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* श्री लंबेचू समाजका इतिहास * ४६५ उज्ज्वल वस्त्र ढाँकि करि ऊँची लेजिन सम्मुख धारे। त्रिविध थापना थापिके महा मन्त्रको उच्चारे ॥ अष्टक पढ़ि पढ़ि द्रभ्य सुधारे जुदी जुदी ले विस्तारे । अर्घ उतारे कि अघ भय भव भवके टारे॥ यह विधि अर्चन करें महाविध काम चित्तसे निर्झरनी।
कोटि० ॥३॥ अब वर नो जयमाल महा शुभ ललित वचन मुखसे बांचे । अक्षर मात्रा पढ़े सब स्पष्ट गुणोंगणमें राचे ॥ रतन कटोरा लिये दरवसे पुलकित तन आनन्द राचे । भव भव माहीं मिलो प्रभु यही भक्ति फलको याचे ॥ इन्द्र समान लहै जिय महिमा मुखसे नहिं कहते वरनी।
कोटि०॥४॥