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________________ બ્રે * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * प्रबल प्रमाण है कि अन्य समस्त जैन जातियों में लंबेच जातिके समान विवाह शादी आदि मंगल कार्यों में समय समय पर नियमित कायदे से पायेवन्दी से जुहारू करनेकी मुख्य रूप से प्रथा नहीं है। हाँ लंबेचू जातिके समीपवासी खरौआ तथा गोलालारे आदि जातियों में भी कुछ कुछ प्रथा है जिस जुहारू शब्द को युद्धकारु का अपभ्रंश बताते हैं अथवा राग द्वेष मोहर्त्ता परस्पर विनयवाची शब्द कहते हैं जिसको श्री भद्रबाहु संहितामें ऐसा लिखा है: “श्राद्धाः परस्परं कुर्युर्जु हारुरिति संश्रयम्” इसका अर्थ यह होता है कि जैन धर्म की श्रद्धा रखने वाले सहधर्मी भाई परस्पर जुहारू ऐसा कहकर परस्पर विनय करें और जैन धर्म क्षत्रिय धर्म है अर्थात् जिन्होंने अपनी आत्माको अजर अमर समझा है जो धर्मरक्षा के लिये आत्मोत्सर्ग करनेके लिये तत्पर हैं वेही क्षत्रिय हैं उन्हीं निर्भीक सप्तभयरहित शुद्ध सम्यग्दृष्टियों का धर्म है । यद्यपि जैनधर्म प्राणी मात्रका धर्म है परन्तु पूर्णरूपसे जो पालन करेगा वहीतो उस धर्मका पात्र समझा जावेगा । क्षतात् त्रायत
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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