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________________ ११६ * श्री लॅवेचू समाजका इतिहास * ( देवकृत अतिशय ) तो सचेतन प्राणी सानन्द मन क्यों न हों, हो यही होवै। . इन्द्र सुमेरु पर स्नान कराकर भगवान् को अलंकृत करता है। वर्णोज्वलं रसोपेतं सत्कान्यमिव सत्पदं। अलंकारान्वितं शक्रः शरीरं कृतवान् प्रभोः । जैसे कवि सत्काब्य को सुन्दर वर्ण और श्रृंगारादि रस तथा श्रेष्ठ पदों से सुशोभित बनाता है। वैसे ही इन्द्र ने भगवान् को सुन्दर दिव्य वस्त्रादि. आभरणादि से सुसज्जित किया। फिर जब देवने सर्पका रूप धारण कर उपसर्ग किया, भगवान् ने उपसर्ग जीत लिया। तब देव कहता है : क्षमस्वत जगन्नाथ यन्मयाऽनुचितं कृतं विधुन्तुदाय शीतांशु स्तुदतेपि न कुप्यति ॥ हे भगवान्, हे जगन्नाथ, जो मैंने आपके ऊपर उपसर्ग कर गले में सर्प डाला, इत्यादि। अनुचित किया, वह मेरे पर क्षमा करो क्या राहु से सताया गया, दवाया गया, चन्द्र क्या दवनेपर भी क्रोध करता है ? नहीं।
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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