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________________ १८० जहिं चरड चाड कुसुमाल भेड * श्री लँबेचू समाजका इतिहास # ण वियंभहि कहि मि न धणविहीण पेम्माणरत परिगलिय तंबोल दुखण सखुद्द खल पिसुण एड । - दविणड्ढ णिहिल पर धम्मलीण । गव्व जहिं बसहिं विक्खण मणुव सन्च । वावार सव्व जहिं सहहिं णिच्च - कणयंत्रर भूसिय रंग रंगिय धरग्ग तहिं णरवर आहवमछ - जहिं रेहहिं सारुण सयल मग्ग । एउ राय - भिच्च । - दारिद सेउ । समुद्दत्तरण रहे हैं। जहाँ लावण्यपूर्ण, धन-लोलचित्त द्रविणांगनाएँ ( वारांगनाएँ ) बाहिरी प्रेम में लिप्त है। जहाँ लम्पट, कपटी, चोर, भीरु, दुर्जन, क्षुद्र, खल, पिशुन, भांड कहीं दिखाई नहीं देते, न कोई धन-विहीन है, सब लोग धनी और धर्म में लीन हैं । जहाँ सब मनुष्य प्रेम में अनुरक्त, गर्वरहित और विचक्षण बसते हैं । जहाँ राजा के नौकर नित्य सोने के जरीदार कपड़ों से भूषित सब कारबार करते हैं । जहाँ धराम्र ताम्बूल रंग से रंगे होनेके कारण
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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