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________________ २०४ * श्री लंबेचू समाजका इतिहास * सो कण्हु मयण-मुद्दावयारु अहिणाणिय- भव- भायण-वियारु । जिण्ण- धम्म- रम्म-धुर-दिण्ण-खंधु पायडिय- पणय - भन्वयण - बंधु । अणु- गुण - सिक्खावय - रयण-कोसु उवसंतासउ परिहरिय - रोसु। दुबसण - विसय - वासण - विरत्तू णिव - मंति - विणिज्झाइय - परत्तु । मही-मण्डल में विख्यात थे, आहवमल्ल नरेन्द्र द्वारा, मन में आनंद सहित, मन्त्रिपद पर प्रतिष्ठित किये गये ।। ८॥ ___ उनको प्रिय सुलक्षणा, बड़ी लक्षणवती थीं, गुरुओं के चरणों की भक्ति करने में कुशल थीं, अपने पति के पादारविंद की अनुगामिनी और घर गृहस्थी के कार्य में पूरा मन लगानेवाली, सदाचारिणी, चारित्ररूपी वस्त्रधारण करनेवाली और चैत्यों ( मूर्तियों ) के गन्धोदक से पवित्र थीं। वे अपने राजमहलरूपी सरोवर की हंसिनी थी, कृपा और दान द्वारा बंदोजनों को संतुष्ट करती थीं। वे प्रसन्न, मधुरभाषिणी, अचंचलचित्त,...... ...... खलों के मुखरूपी कमलों के लिये पूर्ण चांदनी थीं। नगर-सेठ महासाहू सोढ की पुत्रवधू ऐसी थीं। वे दयारूपी बेल के लिये
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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