SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ *श्री लॅबेच समाजका इतिहास - नाहं रामो न मेवांछा विषयेषु च न मेमनः । शान्तिमासितुमिच्छामि स्वात्मन्येवजिनोयथा ॥१॥ रामचन्द्रजी कहते हैं कि मैं राम नहीं हूँ ; क्योंकि रमन्ते योगिनोयस्मिन् सरामः जिसमें योगी लोग रमण करें, उसे राम कहते हैं। राम परमात्म पद वाचक है। मैं ग्रहस्थाश्रममें सीता सहित बैठा हूँ, तो क्या विषयोंमें मन है सो भी नहीं। मैं जिन भगवानके समान शान्ति चाहता हूँ। जैसे श्री जिन भगवान् अपनी आत्मामें लीन हो गये वीत. राग होना चाहता हूँ। तो बशिष्ठ महाराजके भी जिन धर्म प्रिय था। यदि जिन धर्म प्रिय न होता, तो ऐसे वाक्य क्यों लिखते । दूसरे ब्राह्मण विद्वानोंने जैन ऋषियों के नामानुकरणसे अपने ग्रन्थों में भी उन्हींके नामोंका अनुकरण किया हो। जैसे जैन पद्म-पुराणादिमें और वैष्णव पुराणोंमें भी हनुमान रामचन्द्रादिका कथन है ऐसी इसमें भी बात हो सकती है।
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy