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________________ * भो लंबेचू समाजका इतिहास * १८१ पत्ता-उब्वासिय - पर मंडल दंसिय ___ मंडलु कास-कुसुम-संकास जसु । छल-कुल-बल सामत्थे णीइ-गयत्थे । कवणु राउ उवमियइ तसु ॥२॥ णिय-कुल कइरव -वण - सिय-पयंगु गुण · रयणाहरण विहूसियंगु । अवराह - वलाहय - पलय - पवणु मह -माग-गण - पडिदिण्ण-तवणु । दुल्लसण - सोस - णासण - पवीणु किउ अखलिय-सजस मयंकु सीणु । पंचंग-मंत - वियरण - पवीण सब मार्ग लाल वर्ण के शोभायमान हो रहे हैं। वहां के राजा आहवमल्लदेव हैं जो दारिद्रयरूपी समुद्र से तारने के लिये सेतुसमान है, जो शत्रु-मण्डल को बीरान करनेवाले और अपने मण्डल को प्रकट करनेवाले हैं, जिनका यश काश के फूल सदृश धवल है । छल, कुल, बल और सामर्थ्य में, नीति और नय के अर्थ में कौन राजा से उसकी उपमा हो सकती है ? अपने कुलरूपी कुमुदिनी बन के लिये चन्द्रमाके समान हैं, गुणरूपी रत्नों के आभरणों से उनका
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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