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* श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २११ इह दीसहिं बहु बुहयण संपण्ण
दीसहिं न सुकइ जिण-समय-णण्ण । सुणु कहमि वियवखण अइविचित्त
अइविसमु पुणुब्भव- भमण-वित्त ।। ___x x x x x अन्तिम प्रशस्ति सिरि लंबकंचु - कुल - कुमुय · चंदु
____करुणावल्ली - वण - धवण - कंदु । जस-पसर पऊरिय - वोम - खंड
अहियद्दि- विमद्दण -कुलिस दंड। अबराह - बलाहय - पलय पवणु
भव्य यण-वयण-सिरि-सयण तवणु ।
दिखाई नहीं देता। हे विचक्षण, सुनो, में तुमसे पुनर्भव में भ्रमण करने का अति विचित्र और अति विगम सुलभ वृत्तान्त कहता हूँ।"
श्रोलंबकंचुक-कुल-रूपी कुमुद के चन्द्र, कमणारूपी वल्ली के वन का पोषण करने वाले कंद, यस के प्रसार से आकाशखंड को प्रपूरित करनेवाले, शत्रुरूपी पर्वत के विमर्दन के लिये वज्रदण्ड, अपराध रूपी मेघों के लिये प्रलय-पवन, भव्यजनों के मुख-रूपी कमलों के लिये सूर्य, मिथ्यात्वरूपी बृक्ष को उन्मूलित करने वाले,