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________________ * श्री लँबेच समाजका इतिहास * २०६ पोसिय. धम्मासिय- विवुह- वग्ग णाणिय- णिरुवम- णिवणीइ-मग्ग। जस - पसर - भरिय. बंभंड- खंड मिच्छत्त - महीहर - कुलिस- दंड । तज्जिय - माया - मय - माण डंभ महमइ. करेणु - आलाण - थंभ। समयाणुवेइ गुरुयण - विणीय दुत्थिय - णर - गिब्वाणावणीय । पत्ता-तुहूं कइ-यण-मण-रंजणु, ___ पाव-विहंजणु, गुण-गण-मणि रयाणायरु। उछाहट्टि अबट्टिउ सुपयो मट्ठिउ (?) णिहिल.कला- मल - णयरु ॥१०॥ बांधने के स्तम्भ, समयवेदी, गुरुजन-विनीत, और दुःखित नरों को कल्पवृक्ष, तुम कविजनों के मनोरंजन, पाप-विभंजन, गुण-गण रूपी मणियों के रत्नाकर...............और समस्त कलाओं के निर्मल नगर हो ॥१०॥ तुम धन्य हो जिनका ऐसा चित्त हुआ जो तीन पदार्थों ( धर्म, अर्थ, काम ) के रस से उज्ज्वल और पवित्र मति है, शयन, आसन, स्तंबेरम (हाथी), घोड़े,ध्वजा छत्र, चमर श्रेष्ठ
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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