SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * माताका रज और पिताका वीर्य ये दोनों मूत्र स्थान द्वारा निकलते हैं और माताके मूत्र स्थानके पास कमलके नमाफिक alonfer गर्भस्थली है। उसमें जाकर रजवीय योग्य निर्दोष जैसे रजवीर्य होते वैसा ही उत्तम, मध्यम, जघन्य स्वभावका जीव उसको ग्रहण कर पैदा होता है, गर्भ रहता है । इसमें उत्तम संस्कार मन, वचन, कायके माता पिताके होनेसे बालक उत्तम होता है । यह संसार की अनादि प्रवृत्ति है। यह वस्तुगति है, इसमें मखोल । हंसीका काम नहीं और उत्तम वस्तु चाहते हैं इससे हर्षका काम है । इसीलिये सोलह संस्कारों की आवश्यकता ( जरूरी ) है ! इसके बाद प्रीति और सुप्रीति क्रिया कही । इसको स्त्रियाँ कुछ न कुछ रूपमें करती होंगी। हमने निगाह नही की । ४ थी क्रिया ( पुंसवन ) है । यह लमेचुओं में ही होता हो है और लोगों में होता हो तो वे जानें, हमें नहीं मालूम, हमलोगों के होता है। इसे स्त्रियाँ (अनगनो) कहती हैं । इसमें भी स्त्रियाँ चौकपूर के गर्भिणीको बैठाकर गीत आदि गाती हैं और पांचवां संस्करण सीमन्तक कर्म
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy