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* श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २२३ इस अन्वय की गुरु परम्परा इस प्रकार दी है
भट्टा० पद्मनन्दि " शुभचन्द्र " जिनचन्द्र मुनि मंडलाचार्य रत्नकीर्ति मुनि मं० हेमचन्द्रदेव मु० मं० भुवनकीर्तिदेव
मुनि पुण्यकीर्ति (सं० १५६५) हेमचन्द्रदेव और भुवनकीतिदेव दोनों रत्नकीर्तिजी के दशरदे। तत्पुत्र ठाकुर। त्रितीय पुत्र दान भार्या दाडिमदे पुत्र नानिग । चतुर्थ पुत्र दूलह भार्या दूलहदे पुत्र करमसी । पंचमपुत्र मेघराज भार्या मेघश्री सा- तीकर द्वितीय भार्या लाछि तत्पुत्र हेमराज । इदं सास्त्रं अणुव्रत रत्नप्रदीपकं लिषावितं कर्म क्षय-निमित्तमिति ।
ज्ञानवान ज्ञानदानेन निभयोऽभयदानतः । अन्नदानात्सुषी नित्यं निर्व्याधी भेषजाद् भवेत् ।। तैलात् रक्ष्यं जलात रक्ष्यं रक्ष्यं सिठ्ठल-बंधनात् ।
मूर्षे हस्ते न दातव्यं एवं वदति पुस्तकं ।। मुनि पुणकीर्तिकस्य दातव्यं पट्ठनाथं लेपक पाठकयोः शुभं भवतु ॥छ।।
(यह प्रशस्ति यहाँ भूल से विना किसी संशोधन के दी गई है। विद्वान् पाठक सहज ही भावार्थ और त्रुटियों को समझ सकते हैं।