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________________ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * ४२५ गृहस्थ धर्मका उपदेश जैनधर्म सार्वधर्म है, सार्व माने सब प्राणियोंका हितकर हो । जैनधर्म प्राणीमात्र का धर्म है। गृहस्थधर्ममें इतनी बातें पालनी चाहिये। मधुमद्यपलनिशासन पश्चफली विरतिपञ्चकाप्त नुतिः जीवदया जलगालन कचिदप्यष्टगुणा । ___ मधु सहत जो मधुमक्खिषयोंके बच्चोंको दवाकर घात कर निकाला जाता है, हिंसाको घर है । उसे छोड़े न खाय इससे बुद्धि बिगड़ जाती है और मधदारू ( सुरा) पान न कर इसको महुआ या दाख सड़ाकर जिसमें बड़े २ लट सूड़ा पेदा हो जाते हैं फिर दोलायत्रमें चढ़ाकर बनाई जाती है। महाहिंसाका घर है और इसको पीकर मनुष्य बेहोश हो जाता है। धर्म अधर्मका विचार नहीं रहता, मा-बहिनका विचार नहीं रहता और तो क्या वे होश होने पर कुत्ते मुखपर मृत जाते हैं। महानिंद्य है, इसको ( छोड़े मांस ) बिना प्राणीघातके मांस नहीं बनता । मांस खानेवाला महाहिंसक है
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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