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* श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २०५ केण वि पच्छाएं सो जि कण्ड
जिण - मंदिरम्मि ठिउ चत्त-तण्हु । सो लत्तउ कविणा लक्खणेण
जिण-समय-वियार- वियक्खणेण । तं कहिउ णिहिलु जं रयणि दिठ्ठ
सुविणंतरि अंबाएवि सिद्ध । तं सुणेवि कण्हु रोमंच-कंचु
संजाउ दुत्ति - पय - हिय- पवंचु । मेष की जलवृष्टि के समान थीं और सतीत्व में शुद्ध सीता की अवतार थीं। जैसे चन्द्रचूड (शिव) की अनुगामिनी भवानी हैं, जैसे सर्वज्ञ की सर्वाङ्ग (द्वादशांग) वाणी, जैसे गोत्रभिद् (इन्द्र) की स्त्री रम्भा, दानवारि (विष्णु) की कामना पूर्ण करनेवालो रमा, जैसे औषधोश (चन्द्र ) की रोहिणी नामधारिणी, पुण्यवान् की महद्धि, कामदेव की रति, सूरि की मोक्षाकाक्षिणी वुद्धि. जैसे कृशानु (अग्नि को शाखा (ज्वाला), जैसे कोशलेश (राम) को जानकी और धुनोन (समुद) की उज्ज्वल मंदाकिनी,.......जैसे दानी को शुद्रकीर्ति और आसन्न-भव्य की सम्यक्त्त्ववृत्ति, उसी प्रकार उनको कुलक्रम को रक्षा करनेवाली, लोक-पूज्य सुरक्षणा अनुगामिनी थी। उसके नयनों को आनन्द देनेवाले हितकारी, दो पुत्र उत्पन्न हुए-हरिदेव और द्विजराज ।। ६ ।।