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________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * ४३१ ऊपर तीन हिंसा और भी उद्यमी विरोधी हिंसा में उसका हिंसा करनेका परिणाम नहीं रहता किन्तु लाचारी करने पड़ता है और झूठ भी नहीं बोलता। झूठ बोलनेसे मनुष्यकी प्रतीति विश्वास उठ जाता है। लोकमें निन्दा होती है, व्यवहार बिगड़ जाता है और दूसरेको कष्ट होता है तो हिंसा तो है ही, और चोरी भी नहीं करता । चोरी महापाप है, मनुष्यके १० प्राण हैं ५ इन्द्रिय, प्राण ३ । बलप्राण, मनोबल, वचनबल, कायबल और श्वासोच्छास तथा आयु ये दश प्राण हैं, परन्तु संसारमें धन ग्यारहवां प्राण है क्योंकि धन की रक्षा करनेको तिजोरीके पास सोता है और समझता है कि मुझे मार जावै तो भलेही धन ले जाय वैसे नहीं ले जा सकता, तो वह अज्ञानी दश प्राणोंसे भी धनको प्यारा समझता है। इसलिए इसे ग्यारहवां प्राण समझना चाहिये। उसकी जो चोरी करता है वह बड़ा पापी होता है। साधु तो पैसा राखे तो दो कौड़ीका और गृहस्थके पास पैसा न होवे तो दो कोड़ीका क्योंकि सारे कुटुम्बका अपना पालन पोषण पैसासे होता है। इससे चोरी करवेवाला सब कुटुम्बको दुःखी
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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