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२४८ * श्री लँबेचू सामाजक इहिस
शूरनि सन्मुख के भये भयो चोगुनो चाउ । चढ्यो सेन पृथ्वीराज सजि, जहाँ बालका राव || दोनों दल सूधे भये दुहु दल वाजत तूर । स्वामि धर्म पृथ्वीराजके सबै सम्हारे शूर ॥
भुजंगप्रयात छन्द
तो सम्हारे सवे शुरसामन्त रूपं, जवे उच्चरे राजदिल्ली सरूपं । सभा मध्य आछे सदा हेमराजं वरम्हं सरस सम्स समाजं ॥ समें वीर वाजंत वाजंत्र वाजं, ठरीकी धरा रोश सहसम्हारं । अलड पलट्ट छुरीजंभहालं, मनोकाठ कव्वार कुटंतिशालं || मनो बूंद भादो नदीनीर जैस, भभंकंति नन्तं अनन्तं शुशेषं । चरो एक थोरी थनीचूर चंदौ, रसंवीर नारदु नाचोननन्दी || इसो जुद्ध होतं सुद्यो जाम वीत्यो, अझैपाल जीत्यो ||
कवित्त संचईन को छप्पय
राजमंत्र ररकार रारि राजनि शिरमण्डे । अति अनाग उनमानि अररि अरि डाड़ीय डंडे । आइसु जस उच्चरे अकलि अवनीश उखारै । छिति छिनाइ छत्रीन छिनक छोरी कर डारे, सई सपूत सगुनह चह कहि दयाल उधरहिं भुअ लछिमी नरेन्द्र गजतुर रुइ गढ़ भंजन भुज भोग सुअ ||३१||