकाशे हर वरु है । कहत भवानी जश कीर्ति रुप फल लागे। पक्षी जाचकनि को गरीव पर वरु है ॥ हेलिकर वर देत हेमझर वरु मोई सोनी सरवरु तहां तारातर वरु है ॥४१॥ कवित्त पटवारी गोत्रका नेम धर्म जप तप संजम में सावधान रहे दै दै दान दीनन की विपता विदारी है। बड़ी बड़ी करनी करतूतें शाखि शाखि भई जाहर जहान जाकी कीर्ति जगजारी है ।। टेकचंद बंश भये अंस वालचन्दजके उमेदराइलालज की सदा सिरदारी है। कहैं लऊराइ जाकों खलक सरा हैं शाह रसकीर्ति ऐसे दिपत पटवारी हैं ॥ ४२ ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास* कवित्त कानून गोद्गोत्रको सवैया ३१ सुवनिके आदर अदव फोजदारिन के बड़े भुअपालनमें नीको तुअ नाम है || महासिंघजके कुले कलशा चढाये रहे जादोराह वंश सदा धर्म ही को धाम है । चुन्नीलाल नन्द तुम करो आनन्द सदा कहत गुलाब सुजश लेत आठो जाम है || मुलेक मुलिककुल खलक में सोरोजही दानको दिलेल कानगोह आशारामा है ॥ ४३ ॥ २५३ सवैया ३१ यम संयम के तपे पूरन प्रभाकेन जाके विप्र अरचा चरचाको चित्त चाउ है || नन्द भगवन्तको अजानबाहुमे रमाने || मेरे जान ऐसो कोउ राजा है केराउ है | धरमको करिआ रमेश कमलके वंश पार करिवेको मेरी सरम नाउ है || दुसमन दारिदको कहा डर ताकों जाको कानूगो महीप महासिंह महाबाहु है ||४४ || सवैया ३१ सूवनिके आदर अदव फोजदारनके बड़े भूपालनमें नीको जाको नाम है ।। खान ओ खुमान सुलतान निर्के Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * सनमान जानत जहांन सो जपत जिन नाम है ॥ जादोराइ वंश भये अंश चुन्नीलालजीके कहत गुलाव बाढो बहुधन धाम है । नेकीकी नजर धर्म ही की टंक टेकी बाले वचन विवेकी कानूगोह आशाराम है ।।४५॥ कवित्त कुअर भरये गोत्रका सवैया ३१ ___ मयारामजके नन्द छोटेलाल नाथराम देवीदास रूपचन्द धर्म ही के केतु है। हीरामनिजके सुत माहसीके नन्दराम लालकृष्ण लायक अमूलं दान देत हैं । कुलक कलश कमलापति ओ कुशलसिंघ जिन्हें देखें सूमनिकं होत मुख सेत हैं ॥ तखत अटेर मध्य कुअर भरयेजु दिप मन सुखक पत नाती जोते जश लंत हैं ॥४६॥ कवित्त तीनमुनैयागोत्रका सवैया २३ लाज भरोजु कृपाराम दियै अरु इच्छा जो गमधरै शुभसाता ॥ धर्मको धाम मयाराम है खर्गसेन सेवाराम महा गुनभ्राता । देश विदेश नरेश कहैं जुशिरे मणिवंश दालिद्रन Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २५५ साता || चारहुचक्र सराहत हैं लखि तीन मणि सगरो घर दाता ॥४७॥ कवित्त पिलखनिया गोत्रको सवैया ३१ मनीरामवंश प्रेमराजनन्द महासिंघ खड्गसेनजूक गुण गावत गुनिआ महासिंघनन्द कुलचन्द दानी बालचन्द दिन प्रतिक मोजे विलोकनको चुनिया || खड्सेननन्दसी उमेद राइ चैनसुख जैनकी सुधाईकी सराहकरे सबदुनिया || कहत भमानी जशवंत नगर शुभ थान दान अरु करनीको दिलेल पिलखनिया ॥ ४८ ॥ कवित्त तिहैया गोत्रको छप्पय बड़े अमीर उमराउ राउराजा सन्माने ।। नृपति खान खुम्मान शाहि दरवार बखाने ॥ देततुरंग मगाइ हाल ततक्षणे गुणिनिको ॥ कविको विदगुण पढ़त लछिवहुफल तिसवनको इन्द्रजीतनन्द लऊराइ कहि पीताम्बर सुनियत सुभट्टनर ॥ तिहैय्यावंशभागमल्ल के सुतेरो सुजश चहुं चक्कर ||४६ || Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * दानके दयाको हरषिहिम तिहैय्याको पुण्य पूरण मया को महापरम विशाला है । नेकीकों निकाईको सवैहै सुहाई सोभलाई अति आला है ॥ यदुवंशी दिपतलम्बेच इच्छा रामनन्द कहत गुलाव करि मोज प्रतिपाला है ॥ पमारी दुशाला ओमाला बडं मोलनकी आला सो दान करिदई परमानन्दलाला है ॥४०॥ दिन दिन रीझवकसीसे कवि लोगनिको भली अशी से दिपैआनन्दको कन्द है। संतको समाज सिरताज साखि माखिनत अमृतराइ वंश करै दुरेदुख द्वन्द है । इच्छा रामनन्द कुलंकलशा चढायो भलो कहत गुलाब जश होय उदयचंद है। कीनो जगनाम लं भलाई आठो याम सदा सुखनिको धाम दानी देखो परमानन्द है ॥५१॥ कवित्त पचोलये गोत्र की ___ उमड़त लोह घटा घन घुमड़त उत्त भदवरिया चढ़ हसंत ॥ बरषत तीर तुपक मुहवाई टोपी वखत्तर मुगल फसंत ॥ भैयातिभारू किलकारी भारी अति दुर्ग पसेउचु अंत गयदंत ॥ जीतो तो करन घाट पत्तन रज सो राखि रह्यो हंतिकंत ॥ ५२ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २५७ सवैया ३१ लाखनि और मुखे में पचोलहे लो इन लाखनि मांझ लजीले ॥ सींचि सुधा बसुधा सनमान सुबोलत बोल अमोल रसीले ॥ सुखदायक लायक भाइ पके सब लाय कहैं भुजभार चड़ीले ॥ पुरुषारथ को सारि वाहन केशव शाह निमें शिरदार रगीले ।। ५३ ॥ जो राजघरवांनी जो ताहि बहुरिजानी जो पांच में पांचोलहे पुनीत नर नाउ है ॥ तेही सार वाहनके तेरे ई देखते मिटत दुख दाउ है ॥ कुआ बागवाड़ी देवालय कीने देवनिके श्रावकनि सरा है श्रावक महा वाउ है ॥ कीनो तिलक सब गोटिनि मिलि गोटे सरा हैं जगत जैनी महासाहु है ॥ ५४॥ ___ प्रथम खरचि लच्छी शाहनि में राखी कांनि सरमीले लालसेनि धराधरी दान की॥ भरत सो भाई तो बहुरण मल की निर्मल पूजा रची वेदी बर्द्धमान की ॥ जिहि करी ताकी धरी रही वाही ठोर करी है पचोलहिनि अहाने कहान की। कीरति लहलहानी सींची सोने के पानी करके प्रतिष्ठा मेढि राखी लँबेचुहान की ॥ ५५ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * कवित्त कानून गोह का और भी ___ सवैया ३२ द्वार आये उठिक मिलत बड़े आदर सों पान मिजमानी करें नित ही सरसते ॥ हित मित्र पंडित कवीश्वर यों प्रगटन को मोजे नित्तप्रति करें आनंद सरसते ॥ कानूगोह लायक लजीलो करहल मांझ कहत गुलाब बाढ़ो सम्पत्ति अरसते ॥ महासिंघ वंश की बड़ाई बढाई राखें सदा शाखि शाखि सोहं आशा पूरी होत आशाराम के दरशते ॥५६॥ कवित्त बुढेले गोत्र का ___ सवैया ३१ दोऊ सतवादी हैं बुन्यादी मरजादी दोऊ परकाजी पर पीर के हरन है ॥ उदित उदार शिरदार साखि साखि दोऊ मोजकरि भिक्षुकनि भोननि भरन है ॥ मोहन के वंश दोऊ अंश चिन्तामणि के बुलाखीदास प्रेमराज धर्मछिहि धरन है। कहैं लऊ राइ विदित बुढेलिनिमें दोऊ भ्रात करिवे को करनी करन है ॥७॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २५६ कवित्त बुढेलिनि में जखनिया गोत्र को सवैया ३१ शील सनमान को दिपतु जदुवंशी जोर जिनकं सुयश छाय रहे छिति छोर है ॥ मनोहरदास बंश अंश गंगारामज़ के दे दे दान दीननक दूर कीने रोर हैं। लाज क जहाज शाह कुअरसेन देश देश जाकी कर तू तिनक शोर हैं। कहैं लऊ राइ देखे विदित बुढेलिन में करवे को करनी जखनियाये जोर है ।। ५८ ।। कवित्त लँबेच मात्र साधारण का सवैया ३१ मान जस भारो गुण गरु वो गुवर्द्धन सो दानको दिलेल झर कंचन बरस है। जाके सुत साहिब सपूत राजाराम राजै दारिद नशत जाक देखत दरस है ॥ वंश दिलमाहज के अंशशाह भीमसेन को लऊराइ दया-धर्म ही धरस है । करिवे की विविध विवेक ओ विलास सो लँबेचुन में देखे सलाह करनी सरस है ।। ५६ ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * कवित्त रपरियानको (सवैया ३१ सा) ब्याहन जु साज पूतनाती धीर धरज के रप्परिया सुभट सवै विधि जो मुहाये हैं। साहजो दानी हेमराज जयसिंघ रामसिंह उमेदरायजूके कर कंकन बँधाये हैं। शाल सिरो पाये औ रुपैया घोड़े दान करि लऊराइ नेगिनिके दारिद नशाये हैं ॥ अलोल मणि जूके व्याहि शाह दयारामज बंदेलखण्ड जीति आछोनाम करि आये हैं ॥ ६०॥ ये सब कवित्त राय नगर से राय भाटों से प्राप्त हैं । अटेर के भोगीराइसे प्राप्त कवित्त कानूनगो गोत्रका (सं० १९१४ जब गदर परो करहलको रक्षा करी) परो है कठिन काम जिहतिह अंगद सो रोपोपांउ रहो ठहराइक।। जहाँ कोऊ नांहि साथी तहाँ भयो, धर्म तेरो साथी प्रबल कथासी कहै कौन समझाइकै ॥ लड़िकाई तँ चैतसिंह शाहन को शिरमोर । कीर्ति अथाह गई कहै कौन कविगाइकें । नाथ मगवन्तज के महासिंह महाबाहु सो आछी विघि करहल तुम राखी है वसाइके ॥६१॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २६१ हिन्दी गद्य लाला फुलजारीलाल रईस कानून गोके यहाँ से प्राप्त उर्द में उसकी हिन्दी पं० जयदेव जैन पंचोल ने की। . जिस समय सं० १६१४ मे गदर परो तव चैत सिंह महाराज सिंह महा सिंह आदि कानूनगोने घोडा पर चढ़ कड़ावीन और बन्दुक आदि शस्त्र लेकर और साथ में लहरिया ब्राह्मण भी रहै। इन्होंने कानूनगो घराने के चतसिंह आदिने और लहरिया ब्राह्मणों ने उनकी भी जिमीदारी है। तथा लाला शिखर प्रसाद चंतसिंह कानूनगो की जिमीदारी है। इन्होंने चारो ओर फिर फिर के करहल शहर की रक्षा करते थे। तब करइल बची करहल जिला मैनपुरी में है। लाला शिखर प्रसाद के लालाफुलजारीलाल दत्तक पुत्र और उनके पुत्र लाला मिजाजीलाल उनके औरस्य पुत्र ऋषभ दास उनके पुत्र सन्तोषकुमार है। और लाला चैतमिहके पुत्रीके पुत्र लाला बाबूराम और उनके पुत्र रामस्वरूप और कई पौत्र नरेन्द्रकुमारादि हैं। ये दोनों जिमीदार है । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * कवित्त वरोलिहागोत्रको छप्पय निरपति खान खुम्मान शाह दरवारके मान ॥ दंत हेम हय चोर चरिय पाटम्बर तान ।। अमर भोज सन दिपैदरियाह वाहुविधि रच विशम्भर ॥ कुल कुअर भमानी लोकमान कहैं कवि मुरलीधर ॥ दुख हरत परमानन्द हुलासराय तिहारी वत्त ॥ केह कवि शक्ति तुअ कीर्ति सपूती भुअपर करत ॥६२॥ कवित्त कुदरा गोत्र को लाजको जहाज पर काज कर सबहीको शोभत सभा में जाय जगजश पाई की ।। भाइप भलाई बड़ो लायक सो दखियत कहै बात मांची सोई आप मन भाई को ।। कुदर कोट जिनकी प्राचीन था न शोभित सरस जहाँ तखत राजशाहीको ॥ शहरशकीट दिपै कुदरा परशुराम साशोहत तिलक जाहिपूरोपुरिखाई को ॥६॥ कवित्त संघी गोत्र के सर्वया ३१ प्रथम भमानीदास नाश करै दुःखनिको मयाराम मही Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २६३ पै महीपसमहेरे हैं ।। भोजराज भोजसम मोजै करै कविनुको परशजुरामजके मुजश घनेरे हैं। हरिवंशवंश संघपति भूपति की कहैं लऊराइ गुनग्रन्थनि गनेरे हैं ॥ उदित उदारो शिर सोहै भूप भारो चारो चक्रमें समान प्रहलाद पुत तेरे हैं ॥६४॥ ___ करि जु विचार मन अति ही हुलास हैके वानिदानी जानि अटल इटायेतेजुधाये हैं। हरिवंश वंश प्रल्ताद सुत माहसीक तुम पै तिहारे ही सुजशने पठाये हैं। शाले सिरो पाये धनकरिके जड़िआकर यो कहै लऊराइ दान पाऊं मनभाये हैं। महाबाहु संघई सपूत मयाराम सुनो जाड़ने सताये सो तुमपर आये हैं ॥६५॥ कवित्त वेद वावरे (मलावन) के गोत्रका सवैया २३ कंचन कोटि कबई ( कविन ) रुपइयन दे, दीनन के परमान बढ़ावै ।। देवसेन के वंश में साता करै सो जापै, दुखी कोउ होन न पावै ।। शोभाराम बड़ प्रभुशाह को नन्द पै तो ताके भिक्षक दुरिते धावै ॥ तुलाराम को सत्त गहै नन्दराम सो देके अदत्तन को सिखरावै ॥६६।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ * श्री लँवेचू समाजका इतिहास * कवित्त सवैया ३१ खंडनि खल निहिल दण्डन प्रचंडनु कमंडन मुलिक मण्डलीकनि प्रभाने हो । खान यो खुमान सुलत्तान आन मानत है, जाहर जहान धरै विरद बखाने हो । साहसी सुभट शिरमोर देउराइ सुअ मुजश प्रताप चारयो चक्रनि बखाने हो ।। कहैं कवि लाल दानी लाला भूलचन्द तुम दान योक्रपानको जहान पर जाने हो ॥६७।। अब कुछ राजपूताने इतिहाससे कुछ उद्धृत चन्द्रमाण चोहान माणिकचन्द चोहान राणा मांगा ( संग्राम सिंह ) के सहायतार्थ अन्तर्वेद ( गंगा जमुना के बीच के प्रदेश चन्दवार इटावा आदि से ) से गये इतिहास पृष्ठ पेज ६८६।८७ और राणामुकुल और फीरोज शाह से लड़ाई हुई पेज ५८२ । ___ और सांम्हर ( सांभर ), नाडोल, अजमेर, रणथंभोर, मंडोर, संचालक, सिरोही ( सीहोर ), आमेर, चित्तौर, देहली, मालवा, नागोर, सोनगरा, सिरदारगढ़, हाडोनी Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास २६५ (हरदा), वृन्दावती (बूंदी), इटावा, चन्दवार, जशवन्तनगर ( रायबद्धीय ), रायनगर, मैनपुरी, विलराव, करहल आदि में चोहानों का राज्य रहा है । करहल का पुरानो नाम दूसरा है । लाखा राणा के कई पुत्र हुये । चूडा (चंड ), राघवदेव, अज्जा, दूल्हा, डूंगर, गजसिंह, लणा, मोकल । लूंगा के वंशज लुणावत, मालपुर, कथोरा, खेड़ा आदि में रहे। पट्टावली में आया है लूंगा वास किया सो एक सोनगरे के तरफ नदी का भी नाम इससे पड़ा है लूंगा के नाम से । और परवार जाति परमार वंशके परिहारी प्रतिहारवंश या परमार वंश में से होनी चाहिये । चोहान इतिहास महाकाव्य, हम्मीर इतिहास महाकाव्य, शत्रुशल्य महाकाव्य, पृथ्वीराज राशो में बहुत इतिहास मिलेगा | रघुवंशी प्रतिहार वंश, परमार प्रतिहार वंश इनका ख्यातों में भी कथन है। सोमेश्वर रचित ललित-विग्रह नाटक में भी इतिहास है । रसिक - प्रिया काव्य के कुछ पत्र और पृथ्वीराज रासों के होंगे कुछ पत्र | हमारे पास रायनगर के पत्रोंमें हैं, जहाँ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * से हमने ये कवित्त गोत्रों के लिये लिखे हैं । ये सब करहल के भाट जो रायनगर में रहते हैं उससे लाये हैं। करहल के भाइयों ने राय भाटों का ब्याह में तीन खूट दिये जाते हैं। वह हक दो-चार वर्षों से जब से एक राय से किसी कारण लड़ाई हुई बन्द कर दिया, वह देना चाहिये । भाटो बिना यह सामग्री कैसे मिलतो विचार करना चाहिये । सोलंकी (बघेला )वंशके राजा कर्ण घेलासे अलाउद्दीन खिलजीसे लड़ाई हुई। खिलजीने गुजरात राज्य छीना, जोधपुर राजपूताना इतिहासमें देखो पेज ५६६ रायसिंह डोडिया अपने २ पुत्रों कालू और धवल सहित मेवाड़ी फौजको रक्षार्थ आ पहुंचा। लाखा की माता द्वारकाकी यात्राको गई थी उसको लाखाके घर तक पहुंचाया धवलको राणाने बुलाकर ५ लाखकी जागीर प्रदान कर अपना उमराव बनाया। धवलके वंशम इस समय सरदार गढ ( लाँवा ) का ठिकाना है यही लमकाञ्चन देशमं है तपासो लमेवू जातिके वंशजोंको पेज ५७५ । देवीसिंह (चोहान) देवा हमीरकी सहायतासे मोनोसे वृंदीका राज्य लिया उधर भास्करमें लिखित (रायभा ) को देखना चाहिये । साम्हरके Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ अलबेचू समाजका इतिहास * चौहानोंकी एक छोटी शाखाने ( नाडोल ) जोधपुर राज्य में राज्य स्थापित किया । बुंदेलखण्डमें भी आघाटपुर आहार्य क्षेत्रमें लम्बेचुओंकी प्रतिष्ठा कराई प्रतिमा मिली हैं तो वहाँ परमारवंशी जादे रहैं और परमार वंश भी खीची चौहानोंमें हैं। हमने गुजरातके हुंमड भाइयोंको पूछा वे भी अपने को चोहान वंशमें बताते हैं ईडरगढमें राणा केशरी सिंह प्रतापसिंह चौहान वंशियोंका राज्य रहा है। डूंगर पर सं० १००० एक हजार संवत् की प्रतिष्ठित प्रतिमायें हैं देखना चाहिये तारंगाजीक पास है। राजा लोग संस्कृत विद्वान होते थे उसका दिग्दर्शन आगे गुहिल राणा बंश में और चोहान राणा वंशमें बड़े बड़े विद्वान् हुये हैं । चोहान वंशमें वाकपति राज राजा अमोघ वर्ष जिन्होंने शाकटायन व्याकरण पर अमोघवृत्ति टीका बनाई। जिसका गण पाठ धातु पाठ सिद्धान्त कोमुदी पाणिनी व्याकरण में दिया है। ऊपर लिख आये हैं। इन्हींके वंशमें दुर्गदन्ति प्रथम कृष्ण द्वितीय कृष्ण आदि हुये उसी वंशमें श्री शिवानी राव हुये और राजपूताने इतिहास में गुहिल वंश में हुये बताये, परन्तु जैन सिद्धांत Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ * श्रो लँबेचू समाज का इतिहास भाकरमें राष्ट्रकूट ( राठोर ) वंशमें भये । और महाविशेषण देने से महाराष्ट्र ( मरहटा ) वंश हुआ लिखा है और गुहिल वंश में कुंभा राणा बड़े भारी विद्वान थे। और इनकी स्त्रीने " त्रैलोक्य, दीपक" श्री पार्श्वनाथ भगवानका जिन मन्दिर बनवाया समवसरण चतुर्मुख श्री युगादीश्वर जिन मन्दिर राणपुरमें बनवाया । गुणराज मित्रने बनवाया और श्री पार्श्व जिन मन्दिर इनकी स्त्री जयतवल्ला देवीने बनवाया । और ये बड़े विद्वान् थे इनके विषय में अष्ट व्याकरणी विकास्युपनिषत्स्पष्टाष्टदंष्ट्रोत्कटः पट इत्यादि दो लोकों में १७२/१७३ में उदय पुर राज्य के इतिहास में पेज ६२५ पेजमें दिये हैं जो इन्द्र चन्द्र काशिकाकार शिली शाकटायन पाणिनि और अमर तथा जैनेन्द्र इन आठों व्याकरणोंके जानकार थे, इनमें इसमें इन्द्र नन्दि आचार्य का इन्द्र व्याकरण जैन है । चन्द्र कीर्ति जैन काशिकाकार जैन शाकटायन जैन अमर जैन जैनेन्द्र व्याकरण जैन और कलाप व्याकरण जैन जिसका प्रथम सूत्र सिद्धोवर्णसमाम्नाय : और जैनेन्द्रका प्र० सूत्र सिद्धिरने कालात् शाकटायनका अइउण्ट इत्यादि जो इसी Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २६६ का १३ सूत्रों का १४ सूत्र कर दिये ऋक् सूत्रका ऋल्टक किया । इत्यादिके जानकार थे। पहिले राजा लोग सब संस्कृत पढ़े होते थे, जैसे भोज थे । ॥ श्रीः॥ श्री हरिवंश (यदुवंशका) इतिहास अव हम यदुवंश कहाँ से चला इस विषय पर लिखते हैं : जैन सिद्धान्तानुसार समय परिवर्तन रूप काल का १ कल्पकाल का एक अपसप्पिणी एक उत्सप्पिणी दो काल होते हैं । एक अपसप्पिणी के ६ काल। १ सुखमा सुखमा, २ सुखमा, ३ सुखमा दुखमा, ४ दुखमा मुखमा, ५ दुखमा, ६ दुखमा दुखमा । पहिले और दूसरे काल को सतयुग कहते हैं। अजैन ग्रन्थों में भी सतयुग लिखा है। युग माने दो के हैं। पहिला दूसरे काल के जोड़े का सतयुग Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * कहो । इन दोनों कालों में जीवों को सुख ही सुख मिलता है, इनमें भोग-भूमि होती है, दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं। उनके नजदीक जाकर मांगने से सब वस्तुएँ मिलती हैं अर्थात् जिस वस्तु की चाह होवे, उसकी इच्छा प्रकट होते ही फूल की तरह उसे उपलब्ध हो मिल जाती है। उस वृक्ष के निमित्त से तथा इच्छा रूप अभिप्राय निमित्त से पुल परमाणुओं का परिणमन उसी रूप होकर वह वस्तु मिलती है। तत्काल अथवा पिछले से ही, जैसे- बालक गभ में आने से ही माता के स्तनों में या गौ के थनों में दूध उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार समझना। माता के स्तनों में क्या गां के थनों में कोई दूध भरने नहीं जाता, अपने युण्य और पाप के उदय से साधक तथा बाधक सामग्री का मिलाप होता है । यह प्रत्यक्ष दृष्टान्त है कि भोग-भूमि में वे वृक्ष उत्पन्न होते हैं। प्राणियों के पुण्य से और पाप के उदय से वे ही कल्प वृक्ष कर्म भूमिका प्रारंभ होते हो नष्ट हो जाते हैं। . कल्प वृक्ष दश प्रकार के होते हैं - भोजनाङ्ग, वस्त्राङ्ग, दीपाङ्ग इत्यादि । जैसे आजकल कृत्रिम दीपाङ्ग बिजली २७० Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २७१ की बत्ती पहिले नहीं थी अब है। ये कृत्रिम हैं और वे अकृत्रिम दीपाङ्ग प्राकृतिक होते थे। जैसे-एक चावल धान बोने से होते हैं और एक अकृत्रिम बिना बोये शाठी क चावल धान अपने-आप होते हैं, जिनका दाना कुछ ललाई लिये होता है। उसी प्रकार भोग-भूमि में कल्पवृक्ष होते हैं । स्त्री-पुरुष जोड़ा ही उत्पन्न होते हैं। दूसरे काल के बाद तीसरा काल होता है सुखमा दुखमा। पहले कल्प-वृक्ष रहे और अन्त में कल्प-वृक्ष नष्ट हो जाते। इस काल को अन्य मतावलम्बी द्वापर कहते हैं ( द्वाभ्यां अपरः ) सतयुग को दो काल पीछे दो से तोसरा काल। इसमें १४ कुल कर होते हैं जो अपनेअपने समय में एक-एक नवीन बात चलाते हैं। इनको वैष्णव १४ मनु कहते हैं। १४ चौदहमें कुल कर श्री नाभिराजा भये। उनके प्रथम पुत्र तीर्थङ्कर श्री ऋषभ देव आदिनाथ भगवान भये इनको वैष्णवों ने भागवत में पाँचवां ऋषभावतार माना है पांचवें स्कन्धमें और भोगभूमि होना महाभारतमें भी लिखा है। इन ऋषभदेव भगवानने प्रजाको इक्षु रसका संग्रह कराया इससे ऋषभदेवको इक्ष्वाकु Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * कहा । इन्हींसे इक्ष्वाकु वंश चला और इन्हींके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती राजा भये जिन्होंने एक आर्य खंड और ५ म्रच्छ खण्ड इन छः खण्ड का राज्य किया तथा इनकी आयुधशालामें (सुदर्शनचक्र) चक्ररत्न उत्पन्न भया जिससे ६ खण्ड की पृथ्वी साधि ३२ हजार मुकुट वन्द्ध राजाओंके अधिपति भये यद्यपि इस क्षेत्रका नाम अनादिका भरत क्षेत्र है तथापि वर्तमान में उन भरत महाराज चक्रवतीसे इसका नाम भारतवर्ष भया उन ऋषभदेव भगवानने प्रथम ही महाभाग हरि ? अकंपन २ काश्यप ३ सोमप्रभ ४ इनका यथायोग्य सम्मान करि कर्मभूमिकी आदिमें अभिषेक कराया और चार हजार राजा महामण्डलीक था भगवान की आज्ञासे सोमप्रभ कुरुवंशीनिका शिखामणि कुरुजांगल देशका राजा भया और राजा हरिका हरिकान्त नाम धरा (हरिकासा) इन्द्र कैसा पराक्रम जाका सो हरिवंश का अधिपति भया भुवनका ईश जाके प्रसन्न होते कहा न होय और राजा काश्यप जगतगुरुके प्रतापसे मघवानाम पाया और उग्र वंशका अधिपति भया और कच्छ महाकच्छ आदि राजाको राजाधिराज पद पै थापा और साठों को पेलि रस Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचूसमाजका इतिहास * २७३ का संग्रह कराया । लोकनको ताते भगवानको इक्ष्वाकु कहा और गौ नाम स्वर्ग तिसमें उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्धि विमान तहां से चय अवतार लिया, ताते गौतम भी कहिये और कश्यपी नाम पृथ्वीका है सो पृथ्वीका पालन किया, जाते कश्यप कहिये । जीविकाओंका ( उपाय ) असि १ मसि २ कृषि ३ वाणिज्य ४ विद्या ५ शिल्प ६ इन पट कर्मका उपदेश दिया ताते मनु भी कहा और कुलनके कर्ता ताते कुलकर और विधि कर्ता (विधि विधान बनाया) तातें विधाता ब्रह्मा भी कहिये । ये अक्षर हमने आदि पुराणकी हिन्दी टीका के लिखे हैं, ये श्री जिनसेन आचार्य के वाक्य ८०० आठ सौ शताब्दीके हैं मूलसंघ आम्नायके । और हरिवंश पुराण से भी हरिकान्त से ही हरिवंशकी उत्पत्ति कही इसी हरिवंश में श्री मुनिसुव्रत तीर्थकर भगवान २० वे तीर्थंकर भये । और इसी वंश परम्परा में राजा यदु भये । यदु राजा के नरपति और नरपति के दो पुत्र भये, शूर१ और दूजे वीर शूर राजाके नामसे शौर्यपुर ( सूरीपुर ) वसा जो जमुनाके किनारे ( वटेश्वर ) के नाम से अव प्रसिद्ध है, उसीकी पुरानी नगरी सूरीपुरके नामसे विख्यात है उन शूर १८ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * राजाकं अन्धक वृष्टि आदि महाशूरवीर पुत्र भये । और वीरके भोजक वृष्टि आदि पुत्र भये । और अन्धक वृष्टि ने कुशाग्र देश में शौर्यपुर बसाया। और मथुरा में सुवीरके पुत्र भोजक वृष्टिने मथुरामें राज्य किया। अन्धक वृष्टिके १० पुत्र भये, समुद्र विजय१ अक्षोभ २ स्तिमित सागर ३ हिमवान् ४ विजय५ अचल ६ धारण ७ पूरण ८ अभिचन्द्र ६ वसुदेव १० इन दशके कारण यह देश दशाह कहलाया और कुन्ती तथा मांद्री दो कन्या हुई। कुन्ती पाण्डको ब्याही जिसके युधिष्ठिरादि पाण्डव भये, और सुवीरके पुत्र भोजक वृष्टिके पद्मावती राणीसे उग्रसेन महासेन देवसेन ये तीन पुत्र भये। यह हरिवंश हरिकान्तके वंशमें वसु राजा के १० वाँ पुत्र बृहद्ध्वज का विस्तार भया और वसुराजा का नवमा पुत्र सुवसु के वंश में जो नागपुर चला गया था उसके वंश में वृहद्रथ जो मगध देश का राजा भया मगध देश राजगृह नगरी का वृहद्रथ का पुत्र जरासिंध त्रिखन्डी प्रतिनारायण होता भया। और जरासिंघ को पुत्री जीवंजशा कंश को व्याही थी और कंश की वहिन देवकी वसुदेव को व्याही थीं किसी निमित्त ज्ञानी Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २७५ ने कंश को कहा था कि देवकी का पुत्र कंश और जरासिंध का मारने वाला होगा इसी कारण जब देवकी के गर्भ में बालक आता था तब वह मथुरा में अपने घर बुला लेता अपने घर प्रसूति कराता कंस प्रकृति का बड़ा दुष्ट था जब यह उग्र सेन की स्त्री पद्मावती के गर्भ में आया था तब ही पद्मावती को खोटे २ स्वम आये थे जो माता पिता को कष्ट देने के सूचक थे इसीसे उग्रसेनजीने एक मञ्जपा में रख अपना पुत्र कंश लिख मज्जषा ( पेटी ) जमुना में वहा दीथी और वह जरासिंध की राज्य में पकड़ी गई जरासिंध ने पाला और अपनी पुत्री जीवंजशा परणादी थी फिर यह अपना राज्य मथुरा में जान मथुरा आगया और मथुरा में आकर पूर्व वैर से माता पिता को जेल में डाल रक्खा था देवकी ने तीन वार गर्भ में दो-दो बालकों का जुगल आया वे चरम शरीरी* थे सो देव इन्हें उत्पन्न होते ही उठा ले जाते और एक सेठानी के मरे जुगल होते उन्हें यहाँ पटक ...-.--.... ___ * जो उसी शरीर से मोक्ष हो, उसे चरम शरीरी कहते हैं । चरम याने आखीर का ( शरीर ) देह फिर जन्म न लेवे दूसरा शरीर धारण न करै वह चरम शरीरी कहलाता है । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * जाते कंस आता जब उसे मर। हुआ जुगल समझ एक पत्थर की शिला पर पटक कर फिकवा देता चौथे गर्भ में कृष्ण आये तब कृष्ण आठवें महीने में ही उत्पन्न हुए कंश को मालूम भी नहीं भया । वसुदेव के रोहिणी रानी से उत्पन्न क्लदेव वलभद्र ६ नवमे पहिले से ही मथुरा में छिपे हुये रहते थे सो कृष्णका जन्म सुन उसी समय आकर उनको लेकर मथुरा से जेल दरवाजा से चले कसने जहां उग्रसेन पद्मावती माता पिता को जेल में रखे थे। जसे ही वलदेव कृष्ण को लेकर दरवाजे पर पहुंचे वैसे ही पीछे से छोंक हुई जब उग्रसेन ने चिरंजीव रहो आशीर्वाद दिया तब बलदेव बोले आप इस बात को गोप्य रखना यही तुम्हारा छुड़ाने वाला होगा तब उन्होंने स्वीकार किया जब ये लेकर चल तब एक देव पुण्य के उदय से गाय का रूप धर एक सींग पर मसाल बना कर उजाला कर मार्ग में रास्ता दिखाता गया भादवां वदी ८ को बड़ी घनिष्ठ बादलों की अन्धेरी थी अर्द्ध रात्रि थी जमुना पर पहुंचते ही देखा तो जमुना बड़ो गहरी चली जा रही थी वलदेव कुछ खड़े हुए पर जब वह गाय के रूप में जमुना में Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * २७७ प्रवेश कर रास्ता दिखाने लगा तब वलदेवजी समझ गये कि यह कोई देव सहायक है जमुना में प्रवेश करते ही जमुना ( पांझ ) घुटने तक रह गई तब बलदेव कृष्णको लिये वृन्दाबन के घाट से उतर गोकुल पहुंचे एक देवी के मन्दिर में देवीके पीछे भाग में लंकर बैठ गये। उसी समय नन्द ग्वाल की स्त्री यशोदा के एक लड़की हुई थी वह उसी देवी की उपासक थी वह लड़की लेकर देवी को उलाहना देने आई कि मैंने तो तुम से पुत्र मांगा था तुमने यह लड़की क्यों दी तो अवसर पाकर बलदेवने पीछे से जवाब दिया कि यह पुत्र ल कन्या हमको दे तब उसने कन्या दे दी और कृष्णको लेकर बड़ी प्रसन्न हुई और उसको समझाया कि यह वात गोप्य रखना किसी से कहना नहीं ये घरका ठिकाना पूछ बलदेव कन्या लंकर चले आये और कन्या देवकी को ही सौंप दी सवेरे ही प्रसूति की बात सुनकर कंस आया और देखा कि कन्या हुई तो उसे मारा तो नहीं किन्तु इस शंका से कि कहीं इसका पति ही हमारा मारने वाला न हो जाय नाक को अंगूठा से चपटी कर दी हालका बालक मिट्टीके पिण्ड Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * समान नम्र ( मुलायम ) होता है नाक चपटी हो गई देखो मोह वश प्राणी क्या क्या करता है कोई दव देवी किसी का लड़का बच्चा करने में समर्थ नहीं परन्तु वहां मनोवांछित वानिक वन गया । पूर्व पुण्योदय से पीछे कंसको मलम भया कि तुम्हारा बैरी उत्पन्न हो गया तब उसने पूतनाका भेजना चाणूर मल्लोंका भेजना इत्यादि प्रयत्न किये । भवितव्य दुर्निवार सब प्रयत्न विफल हुए । पीछे श्रीकृष्ण महाराज से युद्ध हुआ, युद्ध में कंस मारा गया इधर शौर्यपुर ( सूरीपुर में ) समुद्र विजय की । महाराणी शिवादेवीके गर्भ में भगवान नेमीनाथ आवगे, ऐसा इन्द्र अवधि ज्ञानसे जानकर ६ महीना पहिलेसे ही नगरीकी शामा करनेके लिये कुबेरको भेजा, कुवेरने शौर्यपुरको बहुत सजाया राजा के महलों को सुसजित कर रत्न वृष्टिकी । हस्ती बैल केशरालीसहितसिंह दो हस्ती अपनी सूँढ़ (मुख से) कलश जल भरे पकड़ लक्ष्मीको स्नान कराते देखा इत्यादि १६ सोलह स्वप्न हुये । राजसभा में शिवादेवी माता गई। राजा समुद्र विजयने सिंहासन पर अद्धसिन दिया । माता स्वमका फल पूछती राजा फल कहते दोनो खुशी Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २७६ होते ऐसे स्वम १६ हुये माताको ॥ भगवान गर्भमें आये पूर्वसे ही रत्नोंकी वृष्टि हुई इसीसे भगवान् का नाम हिरण्य गर्भ भया। हिरण्य नाम सुवर्ण रत्नादि हैं गर्भमें जिनके अर्थात् गर्भ में आनेसे रत्नवर्षे इन बातोंकी परिचायक सूरीपुर में कई बातें हुई हैं एक तो एक साहब स्यात् उसका नाम ग्रीक हो हमको याद नहीं रहा जवाहरलालजी भट्ठारककी चिट्ठी जब ग्वालियरके भट्टारकके पास भेजी थी उस चिट्ठी में लिखा था कि यहां अमुक साहब सूरी पुरसे प्रतिमा लेने अजायब घरके लिये आया तो हमने रोक दिया प्रतिमा नहीं जाने दी हम प्रतिमायें वटेश्वरके लिये। जिन मन्दिर में उठा लाये जमुना किनारेमें तो उसने गजटियरमें लिखा है कि यहाँकी जनता कहती है कि यहां रत्नवृष्टि हुई थी दूसरी बात यह कि एक सांकल ६ मनकी एक मल्लाह को मिली वह मिट्टीसे ढकी थी उसको वाह पे किमी माथर वैश्यको लाहमें बेंच आया वह सांकल सोनेकी निकली इत्यादि जनश्रुति है तीसरे वटश्वर सूरीपुरके मकान टीलोपर जमुनाके तटमें ऐसे-ऐसे खड़े हैं कि जिनकी भित्तियोंका आसार चार-पाँच हाथ का पाया जाता है। खड़हर पड़े Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * हैं उनमें कुछ लोग रहते भी हैं और श्री तीर्थङ्कर भगवान के गर्भ में आनेके पहिले ६ माह पहिले रत्नवृष्टि होती है षट्कुमारिका और छप्पन कुमारी देवियां माताकी गर्भ शोधना और सेवा करने इन्द्रकी आज्ञा से आती है और माताकी सेवा करती हैं। यह तो सब तीर्थङ्करों के गर्भ में आने से होता है ऐसा शास्त्र कथन है । इन श्री नेमिनाय तीर्थङ्करका कथन हरिवंश पुराण नेमिपुराण उत्तरपुराण आदि में है भगवान नेमिकुमार गर्भमें कातिक सुदी ६ को आये देवोने रत्नष्टयादि उत्सव मनाया तब हीसे कार्तिक में वटेश्वर (सूरीपुर) क्षेत्र में जिन मन्दिरके सामने दोसो तीन सो फुट लंबा दो मी फुट चौड़ा एक पीठवन्ध चबूतरा भट्टारकोका कराया हुआ है। वहींसे मेला भरता है अब वह मेला सरकारी हो गया है। वटेश्वरका मेला लक्खी गिना जाता है। हाथी, घोड़ा ऊँट बलद आदि मवेशी विकने आते हैं बड़े विस्तार में जमुनाके किनारे दुकाने लगती हैं, बाजार सजते हैं कसेरट कपड़ा मोना, चांदी आदि की दुकाने आती है। अब मेला एक माह पहिले से बन्दोवस्त होता है और कार्तिक सुदी १५ पूनो तक Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २८१ भरता है वैष्णव और शैवलोगों के घाटों पर महादेवक मन्दिर हैं। ____ उन्हीं के बीच में बड़ा विशाल दिगम्बर जिन मन्दिर ४ तल्ला खनका है जिसके दोखन जमुना में डुबे रहते हैं। जमुना की धार बहती है। इस मन्दिरका जीर्णोद्धार करक नये सिरेसे श्रीमान पूज्य श्री जिनेन्द्रभूषण दिगम्बर जैन भट्टारकने बनवाया। मन्दिरजीक साथ सटी हुई धर्मशाला भी बनवाई तथा दुकाने भी मन्दिरकी तरफसे हैं । सरकारी निजलसे मुकदमा चला भट्टारक रामपालयती हमारे पास इलाहाबाद (प्रयाग) में गये हम उन दिनों इलाहाबाद जैन पाठशालामें पढ़ात थे। हमारे पास रहै वहाँ श्रीमान मुन्दरलाल जुड़ीसल तथा श्रीमान पं० मोतीलालजी नेहरू श्रीमान भारत मन्त्री पं० जवाहरलालजी पिता बड़े-बड़े बेरिस्टर थे मुकद्दमा छोटा होनेसे इन लोगोंने लिया नहीं तब एक हरनामदास बाबू वकील थे उनके पास गये नये वकील थे आर्य समाजी थे जैन सिद्धान्तपर कई बातों पर प्रश्न किये हमने उत्तर दिया खुश हुये बोले अच्छा तुम्हारा धर्मका मुकद्दमा है हम लेते हैं ले लिया और रजितादिया Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * कवल अदालती खर्च १६) रु० लिये फीस कुछ नहीं ली । दूसरा मुकद्दमा श्वेताम्बरोंसे चला फोजदारी दीवानी २४ वर्ष सं० २००४ वि० सं० में हाईकोर्ट से जीत तंजबहादुर सप वैरिष्टर की वकालत में खेवट दिगम्बर जैनका था । कायम रहा इसी सरीपुरमें भगवान श्रीनेमिनाथका ६ नवमें महिना जन्म भया। श्रावण शुक्ला ६ को इन्द्रादिक देव सुमेरु पर ले गये क्षीर सागरकं जलसे अभिषेक किया । लोटकर ऐरापति हस्तीपर लाकर शौर्यपुरमें उत्सवकर भगवानकी पूजाकर चले गये। उधर श्रीकृम महाराजने कंसको युद्धमें मारा था, उसके बाद कंसकी स्त्री जीवंजशा पतिके मारे जानेसे मगध देश राजगृह नगरीमें अपने पिता जरासिंधके पास जाकर रुदन किया, जब जरासिंधने श्रीकृष्णादि यादवों पर युद्धके लिये चढ़ाई करनेको उद्यत हुआ। यह बात सुनकर सब यादव डरे, भयभीत भये कि, जरामिंध त्रिखण्डी और हम साधारण राजा इस भयसे सब यादव उस समय नेमिकुमार छोटे थे। श्रीकृष्ण वलदेव समुद्र विजय वसुदेवादि सव यह बात श्रवण करिके जरासिंधने यादवों पर चढ़ाई कर Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास २.८३ दी । वह युद्धके लिये चल दिया, तब खबर यादवोंको मिली यादव महाचतुर हलकाराही है। नेत्र जिनके यह वार्ता सुनकर जे वयोवृद्ध थे अंधकवृष्टि और भोजक बृष्टिके वंश सो सब मिलकर मंत्र करते भये, धर्मका है निरूपण जिनके यादव विचार करे हैं। जरासिंध तीन खण्डका स्वामी है । अखण्ड है, आज्ञाजाकी सो ओरोकर दूसरोंकर जीता न जाय, महाप्रचण्ड है, और सुदर्शनचक्र खड़ग गढ़ा दंड रत्नादि दिव्यास्त्र केवल कर उद्धत है, और कृतज्ञ है, जो कोई उसकी सेवा करें, तिसका गुण माने हैं। कृतघ्न नाहीं है, और कोई उससे द्वेष करें, और फिर प्रणाम करें तो उसे क्षमा भी करे है । अबतक उसने अपना बुरा नहीं किया, पहिले अनेक प्रकारकी सहायता किये हैं 1 और आपने उसका जमाई कंस मारा। और उसका भाई अपराजित मारा सो उसका बड़ा अपमान भया, इससे उसने चढ़ाई की है, और अपना दैवबल और पुरुषार्थ देखते भी वह बलवान है। और कृष्ण बलदेव ( बलभद्र ) का पुण्य सामर्थ्य तथा पुरुषार्थ वाल्यावस्था ही से लेकर जगत् में प्रसिद्ध है । परन्तु जरासिंधको मालूम नाहीं और Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * श्रीनेमिनाथका अपने जन्म भया, इन्द्रादिक देवोके आसन कम्पायमान भये, जिसका प्रभुत्व वाल्यावस्था ही विष तीन लोकमें प्रगट है। जिसकी सेवा विपं सकल लोकपाल सदा सावधान तिसके कुलको ऐसा कौनसा मनुष्य जो विघ्न करै, जिस कुलमें तीर्थङ्कर देव प्रकट होय वह कुल अपराजित है, किसी कर जीता न जाय ऐसा कौन है, जो विघ्न करै अग्नि को हाथकरि स्पर्श अग्नि तीव्र ज्वाला कर युक्त है, तैसे तीर्थङ्कर बलदेव वासुदेवके सम्मुख जीति की इच्छा कर कौन आवै, यह जरासिंध प्रति नारायण है । अर याक नाश करनेवाले अपने कुलमें ये बलभद्र नारायण उपजे हैं। इससे जबतक कृष्णरूप अग्नि विष वह प्रति नारायण रूप पतंग अपने पक्षसहित आपही आयकर भस्म न होय तबतक कालक्षेप करना थोग्य है क्योंकि राजाके पड़गुण कहै, संधि विग्रह २ यान ३ द्वैधीभाव ४ आसन ५ आश्रय ६ ( संधि ) अपनेसे शत्रुको प्रबल जान भद्र परिणामी जान संधि करना, मेल करना, ( विग्रह ) शत्रको अपनेको कमजोर समझ और शत्रको दुष्ट परिणामी समझ युद्ध करके जय प्राप्त करना (यान) Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २८५ राजा यह देखे कि इस समय शत्रु प्रबल है। हम सकेंगे नहीं कुछ दिन बाद सेनादिकोंका जोर बढ़ा लेंगे। तब युद्ध करेंगे। ऐमा विचार दूसरे स्थान सुरक्षित जगह पहुंच युद्धकी सामग्री जोड़नेके लिये जाना कुछ दिन कालयापन करना, दिन विताना ( यान ) है। (द्वैधीभाव ) शत्रुको दूसरेसे लड़ा देना, मित्र भेद करना, (आसन) अपने आसन पर दृढ रहना ( आश्रय) किमी प्रबल मित्र राजाका सहारा लेना ये षड्गुण कहै इनके पालन करने वाले सब यादवोंने एकमतो, एक मंत्र एक सलाह करके विचार किया, कई एक दिन हम तुम शूरवीर कृष्णको यहाँसे उठाय कर और जगह रखें, यह कृष्ण तीन खण्डका जीतनहारा योद्धा इस समय जरासिंधसे लड़ने समर्थ नाहीं, तिससे इस स्थानको तजकर हम तुम पश्चिम दिशाकी और निवास करें, सुरक्षित स्थान पकड़े कार्यकी सिद्धि निःसन्देह होय हम यह स्थानक तजें पश्चिम की ओर चले और जो वहाँ जरासिंध आवै तो रण विष नीकी पाहुणगति करै यह भी रणप्रिय है सो उसे रणविर्षे प्रसन्न करें यह (मंत्र) विचार कर अपने कटकमें सबोंको Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास कही आनन्द मेरो दिवाई आनन्द मेरीके नाद कर सबको चलनेका विचार जनाया, तब सबही लोक चलनेको उद्यमी भये, आनन्द भेरीका नाद सुन सबही प्रजा चारो वर्ण अपने कुटुम्ब सहित यादवों के साथ चलवेकुं उद्यमी भये, Raat यदुवंश अन्धकवृष्टिके और भोजकवृष्टिके चलवेको उद्यमी भये, मथुरा और शौर्यपुरके और वीरपुर के सबही लोक प्रस्थान करते भये, जैसे कोई क्रीड़ा के अर्थ वनवि जाय, तैसे देशतज विदेशको उद्यमी भये, अठारह कोटि घर और अप्रमाण धनके भरे राजाके साथ निकसे यादवों को राज्य ही प्रिय जिनको शुभतिथि शुभ नक्षत्र शुभ योग देखकर ये यादव भूपाल प्रयाण करते भये, यद्यपि बलदेव बासुदेवक मनमें यह विचार आया जो जरासिंध से अबही लड़, परन्तु बड़ोंकी आज्ञासे प्रयाण ही उन्होंने कही इस समय करनेका विचार किया तुम्हारी अवस्था नाहीं, तब ये बड़ोंके आज्ञाकारी उनके कहने से प्रयाण ही किया, सो अनेक देशनिकों उल्लंघिकर ये पश्चिमकी तरफ गये । सो विन्ध्याचलकं समीप डेरा किया । विन्ध्याचल काही भाग ( गिरनार पर्वत है ) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २८७ विन्ध्याचल जूनागढ़से हैदराबाद होता हुआ कर्णाट देश तक चला गया है । विन्ध्याचल गिरनारसे सौ पचास मील ही समुद्र है। वह विन्ध्याचल गजनिक बनकर रमणीक और जहाँ सिंह शाईल बहुत और जाका शिखर आकाशमें लग रहा है, सो वा गिरीकी शोभा प्रजाक मनको हरती भई और इनको निकसे सुन पीछेसे जरासिंध गया तब इन यादवोंने सुनी जो वह आया तब महा उत्सव करि यादव युद्धको उद्यमी भये, अल्पही अन्तर दोनों सेनाके रह गया तब तीन खण्डक निवासी देव माया भई सामथ्र्य कर विक्रिया रचते भये ठोर-ठोर जगह-जगह अग्निकी ज्वाला प्रज्वलित है। और यादवनिक समूह अग्निमें जरे हैं, और सब कटक जरे हैं। और अग्निकी ज्वाला कर मार्गमें रास्तागीर भी चलते न देखे. और एक देवी मनुष्यिणी का रूप धरें रोती दखी, तिससे जरासिंधने पूछा यह विस्तीर्ण कटक ( विशाल सेना ) किसकी जले है, और तं क्यों रोवे है, और तूं कौन है। इस भांति पूछी जब वह देवी बूढी कष्टकरि श्वांस लेती (नीठ-नीठ) कष्टसे कहती भई रोनेसे रुका है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ * श्री लॅवेचू समाजका इतिहास * कंठ जाका हे महाभागमें कहती हूँ सो तूं सुन महत्पुरुषक सामने दुःख निवेदन करनेसे दुःख निवृति हो। बड़े पुरुषोंके वचन मुननेसे ही दुख दूर होय है। एक राजगृह नगर वहाँका राजा जरासिंध वह पृथ्वीपर प्रसिद्ध समुद्र पर्यन्त उसका राज्य है और महा सत्यवादी है और उसकी प्रतापरूपी अग्नि प्रज्वलित उससे बैर करि समर्थकोंन और उसने यादवापर कृपा करनेमें कमी नहीं करी। परन्तु ये अपराधी भये सोये अपने अपराधकं भयसे कौन दिशामें चलं जांय । कोई भी शरण नहीं मिला तब अपना मरण ही जान अग्नि में प्रवेश कर भस्म भये । मैं उनकी दासी सो उनकी दुर्बुद्धिसे दुखी हो रोती हूँ। मैं इतनी बड़ी भई उनके साथ जल न सकी। अबतक जीनेकी आशा है प्राण न छोड़े जांय यादव सब ही प्रजासहित अग्निमें जलेमें दुखिनी स्वामीक वियोगसे दुखी हूँ ये वचन उस वृद्धा स्त्री के सुन जरासिंध आश्चर्य को प्राप्त भया । यादवोंका मरण जान पीछा लौट और सब यादवोंने यह दैवी घटना सुन यादव पश्चिम समुद्र के वनसे आये यादवोंने (यादवनृपोंने) समुद्र के तटपर डेरा किये एक दिन समुद्रके किनारे समुद्र Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २८६ की और करने गये तब समुद्रको देख बहुत प्रसन्न भये डेरा पर आये फिर एक दिन शुभ मुहूर्तमें समुद्र के तटपर स्थान की इच्छासे समुद्र तटपर श्री नेमीकुमार को साथ लेकर बलभद्र श्रीकृष्ण तटपर कुशासन बिछाय तीन उपवास धारत भये । तेला उपवास किया और णमोकार मन्त्रका जाप्य किया। समुद्रक तीर तिष्ठे तब सौ धर्म इन्द्रकी आज्ञासे गौतमनामा देव आय करि इनका बहुत सन्मान किया और कुवेरने इन्द्रकी आज्ञासे श्री नेमि जीनेश्वरकी भक्ति और पुण्य प्रकर्ष से तथा बलदेव वासुदेव (कृष्ण) के अतिशय पुण्यकरि द्वारावती द्वारिकापुरी निर्मापी (रची) १२ योजन लम्बी ६ योजन चौड़ी नगरी बस्ती जिसमें रत्नमुवर्णादि से रचे अतिसुन्दर राजमहल निर्मापे। और द्वारावतीमें राजमहल १८ अठारह खणके निर्मापे । मन्दिर के सामने बड़े चबूतरा सभामण्डप आदि बनाये और कुवेर कृष्णको एती वस्तु मुकुटहार कौस्तुभमणि पीतवस्त्र नक्षत्रमाला आभूषण कुमुदवतीगदा शक्ति नन्दकखड्ग सारंग धनुष और दो तरकस वज्रमयवाण दिव्यास्त्रसे भरा रथ ताड़पत्र के आकारकी ध्वजा छत्र इत्यादि दिये और १६ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * श्री नेमिकुमार छोटे सो इनके लिये देवोपनीत ऋतु ऋतुकी वस्त्रादि वस्तुयें लाते भये । बलदेवको दो नीलवस्त्र रत्नमाला मुकुट गदा हल मूशल धनुषवाण दो तरकस दिव्यास्त्र से भरारथ ताडपत्राकार ध्वजा तथा छत्र दीने और शौर्य्यपुर वालोंको शौर्यपुर मथुरा वालोंको मथुरा और वीरपुरके वासियोंको वीरपुर महल्ला टोला बसाये और कोट दरवाजे गोपुर द्वार आदि से सुशोभित बनाकर कुबेरादि देवोने यादवों से रहने की प्रार्थनाकी ये सब बस गये जिसमें सुन्दर कूप वावड़ी तालाब बन उपवन सुशोभित बनाये सुखसे निवास करने लगे पीछे जरासिंधको मालूम हुआ कि यादव जीते हैं और पश्चिम समुद्र तटपर द्वारावती द्वारकामें बसे हैं तब उसने यादवोंके पास प्रतिसेन नामादूत भेजा सो आश्चर्य कर भरी द्वारावतीमें प्रवेश कर जहाँ यादवों की सभा सब सामन्त और राजाओंसे भरी थी दूतने प्रणाम कर निवेदन किया चक्रवर्ती राजा जरासिंधने भेजा है और कहा है कि मेरा अपराध कोई है नाहीं आपने ही अपराध किया आप अपने अपराधके भय से समुद्र के किनारे बसे मैंने तिहारा क्या अनिष्ट किया जो भयमान समुद्रके Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लबेचू समाजका इतिहास * २६१ किनारे बसे । चक्रेश्वरकी आज्ञा है कि आप लोग आयकर मुझसे नवो और मेरी सेवाकरहु नहींमें आयकरि समुद्रकाहू पानकर जाऊँगा। तव बलदेव बासुदेव सब यादव टंढ़ी भोंहकर 'टेढ़ी भृकुटी कर बोले बाकी मृत्यु निकट आई है जो ऐसे गर्वके वचन कहेहै सो अब समस्त सेना सहित आओ हम भी संग्रामके अभिलाषी हैं तुम्हारी भलीभाँति पाहुणगति करेंगे। (तुम्हें मुधारेंगे) ऐसे वचन कह दूतको विदा किया और इधर समुद्र विजय के बड़े २ मन्त्री विमल अमल शार्दूल येतीनो मंत्री मन्त्रमें निपुण मंत्र करि राजा समुद्र विजयको कहते भये हे राजन् राजनीतिमें ४ उपाय है साम, दाम, दण्ड, भेद साम मृदुता सो अपनी और शत्रु की शान्तिके लिये हैं। सो जरासिंधसे सलाह करिये संग्राम न करिये तो नरसंहार न हो वे बहुत भला है। एकही कुलके सब हैं तब राजा कही क्या हानि है सलाह करो। तब एक लोह जंघनामा दुतको अपनी सेनासे सन्मानकर जहाँ मालवदेशमें सेनासहित जरासिंध आ गया था वहाँ भेजा वह दूत जरासिंधके पास जाकर सन्धिकी । बात करी दत महापण्डित इसके बचनसे प्रतिहरि जरासिंध Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * प्रसन्न भया ६ माहकी सन्धिमानी। छ महीनेके भीतर तुम युद्धका (सरंजाम) सामग्री कर लो दृतका बहुत सन्मान किया बहुत बक्शीस दी सो वह दूत आकर राजा समुद्र विजयादिकसे सब बात कही। जरासिंध और सैन्य सब राजाओं सहित कुरुक्षेत्रमें युद्ध करनेको आ डटा ( आकर डरा डाले ) यादव सावधान होकर अपने पक्षक सब राजाओंको सचित कर कुरुक्षेत्रमें चलनेका प्रयत्न किया (प्रोग्राम बनाया) इधर जरासिंध भी अपने मंत्रियोंको भीतरी भयसे (डाटता हुआ) उलाहना देता हुआ बोलो अहो मंत्री हो ये शत्रु अब तक क्या ढीलं छोड़े। ये शत्रु ममुद्र विपे क्षणभंगुर तरंगकी नाही वृद्धिको प्राप्त भये सो तुम मेरेको क्यों नहीं कहा कारण कहा मंत्री हैं सो राजाके मंत्र हैं सब तरफकी खबर मंत्री हलकारोंसे मंगाकर राजासे कहैं और मंत्री हो न कहै तो और कौन कहै मन्त्री राज्य के रक्षक होते हैं। मैं तो ऐश्वर्यक मदमें असावधान रहा। मैं जानता तो एते दिन शत्रु द्वारकामें क्यो रहै तुम लोग जानते हुए भी यह वात प्रकट क्यों न करी और जो तुम भी न जानी तो यह मन्त्रीपद केसा। मैं तो तुम्हारे Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २६३ भरोसे रहा सेवकका यह धर्म नाही जो स्वामीको शत्र मित्र निकी बात न कहै जो महा उद्यम करि राजा शत्रुओं का उपाय न करै तो (परिपाक) परिणाम फल विषे बड़ा दुखदायी होय जैसे रोग उपजा और तत्काल ही उपाय न कर तो रोग बढ़ जाय तब मिटना उसका बहुत कठिन (मुश्किल) पहिलं तो यादवनिने मेरा जमाई कंस मारा । दूसरे मेराभाई अपराजितको मारा अपराधकरि । समुद्रक शरण गये मेरे समुद्रक जीतनेक अनेक उपाय हैं जब तक मैं उपाय न करूँ तब तक मेरा शत्रु चाहैं जहां हैं और जो मैं क्रोध करूँ तो समुद्र में कैसे रह सके । इतनं दिन मैंने न जाना तातें (कुटुम्बसहित द्वारका रहै अबमें जानी तब मेरे बैरी कैस निश्चिन्त रहैं। ____ यातें अब तुम साम कहिये, सान्तता और दाम कहिये, दान देना ये दोऊ उपाय तो सर्वथा तजो और भेद कहिये तोड़ाफोड़ी और दण्ड कहिये, मारना ये उपाय निश्चय करो, ये अपराधी साम और दाम योग्य नाहीं यह बात सुनकर मंत्री नमस्कार कर धनी शान्तता उपजाय हाथ जौड़ विनती करी महीपति जरासिंध सो कही कि हे नाथ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * हम ऐसे सठ तो नाहीं। जो शत्रुओंकी खबर न राखें, परन्तु जानकर ही आपसो न कही यादवनके वंशमें तीन ३ पुरुष ऐसे जन्मे हैं। जिनकी देव सेवा करे हैं । उनको जीतने समर्थ देव और मनुष्य कोई नाही, प्रथम तो वाईस वे तोथङ्कर श्रीनेमिनाथ राजा समुद्र विजय रानी शिवदेवी के गर्भसे उपजे, जिनकी तीन लोक सेवा करै। फिर वसुदेवके रोहिणी रानीके उदरसे नवमें बलभद्र उपजे, और वमुदेवके ही दूसरी रानी देवकीके गर्भसे नवमें नारायण कृष्ण उपज हैं । ये तीन पुरुष महादुर्जय है जब श्रीनेमिनाथ गर्भमें आये, तब छ महीना पहिलेसे समुद्र विजयके घर रन वृष्टि हुई, पन्द्रह मास रत्न वर्ष तीन समय और जब जन्म भया तब, इन्द्रादिक देव सुमेरु पर ले जाय, जन्माभिषेक किया सो भगवान् त्रिलोकीनाथ तिनके माता-पिता सो कोई कैम जीते, और बलभद्र नारायणका सामर्थ्य, क्या आपके श्रवणमें नहीं आया जो शिशुपाल सरीखे योधा रणमें जीते और साढ़े तीन करोड़ योधा रणधीर एक राजा शरके वंशके हैं। और आप यह न जाने मेरे भयसे महा समुद्र में छिपकर रहे हैं। वे सबही बहुत बुद्धिमान न्यायभागी Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * २६५ हैं। देवबल समयबल बुद्धिवल सब उनमें हैं और दैव उनके सहाई है, सो हम जानी सोते नाहर (शेर) को न जगावे, ज्योंहैं त्योंही रहो, ऐसा जान हम देश काल विचार धीरे रहै। अपना और पराया बल विचारना समय विचारना, यही प्रशंसा योग्य है। हम यह विचार चुप रहै। सेवक वही जो स्वामीकी हितको कहै, अब आप उचित समझ सो कर यह कहि मंत्री चुप हो गये, जरासिंघने दूत द्वारावती भेजा और इतने कहा तथा यादवों का दूत आया, और छ माह बाद युद्ध ठहरा कुरुक्षेत्रमें युद्ध भया, प्रथमही जब द्वारावतीसे यादव प्रस्थान करनेको उद्यत हुये तब श्रीकृष्ण महाराज श्रीतीर्थङ्कर नेमिकुमार भगवान जो मति श्रुत अवधि तीन ज्ञानके धारक जन्मसे ही थे। उनसे युद्ध में विजय होनेकी पूछो, तब भगवान नेमिकुमार हँसमुख हो, मुसकाने तब श्रीकृष्ण अपनी विजय जान कुरुक्षेत्रको श्रीकृष्ण बलभद्रादि सबही यादव राजाओंने सेना सहित कुरुक्षेत्रको प्रयाण किया। यादवोंकी सेनामें यादवोंके मित्र सब यादवोंमें आय मिले। तहाँ कई एक दक्षिणदिशिके केई उत्तर दिशाके बड़े २ राजा अपनी सकल Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास सेना सहित केशवसे आय मिले दशार्ह अन्धक वृष्टिके पुत्र भोजक वृष्टिके पुत्र राजा समुद्र विजय श्रीनेमके पिता तिनके साथ अक्षोहिणीकं प्रति ६ हजार हाथी ६ लक्ष रथ ६ कोटि तुरङ्ग घोड़ा ६ अरब प्यादे इतनी सेनाके पति मेरु राजा seariant अधिपति राष्ट्रवर्द्धन देशका राजा अर्द्ध अक्षोहिणीका स्वामी सिंहल देश लंकाका अधिपति राजा पद्मरथ अर्द्ध अक्षोहिणीका पति और राजा सकुनका भाई चारुदत्त चोथाई अक्षोहिणीका पति और चरवर देश (चीर वेके) स्वामी यवन दशके आवीर देशके राजा कांभोज द्रविड़ मैसूर दशकं अधिपति हरि की पक्षमें आये । तहाँ यादवों के कटकमें समुद्र विजयकुमार श्री नेमिनाथका द्विमात भाई रथनेमि और बलभद्र नारायण ये तीन तो अतिरथ कहिये बाधाओं में श्रेष्ठ सवनिके शिरोभाग हैं, इनके तुल्य भरत क्षेत्र में कोई सुभट नहीं था और राजा समुद्र विजय वसुदेव युधिष्ठिर भीम अर्जन रुक्म ( रुक्मिणीका भाई) प्रद्य ुम्न कृष्णका पुत्र सत्यक धृष्टद्युम्न ( द्रौपदीका भाई ) अनावृष्टि ( कृष्णक बड़े भाई ) और राजा शल्य राजा भूरिश्रवा हिरण्यनाभि सहदेव सारण ये राजा सर्वशास्त्रों Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लैबेचू समाजका इतिहास * २६७ में और शस्त्रमें निपुण महा दयावान निवलसे न लड़ें अपनेसे समान ) बराबरी वाले या अधिकसे लड़ें, ये महारथी ये ( महारथी ) उसे कहते अकेला ही ११ ग्यारह हजार हाथियोंसे युद्ध करै, वह महारथी कहिये, और समुद्र विजयसे छोटे बसुदेवसे बड़े ८ भाई अक्षोभि आदि और शम्बुकुमार तथा भोज विद्रथ द्रपद ( द्रौपदीका पिता) सिंहराज शल्य वज्र मुयोधन पौंड पद्मरथ कपिल भगदत्त मेघ क्षेम धूर्त ये राजा समरथी थे, महानेमि अवर निषद उल्मु दुर्मुख कृष्ण क तिवर्मा राजा विराट चारु कृष्ण शकुनि पवन भानु दुःशासन शिखण्डी वाहीक सोमदत्त दव शर्मा वक्र वेणुदारी विक्रान्त इत्यादि राजा अर्द्धरथी थे। और जरामिंधक तरफ कर्ण दुर्योधन भीष्म कालयवन धृतराष्ट्र सब पुत्र इत्यादि सो जरासिंधने अपने कटकमें चक्रव्यूह रचा जरासिंधका सनापति हिरण्यनाभि ज़रासिंध क तरफ चक्रव्यूह रचा। चक्रव्यूह के सा, चक्रव्यूह कहिये, चक्रक समान वर्तलाकार ( गोल ) सनाका आकार रचा, चक्रक १ हजार अरा एक २ आरेक पास एक २ राजा हजार राजा और एक २ राजा के समीप सो १०० Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ * श्री लँबेचू समाज का इतिहास हाथी २ हजार रथ पांच २ हजार घोड़े और १६ सोलह २ हजार प्यादे और इससे चतुर्थ भाग चोतिहाई विभूति सहित छ राजा नेमि कहिये चक्रकी धुराको समीप तिष्ठ मध्य स्थानमें जरासिंधक डिंग कर्ण आदि पाँच हजार राजातिष्ठे उनके बीच में धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनादिक खड़े और भी राज समूह पूर्व भाग में तिष्ठ और भी बड़े २ राजा ५० चक्रधुरावे पठे चक्रव्यूहके बाहर अपनी २ सेना सहित और भी राजा खड़े तथा बैठे यह चक्रव्यूह प्रति नारायण जरासिंध के कटक में रचा यादवोंका सेनापति अनावृष्टि और यादवोंने अपने कटकमें गरुड़ व्यूह रचा गरुड़के आकार में सेना स्थापित की, पचास लाख कुमार चोंचके पास था वे और महावली बलदेव तथा कृष्ण गरुड़के मस्तक ठोर ठाड़े भये, और कृष्णकं भाई अक्रूर कुमुद सारण विलय जय पद्य जरत्कुमार सुमुख दुर्मुख और कृष्णकी बड़ी माता मदनवेगाका पुत्र दृढमुष्टि महारथी और महारथ विद्थ अनावृष्टि इत्यादि वसुदेवक पुत्र और वलदेव वासुदेव पीठ पीछेक रक्षक करोड़ों रथ सहित भोजवंशी खड़े बलभद्र और नारायण दोऊ रथपर चढ़े और Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २६६ भोजवंशो कष्णक पोछे गरुड़की पूंछको जगह खड़े हैं इनके पीछे धारणसागर इत्यादि बड़े-बड़े रणधीर खड़े हैं। और गरुड़की दाहिन पाँखके तरफ भ्रात पुत्रों सहित राजा समुद्रविजय बड़ी सेना सहित खड़े हैं और इनके पीछे महा भट्ट महा चतुर शत्रओंके मारने वाले राजकुमार खड़े हैं। उनके नाम सत्यनेमि, महानेमि, दृढ़नेमि, सुनेमि, नमि महारथ, महीजय, तेजसेन, जयसेन, जयमेघ, महाद्युति इत्यादि महारथी हैं और दशाह दशो भाइयोंकी सन्तान और राजा पञ्चीस लाख रथों सहित खड़ और गरुड़की वाई पांखके तरफ वलभद्रके पुत्र और पाण्डव बड़े धीर वीर ठाढ़े और दशरथ, देवानन्द, शान्तनु, आनन्द, महानन्द, चन्द्रानन्द, महावल, पृथुः, शतधनुः, यशोधन, विष्टशुः, दृढ़वंधुः, अनुवीर्य इत्यादि खड़े हैं। इनके पीछे चन्द्रयश, सिंहल, वर्वर, कंबोज, केरल, कुशल द्रमिल इत्यादि साठ हजार राजा रथ सहित महाभट दोऊ पक्षोंके आँखाँके रक्षक महापराक्रमी है। बहुरि राजा अमितभानु तोमर समरप्रिय सजय अकल्पित अपिभानु विष्णु वृहध्वज शत्रंजय महासेन गम्भीर गौतम वसुवर्मा कृतवर्मा प्रसेनजित् Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * दृढ़वर्मा विक्रान्त चन्द्रचर्मा आदि बड़े-बड़े राजा अपनी २ सेना सहित हरिके कुलकी रक्षामें खड़े थे। यह गरुड़व्यूह वसुदेवने रचा, बसुदेव महाप्रवीण महारथी चक्रव्यूह भेदनेको उद्यत भये और भी वसुदेव वलदेव तथा कृष्णको लिवाकर विजयाई पर्वतके दक्षिण उत्तर श्रेणीके राजा विद्याधरोके पास गये। वसुदेवके श्वसुर अशनिवेग हरिग्रीव विद्य द्वंग जो वसुदेवके मित्र थे वे सब आये और वसुदेवके शत्र जो विद्याधर राजा थे वे जरासिंधके कटकमें आये और यह सुन फिर प्रद्य नकुमार शंवुकुमार पौत्रोंको ले विजया में जो इनके मित्र थे सबको लाये। इन्द्रके भण्डारी कुवेरने वलदेवको सिंहविद्याका दिव्य शस्त्रांसे भरा हुआ रथ दिया और कृष्णको गरुड़ नामका रथ दिया । ____ आयुधोंसे पूर्ण इन रथों पर बैठे तथा सुभटोंका नायक सेनापति कृष्णका बड़ा भाई अनावृष्टि तथा अर्जन समुद्रविजयादि सब राजाआंने विद्याधर राजाओंको ( अगवानी) अगाड़ी जाकर ले आये सब सहायक भये । युद्धके वाद्ययन्त्र वादित्र दोऊ सेनामें बजने लगे, महायुद्ध भया, बहुत संग्राम भया जरासिंधका चक्रव्यूह भेदकर कृष्ण वलभद्र जरासिंधके Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३०१ पास पहुँच गये । उसके शस्त्र सब छेदे, आखिरमें जरासिन्ध सुदर्शनको चलाया। उसके निवारणके लिये यादव पक्षक सब राजा कृष्ण वलभद्रादि शस्त्र ले-ले कर खड़े भये । वह चक्र किसीसे न रुका चला ही आया जिसकी देव रक्षा कर, परन्तु वह चक्र श्रीकृष्ण नवमें नारायण थे इनके पुण्यक प्रकर्षसे वह प्रदक्षिणा देकर कृष्णकं दाहिनी तरफ आकर दक्षिण हाथमें आ गया। तब जरासिन्ध विचारता भया कि देखो संसारकी दशा जो मेरा परम सहायक था, जिससे मैंने तीन खण्डक राजा वश किये वही मेरा पण्य क्षीण होनेसे शत्रुके पास चला गया। धिकार है इस संसारकी मायाको ! तपश्चरण कर मैंने सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्ररूप मोक्षमार्गका अवलम्बन कर अपना हित न किया फिर क्षत्रियों के मान ही धन होता है सो क्रोधमें आकर कृष्णसे कहने लगा-देख गोपोंके पला गोप चक्र क्यों नहीं चलाता ? तब कृष्णने चक्र चलाकर घात किया। चक्र जब कृष्णके हाथमें गया था देवोंने ऊपरसे पुष्पवृष्टि कर दिव्य ध्वनि की थी-कि ये नवमें नारायण बलभद्र हैं विजयी होंगे। जरासिन्ध नवमा प्रतिनारायण Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * था नवमें नारायण कृष्णकं हाथसे मरण निश्चित था मारा गया। जब ये सव यादव हर्षितभये कृष्णने पांचजन्यशंखवजाया सेनामें जयके वादित्र वाजे कुवेर कृष्णकी आज्ञाले देवलोकमें गया जरासिंध को मृतक पड़ा देख कृष्णके अश्रुपातभया ( आँसू आये ) देखो संसारकी विचित्रगति है सवराजा लोग कृष्णकी आज्ञालेय अपने २ स्थान गये समुद्र विजय वसुदेवादिक कृष्णके पास आये हर्षित होते हुये कृष्ण सबके पैरों पड़े प्रणाम किया सव बड़े भाइयोंको प्रणामकर विनय किया और उस क्षेत्र में आनन्द भया आनन्दपुर वसाया तथा सव गादव लोटकर द्वारावती आये महान उत्सवभया तव कृष्णने जरासिंधके पुत्र सिंहदेवका राज्याभिषक कराय राजगृहका राज्य दिया उग्रसेनके पुत्रको मथुराका राज्य दिया हस्तनापुरका राज्य पाण्डवोंको दिया आनन्दपुरमें जिनमन्दिर कराये द्वारावतीमें सुखसे रहने लगे एक दिन श्रीनेमिकुमार स्नान करिचुके तव कृष्णकी ८ पट्टरानियोंमें से जाम्बुवती पट्टरोनी अपनी भावजसे कहा कि धोती धोदेउ तव जाम्वुवतीने नेमिकुमारसे गर्वके वचन कहै कि Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३०३ हम उनको धोती धोती हैं जो नाग सय्यादलते हैं और पांचजन्य शंखपूरते हैं तब नेमिनाथ कुमार चोलमें आकर तुरन्त चले गये और नाग शय्या दली तथा शङ्ख इतने उच्च स्वरसे वजाया जो जहाँ राजसभामें कृष्ण महाराज वैठे थे। सिंहासनपर शंखको धनि सुन सारी सभा अचंभेमें आगई यह शंखध्वनि किसनेकी दौड़कर नागशय्यापर पहुंचे देखा कि श्रीनेमिकुमार खड़े हैं इन्हींने किया तपास किया ऐसा क्योंकिया मालम हुआ कि जाम्वुवतीने गर्वके भरे वचनकहै इससे ऐसा हुआ कृष्ण महाराजने जाम्बुवतीको फटकारा और श्रीकृष्णने अपने मनमें विचार किया कि ये सर्वमान्य है इनकी देवसेवा करते हैं इनके सामने हम राज्य कार्यमें कैसे शकेंगे दूसरे निमित्तज्ञानी ज्योतिषीने यह पहिले ही कहि दिया था कि ये विरक्त हो जायँगे इससे श्रीक ष्ण बड़े भाई थे उमरमें बड़े थे इन्होंने जल्दीसेही राजा उग्रसन की पुत्री राजमती राजकन्यासे श्रीनेमिकुमारका सम्बन्ध स्वीकार करालिया और विवाह रचदिया जूनागढ़ वारातचली श्रीनेमिकुमार मोरमुकुट केशरिया जामा आदि विवाहक रशमें पूरोकर रथमें विराजमान होकर जूनागढ़ को चले Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * श्रीकृष्णजीने उधर एक विरक्त करनेके लिये षड्यंत्र रचा, कुछ पशु बन्धनमें डाल दिये, जब बारात तोरणमें पहुंची, उन पशुओंका बन्धन देख दयाक संचारसेद्र वीभृत हो, विरक्त हो, सब मोर मुकुट पशुओंका शब्द प्राकार सुन कङ्कणादि डालकर गिरनार पर्वत पर तपश्चरण करनेके लिये चले गये। श्रावण मुदी गुजराती जो यहाँ चले आषाढ़ सुदी ४ होती है। जैनेश्वरी (दिगम्बरी ) दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे। यह बात राजमती सुन पर्वत पर उनके पास पहुंची, बहुत विनती करी, पर विरक्त पुरुषको क्यों स्वीकार हो । अन्तमें वह भी विरक्त होकर आर्थिक व्रत धारण कर तरश्चरण करने लगी। अब भी गिरनार पर्वत पर गुफामें राजमतीकी भी मूनिहै । और श्रीनेमिनाथ भगवान्ने उग्र २ तपश्वरण कर शुक्ल ध्यानक बलसे ज्ञाना वरणादि अष्टकमी से ४ कर्मज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय अन्तराय इन चारोंको नष्ठ कर अर्द्धन्तेनारयो यस्मात् अर्द्ध नारीश्वरोस्यतः ) आधे ४ घाति या कर्मज्ञानवरणादि जो ज्ञान दर्शन वीर्य सुखको धातते थे। उनका नाशकर अरहंत पद पायो अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सुख Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३०५ अनन्तवीर्य अनन्तचतुष्टयरूप अंतरङ्ग लक्ष्मी और समवसरण सभा जो इन्द्र आकर रचता है। १२ सभा बीचमें १२ दरी और वीचमें सुगन्धमय गन्धकुटी तीन पीटदार ऊपर पीठके गुमठीदार शिखर ऊपर पीठपर सिंहासन उसके ऊपर अधर ४ अंगुल भगवान् विराजते चारों तरफ बारह दरी और उसकी चोगिरह एक के बाद एक ६ भूमि होती । प्राकारो नाट्यशाला द्वितयमुपवनं स्तूप हावलीच २। मानस्तंभाः सरांसि प्रविमल विलसत्खातिका पुष्पवाटी १ शालः कल्पद्रुमाणां । इत्यादि श्लोक हैं। (समवसरण) का कुछ संक्षेप लिखते हैं। चारों दिशाओंमें चार दरवाजे प्रत्येक दरवाजके आगे एक एक मानस्तन्भ श्रीनेमिनाथका समवसरण (उपदेश सभा) डंढ़ योजन छ कोशके प्रमाणमें था। कमलके समान गोल होता है, प्रथमही हम दरवाजेसे ही संक्षपमें कथन लिखते हैं । प्रथमही पहले दरवाजेसे दो दो कोशके विस्तार लिये चारों दिशाओंमें राजमार्ग थे तीन राजमार्गके प्रारम्भमें ही तीन पीठ तीन २ कटनीदार पीठ पद्म रागमणिके लाल थे। वर्तलाकार गोल आधा कोश चौड़े, दो कोश Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ऊँचे पीठ तिसपर मानस्तम्भ तिनपर जिनविम्ब जिनका कोशोंसे दर्शन हो, जमीनसे ५०० धनुष ऊँचा समवसरण होता है। मानस्तम्भपर धजदण्ड मान स्तम्भके आगे चारों दिशाओंमें ४ तालाब और तालाबोंके आगे पर कोटा वज्रमयी चोगिरद परिक्रमा रूपमें परकोटाके भीतर खाई और खाईके आगे वेलाफल मणिकावन और वेलावनके आगे सुवर्णमयी कोट उस कोटमें चारों दिशामें चाँदीके ४ दरवाजे और दरवाजोंके दोनों तरफ मणिमई तोरण एक-एक दरवाजेमें छत्र, चमर, कलश, झाड़ी, दर्पण, थल, वीजना, स्वस्तीक, ध्वजा ये आठ मङ्गल द्रव्य सुसज्जित हैं और दरवाजेके घुसते ही दोनों तरफ नाट्यशालायें गान विद्याकी नाट्यशालाकं आगे चारों दिशाओं में ४ वन अशोक वन, सप्तपर्ण, (सप्तच्छद) चंपक, आम्र, इन वनोंमें मनोहर नावड़ी वेवावड़ी तोरण दरवाजे सहित सुशोभित हैं। नन्दा १ नन्दोत्तरा २ नन्दवती ३ अभिनन्दनी ४ आनन्दा ५ नन्दघोषा ६ ये अशोक वनमें विजया १ अभिजया २ जयन्ती ३ वैजयन्ती ४ अपराजिता ५ जयोतरा ६ सप्तपर्णवन में कुमुदा १ नलिनी पद्मादि छ वावड़ी चम्पक Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३०७ वनमें प्रभासादि ६ वावड़ी आम्र वनमें और इसके आगे स्तूपभूमि जिसमें जिन विम्ब सहित स्तूप ही स्तूप है और माला मृगेन्द्र कमल आकाश गरुड हस्तीबैल सूर्य मयूरहंस इन दशचिन्होंको लिये स्तूपोंपर ध्वजाये हैं। फिर दूसरा स्वर्णमई कोट हैं, उसके आगे भूमिमें दश प्रकार कल्प वृक्ष हैं | आगे नवरत्नोंकी स्तूप भूमि है, दरवाजों पर द्वारपाल देव हैं। आठ-आठ चारों दिशाओंमें और तीसरा कोट स्फटिक मणिका है। उसके अगाड़ी अनेक सुगन्ध पुष्पनिके वन उनके आगे जयाङ्गण जिनमें हजार-हजार स्तम्भ है। सब जगह भव्य जीव धर्म कथा करते हैं। अगाडी बारह कोठदार बारह दरी जिनमें देवदेवी मनुष्यिणी पशु तथा मुनि साधू आदि सब प्राणी बैठते हैं। प्रथम सभामें वरदत्तादि गणधर और मुनि, दूजीमें कल्पवासी देवनिकी देवियाँ, ३ में आर्यिका राजमती आदि तथा श्राविकायें चोथी सभामें ज्योतिषी देवोंकी देवांगनायें, ५ वी में व्यन्तर देवोंकी देवाङ्गनायें, ६ सभामें भवनवासियांकी स्त्रियाँ, ७ वी सभामें दश प्रकार भवन वासीदेव, आठ वीं में अष्ट प्रकार व्यन्तर, ६ में पञ्च प्रकार Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ज्योतिषी देव, १० वीं में सौधर्मादि १६ स्वर्ग तक देव, ११ वी सभामें बलदेव, वासुदेव आदि राजागण, १२ वीं सभामें सिंह गजमृग वृपभादिक थलचर हंत गरुडादि नभचर आदि अनेक जातिक नभचरतिष्ठे सिंही सुत स्पृश्यति पुत्रधियाकुरंगी । जिनकं जाति वैर मिट जा सिंही मृगवच्चको गो सिंघिया। व्याघ्रीतनुजमपि गौ बरहा विमली। इसके बीचमें तीन कटनीदार ( भगवान् गन्धकुटी) होती है, दिब्य मुगन्धमयी होती है। उस गन्ध कुटीमें सिंहासन उसके ऊपर भगवान् चार अंगुल अघर विराजते हैं। समवसरणमें भगवान् होके सब प्राणियोंको वीतराग जिनधर्मका श्री नेमिनाथ भगवान्ने ज्ञानावरण आदि चार घातियाँ कर्मोंका नाश कर, सर्वज्ञ होकर, अर्हत् पद प्राप्त कर उपदेश दिया-जो प्राणीमात्रके लिये हितकर है। यह समवसरण सभा इन्द्रकी आज्ञासे कुबेर रचता है। भगवान्की तीर्थङ्कर प्रकृतिके प्रकर्ष पुण्यके उदयसै, समस्त प्राणियोंके भाग्यके उदयसे अनक्षरी मेघगर्जनावतु दिव्य ध्वनि खिरती है, और सब कानोंमें जानेसे देव मनुष्य Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँवेचू समाजका इतिहास * ३०६ पशुओंकी भाषा रूप हो जाती। सब प्राणी पशु तक समझते हैं . जैसे मेघ बरसता है तो जलका तो एक ही रूप होता है, परन्तु जैमा. वृक्ष होता है उसी रूप रस होकर उसको पुष्टि करता है। उसी माफिक सबकी भाषा रूप हो सबकी समझमें आती है और फिर उसीको विशेष रूप गणधरमति श्रत अवधि मनःपर्यय चार ज्ञान के धारक गणेश सब जीवोंको अक्षर रूप करके समाधान करते हैं। श्री नेमिनाथ भगवान् आश्विन शुदी १ को केवल ज्ञान प्रकाशमान हो सर्वज्ञ पद, अरहंत पद प्राप्त भया। सबको जिनधर्म, वीतरागधर्म, अहिंसाधर्मका उपदेश दिया, इसीसे त्रिलोक पूज्य हुए। जब तक संसारी प्राणी अपने आत्माको नहीं जानता, नहीं अनुभव करता, तब तक यह मंमारके कार्योंको ही उपादेय श्रेष्ठ समझता। चेतनमें जड़ वृद्धि और जड़में चेतन बुद्धि धरता। माही, क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी होकर अपना भी घात करता और पर जीवोंका घात नुकसान कर अपनेको अच्छा मानता। यहाँ तक पतित हो जाता है कि प्राणीके घात करनेमें और मद्य-मांस-मधु सेवन, हिंसा, Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * झूठ, चोरी, कुशील व्यभिचार, अधर्म उत्पादक ऐसे धनग्रहादि परिग्रहके जोड़नेमें खुशी होता। अपने समान दूसरे प्राणीको नहीं समझता। हमारे चाकू लगता है, तब दर्दका अनुभव करता हुआ रोता है, तो दूसरेके ऊपर छुड़ी चलानेमें दुख न होगा यह नहीं विचार करता और पाप करता है। खुशी होता है। उस कर्तव्यका जब फल मिलता है, तब रोता है। यही संसार है । संसारमें सबके साथ भलाई करना और अपना हित देखना जिनधर्म का उपदेश है। मोह, राग-द्वेष ही प्राणीके अहित करते हैं, इसे छोड़ो यही जैन धर्म का मूल है उसूल है। इसको संसारी प्राणी नहीं समझते जो प्राणी जीव मात्रको हितकर है, फिर न जाने क्यों जिन धर्मके उपदेश लेते। खेद है भगवान्ने सबको उपदेश दिया उस समय बलदेव ( बलभद्र ) महागजने भगवान्को नमस्कार, पूछा कि हे भगवन् यह द्वारकापुरी देवोंने रची है, इसकी कितनी स्थिति है। तब भगवान्की वाणीमें उत्तर हुआ कि यह द्वारावती १२ वर्ष बाद दीपायन मुनिको यादव तालाबमें महुआ चुयेगा, उस पानीको पीकर मुनिको बेहोशीमें ईटों Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३११ से ढक देंगे दीपायनको क्रोध आ जायगा, जब द्वारका भस्म होगी, जर यादव और मुनि सब भस्म हो जायंगे, तुम और कृष्ण बचोगे, आषाढ सुदी ८ को कृष्णकी मृत्यु कौशाम्बोके वनमें जरत्कुमारके तीर लगनेसे होगी भगवान् गिरनारसे विहार कर गये, सब जगह समवसरण सहित जाकर उपदेश दिये। अगणित जीवोंका उद्धार किया फिर विहार काके लौटकर गिरनार पर्वत पर (गिरनारको) उज्जयन्त भी कहते हैं। उस गिरनार पर आकर योगी निराध कर, निर्वाण पदको प्राप्त हो, अपने शुद्ध स्वरूप अनन्त गुणादि स्व विभूतिको प्राप्तकर अनन्त सुखको प्राप्त होकर लोक शिखर सिद्धालयमें विराजमान हुये। इधर १२ वर्ष होने पर द्वारका भस्म न भई कारण १२ वर्षमें ४ मलमास बढ़ जाते हैं उनको गिना नहीं। विनाश काले विपरीत बुद्धि हो, लौटकर फिर द्वारिकामें यादव आ गये और दीपायन मुनि भी द्वारका उद्यान वनमें योगधर तिष्ठे यादव सब महुवे वाला तालावका पानी पीकर उन्मत्त हो दीपायन मुनिको सताया, मुनि क्रछ हुये वामभुजासे तैजस पुत्तल, अग्नि रूप निकलकर द्वारका भस्म करी, जो Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * यादव सब जितने द्वारकामें थे, भस्म भये और दीपायन मुनि भी भस्म हो गये। नरक गये उस समय श्रीकृष्ण वलभद्रने विचारी कि माता-पिता देवकी और वसुदेवको निकाल लावै तो रथमें बैठार कर लाये । तब आकाशवाणी भई कि तुम दोऊ ही बचोगे और कोई नहीं, ऐसी आवाज होते ही द्वारकाका दरवाजा गिरकर वसुदेव देवकी पर पड़ा मर गये। जब श्रीकृष्ण वलदेव निकल आये, आग बुझानेको समुद्रको काटि जल लाये। जल घोके माफिक जलने लगा समुद्र काटि मींचे वलवीर घी लो जले समुद्रका नीर सब उपाय निष्फल गये। जब पुण्यके उदय आया द्वारका इन्द्रकी आज्ञासे कुवेरने बनाई, जब पुण्य क्षीण भया पापका उदय आया भस्म हो गई। यह संसार पाप और पुण्य (धर्म ) का खेला है, इसलिये प्राणी सुख चाहते हैं तो धर्म करो जिससे सुख हो । वर्तमानमें अंगरेजोंनेजब भारत ( हिन्दुस्थान ) में आकर प्रजाका पालन ( अनुशासन ) ठीक किया, तब प्रजा अनुकूल रही और जब स्वार्थ बुद्धिसे प्रजाको तङ्ग किया, प्रजा दुखी हुई। तब प्रजाने अहिंसाधर्मके बलसे सत्याग्रह ठान लिया। अंग्रेज Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३१३ भागे चले गये, देरी नहीं लगी। जिनको लोग यह कहते थे कि बड़ी शक्ति है, सेनादिकी तिन्हें जाते देरी न लगी । प्रजातन्त्र राज्य हो गया, पाप पुण्य (धर्म) का विचार करो कि जिन्ही गान्धीजीने सत्याग्रहकी शिक्षा देकर प्रजातन्त्र राज्य कराया, पुण्यका उदय भया संवत् १२७५ से राज्यकाल शास्त्र त्रैलोक्यसार आदिमें लिखा था । जन्मपत्री भी दी थी पहिले हमारे मामाने पं० मुंशी नाथूराम पचोलयेने उतार कर रखी थी, हमने देखी थी पीछे वह हमसे खो गई फिर हम संवत् १६८५ में खुर्जा में भाद्र मासमें दशलक्षण पर्वमें लोग हमें ले गये, तब हमने खुजाके मन्दिर में देखी शास्त्रमें ( जैन सिद्धान्त में ) हजार वर्ष बाद कल्कीका होना लिखते हैं और ५०० पाँच Haबाद अकल्की होना लिखा है । तव श्रीवर्द्धमान महावीर भगवानको मोक्ष गये ढाई हजार वर्ष हुआ तो उसी हिसाब से गान्धीजी ही अकल्की ठहरते थे और हमने देखा भी गान्धीजीका दबदबा वि० सं० १९७५ से ही विशेष चला । जब कलकत्ता में एनीवेसेण्ट आई थी और बड़ी धूमधामसे ६ घोड़ा लगाकर गाड़ी निकाली गई थी । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * उसी समयसे महात्मा गान्धीजीका दबदबा बढ़ा था । श्रीमान रानीवाले सेठि खुर्जावाले पद्मराज जैन भी सत्याग्रह में जेल गये थे। जबहीसे स्वराज्यका दवदवा विशेष रूपसे चला। हम बाबू पद्मराज जैनके मकानमें कलकत्तमें रहते थे, तब उन्हें जेल में देखने जाते थे, स्वराज्यवादी लोग जो खाद्यपदार्थ चाहते थे गवर्ममेंटको वही पहुंचाना पड़ता था। हमको मुन्नालाल द्वारकादासका घी चाहिये, अम्बरसरी चावल चाहिये, तो खानेके लिये स्वराज्यवादी सत्याग्रहियों को दिया जाता था, तो गान्धीजीका राज्यकाल १६७५ से बढ़ा और संवत् २००३ और २००४ में पूर्ण स्वराज्य मिल गया, भारतीय प्रजाको जब तो गान्धीजीका पुण्य प्रकर्ष था और पुण्य क्षीण हुआ तो गोड्से द्वारा धोखेमें गोलीसे मारे गये। जिस प्रजाके लिये इतना किया और उसी प्रजाके मनुष्यने कृतघ्नता देकर समाप्त कर दिया। यह पुण्य पापका खेल नहीं तो क्या है, इसलिये जीवको धर्मका हमेशा ख्याल रखना चाहिये। इसी प्रकार द्वारका भस्म हो गई कृष्ण वलदेव महाराज द्वारावती स्थानसे चलकर कौशाम्बीके वनमें चलते-चलते पहुँचे, वहाँ कृष्ण महाराजको Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * पानीकी प्यास लगी। श्रीवलदेवजी पानीका निमाण ढूंढते पानी लेने गये, इधर श्रीकृष्ण महाराज ऐसा विचार कर कि पश्चिम तरफ तो गिरनार परवत है। श्रीनेमि भगवान्का निर्वाण क्षेत्र है, और पूर्व में श्री सम्मेदाचल (सम्मेद शिखर) श्रोपार्श्वनाथादि असंख्य तीर्थकर और मुनि मोक्ष पधारे हैं पैर नहीं किये और उत्तर तरफ कैलाश है, जहाँ श्री ऋषभदेव जिनके बैलका चिन्ह था वे ऋषभदेव भगवान् मोक्ष गये हैं, जिनको कैलाशपति महादेव कहकर अब भी भगवतके पञ्चमस्कन्धमें लिखित श्री ऋषभावतार मान पूजते हैं । बैल नादिया जिनका जगत् प्रसिद्ध है, और केशरियानाथ श्री ऋषभदेव तीथमें ऋषभदेव जिनमन्दिरमें श्रीऋषभ देव जिन भगवान्की पद्मासन श्यामवर्ण करीब ४ पांच फुट को मूर्ति है। हम संवत् १९७८ में यात्रार्थ गये, तब पूजन किया। वहाँ उस मूर्ति मन्दिर वेदीके अगाड़ी मण्डपमें पूजा करते हैं और उसके आगे दालानमें वैष्णव हिन्द भाई पूजा करते हैं। भागवतका चबूतरा बोलत हैं, आगे उचास दालानमें हाथी पर श्रीऋषभदेवकी माता मरुदेवी और पिता नाभि राजाकी मूर्ति है । मरुदेवीके मूर्ति अवश्य Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * है नाभि राजाकी मूर्ति हाथी पर है, कहाँ है ख्याल नहीं रहा या हाथी पर ही दोनों हैं और जिन मन्दिर दरवाजे के बाहर एक पत्थर छोटा गढा है, उस पर मुसलमान भाई पीर मानकर पूजत हैं । यह क्षेत्र तो उदयपुरसे पहाड़ी रास्ता जाकर चित्तौड़ राज्य राणाओंके राज्यमें हैं। और कैलाश पर्वत पर जो हिमालयकी तरहटी समझी जाती है, उस कैलाश पर्वतके प्रारंभ क्षेत्र पर जो बद्रीनारायणकी मूर्ति है और जिन मन्दिर है। जहाँ लक्ष्मण झला पार कर जाते हैं। हमारी समझमें सगरचक्रवतीके ६० हजार भागीरथ आदि पुत्रोंने कैलाशको अगम्य करनेके लिये खाई खोदी थी और खोदते-खोदते उस पहाड़क टूटनेसे ६० हजारह पुत्र दबकर मर गये थे कंवल अकले १ भागीरथ बचे थे जिनकी कहावत हैकि गंगा तो आनेवाली ही थी, भागीरथक सिर चढ़ी यह वहीखाई लक्ष्मन झलाहै। इसखाई खोदनेका जिकर (वृत्तान्त) जैनहरिवंश पुराण या पद्मपुराण आदिपुराणमें किसी एकमें है। हमने पढ़ा है, सुना है, वही लक्ष्मणको पार कर बद्रीनारायण अब बोले जाते हैं। सारा संसार जिन्हें पूजता है; वह बद्रीनारायण Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचूसमाजका इतिहास * ३१७ की श्रीऋषभदेवकी श्याम वर्ण मूर्ति है, पद्मासनपलाके नीचे बैलका चिह्न है। शृङ्गाररहित निरावरण । ___दर्शनके समय पलाथी मारे, हाथ पे हाथ धरे, नाशाग्र दृष्टि, सिरपर चाँदीका बड़ा छत्र फिरता ऐसे दर्शन हमें भिंडके लाला वैद्यजीने मुंदड़ीमें कराये थे। अब भी हमारे गुहराई मुहल्लामें महादेवकी तिवरियामें एक साधु क्षत्रिय रहते हैं, वे भी दिखाते हैं तथा एक हिन्द वैष्णव अग्रवालकी पुत्री जो जैन अग्रवालके ब्याही लक्ष्मीबाई जो आजकल कोडरमा रहती है। वह भी कहती है कि मूर्ति जिनमूर्ति ऋषभ भगवान् की है। जिनको सब बद्रीनारायण कर पूजते हैं और भी भिंडके देवदत्त, अग्निहोत्र कान्यकुब्ज ब्राह्मण बद्रीनारायण गये थे, वे कहते थे और कई महेश्वरियोंसे पूछा सब जैन मूर्ति कहते हैं। उनके शिर ऊपर जलकी धार पड़ती है और गंगोत्रीमें आती है। गंगाका जल प्रवाहमें आती है, गंगाका जल बहुत माना जाता है। वर्षों रखने पर भी कीड़े नहीं पड़ते । श्रीऋषभदेव भगवान्की मूर्ति पर गंगाकी धारका पड़ना इसका जिकर कथन जैनपुराणमें है। इस हेतु श्रीकृष्ण महाराजने Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * उत्तर तरफ भी पद ( पग ) न किये। किन्तु दक्षिण तरफ पैर ( पद कर ) पैर पे पैर रखकर सोये पीताम्बर ओढ़े थे सो उस समय जरत्कुमार वनमें भ्रमण करते हुए उधर आ निकले । दूरसे उन्होंने तीर चलाया । वह तीर श्रीकृष्णकी पगथली में लगा और पदमें गहरी चोट आई। श्रीकृष्ण महाराज जोर से चिल्लाकर कहने लगे कि कौन हमारा बैरी आ गया जो पैर में तीर दिया। आवाज सुनते ही जरत्कुमार दौड़कर आये देखा कि कृष्ण हैं । भगवानने जो दिव्य ध्वनिमें कहा था कि द्वारिका भस्म होगी और कौशाम्बीके वनमें जरत्कुमारके तीरसे कृष्णके प्राण जायेंगे वह दिन उपस्थित हो गया। जिस कारण मैंने द्वारावती छोड़ी और वनवन भटकता फिरता रहा कि ऐसा मौका मुझे न मिले, वही दिन उपस्थित हो गया । श्रीकृष्णने समाचार कहै कि द्वारका भस्म हो गई और मैं फिरता फिरता वनमें यहां आ गया बड़े भाई वलदेव पानी लेने गये हैं वे ऐसा हाल देखकर तुम्हें मार डालेंगे हमलोगों में हमारी जानमें तुम्ही एक वसुदेवकी सन्तानमें बचे हो । अब तुम दक्षिण मधुरामें पाण्डवोंके निकट जाओ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३१६ उनसे सब समाचार कहना ये मेरी कौस्तुभ मणि ले जाओ वे तुम्हारा राज्याभिषेक कर राज्य पदपर बैठायेंगे तुम बड़े भाई हो ऐसा कहकर जरत्कुमारको विदा किया और अपने संसारकी विलक्षणता और विनश्वरता पर विचार करने लगे कि देखो इस संसारमें जन्म धारण कर आत्मकल्याणके लिये तपश्चरण नहीं किया। लड़ाईके झगड़में ही रहे पहिले कंससे युद्ध भया फिर जरासिंधसे फिर कौरव पाण्डवों के युद्ध में पाण्डव कृष्णकी बुआ कुन्ती तथा मान्द्रीके पुत्र थे। इस प्रकार मोह क्रोध राग द्वपके वशीभूत संसारके दुख उठाता है। इतने में ही स्मरण आया कि जरत्कुमार हमको मार जावे क्रोधावेशमें प्राण निकल गये । ऐसा लेख महाभारतमें भी है कि जरतकुमारके तीरसे प्राण गये और इन कृष्ण महाराजका आत्मा भविष्यत कालके तीसरे सुप्रभदेव नामके तीसरे तीर्थङ्कर होंगे। भविष्यत् तीर्थङ्करी की पूजामें उनकी आत्मा सुप्रभदेवकी भी पूजा होती है स्वरूप भेद है। वलदेव महाराज पानी लेकर आये तो भाईको मरा पाया बहुत दुखी भये बेहोश हो गये। होश आने पर मोहवश उनके शरीरको ६ माह तक लिये फिरे। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० * श्री लबेचू समाजका इतिहास कभी उन्हें खिलाने बैठे अनेक खाद्यपदार्थ रख, परन्तु खाय कौन मुर्दा शरीर क्या करें। कुछ नहीं ६ माह बाद पाण्डव और कुन्ती आई बलदेवजीको प्रति बुद्ध किया । कृष्णका शरीर जलाया, नवमें नारायण थे । नारायणका शरीर ६ महीना तक सड़ता नहीं, पोछे सड़ने लगता है । तबतक जलाय ही दिया वलदेवजी विरक्त हो जैनी दीक्षा धारण कर दिगम्बर मुनि हो गये तपश्चरण करने लगे । श्री नेमिनाथ भगवान् कुछ दिन विहार कर सब जगह समवसरण सहित जाकर उपदेश दिया । अनगणित जीवोंका उद्धार किया । फिर विहार करके लौटकर श्री गिरनार पर्वत पर ( गिरनारको ) उज्जैन भी कहते हैं । उस गिरनार पर आकर योग निरोध कर आषाढ़ सुदी ८ को निर्वाण-पदको प्राप्त कर अपने शुद्ध स्वरूप अनन्त गुणादि स्वविभूतिको प्राप्त हो, अनन्त सुखके भोक्ता हो लोक शिखर सिद्धालय में विराजमान हुए और बलदेवजी दुर्द्धर तपश्चरण कर, समाधि मरण कर ५ वें स्वर्ग ब्रह्मस्वर्ग में पद्म विमानमें देव हुए । वहाँ संचय मनुष्य हो मोक्ष जायेंगे और गिरनार पर्वत पर जिस स्थान से मोक्ष गये, Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३२१ उस स्थानपर इन्द्रवज्रसे चिन्हकर इन्द्रादिक देव निर्वाणमहोत्सव कर अपने अपने स्थातको चले गये। उसी स्थान पर गिरनार पर पांचवीं टोंक है। गुमठीदार टोंक है। जिसके दरवाजेमें दरबाजेके दोनों तरफ चमर ढोरते इन्द्र खड़े हैं। गुमठीमें चरण बहुत बड़े २ पुराने हैं। उसी गुमठीसे सटी हुई छोटी भित्तिमें पहाड़में कुली हुई श्रीनेमि नाथ भगवान् की हाथ पर हाथ रखे पद्मासन मूर्ति है। करीब डेढ़ फुट एक हाथ या डेढ़ हाथ ऊँची मूर्ति है । टोंकके बगल में उत्तर तरफ एक बड़ा भारी घंटा टँगा रहता है, उस टोंक गुमठी की उत्तर तरफ छोटी सी एक इश्च चौड़ी गुमठी की लंबाई बराबर नाली बना रखी है। उसमें प्रक्षाल भगवान्के अभिषेकका जल भरा रहता है । पंडाओं द्वारा उन्हीं चरणोंको दत्तात्रय मानकर वैष्णवभाई पूजते हैं। पंडा लोगोंको रुपया दो रुपया देते हैं और मुसलमान बाबा आदम पीर मानकर पूजते हैं। चरण और मूर्ति भनवान् नेमिनाथ स्वामी के हैं, और हिन्द वैष्णव ग्रन्थों में लिखते हैं। स्कन्धपुराण प्रभासखण्ड अध्याय १६ पृष्ठ २२१ । वामनोपि ततश्चक्र तत्रतीर्थावगाहनम् २१ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * यादृशरूपः शिवोदृष्टः सूर्यविम्बेदिगम्बरः ६४ पवासन स्थितः सौम्यस्तथातं तत्रसंस्मरन् प्रतिष्ठाय महामूर्ति पूजयामास वासरम् ६५ मनोऽभीष्टार्थ सिद्धार्थ ततःसिद्धिभवाप्तवान् नेमिनाथ शिवेत्येवं नामचक्रे सवामनः ६६ सुराष्ट्र देशो विख्यातो गिरोरैवतकोमहान् उजयन्तगिरे मूर्मि इत्यादि इसी गिरनार पर्वतके नाम रैवतक, उञ्जयन्त, गिरनार, रामगिरि, वनाचल, प्रभास इत्यादि हैं और इसका अस्तित्व कौशाम्मीतक माना गया हो स्यात् इस गिरनार पर्वतका अस्तित्व कर्मभूमिकी आदिमें श्री ऋषभदेवके समय भी था, क्योंकि आदि पुराणमें श्री भरत महाराज चक्रवर्तीके दिग्विजयमें भी कथन आया है कि गिरनार भी पहुंचे थे। इन्दौरको प्रतिके पत्र १११५ भाकर श्री कामताप्रसादजी जैनने लिखा है दिग्विजय कथनमें देख सकते हैं। श्री नेमिनाथ भगवान्के पूर्व में भी मुनियों ने तपश्चरण कर ज्ञान प्राप्त किया। इसीसे इसका नाम निरिनार पड़ा। असे अरि मोह और रसे रज रहस नामक Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * ३२३ देशे नामग्रहणके न्याय से अर से चारघातिया कर्म लिये | अकारसे अरि मोह और रकारसे रज रहस । रजसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और रहससे अन्तराय कर्म । इनका समुदाय सो अर जिस गिरिपर मुनियोंके चार घातिया कर्म नष्ट भये है, उससे ( यस्मिन् गिरौ नकारेण नष्टा अराः घाति कर्माणि सगिरनार : ) जिस पर्वत पर मुनियों के चार घातिकर्म नष्ट हुये, उसको गिरनार कहते हैं । यह सार्थक नाम है तथा रेवा नगर के निकट अथवा रेवानगर के राज्यमें होनेसे इसका नाम रेवत या रैवतक कहा । बुढ़ले गोत्रीय श्रीयुत कामता प्रसादजी जैन एम० आर० ए० एस० ने भाष्कर में लिखा है : - ऐतिहासिक साक्षी गिरिनार और उसके माहात्म्यकी प्राचीनताकी पोषक सर्व प्राचीन साक्षी वह ताम्रपत्र है, जिसे प्रोफेसर प्राणनाथने निम्नलिखित शब्दार्थ में पढ़ा है । ( रेवा नगरके राज्यका स्वामी सु० जातिका देव) ने बुशद्ने जर आया है, स्थान ( द्वारिका ) आया है। वह यदुराज ( कृष्ण ) के उसने मन्दिर बनवाया । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # सूर्य ..... देव नेमि कि जो स्वर्ग समान रेवत पर्वतक देव हैं, उनको हमेशहके लिये अर्पण किया । प्रो० सा० इस लेख को ६०० से १९४० तक का अनुमान करते हैं, इससे रेवत पर्वत गिरनारकी पवित्रता और भगवान नेमिनाथ का सम्पर्क उससे स्पष्ट है और मौर्यकालीन शिला लेखोंसे भी स्पष्ट है, इससे गिरिनारको रेवत या रैवत्तक भी कहते हैं। श्री नेमिनाथ भगवानने वस्त्र त्याग जैनदिगम्बर दीक्षा धारण करी, इससे उसका नाम वस्त्राचल भया और (उर्ध्व जयन्त) भगवान नेमिनाथ अष्ट कमका नाशकर ऊर्ध्व माने ऊपर लोकशिखर सिद्धालयमें गमन किया और अष्ट कर्मोंको नष्टकर जय पाया । जिस स्थान से उस स्थान का नाम ( ऊर्जयन्त) पड़ा । और रमन्ते योगिनो शुद्ध स्वरूपे यस्मिन् ऐसा जो गिरि पर्वत) अर्थात् जिस गिरिपर मुनि लोग अपने शुद्ध स्वरूपमें समाधि लगाकर मन हो रमण करें, उससे रामगिरि कहा, और प्रकर्षकर सब तरह से दीप्तिमान है। पर्वत और नेमिनाथ इससे प्रभास नाम है, उस गिरिनार भगवान्‌को हमारे वैष्णव हिन्दू भाई Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतहास * ३२५ ब्रामण विद्वान भी इस प्रकार मानते हैं, जो ऊपर ३ श्लोक दिये हैं। ६४ से ६६ तक उनका आशय इस प्रकार है, ये श्लोक स्कन्धपुराण प्रभासखंडके हैं। जो १६ वें अध्याय में दिये हैं पृ० २२१ में । ___ अर्थ-बामनोऽपि वामनावतार भी या बामन किसी व्यक्तिका नाम हो, वे उस गिरनार पर्वत पर उस तीर्थका अवगाहन किया और सूर्यबिम्बमें या सूर्योदय पर यादृशरूपः जैसे रूपमें जैसे स्वरूपमें ( शिवोदृष्ट ) महादेवको देखा । कैसा देखा, दिगम्बरः दिशा ही अम्बर वस्त्र जिनके अर्थात् नममुद्रा, पद्मासन लगायें, सौम्यदृष्टि नाशाग्रदृष्टि लगाये ध्यानस्थ वैसा ही उनका स्मरण कर वैसी ही महामूर्ति जनमूर्ति जिनमूर्ति प्रति स्थापित कर प्रतिष्ठा कर अपनी मनोऽभीष्ठ सिद्धिके लिये महामूर्तिको स्थापित कर ( वासरं ) उस दिन पूजयामास पूजा की और उसके बाद मनोऽभीष्ट सिद्धि, मनोवांच्छित सिद्धि जो थी मनमें वह या सिद्धि मोक्षसिद्धि प्राप्त की या प्रकार वह बामन नेमिनाथ शिव ऐसा नाम करता भया। अथवा दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि सूर्य विम्बे सूर्योदय पर Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * श्री. नेमिनाथ भगवानको पद्मासनस्थ ( नाशाग्रदृष्टि ) सौम्पदृष्टि ध्यान समाधि स्थिर दिगन्बर ( शिवः ) निर्वाण समय मोक्ष होते देखा, उसीके उत्तर क्षणमें ( सिद्धिं ) निःश्रेयससिद्धि) मोक्षसिद्धि आप्तवान प्राप्त भये । ऐसा (शिवः) शिव माने मोक्ष निर्वाण भया देखा और नेमिनाथ तो उनका नाम था ही। किन्तु निर्वाण प्राप्त भया, इस शिव व्यपदेश लगाकर उनके मूर्ति स्थापित कर दी। वैसीही दिगम्बर नाशाग्रदृष्टि हाथ पर हाथ रखे अभीष्ट सिद्धिके लिये उस दिन उनकी पूजा की। वैसा ही उनका स्मरण कर स्मरण तो अनुभव प्रत्यक्ष पूर्वक होता है। निर्वाणक १ समय पहिले प्रत्यक्ष थे, देख रहे थे और निर्वाण प्राप्त करनेके बाद ऊर्धगमन कर सिद्धालयमें विराजमान हुये, तब तो उनकी स्मृति ही रह गई। उनकी स्मृति के लिये उनकी मूर्ति प्रतिष्ठाकर स्थापित कर नेमिनाथ शिव ऐसा नाम रखा और उसी जिनमूर्तिकी पूजा की तथा इन्हीं श्री अरिष्टनेमिभगवान् २२ वें तीर्थकरके नामकी ऋचा, स्वस्तिनोऽरिष्टनेमियृहस्पतिर्दधातु इससे प्रत्येक मङ्गल कार्यमें हमारे ब्राह्मण विद्वान पंडित Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ३२७ आशीर्वाद देते हैं। इस प्रकार कर्मभूमि की आदिसे ही इक्ष्वाकुवंश श्री ऋषभदेवने इक्षु रसका आहार किया तथा इक्षु गनाओंका संग्रह करवाया। इससे इक्ष्वाकुवंश और उनके पुत्र भरतसे भारतवर्ष क्षेत्र भया और भरतके पुत्र अर्ककीर्ति अर्क माने सूर्य उनसे सूर्यवंश और उनकी संतान दर मंतानमें रघुराजा भये। उनसे रघुवंश उसी प्रकार ऋषभदेवने राजा हरिकान्तका राज्याभिषेक कराकर हरिवंश स्थापित किया। उसी वंशमें राजा यदु भये और उनसे शौर्यवीर दो पुत्र भये और शौर्यसे समुद्र विजयादि दश पुत्र भये, इसीसे दशार्ह देश कहलाया। सूरीपुर वटेश्वर मथुरादि वसुदेवादिक समुद्र विजयसे नेमिनाथ, बसुदेवसे कृष्ण बलदेव इस प्रकार हरिवंशमेंसे यदुवंशकी उत्पत्तिका वर्णन किया। ॥ यदुवंश उत्पत्ति वर्णनम् ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी यदुवंशमेंसे लँबेचू जातिका विकास इसी यदुवंशमें श्रीमान् राजा लोमकर्ण ( लम्बकर्ण ) भये और उन्होंने लमकाञ्चन लांबा देश ( कञ्चनगिरि ) परम्परा जो आज ( सुवर्णगढ़ ) सोनगढ़ बोला जाता है, उसके आसपास लमकाञ्चन लॉवा देश बसाया । मैं अनुमान करता हूँ कि लोमकर्ण या लम्बकर्णसे लावा और कञ्चनगिरि के पाससे काश्चन और दोनोंके योगसे लमकाञ्चन देश कहलाया। लाँबा गुजरातमें ही कञ्चनगिरिके पास ही में है। इस लाँचाको जिकर राजपूतानेका उदयपुरके इतिहासमें भी श्री गौरीशंकर ओझाजीने किया है कि लाँबामें भी चोहान रहते हैं। राजपूताना द्वि-खण्डके परिशिष्ट भागकी पहिली जिल्द की भूमिकाके २१-२२ पेजमें अजमेर रणथंभौर मण्डोर ३ संचालक ४ जालोर साँभर ( शाकंभरी भूषण) और चित्तोड़, दिल्ली लाँवा, मालवा, नाडोल ( बूंदी) वृन्दावती ( हाडोती ) हाड़ावती ( हड़दा ) सीहोर सिरोही सोनगरे ( सोनगढ़ ) काँचनगिरि के चाहमान ( चोहानोंके शिलालेख ) ख्याते हमीर महाकाव्य ( हुमायूनामा ) अलाई तारीखें अलफी तारीखें फीरोजशाही Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३२६ फतुहाने, फीरोजशाही तुजुके, शेरशाही तारीखें, फिरिस्ता अकबरनामे (दोनों अबुलफ़ज़ल फैजीकृत ) आइनेअकबरी अकबरनामे, इकबालनामा, जहाँगीरी, मआसिरुल उमरा, जहाँगीरबादशाहनामा आदि मुसलमान कवियोंकी कविताका जिकर दिया है । और राजप्रशस्ति महाकाव्य, अमरकान्य, जगत्प्रकाश, जयवंश महाकाव्यादिका जिकर किया है। जेसलमेरके यादव ( भाटिया ), ओंकट ( कछवाये ) आदि का जिकर है। ईडरगढ़ ( इन्द्रगढ़ ), इंगरपुर इन सबमें चोहानोंके राज्यका जिकर है और जब हम ईडरगढ़ नौकरी पर संवत् वि० १६६० में गये थे, तो एमदाबादसे एमदनगर से टपालगाड़ी तांगासे आठ आना सवारीसे ईडर पहुँचे थे। वहाँ गुजराती भाषा बोली जाती है, (संछे चमशे ) इत्यादि, वहाँ हम चार मास रहे। पाठशालामें संस्कृत पढ़ाई, वहाँ हुँमड़ जातीय जैनोंके घर थे। हुमड़ भी अपनेको चोहानों में से ही बतलाते हैं। दिगम्बर जैन सम्प्रदायके ४ मन्दिर हैं और ईडरके दो जैन मन्दिर संभवनाथके मन्दिरमें, सरस्वती भण्डारमें हस्तलिखित १४०० ग्रन्थ थे और सोने चाँदीकी छोटी २ प्रतिमायें Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * भी थीं और वहाँसे ही श्री तारंगाजी सिद्धक्षेत्र पर लाड़ चढ़ाने को ले जाते थे । श्रीवीर महावीर निर्वाणके समय ( दीपमालिका ) दीवाली पर और दिगम्बर जैन, श्वेताम्बर जैन दोनों सम्प्रदाय के घर थे, ( वहां पर्वत ) जिसे डंगर बोलते हैं, डूंगर पर ( पर्वत पर ) १००० एक हजार विक्रम संवत् शिलालेखकी प्रतिमा दिगम्बर जिन विम्व थे। तब हमें इतिहासका कुछ भी बोध न था, हमें क्या मालूम कि यहाँ चोहानोंका राज्य रहा और चोहान ही हमलोग लम्बेचू हैं। नहीं तो हम उन प्रतिमाओं के शिलालेख उतोर लाते, उस समय भी राणा केशरीसिंहकी जगह पर एक राणाप्रताप सिंह पहुँचे थे । एक गद्दीसे जहांसे ईडरगढ़की गद्दीका ( कनिष्क ) सम्बन्ध था राणा केशरीसिंह के उस समय १८ राणियां थीं, जब राणा नहीं रहे तब रोणा प्रतापसिंह गद्दी पर बैठे । उनकी लटक कुछ आर्य-धर्मकी थी, किसीको माथे पर तिलक नहीं लगाने देते थे । कँवारके महीने में बड़े-बड़े घड़ों में छेदकर दीपक रख मुहल्ला के बीच औरतें नाचती गाती थीं । लखपती करोड़पतियोंकी स्त्रियें उन्हें Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३३१ गर्भा बोलती थीं, अपने यहां जिनको छोटी २ हँड़ियोंमें छंदकर झेझी बोलते हैं। उधर ही ये सब ग्राम पाये जाते हैं। जब हम वि० संवत् १६७८ में पालीताना म्हेशाणा गये, शत्रुञ्जय आबूकी यात्रार्थ, तब वहांसे अजमेर ही पहुंचे थे, वे सब इतिहास जाननेके स्थान हैं। इधर ही कहीं लांचा प्रदेश है और काञ्चनगिरि ( सोनगढ़ ) तो श्री काजीस्वामी जो श्वेताम्बर दृढिया थे, अब दिगम्बरी जैन हो गये हैं, जो समय सारका श्रेष्ठ व्याख्यान निश्चयनयके खिचावलिये देते हैं, वहीं कहीं सोनगरा है। प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता मुंशी देवीप्रसादके यहां एक पुराने हस्तलिखित गुटके तथा फुटकर संग्रहमें वि० सं० १४४२ से वि० सं० १८८६ तक की २१४ जन्मपत्रियाँ हैं। उसमें मेवाड़के राणाओं, डूंगरपुरके रावलों, जोधपुर, बीकानेर, ईडर, रतलाम, नागोर, मेड़ता भिणाय और खारवा आदि के राठोडों, चौहानों, कोटा बूंदीके हाड़ो ( चोहानों ), सिरोहीके देवड़ों, जयपुरके कछवाहों, ग्वालियरके तोवरों, जैसलमेरके भाटियों ( जामगर गुजरात )के जामों, रीवाँके बघेलों, अनूपशहरके बड़गूजरों, ओर्छाके बुन्देलों, राजगढ़ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # के गौडों, वृन्दावन के गोस्वामियों तथा जोधपुरके पञ्चोलियों, भण्डारियों और मुहणोतों आदि अहलकारों और दिल्लीके बादशाहों, शाहजादों, अमीरों तथा छत्रपति शिवाजी आदिकी जन्मपत्रियाँ हैं । जन्मपत्रियोंका दूसरा बड़ा संग्रह जोधपुरके प्रसिद्ध ज्योतिषी चण्डके घरानेका था जिनका चण्ड् पञ्चांग निकलता है । ये जन्मपत्रियाँ सब ओझाजीकी देखी हुई थीं, तहाँ इनके लिखनेका तात्पर्य यह है कि (कछवाये ) कच्छी देशके रहने वाले क्षत्रिय और जैसलमेर के भाटिया, rain बघेले ( जो लम्बेचू जातिके एक गोत्रकी बघेले जाति कहलाई) और ग्वालियरके ( तँवर ) तोंबर ठाकुर क्षत्रिय हरिवंश पुराण में यदुवंशियों में तँवरका जिकर आया है कृष्णकी सहायता में लड़ाईमें आये हैं और मुझे अनुमान होता है कि ( पंचोलियो ) पञ्चोलये गोत्रमेंसे और भंडारी गोत्रकं भण्डारियोंकी जाति हो गई। ये सब यदुवंशी क्षत्रिय तो स्पष्ट इस राजपूताने उदयपुरक इतिहास में ओझाजीने स्पष्ट रूपसे यादव लिखे हैं और गूजर जाति भी क्षत्रिय प्रतीत होती है, नहीं तो इनका राज्य कैसे स्थापित हो Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतहास # ३३३ गया। मुझे मालूम होता है कि गुजरातसे आकर बसे, गूजर अलल पड़ गई हो । बड़गूजर कुछ महत्वता लिये होने से बड़गूजर कहलाये । | कच्छी देशसे आये क्षत्रिय जेसलमेर में बसे, इससे जैसवाल हो गये। ये भी यादवों में से ही हैं ऐसे प्रतीत होते हैं (शांकभरी ) सांभरसे सवा लाख ग्राम लगता था, इसलिये सपादलक्ष विषय ( विषय देश ) सपादलक्ष देश साँभर कहलाया । जिसको ओझाजीने भी जहाँ तहाँ उदयपुर इतिहासके द्वि० खण्डमें लिखा है और जैन दिगम्बर प्रखर विद्वान पं० आशाधारजीने भी आशाधार प्रतिष्ठा पाठ में प्रशस्ति में लिखा है- ये स्वयं बघेले क्षत्रिय थे ( व्यारे बालान्वये ) यह पद दिया है, ( बघेर बालवंश में ) हम उत्पन्न हुये और अपनी वंशावलियोंमें राजा माणिकरावने १६६ विक्रम संवत में शाह ( साह ) पदवी भी दी जाती थी। जैसे राणा उडुमराव ( उडुमराय ) के पुत्र सुमेरसिंह ( उडुमराव ) शब्दको कुछ अस्तव्यस्त कर ( उद्धवराय ) छाप दिया है । श्रीमान् बाबु सोहनलाल जो मुन्नालाल द्वारकादास कलकत्ता घी के फार्मक Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ो लँबेचू समाजका इतिहास * मालिक (पोद्दार गोत्रीय ) लम्बेच जैन जिन्होंने अपनेको केवल धर्मको लेकर सरावगी ही लिखा है। उन्होंने इटावा गजटियरसे कुछ इतिहास इटावा दिगम्बर जैन मन्दिर गाढ़ीपुराकी रिपोर्टमें दिया है। उसमें उडुमरावको उद्धवराव लिखा है, उनके पुत्र सुमेरसिंह जिन्होंने इटोबाका राज्य किया, इटावामें किला बनवाया, जिन मन्दिर बनवाया, जो आजकल अजैनोंक कब्जेमें है उसे त्रिकुटीके महादेवका टिकसीका मन्दिर बोलते हैं। यह दिगम्बर जिन मन्दिर था । ब्रह्मचारी शीतलाप्रसादजी करीब २८-२६ वर्ष पहले आये थे तब तक उस मन्दिरमें खण्डित जिन मूर्तियोंके खण्डभाग रखे थे और अब भी कुछ भग्नावशेष टुकड़े रखे हैं ऐसा सुनते हैं। उन सुमेरसिंहको शाहकी पदवी थी, तो चोहानोंमें और भी राजाओंको शाह पदवी थी। टेकसीके मन्दिरके पास विद्यापीठ है। वहाँपर एक बड़ा सरस्वती भण्डार है। जब शाह पदवी चोहानोंके राजाओंमें थी, तब इटावा मजेटियरमें लिखा है कि रियासत परताप नेहर इटावेकी सबसे प्राचीन बड़ी ज़मींदारी है। इस रियासतके २१ मुस्लिम मौजे Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३३५ इटावे जिलेमें हैं और इस रियासतके कुछ गाँव मैनीपुरी जिलेमें भी हैं। परतापनेरके चोहान शासकोंका इटावा, एटा और मैनीपुरीमें सदियों तक दबदबा रहा है। कहते हैं कि सन् ११६३ ईस्वीमें दिल्लीके चोहान राजा पृथ्वीराजकी मृत्युके बाद करनसिंह सिंहासन पर बैठे । करनसिंह ( कर्णसिंह ) के पुत्र हमीरसिंहने रणथंभोरके किलेकी नींव डाली। कालान्तरमें वे इस किलेकी रक्षा ही में वे मारे गये। इनके पुत्र उडुमराव ( उद्भवराव ) ने ६ विवाह किये, जिनसे १८ सन्ताने हुई। ___ उडुमराव जब मरे, तो राज्यका नामोनिशान मिट चुका था। उनकी सन्ताने अपने लिये उपयुक्त स्थानकी खोजमें थी। उन दिनों कानपुर, फरुखाबाद, एटा, इटावा और मैनीपुरीमें मेव लोगोंकी तूती बोल रही थी। सुमेरसिंह जो ( उडुमरावके होनहार बेटे थे) उन्होंने एक छोटी-सी सेनाका संगठन किया और मेवोपर चढ़ाई कर दो। सुमेरसिंहके साथ चोहानोंकी सामान्य सेना थी; पर मेवे उनके सामने न टिक सके (न डट सके)। सुमेरसिंह राजा हुए और राजा होनेपर सुमेर शाह कहलाये। उन्होंने अपनी राजधानी इटावेमें बनायी। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ श्री लँबेचू समाजका इतिहास - असकरणकी बादशाहीमें भी मान्यता हुई। जहाँगीरके यहाँ फिर राणा सुमेरशाहक संग्रामसिंह, तिनके प्रधान मंत्री जशवन्तसिंह सहसमल्लके पुत्र और संग्रामसिंहके पुत्र राणा चक्रसेन, उनके शाह करणमल्ल, उनके खड्गसिंह, उनके विक्रमाजीत, उनके २ पुत्र भये-अगरसिंह ( अगरसाह) और राणाप्रतापरुद्र ( प्रतापसिंह )। ये वंशावलीमें स्पष्ट रीतिसे लिखे हैं। गजेटियरमें लिखा है कि राणा सुमेरसिंहके आठवीं पीढ़ीमें प्रतापसिंह ( प्रतापरुद्र ) भये, जिन्होंने प्रतापनेहर का किला बनवाया और राणा अगरसिंह ( अगरसाहेन ) सकरोलीके राजा भये। सकरोली एटा जिलेमें है और इटावा तहसीलका एक गाँव जाखन है। जिसमें रहनेसे लवेचुओंका एक गोत्र अलल जखनिया भया और बकेउर से बकेवरिया और इसी लँबेचू चोहान वंशमें राजा रपरसेन से रपरिया गोत्र अलल भया तथा कोटरा (यहीकुण्डलपुर) यही कुदरकोट वहाँ रहनेवाले कुदरा कहलाये और राणा रपरसेनकी पुत्री नोरंगीक नामसे रपरी वटेश्वर ( सूरीपुर ) के बीचमें जमुनाके घाटका नाम नोरंगीघाट कहलाता है । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३३६ उद्भवराव ( उडुमराव ) के १८ पुत्रोंमें सुमेरसिंहक भाइयों में से एक उधरणदेव, दुसरे त्रिलोकचन्द, तीसरे ब्रह्मदेव (विरमदेव )। गजेटियरमें लिखते हैं कि त्रिलोकचन्दने चकनगरकी नींव डाली और राणा अगरसाह (अगरसिंह) ने ही आगरा बसाया हो, तो हो सकता है। राणा (अगरसाह) ही अगरसेन अप्रसेन हों और यह भी चौहान वंश ही होवे, तो क्या आश्चर्य ? यद्यपि लोग मारवाड़की तरफ अग्रोहा गांवके राजा अग्रसेनसे अग्रवाल कहते हैं इतिहास खोजना चाहिये। मारवाड़ी अग्रवालों का देवड़ा गोत्र है तो देवड़ाके चोहान है । हरिवंशी क्षत्रिय ही में से ५६ करोड़ यादव थे। द्वारावतीमें ही सब सम्भावित नहीं, इधर-उधर भारतवष में सब जगह व्याप्त थे और वि० संवत् १४६ की सालमें लमकाच देश छोड़ मारवाड़की तरफ आये, तो एक-दो मनुष्य थोड़े ही थे करोड़ों मनुष्य, सब जगह, जहाँ जिसकी सीध समाती है, वहीं रह जाता है। जैसे- संवत् विक्रम २००३-२००४ में हिन्दू-मुसलमानों का झगड़ा चला। जिन्ना एक प्रधान व्यक्ति मुसलमानने (पाकिस्तान ) हिन्दुस्तानमें से जुदा Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० * श्री लबेचू समाजका इतिहास * राज्य स्थापित करनेके लिये अंग्रेजों से जुदी मांग रखी और हिन्दू-मुसलमानोंमें खूब लड़ाई हुई। लाखों आदमी मारे गये। भारतवर्षमें सब जगह लड़ाई हुई। प्रजामें तब लाहोर, कराँची, मुलतान, रावलपिंडी, काश्मीर सब जगह युद्ध पारस्परिक हुआ। तब इधर-से-उधर और उधर-से-इधर लाखों मनुष्य शरणार्थी आये और गये कुटुम्ब-के-कुटुम्ब । ___ हम जब एक कामसे गाजियाबादसे मुजफ्फरपुर गये । खतोलीकी तरफ सैकड़ों घर टीन और काठके दूकानके रूपमें बनाये गये और उनमें शरणार्थी रहते देखे । उस समय और बहुतसे क्षत्रिय (खत्री) हिन्दू, इटावा, आगरा, ग्वालियर, भिंड सत्र जगहमें बसे हैं। ऐसे समयमें जहाँ जिसकी सोंक समाती है वहीं घुस बैठता है। उपद्रवके समय ऐसे ही द्वारका भस्म हुई। उस समय द्वारकाके निकटके हरिवंशी, यदुवंशी चलकर बहुतसे बसे । और ऐसे ही कारण पा फिर ये यदुवंशी लमकाञ्चन देश छोड़ मारवाड़ तरफ आये, जो मुख्य प्रदेश, नागोर, साँभर, नागदा आदिमें बसे । यह अणुवय प्रदीप ग्रन्थ श्री प्रोफेसर Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -... " ---- - * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३४१ हीरालालजी को नागोरके सरस्वती भण्डारसे ही तो मिला है। इन लँबेच चोहानोंका रहनेका और भी प्रतीक दृढ़ सबूत ऐतिहासिक होता है और चोहानोंका मलयखेट मालवेमें और हाडावती (हड़दा) आदिमें चौहान वसे तब हाड़ा कहलाये हाड़ों भी चोहानों की शाखा राजपूताने, उदयपुर इतिहासमें ओझाजीने लिखा है। दूसरे हरदामें पहिलेसे लमेचू चोहानों का रहना था तब तो करहलसे रिश्तेदारी आदि सम्बन्ध से लमेबू सँघई बजाज चंदोरिया वहां पहुंचे। अब भी हैं और इन्दौर सनावद आदि में भी है। कुछ तो अभी गये हैं और विक्रम संवत् १३१३ अणुवय पदीपके कथनानुसार राजा भरतपाल सांभरी नरेश क्यों कहलाये । राजा माणिक रावने (शिवजीराम) सोजीरामको अपनी देशकी दीवाणगी दीनी विक्रम संवत् १६६ वे में और शाह सोजीरामके जरिये सांभर में निमक पेदायस भयो जब माणिकरावने साह सोजीरामको ८४ चोरासी गड़ों (किलों) का राजभार शाह सोजीराम को दीनो (सोजीराम को स्यात् सहजिग भी कहीं लिखा है) सोजीरामके बेटा सवहरण प्रधान रहै छोटे भाई हरकरण Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * (कानीगो) कानून गो रहै उसीकानीगो (गोत्र अलल मैं करहल के शिखर प्रसाद और चेतसिंह थे। जिसमें शिखर प्रसादके दत्तकपुत्र लाला फुलजारी लाल जिनके दत्तकपुत्र लाला मिजाजीलाल मौजूद हैं और चेतसिंह के दौहित (नाती) लाला बाबू राममोजूद हैं)। शाह सोजीरामको ८४ गढ़न ८४ किलों का भार राजा माणिक राव ने सोंपा। यह कथन (सांभर) देशको सपादलक्ष विषय (देशको) सवा लाख ग्राम छोटे बड़े लगते होंगे। इसीसे इसका नाम (सपादलक्षविषय पड़ा )। राजपूतानेका उदयपुर इतिहास में पृष्ठ ४६०६१ में लिखा है ओझाजीने जो चित्तौर, उदयपुर, मेवाड़ के राजा (परमारवंशी राजा देवपाल के पुत्र जैत्रसिंह (जेतसी) देवपाल के बाद गद्दीपर बैठ (परमार) एक चोहानवंश की एक शाखा है। खोची चोहानोंमें हैं। सोलंकी भी एक परमार वंश की शाखा है । इसी वंश में धारवर्ष के पुत्र राजाभोज हुये जो शाखा प्रशाखा में वल्लाल वंशी कहाये । रावल समर सिंहके आयुके शिला लेखमें लिखा है जत्रसिंहने नडुल (नाड़ोल) जोधपुर राज्यके गोड़वाल Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३४३ जिलेमें ) है उसको जड़से उखाड़ डाला नाडोल के चोहानों के वंशज कोतू (कीर्तिपालने) मेवाड़ को थोड़े समय के लिये ले लिया था जिसका बदला लेने के लिये । नडुलमूलं कखवाहुलक्ष्मी स्तुरुष्क सैन्यार्णवकुंभयोनि अस्मिन् सुराधीश सहासनस्थे ररक्षभूमीमथ जैत्रसिद्धः ॥ ४२ ॥ ( हम्मीरपद मर्दन नाटक ) जयसिंह मूरि श्वेताम्बर जनकृ० (हम्मीर) सुलतानका नाम था मुसलमान था उसका मद मर्दन उसी सुलतान सुरत्राणको तुरुष्क भी लिखा है। ये जैत्रसिंह तो सीसोदियोंमें थे और जैत्रसिंह के समय नाड़ोल और जालोर के राज्य मिलकर एक हो गये थे और उक्त (कीतू) कीर्तिसिंहके पौत्र उदयसिंह उस समय सारे राज्य का स्वामी था। उदयपुर, चित्तौड़ आदिका उदयपुर से चार मील पर चीर वा गांव है यहां भी चोहानो का ही राज्य था। (कीत्त) कीर्तिसिंहको (कीर्तिपाल) भी कहते । इनका समय विक्रम संवत् १२१८ के शिला लेख से विदित है कि नाडोल, जोधपुर राज्यके गोड़वाड़ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * जिलेमें के चोहान राजा आल्हणदेव का तीसरा पुत्र था साहसी, वीर और उच्चाभिलाषी होने के कारण अपने ही बाहुबल से जालोर (कंचनगिरि सोनगढ़) का राज्य परमारोंसे छीनकर वह चोहानों की सोनगरा शाखा का मूल पुरुष और स्वतन्त्र राजा हुआ (सिवाणे का किला जोधपुर राज्य में) भी उसने परमारों से छीनकर अपने राज्यमें मिला लिया था। उस समय उसका पिता जीवित था और पिताकी ओरसे १२ गांव की जागीर मिली थी फिर स्वतंत्र हो मेवाड़का राज्य रावल (सीसोदे सरदार) सामन्तसिंह के अधिकारमें था उन सामन्त सिंहने मेवाड़ चित्तोड़का राज्य अपने छोटे भाई कुमारसिंह राणा पदवी के साथ दे दिया था तब कीतूने उनसे लड़कर छीन लिया। उन कीर्तिपालके बाद उनके पुत्र समरसिंह राजा भये । कीतूने मेवाड़का राज्य विक्रम संवत् १२३० और १२३६ में छीना हो । उस समर सिंहके पुत्र उदयसिंह थे जिनक आधीन सारा मेवाड़ राज्य था । यह वृत्तान्त ईस्वी ११८२ शिला लेखसे विक्रम सं० १२३६ से पाया जाता है। सामन्तसिंह भागकर बांगड़ (बडोदा राज्यमें) डूंगरपुर Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३४५ और बांसवाड़ा राज्योंका सम्मिलित नाम (वागड़) है उसमें राज्य स्थापित कर लिया। राजपू० इत्ति० द्वि० खं० पेज ४५२ से ५६ तक फिर सामन्त सिंहके भाई कुमार सिंहने गुजरातके राजाओंसे मेलकर उसकी सहायता से कीतूसे फिर मेवाड़ राज्य छीना। कुमार सिंह के बाद उनके पुत्र मथनसिंह राज्याधिकारी हुये और मथनसिंह ने टांटरड़ (टाँटेड) जातिके उद्धरणको जो दुष्टोंको शिक्षा देने और शिष्टोंको रक्षण करनेमें कुशल था। नागद्रह (नागदा) नगरका (तलारक्ष कोतवाल नगर रक्षक) बनाया । अश्वलगच्छ के माणिक्य सुन्दर सूरि (श्वेताम्बर यतीने) पृथ्वीचन्द्र चरितमें तलवर तलवर्ग नाम भी दिये हैं सोड्ढल रचित उदय सुन्दरी कथामें तलार या तलोरक्ष नगर की रक्षा से था गुजराती भाषामें तलारत तलरि अपभ्रंश में मिलता है जो अब पटवारी का सूचक होता है अधिक परिचय के लिये देखो (नाडोल प्र० प० भाग ३ पृ० २ का टिप्पण)। जाताष्टांटर ज्ञातौ पूर्वमुद्धरणाभिधः पुमानुमाप्रियोपास्ति संपन्न शुभ वैभवः Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # दुष्ट शिष्ट शिक्षणरक्षणदक्षत्वतस्तलारक्षं श्रीमथन सिंह नृपतिचकार नागद्रह दंगे || १० || लता। (चीरवेका शिला लेख ) अब टांटरड जाति प्रायः नष्ट सी हो गई । लिखा है मुझे ऐसा मालूम होता है कि यह टांडरड जाति भी एक चोहानोकी ही शाखा थी कारण । (सीसोदे सरदारों का) और चोहानोंका बहुत कुछ सम्बन्ध पाया जाता है। कहीं तो विवाह सम्बन्ध और कहीं स्वामी सेवक सम्बन्ध इसीसे उन मथनसिंहने उद्धरण को तलारक्षण (कोतवाल) बनाया और ऐसा भी अनुमान होता है कि इस टांटरड जातिका निकास सम्बन्ध टांटेबाबू गोत्रसे पाया जाता है अर्थात् टाँटेबाबू गोत्रसे टांटरड़ जाति बन गई हो और इन्हीं में से तलारक्षक होनेसे पटवारी अललव गोत्र हुआ हो इन उद्धरण देवके ८ पुत्र हुए । अष्टावस्थं विशिष्टाः पुत्राअभवत् विवेक पवित्रा तेषुचवभूव प्रथमः प्रथितयशान्योगराजइति ११ ऊपर कहै १० श्लोकका आशय यही है कि दुष्टोंकी शिक्षा देने में और शिष्ट सत्पुरुषों की रक्षा करनेमें निपुण Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३४७ टाँटरऽजतिमें उत्पन्न उद्धरण देवको राणामथन सिंहने तलारक्ष कोतवाल नगर रक्षक नियुक्त किया। दसरे ११वें श्लोकका आशय यह है कि उन उद्धरण के ८ पुत्र हुये। उनमें प्रथम ज्येष्ठ योगराज था। उन राणा मथनसिंहके पुत्र पद्मसिंह उत्तराधिकारी मेवाड़के हुये । श्री पद्मसिंह भूपाला द्योगराजस्तलारतां नागद पुरे प्राप पौर प्रीति प्रदायकः उन पद्मसिंह राजासे योगराजने तलारता पाई नागदापुरमें पुरवासियोंको प्रीतिदायक थे जोश्री जैत्रसिंहस्तनुजोऽस्य जातोऽभिजाति भूभृत्प्रलयानिलाभः सर्वत्रयेनस्फुटता न केषां चित्तानि कंपं गमितानि सद्यः ।। न मालवीयेन न गुर्जरेण न मारवेशेन न जांगलेन । म्लेच्छाधिनाथेनकदापिमानो म्लानिननिन्येऽवनिपस्ययस्य ६ उन राणा पदमसिंहके पुत्र जैत्रसिंह भये । जो तमाम राजाओंरूपी पर्वतोंको प्रलयकालका पवन माफिक था। जिस जैत्रसिंहने किन राजपुत्रोंके चित्तको न कपाया अर्थात् सबको कँपा दिया। मालवाके राजा, गुजरातके Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * राजा, मारवाड़के राजा कुरु जांगल, पजाबके राजा और म्लेच्छाधिपति मुसलमानी राजा बादशाह सुलतान आदिने जिनका मान भंग न कर पाये अर्थात् सब पर विजय पाया। इन्हीं जैत्रसिंहने चित्तौड़की कोतवाली योगराजके ४ पुत्रों-पमराज, महेन्द्र, चंपक और क्षेभ-इनमें क्षेभको दी थी। उन रणप्रिय जैत्रसिंह ( जेतसी ) के पुत्र तेजसिंह को उदयसिंह केतू के पौत्रकी पोती ब्याही थी। इन जैत्रसिंहसे और मालवेके परमारवंशी देवपाल, जिनका उल्लेख श्रीपं० आशाधरजीने आशाधर प्रतिष्ठा पाठमें विक्रम सम्बत् १२८५ में किया है। उसी समय यही सुलतान मुगल बादशाह टीपू सुलतान होगा, जो कर्नाटक देश तक पहुंचा है। राजपूतानेके इतिहासमें अल्तमस् शमसुद्दीन गुलाम सुल्तान लिखा है कि इसको भी जीता। इस सुल्तानने ही साम्हर वगैरह प्रदेशों पर इन्हीं में अलाउद्दीन होगा उसने घेरा डाल रखा था। तब आशाधरजीने लिखा है कि महेच्छसेन सपादलक्ष विषये इत्यादि उस समय चित्तौड़, मारवाड़ पर राज्य परमारवंशी राजा देवपालका Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेच समाजका इतिहास * ३४६ पुत्र जैत्रमल्लपे था। उससे युद्ध कर जयसिंह जैत्रसिंह दूसरा भी कहते हैं, जो सीसोदे जैत्रसिंहक समकालीन थे। उनसे युद्ध कर जैत्रसिंहने जिन कीतू किर्तिपालसिंहकी पोती व्याही थी। उनके विषयमें राज० उदय० इति० पेज ५११ में लिखा है चाहुमान, श्रीकीतुकनृप, श्री अल्लावदीन सुरत्राण जैत्र वष्यवंश्य, श्री भुवनसिंह इन चोहान कीतू कीर्तिपालने सुल्तान अल्लाउद्दीनको जीत कर मेवाड़ लिया था। फिर उनसे जत्रसिंहने लिया। जैत्रसिंहके पुत्र भुवनसिंह मेवाड़ और अर्थणा लिया और इनका पुत्र तेजसिंह था। ये सब जैन क्षत्रिय राजा थे। तेजसिंहकी रानी जयतल्लादेवी जो समरसिंहकी माता थी चित्तौड़ पर श्री पार्श्वनाथका मन्दिर बनवाया ( चीरबैका शिलाले० ) श्री चित्रकूट मेदपाटाधिपति श्री तेजसिंह राज्ञा, श्री जय. तल्लदेव्या, श्री श्याम पार्श्वनाथ बसही स्वश्रेयसेकारिता समरसिंहके समय वि० सं० १२३५ बैशाख सुदी ५ चित्तौड़का शिलालेख यः श्री जैसलकार्य भवदुत्थूण करणांगणेप्रहरन् । पंचलगुडिकेन समं प्रकटवलो जैत्रमल्लेन ॥२८॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * पंचलगुड़िक ( जैत्रमल्ल ) की खिताब थी। उन जैत्रमल्लके साथ रणांगणमें युद्ध कर अपना बल जैत्रसिंहक ( जेसलकार्य के समय दिखाया ) तला रक्षक क्षेमका पुत्र ( भूत्ताला गांव मेवाड़की पुरानी राजधानी थी ) रत्न के छोटे भाई मदनने अपना बल दिखाया। वि० संवत् १२८४ वर्षे फाल्गुणनामावास्यां सोमे अयह श्रीमदाघाटदुर्ग समस्त राजावली समलं कृत महाराजाधिराज श्री जैत्रसिंह देवकल्याण विजय राज्ये । तन्नियुक्त महामात्य श्री जगत्सिंहे समस्त मुद्राव्यापारान परिपन्थ तीत्येवंकाले प्रवर्तमाने शाह उद्धरमनुनाशाह हेमचन्द्रण दशवकालिक वाक्षिकसूत्र ऊर्यनियंक्तिसूत्रपुस्तिका लेखिता और भी १ गद्य है यह आघात दुर्ग ( आहाड़में लिखी हुई आवक प्रतिक्रमण सूत्रचूर्णि नामक पुस्तक मिली है। उसका है ( पीटर्सनकी तीसरी रिपोर्ट पृ० ५२ राजपूताने का इतिहास पेज ४७१-७२-७६ तक बहुत विवरण है पेज ४६०। श्रीमद्गुर्जर मालवशतुरुष्क शाकंभरीश्वरैर्यस्य । चक्रनभानभङ्ग सः स्वस्थो जयतु जैत्रनृपः ।६। (घाघसेकाशि०) Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३५१ इस लेखके शाकंभरीश्वरसे अभिप्राय नाडोलके चोहाने से हैं ( चोहान मात्र)। समस्त चोहान सब देशोंके चोहान (साँभर ) से शाकंभरीश्वर या संभरी नरेश कहलाते हैं। ऊपर भी हम लिख आये हैं कि कई ठिकाने राज• पूताने ( उदयपुर इतिहासके द्वितीय खंडमें ) सांभरी नरेश लिखा है। भोगीरायने रावत गोत्रके कवित्तमें सांभरी नरेश भरतपाल ये पद आये हैं। इससे कोई सन्देह नहीं रह जाता कि लँमेचू बंश चोहान और यदुवंशी नहीं है। और भी विक्रम संवत् १३५८ माघ सुदी १० के दिन महाराजाधिराज श्री समरसिंह देव ( तेजसिंहके पुत्र ) के राज्यके समय प्रतिहार पडिहारवंशीय, महारावत, राजश्री......राजमाताके बेटे राजपुत्र धारसिंहने श्रीभोज स्वामी देवजगती राजा भोजके बनवाये हुए मन्दिरमें प्रशंसित टीका सहित बनवाया दूसरा शिलालेख है, जिसका आशय यह है कि रावल समरसिंहने अपनी माता जयन्तल्ल देवीके श्रेय निमित्त श्री भत पुरीय गच्छके आचार्योंकी पोषधशालाको कुछ भूमि दी। और भी १३३५ शिलालेख है। बैशाख सु० ५ का Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ * श्री लबेचू समाजका इतिहास * इसमें भर्तृ पुरीय ( भटेवर ) गच्छके जैनाचार्यके उपदेशसे मेवाड़के राजा तेजसिंहकी राणी जयतल्ल देवीके द्वारा श्याम पार्श्वनाथका मन्दिर बनवाने तथा उस ( वसही ) मन्दिरके पीछे हिस्सेमें उसी गच्छके आचार्य प्रद्युम्न सूरीको महाराजकुल ( महारावल ) राणा समरसिंहकी ओरसे मठके. लिये भूमि दी एवं तलहटी ( आघाट, आहाड़, खेएड़ और सज्जतपुर ) की मण्डवियोंको देना लिखा है। इनकी समरसिंहकी माता चाचिकदेव चोहानकी पुत्री थी और चित्तोड़के राज्य पर जालोरके सोनगरे चोहानोंका अधिकार विक्रम सम्बत् १३८२ तक थो। जब सुल्तान अलाउद्दीनके सेनापति कमालुद्दीनके कान्हदेव और उसका पुत्र वीरभदेवको मारकर जालोरको किला छीन लिया। वि० सं० १३६६ में तब कान्हणदेवका भाई मालदेव चित्तोड़का राजा हुआ और सीसोदेके राणा हमीरको उन मालदेवने अपनी पत्रीका विवाह कर दिया। ऐसा हम स्यात् ऊपर भी लिख चुके हैं और बङ्गादेवका पुत्र (देवीसिंह बङ्गदेवके कई पुत्र थे हिंगुल आदि। देवीसिंहने विक्रम सम्बत् १२६८ में मीनोंसे बंदी ( वृन्दावती) की देवी Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ३५३ सिंहके हरराज, समरसिंह आदि १२ पुत्र हुए। जिनमेंसे हरराज बंवाबदे रहा और समरसिंह बंदीका स्वामी हुआ। इन हरराजसे हाड़ा चोहान कहलाये और अलाउद्दीनकी लड़ाईमें हरराज और समरसिंह मारे गये। तब बंदीकी गद्दी पर समरसिंहका पुत्र नापा ( नरपाल ) बैठे और बंबावदेव की गद्दीपर हरराजका पुत्र ( हालू ) राजा हमीर बैठे। नरपाल टोड़ेमें मारे गये। तब उनका पुत्र राजा हमीर बून्दीकी गद्दीपर बैठे (हालूने) जीरणके राजा जैतसिंह (पंवार पर मार ) का हिंगलाजगढ़ और भाणपुरकी एक चोहानो की शाखा हैं। उस हालूने राजा भरतके खेड़ी और जीरण किले ले लिये । जब हालू विवाह करने ग्वालियर राज्यमें शिवपुर (शोपुर) (सबलगढ़) गया। उस समय जैतसी और भरतने बंबावदेको घेर लिया । हालू विवाहकरके आनेसे सबको मार भगाया। उस समय जैतसिंह चित्तोड़के राणा हमीरसे फौज लेकर हालूपर चढ़ आया। तब हालूने राणाकी फौज को भी मार भगाया इत्यादि कथन जटाजूट है। यहां लिखनेका मतलब यह है कि हरराज मूलपुरुषसे हाड़ा चोहान कहलाये। इन हाड़ा चोहानोंने हाडावटी (हाड़ा Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास - हड़दा हरदादेश बसाया । अब भी हरदामें लँबेच बसते हैं। कुछ करहलसे भी गये हुये हैं और मुझे ऐसा अनुमान होता है कि कृष्णादित्यका अपभ्रंश कल्हण कहड़का हो गया हो क्योंकि कृसेकर हलड़से हल अपभ्रंश होकर करहल कसवा बन गया। करहलका पुराना नाम कुड़ेल भी सुनते हैं। (कल्हण) का अपभ्रंश कुड़ेल होने सके हैं। करहलमें जब मेरा विवाह संवत् १९५५ भया था । तब लँबेचुओंके घर ४५० थे। अब भी दोसो पोनोदोसे के करीब हैं और रायवड़िढय (राजवर्द्धित) नगरी यही हो या रायनगर ये दोनों यमुनाके उत्तर तटमें हैं। जमुनाका बहाव दूर हो जानेसे कुछ करहलसे ८ कोश और रायनगर से ८ मील है। जमुना तट जसवन्तनगर से दक्षिणमें हैं और अनेकान्तपत्र ३४६।३४७ में वर्ष ८ केमें भविष्यदत्तका चरित्र अपभ्रंश का कुछ अंश देकर श्रीमान् परमानन्द जैन शास्त्रीजीने चन्दवाड़के लेखमें लिखा है कि माथुर कुलके नारायणके पुत्र और वासुदेवके बड़े भाई मतिवर सुपट्ट साहकी प्रेरणासे यह अर्थ नहीं है। उन पद्योंका कारण चन्दवाड़में माथुर गच्छकी विक्रम सम्बत १००० एक हजारकी प्रतिमायें अनेक हैं। . Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेच समाजका इतिहास * ३५५ मैंने एक दालानमें सौ-पचास साङ्गोपाङ्ग सुन्दर और अखण्डित देखी थी। जिन पर जैन यात्री आकर उस दालानमें उन प्रतिमाओं पर पानीका भरा लोटा रख कलेवा करते देखे तब मैंने देवीदासजी प्रोजावादवाले पद्मावती पुरवालसे कहा कि आप प्रोजावाद (फीरोजावाद) से प्रतिमा लाकर मेलामें पूजापाठ क्यों करते हो। इन्हींको इस वेदी स्थायीमें एक प्रतिमा विराजमानकर पूजापाठ करो तब स्यात् उन्होंने कहीं धरा दी होंगी उनमें माथुर गच्छ लिखा है सो माथुर कुलसे माथुर गच्छ लेना चाहिये क्योंकिआचार्योपाध्यायतपश्चिशैक्षग्लानगण कुलसंघसाधुमनोज्ञानां इस सूत्र २४ अध्याय ६ से आचार्योंके भी कुल होते हैं सो माथुर कुल माथुर गच्छके कोई वासुदेव गुरुभास्कर वासुदेव गुरु सूर्यके समान जिन्होंने मणवय कायाणिंदिय भवेण जिन्होंने मन वचन और कायसे इस भव संसारकी निन्दाकी है। काय से दिगम्बर भये बिना इस संसार की निन्दा केसे हो जायगी। और वे कोई संसारके मनुष्य व्यक्तिके पुत्र होना ही चाहिये इससे नारायण के देह समुद्भव लिखा है और माथुर गच्छ रूप (गगन) आकाश Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * का उपदेश देकर तमहरण करनेवाले अथवा माथुर गच्छ रूप आकाशको समीरण हवासे विविध सज्जन लोगोंके मन रूपमेघोंको हरणकरनेवाले अर्थात् मनोहर और मतिबर मुपट्टाधीशके पदपर बैठनेवाले अर्थात् भट्टारक भवजलणिहि णिवड़णकायरेण । घोर संसारसमुद्रसे भयभीत समस्त गुणोंके आलय श्री वासुदेव मुनिने श्रीधर भन्य प्राणी श्रावककी भक्तिपूर्वक हाथ जोड़ विनतीसे भविष्यदत्त कथाका प्रसङ्ग कहा यह अर्थ प्रतीत होता है और रइधू कविकी पुण्यास्रव कथाकोशे कवितामें ( अवगाहिउजिआहवसमुद्द ) इस पदसे अवगाहित किया है आहब समुद्र जिसने अर्थात् आहवमल्ल राजाके वंशरूपी समुद्रका यह रत्न वंशधर प्रतापरुद्र चिरकाल आनन्दको प्राप्त रहै। ऐसा अर्थ प्रतीत होता है और वासाधर मंत्री भी जायस और जैसवाल नहीं हो सक्तं । चन्दवाड़में कुल परम्परासे लमेचुओंका ही प्रसङ्ग है। यहां जायस और जैसवाल का प्रसङ्ग नहीं हमारे समझमें जैसे जैन सिद्धान्त भाष्कर भाग १३ किरण १ में श्रीयुत् पं. जगन्नाथ तिवारीजीने वि० सं० १०५२ में चन्द्रपाल राजा चन्दवारका दिगम्बर जैन पल्लीवाल राजा हुआ। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३५० ___ यह निर्मूल है. क्योंकि स्वयं अपने लेखमें लिखा है कि राजा चन्द्रपालका दीवान रामसिंह हारुल था जो कि लम्बकंचुक लमेचू दिगम्बर जैन था। उसने विक्रम संवत् १०५३।१०५६ में कई जिन विम्ब प्रतिष्ठा कराई और लम्बेचओं की ४ चौथी पट्टावलीमें चन्द्रपाल चन्द्रवार चन्द्रपाट स्थान आये उन्होंने चन्दवार बसाया और उनके हाहुली राउ मंत्री थे। इन हारुल का ही नाम हाहुली राउ करके लिखा हो क्योंकि जो नागोर और साम्हरकी तरफ से ५ कुमर अन्तरवेद (गंगा यमुना के बीच) में आये उनमेंसे चन्द्रपाल चन्द्रवार स्थानमें आये और चन्द्रवार शहर बसाया और इनसे ही लमेचूओंमें चन्दोरिया अलल चंदोरिया गोत्र प्रख्यात भया और उन्होंने ही चन्द्रप्रभ भगवान की स्फटिककी मूर्तिकी प्रतिष्ठा कराई और अब भी यह प्रतिभा प्रोजाबादके चंदप्रभ स्वामीके मन्दिरमें विराजमान है और भी ऐसी एक प्रति माचन्दवारमें एक मल्लाहके पास सुनते हैं वह देता नहीं, स्वयं पूजा करता है और वह मन्दिर भी लमेचुओंका बनवाया हुआ है और इस समय भी रपरिया गोत्रीय केशरीमलजी लमेचू जैनके प्रबन्धमें है तब चन्द्रपालको जैसवाल लिखना भूल है और रामसिंह मंत्री Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * प्रधान हारुल (हाहुलराय) थे। ये राव्रत गोत्रीय लमेचू थे आप ही के लेखमें इसी भाष्कर केमे ८ वे पेजमें दूसरी तरफ पाषाणकी श्यामवर्ण २ फुटकी छिमेटी मुहल्लाकी मूर्तिके लेखमें रामचन्द्र लम्बकंचुक कान्वये (लमेचू) श्री चन्द्रपाट दुर्गनिवासिनः राउत गयो (गाऊ) पुत्र महाराज . तत्पुत्र राउत होतमीतत्पुत्र चुन्नीदेव इत्यादि लेख है। सो इन्हीं रामसिंह हारुलके वंशके राउत गोत्रीय लम्बेचुओं के वंशधर कभी राजा कभी मंत्री होते आये । यह साबित है राजा भरतपाल १३१३ विक्रम संवत् में भी राजा भरतपाल साभरी नरेश राउत गोत्रीय लमेचू थे जो भोगीरायकी पुरानी कविताका कहे हुये कवित्तसे भी साबित है जो हम अपर राउत गोत्रकी कवितामें लिख आये हैं। पुराने कवित्तोंमें ऊपर रावत गोत्रमें गाऊ रावतका कथन आया है इन्हीं राजाचन्द्र पालसे प्रचलित चन्दोरिया गोत्रमें ही इटायेवाले चन्दोरिया गोत्र है जो इटावेमें कन्नपुरा मुहल्ला जो जमुना किनारे पर टेकसी मन्दिरके पास है कन्नपुरामें भी जिन मंदिर है उसमें भी देसी पाषाणका पत्थर है उसमें खड़गासन उकेरी छोटी Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३५६ छोटी प्रतिमायें हैं । जिसमें पीछेकी तरफ चन्द्रपाट नगर में प्रतिष्ठा हुई लिखा है । पाषाण पुराना है विशेष पढ़ा नहीं गया उसी मुहल्ला में हमारे कुटुम्बी भादोलाल आदि रहते हैं । उसी घर से निकलकर हमारे बाबा मंगलचन्द भिन्ड गये और जो चोथी पट्टावली में वि० संवत् १९५२ दिया है कि केवल सिंहके साथ ११५२ की सालमें सब लंबेचू वंश इधर अन्तरवेदमें आ गया सो चन्द्रपाल पहिले आये होंगे । या चन्दपालका शासनकाल ११५२ ही होना चाहिये और उनके प्रधान मंत्री हारुलवंशज हाहुल राय राउत गोत्रीय थे । वे बादशाहसे ५६ छप्पन लाखका इटावा फुदरकोट आदि स्थान लिये। इसकी प्रमाणतामें इटावा गजटियरमें लिखा है कि कुदरकोटमें ताम्रपत्र ११५४ के सम्बत्का मिला जो चन्द्रदेवके शासन कालका था और १०५६ । १०५३ की प्रतिमायें कनकदेव कनकपाल (सोनपाल) के समयकी है । उस समय उनके हारुल राउत मन्त्री थे । इस प्रकार राजा चन्द्रपालका मिलान है । १०५३ की आदि प्रतिमाओं में चन्द्रपालका जिकर नहीं और प्रोजाबादके Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * अटावाली प्रतिमा पर भी लम्बकंचुकान्वये चन्द्रदेवराज्ये ११५६ शताब्दीका उल्लेख है और भाष्करमें श्रीमान् पं० जगन्नाथजी ने १०५३।५६ के रामसिंह हारुल के साथ चन्द्रपाल राजाका कास सम्बन्ध किस आधार से लिखा सो नहीं लिखा है । किम्बदन्ती श्रुतिसे है ऐसा मालूम होता है। क्योंकि १०५३।१०५६ में प्रतिष्ठा कराई । यह बात प्रतिमा ३ फुटकी पर लेख १०५६ अगहन सुदी ५ और पौने तीन फुटकी प्रतिमापर वि० सं० १०५३ वैशाख सुदी ३ और रामसिंह हारुलदिया । सो ये प्रतिमाये कनकदेवसुत्तकोकने निर्माण कराई । लिखा है सो राजा कनकपाल ( कनकदेव) है कनकपाल माने सुवर्णपाल जिनसे लमेचुओंका सोनीगोत्र भया और सोनी से संघई इन्हीं कनकपालजीने सोनिया गांव कनक मठ निर्माण कराया । उस कनक मठके चारों कोणमें चार छोटे-छोटे मन्दिर फूट पड़े हैं जिसकी प्रतिभा भी वही पड़ी है जब हम और बाबू ताराचन्द परिया सोनिया गांव मुरेनासे गये थे बैलगाड़ीमें तब उन प्रतिमाओंके फोटो लाए हमारे पास रक्खे हैं जिन Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समानका इतिहास * ३६१ सुवर्णपाल (सोनपाल) राजाके नामसे राज्य होनेसे कोई समय शहर होगा। गाँवका नाम सोनिया पड़ा, उसी सोनिया गाँवके नामसे स्टेशनका नाम सोनी पड़ा जो सोनी स्टेशन भिंडसे दूसरी स्टेशन है ६ कोस है। इसका लोगोंने मनगढन्त झूठा प्रचार किया है सोहनिया नाम रक्खा है । इतिहासको विगाड़ा है, कनक मठकी प्रतिमा हटाकर १ लम्बा गोल पत्थर गाड़ रखा है। इन्हीं कनकदेव सुवर्णपालके मन्त्री रामसिंह हारुल हुए होंगे, ये भी राउत गोत्रीय थे जो चौथी पट्टावलीमें रामसिंह जोरा आए लिखा है क्योंकि मुरेनाके पास ही जोरा अलापूर है। तब ये कनकदेवके मन्त्री होने चाहिये और राजा चन्द्रपालके मन्त्री रामसिंह हारुलके वंशज हाहुलीराय होने चाहिए और राउत गोत्रकी परम्परामें छिपैटी मुहल्ला फिरोजाबादमें जिन प्रतिमा १४२८ संवत् में जो भाष्करमें रामचन्द्रदेव लम्बकंचुक राउत गोत्रमें गाऊ राउत और उनके पुत्र होतमी तत्पुत्र चुन्नीदेव भार्याभट्टो तत्पुत्र साधु तत्पुत्र सिंघी साधुने प्रतिष्ठा कराई लिखा है, इससे यह सिद्ध भया कि सब Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * लमेचू वंश थे पल्लीवाल नहीं और जो श्रीमान् पं० परमानन्दजी शास्त्रीने अनेकान्त पत्र में वर्ष ८ किरण ८-६ में जो लिखा है कि १४५४ संवतमें चौहानवंशी सारंग नरेन्द्र राजा सांभरी रायके पुत्र राज्य कर रहे थे। उस समय चन्द्रवाड़में उनके मन्त्री वासाधर जैसवाल वंशी सोमदेव श्रेष्ठीके पुत्र थे जिनकी प्रेरणासे कविवर धनपालने 'वाहुवलि चरित' रचा सो ये वासाधर भी ममेचू थे जैसवाल नहीं। देखो जैन मित्रकी फाइल जैन मित्र गुरुवार बैशाख वदी १ श्री वीर सं० २४५१ के अंकमें पेज ३३७ श्री पू० ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने लिखा हैअप्रकट श्रीवईमानपुराण संस्कृत मुनि पद्मनन्दिकृत सूरत गोपीपुराके मन्दिर श्री दिगम्बर जिन मन्दिरके बड़े संस्कृत भण्डारमें जिसका प्रबन्ध भाई नगीनादास करमचन्द नरसिंहपुरा करते हैं ( नरसिंहपुरा) गोत्र (सिंहीपुरा) का नाम हो । वहाँ एक श्रीपद्मनन्दि मुनिकृत वईमानपुराण संस्कृत है, जिसके पेज पत्रे १५ हैं व सर्ग २ हैं। पहिलेमें ३१८ श्लोक दूसरे सर्गमें २२४ श्लोक हैं। जिसके मंगलाचरणका श्लोक यह है-स्वच्छन्दं क्रीडतोयत्र चिदानन्दौ परस्परम् , जगत्रयैक पूज्याय तस्मै सिद्धा Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ३६३ त्मने नमः। यह संवत् १५२२ वि० फाल्गुन वदी १ का लिखा ४८६ वर्षका पुराना लिखित है। श्री पद्मनन्दि मुनि श्री प्रभाचन्द्र आचार्यके शिष्य थे ::. : कर्ता और वे लोकचन्द्राचार्य लमेचूके शिष्य थे। प्रशस्तिके अन्तमें १७ श्लोक हैं, उससे पता चलता है कि लम्बकंचुक लम्बेचू गोत्रधर ( सोमदेव ) श्रावक-धर्म पालने वाले थे। उनकी स्त्री सुभद्रा थी, उसके दो पुत्र थेवासधर और हरिराज । हरिराजके पुत्र मनःसुख थे यह ही श्री पद्मनन्दि मुनि हुये गोत्रका श्लोक लम्बकंचक सद्गोत्रनभः सोमोऽसमद्य त्तिः । सोमदेवो भवत्साधुभन्यलोक शिरोमणिः ॥१॥ इसमें कथायें जिन रात्रिवत माहात्म्य वर्णित है अन्तमें है। __इति श्री वर्द्धमानस्वामिकथावतारे जिनरात्रिव्रतमाहात्म्य प्रदर्शक मुनि श्री पद्मनन्दिविरचिते मनःसुखनामाङ्किते श्री वर्द्धमाननिर्वाणगमनोनामद्वितीयः सर्गः । यह १५२२ का लिखा है तो सो-पचहत्तरि वर्षका बना हुआ भी होगा, तब १४५४ वर्षके समय ये ही वासाधर मन्त्री राजा सारंगनरेन्द्र के होना निश्चित है। इन्हीं Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * 1 सोमदेव लमेचके पुत्र वासाधर मन्त्री थे । इस सब कथनसे चन्द्रवारमें लमेचुओं चोहानोंका ही सम्बन्ध पाया जाता है राजा भदावर और लम्बेचओंका घनिष्ठ सम्बन्ध अबतक पाया जाता है । हम पहिले भी लिख आये हैं पान्ने में शिखरचन्द संघी लमेच संवत् २००५ तक रहे हैं। ज्यादा क्या दिग्दर्शन करावें । उस समय चोहान वंशी राजाओंका राज्य था । १०५३ । ५६ की प्रतिमाओं के लेख के विषय में था । वहाँ से १२०१ प्रतिमा लेख से लम्बकञ्चुकान्वय लमेचू वंश १४२८ तक लिपिवद्ध है तो पल्लीवाल कहाँसे कूद पड़े । यह बात निर्मूल है और कोई प्रमाणित सवृत करें तो देखेंगे। क्योंकि स्वयं अपने लेख में फिरोजाबाद के छिपेटी मुहल्लावाली श्यामवर्ण को प्रतिमाका लेख दे रहे हैं जिसमें स्पष्ट रीतिसे विक्रम सं० १४२८ वर्षे ज्येष्ठ सुदी १५ शुक्रे काष्ठासंघे माथुरान्वये और उसी कुछ मुनियोंके नामके अंगाडी रामचन्द्र दे लम्बकञ्चुकान्वये श्रीचन्द्रपाटदुर्गे इत्यादि है अनेकान्तपत्र वर्ष ८ किरण ८६ इसमें षट्कर्मोपदेशग्रन्थकं लेखों में भी १४६८ वर्षे (पे० ३४६ में) ज्येष्ठ कृष्णपञ्चदश्यांशुक्रवासरे Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्री लवेचू समाजका इतिहास * ३६५ श्रीमञ्चन्द्रपाट नगरे महाराजाधिराज लखीर ११ श्रीरामचन्द्रदेवराज्ये तत्र श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये श्री मूलसङ्ग (गुर्जर गोष्ठी) इत्यादि हैं। इसमें गुर्जर शन्दसे (गूजर) लिखा है सो गूजर नहीं किन्तु गुजराती प्रतीक है ऐसे साध (साह) श्री जगसी (जगसिंह) इनको नीचे पुत्र पौत्रों में (हालू) से हमीर देल्हा) देल्हण इत्यादि संकेत क्षत्रीय पुत्रोंक हैं तब सोमश्रेष्ठीसे (सोमराज) लेना चाहिये । राजपुताने उदयपुरके इतिहाससे इन संकेतादिका स्पष्ट विवरण है। आपने भी देखा होगा जैसे सारङ्ग नरेन्द्र अभयपाल जयचन्द और रामचन्द्र ये नाम चोहान तथा राठोर राजाओंके नामोंमें आये हैं। परन्तु यहां पर चोहान वंशी राजाओंका ही कथन है श्रीचन्द्रप्रभ चरितमें श्री वीर नन्दि आचार्य लिखते हैं। ____ गुणान्विता निर्मलवृत्त भौक्तिका नरोत्तमैः कण्ठविभूपणीकृता नहारयष्टिः परमेवदुर्लभा समन्तभद्रादिभवाच भारती गुणडोरेमेपोही निर्मलगोल गोल जिसमें मोती है। नरोतमैकण्ठविभूषणीकृता मनुष्योंमें उत्तम पुरुषोंने पहिरी Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी लँबेचू सगाजका इतिहास * हालू , चन्द्रराज, कल्हण, कुन्तल, महादेव-ये सब हाड़ा चोहानकी शाखामें हुए और चोहान नागोरसे साँभर आये। बादको साँभरसे अन्तरवेद, चन्दवाड़, इटावा, वकेउर, रपरी, जाखन, कोटरा, मैनपुरी, विक्रमपुर, प्रतापनेहर, चकनगर तथा जशवन्तनगर, कुरावली, सकरोलीमें बसे। फिरोजशाहसे लड़ाई हुई । तब इनकी मदद राणा रत्नसिंह करने आये । रत्नसिंहको रतसी भी कहते हैं और राणा सांगा ( संग्रामसिंह ) की मददको बाबरके विरुद्ध अन्तरवेद चोहान माणिचन्द चन्दभान गये। ये ऊपर लिख आये हैं और सांधिविग्रहिक को अर्थात् सन्धि और विग्रह करानेमें ऐसे ही पुरुष निपुण, चतुर ( दुर्लभ ) कहलाते हैं। ऐसे दुर्लभ पुरुष चोहानोंमें ३ हुए और ( विग्रहराज ) युद्ध करानेमें चतुर ऐसे पुरुष चोहानोंमें ४ हुए, जिन्हें वीसलदेव कहते हैं और पृथ्वीराज चोहानोंमें ३ हुए। और आखिरी चोहान सम्राट (भारत सम्राट या हिन्दुस्थान सम्राट् ) पृथ्वीराज ३ तीसरे थे और चोहानोंमें मण्डलिक राजा भी कई हुए। जो चौथी वंशावलीमें राणा Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३६६ वीसल मण्डलिक राजा हुए लिखा है। सो वीसलसे ( विग्रहराज ) समझना और मण्डलिकसे मण्डलिक राजा महान् राजा समझना। हम ऊपर लिख आये हैं कि राजा मण्डलीक को राणा कुम्भा ( कुम्भकर्ण ) की बहिन व्याहो थी। राणा कुम्भा सिसोदिया गुहिल कुलके थे और मण्डलिक राजा चोहान थे। इन्ही मण्डलिक राजाके बनवाये जिन-मन्दिर गिरनार पर्वत पर हैं, उनमें से कुछ जैन श्वेताम्बरोंके तरफ, कुछ दिगम्बरोंके और अम्बादेवी। जो श्रीनेमिनाथ भगवान्की जिन शासनदेवी, जिन शासन माननेवाली, जिन शासनकी रक्षामें सहायक, जिन पदकी सेविका श्री बृहत् हरिवंश पुराणमें लिखा है तथा आशाधर प्रतिष्ठा पाठमें, प्राचीन मूर्तियोंमें, दाहिनी बगलमें, यक्ष, चमर, ढोरसे खड़े पाये जाते हैं। और बाई तरफ चौबीसों यक्षिणियोंकी मूर्ति खड़ी चमर ढोरती पाई जाती है और इनका स्वरूप, वाहन शस्त्र आदिसे श्वेताम्बरसे पृथक् जुदा स्वरूप मिलता है। श्रीनेमिनाथ भगवान्की मूर्तिके दोनों बगलमें लिखा २४ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * है-श्रीनेमि, जिनके दाहिनी ओर श्यामयक्ष (गोमेदयक्ष) और बांई ओर अम्बादेवी, जिसके हाथमें आम फलोंका गुच्छा आदि है। बालक गोदमें और यक्ष तीन शिरवाला इत्यादि है। ऐसा ही हमने सूरीपुरके श्रीनेमिनाथजीकी प्रतिमाके यक्ष-यक्षिणी दोनों तरफ चमर ढोरते ठाड़े हैं। दिखाये हैं सोगिरनार पर्वतपर अम्बादेवीका मन्दिर भी जैन मन्दिर है, उसमें अब भी श्रीनेमिनाथ भगवान्के चरण हैं। ये मन्दिर सब राजा मण्डलिकके बनवाये हैं। इन्हीं मण्डलिक राजा और कुम्भाकी बहिनके साथ स्त्री-पुरुषांमें अन-मन हुई। तब समझानेके लिये पृथ्वीराज जनागढ़ गये और समझाकर अन-बन मिटाई। इससे यह प्रमाणित है कि परस्पर विवाह-सम्बन्ध थे। सीसोदेके राणा हमीर चन्दावत चोहानोंके भानेज थे ( सिंहलद्वीपके, लंकाके ) चोहान राजाकी पुत्री पद्मिनी राणा भीमको ब्याही थी। राणा लाखाके पुत्र लक्ष्यणसिंहके पुत्र कुम्भा ( कुम्भकर्ण ) थे। तब यह भी साबित होता है कि सिंहलद्वीप, सिलोन ( लङ्का ) तक चोहानोंका दौड़-दौड़ा था । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३७१ राज्य नेपालके राजा लोग राणा सीसोदे वंशके हैं, जिनका बृटिश गवर्नमेंट ( अंग्रेज) के समय भी स्वतन्त्र नेपाल रहा । और हमारे अनुमानसे अमेरिका पाताललङ्का होना चाहिये और यूरोप हनुरुद्वीप होना चाहिये । क्योंकि जब रावण और इन्द्रमें युद्ध हुआ, तब पद्म पुराण जैन- पुराण के अनुसार हनुमानके पिता पवनजय रावणकी मददको सेना लेकर गये और मानसरोवर पर डेरा डाले । वहाँ चाँदनी रात्रिमें चकवा चकवीका वियोग देखकर राजा पवनजयको बोध हुआ कि हमको अञ्जना सतीके साथ विवाह हुए २२ वर्ष हो गये। लेकिन हम क्रोधवश उनके पास न गये उनका क्या हाल होगा ? यह बात गुप्त रीति से प्रहस्त मन्त्री मन्त्रकर रातोरात आकाश विमान द्वारा आकर अञ्जनाकं महल में पहुँचे। वहाँ उससे बातचीत तथा विषय सम्बन्ध कर मुद्रिका चिन्हारीकी देकर सवेरे से पहिले सेनामें आ गये, जिनसे हनुमान हुए । इनके मुखक दोनों हनु प्रशस्त थे । 'प्रशस्तौहनू विद्यते यस्य' स हनुमान् कहाये । हनुमानके मामा वनकी गुफामें- जहाँ इनका प्रसव हुआ था पैदा हुए। वहाँ इनके मामाका विमान Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजको इतिहास * अटका तब उतरा। भानेज जानि इन्हें अपने द्वीप ले गया और हनुमान नामसे उस द्वीपका नाम हनुरुद्वीप पड़ा। यह वही युरप हनुरुद्वीप होना चाहिये । हनुरुद्वीप का अपभ्रंश यरुप कहना चाहिये। हनुमानके वंशमें बन्दर पले थे। फिर उनके ध्वजामें चिह्न करके बानरवंशी कहाये और जैन रामायण तुलसीकृत आदिमें हनुमान आदि को बानर लिख मारा, यह सम्भावित नहीं। और रामायणमें भी तुलसीदासजीने भी लिखा है-हनुमदादि सब वानर वीरा, धरै मनोहर मनुज . शरीरा। यूरपक मनुष्योंके मुख आदि लाल-ललाई लिये होते। उधर सूर्यको किरण कम पड़ती, इससे गौर और ललाईक कारण बन्दर कह डाले। कहनेका तात्पर्य यह है कि ये प्रदेश भी पहले भरतक्षेत्र में ही समझे जाते थे। जैन पुराणोंके अनुसार उधर भी जैन धर्मकी साधना थी तब तो शिलोन ( लङ्का ) में चोहान पाये गये। महीपाल चरित्रमें ये रावल माहपही महीपाल हो गये। ये महीपाल तो नरसिंहक लड़के लिखे और उदयपुरक इ० में ओझाजीने कहीं लड़के कहीं कर्णसिंह लिखे हैं। जिनको सिंहलद्वीपकी चोहान Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३७३ राजा जितशत्रकी कन्या ब्याही थी। ओझाजीने भी पमिनी सिंहलद्वीप चोहानकी कन्या लिखा है। अब जैन पुराण के अनुसार कुछ जोजनोंकी परिभाषाओंमें फर्क है सो हमें ऐसा अनुभव होता है कि बम्बईकी तोलमें जैसा फर्क होता है, वैसा न हो। जैसे बम्बईमें शाक-भाजीका सेर २८ रु० भरीका और और दूधका सेर ५६ भरीका चलता है वैसा ही फर्क न हो। फिर सर्वज्ञ जाने पर प्रदेशोंक मिलानसे तो ऐसा ही दिखता है। आजकल के भारतक नक्शामें भी हिन्दुस्थानका नक्शा धनुषाकार दक्षिणसे गुलाई लिये देखा जाता है जैसाकि शास्त्रमें लेख है। भरतक्षेत्रको जम्बूद्वोपक गुलाईसे धनुषाकार गुलाई लिये है। दक्षिणको समुद्रकी तरफ गोल द्वीप तरफ सीधा ।) इस माफिक। यहाँ तो हमें चोहानोंकी बस्ती दिखाने को लिखा कि सिलोन और नेपालमें भी चोहानोंका सत्व है। सत्व रहा और हमारे अपने अनुमानसे हेतु पक्ष साध्य सद्भावसे सद्भाव होता है कि लमेचुहानका अपभ्रंश चोहान हो गया। क्वचितप्रवृत्तिः इस व्याकरणके श्लोकसे लमेका लोप होकर ऊकारका ओकार होकर चोहान Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * अपभ्रंश भया और चोहानोंको इतिहासमें कोई रघुवंशी कोई गुहिलोंको रघुवंशी कहीं चन्द्रवंशी लिखा, पर इन शिला-लेखोंसे यदुवंशी सिद्ध होते हैं। हमारे भिंडमें भिंडके किलेके नीचे भागमें पुरानी वस्ती के रास्तेमें किलेके पिछाड़ी छोटे दरवाजेसे अंगाड़ी भिन्डी ऋषि जती (यति) भट्टारक साधु जो सूरीपुरकी आचार्य पपट्टावलीमें जो हमने इसी इतिहासमें छापी है उसमें भिण्डी ऋषिका उल्लेख है कि १२४६ की सालमें वही राजा भदावरने भदोरिया राजा महेन्द्रजके पूर्वजांने या उन्होंने भिंडका किला बनावाया। किलेके नीचे पूर्व उत्तरके कोणमें ईशानी दिशामें (ईशानी दिशामें ही ज्योतिष शास्त्र में अपने मकानमें ) देवस्थान लिखा है मो किलेके ईशान दिशामें ही किलेके नीचे एक भागमें देवस्थान बनाया जिसके भट्टारक भिण्डी ऋषि होंगे। ये जैन भट्टारक जैन ऋषि थे। भदोरिया चोहान कुल परम्परासे पहिले जैन होंगे तब तो किलेमें एक अलहदी जगहमें देव स्थान बनाया। अब वहां एक पण्डा महाराज ग्वालियरके तरफसे पुजारी रहता है। इसी Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३७५ भिण्डी ऋषिके स्थानमें लंबेचू वंशके चौधरी गोत्रके विवाह शादीमें भिंडी ऋषि पूजने स्त्री, पुरुष जाते थे। हम चंदोरिया गोत्री लमेच और चोधरी गोत्र भी लमेच सो हमारो उनका व्यवहार था। तब हम छोटे थे हम भी व्योहारमें जाते थे। यह हम ऊपर भी लिख आये हैं कुछ विशेष जाननेके लिये फिर लिखा है। हमें क्या मालूम था कि यह स्थान हमलोगोंका ही है। अब भी सुनते हैं कि उस भिण्डी ऋषि स्थानके नीचे तलघर बन्द रहता है ताज्जुब नहीं उसमें जिन प्रतिमा होवें। राजा भदावरका राज्य अब पान्ने नोगाये आदिमें थोड़ा रह गया है। तो उन भिंडी ऋपि नामसे यह शहर भी भिंड कहलाता है। यह भिण्ड नगर प्राचीन है। इन्हीं भदावर राजाका किला है। जिसका जिक्र ऊपर किया उसीमें कचहरी न्यायालयके स्थान ग्वालियर जिलेके सूवा (कलक्टर) का स्थान, तहसील महकमा आदि स्थान है। (मजिस्ट्रेट) राजकर्मचारियोंके न्यायालय सम्बन्धी टकसाल खजाना (सेना) एलकार क्लर्क आदि सबके जुदे २ स्थान बने हैं। बहुत बड़ो किला है। अब यह ग्वालियर Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * महाराज श्री जोर्ज जयाजीरावके अधिकारमें है । अब प्रजातंत्र । राज्यमें प्रजातन्त्र राज्यके महकमे हैं। महाराज भी शिरमोर पदाधिकारी गवर्नर हैं। ग्वालियर स्टेटकी तहसील अटेरमें भी बड़ा भारी किला महेन्द्रका बनवाया हुआ है बहुतसे उसके स्थान, दालान आदि ऐसे बने हैं। मालूम होता है कि अभी कारीगर बनाके गये हैं। राजाकी तसवीर भी है और अटेरमें अब भी ६० या ७० घर लमेचुओंके हैं । वटेश्वरके चंदोरिया चतुर्भुज बद्रीदासके घरानेक झम्मनलाल जयकृष्णदास पीताम्बर आदि परिया वटेश्वरवाले मनीराम उलफति राय आदि वकवरिया पं० वटेश्वर दयाल आदि ये सब अटेरके हैं। भिण्डमें भी पहुंच गये हैं। भिण्डमें मनीराम उल्क्षति रायका फार्म है। ____अटेरमें पचोलये गोत्रकं भी है। संघई सुखलाल बाबूराम आदि जिनका धीका कारोबार कलकत्तमें भी दुकान है। पं० नगपाल उल्फतिराय संघई बम्बई पहुँच गये हैं। इन सबकं मकान है। भिण्डमें हमारा भी मकान है हम इटावावाले चंदोरिया है। राजा चन्द्रपाल चंदवाड़ (चन्दपाट) जिसका इतिहासमें चन्दवाड़का उल्लेख Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --... . * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३७७ उन्हींके वंशमें हैं। इटावामें भी हमारा मकान है कर्णपुरा (कन्नपुरा) बोला जाता है। जहाँ रोजा सुमेरसिंह (मुमेरशाहका किलाहै टिकटी)टकसीका मंदिर ह वहीं कनपुरा है। कन्नपुरामें १ जिन मन्दिर है पुराना और हमारे कुटुम्बी चंदोरियाक घर हैं तथा रबरौआ लोगोंके भी दो-तीन घर हैं और भिंडमें चोधरी लमेचुओंके घर चबूतराके पास तीन है तथा १२ परेटपर हैं और १ पान्नेके चोधरीक है और अटरवालोंके मकान हवेली पक्के मकान फार्म हैं । ___ लँमेचुओंके घर २५ हैं। और खरौवा गोलारारे गोलसिंगारे खंडेलाल परवार पद्मावती पुरवार अग्रवाल भिंड्या दशा आदि सब जैनियोंके ५०० पांच सौ घर तथा ८ जिन मन्दिर वर्तमानमें हैं। परवार खंडेलवाल पद्मावतीपुरवारोमें एक दो घर हैं। हमारा घर गुरहाई मुहल्ला में है, जो किला और परेटके मध्यमें पड़ता है । जहाँ पोस्ट आफिस है। अगारी पूर्व तरफ किला है। किलके पास १ जिन मन्दिर सबसे पुराना कोई सात-आठ सौ वर्षके करीबका हो, किलंका मन्दिर बोला जाता है। उसका प्रबन्ध गोलसिंगारे भाइयोंके हाथमें है। और दूसरा Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * वजरियाका मन्दिर खरौआ जैन गोलालारेकी शाखाका है, जिसका प्रबन्ध सुखलाल चौधरीके लड़कों के हाथमें है । जो इटावावाले पं० पुत्तूलाल जयचन्दलाल के कुटुम्बी हैं। तीसरा बड़ा मन्दिर जिससे रथ निकलता है, वह खरउआ मेकी मुख्यतामें पाँचो गोटका पञ्चायती समझा जाता है। इसमें अग्रवाल भी रहे हैं। वैष्णव हो गये, कुछ रहे नहीं । अब अग्रवाल कुछ तो एकआदि केवल भादों में आते हैं। बड़े मन्दिर के पास एक जिनेन्द्रभूषण भट्टारकका बनवाया जती ग्वालियर सूरीपुरके भट्टारक दिगम्बरी जातियोंका है । उसका प्रबन्ध अब मेचुओके हाथ में है । एक नवीन परेट पर पञ्चायती मन्दिर रेलके पास हैं । एक मन्दिर चैत्यालयके नाम से प्रसिद्ध हैं। ये दोनों मेरे सामने बने हैं। चैत्यालय मन्दिर गोलसिंगारे भाइयों ने बनवाया है। एक नशिया ( निपद्या ) स्थान त्यागी पुरुषोंके लिये बनवाई गई है। ठीक रेलवे स्टेशन से सटी हुई निकट है। इसकी जमीन श्रीमान् अग्रवाल दिगम्बर जैन, गिरधारीलाल के सुपुत्र और गुलजारीलालके भतीजे ने Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचु समाजका इतिहास * ३७६ दी थी। उसमें सभी पञ्चोंने रुपया लगाकर इमारत बना दी है। पहिले रथयात्रा होकर नवादाबाग जो भदोरिया राजाका है बड़ा आलीशान स्थान है। जो छोटा ग्राम के माफिक है। इसके चारों दिशाओं में चार महल और बीचमें कचहरी, पूर्व-पश्चिममें तालाब इत्यादि हैं। अब भी राजा भदावरके ही कब्जे में है। वहाँ भगवान श्रीजी विराजमान होते थे। चारों तरफ दुकानें लगती, बड़ा आलीशान मेला कार्तिकमें लगता था । इस मेलेकी लिखित भिण्डकी शोभा नाम पुस्तक है उसमें नवादाबाग और मेला दुकानदारोंसे वगीचा वृक्षादिका जिकर है। अबकी सालमें मुनते हैं नशियापर लगाया भदोरिया चौहानोंके कारण इतना इतिहास लिखना पड़ा। राजा राणा रपरसेनसे रपरी शहर बसाया। जमुनाके किनारे जमुनाके उत्तर तटमें रपरी ग्राम है, जिसके निकट अब भी ध्वंस किला आदिके चिह्न हैं वहां अब मुसलमानी वस्ती थोड़ी है जो इक्का तांगा जोतते हैं। यहां वीरान होनेसे कोई वटेश्वर कोई फेजावाद कोई मुरोंग कोई कचना उर कोई फदवसे वैसे ही अलल पड़ गये। उसी Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * नामसे परियागोत्री कहलाने लगे। श्रीमान् ताराचन्द रधरिया आगरा फेजलावादी कहलाते हैं ख्यालीराम अमोलचन्दके फार्मके वहाँसे आये और बाहपर कचनाउरसे गये। जिससे कचनाउर वाले रपरिया कहलाये। कचनाउर भिंडके पास ही है। कचनाउरवाले रपरियाओं का १ घर भिंडमें था। भिंण्डमें उनके घर पर चैत्यालय था । उसकी प्रतिमो वाह पर गई। उन्हीं टोडरमल परिया की बहिन हमारे बाबा मंगलचन्द (मङ्गलसेन को व्याही थी उन्हींके सहारे हमारे बाबा इटावा से भिंड गये। बाद के पास पान्नो नदिगँवा प्यारमपुरा जैतपुर (जैत्रसिंहको) अनुकरणसे रखा गया हो। शाहपुरा जहां रावत गोत्रके लमेचू रहते हैं जो भास्करमें भाग १३ में किरण १ में चन्द्रपाल राजाके दीवान रामसिंह हारुलने वि० सं० १०५३।१०५६ में कई प्रतिष्ठा कराई लिखा है । - एक जगह ५१ जिन प्रतिविम्ब प्रतिष्ठा कराई लिखा है। एक प्रतिष्ठा १४२८ में हुई उसी हारुल हाहुलीराय के वंशज रावत गोत्रीय शाहपुरामें तिलोकचन्द चिम्मनलाल बसते हैं और वटेश्वर के पास जमुनापार मही गांवमें रावत Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३८१ बहुत रहे हैं । जो महीवाले रावत कहलाते हैं और प्यारमपुरा जैतपुरसे चलके चम्मिल नदीके निकट जिन मंदिर है वहांके ( हस्तिक्रान्त) हतिकांति बस्ती है। ही मुन्नालाल द्वारकादास लमेचू पोद्दार गोत्रीय | जैन जो राजा भदोरिया के ( पोत) खजाने के परीक्षा करके हिसाब रखते जिससे पोद्दार अलल हुई (जिसको राजपुताने उदयपुरके इतिहास में ) । उसका इतिहास पेज ४२६ में राज्यके आय-व्ययका हिसाब रखनेवाले कार्यालयको (अक्षपटल) कहते हैं । अधिकारी राजपूत कर्मचारी पदाधिकारी (अक्षपटलाघीस ) कहते हैं ( पोहारके) माने अक्षपटलाधीशके हैं। प्राचीन लिपिमाला १५२ पृ० में देखो तो राजा भदावर के पोद्दार होने से इनका अलल गोत्र पोद्दार भया जिनका फार्म अब ७६ नं० बड़तल्ला स्ट्रीट कलकत्तामें गद्दी है । वाड़ी है उसके मालिक बाबू सोहनलाल हैं और कुरावली में भी लमेचूओंके घर है जहाँ तिहैप्या रावत चंदोरिया शंखा कुअर भर ये कुदरा गोत्रके हैं। आगरामें वरोलिया गोत्र के जिनकी वेलनगञ्ज में वंशीधर सुमेरचन्दकी तथा Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * चिरंजीलाल सूरजमल की दो भागमें वरोलिया बिल्डिंग हैं। दोनोंका बड़ा फार्म है। वंशीधर सुमेरचन्द जैन एण्ड को केंटीन और चीनी भाण्डोंका तथा कांचका कारखाना है। सूर्यमलके बिजलीकी लोटिया आदि बिजलीका काम है वाह पे झुन्नीलाल तोताराम दरवारीलाल परिया लमेच सर्राफ (सोने चाँदीकी दुकान) सुन्दरलाल तिहैय्या पंसारी व्यापार और भी हजारीलाल रपरियादि है। जैतपुर के ईश्वरीप्रसादके घरानेके जमींदारी है। करहलमें संवत् १६११ की सालमें राणाप्रताप रुद्र राजा प्रतापनहरके उनके प्रधान मन्त्री भगवन्त सहाय जिनको भैय्याज की खिताव थी। कानूगो जिन्होंने जिन विव यज्ञ प्रतिष्ठा कराई, उनका कथन ऊपर कर आये हैं। और चाबू मुन्नालालजी के छोटे भाई तोताराम पोद्दारके पुत्र मधुवनदास इटावा है। इटावामें बाबू मुन्नालालजीने हतिकांतिके जिन मंदिरकी सब जिन प्रतिमायें दिगम्बर इटावामें एक बड़ा आलीशान जिन मंदिर बनवा कर सवासो डेढ़सो १५० श्री जिन विम्ब Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A ri h an - .------- ----- --..-. . - --- - - -- * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३८३ हतिकांतिसे लाकर विराजमान किये। श्री मूलनायक पार्श्वनाथ श्यामवर्ण और २ सफेद बृहत जिन विम्ब विराजमान तीन बड़ी-बड़ी वेदियोंमें विराजमान कर एक बड़ी रूपमें धर्मशाला दो चौक की बनवाई। कई उसमें मकान है, कोठरी है, जिन मंदिरकी नीव मैंने शास्त्रोक्त पञ्चकलश शिलान्यास नवरत्न पूर्वक पारद देकर कराया। जैसा कि प्रतिष्ठा तिलक वसुनन्दि प्रतिष्ठा पाठ में लिखा है उसी धर्मशालामें कूप आदि सब आराम है। ऊपर जिन मन्दिर है पूजन करो, धर्म साधन करो, शास्त्र सुनो, पढ़ी शास्त्र भण्डार भी कुछ तो बाबू मुन्नालालजीका हस्तलिखित संग्रह है बड़े प्रतापी और धर्मात्मा हुये। मृत्यु समय तत्वार्थसूत्र सुनते-सुनते समाधि सहित मरण किया और मरते समय मुट्ठी हाथों की बँधी गई वैसे हाथ खुले जाते हैं। उनका हम ऐसा देखा। __ अब उनके फार्मके अधीश बाबू सोहनलालजी है और लाला फुलजारीलालजी रईशकरहल भी बहुत धर्मात्मा थे। उन्होंने प्रायः तीर्थों में एक-एक कोठरी बनवाई। घरमें। प्राचीन चैत्यालय है। लाला चुनीलालके सुपुत्र वंशीधर Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * सुमेरचन्दजीने भी तथा उनके भानजे ताराचन्दजीने सूरीपुर पर तथा (वटेश्वर) का उद्धार किया, मुकदमा जिताया । उस शौर्यपुर सूरीपुरमें प्रतिष्ठा करानेके लिये दश हजार रु० निकाल रखा है। बाबू सोहनलालने एक मन्दिर तथा प्रतिमा बनवाई। शिखरजीमें पहुंच चुकी है सफंद सवां पांच फुट पद्मासन प्रतिष्ठा माघ सुदी २ से ६ तक वि० संवत् २००७ में हो चुकी है। जिसमें बाबू सोहनलालका ३५००० पैंतीस हजार रुपया करीब लगा। शिखर प्रतिष्ठा भी हो गई। मेरे हाथसे ही ये दो काम भी प्रतिष्ठाके हुये है मेरी ७१ वर्षकी उम्र हो चुकी है। ___उपर्युक्त सूरीपुर और चन्दवाड़ ( चन्द्रपाट ) के विषय में और भी पं० जयविजय कृत तीर्थ मालामें संवत् वि० १६६४ की बनी हुई और सौभाग्य विजय कृत तीर्थ माला १७५० में लिखा है ( भास्करसे उद्धृत पेज १५६ रायवद्दीय और चन्दवाड़ नगर ):देहरा सरना देव जुहारी । फिरोजाबाद आया सुखकारी ॥ तहाँ श्रीदक्षिण दिशि सुविचारी। गाँउ एक भूमि सुखकारी॥ चॅदवाडि माहि सुखदाता । चन्द्र प्रभु वन्दो विख्याता ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३८५ स्फटिक रतननी मूरति सोहे । भवि जनना दीठा मनमोहे ।। ते वन्दो फीरोजाबाद । आया जाणी मन आल्हाद । फिर उसीकी १२ वीं ढालमें कहा है। सौरीपुर रलियामणो जनम्या नेमिजिणंद । यमुना तटिनीने तटे पूज्याँ होय अणंद ।। सौरीपुर उत्तरदिसे जमुना तटिनी पार । चन्दनवाड़ी नाम कहे तहाँ प्रतिमाछ अपार ॥ इत्यादि सूरीपुर और चंदवाड़का कथन उन्होंने भी लिखा है। अब हम लमेचू जातिके रीति रिवाजोंसे यदुवंश और क्षत्रियत्वकी प्रमाणता दिखाते हैं। लम्बेचू जातिमें प्रायः पोडश १६ संस्कार होते हैं। जब लड़केका विवाह होता है तो पं० आशाधरकृत प्रतिष्ठा पाठसे लिया हुआ बहुत-सा अंश परब्रह्म तथा श्री आदिक दिक्कुमारियोंका और मण्डप प्रतिष्ठादि विषय जिसमें है उस जैन विवाह पद्धतिसे चिरकालसे खरउआ पाँड़े जैन विवाह कराते आते हैं। ऐसी किंवदन्ती है कि जो अब पटिया लोग बोले जाते हैं जिन्होंसे उपर्युक्त पट्टावली २५ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ * श्री लॅवेचू समाजका इतिहास * मिली हैं। ये पटिया लोग ब्राह्मण पुरोहित विवाह पढ़ाते रहे । काई समय असन्तुष्ट होकर वर कन्याको कूपमें पटक दिया और अपने भी गिरकर प्राण दिये, तबसे खरउआपाडे विवाह पढ़ाते हैं। और उनका हक्क विवाहमें जितना रुपया वरको खेत लग्न और टीका दरबाजे पर तथा विदाइगीके समय ( थरा ) थाल पांउ पखराउनीके समय वरको दिया जाता उतने रुपयों से पांडजीका उसके हिसाबसे पाड़ेजो की विनय बोलकर सब बरातियोंके समक्ष कहकर दिया जाता है। जो रुपया टीकाके समयमेंसे जब दिया जाता है। जब जिन मन्दिरमें दिया जाता है उसकाआधाथराके समय पांडेको दिया जाता है जब विवाहके पहिले वर्ष या तीसरे वर्ष ज्योतिष शास्त्रानुसार द्विरागमन ( मुकलावा मारवाड़ी भाषा में ) लिखा है। जब शुक्रके ताराके पीछे या बाम होनेसे उस तरफ विदा होकर आती है। तब ससुर घर आकर उस बहको प्रथम रजोदर्शन होता है। तो ४ दिन बाद मुहूर्त जब आ निकले तब स्नान कराया जाता, और उस दिन स्त्रियाँ दिनमें चोक आदि पूर गीत आदि गोकर रिवाज पूरी करती हैं। इस समय पहले हवनादि Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३८७ १०८ आहुति कराके पूजनादि कराते होंगे। अब केवल स्त्रियोंमें डुकरिया पुराण की रिवाज रह गई हैं; परन्तु प्रथा तो गर्भाधानकी चली आती हैं। पिताके दिये हुये ( पर्यङ्ग) पलग और गद्दी, तकिया, विस्तर जो द्विरागमन (गोनेमें ) आते हैं। वे सब काममें बिस्तरा लिये जाते हैं। स्वभावसे यद्यपि यह विषय गोप्य हैं, परन्तु सबके जानकारीके लिये लिखना पड़ता है। सो भी हम संक्षेपमें दिगदर्शन करानेको लिख रहे हैं। यह सबके यहाँ विवाह गीनेमें ये सब चीजें लड़कीवाला सबही जातियों में देते हैं। सोनेके समय विछा दिये जाते हैं। उस दिन रात्रिको भी मङ्गलकामनासे मङ्गल गीत गाती है। इसे फलचोक कहते, रजको पुष्परज कहते हैं। जैसे वेलि वगैरहमें फल लगके फल लगता है। यह बात गर्भाधान की खुशी की है, उत्तम सन्तान होने की आशा है, और अलीक हंसीका विषय नहीं क्योंकि किसी हिन्दी कविने कहा है किमूतके हम भी मूतके तुम भी मूतका जगत् पसारा है । कहत कवि तुम सुन लो भाई, मृतसे को को न्यारा है । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * माताका रज और पिताका वीर्य ये दोनों मूत्र स्थान द्वारा निकलते हैं और माताके मूत्र स्थानके पास कमलके नमाफिक alonfer गर्भस्थली है। उसमें जाकर रजवीय योग्य निर्दोष जैसे रजवीर्य होते वैसा ही उत्तम, मध्यम, जघन्य स्वभावका जीव उसको ग्रहण कर पैदा होता है, गर्भ रहता है । इसमें उत्तम संस्कार मन, वचन, कायके माता पिताके होनेसे बालक उत्तम होता है । यह संसार की अनादि प्रवृत्ति है। यह वस्तुगति है, इसमें मखोल । हंसीका काम नहीं और उत्तम वस्तु चाहते हैं इससे हर्षका काम है । इसीलिये सोलह संस्कारों की आवश्यकता ( जरूरी ) है ! इसके बाद प्रीति और सुप्रीति क्रिया कही । इसको स्त्रियाँ कुछ न कुछ रूपमें करती होंगी। हमने निगाह नही की । ४ थी क्रिया ( पुंसवन ) है । यह लमेचुओं में ही होता हो है और लोगों में होता हो तो वे जानें, हमें नहीं मालूम, हमलोगों के होता है। इसे स्त्रियाँ (अनगनो) कहती हैं । इसमें भी स्त्रियाँ चौकपूर के गर्भिणीको बैठाकर गीत आदि गाती हैं और पांचवां संस्करण सीमन्तक कर्म Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३८६ ( चोक जो पूर्वोक्त या सीमन्त कम ) है इसको मारवाड़ी अठमासा कहते हैं । खंडेलवाल अग्रवाल मोरवाड़ी और देशवालियों जो लम्बेचुओंके निकट प्रदेशमें रहते हैं गोलारारे खरउआ गोल सिंगारे पद्मावती पुरवाल इनके भी चोक कहते हैं । यह गर्भसे आठवें मास में होता है । इसको ज्योतिष में सीमन्तकर्म कहते हैं सीमन्तः केशवेशे अर्थात इसमें चोकपुरके सुहागिले स्त्रियां एक बड़ीसी चोकी रख उसपे सुन्दर वस्त्र रख लाल पीला बिछाकर उसपर गर्भिणी बधू (स्त्री) को बैठती हैं। उसपर शिरगूँथी कर सुन्दर वस्त्र आभूषण पहनाकर उसके हाथसु पूजन अर्घ चढ़वाकर या आखत अक्षत डालकर श्वसुर की गोद में बहू बतासे, मेवा, गोझा आदिसे बहूकी झोली भर बहू वसुरकी दुपट्टामें देती हैं, श्रीफल देती हैं, तिलक करती हैं । बहू को मान्ययापति मालायें पहनाता । शास्त्रमें उदुम्बर फल और छहारा की माला पहनाना लिखा है। गृहस्थाचार्य यह मन्त्र पढ़ता ॐ ह्रीं पञ्चपरमेष्ठि प्रसादात् उदुम्बर फलाभरणेन बहुपुत्रा भवितुमर्हा स्वाहा । फिर जातिके बिरादरीके स्त्री पुरुष सब व्योहार के न्योछावर करते। अन्नी, पैसा श्वसुर रुपया Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * धेली न्योछावर माली नाईको बांट देते। फिर संघकी बिरादरी की जीमनवार करते और ओर ओल गोदी भरते समय उस बहूका देवर गर्भिणीके कानमें शंख लेकर बजाता, शंखधनि करता है। यह प्रथा खरउआ गोलारारे पद्मावतीपुर आदिमें शंख बजाने की नहीं, शंख लॅमेचुओंके ही बजाये जाते हैं। यह यदुवंशी होनेका प्रतीक है। यदुवंशी होना प्रमाणित करता हैं कि श्री नेमि भगवान् औव कृष्ण महाराज दोनोंने नागशय्यादली शंखध्वनि करी । इससे शंख बजाये जाते हैं। यह चाल पुरिखाओंसे सन्तानदर सन्तान प्रचलित हैं तथा जब पुत्र उत्पन्न होते हैं तब षष्ठी क्रिया जातकर्म चरुवा वाइविडंग आदि औषधियोंका क्वाथ होता है जब प्रसूतीके दरवाजे पर लिखनाधर क्वाथ किया जाता है। और क्वाथके जलसे लड़के दायी स्नान कराकर अघोर कुण्ड निकालकर ले जाती। नाल छेदा जाता, इस छटवी क्रियाको छटी कहते हैं इसमें स्त्रियां सारी रात्रि गीत गाती हैं सम्हाल रखती पीछ प्रसूतीके स्नान के दिन मुहूर्तसे स्नान पुरुषवारोंमें और स्नान करानेके नक्षत्रोंमें रेवती, उत्तरात्रय, रोहिणी, मृगशिरा, Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३६१ अश्विनी, हस्त, स्वाती आदि लिखित नक्षत्रों में स्नान कराकर सुहागिलचोकपर कर एक पाटारख उसपर पुत्रको गोदमें लेकर बहू पाटापर बैठती। कन्या सुहागिलसे अखड़वलिवाती ( अखड़व ) में गोझा पूड़ी पपड़ी आदि लाड़ आदि एक छबीलीमें टोकरीमें रख सुहागिलको गोद में देती। बच्चाके हाथमें तोर घघाती माता उस अखडवको सुहागिलको देती यह छटवी ही क्रियामें सामिल है या ७ वां संस्कार है। तब तीरका देना यह भी क्षत्रित्व प्रमाणित करनेवाली है और वहिन क्रियामें बालकको जिन मन्दिर ले जाते तिलक कराते, भेट देते, दठोन संस्कारमें मुखजुठ राते, खीर आदि खिलाते, आदि प्रायः सब संस्कार होते हैं। ओरोंमें भी बहुतसे संस्कार होते हैं। बहुतसे नहीं जब विवाहमें बरात जनमासे पहुंच जाती तब समधीके दरवाजे पर तोरणपर आते पहले लडकीके तरफसे छता आजावै तव चलते हैं। छता एक छत्रका अनुकरण हैं। राजछत्र क्षत्रियोंके प्रतीक हैं। इस समय सब जगह छत्र नहीं मिलता। जरीका छाता किसी बड़े आदमीके वैसे Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ही होते हैं पर साधारणके लिये एक डंडा पर टूल एकरंगाको उढ़ाकर उसपर लोटी रख दी। इसीको छता (छत्र ) कह दिया और वरात ( यान ) जब समधीके घर जीमनेको जाती है तब घरातके तरफसे रिस्तेदार ( सगेपरसंगी ) भाई बन्धु कतारबद्ध खड़े होकर बरातमें आये हुये बरातियोंसे जुहारू साहब ऐसे शब्दसे पंखा लेकर सबका विनय करते हैं और दरवाजे पर एक कंडीमें पानी भर कर एक परात रख दो पिडिया बेसन की छोटी रख पैर धोनेका पेरोसे बेसन उबटन की जगह लगाकर पैर धोनेका आग्रह करते हैं। खास समधीके पैर समधी धोते हैं। यह सब शिष्टाचार विनयका उल्लेख क्षत्रियोंके विवाहमें साहित्यमें देखा गया है। अजैन विद्वानोंने भी रामचन्द्र आदिके विवाहमें उल्लेख किये गये हैं। यह सब शिष्टाचार क्रमबद्ध उल्लेखनीय सदासे चला आता है। रोरी का तिलक और चावलसे माथा सुशोभित करना प्रत्येक विवाहमें विवाह के प्रत्येक कार्यम होते हैं। खेतलग्न जनमासे मेंही देते हैं। लग्नमें दो डालीमें एकमें चावल भरके दूसरेमैं बताशे भरके उसपर लग्न रख लनके साथ दो दोना Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३६३ एक घुली रोलीका एक चावलोंका और एक थैली सुपारी की संग जाती है। प्रत्येक कार्यमें विवाहकमें तिलक करना चावल लगाना, सुपारी ४ चार देना आम रिवाज है। गरीब और अमीर सब करते हैं और छतपर जीमने जाते वहां भी तिलक किये बिना किसीको उतरने नहीं देते। जो जीमनेके बाद दो आदमी आकर एक पंखा लेकर छोटा सा आवैगा । दूसरा भी दोनों जुहारु करते जायंगे । विनयसे जुहारु शब्द युद्धकारका अपभ्रंश है जो क्षत्रियत्वका द्योतक है। इस जुहारके बिना बात नहीं करते। आशाधर भी बड़े विद्वान थे ( बघेला ) वंशीय क्षत्रिय थे जो लमेचुओंके गोत्रों में से क्षेरे (बघले) गोत्रकी एक जाति हुई और जैनियोंमें बघेरवाल कहने लगे उस समयमें भी इतिहासके खोजकी दृष्टि नहीं थी ऐसा प्रतीत होता है। तो लिखते हैं स्यात् सागरधर्मा मृ० श्राद्धाः परस्परं कुर्य जुहारु रिति संश्रयम् क्षत्रियोंके परस्परका विनय जुहार है और लोगोंकी देखादेखी रामराम जैगोपालकी जगह जयजिनेन्द्र चल गया Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * है वैसे विचारने की बात है कि परस्पर विनय करो । वहाँ पर भगवान्के नामको बीचमें घसीटनेका क्या काम जो भगवान् का विनय करते हैं। तो हमारा आपका क्या विनय भया और हम आपका परस्पर विनय करते हैं तो भगवान् नामको बीचमें लानेसे किसका विनय रहा। यह सब लोक प्रवाह है और चोहानोको चाहमान लिखा सो साहित्यमें सब जगह लिखा है कि क्षत्रिय लोगोंके (मान) आदर और यश ही धन होता है और कुछ नहीं हमीर आदिक बड़े-बड़े पृथ्वीराज सरीखोंने मुसलमान जवनत मस्तक हो गये छोड़ दिये ये लोग अपने बल पौरुषका स्वत्व रखते थे इन्हें परवाह न थी। यह क्या करेगा कपटीका कपट जान लेनेपर भी क्षत्रिय लोग यह समझते थे क्या करेगा। परन्तु कपटी अपने दाव पेच डालकर भुला देता। यही गलती राजपूतोंको धोखा दिया । क्षत्रिय लोग तो यह समझते ( स्ववीर्य गुप्ताहि मनो प्रसूति) अपने वीर्य अपने सामथ्यसे अपनी रक्षा करना यही कुलकर १४ मनुओंका उद्देश था। इससे वे परवाह रहै तो चाहमानका अर्थ यही है कि जो मान ( आदर ) Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * ३६५ चाहें स्वाभिमान हम ऐसे कुलके हैं जो शौर्यवीरसे सम्पन्न हैं। हम अनुचित काम न करें। यह मान भी लमेचुओंमें अधिकतर पाया जाता है। कोई भी लमेच होवे कोई भी बिना आदर कोई चीज नहीं लेता। भोजनादि भी बिना निमंत्रण नहीं करता। हमें याद है कि हम संवत् १६५५ में हाथरसकी जिन बिम्ब प्रतिष्ठामें गये थे तो श्रीमान् पं० प्यारेलालजी पं० श्रीलालजी के पिता अलीगढ़वालेने पूछा आप कौन है हमने कहा कि लमेचू हैं तब ये कहने लगे कि तुम वे ही लमेचू हो जो कुआँमें गिर गये थे निकाले । तब पूछा कि भोजन करोगे तो उन्होंने जवाब दिया कि साहब हम तो खाकर (जीमकर) गिरे थे। तब हम बोले हां सब वे ही लमेचू हैं। ____ हम विक्रम संवत् १६६० संवत्में श्रीमान् पंडित धन्नालालजीके भेजे बन्बई पहुंचे। ईडरगढ़ जानेको तो हम जैन वोर्डिङ्ग गये। ठहरे वहां श्रीमान् पंडित वंशीधर शोलापुरवाले तथा नाथूराम प्रमीजी आदि थे। वोर्डिङ्गसे श्री मान्सेठी मानिकचन्द पानाचन्दकी गद्दीमें खारी कुई Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ * श्री लँबेचू सगाजका इतिहास * के पास पहुंचे। उनकी गद्दीमें बातचीतकी। ईडर जानेको बैठे रहै वहां हमें प्यास लगी। हमने पानी न मांगा। उनकी गद्दीमें एक घड़ा मट्टीका पानीका ठंडा रखा रहा किसीने पानीकी पूछी नहीं हमने मांगा नहीं । जब हम वोर्डिङ्गमें आये हमने कहा कि आज तो प्यासके मारे मर गये । किसीने पानीकी न पूछी तो प्रमीजी कहने लगे कहीं पीतो नहीं आये हमने कहा नहीं क्या बात थी तब उन्होंने कहा कि वह सब जूठा पानी होता है। लुमड़ोंमें चाल हैं कि उसी घड़में गिलास जूटा डवोदेइंगे। पानी पीलेंगे। फिर डवो देंगे तब हम विचार किया। इस समय तो लँबेचूपन काम देगा या ठीक है बिना पूछ ताछे नहीं कोई चीज मांगना चाहिये तो लमेचुओंमें यह स्वाभाविक बात है कि बिना आदर कोई चीज ग्रहण नहीं करते और तो क्या जब सिंहलद्वीपमें राजा जितशत्र तापसके आश्रममें रहता था। उनकी कन्याने कहा है मालवेके राजा महीपाल कुमरको कि तुम मेरे साथ विवाह कर लो तब महीपालने जवाब दिया तेरे पिता मुझे आदरसे कहकर परणावेतो परण नहीं तो नहीं ये भी मालवेके चोहानो में ही थे। अब Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३६७ कुछ हम अपने निकट और परिचित जातियोंके विषयमें संक्षिप्तमें इतना ही लिखते हैं कि हमारे जैसवाल भाई कच्छ देशके कछवाये ठाकुर जो भिंडके पास लाहर पर गनेमें कछयाये ठाकुर कछवाये क्षत्रिय बहुत हैं। ये और जैसवाल भाई जैन ये सब जेसलमेरसे आये । ___यह बात इसीमें छपी आचार्योंकी पट्टावलीमें कुछ निर्देश है और राजपुतानेके उदयपुरके इतिहासमें ४२३ पेजमें लिखा है कि १४०५ में तो शिवभाणके पुत्र सहस्त्रमल्लने नई शिरोई बसाईयेशिवदेव न हो सो देवडा चोहानमें थे। देवड़ा गोत्र मारवाड़ी अग्रवालोंका है । देवड़ा चोहानोंकी राजधानी आबूके नीचे चन्द्रावती नगरी थी और अजमेर नगर आनल्लदेव ऊर्णोराजके पिता अजयदेव ने बसाया। सिरोही राज्यके इतिहास पृष्ठ १६३६४ में लिखा है और जेसलमेरको भाटी जयसलने विक्रम संवत् १२१२ में बसाया और भाटीको राजपूताना द्विखंड उदयपुर इतिहासमें यादव वंश लिखा है भाटियाओंका यादव वंश है तब जेसलमेरसे निकास जैसवाल भाइयोंका है सो ये भी यादव हैं। इसमें भी संशय नहीं रहता कक्छ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * देश भी शिवपुर अन्तरिक्ष पार्श्वनाथके पास है जो अधर प्रतिमा है। वह कच्छी लोगोंका ही मन्दिर और प्रतिमा है और श्रीमान् सरनाइट सेठि हुकुमचन्दजीका काशली वाल गोत्र चोहानोंमेंसे है यह हम डहके खंडेलवाल इतिहासमें पढ़ा है और इनका तो खास मालवदश है तथा श्री पन्नालाल दूनी वालेने तथा श्रीमान् पंडित सदासुखजी ने खंडेलवाल जातिमें ८२ गोत्र तो खंडलाके क्षत्रिय है। और २ गोत्र सुनार है। विद्वज्जन वोधकमें पन्नालालजीने लिखा है यह भी इतिहास न जोनकारीकी भूल ही में अनुमान करता हूँ सो नगरेके आये हुयोंको मुनार कहा काञ्चनगिरीसे सुवर्णगिरी कहलाई। यह भी क्षत्रिय है और फिर इतिहास खोजी विशेप जाने और अग्रवाल जातिके विषयमें हम लिख ही चके हैं कि उग्रसेन या अगरसाह सेहो और गोलालारे खरउआकहते हैं कि इक्ष्वांकू वंशी है वैसे तो सब ही इक्ष्वाकु वंशी है पर वर्तमानमें पुरावा कुछ नहीं जब ठाकुर गोत्रकी वंशावली बखानते रायको सुना तो वह तो पृथ्वीराज चोहानका वंश बखानता था। तब ये भी चोहानकी Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ३६६ 1 शाखा हुई गोलसिंगारो की किम्बदन्ती बहुत हैं पर हमने पसारी टोला के मन्दिर में प्रतिमा पर लेख इनका भी इक्ष्वाकु वंश लिखा पाया। इसी प्रकार पनरवती पुरवारोंकी एक प्रतिमा ग्वालियरके श्री जिनेन्द्रभूषण भट्टारकके मन्दिर में उस प्रतिमा पर भी इक्ष्वाकु वंश लिखापाया विक्रम संवत् २६ में श्रीगुप्तिगुप्त मुनि परमार वंशी हुये । विक्रमक नाती (पोता) उन्होंने सहस्र परिवार था पै ऐसा लिखा है सो ऐसा मालूम होता है कि परवार भाई भी परमार या परमारके प्रतिहार वंशमें हो सकते हैं। क्योंकि हम कटक और पुरीमें गये । वहाँ पुरी जगन्नाथपुरी पंडा लोग अपनेको परिहारी लिखते हैं। खोज करें तो खीची चोहानोंकी एक शाखा परमार क्षत्रिय हैं ऐसा हम कई जगह लिख आये हैं जो जत्र वर्तमान समय में हम देखते हैं तो यादववंश ही विस्तरित दिखता है । पहले इन सबके विवाह सन्बन्ध होते थे तब विजातीयतो नहीं रहै किन्तु नीतिसारके अनुसार जब मुनियों में ४ संघ भये देवनन्दि सेन सिंह तबहीं उन्होंने लिखा है जातिसंघटनंपरम् इन जातियोंका पृथक् संगठन हुआ । पडिहारी प्रतिहारीका अपभ्रंश है। कटकमें Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * भोसलोंका राज्य रहा हैं भोसले मरहठा थे। महाराष्ट्रका अपभ्रंश है। राष्ट्रकूटका राठोर और महा शब्द उत्तमताके दिया, ये भी चौहानोंसे ही हो सकते हैं क्योंकि राजा अमोघ वर्ष चोहाना में हुए और प्रथम कृष्ण द्वितीय कृष्ण प्रथम गोविन्द दुर्गदन्त आदि मरहठाऔंकी वंशावलीमें हुए ऐसा पुराने सिद्धान्त भाष्करमें है। ___पुराने जैन सिद्धान्त भाष्करमें लिखा है कि महाराज इन्द्र तृतीयके ८३७ शकके तासरीके दानपत्रमें लिखा है कि राष्ट्रकूट वंश सोमवंशके यदुवंशी है और इनका गोत्र सात्यकी है। राष्ट्रकूटका अपभ्रंश राठोर और महाशब्द विशेषण लगानेसे महाराष्ट्र हुआ क्योंकि इन्द्र प्रथमके प्रथम गोविन्द और इन्द्र द्वितीयक दन्ति दुर्ग हुए । शकः ६७४ और तृतीय गाविन्दक अमोघ वर्ष शकः ७३६।७६६ तक राज्य इन्हींसे राष्ट्रकूट वंशक प्रधान और संस्थापक वीरश्रेष्ठ महाराज दन्तिदुर्ग जिनकी उपाधि वल्लभराज पृथ्वीवल्लभी महाराजाधिराज परमेश्वर और परम भट्टारक थी और इनका राज्य बीजापुर कोल्हापुर आदिमें था फिर इन्होंने चालकाञ्ची पाण्ड्य हर्षवञ्जर आदि भी हस्तगत किये इसी Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४०१ वंशमें राजा अमोघवर्ष हुये इन्होंने प्रश्नोत्तर रत्नमालिका बनायी । प्रणिपत्य वर्द्धमानं प्रश्नोत्तर रत्नमालिकां वक्ष्ये नागनरामर वन्द्यं देवदेवाधिपंवीरम् १ इनको यदुवंशी लिखा है और जैन इतिहास बड़ा है यह संक्षपमें लिखा है राजपूताना इतिहास में लिखा है, haarat वाक्पतिराजकी पदवी थी और चौहानों में लिखा है इसी वंश महाराष्ट्रवंश में भोसले साहब मरहठा थे इनका राज्य कटक में था और इन्हींके वंशजोंका या दूसरा कोई राजाका राज्य पुरी जगन्नाथपुरी में रहा हो । जगन्नाथ पुरी और कटक में थोड़ा ही फर्क है, कटकमें परवार जैन भाइयोंके चार-पाँच घर हैं । एक ईश्वरदास परवार जैन आसूदा अबक रहे हैं अब उनके लड़के बच्चे हैं। इनकी जिमिदारी भी कुछ हो इन्हींके पूर्वजों का एक जिनमन्दिर खण्डगिरी पर्मतपर है जो भुवनेश्वर स्टेशन से ५ कोश है खण्डगिरी पर्वतसे सटा ही उदयगिरि पर्वत है इन दोनों पर्वतों पर सात सौ गुफायें हैं । जिनमें दिगम्बर जैनमुनि तपश्चरण व ध्यान करते थे। उनके रहने, परने बैठने से २६ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * पत्थरोंमें निशान पड़े हुए हैं । उदयगिरि पहाड़पर २३०० तेईस सौ वर्षका राजा खारवेलका खुदाया हुआ शिलालेख है। इन दोनोंमें दिगम्बर जिन मूर्तियां है और खण्डगिरिके ऊपर एक विशाल जिनमन्दिर है और उसी जिनमन्दिरके बगलमें उत्तरकी तरफ छोटा जिनमन्दिर है और उसीके दक्षिण बगलमें एक जिनमन्दिर बनवाकर एक नौ हाथ खड़े आसन श्री पाश्वनाथ भगवान २३ व तीर्थङ्कर दिगम्बर जिनमूर्तिकी बिम्बप्रतिष्ठा सुजानगढ़ निवासी कलकत्ताप्रवासी चांदमल धन्नालालकी तरफसे पं० नन्हेलाल टीकमगढ़के तथा श्रीनिवास शास्त्रीके सहयोगसहित हम प्रतिष्ठा सं० २००७ के वैशाख सुदी ३ पर कराकर आये हैं। तो वहाँ कटकमें परवारोंका सत्व कैसे पाया गया, ये तो सीपी बुन्देलखण्ड तरफ पाये जाते हैं तो मालूम हुआ भोंसले मरहटाओंका राज्य था और महाराष्ट्रों ( मरहटाओं) का राज्य गवालियर, भिंड, भदावर, झाँसी आदि पूना-सितारा, वीजापुर, कोल्हापुर तक है। तो इन्होंका ही राज्य जगन्नाथ पुरीमें होगा और मरहटाओंके पूर्वज जैन थे तो जगन्नाथपुरीका मन्दिर जैन होना चाहिये ; क्योंकि जगन्नाथपुरीके Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्री लँबेचु समाजका इतिहास * ४०३ मन्दिरमें भीतर एक तिदरीकी गन्धकुटी ( वेदी है ) उसमें जो जगन्नाथ आदिकी मूर्ति हैं, सो कपड़ासे लपेटी और वांस लगायके लपेटी है । मालूम होता है कि इसके भीतर पलाथी मारे ध्यान मूर्ति है । उनका तो पेट बनाया और बांस लगाकर कपड़ा लपेट ऊपर सिर बनाया उसमें हीराका जड़ा हुआ मुकुट लगाते अब हाथ-पैर कहाँसे आवै, तब काउकी छोटी-छोटी भुजा, हाथ ऊपरसे लगाये पर भी काठके लगाये । इससे मूर्ति वह ठीक बनी हुई नहीं मालूम होती। एक क्षत्रिय विद्यार्थी हमारे पास पढ़ता था तो वह कहता था कि हमारे बाबा वहाँ नौकर हैं, वे कहते हैं कि इनके भीतर ध्यानकी मूर्ति हैं हम पंडाओंके साथ गये वहाँ परिक्रमा है और बांसोंके कारण वेदी तिदरी तोड़ी है, नीचे हवनकुंड है, ऊपर चक्रेश्वरी आदिके चित्र हैं, शिखर भीतर और दक्षिण दरवाजमें एक खड़े आसन जैनमुर्ति दिगम्बर है और पूर्व दरवाजेके बाहर एक स्थम्भ है, जो मानस्तम्भ होना चाहिये और जो पंडा है वे अपनेको पड़िहारी लिखते हैं। एक कागज छपा हुआ पंडाका मिला उन्होंने दिया। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ * मी लॅबेचू समाजका इतिहास - mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmorror उसकी नकल श्री श्री जगन्नाथ स्वामी जीके पंड श्रीवैकुण्ठनाथ जी पं० रामचन्द्र जीके बेटे पं० श्रीलोकनाथ पडिआरी जीके बेटे हरीराम ओरफ हरेकृष्ण पडिआरी और घोड़ेकी तस्वीर दी है। ___ठिकाना-कवरा घोड़ेवाले, मुहल्ला हरचण्डीशाह चामुण्डा देवीके पास, पो० पुरी, जि० पुरी। ___ इस जगन्नाथपुरीके मन्दिरके ऊपर अश्लील मूर्तिये किसी ने द्वषसे बनवाई है, ऐसा प्रतीत होता है। ऐसा मालूम होता है कि ये पंडा लोग मन्दिर मर्तियोंकी पूजा करते थे और ये भी क्षत्रियवंश रहा, क्योंकि पडिहारी प्रतिहारका अपभ्रंश प्राकृतमें है । प्रतीहारवंशीय राजकुल है देवाद् दौर्गत्यसौगत्ये कर्मके उदयसे गरीब, अमीर हो जाते हैं । प्रतीहारोंका राज्य रहा है और कमजोर हुए तो द्वारपाली करने लगे। प्रतीहार द्वारपाल कहते हैं तो देखो कोई समयमें सवैतनिक पुजारी थे वे ही पंडा हो गये। तो खण्डगिरी परवार जैनोंका बनवाया जिनमन्दिर है और अति प्राचीन कटकमें जिनमन्दिर है, उस मन्दिरको अर्पण Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४०५ की हुई दुकाने थी जो तीर्थ क्षेत्र जैनकमिटी ने बेची। जिसका सं० २२००० करीब जमा है। अभी सरकारसे रुपया मिला या नहीं मिला मालूम नहीं । हाकिम कहते रहे कि जैनधर्मशाला बना दो, धर्ममें दान की हुई जायदाद की रकम धर्ममें ही लगा दो ओर भुवनेश्वरका भी इतिहास बहुत हे, संक्षेपमें कहते हैं। यहाँका राजा शिवकोटि शैव थे, तब समन्तभद्र स्वामीसे नमस्कार करनेका जोर दिया तब उन्होंने रात्रिमें स्वयम्भू स्तोत्र रचकर पढ़कर नमस्कार करते ही पिण्डी फटकर चन्द्रप्रभं मूर्ति निकली उनके उपदेशसे राजा जैन होकर दिगम्बर मुनि हुए। बहुत तपश्चरण किया, उन्होंने भगवती आराधना सार ग्रन्थ बनाया। भुवनेश्वरमें अब भी पिण्डी फूटी हुई गीले कपड़ेसे ढकी रहती है। हम गये तब देखा है। इससे हम अनुमान करते हैं कि ये परवार परमार वंशके प्रतीहार राजकुलमें होगें समय परिवर्तनमें। किसका क्या होता है जगन्नाथपुरीका राजा भी इन्हीं भोसले वंसमें हो, पुरीके लोग कहते हैं कि पुरीका राजा क्षत्रिय था उसने एक ग्वालिन भोगपत्नी बना ली थी। राजा स्नानकर उठा तो Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास - निजी पुत्रोंसे धोती उठा लानेको कहा, तो उन्होंने मानके कारण धोती न लाये । तब राजा ने ग्वालिन पुत्रोंसे कहा, वे धोती उठा लाये । तब उसने ग्वालिनके पुत्रको ही राज्याधिकारी बनाया। इससे पुरीका राजा ग्वाला कहलाता है। ऐसा अभी २००७ में खण्ड गिरि को गये थे तब पुरी और कटक में गये तब विवरण पाया और बद्रीनारायणकी मूर्ति श्रीऋषभदेव भगवानकी है। श्यामवरण है, बैलका चिन्ह है । कैलाससे मोक्ष गये तब इन्हींको कैलाशपति बैलपर चढ़े, आदिसे पुकारे जाते हैं। तो यही तो महादेव हैं, राग-द्व परहित वीतराग हैं। बद्रीनारायणके पास जो लक्ष्मण झूला है, नीचे खाई है, यह वही खाई है जो सगर चक्रवर्ती ६० हजार भागीरथ आदि पुत्रोंने खोदी थी, सब दब गये थे। अकेले भागीरथ बचे थे। नाशिकमें पाँच जैनदिगम्बर प्रतिमायें पञ्चपांडव कहकरके पुज रही है । गिरनारको दत्तात्रय कर पूजते ही हैं मुसलमान बाबा आदम करके पूजते हैं। फिर स्वरूप भेद डालकर मतद्वष करते हैं । यह भूल है, और अग्रवाल जातिका इतिहास देखा तो उसमें Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास ४०७ लिखा है कि राजा अग्रसेन ने वैश्यकी कन्या ब्याही इससे अग्रवाल वैश्य हो गये यह बात कैसे बने जब मनुस्मृतिमें यह आज्ञा दी है कि क्षत्रिय वैश्यकी कन्या के साथ व्याह कर लेवें तो वैश्य कैसे हो जायें वीर्यकी प्रधानता से कुल होता है । तो फिर वैश्यकुल कहाँ हुआ, अनेक क्षत्रिय राजा वैश्योंकी कन्या लाये । वैश्य तो न भये और राजा अग्रसेन कौन क्षत्रिववंश में भये, सो भी नहीं मिला। इससे हमारी समझ में तो राजा यदुके दो पुत्र शूर और वीर शूरके समुद्रविजय दश पुत्र वसुदेव तक, तिससे यह देश दशाह कहलाया । सूरीपुर वटेश्वर आदि और वीरके तीन पुत्र उग्रसेन, देवसेनादि भये तब उग्रसेनकी सन्तान -दर-सन्तानमें ही होने चाहिये क्योंकि मारवाड़ी अग्रवालमें देवडा गोत्र हैं और देवडामें चौहान रहे । देवडाके चौहानों में होनेसे यदुवंश ही आ जाता है। चौहानोंमें जैनधर्मका ही प्रचार था । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघपति (संघई अटेरवाले भागीरथका सिजरा वंशावली) भागीरथके पुत्र रतनपाल रामसिंह आशापति । रतनपालकी सन्तान खूबचन्द१ हुब्बलाल २ हीराला३ खुशालचन्द४ सुब्बी५ । खूबचन्दके मोतीचन्द हुबलालके शीतलप्रसाद हीरालालके गिरधारीलाल । खुशालचन्दके हरखचन्द, ढालचन्द, सुव्बीके खेमकरण । शीतलप्रसादके मिह , घनश्याम, द्वारकाप्रसाद । ढालचन्दके जानकीप्रसाद जुगराज । द्वारकाप्रसादके गंदालाल, मिश्रीलाल, प्रकाशचन्द । रायसिंहके मन्पूलाल मनूलालके सुन्दरलाल, भूरेलाल, प्यारेलाल, सुन्दरलालके श्यामलाल, छोटेलाल, । भूरेलालके वेनीराम, दरियायप्रसाद । प्यारेलालके भिखारी दास । भिखारीदासके चरनदास, उलफति राय । उलफति रायके सनत्कुमार, जयकुमार । सनत्कुमारके अभयकुमार, विमलकुमार । रायसिंहके दो पुत्र हेमराज। हेमराजके बलदेव, सिराबनलाल । वलदेवके ज्ञानचन्द, पन्नालाल, जमुनाप्रसाद, मुन्नालाल, कुन्दनलाल । हेमराजके तृतीय पुत्र ब्रजवासीलाल । ब्रजवासीलालके Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४०६ पुत्र उदयराज, बिहारीलाल ।; उदैराजके बद्रीदास, मक्खन लाल । बद्रीदासके पदमचन्द । पदमचन्दके ४ पुत्र हैं नाम नहीं मालूम मौजूद हैं। बिहारीलालके सुखलाल, बाबुराम, जिनेश्वरदास, बच्चीलाल । सुखलालके महेन्द्रकुमार, राजेन्द्रकुमार । वञ्चीलालके दो पुत्र हैं, नाम नहीं मालूम । महेन्द्रकुमारके रणधीर सिंह। आशापतिके किशनचन्द, चन्दनी, प्रभापति, तुलाराम, ताराचन्द । चन्दनीके हुब्बलाल, जमुनाप्रसाद, ज्वालाप्रसाद । प्रभापतिके नैनसुख, हुलासराय । नैनसुख के दौलत । दौलतके लालमणि रामसहाय, गेंदालाल । हुलासरायके मथुराप्रसाद । मथुरा प्रसाद मथुराप्रसादके सगुनचन्द, गुलजारीलाल, दीनानाथ के तोताराम, चरनदास, मुरलाधर । चरनदासके रघुवर दयाल रघुवर दयालके निर्मल, शान्ति, धन्नू। मथुरा प्रसादके द्विपुत्र सगुनचन्द तीसरे गुलजारीलाल । सगुनचन्दके वंशीधर, अमरचन्द । गुलजारीलालके अयोध्या प्रसाद अमरचन्चके मिठठ्ठलाल, मिजाजीलाल, चोखेलाल, झम्मनलाल उग्रसेन । तुलारामके मानिकचन्द, मनसाराम ताराचन्दके मन्डेलाल, जंगीलाल, सुखलाल, पंचेलाल, कुंजीलाल, नन्दराम, भगवानदास, पन्नालाल धन्नूलाल, चैनसुख । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रध्वज विधानसे पानी बरसता है, इसकी प्रमाणतामें प्रमाण-पत्र * श्रीः * सम्मान-पत्र सेवामें श्रीमान् श्रद्धास्पद, तकतीर्थ पं० झम्मनलालजी चन्दौरिया कलकत्ता (भिण्ड निवासी) मान्यवर ! आप दिगम्बर जैन लम्बकञ्चुक ( लँबेचू ) जातिके उन महान् रत्नोंमें से हैं, जो अपने जीवनभर धर्म एवं समाजकी सेवामें सदैव निरत रहकर जीवनको सफल करते हैं। विद्वद्वर्य ! ___ हम भिण्ड निवासियों को इस बातका हर्ष और सौभाग्य है कि आपने भदावर (भिण्ड ) प्रान्तीय वमुन्धराको अपनी योग्यता एवं विद्वता द्वारा अलंकृत किया है और कलकत्ता Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ४११ जैसे नगर में रहकर अपने देशकी प्रतिष्ठाको वृद्धिगत किया है । श्रद्धेय ! आप संयम और चरित्रके दृढ़ श्राद्धालु हैं तथा क्रियाकाण्डके चतुर पण्डित हैं । विज्ञवर ! अभी जब कि वर्षा अभाव से चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी, जनता एवं पशु अन्न और चारेके कष्ट से पीड़ित हो रहे थे । आपने उस समय हमलोगों को इन्द्रध्वज - विधान करनेका परामर्श दिया और हमारे किञ्चित संकेतपर इस महान कार्यका सम्पादन-भार ग्रहण कर लिया । बड़ी योग्हता और सच्ची लगनके साथ जाप्य, हवन, पूजादि विधान सम्बन्धी सभी क्रियाओंको बड़े परिश्रम के साथ यथावत् पूरा किया, जिससे जल-वृष्टि हुई और जनता में शान्ति एवं सुखका साम्राज्य फैल गया । आप ऐसे निस्पृह व्यक्ति हैं कि बिना किसी स्वार्थ और लालचके निरन्तर धार्मिक क्रियाओंके सम्पादनमें संलग्न और तत्पर रहते हैं । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * हमलोग श्री देवाधिदेव श्री जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना करते हैं कि आप दीर्घायु होकर धार्मिक क्रियाओं में सदैव अग्रसर होते रहें । ४१२ स्थान--- श्री सूर्यसागर उदासीनाश्रम ( श्री जैन नशियाँ ) भिण्ड ( ग्वालियर ) ता० १७-८-४१ हम हैं आपके दिगम्बर जैन पञ्चान भिण्ड 760 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री गणेशाय नमः॥ प्राचीन कविता संघईकी वारात कायमगेजसे भिंड चोधरी गोत्रके गई १७८६ सत्रहसौ छयासीके संवतमें गई यह भी क्षत्रियत्व और हरि वंशका द्योतक है दोहा वानीको प्रनमिके अनमो गणपति राइ । वरनन करो विवाहको भाषा सुगम बनाइ ॥ १॥ सारद तुअ सुमिरन करो मन क्रम वचन हिठाइ ॥ कीजे बुद्धि सहाउ हो जै जगतारनि माइ ॥२॥ छन्द जै जै जगतारिन असुर संहारिन पाप प्रहारिन अघहरनी। हेमाचल नंदिनी सुर मुनि वंदिन आनंद कंदिन विधिवरनी॥ लउ राइ सहायक बलदल घाइक दुरित नसाइक सुखधरनी। है बहुविधि बुधिवरु श्रम भ्रमहर मंगल कर मंगल करनी॥ दोहा कायम गंज सुथानसे राजत संघ पति दानि ।। तिनकी शोभा सुजसता कहौ कछुक बखानि ॥४॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * छन्द अरिल वंश विदित घरवास अंश हरिवंशको । पुनिय पुरुष प्रह्लाद हरन परसंसको । तिनके पुत्र पुनीत भये सिन दानिए । - जे सील सन सुख शर्म धर्मके षानिए ॥ ५॥ दोहा प्रथम भवानी दास अरु, मया राम धर्मज्ञ । भोजराज परशराम अरु, जे गाहक गगनि गुणज्ञ ॥ पुत्र भमानीदासके, द्वै दुख हरनि वषानि । प्रथमहिं राजा राम अरु, प्राणनाथ सुखदानि । परशरामको नन्द है, नयन सुष सुष कन्द । सोहै धन सुख तहीं, करि हंस सदा आनन्द । आयो प्राणजु नाथको, ब्याह सुषनिको कन्द । यह सुनि सबहीके हृदय, ऊपजौ महा आनन्द ॥ शुभ साइत आई लगुन, कहत लउ कविराज । बोलि पंच अरु पंडितनि, लीनी शीश चढाइ ।। दिशिविदिशनि न्योतो दियो सकलबार अरु पोर। जोनारे बहु भाँति करी, सजी वरात अपार ॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * छन्द भुजंग प्रभात सजे वान नीसान नोवति वषाने । सजी पालकी कोतलो वे प्रमाने ॥ सजी स्वच्छ स्वर्षा सुपेदा सुसोहे । सजे साज सो वेस बाजी विमोहे ॥१२॥ सजे जोर मुस्की महा मोल बाढ़े। सजे तल्के तुर्की जुहे नाथ ठाढ़े ॥ सजे वोज अलका लीलाहरको । सजे जोर जरहा कुमेता अरवी ॥ सजे कक्छके जो कछछी सुसंगी। समं हाजुगरी सुताजी तुरंगी । सजे इंटके तासली तीन लीने । सजी जोर वहले जुरथ हर नवीने ॥ सजे शूर सामन्त सेका निसाथे । लये वान कम्मान बरछा निहाथे ।। चले तोपची साज सेना अपारी । सजे शाह केते लये भीर भारी॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * इसो ले समाजो जु सुसंघपति धाये । मनो साज फौजें नृपति कोई आये ।। दोहा कंकन प्राणनाथ कर, बांधो शुभ दिन साधि । भूप भदावर देश पर, चले नगाड़ी बांधि ॥ छन्द चले साजि वाने चहुँ चक्र जाने दियेछान मारी हृदय हर्षधारी ।। महा मर्द पूरे जुरे युद्ध सूरे करै दानवीके हरै दुःख जीके । दोहा भूप भदावर देशमें, पहुंचे संघ पति जाय । उत समाज सजि चौधरी, लेने जु आये धाय ॥ विदित वीर वर वंश सुत, हरिवंशीय बखान । लेन बारात अलोल मणि, आयो साज निसान । भुजंग प्रभात छन्द आयो साज दिन दान सेना जु लीने । सजे वेद मनि तासु भूता प्रवीने ।। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * जु हरिकृष्ण घनश्याम सुखधाम धरने । जे दे दान पर दुःख दारिद्र हरने । अलोले जु मनिके सजे पुत्र दानी । सुजिनकी प्रभा चारिहू चक्र जानी ।। जु नन्दलाल सुखलाल साजे सुवाने । सुजिनके वचन राउ राजा प्रमाने ॥ बिनोदी जु रायो लला शोभ साजै । अखैराज लाला महारूप राजै । सजे वेद मनि नन्दजी जक्त मनिज । सभाचन्द शोभा प्रभा धन्य धनिजू ॥२४॥ आये चौधरी ले भीर भारी। सजै पालकी कोतलनि कोर न्यारी ॥ किते वीर बाँके बली साथ लीने । महामत्त मातङ्ग सोहै नवीने ॥ लसे भोर भारै महाडील कारै । झके झूमि झहरे धारै जोम भारै ।। सजे मस्त हस्ती सजे भूप रनको । त्यों सेनि चोधरी साजि ल्याये मिलनको ।। २७ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * सचे चक्र से चोधरी वो समाजा । सु आये मनोसिंह अनिरुद्ध राजा ॥ दोहा करिके मिलेसु मूजरा कीये, सहित सनेह सुरंग । चले जु वारोटी करन, ले वारात सब संग || सजे वान निसान बहु माई मुरातबा जोर । सजी पालकी नोव तें करी कोतलनि कोर || 9 घंट शंख नारी सुभट, करी कोतलनि कोर । शोभाभई जोरि घम्सानजे, जोर मचो महासोर ॥ राजे सुभट संग गुजरते संग गुँजरते मति मान । सोभित है वान फहरात है निसान || छन्द भुजंग किते वान नीसान फहरात घोरे । जरी जर कसी जर बलीने सुजोरे ॥ किते नौबते जोर घनघोर गाजे । नकार सु सहनार करनाल बाजे ॥ बजे झंझ तबलो सतो ताल रंगी । किते रण जु सिंघा बजे ढोल जंगी ॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * मसाले जगी जोरसे का हजारो। भयो चारिहुं चक्र उद्योत भारो॥ छुटै जोर आतसबाजी सुहाई । जुहथफूल मेहताब टोटा हवाई ॥ छुटै मोरके भोर चम्पाम्र हरषे । छुटै फुलझरी हर्ष तो जोर चरखे ॥ बजे बाजने सोत इ शक्रनी के । सुजिनके सुने कान सत्जी के । मचो शोर भारी चहुँ ओर भरजे । मनो मेघ घन साजके इन्द्र गरजे ॥ हृदय हर्षक द्रव्य गंजिनि लुटावे । भली भाँति पैसानि थैली छुटावे ।। ऐसो चौधरिनके संग संघपति धाये । मनन नक्रके दे रज सर चुओए । बरोठी भली माँति सो साज किनी । तहाँ चौधरी दाय जो जोर दीनी॥ दीने घोड़े जोर वरन सब बाबेन । सिरो पाय मोहरें रुपइया अति घेन । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्री लंबेचू सगाजका इतिहास * सब संघपतिधनवरसनमंह बहुविध कियो। कहतलऊ कविराय जीती जग यश लियो। दोहा किनी वारोटी सरस बहु विधि द्रव्य लुटाय, जनवासे डेरा दिये सो हिय अति हर्ष बढ़ाय । उतै चौधरी सुराजकी शोभ वरननि न जाय, जगमग जगमग होत छवि देखति हिय हर्षाय । विविध भांति बेदी रची मंडप छाय अनूप, जाकी शोभा कर बरण हरणे सुरनर भूप । अति अदभुद् खम्भा बने कोमल कदली स्वच्छ, वहु वस्त्र वस्त्रनि सो मढ़े जगमग ज्योति प्रत्यक्ष । दियो बुलौवा व्याहको तित बोले साह, आनन्द मंगल सुख सकल सुजिततितहर्ष उछाह । यथा जुगति जो व्याह की सो कीनी सर्वज्ञ, जनक समान अलोल मणि रचो जगतमें जज्ञ । कीनी जो नारे विविध करी चवैनी जोर, देय दान सबको सवै छये सुयश चहुँ ओर । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४२१ छन्द भुजंग प्रयात चहुँ ओर जिनके सुयश जोर छाये, कवि पंडितनि और गुण गान गाये । बुलावे जु पलिका जुको चारु फीनें, सुने साहु जेते सवै बोल लीने । आये साथी सहाई जो शोभा अपारी, चले संगले तुंग से को हजारी । मचो नोबतिनकोजु कोहरा मभारों, सु आयो मनों इन्द्र लेकर अखाड़ो। आये ऐसे पलिका जुको चार करने, मनो साजि फौजे चढ़े भूप लड़ने । दोहा भीर बरात घरातकी कहत लऊ कविराय, उमड़ि घुमड़ि घर मेघ घन रही घटा सीछाय : सोरठा बैठे साजि सब साह दुहुको दल एक सौ इत संघई उमराव, उत अलोल मणि चौधरी। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * दोहा बैठे सजि सजि शाह जहाँ सकल बरात घरात, इन्द्र सभा सम देखिये छवि वर्णी नहीं जात । जहाँ भाट ब्राह्मण वहाँ विविध भांति गुण गाय, भाउ कलाउत ताइफ रितु वसन्त सुखदाय । अतर अबीर गुलाब बरकेशर सकल सुगन्ध, तन मन अति आनन्द भज हितू मिल सत चंद । बैठे वह ठाकुराय ते जहाँ सकल मुख वृन्द, तिनमें दिपतु अलोलमणि मनो विराजत इन्द्र । दौलत भूषा बसनके कीन्हें बहुविधि ढेर, यह विवि बैठे संघपति मनोदिपत कुबेर । छिरकत रङ्ग गुलाब बहु उड़त सुगन्ध अबीर, बजत तार मृदंग ढफ सो हरषत सकल शरीर । छन्द भुजङ्ग सरीरो जहाँ जोर रस रंग रागे, सुपहिरे सवै लाल गुलाब वागे । उड़ावे अबीरो महा घूम करके, किते रंग छिरके सुपिचकारी भरके । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ . -~~ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ताल स्वर बांधि गन्धर्व गाने सुनावै बजे तार मृदङ्ग संगीत गावे, पढे भाट ठाढ़े महा विरदा बखाने, तमाशो दुनि आनि देखे सुजाने । इसी भांति पलिका जुको चार कीन्हों, सुपहिराय नेगिन विविध द्रव्य दीन्हों। रुपइया किते साज थिरमाजु दीन्ही, दुशाला दिये जो बड़े मोल लीन्हैं। दिये जरकसी जो सिरो पाय केते, दिये वस्त्र भूषण कहै कौन ते तें। दिये जोर पटुका जुचीरा जरकसी, किती झलझलाती जु पोशाक बक्शी। करे दान प्रहलादके पुत्र दानी, भवानी जुदा सो जसके निदानी । मयाराम सबही करे दान जैसो, करे कौन कविता वरणिके जुते सो। तहाँ परसराम किते दान करही, हृदय हर्ष परदुख दारिद हरही। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * दुनीमें महादान संघपति जु दीन्हे, भली भाँति जगमें सुजस जीत लीन्हें । छप्प तखत भिंड संघपति शोभानि सरसैं, कलसा छपे कायम गंजते सजि चले संघपति दल सरसे। भूप भदावर देश जाय कंचनझल बरसे, सत्रहसे छासी जुभौमसु वार सुहायो । फागुन श्याम कृष्णकुल कलश चढ़ायो दौलत विविध धन खरचि तहं जिन मुयश कीर्ति सब जग केरे। संघ ही सपूत लऊराय कहि सुभिंड जीत आयो जुधरै ।। इति श्री विवाहको वर्णन समाप्तः Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ४२५ गृहस्थ धर्मका उपदेश जैनधर्म सार्वधर्म है, सार्व माने सब प्राणियोंका हितकर हो । जैनधर्म प्राणीमात्र का धर्म है। गृहस्थधर्ममें इतनी बातें पालनी चाहिये। मधुमद्यपलनिशासन पश्चफली विरतिपञ्चकाप्त नुतिः जीवदया जलगालन कचिदप्यष्टगुणा । ___ मधु सहत जो मधुमक्खिषयोंके बच्चोंको दवाकर घात कर निकाला जाता है, हिंसाको घर है । उसे छोड़े न खाय इससे बुद्धि बिगड़ जाती है और मधदारू ( सुरा) पान न कर इसको महुआ या दाख सड़ाकर जिसमें बड़े २ लट सूड़ा पेदा हो जाते हैं फिर दोलायत्रमें चढ़ाकर बनाई जाती है। महाहिंसाका घर है और इसको पीकर मनुष्य बेहोश हो जाता है। धर्म अधर्मका विचार नहीं रहता, मा-बहिनका विचार नहीं रहता और तो क्या वे होश होने पर कुत्ते मुखपर मृत जाते हैं। महानिंद्य है, इसको ( छोड़े मांस ) बिना प्राणीघातके मांस नहीं बनता । मांस खानेवाला महाहिंसक है Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ *श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ओर मांस खानेवाले को दया नहीं रहती। मांस खानेवाला बहुत विषयी होता है और बुद्धि (ज्ञान) बिगड़ जाती है। महाघिनावना दुर्गन्ध वस्तु उच्च कुलके खाने योग्य नहीं (निशासन ) रात्रि भोजन बहुत हानिकर है। रात्रिमें कुछ दिखता नहीं। दीवा जलाकर उजैला करो तो दीवा ( दीपक के उजैलासे जीव आते हैं और थालीमें पड़ते हैं और बिजलीचसो तो और भी अधिक जन्तु, जानवर आते हैं भोजन में पड़ते हैं उन जानवरोंका घात हुआ सो पर हिंसा हुई और उन जानवरोंके खा जाने से अपनी बुद्धिज्ञान बिगड़ता स्वहिंसा हुई। तीसरे मकड़ी भोजनमें आ जाय तो कोढ़ रोग हो जाय। बाल आ जाय तो स्वरभंग हो जाय। चींटी कीड़ा आवै तो स्वरभङ्ग गला दूखने लगे । अंधेरेमें खावै तो और भी पता न लगे अछनेराकी एक घटना एक आदमीने खीर कराई। उस वटुएमें एक सांप पड़ गया। वह खीर सब कुटुम्बने खाई सारा कुटुम्ब सोता ही रह गया। दो साल हुये कि किसी अखबार पत्रमें देखा था, रात्रि भोजनका त्याग । यह जैन आदि पुराणमें श्री जिनसेन स्वामी आचार्यने तो Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहान * ४२७ लिखा ही है पर अजैन विद्वान् ऋषि भी रात्रि भोजनको देखो मार्कण्डेय पुराण, शिवपुराण, निषेध करते हैं। प्रभासपुराण आदि में : अस्तंगते दिवानाथे तोयंरुधिर मुच्यते अन्नंमसिसमंप्रोक्तं मार्कण्डेयमहर्षिणा ? श्री मार्कण्डेय ऋषि कहते हैं कि सूर्य अस्त हो जाने पर रात्रि को जल रुधिर समान जान त्यागना चाहिये, और अन्न मांस समान जान छोड़ना चाहिये । रात्रि भौजनसे अनेक रोग हो जाते हैं । चोथे रात्रिको खाया हुआ अन्न कम पचता है। सूर्य की गर्मी से अन्न विशेष पचता है और पांच उदुम्बर फल, बड़फल, पीपरफल, ऊमरफल, और काठ फेाड़के निकले वह कठूमर फल पाकर अञ्जीर इत्यादि इन फलोंमें प्रत्यक्ष रिंगते हुये त्रस जीव दिखाई देते हैं । ये खाने योग्य नहीं और प्रत्येक गृहस्थका चाहिये कि सवेरे शौच से निवृत्ति होकर स्नान कर श्री जिनदेवकी पूजा करें। दिगम्बर जिनकी गुरु और निर्गन्थ उपासना करें स्वाध्याय करें । संयम दो प्रकार, इन्द्रिय संयय इन्द्रियोंका वशमें राखे और ६ कायके जीवों की रक्षा, Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति हरिआई पतिआई पञ्चस्थावरोंमें यत्नाचारसे प्रवर्ते और त्रसलट आदिकपशुपर्यन्त त्रस जीवांकी रक्षा करै । _____ और तप अष्टमी चतुर्दशीको उपवास या एकाशन (एक बार भोजन करें) और प्रतिदिन दान आहार औषधि शास्त्र और अभय ये चार प्रकार दान ये षट्कर्म छ कर्म कहै। देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्यायः संयमस्तपः दानश्च तिगृहस्थानां षट्कर्माणि दिनेदिने इनमें देवपूजा मुख्य हैं वह पञ्चकाप्तनुतिः कही अर्हन्त सिद्ध आचार्य उपाध्याय सर्वसाधु इन पञ्च परमेष्ठी की स्तुति करना देव सर्वज्ञ वीतराग हितोपदेश इन तीन गुण संयुक्त होवै वही देव आप्त सत्यवक्ता और पूज्य हो शक्ता है। जो सबको नहीं जानता वह सच्ची बात न कह सकेगा। जिसने कलकत्ता बम्बई नहीं देखी वह उसकी ठीक ठीक बात न कह सकेगा। इससे देवका सर्वज्ञ गुण होना चाहिये और वीतराग न होगा तो मुलाहिजेसे मोहसे औरकी और कहेगा और हितका उपदेश Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # ४२६ न देगा तो अहितकर बात कौन मानेगा इसलिये देवमें तीन गुण हो वही देव है । वही आप्त है उसकी पूजा करता है और जीवोंकी दया पालना जीवोंकी दया पूरी पूरी तौर से जबही पल सकती है जब हिंसा झूठ, चोरी और कुशील और परिग्रह अधिक तृष्णा ये पाँच पाप को त्यागे छोड़े । - हिंसा चार प्रकारकी कही (आरम्भी) जो रोटी पानी करने में खान पान बनाने में होती है दूसरी उद्यमी जो व्यापारादिमें होती है ब्राह्मणके उद्यमी पूजा पाठकी सामग्री आदि बनाने में होती है । क्षत्रियका उद्यम प्रजापालन शिष्टानुग्रह दुष्ट निग्रह करना दण्ड देना राज्यशासक काम-क्रोध, लोभ मोह, मद - मात्सर्य इन पड़वर्ग ( अरिषड़वर्ग ) अंतः शत्रुओं को जीतता हुआ (गोपाल) ग्वाला जैसे गौओंका पालन करता गौओके बच्चोंका हक रख दूध दुहता है वैसे ही प्रजाके हकोंकी रक्षाकर थोड़ा कर लेता वैसे ही थोड़ा कर लेता हुआ प्रजा पालन करना राजक्षत्रियोंका उद्यम है इसमें जो हिंसा होती वह क्षत्रियोंकी उद्यमी हिंसा है । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० *श्री लँबेच समाजका इतिहास * वैश्यका व्यापारादिमें देशान्तरसे चीज वस्तु लाना मेजनादिमें शूद्रके सेवाकर्मादिमें और तीसरी विरोधी हिंसा जो हमें कोई मारने आवे हमारे स्त्री-पुत्र धनादिको कोई हरने लेने आवै जवरन जोरीसे तो हम भी लड़ेंगे। ___उसमें जो हिंसा हो जाय तो विरोधी हिंसा है और चौथी संकल्पी हिंसा है जो मारनेका संकल्प करके कि मैं इसे मारता हूं यह संकल्पी हिंसा है। सो गृहस्थ आरम्भी उद्यमी विरोधी हिंसासे बच नहीं सकता। अशक्यानुऽष्ठान है उसके हाथसे जवरन होती है उसका त्यागी नहीं परन्तु संकल्पी हिंसाका त्यागी होता है और ऊपर कहीं हुई तीन हिंसाको अपने जानमें बचाता है पर त्यागी नहीं हो सकता । रोटी पानी करै बिना रहेगा नहीं । व्यापारादि करै बिना बनेगा नहीं और कोई शत्र उसपर वार करेगा। तो वह भी वार करके वारण करना ही होगा कोई गनीम शत्रु आक्रमण करता है तो लड़ना ही होता है न करै तो अपनी रक्षा नहीं होती। आत्मघाती महापापी इसलिये गृहस्थ संकल्पी हिंसा कभी नहीं करता जूं खटमल कीडी पशु, मनुष्य आदिकी हिंसा मनसे भी नहीं करता और Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४३१ ऊपर तीन हिंसा और भी उद्यमी विरोधी हिंसा में उसका हिंसा करनेका परिणाम नहीं रहता किन्तु लाचारी करने पड़ता है और झूठ भी नहीं बोलता। झूठ बोलनेसे मनुष्यकी प्रतीति विश्वास उठ जाता है। लोकमें निन्दा होती है, व्यवहार बिगड़ जाता है और दूसरेको कष्ट होता है तो हिंसा तो है ही, और चोरी भी नहीं करता । चोरी महापाप है, मनुष्यके १० प्राण हैं ५ इन्द्रिय, प्राण ३ । बलप्राण, मनोबल, वचनबल, कायबल और श्वासोच्छास तथा आयु ये दश प्राण हैं, परन्तु संसारमें धन ग्यारहवां प्राण है क्योंकि धन की रक्षा करनेको तिजोरीके पास सोता है और समझता है कि मुझे मार जावै तो भलेही धन ले जाय वैसे नहीं ले जा सकता, तो वह अज्ञानी दश प्राणोंसे भी धनको प्यारा समझता है। इसलिए इसे ग्यारहवां प्राण समझना चाहिये। उसकी जो चोरी करता है वह बड़ा पापी होता है। साधु तो पैसा राखे तो दो कौड़ीका और गृहस्थके पास पैसा न होवे तो दो कोड़ीका क्योंकि सारे कुटुम्बका अपना पालन पोषण पैसासे होता है। इससे चोरी करवेवाला सब कुटुम्बको दुःखी Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास # करता है और स्वयं जेल जाना है। वधबंधन आदि के स्वयं दुख भोगता है, और मरकर नरक होता है और कुशील सेवन करना महापाप है । पर स्त्री वेश्या सेवन करना अनङ्ग क्रीड़ा करना नीच कर्म हैं । स्त्रीके सिवाय दूसरी स्त्रियोंको मा बहीन सत्युरुष अपनी उनकी स्वदार सन्तोषव्रत रखते हैं । होती है बहुत दिन तक जीते हैं । आरामसे रहते हैं सब कोई इजत विश्वास रखते हैं, उत्तम पुरुष गिने जाते हैं । लौकिक और परमार्थ काम करनेमें समर्थ होते हैं । परलोक में स्वर्गादिसुख भोगते हैं । जो लोग व्यभिचार करते हैं उनके गर्मी, सुजाक आदि दुष्ट रोग हो जाते हैं, राजयक्ष्मा, तपेदिक होकर जल्दी चल बसते हैं । यहीं पर कुतियासरीखा मुख निकल आता है । गाल बैठ जाते हैं, मर जाते हैं। लोग माथे पीटते हैं, होता है। लाभ, लालच, तृष्णा, अधिक परिग्रह रखनेबालोंको चित्तमें शान्ति नहीं रहती, एक क्षणका भी साता सुख नहीं मिलता। यहां तक भोजन करते समय इतनी याद नहीं रहती कि मैं क्या खा गया और क्या खाना है मर कर नरक समझता है वे सन्तान हृष्टपुष्ट Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * नौकरको पुकारता है। दुध नहीं लाया नौकर कहता है कि मैं परोस तो आया। दूध आपने पी लिया ज्यादा काम वढ़नेसे इतनी व्याकुलता बढ़ जाती है तो फिर यहाँ कोई प्रश्न करै कि समाजमें कोई बड़ा आदमी होगा ही नहीं सो नहीं अब तो समाजमें इतने बड़े है नहीं जितने पूर्व समयमें थे। भरत महाराज सरीखे चक्रवर्ती और श्री शान्ति कुन्थअरह ये तीनों तीर्थङ्कर चक्रवर्ती कामदेव तीन-तीन पदवियों के धारक और श्री रामचन्द्र, लक्ष्मण, कृष्णजी, बलभद्र आदिक बलभद्रनारायण पदवी धारी ६ खण्ड। तीन खण्डके राज्याधीश हुए। इन्होंने संसार की लक्ष्मीको केवल संसारके कार्योंका साधक जान धारण करते रहे। परन्तु अपनी अन्तरङ्ग ज्ञान लक्ष्मीको अपना ध्येय समझ वहिर्लक्ष्मीको वाह्य कार्यकी साधक समझ लिप्त नहीं रहे। लालच, लोभ, तृष्णासे दूर रहे। तब तो कारण पाय इस लक्ष्मीको असार जान लात मार चले गये। तश्चरण कर मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त की। भरत महाराजने वस्त्र उतारते-उतारते दिगम्बरी दीक्षा धारण कर केवल ज्ञान प्राप्त किया। आजकल तो मोक्ष नहीं होता और यह लक्ष्मी तथा कुटुम्ब परिकर साथ भी नहीं जाता। करते रहे। लक्ष्मीको बाणासे दूर रह Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास .. फिर भी चेत नहीं होता। समाजमें बड़े-बड़े धनाढ्य, राजा-महाराजा या उत्तम पुरुष हों, सबको ऐसी ही कामना रखनी चाहिये। परन्तु कार्य-मात्र साधक जानि विशेष गहले (बेहोश ) न होना चाहिये। किसी कविने कहा है-देखो, जब अन्त समय आता, तब इस शरीरको छोड़ यह आत्मा दूसरा शरीर धारण करने जाता है। तब उस समय इसकी क्या दशा होती है। कवित तात मात सुत दारा पछितात गात रोवे धुनि माथ सब देखत खड़े रहैं । मैंल औ मिलापी मित्र प्यारे संग साथी काहूना वसाती हाथ मलते पड़े रहैं। जीव जब जाता इस देहसे निकलता पुण्य-पाप-ज्ञान लेता और सब योंही डरे हैं। देखो संसार दशा मोहमें तूं योंही फंसा आसन विभूति कैसे वासन पड़े रहै। इसीसे तृष्णा, लोभ, लालच ज्यादा नहीं करना Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४३५ देखो जिन्ना मुसलमान नेता बन पाकिस्तानके लिये लाखों मनुष्य मरे-कटे हिन्दू-मुसलमानोंकी जो जानें गई फिर क्या हुआ, दो-चार वर्ष भी नहीं जिया, चलता बना। इस पाप का फल भोगेगा, तब उसकी आत्मा ही जानेगी। लोग हँसकर पाप करता है, जब फल भोगता है, तब बिललाता है। किसीने कहा है-- "फल चखनकी विरिया, भोंदू बहुतेरा पछतायेगा।" हिटलर रूजवेल्ट महासमर छेड़ चलते बने। अणुवम सरीखे घातक शस्त्र बम्ब असंख्य प्राणियोंकी हिंसाकर क्या सुख पाया कुछ नहीं। इससे जीवात्माको सन्मार्ग खोजना चाहिये, जिससे अपना हित हो और अन्य प्राणी सुख पावे। यह इतिहास इसलिये लिखा है कि इस वंशको श्रीनेमिनाथ भगवान् और कृष्ण वलभद्र उत्तम पुरुषोंने जन्म लेकर सुशोभित किया और असंख्य प्राणियोंका उद्धार कर सुखी किए। जिनके जन्मके समय तीन लोकके प्राणियोंको एक समय साता ( सुख ) मिल जाता (तीन लोक भयो हर्षित सुरगण भर्मियो)। तब आपलोगोंको भी हितमें Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * प्रवृत्त हो, इन पञ्च पापोंको छोड़ हित शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। आजकलकी जनताने खाद्य-पदार्थों में अखाद्य-पदार्थ मिलाकर खाद्य-पदार्थ नष्ट कर दिये। असली चीनी नष्ट प्रायः कर दानाकी चीनी चला दी, जिसे डाक्टर दानाकी चीनी खानेसे चीनिया रोग ( लाला-प्रमेह ) होना बताते । असली घो नष्टप्रायः कर संसारमें भेजीटेबुल घी (वनस्पति) चला दिया। अमली शुद्ध औषधियोंको नष्टकर मछली का तेल, पखेरुओंका तेल पुष्टकारक चला दिया, जिससे उन पखेरु मछली प्राणियोंका घात कर परहिंसा हुई और अपनी बुद्धि खराब कर अपना घात किया। प्राणियोंको निरन्तर रोगी बनाये रखनेका व्यापार हो गया। डब्बाका दूध बनाकर बालकोंकी हृष्ट-पुष्ट शक्तिका हास किया। अनेक कल-पुर्जा बनाकर पशुओंकी रक्षा गई। मनुष्योंकी रक्षा गई । पशुओं और मनुष्योंसे काम नही लिया जाय, तब खानेको कौन देगा ? ऐसी-ऐसी कलें बनाई गई हैं, जिनसे जीतेजी पशुओंकी खाल खींचकर मुलायम जते बनाये जाते इत्यादि हिंसाका ही विस्तार हो गया। अब तो उच्च घरानेके Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेच समाजका इतिहास * ४३० मनुष्य भी ओहदा पाकर मछलियाँ खानेका उपदेश, बन्दर आदि पशुओंके मारनेका उपदेश देने लगे, अब कहो, ( दया बिन शरण सहाई कौन होवे )। इसलिये जीवोकी दया पालना भी गृहस्थका मूल गुण होना चाहिये। और ब्लेकमार्केट चल गया, इसने सबको चोरी सिखा दी। अब चोरीमें कोई पाप ही नहीं समझता। इस ब्लेकमार्केट के कारण ( खाद्य-वस्तुओंका तथा व्यावहारिक वस्तुओंका) कण्ट्रोल करना है। दिखाते तो यह हैं कि वस्तुएँ ठीक दामपर गरीबोंको मिलेगी, पर मिलने में दिक्कत बहुत बढ़ गई। अगाड़ी अनाजका संचय कर खोडिया भरते थे, अब लोग भरने नहीं पाते और जो व्यापारी भरते हैं, अनाज संचय करते हैं, वे दूसरे देशोंमें भेज धनकी अधिक तृष्णा से अहित करते। और यहाँके अन्गज यहाँकी प्रजा के हितकर थे। वे तो दूसरोंको देते और दूसरे देशोंके अनाज यहाँवालोंको अहितकर होते, यह सब भीतरी अहिंसा है। अनेक रोग आकस्मिक आगन्तुक होते, यह सब ब्लेकमार्केटका फल है। पहिले जब कण्ट्रोल नहीं थे, तब क्या यहाँ चीजें नहीं मिलती थी, बहुतायतसे Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास : मिलती थी यह सब दुनीतिका फल है। जैसी नियति, वैसी वरकति और जो ब्लेक करेगा वह झूठ बोले बिना रहेगा ही नहीं। ____ अब स्वदारसन्तोष व्रत गृहस्थका कहा जो पुरुष तो अपनी स्त्रीके सिवाय परस्त्री वेश्याके गमन न करे और स्त्रियाँ पतिव्रत-धर्म धारणकर सन्तोष करे, तो सन्तान हृष्ट-पुष्ट और धार्मिक होवे, उसके घातक तलाक बिल, विधवा-विवाह पास करा लिये। अब शूकर-कूकरकी तरह अनेक सन्तान होने लगी, तो अब कहते हैं सन्तान पैदा कम करो। जा ऋषि-मार्ग था उसको नष्ट कर दिया। अब सुख कहाँ हजार हाथ नहीं। निरक्षरान् वीक्ष्य धनाधिनाथान विद्यान हेया विवुधैः कदाचित् । धनादियुक्ताः कुलटाः निरीक्ष्य कुलाङ्गना किं कुलटाभवन्ति । निरक्षर अनपढ़ धनाड्य लोगोंको देखकर पंडितोंको विद्या पढ़ना नहीं छोड़ देना चाहिये । क्या वस्त्राभूषण आदिसे सुसजित व्यभिचारिणी स्त्रियोंको देखकर क्या कुल स्त्रियें व्यभिचारिणी हो जाती है। कदापि नहीं जिसके अन्तरं गशील रूपी भूषण है उण्हें वाह्य भौतिक उन्नतिसे क्या Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४३६ ऐसी विभूतिमें लात मारती है, परन्तु अब पुरुष ही अपनी स्त्रियोंको व्यभिचाणिी बनानेका उपदेश देने लगे। तलाक बिल पास कर लिया, जो अपना पति पसन्द न आवे तो दूसरा कर लो। जिससे आपसमें मनुष्यों तक की हिंसा हो जाय। तब इस विषय और धन की तृष्णाने सुखको खो दिया। मृग तृष्णाकी तरह दुःख के ही कारण अपने आप बना लिये हैं। विधवा और विवाह इन शब्दोंसे शाब्द बोध नहीं होता जिसका पति नहीं रहा उसका विवाह कैसा ? किसी कविने कहा है : सिंहगमन सुपुरुष वचन कदली फरत इकवार तिरिया तेल हमीर हट चढ़े न दूजी बार असली सिंह नर मादा दो ही होते हैं। जो तिर्यञ्चों का राजा बतलाया है। वह जब सिंहीसे विषय करता है विषय करके मर जाता है और सिंहनीके गर्भमें एक नर एक मादा दो का गर्भ रह जाता है। वे दोनों पुष्ट होकर मांका पेट फार कर निकलते हैं। तात्पर्य ऐसे असली सिंह सिंहनी दोही रहते हैं, ऐसी किंवदन्ती है। तो Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास - सिंहका एक बारही गमन विषय होता है और केला वृक्ष एक बार ही फल देता है। दूसरी वार काटके फलता है और स्त्रीको एक ही बार तेल चढ़ता है, अर्थात् एक ही बार विवाह होता है दूसरी बार धरेज (धरावना) कहलाता है और सत्पुरुषोंका वचन जो कह दिया उसमें हेरफेर नहीं होता। अब विधवा विवाह बिल पासकर लिया तब तो पातीव्रत धर्म नष्ट हो गया। जैसी नारि दूसरे फंसी, जैसे सत्तरि वैसे अस्सी। तब तो उसके परिणामोंमें यह बात तो नहीं रहेगी कि, व्यभिचार न करूँ, क्योंकि उसके एक की प्रतिज्ञा न रही भङ्ग कर चुकी। कहाँ वह समय था, जब रावणके बगीचेसे रावणको मारकर अपने घर अयोध्या पुष्पक विमानमें बैठाकर रामचन्द्रजी सीताजीको लाये। तब अयोध्याकी स्त्रियें इधर-उधर घरोंमें जा जाकर कहने लगी कि आप हमको रोकते हैं कि दूसरोंके यहाँन जाओ तो सीताजी इतने दिन रावणके घररही और रामचन्द्रजी घर ले आये। कोई तिखार नहीं किया यह अपवाद भया तब सब लोगोंने श्रीरामचन्द्रजीसे शिकायत की कि हमारी स्त्रियाँ इधर-उधर फिरने लगी, हम कहते हैं तो Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ win * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * ४४१ मानती नहीं आपका उदाहरण देती हैं। तब रामचन्द्रजी ने सीताजीको अग्निकुण्डमें प्रवेश करने की आज्ञा देकर परीक्षा ली, तब सीताजी अग्निकुण्डमें प्रवेश करते समय कहती है : मनसि वचसिकाये जागरेस्वनमार्गे मम यदि पतिभावो राघवादन्यपुन्सि तदिदहतुमेशरीरं चन्हि कुण्डे-प्रचण्डे सुकृतविकृतनीतेः देवसाक्षी त्वमेव ! यदि मैं रामचन्द्रजीके सिवाय किसी पर पुरुषोंमें मनसे, वचनसे, कायसे, अभिलाषा की होवे तो हे देव, हे जिनेन्द्रदेव, मेरा शरीर भस्म हो जाय। पुण्य और पापके देखनेमें आप ही गवाही हैं, तो तत्काल ही देवोंने अग्निकुण्डको सरोवर बना दिया और पानी इतना बढ़ा जो अपवाद करनेवाले डूबने लगे, तब प्रार्थना करने लगे कि माता मेरो रक्षा करो। तब देवोंने कम कर दिया देखो यह पातिव्रतधर्म था, माहात्म्य था अब उसकी रक्षा कौन करता है। उलटा नष्ट करनेका उपदेश होने लग गया समय की बात है यहाँ कोई प्रश्न करे कि यरुपादि देशोंमें Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 1 . .. ४४२ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * तो ये विवाहादि प्रथा नहीं, अहिंसादि ब्रतोंका पालन नहीं और उन्नतिशील देश है, इसके उत्तर में कथन है कि वहाँ पर भी यही धर्मप्रचार रहा है। राणा भीमसिंह पद्मिनी का विवाह सिंहलद्वीप ( सिलोन ) लंकामे करके लाये अब भी ऐसे पाये जाते हैं जो निरामिषभोजी दूध तक नहीं लेते कि दूधमें भी कोई २ समय निचोड़कर दुहने में रक्तका अंश आ जाता है, परन्तु यह गलती है । दूध न निकालनेसे गायको तकलीफ होती है उसमें निकालने में कष्ट नहीं कोई गलती करे तो ऐसा होता है । दूसरे जैन शास्त्रपुराणोंमें आदिपुराण पद्मपुराण आदिमें कि ८४ चौरासी खनके मकान होते पाताल लङ्कामें विराधित राममन्द्रजीको लिवा गया रखा सीताजीकी खोजकी सो पाताल लंका अमेरिका ही है। अब सब जगह भ्रष्टाचारी हो गया रावणके भाई कुम्भकर्ण और पुत्र मेघनाद इन्द्रजीत तपस्या कर बड़वानीसे मोक्ष गये तो भरतक्षेत्रमें ही ये प्रदेश थे अब युरुपको हम हनुरुद्दीप लिखही आये हैं अब कुछ समयसे परिवर्तन हो गया तो भी क्या उन प्रदेशोंमें विशेष धर्म साधन नहीं होता जहाँ सर्दी गर्मी विशेष रहती है। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेच समाजका इतिहास * ४४३ वहाँ मुनि धर्मकी प्रवृत्ति नहीं है तो जैनमुनि दिगम्बर रहते । इसके लिये भारतवर्ष ही विशेष पुण्यभूमि है यह धर्मप्रधान देश था सो लोगों ने यूरुपकी भौतिक उन्नति देख लोग धर्मके तरफ प्रवृत्तिकम करने लगे हैं तो भी क्या इस देशमें पवित्रभूमि में आविर्भाव होता ही रहेगा । जब लोग आर्य मार्गसे विपरीत चलते हैं तब उपद्रवकी आशङ्का हो जाती है इस समय हवा विरुद्ध है फिर सुधरेगा | आजकल के चित्र खींचकर एक भजन लिखते हैं । यहाँ से चलिये ज्ञानविवेक गयो । शास्त्र पढ़न और श्रवण गयो सब यासे ज्ञान मलीन भयो हित अनहित कोई बुझतु नाहीं ऐसो अंधाधुन्ध छ्यो १ धर्मप्रधान देश यह होकर अब यह अर्थप्रधान भयो भौतिक उन्नतिमानि मगन ले चेतनमें जड़वाद गह्यो २ खाद्य अखाद्यको बोध रखो नहिं यासे खाद्यपदार्थ गयो निज अनुभूति लखे अब क्योंकर चारित्रको नहिं लेश रह्यो ३ कोई किसीकी मानत नाही शिक्षाको जु अभाव भयो तर्कतीर्थकी तर्क चले नहिं देखो अब यह समय नयो ४ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ___अब इस इतिहासको यहाँ पूर्ण करते हैं। श्रीजिनसेन आचार्यके कहे हुए गृहस्थके ८ मूलगुणोंमें एक जलगालन मूलगुण और कहा उसका आशय यह है कि इसलोक और परलोकके लिये हितकर जलको छानके पीना चाहिये । इस जलमें अनेक प्रकारके त्रसजीव होते हैं और जलकायके हैं । उनका त्याग बनता नहीं, गृहस्थके त्रसकाय जीवोंकी रक्षा निमित्त और अपनी आरोग्थता निमित्त जल छानके पीना चाहिये । जलमें प्रत्यक्षमें चौमासोंमें लाल डोरा सरीखे बस हो जाते हैं और महीनोंमें भी त्रस पाये जाते हैं। वेलजियम कलकत्ता में एक दुर्वीनसे दिखाते हैं । पं० जुगुलकिशोरजी मुखत्यार तथा बाबू छोटेलालजी देखने गये सो बोले गोल चौकोर नाना प्रकार जन्तु जलमें देखे यह तो अबकी बात है। परन्तु जैनशास्त्रमें अनादिकालसे जलमें जीव बताये हैं और जलकी छाननेकी विधि बताई है और प्रसिद्ध भी यह है कि जग जाहिर हैं। रात्रिको नहीं खाते और जल छानके पीते वे जैनी हैं और इसके विषयमें अजैनऋषि भी लिखते हैं श्रीमान् मार्कडेयऋषि । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास # दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं बस्त्रपूतं पिवेज्जलम् । सत्यपूतं वदेद्वाक्यं मनः पूतं समाचरेत् || दृष्टिकी पवित्रता वही है जो मार्गमें देखके चले और जलकी पवित्रता तव है, छानके पिये और वचनकी पविता वह है, सत्य वोले और मनकी पवित्रता वह है, जब प्राणीमात्र में समान आचरण करै । जैन सिद्धान्तका उपदेश है कि तुम जियो और जीने दो। दुनिया में सभी को अपने से कम न समझो सुख-दुख मैं किसीको सबके ऊपर दयाभाव राखो । अहिंसा परमोधर्म्मः यतो धर्मस्ततो जयः 8 अहिंसा उत्कृष्ट धर्म है, जहाँ धर्म है वहीं जय है हमेशा यह विचार रखो कि मेरे निमित्तसे किसीका अहित न होवे वही सच्चा सम्यग् दृष्टि है । यह जैन धर्म | क्षत्रिय धर्म है श्री जिनसेन आचार्य आदि पुराणमें लिखते हैं- क्षतत्राणे नियुक्तास्ते क्षत्रियाः स्मृता । जो निर्बलको सताता हो उसकी रक्षा करें वही क्षत्रिय धर्म है इसीको कालिदासजी भी अपने काव्य रघुवंशमें पुष्ट करते है । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * क्षत्तात् किलत्रायतइत्युदयः क्षत्रस्य शब्दोभुवनेषुरूढ़ः ___ जौ कोई मारता हो, घाव करता हो उससे रक्षा कर सो क्षत्रिय है। जैन शास्त्र सर्वज्ञतीर्थङ्करका आगम कहता है जो सातभय रहित होकर अपने आत्माको अजर अमर समझता है। वही क्षत्रिय है रागादिक शत्रुओंको जीते सो जिंन और जिन भगवान् अरहन्तदेवका कहा हुआ धर्म जैन धर्म है जिसने रागादिक क्रोधादिक शत्रुओंको जीता वही जिन है वे भी अहिंसक है उनका कहा हुआ अहिंसाधर्म है अहिंसा धर्म वही क्षत्रिय धर्म है। वेदमें भी लिखते हैं माहिस्यात्सर्वाभूतानि मतमारो किसी जीवको। श्रीरामचन्द्रजीयोगवशिष्ठमें लिखते हैंनाहंरामोनमेवांछा विषयेषुचनमेमनः शान्तिमासितुमिच्छामिस्वात्मन्येवजिनोयथा। श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं किनमे राम हूँ रामका अर्थ हैं रमन्तेयोगिनोयस्मिन् इतिरामः । जिसमें योगीलोग रमण कर उसे राम कहते हैं सो मैं Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * गृहस्थमें बैठा हूँ सीता मेरे साथ है। तो विषयोमें मन है कहते हैं तो विषयोंको भी नहीं चाहता हूँ। एकमें अपने आत्मामें निमग्न हो शान्ति चाहता हूँ। जैसे जिन भगवान अरहंतदेव अपनी आत्मामें लीन हो शान्ति प्राप्तकी वैसीमें शान्ति चाहता हूँ तात्पर्य इस आत्माका स्वरूप ज्ञानमय है श्रीकुन्दकुन्द आचार्य कहते है। आदाणाणपमाणं आत्माज्ञान प्रमाण है जितना ज्ञान उतना ही आत्मा है और आत्मा है उतना ही ज्ञान है आत्मा ज्ञान स्वरूप है जैसे मिश्री और मिठास दो नहीं मिठास है से मिश्री है और मिश्री है वही मिठास है गुण और गुणीका तादात्म्य सन्बन्ध है तब ज्ञान आत्मा एक चीज है ज्ञान स्वरूप ही आत्मा है जो आत्मा अपने ज्ञान मग्न हो जाय वही शान्ति है सुख है। यत्सुखंत्रिषुलोकेषु तत्सखंशान्तचेतसां कुतस्तद्धनलुब्धानां इतश्चतश्चधावताम् १ जो सुख तीन लोकमें है वह शान्त चित्तवालोंका है वह सुख इधर उधर दौड़नेवाले धनके लोभियोंको कहाँ यह थाडासा उपदेश धारा इसलिये लिखी कि हम कौन है इस इतिहाससे मालूम होगा हम लोगोंका उच्च शिक्षा Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ *श्री लॅबेच समाजका इतिहास * प्राप्तकर अपने वंशको समुन्नत बनाना चाहिये। और इस इतिहासमें पल्लीवाल ( पालीवाल ) जातिका जिकर नहीं किया इसका निकास कन्नौजसे है। कन्नौजमें राठोरोंका दबदवा रहा है । पृथ्वीराजने चढ़ाई की है, पालीवालोंका निकास राठोरोंसे होगा। इति त्वस्तिभद्रश्चास्तु हमारे भाई बाबू सोहनलालजीका कहना है कि तुम ने कितनी जगह श्री जिनविम्वप्रतिष्ठा वेदी प्रतिष्ठा कराई यह भी लिख देना। कानपुरमें श्रीमान् पं० भादोलालजी गुलजारीलालजी वावा दुलीचन्दजीके साथ रहकर कानपुरमें सं० १६६४ जुहीके मदानमें जिन विम्वप्रतिष्ठा कराई श्री लाला गुलजारीमल रामस्वरूपजी अग्रवालकी तरफ से। करहल (जिला मैनपुरी ) में जिंन प्रतिमा प्रतिष्ठा श्रीमान् लाला फुलजारीलाल मिजाजीलाल रईश लमेचू जैनकी तरफसे कराई संवत् १६८१ में । श्रीपावापुरी सिद्धक्षेत्रमें श्रीमान् हरग्रसाद रईश आरा की तरफसे मारफत श्रीमान् निर्मल कुमार रईश आरा की देखरेखमें ऊपर के जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा कराई। श्रीपावापुरीमें दुवारा श्रीमान् वाबू निर्मल कुसार Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४४६ चक्रेश्वर कुमार रईशकी तरफसे श्रीमहावीर जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा की । आराकी तरफसे निर्वाण कल्याणका महोत्सव जल मन्दिरमें किया। _____ आगरामें श्रीमान् बिहारीलालजी जैसवाल कलकत्तावाले की तरफसे जिनविम्ब प्रतिष्ठा कराई। ____श्री सम्मेद शिखरजी ( पार्श्वनाथादिक ) तीर्थ क्षेत्रमें प्रतापमलजीकी जिनबिम्ब प्रतिष्ठा समय तेरापंथो कोठीके आदि मन्दिर की तथा पीछे भागमें विराजमान बृहत्पार्श्व नाथ श्यामवर्ण की प्रतिष्ठा की। श्री खण्डगिरी उदयगिरि दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्रमें खण्डेलवाल श्रीमान सुजानगढ़ निवासी कलकत्ता प्रवासी चान्दलल पन्नालाल फार्मके बालचन्द नेमीचन्दकी तरफ से श्री जिनविम्ब प्रतिष्ठा ६ नव हाध ऊँची खड़े आसन श्रीपार्श्वनाथ जिनबिम्ब श्यामवर्ण की। और अनेक जिन बिम्बोंकी प्रतिष्ठा की। श्री सम्मेद शिखा जैनतीर्थ क्षेत्रमें ( पार्श्वनाथ ) क्षेत्र में श्रीमान हस्तिकान्त ( हतिकांति) निवासी इटावा प्रवासी तथा कलकत्ता प्रवासी श्रीमान् बाबू मुन्नालाल द्वारकास पोद्दार गोत्रीय लँमेचू जैनके फार्मके मालिक श्री मान बाबू सोहनलाल जैनकी तरभसे वृहत जेन मन्दिर २९ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * बृहत् श्री चन्द्रप्रभ जिन विम्ब तथा धातुकी श्रीसुपार्य जिन बिम्ब की प्रतिमा की। ___ फुलेरा स्टेशन राजपूतानामें श्रीमान् खंडेलवाल पाटनी सेठि मुलचन्द सुजानगढ़ निवासी कलकत्ता प्रवासी की तरफसे श्री आदिनाथादि जिन विम्ब प्रतिष्ठा । श्रीमान पं० नन्हेलालजी पं० श्रीनिवास शास्त्रीकी सहकारितामें जिनविम्ब प्रतिष्ठा कराई और मरसलगंजमें श्री जिन बिम्ब प्रतिष्ठा पद्मावतीपुर वालोंकी तरफसे की। वेदी प्रतिष्ठायें शेरकोट जिलाविजनोर विजनोर खास श्रीमान् वद्रीदास खजाञ्जी की तरफसे । कानपुरमें कलकत्ता वालोंके मन्दिरमें । प्रयाग इलाहाबाद जिन मन्दिर छोटेमें तथा जानकी दासके जिन मन्दिरमें हमारी साली द्रोपदाबाई तथा हमारी तरफसे करहलमें हलवाइनके जिन मन्दिरमें तथा रपरियानके जिन मन्दिरमें संघीनके जिन मन्दिरमें भिंडमें गोलारारेनिके श्री नेनिनाथ जिन मन्दिरमें Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास. ४५१ अटेरमें इन्द्रध्वज विधान कराया। कलकत्तामें तथा भिंडमें कराया श्री नया जिन मन्दिरमें वेदी प्रतिष्ठा तथा पुरानी बाड़ी जिन मन्दिरमें चावल पट्टी जिन मन्दिरमें वेल गिचिया जिन मन्दिरका जीर्णोद्धार कर्ता श्री मान् सेठिसेढमल दयाचन्द मारवाड़ी जैन अग्रवाल की तरफसे कलकत्तामें। श्रीमान पं० न्याय दिवाकरजी पन्नालालके साथ । श्री धनपतिलाल पद्मावतीपुर वालके मन्दिर तथा वेदी की प्रतीष्ठा उत्तरपाड़ामें कराई। मिहोनी जिला भिंडमें सेठि श्रीपालजी खरउआ की नरफसे। मूरीपुर ( वटेश्वर ) तीर्थक्षेत्र सूरीपुरमें सबवेदियों की। गुणोवा तीर्थक्षेत्रमें श्रीमान् सेठ सुजानगढ़ निवासी, कलकत्ताप्रवासी रामवल्लभ रामेश्वर जैन अग्रवालकी तरफसे। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ * श्री लँबेच समाजका इतिहास * राजगिरि श्रीमान् खंडेलवाल हजारीमल रामचन्दकी तरफसे । बुगड़ामें चरमगुरिया मदारीपुरमें ढाका वङ्गालमें इत्यादिमें वेदियोंकी जिंन मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा कराई। नागोरमें श्रीमान् खंडलवाल पञ्चोंकी तरफसे । चम्पालाल दीपचन्द नेमीचन्द दुलीचन्द आदिकी तरफसे मन्दिर निर्माण मन्दिर प्रतिष्ठा बेदीप्रतिष्ठादि । रेवासा जि. सीकर जयपुर श्रीमान् सेठ खंडेलवाल रामलाल शिवलालकी तरफसे कालूराम लक्ष्मीनारायणकी तरफसे । श्रीचांदन गांव महावीर पाटोदा श्रीकृष्णा वाई अग्रवालके महिलाश्रममें आश्रम वेदी प्रतिष्ठादि। कलकत्ताके निकट चुरचुरा अतिशय क्षेत्रमें तथा कलकत्ता पुरानी वाड़ी। श्रीमान् सेठ कन्हैयालाल विरदीचन्दके प्रबन्धमें किये हुए जीर्णोद्धरित जिन मन्दिर और वेदी प्रतिष्ठा कराई। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____* श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४५३ श्रीमान् कन्हैयालाल विरदीचन्दजी जेन अग्रवाल फतेपुर निवासी कलकत्ता प्रवासी राजाउडमेनमें गद्दी तथा आरमनी स्टीटमें बाड़ी है उनकी तरफसे प्रतिष्ठा की। ___और भी अनेक वेदी प्रतिष्ठा कराई हमें याद नहीं। राजपूतानेका इतिहास द्वि० खण्ड गौरीशङ्कर अझाजी कृत। आशाधर जैन प्रतिष्ठापाठ । महीपाल चरित्र। श्रीवर्द्धमानपुराण (आचार्य पद्मनन्दिकृत) अगुव्यय पदीय लक्ष्मण कविकृत (जायसवाल) पटियालोगोंकी पट्टावलिमें (४) हरिवंवपुराण जैन वृद्ध जिनसेनाचार्यकृत आदिपुराण जैन संस्कृत महापुराण द्वि० जिनसेनाचार्य कृत जैन सिद्धान्त भाष्करकी फाइलें अनेकान्तपत्रकी फाइलें जैन मित्रकी फाइलें श्री जिनप्रतियाओंके शिलालेख ताम्रपत्र ___इटावा जिन मन्दिर और धर्मशालाकी रिपोर्ट व इटावा गजेटियर इतने ग्रन्थ और फाइलें आदिकी सहायता से यह इतिहास लिखा गया है। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ जिन महाभिषेक विधिः प्रारंभ्यते मन्दार चम्पक पयोरुह कुन्द जाती सन्मल्लिका वकुल केतकी सिन्दुवारैः । तीर्थाम्बु तन्दुल सुचन्दन पङ्क पूत पुष्जाजलिं जिनपतेः प्रतिशंददामि ॥१॥ श्री जिनामेपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् येषां स्मरन्तः किलसंश्रयन्तः सन्तः शिवं शीत शिवाम्बुभिः स्तान् । श्रीमजिनेन्द्राऽमल सिद्ध सूरीन् अध्यापकान् साधुयुतान् यजेहम् ॥ २॥ जलधारा येभ्यः सुभव्याः भविनो भवन्ति गन्धैः सुगन्धैः शुभशन्सिभिस्तान् ।। श्रीमजिनेन्द्रा० ॥ चन्दनम् आनन्द मन्तः स्फुरदंशुजालं ये संगताचाक्षतमक्षतैस्तान ॥ श्रीमजिनेन्द्रा० ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * ४५५ अक्षतं यन्नामतोभन्यजनस्य चित्तं ननन्द नित्यं कुसुमैः शुभैस्तान् ॥ श्रीमजिनेन्द्रा० ॥ पुष्पम् शाल्योदनैः कामलवस्तु युक्तं सिद्ध्यै सुसिद्धैश्वरुभिस्तदैतान् ॥ श्रीमज्जिनेन्द्रा० ॥ नैवेद्यम् यदी बोधाधिक दी दीपान् जगत्स्फुटीभूत मनल्पदीपैः || श्रीमज्जिनेन्द्रा० ॥ दीपम् कर्मेन्धनानां दहता ममीषाम् धूपैरिवाऽनेकधूपधूम्रः ॥ श्रीमज्जिनेन्द्रा० || धूम् फलं दिशन्तो विमलं जनानां फलैः सुपुण्यस्य फलै रुपेतान् ॥ श्रीमज्जिनेन्द्रा० ॥ फल्म् सद्वारिगन्धैः सुमनोःक्षतैश्च नैवेद्यदीपाऽमल धूप पूगैः । श्रीमज्जिनेन्द्रा० ॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास अर्धम् ये केचिज्जिन सिद्ध सूरिशुभगोपाध्याय साधूनमून् । ध्यायंस्तत् प्रतिबन्ध बन्धुरधियः सन्तः समन्तादिह ॥ ते शस्वन्नर राजदेव पदवी मासाद्य चञ्चच्चिषः । प्रोह्य ंस्तेत्र घनैव कर्म्म दहनं श्रीमन्नरेन्द्रार्चितान् ॥ इत्याशीर्वादः ত ४५६ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्विंशति स्तवः आद्यस्कन्दः सर्व विद्यालताना ___ मन्तोतिर्विश्व तत्व प्रणेता। देवो दिव्य ध्यानमानैकतानो नाभेः सूनुर्मङ्गलं वोददातु ॥१॥ नाऽजौजितोय द्विषदन्तरान्तरै स्ततोऽजितः श्रीजिनइत्युदीरित्तः । सुमङ्गलानामधि मङ्गलालयः सुमङ्गलं वोवितरन्तु धीरधीः ॥ २॥ यमधिगम्य जनो यम वानसौ निज निजस्य नियामकभावतः । स्वमभवं कुरुते जिन सम्भवः स्व इह मङ्गलम स्त्वनि सम्भवः ॥ ३ ॥ यदीय नामोच्चरण प्रसंगतो प्यनन्तभंगेक्षण भागयं जनैः ।। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * श्रयत्यजस्रं श्रियमङ्ग सङ्गतः ___समङ्गलाया स्त्वभिनन्दनोजिनः ॥ ४ ॥ अतुल महिमपारं सार मन्तर्दधानो निजमखिल मनन्तं प्राप्य सन्तिष्ठतेऽग्रे। शिव सुख शुभ सम्पल्लब्धवान्यः सनित्यं सुमति सुमति नाथो मङ्गलम्बस्तनोतु ॥५॥ भवति भुवनदीपी यत्प्रसादातक्षणेन कृत निज निज काल्लब्ध सम्मार्जनौधाः । त्रिभुवन कृतसेवोवः स पद्माभदेवो दिशतु विरति लाभानन्तरं मङ्गलानि ॥ ६ ॥ निर्मग्नं वरसागरे वरधियाधस्त स्वरूपंजगत् येनौद्धृत्य धृतं धृतौ धृतिवताशस्वत्सुपार्श्वः पुनः शुम्भोगभरावन वपुषां कान्त्याज्वलज्ज्योतिपाम् देयाद्वःसमङ्गलानि सततं श्रीमत्सुपाश्र्थोजिनः ।।७।। यस्य प्रभा परिकर प्रविभिन्नमन्त मोहान्धकार मखिलं प्रलयं प्रयाति विघ्नं नचा श्रयतिसंश्रयते विभूति चन्द्रप्रभःप्रभुरसौकुरुताच्छिवंवः ॥८॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४५६ पुष्णातिलोकं विधुनोतिशोकं क्षिणोति दुखं सुख मातनोति जनस्य यः संजनयत्यशषं श्रीपुष्पदन्तः सशिवंकरोतु ॥६॥ ज्ञानाद्यशेषाऽमलभावयुक्तं तत्वविशुद्धं भुविनोवदन्ति यद्धर्ममुक्ताः किलविभ्रमन्तः श्रीशीतलोऽसौतनुताच्छिवंवः ॥१०॥ श्रियः प्रभूत्यै किलयत्स्वभावः संमार्यमाणः सकलं करोति जगजयीयस्यनिजन्मभूयः श्रयानजिनोऽसौसशिवंकरोतु ॥११॥ सुरेन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्र वर्गः पूजाक्षणे क्षोभ मुपैतियस्य ससर्व पूजाक्षण एवदेवः श्रीवासु पूज्य: शिवतातिरस्तु ॥१२॥ जगत्रयंयो विमली करोतिस्वधामनाम्नानिजयन्तुवर्गम् निसर्गशुद्धः स्वतएवबुद्धः शिवः शिवं श्री विमलोददातु ॥१३॥ अनन्तमिथ्याम्बुधिपारमेति श्रुत्वावचोऽनन्तगुणं यदस्य आनन्त्यमामोति जनः सुखादे स्त्वनन्तनाथः सशिवंकरोतु ॥१४॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० *श्री लंबेच समाजका इतिहास * नित्यायनेकान्तमतीवकाशं प्रकाश्यलोकेविदुषामशेषम् पापाजगज्जोविभयं चकार श्रीधर्मनाथः स शिवंकरोतु ॥१५॥ विभावनायां प्रतिपद्यलीला प्रशान्तमेतत्पुनरापशान्तिम् विश्वं वचोभिननुयस्यशान्त्यै शान्तिर्जिनोवः कुरुतात्प्रशान्तिम् ॥१६॥ कुन्वायनेकविधजन्तुदयाञ्चकार यस्तामुपेत्यजनतापिदयाञ्चकार भव्य प्रवोध जनकान्यमलानिसश्री कुन्थुर्जिनोंदिशतुवः शुभमङ्गलानि ॥१७॥ अरतिशोकमयादिविनाशकृतकृतसमस्तसमस्त हितंकरः शुभसमाश्रयसंकमशंकरस्त्वरजिनः कुस्तोत्सवमङ्गलम् ॥१८॥ यः कारातिहारी विशदतर गुणग्रामधारी विशारी ज्ञानानन्दैकचारी विषमतम महादुःखदोषापहारी क्षीणाऽक्षीणोपचारी शुभसमितिसभासङ्गसम्पद्विचारी देव श्रीमल्लिनाथोभवतुतवममाप्येबमाङ्गल्यकारी ॥१६॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *भी लँबेचू सगाजका इतिहास * ४६१ विश्वविश्वम्भराभार हारिधर्मधुरन्धरः देयाद्वोमंगलंदेवो दिव्यश्री मुनिसुव्रतः ॥२०॥ आर्या यच्छेलं शैलराजो दुर्लचो लङ्घते महासत्वैः सोयं श्री नमिनाथः सतांमाङ्गल्यकारकोभूयात् ॥२१॥ त्यक्त्वा प्रपञ्च रुचिरं रुचिरं स्वराज्य मन्तःस्फुरद्विभवभारभरावकीर्णम् तूर्णतुरीयपदमाश्रितएवदेवो नेमिः श्रियं दिशतवः शुभमंगलस्य यन्नामस्मृतिमात्रतोपिनिखिलं निम्नन्ति विघ्नं जनाः मानव दैव्यं यन्नवमन्यदप्युपगतं सन्तः समन्तादिह प्रीतः प्रान्ति विनीत वैरि विषमव्याहार सारेण यः सोयं मङ्गल मातनोतु सुधियाँ श्री पार्श्वनाथोजिनः ॥२३॥ लोकेषु सर्वेधषि वईमानः प्रीत्याजनस्येह सुवर्द्धमानः प्रवर्द्धमानक्षतमानयानो देयात्शुम्भंवो जिनवर्द्धमानः ॥२४॥ इति श्रीचतुर्विसति तीर्थङ्कराणां मङ्गलस्तवः संपूर्णः वृषभादीन् जिनान्नत्वा वीरान्ता नतिभक्तितः ॥२५ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ , * श्री लॅबेचू समाजका इतिहान नित्यम्रान विधिवक्ष्ये यथा विधि विशुद्धये ॥१॥ नित्यनैमित्तिकश्चापि स्नानादि विधि मङ्गलम् . विद्यते विदुषांमान्यं सर्व पाप प्रणाशनम् ॥२॥ त्यक्त्वानमित्तिकं तावत् कल्याणादिकमुत्तमम् तदेव नित्यं संक्षेपात् प्रवक्ष्यामि यथागमम् ॥३॥ अथेदानीं पूर्व सरि सूत्रितं तदेवसूत्रयिष्यामः णमोहतसिद्धाचार्योपाध्यायेभ्यस्तथा च साधुभ्यः इत्यादि मंत्रेण स्थापनाशक्रः आत्मानं पवित्री करोति ॐ ही ही ह हौं हः पञ्चगुरुभ्यः स्वाहा ॐ अहं अनेन मन्त्रणाभि मन्त्रितेन चन्दनेन स्वाङ्ग पवित्री करणम् । संस्नानाय विधाय यस्यवसुधा शुद्धि विशुद्धाम्बुधा वेदींमन्त्र समाप्य शुभ्रकलशैः सत्काञ्चनैरचितम् पीठं तत्र पवित्र मस्मिन् जिनाधीशस्य विम्बं पयो दध्यायः सरमैः सुगन्धि सलिलैः संस्नापथन्तिक्रमात ॥४॥ मेरो भूमिजिनस्य शिरसिं श्रीमत्सु धर्माधिपः क्षीराब्धेवरवारिभिः स्नपनवि स्नानंकरोत्यादरात् कल्पेशास्तदनु प्रकल्पितघटैः सद्गन्धगन्धोदकः रैशाना समलम्भनं समधियः सर्वेचते कुर्वते ॥५॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # कारंकार मनेकधा शुचिपदं स्नानंवपुः स्वीकरैः सद्वस्त्राभरणैर्विभ्रूष्य विविधैर्गन्धैः सुगन्धैरपि इन्द्रोह परिकल्प्यचेति जिनपः प्रारब्धपूजाक्षणः प्राप्तान्तः शुचिराश्रयत्वधिमुदं भव्यत्वमिष्टिक्रम् ||६|| लोकान्तर्गत तत्वसप्तमिदं जानाति यो निश्चलम् aौन्योत्यादविनाश धर्मसहितं नित्यं व्यतीतकमः यस्येष्टिं विदधन्तरो नरपतिः श्रीमन्नरेन्द्रोयथा तस्यैतत् स्नपनं समापयतियः सत्यंसधन्योनरः ||७|| यस्यात्यन्तिकशुद्धि शक्ति सहितस्यान्तः स्फुरज्योतिषो नित्यं मुक्तिवधूवरस्य दिनकृत् कोटिज्ज्वलनतेजसः क्षुतृष्णातिं विवर्जितस्यनिखिलैर्मुक्तस्य दोषैविंभो नथस्नान विलेपनैस्तदपितत् प्रारभ्यते भक्तितः ॥८॥ लोकस्य संस्नान विधानहेतोरेतत् पठित्वापुरतः समस्तम् करोमिपूजाविधिमूलमुत्रैः पुण्यार्पणायाऽभिषवंजिनस्य || | अभिषव प्रतिज्ञा ४६३ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भजन जिन पूजा सम पुण्य न दूजा, यह अनादि आगम वरणी कोटि कामको छोड़िके श्री जिनकी पूजा करनी । टेक | उठि प्रभात ही शुचि किरियाकर श्रीजिनके मंदिर जइये श्रीतिरागको नमस्कारकर श्रोजिन वरके गुण गइये | १ | अम्बर पहिर महा शुभ सुन्दर उज्ज्वल जल फिर भर लइये त्रिभुवनपतिको न्हवन कर गन्धोदक मस्तक लइये !! विधन रोग मिट जाय छिनकमें चित चञ्चलता पीर हरनी । कोटि ० ॥ १ ॥ थारीमें भरिये । अनुसरिये ॥ बसु विध दर सुधार मनोहर कञ्चन जल चन्दन शुभ अक्षत सोम किरन सम शुद्ध केवल पुष्प मनोहर चरु तुरन्त ताजे दीप रतन मय धूप दशांगी दश दिशिऊमें फल उत्कृष्ट चढ़ाबत प्रभुको सो पावत करिये । भरीये || अष्टम धरनी । कोटी० ॥ २ ॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * ४६५ उज्ज्वल वस्त्र ढाँकि करि ऊँची लेजिन सम्मुख धारे। त्रिविध थापना थापिके महा मन्त्रको उच्चारे ॥ अष्टक पढ़ि पढ़ि द्रभ्य सुधारे जुदी जुदी ले विस्तारे । अर्घ उतारे कि अघ भय भव भवके टारे॥ यह विधि अर्चन करें महाविध काम चित्तसे निर्झरनी। कोटि० ॥३॥ अब वर नो जयमाल महा शुभ ललित वचन मुखसे बांचे । अक्षर मात्रा पढ़े सब स्पष्ट गुणोंगणमें राचे ॥ रतन कटोरा लिये दरवसे पुलकित तन आनन्द राचे । भव भव माहीं मिलो प्रभु यही भक्ति फलको याचे ॥ इन्द्र समान लहै जिय महिमा मुखसे नहिं कहते वरनी। कोटि०॥४॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने विद्याभ्यासकी जीवनी अब हम इस लम्बेचू इतिहास पूर्णतामें अपने विद्याम्यासका संक्षिप्त विवरण देकर लम्बेच जातिके बालकोंसे नम्रनिवेदन करते हैं कि इस प्रकारकी संस्कृत विद्या और धर्मशास्त्रोंको पढ़कर तथा पढ़ाकर हमारी आशा पूरी कर संस्कृत विद्याका और जैनधर्मका उद्योत करेंगे। प्रथम ही सात वर्षकी अवस्थामें वि० संवत १९४४ में अक्षरारंभ किया । श्रीमान् पं० कल्याणमलजी मिश्र कान्यकुब्जसे जो जिनधर्मपर बड़ी श्रद्धा कर पुरुषार्थ सिद्ध पाय कीटीका करी सारा घर जल छानके पीता, उनके पुत्र माधोरामसे सारस्वत व्याकरण पूर्वार्द्ध पढ़ा । जैनपाठशाला उठ जानेसे श्रीमान् पं० ब्रह्मानन्द शास्त्री प्रभाकरके अवस्थी वर्नाक्यूलर स्कूल भिंडके संस्कृत विभागके मुख्याध्यापक उनसे सिद्धान्तचन्द्रिका उत्तराई व्याकरण पढ़ा और उसके Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४६७ साथ रघुवंश काव्य तर्कसंग्रह मेघदूत काव्य छन्दोग्रन्थ में श्रुतबोधमें बनारस के कौंस कालेजकी प्रथमा परीक्षा दी । विक्रम संवत् १९५३ में उत्तीर्ण हुए। इसके पहिले महामहोपाध्याय श्री रघुपति शास्त्रीजीके काका मुकुन्दपतिसे अमरकोश तीनो काण्ड पढ़े पीछे सारस्वत और सिद्धान्तचन्द्रिका पढ़ प्रथमा परीक्षा दी पीछे ४ खण्डमें खण्डशः मध्यमा परीक्षा भट्टिकाव्यमें दी, पर सिद्धान्तचन्द्रिका से काम नहीं चला तब सिद्धान्तकौमुदी पढ़ी मध्यमा परीक्षा में न्यायसिद्धान्तमुक्तावली थी, यद्यपि श्रीब्रह्मानन्द शास्त्री व्याकरणमें भाष्यान्तपाठी थे पर न्यायमें गतिकम होनेसे श्री पुरुषोत्तमशास्त्री दक्षिणात्यसे न्याय पढ़ा जो रावजीशास्त्री लश्करके शिष्य थे भिंडके ही थे मथुरा में जैनमहाविद्यालय में पढ़ाते थे मध्यमा परीक्षा में किरातार्जुनीय काव्य और माघकाव्य पढ़ा न्यायसिद्धान्त मुक्तावली तथा सिद्धान्तकौमुदी पढ़ भट्टिकाव्य में परीक्षा दी । सम्वत् १६६० में उत्तीर्ण हुए फिर गुजरात ईडरगढ़ नोकरी पर चले गये । वहाँसे बीमार होकर आये इससे सं० ६१-६२ में कपड़ों की दुकान कर ली पर दुकान करनेसे विद्या शिथिल होने लगी । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ranmomr.w.www. wwwwww तर प्रयाग इलाहाबादमें जैनपाठशालामें नोकरी कर ली। फिर वहाँसे इन्दौर श्रीमान् राउराजा सर सेठ हुकुमचन्दजीकी नसियामें जैन विद्यालयमें नोकरी कर ली । छात्रोंको वोर्डिंग में रहकर वहाँ पर शाकटायन व्याकरण टीका अमोघवृत्ति ( राजा अमोघ वर्षकृत ) जैन व्याकरण पढ़ाया तथो श्री सागारधर्मामृतश्रावकाचार चन्द्रप्रभचरित तथा श्रीधर्मनाथ भगवानका धर्मशर्माभ्युदय काव्य आदि पढ़ाये और अजैन विद्यार्थी वीए के आते उन्हें रघुवंशके १३ मा सर्ग पढ़ाते रहे और इसके पहले मथुरामें रहकर जैन न्यायदीपिका परीक्षामुख श्रोधर्मशर्माभ्युदयमें तथा वाग्भट्टालंकार श्रीसर्वार्थसिद्धि आदिमें जैनमध्यमा भी उत्तीर्ण की थी फिर इन्दौरसे वि०सं० १९६८ सन् १९११ में दिल्ली दरवारके समय नोकरी छोड़ आये। दिल्ली दरवार श्रीपञ्चमजौर्जका देखा वहाँसे कलकत्ता चले आये जैन विद्यालयमें पढ़ाने लगे छः महीना बाद श्रीमान जगदीशशास्त्री स्याद्वाद महाविद्यालय जैन बनारससे १ पत्र श्रीमान् पदमराज रानीवालेके नाम लाये उन्होंने हमारे पास शास्त्रीजीको भेज दिया, हमने पूछा क्या चाहते हैं। उन्होंने कहा कि हमको १ कोठरी रहनेको चाहिये हम Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लैबेच समाजका इतिहास * ४६६ यहाँ रहकर श्रीमान् महामहोपाध्याय लक्ष्मणशास्त्री से पढ़ कर वेदान्ततीर्थ और तर्कतीर्थ परीक्षा देना चाहते हैं । हम श्रीमान वामाचरण भट्टाचार्यके शिष्य हैं छहो खण्ड न्यायाचार्यके उत्तीर्ण कर आये हैं। कर्णाट देश सांगलीके हैं। हमने उत्तर दिया कि कोठरी का प्रबन्ध हम कर देंगे पर हमको भी न्याय पढ़ाना होगा। आपने जवाब दिया खुशी से पढ़ो, हम पढ़ायेंगे । उनको हमने श्रीविशुद्धानन्द विद्यालयके सामने ६) रु० भाड़ा पर कोठरी ले दी और उनसे पढ़ें रात्रिको जाया करें। उन्होंने पहले न्याय मध्यमा दिवाई उत्तीर्ण हुए। दूसरी वर्ष वे और हम गुरु-चेला एक साथ तर्कतीर्थ परीक्षामें बैठे, हम तथा वे दोनो ही उत्तीर्ण हुए। जिसमें शब्दखण्डमें परीक्षा दी, व्युत्पत्तिवाद १ शक्तिवाद २ शब्दशक्तिप्रकाशिका २ ३ न्यायकुसुमाञ्चलि और गादाधरी पञ्चलक्षणी व्याप्ति तथा विधिवाद और सामान्य निरुक्ति अभावग्रन्थये परीक्षा अलावा भी पढ़े जिसमें शक्तिशक्तंपदं शक्ति-तीन प्रकार, अभिधा व्यञ्जना लक्षणा आदिका प्रखर विवेचन है। पड़े और ज्योतिषशास्त्र में हमने श्रीमान् पं० रामदयालुशर्मा ज्योतिषाचार्यसे पढ़े Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास - जो श्रीमान् महामहोपाध्याय मुधाकर द्विवेदीजीके शिष्य थे वे भिण्डके ही थे। इनसे खगोल भूगोल ग्रहलाघव सूर्य सिद्धान्तसे बताया तथा फलितमें जातकालङ्कार वृहज्जातक नीलकण्ठी पढ़ी। प्रश्नझानप्रदीप नरपतिजयचर्या ये दोनों जैनग्रंथ हैं। श्रीधर शिवलालके छापेखानामें छपी ये ऋषभदेवका मङ्गलाचरण है। तथा वर्ष प्रबोध यह भी जैनग्रन्थ और मुहूर्त चिन्तामणि मुहूर्तमातण्ड आदि ज्योतिषसार आदिका परिशीलन किया और जैन न्यायग्रन्थ अष्टसहस्री प्रमेयकमलमार्तण्ड आप्त परीक्षा राजवार्तिक श्लोक वार्तिक आदि दिगम्बर जैनग्रन्थोंका अध्ययन कर दश वर्ष संस्कृत एसोशियन कलकत्ता कालेजमें उपाधि परीक्षा परीक्षक रहे और श्वेताम्बर जैनग्रन्थ तत्वार्थाधिगम भाष्य प्रमाणमीमांसा प्रमाण नयतत्वालोकालंकार न्यायमें और हेमव्यारणमें परीक्षक रहे तथा साहित्यदर्पण कादम्बरी न्यैषधकाव्य साहित्यका भी परिशीलन किया पढ़ाया और जैन साहित्य गद्यचिन्तामणि यशस्तिलक चम्पू आदिका परिशीलन किया और महावीराचार्यगणित तथा प्रतिष्ठातिलक आशाधर प्रतिष्ठापाठ ब्रह्मसूरि संहिता तथा जिन Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्रो बेचू समाजका इतिहास * ४७१ संहिता १ सन्धि संहिता जिनसेनत्रिवर्णाचार सोमसेनत्रिवर्णाचार और जैनसिद्धान्तग्नन्थ श्रीगोमटसार त्रैलोक्यसार आत्मख्यातिसमयसार पश्चास्तिकायप्रवचनसार नियमसार अध्यात्मशास्त्रोंका अभ्यास अध्ययन किया और पीछेसे धवलग्रन्थ जयधवलका भी विवेचन आया देखा मनन किया तथा पदर्शन भी परिशीलनमें आया और पड़ी मात्राके ग्रन्थ भी लगाये इत्यादि तथा धम्पपद वौद्धग्रन्थ और मनोविज्ञान स्वरोदय तथा ज्ञानार्णवजी आदिका भी अभ्यास किया सप्तभंगी तरंगिणी कौटिल्पनीतिः कामन्दकीनीतिः अहंन्नीतिः नीति वाक्यामृत आदिका परिशीलन किया और जैनसिद्धान्त द्वादशाङ्गवाणी रूप है जिसके पदों की संख्यादिसे जो ग्रन्थ निर्माण किये हुएसे गाढ़ाके गाढ़ा भर जायेंगे वे पढ़नेसे सब नहीं आते किन्तु तपश्चरण द्वारा श्रुतज्ञान ऋद्धि उत्पन्न होती है तब पूर्णश्रुतके बली होते हैं । वे बारह अङ्ग और पद इस प्रकार हैं १-आचारांग अठारह हजार पद २-सूत्रकृतांङ्ग छत्तीस हजार और व्यालीस पद Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ *श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ३-स्थानाङ्ग ४२ व्यालीस हजार पद ४-समवायांग १६४००० एक लाख चोसठि हजार पद ५-व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग दो लाख अट्ठाईस हजार पद ६- ज्ञाटकथांग पांच लाख छप्पन हजार पद ७--उपासकाध्ययनाँग ग्यारह लाख सत्तरि हजार पद ८-अन्तकृत् दशांग तेईसलाख अट्ठाईस हजार पद 8-अनुत्तर दशांग छयानवे लाख चवालीस हजार पद १०-प्रश्न व्याकरणांग ६३ तिराणवे लाख सोलह हजार पद ११-सूत्र विपाक अंग एक करोड़ चौरासी लाख पद इन सबके मिलाकर चार करोड़ पन्द्रह लाख दो हजार दस पद भये और वारहवां दृष्टियाद अंगके एक सौ आठ करोड़ अर्थात् एक अरब आठ करोड़ अरसठ लाख छप्पन हजार पद भये । और जैन सिद्धान्तमें इक्यावन करोड़ आठ लाख चौरासी हजार छ सौ इक्कीश अनुष्टपश्लोक जो ३२ अक्षरोंका एक श्लोक अनुष्टुप श्लोक होता है। ___ इस प्रमाणसे एक-एक पदके इक्यावन करोड़ आठ लाख चौरासी हजार ६ सौ इकईस श्लोक एक पदके भये Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेच समाजका इतिहास * ४७३ और सब द्वादशांगवाणीके एक अरब अड़सठ लाख छप्पन हजार पद है। अब अपने ज्ञानसे पाठकगण समझे कि द्वादशांगके ग्रन्थ शास्त्रोंसे अनेक गाढा भरेंगे। इतना जैन शास्त्रांका भण्डार था, जिसमें अनेक ग्रन्थ श्री शङ्कराचार्यने समुद्र में पटककर डुवाये और अनेक ग्रन्थ औरंगजेवने जलाकर पानी तपाकर जराये। तो भी अब भी नागोर कर्णाट देश आगरादि यपी आदिमें भण्डार भरे पड़े हैं। कितना जैन साहित्य था हमलोग कितने कृतनी हुये जिनका पढ़ना भी छोड़ दिया । श्रीमान् जगदीश शास्त्रीजी कहते रहै कि श्रीमान् वामाचरण भट्टाचार्य कहते रहे कि शंकराचार्यजीने जैन ग्रन्थ डुबोकर अच्छा नहीं किया। जैनियोंके प्रश्नोंको सिद्धान्त गढ़ डाले अब अष्टसहस्री प्रमेय कमल मार्तण्डमें उनसे चार-चार ऊपर कोटिके प्रश्नोत्तर रखे हैं। यह सब भारतकी निधि थी। जैन अजैन तो मतभेद हैं पर चीज तो सबके उपकार की थी। जर्मन में इतना जैन गन्थ पहुंच गया है सूचीपत्रकी कीमत दो सौ रुपये हैं सो हमारी प्रार्थना यही है कि संस्कृतका अभ्यास करो तो घरके रत्न मालूम हो। कलाप व्याकरण Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * सब व्याकरणोंसे प्राचीन है। जिनके सूत्रको श्रीमान् पातञ्जलि महाराजने भाष्यमें लिया है। सिद्धोवर्णः समाम्नायः सू० वर्णानां आम्नायः समाम्नायः स्वयं सिद्धोवेदितव्यः वर्णों का आम्नाय स्वयंसिद्ध अनादि हैं। इन्द्रश्चन्द्रः काशिकृष्णः पिशलीशाकटायनः पाणिन्यमर जैनेन्द्र इत्यष्टौ शाब्दिकामताः। इनमें इन्द्र, चन्द्र तथा काशिकाकार और शाकटायन अमर और जैनेन्द्र ६ जैन व्याकरण इनसे पुराना कलापका करण जैन है और शाकटायन और पाणिनि मामाभानेज थेऐसी किंवदन्ती है। इससे यह सत्र भारतकी निधि है। पहिले द्वेष नहीं था। वर्तमानमें केवल ज्ञान होरा ज्योतिषशास्त्र अधुरामूड़विद्रीमें है और मद्रास जिलेमें छिन्नतम्बी शास्त्रीके पास पूरा ग्रंथ है। तथा बेङलोरमें भैषज्य जान मञ्जरी है सब कनड़ी भाषामें है। श्रीमान् लक्ष्मी धरैय्या पंडितने १ श्लोक पढ़कर सुनाया था। चौबीस तीर्थकरोंके नामका जो एक औषधिका नुकसा था। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___*श्री लॅवेच समाजका इतिहास * ..rani और रावलपिंडीमें सोहनलाल खजाचीके मकानकी गृह प्रतिष्ठा कराई। श्री पृथ्वीराज रासेमें लिखा है कि पृथ्वीराजने कनौजपर राठोपर चढ़ाई की तो पालीवालों (पल्लीवाल) का निकास कनौजसे हैं। पल्लीवाल राठोरोंमें होने चाहिये। एक राजा कर्णाट देशका कलकत्ता कौलेज में आया उसने नैय्यायिक विद्वानोंसे प्रश्न किया कि सिषाधयिषा विरह विशिष्ट सिद्धयभावः पक्षता इसका प्रतिपादन करें। इस पर उसने शंका समाधान कई प्रकारके किये समुचित उत्तरप्र नहीं हुआ तब ५१) रु० विद्वानोंको पारितोषिक में देकर चला गया, जिससे विद्वानोंका अपमान न हो इससे मैंने यह समझा कि यह नव्य न्यायका विवेचन जो न दिया शान्तनपुर और तमाम बङ्गालमें है। वह कर्णाट देश से आया। वहाँ जैनाचार्योंका दवदवा ज्यादा रहा श्री भद्रबाहु आचार्य ७०० सात सौ मुनि सहित राजाचन्द्र गुप्त मुनि सहित उधर ही रहै। एक-एक गुणके अनन्त अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदों का तथा पुद्गलकी एक Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास - परमाणु एक समय में १४ राजूलोक शिखरपर शीघ्र गति से गमन कर जाती आदिका कथन सूक्ष्म विचार और कर्म फिलासबी यह जीव अनादिसे कम्मोसे कन्धा और उनसे मुक्त होनेकी व्यवस्था कर्म जड़ चेतन दो प्रकारके यह कथन और दर्शनोंमें नहीं कर्म तो कहते मोह अहंकारादिक है पर जड़ चेतनका विवेचन नहीं और ये कर्म कहाँ रहते कैसे वन्धन होता यह विवेचन नहीं नव्यन्याय में अबच्छेदक धर्मका कथन है सूक्ष्म विचार है न्यूनातिरिक्त देशाऽवृत्तित्वं अवच्छेदकत्वं इसको अगुरु लघु गुण कहना चाहिये। यह जैन सिद्धान्तसे ही मूक्ष्म विचार की उपलब्धि है। ऐसा प्रतीत होता है। अवच्छेदका ज्वच्छिन्न विचारको लोग कह बैठते हैं। माथा खानेकी पचानेकी बात है समझ में तो आता नहीं। तब ऐसा कहना होता है और बंगालमें भी जैन धर्मका अधिक प्रचार रहा। बंगाली भाइयोंके नाम विमल बाबू कुन्थु बाबु पारस बाबू आदि चौबीस तीर्थ करोंके नामसे चले आते हैं और कर्णाट देश में राजा भोजवंशीय वल्लाल वंशीय राजा क्षत्रिय अधिक रहै। अब भी सार्वभौम आदि है। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लँबेच समाजका इतिहास - ४७७ मूडविद्रीमें सार्वभौमके हमारा निमन्त्रण किया भोजन किये जैन धर्मी है तथा जैन ब्राह्मण उपाध्याय लोगोंके पांच सौ के करीब घर है तथा नयनार क्षत्रियोंके सैकड़ों घर हैं ये सव जैन है। ___ अब लम्वेचू समाजमें संस्कृत विद्यामें सन्तान-दरसन्तान में कोई भी संस्कृत विद्या प्राप्तकर हमारी आशा पूरी करे यही प्रार्थना है। अस्त्येषाननुगाचनाद्यभवतां प्रान्तेमुणग्राहिणां देयं संस्कृतमातृवर्धनविधौ चित्तं सदा प्रेमतः यद्वचसाच कार्यकरणेनामोतिदुःखंसुधीः कोनामेह तदीयकोमलहित प्रालम्बिशिक्षांत्यजेत् और विद्यायें अपने-२ देशकी भाषाय हैं। उदर भरी हैं विद्यायें नहीं । एक अरहंतदेवसे निकली निरक्षरी दिव्यध्वनि उसका रहस्यपायगणधर ( गणपति ) देव ने संस्कृत प्राकृत रूप अक्षर रचना करी । यह देववाणी है, इसीका साहित्य इंगलिश, उर्दू अरबी आदि भाषामें गया सवकी जननी संस्कृत माता है । इत्यलं पल्लवितेन । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ऊपर लिखे अनुसार प्राकृत संस्कृतदेव वाणी है । श्री अरहंतदेव की निरक्षरी वाणीको सुनकर गणधरदेव ( गणपति ) अक्षररूप प्राकृत संस्कृतरूप रचना करी । द्वादशांग रूपवाणी यह देव वाणी है, यह विद्या है, शास्त्र विद्या (श्रुतज्ञान ) है, ( आत्माका ज्ञान ) धर्म है । इसके पढ़े बिना आत्मज्ञान नहीं और विद्यायें इङ्गलिश, उर्दू, फारसी, अर्धी सब भाषायें हैं । उदर भरने की भाषा है, विद्या संस्कृत प्राकृत्त ही है, उसे पढ़ना मुख्य कर्तव्य है इसको पढ़े बिना धर्मको नहीं जान सकता । इसीसे संस्कृत पढ़नेकी प्रार्थना की है। हमारी प्रार्थना स्वीकार कर हमें कृतार्थ करेंगे, पाठकगणोसे ऐसी आशा है । श्री स्वस्तिभद्रञ्चास्तु Y. Page #481 --------------------------------------------------------------------------  Page #482 --------------------------------------------------------------------------  Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर पुस्तकालय काल नं.-20) लेखक जैन झम्मनलाल +-- शीर्षककी लक्यूरि जनमभाज शीर्षककली ल हसा खण्ड क्रम संख्या