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________________ २८८ * श्री लॅवेचू समाजका इतिहास * कंठ जाका हे महाभागमें कहती हूँ सो तूं सुन महत्पुरुषक सामने दुःख निवेदन करनेसे दुःख निवृति हो। बड़े पुरुषोंके वचन मुननेसे ही दुख दूर होय है। एक राजगृह नगर वहाँका राजा जरासिंध वह पृथ्वीपर प्रसिद्ध समुद्र पर्यन्त उसका राज्य है और महा सत्यवादी है और उसकी प्रतापरूपी अग्नि प्रज्वलित उससे बैर करि समर्थकोंन और उसने यादवापर कृपा करनेमें कमी नहीं करी। परन्तु ये अपराधी भये सोये अपने अपराधकं भयसे कौन दिशामें चलं जांय । कोई भी शरण नहीं मिला तब अपना मरण ही जान अग्नि में प्रवेश कर भस्म भये । मैं उनकी दासी सो उनकी दुर्बुद्धिसे दुखी हो रोती हूँ। मैं इतनी बड़ी भई उनके साथ जल न सकी। अबतक जीनेकी आशा है प्राण न छोड़े जांय यादव सब ही प्रजासहित अग्निमें जलेमें दुखिनी स्वामीक वियोगसे दुखी हूँ ये वचन उस वृद्धा स्त्री के सुन जरासिंध आश्चर्य को प्राप्त भया । यादवोंका मरण जान पीछा लौट और सब यादवोंने यह दैवी घटना सुन यादव पश्चिम समुद्र के वनसे आये यादवोंने (यादवनृपोंने) समुद्र के तटपर डेरा किये एक दिन समुद्रके किनारे समुद्र
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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