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* श्री लँबेचू समाजका इतिहास *
तेरह सय तेरह उत्तराल
परिगलिय विकमाइच्च काल । संवेयरइह सव्वहं समक्ख
कत्तिय - मासम्मि असेय - पकखे । सत्तमि दिणे गुरुवारे समोए
अट्ठमि रिकख साहिज्ज-जोए । नव मास रयत पायडत्यू
सम्मत्तर कमे कमे पहु सत्थु । घत्ता--तित्थंकर बयणुब्भव, विहुणिय
दुब्भव जण-वल्लह परमेसरि । कन्य-करण मइ पावण, मुह दरिदावण, महु उवणउ वाएसरि ॥२॥
सौ तेरह वर्ष बीत जाने पर संवेग (बिषय सुख-विरक्ति) में रत त्यागियों के सम्मुख, कार्तिक मास कृष्णपक्ष की सप्तमी के दिन गुरुवारको प्रातःकाल अष्टम नक्षत्र पुष्य व साहिजयोग साध्य योग में नव मास तक क्रम क्रम की रचना के पश्चात् प्रकटाथे यह शास्त्र मैंने समाप्त किया।
तीर्थंकर के वचनों से समद्भूत, दुर्भव को दूर करनेवाली, मन-बल्लभापरमेश्वरी, काव्य करने में मति को पवित्र करनेवाली, सुख और कल्याण की दात्री वागेश्वरी मुझे प्राप्त हो ।