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________________ प्रारम्भ परिशिष्ट १ अणुत्रय- रयण- पईव णतूण जिणे सिद्धे आयरिए पाढए य पव्त्रइदे । अणुत्रय - रयण- पईवं सत्थं कुच्छे णिसामेह || X X X इह जउणा - णइ - उत्तर - तडत्थ मह णयरि रायवडिअ पसत्थ । धण-कण कंचण-वण सरि समिद्ध रिद्धिरिद्ध | दाणुण्णयकर - जण किम्मोर कम्म णिम्मिय रवण्ण अरहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार करके अणुव्रत- रत्न- प्रदीप शास्त्र की व्याख्या करता हूँ, सुनो। X X X X यहाँ जमुना नदी के उत्तर तट पर स्थित एक 'रायवड्डी' नाम की प्रशस्त महानगरी है। वह धन, कन, कांचन, वन, सरित् से समृद्ध है, दान में ऊँचा हाथ करनेवाले जनों की ऋद्धि से सम्पन्न है, उच्च कामों से रची हुई, रमणीक, अट्टालिकाओं और तोरणों १२
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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