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१६८ * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * अरिराय - गाइ . गोवाल - रज
बल्लालएव - णरवई समज । सब्बहं सव्वेसरु रयण - साहु
वावरई णिरग्णल चित्त - गाहु । सिवदेउ तामु हुउ पटमु मूणु
सिरि दाण- (वंतु) णं गंध-थणु । परियाणइ णिहिल कला-कलाउ
विण्णाण - विसेसुजल - सहाउ । मह-पंडा पंडिउ वि (उ) - सियासु
अवगमिय-णिहिल-विजा-विलासु ।
का निधान शास्त्र वचनामृत के वेदों में प्रधान, गृहस्थ-धर्मवाले मनुष्यों के सम्बोधनार्थ यह परम शास्त्र रचा। इस प्रकार महापुण्य भाव का जो लाभ हुआ उसकी कौन बुद्धिमान अवगणना करेगा?
इसी महीतल पर वह पुण्यवान् धन्य है जिसके नाम से मैं इसे सुप्रसिद्ध करता हूँ और शुभमति कवि लक्ष्मण द्वारा सोचे हुए इस काव्य-रत्न को निबाहता हूँ।
यहां जमना के तट पर स्थित 'चंदवाड' है, जहां उत्तम प्रकार की विविध वस्तुएँ दिखाई देती हैं। वह चौहट्टो, हाटों और घरों