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________________ २१२ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * उम्मूलिय-मिच्छत्तावणीउ जिण चरणच्चण-विरयण विणीउ । दसण - मणि - भूसण - भूसियंगु तज्जिय - पर -सीमंतिणि - पसंगु। पवयण - विहाणा. पयडण - समोसु णिरुवम-गुण-गण-माणिक्क कोसु । सपयडि - परपयडि - सया -अणिंदु थण- दाण-धविय. वंदियण - विदु । संसाराडइ - परिभ्रमण - भोरु जिण - कयामय - पोसिय सरीरु । देव - पाय - पुंडरिय - भत्तु विणयालंकिय - वय - सील-जुत्त। णिरुवम गुण जिन-चरणों की पूजन करने में विनीत, सम्यग्दर्शन-रूपी मणियों के भूषणों से भूषितांग, परस्री,-प्रसंग के त्यागी, प्रवचन (शास्त्रोपदेश) विधान के प्रकाशनार्थ समवशरण, निरुपम गुणरूपी माणक्यिों के कोश, स्वप्रकृति और परप्रकृति में अनिंद्य । अपने स्वभाव और पर स्वभाव की निन्दा नहीं करते। संसार-रूपी अटवी के परिभ्रमण से भयभीत, जैन काव्यों
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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