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________________ * श्री लॅबेच समाजका इतिहास * १२७ 1 हैं । इटावा, करहल, भिंड, अटेमो, आगरा, कानपुर आदि लम्बेचू जाति के कथन में लमेचुहान बोलते थे और बोलते हैं । जैसे लम्बेचुहान में मान अधिक है मानी होते हैं और लमेचू हमको खबर हैं कि कुंअरपाल साइरदार हमारे भिंड में बड़ी आसानी थी। साइरका ठेका ( कष्टमका) ठेका तीन-तीन लाख का तीन वर्ष का होता था। तो कुअर पाल लाते थे । खरउआ जैन थे तो वे या उनके साले छेदीलाल कहते थे कि लम्बेचूहान में पंडित ज्यादा हैं। उस समय में पंडित भादोलाल पं० गुलजारी लाल पं० धर्मसहाय पं० रामपतिलाल (वी. आर. सी. जैन के पिता ) लमेचुओं में पंडित अधिक थे । करहल में संस्कृत में ही शास्त्र पढ़ा जाता था, तो लमेचुहान का चोहान ऐसा अपभ्रंश शब्द है; क्योंकि संस्कृत व्याकरण में लिखा है क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिद प्रवृत्तिः क्वचिद्दिभाषा क्वचिदन्यदेव | विधेर्विधानं वहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ॥ व्याकरण शास्त्र में प्रकृति प्रत्यय प्रत्ययान्त की कहीं
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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