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________________ १८८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * एमेव कइत्तण-गुण-विसेसु परिगलइ णिच मह णिरबसेसु । केणुप्पाएं अजियइ धम्म किजइ उवाउ इह भुवणे रम्भु । पाइयइ धम्म-माणिक जेण सहसा संपइ सुद्धे मणेण । धम्मेण रहिउ नर-जम्मु वंझु इय चिताउलु कइ-चित्तु रंश । किं कुणमि एत्थ पयडमि उवाउ ___ जे लन्भइ पुण्ण-पहाव-राउ । मणे झाड झाणु सुह-वेल्लि-कंदु तहिदल-णिसाए णिद्दलिवि दंदु। जिसके छहों दर्शन चित्त की आशा के विश्राम के स्थान थे अर्थात् षटदर्शन ज्ञाता थी। चारों सागरों के अन्त तक उनका नाम विख्यात है। वे आहवमल्ल राजा के चरणों की भक्ति में लवलीन थीं । उन्होंने समस्त विज्ञान सूत्रों का अध्ययन किया था। वे अपने पुत्रों के लिये चिन्तामणि के समान और अपने धवलगृहरूपी सरोवर में हंसिनीके समान थी। वे इन्द्रियसुख के कार्य (कामकला) को भी अच्छी तरह जानती थी। रूप में उन्होंने इन्द्राणी को भी
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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